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பூதபூதிதமிழ*************************
१३५. पसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - आउत्तं गमणं, आउत्तं ठाणं, आउत्तं णिसीयणं, आउत्तं तुअट्टणं, आउत्तं उल्लंघणं, आउत्तं पल्लंघणं, आउत्तं सव्विंदियजोगजुंजणता । १३६. अपसत्थकायविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - अणाउत्तं गमणं, (अणाउत्तं ठाणं, अणाउत्तं णिसीयणं, अणाउत्तं णिसीयणं, अणाउत्तं तुअट्टणं, अणाउत्तं उल्लंघणं, अणाउत्तं पल्लंघणं), अणाउत्त सव्विंदिंयजोगजुंजणता ।
१३५. प्रशस्त काय विनय सात प्रकार का है - ( १ ) आयुक्त गमन - यतनापूर्वक चलना । (२) आयुक्त स्थान- यतनापूर्वक खड़े होना, कायोत्सर्ग करना । (३) आयुक्त निषीदन - यतनापूर्वक बैठना । (४) आयुक्त त्वग्-वर्त्तन - यतनापूर्वक करवट बदलना, सोना। ( ५ ) आयुक्त उल्लंघन - यतनापूर्वक देहली आदि को लांघना । ( ६ ) आयुक्त प्रल्लंघन - यतनापूर्वक नाली आदि को पार करना। (७) आयुक्त सर्वेन्द्रिय योगयोजना - यतनापूर्वक सब इन्द्रियों की प्रवृत्ति करना । १३६. अप्रशस्त कायविनय सात प्रकार का है( १ ) अनायुक्त गमन । ( २ ) अनायुक्त स्थान । (३) अनायुक्त निषीदन । (४) अनायुक्त त्वग्वर्तन । (५) अनायुक्त उल्लंघन। (६) अनायुक्त प्रल्लंघन । (७) अनायुक्त सर्वेन्द्रिय योगयोजना ।
१३७. लोगोवयारविणए सत्तविधे पण्णत्ते, तं जहा - अब्भासवत्तित्तं, परच्छंदाणुवत्तित्तं, कज्जहेउं, कतपडिकतिता, अत्तगवेसणता, देसकालण्णता, सव्वत्थेसु अपडिलोमता ।
135. Prashast kaaya-vinaya (noble physical modesty) is of seven kinds (1) Aayukt gaman-to move carefully. (2) Aayukt sthaan-to stand carefully, to perform kaayotsarg. (3) Aayukt nishidan-to sit carefully. (4) Aayukt tvag-vartan-to turn and sleep carefully. (5) Aayukt ullanghan-to step over raised obstacles carefully (like door step). (6) Aayukt prallanghan-to step over grooved obstacles carefully (like a drain). (7) Aayukt sarvendriya yogayojana-to employ all sense-organs carefully. 136. Aprashast kaaya-vinaya ( ignoble vocal modesty ) is of seven kinds—(1) Anaayukt gaman. (2) Anaayukt sthaan (3) Anaayukt 5 nishidan. (4) Anaayukt tvag-vartan. (5) Anaayukt ullanghan. (6) Anaayukt prallanghan. (7) Anaayukt sarvendriya yogayojana. (these are all careless movements)
१३७. लोकोपचार - ( लोकों के साथ व्यवहार की विधि) विनय सात प्रकार का है(१) अभ्यासवर्त्तित्व - श्रुतग्रहण करने के लिए गुरु के समीप बैठना, सद्गुण ग्रहण करने में प्रयत्नशील रहना । परछन्दानुवर्त्तित्व- आचार्यादि के अभिप्राय के अनुसार चलना । (३) कार्यहेतु - 'इसने मुझे ज्ञान दिया' इस कृतज्ञ भाव के साथ विनय करना । (४) कृतप्रतिकृतिता - प्रत्युपकार की भावना से विनय आदि सद्व्यवहार करना । (५) आर्तगवेषणता - रोग पीड़ित के लिए औषध आदि की सुव्यवस्था रखना। (६) देश - कालज्ञता - देश - काल के अनुसार अवसरोचित व्यवहार करना । (७) सर्वार्थ- अप्रतिलोमतासब कार्यों में अनुकूल आचरण करना । प्रतिकूल व अप्रिय आचरण न करना ।
सप्तम स्थान
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Seventh Sthaan
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