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________________ बफफफफफफफफफ 卐 5 5 卐 卐 २१३. लक्खणसंवच्छरे, पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा समगं णक्खत्ता जोगं जोयंति समगं उदू परिणमति । हं णातिसीतो, बहूदओ होति णक्खत्तो ॥ १ ॥ ससिसगलपुण्णमासी, जोएइ विसमचारिणक्खत्ते । कडुओ बहूओवा, तमाहु संवच्छरं चंदं ॥ २ ॥ विसमं पवालिणो परिणमंति अणुदूसू देंति पुप्फफलं । वासं णं सम्म वासति, तमाहु संवच्छरं कम्मं ॥ ३ ॥ पुढविदगाणं तु रसं, पुप्फफलाणं तु देइ आदिच्चो । अप्पेणवि वासेणं, सम्मं णिप्फज्जए सासं ॥ ४ ॥ आदिच्चतेयतविता, खणलवदिवसा उऊ परिणमति । पूरेति रेणू थलयाई, तमाहु अभिवड्डितं जाणे ॥ ५ ॥ (संग्रहणी - गाथाएँ) २१३. लक्षण-संवत्सर पाँच प्रकार के हैं- (१) नक्षत्र - संवत्सर, (२) चन्द्र - संवत्सर, (३) कर्म(ऋतु) संवत्सर, (४) आदित्य - संवत्सर, (५) अभिवर्धित - संवत्सर । (१) जिस संवत्सर में जिस तिथि में जिस नक्षत्र का योग होना चाहिए, उस नक्षत्र का उसी तिथि में योग होता है, जिसमें ऋतुएँ यथासमय परिणमन करती हैं, जिसमें न अति गर्मी पड़ती है और न अधिक सर्दी ही पड़ती है और जिसमें वर्षा अच्छी होती है, वह नक्षत्र - संवत्सर कहलाता है। जैसे चैत्री पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र, वैशाखी पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र आदि । फ्र (२) जिस संवत्सर में चन्द्रमा सभी पूर्णिमाओं का स्पर्श करता है, जिसमें अन्य नक्षत्रों की विषम गति फ होती है, जिसमें सर्दी और गर्मी अधिक होती है तथा वर्षा भी अधिक होती है, उसे चन्द्र- संवत्सर कहते हैं। फ्र (३) जिस संवत्सर में बिना समय के बीज अंकुरित हों, वृक्ष में कोंपलें आये, वर्षा भी समय पर न फ्र हों, उसे कर्मसंवत्सर या ऋतुसंवत्सर कहते हैं। 卐 (४) जिस संवत्सर में वर्षा कम होने पर भी सूर्य, पृथ्वी, जल, पुष्प और फलों को रस अच्छा देता फ्र है और धान्य अच्छा उत्पन्न होता है, उसे आदित्य या सूर्यसंवत्सर कहते हैं । (५) जिस संवत्सर में क्षण, लव, दिवस और ऋतु सूर्य के तेज से तप्त होकर व्यतीत होते हैं, जिसमें आँधी- -तूफान अधिक आयें, उसे अभिवर्धित - संवत्सर कहते हैं। 213. Lakshan-samvatsar is of five kinds-(1) Nakshatra-samvatsar, (2) Chandra-samvatsar, (3) Karma (Ritu) - samvatsar, (4) Aditya - samvatsar and (5) Abhivardhit-samvatsar. स्थानांगसूत्र (२) (६) जितने काल में शनिश्चर एक नक्षत्र को भोगता है, वह शनिश्चर संवत्सर कहलाता है। (विस्तृत फ वर्णन देखें वृत्ति भाग - २ पृष्ठ ५८९ । तथा हिन्दी टीका भाग-२, पृष्ठ २१८) 卐 Jain Education International 2 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 55 5 5 5 55 5 5 555 5 55 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 5 « (204) For Private & Personal Use Only Sthaananga Sutra (2) फ्र 5 கதிமிததமி**************************** 卐 www.jainelibrary.org
SR No.002906
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year2004
Total Pages648
LanguageHindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Book_English, Agam, Canon, Conduct, & agam_sthanang
File Size20 MB
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