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卐 वाक्य में आये हुए जिन पदों का वाक्यार्थ से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता, किन्तु उनके प्रयोग से : वाक्यों का अर्थ व्यवस्थित समझा जा सकता है, उन्हें 'शुद्ध वाक्यानुयोग' कहा जाता है।
(१) चकार- अनुयोग-'च' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है, जैसे-कहीं समुच्चय, कहीं + अन्वादेश, कहीं अवधारण, कहीं पाद पूरण आदि अर्थों का बोध इससे होता है। जैसे इत्थीओ सयणाणि यं। 卐 (२) मकार-अनुयोग-'म' शब्द के अनेक अर्थों का विस्तार। जैसे-'जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव' आदि पदों में 'म' का प्रयोग आगमिक है, इससे वाक्य की सुन्दरता बढ़ जाती है।
(३) पिकार-अनुयोग-'अपि' शब्द सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय आदि अनेक अर्थों में में प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'चउवीसं पि केवली' देवा वि तं नमसंति आदि।
(४) सेयंकार-अनुयोग-जैसे-कहीं 'से' शब्द 'अर्थ' का वाचक होता है, कहीं 'वह' का वाचक होता है, कहीं विकल्प, प्रश्न अथवा आरंभ। जैसे से भिक्खू वा, से किं तं नाणं।
(५) सायंकार-अनुयोग-'सायं' आदि निपात शब्दों के अथ का विचार। जैसे-वह कहीं सत्य अर्थ का और कहीं प्रश्न का बोधक होता है।
(६) एकत्व-अनुयोग-जहाँ बहुत सी बातें मिलकर एक वस्तु के प्रति कारण हो, जैसे-'नाणं च दसणं चेव, चरित्तं य तवो तहा। एस मग्गुत्ति पनत्तो' यहाँ पर ज्ञान, दर्शनादि समुदितरूप को ही मोक्षमार्ग 卐 कहा है।
(७) पृथक्त्व-अनुयोग-बहुवचन के अर्थ का विचार। जैसे-'धम्मत्थिकायप्पदेसा' इस पद में बहुवचन का प्रयोग उसके असंख्यात प्रदेश बतलाने के लिए है। . (८) संयूथ-अनुयोग-एकत्र किये हुए पदों को 'संयूथ' कहते हैं, जैसे-'सम्मदंसणसुद्ध' इस समासान्त
पद का विग्रह अनेक प्रकार से किय जा सकता हैॐ (१) 'सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध'-तृतीया विभक्ति के रूप में, (२) 'सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध'चतुर्थी विभक्ति के रूप में, (३) 'सम्यग्दर्शन से शुद्ध'-पंचमी विभक्ति के रूप में।
(९) संक्राति-अनुयोग-जहाँ विभक्ति और वचन बदलकर वाक्य का अर्थ किया जाता है, वह 卐 संक्रामित अनुयोग है। जैसे-'साहूणं वंदणेणं नासति पावं असंकिया भावा' अर्थात् साधुओं को वन्दना करने ॥
से पाप नष्ट होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं। यहाँ वन्दना के प्रसंग में 'साहूणं'
षष्ठी विभक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप से संक्रमित किया + गया। यह विभक्ति-संक्रमण है तथा 'अच्छंदा जे न भुजंति, न से चाइत्ति वुच्चई' यहाँ ‘से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एकवचन का संक्रामित प्रयोग है।
(१०) भिन्न-अनुयोग-क्रमभेद और कालभेद आदि का विचार जिसमें हो, वह। जैसे-'तिविहं तिविहेणं' यह संग्रहवाक्य है। इसमें (१) मणेणं वायाए काएणं, (२) न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि न 卐 समणुजाणामि इन दो खण्डों का संग्रह किया गया है। द्वितीय खण्ड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में
“तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खण्ड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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