Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 28 Aavashyak Mool evam Vrutti Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 23 पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः आगम अनमो नमो निम्मलदसणस्सम आम आज सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि 28__ । मा आगम ४० "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: [१] मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता ककड OHITE OF OF श्री आगम मंदिर पालिताणा ROHIRO HIRO ~2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता THE - Sidheer Pariharan - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~34 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमाता काम करता कायम मान धागा आगम O आजमआणण गमवावासा वाम गावागावास Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-२८] श्री आवश्यक सूत्रम् (मूलसूत्रम् - १ / १ ) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “आवश्यक” मूलं एवं वृत्तिः [मूलं + भद्रबाहुस्वामी कृत् निर्युक्ति; + भाष्यं + हरिभद्रसूरि रचिता-वृत्तिः] भाग-२८, निर्युक्ति:- (००१-५२१) [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 'सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-२८ → 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ श्री आगमोद्धारक-वाचना- शताब्दी वर्ष निमित्त 'आगम-वृत्ति - मुद्रण- प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र - मेधावी, समाधिमृत्यु- प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब • जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी • गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है | * चारित्र ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मों का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज कासा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया। लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण - न्याय - साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए | • एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक • हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम साहित्य को कंडारा, सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए । वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | * सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत प्राकृत नए ग्रंथों की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक् श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | * ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य संरक्षण, तिथि प्रश्न इत्यादि विषयोमे T सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | * सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | .. मुनि दीपरत्नसागर... ...... . ....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी "..... —. ~6~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र मार्ग-रागी, प्रवचन- पटु, सुपरिवार युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ••• परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये । फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान- तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे | ••• ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष}दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | • रटण बारबार चालु हो गया- "अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण" इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | मुनि दीपरत्नसागर.... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुई | पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य सहाय की प्राप्ति हुई | शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर है, जो शत्रुंजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है । वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण ं के शास्त्र वर्णन अनुसार आगम मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है | ~7~ *** मुनि दीपरत्नसागर .... Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। - मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाङ्का: ५०+२१ आवश्यक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ९२ मूलांक: पृष्ठांक अध्ययन ०१-०२ | १-सामायिक ११-३६ | ४-प्रतिक्रमणं १०- - नियुक्ति | पीठिका." /भाष्य --मंगलं ००१ --ज्ञानस्य पञ्चप्रकारा: ०१३ --उपक्रम-आदिः ०८० |--उपोद्घात-नियुक्ति: ०८१ --वीरआदिजिनवक्तव्यता ३४३ --भरतचक्री-कथानक भा.०३९ --बलदेव-वासुदेव कथानक ५४३ |--समवसरण वक्तव्यता ૧૮૮ --गणधर वक्तव्यता ६६६ --दशधा सामाचारी --निक्षेप, नय, प्रमाणादि ७७८ --निनव वक्तव्यता ७८९ ॥ --सामायिकस्वरुपम ८१२ । --गति आदि द्वाराणि मूलांक: । अध्ययनं अध्ययनं पृष्ठांक: । मुलांक: | पृष्ठांक: ०९११ ०३-०९ | २-चतुर्विंशतिस्तव: ०९८४ ३-वंदनक १०२४ ११०३ । । ३७-६२ | -कायोत्सर्ग । १५२९ । । ६३-९२ । ६-प्रत्याख्यानं । १६०६ आवश्यक सटीक (संक्षिप्त) विषयानक्रम नि./भा. अध्ययनं-१- सामायिक नि./भा. | अध्ययनं-४- प्रतिक्रमणं ८९० नमस्कार-व्याख्या नमस्कार व सामायिक-सूत्रं ९१९ | अर्हत, सिद्धादेः नियुक्ति: चत्वार: लोकोतम-मङ्गल एवं ०२३ ९६० सिद्धशिला वर्णनं --------------शरणभूत पदार्था: ०४६ | आचार्य-आदीनाम निक्षेपा: संक्षिप्त व ईर्यापथ प्रतिक्रमण રહ. १०१३ सामायिक- व्याख्या, स्वरुपम् शयन संबंधी प्रतिक्रमणं १३० | उद्देश-वाचना-अनुज्ञा आदिः भिक्षाचर्याया: प्रतिक्रमणं ३०६ | सूत्र स्पर्श भगा: स्वाध्याय, उपकरणप्रतिलेखन सामायिक-उपसंहारः असंयम आदि ३३-आशातना अध्ययनं-२- चतुर्विंशतिस्तव: सूत्रोच्चारणे मिथ्यादुष्कृतम् सूत्रपाठः, कीर्तनं, प्रतिज्ञा, प्रवचनस्तुति, वंदना, क्षमापना -अर्हत: विशेषणं, अध्ययनं-५- कायोत्सर्ग: --ऋषभादि नामानि, प्रार्थनादि सूत्रपाठः, कायोत्सर्गस्थापना अध्ययन-३- वन्दनं श्रुतस्तव, सिद्धस्तवादि पाठ: --गुरुवन्दन सूत्रपाठ: अध्ययनं-६- प्रत्याख्यानं --मितावग्रह प्रवेशयाचना सम्यक्त्व व श्रावकव्रतप्रतिज्ञा --क्षमापना, प्रतिक्रमण-आदिः विविध प्रत्याख्यानादिः b9y पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [आवश्यक- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “आवश्यक सूत्र" के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी आवश्यक-सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। + हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन-मूलसूत्र-नियुक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, नियुक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है | शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२८ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ........मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ॥ अहम् ।। श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिविरचित श्रीमहद्रबाहुश्रुतकेवलिततनियुक्तियुतं श्रीमद्भवविरहहरिभद्रसूरिप्रणीतवृत्तिसमवेतं श्रीआवश्यकसूत्रम्. श्रीगणधरेन्द्रो विजयतेतराम प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र, वीरं श्रुतदेवता गुरूंन साधून । आवश्यकस्प विवृति, गुरूपदेशादहं वक्ष्ये ॥१॥ भनेनाभीष्टदेवतामसवा (अभियुरिज्यते इखभीष्ठः) जिनाः अवधिजिनादयस्तेषु पराः केवलिनलेपामिन्दः १ भमेनाभिमतदेयतासवः (अभिमन्यते विविधातरवेनस्पमिमता गासनदेवतादिः) श्रुताधिष्ठात्री देवता श्रुतदेवता, श्रुतरूपा देवता श्रुतदेवतेतिविग्रहे तु नाभिमतपेवतारचं किन्तु अधिक। तदेवताव स्थात्, अखा ज्ञानावरणीयक्षयोपशमसाधकत्वेन प्रणिपातो नानुचित्तः, "सुयदेवये" स्यादिवचनात् । अगेनाविरतरवेऽपि धुतदेवतायाः सवनीयता शापिता, मिथ्यावापादनं तु सिद्धान्ताचरणोभयोतीर्णमेव भनेनाधिकृतदेवतास्तवः (शाकाप्रणेतृत्वेनाधिक्रियते हत्यधिकृता). ५साधुत्वाव्यभिचारादुपाध्याबवाचनाचार्यगणावडेदकाइयः. ATMasturary.com वृत्तिकार-कृत् प्रतिज्ञा ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक यद्यपि मया तथाऽन्यः, कृताऽस्य विवृतिस्तथापि संक्षेपात् । तदुचिसत्त्वानुग्रहहेतोः क्रियते प्रयासोऽयम् ॥२॥हारिभद्री इहावश्यकप्रारम्भप्रयासोऽयुक्तः, प्रयोजनादिरहितत्वात्, कण्टकशाखामर्दनवत् इत्येवमाद्याशङ्कापनोदाय प्रयोजनादियवृत्तिः पूर्व प्रदीत इति, उक्तं चं-"प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ, फलादित्रितयं स्फुटम् । मङ्गलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये |॥१॥"इत्यादि । अतः प्रयोजनमभिधेयं संबन्धो मङ्गलं च यथावसरं प्रदर्थत इति । तत्र प्रयोजनं तावत् पैरापरभेदभिन्नं द्विधा, पुनरेकैकं कर्तृश्रोत्रपेक्षया द्विधैवे, तंत्र द्रव्यास्तिकनयालोचनायामार्गमस्य नित्यत्वात् कर्तुरभाव एव, “इत्येषा द्वादशाङ्गी न कदाचिन्नासीत् , न कदाचिन्न भविष्यति, न कदाचिन्न भवति" इतिवचनात् । पर्यायास्तिकनयालोचनायां चानित्यत्वात्तत्सद्भाव इति । तैस्वालोचनायां तु सूत्रार्थोभयरूपत्वादागमस्य अर्थापेक्षया नित्यत्वात् सूत्ररचनापेक्षया| विवृतं विसरतोऽभियुक्तरेभिरिति ध्वनितं, चतुरशीतिसहस्रप्रमितं च तदिति प्रघोषः २ अनेनास्याः समूलतामाह-संक्षेपरुचिजीवोपकाराब तसिमिचमाभित्येति वा. ४ चिकीर्षितायामावश्यकवितृती. ५ सूत्राभियरूपखावश्यकस्य, अभिधेयसंबन्धी मझलेच. काकदन्तपरीक्षाषडपूपाविवाक्यदृष्टान्तयोरुपलक्षकमिदम् | ८ पूर्वाचायः प्ररूपित, मवेति शेषः. ९ चर्चितविषवसाम्मस्वाय. १. अविभेन पारगमनादिरूपेष्टार्थसिद्धिः सिद्धार्थ सिद्धसंवन्ध श्रोतुं श्रोता प्रवर्तते इस्या| दिवाक्य ग्रहः २ वक्तनियमात्. १३ परं प्रकृष्टम् अपरं तत्साधनभूतं फलम् १५ उपदेशस्योभवाश्रितत्वात्. १५ इष्टावधारणार्थः, उभयोरुभयफलास्पदता तेन | १६ कर्नुप्रयोजनविचारे "नस्थि नएहि विहूर्ण सुतं अस्थो व जिणमए किंची"ति वचनालयविचारणामाह-तत्रेत्यादिना. १. अर्थरूपस्य (जीवादेवांग्यस्य) १८ सर्वक्षेत्रापेक्षया (विदेदेषु तु सर्वदाभावः सूत्रस्य ) श्रुतचतामविनाशात्पर्यायाणा च्यामेवात् १९इत्यभिप्रायवतन्यादिशास्त्रवाक्यात् , तात्पर्य नुत्रिकालावस्थायित्वे. २० वत्पत्तिभाववयात्, २७ कर्तृसद्भावः २२ नययोरेकदेशमाहित्वात्स्याद्वादश्रुतरूपप्रमाणविचारणादर्शनाब. २३ गणभूद्विहिता सूत्ररचनामपेक्ष्य. ॥ १ ॥ weredturary.com वृत्ति-रचनाया: उद्देश: ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: चानित्यत्वात् कथञ्चित् कर्तृसिद्धिरिति । तत्र सूत्रकर्तुः परमपवर्गप्राप्तिः अपरं सत्त्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादयितुः किं प्रयोजनमिति चेत् ,न किश्चित् , कृतकृत्यत्वात् , प्रयोजनमन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासोऽयुक्तः इतिचेत्, न, तस्य तीर्थकरनामगोत्रविपाकित्वात् , वक्ष्यति चं-"तं च कहं वेइजइ ?, अगिलाए धम्मदेसणादीहि" इत्यादिना । श्रोतृणां त्वपर तदर्थाधिगमः, परं मुक्तिरेवेति । कथम् ? ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षस्तन्मयं चावश्यकमितिकृत्वा, नावश्यकश्श्रवणमन्तरेण विशिष्टज्ञानक्रियावाप्तिरुपजायते, कुतः ?, तत्कारणत्वात्तदैवाप्तेः, तदवीप्तौ च पारम्पर्येण मुक्तिसिद्धे, इत्यतः प्रयोजनवानावश्यकप्रारम्भप्रयास इति । तदभिधेयं तु सामायिकादि। संबन्धश्च उपायोपेयभावलक्षणः तर्कानुसारिणः प्रति, कथम् , उपेयं सामायिकादिपरिज्ञान, मुक्तिपदं वा, उपायस्तु आवश्यकमेव वचनरूपापन्नमिति, यस्मात्ततः सामायिकायद्यनि श्चयो भवति, सति च तस्मिन् सम्यग्दर्शनादियमल्यं क्रियाप्रयत्नश्च, तस्माच मुक्तिपदमाप्तिरिति । अथवा उपोद्वातनि-11 दर्युक्तौ "उद्देसे निद्देसे य" इत्यादिना प्रन्थेन सप्रपञ्चेन स्वयमेव वक्ष्यति। कश्चिदाह--अधिगतशाखार्थानां स्वयमेव प्रयोज-14 SAX ववःशक्तिशीले इति तुन् । बाजकादिभिरिवस्थाकृतिगणवाडा तजपि. २ प्रयोजनं परं मुक्तिः, सा प्राप्तकेयकत्वात् 'मोक्षे भवेति वचनामोडेश्या, अवश्यम्भाविनी घसेति कृतकृया ३ प्रयासस्य तीर्थकृतो वा. ४ (गाथा १८५) ५ अन्धेन. ६ अल्पवक्तव्यत्वात् सूचीकटाहन्यायेनावावपर, ७ सूत्राधाभयागमवाच्यावबोधः, ८ परमपदानुकूला ९ आवश्यकश्श्रवणं 10-11 विशिष्टज्ञानक्रियावाप्तिः १२ आवश्यकस्य. १३ ज्ञानाचापादकक्रियादि १४ अपरप्रयोजन. १५ परप्रयोजनं १६ एक्कारस्पेष्टावधारणावात अपरनयोजनस्य मान्यच्छास्त्रमुचराध्ययनादि परस्याप्यसामाविकादिमतोऽभावात् मुक्तनान्यः कोऽपि उपायः १७रचितं. ८ आवश्यकात् १९चतुर्विशतिसावादीनां. २० श्रद्धानुसारिणः प्रति.२१ धमोत्तरानुसारी व्यपोहवादी बादः 6450 wwwmarary.org ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक क- ॥२॥ यति विभागः१ नादिपरिज्ञानात् शास्त्रादौ प्रयोजनायुपन्यासवैयर्थ्यमिति, तन्न, अनधिगतशास्त्रार्थानां प्रवृत्तिहेतुत्वात् तदुपन्यासोपपत्तेः । प्रेक्षावतां हि प्रवृत्तिनिश्चयपूर्विका, प्रयोजनादौ उक्तेऽपि च अनधिगतशाखार्थस्य तेन्निश्चयानुपपत्तेः, संशयतः प्रवृत्त्यभायात्तदुपन्यासोऽनर्थकः इति चेत् , न, संशयविशेषस्य प्रवृत्तिहेतुत्वदर्शनात् , कृषीवलादिवत् , इत्यलं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं मङ्गलमुच्यते-यस्मात् श्रेयांसि बहुविनानि भवन्ति इति, उक्तं च--"श्रेयांसि बहुविन्नानि, भवन्ति महतामपि । अश्रेयसि प्रवृत्तानां, क्वॉपि यान्ति विनायकाः॥१॥" इति । आवश्यकानुयोगश्च अपवर्गप्राप्तिबीजभूतत्वात् श्रेयोभूत एव, तस्मात्तदोरम्भे विघ्नविनायकाद्युपशान्तये तत् प्रदश्यत इति । तच्च मङ्गलं शाखादी मध्ये अवसाने चेभ्यत इति । सर्वमेवेदं शास्त्रं मङ्गालमित्येतावदेवास्तु, मङ्गलबयाभ्युपगमस्त्वयुक्तः, प्रयोजनाभावात् इति चेत् , न, प्रयोजनाभाव-6 स्यासिद्धत्वात् । तथाच कथं नु नाम विनेया विवक्षितशास्त्रार्थस्याविनेन पारं गच्छेयुः, अतोऽर्थमादिमङ्गलोपन्यासः, तथा से एव कथं नु नाम तेषां स्थिरः स्याद् इत्यतोऽर्थ मध्यमङ्गलेस्य, स एवच कथं नुनाम शिष्यप्रशिष्यादिवंशस्यअविच्छित्या उपकारकः स्याद् ? इत्यतोऽर्थ चरममङ्गलस्य इत्यतो हेतोरसिद्धता इति । तत्र "आभिणियोहियणाणं, सुयणाणं शाबारम्भे. २ प्रयोजनादेरुपन्यासस्य युक्तियुक्त वात्. ३ केवलशानस्य मूकत्वात् शास्त्रार्थस्येति. ४ प्रयोजनादेः ५ भनिष्टाननुबन्धीष्टसिदिसंशयस्य नियुक्तिकृता साक्षादुक्तचात् ७ पृथगवतारणा. ८ महाम्तो विमा (पूर्वपदलोपादू विजनावकाः) नियुक्तिरूपः कल्पवात११ आवश्यकानुयोगा- रम्भे १२ विशानामादिना मध्याना. १३-१४ शाखस्येत्यध्याहार्यम्. १५ सपोच निर्जरार्थत्वात्, १६ निशिसमाप्तिस्वैर्यान्वबच्छित्तिनिमितकेति. १७ मालप्रयोजनस्य शाखेण साधनाखयोजनान्तराभावादित्यर्थः १८ "विभक्तियमन्ततसाद्याभाः" इति तसन्तमव्ययं, तथा चैतदर्षमिति १९ शाखार्थः २.विनेयानाम्. २१ वपन्यास इति. + शास्त्रवादी 1-0 इत्यतः -४ ॥२॥ 'मगल'स्य व्याख्या एवं स्वरुपम् ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: C चैवे" त्यादिनाऽऽदिमङ्गालमाह । तथा "वंदण चिति कितिकम्म" इत्यादिना मध्यमङ्गलं, वन्दनस्य विनयरूपत्वात् , तस्य चाभ्यन्तरतपोभेदत्वात् , तपोभेदस्य च मङ्गलत्वात् । तथा “पञ्चक्खाणं" इत्यादिना चावसानमङ्गलं, प्रत्याख्यानस्थाचतपोभेदत्वादेव मङ्गलत्वमिति ॥ तत्रैतत्स्यात्, इदं मङ्गलत्रयं शास्त्राद्भिन्नमभिन्नं वा?, यदि भिन्नमतः शास्त्रममङ्गलं, तभेदायथानुपपत्ता, अमङ्गलस्य च सतोऽन्यमङ्गलशतेनापि मङ्गलीकर्तुमशक्यत्वात् तम्मालोपन्यासवैयर्थ्य, तदुपा-18 दानेऽनिष्ठा वा, यथा प्रागमङ्गलस्य सतःशास्त्रस्य मङ्गलमुकम्, एवं मङ्गलान्तरमध्यभिधातव्यम् , आद्यमङ्गलाभिधानेऽपि तदमङ्गलत्वात् , इत्थं पुनरप्यभिधातव्यमित्यतोऽनिष्ठेति । अथाभिन्नम्, एवं सति शाखस्यैव मङ्गलवात् अन्यमङ्गलोपादानानर्धक्यमेव, अथ मङ्गलभूतस्याप्यन्यन्मङ्गलमुपादीयत इति, एवं सति तस्याप्यन्यदुपादेय मित्यनवस्थानुपङ्ग एव, अधानवस्था नेष्यत इति मङ्गलाभावप्रसङ्गः, कथम् ? यथा मङ्गलात्मकस्यापि सतः शास्त्रस्य अन्यमङ्गलनिरपेक्षस्यामङ्गलता', एवं मङ्गले स्याप्यन्यमङ्गलशून्यस्य, इत्येतो मङ्गलाभाव इति । * अत्रोच्यते-आद्यक्षोक्तदोषाभावस्तावदनभ्युपगमादेव, तदभ्युपगमेऽपिच मङ्गलस्य लवणप्रदीपादिवत् स्वपरानुग्रहकारित्वादुक्तदोषामांव इति । चरमपक्षेऽपि न मङ्गलोपादानानर्थक्य, शिष्यमतिमङ्गलपरिग्रहाय शाखस्यैव मङ्गलवा१प्रयोजनाभावरूपस्य, १ गाथा 1 आदिशब्देनायभागावसानपर्यन्तस्य अहः ३ ज नेरदओ इत्यादिना जानख सई निर्जरार्थयाम्मलता ४ गाथा वन्दनकनि। |५ द्वितीयभेदः ६ धम्मो मंगलमुकि बदिसा संजमो तपो हति वचनात् ७ बाहोति ८ मालमेदवयव. १ पर्यवसानम्, १० पाखस्त्र ११ मालक.| | पस्याप्यन्यन्मजाककरणे. १२ मूलक्षयकरीति (अन्यद्वितीयमङ्गलकरणाभावात्) ५ कृतस्य. १४ द्वितीवेति १५ द्वितीयकरणाभावात. पाने संपन्न: १७ भेदेति 14 अनिष्ठालक्षणेति. १९ अमेवपक्षे. * मङ्गलभूतस्यापि 1-1 1-४-५ CASSOSA* Nalandarary.com ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः नावश्यक ॥ ३ ॥ नुवादांत्, एतदुक्तं भवति-कथं नु नाम विनेयो मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं गृहणीयात् १, अतो मङ्गलमिदं शास्त्रमितिक थ्यते । आह - यद्यपि मङ्गलमिदं शास्त्रमित्येवं न गृह्णाति विनेयस्तथापि तत् स्वतो मैङ्गलरूपत्वात् स्वकार्यप्रसाधनायालमेवेति कथं नानर्थक्यं ?, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह मङ्गलमपि मङ्गलबुद्ध्या परिगृह्यमाणं मङ्गलं भवति, साधुवत्, तथाहि - साधुर्मङ्गलभूतोऽपि सन्मङ्गलबुद्ध्यैव गृह्यमाणः प्रशस्तेचेतोवृत्तेर्भव्यस्वं तत्कीर्यप्रसाधको भवति, यदा तु न तथा गृह्यते तदा कालुष्योपहतचेतसः सत्त्वस्य न भवतीति, एवं शास्त्रमपीतिभावार्थः । आह-यद्येवममङ्गलमपि मङ्गलबुद्धेः प्राणिनो मङ्गलकार्यकृत्यामोतीति, अनिष्टं चैतदिति, न तस्यै स्वरूपेणैवामङ्गलत्वात्, मैलस्य स्वबुद्धिसापे क्षस्य स्वकर्याभिनिवर्त्तकत्वादिति, तथाहि--यदि कश्चित्काञ्चनमेव काञ्चनतयाऽभिगृह्य प्रवर्त्तते ततस्तत्फलमासादयति, न पुनरकाञ्चनं सत्काञ्चनबुद्धयां, नाप्येतदुद्ध्येति । मङ्गलत्रयापान्तरालद्वयमित्थमैमङ्गलमापद्यत इति चेत्, न, अशेषशास्त्रस्यैव तत्त्वतो मङ्गलत्वात्, तस्यैव च संपूर्णस्यैव त्रिधा विभक्तत्वात् मोदकवदपान्तरालद्वयाभाव इति, यथा सिद्धस्य कथनम् २ इष्टनमस्कारादिमङ्गलविधानद्वाराऽनूद्यते. ३ शाखम् ४ अम्यनमस्कारादिमङ्गलनिरपेक्षत्वेन. ५ निर्विघ्नपारगमनादि ६ मङ्गलरूपस्यापि मङ्गलकरणे. ७ मङ्गलकार्यकृत् ८ 'नोभागमभ भावो 'सुविदो साइयाइओ' ति ( वि० ४९ गाथा ) वचनात्क्षायिकादिभाववतो यतेला. ९ लोकोत्तरतत्त्वप्रालिमाज्ञापनाय १० आसहसिद्धिताशापनाय 11 प्रधानमङ्गलता संपादनेति १२ मला. १३ मङ्गलकार्यकृत् १४ मङ्गलखा गृह्यमाणं भूतमपि मङ्गलकार्यकृत्. १५ कार्यकृत्वे. १६ अमङ्गलस्य १७ स्वरूपेण मङ्गलस्यापि तथात्वापत्तरा मङ्गलेति १८ वो विशेषार्थः १९ मङ्गलत्वेति २० विज्ञविध्वंसादि. २१ सुवर्णकार्य दारिद्र्यनाशादि. २२ काञ्चनकार्यकृद्भवतीति शेषः २३ काञ्चनमपि काञ्चनकार्यकृत् भवतीतिशेषः २४ मङ्गलं मङ्गला गृह्यमाणं तत्कार्यकृदितिनियमे तस्य च १-३-४ Eucation International For Park Use Only ~16~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ३ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: हि मोदकस्य त्रिधाविभक्तस्य अपान्तरालद्वयं नास्ति, एवं प्रकृतशास्त्रस्यापीति भावार्थः । मङ्गालत्वं चाशेषशास्त्रस्य निर्जदरार्थत्वात् , प्रयोगश्च-विवक्षितं शास्त्र मङ्गलं, निर्जरार्थत्वात् , तपोवत् । कथं पुनरस्य निर्जरार्थतेति चेत् , ज्ञानरूपत्वात् , | ज्ञानस्य च कर्मनिर्जरणहेतुत्वात् , उक्तं च-"ज नेरइओ कम्मं, खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥"। स्यादेतत्, एवमपि मङ्गलत्रयपरिकल्पनावैयर्थ्यमिति, न, विहितोत्तरत्वात् , तस्मात्स्थितहमेतत्-शास्त्रस्य आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलमुपादेयमिति । | आह-मङ्गलमिति कः शब्दार्थः?, उच्यते, अगिरगिलगिवगिमगि इतिदण्डेकधातुः, अस्य "इदितो नुम्धातोः" (पा० |४-१-५८) इति नुमि विहिते औणादिकालचूप्रत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति, मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, मनाचते अधिगम्यते साध्यत इतियाँवत्, अथवा मङ्गेतिधर्माभिमानं, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मङ्ग उपपदे "आतोऽनुपसर्गे कः" (पा०३-२-३) इति कप्रत्ययान्तस्य अनुबन्धलोपे कृते "आतो लोप इटि च विति" (पा०६-४-६४ आतो लोप इटि च ) इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च प्रथमैकवचनान्तस्यैव मालमिति भवति, मङ्गलातीति मङ्गलं धर्मोपादानहेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं संसारादपनयतीत्यर्थः।। .. अनुमानस्य. २ मङ्गलमयस्य अविनसमात्यादिकार्यत्रयस्य पृथक्पृधक्तया साधकरवात्. ३ सिद्धम्, १ सदृशधातूनामेका पाठात. ५ प्रात्यर्थत्वात् गल्य र्थानां. ६ निदर्शनमात्रत्वाद्धातूनाम्. ७ पर्यायस्य पर्यायकथने प्रयोग एतस्य. SHREILLEGirintantraTina मङ्गलस्य व्याख्या एवं द्रव्यादि चत्वारः भेदा: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भावश्यक तंच नामादि चतुर्विधं, तद्यथा-नाममङ्गलं १ स्थापनामङ्गलं २ द्रव्यमङ्गलं ३ भावमङ्गलं ४ चेति । तत्रं “यवस्तुनोऽभि- हारिभाद्रीविधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं (च) नाम यादृच्छिक च तथा ॥१॥" अस्यायमर्थ:-'यद्य ॥४॥ वृत्तिः 'वस्तुनो' जीवाजीचादेः 'नाम' यथा गोपालदारकस्येन्द्र इति, "स्थितमन्यार्थे' इति परमार्थतः त्रिदशाधिपेऽवस्थानात्, विभागः१ 'तदर्थनिरपेक्षम्' इति इन्द्रार्थनिरपेक्षं, कथम् ? तत्र गुणतोवर्तत इति, इन्दनादिन्द्रः 'इदि परमैश्वर्ये' इति तस्य परमैश्वर्य युक्तत्वात्, गोपालदारके तु तदर्थशन्यमिति, तथा पर्यायैः शक्रपुरन्दरादिभिः नाभिधीयत इति, इह नामनामवतोरभेहैदोपचाराद्गोपालवस्त्वेव गृह्यते, एवंभूतं नामेति, तथाऽन्यत्रावर्त्तमानमपि किश्चिद यादृच्छिक डिस्थादिवत्, चशब्दात्। यावद्रव्यभावि च प्रायस इति । यतु सूत्रोपदिष्टं "णाम आवकहियं तत् प्रतिनियतजनपदसंज्ञामाश्रित्येति, नाम च तन्मङ्गलं चेतिसमासः, तत्र यत् जीवस्थाजीवस्योभयस्य वा मझलमिति नाम क्रियते तन्नाममङ्गलं, जीवस्य यथा -सिन्धुविषयेऽग्निर्मङ्गलमभिधीयते, अजीवस्य यथा-श्रीमलाटदेशे दवरकवलनकं मङ्गलमभिधीयते, उभयस्य यथा-चंन्दनमालेति । “यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच्च तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत् स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालं च ॥२॥" अस्यायमर्थः-'यद्' वस्तु 'तदर्थवियुक्त' भावेन्द्राद्यर्थरहितं, तस्मिन्नभिप्रायस्तदभिप्रायः, अभिप्रायो बुद्धिः, तदुयेत्यर्थः, करणिराकृतिः, यच्चेन्द्राधाकृति 'लेप्यादिकर्म क्रियते' चशब्दात्तदाकृतिशून्यं चाक्षनिक्षेपादि 'तत्स्थापनेति' तच्चे | १ तत्वभेदपयिष्याम्यतिनियमात् प्राक्तवं मङ्गलव हितप्रात्याभिधाय भेददर्शनाय, २ चतुर्विधे मङ्गले. आपत्ता नामलक्षणप्रतिपादनमवेति वा. ४ भादिना तदुभयस्य. ५ गुणतः, ६ त्रिवधाधिपे.. इन्द्रस. ८ इन्दाति. ९ मभिधानान्तरेऽपि प्रागभिधानवाच्यत्वात् 10 परावृत्तिभावात ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: CAR स्वरमल्पकालमितिपर्यायौ, चशब्दाद्यावन्यभौवि च, स्थाप्यत इति स्थापना, स्थापना चासौ मङ्गलं चेति समासः, तत्र स्वस्तिकादि स्थापनामङ्गलमिति । “भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तद्रव्य तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतन | कथितम् ॥३॥" अस्यायं भावार्थ:-'भूतस्य' अतीतस्य भाविनो वा' एण्यतो 'भावस्य' पर्यायस्य 'कारणं' निर्मित 'यद्' एव 'लोके' 'तदू द्रव्यम्' इति द्रवति गच्छति ताँस्तान्पर्यायान् क्षरति "चेति द्रव्यं 'तत्त्वज्ञैः' सर्पस्तीर्थकृद्भिरितियावत् सचेतनम् अनुपयुक्तपुरुषाख्यम् अचेतनं ज्ञशरीरोदि तथीभूतमन्यद्वा कथितं" आख्यातं प्रतिपादितमित्यर्थः । तत्र द्रव्यं च तन्मगलं चेतिसमासः, तश्च द्रव्यमङ्गलं द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तंत्र आगमतः खल्वागममधिकृत्य आगमापेक्षमित्यर्थः,नोआगमतस्तु तद्विपर्ययमाश्रित्य, तत्रागमतो मङ्गलशब्दाध्येता अनुपयुक्तो द्रव्यमङ्गलम् 'अनुपयोगो द्रव्य' मितिवचनात् , तथा नोआगमतस्त्रिविध द्रव्यमङ्गलं, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलं १ भन्यशरीरद्रव्यमङ्गलं २ ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं ३ द्रव्यमङ्गलमिति । तत्र ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं, शीर्यत इति शरीरं ज्ञशरीरमेव द्रव्यमगलं ज्ञशरीरव्यमङ्गलम् , आफूल्यन्तरे पूर्वाकारोळेदारनन्दीवरद्वीपादिस्थतिमादि. ३ स्थाप्यमानापेक्षवा,अन्यत्र तु तिष्ठतीति स्थापना. आदिना नन्दावादि, ५ भाग| मनोभागमाभ्यां विचारविष्यमाणावाजावार्थ इति । ६ वाशब्दस्य निपातानामनेकार्थत्वेन समुच्चयार्थवाद्भूतभविषपतोअति शेष (चकाराजगभविष्यपर्यायमिति | [विशेषावश्यके) विवक्षितख भावतया ८ "आगमकारणमाया देहो सदोष तो दबं" ति३०विशेषावश्यकवचनादुपादानादीनि विविधानि कारणानि. ९ इष्टावधारणार्थरवायोग्यत्वसद्भाव इति ज्ञापयति । १० पर्यायस क्रममाविस्वात्पूर्वपर्यायान् क्षरति, भूतापेक्षया क्षरति, भविष्यदपेक्षया गच्छतीत्यपि "द्वादशामार्थप्ररूपणाकारित्वातेषाम्. १२ आदिना भव्यपारीरमहा १३ ज्ञभन्यशरीरव्यतिरिक्तमप्रधान कारणादि च.१४ युक्तिदर्शनपुरस्सर रहितं अभ्यस्त । खरूपमेतदिति १५ पठिता. * उपलक्षणादनुपयुक्तान छानादि व्यतिरिक्तमलवात्तस्थ.+पेक्षयेत्यर्थः 1-01 ज्ञाता ३ ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [-1, भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥५ ॥ Ta Ta अथवा ज्ञशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेसिसमासः। एतदुक्तं भवति-मङ्गलपदार्थज्ञस्य यच्छरीरमात्मरहितं तदतीतकाला- हारिभद्रीनुभूततद्भावानुवृत्त्या सिद्धशिलोदितलगतमपि घृतघटादिन्यायेन नोआगमतो ज्ञशरीरद्रव्यमङ्गलमिति, मङ्गल ज्ञानशून्य यवृत्तिः त्वाचे तस्य, इह सर्वनिषेध एव नोशब्दः । तथा भन्यो योग्यः, मङ्गलपदार्थं ज्ञास्यति यो न तावद्विजानाति स भव्य विभागः१ इति, तस्य शरीरं भव्यशरीरं, भव्यशरीरमेव द्रव्यमङ्गलम् , अथवा भव्यशरीरं च तद्रव्यमङ्गलं चेतिसमास इति । अयं भावार्थ:-भाविनी वृत्तिमङ्गीकृत्य मङ्गलोपयोगोधारत्वात् मधुघटादिन्यायेनैव तत् बालादिशरीरं भव्यशरीरद्रव्यमङ्ग मिति,नोशब्दः पूर्ववत् । ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं च द्रव्यमङ्गलं संयमतपोनियमक्रियानुष्ठाता अनुपयुक्तः, आगमतोऽनुप-18 लायुक्तद्रव्यमङ्गलवत्, तथा यच्छरीरमात्मद्रव्यं वा अतीतसंयमादिक्रियापरिणाम, तच उभयातिरिक्तं द्रव्यमङ्गलं, ज्ञशरी रद्रव्यमङ्गलवत्, तथा यदू भाविसंयमादिक्रियापरिणामयोग्यं तदपि उभयव्यतिरिक्त, भव्यशरीरद्रव्यमङ्गलबत्, तथा पायदैपि स्वभावतः शुभवर्णगन्धादिगणं सुवर्णमाल्यादि, तदपि हि भावमङ्गलपरिणामकारणत्वाद् द्रव्यमङ्गलम् , अत्रापि नोशब्दः सर्वनिषेध एव द्रष्टव्यः, इत्युक्तं द्रव्यमङ्गलम् । "भावो विवक्षितक्रियानुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वेरिन्द्रादिवदिहेन्दनादिक्रियानुभवात् ॥४॥" अस्थायमर्थः-भवनं भावः, स हि वक्तुमिष्टक्रियानुभवलक्षणः सर्वे ः ॥५ ॥ मजलभावेति. २ यत्र विधायानपानं जग्मुः शोभनां गतिं वाचंयमाः सेति, ( अनु.) आदिमा तीर्थकरनिर्वाणभूम्पादि, ३ आदिना माक-1 सम्भादि. ४ नोभागमतोपपावनाय. ५ भाचमालकारणताज्ञापनाय. ६ दिना युवादि.७ सर्वनिषेध एवं. ८ उभयसमुखवायापि. ९ आदिना तपोनियमादि | १० शारीरमारमण्यं वा. ११ जभव्यशरीरेति उभयं १२ निमित्तकारणस्यापि द्रव्यत्वार्थ. १३ पदित्यन्तः, - नानुपयुक्तः १-३-३-४ + चाती १३ ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: -, भाष्यं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: समाख्यातः, इन्दनादिक्रियानुभवनयुक्तेन्द्रादिवदिति । तत्र भावतो मङ्गलं भावमङ्गलम् , अथवा भावश्चासौ मङ्गलं चेति समासः, तच्च द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो मङ्गलपरिज्ञानोपयुक्तो भावमङ्गलं, कथमिह भावमङ्गलोपयोगमात्रात् तन्मयताऽवगम्यत इति, नह्यग्निज्ञानोपयुक्तो माणवकोऽग्निरेव, दहनपचनप्रकाशनाद्यर्थक्रियाप्रसाधकत्वाभा-8 वाद् इति चेत्, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, संवित् ज्ञानम् अवगमो भाव इत्यनान्तरं, तत्र 'अर्थाभिधानप्रत्ययाः तुल्य नामधेयाः' इति सर्वप्रवादिनामविसंवादस्थानम्, अग्निरितिच यज्ज्ञानं तदव्यतिरिक्तो ज्ञाता तल्लक्षणो गृह्यते, अन्यथा व तज्ज्ञाने सत्यपि नोपलभेत, अतन्मयत्वात्, प्रदीपहस्तान्धवत् पुरुषांन्तरवद्वा, नचानाकारं तज्ज्ञानं, पदार्थान्तरवद्भिव क्षितपदार्थापरिच्छेदप्रसाद, बन्धाद्यभावश्च, ज्ञानाज्ञानसुखदुःखपरिणामान्यत्वादू, आकाशवत्, न चानलः सर्व एव दहनाद्यर्थक्रियाप्रसाधको, भस्मच्छन्नादिना व्यभिचारात्, इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतमुच्यते-नोआगमतो भावमङ्गलम् आगमवर्ज ज्ञानचतुष्टयमिति, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य, अथवा सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्रोपयोगपरिणामो यः स नागम एव केवलः न चानागमः, इत्यतोऽपि मिश्रवचनत्वान्नोशब्दस्य नोआगमत इत्याख्यायते, अथवा अन्नमस्काराद्युपयोगः मजलाधिकारे भावाधिकारे भावलक्षणसिद्धी वा. २ अर्धाभिधानमत्ययेतिन्यायादमिज्ञानस्यामिरूपत्वं, तदव्यतिरिकस्य ज्ञानुरपि, तथा सत्ति मग्निलक्षणवमिति शायते. ३ ज्ञानात्मनोयतिरिकत्वे. ४ ज्ञानात्मनोमदात्. ५ प्रदीपयज्ज्ञानम् , अन्धवज्ञानातिरिक्तः पुरुषः, प्रदीपहस्तरबंध निकटस्वाय. ६ समवायापेक्षया रटान्तान्तरं अन्तरापेक्षया बा. विषयवैशिषशून्य, तथाच ज्ञेयस्य भिन्नत्वं ज्ञानात्, ८ प्रसङ्गोऽनिष्टापत्तिः १ चकारो नोपल भेतेत्यनेन सह समुश्चयार्थः, ज्ञानात्मनो दे दूषणान्तरमेतदिति १० स्थादित्यध्याहार्यम्, 1 चजकान्तमणिव्यवहितादेमंदा, भमाच्छादिवदुपयोगरूपोऽपि न दाहकादिगुण इति तत्पम् । १२ नोशब्दस्ख पर्युदासप्रतिषेधार्थत्वादागमवश्य ज्ञानचतुष्टयमिति. * ज्ञानोपयुक्तो. ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-1, निर्युक्ति: 1. भाष्य [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आवश्यक ॥ ६ ॥ खल्वागमैकदेशत्वात् नोआगमतो भावमङ्गलमिति ॥ ननु नामस्थापनाद्रव्येषु मङ्गलाभिधानं विवक्षितभावशून्यत्वादू दैव्यत्वं च समानं वर्त्तते; ततश्च क एषां विशेष इति, अत्रोच्यते, यथा हि स्थापनेन्द्रे खल्विन्द्राकारो लक्ष्यते, तथा कर्तुःश्च सद्भूतेन्द्राभिप्रायो भवति, तथा द्रष्टुश्च तदाकारदर्शनादिन्द्रप्रत्ययैः, तथा प्रणतिकृतधियश्चै फलार्थिनः स्तोतुं प्रवर्त्तन्ते, फलं च प्रामुचन्ति केचिद्देवतानुग्रहात्, न तथा नार्मद्रव्येन्द्रयोरिति, तस्मात्स्थापनायास्तावदित्थं भेद इति । यथा च द्रव्यन्द्रो भावेन्द्रस्य कारणतां प्रतिपद्यते, तथोपयोगीपेक्षायामपि तदुपयोगतामासादयिष्यति अवाप्तवांश्च न तथा नामस्थापनेन्द्रावित्ययं विशेषः । भावमङ्गलमेवैकं युक्तं, स्वकीर्यप्रसाधकत्वात् न नामादयः, तत्कार्याप्रसाधकत्वात् पापवद् इति चेत्, न नामादीनामपि भावैविशेषत्वात् यस्मादविशिष्टमिन्द्रादि वस्तु उच्चरितमात्रैमेव नामादिभेदचतुष्टयं 3 १ नोशब्दस्य सर्वदेशनिषेधैकदेशवाचकत्वात् क्रमेण नोआगमतो मङ्गलपदार्थत्रयं ज्ञानचतुष्टयादिरूपम् २ इयेषु दधिदुर्वादिषु अन्यादिषु च मनलाभिधानं. ३ “अभिहाणं दण्वतं तपत्यसुन्नत्तणं च तुहाई” इतिविशेषावश्यके पृथ प्रोक्तं, अत्र तु तदर्थशून्यत्वं यत्वे हेतुतयोक्तम् 'वस्तुनोऽभिधान' मिति 'बहुतदर्शवियुक्त' मिति वचनानामस्थापनयोरपि द्रव्यत्वं कारणता सर्वत्रेति वा द्रव्यता, पूर्व निक्षेपचतुष्कस्य प्रकान्तत्वानामम्यभेदविषयाशङ्का विवक्षितेत्यादेस्तु द्रव्यत्वे हेतुता. ४ भावे संभवानान्न आह- द्रव्यत्वमिति विवक्षितभावशून्यत्वं हि तत् नच तद्भाव इति । ५ स्पष्टं लक्ष्यमानत्वादादौ स्थापनाभेदनिरूपणम् ६ सद्भावस्थापनापेक्षया. ७ अवितथेति ८ बुद्धिः ९ सहस्राक्षवज्रधरवादि १० प्रतीतिः ११ आराधना तत्परताना १२ सुतधनादि फलं. १३ तत्पाक्षिकेति १४ स्थूलबुद्धे लोकस्य तत्र तथाध्यवसायाद्यभावात् १५ शोआगमतो भावेन्द्रस्य. १६ धिज्ञानवतां १७ भव्यशरीर. १० श रीरद्रव्यं १९ अर्थक्रियाकारि ववित्यभिप्रेत्या २० निर्विशास्त्रपारगमनादि २१ नाममङ्गलादीनां २२ भवत्वात् २३ अयुत्पादितं. Education Internation For PaPa Lise Only ~ 22~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥६॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: प्रतिपद्यते, भेदाश्च पर्यायाएवेति,अथवा नामस्थापनाद्रव्याणि भावमङ्गलस्यैवाङ्गानि, तत्परिणामकारणत्वात् , तथा च मङ्गलाँद्यभिधानं सिद्धार्थेभिधानं चोपश्रुत्य अर्हत्प्रतिमास्थापनां च दृष्ट्वा भूतयतिभावं भव्ययतिर्शरीरं चोपलभ्य प्रायः सम्यग्दर्शनादिभावमङ्गलपरिणामो जायते, इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र नोआगमतोऽहन्नमस्करादि भावमङ्गलमुक्त, अधवा नोआगमतो भावमङ्गलं नन्दी, तत्र नन्दनं नन्दी, नन्दन्त्यनयेति वा भव्यप्राणिनं इति नन्दी, असावपि च मङ्गलवन्नामादिचतुर्भेदभिन्ना अवगन्तव्येति, तत्र नामस्थापने पूर्ववत् , द्रव्यनन्दी द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो| ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्ता च द्रव्यनन्दी द्वादशप्रकारस्तूर्यसंघौतः 'भंभा मुकुंद मद्दल कडंब झल्लरि हुडुक कंसाला । काहलि तैलिमा वसो, संखो पणवो य बारसमो॥१॥ तथा भावनन्द्यपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता + उपयुक्तः, नोआगमतः पश्चप्रकारं ज्ञानं, तचेदम्आभिणियोहियनाणं सुयनाणं चेव ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं केवलनाणं च पंचमयं ॥१॥ जानीते. २ निक्षेपचतुष्कस्य भिन्न भिन्नाधिकरणतामाश्रित्याह. ३ अवयवाः.४ भावमालनिदानत्वात्. ५ आदिना ज्ञाननिर्जरादिप्रहः. ६ विशेषनाम्नां | कारणताथै, आदिना जिनेन्द्रादिः ७ सम्यग्दर्शनादेः प्रबलकारणत्वात् , काम्यम्भवादिवत् . ८ 'इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिवेणं भावेणं आवस्सएत्ति पयं सेभकाले सिक्खिस्सइ न ताच सिक्सति' इति अनुयोगद्वारचचनात् . ९ज्ञात्वा दृष्ट्वा वा १० क्लिष्टस्याभावात्. " ज्ञानचारित्रोपयोगग्रहः. १२ 'कप(पंचनमुकारस्स दिन्ति सामाइयाइयं विहिष्णा' इतिवचनात्सूत्रापेक्षं, १३ अनुयोगापेक्षं, नन्यनुयोगस्यैकदेशत्वादू - १४ कर्तृतामाएमाः, १५ 'दब्बे तूरसमुदभो' इति वचनात, क्रियाविशिष्ट इत्यध्याहार्वमन्यथा नामनन्दीरकापतेः. *तिलिमा १-४. सदुपयुक्तः 1-1-1. SEARCCA ज्ञानस्य आभिनिबोधिक आदि पञ्च प्रकारा: ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: वश्यक व्याख्या अर्थाभिमुखो नियेतो बोधः अभिनियोधः, अभिनिबोध एव आभिनिवोधिक, विनयादिपाठात् अभिनि-I हारिभद्रीबोधशब्दस्य “विनयादिभ्यष्ठा" (पा०५.४-३४) इत्यनेन स्वार्थ एव ठक्प्रत्ययो, यथा विनय एव चैनयिकमिति | यवृत्तिः त अभिनिबोधे वा भवं तेन वा निवृत्तं तन्मयं तत्प्रयोजनं वाअथवा ऽभिनिबुध्यते तद् इत्याभिनिबोधिक, अवग्रहादिरूपं विभागः१ मतिज्ञानमेव, तस्य स्वसंविदितरूपत्वात्, भेदोपैचारादित्यर्थः, अभिनिबुध्यते वाऽनेने त्याभिनिवोधिक, तदावरणकर्मक्षयोपशम इति भावार्थः, अभिनिबुध्यते अस्मादिति वाऽऽभिनिबोधिक, तदावरणकर्मक्षयोपशम. एव, अभिनिबुध्यतेऽस्मिन्निति वा क्षयोपशम इत्याभिनिवोधिकं, आत्मैव वाऽभिनिबोधोपयोगपरिणामानन्यत्वादू अभिनिबुध्यत इत्याभिनिबोधिक, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति समासः तथा श्रूयत इति श्रुतं शब्द एव, भावश्रुतकारणत्वादिति भावार्थः, अथवा श्रूयतेऽनेनेति श्रुतं, तदावरणाशयोपशम इत्यर्थः, श्रूयतेऽस्मादिति वा श्रुतं, तदावरणक्षयोपशम एव, श्रूयतेऽस्मिन्निति वा क्षयो-16 पशम इति श्रुतं, शृणोतीति वाऽऽत्मैव तदुपयोगानन्यत्वात् , श्रुतं च तज्ज्ञानं चेति समासः,चशब्दस्त्वनयोरेवं तुल्यकक्षतोभावनार्थः, स्वाम्यादिसाम्यात्, कथम् , य एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य "जत्थ मइनाणं तत्थ सुयणाण"* पदार्थनान्तरीपकः. २ नियतविषयं, नतु विचन्द्रादिवत्. ३ प्रकाश्यप्रकाशकोभयरूपत्वादित्यर्थः, प्रा प्रकाशकम् . ४ एकत्वात् ककमैक्यात. ५ 'भावाकोंः' इत्यभिनिबोधशब्दनिष्पत्ती प्राग्वदाभिनिवोधिकशब्दनिष्पत्तिः, कर्तरि तु लिहादित्वादच्, ६ बहुलवचनात् कर्माविष्वपि को नपुंसके, प्राभृतको व्यमिति भग्वमाहेतिवचनायाभूताहा निष्पत्तिरेवमन्यत्राप्यूयम् . . ज्ञानदयानम्तरं चस्प पाठात्. तुल्यपक्षतोदोधनाय. "कृषन्तव्युत्पत्तये, उपसर्गावत्र विशेषको धातोः प्रकाशकमतौ * मित्रत्वाशङ्कापनोदाय कर्म१-४. ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: + मिति वचनात् , तथा यावान्मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेवेतरस्य, प्रवाहापेक्षया अतीतानागतवर्तमानः सर्व एव, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया च षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, उक्कं च भाष्यकारेण "दोवारे विजयाइसु गयस्स तिण्णचुए अहव ताई । अइरेंगे णरभविअं णाणाजीवाण सम्बद्धं ॥१॥" यथा च मतिज्ञानं क्षयोपशमहेतुक, तथा श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानमादेशतः सर्वव्यादिविषयम्, एवं श्रुतज्ञानमपि, यथा च मतिज्ञानं परोक्षम् , एवं श्रुतज्ञानमपि इति, एवकारस्त्ववधारणार्थः, परोक्षत्वमर्नयोरेवावधारयति, आभिनिबोधिकश्रुतज्ञाने एव परोक्षे| इति भावार्थः । तथा अवधीयतेऽनेन इत्यवधिः, अवधीयते इति अधोऽधो विस्तृत परिच्छिंद्यते, मर्यादया वेति, [अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम एव, तदुपयोगहेतुत्वादित्यर्थः, अवधीयतेऽस्मादिति बेति अवधिः, तैदावरणीयक्षयोपशम एव, अवधीयतेऽस्मिमिति वेत्यवधिः, भावार्थः पूर्ववदेव, अवधानं वाऽवधिः, विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः, अवधिश्चासौ ज्ञानं च अवधिज्ञानं, चशब्दः खल्वनन्तरोकज्ञानद्वयसाधर्म्यप्रदर्शनार्थी, स्थित्यादिसाधात् , कथम् , यावान्मतिश्रुतस्थितिकाला प्रवाहापेक्षया अप्रतिपतितकसत्त्वाधारापेक्षया च, तावानेवावधेरपि, अतः स्थितिसाधम्यात्, एकेन्द्रियादिपु क्षयोपशमसदावाहूयोः संज्ञासद्धावाच श्रुतसचा (वि.