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________________ ५१३. देवाणं चउब्विहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते।। ५१३. देवों का आहार चार प्रकार का होता है-(१) वर्णवान्-उत्तम वर्ण (रंग) वाला, (२) गन्धवान्-उत्तम सुगन्ध वाला, (३) रसवान-उत्तम मधुर रस वाला, और (४) स्पर्शवान-मृदु और स्निग्ध स्पर्श वाला। __513. The ahar (food) of devas (divine beings) is of four kinds! (1) Varnavaan--of good colour, (2) gandhavaan-of excellent smell, (3) rasavaan-of good and sweet taste and (4) sparshavaan-having soft and smooth touch. विवेचन-देव और नारक जीव कवलाहार नहीं करते है, वे मन से ही पुद्गलों का आकर्षण कर रोमाहार करते हैं। तिर्यंच तथा मनुष्य कवलाहार करते हैं। Elaboration-Divine and infernal beings do not eat morsels through mouth. They mentally draw particles and ingest through body-pores. + i Animals and human beings eat morsels through mouth. आशीविष-पद ASHIVISH-PAD (SEGMENT OF THE POISONOUS) _५१४. चत्तारि जातिआसीविसा पण्णत्ता, तं जहा-विच्छुयजातिआसीविसे, मंडुक्कजातिआसीविसे, उरगजातिआसीविसे, मणुस्सजातिआसीविसे। विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? पभू णं विच्छ्यजातिआसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा। मंडुक्कजातिआसीविसस्स [ णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ] ? ___पभू णं मंडुक्कजातिआसीविसे 'भरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं' [करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा ] करिस्संति वा। उरगजाति [ आसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ] ? पभू णं उरगजातिआसीविसे जंबुद्दीवपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणयं विसट्टमाणिं करित्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं (संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा) करिस्संति वा। मणुस्सजाति (आसीविसस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते) ? पभू णं मणुस्सजातिआसीविसे समयखेत्तपमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिणतं विसट्टमाणिं करेत्तए। विसए से विसठ्ठताए, णो चेव णं (संपत्तीए करेंसु वा करेंति वा) करिस्संति वा। IPIPIPPPIPI-I-In-.-.-. चतुर्थ स्थान : चतुर्थ उद्देशक (5) Fourth Sthaan : Fourth Lesson Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002906
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages648
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size20 MB
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