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supreme radiance, supreme qualities, supreme fame, supreme power and 4 supreme happiness (out of craving).
(5) Seeing the lost, forgotten and unclaimed immense treasures left by deceased owners buried at places like pur (towns), gram (villages), aakar (settlement near a mine), nagar (city), khet (kraal), karbat (market), madamb (borough), dronmukh (hamlet), pattan (harbour), ashram (hermitage), samvah (settlement in a valley), and sannivesh (temporary settlement), shringatak (triangular plaza), trikpath (trisection), chatushkapath (crossing), chaturmukh (square), mahapath (highway), path (street), nagar-nirdhaman (drains and gutters in the city), smashan (cremation ground), shunya griha (abandoned house),
giri-kandara (cave), shanti-griha (house for rituals), shailagriha (hill15 abode), upasthapan griha (assembly hall), and bhavan griha (servants 卐 quarters). .
For the aforesaid five reasons emerging avadhi (jnana and) darshan i gets stambhit (arrested) during the initial moments of its emergence. - विवेचन-विशिष्ट ज्ञान-दर्शन की उत्पत्ति या विभिन्न ऋद्धियों की प्राप्ति निश्चल ध्यानावस्थित साधु ॐ को होती है। ध्यानावस्था में व्यक्ति की दृष्टि नासाग्र पर स्थिर रहती है, अतः विशिष्ट ज्ञान-दर्शन उत्पन्न म होने पर उसे सर्वप्रथम पृथ्वीगत जीव दृष्टिगोचर होते हैं। तदनन्तर पृथ्वी पर विचरने वाले कुन्थु आदि के
अत्यन्त छोटे-छोटे जन्तु विपुल परिमाण में दिखाई देते हैं। तत्पश्चात् भूमिगत बिलों आदि में बैठे विभिन्न रंग व विचित्र शरीर वाले सांपराज, नागराज आदि दिखाई देते हैं। फिर महावैभवशाली देव दृष्टिगोचर है
होते हैं और ग्राम-नगरादि की भूमि में दबे गड़े हुए खजाने भी दिखने लगते हैं। इन सबको देखकर ॐ सर्वप्रथम उसे विस्मय होता है कि यह मैं क्या देख रहा हूँ ! पुनः सूक्ष्म जीवों से व्याप्त पृथ्वी को देखकर म
उनके प्रति दया व करुणाभाव भी जागृत हो सकता है। बड़े-बड़े साँपों को देखने से भयभीत भी हो
सकता है और भूमिगत खजानों/विपुल धन भण्डारों को देखकर वह लोभ से भी अभिभूत हो सकता है। फ़ इस प्रकार विस्मय, दया, लोभ, और भय की भावना के कारण अथवा इनमें से किसी एक-दो या सभी
कारणों से ध्यानावस्थित व्यक्ति का चित्त चलायमान होना स्वाभाविक है। + यदि वह उस समय चल-विचल न हो तो तत्काल उसे विशिष्ट अतिशय सम्पन्न ज्ञान-दर्शना आदि
उत्पन्न हो जाते हैं और यदि उक्त कारणों के निमित्त से चल-विचल हो जाता है, तो ज्ञान-दर्शन उत्पन्न 卐 होते हुए भी रुक जाते हैं-उत्पन्न नहीं होते।
वृत्तिकार का कथन है, अवधिज्ञान दर्शन उत्पन्न होने से पूर्व साधक के मन में पृथ्वी व जीव राशि 卐 के विषय में कुछ भिन्न प्रकार की कल्पना होती है, जब वह अपनी कल्पना के विपरीत देखता है तो ॐ उसका ज्ञान क्षुब्ध हो जाता है।
स्थानांगसूत्र (२)
(96)
Sthaananga Sutra (2) |
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