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गणधारण- पद GANADHAARAN PAD (SEGMENT OF HEADING THE GROUP) १. छहिं ठाणेहिं संपणे अणगारे अरिहति गणं धारित्तए, तं जहा - सड्डी पुरिसजाते, सच्चे पुरिसजाते, मेहावी पुरिसजाते, बहुस्सुते पुरिसजाते, सत्तिमं, अप्पाधिकरणे ।
१. छह स्थानों (गुणों) से सम्पन्न अनगार गण धारण करने के योग्य होता है - (१) श्रद्धावान् पुरुष, (२) सत्यवादी पुरुष, (३) मेधावी पुरुष, (४) बहुश्रुत पुरुष, (५) शक्तिमान् पुरुष, (६) अल्पाधिकरण वाला
षष्ठ स्थान SIXTH STHAAN (Place Number Six)
पुरुष ।
1. An ascetic endowed with six sthaans ( qualities) is capable of heading a gana ( group ) – ( 1 ) Shriddhavan purush (devoted person), (2) satyavaadi purush (truthful person ), ( 3 ) medhavi purush (intelligent person), (4) bahushrut purush (scholarly person), (5) shaktiman purush (powerful person) and (6) alpadhikaran purush (strife-free person).
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षष्ठ स्थान
विवेचन- गण व्यवस्था के जो विशेष पद हैं उनमें आचार्य, उपाध्याय, गणी और प्रवर्तक ये चार पद 5 अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। गण की व्यवस्था सँभालने वाले पुरुष में ये छह गुण होना बहुत आवश्यक हैं
(२)
(१) श्रद्धावान् - जो श्रद्धावान् होता है वही मर्यादा का पालन कर सकता है। देव-गुरु-धर्म के प्रि जिसकी श्रद्धा नहीं है, वह न तो मर्यादा का पालन करेगा और न ही धर्म संघ को ठीक से चला सकेगा। सत्यवादी - इसके दो अर्थ हैं - यथार्थवक्ता और स्वीकृत मर्यादाओं का पालन करने में समर्थ । ( ३ ) मेधावी - तीव्र बुद्धि सम्पन्न । ( ४ ) बहुश्रुत - अनेक शास्त्रों का ज्ञाता । जो गणनायक स्वयं ज्ञानी या बहुश्रुत नहीं होगा वह दूसरों को क्या ज्ञान देगा ? (५) शक्तिमान् - शक्ति अनेक प्रकार की होती है - शरीर की शक्ति, मंत्र व विद्या की शक्ति, तंत्र की सिद्धियों से सम्पन्न, विशिष्ट शिष्य सम्पदा सम्पन्न | शक्ति से ही धर्म की रक्षा होती है। ( ६ ) अल्पाधिकरण - जो कलह कदाग्रह से मुक्त हो, उपशान्त वृत्ति या प्रशान्त क स्वभाव वाला हो । वृत्तिकार ने निम्न गाथा उद्धृत की है
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सुत्तत्थे निम्माओ पिय- दढ धम्मो ऽणुवत्तणाकुसलो । जाइ कुल संपन्नो गंभीरो लद्धिमंतो य।
संगहुवग्गह निरओ कय करणो पवयणाणुरागी य। एवं विहा उ भणिओ गणसामी जिण वरिंदेहिं ॥
(217)
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- पंच वस्तु १३१५-१६
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ததததிததமிழழக்கமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிமிழகம்
Sixth Sthaan
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जो सूत्र एवं अर्थ में कुशल है, प्रियधर्मी और दृढ़धर्मी है, शिष्यों को अनुशासन में रखना जानता 5 है, जाति - कुल सम्पन्न है, गम्भीर है, लब्धि-सम्पन्न है, संग्रह व उपकार करने में कुशल है, कृत-करण (परोपकार) में चतुर है, प्रवचनानुरागी है। इन गुणों से सम्पन्न अणगार ही गण का स्वामी हो सकता है। ( वृत्ति. भाग - २ पृष्ठ ६०३)
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