१०२ प्रभृतिके), सम्यग्ज्ञानापेक्षया. २ श्रीमता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन. दी बारी विजयारिषु गतस्य त्रीन् वारान् अच्युतेऽथवा तानि (पट्पष्टिसागरोपमाणि) अतिरिक्त नरमविक (मप्रतिपतितकजीवापेक्षया) भानाजीवाना सर्या (वि.४३), भोपादेशात्स्वादेशाद्वा. ५ आदिना क्षेत्रकालभावग्रहः पदम्येन्द्रियमबोनिष्पायरमात, . दर्शनरूपयोषष्पवणेदाप, रूपिअग्यास्मिकया. ९ क्षयोपकामयाभावरूपत्वेनेवर, भामस्वरूपं ज्ञानमिन्युक्तमिवम्, 'दावरण. 1-1. SACRISION SAREauratoninianimational ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: - - ॥८ ॥ 6 -2 K द्रीयथा मतिश्रुते विपर्ययज्ञाने भवतः, एवमिदमपि मिथ्यादृष्टेविभङ्गज्ञानं भवतीति विपर्ययसाधात् , य एव च मति-हाडभिती श्रुतयोः स्वामी स एव चावधेरपि भवतीति स्वामिसाधात् , विभङ्गज्ञानिनः त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपज्ज्ञान- यवृत्तिः त्रयं संभवतीति लाभसाधाच । तथा मनःपर्यवज्ञानं, अर्थ भावार्थः-परिः सर्वतो भावे, अवनं अवः, अवनं गमन विभागः १ वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः पर्यवनं वा पर्यव इति, मनसि मनसो वा पर्यवों मनःपर्यवः, सर्वतस्तत्परिच्छेदात इत्यर्थः, स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं, अथवा मनसः पर्याया मनःपर्यायाः, पर्याया भेदा धर्मा बाह्यवस्त्वालोचनप्रकारा* इत्यनर्थान्तरं, तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, इदं चार्धेतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिसं-13 ज्ञिमनोगतद्रव्यालम्बनमेवेति, तथाशब्दोऽवधिज्ञानसारूप्यप्रदर्शनार्थः, कथम् ?, छद्मस्थस्वामिसाधर्म्यात् , तथा पुद्गलमा-16 त्रालम्बनत्वसाम्यात्, तथा क्षायोपशमिकभावसाम्यात् , तथा प्रत्यक्षत्वसाम्याच्चेति । केवलमसहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षं. शुद्धं वा केवलं, तदावरणकर्ममलकलङ्काङ्करहितं, सकलं वा केवलं, तत्प्रथमतयैव अशेषतदावरणाभावतः संपूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलं, अनन्यसदृशमितिर्हदयं, ज्ञेयानन्तत्वाः अनन्तं वा केवलं, यथावस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना, केवलं च तज्ज्ञानं चेति समासः, चशब्दस्तूक्तसमुच्चयाः , केवलज्ञानं च पञ्चमकमिति, अथवाऽनन्त-12 विषयसप्तमी. र सम्बन्धे षष्टी. ३ विना दर्शनं ज्ञानेनानेन विशेषोपयोग इति, विशुद्धतरानि वा मनोदष्याणि जानात्वनेनेति ज्ञापनाथ वा. ५ अरूपिदम्पालम्बनन्यवछेदाप मान्नेति. ५ "जीयो अपलो प्राथपावणभोयणगुणाषिणाओ जेणं । तं पइ वह नाणं,जे पचक्कं तयं तिविहं" (वि०८५) इति. ६ अपेक्षास्त्र सहावस्थानरूपा. ७ मत्यादीना स्वावरणोपेतत्वात् , अशे लक्ष्म. ८ उत्पत्तिसमय एव.९ तारतम्यबत् म्यूनं पा कदापि, अन्यस्य कस्यापि रूभ्यरूपि| सूक्ष्मदूरेतरादिपदार्थाप्राहकाचात. ११ आधारापेक्षयासंख्येवरयेऽपि. पसंभवतो परि. SAREauraininternational ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: SACC राभिहितज्ञानसारूप्यप्रदर्शक एव, अप्रमत्तभावयतिस्वामिसाधात् विपर्ययाभावयुक्तत्वाचेति गाथासमासार्थः ॥ __आह-मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः कः प्रतिविशेष इति, । उच्यते, उत्पन्नाविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानं तु त्रिकालविषयं उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति, भेदकृतो वा विशेषः, यस्मादवग्रहाद्यष्टाविंशतिभेदभिन्नं मतिज्ञानं, तथाऽमानङ्गादिभेदभिन्नं च श्रुतमिति, अथवाऽऽत्मप्रकाशकं मतिज्ञानं, स्वपैरप्रकाशकं च श्रुतमित्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेवैतदिति । अत्राह-एषां ज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किं प्रयोजनं इति, उच्यते, परोक्षत्वादिसाधर्म्यान्मतिश्रुतसद्भावे च शेषज्ञानसंभवात् आदावेव मतिश्रुतोपन्यासः, मतिज्ञानस्य पूर्व किमिति चेत्, उच्यते, मतिपूर्वकत्वात् श्रुतस्येति, मतिपूर्वकत्वं चास्य "श्रुतं मतिपूर्वम्" (ब्यनेकद्वादशभेदम् श्रीतत्त्वार्थे अ०१सू०२०) इति वचनात्, तत्र पायो मतिश्रुतपूर्वकत्वात्प्रत्यक्षत्वसाधाच ज्ञानत्रयोपन्यास इति, तापि कालविपर्ययादिसाम्यान्मतिश्रुतोपन्यासानन्तरमेवावधेरुपन्यास इति, तदनन्तरं च छाद्मस्थिकादिसाधान्मनःपर्यायज्ञानस्य, तदनन्तरं भावमुनिस्वाम्यादि-18 साधम्योत्सर्वोत्तमत्वाच्च केवलस्येति गाथार्थः ॥ १ ॥ साम्पतं 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायाद ज्ञानपञ्चकादावुद्दिष्टस्य आभिनिबोधिकज्ञानस्य स्वरूपमभिधीयते-तच्चाभि-18 * - * न शेषज्ञानानामित्यर्थः २ मत्यादीनामपि तेन स्वरूपनिरूपणात् . ३ संक्षेपविवरणरूपत्वात् . ४ भावभुतस्व. ५ मिथ्याटेनिज्ञानावाप्तौ न प्राय मतिश्रुते स्त इति प्राय इति । ६ हानत्रयोपन्यासे.. लाभादिग्रहः.८ पुनलावलम्बनस्वादिः ९विपर्यषाभावत्वादिभित्रोच्यते । आभिनिबोधिक/मति-ज्ञानस्य स्वरुपम् एवं भेद-प्रभेदा: ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [९], भाष्यं [-] अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ॥९॥ आवश्यक - ४ निबोधिकज्ञानं द्विधा, श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च यत्पूर्वमेव कृतश्रुतोपकारं इदानीं पुनस्तदनपेक्षमेवानुप्रवर्त्तते तद् अवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितमिति । यत्पुनः पूर्वं तदपरिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वात् औत्पत्तिक्यादिलक्षणं उपजायते तदश्रुतनिश्रितमिति । आह - "तिवग्गमुत्तत्थगहियपेयाला" इति वचनात् तत्रापि किञ्चित् श्रुतोपकारादेव जायते, तत्कथमश्रुतनिश्रितमिति, उच्यते, अवग्रहादीनां श्रुतनिश्चिताभिधानाद् औत्पत्तिक्यादिचतुष्टयेऽपिच अवग्रहादिसद्भावात् यथायोगमश्रुतनिश्रितत्वमवसेयं, न तु सर्वमेवेति, अयमत्र भावार्थ:-- श्रुतकृतोपकारनिरपेक्षं यदौत्पत्तिक्यादि तदश्रुतनिश्रितं, प्रातिभमितिहृदयं, वैनयिकीं विहायेत्यर्थः, बुद्धिसाम्याच्च तस्या अपि निर्युक्तौ उपन्यासोऽविरुद्ध इत्यलं प्रसङ्गेन । तत्र श्रुतनिश्रितमतिज्ञानस्वरूपप्रदर्शनायाह उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एव हुंति चस्तारि । आभिणिबोहिषनाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥ २ ॥ व्याख्या— तत्र सामान्यार्थस्याशेषविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरवग्रहणं अवग्रहः, तदर्थविशेषालोचनं ईहा, तथा प्रक्रान्तार्थविशेषनिश्चयोऽवायः, चशब्दः पृथक् पृथक् अवग्रहादिस्वरूपस्वातन्त्र्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादीनां ईहादयः १ औत्पत्तिक्यादिविषयवस्तुसम्बन्धिपरिकर्म न श्रुतकृतमिति । २ परिकर्म विना. ३" प्रशा नवनचोडेलशालिनी प्रतिभा सता " सैव प्रातिभं नस्त्वत्र श्रुतकेवहातिरिकं सामयोगजन्यं प्रातिभ सकृच्छ्रतनिचितत्वात् यागः, बाहुल्यापेक्षया तद्मनुसरणं त्वश्रुतनिश्चितत्वं, बद्धा पूर्वमशिक्षितशास्त्रार्थस्वानिति वैनयिकी त्वन्यचेति हानं विमर्शमाधान्याच बुद्धिष्टवान्तभाव: श्रुतकृती० Ja Eucation Internation For Park Use Only ~28~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥९॥ waryra Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: - -- DI पर्याया न भवन्तीत्युक्तं भवति, अवगतार्थविशेषधरणं धारणा, एवकारः क्रमप्रदर्शनार्थः, एवं' अनेनैव क्रमेण भवन्ति, चत्वारि, आभिनिबोधिकज्ञानस्य भियन्त इति भेदा विकल्पा अंश इत्यनर्थान्तरं, त एव वस्तूनि भेदधस्तूनि, कथम् !, यतो नानवगृहीतमीह्यते, न चानीहितमवगम्यते, न चानवगतं धार्यत इति । अथवा काका नीयते-एवं भवन्ति चत्वा-19 र्याभिनिवोधिकज्ञानस्य भेदवस्तूनि !, 'समासेन' संक्षेपेण अविशिष्टावमहादिभावस्वरूपापेक्षया, न तु विस्तरत इति, विस्तरतोऽष्टाविंशतिभेदभिन्नत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥२॥ इदानीमनन्तरोपम्यस्तानामवमहादीनां स्वरूपप्रसिपिपादयिषयेदमाह अस्थाणं ओगहणमि उग्गहो तह थियारणे ईहा । ववसायंमि अवाओ धरणमि य पारणं विति ॥३॥ व्याख्या-तत्र अर्यन्ते इत्यर्थाः, अर्यन्ते गम्यन्ते परिच्छिद्यन्त इतियावत्, ते च रूपादयः, तेषां अर्थानां, प्रथम दर्शनानन्तरं ग्रहणं अवग्रहणं अवमहं युवत इतियोगः । आह-वस्तुनः सामान्य विशेषात्मकतयाऽविशिष्टत्वात् 18 किमिति प्रथमं दर्शनं न ज्ञानमिति, उच्यते, तस्य प्रबलावरणत्वात्, दर्शनस्य चाल्पावरणत्वादिति । स च द्विधाव्यञ्जनावमहोऽर्थावग्रहश्च, तत्र व्यञ्जनावग्रहपूर्वकत्वादावग्रहस्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रहः प्रतिपाद्यत इति । तत्र व्यञ्जनावग्रह इति का शब्दार्थः, उच्यते, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तच्च उपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसंघातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन उपकरणेन्द्रियेण शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च व्यञ्जनानां अवग्रहो (अत्याणं ओगाहणं, उमाई पद वियालणं ईई । बवसाय व अवार्य, धरणं पुण धारणं विति ॥ ३॥) क्रमदर्शनार्थः धरणं पुणग्रहणं अवग्रह For P OW ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः |विभाग:१ व्यञ्जनावग्रह इति । अयं च नयनमनोवर्जेन्द्रियाणामवसेय इति, न तु नयनमनसोः, अप्राप्तकारित्वात् , अप्रा- प्तकारित्वं चानयोः "पुहं सुणेइ सई रुवं पुण पासई अपुहं तु" इत्यत्र वक्ष्यामः । तथा च व्यञ्जनावग्रह चरमस- मयोपात्तशब्दाद्यर्थावग्रहणलक्षणोऽर्थावग्रहः, सामान्यमानानिर्देश्यग्रहणमेकसामयिकमिति भावार्थः । 'तथा' इत्यानन्तर्ये 'विचारणं' पर्यालोचनं अर्थानामित्यनुवर्तते, ईहनमीहा तां, ब्रुवत इति संबन्धः । एतदुक्तं भवति- अवनहादुत्तीर्णः अवायात्पूर्वं सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूतार्थविशेषत्यागाभिमुखश्च प्रायो मधुरत्वादयः शङ्खशब्दधर्मा अत्र घटन्ते न खरकर्कशनिष्ठरतादयः शाशब्दधर्मा इति मतिविशेष ईहेति । विशिष्टोऽवसायो व्यवसायः निर्णयो निश्चयोऽवगम इत्यनान्तरं, तं व्यवसायं च, अर्थानामिति वर्त्तते, अवायं ब्रुवत इति संसर्गः, एतदुक्तं भवतिशाङ्क एवार्य शार्ङ्ग एवं पा इत्यवधारणात्मकः प्रत्ययोऽवाय इति, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, व्यवसायमेवावायं ब्रुवत इति भावार्थः । धृतिर्धरण, अर्थानामिति वर्तते, परिच्छिन्नस्य वस्तुनोऽविच्युतिस्मृतिवासनारूपं तद्धरणं पुनर्धारणां ब्रुवते, पुनःशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारणे, धरणमेव धारणां अवत इति, अनेन शास्त्रपारतच्यमाह, इत्थं तीर्थकरगणधरा हुवत इति । एवं शब्दमधिकृत्य श्रोत्रेन्द्रियनिवन्धना अवग्रहादयः प्रतिपादिताः, शेषेन्द्रियनिबन्धना अपि रूपादिगोचराः स्थाणुपुरुष-कुष्ठोत्पल-संभृतकरिलमांस-सोत्पलनालादी इत्थमेव द्रष्टव्याः, एवं मनसोऽपि स्वसे शब्दादिविषया अवग्रहादयोऽवसेया इति, अन्यत्र चेन्द्रियव्यापाराभावेऽभिमन्यमानस्येति । ततश्च व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः, गाथा०५२ चक्षुरादीनां क्रमशो दृष्टान्तदर्शनात् कोष्टपुटाख्यो गन्धद्रव्यविशेषः । स्वप्नात्. * अप्राप्यकारित्वात् ५41 वनावमा ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: तस्य नयनमनोवर्जेन्द्रियसंभवात् , अर्थावग्रहस्तु पोढा, तस्य सर्वेन्द्रियसंभवात् । एवमीहादयोऽपि प्रत्येकं षट्पकारा| एवेति । एवं संकलिताः सर्व एव अष्टाविंशतिर्मतिभेदा अवगन्तव्या इति । अन्ये त्वेवं पठन्ति-अस्थाणं उम्गहणमि दिउग्गहों तत्र अर्थानामवग्रहणे सति अवग्रहो नाम मतिभेद इत्येवं अवते, एवं ईहादिष्वपि योज्यं, भावार्थस्तु पूर्वव दिति । अथवा प्राकृतशैल्या 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम' इति यथाऽऽचाराङ्गे-"अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघायमावअंति" इत्यत्र अग्निना च स्पृष्टाः, अथवा स्पृष्टशब्दः पतितवाची, ततश्चायमर्थः-अग्नौ च पतिता 'एके' शलभादयः 'संघातमापद्यन्ते' अन्योऽन्यगात्रसंकोचमासादयन्तीत्यर्थः,तस्मादू अग्निसमारम्भोऽनेकसत्त्वव्यापत्तिहेतुः इत्यतो न कार्य: * इत्यादिविचारे द्वितीया तृतीयार्थे सप्तम्यर्थे च व्याख्यातेति । एवमत्रापि सप्तमी प्रथमार्थे द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥३॥ इदानीमभिहितस्वरूपाणामवग्रहादीनां कालप्रमाणमभिधित्सुराह 'उग्गह इकं समयं ईहावाया मुहुत्तमई तु । कालमसंखं संखं च धारणा होइ णायवा ॥४॥ व्याख्या-तत्र अभिहितलक्षणोऽर्थावग्रहो जघन्यो नैश्चयिकः, स खलु एक समयं भवतीति संवन्धः, तत्र काला नोइन्द्रियस्यापि महणमुपलक्षणात् , अन्यथा न स्युर्भेदाः षट् , इन्द्रियत्वं वाभिप्रेतमत्र सस्थाभ्यन्तरनित्यन्वितत्वात्. २ ज्ञायतेऽनेन भाचारा-18 व्याख्या श्रीमतों काकारमाकनीति ३ अर्यावग्रहो द्विधा जघन्य उत्कृष्टा, आयो नैनयिक एवेतरः सौम्यवहारिक इति जघन्यो नैञ्चयिक इति प्रोतुः, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिर्न हि संदेहाद क्षणमिति न्यायात्. एवेत्यर्थः, संक. विवाहो. 'उगहु (नि.३) मुडुचमन्तं तु (.) ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 21 आवश्यकपरमनिकृष्टः समयोऽभिधीयते, स च प्रवचनप्रतिपादितोत्पलपत्रशतब्बतिभेदोदाहरणादू जरत्पशाटिकापाटनदृष्टान्ताच सहारिभद्री अवसेयः, तथा सांव्यवहारिकार्थावग्रहव्यञ्जनावग्रही तु पृथक् पृथग अन्तर्मुहूर्त्तमात्रं कालं भवत इति विज्ञातन्यौ। यवृत्तिः ॥११॥ ईहा चावायश्च ईहावायी, प्राकृतशैल्या बहुवचनं, उक्तं च-"दुषयणे बहुवयणं छहीविहत्ती भण्णइ चउत्थी । जह हत्या विभागः१ तह पाया, णमोऽत्थु देवाहिदेवाणं ॥१॥" तावीहावायौ मुहर्ताध ज्ञातव्यौ भवतः, तत्र मुहूर्तशब्देन घटिकाद्वयपरिमाणः कालोऽभिधीयते, तस्याधं तु मुहर्धेि, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-व्यवहारापेक्षया एतद् मुहर्तार्धमुक्त, तत्त्वतस्तु अन्तमुहूर्तमवसेयमिति । अन्ये वेवं पठन्ति 'मुहुत्तमन्तं तु मुहुर्तान्तस्तु द्वे पदे, अयमर्थः-अन्तर्मध्यकरणे, तुशब्द एवकारा, स चावधारणे, एतदुकं भवति-ईहावायौ मुहूर्तान्तः, भिन्नं मुहूर्त ज्ञातव्यौ भवतः, अन्तर्मुहूर्तमेवेत्वर्थः । कलनं कालः तं काल, न विद्यते संख्या इयन्तः पक्षमासर्वयनसंवत्सरादय इत्येवंभूता यस्खासावसंख्या, पल्वोपमादिलक्षण इस्वर्थः, तं कालमसंख्न्यं, तथा संख्यायत्त इति संख्यः, इयन्तः पक्षमासत्वंयनादव इत्येवं संख्याप्रमित इत्यर्थः, तं संख्ये च, चशम्दात् अन्तर्मुहर्स च, धारणा अभिहितलक्षणा भवति ज्ञातव्या, अयमत्र भावार्थ:-अवायोत्तरकालं अविच्युतिरूपा-अन्तर्मुहूर्त भवति, एवं स्मृतिरूपाऽपि, वासनारूपा तु तदावरणक्षयोपशमाख्या स्मृतिधारणाया बीज-M भूता संख्येयवायुषां सत्त्वानां संख्येयं कालं असंख्येयवर्षायुषां पल्योपमादिजीविनां चासंख्येयमिति गाथार्थः ॥४॥ W "श्रद्धाजोभाध्यकाराविम्याक्यानात. बहुवचन द्विवचने पीधिमकी भव्यते चतुर्थी । यथा हसी तथा पादौ नमोऽस्तु देवाधिदेवेम्पः ॥११॥ गुकोसे" इत्याविवचनादपचनासमवात्तद्रहितानामसंख्येयायुषामितिदर्शनाप पक्ष्योपमेत्यादि. *जीयंत ५-६ + ज्ञातव्यौ १-३-३-४५ बहुववणेण दुषयणं 1-२-३-४ भषणए ५-६. ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) भाष्यं [-] अध्ययनं [–], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः इत्थमवहादीनां स्वरूपमभिधाय इदानीं श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिपुराह— पुणे सरूवं पुण पासई अपुढं तु । गंध रसं च फार्स च बद्धपुढं वियागरे ॥ ५ ॥ व्याख्या-- आह- ननु व्यञ्जनावग्रहनिरूपणाद्वारेण श्रोत्रेन्द्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयता प्रतिपादितैव, किम थं पुनरयं प्रयास इति, उच्यते, तत्र प्रक्रान्तगाथा व्याख्यानद्वारेण प्रतिपादिता, साम्प्रतं तु सूत्रतः प्रतिपाद्यत इव दोषः । तत्र 'स्पृष्टं' इत्यालिङ्गितं, तनौ रेणुवत् शृणोति गृह्णाति उपलभत इति पर्यायाः, कम् ? - शब्दयतेऽनेनेति शब्दः तं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसंघातं इदमत्र हृदयम्-तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात् श्रोत्रेन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणाप्रायः पटुतरत्वात् स्पृष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवहं गृह्णाति । रूप्यत इति रूपं तद्रूपं पुनः पश्यति गृह्णाति उपलभत इत्येकोऽर्थः, अस्पृष्टमनालिङ्गितं गन्धादिवन संबद्धमित्यर्थः, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, रूपं पुनः पश्यति अस्पृष्टमेव, चक्षुषः अप्राप्तकारित्वादिति भावार्थः, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-अस्पृष्टमपि यो भ्यदेशावस्थितं, न पुनरयोग्यदेशावस्थितं अमरलोकादि । गन्ध्यते घायत इति गन्धस्तं, रस्यत इति रसस्तं च स्पृश्यत इति स्पर्शस्तं च, चशब्दौ पूरणार्थी, 'बद्धस्पृष्टं' इति बद्धमाश्लिष्ट नैवशरावे तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः, स्पृष्टं पूर्ववत्, प्राकृतशैल्या चेत्थमुपन्यासो 'वद्धपुढे' ति, अर्थतस्तु स्पृष्टं च बद्धं च स्पृष्टवद्धं । आह-यद्वद्धं गन्धादि तत् स्पृष्टं भवत्येव, अस्पृष्टस्य ७ चक्षुर्मनसोरसत्यपि व्यञ्जनावग्रहेऽथवप्रहसनाबादस्त्यैव पटुतरतेति प्राय इति २ स्पर्शाभावे बन्धाभावसचेऽपि सत्यार्थमेतत् प्राणादीन्द्रियेभ्यो निपुणताख्यानाय वा. नातीदम् १-२-३-४. Education Internation For Penal Use On ~ 33~ war Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं -1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- ॥१२॥ बन्धायोगात्, ततश्च स्पृष्टशब्दोच्चारणं गतार्थत्वादनर्थकमिति, उच्यते, सर्वश्रोतृसाधारणत्वाच्छास्त्रारम्भस्यायमदोष हारिभद्रीइति। त्रिप्रकाराश्चश्नोतारो भवन्ति-केचिदू उदूघाटितज्ञाः, केचित् मध्यमबुद्धयः, तथाऽन्ये प्रपश्चितज्ञा इति, तत्र प्रप- यवृत्तिः श्चितज्ञाना अनुग्रहाय गम्यमानस्याप्यभिधानमदोषायैव, अथवा विशेषणसमासाङ्गीकरणाददोषः, स्पृष्टं च तद्वद्धं च विभागः१ पष्टवद्धं, तन्त्र स्पष्ट गन्धादि विशेष्य, बद्धमिति च विशेषणं । आह-एवमपि स्पृष्टग्रहणमतिरिच्यते, यस्माद्यद्बद्धं न* तत्स्पृष्टत्वव्यभिचारि, उभयपदव्यभिचारे च विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो यथा नीलोत्पलमिति, न चेह उभयपदव्यभिचारः,13 अत्रोच्यते, नैष दोषः, यस्मादकपदव्यभिचारेऽपि विशेषणविशेष्यभावो दृष्टो,यथा अन्द्रव्यं पृथिवी द्रव्यमिति, भावना-14 अबू द्रव्यमेव, न द्रव्यत्वं व्यभिचरति, द्रव्यं पुनर चीनबू चेति व्यभिचारि, अथ च विशेषणविशेष्यभाव इति । प्रकृतभावार्थस्वयम्-आलिहितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरत्वादू अभावुकत्वात् अल्पद्रव्यरूपत्वात |माणादीनां चापटुत्वात् गृह्णाति निश्चिनोति घ्राणेन्द्रियादिगण इत्येवं व्यागृणीयात् प्रतिपादयेदितियावत् । आह-भवतो योग्यदेशावस्थितमेव रूपं पश्यति, न पुनरयोग्यदेशावस्थितमिति, तत्र कियान पुनश्चक्षुषो योग्य| विषयः, कियतो वा देशादागतं श्रोत्रादि शब्दादि गृहातीति, उच्यते, श्रोत्रं तावच्छब्दं जघन्यतः खल्वकुलासंख्येय| मात्राद्देशात् , उत्कृष्टतस्तु द्वादशभ्यो योजनेभ्य इति, चक्षुरिन्द्रियमपि रूपं जघन्येनालसंख्येयभागमात्रावस्थितं पश्यति, उत्कृष्टतस्तु योजनशतसहस्राभ्यधिकव्यवस्थितं इति, प्राणरसनस्पर्शनानि तु जघन्येनाकुलासंख्येयभागमात्रा ॥१२॥ श्रोत्रापेक्षयाऽपि २ पुनःशब्देन विशेषितेऽस्पृष्टरवे या भणितिस्तदपेक्षया प्राक् प्रश्नः, समग्रगायापेक्षया विषयक्षेत्रपरिमाणज्ञानार्यश्च द्वितीय इति. *वा. वेति. G4 ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: देशादागतं गन्धादिकं गृह्णन्ति, उत्कृष्टतस्तु नवभ्यो योजनेभ्य इति । आत्माङ्गुलनिष्पन्नं चेह योजनं ग्राह्यमिति । आह-उक्तप्रमाणं विषयमुलाच कस्माचक्षुरादीनि रूपादिकमर्थं न गृह्णन्तीति, उच्यते, सामर्थ्याभावात, द्वादशभ्यो नवभ्यश्च योज-12 नेभ्यः परतः समागतानां शब्दादिद्रव्याणां तथाविधपरिणामाभावाञ्च, मनसस्तु न क्षेत्रतो विषयपरिमाणमस्ति, पुद्गलमात्रनिवन्धनाभावात् , इह यत् पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं न भवति, न तस्य विषयपरिमाणमस्ति, यथा केवलज्ञानस्य, यस्य च विषयपरिमाणमस्ति, तत्पुद्गलमात्रनिबन्धनियतं दृष्टं, यथाऽवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वेति गाथासमासार्थः॥ । साम्प्रतं यदुक्तमासीत् यथा “नयनमनसोरप्राप्तकारित्वं 'पुढे सुणेइ सई' इत्यत्र वक्ष्यामः, तदुच्यते, नयनं योग्यदेशावस्थिताप्राप्तविषयपरिच्छेदक, प्राप्तिनिवन्धनतस्कृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात् , मनोवत्, स्पर्शनेन्द्रियं विपक्ष इति । आह-जलघृतवनस्पत्यालोकनेष्वनुग्रहसद्भावात् सूर्योद्यालोकनेषु चोपघातसद्भावात् असिद्धो हेतुः, मनसोऽपि प्राप्तवि-12 पयपरिच्छेदकत्वात्साध्यविकलो दृष्टान्तः, तथा च लोके वक्तारो भवन्ति-"अमेत्र मे गतं मनः" इति, अत्रोच्यते, प्राप्ठिनिवन्धनाख्यहेतुविशेषणार्थनिराकृतत्वाद् अस्याक्षेपस्येत्यदोषः। किं च-यदि हि प्राप्तिनिबन्धनौ विषयकृतावनुग्रहोपघातौ स्याता, एवं तर्हि अग्निशूल जलाद्यालोकनेषु दाहभेदक्केदादयः स्युरिति । किं च-प्राप्त विषयपरिच्छेदकरचे सति | अक्षिअञ्जनमलशलाकादिकमपि गृह्णीयात् । आह-नायना मरीचयो निर्गत्य तमर्थ गृह्णन्ति, ततैश्च तेषां तैजसत्वात् सर्वेन्द्रियापेक्षया. २ प्राप्यकारीन्द्रियचतुष्कापेक्षया. ३ क्षेत्रेति. विषयेति. ५ विप्रकृष्ट कसिविनिर्दिश्यमाने स्खले इति. ६ नयनमरीचीनामेव निर्गमात्, चक्षुपचानिर्गमात्, * निबन्धन, 1-२-३- + निबन्धन. १-२-३-४ जिलझूला. कदभेदा. 51-56-52- weredturary.com ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- ॥१३॥ सूक्ष्मत्वाच्चानलादिसंपर्के सत्यपि दाहायभाव इति, अत्रोच्यते, प्राक् प्रतिज्ञातयोरनुग्रहोपघातयोरप्यभावप्रसङ्गाद् अयुक्तमे- हारिभद्रीतत् तदस्तित्वस्य उपपत्त्या ग्रहीतुमशक्यत्वाच्चै । व्यवहितार्थानुपलब्ध्या तदस्तित्वावसाय इति चेत्, न, तत्रापि तदुपलब्धी क्षयोपशमाभावात् व्यवहितार्थानुपलब्धिसिद्धे, आगममात्रमेवैतत् इति चेत्, न, युक्तिरप्यस्ति, आवरणाभावेऽपि परमा-3 विभागः१ वादी दर्शनाभावः, स च तद्विधक्षयोपशमकृतः, यच्चोक्त-साध्यविकलो दृष्टान्त' इति, तदप्ययुक्तं, ज्ञेयमनसोः संपर्काभावात् , अन्यथा हि सलिलकर्पूरादिचिन्तनादनुगृह्येत, वह्निशस्त्रादिचिन्तनाच्चोपहन्येत, न चानुगृह्यते उपहन्यते 'वेति । आह-मनसोऽनिष्टविषयचिन्तनातिशोकात् दौर्बल्यं आर्तध्या नादुरोऽभिघातश्च उपलभ्यते, तथेष्टविषयचिन्तनात्प्रमोदः, तस्मात्प्राप्तकारिता तस्येति, एतदप्ययुक्त, द्रव्यमनसा अनिष्टेष्टपुद्गलोपचयलक्षणेन सकर्मकस्य जन्तोरनिष्टेष्टाहारेणेवो| पघातानुग्रहकरणात्कथं प्राप्तविषयतेति । किच-द्रव्यमनो वा बहिः निस्सिरेत्, मनःपरिणामपरिणतं जीवाख्यं भाव-12 मनो वा ?, न तावद्भावमनः, तस्य शरीरात्रत्वात् , सर्वगतत्वे च नित्यत्वात् वन्धमोक्षाद्यभावप्रसः। अथ द्रव्यमनः, तदप्ययुक्तं, यस्मान्निर्गतमपि सत् अकिञ्चित्करं तत् , अज्ञत्वात्, उपलवत् । आह-करणत्वान्यमनसस्तेने प्रदीपेनेव प्रकाशितमर्थमात्मा गृह्णातीत्युच्यते, न, यस्मात् शरीरस्थेनैवानेन जानीते, न बहिर्गतेन, अन्तःकरणत्वात्, इह यदात्म सुवर्णादीनां भेदादिभावात् तैजसत्वेऽपि आह-सूक्ष्मवाचेति. २ शूलजलादिः । प्राप्तिनिबन्धनेत्यादिहेतोरसिद्धतोद्भावने. . नायनमरीचीनां.] अयुतमेतदिति संटङ्कः ६ वारीरप्रमाणत्वात् विहाय तस तवस्थानमित्यर्थः. . आकाशादिवत् . यमनियमोच्छेदप्रसङ्गः. १ अन्यमनसा. अमेतत् . MI+पेति. 1 अति १-२-३. अनि०.१ प्राप्ति ५-६.६ अरेत् ५-६.1 नास्तीवम् ५-६. ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], भाष्यं [-] निर्युक्ति: [ ५ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः नोऽन्तःकरणं स तेन शरीरस्थेनैव उपलभते, यथा स्पर्शनेन, प्रदीपस्तु नान्तःकरणमात्मनः, तस्माद् दृष्टान्तदार्शन्तिकयोर्वैषम्यमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुम इति गाथार्थः ॥ ५ ॥ किं च प्रकृतं ? स्पृष्टं शृणोति शब्दमित्यादि, अत्र किं शब्दप्रयोगोत्सृष्टान्येव केवलानि शब्दद्रव्याणि गृह्णाति ? उत अन्यान्येव तद्भावितानि ? आहोस्विन्मिश्राणि इति चोदकाभिप्रायमाशङ्कय, न तावत्केवलानि तेषां वासकत्वात्, तद्योग्यद्रव्याकुलत्वाच्च लोकस्य, किन्तु मिश्राणि तद्वासितानि वा गृह्णाति इत्यमुमर्थमभिधित्सुराह भासासमसेढीओ, सदं जं सुणइ मीसयं सुणई। बीसेढी पुण सद्द, सुणेइ नियमा पराधाए ॥ ६ ॥ व्याख्या - भाष्यत इति भाषा, वक्रा शब्दतयोत्सृज्यमाना द्रव्य संहतिरित्यर्थः, तस्याः समश्रेणयो भाषासमश्रेणयः, समग्रहणं विश्रेणिव्युदासार्थं, इह श्रेणयः क्षेत्रप्रदेशपङ्कयोऽभिधीयन्ते, ताश्च सर्वस्यैव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्यन्ते, यासूत्सृष्टा सती भाषाऽऽद्यसमय एव लोकान्तमनुधावतीति, ता इतो भाषासम श्रेणीतः, इतो गतः प्राप्तः स्थित इत्यनर्थान्तरम्, एतदुक्तं भवति - भाषासमश्रेणिव्यवस्थित इति । शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः -- भाषात्वेन परिणतः पुद्गलराशिस्तं शब्दं 'यं' पुरुषाश्वादिसंबन्धिनं शृणोति गृह्णात्युपलभत इति पर्यायाः, यत्तदोर्नित्यसंबन्धात्तं मिश्रं शृणोति एतदुक्तं भवति - व्युत्सृष्टद्रव्यभावितापान्तरालस्थशब्दद्रव्यमिश्रमिति । विश्रेणिं पुनः इत इति वर्त्तते, ततश्चायमर्थो भवति- विश्रेणिव्यवस्थितः पुनः श्रोता 'शब्द' इति, पुनः शब्दग्रहणं पराघातवासितद्रव्याणामपि तथाविधशब्दपरिणाम १ भाषावर्गणान्देति. canIntanatond For Parts Only ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥ १४ ॥ ख्यापनार्थ, शृणोति नियमात् नियमेन पराघाते सति यानि शब्दद्व्याणि उत्सृष्टाभिघातवासितानि तान्येव, न हारिभदीपुनरुत्सृष्टानीति भावार्थः । कुतः ?-तेषामनुश्रेणिगमनात् प्रतीघाताभावाच्च, अथवा विश्रेणिस्थित एवं विश्रेणिरभिधीयते, यवत्तिः पदेऽपि पदावयवप्रयोगदर्शनात् 'भीमसेनः सेनः सत्यभामा भामा' इतिगाथार्थः ॥ ६॥ केन पुनर्योगेन एषां वारद्रव्याणां||विभागः१ ग्रहणमुत्सर्गो वा कथं वेत्येतदाशङ्कय गुरुराहगिण्हइ य काइएणं, निस्सरइ तह वाइएण जोएणं । एगन्तरं च गिण्हइ, णिसिरइ एगंतरं चेव ॥७॥ व्याख्या-तत्र कायेन निवृत्तः कायिकः तेन कायिकेन योगेन, योगो व्यापारः कर्म क्रियेत्यनन्तरं, सर्व एव हि वता कायक्रियया शब्दद्रव्याणि गृह्णाति, चशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चाप्यवधारणे, तस्य च व्यवहितः संवन्धः, गृह्णाति कायिकेनैव, निसृजत्युत्सृजति मुञ्चतीति पर्यायाः,तथेत्यानन्तर्यार्थः, उक्तिर्वाक वाचा निवृत्तो वाचिकस्तेन वाचिकेन योगेन। कथं गृह्णाति निसृजतीति वा ? किमनुसमयं उत अन्यथेत्याशङ्कासंभवे सति शिष्यानुग्रहार्थमाह-एकान्तरमेव गृह्णाति, निसृजति एकान्तरं चैव, अयमत्र भावार्थ:-प्रतिसमयं गृह्णाति मुश्चति चेति, कथम् ?, यथा ग्रामादन्यो ग्रामो ग्रामान्तरं,81 पुरुषाद्वा परुषोऽनन्तरोऽपि सन्निति, एवमेकैकस्मात्समयाद एकैक एवं एकान्तरोऽनन्तरसमय एवेत्यर्थः । अयं गाथासमुदा- यार्थः। अत्र कश्चिदाह-ननु कायिकेनैव गृह्णातीत्येतद् युक्तं, तस्यात्मव्यापाररूपत्वात् , निसृजति तु कथं वाचिकेन !, को 'ते हुग्या' इति सूत्रेण पूर्वस्योत्तरस्य वा लोपात् पदावयवायोगेण सम्पूर्णपदोपस्थित्या सदवबोधः, एवं च समस्तस्थल एवायं च तु भ्यस्तस्थले. ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७], भाष्यं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: वाऽयं वाग्योग इति । किं वागेव व्यापारापन्ना आहोश्चित् तद्विसर्गहेतुः कायसंरम्भ इति ?, यदि पूर्वो विकल्पः, स खल्वयुक्तः, तस्या योगत्वानुपपत्तेः, तथा चन वाकेवला जीवव्यापारः,तस्याः पुद्गलमात्रपरिणामरूपत्वात्, रसादिवत् , योगश्चात्मनः शरीरवतो व्यापार इति, न च तया भाषया निसृज्यते, किन्तु सैव निसृज्यत इत्युक्तं, अथ द्वितीयः पक्षः, ततः स कायव्यापार एवेतिकृत्वा कायिकेनैव निसृजतीत्यापन्नं, अनिष्टं चैतत् इति, अत्रोच्यते, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , इह तनुयोगविशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्चेति, कायव्यापारशून्यस्य सिद्धवत् तदभावप्रसझात्, ततश्चात्मनः शरीरच्यापारे सति येनै शब्दद्रव्योपादानं करोति स कायिकः, येन तु कायसंरम्भेण तान्येव मुश्चति स वाचिक इति, तथा येन मनोद्रब्याणि मन्यते स मानस इति, कायव्यापार एवार्य व्यवहारार्धं त्रिधा विभक्त इत्यतोऽदोषः। तथा एकान्तरं च गृह्णाति, निसृजत्येकान्तरं चैव' इत्यत्र केचिदेकैकव्यवहितं एकान्तरमिति मन्यन्ते, तेषां च विच्छिन्नरत्नावलीकल्पो ध्वनिरापद्यते, सूत्रविरोधश्च, यत उक्त-"अणुसमयमविरहियं निरन्तरं गिण्हइ" त्ति । आह-यत्पुनरिदमुक्तं "संतरं निसरति, नो निरंतर.12 एगेणं समएणं गिण्हति, एगेणं णिसरती"त्यादि, तत्कथं नीयते ?, उच्यते, इह ग्रहणापेक्षया निसर्गः सान्तरोऽभिहितः, एतदुक्तं भवति"यथा आदिसमयादारभ्य प्रतिसमयं ग्रहणं, नैवं निसर्ग इति, यस्मादाधसमये नास्तीति, ग्रहणमपि निसगापेक्षया सान्तरमापद्यत इति चेत्, न, तस्य॑ स्वतन्त्रत्वात्, निसर्गस्य च ग्रहणपरतन्त्रत्वात् , यतो नागृहीतं निस शब्दनन्यसंहतिरूपा भाषा. २ इतिहेतोः ३ व्यापारविशेषेण, ४ समयस्य सूक्ष्मतमत्वेन आह-सूत्रेत्यादि ५ व्याख्यावत इत्वा, भगव्याख्यानेन विरुद्धतमत्वात्. ५ पूर्वमगृहीतत्वात् गृहीतानां च द्वितीयसमये निसर्गात.. गृहीतानां विना निसरी प्रहणाभावात् सान्तरता यथा तथा निसर्जने एवं ग्रहणाहणस्थापि सान्तरतेत्यर्थः. ८ प्रहमस्य-पूर्वसमयेऽनिसर्गेऽपि प्रणादित्यर्थः, निसर्जनं तु गृहीतानामेवेति तख परतन्त्रावं. ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 15643 आवश्यक- ज्यत इति, अतः पूर्वपूर्वग्रहणसमयापेक्षया सान्तरव्यपदेश इति । तथा एकेन समयेन गृह्णाति एकेन निसृजति, किमुक्त हारिभद्री भवति ?-ग्रहणसमयानन्तरेण सर्वाण्येव तत्समयगृहीतानि निसृजतीति । अथवा एकसमयेन गृह्णात्येव, आद्येन, न | यवृत्तिः |निसृजति, तथा एकेन निसृजत्येव, चरमेण, न गृह्णाति, अपान्तरालसमयेषु तु ग्रहणनिसर्गावर्थगम्यौ इत्यतोऽविरोधाविभागः १ इति । आह-ग्रहणनिसर्गप्रयलो आत्मनः परस्परविरोधिनी एकस्मिन्समये कथं स्यातामिति, अत्रोच्यते, नायं दोषः, एकसमये, कर्मादाननिसर्गक्रियावत् तथोत्पादव्ययक्रियावत् तथाऽङ्गुल्याकाशदेशसंयोगविभागक्रियावच्च क्रियायस्वभावोपपत्तेरिति गाथार्थः॥७॥ यदुक्तं-'गृह्णाति कायिकेन' इत्यादि, तत्र कायिको योगः पञ्चप्रकारः, औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणभेदभिन्नदत्वात्तस्य, ततश्च किं पचप्रकारेणापि कायिकेन गृह्णाति आहोस्विदन्यथा इत्याशङ्कासंभवे सति तदपनोदायेदमाह तिविहं मि सरीरंमि, जीवपएसा हवन्ति जीवस्स । जेहि उ गिण्हइ गहणं, तो भासइ भासओ भासं ॥८॥ ___ व्याख्या-'त्रिविधे' त्रिप्रकारे, शीर्यत इति शरीर तस्मिन् , औदारिकादीनामन्यतम इत्यर्थः, जीवतीति जीवः तस्य प्रदेशाः जीवप्रदेशाः, भवन्ति, एतावत्युच्यमाने 'भिक्षोः पात्र' इत्यादी षष्ठया भेदेऽपि दर्शनात् मा भूदू भिन्नप्रदेशत W ॥१५॥ निसर्गात्, २ समयेन. ३ प्रागिति. १ अापत्तितो शेयी, अन्यथाऽऽधानन्यसमयग्रहणनिसर्गावधारणानुपपत्तेः. ५ मनोवाकाययोगानामात्मन्यापाररूपस्वात् , भात्मनकत्वात् , एकसमये परस्परविस्तुफियाकरणानुपपतिरित्यर्थः. यावदन्तिम गुणस्थानं भाथ्येव बन्धः कर्मणा, तद्विपाकवेदतश्च निसर्गः तेषामनुसमर्थ, आगमोपपछे च तस्मिन्नविरोधो वया तथाऽनापीत्यर्थः, * प्रदर्शनात्. ~ 40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: याऽप्रदेशात्मसंप्रत्यय इत्यत आह-जीवस्य आत्मभूतां भवन्ति, ततश्चानेन निष्प्रदेशजीवादिनिराकरणमाह, सति निष्प्रदेशत्वे करचरणोरुग्रीवाद्यवयवसंसगाभावः, तदेकत्वापत्ते, कथम् -करादिसंयुक्तजीवप्रदेशस्य उत्तमाङ्गादिसंबद्धा त्मप्रदेशेभ्यो भेदाभेदविकल्पानुपपत्तेरिति । य: किं करोतीत्याह-'यस्तु गृह्णाति' तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ? ४-न सर्वदैव गृह्णाति, किन्तु तत्परिणामे सति, किं ?-गृह्यत इति ग्रहण, ग्रहणमिति “कृत्यल्युटो बहुलं" (पा०३-३-११३) इतिवचनात्कर्मकारकं, शब्दद्रव्यनिवहमित्यर्थः, 'ततो' गृहीत्वा 'भाषते' वक्ति, भाषत इति भाषकः क्रियाऽऽविष्ट इत्यर्थः, अनेन निष्क्रियात्मवादब्यवच्छेदमाह,सति तस्मिन्निष्क्रियत्वात् अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपत्वाद्भाषणाभावप्रसङ्गः, काम् ?भाष्यत इति भाषा तां भाषां। आह-'ततो भापते भाषक' इत्यनेनैव गतार्थत्वादापाग्रहणमतिरिच्यते इति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात् , यह भाष्यमाणैव भायोच्यते, न पूर्व नापि पश्चादू, इत्यस्यार्थस्य ख्यापनाय भाषाग्रहणमदुष्टमेवेति गाथार्थः ॥८॥ यदुक्तं-'त्रिविधे शरीरे' इत्यादि, तत्र न ज्ञायते कतमस् वैविध्यमिति, अतस्तदभिधातुकाम आहओरालियवेउब्बियआहारो गिण्हई मुयइ भासं । सचं मोसं सचामोसं च असबमोसं च ॥९॥ अभेदपच्या तप्रस्थाः प्रदेशा जीवाभिन्नाः, गुतदेव च जीवस्येस्युच्चारणे फलं, अन्यथा 'जीवप्रदेशा' इत्यनेन संबद्धार्थाचगमात, २ नैयायिकवैशेषिकादयः, तन्मते हि नित्यं निरवयवमेव, सावयवत्वे हि कार्यत्वापश्या अनित्यत्वापत्तिः, घटादीनामिव । ३ करचरणादयो हिसावयवा इत्युभयसंमतं, आत्मा च |सैः प्रत्यवयवमेव संयुज्यते, संयोगा स्यात्तदा यदि स्वादारमा सावयवः, प्रतिप्रदेशं च संयोगवान् , ततो निष्पवेशे करचरणाअवयवसंयोगो न स्वादात्मनः, संसमें हि निष्प्रदेशस्यात्मनः कादिभिः, करादीनामपि निष्प्रदेशकारमनः प्रत्ययययेन संसर्गात्स्वरूपापत्या निष्प्रदेशत्वेनैकत्वापत्तिः, भेदे सावयवत्वाप्रतिशातहानिः, अनेदे भिशापयवसंयोगानुपपत्तेस्तदेकतरेण सारमकता न सरित्यनिष्टेः. ५जीवप्रदेशः भाषणपरिणामे. ७ निस्क्रिय आत्मनि. ~ 41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक व्याख्या-तत्र औदारिकवानौदारिका, इहौदारिकशब्देनाभेदोपचाराद् मतुब्लोपाद्वा औदारिकशरीरिणो ग्रहणमिति, हारिभद्रीएवं वैक्रियवान्वैक्रियः, आहारकवानाहारक इति । असौ औदारिकादिः, 'गृह्णाति' आदत्ते 'मुञ्चति' निसृजति च, भाष्यत || इति भाषा तां भाषा, शब्दप्रायोग्यतया तद्धावपरिणतन्यसंहतिमित्यर्थः। किविशिष्टामित्याह-सतां हिता सत्या, सन्तो मुनय-टि। विभागः१ स्तदुपकारिणी सत्येति, अथवा सन्तो मूलोत्तरगुणास्तदनुपघातिनी सत्या, अथवा सन्तः पदार्था जीवादयः तद्धिता तत्प्रत्यायनफला जनपदसत्यादिभेदा सत्येति, तां सत्यां, सत्याया विपरीतरूपा क्रोधाश्रितादिभेदा मृषेति तां, तथा तदु-18 भयस्वभावा वस्त्वेकदेशप्रत्यायनफला उत्पन्न मिश्रादिभेदा सत्यामृषेति तां, तथा तिसृष्वप्यनधिकृता शब्दमात्रस्वभावाऽऽमन्त्रण्यादिभेदा असत्यामृषेति तां च, चशब्दः समुच्चयार्थः,आसां च स्वरूपमुदाहरणयुक्तानां सूत्रदिवसेयमिति माथार्थः ॥९॥ आह-औदारिकादिः गृहाति मुञ्चति च भाषां' इत्युक्त, सा हि मुक्ता उत्कृष्टतः कियत्क्षेत्रं व्याप्नोतीति, उच्यते, ॥१६॥ प्रज्ञापनावाः, यतस्तन्त्र भाषालक्षणं पदमेकादशं "जणवय । सम्मय २ ठवणा ३ नामे रुवे ५ पदुश्च ६ सच्चे य । ववहार • भाव ८ जोगे | इसमे ओवम्मसथे १० य ॥१॥ कोहे माणे २ माया ३ लोभे ? पेजे ५ तहेव दोसे ६ य । हासे ७ भए ८३ खाइय ९ ज्वघाइयणिस्सिया १० दसG ॥२॥ भामंतणी आणवणी २ जायणी ३ वह पुच्छणी ४ व पपणवणी ५ । पञ्चवाणी ६ भासा, भासा इच्छाशुलोमा य॥३॥ अणभिमाहिया- | भासा, भासा म अभिगाइमि ९ बोरया । संसथकरणी भासा योगद १ अबोगदा १३ व ४॥ इति सत्यासत्यासत्यामृषास्वरूपं, सत्यमृषा तु | 'उप्पणमीसिया । विगयमी सिया २ वपणविगयमीसिभा ३ जीवमिस्सिया ४ अजीवमिस्सिा ५ जीवाजीवमिस्सिा ६ अर्णतमिस्सिा परित्तमि| रिसा ८ भवामिरिसा १ भदामीसिभा ... ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SRO समस्तमेव लोकमिति, आह-यद्येवं 'कइ.' त्तिगाहा, अयं सूत्रतोऽभिसंबन्धः, अथवाऽर्थतः प्रतिपाद्यते, आह-द्वाद शभ्यो योजनेभ्यः परतो न शृणोति शब्द, मन्दपरिणामत्वात्तद्रव्याणामित्युक्तं, तत्र कि परतोऽपि द्रव्याणामागतिनरस्ति ?, यथा च विषयाभ्यन्तरे नैरन्तैर्येण तद्वासनासामर्थ्य, एवं बहिरप्यस्ति उत नेति, उच्यते, अस्ति, केपाञ्चित् कृत्स्न लोकव्याप्तेः, आह—यद्यकाहि समएहि लोगो, भासाइ निरन्तरं तु होइ फुडो । लोगस्स य कहभागे, कहभागो होह भासाए ॥१०॥ ____व्याख्या-कतिभिः समयैः 'लोक' लोक्यत इति लोकः चतुर्दशरज्ज्वात्मक क्षेत्रलोकः परिगृह्यते, भाषया निरन्त-| | रमेव भवति स्पृष्टः व्याप्तः पूर्ण इत्यनान्तरं, लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः,॥१०॥ अत्रोच्यतेचउहि समएहि लोगो, भासाइ निरंतरं तु होइ फुडो । लोगस्स य चरमंते, चरमंतो होइ भासाए ॥११॥ व्याख्या-चतुर्भिः समयैर्लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्टः, आह-किं सर्वथैव भाषया उत विशिष्टयैवेति, | उच्यते, विशिष्टया, कथम् ?-इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति, सह्यभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि विसृजति, तानि च पूर्वसूत्रे 'ओरालियवेत्रिय स्वादिप्रतिपादनात २'भासासमसेडीओ इत्यादौ श्रोत्रेन्त्रिवादीनो हादसयोजनादिरूपख विषयख प्रतिपादनात् पृत्तिकृता. मन्दपरिणामलक्षणं विशेषतं श्रुत्वा अन्यगती प्रा. ४ द्वादशसु योजनेषु, विषयकथनात् शब्दगब्याणां वासकत्वात् वाख: पूर्णत्वाच लोकस्येति वा. Cोनेन्द्रियामाह्यत्वेऽनुमानज्ञापनाय कपाणिविखादि पान्दव्याणां केषात्रिलोकव्याप्तिप्रतिपत्ती. नतु पञ्चातिकावरूपो सम्यक्षेत्रादिरूपो वा. ५ परमाणोः ससप्रदेशा यथा स्पर्शना तथा नाओत्यनर्थान्तरदर्शन, सर्वयैव 1-2-५-६. 7 अनुक्रम T For P OW ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- विसृष्टानि असंख्येयात्मकत्वात् परिस्थूलत्वाच्च विभिद्यन्ते, भिद्यमानानि च संख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्या- हारिभद्री गमेव कुर्वन्ति, कश्चित्तु महाप्रयलः, स खलु आदाननिसर्गप्रयत्लाभ्यां भित्त्वैव विसृजति, तानि च सूक्ष्मवाद्बहुत्वाच्चयवृत्तिः ॥१७॥ अनन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि पटूस दिक्षु लोकान्तमामुषन्ति, अन्यानि च तत्पराघातवासितानि बासनाविशेषात् समस्तं विभागः१ लोकमापूरयन्ति, इह च चतुःसमयग्रहणात् त्रिपञ्चसमयग्रहणमपि प्रत्येतव्यं, तुलादिमध्यग्रहणवत्, तत्र कथं पुनत्रिभिः समयैः लोको भाषया निरन्तरमेव भवति स्पृष्ट इति ?, उच्यते, लोकमध्यस्थवक्तृपुरुषनिसृष्टानि, यतस्तानि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावन्ति, जीवसूक्ष्मपुद्गलयोः 'अनुश्नेणि गतिः' (तत्त्वार्थ० अ०२ सूत्र २७) इति वचनात् , दाद्वितीयसमये तु त एव हि षटू दण्डाश्चतुर्दिशमेकैकशो विवर्धमानाः षटू मन्थानो भवन्ति, तृतीयसमये तु पृथक पृथक् तदन्तरालपूरणात् पूर्णो भवति लोक इति, एवं त्रिभिः समयैर्भाषया लोकः स्पृष्टो भवति, यदा तु लोकान्तस्थितो* वा भाषको यक्ति, चतसृणां दिशामन्यतमस्यां दिशि नाड्या बहिरवैस्थितस्तदा चतुर्भिः समयेरापूर्यत इति, कथम् || एकसमयेन अन्तर्नाडीमनुप्रंविशति, योऽन्ये पूर्ववद्रष्टव्याः, यदा तु विदि व्यवस्थितो पक्ति, तदा पुद्गलानामनुश्रेणिगमनात् समयदयेनान्तनोंडीमनुप्रविशति, शेषसमयत्रयं पूर्ववद्रष्टव्यमित्येवं पञ्चभिः समयैरापूर्यत इति । अन्ये तु जैनस Ak5- 05 ॥१७॥ असंख्येयाः स्कन्धा न तु परमाणवोऽसंख्येयाः. तीवप्रयत्नवकृविमाटदब्यापेक्षया. ३ ज्ञायतेऽनेन प्रसाणां गतिर्व्यवस्थितिश्च नाव्या बहिः, जन्मा- यभावच नस्लोकरीत्या नराणामिय न तोति चानुमीयते. ४ तथास्वाभाब्यादेव अनुकूलसामायभावावा बहिर्ना उषा न श्रेपयारम्भ इति. ५ व्यावहारिकी |निदिचत्र, सम्पथा व्यवस्थानाभावात्. * स्थूरत्वाच -३-५-६. + यो वा १-३-३-४. SARERatin international ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 5645454645456 मुद्घातगत्या लोकापूरणमिच्छन्ति, तेषांचाद्यसमये भाषायाः खलु ऊर्धाधोगमनात् शेषदिक्षु ना मिश्रशब्दश्रवणसंभवः, उक्तं चाविशेषेण-"भासासमसेढीओ, सई जं सुणइ मीसयं सुणइ (६)त्ति । अथ मतं-'व्याख्यानतोऽर्थप्रतिपत्ति' इति न्यायाद्दण्ड एव मिश्रश्रवणं भविष्यति, नं शेषदिक्ष्विति, ततश्चौदोष इति, अत्रोच्यते, एवमपि त्रिमिः समयैर्लोकापूरणमापद्यते, न चतुःसमयसंभवोऽस्ति, कथम् ?-प्रथमसमयानन्तरमेव शेषदिक्षु पराघातद्रव्यसद्भावात् द्वितीयसमय एव। मन्थानसिद्धेः, तृतीये च तदन्तरालापूरणात् इति । आह-जैनसमुदूघातवच्चतुभिरेवापूरणं भविष्यतीति को दोष इति, अत्रोच्यते, न, सिद्धान्तापरिज्ञानात, इह जैनसमुद्घाते स्वरूपेणापूरणात्, न तत्र परीघातद्रव्यसंभवोऽस्ति, सकर्मकजी-13 Cीवव्यापारत्वात्तस्य, ततश्च कपाटनिवृत्तिरेव तत्र द्वितीयसमय इति, शब्दद्रव्याणां त्वनुश्रेणिगमनात्पराघातद्न्यान्तरवा सकस्वभावत्वाच्च द्वितीयसमय एव मन्थानापत्तिरिति, अचित्तमहास्कन्धोऽपि वैनसिकत्वात् पराघाताभावाच्च चतुर्भि(रेव पूरयति, न चैवं शब्द इति, सर्वत्रानुश्रेणिगमनात् , इत्यलमतिविस्तरेण, गमनिकामात्रमेवैतत् प्रस्तुतमिति । यदुक्त लोकस्य च कतिभागे कतिभागो भवति भाषायाः' इति, तत्रेदमुच्यते-'लोकस्य च क्षेत्रगणितमपेक्ष्य 'चरमान्ते। असंख्येयभागे 'चरमान्तः' असंख्येयभागो भवति 'भाषायाः' समग्रलोकव्यापिन्याः इति गाथार्थः॥११॥ * केवलिसमुद्घातमांदया. कांधोदण्डभागस्थितनोतुः श्रुतेर्मिनशब्दसा, चतुरनुलादिमानो दण्डो बनानुसारेण । वासहन्यसंभवः. ५ समुघा-2 तस्व. ५ वैनसिकत्वाभावात्तस्य परापात (वास) अन्याभावरहितत्वाच. ६ जाधोदण्डभवनानन्तरं चतम दिक्ष अनुश्रेणि गमनान् मन्धान संपत्तिरित्यर्थः । क्षेत्र आकाशस्थ गणितं लोकप्रदेशद्वारा गणनमसंख्येयरूपं. नेदम्. १ श्रवणासं०. * ना. + स्वभावाच . ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१८॥ आवश्यक 'तत्त्व-भेद-पर्यायाख्या' इति न्यायात तत्वतो भेदतश्च मतिज्ञानस्वरूपमभिधाय इदानीं नानादेशजविनेयग-1 णसुखप्रतिपत्तये तत्पर्यायशब्दान् अभिधित्सुराह ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा । सपणा सई मई पण्णा, सव्वं आभिणिबोहियं ॥१२॥ व्याख्या-'ईह चेष्टायां' ईहनमीहा सतामर्थानां अन्वयिनां व्यतिरेकिंणां च पोलोचना इतियावत्, अपोहन अपोहः निश्चय इत्यर्थः, विमर्शनं विमर्शः ईहाया उत्तरः, प्रायः शिरकण्डूयनादयः पुरुषधर्मा घटन्ते इति संप्रत्ययो विमर्शः, तथा अन्वयधर्मान्वेषणा मार्गणा, चशब्दः समुच्चयार्थः, व्यतिरेकधर्मालोचना गवेषणा, तथा संज्ञानं संज्ञा, व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, स्मरणं स्मृतिः, पूर्वानुभूतार्थालम्बनः प्रत्ययः, मननं मतिः-कथञ्चिदर्थपरिच्छित्तावपि सूक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिरिति, तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपशमजन्या प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्मालोचनरूपा मतिरित्यर्थः, सर्वमिदं 'आभिनिवोधिकं' मतिज्ञानमित्यर्थः, एवं किञ्चिद्भेदाभेदः प्रदर्शितः, तत्त्वतस्तु मतिवाचकाः सर्व एवैते पर्यायशब्दा इति गाथार्थः ॥१२॥ तत्त्वभेदपर्यायैर्मतिज्ञानस्वरूपं व्याख्यायेदानीं नवभिरनुयोगद्वारैः पुनस्तद्रूपनिरूपणायेदमाहविसंतपय परूवणया दब्बपमाणं च खित्त फुसणा य । कालो अ अंतरं भाग, भावे अप्पाबहुं चेव ॥ १३ ॥ गइ इंदिए य कौए, जोए वेऐ कसाय लेसासु सम्मतनाणेदसणसंजयउवओगे आहारे ॥१४॥ "मस्याण ओग्गाहणं" (गाथा ३) "उम्मद हावाभो य" (गाथा २) भेददर्शनद्वारा भेदलक्षणाख्यानद्वारा च. + लम्बनम०२-३-४ 20-60 | आभिनिबोधिक-ज्ञानस्य पर्याया: एवं संतपदादि अनुयोगा: ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भासंग परिस पास सुहमें "सपणीय होइभव चरिमें "आभिणियोहिअनाणं,मग्गिजर एस ठाणेसु॥१॥ | व्याख्या-सच्च तत्पदं च सत्पदं तस्य प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता गत्यादिभिारराभिनिबो-10 Bाधिकस्य कर्तव्येति, अधवा सद्विषयं पदं सत्पदं, शेषं पूर्ववत्, आह-किमसत्पदस्यापि प्ररूपणा क्रियते । येनेदमुच्यते | सा'सत्पदप्ररूपणेति, क्रियत इत्याह खरविषाणादेरसत्पदस्थापीति, तस्मात् सद्ग्रहणमिति, अथवा सन्ति च तानि पदानि च सत्पदानि गत्यादीनि तैः प्ररूपणं सत्पदप्ररूपणं मतेरिति । तथा 'द्रव्यप्रमाणं' इति जीवद्रव्यप्रमाणं वक्तव्यं, एतदुक्तं भवेति-एकस्मिन् समये कियन्तो मति ज्ञान प्रतिपद्यन्त इति, सर्वे वा कियन्त इति, चः समुच्चये, 'क्षेत्र' इति क्षेत्रं वक्तव्यं, कियति क्षेत्रे मतिज्ञानं संभवति, 'स्पर्शना च' वक्तव्या, कियत् क्षेत्र मतिज्ञानिनः स्पृशन्ति, आह-क्षेत्रस्य स्पर्शनायाश्च का प्रतिविशेषः १, उच्यते, यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रं, स्पर्शना तु तद्बाह्यतोऽपि भवति, अयं विशेष इति, चशब्दः पूर्ववत कालश्च वक्तव्यः, स्थित्यादिकालः, अन्तरं च वक्तव्यं प्रतिपत्त्यादाविति, भागो वक्तव्यः, मतिज्ञानिनः शेषज्ञानिनां कति|भागे वर्तन्त इति, तथा भावो वक्तव्यः, कस्मिन् भावे मतिज्ञानिन इति, अल्पबहुत्वं च वक्तव्यं, आह-भागद्वारादेवायमर्थोऽवगतः, ततश्चालमनेनेति, न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, इह मतिज्ञानिनामेव पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकापेक्षया अल्प 1 पूर्व हि पदस्य सर्व अन्न तु वाध्यति न संभवव्याभिचाराभावेन विशेषणानथायं. २ असदर्थविषयस्य. ३ वाच्य विचारणापत्रमात्, ४ मतेर्गुणवात, जीवाभिन्नत्वाच.५ जीवनध्यप्रमाणस्वानासनिकत्वापर, ६ मभेदोपचारासद्वान, भपिनाऽवगावक्षेत्रसमुषया. आदिना प्रतिपत्तिकालः सुषमादिः, ९ आदिना प्रतिपयमानतायाः, प्राप्तनाशोत्तरोत्पादान्तराखं प्रतिपश्यन्तरालं, तच्चान्तर्मुहादि वक्ष्यमाणं, उभयोः प्रतिपायमानबोद्धितीय, विरहकालोऽत्र समयादि:- * त्यादिः कालः .. AKAAMSAX ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक % बहुत्वं वक्तव्यमिति समुदायार्थः । इदानीं प्रागुपन्यस्तैगाथाद्वयेनाभिनिवोधिकस्य सत्पदप्ररूपणाद्वारावयवार्थः प्रतिपाद्यते, हारिभद्रीकथम् ?, अन्विष्यते 'आभिनिबोधिकज्ञानं किमस्ति नास्तीति,' अस्ति, यद्यस्ति क तत् ?, तेत्र 'गतावित्ति' गतिमङ्गीकृत्या- यवृत्तिः लोच्यते, सा गतिश्चतुर्विधा-नारकतिर्यङ्नरामरभेदभिन्ना, तत्र चतुष्प्रकारायामपि गतौ आभिनियोधिकज्ञानस्य पूर्वप्रति-18विभागः१, पन्ना नियमतो विद्यन्ते, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितैकाले भाज्याः, कदाचिद्भवन्ति कदाचिन्नेति, तत्र प्रतिपद्यमाना अभिधीयन्ते ते ये तत्प्रथमतयाऽऽभिनिबोधिकं प्रतिपद्यन्ते, प्रथमसमय एव, शेषसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना एव भवन्ति । तथा 'इन्द्रियद्वारे' इन्द्रियाण्यङ्गीकृत्य मृग्यते, तत्र पञ्चेन्द्रियाः पूर्वप्रतिपन्नाः नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीया इति, द्वित्रिचतुरिन्द्रियास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रतिपद्यमानाः, एकेन्द्रियास्तु उभयविकलाः २ । तथा 'काय इति' कायमङ्गीकृत्य विचार्यते, तत्र त्रसकाये पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, इतरे तु भाज्याः, शेषकायेषु च पृथिव्यादिषु| उभयाभाव इति । तथा 'योग इति' त्रिषु योगेषु समुदितेथू पञ्चेन्द्रियवद्वक्तव्यं, मनोरहितवाग्योगेषु विकलेन्द्रियवत्, केवलकाययोगे तूभयाभाव इति । तथा 'वेद इति' त्रिष्वपि वेदेषु विवक्षितकाले पूर्वप्रतिपन्ना अवश्यमेव सन्ति, इतरे 15% 6425* ॥ १९॥ ज्ञानादावतिदेशसुगमवाय तिसूणां सहोपन्यासः, यहा 'भाभिणियोहियनाणं मस्गिजइ एम ठाणेसु' तिवचनात् तिमणां गाधानामेकवाफ्यतेति सहो-1| पन्यासः. २ द्वारगाथयोः बारेषु विधाती. ३ छस्थमरूपकापेक्षया चेदं, सर्वज्ञानां तु निश्चिते एवं प्रतिपद्यमानतेतरे. ४ विवक्षितलायुपयोगस्थित्यपेक्षया, न। स्वपूर्वावास्यपेक्षया. ५ स्थित्यपेक्षया. सम्धिपर्याप्तानां, करणापर्याप्तावस्थायां भवान्तरासादितसासादनसम्यक्त्वसमावसंभवात, सहचरितेषु, प्रत्येकरवाने वक्ष्यमाणत्वात् विकले सासादनाभ्युपगमेऽपि एकेन्द्रियेवनभ्युपगमात्तख. * नेदं ५-६. SARERahHATierra ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: तु भाज्या इति ५ तथा कषाय इति द्वार' कषायाः क्रोधमानमायालोभाख्याः प्रत्येकमनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसंज्वलनभेदभिन्ना इति, तत्रायेषु अनन्तानुबन्धेषु क्रोधादिषूभयाभाव इति, शेषेषु तु पश्चेन्द्रियंवदू योज्यम् । तथा 'लेश्यासु' चिन्त्यते, तत्र श्लेषयन्त्यात्मानमष्टविधेन कर्मणा इति लेइयाः-कायाद्यन्यतमयोगवतः कृष्णादिद्रव्यसंबन्धादात्मनः परिणामा इत्यर्थः, तत्रोपरितनीषु तिसृषु लेश्यासु पञ्चेन्द्रियवद्योजनीयं इति, आधासु तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, नत्वितर इति । तथा 'सम्यक्त्वद्वार' सम्यग्दृष्टिः किं पूर्वप्रतिपन्नः किं वा प्रतिपद्यमानक इति, अत्र व्यवहारनिश्चटयाभ्यां विचार इति, तत्र व्यवहारनय आह–सम्यग्दृष्टिः पूर्वप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यमानकः आर्भि निबोधिकज्ञानलाभस्य, सम्यग्दर्शनमतिश्रुतानां युगपल्लाभात्, आभिनिवोधिकप्रतिपत्त्यनवस्थाप्रसङ्गाच्च । निश्चयनयस्वाह-सम्यग्दृष्टिः पूर्वपतिपन्नः प्रतिपद्यमानश्च आभिनिबोधिकज्ञान'लाभस्य, सम्यग्दर्शनसहायत्वात् , क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात्, भेदे च क्रियाऽभावाविशेषात् पूर्ववद्वस्तु नोऽनुत्पत्तिप्रसङ्गात्, न चेत्थं तत्प्रतिपयनवस्थेति ८ तथा 'ज्ञानद्वार' तत्र ज्ञानं.पञ्च-1 प्रकारं, मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदभिन्नं इति, अत्रापि व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां विचार इति, तत्र व्यवहारनयमतंमतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना न तु प्रतिपद्यमानका इति, मत्यादिलाभस्य सम्यग्दर्शनसहचरितस्वात्, केवली तु न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, तस्य क्षायोपशमिकज्ञानातीतत्वात् , तथा मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञान सास्वादनकालयापरवाधिवक्षेति मलभारिपादाः, २ शेषाणां पूर्वप्रतिपन्नत्वात् प्रतिपद्यमानरवे भजना, पूर्वमवाच्याधुना तदुपयोगे तातम्धी वा वर्ग-| माना भन्न प्रतिपक्षवेन माया नतु प्रतिपय व उमितवम्बले. वन्धिषु . + नेदं १-३. कलाभस्य 1-३-५-६.१ पास्तुतो०५-६. ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आवश्यक॥ २० ॥ वन्तस्तु विवक्षितकाले प्रतिपद्यमाना भवन्ति, न तु पूर्वप्रतिपन्ना इति । निश्चयनयमतं तु मतिश्रुतावधिज्ञानिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमाना अपि सम्यग्दर्शनसहचरितत्वात् मत्यादिलाभस्य संभवन्तीति, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात्, मनःपर्यायज्ञानिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एत्र, न प्रतिपद्यमानकाः, तस्य च भावयतेरेवोत्पत्तेः, केवलिनां तूभयाभाव इति । मत्याद्यज्ञानवन्तस्तु न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानकाः, प्रतिपत्तिक्रियाकाले मत्याद्यज्ञानाभावात्, क्रियाकालनिष्ठाकालयोश्चाभेदात्, अज्ञानभावे च प्रतिपत्तिक्रियाऽभावात् ९ । इदानीं 'दर्शनद्वारं', तद्दर्शनं चतुर्विधं, चक्षुरचक्षुरवधिकेवल भेदभिन्नं, तत्र चक्षुर्दर्शनिनः अचक्षुर्दर्शनिनचे, किमुक्तं भवति ?--दर्शनलब्धिसम्पन्ना न तु दर्शनोपयोगिन इति 'साओ लद्धीओ सागारोवओगोव उत्तस्स उप्पंज्जइ' इति वचनात् पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्याः, अवधिदर्शनिस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एवै, न तु प्रतिपद्यमानकः, केवलदर्शनिनस्तूभयविकला इति १० । 'संयत इति द्वार', संयतः पूर्वप्रतिपन्नो न प्रतिपद्यमान इति ११ । 'उपयोगद्वारं' स च द्विधा-साकारोऽनाकारश्च तत्र साकारोपयोगिनः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, अनाकारो १ विशेषेति २ शानज्ञानिनोरभेदात् आभिनियोधिकज्ञानयन्त इति बोध्यम् ३ साकारानाकारयोः उपयोगयोगपद्याभावात् किन्वित्यादि. ४ एतदुपयोगवन्तः, न चारतात एव लब्धिचिन्ता पूर्ववत् ५ इष्टावधारणार्थत्वा देवकारस्य प्रतिपद्यमानानां निषेधार्थैषः नतु मिध्यात्वतां अवधिदर्शनव्यवच्छेदाय, यहा तद्वत्सु तामवश्यंभावात् ६ साकारोपयोगोपयुक्तानामेव मतिज्ञानस्योत्पत्तेः ७ 'नमिव छाउम स्थिर नाणे' इति सिद्धान्तमङ्गीकृत्य. नास्तीदम् ५-६. +१-२-३-५-६. For Parts Only ~50~ | हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ।। २० ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: T༔ ༔ Tཤྩ བླ पयोगिनस्तु पूर्वप्रतिपन्ना एव न प्रतिपद्यमानकाः । १२ अधुना आहारकद्वार, आहारका पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विकल्पनीया विवक्षितकाल इति, अनाहारकास्तु अपान्तरालगती पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न तु प्रति-IG |पद्यमानका इति १३ । तथा 'भाषक इति द्वारं', तत्र भाषालब्धिसंपन्ना भाषकाः, ते' भाषमाणा अभापमाणा वा पूर्वप्रतिपना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भजनीया इति, तल्लब्धिशून्याश्चोभयविकला इति १४ । 'परीत इति द्वारं', तत्र परीत्ताः प्रत्येकशरीरिणः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या इति, साधारणास्तु उभयविकला इति १५ । 'पर्याप्तक इति द्वारं', तत्र पनिराहारादिपर्याप्तिभिर्ये पर्याप्तास्ते पर्याप्तकाः, ते पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यन्ते, विवक्षितकाले प्रतिपद्यमानास्तु भजनीया इति, अपयोप्तकास्तु षट्पयोत्यपेक्षया पूर्वप्रतिपन्नाः13 संभवन्ति, न वितरे १६ । 'सूक्ष्म इति द्वारं', तत्र सूक्ष्माः खलूभयविकलाः, बादरास्तु पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, | इतरे तु विवक्षितकाले भाज्या इति १७ । तथा 'संज्ञिद्वार' तत्रेह दीर्घकालिक्युपदेशेन संज्ञिनः प्रतिगृह्यन्ते, ते च बाद रवद्वक्तव्याः, असंझिनस्तु पूर्वप्रतिपन्नाः संभवन्ति, न त्वितर इति १८ । 'भव इति द्वारं', तत्र भवसिद्धिकाः संज्ञिवद्धदक्तव्याः, अभवसिद्धिकास्तूभयशून्या इति १९ । 'चरम इति द्वार', चरमो भवो भविष्यति यस्यासी अभेदोपचाराचरम | इति, तत्र इत्थंभूताः चरमाः पूर्वप्रतिपन्ना नियमतः सन्ति, इतरे तु भाज्याः, अचरमास्तूभयविकलाः, उत्तरार्धे तु व्याख्या॥ संक्षिपञ्चेन्जियाणां पण्णां पर्याप्तीना संभवात , तत्र पावश्यभावातस्य.२ प्रतिपचमानका भव्या इत्यर्थः । जातिभव्यब्यवच्छेदः फार द्वारपार्थक्षस्थ. 14 'माभिणियोहिषनाणं मग्गिज एसु ठाणेमु' ति तृतीयगाभोत्तरार्धकक्षणं, तेषां २. weredturary.com ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥२१॥ -- तमेव । कृता सत्पदप्ररूपणेति, साम्प्रतं आभिनिबोधिकजीवद्रव्यप्रमाणमुच्यते-तत्र प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य विवक्षितकाले हारिभद्रीकदाचिद् भवन्ति कदाचिन्नेति, यदि भवन्ति जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्तु क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशितुल्या इति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः क्षेत्रपल्योपमासंख्येयभागप्रदेशराशिपरिमाणा एव, उत्कृष्टतस्तु एभ्यो विशे-विभागः१ पाधिका इति । उक्तं द्रव्यप्रमाणं, इदानीं 'क्षेत्रद्वारं', तत्र नानाजीवान एकजीवं चाङ्गीकृत्य क्षेत्रमुच्यते, तत्र स एवा-1 भिनिबोधिकज्ञानिनो लोकस्य असंख्येयभागे वर्तन्ते, एकजीवस्तु ईलिकागत्या गच्छन्नूर्व अनुत्तरसुरेषु सप्तसु चतुर्दशभागेषु वर्तते, तेभ्यो वाऽऽगच्छन्निति, अधस्तु षष्ठीं पृथ्वीं गच्छंस्ततो वा प्रत्यागच्छन् पञ्चसु सप्तंभागेषु इति, नातः परमधा क्षेत्रमस्ति, यस्मात् सम्यग्दृष्टेः अधः सप्तमनरकगमनं प्रतिषिद्धमिति, आह-अधः सप्तमनरकपृथिव्यामपि सम्यग्दर्शनलाभस्य प्रतिपादितत्वात् आगच्छतः पञ्चसप्तभागाधिकक्षेत्रसंभव इति, अत्रोच्यते, एतदप्येयुक्तं, सप्तमनरकात् | सम्यग्दृष्टेरागमनस्यौप्यभावात् , कथम् , यस्मात् तत उद्धृतास्तिर्यवेवागच्छन्तीति प्रतिपादितं, अमरनारकाच सम्यग्दृष्टयो मनुष्येष्वेव, इत्यलं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । 'स्पर्शनाद्वारं' इदानीं, इह यत्रावगाहस्तत् क्षेत्रमुच्यते, स्पर्शना तु - -- - ॥२१॥ यद्यपि हादपायोजनान्यलोकमुशान्ति तथापि म्यूनता तावतीन विवक्षितावाल्पेति.२ अधोलोकस्य सप्त भागान् कृत्वेदमुक, पूर्व चतुर्दश लोकभागा | अत्र स्वधोलोकभागा हलत्र विवक्षैव मान, भाष्यकारादिभिस्वनापि पञ्च चतुर्दशभागाः प्रसापादिषत. ३ सिवान्तकर्मग्रन्थोभयमतेनापि पान्तसम्यक्त्वानामेव सप्तमनरकगमनाभ्युपगमान, ४ गमन विषयवाशाया अपुकता अपिना, यहा क्षेत्रसंभवायोग्यता सम्पदाप्टेरागमनायोग्यता चेति भवनयितुं. ५ अधिक क्षेत्रस्य | परिप्रदोऽपिना. * स्वेतेभ्यो २-४ सुतेभ्यो . Our ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: -22502048) -- ततोऽतिरिक्ता अवगन्तच्या, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्रं सप्तप्रदेशा च स्पर्शनेति । तथा 'कालद्वारं', तत्रोपयोगमङ्गीकृत्य एकस्यानेकेषां चान्तर्मुहूर्त्तमात्र एव कालो भवति जघन्यत उत्कृष्टतच, तथा तल्लब्धिमङ्गीकृत्य एकस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमेव, उत्कृष्टतस्तु षट्षष्टिसागरोपमाण्यधिकानीति, वारद्वयं विजयादिषु गतस्य अच्युते वा वारत्रयमिति, नरभवकालाभ्यधिक इति, तत ऊर्ध्वमप्रच्युतेनापवर्गप्राप्तिरेव भवतीति भावार्थः, नानाजीवापेक्षया तु सर्वकाल एवेति, न यस्मादाभिनिवोधिकलब्धिमच्छ्न्यो लोक इति । इदानीं 'अन्तरद्वारं', तत्रैकजीवमङ्गीकृत्य आभिनिबोधिकस्यान्तरं जघन्येनान्तर्मुहूर्त, कथम् !, इह कस्यचित् सम्यक्त्वं प्रतिपन्नस्य पुनस्तत्परित्यागे सति पुनस्तदावरणकर्मक्षयोपशमाद् अन्तर्मुहर्च-12 मात्रेणैव प्रतिपद्यमानस्येति, उत्कृष्टतस्तु आशातनाप्रचुरस्य परित्यागे सत्ति अपार्धपुद्गलपरावर्त इति, उक्तं च-"तित्थगरपधयणसुयं, आयरियं गणहरं महिहीयं । आसोदितो बहुसो, अणंतसंसारिओ होई॥शा" तथा नानाजीवानपेक्ष्य अन्तरा| भाव इति । 'भाग इति द्वारं तत्र मति ज्ञानिनःशेषज्ञानिनामज्ञानिनां चानन्तभागे वर्तन्ते इति । 'भावद्वारं' इदानी, तत्र हमतिज्ञानिनःक्षायोपशमिके भावे वर्तन्ते, मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य क्षायोपशमिकत्वात् । तथा 'अल्पबहुत्वद्वार', तत्राभिनिबोधिकज्ञानिनां प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नापेक्षया अल्पबहुत्वविभागोऽयमिति, तत्र सद्भावे सति सर्वस्तोकाः प्रतिपद्यमा अधिकेति. २ चत्वारो दिइसका द्वावांघोदिको एकश्रावगाहस्थानमिति सप्तप्रदेशा स्पर्शना. ३ 'अनेकाभिनियोधिकजीवानामपीदमेवोपयोगकाल मानं, केवलगिदमन्त मुहमपि प्रहपारमणसेय' इति विशेषावश्यकवृत्तौ. ४ तीर्थकरं प्रवचनं श्रुतं आचार्य गणधरं महर्दिकम् (आमषिभ्यादिलब्धिमन्तं)। आमातयन् बहुशः अनन्तसंसारिको भवति ॥ १॥ ५ भागद्वारा पार्थक्यज्ञापनाय. * धारा०१-३-३-४-६. + आसादेतो. २-४, -9649-0- -6 ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [१६/१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- ॥२२॥ नका, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यपदिनस्तेभ्योऽसंख्येयगुणाः, तथोत्कृष्टपदिनस्तु एतेभ्योऽपि विशेषाधिका इति गाथा- हारिभद्रीवयवार्थः ।। १५ ।। साम्प्रतं यथाच्यावर्णितमतिभेदसंख्याप्रदर्शनद्वारेणोपसंहारमाह | यवृत्तिः विभागः१ आभिणिबोहियनाणे, अट्ठावीसइ हवन्ति पयडीओ। अस्य गर्मनिका-'आभिनिवोधिकज्ञाने अष्टाविंशतिः भवन्ति प्रकृतयः' प्रकृतयो भेदा इत्यनान्तरं, कथम् 1, इह व्यञ्जनावग्रहः चतुर्विधः, तस्य मनोनयनवजेन्द्रियसंभवात् , अर्थावग्रहस्तु पोढा, तस्य सर्वेन्द्रियेषु संभवात् , एवं ईहा-2 वायधारणा अपि प्रत्येक षड्भेदा एव मन्तव्या इति, एवं संकलिता अष्टाविंशतिर्भेदा भवन्ति । आह-पागू अवग्रहादिनिरूपणायां 'अस्थाणं उग्गहणे इत्यादावेताः प्रकृतयः प्रदर्शिता एव, किमिति पुनः प्रदश्यन्ते !, उच्यते, तत्र सूत्रे संख्यानियमेन नोकाः, इह तु संख्यानियमेन प्रतिपादनादविरोध इति । इदं च मतिज्ञानं चतुर्विधं-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतः सामान्यादेशेन मतिज्ञानी सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानीते, न विशेषादे P ॥२२॥ गाथार्धस्स उपसंहारवाक्यस्य वा. संक्षिप्ता विवृतिः ३ प्राग्वन् मनस इन्द्रियता. गाथा (३). ५ तृतीयगाथारूपे. ६ अवनदादीनां संख्याभेदं प्रत्येक विधाय न प्रतिपादिताः, म्याना श्यामवरहस्य अर्याचप्रहावायधारणानां च यथावदिम्बियादिभेदेन सूत्रे प्रतिपादनाभावात्. ७ 'आदेसोति पगारो ओघादेखेण सचदमाईति (५०३)विशेषावश्यकवचनात् इव्यसामान्येन. ८न सर्वेजियोपैरियर्थः, क्रियतां पुनः पर्यावाण्यामधियमात. नयनमनो१-३-४-५, आभिनिबोधिक ज्ञानस्य २८ कर्मप्रकृतयः ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [१६/१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: AAAAA शत इति, एवं क्षेत्रतो लोकालोकं, कालतः सर्वकालं, भावतस्तु औदयिकादीन् पञ्च भावानिति, सर्वभावानां चानन्त-| भार्गमिति । उक्तं मतिज्ञानं, इदानीं अवसरप्राप्तं श्रुतज्ञान प्रतिपिपादयिपुराह सुपणाणे पयडीओ, वित्थरओ आवि वोच्छामि ॥१६॥ व्याख्या-श्रुतज्ञानं पूर्व व्युत्पादितं तस्मिन् , प्रकृतयो भेदा अंशा इति पर्याया, ताः, 'विस्तरतः' प्रपश्चेन, चशब्दात संक्षेपतश्च, अपिशब्दः संभावने, अवधिप्रकृतीश्च 'वक्ष्ये' अभिधास्ये ॥ १६ ॥ इदानीं ता एव श्रुतप्रकृतीः प्रदर्शयन्नाह पत्तेयमक्खराई, अक्खरसंजोग जत्तिआ लोए । एवइया पयडीओ, सुर नाणे हुंति णायब्वा ॥१७॥ | व्याख्या-एकमेकं प्रति प्रत्येक, अक्षराण्यकारादीनि अनेकभेदानि, यथा अकारः सानुनासिको निरनुनासिकश्च, पुनरेकेकनिधा-हस्वः दीर्घः प्लुतश्च, पुनरेकैकखिधैव-उदात्तः अनुदात्तः स्वरितश्च, इत्येवमकारः अष्टादशभेदः, इत्येवमन्येष्वपिन इकारादिषु यथासंभवं भेदजालं वक्तव्यमिति । तथा अक्षराणां संयोगा' अक्षरसंयोगाः संयोगाश्च द्यादयः यावन्तो लोके | धांतिकायादीनामाधार योऽम्य इतस्था, २ अतीतामागतवर्तमानरूपम् । क्षेत्रादिष्वपि सामान्यादेशमखनुवर्तनीय, 'भावमीण भाभि|णियोहि भनाणी आएसेणं सो भाचे जाण'ति श्रीमन्दीसूत्रगतं वाषयमालम्वेदम्. सर्वभावबोधेन सर्वज्ञत्वात्तियों तद्वारणाय, 'मतिश्रुतबोनिबन्धः सर्वजम्वेष्यसबंपर्यायेषु' इति तत्वार्थे अ० १ सूत्रम् २. आलमये, सर्वपर्यायाणामनन्तभागं युपते मतिज्ञानी, सनशानिनोः कथविदभेदादेवं शानिधारा शानभेदानां कपनं. ५ लवणे दीर्घाभा सम्यक्षराणां स्वाभावं व्यजनानां हवाधभावं भावेश्य, पूर्वव्युत्पादितं १-२-४-५. + दम् २-४, अक्षरसंयोगान०१. अथ श्रुतज्ञानस्य प्रतिपादनम् क्रियते ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- ॥२३॥ यथा पटैपट' इति 'व्याघहस्ती" इत्येवमादयः एते' चानन्ता इति,तत्रापि एकैः अनन्तपर्यायः, स्वपरपर्यायापेक्षया इति। हारिभद्रीआह-संख्येयानां अकारादीनां कथं पुनरनन्ताः संयोगा इति, अनोच्यते, अभिधेयस्य पदलास्तिकायादेरनन्तत्वात् यवृत्तिः |भिन्नाच्चि, अभिधेयभेदे च अभिधानभेदसिद्ध्या अनन्तसंयोगसिद्धिरिति, अभिधेयभेदानन्त्यं च यथा-परमाणुः, द्विप्र-विभागः१ देशिको, यावद् अनन्तप्रदेशिक इत्यादि, तथैकत्रापि च अनेकाभिधानप्रवृत्तेः अभिधेयधर्मभेष्दा यथा-परमाणुः, निरंशो, निष्प्रदेशः, निर्भेदः, निरवयव इत्यादि, न चैते सर्वथैकाभिधेयवाचका ध्वनय इति, सर्वशब्दानां भिन्नप्रवृत्तिनि|मित्तत्वात् , इत्येवं सर्वद्रव्यपर्यायेषु आयोजनीयमिति, तथा च सूत्रेऽप्युक्तं-"अणंता गमा अणंता पजवा" अमुमेवार्थ || चेतस्यारोप्याह---'एतावत्यः' इयत्परिमाणाः प्रवृत्तिनिमित्तत्वात् इत्येवं सर्वप्रकृमयः श्रुतज्ञाने भवन्ति ज्ञातव्या | मलयगिरीयायो वृत्ती 'बटः पट इत्यादि म्यान खीत्येवमादि' इति । अबाध उदाहरणे स्वरान्तरित : संयोगः द्वितीयस्मिंस्तु स्वरानन्तरित इति दृष्टान्तयं. २ संयोगा ३ संयोगः जे हमह केवलो से सवण्णसहिमओ व पजवेऽयारो । ते तस्स सपजाया, सेसा परपजवा सो ॥ १८॥ चायसप-८ जायविसेसणाइणा तस्स जमुवति । सधणमिवासंबई, भवन्ति तो पळवा तस्स ॥ १८॥ इति (विशेषावश्यकवचनात् ). ५ विपञ्चाशतः. ६ पदार्थपाम्देन जगत्रयाभिधानव भिमाचे संयोगबहुत्याभावादाह. अन्यथा अभिधेयस्वरूपाख्यानानुपपत्ते, कार्यस्थले सांकेतिक स्पलेऽपिच न न भिन्नान्यभिधानानि. विशिष्टैकशब्देनानेकाभिधेवाभिधानविचारमाश्रित्य, एकस्मिन्नपि वा वाश्येऽनन्ताभिधानाभ्युपगमनायकत्रेत्यादि. ९ सूक्ष्मवसूक्ष्मायो- गिरवापरपरमाणुसंयोगहीनत्वाविनाविस्वाश्यवानारम्यत्यादिना प्रवृत्तिः शब्दानामेषामत्र. १०इह गमा अशंगमा गृहमन्ते, अर्थगमा नामार्थपरिच्छेदास्ते चामन्ताः इति नन्दीवृत्ती. + घटः पटः १-२-४-५. हयादि २-४. न्यानो १.६ज्यान खी १.पिमियरवाए २-४-५, धर्मभेदो १-२-३-४. ॥२३ ।। ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा - ], निर्युक्तिः [१७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः इति गाथार्थः ॥ १७ ॥ इदानीं सामान्यतयोपदर्शितानां अनन्तानां श्रुतज्ञानप्रकृतीनां यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्य आत्मनः खलु अपश्यन्नाह - कत्तो मे वण्णे, सत्ती सुग्रणाणसब्वपयडीओ ! । चउदसविहनिक्खेवं सुयनाणे आवि वोच्छामि ॥ १८ ॥ व्याख्या-कुतो ?, नैव प्रतिपादयितुं, 'मे' मम 'वर्णयितुं' प्रतिपादयितुं 'शक्तिः सामर्थ्य, काः १-प्रकृतीः, तत्र प्रकृतयो भेदाः, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः श्रुतज्ञानस्य सर्वप्रकृतयः श्रुतज्ञान सर्वप्रकृतय इति समासः, ताः कुतो मे वर्णयितुं शक्तिः १, कथं न शक्तिः १, इह ये श्रुतग्रन्थानुसारिणो मतिविशेषास्तेऽपि श्रुतमिति प्रतिपादिताः उक्तं च- "तेऽविय मईविसेसे, सुयणाणव्यंतरे जाणं” ताँश्चोत्कृष्टतः श्रुतधरोऽपि अभिलाप्यानपि सर्वान न भाषते, तेषामनन्तत्वात् आयुषः परिमितस्वात् वाचः क्रमवृत्तित्वाश्चेति, अतोऽशक्तिः, ततः 'चतुर्दशविधनिक्षेप' निक्षेपणं निक्षेपो-नामादिविन्यासः, चतुर्दशविधश्वासौ निक्षेपश्चेति विग्रहस्तं 'श्रुतज्ञाने' श्रुतज्ञानविषयं चशब्दात् श्रुताज्ञानविषयं च, अपिशब्दात् उभयविषयं च, तत्र श्रुतज्ञाने सम्यक् श्रुते, श्रुताज्ञाने असंज्ञिमिथ्याश्रुते, उभयश्रुते दर्शनविशेषपरिग्रहात् अक्षरानक्षरश्रुते इति, 'वक्ष्ये' अभिधास्ये इति गाथार्थः ॥ १८ ॥ साम्प्रतं चतुर्दशविध श्रुतनिक्षेप स्वरूपोपदर्शनार्याह-. (विशेषावश्यके १४३) तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि २ असंज्ञिनां वक्ष्यमाणत्वेऽपि नियमाभावात्संज्ञिनां सम्पतस्य न तहणं. ३ एकस्य परस्परविरुद्ध धर्माश्रयत्वाभावादाह-दर्शनेत्यादि दर्शनशब्दमात्र श्रद्धानार्थः. नामस्थापना व्याणामनादरः अप्रधानत्वादिना वक्ष्य. माणवाद्वा श्रुतस्कम्ये भावधुते ये भेदातुश तदपेक्षया पात्र चतुर्दशविधनिक्षेपेति, अधिकारावतरणिकैपेति च स्वरूपेति, अक्षरसंश्यादिद्वाराणां च नात एव पृथक् सूत्राणि + मातीदं १-२-४-५ चतुर्दशनिक्षेप० २. Educatin internation For Panalyse Only ~ 57~ aru Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥२४॥ Ta Ta अक्खर सण्णी सम्मं, साईयं खलु सपजवसि च । गमियं अंगपविट्ठ, सत्तथि एए सपडिवक्खा ॥१९॥ हारिभद्री व्याख्या-तत्र 'अक्षरश्रुतद्वारं' इह 'सूचनात्सूत्र' इतिकृत्वा सर्वद्वारेषु श्रुतशब्दो द्रष्टव्य इति । तत्र अक्षरमिति,81 | यवृत्ति किमुक्तं भवति ?-'क्षर संचलने' न क्षरतीत्यक्षरं, तच्च ज्ञानं चेतनेत्यर्थः, न यस्मादिदमनुपयोगेऽपि प्रयवत इति भावार्थः, विभागः१ इत्थंभूतभावाक्षरीकारणत्वादू अकारादिकमप्यक्षरमभिधीयते, अथवा अर्थान क्षरति न च शीयते इत्यक्षरं, तच समासतस्त्रिविधं, तद्यथा-संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरं चेति, संज्ञाक्षरं तत्र अक्षराकारविशेषः, यथा घटिकासंस्थानो धकारः, कुरुण्टिकासंस्थानश्चकार इत्यादि, तच्च ब्राहयादिलिपीविधानादनेकविधं । तथा व्यञ्जनाक्षरं, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जन, व्यञ्जनं च तदक्षरं चेति व्यञ्जनाक्षर, तह सर्वमेव भाष्यमाणं अकारादि हकारान्तं, अर्थाभिव्यञ्जकत्वाच्छब्दस्य, तथा योऽक्षरोपलम्भः तत् लब्ध्यक्षरं, तच्च ज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तं श्रुतग्रन्थानुसारि तदाव रणक्षयोपशमो वा । अत्र च संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं च द्रव्याक्षरमुक्त, श्रुतज्ञानाख्यभावाक्षरकारणत्वात् , लब्ध्यक्षरं तु भावाक्षरं, विज्ञानात्मकत्वादिति । तत्र अक्षरश्रुतमिति अक्षरात्मकं श्रुतं अक्षरश्रुतं, द्रव्याक्षराण्यधिकृत्य, अथवा अक्षरं च तत् श्रुतं च अक्षरश्रुतं, भावाक्षरमङ्गीकृत्य ।। १९ ।। उक्तमक्षरश्रुतं, इदानीमनक्षर श्रुतस्वरूपाभिधित्सयाह भाष्यमाणशब्दस्वैव यजमाक्षरत्वादाह-अर्थाभीश्यादि, प्रवेकं विभिचाक्षराणामाभिव्यञ्जकस्वाभायात् . २ रूपक्षराणि संशाम्य अनोभया ॥२४॥ पाण्याश्रित्य इन क्षरतीत्यादिव्युत्पश्या चेतनामाश्रित्य. + प्रग्यवतीति. २-५. इथंभूतो.1.1 भावा०५-५.६ कुरष्टिसं०1-2- रण्टिकासं०२ विस्मकर्म1-२-३-४. ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ऊससि नीससिअं, निच्छूढं खासि च छीअं च। णीसिंघियमणुसारं, अणकखरं छेलियाईअं ॥ २० ॥ | व्याण्या-उसनं उच्छसितं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तथा निःश्वसनं निःश्वसितं, निष्ठीवनं निधयत, काशनं काशितं.IN चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं क्षुतं, चशब्दः समुच्चयार्थ एव, अस्य च व्यवहितः संबन्धः, कथम् ! सेण्टितं चानक्षरश्रुतमिति वक्ष्यामः, निःसिंङ्घनं नि:सिवितं, अनुस्वारवदनुस्वार, अिनक्षरमपि यदनुस्वारवदुचायेते हुङ्कारकरणादिवत् तत् 'अनक्षर-15 मिति' एतदुच्छसितादि अनक्षरश्रुतमिति, सेण्टनं सेण्टितं तत्सेण्टितं च अनक्षरश्रुतमिति । इह चोच्छ्वसितादि द्रव्यश्रुतमात्र, ध्वनिमात्रैत्वात्, अथवा श्रुतविज्ञानोपयुक्तस्य जन्तोः सर्व एव व्यापारः श्रुतं,तस्य तद्भावेन परिणतत्वात् । आह-यद्येवं है किमित्युपैयुक्तस्य चेष्टापि श्रुतं नोच्यते,? येनोच्छसिताद्येवोच्यते इति, अत्रोच्यते, रूढा, अथवा श्रूयत इति श्रुतं, अन्वर्थसंसामधिकृत्य उरसितायेव श्रुतमुच्यते, नचेष्टा,तेदभावादिति, अनुस्वारादयस्तु अर्थगमकत्वादेव श्रुतमिति गाथार्थः ॥२०॥ । उक्तमनक्षरश्रुतद्वारं, इदानीं 'संज्ञिद्वार' तत्र संज्ञीति कः शब्दार्थः1, संज्ञानं संज्ञा, संज्ञाऽस्यास्तीति संज्ञी, स च त्रिविधः-दीर्घकालिकहेतुवाददृष्टिवादोपदेशाद, यथा नन्द्यध्ययने तथैव द्रष्टव्यः, ततश्च संज्ञिनैः श्रुतं संज्ञिश्रुतं, आदिना सीकारपूरकाराधाः. २ घरपटादियद्राव्यवाचकभावतया न परिणामीति मात्रग्रहण का सूचकत्वात्. . करचरणादिक्रियाया अपि विवक्षितार्थ-1* | सूचकरबादाह. ५वतोपयुक्तस्व. श्रवणव्यवहाररूपया शास्त्रशलोकप्रसिद्धया, रूढी विशेषामहे माह-अथवेत्यादि. 6 निरर्थकार्यशून्यनिरासेन ९ अषणलक्षणान्वर्धस्याभावात् १० आदिना सेण्टितसीत्वारायाः, उच्छसितादीनामन्यावाद भनक्षरत्वमनुस्खारादीनां वर्णाचयवस्वाद्विशेषदर्शनाय चेदम् १५ यथोत्तरविशुनप्रमोसनेन शापितमाह 'सणिति असविणति य, सबसुए कालिनोवपुसेणं' (वि० ५२) २(मन्धीवृत्तिः ३६१०) १३ दीर्घकाकिफीसंज्ञया. •णीसंधिय०+२-२-३ निःसहनं २-१ अक्षरमपि भुतज्ञानो. SAREauratonintamational ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [ / गाथा-], निर्बुक्तिः [२०] भष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आवश्यक॥ २५ ॥ तथा असंज्ञिनः श्रुतं असंज्ञिश्रुतमिति । तथा 'सम्यक् श्रुतं' अङ्गानङ्गप्रविष्टं आचारावश्यकादि । तथा 'मिथ्यांश्रुतं' पुरारामायणभारतादि, सर्वमेव वा दर्शन परिग्रहविशेषात् सम्यक् श्रुतमितरद्वा इति । तथा 'साद्यमनाद्यं सपर्यवसितमपर्यवसितं चं' 'नयानुसारतोऽवसेयं, तत्र द्रव्यास्तिकनया देशाद् अनाद्यपर्यवसितं च नित्यत्वात्, अस्तिकायवत् । पर्यायास्तिकनयादेशात् सादि सपर्यवसितं च अनित्यत्वात्, नारकादिपर्यायवत् । अथवा द्रव्यादिचतुष्टयात् साधनाद्यादि अवगन्तव्यं यथा नन्द्यध्ययने इति, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः संबन्धः, सप्तैव 'एते'' श्रुतपक्षाः सप्रतिपक्षाः, न पक्षान्तरमस्ति, संतोऽत्रैवान्तर्भावात् । तथा गमा अस्य विद्यन्ते इति गमिकं तत्र प्रायोवृत्या दृष्टिवादः । तथा गाथाद्यसमानग्रन्थं अगमिकं तच्च प्रायः कालिकं । तथा अङ्गप्रविष्टं गणधरकृतं आचारादि, अनङ्गप्रविष्टं तु स्थविरकृतं आवश्यकांदि, गाथाशेषमवधारणप्रयोगं दर्शयता व्याख्यातमेवेति गाथार्थः ॥ २० ॥ सत्पदप्ररूप 3 " स्वाभाविक सम्यक्रयेतरत्वासंभवादाह, अन्यपूर्वचतुष्कं दशमस्य परमभाग स्याज्य एव 'चउदसस्सि सम्मसु अभिदसधिस्स सम्मसुर्य तिनन्दीवचनात् २ सम्यग्मिथ्यादर्शनवजीवस्वीकारेण भेदात् ३ सम्यग्दर्शननाम् ४ श्रुतवतो जीवद्रव्यस्य नित्यत्वात् द्रव्यमेव चासौ मनुते. ५ पर्यायाणां प्रतिक्षणं क्षयभावात् पर्यायमात्रापेक्षी चासौ ६ ( नन्दीवृत्तिः ३९४ १०) एक पुरुष भरतादिक्षेत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणी जिनभाषितभावप्ररूपणा भाश्रित्य सादिसपर्यवसितं नानापुरुषमहाविदेदनो उत्सर्पिण्यवसर्पिणीक्षायोपशमिकानाश्रित्य स्वम्यधा ७ पर्यायाः ८ किञ्चिद्विशेषतो भूयो भूयत्तस्यैव सूत्रोचारणं गमः ९ स्थविरास्तु मद्रवाडुस्वाम्यादयस्तत्कृतमावश्यक निर्युचयादिकमनविष्टं (विशेषा० ५५० वृत्तौ ) १० 'सत्तवि एए सपविक्खा' इयेकानविंशगाथास कं. १३ खलुशब्दस्याख्याने, अपितु सहानामपि प्रतिपक्षग्रहार्थः स्फुट एव. * मिध्यात्वतं तु ०नुसारिवो० ३-४ सायं २-३-४०५ Ecation International For Praise Only ~ 60~ हारिभद्री. यवृत्तिः विभागः १ ।। २५ ।। yor Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: शणादि मतिज्ञानवदायोज्यं । प्रतिपादितं श्रुतज्ञानमर्थतः, साम्प्रतं विषयद्वारेण निरूप्यते, तच्चतुर्विधं-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याणि जानीते न तु पश्यति, एवं क्षेत्रादिष्वपि द्रष्टव्यं । इदं पुनः श्रुत-6 ज्ञानं सर्वातिशयरत्नसमुद्रकल्पं, तथा प्रायो गुर्वायत्तत्वात् पराधीनं यतः अतः विनेयानुग्रहार्थं यो यथा चास्य | लाभः तं तथा दर्शयन्नाह आगमसत्थरगहणं, जं वुद्धिगुणेहि अडहिं दिई । चिंति सुयनाणलभ, तं पुवविसारया धीरा ॥ २१॥ का व्याख्या-आगमनं आगमः, आङ: अभिविधिमर्यादावाद अभिविधिना मर्यादया वा गमः-परिच्छेद आगमः, ट्रास च केवलमत्यवधिमनःपर्यायलक्षणोऽपि भवति अतस्तद्व्यवच्छित्यर्थमाह-शिष्यतेऽनेनेति शास्त्रं-श्रुतं, आगमग्रहणं | तु पष्टितन्त्रादिकुशास्त्रव्यवच्छेदार्थ, तेषामनागमत्वात्, सम्यकपरिच्छेदात्मकत्वाभावादित्यर्थः, शाखतया च रूढत्वात्, ततश्च आगमश्चासौ शास्त्रं च आगमशास्त्रं तस्य ग्रहणमिति समासः, गृहीतिम्रहणं, यहुद्धिगुणैः वक्ष्यमाणलक्षणैः करणभूतैः अष्टभिः, दृष्टं, ब्रुयते, श्रुतज्ञानस्य लाभः श्रुतज्ञानलाभस्तं, तदेव ग्रहणं, अवते, के ?, पूर्वेषु विशारदाः पूर्वविशारदाः, विशारदा विपश्चितः, धीरा व्रतानुपालने स्थिरा इत्ययं गाथार्थः ॥ २१॥ बुद्धिगुणरष्टभिरित्युक्तं, ते चामीसुस्सूसइ पडिपुच्छह, सुइ गिण्हइ य ईहए'वावि । तत्तो अपोहए या, धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ २२॥ व्याख्या-विनययुक्तो गुरुमुखात् श्रोतुमिच्छति शुश्रूषति, पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति तच्छुतमशंङ्कितं करोतीति भा. सरस्वरूपसदस्वरूपसपरूपणादिद्वारातिदेवान्याम्पानेन. * प्ररूप्यते २-३+ वास्प २०हि विदि-२-४-५ धीरासाविका 1-३-४-५६ शुश्रूषते ५ पुनः पुनः ३-४ ESCACA SARERabindranational बुद्धेः अष्टगुणा: तथा श्रवण एवं व्याख्यान-विधि: प्रतिपादयेते ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक-वार्थः, पुनः कथितं तच्छृणोति, श्रुत्वा गृह्णाति, गृहीत्वा चेहते पर्यालोचयति किमिदमित्थं उत अन्यथेति, चशब्दः| हारिभद्री समुच्चयार्थः, अपिशब्दात् पर्यालोचयन् किश्चित् स्वबुद्धयाऽपि उत्प्रेक्षते, 'ततः' तदनन्तरं 'अपोहते च' एवमेतत् यदा॥२६॥ दिष्टमाचार्येणेति, पुनस्तमर्थमागृहीतं धारयति, करोति च सम्यक् तदुक्तमनुष्ठानमिति, तदुक्तानुष्ठानमपि च श्रुतप्राप्ति विभागः१ हेतुर्भवत्येव, तदावरणकर्मक्षयोपशमादिनिमित्तत्वात्तस्येति । अथवा यद्यदाज्ञापयति गुरुः तत् सम्यगनुग्रहं मन्यमानः श्रो- तुमिच्छति शुश्रूपति, पूर्वसंदिष्टश्च सर्वकार्याणि कुर्वन् पुनः पृच्छति प्रतिपृच्छति, पुनरादिष्टः तत् सम्यक् शृणोति, शेष पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ २२ ॥ बुद्धिगुणा व्याख्याताः, तत्र शुश्रूषतीत्युक्तं, इदानीं श्रवणविधिप्रतिपादनायाह मूअं हुंकारं वा, याढकारपडिपुच्छचीमंसा । तत्तो पसंगपारायणं च परिणितु सत्तमए ॥२३॥ | व्याख्या-'मूकमिति' मूकं शृणुयात्, एतदुक्तं भवति-प्रथमश्रवणे संबतगात्रः तूष्णीं खल्वासीत, तथा द्वितीये हुङ्कारं च दद्यात् , बन्दनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये वाढत्कारं कुर्यात् , बाढमेवमेतत् नान्यथेति, चतुर्थश्रवणे तु गृहीतपूर्वा-IN परसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात् कथमेतदिति, पञ्चमे तु मीमांसां कुर्यात् , मातुमिच्छा मीमांसा प्रमाणजिज्ञासेतियावत्, ततः पठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चास्य भवति, परिनिष्ठा सप्तमे श्रवणे भवति, एतदुक्तं भव-| |ति-गुरुवदनुभापत एव सप्तमश्रवण इत्ययं गाथार्थः।२३शाएवं तावच्छ्वणविधिरुक्तः,इदानी च्याख्यानविधिमभिधित्सुराहसुत्तत्थोखलु पढमो.बीओ निज्जत्तिमीसओभणिओतहओय निरवसेसो.एसविही भणिअ अणुओगे॥२४॥ * तत्तत् २-३-५+ शुभूपते ५ शुश्रूषत इत्युक्तं ५ बाकार. १-२- वादकार १-२ बाटकर 11 मेवैतत् ५ = प्रसापारगमनं ४ मीसीमो ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: CAREERE व्याख्या-सूत्रस्यार्थः सूत्रार्थः सूत्रार्थ एव केवलः प्रतिपाद्यते यस्मिन्ननुयोगे असौ सूत्रार्थ इत्युच्यते, सूत्रार्थमात्र-13 मंतिपादनप्रधानो वा सूत्रार्थः, खलुशब्दस्वेवकारार्थः, स चावधारणे, एतदुक्तं भवति-गुरुणा सूत्रार्थमात्राभिधानलक्षण एवं प्रथमोऽनुयोगः कार्यः, मा भूत् प्रार्थमिकविनेयानां मतिसंमोहः, 'द्वितीयः' अनयोगः सत्रस्पर्शिकनिर्यक्तिमि-12 श्रका कार्य इत्येवंभूतो भणितो जिनैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च 'तृतीयश्च निरवशेषः' प्रसक्तानुप्रसक्तमप्युच्यते यस्मिन् स एवंलक्षणो निरवशेषः, कार्य इति, स एष' उक्तलक्षणो विधान विधिः प्रकार इत्यर्थः, भणितः प्रतिपादितः जिनादिभिः, क?, सूत्रस्य निजेन अभिधेयेन साधै अनुकूलो योगः अनुयोगः सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः, तस्मिन्ननुयोगेऽनुयोगविषय इति, अयं गाथार्थः ॥ २४ ॥ समाप्तं श्रुतज्ञानम् ॥ उक्तर्यकारेण श्रुतज्ञानस्वरूपमभिहितं, साम्प्रतं प्रागभिहितेप्रस्तावमवधिज्ञानमुपदर्शयन्नाहसंखाईआओ खलु, ओहीनाणस्स सव्वपयडीओ। काओ भवपञ्चइया, खओवसमिआओ काओऽवि ॥२५॥ व्याख्या-संख्यानं संख्या तामतीताः संख्यातीता असंख्येया इत्यर्थः, तथा संख्यातीतमनन्तमपि भवति, ततश्चानन्ता अपि, तथा च खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैव संख्यातीताः, द्रव्यभावाख्य| उपोदात निक्षेपनियुक्त्योः कथञ्जिवचित्प्रतिपादनसंभवात्. २ नूतनशिघ्याणां प्रपडितज्ञानां बालानां. ३ रीकाचूयादिरूपः, प्रथमे संहितापदलक्षणः मध्ये पदार्थपदनिग्रहचालनाप्रत्यवस्वानादिरूपः तृतीयसिस्तु अर्थापत्तिप्रभूतिगम्य इत्यर्थः । सर्वश्रुतप्रतिव्याख्यानाधाक्यत्वेन चतुर्दशविधनिक्षेपवर्णनप्रतिज्ञातरूपेण, ५ स्थित्यादिसाधर्मरूपं. ६ संख्यानमपेक्ष्य सामान्ये वा नपुंसकं. ७ सतोरप्यनन्सयोरनयोरवधिज्ञानविषयापेक्षयादा कर्तव्यः + पर्याक०२-४-५ सूत्रार्थव्या सूत्रान्या०२-४-५ T weredturary.com अथ अवधिज्ञानस्य स्वरुपम दर्शयते ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक-द्राशेयापेक्षया चानन्ता इति, 'अवधिज्ञानस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, सर्वाश्च ताः प्रकृतयश्च सर्वप्रकृतयः, प्रकृतयो भेदा हारिभद्री अंशा इति पर्यायाः, एतदुक्तं भवति-यस्मादवधेः लोकक्षेत्रासंख्येयभागादारभ्य प्रदेशच्या असंख्येयलोकपरिमाणंटू यवृत्तिः ॥२७॥ उत्कृष्ट आलम्बनतया क्षेत्रमुक्त, कालश्चावलिकाऽसंख्येयभागादारभ्य समयवृया खल्वसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीप्रमाण | उक्तः, ज्ञेयभेदाच ज्ञानभेद इत्यतः संख्यातीताः तत्प्रकृतयः इति, तथा तैजसवारद्रव्यापान्तरालवय॑नन्तप्रदेशकाद् द्रव्यादारभ्य विचित्रवृद्धया सर्वमूर्तद्रव्याणि उत्कृष्टं विषयपरिमाणमुक्तं, प्रतिवस्तुगतासंख्येयपर्यायविषयमानं च इति, अतः (पुद्गला स्तिकार्य तत्पर्यायाँश्चाङ्गीकृत्य ज्ञेयभेदेन ज्ञानभेदादनन्ताः प्रकृतय इति, आसां च मध्ये 'काश्चन' अन्यतमाः 'भवप्रत्यया' भवन्ति अस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः, स च नारकादिलक्षणः, स एव प्रत्ययः-कारणं यासां| ताः भवप्रत्ययाः, पक्षिणां गगनगमनवत् , ताश्च नारकामराणामेव, तथा गुणपरिणामप्रत्ययाः क्षयोपशमनिवृत्ताः क्षायोपशमिकाः काश्चन, ताश्च तिर्यनराणामिति । आह-क्षायोपशमिके भावेऽवधिज्ञान प्रतिपादितं, नारकादिभवश्च औद|यिका, स कथं तासां प्रत्ययो भवतीति, अनोच्यते, ता अपि क्षयोपशमनिवन्धना एव, किंतु असावेव क्षयोपशमः तस्मि CA ॥२७॥ कोकवाग्देन पनास्तिकायस्व क्षेत्रशब्देन चानताकापासबोधसंभवादुक्तं लोकक्षेत्रेति. कोक एवारम्भाहा २ एतावतो लोकक्षेत्रसासंभवातुर्क क्षेत्रति सामान्येन, सामयापेक्ष पर्द, न तु नापति क्षेत्रे हश्य, विहाय लोकं जीवपुत्रळयौरनवस्थानात, फळेत कोके सूक्ष्मसूक्ष्मसरार्थज्ञान. । कर्पता प्रतिद। व्यमसंख्ययान , न तु कदाचनाप्यनन्लान् 'माणन्ते पेरछद कयाइ'सि भाष्योक्तः, जवन्यतस्नु संख्येवानसमवेयांश प्रतिवयं जानाति, परं वक्ष्यमाणत्वाविना नो भवप्रत्ययावधिप्रकृतयः * ०वर्तिनोऽनन्त०५+ प्रदेशिका 1-1-५ कायांसप 1 मे 11--४-५. ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: दिनारकामरभवे सति अवश्यं भवतीतिकृत्वा भवप्रत्ययास्ता इति गाथार्थः ॥ २५॥ साम्प्रतं सामान्यरूपतया उद्दिष्टानां अवधिप्रकृतीनां वाचः क्रमवर्तित्वातू आयुषश्चाल्पत्वात् यथावद्भेदेन प्रतिपादनसामर्थ्यमात्मनोऽपश्यन्नाह सूत्रकार:। कत्तो मे चपणे, सत्ती ओहिस्स सव्वपयडीओ। चउदसविह निक्खेवं, इहीपत्ते य वोच्छामि ॥ २६ ॥ व्याख्या-कुतो ? 'मे' मम, वर्णयितुं शक्तिः अवधेः सर्वप्रकृती, आयुषः परिमितत्वाद् वाचः क्रमवृत्तित्वाच्च, तथापि विनेयगणानुग्रहार्थं, चतुर्दशविधश्चासौ निक्षेपश्चेति समासः, तं अवधेः संवन्धिनं, आमषौंपध्यादिलक्षणा प्राप्ता ऋद्धियैस्ते प्राप्तर्धयः तांश्च, इह गाथाभङ्गभयाद्व्यत्ययः, अन्यथा निष्ठान्तस्य पूर्वनिपात एव भवति बहुव्रीहाविति, चशब्दः समुचयार्थः, वक्ष्ये' अभिधास्य इतिगाथार्थः॥ २६॥ यदुक्तं 'चतुर्दशविधनिक्षेपं वक्ष्ये' इति, तंप्रतिपादयंस्तावद्वारगाथाद्वयमाह ओही१खित्तपरिमाणे,२संठाणे ३ आणुगामिए ४ अवढिए५ चले ६ तिब्वमन्द ७पडिवाउत्पयाइ ८ अ॥२७॥ | नाण९दसण १०विभंगे ११, देसे १२ खित्ते १३ गई १४ इंअ । हड्डीपत्ताणुओगे य, एमेआ पडिवत्तिओ ॥२८॥ | व्याख्या-तत्र अवध्यादीनि गतिपर्यन्तानि चतुर्दश द्वाराणि, ऋद्धिस्तु समुञ्चितत्वात् पञ्चदशं । अन्ये वाचायो| अवधिरित्येतत्पदं परित्यज्य आनुगामुकमनानुगामुकसहितं अर्थतोऽभिगृह्य चतुर्दश द्वाराणि व्याचक्षते, यस्मात् नावधिः प्रकृतिः, किं तर्हि !, अवधेरेव प्रकृतयः चिन्त्यन्ते, यतश्च प्रकृतीनामेव चतुर्दशधा निक्षेप उक्त इति । पक्षद्वयेऽपि अवि कारणकारणे कारणचोपचारात , प्रयोजनं सु तदुदयनान्तरीयकताज्ञापनं, अन्यथासिन्दवं ववश्यक्तत्वाधान.२ संखाईआमो खलु ओहीनाणस्स सम्वपयडीओ' ति पूर्वधिन.३ षड्विंशतितमगाथायां 'पदसविड निक्लेवं इड्डीपत्ते य' इत्यत्र पस्योक्तसमुच्चयार्थत्वाचाब्दसमुचयनं. * गए + इभा Auditurary.com अवधिज्ञानस्य चतुर्दश-निक्षेपा: वर्णयते ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [ २८ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः भाष्यं [-] आवश्यक ॥ २८ ॥ रोध इति । तत्र 'अवधिरिति' अवधेर्नामादिभेदभिन्नस्य स्वरूपमभिधातव्यं, तथा अवधिशब्दो द्विरावर्त्यते इति व्याख्यातमिति । तथा 'क्षेत्रपरिमाण' इति क्षेत्रपरिमाणविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, एवं संस्थानविषय इति । अथवा 'अर्थाद्विभक्तिपरिणाम' इति द्वितीयैवेयं, ततश्च अवधेर्जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नं क्षेत्रप्रमाणं वक्तव्यं । तथा संस्थानमवधैर्वक्तव्यम् । 'आनुगामुक इति द्वारं' अनुगमनशील आनुगामुकः, सविपक्षोऽवधिर्वक्तव्यः, एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त इतिकृत्वा, यथा 'कयरे आगच्छइ' (उत्तरा० अ० १२ गा० ६ ) इत्यादि । तथा अवस्थितोऽवधिर्वक्तव्यः, द्रव्यादिषु कियन्तं कालं अप्रतिपतितः सन्नुपयोगतो उन्धितश्चावस्थितो भवति । तथा चलोऽवधिर्वक्तव्यः, चलोऽनवस्थितः, स च वर्धमानः क्षीयमाणो वा भवति । तथा 'तीनमन्दाविति द्वारं' तीनो मन्दो मध्यमश्चावधिर्वक्तव्यः, तत्र तीम्रो विशुद्धः, मन्दचाविशुद्धः, तीत्रमन्दस्तूभयप्रकृतिरिति । 'प्रतिपातोत्पादाविति द्वारं' एककाले द्रव्याद्यपेक्षया प्रतिपातोत्पादाववधेर्व कव्यी | ॥ २७ ॥ द्वितीयगाथा व्याख्या - तथा 'ज्ञानदर्शन विभङ्गा' वक्तव्याः, किमत्र ज्ञानं ? किं वा दर्शनं १ को या विभङ्गः ? परस्परतश्चामीषां अल्पबहुत्वं चिन्त्यमिति । तथा 'देशद्वारं' कस्य देशविषयः सर्वविषयो वाऽवधिर्भवतीति वक्तव्यम् । 'क्षेत्रद्वारं' क्षेत्रविषयोऽवधिर्वक्तव्यः, संत्रद्धासंबद्धसंख्येया संख्येयापान्तराल लक्षणक्षेत्रावधिद्वारेणेत्यर्थः । 'गतिरिति च' अत्र इतिशब्द आद्यर्थे द्रष्टव्यः, ततश्च गत्यादि च द्वारजालमवधी वक्तव्यमिति । तथा प्राप्तर्द्धानुयोगश्च कर्त्तव्यः, अनु १ तत्रावभ्यादीनीत्यत्र व्याख्यातमर्धतः ततश्राचेतनेषु अवधियोजना, टिप्पन के अन्ये त्याचायां इत्यत्रेतिव्याख्यातं अन वाऽऽवृतिस्तथा च प्रथमान्तता प्रकृतित्वे क्षेत्रपरिमाणादी योज्यतयेति च २ प्रतिपत्तिरित्यर्थः, अभ्यमतापेक्षयाऽदः, व्याख्यानं यातः तन्मतसकं अर्थात् ५-६ For Penal Use Only ~66~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ २८ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: % योगोऽन्वाख्यान, एवमनेन प्रकारेण 'एता' अनम्तरोकाः 'प्रतिपत्तयः' प्रतिपादनानि, प्रतिपत्तयः परिच्छित्तय इत्यर्थः, ततश्चावधिप्रकृतय एवं प्रतिपत्तिहेतुत्वात् प्रतिपत्तय इत्युच्यन्त इति गाथाद्वयसमुदायार्थः ॥ २८ ॥ साम्प्रतमनन्तरोक्तद्वारगाथाद्वयाद्यद्वारव्याचिख्यासयेदमाहनाम ठवणादविए, खित्ते काले भवे य भावे य। एसो खलु निक्खेवो ओहिस्सा होइ सत्तविहो ॥ २९॥ व्याख्या-तत्र नाम पूर्व निरूपित, नाम च तदवधिश्च नामावधिः, यस्यावधिरिति नाम क्रियते, यथा मर्यादायाः । तथा स्थापना चासाववधिश्च स्थापनावधिः, अक्षादिविन्यासः । अथवा अवधिरेव च यदभिधानं वचनपर्यायः स नामावधिः, स्थापनावधिर्यः खलु आकारविशेषः तत्तद्रव्यक्षेत्रस्वामिनामिति । तथा द्रव्येऽवधिब्यावधिः, द्रव्यालम्बन इत्यर्थः । अथवाऽयं एकारान्तः शब्दः प्रथमान्त इतिकृत्वा द्रव्यमेवावधिव्यावधिः, भावावधिकारणं द्रव्यमित्यर्थः, यद्वोत्पद्यमानस्योपकारक शरीरादि तदवधिकारणत्वाद् द्रव्यावधिः । तथा क्षेत्रेऽवधिःक्षेत्रावधिः, अथवा यत्र क्षेत्रेऽवधिरु-16 त्पद्यते तदेवावधेः कारणत्वात् क्षेत्रावधिः, प्रतिपाद्यते वा । तथा कालेऽवधिः, कालावधिः अथवा यस्मिन् काले अवधिरुत्पद्यते कथ्यते वा स कालावधिः, भवनं भवः, स च नारकादिलक्षणः, तस्मिन् भवेऽवधिर्भवावधिः। भावः क्षायोपशमिकादिः द्रव्यपयायो वा, तस्मिन्नवधिः भावावधिः, चशब्दो समुच्चयाओं, 'एषः' अनन्तरब्यावणित, खलुशब्दः एक्का %-4-55-40 T अवधियंत्र क्षेत्रे ग्यास्यायते स क्षेत्रावधिरित्यर्थः * अवधेरेव -+ त०-२- भावापधे का. ५. पथ्यधिकरणस्चात् एवं. अवधिज्ञानस्य सप्तविध-निक्षेपा: वर्णयते ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ आवश्यक- रार्थः, स चावधारणे, एष एव, नान्यः, निक्षेपणं निक्षेपः, अवधेर्भवति 'सप्तविधा' सप्तप्रकार इति गाथार्थः ॥ २९॥ इदानीं "क्षेत्रपरिमाणाख्यद्वितीयद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह॥२९॥ जावइया तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहपणा, ओहीखित्तं जहणणं तु ॥३०॥ | व्याख्या-तत्र क्षेत्रपरिमाणं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नं भवति, यतश्च प्रायो जघन्यमादौ अतस्तदेव तावत्प्रतिपाकायते-'यावती' यरपरिमाणा, जीन्समयान् आहारयतीति त्रिसमयाहारकस्तस्य, सूक्ष्मनामकर्मोदयात् सूक्ष्मः तस्य, पन कश्चासी जीवच पनकजीवः वनस्पति विशेष इत्यर्थः, तस्य, अवगाहन्ति यस्यां प्राणिनः सा अवगाहना तनुरित्यर्थः, 'जघन्या' सर्वस्तोका, अवधेः क्षेत्र अवधिक्षेत्रं, 'जघन्य' सस्तोक, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगःअवधेः क्षेत्रं जघन्यमेतावदेवेति गाथाक्षरार्थः । अत्र च संप्रदायसमधिगम्योऽयमर्थ:योजनसहस्रमानो मत्स्यो मृत्वा स्वकायदेशे यः । उत्पद्यते हि सूक्ष्मः, पनकत्वेनेह स ग्राह्यः॥१॥ संहत्य चापसमये, सा.यामं करोति च प्रतरम् । संख्यातीताख्याङ्गलविभागवाहुल्यमानं तु ॥२॥ खकतनुपृथुत्वमात्रं, दीर्घत्वेनापि जीवसामात् । तमपि द्वितीयसमये, संहत्य करोत्यसौ सूचिम् ॥३॥ संख्यातीताख्यागुलविभागविष्कम्भमाननिर्दिष्टाम् । निजतनुपृथुत्व घ्या, तृतीयसमये तु संहत्य ॥४॥ आयामस्तु प्रमाणं स्वादियुक्त/हल्यरूपप्रमाणसंकोचकृतिस्थाचागुनासंख्यभागवाहल्योकिर्न विरोधावहा. २ तिर्थक. ३ अधिः । वैध्यरूपा विस्तृतिः पृथुत्वं. *भिधित्सुराह २-1 + यावत्परिक बाइल्प. दीर्घा ४-५-६ ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [३०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः उत्पद्यते च पनकः, खदेहदेशे स सूक्ष्मपरिणामः । समयन्त्रयेण तस्यावगाहना पावती भवति ॥ ५ ॥ तावज्जघन्यमवधेरालम्बन वस्तुभाजनं क्षेत्रम् । इदमित्थमेव मुनिगणसुसंप्रदायात् समवसेयम् ६पञ्चभिः कुलकम् अत्र कश्चिदाह-- किमिति महामत्स्यः १ किं वा तस्य तृतीयसमये निजदेहदेशे समुत्पादः ? त्रिसमयाहारकत्वं वा कल्प्यत इति ?, अत्रोच्यते, स एव हि महामत्स्यः त्रिभिः समयैरात्मानं संक्षिपन् प्रयत्नविशेषात् सूक्ष्मावगाहनो भवति नान्यः, प्रथमद्वितीयसमययोश्च अतिसूक्ष्मः चतुर्थादिषु चातिस्थूरः त्रिसमयाहारक एव च तद्योग्य इत्यतस्तद्र|हणमिति । अन्ये तु व्याचक्षते - त्रिसमयाहारक इति, आयामविष्कम्भसंहारसमयद्वयं सूचिसंहरणोत्पाद समयश्चेत्येते त्रयः समयाः, विग्रहाभावाच्चाहारक एतेषु इत्यत उत्पादसमय एव त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मः पनकजीवो जघन्यावगाहनश्च, | अतस्तत्प्रमाणं जघन्यमवधिक्षेत्रमिति एतच्चायुक्तं, त्रिसमयाहारकत्वस्य पनकजीवविशेषणत्वात्, मत्स्यायामविष्कम्भसंहरणसमयद्वयस्य च पनकसमयायोगात्, त्रिसमयाहारकत्वाख्यविशेषणानुपपत्तिप्रसङ्गात् इति, अलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ ३० ॥ एवं तावत् जघन्यमवधिक्षेत्रमुक्तं, इदानीं उत्कृष्टमभिधातुकाम आह सव्वबहुअगणिजीवा, निरन्तरं जत्तियं भरिजासु । वित्तं सव्वदिसागं, परमोही खित्त निद्दिट्ठो ॥ ३१ ॥ व्याख्या - सर्वेभ्यो विवक्षित कालावस्थायिभ्योऽनलजीवेभ्य एव बहवः सर्ववहवः, न भूतभविष्यद्भ्यः, नापि शेषजीवेभ्यः, कुतः !, असंभवात्, अग्नयश्च ते जीवाश्च अग्निजीवाः, सर्वबहवश्च तेऽग्निजीवाश्च सर्वबह्वग्निजीवाः, 'निरन्तरं' इति क्रिया * भरियां १४-५ Education International For Parts Only ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- 4%A4 विशेषणं यावत्' यावत्परिमाणे 'भृतवन्तो' व्याप्तवन्तः 'क्षेत्र' आकाश, एतदुक्तं भवति-नैरन्तर्येण विशिष्टसूचीरचनया हारिभद्रीयावत् भृतवन्त इति । भूतकालनिर्देशश्च अजितस्वामिकाल एवं प्रायः सर्वबहवोऽनल जीवा भवन्ति अस्थामवसर्पिण्यांशीयवृत्तिः इत्यस्यास्य ख्यापनाङ्कः, इदं चानन्तरोदितविशेषणं क्षेत्रमेकदिकमपि भवति, अत आह–'सर्वदिकं' अनेन सूचीपरि- विभागः१ भ्रमणप्रमितमेवाह, परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, क्षेत्र' अनन्तरच्यावर्णितं प्रभूतानलजीवमितमङ्गीकृत्य निर्दिष्टः क्षेत्रनिदिष्टः,प्रतिपादितो गणधरादिभिरिति, ततश्च पर्यायेण परमावधेरेतावत्क्षेत्रमित्युक्तं भवति । अथवा सर्वबह्वग्निजीवा निरन्तरं यावद् भृतवन्तः क्षेत्रं सर्वदिकं एतावति क्षेत्रे यान्यवस्थितानि द्रव्याणि तत्परिच्छेदसामर्थ्य युक्तः परमावधिः क्षेत्रमङ्गी- कृत्य निर्दिष्टो, भावार्थस्तु पूर्ववदेव, अयमक्षरार्थः । इदानीं साम्प्रदायिकः प्रतिपाद्यते-तत्र सर्ववह्वग्निजीवा बादराः प्रा-18 योऽजितस्वामितीर्थकरकाले भवन्ति, तदारम्भकपुरुषवाहुल्यात्, सूक्ष्मांश्चोत्कृष्टपदिनस्तत्रैवावरुध्यन्ते, ततश्च सर्वबहवो| भवन्ति । तेषां च स्वबुद्ध्या पोढाऽवस्थानं कल्प्यते-एकैकक्षेत्रप्रदेश एकैकजीवावगाइनया सर्वतश्चतुरस्रो घनः प्रथम, सद एव जीवः स्वावगाहनया द्वितीयं, एवं प्रतरोऽपि द्विभेदः, श्रेण्यपि द्विभेदा, तत्र आद्याः पञ्च प्रकारा अनादेशाः, क्षेत्रस्याल्पत्वात् क्वचित्समयविरोधाच्च, षष्ठः प्रकारस्तु सूत्रादेश इति, ततश्चासौ श्रेणी अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीर २ ॥ अधिकारीरावगाहनारचनया. २ रुपान्तरेण. अन्न पो मनलजीवमितक्षेत्रस्थितम्यपरिच्छेदयाक्तिः मनुष्यापरं पुरुषपदं. ५ मनन्तानन्ता- स्ववसर्पिणीषु कशिनिदेव द्वितीयतीर्थकरकाले एते, सदानीतना एवोत्कृष्टा बादरा प्रायाः, बादरजीचमाने क्षिप्यन्त इति.. एकैकस्मिन्प्रदेशे एकैकजीवस्थाMपनेनेत्यर्थी, 4 पारीरद्वारेत्यर्थः ९ असंख्याकाशम देशानन्तरेणावगाइनाऽभावात इतिमझधारिदमचत्रपादाः। ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: पर्यन्तेन भ्राम्यते, सा च असंख्येयान् अलोके लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान् व्यामोति, एतावदवधिक्षेत्रं उत्कृष्टमिति, सामर्थ्यमङ्गीकृत्यैवं प्ररूप्यते, एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तदा पश्यति न त्वलोके द्रष्टव्यमस्ति इति गाधार्थः ॥३१॥ एवं ताबजघन्यमुत्कृष्टं चावधिक्षेत्रमभिहितं, इदानीं विमध्यमप्रतिपिपादयिषया एतावरक्षेत्रोपलम्भे चैतावत्कालोपलम्भः,18 तथा एतावत्कालोपलम्भे चैतावत्क्षेत्रोपलम्भ इत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनाय चेदं गांथाचतुष्टयं जगाद शास्त्रकार:अंगुलमावलियाणं, भागमसंखिज्ज दोसु संखिजा । अंगुलमावलिअंतो, आवलिआ अंगुलपुहतं ॥ ३२॥ हत्थंमि मुहूत्तन्तो, दिवसंतो गाउयंमि बोद्धव्यो । जोयण दिवसपुत्तं, पक्खन्तो पण्णवीसाओ॥ ३३ ॥ भरहंमि अहमासो, जंबूदीवंमि साहिओ मासो । वासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च स्यगंमि ॥ ३४ ॥ संखिज्जमि उ काले, दीवसमुद्दावि हुति संखिज्जा । कालंमि असंखिने, दीवसमुहा उ भइयव्वा ॥ ३५॥ प्रथमगाथाच्याख्या-'अङ्कल' क्षेत्राधिकारात् प्रमाणाङ्गुलं गृह्यते, अवध्यधिकाराच्च उच्छ्रयागुलमित्येके, आवलिका' असं ख्येयसमयसंघातोपलक्षितः कालः, उक्तं च-"असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति बुञ्चति" अङ्कलं चावलिका च अङ्गलावलिके तयोरङ्गलावलिकयोः, 'भाग' अंशं असंख्येयं पश्यति अवधिज्ञानी, एतदुक्तं भवतिक्षेत्रमङ्गलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् कालतः आवलिकाया असंख्येयमेव भागं पश्यत्यतीतमनागतं चेति, क्षेत्रकालदर्शनं रूपिविषयवादषधेरलोके च ताशामयाभावादसंभवामिधानतादोषनिराकरणायाह. २ लोके तु सूक्ष्मसूक्ष्मतराविवस्तुनिन सामर्थ्यवृद्धिः (विशेषा|वश्यके गाथा ६०६) ३ स्वापेक्षितजघन्यमध्यमोत्कृष्टत्वात्. ४ असंख्येयानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन सैकाबलिकेयुज्यते (अनुयोगद्वारवृत्तिः ५३०५०)५क्षेत्रकालयोररूपित्वावधेश रूपिविषयवादाह. ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आवश्यक- चोपचारेणोच्यते, अन्यथा हि क्षेत्रव्यवस्थितानि दर्शनयोग्यानि द्रव्याणि तत्पर्यायांश्च विवक्षितकालान्तरवर्तिनः पश्यति, हारिभद्री न तु क्षेत्रकॉली, मूर्तद्रव्यालम्बनत्वात्तस्येति । एवं सर्वत्र भावना द्रष्टच्या, क्रिया च गाथाचतुष्टयेऽप्यध्याहार्या, तथायित: 'द्वयोः' अङ्गलावलिकयोः संख्येयी भागौ पश्यति, अङ्गलसंख्येयभागमात्रं क्षेत्रं पश्यन्नावलिकायाः संख्येयमेव भागं पश्य विभागः१ तीत्यर्थः, तथा अङ्गुलं पश्यन् क्षेत्रतः आवलिकान्तः पश्यति, भिन्नामावलिकामित्यर्थः, तथा कालतः आवलिकां पश्यन् | क्षेत्रतोऽङ्गलपृथक्त्वं पश्यति, पृथक्यं हि द्विप्रभृतिरा नवभ्यः इति प्रथमगाथार्थः ॥ २२॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-'हस्ते'। इति हस्तविषयः क्षेत्रतोऽवधिः कालतो मुहर्त्तान्तः पश्यति, भिन्नं मुहर्तमित्यर्थः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् अवधिः पश्यतीत्युच्यते, तथा कालतो 'दिवसान्तो' भिन्नं दिवसं पश्यन् क्षेत्रतोगव्यूतं'इति गव्यूतविषयो बोद्धव्यः, तथा योजनविषयः साक्षेत्रतोऽवधिः कालतो दिवसपृथक्त्वं पश्यति, तथा, पक्षान्तो भिन्नं पक्षं पश्यन् काठता क्षेत्रतः पञ्चविंशति योजनानि पश्यतीति दाद्वितीयगाथार्थः॥३॥ तृतीयगाथा व्याख्यायते-'भरते' इति भरतक्षेत्रविषये अवधौ कालतोऽर्धमास उक्तः, एवं जम्बूदीपवि|पये चावधी साधिको मासः, वर्ष च मनुष्यलोकविषयेऽवधौ इति,मनुष्यलोकः खल्बर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणः, वर्षपृथक्त्व च अनुक्रम ॥३१॥ अपचाराभावेऽनिष्टता दर्शयति इतः तस्येतीत्वम्तेन. २ विवक्षितेति. विवक्षितक्षेत्रस्थितमध्यपर्यायान् , कालज्ञानव्याख्यानावेदम्. ५ अवधेः प्रत्यक्षत्वात् न साक्षात्पश्यतीति. ५ म्यूनां समयादिना. अन्यत्र द्वितीयान्तं पदमिति कर्मतोपपत्तिः, अत्र सप्तम्यस्तत्वातप्रमाणक्षेत्रस्थितम्यदर्शनसमचाऽय. घिया युपचाशवः, अग्रेऽपीटयो स्थले. ७ अर्धमासशब्दस्य प्रथमान्तवान् नानोपचारेण व्याख्यानं इस इयत्रेय, किन्तु सतिसप्तम्यन्ततया. 6 आ मानुषो. चरात् , मनुष्याणां गमागमेऽपि रुचकादिषु न ते तमग्मादिस्थानं. * पक्षामतः १-२ ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: रुचकाख्यबाह्यद्वीपविषयेऽवधाववगन्तव्यमिति तृतीयगाथार्थः॥३४॥चतुर्थगाथा व्याख्यायते-संख्यायत इति संख्येयः,सच संवत्सरलक्षणोऽपि भवति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि?-संख्येयो वर्षसहस्रात्परतोऽभिगृह्यते इति, तस्मिन् संख्येये, 'काले' कलनं कालः तस्मिन् काले अवधिगोचरे सति क्षेत्रतस्तस्यैवावधेर्गोचरतया,द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्रा अपि भवन्ति संख्येयाः, अपिशब्दान्महानेकोऽपि तदेकदेशोऽपीति, तथा काले असंख्येये पस्योपमादिलक्षणेऽवधिविषये सति, तस्यैव असंख्येयकालपरिच्छेदकस्यावधेः क्षेत्रतः परिच्छेद्यतया द्वीपसमुद्राश्च 'भक्तव्या' विकल्पयितव्याः, कदाचिदसंख्येया एव, यदा इह कस्यचिन्मनुष्यस्य असंख्येयद्वीपसमुद्रविषयोऽवधिरुत्पद्यते इति, कदाचिन्महान्तः संख्येयाः कदाचिद् ऐकः, कदाचिदेकदेशः स्वयम्भूरमणतिरश्चोऽवधेः विज्ञेयः स्वयम्भूरमणविषयमनुष्यवाह्यावधेर्वा, योजनापेक्षया च सर्वपक्षेषु असंख्येयमेव क्षेत्रमिति गाथार्थः ॥३५॥ एवं तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य क्षेत्रवृद्ध्या कालवृद्धिरनियता कालवृक्ष्या च |क्षेत्रवृद्धि प्रतिपादिता, साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया यदुद्धौ यस्य वृद्धिर्भवति यस्य वान भवति अमुमर्थमभिधित्सुराहकाले चउण्ड बुड्ढी, कालो भइयचु खित्तबुडीए । वुडीइ दव्वपजव, भइयव्वा खित्तकाला ७ ॥३६॥ अनुयोगद्वारसूत्राभिप्रायेणैकादशे तय॑भिमायेण तु त्रयोदयो. २ यावत् शीर्थप्रहेलिकेति शेयं, अत एव संख्यायत इति संख्येय इति व्युत्पत्तिः, संन्यबदार्या च तावत्येव संख्या ३ अभ्यन्तरावभ्यपेक्षया " तियरकोकमध्यभागगताः ५ असंख्येययोजनविस्तृतः ६ स्वयम्भूरमयादेः . अतिविस्तृतत्वात्तस्य. | आत्मन्यसंबद्धयात्. ९न द्वीपसमुद्रापेक्षयेति. १०नियतेति शेषः, क्षेत्रस्य प्रदेशानुसारेण वृद्धी कालस्य न समयानुसारेण वृद्धिः,अगुलमाने नभःखण्डेऽसंख्ये. योसपिण्यवसर्पिणीभावात, अन तुन विरोध इति नियता वृद्धिः, अत एव परिस्यूरेति प्राविमचमेति च भगने संगतिः, यथावत्तथा क्षेत्रकालवृद्धियायभान वात् चतुणी समप्रमाणमाश्रित्येति वा. * तमर्थ०५-६ + भड्या. T ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥३२॥ % । व्याख्या-काले अवधिज्ञानगोचरे, वर्धमान इति गम्यते, 'चतुर्णा द्रव्यादीनां वृद्धिर्भवति, सामान्याभिधानात्, हारिभटीकालस्तु 'भक्तव्यः' विकल्पयितव्यः, क्षेत्रस्य वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिः तस्यां क्षेत्रवृद्धौ सत्यां, कदाचिद्वर्धते कदाचिन्नेति, कुतः- यवृत्तिः क्षेत्रस्य सूक्ष्मत्वात् कालस्य च परिस्थूरत्वादिति, द्रव्यपर्यायौ तु वर्धेते, सप्तम्यन्तता चास्य “ऐ होति अयारन्ते, पयंमि विभागः१ बिझ्याए बहुसु पुंलिङ्गे । तइयाइसु छट्ठीसत्तमीण एगमि महिलाये ॥१॥ अस्माल्लक्षणात् सिध्यति, एवमन्यत्रापि प्राकृ-- तशैल्या इष्टविभक्त्यन्तता पदानामवगन्तव्येति, तथा वृद्धौ च द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्यायौ तयोः वृद्धौ सत्यां भक्तव्यौ' विकल्पनीयो क्षेत्रकालावेव, तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात्, कदाचिदनयोर्वृद्धिर्भवति कदाचिन्नेति, द्रव्यपर्याययोः | सकाशात् परिस्थूरत्वात् क्षेत्रकालयोरिति भावार्थः, द्रव्यवृद्धौ तु पर्याया वर्द्धन्त एव, पर्यायवृद्धौ च द्रव्यं भाज्य, द्रव्यात् पर्यायाणां सूक्ष्मतरत्वात् अक्रमवर्तिनामपि च वृद्धिसंभवात् कालवृद्ध्यभावो भावनीय इति गाथार्थः ॥ ३ ॥ अत्र कश्चिदाह-अधन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोः अवधिज्ञानसंबन्धिनोः क्षेत्रकालयोः अगुलावलिकाऽसंख्येयभागोप देवदत्ते भुक्के सबै कुटुम्ब भुक्तमितियत् , अन्यथा त्रयाणामित्यभिधेय स्यात् , कालवृद्धधनुसारेण व्यादिवृद्धिदर्शनाय चैवमभिधानं स्पात्, २ भजधातुर्दि सिद्धान्ते विकल्पार्थेऽपि भजनेयादिवत्. ३ अवधिगोचरस्व. ४ तृतीयैकवचनादिव्यवच्छेदार्थम्. ५ पुत् भवति अकारान्ते पदे द्वितीयायां बहुषु पुंलिङ्गे। तृतीयाविषु षष्ठीसप्तम्योरेकस्मिन् महिला (पुंलिङ्गे द्वितीयाबहुवचनान्ते पदे अकारान्तस्यैत् भवति, स्त्रीलिङ्गे च तृतीयादिषु षष्टीसप्तम्योपैकवचने एकारोभवति ॥ ३२॥ सर्वत्र) ६ गायारूपात् सूत्रात्, ७ रीत्या. 4 लुभविभक्त्यन्तता मूले.५ द्रव्यपर्याययोः संवेधाय. १० स्पर्शरसादीनां तत्पर्यायाण्यां वैकगुणादीनां , गुणानां पर्यायस्वानायुक्तमक्रमवर्तिपर्यायावं, नयी चात्र एवं अन्यपर्यायाधिकाचेच. ११ पर्यायवृद्धीन कालवृद्धि रिति समर्थनाय. १२ अंगुलमावलियाणमित्यादिना दीवसमुदा व भदयवा इत्यन्तेन विमध्यमत्वेन प्रतिपादितयोः * सिद्धेत्येव. 6456296-4551 wirectorarycom ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: लक्षितयोः परस्परतः प्रदेशसमयसंख्यया परिस्थूरसूक्ष्मत्वे सति कियता भागेन हीनाधिकरवमिति, अत्रोच्यते, सर्वत्र 15 प्रतियोगिनः खल्वावलिकाऽसंख्येयभागादेः कालाद् असंख्येयगुणं क्षेत्रं, कुत एतत् !, अत आह सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवह खित्तं । अङ्गुलसेढीमित्ते, ओसप्पिणीओ असंखेजा ॥ ३७॥ व्याख्या 'सूक्ष्मः' श्लक्ष्णश्चै, भवति कालः, यस्माद् उत्पलपत्रशतभेदे समयाः प्रतिपत्रमसंख्येयाः प्रतिपादिताः, तथापि 'ततः' कालात् , सूक्ष्मतरं भवति क्षेत्रं, कुतः ?, यस्मात् अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशपरिमाणं प्रतिप्रदेशं समयगणनया अवसर्पिण्यः असंख्येयाः, तीर्थकृद्भिः प्रतिपादिताः, एतदुक्तं भवति-अङ्गुलश्रेणिमात्रे क्षेत्रे प्रदेशाग्रं असंख्येयावसर्पिणीसमयराशिपरिमाणमिति गाथार्थः॥ ३७ ॥ उक्तमवधेर्जधन्यादिभेदभिन्न क्षेत्रपरिमाणं, क्षेत्रं चावधिगोचरद्रव्याधारद्वारेणैवावधेरिति व्यपदिश्यते, अतः क्षेत्रस्य द्रध्यावधिकत्वात् तदभिधानानन्तरमेव अवधिपरिच्छेदयोग्यद्रव्याभिधित्सयाऽऽह81 तेआभासावाण, अन्तरा इत्ध लहइ पट्ठवओ। गुरुलहुअअगुरुलहुअं, तंपि अ तेणेच निढाइ ॥ ३८॥15 व्याख्या-अवधिश्च जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नः, तत्र तावजघन्यावधिपरिच्छेदयोग्यमेवादावभिधीयते-तैजसं च भाषा च तैजसभाषे तयोर्द्रव्याणि तैजसभाषाद्रव्याणि तेषामिति समासः, 'अन्तरात्' इति 'अर्थाद्विभक्तिपरिणामः' विधेयस्य, २ चकारो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थः (इति मलयगिरिपादाः) ३ वक्ष्यमाणमसंख्येयावसर्पिणीमानम्, । एकप्रमाणानुलमा श्रेणिरूपे नभाखण्डे (नन्दीवृत्तिः १६६५०)५प्रदेशसंख्यानं. ६ साक्षादर्शनाभावादुपचारेपोलार्थः मगीदार्थोऽअधिः दम्पमिति. * अन्तरे ५-६ T Manmarary.org ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- हारिभद्र ॥३३॥ विभागः प्रत सूत्रांक अन्तरे, अथवा 'अन्तरे' इति पाठान्तरमेव, एतदुक्तं भवति-जसवाग्द्रव्यागामन्तर इत्यन्तराले अत्रै तदयोग्यमन्य-| देव द्रव्यं लभते' पश्यति, कोऽसावित्यत आह-'प्रस्थापकः' प्रस्थापको नाम अवधिज्ञानप्रारम्भकः, किंविशिष्ट तदिति, |अत आह–'गुरुलध्वगुरुलघु गुरु च लघु च गुरुलघु तथा न गुरुलघु अगुरुलघु, एतदुकं भवति-गुरुलघुपयायोपेतं गुरुलघु अगुरुलघुपयोयोपेतं चागुरुलघु इति । तत्र यत्तैजसद्रव्यासन्नं तद्गुरुलघु, यत्पुनर्भाषाद्रव्यासन्नं तदगुरुलघु, 'तदपि च' अवधिज्ञानं प्रच्यवमानं सत्पुनः तेनैव द्रव्येणोपलब्धेन सता निष्ठा याति, 4च्यवतीत्यर्थः । तत्र अपिशब्दात् यत्प्रतिपाति तत्राय क्रमो, न पुनरवधिज्ञान प्रतिपात्येव भवतीत्यर्थः, चशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य चैवं प्रयोगः-तदेवावधिज्ञानमेवं प्रच्यवते, न शेषज्ञानानीति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ आह-कियत्प्रदेशं तद् द्रव्यं, यत् तेजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्ति जघन्यावधिप्रमेयमित्याशङ्कय तद्धि परमाण्वादिक्रमोपचयाद् औदारिकादिवर्गणानुक्रमतः प्रतिपाद्यमिति, अतस्तत्स्वरूपाभिधित्सया गाथाद्वयमाहओरालविउब्वाहारतेअभासाणपाणमणकम्मे । अह व्ववग्गणाणं, कमो विवज्जासओ खित्ते ॥ ३९॥ कम्मोवरि धुवेयरसुण्णेयरवग्गणा अणंताओ। चउधुवणंतरतणुवग्गणा य मीसो तहाऽचित्तो ॥४०॥.. प्रथमगाथाच्याख्या-आह-औदारिकादिशरीरपायोग्यद्रव्यवर्गणाः किमर्थं प्ररूप्यन्ते इति,उच्यते, विनेयानामध्यामोहाथै, मध्यार्थोऽवान्तरः २ मध्यभागे तैजसभाषयोः. में नजसभाषयोः । समुच्चयाय. ५ हीयमानम्. ६ अवधिः । वैजसभाषाऽयोग्यद्न्यान्तदर्शनानन्तप्रच्युतिरूपेण. ८ मत्यादीनि. * प्रच्यवत इत्यर्थः २-५+ •णुपाण० . अनुक्रम ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 4% तथा चोदाहरणमत्र-इह भरतक्षेत्रे मगधाजनपदे प्रभूतगोमण्डलस्वामी कुचिको नाम धनपतिरभूत्, सच तासां गव-| मतिबाहुल्यात् सहस्रादिसंख्यामितानां पृथक् पृथगनुपालनार्थ प्रभूतान् गोपश्चिक्रे, तेऽपि च परस्परसंमिलितासु तासु गोष्वात्मीयाः सम्यगजानानाः सन्तोऽकलहयन, तांश्च परस्परतो विवदमानानुपलभ्य असौ तेषामव्यामोहाथ अधिकरणव्यवच्छित्तये च रक्तशुरुकृष्णकर्बुरादिभेदभिन्नानां गवां प्रतिगोपं विभिन्ना वर्गणाः खल्ववस्थापितवान् इत्येष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-इह गोपतिकल्पस्तीर्थकृत् गोपकल्पेभ्यः शिष्येभ्यो गोरूपसदृशं पुद्गलास्तिकार्य परमाण्यादिवर्गणाबिभागेन निरूपितवानिति अलं प्रसङ्गेन, पदार्थः प्रतिपाद्यते-तत्र औदारिकग्रहणाद् औदारिकशरीरग्रहणयोग्या वर्गणाः परिगृहीताः, ताश्चैवमवगन्तव्या:-इह वर्गणाः सामान्यतश्चतुर्विधा भवन्ति, तद्यथा-द्रव्यत: क्षेत्रतः कालतः भावतश्च, तत्र द्रव्यत एकप्रदेशिकानां यावदनन्तप्रदेशिकानां, क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढाना यावर्दसंख्येयप्रदेशावगाढानां, कालत एकसमयस्थितीनां यावदसंख्येयसमयस्थितीनां, भावतस्तावत् परिस्थूरन्यायमङ्गीकृत्य कृष्णानां यावत् शुक्कानां सुरभिगन्धानां दुरभिगन्धानां चर, तिक्तरसानां यावन्मधुररसानां ५, मृदूनां यावद्भक्षाणां ८ गुरुलघूनामगुरुलघूनां च, एव-18 मेता द्रव्यवर्गणाद्या वर्गणाश्चतुर्विधा भवन्ति, प्रकृतोपयोगः प्रदश्यते-तत्र परमाणूनामेका वर्गणा, एवं द्विप्रदेशिकानामप्येका, एवमेकैकपरमाणुवृद्ध्या संख्येयप्रदेशिकानां संख्येया वर्गणा असंख्येयप्रदेशिकानां चासंख्येयाः ततोऽनन्त T गाः २ कलहः ३ समुदायान्, “कुचिकर्णधनपतिः ५ गोरूपाणि धेनवः ६ अवयवे समुदायोपचारात् प्रकरणाहा. . परमाणूनामपि प्रकृष्टदेशत्वात. लोकाकाशेऽवगाहनात् तख चेतावप्रमाणत्वात्. ९ अनन्तसमयान् बाववस्थानाभावात्.११ स्वस्वस्थान एकगुणादिनाउनन्तभेदवावात् प्रत्येकं. द्वित्रि० ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ४० ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः भाष्यं [-] आवश्यक ॥ ३४ ॥ प्रदेशिकानां अनन्ताः खल्वग्रहणयोग्या विलय ततश्च विशिष्टपरिणामयुक्ता औदारिकशरीरग्रहणयोग्याः खल्वनन्ता एवेति, ता अपि चोल्लङ्घय प्रदेशवृद्ध्या वर्धमानास्ततस्तस्यैवाग्रहणयोग्या अनन्ता इति, ताश्च प्रभूतद्रव्यनिर्वृत्तत्वात् सूक्ष्मपरिणामोपेतत्वाच्च औदारिकस्याग्रहणयोग्या इति, वैक्रियस्यापि चाल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वाद् वादरपरिणामयुक्तत्वाञ्च्चाग्रहणयोग्या एव ता इति, पुनः प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमानाः खल्वनन्ता एवोहच तथापरिणामयुक्ता वैक्रियग्रहणयोग्या भवन्ति, ता अपिच प्रदेश वृद्ध्या प्रवर्धमाना अनन्ता एवेति तावद् यावद् ऍकादिप्रचुरपरमाणुनिर्वृत्तत्वात् सूक्ष्मपरिणामयुक्तत्वाच्च वैक्रियस्याग्रहणयोग्या भवन्ति, एवं प्रदेशवृद्ध्या प्रवर्धमानाः खल्वग्रहणयोग्या अप्यनन्ता एवेति, ताश्वाहारकस्य अल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वाद् वादरपरिणामोपेतत्वाच्च अग्रहणयोग्या एवेति एवमाहारकस्य तेजसस्य भाषायाः आनापानयोर्मनसः कर्मणश्च अयोग्ययोग्यायोग्यानां वर्गणानां प्रदेशवृद्ध्युपेतानामनन्तानां त्र्यं त्रयमायोजनीयं । आहकथं पुनरिदं एकैकस्यौदारिकादेवयं त्रयं गम्यत इति उच्यते, तैजसभाषाद्रव्यान्तरवर्युभयायोग्यद्रव्यावधिगोचराभिधानात् । 'अथ' अयं द्रव्यवर्गणानां क्रमः, तत्र वर्गणा वर्गो राशिरिति पर्यायाः, तथा 'विपर्यासतो' विपर्यासेन 'क्षेत्रे' इति क्षेत्रविषयो वर्गणाक्रमो वेदितव्यः, एतदुक्तं भवति - एकप्रदेशावगाहिनां परमाणूनां स्कन्धानां चैका वर्गणा, तथा द्विप्रदेशावगाहिनां स्कन्धानामेव द्वितीया वर्गणा, एवमेकैकप्रदेश वृद्ध्या संख्येयप्रदेशावगाहिनां संख्येया असंख्येयप्रदे १ द्वितीयाबहुवचनं एताश्रदारिकस्यैवायोग्या इति २ श्रदारिकपरिणमनयोग्यतारूपेति ३ मदारिकशरीरतया परिणमनीयाः * वर्धमानाः २-४ + अतिप्रचुर० + ०युक्तत्वात् आनपानयोः ५ तथा सं० ४-५-६. Eaton International For Parts Only ~78~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ३४ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [४०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः शावगाहिनां चासंख्येयाः, ताश्च प्रदेशप्रदेशोत्तराः खल्वसंख्येया विलङ्घ्य कर्मणो योग्यानामसंख्येया वर्गणा भवन्ति, पुनः प्रदेशवृद्ध्या तस्यैवायोग्यानां असंख्येया इति, अयोग्यत्वं चाल्पपरमाणुनिर्वृत्तत्वात् प्रभूतप्रदेशावगाहित्वाच्च, मनोद्रव्यादीनामप्येवमेवायोग्ययोग्यायोग्यलक्षणं त्र्यं त्रयमायोजनीयमिति । एवं सर्वत्र भावना कार्या, 'परं परं सूक्ष्मं' 'प्रदेशतोऽसंरूयेयगुणं' ( प्राक्केजसात् ) इति ( तत्त्वार्थे अ० २ सूत्रे ३८-३९ ) वचनात् कालतो भावतश्च वर्गणा दिग्मात्रतो दर्शिता एवेति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ द्वितीयगाथा व्याख्या - तत्रानन्तरगाथायां कर्मद्रव्यवर्गणोः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं प्रदेशोत्तरवृद्ध्या तदग्रहणप्रायोग्याः प्रदर्श्यन्ते – क्रियत इति कर्म, कर्मण उपरि कर्मोपरि, ध्रुवेति-ध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, ध्रुववर्गणा इति ध्रुवा नित्याः सर्वकालावस्थायिन्य इति भावार्थ:, 'इतरा' इति प्रदेशवृद्धया ततोऽनन्ता एवाध्रुववर्गणा अनन्ता भवन्ति, 'अध्रुवा' इति अशाश्वत्यः कदाचिन्न सन्त्यपीत्यर्थः, ततः 'शून्या' इति सूचनात्सूत्रमितिकृत्वा शून्यान्तरवर्गणाः परिगृह्यन्ते, शून्यान्यन्तराणि यासां ताः शून्यान्तराः शून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति समासः, एतदुक्तं भवति - एकोत्तरवृद्धया व्यवहितान्तरा इति, ता अपि चानन्ता एव, तथा 'इतरेति' इतरग्रहणादशून्यान्तराः परिगृह्यन्ते, न शून्यानि अन्तराणि यासां ता अशून्यान्तराः, अशून्यान्तराश्च ता वर्गणाश्चेति विग्रहः, अशून्यान्तरवर्गणा अव्यवहितान्तरा इत्यर्थः, ता अपि च प्रदेशोत्तरवृद्धया खल्वनन्ता एव भवन्ति, ततः 'चतुरिति' चतस्रः ध्रुवाश्च द्वयोरभिधानं प्रसङ्गात् २ अष्टानां वर्गणानामन्ये तद्भावात् ३ सू सूनकृदिति सूत्ररक्षणात् ४ तस्वानुरिसंभवे सत्येव भिनवणारम्भः अन्यद्वा किञ्चिद्वर्णादिपरिणामवैचित्र्यं तदारम्भे कारणम्. Eaton International For Penal Use Only ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [४०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः हारिभद्रीयवृत्तिः ।। ३५ ।। - आवश्यकता अनन्तराश्च ध्रुवानन्तराः प्रदेशोत्तरा एव वर्गणा भवन्ति, ततः 'तनुवर्गणाश्च' तनुवर्गणा इति, किमुक्तं भवति !-भेदाभेदपरिणामाभ्यामौदारिकादियोग्यताऽभिमुखा इति, अथवा मिश्राचित्तस्कन्धद्वययोग्यास्ताश्चतस्र एव भवन्ति, ततो 'मिश्र' इति मिश्रस्कन्धो भवति, सूक्ष्म एवेषद्वादश्परिणामाभिमुखो मिश्रः, 'तथा' इति आनन्तयें 'अचित्त' इति अचित्तमहा- १ विभागः १ स्कन्धः, स च विश्वसापरिणामविशेषात् केवलिसमुद्घातगत्या लोकमापूरयनुपसंहरंश्च भवतीति । आह-अचित्तत्वाव्यभिचारात्तस्याचित्तविशेषणानर्थक्यमिति, न, केवलिसमुद्घातसचित्त कर्मपुङ्गललोकं व्यापि महा स्कन्धव्यवच्छेदपरत्वात् विशेपणस्येति, अयमेव सर्वोत्कृष्टप्रदेश इति केचिद् व्याचक्षते, न चैतदुपपत्तिक्षमं यस्मादुत्कृष्टप्रदेशोऽवगाहना स्थितिभ्यां असंख्येयभागहीनादिभेदाद् चतुःस्थानपतित उक्तः, तथा चोकं- "उकोर्सपएसिआणं भंते! केवइआ पज्जवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अणन्ता, से केणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ ?, गोयमा ! उफोसपएसिए उक्कोसपएसिअस्स दबडयाए तुले, पएसझ्याएवि तुले, ओगाहणडयाए चउद्वाणवडिए, ठितीएवि ४, वण्णरसगन्ध अहि अ फासेहि छडाणवडिए"। अयं पुनस्तुल्य ऐव, अष्टस्पर्शश्चासी पठ्यते, चतुःस्पर्शश्च अयमिति, अतोऽन्येऽपि सन्तीतिप्रतिपत्तव्यं, इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥४०॥ 1 केवलिसमुद्घातावसरे प्रतिप्रदेश आरमगृहीतत्वात् सचित्तता कर्मपुद्रछानां चतुर्थसमयापेक्षया लोकव्यापकता, निस्संबद्धत्वाभावान्महान्धता. २ महास्कन्धः ३ संश्येयभागासंख्येयगुणसंख्येयगुणग्रहः ४ उत्कृष्टप्रदेशिकानां भदन्त ! कियन्तः पर्यवाः प्रशप्ताः १, गौतम ! अनन्ताः, तत्केनायेंन भदन्त ! एव मुच्यते ?, गौतम ! उत्कृष्टप्रदेशिक उत्कृष्टमदेशिकस्य वृध्यार्थतया तुल्यः प्रदेशार्थतयापि तुल्यः अवगाहनया चतुःस्थानपतितः स्थित्याऽपि वर्णरसगन्धैरष्टभिः स्पर्शेश्च पदस्थानपतितः ५वर्गणात्वात् परेथाविधैरचितमहास्कन्धैः अवगाहनास्थितिभ्यां. ६ उत्कृष्टप्रदेशिका अचित्तमास्कन्धः ८ महान्तः स्कन्धाः. Fin ~80~ ॥ ३५ ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [४०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः प्राकू 'तेजसभाषाद्रव्याणामन्तराले गुरुलध्वगुरुलघु च जघन्यावधिप्रमेयं द्रव्यं' इत्युक्तं, नौदारिकादिद्रव्याणि, साम्प्रतमौदारिकादीनां द्रव्याणां यानि गुरुलघूनि यानि चागुरुखघूनि तानि दर्शयन्नाह - ओरालि अवेविअ आहारगतेअ गुरुलहू दव्वा । कम्मगमणभासाई, एआइ अंगुरुलहुआई ॥ ४१ ॥ व्याख्या - पदार्थस्तु औदारिकवै क्रियाहारक तैजैसद्द्रव्याणि गुरुलधूनि, तथा कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि च अगुरुलघुनि निश्चयनैयापेक्षयेति गाथार्थः ॥ ४१ ॥ वक्ष्यमाणगाथाद्वयसंबन्धः --- पूर्व क्षेत्रकालयोरवधिज्ञानसंबन्धिनोः केवलयोः अङ्गुलावलिकाऽसंख्येयादिविभागकल्पनया परस्परोपनिबन्ध उक्तः, साम्प्रतं तयोरेवोक्तलक्षणेन द्रव्येण सह पर|स्परोपनिबन्धमुपदर्शयन्नाह - संखिज मणोदवे, भागो लोगपलियस्स बोडडवो । संखिज कम्मदब्वे, लोए धोवूणगं पलियं ॥ ४२ ॥ तेयाकम्मसरीरे, तेआदव्वे अ भासदव्वे अ । बोद्धव्यमसंखिज्जा, दीवसमुद्दा य कालो अ ॥ ४३ ॥ प्रथमगाधाव्याख्या - संख्यायत इति संख्येयः, मनसः संबन्धि योग्यं वा द्रव्यं मनोद्रव्यं तस्मिन् मनोद्रव्ये इति मनोद्रव्यपरिच्छेदके अवधौ, क्षेत्रतः संख्येयो लोकभागः, कालतोऽपि संख्येय एव, 'पoियस्स' पल्योपमस्य 1 तानि गुरुपूनि अगुरुपूनि देति नोक्तमित्यर्थः २ महणयोग्यतैजसेभ्यश्रतुःस्पर्शा इति कर्मप्रकृत्यादिषु अग्रहणान्तरिता ग्रहणयोग्या वर्गणा इति च मतं तेषां प्राग्रहणयोग्याः पात्पराः । अत्र तूभयाग्रहणयोग्या मध्ये तत एव तैजसासन्नानि गुरुपूनि इतरानीतरयुक्तिः १ एतन्मते एकान्तगुरुलघुद्रच्याभाषात्, व्यवहारनयापेक्षमेव गुरु लेष्टुः लघु दीप उभयं वायुरनुभयं व्योमेत्यादि. ४ परस्परोपलम्भदर्शनेन वृद्धिद्वारा ५ परिणतं तथात्वेन ६ आकाशस्थितं. नातीदम् ३ Educatin internation For Parts Only ~ 81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक आवश्यक- बोद्धब्यो' विज्ञेयः, प्रमेयत्वेनेति, एतदुकं भवति-अवधिज्ञानी मनोद्रव्यं पश्यन् क्षेत्रतो लोकस्य संख्येयभार्ग काल- हारिभद्री तश्च पल्योपमस्य जानीते इति, तथा संख्येया लोकपल्योपमभागाः 'कर्मद्रव्ये' इति कर्मद्रव्यपरिच्छेदकेऽवधी प्रमेयत्वेन यवृत्तिः बोद्धव्या इति वर्तते, अयं भावार्थ:-कर्मद्रव्यं पश्यन् लोकपल्योपमयोः पृथक् पृथक् संख्येयान् भागान् जानीते,XI विभागः१ 'लोके' इति चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकविषयेऽवधौ क्षेत्रतः कालतः स्तोकैन्यून पल्योपमं प्रमेयत्वेन बोद्धव्यं इति वर्त्तते, इदमत्र हृदयं-समस्तं लोकं पश्यन् क्षेत्रतः कालतः देशोनं पल्योपमं पश्यति, द्रव्योपैनिबन्धनक्षेत्रकालाधिकारे प्रकान्ते। केवलयोर्लोकपल्योपमक्षेत्रकालयोग्रहण अनर्थकमिति चेत्, न, इहापि सामर्थ्यप्रापितत्वाद् द्रव्योपनिबन्धनस्य, अत एव पाच तदुपर्यपि ध्रुववर्गणादि द्रव्यं पश्यतः क्षेत्रकालवृद्धिरनुमेयेति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ द्वितीयगाथाब्याख्या-तेजोमयं । तैजसं, शरीरशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, 'तैजसशरीरे तैजसशरीरविपयेऽवधौ क्षेत्रतोऽसंख्येया द्वीपसमुद्राः प्रमेयत्वेन दबोद्धव्या इति, कालश्च असंख्येय एव, मिथ्यादर्शनादिभिः क्रियत इति कर्म-ज्ञानावरणीयादि तेन निवृत्तं तन्मयं वा कार्मणं, शीर्यते इति शरीर, कार्मणं च तच्छरीरं चेति विग्रहः तस्मिन्नपि तैजसबद्वक्तव्यं, एवं तैजसद्रव्यविषये चावधौ | भाषाद्रव्यविषये च क्षेत्रतो 'बोद्धव्या' विज्ञेयाः, संख्यायन्त इति संख्येया न संख्येया असंख्येयाः, द्वीपाश्च समुद्राश्च अनुक्रम का॥३६॥ पूर्व क्षेत्रकाक यो दिव्याप्तिदर्शिता पर द्रव्येण तां दर्शनाय प्रकान्तं प्रकरणं. २ च्यन्याः , क्षेत्रकालवृदी दम्याणां अवश्यं वृद्धेः सामर्थ्यप्रापणं, काले चउण्ड तुदीत्यनेन निर्णीता च सा पाक, ३ सामध्यप्रापितस्यात्, वन्यपरिच्छेदतः क्षेत्रकालवृद्धि नियमः, सफलं प प्रयोपनिबन्धप्रकरणमेवं. ४ वक्ष्यति विशेषोऽसंख्येवगतोऽने अन्न चासंगये येत्यादिना." स्तोकान्यून १-५-4+ पनिवन्धेन ५-६ ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 5*6-20-0-4R -SCRENCE द्वीपसमुद्राः, प्रमेयत्वेनेति, कालश्चासंख्येय एव, स च पल्योपासंख्येयभागसमुदायमानो विज्ञेय इति, (ग्रन्थाग्रम् १०००) अत्र चासंख्येयत्वे सत्यपि यथायोगं द्वीपाद्यल्पबहुत्वं सूक्ष्मेतरद्रव्यद्वारेण विज्ञेयमिति । आह-एवं सति 'तेयाभासादवाण अन्तरा एस्थ लहइ पवओ' (गाथा ३८) इत्याद्युक्तं तस्य च तैजसभाषान्तरालद्रव्यदर्शिनोऽप्यङ्गलावलिकाऽसंख्येयभागादि क्षेत्रकालप्रमाणमुक्त तद्विरुध्यते,तैजसभाषाद्रव्ययोरसंख्येयक्षेत्रकालाभिधानात् , न, प्रारम्भकस्योभयायोग्यद्रव्यग्रहणात्, द्रव्याणां च विचित्रपरिणामत्वादू यथोक्तं क्षेत्रकालप्रमाणमविरुद्धमेव, अल्पद्रव्याणि वाऽधिकृत्य तदुक्तं, प्रचुरतैजसभाषाद्रव्याणि पुनरङ्गीकृत्येदं, अलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥४३॥ आह-जघन्यावधिप्रमेयं प्रतिपादयता गुरुलघु अगुरुलघु वा द्रव्यं पश्यतीत्युक्तं, न सर्वमेवे, विमध्यमावधिप्रमेयमपि चाङ्गुलावलिकासंख्येयभागाद्यभिधानात् न सर्वद्रव्यरूपं, तत्रस्थानामेव दर्शनात् , अत उत्कृष्टावधेरपि किमसर्वद्रव्यरूपमेवालम्बनं आहोस्विन्नेति, इत्यत्रोच्यते एगपएसोगाई परमोही लहइ कम्मगसरीरं । लहइय अगुरुयलघुअिंतेयसरीरे भवपुरत्तं ॥४४॥ व्याख्या-प्रकृष्टो देशः प्रदेशः एकश्चासौ प्रदेशश्चैकप्रदेशः तस्मिन् अवगाढं, अवगाढमिति व्यवस्थित, एकप्रदेशाव 1जसन्नध्येभ्यः कामणानि सूक्ष्माणि, अवक्षेप जसकार्मणेभ्यो बद्धानि स्थूलानि ततः पृथग वचनं. २ तथा च नासंख्य क्षेत्रकाल परिचछेदप्रसाः | ३ सूक्ष्मतरद्वारेण प्रसङ्गापादने आह-इच्येत्यादि, उभयायोम्यवन्येभ्यः तैजसभाषाद्रयाणां यथायथं सूक्ष्मस्थूलत्वात् वैचिम्यपर्यन्तानुधावनम्, परिस्थूरन्यायारकाले चतुर्णी वृद्धिरित्युक्तेश व्यापातापत्तावाह-अल्पेत्यादि, तथा च स्तोकन्यूनतेजोभाषाव्यग्रहणशक्तावेतावत्कालपरिज्ञान मिति तयं. ५ रूपिमय 10 ६ प्रमेयं. ७ असंख्यातहीपोदधिसकललोकेऽप्यवधौ नत्र स्थितानां रूपिणां दर्शनात्. ८ सामस्त्येन, अन्यथाधिकप्रदेशावगाडानामप्ये कावगाहनाऽरत्येव, * पल्यो |पमसं०४. + अत्रोच्यते २-५, भगुरुलहुरं 1-1. AKADCCI ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: SCSC 3CAR-ACC गाढं परमाणुष्यणुकादि द्रव्य, परमश्चासायधिश्च परमावधिः उत्कृष्टावधिरित्यर्थः, 'लभते' पश्यति, अवध्यवधिमतोरभे- हारिभद्रीMIदोपचारादवधिः पश्यतीत्युक्तं, तथा कार्मणशरीरं च लभते, आह-परमाणुव्यणुकादि द्रव्यमनुक्तं कथं गम्यते तदाल-INTV म्बनत्वेनेति, ततैश्चोपात्तमेव कार्मणमिदं भविष्यति, न, तस्यैकप्रदेशाववाहित्वानुपपत्तेः, 'लभते चागुरुलधु' चशब्दात् | |विभागः गुरुलघु, जोत्यपेक्षं चैकवचनं, अन्यथा हि सर्वाणि सर्वप्रदेशावगाढानि द्रव्याणि पश्यतीत्युक्तं भवति, तथा तैजसशरी-1 हारद्रव्यविषये अवधौ कालतो भवपृथक्त्वं परिच्छेद्यतयाऽवगन्तव्यमिति, एतदुकं भवति-यस्तै जसशरीरं पश्यति स कॉल तो भवपृथक्त्वं पश्यति इति, इह च य एव हि प्राक् तैजसं पश्यतः असंख्येयः काल उक्तः, स एव भवपृथक्त्वेन विशेप्यत इति । आह-नन्वेकप्रदेशावगाढस्यातिसूक्ष्मत्वात् तस्य च परिच्छेद्यतयाऽभिहितत्वात् कार्मणशरीरादीनामपि दर्शनं गम्यत एवेत्यतः तदुपन्यासवैयर्थ्य, तथैकप्रदेशावगादमित्यपि न वक्तव्यं, 'रूवमयं लभइ सर्व' इत्यस्य वक्ष्यमाणत्वादिति, अत्रोच्यते, न सूक्ष्मं पश्यतीति नियमतो बादरमपि द्रष्टव्यं, बादरं वा पश्यता सूक्ष्ममिति, यस्मादुरपत्ती अगुरु 45 ॥३७॥ आकाशपदेशेषु दि स्वभाव एष यदू यावएनन्ताणुकोऽपि स्कन्धोऽन्ये च तत्र मान्ति स्कन्धाः, २ आपेक्षिकपरमरवब्यवच्छेदाय, जयन्यस्यापि लवपेक्षया परमवापेक्षया परमवदनाय. ३ एकादेशावगादजन्यदर्शनसमुपयाय. ४ विशेष्यतया. ५ विशिष्य परमाणुमणुकादेरनिर्देशान्, एकादेशादि। • जीवेन परिणामिताः कर्मवर्गणापुद्रलाः नासंख्येवानन्तरेण प्रदेशान,जीवावगाहाभावात् इत्येकादेशावगाडा.. ८ अगुरुलघुपर्शने अपि गुरुलघुदर्शननियमाभावात् | चशब्देनाक्षेपः. ९ जातिश्च पुलक्षणा, कार्मणान्तानामभिहितवान्' भूववर्गणादिकागुरुजघुदण्यापेक्षयेत्यर्थः, १० धमाधाकाश जीवानामपि मगुरुलघुत्वान्. "पत्योपमासंख्येयभागरूप: १२ स्थूलत्वात्. १३ भप्रेतनमाथायो. Alanditurary.com ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 2016 लघु पश्यन्नपि न गुरुलधु उपलभते, घटादि वा अतिस्थूरैमपि, तथा मनोद्रव्य विदस्तेष्वेवे दर्शनं नान्येष्यतिस्थूरेष्वपि, एवं विज्ञानविषयवैचित्र्यसंभवे सति संशयापनोदार्थमेकप्रदेशावगाहिग्रहणे सत्यपि शेषविशेषोपदर्शनमदोषायैवेति । अथर्वा एकप्रदेशावगाहिग्रहणात् परमापवादिग्रहणं कार्मणं यावत्, तदुत्तरेषां चागुरुलध्वभिधानात्, चशब्दात् गुरुलघूनां चौदारिकादीनामित्येवं सर्वपुद्गल विशेषविषयत्वमाविष्कृतं भवति', तथा चास्यैव नियमार्थ 'रूपगतं लभते सर्व' इत्येतद् वक्ष्यमाणलक्षणमदुष्टमेवेति, एतदेव हि सर्व रूपगतं, नान्यदू इति, अलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः॥४४॥ एवं परमावधेर्द्रव्यमझीकृत्य विषय उक्तः, साम्प्रतं क्षेत्रकालावधिकृत्योपदर्शयन्नाहपरमोहि असंखिज्जा, लोगमित्ता समा असं खिज्जा । रूवगयं लहइ सवं, खित्तोवमिअं अगणिजीवा ॥४५॥ | व्याख्या-परमश्चासाववधिश्च परमावधिः, अवध्यवधिमतोरभेदोपचाराद् असौ परमावधिः क्षेत्रतः 'असंख्येयानि । लोकमात्राणि, खण्डानीति गम्यते, लभत इति संवन्धः, कालतस्तु 'समाः' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरसंख्येया एवं लभते, तथा द्रव्यतो 'रूपगत' मूर्तद्रव्यजातमित्यर्थः, 'लभते' पश्यति 'सर्व' परमाण्वादिभेदभिन्नं पुद्गलास्तिकायमेवेति, भावतस्तु वक्ष्यमाणाँस्तत्पर्यायान् इति । यदुक्तं 'असंख्येयानि लोकमात्राणि खण्डानि परमावधिः पश्यतीति तत्क्षेत्रनियमना भवधिः, २ भगुप्तवारम्भकापेक्षया. घटादीनां गुरुलघुत्वादपिः ४ मनःपयांवज्ञानिनः, ५ मनोहम्पेशानं. ७ घटादिषु, द्वितीयानचसमाधानाय. ९धुषवर्गणादीनामपितमदास्कम्धान्ताना. १० महणं. १ आदिना वैकिपाहारकौनसेनदः१२ विशेषा भेदाः प्रकारा: १३ परमावधेः. विषयस्य. १५ पूर्वेण सिद्धत्वात्, १६ पूर्वगाथावर्तितमेकपदेशावपाढादि. T wereluctaram.org ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: वश्यक हारिभद्री ॥ ३८॥ यवृत्तिः विभागः१ याह-उपमानं उपमित, भावे निष्ठाप्रत्ययः, क्षेत्रस्योपमितं क्षेत्रोपमितं, एतदुक्तं भवति–उत्कृष्टावधिक्षेत्रोपमानं, 'अग्निजीवाः प्रागभिहिता एवेति, आह-'रूपगतं लभते सर्व' इत्येतदनन्तरगाथायामर्थतोऽभिहितत्वात् किमर्थं पुनरुक्तमिति, अत्रोच्यते, उक्तः परिहारः, अथवा अनन्तरगाधायां 'एकप्रदेशावगाद' इत्यादि परमावधेद्रव्यपरिमाणमुक्तं, इह तु 'रूपगतं लभते सर्व' इति क्षेत्रकालद्वयविशेषणं, एतदुक्तं भवति-रूपिद्रव्यानुगतं लोकमात्रासंख्येयखण्डोत्सपिण्यवसर्पिणी-| लक्षणं क्षेत्रकालद्वयं लभते, न केवलं, अरूपित्वात्तस्यै, रूपिद्रव्यनिबन्धनत्वाचावधिज्ञानस्येति गाथार्थः ॥४५॥ एवं तावत् पुरुषांनधिकृत्य क्षायोपैशमिकः खलु अनेकप्रकारोऽवधिरुक्तः, साम्प्रतं तिरश्चोऽधिकृत्य प्रतिपिपादयिषुराह'आहारतेयलंभो, उक्कोसेणं तिरिक्खजोणीसु । गाउय जहण्णमोही, नरएसु जोयणुकोसो ॥ ४६॥ व्याख्या-तत्राहारतेजोग्रहणादू औदारिकवैक्रियाहारकतेजोद्रव्याणि गृह्यन्ते, ततश्चाहारश्च तेजश्च आहारतेजसी तयोलोभ इति समासः, लाभः प्राप्तिः परिच्छित्तिरित्यनान्तरं, इदमत्र हृदयं-तिर्यग्योनिषु योनियोनिमतामभेदोपचारात् तिर्यग्योनिकसत्त्वविषयो योऽवधिः तस्य द्रव्यतः खलु आहारतेजोद्रव्यपरिच्छेद उत्कृष्टत उक्तः, इत्थं द्रव्यानुसारेणैव क्षेत्रकालभावाः परिच्छेद्यतया विज्ञेया इति । इदानीं भवप्रत्ययावधिस्वरूपमुच्यते, स च सुरनारकाणामेव भवति, उत्तरः, २ नामादन्यत् रूपगतमिति नियमनायेत्येवरूपः. ३ विधिनियमयोविधिरेव ज्यायान् इति न्यायमपेक्ष्य विधेलीयस्वाल्यानाबाद-अथवेस्वादि. ४ अरूपित्वात् रूपिविष यश्वावधिरिति पनिणीतमनेकशः. ५ क्षेत्रकालदयस्प. मनुष्यान्, इत्यर्थः, परमोहिनाणवित्रो, केवलमंतोमुहुत्तमित्तेणेति (वि०६८९) पचनात् परमावधेरा अन्त महत्तालेवलोपत्तिः, केवलं च नरगतावेव ७ चारित्रतपादिगुणहेतुस्वाद. " य२-४-५, ५ ॥३८॥ ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 4 CRORORSCIEN तत्र प्रथममल्प इतिकृत्वा नारकाणां प्रतिपाद्यत इति, अत आह-क्षेत्रतो 'गब्यूतं' परिच्छिनत्ति जघन्येनावधिः, क!- नरान् कायन्तीति नरकाः, के गैरै शब्दे इतिधातुपाठात् नरान् शब्दयन्तीत्यर्थः, इह च नरका आश्रयाः.IN आश्रयानयिणोरभेदोपचारात्, नरकेषु तु योजनमुत्कृष्ट इत्याह, एतदुक्तं भवति-नारकाधारो योऽवधिः असौ उत्कृष्टो योजनं परिच्छिनत्ति क्षेत्रतः, इत्थं क्षेत्रानुसारेण द्रव्यादयस्तु अवसेया इति गाथार्थः ॥४६॥ एवं नारकजातिमधिकृत्य जघन्येतरभेदोऽवधिः प्रतिपादितः, साम्प्रतं रत्नप्रभादिपृथिव्यपेक्षया उत्कृष्टेतरभेदमभिपित्सुराह चत्तारि गाउयाई, अगुवाई तिगांउया चेव । अट्ठाइजा दुषिण य, दिवहमेगं च निरएसु ॥४७॥ व्याख्या-तत्र नरका इति नारकालयाः, ते च सप्तपृथिव्याधारत्वेन सप्तधा भिद्यन्ते, तत्र रलप्रभाधाधारनरकेषु यथासंख्यमुत्कृष्टेतरभेदभिन्नावधेः क्षेत्रपरिमाणमिदं-'नरकेषु' इति सामर्थ्यात् तन्निवासिनो नारकाः परिगृह्यन्ते, तत्र रत्नप्रभाधारनरके उत्कृष्टावधिक्षेत्रं चत्वारि गव्यूतानि, जघन्यावधेरर्धचतुर्थानि, अर्ध चतुर्थस्य येषु तान्यर्धचतुर्थानि, एवं शराप्रभाधारनरके परमावधिक्षेत्रमानं अर्धचतुर्थानि, इतरावधिक्षेत्रमानं तु त्रिगव्यूतं, त्रीणि गव्यूतानि त्रिगव्यूतं, एवं आधारभेदादाधेयभेदात् सप्त पृथिव्य आधारो वेषां ते तथा तत्वेनेति समासः २ तास्थ्यात्तापदेश इतिन्यावात् । प्यधिकरणबहुव्रीहेरपि दर्शनात् सम्यथाऽचत्वारीतिभावात् ५ उत्कृष्टति. ५ जघन्यति. तिगाश्यं. + नरएसु. 1 अबुढाईयाइ जहष्णयं अद्धगाउबताई । गाउप्रति भणि संविभ उकोसमजहणं ॥1॥[भाष्यगाथाऽभ्याख्याता च]. T नारक-देवादिनाम् अवधि-क्षेत्र दर्शयते ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक ॥३९॥ सर्वत्र योज्यं यावन्महातमःप्रभाधारनरके उत्कृष्टावधिक्षेत्र गव्यूतं, जघन्यावधिक्षेत्रं चार्धगब्यूतमिति, रत्नप्रभाधारनरक हारिभद्रीइत्यादौ जात्यपेक्षमेकवचनं, अंनिर्दिष्टस्यापि नवरं पदार्थगमनिका, अर्ध तृतीयस्य अर्धतृतीयानि, द्वेच, अधिकमध8 यवृत्तिः विभागः१ यस्मिन् तद् अध्यर्धम् । आह-कुतः पुनरिदं , सामान्येन प्रतिपृथिव्याधारन रकं उत्कृष्टमवधिक्षेत्रमुक्तं चत्वारि गव्यूतानि' इत्यादि, अर्धगम्यूतोनं जघन्यमित्यवसीयते ?, उच्यते, सूत्रात् , तथा चोक्त-"रयणप्पभापुढ विनेरइयाणं भंते ! केवइयं खित्तं ओहिणा जाणंति पासंति ?, गोयमा! जहण्णेणं अडुढाई गाउयाई उकोसेणं चत्तारि, एवं जाव महातमपुढ विनेरइयाण ? गोयमा ! जहण्णेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउय", आह-यद्येवं 'गाऊ जहण्णमोही णरएसु तु'(४६)। इत्येतब्याहन्यते, अत्रोच्यते, उत्कृष्टजघन्यापेक्षया तदभिधानाददोषः, इदमत्र हृदयम्-उत्कृष्टानामेव सप्तानामपि रत्नप्रभाद्यवधीनां |गव्यूतक्षेत्रपरिच्छित्तिकृत् अवधिर्जघन्य इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥४७॥ एवं नारकसंबन्धिनो भवप्रत्य-18 यावधेः स्वरूपमभिधायेदानी विबुधसंबन्धिनः प्रतिपिपादयिपुरिद गाथात्रयं जगाद सकीसाणा पढम, वचं च सर्णकुमारमाहिंदा । तचंच बंभलंतग, सुकसहस्सारय चउत्थीं ॥४८॥ । नरकेवितिपब्याख्याने खनिरूपितपदे.२ इतिधर्मवतामपेक्ष्येति. ३ आश्रित्येति शेषः. ४ स्वस्वोकृष्टापेक्षवा, ५ रवाप्रभापृथ्वीनरविका भदन्त !INT३९ ।। कियत् क्षेत्रमवधिना जानन्ति पश्यन्ति,गीतम! जयन्येनार्धतृतीयानि गम्यूतानि उस्कृष्टेन चत्वारि, एवं यावम्मदातमःमभापृथ्वीनरयिका ! गौतम ! जघन्येनार्धगम्यूतं उत्कृष्टेन गम्यूतं. ६ विरुध्यते इति. विशेषणं भवेत्यादेः, तच्च देवसंबन्धिव्यवच्छेदाय. ८ भवप्रत्ययावधेः स्वरूपमिति. * परमावः। + अतिदिष्ट०. नारकं.६ पुच्छा. गाउयंतं. गाउय०. || स गम्यू..त्रितयं. ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आणयपाणयकप्पे, देवा पासंति पंचमि पुढंचीं। तं चेव आरणचुय ओहीनाणेण पासंति ॥४९॥ छढि हिडिममज्झिमगेविजा सत्तमि च उवरिल्ला । संभिषणलोगनालिं, पासंति अणुत्तरा देवा ॥५०॥ तत्र प्रथमगाथाव्याख्या-शक्रश्चेशानश्च शक्रेशानी तत्र 'शक्रेशानाविति' शकेशानोपल क्षिताः सौधर्मेशानकल्पनिवासिनो देवाः सामोनिकादयः परिगृह्यन्ते, ते ह्यवधिना प्रथमां रत्नप्रभाभिधानां पृथिवीं पश्यन्ति' इति किया। द्वितीयगाथायां वक्ष्यति, तथा 'द्वितीयां च' पृथिवीमित्यनुवर्तते, 'सनत्कुमारमाहेन्द्राविति' सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवाधिपोपलक्षिताः तत्कल्पनिवासिनस्त्रिदशा एवं सामानिकादयो गृह्यन्ते, ते हि द्वितीयां पृथिवीमवधिना पश्यन्ति, तथा तृतीयां च पृथिवीं ब्रह्मलोकलान्तकदेवेशोपलक्षिताः तत्कल्पनिवासिनो विबुधाः सामानिकादयः पश्यन्ति, तथा शुक्रसहस्रारसुरनाथोपलक्षिताः खल्वन्येऽपि तत्कल्पनिवासिनो देवाश्चतुर्थी पृथिवीं पश्यन्तीति गाथार्थः॥४८॥ द्वितीयगाथा व्याख्या-4 यते-आनतप्राणतयोः कल्पयोः संबन्धिनो देवाः पश्यन्ति पञ्चमी पृथ्वी, तामेव आरणाच्युतयोः सम्बन्धिनो देवा अवधिज्ञानेन पश्यन्ति, स्वरूपकथनमेवेदं, बिमलतरां बहुतरांचेति गाथार्थः ॥४९॥ तृतीयगाथा व्याख्यायते-लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि वेयकानि(णि) विमानानि,तत्र अधस्त्यमध्यमवेयकनिवासिनो देवा अधस्त्यमध्यमवेयका,ते हि षष्ठी पृथिवीं तमोऽभिधानामवधिना पश्यन्तीति योगः, तथा सप्तमी च पृथिवीमुपरितनौवेयकनिवासिन इति, तथा 'संभिन्नलोकनाडी' चतुर्दशरज्ज्वात्मिकां कन्यकाचोलकसंस्थानामवधिना पश्यन्ति, अनुत्तरविमानवासिनोऽनुत्तराः, तत्र एके इमाणां कापेनोक्त १ प्यपद्याभावात् पूर्वयोरेता यावदर्शनोक्तेश्चमतिपादनं यजेदेन तत्फलं. पुढधि. + आध.. | आध. 1%25-0%25% SARERatunintamatkomal ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्ति: [५० ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आवश्यक. * न्द्रियादयोऽपि भवन्ति तद्व्यवच्छेदार्थमाह – 'देवाः' । एवं क्षेत्रानुसारतो द्रव्यादयोऽप्यवसेयाः इति गाथार्थः ॥ ५० ॥ एवमधो वैमानिकावधिक्षेत्रप्रमाणं प्रतिपाद्य साम्प्रतं तिर्यगूर्ध्वं च तदेवं दर्शयन्नाह— ॥ ४० ॥ एएसिमसंखिजा, तिरियं दीवा य सागरा चैव । बहुअअरं उबरिमगा, उन्हें सगकप्पथूभाई ॥ ५१ ॥ व्याख्या- 'एतेषां शक्रादीनां संख्यायन्त इति संख्येयाः न संख्येया असंख्येयाः, तिर्यग, द्वीपाश्च-जम्बूद्वीपादयः, सागराश्च लवणसागरादयः क्षेत्रतोऽवधिपरिच्छेद्यतया अवसेयाः इति वाक्यशेषः, तथा उक्तलक्षणात्- असंख्येयद्वीपोदधिमानात् क्षेत्रात् वहुतरं, उपरिमा एव उपरिमका उपर्युपरिवासिनो देवाः, खल्ववधिना क्षेत्रं पश्यन्तीति वाक्यशेषः, तथा ऊर्ध्वं स्वकल्पस्तूपाद्येष यावत् क्षेत्रं पश्यन्ति, आदिशब्दाद् ध्वजादिपरिग्रहः इति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ इत्थं वैमानिकानां अवधिक्षेत्र मानमभिधाय इदानीं सामान्यतो देवानां प्रतिपादयन्नाह - संजोयणा खलु देवाणं अद्धसागरे ऊणे । तेण परमसंखेजा, जहण्णयं पंचवीसं तु ॥ ५२ ॥ व्याख्या - संख्येयानि च तानि योजनानि चेति विग्रहः, खलुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य चोभयथा संबन्धमुपदर्शयिष्यामः 'देवानां' 'अर्धसागरे' इति अर्धसागरोपमे न्यूने आयुषि सति संख्येययोजनान्येव अवधिक्षेत्रमिति । अर्धसागरोपमन्यून एव आयुषि सति, 'ततः परं' अर्धसागरोपमादावायुषि सति असंख्येयानि योजनानि अवधिक्षेत्रं १ प्रमाणमवधेः २ शापलक्षितानां ततरकल्पयासिसामानिकादीनामित्युक्तमेव प्राकू. उच सकप्प० + पण्णवीसं. Education Internation For Penal Use Only ~90~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४० ॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [१२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 56465 वैमानिकवर्जदेवानां सामान्यत इति । विशेषतस्तु ऊर्ध्वमस्तिर्यक् च संस्थानविशेषादवसेयमिति । तथा जघन्यकमवधिक्षेत्रं देवानामिति वर्त्तते, 'पञ्चविंशतिः' तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् पञ्चविंशतिरेव योजनानि, एतच्च दशवर्षसहस्रस्थितीनामवसेय, भवनपतिव्यन्तराणामिति, ज्योतिष्काणां त्वसंख्येयस्थितित्वात् संख्येययोजनान्येव जघन्येतरभेदमवधिक्षेत्रमवसेयमिति, वैमानिकानां तु जघन्यमङ्गुलासंख्येयभागमात्रमवधिक्षेत्रं, तच्चोपपातकाले परभवसंबन्धिनमवधिमधिकृत्येति, उत्कृष्ट मुक्तमेव 'संभिण्णलोगन लिं, पासंति अणुत्तरा देवा' (५१) इत्यलमतिविस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ५२ ॥ साम्प्रतमयमेवावधिः येषां सर्वोत्कृष्टादिभेदभिन्नो भवति, तान्प्रदर्शयश्चाह उकोसो मणुएK, मणुस्सतिरिएमु य जहण्णो य ।उकोस लोगमित्तो, पडिवाइः परं अपडिवाई ॥५३॥ | व्याख्या-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चोत्कृष्टोऽवधिः मनुष्येषु एव, नामरादिषु, तथा मनुष्याश्च तिर्यश्वश्च मनुष्यतिर्यञ्चः तेषु मनुष्यतिर्यक्षु च जघन्यः, चशब्द एवकारार्थः, तस्य चैवं प्रयोग:-मनुष्यतिर्यक्ष्वेव जघन्यो, न नारकसुरेषु, तत्र उत्कृष्टो लोकमात्र एव अवधिः, प्रतिपतितुं शीलमस्येति प्रतिपाती, ततः परमप्रतिपात्येव, लोकमा दाववधि पार प्रतिपादितत्बाईमानिकानामधेनांन सदधिकारः २ तत्र चतुर्णामपि निकायाना, तन्न वैमानिकाना, धाभिधानाभावात. ३ द्वितीयपावान, [५ तेषां जयन्येतरस्थित्योरर्धसागरोपमात् न्यूनत्वात्.५ तथा च देवानां सर्वजघन्यावधिनिषेधेऽपि न क्षतिः, भवप्रत्ययावधेः पचानावात् तस्य चोक्तमानवात्. वैमानिकावधिषु अनुत्तरोपपातिकावधेरैवोस्कृष्टत्वात् केवलमेत निर्दिष्एं. ७ भवगुणप्रत्ययसाधारणोऽयधिरिति. ८ संमिशलोगनाडिं पासंति भयुत्तरा देव इति सूत्रेण सबबहुअगणिजीआ इत्यनेन च. कृत्य. + तान्दर्श०. तेरिपिछएसु य जहष्णो. पदिवाई. 'जघन्यतः, Naturasaram.org ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [५३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- ॥४१॥ C REASEX माने प्रतिपादिते प्रसङ्गतः प्रतिपात्यप्रतिपातिस्वरूपाभिधानमदोपायैवेति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ उक्त क्षेत्रपरिमाणद्वारं, हारिभद्रीसाम्प्रतं संस्थानद्वारं व्याचिख्यासयेदमाह यवृत्तिः विभागः१ थिवुयायार जहण्णो, वो उक्कोसमायओ किंची। अजहण्णमणुकोसो य खित्तओ णेगसंठाणो ॥ ५४॥ व्याख्या-स्तिबुक' उदकबिन्दुः तस्येवाकारो यस्यासौ स्तिबुकाकारः, जघन्योऽवधिः । तमेव स्पष्टयन्नाह--'वृत्तः || सर्वतो वृत्त इत्यर्थः, पनकक्षेत्रस्य व लत्वात् । तथा उत्कृष्ट आयतः प्रदीर्घः 'किश्चित्' मनाक् बहिजीवश्रेणिपरिक्षेपस्य | स्वदेहानुवृत्तित्वात् , तथा 'अजपन्योत्कृष्टश्च' न जघन्यो नाप्युत्कृष्टः अजघन्योत्कृष्ट इति । चशब्दोऽवधारणे, अजघन्योत्कृष्ट एव, क्षेत्रतोऽनेकसंस्थानः' अनेकानि संस्थानानि यस्यासावनेकसंस्थान इति गाथार्थः ॥ ५४॥ एवं तावजघन्येतरावधिसंस्थानमभिहितं, साम्प्रतं विमध्यमावधिसंस्थानाभिधित्सयाऽऽह तैप्पागारे १ पल्लग २ पडहग ३ झल्लरि ४ मुइंग ५ पुष्फ ६ जवे । तिरियमणुएमु ओही, नाणाविहसंठिओ भणिओ ॥५५॥ व्याख्या-'तप्र: उडुपकः तस्येवाकारो यस्यासौ तप्राकारः, तथा पालको नाम लाटदेशे धान्यालयः, आकारग्रहणम ॥४१॥ स्मृतस्योपेक्षानईत्वं हि प्रसवं. २ विनेयानां बोधविशेषोत्पादनात् प्रस्तुतेऽवधिमाने.३ पदक देशे पदसमुदायोपचारात् जीववेहेति, अन्यथा पत्रम-IN स्थानादेशस्याभ्युपगमापत्तेः, न चैवं खदेहेत्यनेन विरोधोऽपि. * नेरहय । भवण २ वणवर ३ जोइस ४ कप्पालयाण ५ मोहिस्स। गेविज ६ गुत्तराण , य, हुँतागिइओ जहासंर्ख ॥ ॥ भवणवइवणयराण उडूं बहुभो अहोऽवसेसाणं । नारयजोहसिवाणं, निरिभ बोलिओ चित्रो ॥२॥ (भाष्यकृस्कृते अब्याख्याते). SAR अथ अवधे: संस्थानं कथयते ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: नुवर्तते, तस्येवाकारो यस्यासी पलकाकारः, एवमाकारशब्दः प्रत्येकमभिसंबन्धनीयः इति, पटह एव पटहकः-आतोयविशेषा, तथा चौवनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा झलरी आतोद्यविशेषः एव, तथा ऊर्ध्वायतोऽधो विस्तीर्ण उपरिच तनुः, मृदङ्गः आतोद्यविशेष एव । 'पु'फेति' 'सूचनात्सूत्र' इतिकृत्वा पुष्पशिखावलिरचिता चङ्गेरी पुष्पचङ्गेरी परिगृह्यते, यव' इति यवनालकः, स च कन्याचोलकोऽभिधीयते, अयं भावार्थः-तप्राकारादिरवधिर्यवनालकाकारपर्यन्तो यथासंख्यं नारकभवनपतिव्यन्तरज्योतिष्ककल्पोपपन्नकल्पातीतत्रैवेयकानुत्तरसुराणां सर्वकालनियतोऽवसेयः, तिर्यग्नराणां भेदेन नानाविधाभिधानादू, आह च-तिर्यञ्चश्च मनुष्याश्च तिर्यग्मनुष्याः तेषामवधिः नानाविधसंस्थानसंस्थितो-नानाविधसंस्थितः, संस्थानशब्दलोपात्, स्वयंभूरमणजलधिनिवासिमत्स्यगणवत्, अपितु तत्रापि वलयं निषिद्धं मत्स्यसंस्थानतया, अवधिस्तु तदाकारोऽपीति 'भणितः' उक्तः अर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैरिति, अयं च भवनव्यन्तराणां उर्व बहुर्भवति, अवशेषाणां तु सुराणामधो, ज्योतिष्कनारकाणां तु तिर्यक्, विचित्रस्तु नरतिरश्चामिति गाथार्थः ॥ ५५॥ उक्त संस्थानद्वारं, साम्प्रतमानुगामुकद्वारार्थप्रचिकटविषयेदमाहअणुगामिओ ओही, नेरइयाणं तहेव देवाणं । अणुगामी' अणणुगामी, मीसो य मणुस्सतेरिच्छे ॥५६॥ व्याख्या-अनुगमनशील आनुगामुकः, लोचनवदू, तुशब्दस्त्वेवकारार्थः, स चावधारणे, आनुगामुक एव अवधिः, केषामित्यत आह-नरान् कायन्तीति नरकाः-नारकाश्रयाः तेषु भवा नारका इति, तेषां नारकाणां, तथैव' आनुगामुक| * आ०. +अ.1 अणुगामि. अनु. T 9-१% 1-96- ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: A आवश्यक- एव, दीव्यन्तीति देवास्तेषामिति । तथा आनुगामुकः, अननुगमनशीलोऽननुगामुकः स्थितप्रदीपवत, तथा एकदेशानुगमन- हारिभद्री | शीलो मिश्रः, देशान्तरगतपुरुषैकलोचनोपघातवत् , चशब्दः समुच्चयार्थः, मिश्रश्च, मनुष्याश्च तिर्यञ्चश्च मनुष्यतिर्यञ्चस्तेषु यवृत्तिः ॥४२॥ मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिः स एवंविधत्रिविध इति गाथार्थः ॥५६॥ व्याख्यातमानुगामुकद्वारं, इदानीमवस्थितद्वाराव- विभागः१ यवार्थप्रतिपादनाय गाथाद्वयमाह खित्तस्स अवद्वाणं, तित्तीसं सागरा उ कालेणं । दब्वे भिण्णमुलुत्तो, पज्जवलंभे य सत्तट्ट ॥५७॥ अद्धाइ अवट्ठाणं, छावट्ठी सागरा उ कालेणं । उक्कोसगं तु एयं, इको समओ जहण्णेणं ॥५८॥ प्रथमगाथाब्याख्या-अवस्थितिरवस्थानं तद् अवधेराधारोपयोगलन्धितश्चिन्त्यते, तत्र क्षेत्रमस्याधार इतिकृत्वा | क्षेत्रस्य संबन्धि तावदेवस्थाममुच्यते-तत्राविचलितः सन् 'त्रयस्त्रिंशत्सागराः' इति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यवतिष्ठते अनुत्तरसुराणां, तुशब्दस्वेवकारार्थः स चावधारणे, त्रयस्त्रिंशदेव, 'कालेनेति' कालतः कालमधिकृत्य 'अर्थाद्विभक्तिप-16 रिणामः' । तथा 'द' इति द्रवति गच्छति ताँस्तान् पर्यायानिति द्रव्यं तस्मिन् द्रव्ये-द्रव्यविषयं उपयोगावस्थानमवधेः, भिन्नश्चासी मुहूत्तेश्चेति समासः, अवनं अवः परि अवः पर्यवः तस्य लाभः पर्यवलाभः तस्मिंश्च पर्यवलाभे च-पर्यवप्राप्ती टाचावधेरुपयोगावस्थानं सप्लाष्टी वा समया इति । अन्ये तु व्याचक्षते-पर्यायेषु सप्त, गुणेषु अष्टेति, सहवर्तिनो गुणाः 15॥४२॥ शुक्लत्वादयः,क्रमवर्तिनः पर्याया नवपुराणादया,यथोत्तरं च द्रव्यगुणपर्यायाणां सूक्ष्मत्वात् स्तोकोपयोगता इति गाथार्थ।।५७॥ उक्तभानुगामुकद्वारमधुनाऽवस्थितङ्कारमाह - नानु. + स एवायधि०. कोसओज. 1564560-% B ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [− / गाथा-], निर्युक्ति: [ ५८ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः द्वितीयगाथाव्याख्या - इह लब्धितोऽवस्थानं चिन्त्यते-अद्धा - अवधिलब्धिकालः, अत्र अद्धायाः - कालतोऽवस्थानं | अवधेर्लब्धिमङ्गीकृत्य तत्र चन्यत्र क्षेत्रादौ 'षट्षष्टिसागरा' इति षट्षष्टिसागरोपमाणि, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् मनागधिकानि 'कालेनेति' कालतः उत्कृष्टमेवेदं कालतोऽवस्थानमिति । जघन्यमवस्थानमाह-तत्र द्रव्यादावप्येकः समयो जघन्येनावस्थानमिति तत्र मनुष्यतिरश्चोऽधिकृत्य सप्रतिपातोपयोग 'तो' ऽविरुद्धमेव, देवनारकाणामपि चरमसमयसम्यक्त्वप्रतिपत्तौ सत्यां विभङ्गस्यैवावधिरूपापत्तेः, तदनन्तरं च्यवनाच्चाविरोध इति गाथार्थः ॥ ५८ ॥ एवं तावदवस्थितद्वारमभिधाय इदानीं चलद्वाराभिधित्सयाऽऽह वही वा हाणी वा, चउब्विहा होइ वित्तकालाणं । दव्वेसु होइ दुविहा, छव्विह पुण पज्जवे होइ ॥ ५९ ॥ व्याख्या--तत्र चलो ह्यवधिः वर्धमानः श्रीयमाणो वा भवति सा च वृद्धिर्हानिर्वा चतुर्विधा भवति क्षेत्रकालयोः, तथा चाभ्यधायि परमगुरुणा - "असंखेज्जभागवुट्टी वा संखेज्जभागवुड्डी वा संखेज्जगुणबुद्दी वा असंखेज्जगुणवुही वा,” एवं हानिरपि न तु अनन्तभागवृद्धिरनन्तगुणवृद्धिर्वा, एवं हानिरपि, क्षेत्रकालयोरनन्तयोरदर्शनात्, तथा द्रव्येषु भवति द्विधा वृद्धिहानिर्वा, कथम् ? - अनन्तभागवृद्धिर्वा अनन्तगुणवृद्धिर्वा, एवं हानिरपि द्रव्यानन्त्यादिति भावार्थः । तथा [ षड़िधा 'पर्याये' इति जात्यपेक्षमेकवचनं पर्यायेषु भवति, वृद्धिर्वा हानिवेंति वर्त्तते, पर्यायानन्त्यात्, कथम् ? - अनन्त १ न केवलं काल इत्यपिशब्दार्थः, आदिना आधारादिग्रहः गुणपर्यायग्रहो बा. २ गुणत उत्पन्नेऽपि जघन्येन समयान्तरे प्रतिपातात् मरणेन. ३ अनन्तरसमय इयर्थः ४ असंख्येयभागवृद्धियां संख्येयभागवृद्धिर्वा संख्येयगुणवृद्धिर्वा असंख्येयगुणवृद्धिर्वा (प्रज्ञापनायां ) *सत्र. + अन्यत्र च तोपयोगत्वे. द्विविधा Eucation International For Paren ~95~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: % आवश्यक- ॥४३॥ % % % % भागवृद्धिः असंख्येयभागवृद्धिः संख्येयभागवृद्धिः संख्येयगुगवृद्धिः असंख्येयगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिरिति, एवं हानि-माहारिमा रपि । आह-क्षेत्रस्यासंख्येयभागादिवृद्धी तदाधेबद्रब्याणामपि तन्निबन्धनत्वादसंख्येयभागादिवृद्धिरेवास्तु, तथा द्रव्य- यवृत्तिः स्थानन्तभागादिवृद्धौ सत्यां तत्पोयाणामपि अनन्तभागादिवृद्धिरिति षट्स्थानकमनुपपन्नमिति, अत्रोच्यते, सामान्यन्या-विभागः। यमङ्गीकृत्य इदमित्थमेव, यदा क्षेत्रानुवृत्त्या पुद्गलाः परिसंख्यायन्ते, पुद्गलानुवृत्त्या च तत्पर्यायाः, न पत्रिर्व, कथम् । -यस्मात्म्वक्षेत्रादनन्तगुणाः पुद्गलाः, तेभ्योऽपि पर्याया इति, अतो यस्य यथैवोक्ता वृद्धिर्हानिर्वा तस्य तथैवाविरुद्धेति, प्रतिनियतविषयत्वात् , विचित्रावधिनिवन्धनाच्चेति गाथार्थः॥१९॥ एवं तावञ्चलद्वारं व्याख्यातम् , इदानीं तीब्रमन्दद्वा रावयवार्थ व्याचिख्यासुरिदमाह • फड्डा पं असंखिज्जा, संखेजा यावि एगजीवस्स । एकष्फडवओगे, नियमा सव्वत्थ उवउत्तो॥१०॥ फड्डा य आणुगामी, अणाणुगामी य मीसगा चेव । पडिवाइ अपडियाई, मीसोय मणुस्सतेरिच्छे ॥ ६१॥ प्रथमगाथाव्याख्या-इह फडकानि अवृधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा गवाक्षजालादिब्यवहितप्रदीपप्रभाफडुकानीव फडकानि, तानि चासंख्येयानि संख्येयानि चैकजीवस्य, तत्रैकफडकोपयोगे सति नियमात् 'सर्वत्र' सर्वैः फडकैरुपयुक्ता भिवन्ति, एकोपयोगत्वाज्जीवस्य, लोचनद्वयोपयोगव,प्रकाशमयत्वाद्वा प्रदीपोपयोगवदिति । आह-तीनमन्दद्वारं प्रक्रान्तं ॥४३॥ १ अनन्तभागगुणवृविहानी दन्ये, पर्यावषु षट्स्थानगा वृविहाँनिर्वा राम्या नेत्राभ्यां निरीक्षते नरो युगपत् , न चानेकोपयोगता, तद्वदचाप्यनेकस्पर्धकरुपयोगेऽप्येकदा नानेकोपयोगता, एकनेनोपयोगे च उपयोगो योरेव, युगपदुपयुध्यमानत्वात्. ३ उपयोगः कार्थ, म च दीप एकया दिशा प्रकाशयति केवलं, किंतु सर्वाभिः * स्वपर्याया. + फढाइ । युक्तो भवति. % * ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [६०], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: बिहाय फडकावधिस्वरूपं प्रतिपादयतः प्रक्रमविरोध इति, अत्रोच्यते, प्रायोऽनुगामुकाप्रतिपातिलक्षणी फडको तीत्री, तथेतरौ मन्दौ, उभयस्वभावता च मिश्रस्येति गाथार्थः ॥ १०॥ द्वितीयगाथाच्याख्या-फडकानि-पूर्वोक्तानि, तानि च अनुगमनशीलानि आनुगामुकानि, एतद्विपरीतानि अनानुगामुकानि, उभयस्वरूपाणि मिश्रकाणि च, एवकारः अवधारणे, तान्ये कैकैशः प्रतिपतनशीलानि प्रतिपातीनि, एवमप्रतिपातीनि मिश्रकाणि च भवन्ति, तानि च मनुष्यतिर्यक्षु योऽवधिस्तस्मिन्नेव भवन्तीति । आह-आनुगामुकाप्रतिपातिफडकयोः कः प्रतिविशेषः, अनानुगामुकप्रतिपातिफडक-18 योवेति, अत्रोच्यते, अप्रतिपात्यानुगामुकमेव, आनुगामुकं तु प्रतिपात्यप्रतिपाति च भवतीति शेषः । तथा प्रतिपत्तत्येव प्रतिपाति, प्रतिपतितमपि च सत् पुनर्देशान्तरे जायत एवे, नेत्थमनानुगामुकमिति गाथार्थः॥ १॥ व्याख्यातं तीव्रमहिन्दद्वारं, इदानी प्रतिपातोत्पादद्वारं विवृण्वन् गाथाद्वयमाह बाहिरलंभे भजो, दब्बे खिले य कालभावे य । उप्पा पडिवाओऽविय, ते उभयं एगसमएणं ॥ १२॥ अभितरलहीए, उ तदुभयं नथि एगसमएणं । उप्पा पहिवाओऽविय, एगयरो एगसमएणं ॥ ६३॥ प्रथमगाथाव्याख्या-तत्र द्रष्टुबहिर्योऽवधिस्तस्यैव एकस्यां दिशि अनेकासु वाँ विच्छिन्नः स बाह्यः तस्य लाभो विशेषस्पर्धकसनाचे तीनवमवधेरितस्था चेतरत् मध्यमे व मिश्रति कारणं तीमादेः स्पर्धकान्येवेति सद्दर्शने न प्रक्रमविरोध इत्यर्थः २ असंख्येयानां संख्येयाना बोरपनानां स्पर्धकानामवस्थानात् क्षेत्रान्तरेऽपि. ३ आनुगामुकादीनि.. आ कैवल्याः भवक्षयात् स्थानापेक्षया भवान्तरेश्वस्थानमा श्रित्य च ५ प्रतिपातिनोऽप्यानुगामुकत्वदर्शनायेदम्. ६ स्पर्धकरूपकारणाभिधानद्वारेण.. अनुक्कसमुचयार्थत्वात् परिमण्डलाकारोऽपि. * तद्विपरीतानि च + विशेषः । तदुभयं चेग. T ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [६३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक-बाह्यलाभा, अवधिः प्रक्रमात् गम्यते, अस्मिन् बाह्यलाभे सति-बाह्यावधिप्राप्तौ सत्यां 'भाग्यो' विकल्पनीयः, कोऽसौ ? हारिभद्री -उत्पादः प्रतिपात तदुभयगुणश्च एकसमयेनेति सम्बन्धः, किंविषय इति !, आह-द्रव्य इति द्रव्यविषयः, एवं क्षेत्र- यवृत्तिः ॥४४॥ कालभावविषय इति, अपिचशब्दाः पूरणसमुच्चयार्थाः । अयं भावार्थ:-एकस्मिन् समये द्रव्यादौ विषये बाह्यावधेः विभागः१ कदाचिदुत्पादो भवति कदाचिद्ययः कदाचिदुभय, दावानलदृष्टान्तेन, यथा हि दावानलः खल्वेककाल एवैकतो दीप्यतेऽन्यतश्च ध्वंसत इति, तथा अवधिरपि एकदेशे जायते अन्यत्र प्रच्यवत इति गाथार्थः ॥१२॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-इह द्रष्टुः सर्वतः संबद्धः प्रदीपप्रभानिकरवदवधिरभ्यन्तरोऽभिधीयते तस्य लम्धिरभ्यन्तरलब्धिः तस्या-13 मभ्यन्तरलब्धौ तु सत्यां अभ्यन्तरावधिप्राप्तावित्यर्थः । तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि -तच्च तदुभयं च तदुभयं, उत्पातप्रतिपातोभयं नास्त्येकसमयेन, 'द्रव्यादौ विषये' इत्यनुवर्तते, किं तर्हि उत्पादः प्रतिपातो वा एकतर एव एकसमयेन, अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । अयं भावार्थः-प्रदीपस्येवोत्पाद एव प्रतिपातो वा एकसमयेन भवति अभ्यन्तरावधेर्न तूभयं, अप्रदेशावधित्वादेव, न ह्येकस्य एकपर्यायेणोत्पादध्ययौ युगपत्स्यातां अङ्गुल्याकुश्चनप्रसारणवदिति गाथार्थः ॥ ६३ ॥ प्रतिपादितं प्रतिपातोत्पादद्वारं, इदानीं यदुक्तं 'संखेज मणोदधे, भागो लोगपलियस्स' (४२) इत्यादि, तत्र द्रव्यादित्रयस्य परस्परोपनिवन्ध उक्तः, इदानीं द्रव्यपर्याययोः प्रसङ्गत एवोत्पादप्रतिपाता धिकारे प्रतिपादयन्नाह संख्येयो मनोजयविषयेऽपधी भागो लोकपस्योपमयोः * अवधेः तस्मिन् । गुणन विभा. पादः प्रति समवनेव. SCIRCTCH ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: SEAST दवाओं असंखिजे, संखेज्जे आवि पनवे लहइ । दो पज्जवे दुगुणिए, लहइ य एगाउ दबाउ ॥ ३४॥ व्याख्या–परमाण्वादिद्रव्यमेकं पश्यन् द्रश्यात्सकाशात् तत्पर्यायान् उत्कृष्टतोऽसंख्येयान् संख्येयाँश्चापि मध्यमतो लभते प्रामोति पश्यतीत्यनर्थान्तरं, तथा जघन्यतस्तु बौ पर्यायी द्विगुणितो 'लभते च' पश्यति च एकस्माद् द्रव्यात् , एतदुक्तं भवति-वर्णगन्धरसस्पर्शानेव प्रतिद्रव्यं पश्यति, न त्वनन्तान , सामान्यतस्तु द्रव्यानन्तत्वादेव अन|न्तान् पश्यतीति गाथार्थः ॥ ५४॥ साम्प्रतं युगपज्ज्ञानदर्शनविभङ्गद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह सागारमणागारा, ओहिविभंगा जहण्णगा तुल्ला । उवरिमगेवेनेसु उ, परेण ओही असंखिजो ॥६५॥ व्याख्या-तत्र यो विशेषग्राहकः स साकारः, स च ज्ञानमित्युच्यते, यः पुनः सामान्यग्राहकोऽवधिविभङ्गो वा सोऽनाकारः, स च दर्शनं गीयते, तत्र साकारानाकाराववधिविभङ्गो जघन्य को तुल्यावेव भवतः, सम्यग्दृष्टेरवधिः, मि. च्यादृष्टस्तु स एव विभङ्गा, लोकपुरुषग्रीवासस्थानीयानि अवेयकाणि विमानानि, उपरिमाणि च तानि प्रैवेयकाणि चेति समासः, तुशब्दोऽपिशब्दस्यार्थे द्रष्टव्यः, भवनपतिदेवेभ्यः खल्वारभ्य उपरिमवेयकेष्वपि अयमेव न्यायो यदुत-साकारानाकारौ अवधिविभङ्गो जिघन्यादारभ्य तुल्यांविति, न तूत्कृष्टौ, ततः 'परेण' इति परतः अवधिरेव भवति, मिथ्या प्रतिगम्यं एकस्मिन्वा नानन्तानित्यर्थः २ क्षेत्रकालरूपौ विषयावधिकृत्य परस्परतस्तुल्ये न तु अन्यभावविषयौ (इति मलयगिरिपादाः आवश् कवचौ)* संखिया + असंलिना असंलिजा जघन्यको SAREauratoninternational अवधि एवं विभग-ज्ञानस्य कथन ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- दृष्टीनां तत्रोपपाताभावात् , स च क्षेत्रतः असंख्येयो भवति, योजनापेक्षयेति गाधार्थः ॥ ६५ ॥ इदानी देशद्वारावयवाथै | | हारिभद्रीचिकटयिषुरिदमाह यवृत्तिः णेरड्यदेवतित्थंकरा य ओहिस्सऽबाहिरा हुँति । पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति ॥६६॥ विभागः१ ___ व्याख्या-नारकाः' प्राग्निरूपितशब्दार्थाः देवा अपि तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, नारकाच देवाश्च तीर्थकराश्चेति विग्रहः, चशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, अस्य च व्यवहितः सम्बन्ध इति दर्शयिष्यामः, एते नारकादयः 'अवधेः' अवधिज्ञानस्य न बाह्या अबाद्या भवन्ति, इदमत्र हृदयं-अवध्युपलब्धस्य क्षेत्रस्यान्तवर्तन्ते, सर्वतोऽवभा-1 सकत्वात् , प्रदीपयत् , ततश्चार्थादबाह्यावधय एव भवन्ति, नैषां बाह्यावधिर्भवतीत्यर्थः । तथा पश्यन्ति 'सर्वतः ।। सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च, खलुशब्दोऽप्येवकारार्थः, स चावधारण एव, सर्वास्वेव दिग्विदिक्ष्विति, सर्वत एवेत्यर्थः । आह| अवधेरबाह्या भवन्तीत्यस्मादेव पश्यन्ति सर्वत इत्यस्य सिद्धत्वात् 'पश्यन्ति सर्वतः' इत्येतदतिरिच्यते इति, अनो-IN च्यते, नैतदेवं, अवधेरवाह्यत्वे सत्यपि अभ्यन्तरावधित्वे सत्यपीतिभावः, न सर्वे सर्वतः पश्यन्ति, दिगन्तरालादर्शनात्, | अवधेर्विचित्रत्वादू, अतो नातिरिच्यत इति, 'शेषाः तिर्यइनरा 'देशेन' इत्येकदेशेन पश्यन्ति, अत्रेष्टितोऽवधारणविधिः। शेषा एव देशतः पश्यन्ति, न तु शेषा देशत एवेति गाथार्थः ॥अथवा अन्यथा व्याख्यायते-मारकदेवतीर्थकरा अव- ॥ ४५ ॥ धेरबाह्या भवन्तीति, किमुक्तं भवति-नियतावधय एव भवन्ति, नियमेनपामवधिर्भवतीत्यर्थः, अतः संशयः-किं ते तेन | *अत्रेष्टिनो + तीर्थंकरा. ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: COCCASE सर्वतः पश्यन्ति आहोश्विद्देशत इति, अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह-पश्यन्ति सर्वत एव । आह-यद्येवं 'पश्यन्ति सर्वतः' इत्येतावदेवास्तु, अवधेरबाह्या भवन्तीति नियतावधित्वख्यापनार्थमनर्थक, न, नियतावधित्वस्यैव विशेषणार्थत्वादस्य, अवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीतिज्ञापनार्थत्वाददुष्टं । आह-ननु नारकदेवानां भवप्रत्ययावधिग्रहणात् तीर्थकृतामपि प्रसिद्धतरपारभविकावधिसमन्वागमादेव नियतावधित्वं सिद्धमिति, अत्रोच्यते, नियतावधित्वे सिद्धे. ऽपि न सर्वकालावस्थायित्वसिद्धिरित्यतस्तत्प्रदर्शनार्थमवधेरबाह्या भवन्तीति सदाऽवधिज्ञानवन्तो भवन्तीति ज्ञापना र्थवाददुष्टं । आह-यद्येवं तीर्थकृतां सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति, न, तेषां केवलोत्पत्तावपि वस्तुतस्तत्परिच्छे४दस्य 'निष्ठत्वात् , केवलेन सुतरां संपूर्णानन्तधर्मकवस्तुपरिच्छित्तेः, छद्मस्थकालस्य वा विवक्षितत्वाददोष इति, अलं विस्तरेण, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः॥६६॥ एवं देशद्वारावयवार्थमभिधायेदानी क्षेत्रद्वारं विवुधुराह| "संखिजमसंखिजो, पुरिसमबाहाइ खित्तओ ओही। संबद्धमसंबद्धो, लोगमलोगे य संघद्धो ॥ ६७॥ व्याख्या-तत्र संबद्धश्चासंबद्धश्च अवधिर्भवति, किमुक्तं भवति ? कश्चिद् द्रष्टरि संबद्धो भवति, प्रदीपप्रभावत् , | कश्चिच असंबद्धो भवति, विप्रकृष्टतमोव्याकुलदेशप्रदीपदर्शनवत् । तत्र यस्तावदसंबद्धः असौ संख्येयः असंख्येयो वा। पूर्णः सुखदुःखानामिति पुरुषः, पुरि शयनाद्वा पुरुष इति । पुरुषादवाधा, अबाधनमबाधा अन्तरालमित्यर्थः, ति, किमुकं भवति !-सदाऽवधेरवाया भवन्ति. नियतावधय इत्यर्थः । आह. + स्याप्यनष्टत्वात विवरीषु विश्वसं.अतिविप्र. ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: यवृत्तिः आवश्यक-नापुरुषस्याबाधा पुरुषाबाधा तया पुरुषावापया हेतुभूतया सह वा क्षेत्रतः अवधिर्भवति, अयं भावार्थ:-असंबद्धोऽवधिः हारिभद्री क्षेत्रतः संख्येयो भवति असंख्येयो वा, योजनापेक्षयेति, एवं संबद्धोऽपि । एवमवधिः स्वतन्त्रः पर्यालोचितः, इदानी॥४६॥ माधया चिन्त्यते-अत्र चतुर्भङ्गिका, तत्र संख्येयमन्तरं संख्येयोऽवधिः, संख्येयमन्तरं असंख्येयोऽवधिः, असंख्येय विभागः१ मन्तरं संख्येयोऽवधिः, असंख्येयमन्तरमसंख्येयोऽवधिरिति चत्वारोऽपि विकल्पाः संभवन्ति, संबद्धे तु विकल्पाभावः। तथा ' लोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके पञ्चास्तिकायवति, 'अलोके च ' केवलाकाशास्तिकाये, चशब्दः समुच्चयार्थः, लोके अलोके च संबद्धः, कथम् ?-पुरुषे संबद्धो लोके च-लोकप्रमाणावधिः, पुरुषे न लोके-देशतोऽभ्यन्तरावधिः, न पुरुषे | लोके-शून्यो भङ्गः, न लोके न पुरुषे-बाह्यावधिः, इयं भावना--लोकाभ्यन्तरः पुरुषे संबद्धोऽसंबद्धो वा भवति, यस्तु प्रलोके संबद्धः स नियमात्पुरुषे संबद्ध इति, अतो भङ्गचतुष्टयं तृतीयभङ्गशून्यमिति, अलोकसंबद्धस्त्वात्मसंबद्ध एव भवतीति गाथार्थः॥६७॥ इदानी गतिद्वारावयवार्थप्रतिपिपादयिषयाऽऽह गइनेरहयाईया, हिट्ठा जह थपिणया तहेव इहं । इही एसा वपिणजहत्ति तो सेसियाओऽपि ॥ १८॥ व्याख्या-तत्र गत्युपलक्षिताः सर्व एवेन्द्रियादयो द्वारविशेषाः परिगृह्यन्ते, ततश्च ये गत्यादयः सत्पदप्ररूपणावि-भद्रा धयः द्रव्यप्रमाणादयश्च, ते यथा अधस्तान्मतिश्रुतयोः 'वर्णिताः' उपदिष्टाः तथैवेहापि द्रष्टव्या इति, विशेषस्त्वयम् ॥४६॥ इह ये मर्ति प्रतिपद्यन्ते तेऽवधिमपि, किन्त्ववेदकास्तथा अकषायिणोऽप्यवधेः प्रतिपद्यमानका भवन्ति क्षपकश्रेण्य • नेदं प्रत्यन्तरे. ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [६८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: CCESCAA न्तर्गताः सन्त इति, तथा मनःपर्यायज्ञानिनश्च तथा अनाहारका अपर्याप्तकाश्च पूर्वसम्यग्दृष्टयः सुरनारका अप्यपान्त रालगत्यादाविति, शक्तिमधिकृत्येति भावार्थः । पूर्वप्रतिपन्नास्तु त एव ये मतेः विकलेन्द्रियासंज्ञिशून्या इति, उक्तमवदाधिज्ञानमिति । तत्र अवधिज्ञानी उत्कृष्टतो द्रव्यतः सर्वमूर्त्तद्रव्याणि जानाति पश्यति, क्षेत्रतस्वादेशेनासंख्येयं क्षेत्रं, एवं कालमपि, भावतस्त्वनन्तान् भावानिति । तत्र ऋद्धिविशेष 'एषः' अवधिः 'व्यावयेते' गीयते अतः तत्सामान्यात् शेषर्द्धयोऽपि वर्ण्यन्त इति गाथार्थः ॥ ६८॥ तत्र शेषर्द्धिविशेषस्वरूपप्रतिपादनायाहआमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लंमोसही चेव । संभिन्नसो उज्जुमइ, सब्बोसहि चेव बोहब्बो ॥६९ ॥ चारणआसीविस केवली य मणनाणिणो य पुथ्वधरा । अरहंत चक्कवट्टी, बलदेवा वासुदेवा य ॥७॥ प्रथमगाथाब्याख्या-आमर्शनमामर्शः संस्पर्शनमित्यर्थः, स एवौषधिर्यस्यासावामशौषधिा-साधुरेव संस्पर्शनमात्रादेव व्याध्यपनयनसमर्थ इत्यर्थः, लब्धिलब्धिमतोरभेदात् स एवामर्शलब्धिरिति, एवं विखेलजल्लेष्वपि योजना कर्त्त अवघ्युत्पादमन्तरेणैतदुत्पादान्मनःपर्यायशानिनोऽवधेः प्रतिपद्यमानकाः २ प्राच्यनरतियम्भवान्त्यसमवादनन्तरं सुरनारकायुरुदयादेवं व्यपदेषाः 'थे। अमतिपतितसम्बकवास्तिरमनुष्येभ्यो देवनारका जायन्ते ते 'इतिहेमचन्द्रपादाः ३ विकलेन्द्रियाणां असंशिनां च सास्वादनसम्यक्त्वाम्मतिश्रुतयोः पूर्वप्रतिपत्नसा स्यात् , परमवधस्तु न. ४ उपचारेय. ५ रोगापनथनबुओतिम श्रीहेमचन्द्रपादाः ६ मूत्रपुरीषयोरवयचो विमुच्यते, मन्ये वाहुः-विर उचारः प्रति प्रश्रवणमिति, मबीहेमचन्नपादाः (विघुऔषधिः) विकल्पे वि. + ओसही सोय • सोच बनु बोडग्या. आमीषधि आदि ऋद्धः स्वरुपम् प्रतिपाद्यते ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७० ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[ ०९] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः भाष्यं [-] आवश्यक ॥ ४७ ॥ व्येति, तत्र 'विड्' उच्चारः ' खेल: ' श्लेष्मा 'जहो ' मल इति, भावार्थः पूर्ववत् सुगन्धाश्च भवन्ति । तथा यः * सर्वतः शृणोति स संभिन्नश्रोता, अथवा श्रोतांसि इन्द्रियाणि संभिन्नान्येकैकशः सर्वविधैयैरस्य परस्परतो चैति संभिन्न४ श्रोताः, संभिन्नान् वा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सुबहूनपि शब्दान् शृणोति संभिन्नश्रोता, एवं संभिन्नश्रोतृत्वमपि लब्धिरेव । तथा ऋज्वी मतिः ऋजुमतिः सामान्यग्राहिकेत्यर्थः, मनःपर्यायज्ञानविशेषः, अयमपि च लब्धिविशेष एव, लब्धिलब्धिमतोश्चाभेदात् ऋजुमतिः साधुरेव । तथा सर्व एव विण्मूत्रकेशनखादयो विशेषाः खल्वोषधयो यस्य, व्याध्युपशमहेतव इत्यर्थः, असौ सर्वोपधिश्च, एवमेते ऋद्धिविशेषा बोद्धव्या इति गाथार्थः ॥ ६९ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या - अतिशयचरणाच्चारणाः, अतिशयगमनादित्यर्थः ते च द्विभेदा:- विद्याचारणा जङ्घाचारणाश्च तत्र जङ्गचारणः शक्तितः किल रुचकवरद्वीपगमनशक्तिमान् भवति, स च किलेकोत्पातेनैव रुचकवरद्वीपं गच्छति, आगच्छश्वोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दीश्वरं द्वितीयेन यतो गतः, एवमूर्ध्वमपि एकोत्पातेनैवा चलेन्द्रमूर्ध्नि स्थितं पाण्डुकवनं गच्छति, आगच्छ्श्चोत्पातद्वयेनागच्छति, प्रथमेन नन्दनवनं द्वितीयेन यतो गतः । विद्याचारणस्तु नन्दीश्वरद्वीपगमन शक्तिमान् भवति, स वेकोत्पातेन मानुषोत्तरं गच्छति, द्वितीयेन नन्दीश्वरं, तृतीयेन त्वेकेनैवाऽऽगच्छति १ चकाराद्विदादीनां व्याध्यपनयन साहचर्य २ विडादयः ३ सर्वैरेव शरीरदेशैरिति म० श्रीहेमचन्द्रपादाः ४ सर्वांणीन्द्रियाणि सर्वविषयान् प्रत्येकं विदन्ति ५ परस्परं श्रोत्रचक्षुषी रूपशब्दविषयो विद्यो यवमन्येपि परस्परविषयज्ञानं. ६ द्वादशयोजन चक्रवर्त्तिकटकस्य युगपद् मुवाणस्य तत्सूर्यसंघातस्य वा युगपदास्फाल्यमानस्य. ७ जङ्घाभ्याम् सूत्रानुसारेणैकादशः चूर्ण्यनुसारेण तु त्रयोदशः, तत्र भरूणावासवाङ्कवस्योरधिकयोर्दर्शनात् चलादि० + पाण्डक० 1 सत्रको ० Eucation International For Parts Only ~ 104~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४७ ॥ wor Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: यतो गतः, एवमूर्ध्वमपि व्यत्ययो वक्तव्य इति । अन्ये तु शक्तित एव रुचकवरादिद्वीपमनयोर्गोचरतया ब्याचक्षत इति । तथा आस्यो-दंष्ट्राः तासु विषमेपामस्तीति आसीविषाः, ते च द्विप्रकारा भवन्ति-जातितः कर्मतश्च, तत्र जातितो वृश्चिकमण्डूकोरगमनुष्यजातयः, कर्मतस्तु तिर्यग्योनयः मनुष्या देवाश्चासहस्रारादिति, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाप्तीविषा भवन्ति, देवा । अपि तच्छक्तियुक्ता भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः । तथा केवलिनश्च प्रसिद्धा एव । तथा मनोज्ञानिनो विपुलमनःपर्यायज्ञानिनः परिगृह्यन्ते । पूर्वाणि धारयन्तीति पूर्वधराः, दशचतुदेशपूर्वविदः । अशोकाद्यष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामर्हन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकरा इत्यर्थः । 'चक्रवर्तिनः चतुर्दशरत्नाधिपाः पटूखण्डभरतेश्वराः। 'बलदेवाः ' प्रसिद्धा एव । वासुदेवाः' सप्तरत्नाधिपा अर्धभरतप्रभव इत्यर्थः । एते हि सर्व एव चारणादयो लब्धिविशेषा वर्तन्ते इति गाथार्थः ॥ ७० ॥ इह वासुदेवत्वं चक्रवर्तित्वं तीर्थकरत्वं च ऋद्धयः प्रतिपादिताः, तत्र तदतिशयप्रतिपादनायेदं गाथापश्चकं जगाद नियुक्तिकारा सोलस रायसहस्सा सब्वबलेणं तु संकलनिबद्धं । अंछंति वासुदेवं अगडतडमी ठिय संतं ॥७१॥ घित्तूण संकलं सो वामगहत्येण अंछमाणाणं । झुजिज व लिंपिज्ज व महुमहणं ते न चायति ॥७२॥ दोसोला बत्तीसा, सव्वषलेणं तु संकलनिबद्ध । अंछति चकवडिं, अगडतडमी' ठियं संतं ॥७३॥ लिब्धितो ये आसीविषलनिमन्तः पोजितियंगाययस्ते, देवाः पर्याप्तावस्थायां शापादिना व्यापादने समयो भपि देवभवाल्ययिकस्कान तद्धिवक्षितमिति अपर्याप्तावस्थायामवैतबपदेशो देवानाम्, *मेषामिति + 04 सह1 0ठानतो बा.१ अपि च लंमि तसंमि. T अरिहंत-चक्रवर्ती-वासुदेव-बलदेव आदिनाम् अतिशय: दर्शयते ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [ - / गाथा - ], निर्युक्तिः [ ७५ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः आवश्यक ॥ ४८ ॥ चित्तूण संकलं सो, वामगहत्थेण अंद्यमाणाणं । भुंजिज व लिंपिज व, चक्कहरं ते न चायंति ॥ ७४ ॥ जं केसवस्स उ बलं तं दुगुणं होइ चक्कवहिस्स । ततो बला बलवगा, अपरिमियवला जिणवरिंदा ॥७५॥ आसां गमनिका -इह वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमविशेषाद्बलातिशयो वासुदेवस्य संप्रदश्यते - षोडश राजसहस्राणि ' सर्वबलेन ' हस्त्यश्वरथपदातिसंकुलेन सह शृङ्खलानिबद्धं ' अंछंति' देशीवचनात् आकर्षन्ति वासुदेवं ' अगडतटे कूपतटे स्थितं सन्तं ततश्च गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेन ' अंछमाणाणं' ति आकर्षतां भुञ्जीत बिलिम्पेत वा अवज्ञया हृष्टः सन् मधुमथनं ते न शक्नुवन्ति, आक्रष्टुमिति वाक्यशेषः । चक्रवर्त्तिनस्त्विदं बलं - द्वौ पोडशकी, द्वात्रिंशदित्येतावति वाच्ये द्वौ षोडशकावित्यभिधानं चक्रवर्त्तिनो वासुदेवाद् द्विगुणद्धिं ख्यापनार्थं, राजसहस्राणीति गम्यते, | सर्वबलेन सह शृङ्खलानिबद्धं आकर्षन्ति चक्रवर्त्तिनं अगडतटे स्थितं सन्तं गृहीत्वा शृङ्खलामसौ वामहस्तेन आकर्षतां भुञ्जीत विलिम्पेत वा, चक्रधरं ते न शक्नुवन्ति आक्रटुमिति वाक्यशेषः । यत् केशवस्य तु बलं तद्विगुणं भवति चक्रव|र्त्तिनः, ' ततः शेषलोकबलादू 'बला ' बलदेवा बलवन्तः, तथा निरवशेषवीर्यान्तरायक्षयाद् अपरिमितं बलं येषां तेऽपरिमितबलाः, क एते १- जिनवरेन्द्राः, अथवा ततः --- चक्रवर्त्तिबलाद् बलवन्तो जिनवरेन्द्राः कियता बलेनेति, आहअपरिमितवेला इति । एता हि कर्मोदयक्षयक्षयोपशमसव्यपेक्षाः प्राणिनां लब्धयोऽवसेया इति । ७१-७२-७३-७४-७५ 3 अपरिमितेन बलेन बलवन्त इतिभावः ( इतिमख्यगिरिपादाः ) वाच्य० + अंछमाणानंति आ + वाच्य० Education International For Parts On ~106~ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ॥ ४८ ॥ waryra Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: SANSAR इदानीं मनःपर्यायज्ञानं, लब्धिनिरूपणायां तत् सामान्यतो व्यपदिष्टमपि विषयस्वाम्यादिविशेषोपदर्शनाय ज्ञानपश्चकक्रमायातमभिधित्सुराह मणपजवनाणं पुण जणमणपरिचिन्तियत्यपायडणं । माणुसखित्तनिषई गुणपच्चइयं चरित्तवओ॥ ७६ ॥ ४ व्याख्या-मनःपर्यायज्ञानं 'प्राकृनिरूपितशब्दार्थ, पुनःशब्दो विशेषणार्थः, इदं हि रूपिनिबन्धनक्षायोपशमिकप्रत्यक्षादिसाम्येऽपि सति अवधिज्ञानात् स्वाम्यादिभेदेन विशिष्टमिति स्वरूपतः प्रतिपादयवाह-जायन्त इति जनाः, | तेषां मनांसि जनमनांसि, जनमनोभिः परिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितः जनमनःपरिचिन्तितश्चासावर्धश्चेति समासः,8 तं प्रकटयति प्रकाशयति जनमन:परिचिन्तितार्थप्रकटनं, मानुषक्षेत्र-अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणं तन्निवद्धं,न तद्वहिर्कावस्थितप्राणिमनःपरिचिन्तितार्थविषयं प्रवर्तत इत्यर्थः । गुणा:-क्षान्त्यादयः त एव प्रत्ययाः-कारणानि यस्य तद्गुणप्रत्ययं, चारित्रमस्यास्तीति चारित्रवान् तस्य चारित्रवत एवेदं भवति, एतदुक्तं भवति-अप्रमत्तसंयतस्य आमशोषध्यादिऋद्धिप्राप्तस्यैवेति गाथार्थः॥७६॥ इदं द्रव्यादिभिर्निरूप्यते-तत्र द्रव्यतो मनःपर्यायज्ञानी अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्गतप्राणिमनोभावपरिणतद्रव्याणि जानाति पश्यति च, अवधिज्ञानसंपन्नमनःपर्यायज्ञानिनमधिकृत्यैवं, अन्यथा जानात्येव न पश्यति, अथवा यतः साकारं तदतो ज्ञानं यतश्च पश्यति तेन अतो दर्शन मिति, एवं सूत्रे संभवमधिकृत्योक्तमिति, अन्यथा चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनं तत्रोतं चतुओं विरुध्यते, क्षेत्रतः अर्धतृतीयेष्वेव द्वीपसमुद्रेषु, कालतस्तु पल्योपमासंख्येयभार्ग 1 भादिना उनस्पस्वामिसाधर्म्यम् भदपदित्यर्थः ३ योगरूवतथा नरा एव स्युः, परं संशिपोन्दियामहणायैवं व्युत्पादनं. * पागणं. T Fhio अथ मन:पर्यवज्ञानस्य वक्तव्यता ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: G प्रत सूत्रांक आवश्यक- एष्यमतीतं वा कालं जानाति, भावतस्तु मनोद्रव्यपर्यायान् अनन्तानिति, तत्र साक्षान्मनोद्रव्यपर्यायानेव पश्यति, हारिभद्री बाह्याँस्तु तद्विषयभावापन्नाननुमानतो विजानाति, कुतः, मनसो मूर्त्तामूर्त्तद्रव्यालम्बनत्वात् , छद्मस्थस्य चामूर्तदर्शन- यवृत्तिः ॥४९॥ दाविरोधादिति । सत्पदप्ररूपणादयस्तु अवधिज्ञानवदवगन्तव्याः । नानात्वं चानाहारकापर्याप्तको प्रतिपद्यमानी नविभागः१ भवतः, नापीतरौ ॥ उकं मनःपर्यायज्ञानं, इदानीमवसरप्राप्तं केवलज्ञानं प्रतिपादयशाह अह सव्ववपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणतं । सासयमप्पडिवाइ एगविहं केवलंनाणं ॥७॥ व्याख्या-इह मनःपर्यायज्ञानानन्तरं सूत्रक्रमोद्देशतः शुद्धितो लाभतश्च प्राक् केवलज्ञानमुपन्यस्तं, अतस्तदर्थोपदर्शनार्थमथशब्द इति, उक्तं च-“अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु"। सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च सर्वद्रव्याणि-जीवादिलक्षणानि तेषां परिणामाः-प्रयोगविनसोभयजन्या उत्पादादयः सर्वद्रव्यपरिणामाः तेषां भावः सत्ता स्वलक्षणमित्यनर्थान्तरं तस्य विशेषेण पनं विज्ञप्तिः, विज्ञानं वा विज्ञप्ति:-परिच्छित्तिः, तत्र भेदोपचारात्, तस्या विज्ञप्तेः कारणं विज्ञप्तिकारणं, अत एव सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावविषयं तत् , क्षेत्रादीनामपि द्रव्यत्वात्, तच ज्ञेयानन्तत्वादनन्तं, शश्वद्भवतीति शाश्वत, ता व्यवहारनयादेशादुपचारतः प्रतिपात्यपि भवति, अत आह-अतिपतनशील ॥४९॥ प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्रतिपाति, सदाऽवस्थितमित्यर्थः । आइ-अप्रतिपात्येतावदेवास्तु, शाश्वतमित्येतदयुक्तं, न, SAXSEX ACASSACAD545%-5 अनुक्रम मतस्तदर्पोऽयमयवादः केवचं नाणं.+शापनं. wweindltimaryam अथ केवलज्ञान प्रतिपादयते ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अप्रतिपातिनोऽप्यवधिज्ञानस्य शाश्वतत्वानुपपत्तेः, तस्मादुभयमपि युक्तमिति । 'एकविधं ' एकप्रकारं, आवरणाभावात् हायस्यैकरूपत्वात् , 'केवलं' मत्यादिनिरपेक्ष 'ज्ञान' संवेदनं, केवलं च तत् ज्ञानं चेति समास इति गाथार्थः ॥ ७७ ॥1 इह तीर्थकृत् समुपजातकेवलः सत्त्वानुग्रहार्थ देशनां करोति, तीर्थकरनामकमोदयात् , ततश्च ध्वनेः श्रुतरूपत्वात् | तस्य च भावभुतपूर्वकत्वात् श्रुतज्ञानसंभवादनिष्टापत्तिरिति मा भूम्मतिमोहोऽव्युत्पन्नबुद्धीनामित्यतस्तद्विनिवृत्यर्थमाह केवलणाणेणत्थे गाउं जे तत्थ पण्णवणजोगे। ते भासह तित्थयरो वयजोग सुयं हवह सेसं ॥ ७८॥ व्याख्या-इह तीर्थकरः केवलज्ञानेन ' अर्थान् ' धर्मास्तिकायादीन् मूर्तामूनि अभिलाप्यानभिलाष्यान् ज्ञात्वा' विनिश्चित्य, केवलज्ञानेनैव ज्ञात्वा न तु श्रुतज्ञानेन, तस्य क्षायोपशमिकत्वात् , केवलिनश्च तदभावात् , सर्वेशुद्धौ देशशुख्यभावादित्यर्थः। ये 'तत्र' तेषामर्थानां मध्ये, प्रज्ञापनं प्रज्ञापना तस्या योग्याः प्रज्ञापनायोग्याः 'तान् भाषते' तानेव वक्ति नेतरानिति, प्रज्ञापनीयानपि न सर्वानेव भाषते, अनन्तत्वात, आयुषः परिमितत्वात, वाचः क्रमवर्तित्वाच्च, किं तर्हि ?, योग्यानेव गृहीतृशत्तयपेक्षया यो हि यावतां योग्य इति । तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिः प्रोच्यमानस्तस्य भगवतो वाग्योग एव भवति, न श्रुतं, नामकर्मोदयनिवन्धनत्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात्, सच | श्रुतं भवति शेष, शेषमित्यप्रधान, एतदुक्तं भवति-श्रोतणां श्रुतग्रन्थानुसारिभावश्रुतज्ञाननिवन्धनत्वाच्छेषमप्रधानं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः । अन्ये वेवं पठन्ति-वयजोगसुयं हवइ तेसिं' स वाग्योगः श्रुतं भवति 'तेषां ' श्रोतणां, भाव श्रुतकारणत्वादित्यभिप्रायः । अथवा 'चाग्योगश्रुतं' द्रव्यश्रुतमेवेति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ - -- - ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक-४ ॥५०॥ सत्पदप्ररूपणायां च गतिमङ्गीकृत्य सिद्धगती मनुष्यगतौ च, इन्द्रियद्वारमधिकृत्य नोइन्द्रियातीन्द्रियेषु, एवं स- हारिभद्री | कायाकाययोः सयोगायोगयोः अवेदकेषु अकषायिषु शुक्ललेश्यालेश्ययोः सम्यग्दृष्टिषु केवलज्ञानिषु केवलदर्शिषु, संय- यवृत्तिः |तनोसंयतयोः साकारानाकारोपयोगयोः आहारकानाहारकयोः भाषकाभाषकयोः परीत्तनोपरीत्तयोः पर्याप्तनोपर्याप्तयोः पर्यापनोपयोपयोःकाविभागः१ बादरनोवादरयोर, संशिषु नोसज्ञिषु, भव्यनोभव्ययोः, मोक्षप्राप्तिं प्रति भवस्थकेवलिनो भव्यता, चरमाचरमयोग, चरमः-1 केवली अचरमः-सिद्धः भवान्तरमायभावात् , केवलं द्रष्टव्यमिति । पूर्वप्रतिपन्न प्रतिपद्यमानयोजना च स्वबुद्ध्या कर्त्तव्येति । 'द्रव्यप्रमाणं' तु प्रतिपद्यमानानधिकृत्य उत्कृष्टतोऽष्टशतं, पूर्वप्रतिपन्नाः केवलिनस्तु अनन्ताः, क्षेत्र' जघन्यतो लोकस्यासंख्येयभागः, उत्कृष्टतो लोक एव, केवलिसमुद्घातमधिकृत्य, एवं स्पर्शनाऽपि, 'कालतः' साद्यमपर्यन्तं, 'अन्तरं' नास्त्येव, प्रतिपाताभावात् , ' भागद्वारं' मतिज्ञानवद् द्रष्टव्यं, 'भाव' इति क्षायिके भावे ' अल्पबहुत्वं' हामतिज्ञानवदेव । उक्तं केवल ज्ञानं, तदभिधानाच्च नन्दी, सदभिधानान्मङ्गलमिति । एवं तावन्मङ्गलस्वरूपाभिधानद्वारेण | ज्ञानपञ्चकमुक्त, इह तु प्रकृते श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा च नियुक्तिकारेणाभ्यधायि इत्थं पुण अहिगारो सुयनाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽविअ अणुओगु पईवदिट्ठन्तो ॥७९॥ गमनिका-अत्र पुनः प्रकृते अधिकारः श्रुतज्ञानेन, यतः श्रुतेनैव 'शेषाणां' मत्यादिज्ञानानां आत्मनोऽपि च 'अनु-IA५.n योगः' अन्वाख्यान, क्रियत इति वाक्यशेषः, स्वपरप्रकाशकत्वात्तस्य, प्रदीपदृष्टान्तश्चात्र द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ ७९ ॥ इति पीठिकाविवरणं समाप्तम्. १ संयताना नोसंपतासंपतानां चेति ( वि०) * वर्षानिपु. + परवं. आवश्यके पी० 648-49675 अत्र आवश्यकसूत्रस्य वृत्तिकार-रचिता पीठिकाविवरणं समाप्तं ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: साम्प्रतं मलसाध्यः प्रकृतोऽनुयोगः प्रदर्श्यत इति, सच स्वपरप्रकाशकत्वात् गुर्वायत्तत्वाच श्रुत ज्ञानस्येति, तथा| चिोतं-'अत्र पुनरधिकारः श्रुतज्ञानेनेत्यादि' । आह-नन्वावश्यकस्यानुयोगः प्रकृत एव, पुनः श्रुतज्ञानस्येत्ययुक्तमिति, अत्रोच्यते, आवश्यकस्य श्रुतान्तर्गतत्वप्रदर्शनार्थत्वाददोषः । आह-यद्यावश्यकस्यानुयोगः, तदावश्यक किमङ्गमङ्गानि? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः ? अध्ययनमध्ययनानि ? उद्देशक उद्देशकाः इति, अत्रोच्यते, आवश्यकं श्रुतस्कम्धस्तथाऽध्य-18 यनानि च, शेषास्त्वनादेशा विकल्पा इति । आह-ननु नन्दीव्याख्याने अङ्गानङ्गप्रविष्टश्रुतनिरूपणायामनङ्गताऽस्याभिहितैव, ततश्च किमङ्गमङ्गानीत्याद्याशङ्कानुपपत्तिरिति, अत्रोच्यते, तद्व्याख्योऽनियमप्रदर्शनार्थत्वाददोषा, नावश्यं शास्त्रादौ नन्धध्ययनार्थकथनं कर्त्तव्यं, अकृते चाशैङ्का सिंभवति । आह-मङ्गलार्थ शास्त्रादाववश्यमेव नन्यभिधानात् कथमनियम इति, अत्रोच्यते, ज्ञानाभिधानमात्रस्यैव मङ्गलत्वात् नावश्यमवयवार्थाभिधानं कर्त्तव्यमिति, तदकरणे चाशङ्कर 8 है। भवति । किं चे-आवश्यकव्याख्यानारम्भे शास्त्रान्तरव्याख्यानारम्भोऽयुक्त एव, शाखान्तरं च नन्दी, पृथक् श्रुत-द स्कन्धत्वात् । आह-योवमिह आवश्यकश्रुतस्कन्धानुयोगारम्भे किमिति तदनुयोग इति, उच्यते, शिष्यानुग्रहार्थं R -566 T एकोनविंशतिगाधाम्याण्याने. २ शानपचकनिरूपकाकरणतया नन्यध्ययनस्यात्, ३ महानि किमिवाचावीचा. मोबागमतो भावमङ्गलं हि IDIनन्दी यतः ५ मूलसूत्रापेक्षया मन्दीव्यायानाऽनियमवर्षानाय पक्षान्तरं-किश्शेत्यादि.सस ज्ञानपचकनिरूपणनिपुणप्रकरणयानुयोगः * भाषश्यका G+ पयानानि भवति... मप्रदर्षानार्थरवाददोष इति, यासंभव इति. JAMEducatan inbimadional For ParaTREPWDuOnly | अत्र उपोद्घात् नियुक्ति: आरभ्यते ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥५१॥ आवश्यक-४ न त्वयं नियम इत्यपवादप्रदर्शनार्थं वा, एतदुक्तं भवति-कदाचिस्पुरुषाद्यपेक्षया क्रमेणापि अन्यारम्भेऽपि चान्यद व्याख्यायत इति, अलं प्रसङ्गेन, तत्र शास्त्राभिधानं 'आवश्यकश्रुतस्कन्धा', तद्भेदाश्च अध्ययनानि यतः तस्माद् आव- श्यकं निक्षेप्तव्यं श्रुतं स्कन्धश्चेति । किं च-किमिदं शास्त्राभिधानं प्रदीपाभिधानवद् यथार्थ आहोश्चित् पलाशाभिधानवद | अयथार्थ उत डिस्थाद्यभिधानवद् अनर्थकमेवेति परीक्ष्यं, यदि च यथार्थं ततस्तदुपादेयं, तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेरित्यतः शास्त्राभिधानमेव तावदालोच्यत इति । तत्र 'आवश्यकं' इति कः शब्दार्थः, अवश्यं कर्त्तव्यमावश्यक, | अथवा गुणानामावश्यमात्मानं करोतीत्यावश्यक, यथा अन्तं करोतीत्यन्तका, अथवा 'वस निवासे' इति गुणशून्य-1 मात्मानमावासयति गुणैरित्यावासकं, गुणसान्निध्यमात्मनः करोतीति भावार्थः । इदं च मङ्गलवन्नामादिचतुर्भेदभिन्नं, इदं च प्रपश्यतः सूचांदवसेयमिति, उद्देशस्तु तदनुसारेणैव शिष्यानुग्रहायाभिधीयते इति, तत्र नामस्थापने सुज्ञाने एव, द्रव्यावश्क द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मितिकृत्वा, नोआगमतो द्रव्यावश्यकं त्रिविध-ज्ञशरीरं भव्यशरीरं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं च, तदैपि त्रिविधं-लौकिकलोकोत्तरकुप्रावच बावश्यकव्याख्यानारम्भे शास्त्रान्तरव्याख्यानारम्भोऽयुक्त इत्यस्योपदर्शितस्य नियमस्यापवाद इति. २ मा नन्दी पश्चादावश्यकमित्यादिकं क्रम परि| त्यज्य, अपिना क्रमोऽपि पुरुषायपेक्षया एव.भारण्यस्यापि पुरुषापेक्षयैव व्याख्येति दर्शनायापि चेति । समनशानवाच्यार्यपरिज्ञानेति. ५ अनुयोगद्वाररूपात तनावश्षकनिक्षेपाणां सुविस्तृततयाभिहितत्वात्, ६ संक्षेपेण स्वरूपाभिधानरूपोऽनोद्देशः . शशरीरभग्यशरीरुयतिरिक्त परामर्शनीयं तच्छब्देन, प्रत्यासत्या. * पुरुषाप्रपे० + आहोस्वित्. ॥५१॥ Fhi आवश्यक-शब्दस्य अर्थ:, तस्य नामादि निक्षेपाः ।। ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 2-3 % - निकभेदभिन्न यथाऽनुयोगद्वारेषु, नवरं लोकोत्तरेणात्राधिकारः, तच्च ज्ञानादिश्रमणगुणमुक्तयोगस्य प्रतिक्रमणं भावशून्यत्वाद् अभिप्रेतफलाभावाच्च, एत्थं उदाहरणं-वसंतपुरं नगरं, तत्थ गच्छो अगीतस्थसंविग्गो विहरति, तत्थ य एगो |संविग्गो समणगुणमुक्कजोगी, सो दिवसदेवसियं उदउल्लादिअणेसणाओ पडिगाहेत्ता महया संवेगेणं आलोएइ, तस्स पुण गणी अगीयस्थत्तणओ पायच्छित्तं देतो भणति 'अहो इमो धम्मसद्धिओ साहू, सुहं पडिसेविड, दुक्खं आलोएउं, एवं णाम एस आलोएइ अगूहतो, अतो असढत्तणओ सुद्धोत्ति' ऐयं च दडूण अण्णे अगीयत्थसमणा पसंसंति, चिंतेति। यणवरं आलोएयवं णस्थित्थ किंची पडिसेविएणं ति । अण्णदा कदाई गीयत्थे संविग्गो विहरमाणो आगओ, सो त | दिवसदेवसियं अविहिं दडूण उदाहरणं दाएति-गिरिणगरे णगरे रयणवाणियओ रत्तरयणाणं घरं भरेऊणं पलीवेइ, तं| T सोदाहरण-वसन्तपुरं नगरं, तत्र गच्छोऽगीताथसंविमो विहरति, तत्र थैकः संपिनः मुक्तश्रमणगुणयोगः, स दिवसदैवसिकं उदका पनेपापणाः प्रतिगृह्य महता संवेगेनालोचयति, तस्य पुनराचार्यः अगीतार्थत्वात् प्रायश्चित्तं ददन भणति हो भयं धर्मश्चद्धिकः (ता) साधु: ' सुखं प्रतिसेवितुं x दुष्करमालोचित एवं नामैप मालोचषति. अगृह यन् , अतः भगाठत्वा शुद्ध इति, एसयू ट्वाइन्यगीतार्थश्चमणाः प्रांसन्ति, चिन्तयन्ति च परं-आलोचगि तब्ब नास्त्यत्र किनियतिसे वितेनेति । सब भन्यदा कदाचित् गीतार्थः संविभः बिहरन् आगतः, स तं दिवसदैवसिकम विधि रष्ट्वोदाहरणं दर्शयति-गिरिणगरे | कानगरे रनपणिग् रक्तस्तैः गृहं भूत्वा प्रदीपयति, तदृष्ट्वा सर्वलोकः प्रशंसति--अहो अब धन्यो भगवम्तममितपंथति, मन्यदा कदाचित् तेन प्रदीपित, वातच दाप्रबको जातः, सर्व नगरं दग्धं, पानाज्ञा प्रतिहतो निम्पियन कृतः । अन्यत्रापि नगरे * एवं एवं. + एवं प.. ForParaoTREFrwate-UIROIN द्रव्यावश्यके अगीतार्थ-संविग्नस्य उदाहरण ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ५२.॥ आवश्यक-पासित्ता सबलोगो पसंसति-अहो इमो धण्णो भगवन्तं अग्गिं तप्पेति, अण्णया कयाई तेण पलीवितं, वाओ य पबलोहारिभद्री |जाओ, सर्व णगरं दह, पच्छा रपणा पडिहणिओ णिविसओ य कओ । अण्णहिपि णगरे एगो एवं चेव करेइ, सोयवृत्तिः राइणा सुओ जहा एवं करेइत्ति, सो सबस्सहरणो काऊण विसजिओ, अडवीए कीस ण पलीवेसि । जहा तेण| विभागः१ वाणिअगेण अवसेसावि दहा, एवं तुमंपिएतं पसंसित्ता एते साहुणो सबै परिचयसि, जाहे न ठाति ताहे साहुणो भणिआ|एस महाणिद्धम्मो अगीयस्थो अलं एयस्स आणाए, जदि एयस्स णिग्गहो न कीरइ, तो अपणेवि विणसति । इदानीं भावावश्यक, तदपि द्विविधमेव-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो भावावश्यकं ज्ञाता उपयुक्तः, तदुपयोगानन्यत्वात् , अथवाऽऽवश्यकार्थोपयोगपरिणाम एवेति । नोआगमतस्तु ज्ञानक्रियोभयपरिणामो भावावश्यक, उपयुक्तस्य | क्रियेति भावार्थः, मिश्रवचनश्च नोशब्दः, इदमपि च लौकिकादित्रिविधं सूत्रादवसेयं, इह तु लोकोत्तरेणाधिकार इति । उक्तमावश्यक, अस्य चामूनि अन्यामोहाधमेकाथिकानि द्रष्टव्यानि एक एवमेव करोति, स राज्ञा श्रुतो यथा एवं करोतीति, सहतमसः (सर्वस्वहरण) कृत्वा विसष्टः, अटयां कर्थ (कृतः)मप्रदीपषसि DIM५२॥ यथा तेन वणिजा अवशेषा अपि दग्धाः एवं त्वमपि एतं प्रशस्य एतान् सर्वान् साधून परित्यजसि, वदान सिष्ठति (विस्मति) तदा साधयो भनिता:-16 एष महानिर्धर्मा भगीतार्थः, भकमेतस्याज्ञया, यदि एतस निग्रहो न क्रियतेऽतोऽन्येऽपि विनयन्ति. २ मावश्यकपदार्थज्ञराजनितसंवेगविशुद्धिमान् परिगामस्तन चोपयुक्तः (अनु. ३) निण्णयरो. * पूर्व पसंसंतो.+ परिचषसि. For ParaEPINEUROIN ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवस्मयं १ अवस्सकरणिज २ धुव ३ णिग्गहो ४ विसोही ५ या अज्झयणछक्क ६ वग्गो ७णाओ८ आराहणा ९ मग्गो १०॥१॥ समणेण सावएण य अवस्सकायध्वयं हवइ जम्हा । अहोर्णिसंस्स य तम्हा आवस्मयं नाम ॥२॥ एवं श्रुतस्कन्धयोरपि निक्षेपश्चतुर्विध एव द्रष्टव्यः, यथाऽनुयोगदारेषु, स्थानाशून्यार्थं तु किश्चिदुच्यते-इह नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रकन्यस्तं, अथवा सूत्रमण्डजाँदि, भावश्रुतं ' स्वागमतो ज्ञाता| उपयुक्तः, नोआगमतस्विदमेवाश्यक, नोशब्दस्य देशवचनत्वात् । एवं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः सचेतनादिः, तत्र सचित्तो द्विपदादिः अचित्तो द्विप्रदेशिकादिः मिश्रः सेनादिदेशादिरिति, तथा भावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव, नोआगमतस्त्वावश्यकश्रुतस्कन्ध एवेति, नोशब्दस्य देशवचनत्वात् , अथवा | ज्ञानक्रियागुणसमूहात्मकः सामायिकादीनामध्ययनानां समावेशात् , ज्ञानदर्शनक्रियोपयोग इत्यथैः, नोशब्दस्तु मिश्र-18 SOCCALCC4 Rock भावश्यकमवश्यकरणीयं भुवं निग्रहो विशोधिश्च । अध्ययनषदं वर्गों न्याय आराधना मार्गः ॥ ॥ श्रमणेन श्रावकेण चावश्यकर्त्तव्यं भवति बमात् । अन्ते (तः ) महनिशा (अहो निशः) च, सम्मादावश्यकं नाम ॥२॥२ श्रुतपर्यायत्वासूवनिर्देशोऽन्न प्राकृतत्वात् , सुयशब्देन सूत्रमपि सूत्रकृतोऽजस्य | अयगरतिवत्, ३ भादिना योण्डजकीरजवालजवल्कनप्रहः । प्रस्तुतस्वादन्यथा सर्वमपि श्रुतमेवं, भागमे तु पदमात्रज्ञानोपयोगाजिसता.५ सेणाइदेसाई ८९६| सेनायाः हस्त्यश्वरवपदातिवाकुन्ताधात्मकः पाश्चात्यमध्यमामधेशरूपो मिनिस्कन्धः (विछो. ८९६ गाथादृत्ती) सेणाए अगिमे बंधे सेणाए मझिमे बंधे | सेणाए पछिमे बंधे (मनु.१०२) प्रथमादिपदाहामनगरानिमहः द्विनीपादिना देशपादिग्रहः * अवस्सं करणं. + महोणिसिस्स. + आगमतो. नास्त्रीदम् । सेनादिर्देशादि० 4%+5-23456 JAMEdustantitimanand आवश्यकस्य पर्याय-शब्दा:, श्रुतस्कन्धस्य निक्षेपा: ~115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आवश्यक- 44R5RC वचनः। सर्वपदैकवाच्यता सामायिकादिश्रुतविशेषाणां षण्णां स्कन्धः श्रुतस्कन्धः,आवश्यकंच तत् श्रुतस्कन्धश्चेति समासः हारिभद्रीआह-किमिदं आवश्यक षडध्ययनात्मकमिति,अत्रोच्यते,षडाधिकारात्मकत्वात् ,ते चामी सामायिकादीनां यथायोगमप-11.यवृत्ति: सेया इति-सावजजोगविरई १ उकित्तण र गुणवओय पडिवत्तीशखलियस्स निंदण ४ वणतिगिच्छौ ५ गुणधारणा ६ चेवान विभागः१ |॥१॥अस्या व्याख्या-अवयं पापं, युज्यन्त इति योगाः व्यापाराः, सहावयेन वर्तन्त इति सावद्याः, सावद्याश्च ते योगा|श्चेति समासः, तेषां विरमण विरतिः सामायिकाङधिकार इति १ उत्कीर्तनमुत्कीर्तना, तत्र गुणोत्कीर्तना अर्हतां चतु|विंशतिस्तवस्य २ । गुणा ज्ञानादयः मूलोत्तराख्या वा, तेऽस्य विद्यन्त इति गुणवान् तस्य गुणवतः प्रतित्तिर्वन्दनाध्ययनस्य ३ । चैशब्दः समुच्चये, 'स्खलितस्येति 'श्रुतशीलस्खलितस्य निन्दना प्रतिक्रमणस्य ४ । तथा चारित्रात्मनो व्रणचिकित्सा-अपराधवणसरोहणं कायोत्सर्गस्य ५। अपगतत्रांतिचारेतरोपचितकर्मविशरणार्थमनशनादिगुणसंधारणा प्रत्याख्यानस्य ६ इत्यर्थाधिकाराः । एषां च प्रत्यध्ययनमाधिकारद्वार एवावसरः प्रत्येतव्यः, इह तु प्रसङ्गतः स्कन्धो संबवषष्ठी, तेन परिभाषिता ज्ञात्वाऽभ्युपेत्याकरणरूपा विरतिरन्न, न तु केवळाभावरूपा निवृत्तिरूपा वा. २ अर्थाधिकार इति वर्तते. ३ व्यवहार| गुवपेक्षया. ४ बन्दनकदानादिपूजा विशेषरूपा. ५ पुष्टासम्बनेगुणवतोऽपि प्रतिपत्तिः कर्तव्येति दृष्टव्यं ( मलयगिरिपावाः, अनु. वृत्ती च1) इति ॥ ५३॥ वचनादनुक्कस मुश्चयार्थ इत्यर्थः । पनाविधावश्यकैरपगता येऽतिचारातदितरैरतिचारैः ७ आनुपूर्वानामप्रमाणवकन्यतार्थाधिकारसमवताररूपशास्त्रीयोपक्रमा-1 |न्तर्गते पश्चमद्वारे. * वाक्यता. + षषणामधिकारा. चिगिच्छ. JAIMESitatunintamatural FarPramLPramoOM आवश्यकस्य षड़ अध्ययनानि एवं तस्य अध्ययनस्य नाम्न: अर्थाः ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: PARSE पदर्शनद्वारेणोक्ता इति । इदानीं अध्ययनन्यासप्रस्तावा, तं चानुयोगद्वारक्रमायातं प्रत्यध्ययन ओघनिष्पन्ननिक्षेपे'लाघवार्थ वक्ष्यामः । एष आवश्यकस्य समुदायार्थः, इदानीमवयवार्थप्रदर्शनाय एकैकमध्ययनं वक्ष्यामः, तत्र प्रथममध्ययन सामायिकसमभावलक्षणत्वात् , चतुर्विंशतिस्तवादीनां च तद्भेदत्वात् प्राथम्यमस्येति । अयं च महापुरस्येव चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति । अनुयोगद्वाराणीति का शब्दार्थः १,अनुयोगोऽध्ययनार्थः,द्वाराणि तत्प्रवेशमुखानीति, यथा हि अकृतद्वारं नगरमनगरमेव भवति, कृतैकद्वारमपि च दुरधिगम कार्यातिपत्तये च, कृतचतुर्मूलद्वारं प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च, एवं सामायिकपुरमपि अधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं भवति, एकद्वारानुगतमपि च दुरधिगमं भवति, सप्रभेदचतुर्दारानुगतं तु सुखाधिगर्म इत्यतः फलवान् द्वारोपन्यासः । तानि च अमूनि-उपक्रमो १ निक्षेपो २-18 ऽनुगमो ३ नय ४ इति । तत्र शास्त्रस्य उपक्रमणं उपक्रम्यतेऽनेनास्मोदस्मिन्निति वा उपक्रमः, शास्त्रस्य न्यासर्देशानयनमित्यर्थः । तथा निक्षेपणं निक्षिप्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा निक्षेपः न्यासः स्थापनेति पर्यायाः। एवमनुगमनं । अनुगमः नामनिपानिक्षेपे चेति (मलयगिरिपादाः) २ प्रत्यध्ययनं कार्यः, लाघवार्थमिह सामायिकाध्ययने इति महधारिपादानामभिप्रायः ३ सावजजोग. हाबिरहत्यादिना प्रतिपादितः, षण्णामपि अाधिकाराणा प्रतिपादनात. विना समभावमितरगुणानषस्थानात् तसजाव एव परगुणोत्पत्तेः प्राथम्यमस्पेरपर्यः ५सामायिकस्य ज्ञानदर्शनचारित्रभेदभिन्नतया धनाशयादेश सम्यक्त्वादिसामायिकरूपत्वात् सामायिक मेदरवाण्यानं. सामाविकाध्ययनस्व. प्रतिपादनप्रकाराः 6 गुरुवारयोगः १ मिनीतविनयविनयः शुश्रूषा. "गुरुवाग्योगादीनां सर्वकारकवाच्याऽच्या विरोधः * प्रतिपादनाथ. + तारो. नास्तीदम्. ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- अनुगम्यते वाऽनेनास्मादस्मिमिति वाऽनुगमः, सूत्रस्थानुकूलः परिच्छेद इत्यर्थः । एवं नयनं नीयते वाऽनेनास्मादस्मि- हारिभद्री I४ान्निति वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगम इत्यर्थः । आह-एषामुपक्रमादिद्वाराणां किमित्येवं क्रम इति, अनो-II.यवृत्तिः ॥ ५४॥ दाच्यते, न धनुपकान्तं सद् असमीपीभूतं निक्षिप्यते, न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽनुगम्यते, न चार्थतोऽननुगतं नय-विभागः१ विचार्यते इत्यतोऽयमेव क्रम इति । तत्रोपक्रमो द्विविधः-शास्त्रीय इतरश्च, तत्र इतरः षट्पकारः, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदभिन्न इति,तत्र नामस्थापने सुज्ञाने,द्रव्योपक्रमो द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरसध्यतिरिक्तश्च, स च त्रिविधः-सचित्ताचित्तमिनद्रव्योपक्रम इति, तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमः काद्विपदचतुष्पदापदोपाधिभेदभिन्नः, पुनरेकैको द्विविधः परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्र परिकर्म-द्रव्यस्य गुणविशेषपरि णामकरणं तस्मिन्सति, तद्यथा-घृताद्युपभोगेन पुरुषस्य वर्णादिकरणमिति, अथवा कर्णस्कन्धवर्धनादिक्रियेति, अन्ये तु शास्त्रगन्धर्वनृत्यादिकलासंपादनमपि द्रव्योपक्रमं ब्याचक्षते, इदं पुनरसाधु, विज्ञानविशेषात्मकत्वात् शास्त्रादिपरि-टू ज्ञानस्य, तस्य च भावत्वादिति, किन्तु आत्मद्रव्यसंस्कारविवक्षापेक्षया शरीरवर्णादिकरणवत् स्यादपीति । एवं शुकसारिकादीनां शिक्षागुणविशेषकरणं, तथा चतुष्पदानां हस्त्यादीनां, अपदानां च वृक्षादीनां वृक्षायुर्वेदोपदेशाद् वार्धक्यादिसंभवनिः पर्यायैर्वस्तु नयति, यदिवा बहुधा वस्तुनः पर्यायाणां संभवात् विवक्षितपर्यायेण नयनं, भाचे पर्यायाणां सत्ताया शानं यथावर्थ, दितीय |॥ ५४॥ थिन् पर्यायाणां मध्ये संभवतः पर्यायानानियेति शेय, तया चाचे संबन्धे षष्ठी पञ्चम्याः ससुब, हितीचे सप्तमी चाविभाग इति षष्ठी, गम्ययप इति पञ्चम्यास्तसुख, शास. . JAMERatinintamational ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अथ 'उपक्रम द्वारम् उच्यते ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] + C प्रत सूत्रांक गुणापादनमिति, आह-यत्स्वयं कालान्तरभाव्युपक्रम्यते यथा तरोर्वार्धक्यादि तत्र परिकर्मणि द्रव्योपक्रमता युक्ता, वर्णकरणकलादिसंपादनस्य तु कालान्तरेऽपि विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेः कथं परिकर्मणि द्रव्योपक्रमतेति, अनोच्यते, विवक्षितहेतुजालमन्तरेणानुपपत्तेरित्यसिद्ध, कथं, वर्णस्य तावन्नामकर्मविपाकित्वात् स्वयमपि भावात्, कलादीनां च क्षायोपशमिकत्वात् , तस्य च कालान्तरेऽपि स्वयमपि संभवात् , विभ्रमविलासादीनां च युवावस्थायां दर्शनात् (ग्रन्थाग्रम् १५००)। तथा वस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिर्विनाश एवोपक्रम्यते इति, आह-परिकर्मवस्तुविनाशोपक्रमयोरभेद एव, उभयत्रापि पूर्वरूपपरित्यागेनोत्तरावस्थापत्तेरिति, अत्रोच्यते, परिकोपक्रमजनितोत्तररूपापत्तावपि अविशेषेण प्राणिनां प्रत्यभिज्ञानादिदर्शनात् वस्तुविनाशोपक्रमसंपादितोत्तरधर्मरूपे तु वस्तुन्यदर्शनात् विशेषसिद्धिरिति, अथर्यकत्र विनाशस्यैव विवक्षितत्वाददोषः। एवमचित्तद्रव्योपक्रमः पारागमणेः क्षारमृत्पुटपाकादिना वैमल्यापादनविनाशादीति । मिश्रद्रव्योपक्रमस्तु कटकादिविभूषितपुरुषादिद्रव्यस्यैवेति । विवक्षातश्च कारकयोजना द्रष्टव्या-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यात् द्रव्ये वोपक्रमो द्रव्योपक्रम इति । तथा क्षेत्रस्योपक्रमः क्षेत्रोपक्रमः, आह-क्षेत्रम-IN हमूतं नित्यं च, अतस्तस्य कथं करणविनाशाविति, उच्यते, तद्व्यवस्थितद्रव्यकरणविनाशभावादुपचारतः खल्वदोषः, तथा च तात्स्थ्यात्तब्धपदेशो युक्त एव, मश्चाः क्रोशन्तीति यथा । तथा कालस्य वर्तनादिरूपत्वात् द्रव्यपर्यायरूपत्वात द्रव्योपक्रम एवोपचारात् कालोपक्रम इति, चन्द्रोपरागादिपरिज्ञानलक्षणो वा । भावोपकमो द्विधा-आगमतो नोआ-IR गमतश्च, आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्तु प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति, तत्राप्रशस्तो डोण्डिणिगणिकाऽमात्यादीनां, E अनुक्रम % - OCCCHECK पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं -] विभागः१ आवश्यक- पत्थोदाहरणाणि-एगे नगरे एगा मरुगिणी, सा चिंतेति कह धूयाओ सुहियाओ होजत्ति, ताए जेठिया धूआ सि- हारिभद्री क्खाविआ जहा वरं इंतं मत्थए पहियाए आहणिजसि, तिाए आहतो, सो तुह्रो, पादं मदिउमारद्धो, णहु दुक्खा-IVायवृत्तिः |वित्ति, तीए मायाए कहियं, ताए भण्णति-जं करेहि तं करेहि, ण एस तुज्झ किंची अवरज्झइत्ति । बीया सिक्ख-181 विआ, तीएवि आहतो, सो झिंखित्ता उवसंतो, सा भणति-तुमंपि वीसत्था विहराहि, गवरं झिंखणओ एसुत्ति ।। तईया सिक्सविआ, तीएवि आहतो, सो रहो, तेण दढ पिद्रिता धाडिया यातं अकुलपुत्ती जा एवं करेसि, तीए11 हामायाए कथितं, पच्छा कहवि अणुगमिओ, एस अम्ह कुलधम्मोत्ति, धूआ य भणिआ जहा देवतस्स तस्स तहा8 | वट्टिजासि, मा छड्डेहित्ति ॥ एगम्मि नगरे चउसडिकलाकुसला गणिया, तीए परभावोवक्कमणनिमित्तं रतिघरमि सवाओ पगईओ णियणियवावार करेमाणीओ आलिहावियाओ, तत्थ य जो जो बहुइमाई, सो सो निययसिप पसंसति, णाय-1 RecCk36000- 6 मत्रोदाहरणानि-एकस्मिनगरे एका मामणी सा चिन्तयति-कथं दुहितरः मुखिताः भवेयुरिति, तथा पेष्ठा दुहिता शिक्षिता यथा वरमायान्त मस्त के पाणिना आहन्याः, तयाऽऽहतः, स तुष्टः, पादं मपितुमारब्धः नैव हासितेति, तया मात्रे कथितं, तया भण्यते-बकरु (विकीपसि)तस्कुरुx | मेष तब (त्वयि ) किञ्चिदपराध्यति इति । द्वितीया शिक्षिता, तयाऽपयाहतः स झिशिवा (प्रभाष्य) पशान्तः, सा भणति-त्वमपि विश्वस्ता विहर, परं शिक्रणका (प्रभाषकः) एपइति । ततीया शिक्षिता, तयाऽप्याइतः, सरुटा, तेन हर पिहिता निर्धारिता च, स्वमकलपुत्री बेवं करोपि. तथा मात्र कवित।४॥५५॥ पश्चात् कथमपि अनुनीता, एषः अस्माकं कुलधर्म इति, दुहिता च भणिता यथा दैवतस्य तथा तस्य वर्तेधाः, मा त्याक्षीत् इति ॥ एकस्मिन्नगरे चतुष्पष्टिकला शता गणिका, तया परभावोपक्रमणनिमित्र रतिगृहे सर्वाः प्रकृतयो निज निजव्यापार कुर्वत्य बालेसिताः, तत्र च यो यो वर्षक्यादिः, स स निजकं शिल्पं प्रशंसति, *बम्भिणी. + कि तपाहतो.1 एयस्स. इसत्तिमा.1 पुत्तिया हा प्रयत्स. | एड् प० 26 JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अप्रशस्त उपक्रमे ब्राहमण्या: एवं गणिकाया: द्रष्टांता:, ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं -] A+DERMIRECTORS भावो य सुअणुयत्तो भवइ, अणुयत्तिओ य उवयारं गाहिओ खद्धं खद्धं दबजातं वियरेइत्ति एसविअ अपसत्थो भावोवकमो॥ एगमि णगरे । कोई राया अस्सवाहणियाए सहामञ्चेणं निग्गओ, तत्थ से आसेण वचन्तेण खलिणे काईया | वोसिरिआ, खिलर बद्ध, तं च पुढवीए थिरत्तणओ तहडियं चेव रण्णा पडिनियत्तमाणेण सुइरं निज्झाइय, चिंतिय |च णेण-इह तलार्ग सोहणं हवइत्ति, न उण वुत्तं, अमच्चेण इंगियागारकुसलेण रायाणमणापुच्छिय महासरं खणावि चेव, पालीए आरामा से पवरा कया, तेणं कालेणं रण्णा पुणरवि अस्सवाणिआए गच्छंतेण दिह, भणियं च णेण ण /इम खणावि? अमञ्चेण भणि-राय! तुम्भेहिं चेव, कहिं चि?, अवलोयणाए, x अहियपरितुडेणं "संवगुणा*कया। एसविअ अप्पसत्थभावोवकमोत्ति ॥ उक्तः अप्रशस्तः, इदानी प्रशस्त उच्यते-तत्र श्रुतादिनिमित्तं आचार्यभा वोपक्रमः प्रशस्त इति, आह-व्याख्याङ्गप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानमनर्थकमिति, न, तस्यापि व्याख्यान C HOROSC १ ज्ञातभावश्च स्वनुवर्तनीयो भवति, अनुवृशश्च उपचार प्राहितः प्रचुरं प्रपुर इम्यजातं वितरतीति एषोऽपि चाप्रशस्तो सावोपक्रमः ॥ एकस्मिन्नगरे कधिद्वाजाऽश्ववाहनिकया सहामायेन निर्गतः, तन्न तस्याश्वेन बजता विषमभूमौ कायिकी (प्रश्रवणं) प्युरमष्टा, पवलं यई (जात), सच पृथव्याः स्थिरत्वात् तथास्थितमेव राज्ञा प्रतिनिवर्तमानेन सुधिरं नियति, चिन्तितं चानेन, बह तटाकः शोभनो भवति इति, न पुनरुक्त, समायेन इशिताकारकुशलेन राजानमनाथ महत्सरः खानितमेव, पाल्या आरामास्तख प्रवराः कृताः, तस्मिन्कार पुनरप्यश्ववाहनिकया गच्छता दृष्ट, मणितं चानेन केनेई खानितं, अमात्येन भणितं, राजन् ! धुष्माभिः, कयमेव, अवलोकनया, अधिकपरितुष्टेन संवर्धना कृता, पुषोऽपि चाप्रशस्तभावोपक्रम इति । + एसोवि. कोवि. 1 य. ना तेणे समपर्ण एवं. ४ काहिए. = संवद्रणा. ३ मापसस्थो भा० Swamiorary on पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | भावउपक्रमे एक राज्ञ: दृष्टांत: ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं [-] आवश्यक ॥ ५६ ॥ विभागः१ त्वात् , वर्क -" गुवोयत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वेऽपि । तस्माद्गुाराधनपरेण हितकाहिणा भाव्यम् ॥१॥"t| हारिभद्री तथा च भाष्यकारेणाप्यभ्यधायि-" गुरुचित्तायताई वक्खाणंगाई जेण सबाई । जेण पुण सुप्पसणं होइ तयं तं तहा| यवृत्तिः कज ॥१॥ आगारिंगियकुसलं जदि सेयं वायसं वए पुज्जा । तहविय सिं नवि कूडे विरहमि अ कारणं पुच्छे ॥२॥ णिवपुच्छिएण भणिओ गुरुणा गंगा कओमुही वहइ ? । संपाइयर्व सीसो जह तह सवत्थ काययं ॥३॥" इत्यादि ।। आह-ययेवं गुरुभावोपक्रम एवाभिधातव्यो न शेषाः, निष्प्रयोजनत्वात् , न, गुरुवित्तप्रसादनार्थमेव तेषामुपयोगित्वात् । तथा च देशकालावपेक्ष्य परिकर्मनाशौ द्रव्याणां उदकौदनादीनां आहारादिकार्येषु कुर्वन् विनेयो गुरोहरति चेत इति ।। अथवोपक्रमस्य साम्यात् प्रकृते निरुपयोगिनोऽपि अन्यत्र उपयोश्यन्त इत्युपन्यस्तत्वाददोष इत्यलं विस्तरेण । उक्त इतर इदानी शास्त्रीय उच्यते-असावपिपड़िध एव, तद्यथा-आनुपूर्वी १ नाम २ प्रमाणं ३ वक्तव्यता ४ अर्थाधिकारः ५ समवतार ६ इति । तत्रानुपूर्वी नामस्थापनीद्रव्यक्षेत्रकालगणनोत्कीर्तनसंस्थानसामाचारीभविभेदभिक्षा दशप्रकारा, तस्यां। यथासंभवतः समवतारणीयमिदं, विशेषतस्तूत्कीनगणनानुपूर्वीद्वय इति, उत्कीर्तना-संशब्दना यथा-सामायिक | गुरुचिचायनानि, व्याख्यानामानि येन सर्वाणि । येन पुनः सुभसनं भवति तत् तत्तथा कार्यम् । 11 आकारेजितमा यदि मोतं पावसं बबुः ॥५६॥ पण्याः । तथापि च तस्य (बचन ) मैच कूटयेत् , विरहे च कारणं पृच्छेत् । ३ । नूपपृष्ठेन भणितो गुरुणा मशा कुतोमुखी क्यति । । संपादितवान् शिष्यो यथा वया सर्वत्र कार्यम् ।। विशेषावश्यके गायाः ९३३-२३३-२३४) २ जव्याधुपकमाः सविचाचिचापकमा पा (क्षेत्रस्योपानयारेश्योपनादिना काय मुहावः शिष्यदीक्षादौ घटिकाविना वियो) * कुसका + समाचारी. पचासंभवं. T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | उपक्रमस्य आनुपुर्वी आदि षड्भेदानाम् वर्णनं ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཡྻ सूत्रांक [-] अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ७९ ], भाष्यं [-] चतुर्विंशतिस्तव इत्यादि, गणनं परिसंख्यानं एकं द्वे त्रीणि चत्वारीत्यादि, सा च गणनानुपूर्वी त्रिप्रकारा पूर्वपश्चादनानुपूर्वीभेदभिन्ना, तत्र सामायिकं पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पश्चानुपूर्व्या पर्छ, अनानुपूर्व्या त्वनियतं कचित्प्रथमं क्वचिद्वितीयं इत्यादि । तत्रानानुपूर्वीणामयं करणोपायः एकाधेकोत्तरा विवक्षितपदानां स्थापना क्रियते, तत्र पदत्रयस्थापनैव तावत्संक्षेपतः प्रदर्श्यते - सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवः वन्दनाध्ययनमिति । अत्र 'पुवोणुपुषि हेडा, समयाभेएण कुण जहाजे । उवरिमतुलं पुरओ नसेज पुत्रकमो सेंसे ॥१॥ जहितंमिनिक्खित्ते पुरओ सो चेव अंकविण्णासो । सो होइ समयभेदो वज्जेयवो पयत्तेणं ॥ २ ॥ भावना क्षुण्णत्वान्न प्रतन्यते, नवरमागतंत्रयाणामेतेषां षडङ्गा भवन्ति, अतश्चतस्रः खल्वनानुपूर्व्य इति । पण्णां तु पदानां सप्तविंशत्युत्तराणि भङ्गकशतानि अत्रापि सप्ताष्टादशोत्तराणि अनानुपूर्व्यं इति । इदानीं नाम - प्रतिवस्तु नमनान्नाम, तचैकादि दशान्तं यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा च वक्तव्यं, पडूनानि त्ववतारः, तत्र षड् भावा औदयिकादयो निरूप्यन्ते, तुम क्षायोपशमिक एव सर्वश्रुतावतारः, तस्य क्षायोपशमिकत्वादिति । तथा प्रमाणं- द्रव्यादि प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं च प्रमेयभेदादेव चतुरूपं तद्यथा - द्रव्यप्रमाणं १ क्षेत्रप्रमाणं २ कालप्रमाणं ३ भावप्रमाणं च ४ तत्र सामायिकं भावात्मकत्वाद् भावप्रमाणविषयं तच्च भावप्रमाणं त्रिधा - गुणनयपूर्वानुपूर्वी (आदी) वधः समया (संकेता ) भेदेन कुरु यथाज्येष्ठम् । उपरितुल्यं पुरतः म्यस्येत् पूर्वं (पूर्वानुपूर्वी ) क्रमः शेषे ( पश्चात् ) । । यस्मिनिक्षिसे पुरतः स एव अविन्यासः । स भवति समयभेदः वजेवितथ्यः प्रयत्वेन २ (अनुयोगद्वारेषु व्यामानयनाय कर० + सेसो. पदपदानामभ्योऽन्याभ्यासेन. For Funny पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 123~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं -] (४०) आवश्यक- ॥ ५७॥ T༔ ༔ Tཤྩ བླ संख्याभेदभिन्नं, तत्र गुणप्रमाणमपि द्विधा-जीवगुणप्रमाणमजीवगुणप्रमाणं च, तत्र जीवादपृथग्भूतत्वात् सामायि-1 हारिभद्रीकस्य जीवगुणप्रमाणे समवतारः, तदपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदभिन्नं, तत्र बोधात्मकत्वात्सामायिकस्य ज्ञानगुणप्रमाणे सम-8 यवृत्तिः वतारः, तदपि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदभिन्नं, तत्र सामायिकस्य प्रायः परोपदेशसव्यपेक्षत्वादागमे समवतारः, सच विभागः१ लौकिकलोकोत्तरसूत्रार्थोभयात्मानन्तरपरम्पराभेदभिन्न इति, तत्र सामायिकस्य परमर्षिग्रणीतगणिपिटकान्तर्गतत्वात् लोकोत्तरे समवतार, सूत्रार्थरूपत्वाच्च तदुभय इति, तथेदं गौतमादीनां सूत्रत आत्मागमः, तच्छिष्याणां जम्बूस्वामिप्रभृतीनां अनन्तरागमः, प्रशिष्याणां तु प्रभवादीनां परम्परागम इति, एवमर्थतोऽर्हतामात्मागमः गणधराणामनन्तरागमः तच्छिप्याणां तु परम्परागम इति । नयप्रमाणे तु मूढनयत्वात्तस्य नाधुनाऽवतार इति, वक्ष्यति च-" मूढणइयं सुयं कालियं तु' इत्यादि संख्या नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालौपम्यपरिमाणभावभेदभिन्ना, यथाऽनुयोगद्वारेषु तथा वक्तव्या, तत्रोत्कालिंकादिश्रुतपरिमाणसंख्यायां समवतारः, तत्र सूत्रत्तः सामायिक परिमितपरिमाणं, अर्थतोऽनन्तपर्यायवादपरिमितपरिमाणमिति । इदानीं वक्तव्यता-सा च त्रिविधा-स्वसमयवक्तव्यता १ परसमयवक्तव्यता २ उभयसमयवक्तव्यता ३ चेति । स्वसमय:-स्वसिद्धान्तः, वक्तव्यता-पदार्थविचारः, तत्र स्वसमयवक्तव्यताया 1-५७॥ १ नामस्थापनाइम्पीपम्पपरिमाणज्ञानगणनभावभेदाद् अनुयोगेषु यत्सूत्रम्-से किं तं संखप्पमाणे ? संख० अडविहे पण्णते, संजहा-नामसंसा ठवणासंखा दावसंखा ओबम्मसंखा परिमाणसंखा जागणासंखा गणणासंखा भावसंखा-इह संख्षाशवेन संख्यापासपोहणं इष्टव्यं प्राकृतमधिकृत्य (अनु. ५४९) म्पर+लिकक्षु. AAI X JAMEai rajaniorary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [– / गाथा-], निर्युक्ति: [ ७९ ], भाष्यं [-] मस्य समवतारः, एवं परोभयसमयप्रतिपादकाध्ययनानामपि, यतः सर्वमेव सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं परसमयसंवन्ध्यपि सम्यक् श्रुतमेव तस्य स्वसमयोपकारकत्वादिति । इदानीमर्थाधिकारः, स चाध्ययनसमुदायार्थः, स्वसमयवक्तव्य तैकदेशः, स च सर्वसावद्ययोगविरतिरूपः । इदानीं समवतारः, स च लाघवार्थ प्रतिद्वारं समवतारणाद्वारेण प्रदर्शित एव । उक्त उपक्रमः, इदानीं निक्षेपः, स च त्रिधा ओघनिष्पन्नो १ नामनिष्पन्नः २ सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति ३ । तत्र ओघो नाम यत् सामान्यं शास्त्राभिधानं तच्चेह चतुर्विधमध्ययनादि, पुनः प्रत्येकं नामादिचतुर्भेदमनुयोगद्वारानुसारतः प्रप| श्वेनाभिधाय भावाध्ययनाक्षीणादिषु सामायिकमायोज्यं । नामनिष्पन्ने निक्षेपे सामायिकं तच्च नामादिचतुर्विधं, इदं च निरुक्तिद्वारे सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तौ च प्रपश्शेन वक्ष्यामः, आह-यदि तदिह नाम अवसरप्राप्तं किमिति निरुक्त्या - दावस्य स्वरूपप्रतिपादनं, तत्र चेत्स्वरूपाभिधानमस्य हन्त इहोपन्यासः किमिति, अत्रोच्यते, इह निक्षेपद्वारे निक्षेपमात्रस्यैवावसरः, निरुक्तौ तु तदन्वाख्यानस्येति, आह— इत्थमपि निरुक्तिद्वारे एवं सामायिकव्याख्यानतः किं पुनः सूत्रेऽभिधीयते इति उच्यते, तत्र हि सूत्रालापकव्याख्यानं, न तु नाम्नः, निरुक्तौ तु निक्षेपद्वारन्यस्तं सामायिकमित्यध्ययनाभिधानं निरूप्यते, अलं प्रपञ्चेन, उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, इदानीं सूत्रालापक निष्पन्नस्य निक्षेपस्यावसरः, स च प्राप्तलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् ?, सूत्राभावात्, असति च सूत्रे कस्यालापकनिक्षेप इति, अतोऽस्ति इतः तृतीय१ आदिनाऽक्षीणाक्षपणाग्रहणं 'झयणं अकुलीनं आभी झवणा य पत्तेयं' ति वचनात् २ उपोद्घातनिर्युक्त २ इतः परं. ०कारित्वात्+सायच प्रसङ्गेन. For Fans Only www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः अथ निक्षेपस्य वर्णनं क्रियते ~125~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [७९], भाष्यं -1 आवश्यक ॥५८ ॥ मनुयोगद्वारमनुगमाख्यं, तत्रैव निक्षेप्स्यामः । आह-यदि प्राप्तावसरोऽप्यसांविह न निक्षिप्यते किमित्युपेन्यस्यते ||हारिभदीइति, उच्यते, निक्षेपसामान्यात् इह प्रदर्यत एव, न तु प्रतन्यते इति । इदानीमनुगमावसरः, स च द्विधा-निर्युक्त्य- Il यवृत्तिः नुगमः सूत्रानुगमश्च, निर्युक्त्यनुगमस्त्रिप्रकारः, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगम उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रसर्शिक-IIविभागः१ निर्युक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगत एव, यदधो नामादिन्यासान्याख्यान मुक्तमिति । इदानीमुपोद्घात-18 नियुक्त्यनुगमप्रस्तावः, स च उद्देशादिद्वारलक्षण इति, अस्य च महार्थत्वान्मा भूद्विघ्न इति आरम्भे मङ्गलमुच्यते। आहननु मङ्गलं प्रागेयोक्तं, भूयः किं तेन ?, अथ कृतमङ्गलैरपि पुनरभिधीयते, इत्थं तर्हि प्रतिद्वारं प्रत्यध्ययन प्रतिसूत्रं च वक्तव्यमिति । अत्राह कश्चित्-मङ्गलं हि शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने चेति प्रतिपादितं, तत्रादिमङ्गलमुक्तं, इदानीं मायमङ्गलमुच्यते, तन्न, अनारब्ध एव शास्त्रे कुतोमध्यावकाश इति, स्यादेतत् , चतुरनुयोगद्वारात्मकं यतः शाखें, अतोऽनुयोगद्वारद्वये ह्यतिक्रान्ते मध्यमङ्गलं, अत एव चानुयोगद्वाराणां शास्त्राङ्गतेति, नन्वेवमपि इदं शास्त्रमध्यं न भवति, अध्ययनमध्यत्वात् , शास्त्रमध्ये च मध्यमङ्गलावसर इति, तस्माद् यत्किश्चिदेतत् , ततश्चायं स्थितपक्षः-इह | यदादौ मङ्गलं प्रतिपादितं तदावश्यकादिमङ्गल, इदं तु नावश्यकमात्रस्य, सर्वानुयोगोपोद्घातनियुक्तित्वात् प्रक्रान्तोपोद्घातस्य, वक्ष्यति च-" आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे । 'सूयगडे निजुत्ती, वोच्छामि तहा दसाणं आवश्यकसामाविकादीनां न्यासास्थानात निक्षेपस्थाने नाना कीर्तनमत्र तु व्याख्यान मिति. २ मावश्यकस्य दशकालिकस्य तथा उत्तराभ्याथ [भाचारे । सूत्रकृते निथुकिं वक्ष्यामि तथा दशाश्रुतस्कन्धस्स च।* नस्विस्थमपि. + स्थितिपक्षः स्थितः पक्षः सुतगडे मिति. का॥५८ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཡྻ सूत्रांक [-] अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [ - / गाथा - ], निर्युक्ति: [ ७९ ], भाष्यं [-] " च ॥ १ ॥ इत्यादि, तथा " सेसेसुवि अज्झयणेसु, होइ एसेव निज्जुती " चतुर्विंशतिस्तवादिष्विति वक्ष्यति, अतो महार्थत्वात् कथञ्चित् शास्त्रान्तरस्याच्चास्यारम्भे मङ्गलोपन्यासो युक्त एवेति, आह- सामायिकान्वाख्यानेऽधिकृते को हि दशवेकालिकादीनां प्रस्ताव इति, अत्रोच्यते, उपोद्घातसामान्यात् यतस्तेशमपि प्रायः खस्वयमेवोपोद्घात इति, अलं प्रपञ्चेन तच्चेदं मङ्गलम् - तित्थयरे भगवंते, अणुत्तरपरकमे अभियनाणी । तिष्णे सुगइगइगए, सिद्धिपहपदेसए वंदे ॥ ८० ॥ गमनिका - तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः तान् वन्द इति योगः, तत्र 'द प्लवनतरणयोः' इत्यस्य 'पातुविचिसिचिरिचिभ्यस्थग् ( उणादौ पा० २-१७२ ) इति । थक्प्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते ' ऋत इद्वा धातोः (पा० ७-१-१००) इति इवे रपरस्त्रे हलि चेति दीर्घत्वे परगमे च तीर्थ इति स्थिते ' डुकृञ् करणे ' इत्यस्य ' चरेष्टः' (पा० ३-२-१६ ) इत्यस्मात् सूत्रात् प्रत्ययाधिकारेऽनुवर्त्तमाने 'कृञो हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु' ( पा० ३-२-२० ) इतिटप्रत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते गुणे रपरत्वे परगमने च तीर्थकर इति भवति । तत्र तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ, तच्च नामादिचतुर्भेदभिन्नं तत्र नोआगमतो द्रव्यतीर्थ नद्यादीनां समो भूभागोऽनपायश्च तत्सिद्धौ तरिता तरणं तरणीयं च सिद्धं पुरुषबाहू हुपनद्यादि, द्रव्यता चास्येत्थं तीर्णस्यापि पुनस्तरणीयभावात्, अनेकान्तिकत्वात्, स्नानविवक्षायां च बाह्यमलापनयनात् आन्तरस्य ३ शेषेष्वपि अध्ययनेषु भवत्येवैव नियुक्तिः (नियुक्ती) २ अनायन्तिकत्वात् * यपि + स्याच्छास्त्राप्रसङ्गेन प्रत्ययो ऽनु० Education intemational For Parts Only wwwjanbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः मङ्गलार्थे तिर्थकर आदीनाम् वन्दनं एवं तिर्थकरादि शब्दानाम् व्याख्या: ~ 127 ~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [८०], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक-माणातिपातादिकारणपूर्वकत्वात , तस्य च तद्विनिवृत्तिमन्तरेणोत्पत्तिनिरोधाभावात् , प्रागुपात्तस्य च विशिष्ट क्रियास- हारिभद्री व्यपेक्षाध्यवसायजन्यस्य तत्प्रत्येनीकक्रियासहगताध्यवसायतः क्षयोपपत्तेः, तत्क्षयाभावे च भावतो भवतरणानुपपत्तेरिति । यवृत्तिः ॥ ५९॥ भावतीर्थं तु नोआगमतः संघः, सम्यग्दर्शनादिपरिणामानन्यत्वात्, यत उक्त-"तिध भंते ! तिथं! तित्थकरे विभागः१ तित्थं?, गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थयरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो, पढमगणहरो वा "तरिता तु तद्विशेष एव साधुः, तथा सम्यग्दर्शनादित्रयं करणभावापन्नं तरणं, तरणीयो भवोदधिरिति । अथवा-पङ्कदाहपिपासा-1 नामपहारं करोति यत् । तद्धर्मसाधनं तथ्य, तीर्थमित्युच्यते बुधैः ॥१॥ पस्तावत् पापं, दाहः कषायाः, पिपासा विषयेच्छा, एतेषामपहरणसमर्थ यदित्यर्थः, अथवा सुखावतारं सुखोत्तारं १ सुखावतारं दुरुत्तारं २ दुःखावतारं सुखोत्तारं ३ दुःखीवतारं दुरुत्तार ४ मिति द्रव्यभावतीर्थ द्रष्टव्यं, तच्च सरजस्कशाक्यबोटिकसाधुसंवन्धि विज्ञेयं, अलं प्रसङ्गेन । तथा भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याध प्रयत्नस्य, पिण्णां भग इतना ॥१॥" ततश्च समप्रैश्वर्यादिभगयोगाद्भगवन्तोऽहन्त इति तान् भगवतः । आह-तीर्थकरा ॥५९।। मान्तरम. २ अभ्यन्तरमलख. प्राणातिपातादिकात. मिथ्यात्वादिलक्षण.५ सम्यग्दर्शनानुसारिणी, आन्तरकर्ममलक्षयाभावे. • सच्चतः। भवतारणा. ८ तस्थाइमयं सरसाणं ॥ ११ ॥ तचनियाणं बीयं विसयमुहकुसस्थभावणाधनि । तवं च बोडियाण परिमं जहणं सिवफलं तु॥१० (विशे०) तीर्थ भदन्त ! तीर्थ तीर्थकरतीर्थम् ?, गौतम! आईन् तावनियमातीर्थकरः तीये पुनः चतुवर्णः श्रमणसङ्घः प्रथमगणधरो वा । १० औवाः दिगम्बराः १२ जैनसाधवः १३ अमिण्या.* तक्षयाभावतो. + भवता. मितीय. Surajanmorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०], भाष्यं [-] CI नित्यनेनैव 'भगवत' इत्यस्य गतार्थत्वात् तीर्थकृतामुक्तलक्षणभगाव्यभिचारात् नार्थोऽनेनेति, न, नयमतान्तरावलम्बिपरिकल्पिततीर्थकरतिरस्कारपरत्वादस्पेति, तथा च न तेऽविकलभगवन्तः, तान् भगवतो, वन्द इति क्रिया सर्वत्र योज्या । तथा परे-शत्रवः, ते च क्रोधाद्याः, आक्रमणमाक्रमः-पराजयः तदुच्छेद इतियावत्, परेषामाक्रमः पराक्रमः, है सोऽनुत्तर:-अनन्यसदृशो येषां ते तथाविधाः । आह-ये खलु ऐश्वर्यादिभगवन्तः तेऽनुत्तरपराक्रमा एव, तमन्तरेण विवशक्षितभगयोगाभावात् , ततश्च 'अनुत्तरपराक्रमान्' इत्येतदतिरिच्यते इति, अत्रोच्यते, अनादिशुद्धैश्वर्या दिसमन्वितपर-IN मपुरुषप्रतिपादनपरनयवादनिराकरणार्थत्वाद् न दोषः, तथा चानुत्तरपराक्रमत्वमन्तरेणैव कैश्चित् हिरण्यगर्भादीनाम|नादिविवक्षितभगयोगोऽभ्युपगम्यत इति, उक्तं च-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्य चैव धर्मश्च, सह|सिद्ध चतुष्टयम् ॥१॥" इत्यादि, अकात्मवादब्यवच्छेदार्थ वा । अमितं-अपरिमितं ज्ञेयानन्तत्वात् केवलं, अमितं | ज्ञानं एषामित्यमित ज्ञानिनः । आह-येऽनुत्तरपराक्रमास्तेऽमितज्ञानिन एव नियमेन, क्रोधादिपरिक्षयोत्तरकालभावि-14 वाद्अमितज्ञानस्येति, उच्यते, सत्यमेतत् , किंतु केशक्षयेऽप्यमितज्ञानानभ्युपगमप्रधानन्यवादनिरासार्थत्वाद् उपन्यास इति, तथा चाहुरेके-" सर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थं तु पश्यतु । कीटसज्ञवापरिज्ञानं, तस्य नः क्वोपयुज्यते ? ॥१॥ इत्यादि", स्वसिद्धान्तप्रसिद्धच्छास्थवीतरागव्यवच्छेदार्थ वा । तथा तरन्ति स्म भवार्णवमिति तीस्तान तीर्णान् , तीत्वा च भवौघं 'सुगतिगतिगतान्' तत्र सर्वज्ञत्वात्सर्वदर्शित्वाच निरुपमसुखभागिनः सुगतयः-सिद्धाः, तेषां । अविकलभगवत इति. सिदैश्व० + दिक्षयो० JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८०], भाष्यं -] T༔ ༔ Tཤྩ བླ आवश्यक- गतिः सुगतिगतिः, अनेन तिर्यङ्नरनारकामरगतिव्यवच्छेदेन पञ्चमीमोक्षगतिमाह, तां गताः-प्राप्ताः तान् , अनेन । हारिभद्री चावाप्ताणिमाद्यष्टविधैश्वर्यस्वेच्छाविलसनशीलपुरुषतीर्णत्वप्रतिपादनपरनयवादव्यवच्छेदमाह, तथा च केचिदाहुः- नायवृत्तिः ।। ६०॥ | "अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥ इत्यादि" तथा सिद्धेः विभागः१ तस्या एव सुगतेः पन्थाः सिद्धिपथः तस्य प्रधाना देशकाः तद्वीजभूतसामायिकादिप्रतिपादकत्वात् प्रदेशकाः, अनेन वनवद्यानेकसत्त्वोपकारकतीर्थकरनामकर्मविपाकपरिणामवत् तत्स्वरूपमेवाह , तान् 'वन्दे अभिवादये इतिगाथार्थः ॥८॥ दाएवं तावदविशेषेण ऋषभादीनां महालार्थं वन्दनमुक्त, इदानी आसन्नोपकारित्वात् वर्तमानतीर्थाधिपतेः अखिल श्रुतज्ञा-IG नार्थप्रदर्शकस्य वर्धमानस्वामिनो वन्दनमाहखंदामि महाभाग, महामुर्णि महायसं महावीरं । अमरनररायमहिलं, तित्थयरमिमस्स तित्थस्स ॥८॥ व्याख्या-तत्र वन्दामीत्यादि दीपकं अशेषोत्तरपदानुयायि द्रष्टव्यं । तत्र भागः-अचिन्त्या शक्तिः, महान् भागोऽस्येति महाभागः तं, तथा मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः सर्वज्ञत्वात् , महाँश्वासी मुनिश्च महामुनिः तं, त्रैलोक्यव्यापित्वात् महद्यशोऽस्येति महायशाः तं, 'महावीर' इत्यभिधानं, अथवा 'शूर वीर विक्रान्तौ' इति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीरः, अत्यन्तानुरक्तकेवलामलश्रिया विराजत इति वा वीरः, उक्तं च-"विदारयति X ६०॥ यत्कर्म, तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः॥१॥" अमराश्च नराश्च अमरनरास्तेषां राजानः मस्यं महोपकारकं च वन्दे (विशेष वृत्तौ ) * कर. + अनन्यानुरक्त SALACKMARK FO पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | विशेषणपूर्वक भगवत् महावीरस्य वंदना ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८१], भाष्यं [-] C इन्द्रचक्रवर्तिप्रभृतयः तैर्महितः पूजितः तं, तीथर्करै 'अस्य वर्त्तमानकालावस्थायिनः तीर्थस्य इति गाथार्थः ॥८॥ एवं तावदर्थवर्मङ्गलार्थ वन्दनमभिहितं, इदानीं सूत्रकर्तप्रभृतीनामपि पूज्यत्वात् वन्दनमाह इकारसवि गणहरे पवायए पवयणस्स चंदामि । सव्वं गणहरवंसं वायगवंसं पक्ष्यणं च ।। ८२॥ व्याख्या-'एकादश' इति संख्यावाचकः शब्दः, 'अपि' समुच्चये, अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयन्तीति गणधरास्तान्, प्रकर्षण प्रधाना आदौ वा वाचकाः प्रवाचकाः तान् , कस्य ?-'प्रवचनस्य आगमस्येत्यर्थः, किं ?-चंदामि, एवं तावन्मूलगणधरवन्दनं, तथा 'सर्व' निरवशेष, गणधरा:-आचार्यास्तेषां वंशः-प्रवाहस्तं, तथा वाचका-उपाध्यायास्तेषां |वंशस्तं, तथा 'प्रवचनं च' आगमं च, वन्द इति योगः। आह-इह वंशद्वयस्य प्रवचनस्य च कथं वन्द्यतेति, उच्यते, यथा अर्धवक्ता अर्हन वन्धः, सूत्रवक्तारश्च गणधराः, एवं यैरिदमर्थसूत्ररूपं प्रवचनं आचार्योपाध्यायैरानीतं, तद्वंशोsप्यानयनद्वारेणोपकारित्वात् वन्द्य एवेति, प्रवचनं तु साक्षात्त्यैवोपकारित्वादेव चन्द्यमिति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ इदानीं प्रकृतमुपदर्शयन्नाहते चंदिऊण सिरसा अत्यपुटुत्तस्स तेहि कहियस्स । सुयनाणस्स भगवओ निज्जुतिं कित्तइस्सामि ॥८॥ व्याख्या-'तान्' अनन्तरोक्तान तीर्थकरादीन् 'वन्दित्वा प्रणम्य 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन, किम् ?-नियुकिं कीर्तयिष्ये। कस्य !-'अ)पृथक्त्वस्य तत्र श्रुताभिधेयोऽर्थः तस्मात् सूत्रं पृथक् तदोवः पृथक्त्वं च अर्थश्च पृथक्त्वं चेति एकव चान्ने गिज उभयपदभावान. २ तदेव पृथक्त्वमिति विशे मलयगिरीयायां च. * बन्दे. ANCERICANSAR R T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: गणधर-वंदना एवं नियुक्तिरचना-प्रतिज्ञा ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८३], भाष्यं [-] ६१।। दावः, अर्थेन वा पृथु अर्थपृथु तद्भावः अर्थपृथुत्वं श्रुतविशेषणमेव तस्य, 'तैः' तीर्थकरगणधरादिभिः 'कथितस्य' प्रति- हारिभद्रीपादितस्य, कस्य -श्रुत ज्ञानस्य भगवतः, स्वरूपाभिधानमेतत्, सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं नियुक्तिः तां 'कीर्त-II | यवृत्तिः यिष्ये प्रतिपादयिष्ये इति गाथार्थः ॥ ८३ ॥ आह-किमशेषश्रुतज्ञानस्य, न, किं तर्हि , श्रुतविशेषाणामावश्यका- विभागः१ दीनामिति, अत एवाह आवस्सगस्स दसकालिअस्स तह उत्तरज्झमायारे । सूयगडे निजुर्ति बुच्छामि तहा दसाणं च ॥ ८४ ॥ कप्पस्स य निज्जुर्ति ववहारस्सेव परमणिउणस्स । मूरिअपण्णत्तीए बुच्छं इसिभासिआणं च ॥ ८५॥ एतेसिं नितिं बुच्छामि अहं जिणोवएसेणं । आहरणहेउकारणपयनिवहमिणं समासेणं ॥८६॥ आसां गमनिका-आवश्यकस्य दशवैकालिकस्य तथोत्तराध्ययनाचारयोः समुदायशब्दानामवयवे वृत्तिदर्शनादू यथा भीमसेनः सेन इति उत्तराध्य इति उत्तराध्ययनमवसेयं, अथवाऽध्ययनमध्यायः, उत्तराध्यायाचारयोः, सूत्रकृतविषयां नियुकिं वक्ष्ये, तथा दशानां च संबन्धिनीमिति गाथार्थः॥८४ ॥ तथा कल्पस्य च नियुक्ति व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य, तत्र परमग्रहणं मोक्षाङ्गत्वात् निपुणग्रहणं त्वयंसकत्वात् , तथा च न मन्वादिप्रणीतव्यवहारवयंसकोऽयं, "सच्चपइण्णा खु ववहारा" इति वचनात् , तथा सूर्यप्रज्ञप्तेः वक्ष्ये, ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवादीनां नियुक्ति, क्रियाभिधानं | चानेकशः ग्रन्थान्तरविषयत्वात् समासव्यासरूपत्वाच शास्त्रारम्भस्य अदुष्टमेवेति गाथार्थः।1८५ ॥ एतेषां श्रुतविशे १ संज्ञाऽप्येषा श्रुत्तस्येति वि०. SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८६], भाष्यं [-] प्रत सूत्रांक +40-56 + पाणां, नियुक्किं वक्ष्ये अहं जिनोपदेशेन, न तु स्वमनीषिकयैव, आहरणहेतुकारणपदनिवहां एतां समासेन, तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमाहरणं दृष्टान्त इतियावत् , साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकल क्षणो हेतुः, हेतुमुलकच प्रथम दृष्टान्ता|भिधानं न्यायप्रदर्शनार्थ-कचि तुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यते इति, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धर्मास्तिकायः, मत्स्यादीनां सलिलवत्, तथा कचिद्धेतुरेव केवलोऽभिधीयते, न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वः विशिष्टचिहोपलमध्यन्यथानुपपत्तेः, तथा चाभ्यधायि नियुक्तिकारेण-"जिणयणं सिद्ध चेव भण्णई कस्थवी उदाहरण । आसज्ज उ सोयारं हेजवि, कहंचिय भणेजा ॥१॥ इत्यादि" । कारणमुपपत्तिमात्र, यथा निरुपमसुखः सिद्धः, ज्ञानानाबाधप्रकर्षात् , नात्र आविद्वदङ्गानादिलोकप्रतीतः साध्यसाधनधर्मानुगतो दृष्टान्तोऽस्ति, तत्राहरणार्थाभिधायक पदमाहरणपदं, एवमन्यत्रापि भावनीयं । आहरणं च हेतुश्च कारणं च आहरणहेतुकारणानि तेषां पदानि आहरणहेतुकारणपदानि तेषां निवहः-संघातो यस्यां नियुक्ती सा तथाविधा तो 'एतां वक्ष्यमाणलक्षणां अथवा प्रस्तुतां 'समासेना संक्षेपेणेति व्याख्यातं गाथात्रयमिति ॥८६॥ तत्र 'यथोद्देशस्तथा निर्देश' इति न्यायात् आदावधिकृताऽऽवश्यकाद्या ध्ययनसामायिकाख्योपोदूधातनियुक्तिमभिधित्सुराह सामाइयनिजुर्ति चुच्छ उवएसियं गुरुजणेणं । आयरियपरंपरएण आगयं आणुपुच्चीए ॥ ८७॥ व्याख्या सामायिकस्य नियुक्तिः सामायिकनियुक्ति तां 'वक्ष्ये' अभिधास्ये, उप-सामीप्येन देशिता उपदेशिता तां, 1 जिनवचनं सिबमेव भण्यते कुत्रापि उदाहरणम् । आसाथ तु श्रोतारं हेनुमपि कचिद् भणेत् ॥ १॥ * कहिवि. + तथा तत्रोदा. बिध्ययन, अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अथ सामायिकस्य नियुक्ति: कथ्यते ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [ दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [८७], भाष्यं [-] ।। ६२ ।। आवश्यक - केन ?–'गुरुजनेन' तीर्थकरगणधरलक्षणेन, पुनरुपदेशनकालादारभ्य आचार्यपारम्पर्येण आगतां, स च परम्परको हारिभद्रीद्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यपरम्परक इष्टकानां पुरुषपारम्पर्येणानयनं, अत्र चासंमोहार्थं कथानकं गाथाविवरणस- * यवृत्तिः विभागः १ माप्तौ वक्ष्यामः, भावपरम्परकस्त्वियमेव उपोद्घातनिर्युक्तिरेव आचार्यपारम्पर्येणागतेति, कथम् १, 'आनुपूर्व्या' परिपाव्या जम्बूस्वामिनः प्रभवेनानीता, ततोऽपि शय्यम्भवादिभिरिति, अथवा आचार्यपारम्पर्येण आगतां स्वगुरुभिरुपदेशिता- ४ मिति । आह-द्रव्यस्य इष्टकालक्षणस्य युक्तं पारम्पर्येण आगमनं, भावस्य तु श्रुतपर्यायत्वात् वस्वन्तरसंक्रमणाभावात् पारम्पर्येणागमनानुपपत्तिरिति, न च तद्वीजभूतस्य अद्गणधर शब्दस्यागमनमस्ति, तस्य श्रुत्यनन्तरमेवोपरमादिति, अत्रोच्यते, उपचाराददोषः, यथा कार्षापणाद् घृतमागतं घटादिभ्यो वा रूपादिविज्ञानमिति । एवमियमाचार्यपारम्पर्यहेतुत्वात् तत आगतेत्युच्यते, आगतेवागता, बोधवचनश्चायमागतशब्दो न गमिः क्रियावचन इति, अलं विस्तरेण । दक्षपरंपरए इ उदाहरणं साकेयं णगरं, तस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे सुरपिए नाम जक्वाययणे, सो य सुरपिओ जक्खो सन्नि हियपाडिहेरो, सो वरिसे बरिसे चित्तिज्जइ, महो य से परमो कीरइ, सो य चित्तिओ समाणो तं चैव चित्तकरं मारेइ, 1 झुम्यपरम्परके इदमुदाहरणम् -साकेतं नगरं तस्य उत्तरपौरस्त्ये ( ईशान कोणे ) दिग्भागे सुरप्रियं नाम यज्ञायतनं, स च सुरप्रियो यक्षः (प्रतिमारूपः ) सनिहितप्रातिहार्थः, स वर्षे वर्षे चित्र्यते महल तस्य परमः क्रियते स च चित्रितः सन् तमेव चित्रकरं मारयति, *नेदम् (कश्चित् ) + न दोष: + गति०. Education intemational For Funny ।। ६२ ।। पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः द्रव्यपरम्पराए चित्रकारस्य दृष्टांत: ~ 134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H [भाग-२८] “आवश्यक मूलसूत्र- १/१ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-1, मूलं [- /गाथा-], निर्मुक्तिः (८७), भाष्यं [-] - अहे न चित्तिखाइ तओ जणमारिं करेइ, ततो चित्तगरा सबै पलाइउमारद्धा, पच्छा रण्णा णायं, जदि सबै पलायंति, तो एस जक्खो अचित्तिजंतो अम्ह बहाए भविस्सइ, तेणं चित्तगरा एकसंकलितबद्धा पाडुहुऐंहिं कया, तेसिं णामाई पत्त लिहिऊण घडए छूढाणि, ततो वरिसे वरिसे जस्स णामं उट्ठाति, तेण चित्तेययो, एवं कालो वच्चति । अण्णया कथाई कोसंबीओ चित्तगरदारओ घराओ पलाइओ तत्थागओ सिक्खगो, सो भर्मतो साकेतस्स चित्तगरस्स घरं अलीणो, सोवि एगपुत्तगो थेरीपुत्तो, सो से तस्स मित्तो जातो, एवं तस्स तत्थ अच्छंतस्स अह तंमि वरिसे तस्स थेरीपुत्तस्स वारओ जातो, पच्छा सा थेरी बहुप्पगारं रुवति तं रुवमाणीं थेरीं दट्टण कोसंगको भणति किं अम्मो ! रुदसि १, ताए सिद्धं, सो भणति मा रुयह, अहं एयं जक्खं चित्तिस्सामि, ताहे सा भणति तुमं मे पुत्तो किं न भवसि ?, तोवि अहं चिचेमि, अच्छह तुम्भे असोगाओ, ततो भत्तं कारण अहतं वत्थजुअलं परिहित्ता अडगुणाए पोतीए मुहं बंधिऊण चोक्खेण यपत्तेण सुइभूषण णवएहिं कलसएहिं ण्हाणेत्ता णवएहिं कुंएहिं णवएहिं मल संपुडेहिं अले सेहिं वण्णेहिं च चित्तेऊण पायव Education into १ अथ न चिम्यते तदा जनमारिं करोति तत्तचित्रकराः सर्वे पलायितुमारब्धाः पखाद्वाशा ज्ञातं यदि सर्वे पलायिष्यन्ते तर्हि एष यक्षोऽचित्र्यमाणः अस्माकं बधाय भविष्यति, तेन चित्रकश एकश्राद्धा प्रतिभूः (पारितोषिकैः कृताः तेषां नामानि पत्रके लिखित्वा घंटे क्षिप्लानि, ततो वर्षे वर्षे यस् नाम उत्तिष्ठते तेन चित्रवितव्यः, एवं कालो गच्छति । अन्यदा कदाचित् कौशाम्बीकः चित्रकरदारकः गृहात् पलायितः तत्रागतः शिक्षकः (शिक्षितुं ), स आम्यन् साकेतकस्य चित्रकरस्य गृहमालीनः सोऽपि एकपुत्रकः स्थविरापुत्रः सोऽथ तस्य मित्रं जातः, एवं तस्मिंस्तिष्ठति अथ तस्मिन्वर्षे तस्य स्थविराजस्य वारको जातः पश्चात् सा स्थविरा बहुप्रकार रोदिति तां रुदतीं दृष्ट्रा स्थविरों कौशाम्बीको भणति---किमम्ब ! रोदिषि तथा शिष्टं ( वृत्तान्तं ), स भगति-ता रुदिहि अहमेतं यक्षं चित्रयिष्यामि तदा सा भगति एवं मे पुत्रः किं नासि, तथापि अहं चित्रयामि तिष्ठथ पूपमशोकाः, ततः षष्ठभक्तं कृत्वाऽहतं युगलं परिधायाष्टगुणया किया मुखं मद्रच्या पोक्षेण प्रयत्वेन शुचीभूतेन नवैः कः अपवित्वा नवैः कूर्यकैः भवेकसंपुटेः पर्व चित्रयित्वा पादप तितो भगति पाहुडएदि प्र०संसदेखि सावगस्य नास्तीदम् ग्रहपोतीए. ०ण पण नव० [१] मनुपसं०. अलेस्सेहिं. || चितिओ चिचे०. For Fans Use Only www.jancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~135~ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] आवश्यक ॥६ ॥ डिओ भणइ-खमह जं मए अबरद्धं ति, ततो तुहो जक्खो भणति-बरेहि वरं, सो भणति-एण्यं चेव ममं वरं देहि, हारिभद्रीमा लोग मारेह भणति-एतं ताव ठितमेव, जंतुन मारिओ, एवं अण्णेविन मारेमि., अण्णं भण, जस्स एगदे समवियवृत्तिः पासेमि दुपयस्स वा चप्पयस्स वा अपयस्स वा तस्स तदाणुरूवं रूवं णिवत्तेमि, एवं होउत्ति दिण्णो वरो, ततो सो|विभागः१ लद्धवरो रण्णा सक्कारितो समाणो गओ कोसंबी णयरिं, तत्थ य सयाणिओ नाम राया, सो अण्णया कयाई सुहा| सणगओ दूरं पुच्छइ-किं मम णस्थि ? ज अण्णराईण अत्थि, तेण भणि-चित्तसभा णस्थि, मणसा देवाणं वायाए। पस्थिवाण, तक्खणमेत्तमेव आणत्ता चित्तगरा, तेहिं सभाओवासा विभइत्ता पचित्तिता, तस्स वरदिण्णगस्स जो रण्णो अंतेपुरकिड्डापदेसो सो दिण्णो, तेणं तत्थ तदाणुरूवेसु णिम्मिएसु कदाइ मिगावतीए जालकिड्डांगतरेण पादंगुडओ दिडो, उवमाणेण णायं जहा मिगावती एसत्ति, तेण पादंगुडगाणुसारेण देवीए रूवं णिबत्तिअं, तीसे चक्खुमि उम्मिलिज्जते क्षमस्व यम्मयाऽपरामिति, ततस्तुष्टो यक्षो भणति-वृणुष्व वरं, स भणति-पतमेव मम वरं देहि, मा लोकं मारय (मीमरः) इति, भणति-एततापरिषतमेव, पनत्वं मारितः, एवमन्यानपि न मारविष्यामि, अन्यजण, (सभणति-)वस्थ एकमपि देशं पश्यामि विपदस्य वा चतुष्पवस्य या अपदस्य वा, तस्य तदनुरूपं रूपं निवर्सयामि, एवं भवस्विति दत्तो वरः, ततः स लन्धवरो राज्ञा सत्कृतः सन् गतः कौशाम्बी नगरी, सत्र च शतानीको नाम राजा, सोऽन्यदा कदाचित सुखासनगतो यूतं पृच्छति-कि मम नास्ति यदन्येषां राज्ञामस्ति, तेन भणित-चित्रसभा नास्ति, मनसा देवानां, बाचा पार्थिवानां' (कार्यसिदिः इति नियमात्) ।। ६३५ | तत्क्षण एव आज्ञप्ताभित्रकृतः, तैः सभावकाशा विभग्य प्रचित्रिता: (चित्रितुमारब्धाः) तम दत्तवराय यो राज्ञोऽन्तःपुरक्रीडाप्रदेशःस दशा, तेन तन्त्र (कीटा| प्रदेशे) तदनुरूपेषु निर्मितेषु (रूपेष) कदाचियागावत्या जालकटकान्तरे पादाष्टको दष्टः, उपमानेन शातं-यथा सुगावती एपेति, तेन पादाष्टकानुसारेण देण्याः रूप नियर्तितं, तस्याश्चाप्युम्मीषमाने के एवं मारेहि. मारेमो. एगपदे। पासामि. V दम्, * बाया. + सभा सा. किडगं.. पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: (चित्रकारकथा मध्ये) शतानीक-मृगावति-कथानकं ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं -1 हा एगो मसिविन्दू ऊरुयंतरे पडिओ, तेण फुसिओ, पुणोऽवि जातो, एवं तिन्नि वारा, पच्छा तेण णाय, एतेन एवं होयवमेव, ततो चित्तसभा निम्मिता, राया चित्तसभ पलोएंतोतं पदेस पत्तो जस्थ सा देवी, तं णिषण्णतेण सो बिन्द दिहो, विरु"हो, एतेण मम पत्ती धरिसियत्तिकाऊण वज्झो आणत्तो, चित्तगरसेणी उवहिता, सामि ! एस वरलाखोत्ति, ततो से खुजाए मुहं दाइयं, तेण तदाणुरूवं णिवत्तितं, तथापि तेण संडासओ छिंदावि ओ चेय, णिविसओ य आणतो, है सो पुणो जक्खस्स उपवासेण ठितो, भणिओ य-चामेण चित्तिहिसि, सयाणियस्स पदोस गतो, तेण चिंतियं-पज्जोओ। एयस्स अप्पीति वहेज्जा, ततो गेण मिगावईए चित्तफलए रूवं चित्तेऊण, पज्जोयस्स उहविरं, तेण दिई, पुच्छिओ, सिद्धं, तेण दूओ पयट्टितो, जदि मियावई न पट्टवेसि तो एमि, तेण असक्कारिओ णि खमणेण णिच्छूढो, तेण सिहं, इमोवि तेण दूयवयणेण रुडो, सबबलेण कोसंबि एइ, तं आगच्छतं सोउं सयाणिओ अप्पबलो अतिसारेण मओ, ताहे १एको मीबिन्दुः सर्वम्तरे पतितः, सेन स्पृष्टः (मृष्टः), पुनरपि जातः, एवं त्रीन् चारान् , पञ्चात् तेन ज्ञातं, एतेनेवं भवितव्यमेच, ततभित्र सभा निर्मिता, ततो राजा चित्रसभा प्रलोकयन् तं प्रदेश प्रमः, यत्र सा देवी (चित्रिता), तो निर्णयता स बिन्दुईष्टः, विरुष्टा, एतेन मम पनी धषिते तिकृत्वा | वध्य आज्ञप्तः, चित्रकृच्छणिरुपस्थिता, स्वामिन् ! एष लन्धवर इति, ततस्ती कुब्जावा मुखं दर्शितं, तेन तदनुरूपं निर्वसितं, तथापि तेन संदंशकः (अङ्गुष्टतर्गन्योर) वित एव, निविषयमाजप्त। स पुनर्वक्षाय (यक्षमारा) अपवासेन स्थितः, भणितश्न-बामेन चिनयिष्यसि, शतानीके प्रदेषं गतः, तेन चिन्तितंप्रयोत एतस्यामीति बहेन (पोई शकः), सोऽनेन मुगावत्याचित्रफल के रूपं चित्रविस्वा प्रयोताय उपस्थापितं, तेन ई, पृष्टः, शिष्ट, तेन दूतः प्रणित यदि मगावतीं न प्रस्थापयसि तोमि (योबुमिति घोषः) तेन असत्कृतः निर्थमनेन निष्काशितः, तेन शिर्ट, अयमपि तेन दूतवचनेन रुष्टः, सर्वबलेन कौशाम्बीमेति, तमागच्छन्तं भुया शतानीकोऽपवलोऽतीसारेण मृतः, तदा निम्माता. तिंबड्ण रुहो. वरलोिति विहितं. || नेदम, सितो. JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] आवश्यक ॥