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________________ फफफफफफफफफफफफफ 卐 5 ததததததததததததததததமிமிமிமிமிமிதிமிதிததமிமிமிதததி संस्थान - पद SANSTHAN PAD (SEGMENT OF BODY STRUCTURE) ३१. छव्विहे संटाणे पण्णत्ते, तं जहा - समचउरंसे, णग्गोहपरिमंडले, साई, खुज्जे, वामणे, हुंडे । 卐 ३१. संस्थान छह प्रकार का होता है - ( १ ) समचतुरस्र - संस्थान, (२) न्यग्रोधपरिमंडल - संस्थान, 5 (३) सादि संस्थान, (४) कुब्ज - संस्थान, (५) वामन - संस्थान, (६) हुण्डक - संस्थान । 卐 (२) ऋषभ नाराच संहनन - जिस शरीर की हड्डियों का गठन तो उक्त प्रकार का हो, परन्तु बीच में है । (३) नाराच संहनन - जिस शरीर की हड्डियाँ दोनों ओर से केवल मर्कट बँध युक्त हों। इस संहनन बारहवें देवलोक तक जा सकता है। (४) अर्द्ध नाराच संहनन - जिस शरीर का हड्डियाँ एक वाला ओर 5 31. Samsthan (body structure ) is of six kinds – ( 1 ) Samchaturasra samsthan, (2) Nyagrodh-parimandal samsthan, ( 3 ) Sadi samsthan, 卐 (4) Kubj samsthan, (5) Vaaman samsthan and (6) Hundak samsthan. विवेचन - (१) वज्र ऋषभ नाराच संहनन - संहनन का अर्थ है - शरीर में हड्डियों का विशेष प्रकार का 卐 गठन | यह केवल औदारिक शरीर में ही होता है। वज्र अर्थात् कीलिका, जो शरीर की प्रत्येक संधि को जोड़ती है। ऋषभ का अर्थ है - परिवेष्टन - पट्ट और नाराच का अर्थ है दोनों ओर का मर्कट बंध । अर्थात् 5 वज्र के समान हड्डी की कील से बँधा सुदृढ़ हड्डियों वाला शारीरिक गठन-वज्र ऋषभ नाराच संहनन है। हड्डी की मजबूती ही शक्ति का आधार है । सशक्त शरीर वाला साधक ही कर्मों को विशेष रूप में फ तोड़ने में समर्थ होता । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चरमशरीरी एवं युगलिया वज्र ऋषभ नाराचन संहनन वाले होते हैं। इसी प्रकार अशुभ कर्म करने पर पहली, दूसरी नरक तक छहों संहनन वाले, तीसरी में प्रथम पाँच वाले, चौथी में चार संहनन वाले, पाँचवीं में तीन, छठी में दो तथा सातवीं में केवल प्रथम संहनन वाले जीव जा सकते हैं। विस्तृत वर्णन के लिए भगवती सूत्र शतक २४ देखें । संस्थान - शरीर की रचना या आकार को संस्थान कहते हैं। सभी जीवों को इन छह संस्थानों में सम्मिलित किया गया है - ( १ ) समचतुरस्र - संस्थान -सम का अर्थ है समान, चतुः का अर्थ है चारों ओर, 'अस्त्र' शब्द का अर्थ है कोण । जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव प्रमाणोपेत हों, शरीर की ऊँचाई, चौड़ाई, मोटाई, वजन, ये सब ठीक प्रमाण वाले हो, कोई अवयव न्यून - अधिक न हो, ऐसे संस्थान को "सम - चतुरस्र" कहते हैं । (२) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान - जिस संस्थान मे नाभि से ऊपर का भाग सामुद्रिक शास्त्र में बताये हुए शरीर-परिमाण के अनुकूल हो और नीचे का भाग हीन अवयवों वाला हो फ्र वज्र समान कीलिका जिसमें न हो। इस संहनन वाला अधिक से अधिक ग्रैवेयक देवलोक तक जा सकता 5 षष्ठ स्थान 2 95 95 95 95 95 59595959595959595555959595959 5955 59559 5552 मर्कट बंध वाली हों, दूसरी ओर कीलिका वाली हो। इसकी उत्कृष्ट गति आठवें देवलोक तक हो सकती हैं । (५) कीलिका संहनन - जिस संहनन में हड्डियाँ केवल कील से जुड़ी हों। इसकी उत्कृष्ट गति छठा देवलोक तक है। (६) सेवार्त संहनन - जिस शरीर की हड्डियाँ परस्पर मिली हुई हों और जिन्हें तैल 5 मालिश आदि की जरूरत रहती हो। इस संहनन वाला उत्कृष्ट चौथे देवलोक तक जा सकता है। Jain Education International फ्र (233) 卐 For Private & Personal Use Only Sixth Sthaan 卐 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002906
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages648
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size20 MB
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