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अध्ययन सार
आठवें स्थान में आठ की संख्या से सम्बन्धित विषयों का संकलन है। जैसे- जीव विज्ञान, गण व्यवस्था, ज्योतिष, आयुर्वेद, भूगोल आदि । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वर्णन आलोचना - पद में किया गया है । वहाँ बताया गया है कि सरल आत्मा माया का आचरण नहीं करता, जबकि कुटिल व्यक्ति माया को अपनी चतुरता समझता है। जिसके मन में पाप के प्रति ग्लानि होती है, धर्म की आस्था होती है और कर्म - फल के सिद्धान्त में विश्वास होता है, वह माया करके प्रसन्न नहीं होता । मायाचारी व्यक्ति दोषों का सेवन करके भी उनको छिपाने का प्रयत्न करता है। उसे अनेक प्रकार के भय सताते रहते हैं। मायावी व्यक्ति को सचेत करने के लिए बताया है कि वह इस लोक में निन्दित होता है, परलोक में भी निन्दित होता है और यदि देवलोक में उत्पन्न होता है, तो वहाँ अन्य देवों के द्वारा तिरस्कार ही पाता है । वहाँ
अष्टम स्थान
से च्यवकर मनुष्य होता है तो दीन-दरिद्र कुल में उत्पन्न होता है और वहाँ भी तिरस्कार - अपमानपूर्ण जीवन-यापन करके अन्त में दुर्गतियों में परिभ्रमण करता है।
इसके विपरीत अपने दोषों की आलोचना करने वाला दोनों लोकों में सुखी होता है।
मायाचारी की मनःस्थिति का चित्रण करते हुए बताया गया है कि वह अपने मायाचार को छिपाने के लिए भीतर ही भीतर लोहे, ताँबे, सीसे, सोने, चाँदी आदि को गलाने की भट्टियों के समान, कुंभार के आपाक (आवे) के समान और ईंटों के भट्टे के समान निरन्तर संतप्त रहता है।
मायाचार के महान् दोषों को बतलाने का उद्देश्य यही है कि साधक पुरुष मायाचार न करे । मायाचार का यह प्रकरण सरलता के लिए गहरी प्रेरणा देता है।
गणि- सम्पदा-पद में बताया है कि गण-नायक में आचार-सम्पदा, श्रुत-सम्पदा आदि आठ सम्पदाओं का होना आवश्यक है। आलोचना करने वालों को प्रायश्चित्त देने वाले में भी अपरिस्रावी आदि आठ गुणों का होना आवश्यक है।
केवलि - समुद्घात के आठ समयों का वर्णन, आठ कृष्णराजियों का वर्णन, आठ प्रकार के अक्रियावादियों का, आठ प्रकार की आयुर्वेद - चिकित्सा का, आठ पृथिवियों का वर्णन भी द्रष्टव्य है।
इस स्थान के प्रारम्भ में एकल-विहार करने वाले साधु में श्रद्धा, सत्य, मेधा, बहुश्रुतता आदि आठ गुणों की योग्यता का मानदण्ड बताया है।
अष्टम स्थान
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Eighth Sthaan
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