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अधिकरण
आगम विषय कोश-२
कुलों में प्रवेश करने पर निषेध किया जाता है। निषेध करने पर भी प्रवेश से उपरत नहीं होने पर कलह हो सकता है। ६. देशकथा-देशअनुराग के कारण अपने-अपने देश की गौरवगाथा करने पर परस्पर एक-दूसरे की हीनता दिखाने का प्रयत्न होने पर कलह हो सकता है।
देशकथा, भक्तकथा, स्त्रीकथा तथा राजकथा हमारे लिए करणीय नहीं है-ऐसा कहने पर भी कोई विकथा से विरत नहीं होता है, तब कलह हो सकता है। ९. कलह-शमन से पूर्व आहार आदि का निषेध
भिक्खूयअहिगरणंकट्ट तंअहिगरणं अविओसवेत्ता नो से कप्पइ गाहावइकुलं भत्ताए वा पाणाए वा"वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा, गामाणुगामं वा दूइज्जित्तए, गणाओ वा गणं संकमित्तए, वासावासंवा वत्थए।
(क ४/२६) भिक्षु अधिकरण कर उस अधिकरण का व्युपशमन किए बिना गृहपति के घर में आहार या पानी के लिए गमन
और प्रवेश नहीं कर सकता, बाहर विचारभूमि और विहारभूमि में नहीं जा सकता, प्रवेश नहीं कर सकता, ग्रामानुग्राम विहरण, एक गण से दूसरे गण में संक्रमण नहीं कर सकता और वर्षावास में स्थित नहीं हो सकता। १०. कलह-उपशमन से आराधना
__ भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं विओसवित्ता विओसवियपाहुडे इच्छाए परो आढाएज्जा, इच्छाए परो नो आढाएज्जा, इच्छाए परो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो नो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो वंदेज्जा, इच्छाए परो नो वंदेज्जा, इच्छाए परो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो नो संभुंजेज्जा, इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो नो संवसेज्जा, इच्छाए परो उवसमेज्जा, इच्छाए परोनो उवसमेज्जा।जे उवसमइ, तस्स अस्थि आराहणा, जे न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा अप्पणा चेव उवसमियव्वं। से किमाहु भंते ? उवसमसारं सामण्णं।
(क १/३४) किसी के साथ कलह होने पर भिक्ष उसका उपशमन
कर दे। कलह का उपशमन कर देने पर सामने वाला उसे बहुमान दे या न दे, उसके आने पर खड़ा हो या न हो, उसे वन्दन करे या न करे, उसके साथ भोजन करे या न करे, उसके साथ रहे या न रहे, वह कलह का उपशमन करे या न करे, यह उसकी इच्छा है। जो कलह का उपशमन करता है, उसके आराधना होती है। जो उपशमन नहीं करता, उसके आराधना नहीं होती। इसलिए व्यक्ति अपनी ओर से कलह का उपशमन करे।
भंते! ऐसा क्यों कहा गया?
श्रामण्य का सार है-उपशम। ० कलह-शमन विधि
तं जत्तिएहि दिटुं, तत्तियमेत्ताण मेलणं काउं। गिहियाण व साधूण व, पुरतो च्चिय दो वि खामंति॥ नवणीयतुल्लहियया, साहू एवं गिहिणो तु नाहेति। न य दंडभया साहू, काहिंती तत्थ वोसमणं॥ ..."बितिओ जदि न उवसमे, गतो य सो अन्नदेसं तु॥ गंतुं खामेयव्वो अधव न गच्छेज्जिमेहि दोसेहिं । नीयल्लगउवसग्गो, तहियं गतस्स व होज्जा तु॥ अह नत्थि कोवि वच्चंतो, ताधे उवसमेती अप्पणा। खामेती जत्थ णं, मिलती अदिढे गुरुणंतियं ॥
(व्यभा २९९७-२९९९, ३००१, ३००६) परस्पर कलह होने पर जितने गृहस्थों या साधुओं ने उसे देखा है, उन सबको एकत्रित कर उनके सम्मुख क्षमा का आदान-प्रदान करना चाहिए। इससे अनेक लाभ होते हैं
गृहस्थ और शैक्ष साधु उस दृश्य को देख यह सोचते हैं-अहो! साधुओं का हृदय नवनीत की भांति कोमल होता है तथा उन्हें (दर्शकों को) यह भी बोध हो जाता है कि साधु कलह उत्पन्न होने पर उपशमन/ क्षमायाचना-क्षमादान कर्मक्षय के लिए करते हैं, दण्ड के भय से नहीं।
__यदि अनुपशांत अवस्था में एक साधु अन्यत्र सुदूर क्षेत्र में चला गया हो तो दूसरा साधु वहां जाकर क्षमायाचना करे। वैयावृत्त्यकरण, बीहड़ मार्ग, स्वजनों का उपसर्ग आदि-आदि कारणों से स्वयं वहां न जा सके और कोई भद्र श्रावक उस क्षेत्र
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