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iriririr
becomes ayogi snatak Jina. The life span of ayogi Jina is equal to the 4 † time taken in uttering five short vowels (a, i, u, ri, and Iri). Within this fi F brief time he destroys all the four vitiating karmas and becomes F immortal Siddha. (Vritti, part-2, p. 576 and Hindi Tika, part-2, p. 187) उपधि-पद UPADHI-PAD (SEGMENT OF MEANS OF SUSTENANCE)
१९०. कप्पति णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पंच वत्थाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहाजंगिए, भंगिए, साणए, पोत्तिए, तिरीडपट्टए णामं पंचमए।
१९०. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के वस्त्र रखने और पहनने कल्पते हैं- . (१) जांगमिक-जीवों के रोम आदि से बनने वाले कम्बल आदि। (२) भांगिक-अलसी की छाल से बनने
वाले वस्त्र। (३) सानिक-सन से बनने वाले वस्त्र। (४) पोतक-कपास बोंडी (रुई) से बनने वाले वस्त्र। । (५) तिरीटपट्ट-लोध आदि की छाल से बनने वाले वस्त्र। (आचारांग भाग-२, में विस्तृत वर्णन देखें, ठाणं : पृष्ठ ६४३)।
190. Nirgranths and nirgranthis are allowed to keep and use five kinds of cloth-(1) Jangamik-made of animal fibre like a woolen blanket, (2) bhangik-made of bark of Alsi (linseed) tree, (3) sanikmade of hessian, (4) potak-made of cotton and (5) tiritapatt-made of bark of Lodhra (Symplocos racemosa) tree. (for more details see Illustrated Acharanga Sutra, part-2; Thanam, p. 643)
१९१. कप्पति णिग्गंथाण वा णिगंथीण वा पंच रयहरणाई धारित्तए वा परिहरेत्तए वा, तं जहा-उण्णिए, उट्टिए, साणए, पच्चापिच्चिए, मुंजापिच्चिए णामं पंचमए। __ १९१. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को पाँच प्रकार के रजोहरण रखने और धारण करने कल्पते हैं, जैसे
(१) और्णिक-भेड़ की ऊन से बने रजोहरण। (२) औष्ट्रिक-ऊँट के बालों से बने रजोहरण। (३) सानिक-सन से बने रजोहरण। (४) पच्चापिच्चिए-वल्वज नाम की मोटी घास को कूटकर बनाया रजोहरण। (५) मुंजापिच्चिए-पूँज को कूट कर बनाया हुआ रजोहरण। ____191. Nirgranths and nirgranthis are allowed to keep and use five kinds of rajo-haran (ascetic-broom)-(1) Aurnik-made of sheep-wool, (2) aushtrik-made of camel-wool, (3) sanik-made of hessian, (4) valvajiya-made of valvaj grass and (5) munjiya-made of moonj grass. विवेचन-वृत्तिकार ने रजोहरण की यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की है--
हरइ रयं जीवाणं बझं अभंतर च जं तेणं। रयहरणं ति वुच्चइ कारण-कज्जोवयाराओ।
पंचम स्थान : तृतीय उद्देशक
(193)
Fifth Sthaan : Third Lesson
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