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5 होता है, वह भुजाओं में कड़े, तोड़े और अंगद ( बाजूबन्द) पहने हुए रहता है। उसके कानों में कपोल
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जावि य से तत्थ बाहिरब्भंतरिया परिसा भवति, सावि य णं आढाति (परिजानाति महरिहेणं 5 आसणेणं उवणिमंतेति, भासंपि य से भासमाणस्स जाव चत्तारि पंच जणा अणुत्ता चेव अब्भुट्ठति ) - फ बहुं अज्जउत्ते ! भासउ - भासउ ।
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१०. (घ) मायावी माया करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, कालमास में काल कर किसी एक 5 देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। वह महाऋद्धि वाले, महाद्युति वाले, विक्रिया आदि शक्ति से युक्त, महायशस्वी, महाबलशाली, महान् सौख्य वाले, ऊँची गति वाले और दीर्घ स्थिति वाले देवों में उत्पन्न
होता है।
वह यावत् ऊँची गतिवाला और दीर्घ स्थिति वाला देव होता है। उसका वक्षःस्थल हारों से शोभित
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तक स्पर्श करने वाले चंचल कुण्डल होते हैं। वह विचित्र वस्त्राभरणों, विचित्र मालाओं और सेहरों वाला
धारण किये हुए होता है। उसका शरीर तेजस्वी होता है, वह लम्बी लटकती हुई मालाओं को धारण
माँगलिक एवं उत्तम वस्त्रों को पहने हुए होता है, वह माँगलिक, श्रेष्ठ, सुगन्धित पुष्प और विलेपन को 5
किये रहता है। वह दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रस, दिव्य स्पर्श, दिव्य संघात ( शरीर की बनावट),
दिव्य संस्थान (शरीर की आकृति) और दिव्य ऋद्धि से युक्त होता है। वह दिव्यद्युति, दिव्यप्रभा, 5 दिव्यकान्ति दिव्य अर्चि, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित करता है, प्रभासित
उसकी वहाँ जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी
करता है, वह नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादकों के द्वारा जोर से बजाये गये वादित्र, तंत्र, ताल, त्रुटित, फ घन और मृदंग की महान् ध्वनि से युक्त दिव्य भोगों को भोगता हुआ रहता है।
के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। जब वह भाषण देना प्रारम्भ करता है, तब चार-पाँच देव बिना कहे ही खड़े हो जाते हैं और कहते हैं- 'देव ! और अधिक बोलिए और अधिक बोलिए।'
पुनः वह देव आयुक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर देवलोक से च्युत होकर यहाँ मनुष्यलोक
सुवर्ण और बहु चाँदी वाले, आयोग और प्रयोग ( लेनदेन) में संप्रयुक्त, प्रचुर भक्त-पान का वितरण
फ करने वाले, अनेक दासी दास, गाय-भैंस, भेड़ आदि रखने वाले और बहुत व्यक्तियों के द्वारा अपराजित, ऐसे उच्च कुलों में मनुष्य के रूप में उत्पन्न होता है।
में मनुष्यभव में सम्पन्न, दीप्त, विस्तीर्ण और विपुल शयन, आसन, यान और वाहन वाले, बहुधन, बहु
वहाँ वह सुरूप, सुवर्ण, सुगन्ध, सुरस और सुस्पर्श वाला होता है। वह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ
5 और मन को भाने वाला होता है। वह उच्च स्वर, प्रखर स्वर, कान्त स्वर, प्रिय स्वर, मनोज्ञ स्वर, रुचिकर स्वर और आदेय वचन वाला होता है।
वहाँ पर उसकी जो बाह्य और आभ्यन्तर परिषद् होती है, वह भी उसका आदर करती है, उसे स्वामी के रूप में मानती है, उसे महान् व्यक्ति के योग्य आसन पर बैठने के लिए निमंत्रित करती है। वह
स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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