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२९. श्रमण भगवान महावीर के नौ गण- (एक समान सामाचारी का पालन करने वाले और एक-समान वाचना करने वाले साधुओं के समुदाय) थे, जैसे- (१) गोदासगण, (२) उत्तरबलिस्सहगण, (३) उद्देहगण, (४) चारणगण, (५) ऊर्ध्ववातिकगण, (६) विश्ववादिकगण, (७) कामर्धिकगण, (८) मानवगण, (९) कोटिकगण ।
29. Shraman Bhagavan Mahavir had nine Ganas (group of ascetics following the same praxis and style of recitation)-(1) Godas gana, ( 2 ) Uttar-balissaha gana, (3) Uddeha gana, (4) Chaaran (5) Urdhvavatik gana, (6) Vishvavadik gana, (7) Kamardhik gana, (8) Manav gana, and (9) Kotik gana.
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विवेचन - आर्य भद्रबाहु के ( वीर निर्वाण १७० के आसपास) समय से लेकर आर्य सुप्रतिबद्ध
( वीर निर्वाण ३३९ तक) के काल में इन गणों की उत्पत्ति हुई है । जैसे गोदासगण की उत्पत्ति आर्य
Elaboration These Ganas were founded between the periods of Arya
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卐 reason his gana was called Kotik gana.
卐 भिक्षाशुद्धि - पद BHIKSHASHUDDHI PAD
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भद्रबाहु के शिष्यों से हुई तथा आर्य सुस्थित ने सूर्य मंत्र का कोटि जप किया जिस कारण उनका गण 5 5 कोटिकगण कहलाया ।
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For example Godas gana was founded by disciples of Arya Bhadrabahu.
gana,
Arya Susthit chanted Surya Mantra ten million (koti) times and for this
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5 Bhadrabahu (around 170 ANM) and Arya Supratibaddha (339 ANM). 5
(SEGMENT OF RIGHTEOUS ALMS-SEEKING)
३०. समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं णिग्गंथाणं णवकोडिपरिसुद्धे भिक्खे पण्णत्ते,
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5 तं जहा - ण हणइ, ण हणावइ, हणंतं णाणुजाणइ, ण पयइ, ण पयावेति, पयंतं णाणुजाणति,
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किणति, णकिणावेति, किणंतं णाणुजाणति ।
३०. श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नौ कोटि (नौ प्रकार) की परिशुद्ध भिक्षा
卐 का निरूपण किया है, जैसे - ( 9 ) आहार के लिए स्वयं सचित्त वस्तु का घात नहीं करता है । (२) दूसरों
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5 से सचित्त वस्तु का घात नहीं कराता है। (३) सचित्त वस्तु के घात की अनुमोदन नहीं करता है।
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(४) स्वयं आहार नहीं पकाता है। (५) दूसरों से नहीं पकवाता है। (६) पकाने वालों की अनुमोदना नहीं
करता है। (७) आहार को स्वयं नहीं खरीदता है। (८) दूसरों से नहीं खरीदवाता है। (९) मोल लेने वाले
5 की अनुमोदना नहीं करता है।
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30. Shraman Bhagavan Mahavir has prescribed nine kinds of
bhikshashuddhi (pure
Nirgranths (Jain ascetics) (1) He does not destroy living organisms
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卐 स्थानांगसूत्र (२)
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himself for food. (2) He does not cause others to destroy living organisms
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or righteous alms-seeking) for Shraman
(430)
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Sthaananga Sutra (2) 卐
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