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- Kartik are called Varsha Ritu. The combined meaning of these two
aphorisms is that ascetics should not move around during the four months, Shravan to Kartik. This is the ideal noi.n. Under special conditions mentioned in these aphorisms they are allowed to move but that is an emergency measure.
The reason for the provision of a maximum period of six months is to cover one month on each side in case of early or late monsoon. During the monsoon ascetics are supposed to stay at one place. अनुदात्य-पद ANUDGHATYA-PAD (SEGMENT OF SERIOUS ATONEMENT)
१०१. पंच अणुग्घातिया पण्णत्ता, तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे, मेहुणं पडिसेवेमाणे, रातीभोयणं भुंजेमाणे, सागारियपिंडं भुंजेमाणे, रायपिंडं भुजेमाणे।
१०१. पाँच अनुद्घात्य (गुरु-प्रायश्चित्त के योग्य) होते हैं। (१) हस्तकर्म-(मैथुन-) करने वाला। ॐ (२) मैथुन की प्रतिसेवना (स्त्री-संभोग) करने वाला। (३) रात्रि-भोजन करने वाला। 9 (४) सागारिक-(शय्यातर-) पिण्ड का आहार करने वाला। (५) राज-पिण्ड का भोजन करने वाला। 451 101. There are five anudghatya (reasons for serious atonement)-One
who indulges in-(1) hastakarma (masturbation), (2) maithun pratisevana (copulation), (3) ratri bhojan (eating during the night),
(4) eating sagarik-pind (food offered by host) and (5) eating raj-pind (food ॐ offered by the king).
विवेचन-दोष की शुद्धि के लिए दो प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं-(I) लघु-प्रायश्चित्त और 9 (II) गुरु-प्रायश्चित्त। लघु-प्रायश्चित्त को उद्घातिक (उपवास आदि का छोटा) और गुरु-प्रायश्चित्त को + अनुद्घातिक (दीक्षा छेद) प्रायश्चित्त कहते हैं। यह किसी भी दशा में कम नहीं किया जा सकता है। यह ॐ भी दो प्रकार का होता है-गुरु मासिक-एक मास की दीक्षा का छेद। गुरु चौमासी प्रायश्चित्त-चार मास मकी दीक्षा का छेद। ॐ सागारिक-पिण्ड-गृहस्थ श्रावक को सागारिक कहते हैं। जिस मकान में साधु ठरहते हैं, उस भवन + का स्वामी 'शय्यातर' कहा जाता हैं। शय्यातर के घर का भोजन, वस्त्र, पात्रादि लेना साधु के लिए
निषिद्ध है, क्योंकि उसके ग्रहण करने पर तीर्थंकरों की आज्ञा का उल्लंघन, अधिक निकट परिचय के 卐 कारण ऐषणा सम्बन्धी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं।
राजपिण्ड-जिसका विधिवत् राज्याभिषेक किया गया हो, जो सेनापति, मंत्री, पुरोहित, श्रेष्ठी और 4 卐 सार्थवाह इन पाँच पदाधिकारियों के साथ राज्य करता हो, उसे राजा कहते हैं। उसके घर का भोजन के
राज-पिण्ड कहलाता है। राज-पिण्ड ग्रहण करने में अनेक दोष हैं। जैसे-तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण, राज्याधिकारियों के आने-जाने के समय होने वाला व्याघात, चोर आदि की आशंका है
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स्थानांगसूत्र (२)
(142)
Sthaananga Sutra (2)
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