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________________ प्रकाशकीय श्रुत-सेवा के महान कार्य में हम निरन्तर असीम उत्साह के साथ आगम-भक्तिपूर्वक आगे बढ़ रहे हैं और शासनदेव तथा स्व. गुरुदेव उत्तर भारतीय प्रवर्तक भण्डारी श्री पद्मचन्द्र जी म. का आशीर्वाद हमारा पथ प्रशस्त कर रहा है। ___ उत्तर भारतीय प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. जैसे दृढ़ अध्यवसायी, संकल्पबली, गुरुभक्त और आगम ज्ञाता संत वर्तमान समय में बहुत कम मिलेंगे। देखा जाता है, अधिकतर विद्वानों में अपनी रचित-निर्मित कृति के प्रकाशन की उत्कंठा रहती है और उसे ही वे सबसे अधिक महत्त्व देते हैं तथा हर जगह सबसे 5 आगे अपने नाम को ही प्रतिष्ठापित करने को उत्सुक रहते हैं। प्रचार व ख्याति की प्रतिस्पर्धा के इस युग में 5 प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. एक अलग किस्म के संत हैं। इन्हें न अपने नाम के प्रचार की भूख है, न ही अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने की उत्सुकता। प्रवर्तकश्री जी के प्रवचनों व भजनों की २-३ पुस्तकें सम्पादित हो प्रकाशन के लिए तैयार रखी हैं, किन्तु प्रवर्तकश्री जी का मानना है, पहले मुझे जिनवाणी का प्रकाशन करना है, इसी में समूचे संसार का लाभ कल्याण निहित है। अतः श्रुत-सेवा में ही मुझे पूरी निष्ठा व शक्ति का सदुपयोग करना है। उन्हीं की इस विस्मयकारक प्रेरक श्रुत-भक्ति का यह परिणाम है कि हम अब तक धीरे-धीरे सचित्र आगमों की १५ पुस्तकों में १७ आगमों का प्रकाशन करने में सफल हुए हैं और हम निरन्तर इसी श्रुत-सेवा में संलग्न रहकर अपनी शक्ति व धन का सदुपयोग करने के लिए कृतसंकल्प हैं। ____ हमें प्रसन्नता है, सचित्र आगममाला की इस श्रृंखला में इस वर्ष हम श्री स्थानांगसूत्र जैसे विशालकाय आगम को दो भागों में प्रकाशित कर पाठकों के हाथों में पहुंचा रहे हैं। प्रथम भाग में लुधियाना निवासी धर्मवीर दानवीर सुश्रावक श्री त्रिलोकचन्द जी जैन 'भगत' जी के परिवार ने बहुत ही उदार हृदय से सहयोग प्रदान किया। इस दूसरे भाग के प्रकाशन में पूज्य गुरुदेव के भक्तगण जो प्रतिवर्ष ही जिनवाणी के प्रति असीम श्रुत-भक्ति और गुरु-भक्ति का परिचय देते हुए सहयोग प्रदान करते हैं, इस वर्ष भी उन गुरु-भक्तों का उदार अर्थ सौजन्य प्राप्त हुआ है। हम उन सबके प्रति हार्दिक धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं अगले वर्ष जैन आगम साहित्य की महामूल्यवान निधि श्री भगवतीसूत्र के प्रकाशन में भी हमें इसी प्रकार सबका सहयोग प्राप्त होता रहेगा। - पूज्य प्रवर्तक श्री अमर मुनि जी म. की हार्दिक भावना है कि जिनवाणी का यह सुन्दर सर्वोपयोगी प्रकाशन निर्विघ्न सम्पन्न होता रहे। हम इस श्रुत-सेवा में सभी धर्म-प्रेमी बंधुओं का हार्दिक सहयोग आमंत्रित करते हैं। महेन्द्रकुमार जैन अध्यक्ष पद्म प्रकाशन (5) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002906
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages648
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size20 MB
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