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________________ ))))) )) )) )) ) )) ) )))) )) )) 卐555555555555555555555555555555555555555555555558 ॐ ७०. आलोचना के दस दोष हैं, जैसे-(१) आकम्प्य या आकम्पित दोष, (२) अनुमन्य या + अनुमानित दोष, (३) दृष्टदोष, (४) बादरदोष, (५) सूक्ष्म दोष, (६) छन्न दोष, (७) शब्दाकुलित दोष, (८) बहुजन दोष, (९) अव्यक्त दोष, (१०) तत्सेवी दोष। 70. There are ten faults related to alochana (self-criticism) (1) aakampya or aakampit dosh, (2) anumanya or anumanit dosh, (3) drisht dosh, (4) badar dosh, (5) sukshma dosh, (6) chhanna dosh, (7) shabdakulit dosh, ॐ (8) bahuja dosh, (9) avyakt dosh, and (10) tatsevi dosh. __ विवेचन-दोष-विशुद्धि के लिए आलोचना की जाती है, इसलिए आलोचना करने वाले का हृदय ॐ बालक के समान सरल और अहंकार रहित होना चाहिए। माया सहित की गई आलोचना से + आत्म-शुद्धि नहीं होती। प्रस्तुत सूत्र में दस कारण बताये हैं, जिनसे आलोचना करता हुआ भी व्यक्ति आराधक नहीं हो सकता। (१) आकंपइत्ता-गुरु प्रसन्न होने पर थोड़ा प्रायश्चित्त देंगे, यह सोचकर उन्हें सेवा आदि से प्रसन्न करके फिर उनके पास दोषों की आलोचना करना। (२) अणुमाणइत्ता-दोषों का अनुमान करके आलोचना करना, जैसे कि बिल्कुल छोटा अपराध ॐ बताने से गुरु थोड़ा दण्ड देंगे, यह सोचकर अपने अपराध को बहुत छोटा करके बताना। (३) जं दिटुं-जिस दोष का सेवन करते हुए गुरु आदि ने देख लिया हो, उसी की आलोचना करना, अन्य की नहीं। (४) बायरं-बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करना। (५) सुहमं-छोटे-छोटे दोषों की आलोचना करना। इसके पीछे माया कपट भाव ही रहता है। क्योंकि दूसरे यह समझेंगे कि जो छोटे-छोटे दोषों की भी आलोचना करता है, वह बड़े-बड़े दोषों की म आलोचना क्यों न करेगा? यह विश्वास उत्पन्न कराने के लिए सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करना। (६) छनं-अधिक लज्जा के कारण इस तरह गुनगुनाकर आलोचना करना, जिसे आचार्यादि । ॐ भली-भाँति सुन न सकें। (७) सद्दाउलगं-जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना, जिस आलोचना को अनधिकारी भी ॐ सुन सकें। (८) बहुजण-एक ही दोष की आलोचना बहुत से गुरुओं के पास जाकर करना। (९) अव्वत्त-जिसको प्रायश्चित्त-विधान का ज्ञान नहीं है, उसके पास आलोचना करना। (१०) तस्सेवी-जिस दोष की आलोचना करनी है, उसी दोष का सेवन करने वाले के पास है आलोचना करना। (विस्तार व तुलना के लिए देखें ठाणं, पृष्ठ ९७८) Elaboration-Self criticism is aimed at atonement of fault. Therefore, the attitude of the atoner should be child-like simple and free of conceit. स्थानांगसूत्र (२) (498) Sthaananga Sutra (2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002906
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages648
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size20 MB
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