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१३३. पाँच कारणों से जीव दुर्लभबोधि ( सद्धर्म की प्राप्ति को दुर्लभ बनाने वाले) मोहनीय आदि ५ कर्मों का उपार्जन करते हैं, जैसे- (१) अर्हन्तों का अवर्णवाद ( निन्दा) करता हुआ। (२) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य - उपाध्याय का, (४) चतुर्वर्ण (चतुर्विध ) संघ का, और (५) तप और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप दिव्य गति को प्राप्त देवों का अवर्णवाद करता हुआ ।
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133.
For five
enlightenement
reasons beings acquire karmas that make difficult (durlabh-bodhi)— by criticising (avarnavad) 4 (1) Arhants, (2) religion propagated by Arhats, ( 3 ) acharyas and F (4) four limbed religious organisation and (5) gods who attained divine birth by observing austerities and celibacy.
upadhyayas,
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१३४. पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभबोधियत्ताए कम्मं पकरेंति, तं जहा - अरहंताणं वण्णं वदमाणे, [ अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स वण्णं वदमाणे, आयरियउवज्झायाणं वण्णं वदमाणे, चाउवण्णस्स संघस्स वण्णं वदमाणे ], विवक्क-तव- बंभचेराणं देवाणं वण्णं वदमाणे ।
१३४. पाँच कारणों से जीव सुलभबोधि करने वाले कर्म का उपार्जन करता है - ( १ ) अर्हन्तों का 5 वर्णवाद ( गुण कीर्तन ) करता हुआ । [ ( २ ) अर्हत्प्रज्ञप्त धर्म का, (३) आचार्य - उपाध्याय का, 5 (४) चतुर्वर्ण संघ का ], (५) तप और ब्रह्मचर्य के फलस्वरूप दिव्यगति को प्राप्त देवों का वर्णवाद 5
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( गुण-कथन) करता हुआ ।
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134. For five reasons beings acquires karmas that make enlightenement easy (sulabh-bodhi) — by singing in praise of (varnavad) 5 (1) Arhants, ( 2 ) religion propagated by Arhats, ( 3 ) acharyas and 卐 upadhyayas, (4) four limbed religious organisation and (5) gods who 卐 attained divine birth by observing austerities and celibacy.
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प्रतिसंलीन- अप्रतिसंलीन पद PRATISAMLINATA-APRATISAMLINATA PAD
(SEGMENT OF ENGROSSMENT AND COUNTER-ENGROSSMENT) फ्र १३५. पंच पडिसंलीणा पण्णत्ता, तं जहा- सोइंदियपडिसंलीणे, [ चक्खिंदियपडिसंलीणे, घाणिदियपडिलीणे, जिब्भिंदियपडिसंलीणे ], फासिंदियपडिली ।
१३५. प्रतिसंलीन - ( इन्द्र - विषयों का निग्रह करने वाला) पाँच प्रकार का है(१) श्रोत्रेन्द्रिय- प्रतिसंलीन-शुभ-अशुभ शब्दों में, (२) चक्षुरिन्द्रिय- प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ रूपों में, (३) घ्राणेन्द्रिय - प्रतिसंलीन- शुभ -अशुभ गन्ध में, (४) रसनेन्द्रिय- प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ रसों में,
(५) स्पर्शनेन्द्रिय - प्रतिसंलीन- शुभ-अशुभ स्पर्शो में राग-द्वेष न करने वाला ।
135. Pratisamlin (one who abstains from indulgence in subjects of five
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sense organs) is of five kinds-(one who is free of attachment and aversion—) (1) shrotendriya pratisamlin in good and bad sound, 5 स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2) 卐
(162)
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