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the Utpat parvat of Soma, the lok-pal of Shakra Devendra, the king of gods, is same as that of Shakra. The dimensions of the Utpat parvats of all the remaining lok-pals and those of all the Indras up to Achyut Kalp
are same.
Elaboration-When the gods from the lower world and the upper world come to the middle world they first arrive at a mountain and create Uttar-vaikriya sharira (secondary transmuted body) and only then proceed to the middle world. The mountains so used by them are called Utpat parvat. Each god has a different Utpat parvat. The Utpat parvats of Chamar and Bali are on Tingichha koot. Those of the sixteen Indras of the remaining eight abode dwelling gods are in the directions of their respective capitals. The Indras of Vanavyantars and Jyotishks have neither Utpat parvats nor lok-pals. The Vaimaniks have ten Indras and each one of them have four lok-paals. The Utpat parvats five are in the north and five in the south. On these Utpat parvats there are beautiful places and other facilities for sojourn and transmutation. (Hindi Tika, part-2, p. 741)
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विवेचन - अधोलोकवर्ती या ऊर्ध्वलोकवर्ती देव जब मध्यलोक में आते हैं, तब प्रथम वे किसी पर्वत पर आकर उत्तर वैक्रिय शरीर का निर्माण करते हैं, फिर वहाँ से मध्यलोक में आते हैं। उन्हीं पर्वतों को 'उत्पात पर्वत' कहा जाता है । उत्पात पर्वत सभी देवों के भिन्न-भिन्न होते हैं । चमरेन्द्र और बलि वैराचन्द्र के उत्पात पर्वत, तिगिंछ कूट पर शेष आठ भवनपतियों के १६ इन्द्रों के, उनके लोकपालों के 55 जिस दिशा में उनकी राजधानी है, उसी दिशा में उत्पात पर्वत है । वानव्यन्तर और ज्योतिषीन्द्रों के न उत्पात पर्वत है और न उनके लोकपाल हैं। वैमानिकों के १० इन्द्र और प्रत्येक के चार-चार लोकपाल हैं। उनके ५ के उत्पात पर्वत उत्तर में, ५ के दक्षिण दिशा में है। इन उत्पात पर्वतों पर उन इन्द्र आदि के 5 रमणीय प्रासाद भी है, जहाँ वे रुककर उत्तर वैक्रिय करते हैं । (हिन्दी टीका, भाग २, पृष्ठ ७४१)
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स्थानांगसूत्र (२)
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अवगाहना-पद AVAGAHANA PAD (SEGMENT OF SPACE OCCUPATION)
६२. बायरवणस्सइकाइयाणं उक्कोसेणं दसजोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता। 5 ६३. जलचर - पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं दस जोयणसयाई सरीरोगाहणा पण्णत्ता । ६४. उरपरिसप्प - थलचर- पंचिंदियतिरक्खिजोणियाणं उक्कोसेणं ( दस जोयणसताई
सरीरोगाहणा पण्णत्ता) ।
६२. बादर वनस्पतिकायिक जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है। (यह अवगाहना समुद्रवर्ती कमल की नाल की अपेक्षा से है ) ६३. जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों 5 के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है । ६४. उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना दस सौ (१०००) योजन है ।
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Sthaananga Sutra (2)
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