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॥ दशम स्थान
___सार : संक्षेप
प्रस्तुत स्थान में दस की संख्या से सम्बद्ध विविध विषयों का वर्णन है। सर्वप्रथम लोकस्थिति के १० 卐 प्रकार बताये गये हैं। तदनन्तर इन्द्रिय-विषयों के और पुद्गल-संचलन के १० प्रकार बताकर क्रोध की
उत्पत्ति के १० कारणों का विस्तार से विवेचन किया है। अन्तरंग में क्रोधकषाय का उदय होने पर और ॐ बाह्य में सूत्र निर्दिष्ट अन्य कारणों के मिलने पर क्रोध उत्पन्न होता है। अतः साधक को क्रोध उत्पन्न करने 卐 वाले कारणों से बचना चाहिए। इसी प्रकार अहंकार के १० कारणों का और चित्त-समाधि-असमाधि
के १०-१० कारणों का निर्देश मननीय है। प्रव्रज्या के १० कारणों से ज्ञात होता है कि मनुष्य किस卐 किस निमित्त के मिलने पर घर त्याग कर साधु बनता है। वैयावृत्त्य के १० प्रकारों से सिद्ध है कि
साधक को आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि गुरुजनों के सिवाय रुग्ण साधु की, नव दीक्षित की और 9 साधर्मिक साधु की भी वैयावृत्त्य करना आवश्यक है।
प्रतिसेवना, आलोचना और प्रायश्चित्त के १०-१० दोषों का वर्णन साधक को उनसे बचने की ॐ प्रेरणा देता है। उपघात-विशोधि और संक्लेश-असंक्लेश के १०-१० भेद उपघात और संक्लेश के कारणों से बचने तथा विशोधि और असंक्लेश या चित्त-निर्मलता रखने की सूचना देते हैं।
स्वाध्याय-काल में ही स्वाध्याय करना चाहिए, अस्वाध्याय काल में नहीं, क्योंकि उल्कापात आदि के समय पठन-पाठन करने से दृष्टिमन्दता आदि अनेक दोषों की सम्भावना रहती है। नगर के राजादि - प्रधान पुरुष के मरण होने पर स्वाध्याय करना लोकविरुद्ध है, इसी प्रकार अन्य अस्वाध्याय कालों में + स्वाध्याय करने पर शास्त्रों में अनेक दोषों का वर्णन किया है।
धर्म-पद के अन्तर्गत ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म और कुलधर्म, लौकिक कर्त्तव्यों के पालन की और श्रुतधर्म, चारित्रधर्म आदि आत्मधर्म पारलौकिक कर्तव्यों के पालन की प्रेरणा देते हैं।
स्थविरों के १०भेद व उनकी विनय और वैयावत्त्य करने के सचक हैं। पत्र के दस भेद ता परिस्थिति के परिचायक हैं। तेजोलेश्या प्रयोग के १० प्रकार तेजोलब्धि की उग्रता के द्योतक हैं। दान के १० भेद भारतीय दान की प्राचीनता और विविधता को प्रकट करते हैं।
भगवान महावीर के छद्मस्थकालीन १० स्वप्न, १० आश्चर्यक (अछेरे) एवं अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण वर्णनों के साथ दस दशाओं के भेद-प्रभेदों का वर्णन मननीय है। इसी प्रकार दृष्टिवाद के १० भेद आदि ऊ अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन इस दसवें स्थान में किया गया है।
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स्थानांगसूत्र (२)
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Sthaananga Sutra (2)
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