६४॥ -09-25 मिगावईए चिन्ति-मा इमो बालो मम पुत्तो विणस्सिहिति, एस खरेणं न सक्कति, पच्छा दूतो पविओ, भणिओ- हारिभद्रीएस कुमारो बालो, अम्हेहिं गएहिं मा सामंतराइणा केणइ अण्णेणं पेल्लिजिहिइ, सो भणति-को ममं घारे,माणे पेलि-18 यवृत्तिः हिति, सा भणति-ओसीसए सप्पो, जोयणसए विज्जो किं करेहिति !, तो णगरिं दढं करेहि, सो भणति-आमं करेमि, | विभागा१ ताए भण्णति-उजेणिगाओ इगाओ बलिआओ, 'ताहि कीरउ, आमंति, तस्स य चोद्दस राइणो वसवत्तिणो, तेणं तेसिं बैला ठविता, पुरिसपरंपरएण तेहिं आणिआओ इट्टगाओ, कयं णगरं देखें, ताहे ताए भण्णति-इयाणि धस्सिX भरेहि णगरिं, ताणेण भरिया, जा हे णगरी रोहगअसज्झा जाया, ताहे सा विसंवइया, चिन्तियं च णाए-धण्णा']]k ते गामागरणगर जाव सण्णिवेसा, जत्थ सामी विहरति, पथएजामि जइ सामी एज, ततो भगवं समोसढो, तत्थर | सबवेरा पसमंति, मिगावती णिग्गता, धम्मे कहिज्जमाणे एगे पुरिसे एस सवण्णुत्ति काउं पच्छण्णं मणसा पुच्छति, ताहे| १एगावस्या चिन्तितं-मैष बालो मम पुत्रो बिनेशन, एष खरेण न शक्यते (साधयितुं), पश्चाता प्रस्थापितः, भणित:-एष कुमारो बाला, भस्मासु गतेषु मा सामन्तराजेन केनचिवन्येन प्रेरि, स भणति-को मषा नियमाणान् प्रेरयेत, सा भणति-अच्छीर्षके सो योजनशते वैधः किं करिष्यति ? तत् नगरी ददा कुरु, स भगति-भाममिति (ओमिति) करोमि, तया भण्यते-बीजबिन्य इष्टका बलवत्यः, ताभिः करोतु, भोमिति, तस्य च चतुर्दश राजानो यशवर्तिनः, तेन तेषां बलानि स्थापितानि, पुरुषपरम्परकेण तैरानीता इटकाः, कृतं नगरं एवं तदा तया भण्यते-इदानीं धनेन विभूति नगरी, सदा सेना ॥६४॥ मता, यदा नगरी रोधासाध्या जाता तदा सा विसंवदिता, चिन्तितं च तया-धन्यास्ते प्रामाकरनगराणि यावत् सनिवेशाः, यत्र स्वामी विहरति, प्रबनेयं यदि स्वामी आयायात् (एयात्), सतो भगवान् समवस्तः तत्र सर्ववैराणि प्रशाम्यन्ति, मृगावती निर्गता, धर्मे कध्यमाने एकः पुरुष एष सर्वज्ञ इतिकृत्वा मच्छ मनसा पृष्ठति, तदा घरमाणे.* ते सबला.+मेदम् ॥ धक्स्स . ततो. जाव. 6 -- -- पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] सामिणा भणिओ-वायाए पुच्छ देवाणुपिआ!, वरं बहवे सत्ता संबुझंतित्ति, एवम वि भणिते तेण भण्णति-भगवं। जा सा सा सा , तत्थ भगवता आमंति भणित, गोयमसामिणा भणिअं-किं एतेण जा सा सा सा इति भणितं , पत्थ तीसे उड्डाणपरियावणि सर्व भगवं परिकहेति-तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपानाम नयरी, तत्थेगो सुवण्णगारो W थीलोलो, सो पंच पंच सुवण्णसयाणि दाऊण जा पहाणा कण्णा तं परिणेति, एवं तेणं पंचसया पिंडिता, एकेकाए तिलगचोद्दसगं अलंकारं करेइ, जद्दिवसं जाए समं भोगे भुंज.हि तद्दिवसं देति अलंकारं, सेसकालं न देति, सो ईसालुओ तं घरं न कयाई मुयइ, नवा अण्णस्स अलियतुं देति, सो अण्णदा मित्तपगते वाहितो, अणिच्छतो बला णीओ जेमेतु, सो. तहिं गतोत्ति णाऊणं ताहि चिंतिअं-किं एतेणं अम्ह सुवष्णएणंति ?, अज्ज पतिरिकं हामो समालभामो आविद्धामो ६अ, पहाआओ पइरिकमैज्जितवयविहीएतिलयचोइसरणं अलंकारेण अलंकरेऊणं अदायं गहाय पेहमाणीओ चिट्ठति, सो अ स्वामिना भणिता-वाचा पृष्ठ देवानु प्रिय ! पर यहवः सच्चाः संबुज्यन्त इति, एवमपि भणिते तेन भव्यते-भगवन् ! या सा सासा. तत्र | भगवता भाममिति (भोमिति) भणिते गौतमस्वामिना भणित-किमेसेन या सा सा सेति मणितं , अन तस्या जत्थानपर्यापत्रिक सर्व भगवान् परिकथयतितस्मिन्काले तस्मिन्समये चम्पानासी नगरी, तत्रैक: सुवर्णकारःखीलोलुपः, स पञ्च पञ्चसु (सी) वर्णशतानि दवा या प्रधाना कन्पा तो परिणपति, एवं तेन पञ्चशती पिण्डिता, एकैकस्याः तिलकचतुर्दशकान् अलङ्कारान् कारयति, बहिवसे यया समं भोगान् भुटे (इति) तदिवसे ददाति अलङ्कारान् , शेषकाले न ददाति, स इण्यालुतत् गृहं न कदाचित् मुञ्चति, नवाऽम्यस्य अपसा ददाति, सोऽन्यदा मित्रप्रकृते (जेमनादिप्रकरणे) व्याहृतः अनिष्छन् बलाशीतो जेमित, स तत्र गत इति ज्ञास्था ताभिविन्तितं-किमेतेगास्माकं सुवर्णेनेति अद्य प्रतिरिक्तं (बधेच्छ) खामः समालभामः परिधान, साताः प्रतिरिक्तम. भ्यङ्गनाविधिना तिलकचतुर्वशकैरलकरितात्य आदर्श गृहीत्वा प्रेक्षमाणास्तिन्ति, वरं. || मविभणितो. भणित. अस्थि लोलो. जहिति* अलिए. सोय. * मजण.. JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | चम्पानगर्ये सुवर्णकारस्य कथानकं ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] दततो आगतो, तं दडूण आसुरुत्तो, तेण एका गहिया, ताव पिष्टिया जाव मयत्ति, ता अण्णाओ भणति-एवं अम्हावि एके- हारिभद्री का उ एएण हंतच ति, तम्हा एयं एत्थेव अद्दागपुंज करेमो, तत्थेगुणेहिं पंचहिं महिलासएहिं पंच एगूणाई अद्दागसयाईयवृत्तिः जमगसमग पक्खित्ताई, तत्थ सो अदागपुंजो जातो, पच्छा पुणोवि तासिं पच्छातावो जाओ-का गती अम्ह पतिमा- 1व रियाणं भविस्सति , लोअ उद्धसणाओ सहेयवाओ, ताहे ताहिं घणकवाडनिरंतरं णिच्छिड्डाई दाराई ठवेऊण अग्गी दिण्णो सबओ समंतओ, तेण पच्छाणुतावेण साणुकोसयाए अ ताए अकामणिजराए मणूसेसूबवण्णा पंचवि सया चोरा जाया, एगमि पथए परिवसंति, सोवि कालगतो तिरिक्खेसूबवण्णो, तत्थ जा सा पढम मारिया, सा एकं भवं तिरिएस पच्छा एगमि बंभणकुले चेडो आयाओ, सो अ पंचवरिसो, सो अ सुवण्णकारो तिरिक्खे सु उववट्टिऊण तं मि कुले चेव सच तत आगतः, तत् दृष्ट्वा फुगः, तेनैका गृहीता तावत्पिट्टिता यावन्मृतेति, तदाश्या भणन्ति-एवं वयमपि एकैका एतेन हन्तव्येति, तसात् एन भत्रैव भादर्शपुखं कुर्मः, सौकोनैः पञ्चभिः महिलाशतैः एकोनानि पञ्चादर्शशतानि युगपत् प्रक्षिसानि, तत्र सादर्शक्षो जातः, पश्चारपुनरपि तासां पश्चातापो जात:-का गतिरस्साकं पतिमारिकाणां भविष्यति !, लोके चावहेलनाः सोम्याः, तदा ताभिर्वनकपाटनिरन्तरं निविदाणि द्वाराणि स्थापयित्वा (स्थायित्वा) अभिदत्तः सर्वतः समन्ततः, तेन पश्चात्तापेन सानुकोशतया च तयामामनिर्जरवा मनुष्येषल्पनाः पचापि शतानि चौरा जाताः, एकस्मिन् । प्रोपर्वते परिवसन्ति, सोऽपि कालगतः तिर्यक्षुत्पन्नः, तत्र था सा प्रथमं मारिता सा एकस्मिन् भवे तिर्षक्ष पश्चात एकस्मिन् बाह्मण कुले चेट आयातः (उत्पनः), स च पञ्चवर्षः, सच सुवर्णकारः तिन्य महत्व तस्मिन् कुल एव. + मिसमिसमाणो. तओ.मदेऽपि. || ओ णिहं.. लोएचि. JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] 1564560 दौरिया जाया, सो पेडो तीसे बालग्गाहो, सा य णिच्चमेव रोयति, तेण उदरपोप्पयं करेंतेणं कहवि सा जोणिहारे हत्थेण आहता, तहा बवहिता रोवितुं, तेण णायं-लद्धो भए उवाओत्ति, एवं सो णिचकालं करेति, सो तेहिं मायपितीहिं णाओ, ताहे हणिऊणं धाडिओ, साविय पडुप्पण्णा चेव विद्दाया, सो य चेडो पलायमाणो चिरं णगरविणदुहसीलायारो जाओ, गतो एगं चोरपल्ली, जत्थ ताणि एगूणगाणि पंच चोरसयाणि परिवसंति, सावि पइरिक हिंडती एग गाम गता, सो गामो तेहिं चोरोहिं पेलितो, सा य णेहिं गहिया, सा तेहिं पंचहिवि चोरसएहिं परिभुत्ता, तेसिं चिंता जाया -अहो इमा वराई एत्तिआण सहति, जइ अण्णा से घिइजिआ लभेजा तो से विस्सामो होजा, ततो तेहिं अण्णया| कयाई तीसे विइजिआ आणीआ, जदिवसं चेव आणीआ तद्दिवसं चेव सा तीसे छिड्डाई मग्गइ, केण उवाएण मारेजा, *SEKASSES दारिका जाता, सचेटलस्था बारमाहा, सा च नित्यमेव रोदिति, तेन उदरामर्शनं कुर्वता कथमपि सा योनिद्वारे हस्तेनाहता तथा अवस्थिता रोदनात् (भाये तुम) तेन शातं-लब्धो भयोपाय इति, एवं स नित्यकालं करोति, स ताभ्यां मातापितृभ्यां ज्ञातः तवा इत्या निर्धाटितः, सापि च प्रत्युत्पन्ना एवं (योग्यवयःस्थैय) विदुता, स च चेटः पलायमानः चिरं नगरविनष्टदुष्टशीलाचारी जातो, गत एका चौरपाली, यत्र च तानि एकोनानि पञ्चशतानि चौराः परिवसन्ति, सापि प्रतिरिक्त हिन्दन्ती एक ग्रामं गता, स मामस्वीरे: प्रेरितः (लुण्टितः), सा चैभिगृहीता, सा तैः पञ्चभिरपि चौरशतैः परिभुक्ता, तेषां चिम्ता जाता-अहो इयं बराकी एतावतां सहते, यधन्याऽस्या द्वितीया लभ्येत तदाऽस्या विश्रामो भयेन् , ततस्तरन्यदा कदाचित्तस्या द्वितीयाऽनीता, यदिवस एवानीता तदिवस एव तस्याश्मिाणि मार्गपति, केनोपायेन मार्येत, || तह चेय. दुविणवणागि. rajaniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] आवश्यक- CSC Ta Ta ते अण्णया कयाइ ओहाइया, ताए सा भणिआ, पेच्छ कूवे किंपि दीसइ, सा दुहुमारद्धा, ताए तत्थेव छूढा, ते आगता हारिभद्रीपुच्छंति, ताए भण्णति अप्पणो महिलं कीस न सारिह !, तेहिं णायं जहा एयाए मारिया, तओ तरस बभणचेडगस्सायवृत्तिः हिदए ठिअं जहा एसा मम पावकम्मा भगिणित्ति, सुबइ य भगवं महावीरो सवण्णू सबदरिसी, ततो एस समोसारणा वभागार पुच्छति । ताहे सामी भणति-सा चेव सा तव भगिणी, एत्थ संवेगमावन्नो सो पपइओ, 'एवं सोऊण सवा सा परिसा पतणुरागसंजुत्ता जाया। ततो मिगावती देवी जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छिता समणं | भगवं महावीरं वंदित्ता एवं पयासी-जं णवरं पज्जो आपुच्छामि, ततो तुझ सगासे पबयामित्ति भणिऊण पज्जोअं| आपुच्छति, ततो पज्जोओ तीसे महतीमहालियाए सदेवमणुयासुराए परिसाए लज्जाए ण तरति वारे, ताहे विसजेड, तेऽन्यदा कदाचिदुदाविताः, तथा सा भणिता, पश्य कूपे किमपि दृश्यते, सा द्रष्टुमारब्धा, तथा तन्नैव क्षिप्ता, ते आगताः पृष्ठन्ति, तयारी | मण्यन्ते-आत्मनो महेलां किं न रक्षत (सारयत), तैति-यथैवया मारिता, ततस्तस्य ब्राह्मणचेटकस्व हदि खितं-यथैषा मम पापकर्मा भगिनीति, धूयते च भगवान्महावीरः सर्वज्ञः सर्वदर्शी, तत एष समवसरणान् पृच्छति । तदा स्वामी भणति-सैव सा तव भगिनी, अत्र संवेगमापसः स प्रबजितः, एवं श्रुत्वा सर्वा सा परिषत् प्रतनुरागसंयुक्ता जाता, ततो मृगावती देवी यत्रैव श्रमणो भगवान्. महावीरः तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दित्वा एवमवादीत्-यत् परं प्रद्योतमापूछामि, ततस्त्वत्सकाशे अनजामीति भणित्वा प्रद्योतमापूच्छति, सतः प्रद्योतस्तस्थामतिमहत्यां सदेवमनुजासुरायो। पर्षदि लाया न मानोति वारयितुं, तस्मात्, विसर्जयति (ग्यसूक्षत्),. * ते य. + एत्य. सारचेइ. समोसरणे. 1 एतं. ॥६६॥ rajanioraryorg पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] ततो मिगावती पजोयस्स उदयणकुमार णिक्खेवगणिक्खितं काऊण पचइआ, पज्जोअस्सवि अढ अंगारवईपमुहाओ देवीओ पवइयाओ, ताणिवि पंच चोरसयाणि तेणं गंतूण संबोहियाणि, पतं पसंगेण भणिों , एल्थ इट्टगपरंपरएण अहि यारो, एस दवपरंपरओ ॥ ८७ ॥ साम्प्रतं नियुक्तिशब्दस्वरूपाभिधानायेदमाहणिजुत्ता ते अत्था जं बहा तेण होइ णिजुत्ती। तहविय इच्छावे विभासि सुत्तपरिवाडी ॥८८॥ व्याख्या-निश्चयेन सर्वाधिक्येन आदी या युक्ता नियुक्ताः, अर्यन्त इत्यर्थाः जीवादयः श्रुतविषयाः, ते ह्या निर्युक्ता एव सूत्रे, 'यद्' यस्मात् 'बद्धाः सम्यग् अवस्थापिता योजिता इतियावत् , तेनेयं नियुक्ति निर्युक्तानां युक्तिनिर्युक्तयुक्तिरिति प्राप्ते युक्तशब्दस्य लोपः क्रियते, उष्ट्रमुखी कन्येति यधा, नियुक्तार्थव्याख्या नियुक्तिरितिहृदयं । आह-सूत्रे सम्यक् निर्युक्ता एवार्थाः पुनश्चेहेषां योजन किमर्थं ?, उच्यते, सूत्रे निर्युकानप्यर्थान् न सर्व एवाशेषान् अवबुध्यन्ते यतः, अतः । तथापि च सूत्रे निर्युक्तानपि सतः एषयति-इषु इच्छायामित्यस्य ण्यन्तस्य लट् इति । तिप्-शप्-गुणायादेशेषु कृतेषु एषयति, विविध भाषितुं विभाषितुं, का?-'सूत्रपरिपाटी' सूत्रपद्धतिरिति, एतदुक्तं भवति-अप्रतिबुध्यमाने श्रोतरि गुरुं तदनुग्रहार्थं सूत्रपरिपाव्येव विभापितुमेषयति-इच्छत इच्छत मा प्रतिपादयितुमित्थं प्रयोजयतीवति, सूत्रपरिपाटीमिति पाठान्तरं, शिष्य एव गुरुं सूत्रपद्धतिमनव बुध्यमानः प्रवतेयति-इच्छत इच्छत मम ततो सुगावती प्रद्योत उदयनकुमारस्य निक्षेपनिक्षिप्तं कृत्वा मनजिता, प्रयोतस्याप्पष्टौ अङ्गारवतीप्रमुखाः देयः प्रवजिताः, तानि पञ्च चौरमातानि तेन गत्वा संबोधितानि । पुतन् प्रसनेन भणितं, अत्र इटकापरम्परकेणाधिकारः, एष इच्यपरम्परकः ॥ १ भहवा सुवपरिवादी सुभोवएसोऽयं (वि.) श्रुतस्य विधिरिति वृत्तिः. सापाधि० + सूत्रे. सूत्रनिक सूत्रेनि. नेदम्, 50 वा. | मयुध्यक T rajanmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | नियुक्तिशब्दस्य स्वरुपम् ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] आवश्यक व्याख्यातुं सूत्रपरिपाटीमिति, व्याख्या च नियुक्तिरिति, अतः पुनर्योजनमित्थमदोषायैवेति, अलं विस्तरेण, गमनिका- हारिभद्री मात्रमेवैतदिति गाथार्थः ॥ ८८ ॥ यदुक्तं 'अर्थपृथक्त्वस्य तैः कथितस्येति' तीर्थकरगणधरैः, इदानीं तेषामेव शीलादिसं- यवृत्तिः ॥६७॥ पत्समन्वितत्वप्रतिपादनायाह |विभागः१ 'तवनियमनाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी । तो मुयह नाणवुहि भवियजणविवोहणहाए॥८९॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिण्हितं निरवसेसं । तित्थयरभासियाई गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥९॥ प्रथमगाथाब्याख्या-रूपकमिदं द्रष्टव्यं, तत्र वृक्षो द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यवृक्षः कल्पतरुः, यथा तमारुह्य कश्चित् तस्कुसुमानां गन्धादिगुणसमन्वितानां संचयं कृत्वा तदधोभागसेविनां पुरुषाणां तदारोहणासमर्थानां अनुकम्पया* कुसुमानि विसृजति, तेऽपिच भूपातरजोगुण्डनभयात् विमलविस्तीर्णपटेषु प्रतीच्छन्ति, पुनर्यधोपयोगमुपभुञ्जानाः सुखदमामुवन्ति, एवं भाववृक्षेऽप्यायोज्यं । तपश्च नियमश्च ज्ञानं च तपोनियमज्ञानानि तान्येव वृक्षस्त, तत्र अनशनादिवाद्या-13 भ्यन्तरभेदभिन्नं तपः, नियमस्तु इन्द्रियनोइन्द्रियभेदभिन्नः, तत्र श्रोत्रादीनां संयमनमिन्द्रियनियमः क्रोधादीनां तु | नोइन्द्रियनियम इति, ज्ञान-केवलं संपूर्ण गृह्यते, इत्थरूपं वृक्षं आरूढः, तत्र ज्ञानस्य संपूर्णासंपूर्णरूपत्वात् संपूर्णता-12 ख्यापनायाह-संपूर्ण केवलं अस्यास्तीति केवली, असावपि चतुर्विधः-श्रुतसम्यक्त्वचारित्रक्षायिकज्ञानभेदात्, अथवा ॥६ ॥ श्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानभेदात्, अतः श्रुतादिकेवलव्यवच्छित्तये सर्वज्ञावरोधार्थमाह-अमितज्ञानी, 'ततो' वृक्षात | * हत्थंभूतं. + योधा. 525-3152575453 Manorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०], भाष्यं [-] मुञ्चति 'ज्ञानवृष्टिं इति कारणे कार्योपचारात् शब्दवृष्टिं, किमर्थ !-भव्याश्च ते जनाश्च भव्यजनाः तेषां विबोधनं तदर्थं तन्निमित्तमितियावत् । आह-कृतकृत्यस्य सतस्तत्वकथनमनर्थक, प्रयोजनविरहात्, सति च तस्मिन् कृतकृत्यत्वानुपपत्तेः, तथा सर्वज्ञत्वाद्वीतरागत्वाच्च भव्यानामेव विबोधनमनुपपन्नं, अभव्याविबोधने असर्वज्ञत्वावीतरागत्वप्रसङ्गादिति, अत्रोच्यते, प्रथमपक्षे तावत् सर्वथा कृतकृत्यत्वं नाभ्युपगम्यते, भगवतः तीर्थकरनामकर्मविपाकानुभावात् , तस्य च दधर्मदेशनादिप्रकारेणैवानुभूतेः, द्वितीयपक्षे तु त्रैलोक्यगुरोधर्मदेशनक्रिया विभिन्नस्वभावेषु प्राणिषु तत्स्वाभाब्यात् विबो धाविबोधकारिणी पुरुषोलूककमलकुमुदादिषु आदित्यप्रकाशनक्रियावत् , उक्तं च वादिमुख्येन-वद्वाक्यतोऽपि केषाचिदबोध इति मेऽद्भुतम् । भानोमेरीचयः कस्य, नाम नालोकहेतवः॥१॥न चाछुतमुलूकस्य, प्रकृत्या क्लिष्टचेतसः।।४॥ स्वच्छा अपि तमस्त्वेन, भासन्ते भास्वतः कराः ॥२॥ इत्यादि" यथा वा सुवैद्यः साध्यमसाध्यं व्याधि चिकित्समानः प्रत्याचक्षाणश्च नातज्ज्ञः न च रागद्वेषवान्, एवं साध्यमसाध्यं भव्याभव्यकर्मरोगमपनयन्ननपनयंश्च भगवान्नातज्ज्ञो न च रागद्वेषवानिति अलं प्रसङ्ग्रेनेति गाथार्थः ॥ ८९॥ द्वितीयगाथाव्याख्या-ता' इति तां ज्ञानकुसुमवृष्टिं, बुद्धिमयेन बुद्ध्यात्मकेन, बुद्धिरेवात्मा यस्यासौ बुद्ध्यात्मकस्तेन, केन ?-पटेन, गणधराः प्रागुक्काः 'ग्रहीतु' आदातुं 'निरवशेषां' 8 संपूर्णा ज्ञानकुसुमवृष्टिं, बीजादिबुद्धित्वाद्गणधराणां, ततः किं कुर्वन्ति-भाषणानि भाषितानि, भावे निष्ठाप्रत्ययः, तीर्थकरस्य भाषितानि तीर्थकरभाषितानि इति समासः, कुसुमकल्पानि, अनन्ति विचित्रकुसुममालावत्, किमर्थमित्याह-प्रगतं प्रशस्तै प्रधानमादौ वा वचनं प्रवचनं-द्वादशाङ्गं गणिपिटकं तदर्थ, कथमिदं भवेदितियावत्, प्रवक्तीति | १ श्रीमहिः सिद्धसेन दिवाकरपादहनिशिकायामिति प्रसिद्धि साधन...भावकत्वात् भवात. ECEN T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [९०], भाष्यं [-] हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ आवश्यकता प्रवचनं सङ्घस्तदर्थमिति गाथार्थः॥९० ॥ प्रयोजनान्तरपतिपिपादयिषयेदमाह॥६८॥ घिनुं च सुहं सुहगणणधारणा दाउं पुच्छिउँ चेव । एएहिं कारणेहिं जीयंति कयं गणहरोहिं ॥९॥ व्याख्या-'ग्रहीतुं च' आदातुं च प्रथितं सत्सूत्रीकृतं सुखं भवति अहंदूचनवृन्द, कुसुमसंघातवत्, 'च' समुच्चये, एतदुक्तं भवति-पदवाक्यप्रकरणाध्यायप्राभृतादिनियतक्रमस्थापितं जिनवचनं अयत्नेनोपादातुं शक्यते, तथा गणनं च धारणा च गणनधारणे ते अपि सुखं भवतः प्रथिते सति, तत्र गणन-एतावदधीतं एतावच्चाध्येतव्यमिति, धारणा अप्रच्युतिः अविस्मृतिरित्यर्थः, तथा दातुं प्रष्टुं च, 'सुखं' इत्यनुवर्तते, 'च' समुच्चय एव, एवकारस्य तु व्यवहितः संटङ्का, ग्रहीतुं सुखमेव भवतीत्थं योजनीयं, तत्र दान-शिष्येभ्यो निसर्गः, प्रश्नः-संशयापत्ती असंशयाथै विद्वत्सन्निधी स्ववि. वक्षासूचकं वाक्यमिति, 'एभिः कारणैः' अनन्तरोक्तैर्हेतुभूतैः 'जीवित' इति अव्यवच्छित्तिनयाभिप्रायतः सूत्रमेव 'जीय'ति प्राकृतशेल्या 'कृतं' रचितं गणधरैः, अथवा जीतमिति अवश्य गणधरैः कर्त्तव्यमेवेति, तन्नामकर्मोदयादिति गाथार्थः ।।९१॥ आह-तीर्थकरभाषितान्येव सूत्र, गणधरसूत्रीकरणे तु को विशेष इति, उच्यते, स हि भगवान् विशिष्टमतिसंपन्नगणधरापेक्षया प्रभूतार्थमर्थमानं स्वल्पमेव अभिधत्ते, न वितरजनसाधारणं ग्रन्धराशिमिति, अत आह. अत्थं भासह अरहा सुतं गंधंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुतं पवत्तह ॥१२॥ गाथेयं प्रायो निगदसिद्धैव, चालना प्रत्यवस्थानमात्रं त्वभिधीयते-कश्चिदाह-अर्थोऽनभिलाप्यः, तस्य अशब्दरू* शक्य. + दातुं. * अत एवाह । एतदेवाह. + तिथं. चालन०. 564551564-%25 Pataniorary on पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: सूत्र-प्रवर्तनस्य कारण-दर्शनं ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १ / १ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) निर्युक्तिः [ ९२ ], भाष्यं [-] अध्ययनं [ - ], मूलं [ - / गाथा - ], रूपत्वात्, अतस्तं कथमसौ भाषत इति, उच्यते, शब्द एव अर्थप्रत्यायन कार्यत्वाद् उपचारतः खलु अर्थ इति, यथा आचारवचनत्वाद् आचार इत्यादि, 'निपुर्ण' सूक्ष्मं बहर्थं च नियतगुणं वा निगुणं, सन्निहिताशेषसूत्रगुणमितियावत्, पाठान्तरं वा 'गणहरा निपुणा निगुणा वा ॥ ९२ ॥ आह- शब्दमर्थप्रत्यायकं अर्हन् भाषते, न तु साक्षादर्थं, गणभृतोऽपिच शब्दात्मकमेव श्रुतं ग्रन्ति कः खल्वत्र विशेष इति उच्यते, गाथा संबन्धाभिधान एव विहितोत्तरत्वात् यत्किञ्चिदेतत् । आह— तरपुनः सूत्रं किमादि किंपर्यन्तं कियत्परिमाणं को वाऽस्य सार इति उच्यते सामाइयमाईयं सूयनाणं जाव बिन्दुसाराओ । तस्सवि सारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाणं ॥ ९३ ॥ व्याख्या - सामायिकमादौ यस्य तत्सामायिकादि श्रुतं च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, 'यावद्विन्दुसाराद्' इति बिन्दुसारं यावत् बिन्दुसारपर्यन्तमित्यर्थः, यावच्छन्दादेव तु व्यनेकद्वादशभेदं, 'तस्यापि' श्रुतज्ञानस्य 'सारः फलं प्रधानतरं वा, चारश्वरणं भावे ल्युट्प्रत्ययः चर्यते वा अनेनेति चरणं, परमपदं गम्यत इत्यर्थः, सारशब्दः प्रधानफलपर्यायो वर्त्तते, अपि| शब्दात् सम्यक्त्वस्यापि सारश्चरणमेव, अथवा व्यवहितो योगः, तस्य श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि, अपिशब्दात् निर्वाण५ मपि, अन्यथा ज्ञानस्य निर्वाणहेतुत्वं न स्यात्, चरणस्यैव ज्ञानरहितस्यापि स्याद्, अनिष्टं चैतत्, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ( तत्त्वायें अ० १ सू० १) इति वचनात्, इह स्वनन्तर फलत्वा चरणस्य तदुपलब्धिनिमित्तत्वाचं श्रुतस्य निर्वाण हेतुत्वसामान्ये सत्यपि ज्ञानचरणयोर्गुणप्रधानभावादित्यमुपन्यास इति, अलं विस्तरेण, 'सार' फलं 'चरणस्य' पण (विशे० ११२० ) इति कार्यशब्दो फलार्थकः २ शैलेश्ययस्थारूपचरणावासेरनन्तरं मोक्षावाले, क्षायिकज्ञानप्राप्तेरनन्तरं तु न, देशनपूर्व कोटी विणादुत्कृष्टतो दर्शनं तु चतुर्थेऽपि न च तदनन्तरमपि तदातिः २ ज्ञानख फलं विरतिरिति पढमं नाणं तभी दया इत्यादिवचनात् + गाथार्थसंबन्धा०. Education intimation For Fans Only www.jancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [९३], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक- ॥१९॥ संयमतपोरूपस्य, निवृतिनिर्वाण-अशेषकर्मरोगापगमेन जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानं मुक्तिपदमितियावत् , इहापि नियमतः31 हारिभद्रीशैलेश्यवस्थानन्तरमेव निर्वाणभावात् क्षीणधनधातिकर्मचतुष्कस्यापि च निरतिशयज्ञानसमन्वितस्य तामन्तरेणाभावात् , यवृत्तिः अत उक्त-सारश्चरणस्य निर्वाणं इति, अन्यथा हि सस्यामपि शैलेश्यवस्थायां क्षायिके ज्ञानदर्शने न न स्त इति, अतःविभागः सम्यग्दर्शनादित्रयस्यापि समुदितस्य सतो निर्वाणहेतुत्वं न व्यस्तस्येति गाथार्थः ॥ ९३ ॥ तथा चाह नियुक्तिकारः| सुअनाणंमिवि जीवो वहतो सो न पाउणइ मोक्खं । जो तवसंजममइए जोए न चएइ वोढुंजे ॥१४॥ | गमनिका-'श्रुतज्ञाने अपि' इति अपिशब्दान्मत्यादिष्वपि जीवो वर्तमानः सन् न प्रामोति मोक्षमिति, अनेन प्रतिज्ञार्थः सूचितः, यः किंविशिष्ट इति, आह-यस्तपःसयमात्मकान् योगान्न शक्नोति चोढुं इति, अनेन हेत्वर्थ इति, दृष्टान्तस्त्वभ्यूह्यो वक्ष्यति बाँ, प्रयोगश्च-'न ज्ञानमेव ईप्सितार्थप्रापर्क, सक्रियाविरहात्, स्वदेशप्राप्त्यभिलाषिगमनक्रिया-1 शून्यमार्गज्ञज्ञानवत् , सौत्रो वा दृष्टान्तः मार्गज्ञनिर्यामकाधिष्ठितेप्सितदिसंप्रापकपवनक्रियाशून्यपोतवत्, 'जे" इति पादपूरणे, 'इजेिराः पादपूरणे' इति वचनात् ॥ ९४ ॥ तथा चाहजह छेयलद्धनिजामओवि वाणियगइच्छिय भूमि । वारण विणा पोओ न चएइ महण्णवं तरिखं ॥९॥४॥९॥ तह नाणलद्धनिजामओवि सिद्धिवसहिन पाउणइ । निउणोवि जीवपोओ तवसंजममारुअविडणी ॥२६॥ *च. +नेतः परम्, ए०. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [९६], भाष्यं [-] व्याख्या-येन प्रकारेण यथा, 'छेको' दक्षः, लन्धा-प्राप्तो निर्यामको येन पोतेन स तथाविधः, अपिशब्दात् सुकर्णधाराधिष्ठितोऽपि, वणिज इष्टा वणिगिष्टा तां भूमि, महार्णवं तरितुं वातेन विना पोतो न शक्नोति, प्राप्नुमिति वाक्यशेषः DIR९५॥ तथा श्रुतज्ञानमेव लब्धो निर्यामको येन-जीवपोतेनेति समासः, अपिशब्दात्सुनिपुणमतिज्ञानकर्णधाराधिष्ठि-10 तोऽपि, शेष निगदसिद्ध, किन्तु 'निपुणोऽपि पण्डितोऽपि, श्रुतज्ञानसामान्याभिधाने सत्यपि तदतिशयख्यापनार्थ [निपुणग्रहणं, तस्मात् तपःसंयमानुष्ठाने खल्वप्रमादवता भवितव्यमिति गाथाद्वयार्थः ॥ ९६ ॥ तथाचेहीपदेशिकमेव गाथासूत्रमाह नियुक्तिकार:| संसारसागराओ उन्बुड्डो मा पुणो निबुडिज्जा । चरणगुणविष्पहीणो बुइ सुपहुंपि जाणतो ॥९७॥ पदार्थस्तु दृष्टान्ताभिधानद्वारेणोच्यते-यथा नाम कश्चित्कच्छपः प्रचुरतृणपत्रात्मकनिश्छिद्रपटलाच्छादितोदकान्धकारमहादान्तर्गतानेकजलचरक्षोभादिव्यसनव्यथितमानसः परिश्रमन्कथञ्चिदेव पटलरन्ध्रमासाद्य विनिर्गत्य च ततः शरदि निशानाधकरस्पर्शसुखमनुभूय भूयोऽपि स्वबन्धुस्नेहाकृष्टचित्तः तेषामपि तपस्विनामदृष्टकल्याणानामहमिदं सुरलोककल्प किमपि दर्शयामि इत्यवधार्य तत्रैव निमग्नः, अथ समासादितबन्धुः तद्रन्ध्रोपलब्ध्यर्थं पर्यटन अपयश्च कष्टतरं व्यसनमनुभवति स्म । एवमयमपि जीवकच्छपोऽनादिकर्मसन्तानपटलसमाच्छादितान्मिथ्यादर्शनादितमोऽनुगतात् विविधशारीरमानसाक्षिवेदनज्वरकुष्ठभगन्दरेष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगादिदुःखजलचरानुगतात्, संसरणं संसारः, भावे घञ्प्रत्ययः, स SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक॥ ७० ॥ [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्ति:+वृत्तिः) अध्ययनं [ - ], मूलं [ - / गाथा - ], निर्युक्ति: [ ९७ ], भाष्यं [-] एव सागरस्तस्मात् परिभ्रमन् कथञ्चिदेव मनुष्यभवसंवर्त्तनीयकर्मरन्ध्रमासाद्य मानुषत्वप्रात्या उन्मग्नः सन् जिनचन्द्रवचनकिरणावबोधमासाद्य दुष्प्रापोऽयमिति जानानः स्वजनस्नेहविषयतुरचित्ततया मा पुनः कूर्मवत् तत्रैव निमज्जेत् । आहअज्ञानी कूर्मो निमज्जत्येव, इतरस्तु ज्ञानी हिताहितप्राप्तिपरिहारज्ञः कथं निमज्जति इति, उच्यते, चरणगुणैः विविधम्-अनेकधा प्रकर्षेण हीनः चरणगुणविप्रहीणः निमज्जति बह्वपि जानन् अपिशब्दात् अल्पमपि, अथवा निश्चयनयदर्शनेन अज्ञ एवासौ, ज्ञानफलशून्यत्वात् इति, अलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ ९७ ॥ प्रक्रान्तमेवार्थ समर्थयन्नाह - सुबहुपि सुमहीयं किं काही? चरणविप्पा हीणस्स । अंधस्स जह पलित्ता दीवसयस हस्सकोडीवि ॥ ९८ ॥ अप्पंपि सुयमहीयं पयासयं होइ चरणजुत्तस्स । इकोचि जह पईबो सचक्खुअस्सा पयासेइ ॥ ९९ ॥ गाथाद्वयमपि निगदसिद्धमेव, नवरं दीपानां शतसहस्राणि दीपशतसहस्राणि लक्षा इत्यर्थः, तेषां को टी, अपिशब्दा अपि ॥ ९८-९९ ।। आह-- इत्थं सति चरणरहितानां ज्ञानसंपत् सुगतिफलापेक्षया निरर्थिका प्राप्नोति, उच्यते, इष्यत एव यत आह- जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी नहु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नहु सो गईए ॥ १०० ॥ गमनिका—यथा खरः चन्दनभारवाही भारस्य भागी न तु चन्दनस्य, एवमेव ज्ञानी चरणेन हीनः ज्ञानस्य भांगी 'नतु' * व्यानुरक० + ०चैव य. महियं. ०मुकस्स. कोव्यापि तद्वे अपि सुगाईए. Education damational For Party हारिभद्र यवृत्तिः विभागः ~150~ ।। ७० ।। dandbray org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः चरणरहितं ज्ञानस्य निरर्थकता प्रतिपाद्यते Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१००], भाष्यं -1 नैव 'सुगते' सिद्धिदयिताया इति गाधार्थः ॥ १०॥ इदानीं विनेयस्य मा भूदेकान्तेनैव ज्ञानेऽनादरः, क्रियायां च तच्छBiन्यायामपि पक्षपात इति, अतो द्वयोरपि केवलयोरिष्टफलासाधकत्वमुपदर्शयन्नाह हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया। पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो अ अंधओ॥१०१॥ इयं निगदसिद्धैव, वरं उदाहरणं-एगंमि महाणगरे पलीवर्ण संवृत्तं, तंमि ये अणाहा दुवे जणा-पंगलोय अंधालो य, ते णगरलोए जलणसंभमुभंतलोयणे पलाय माणे पासंतो पंगुलओ गमणकिरियाऽभावाओ जाण ओऽवि पलायणमगं कमागएण अगणिणा दहो, अंधोऽवि गमणकिरियाजुत्तो पलायणमग्गमजाणतो तुरितं जलणंतेण गंतुं अगणिभरियाए खाणीए पडिऊण दड्डो। एस दिडतो, अयमत्थोवणओ-एवं नाणीवि किरियारहिश्तो न कम्मम्गिणो पलाइउं समत्थो, इतरोऽवि णाणरहियत्तणओ त्ति । अत्र प्रयोगौ भवतः-ज्ञानमेव विशिष्टफलसा धकं न भवति, सक्रियायोगशून्यत्वात् , नगरदाहे पङ्गुलोचनविज्ञानवद्, नापि क्रियैव विशिष्टफल साधिका, संज्ञानसंटङ्करहितत्वात् , नगरदाह एव अन्धस्य पलायनक्रियावत् ॥ १०१॥ आह-एवं ज्ञानक्रिययोः समुदितयोरपि निर्वाणप्रसाधकसामानुपपत्तिः परमुदाहरणं-एकस्मिन् महानगरे प्रदीपनं संवृत्तं, तमित्र अनाथी द्वौ अनी-अन्धः पङ्गुच, तो नगरलोकान् ज्वलनसंभ्रमोटान्तलोचनान् पलायमानान् पश्यस्तो पहः गमन कियाऽभावात् जानमपि पलायनमार्ग क्रमागतेदाग्निना इग्धः अन्धोऽपि गमन क्रियायुक्तः पलायनमार्गमजानन् खरितं धवल. | नास्तिके (ज्वलनमार्गण)गवाऽग्निभूतायां बनी ( भूतेश्वटे) पतित्वा दग्धः । एष दृष्टान्तः, अयमत्रोपनयः (०मर्थोपनयः)-एवं ज्ञान्यपि कियारहितो | न काँग्रेः पलायितुं समर्थः, इसरोऽपि ज्ञानरहितत्यात् इति, * वणर्ग. + तम्मिवि. 1 पंगुलओ अंधलओ य. अंधभोय. 1माणे खते पं०. IOLSजाणतोऽवि. || नाणी. हितो जण असमरथो. प्रसाधक. प्रसाधिका. सज्ञान.. CSCERAL पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ज्ञान-क्रिया समन्वये अन्ध-पन्गुलस्य दृष्टांत: ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०१], भाष्यं [-] ACT आवश्यक-द प्रसज्यते, प्रत्येकमभावात् , सिकतातैलवत्, अनिष्टं चैतदिति, अनोच्यते, समुदायसामर्थ्य हि प्रत्यक्षसिद्ध, यतो ज्ञान- हारिभद्री| क्रियाभ्यां कटादिकार्यसिद्धय उपलभ्यन्ते एव, न तु सिकतासु तैलं, न च दृष्टमपहोतुं शक्यते, एवमाभ्यामदृष्ट कार्यसि-| यवृत्तिः ॥ ७१॥ [द्धिरणयविरुद्धैव, तस्माद्यस्किश्चिदेतत् । तथा किञ्च-न सर्वथैवानयोः साधनत्वं नेष्यते, देशोपकारित्वात् , देशोपका-| विभागः१ रित्वमभ्युपगम्यत एव, यत आह संजोगसिहीइ फलं वयंति, नहु एगचक्केण रहो पयाइ। अंधो य पंग य वणे समिचा, ते संपउत्ता नगर पविट्ठा ॥ १०२ ॥ व्याख्या-किंतु तदेव समुदाय समग्रत्वादिष्टफलसाधक, केवलं तु विकलत्वात् इतरसापेक्षत्वादसाधकमिति, अतः केवलयोरसाधकत्वं प्रतिपादितमिति, अलं विस्तरेण, उक्तसंबन्धगाथाव्याख्यानं प्रकटार्थत्वान्न वितन्यते, नवरं 'समेत्ये'त्युक्तेऽपि तौ संप्रयुक्ता' विति पुनरभिधानमात्यन्तिकसंयोगोपदर्शनार्थमिति । एवं उदाहरणं-एगमि रणे रायभएणणगराओ उबसिय लोगो ठितो, पुणोवि धाडिभयेण ये वहणाणि उझिअ पलाओ, तत्थ दुवे अणाहप्पाओ, अंधो पंगू य, उझिया, गयाए धाडीए लोगग्गिणा बातेण वणदवो लग्गो, ते य भीया, अंधो छुट्टाकच्छो अग्गितेण पलायइ, पंगुणा MH७१॥ अनोदाहरणं-एकस्मिन्नरपये राजभयेन नगरात् बदस्य (दुष्य) लोकः स्थितः, पुनरपि पाटिभयेन च वाहनानि अजिमस्या पलायितः, तत्र -द्वावनाधारमानी (ज्यमायौ), अन्धः पाना अजिझती, गतायां धाव्या लोकामिना पातेन वनदवो लनः, सौ च भीती, अन्धः छुहकछोनिमार्गेण पलायते पाना. * एत्य. + पवहणाणि. छुटकत्यो. T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०२], भाष्यं - भणित-अंध! मा इतो णास णं, इतो चेव अग्गी, तेण भणितं-कुतो पुण गच्छामि ?, पंगुणा भणित-अपि पुरतो अतिदूरे मग्गदेसणाऽसमस्थो पंगू, ता में खंधे करेहि, जेण अहिकंटकजलणादि अवाए परिहरावेतो सुहं ते नगरं पावेमि, तेणं तहत्ति पडिवज्जिय अणुठितं पंगुवयणं, गया य खेमेण दोवि णगरं ति । एस दिहतो, अयमत्थोवणओ-णाणकिरियाहिं सिद्धिपुरं पाविजइत्ति । प्रयोगश्च-विशिष्टकारणसंयोगोऽभिलषितकार्यप्रसाधकः, सम्यक्रियोपलब्धिरूपत्वात्, अन्धपइयोरिव नगरावाप्तिरिति । यः पुनरभिलषितफलसाधको न भवति, स सम्यक्रियोपलब्धिरू'पोऽपि न भवति, इष्टगमनक्रियावकलविघटितैकचक्ररथवदिति व्यतिरेकः ।। १०२ ॥ आह-ज्ञानक्रिययोः सहकारित्वे सति किं केन स्वभावेनोपकुरुते ? किमविशेषेण शिधिकोद्वाहकवद्, उत भिन्नस्वभावतया गमनक्रियायां नयनचरणादिवातवद् इति, अत्रोच्यते, भिन्नस्वभावतया, यत आहदणाणं पयासर्ग सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥१०॥ व्याख्या-तत्र कचवरसमन्वितमहागृहशोधनप्रदीपपुरुषादिव्यापारवदू इह जीवगृहकर्मकचवरभृतशोधनालम्बनो ज्ञानादीनां स्वभावभेदेन व्यापारोऽवसेय इति समुदायार्थः । तत्र ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं, तच्च प्रकाशयतीति प्रकाशक, तच्च ज्ञान प्रकाशकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वात्, गृहमलापनयने प्रदीपवत्, क्रिया तु तपःसंयमरूपत्वाद् इत्थमुपकुरुते मणिसं-अन्ध ! मा इतो नेशः, इन एवाग्निः, तेन भणित-कृतः पुनर्गच्छामि, पखना भणित अहमपि पुरतोऽतिदूरे मार्गदेशनाऽसमर्थः पङ्खः, तत् मां स्कन्धे कुरा, बेनाधिकण्टकादीन् अपायान् परिहारवन् सुखं त्वां नगरं प्रापयामि, तेन तथेति प्रतिपद्यानुष्ठितं पशुपचन, गती चोमेण द्वावपि नगरमिति, एप स्टान्तः, अयमत्रोपनया-जानक्रियाभ्यां सिबिपुरं प्राप्यत इति. *इंसगा. + वाले रिति. रूपो. ह.. SECSC T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: मोक्षस्य आवश्यक ३ कारणानि कथ्यते ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०३], भाष्यं - आवश्यक- शोधयतीति शोधकं, किं तदिति, आह-तापयत्यनेकभवोपात्तमष्टविधं कर्मेति तपः, तच्च शोधकत्वेनैवोपकुरुते, तत्स्व- हारिभद्री भावत्वादू, गृहकचवरोज्झनक्रियया तच्छोधने कर्मकरपुरुषवत् , तथा संयमनं संयमः, भाये अप्प्रत्ययः, आश्रवद्वारविरमा यत्तिः ॥७२॥ दणमितियावत्, चशब्दः पृथग् ज्ञानादीनां प्रकान्तफलसिद्धी भिन्नोपकारकर्तृत्वावधारणार्थः, गोपनं गुप्तिः, खिया तिन् विभागः१ (पा०३-३-९४) आगन्तुककर्मकचवरनिरोध इतिहृदयं, गुप्तिकरणशीलो गुप्तिकरः, ततश्च संयमोऽपि अपूर्वकमेकचवरा| | गमनिरोधतयैवोपकुरुते, तत्स्वभावत्वात् , गृहशोधने पवनप्रेरितकचवरागमनिरोधेन वातायनादिस्थगनवत्, एवं त्रयाणा-8 समेव, अपिशब्दोऽवधारणार्थः, अथवा संभावने, किं संभावयति ?-'त्रयाणामपि' ज्ञानादीनां, किंविशिष्टानां ?-निश्चयतःल क्षायिकानां, न तु क्षायिकोपशमिकानामिति, 'समायोगे' संयोगे 'मोक्ष' सर्वथाऽष्टविधकर्ममलवियोगलक्षणः, जिनानां शासनं जिनशासनं तस्मिन्, 'भणितः' उक्तः। आह–'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यागमो विरुध्यते, सम्य-18 |ग्दर्शनमन्तरेण उक्तलक्षणज्ञानादित्रयादेव मोक्षप्रतिपादनादिति, उच्यते, सम्यग्दर्शनस्य ज्ञानविशेषत्वाद् रुचिरूपत्वात्त | ज्ञानान्तर्भावाद् अदोष इति गाथार्थः ॥ १०३ ॥ इह यत् प्राक नियुक्तिकृताऽभ्यधायि 'श्रुतज्ञानेऽपि जीवो वर्तमानः | सन्न प्राप्नोति मोक्षं इत्यादि प्रतिज्ञागाथासूत्र, तत्रैव सूत्रसूचितः खल्वयं हेतुरवगन्तव्यः, कुतः-तस्यै क्षायोपशमिकत्वात् , अवधिज्ञानवत् इति, क्षायिकज्ञानाद्यवाप्तौ च मोक्षप्राप्तिरिति तत्त्वं, अतः श्रुतस्यैव क्षायोपशमिकत्वमुपदर्शयन्नाह ॥७२॥ | ज्ञानविशेषत्वसाधनाय. २क्षायोपामिकस्वरूपा. ३ श्रुतस्य अपिना गृहीतव मत्यादेश, अवधेस्तु दृष्टान्तस्यामात्र प्रहः । तथाच क्षायोपशमिके ज्ञानकिये क्षायिकज्ञानायवाप्तिद्वारा मोक्षसाधनमिति. ५ श्रुतज्ञाने वर्तमानस्य मोक्षानवाः. * सम्पग योगः समायोगः तस्मिन् मो. +परूपत्वात. 9-19425* 4% HTaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०४], भाष्यं [-] भावे खोवसमिए दुवालसंगपि होइ सुचनाणं । केवलियनाणलंभो नन्नत्य खए कसायाणं ॥१०४॥ ब्याख्या-भवनं भावः तस्मिन् , स चौदयिकाद्यनेकभेदः, अत आह–'क्षायोपशमिके' द्वादश अङ्गानि यस्मिंस्तत् द्वादशाङ्गं भवति श्रुतज्ञानं, अपिशब्दाद् अङ्गबाह्यमपि, तथा मत्यादिज्ञानत्रयमपि, तथा सामायिकचतुष्टयमपि, तथा के हवलस्य भावः कैवल्य घातिकर्मवियोग इत्यर्थः, तस्मिन् ज्ञानं कैवल्यज्ञानं, 'कैवल्ये सति' अनेन ज्ञानग्रहणेनाज्ञानिप्रकृ तिमुक्तपुरुषप्रतिपादनपरनयमतव्यवच्छेदमाह, (ग्रन्थानं २०००) तत्र 'बुझ्यध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयते' इति वचनात प्रकृतिमुक्तस्य च बुद्ध्यभावात् ज्ञानाभाव इति, तस्य लाभ:-प्राप्तिः, कथं -कषायाणां क्रोधादीनां क्षये सति 'नान्यत्र' नान्येन प्रकारेण, इह च छद्मस्थवीतरागावस्थायां कषायक्षये सत्यपि अक्षेपेण कैवल्यज्ञानाभावे ज्ञानावरणक्षयानन्तरे ध भावेऽपि कपायक्षयग्रहण वस्तुतो मोहनीयभेदकषायाणामत्र प्राधान्यख्यापनार्थमिति, कषायक्षय एव सति निर्वाण भवति, तद्भावे त्रयाणामपि सम्यक्त्वादीनां क्षायिकत्वसिद्धेः। आहएवं तर्हि यदादावुक्तं 'श्रुतज्ञानेऽपि जीवो धर्तमानः सन्न प्राप्नोति मोक्षं, यस्तपःसंयमात्मकयोगशून्यः' इति, तद्विशेषणमनर्थक, श्रुते सति तपःसंयमात्मकयोगसहिष्णोरपि मोक्षाभावादिति, अत्रोच्यते, सत्यमेतत्, किंतु क्षायोपशमिकसम्यक्त्वश्रुतचारित्राणामपि समुदितानां क्षायिकसम्यक्त्वादि SARAKOSTERIORAKARIES % T 5-455 मादिनाधिमनःपर्यची. २ सम्यक्त्यवतादि. शेषिकादीनां ज्ञानस्थात्मरूपत्वाभावात् तेच प्राधा सर्वकषायझये केवयज्ञानदर्शनचारित्राणि, क्षायिकसम्बकावं तु देशकपाषक्षयेऽपि भवति, तेनात्र तदा कपायक्षपस्य सामान्यतः परामर्श, * केवळभाव + भावात, Pataneorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], निर्युक्ति: [ १०४ ], भाष्यं [-] आवश्यक- निबन्धनत्वेन पारम्पर्येण मोक्षहेतुत्वाददोषः ॥ १०५ ॥ आह— इष्टमस्माभिः मोक्षकारणकारणं श्रुतोदि, तस्यैव कथमलाभो लाभो वेति, अन्नोच्यते, ॥ ७३ ॥ अहं पडणं सठिइइ बट्टमाणो उ। जीवो न लहइ सामाइयं चउण्हंपि एगयरं ॥ १०५ ॥ सहं पडणं अभितरओ व कोडिकोडीणं । काऊण सागराणं जह लहइ चउण्हमण्णयरं ॥ १०६ ॥ प्रथमगाथा व्याख्या--' अष्टानां' इति संख्या, कासां ? - ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनां उत्कृष्टा चासी स्थितिश्चोत्कृष्टस्थितिः तस्यां 'वर्तमानो' भवेन् 'जीवः' आत्मा 'न लभतें' न प्राप्नोति, किं तत् ? - 'सामायिक' पूर्वव्याख्यातं, किंविशिष्टं :'चतुर्णामपि' सम्यक्त्व श्रुतदेशंबिरतिसर्वविरतिरूपाणां 'एक' तरम्' अन्यतमत् इतियावत्, अपिशब्दात् मत्यादि च, न केवलं न लभते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि न भवति, यतोऽवाप्तसम्यक्त्वो हि न पुनस्तत्परित्यागेऽपि ग्रन्थिमुच उत्कृष्ट स्थितीः कर्मप्रकृतीः बध्नाति, आयुष्कोत्कृष्ट स्थिती पुनर्वर्त्तमानः पूर्वप्रतिपन्नको भवति, अनुत्तरविमानोपपातकाले देवो, न तु प्रतिपद्यमानक इति, तुशब्दाज्जघर्म्यस्थितौ च वर्त्तमानः पूर्वप्रतिपन्नत्वान्न लभते, आयुष्कजघन्य स्थितौ च वर्त्तमानो न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, जघन्यायुष्कस्य क्षुल्लकभवग्रहणाधारत्वात्, तस्य च वनस्पतिषु भावात्, तत्र च पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमान काभावात्, प्रकृतीनां च उत्कृष्टेतरभेदभिन्ना खल्वियं स्थितिः -- आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च 5 मोक्षकारणस्य क्षाचिकसम्यक्त्वादेः कारणमिति २ आादिना तपःसंयमौ ३ सचार्थस्यात्वमिति ४ आनुपूर्वीनामादिरूप उपक्रमे ५ मत्यादिशानापेक्षं. ६ सप्तानां * ०डीए + श्रुतदेशसर्व०. एकतरत् प्रकृ०. Education intimation For Funny हारिभद्री यवृत्ति:विभागः १ ~156~ ॥ ७३ ॥ p पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०६], भाष्यं -1 त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोव्यः परा स्थितिः, सप्ततिर्मोहनीयस्य, नामगोत्रयोविंशतिः, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुधकस्य, इति, IM जघन्या तु द्वादश मुहूर्चा वेदनीयस्थ, नामगोत्रयोरष्टौ, शेषाणामन्तर्मुहूर्त (तत्वार्थे अ०८ सूत्राणि १५-१६-१७-१८-१९२०-२१) इति गाथार्थः ॥१०५॥ आह-किमेता युगपदेव उत्कृष्टां स्थितिमासादयन्ति उत एकस्या उत्कृष्टस्थितिरूपायां संजातायां अन्या अपि नियमतो भवन्ति आहोस्विदन्यथा वा वैचित्र्यमंति, उच्यते अंत्र विधिरिति, मोहनीयस्य। उत्कृष्टस्थिती शेषाणामपि पण्णामुस्कृष्टैव, आयुष्कप्रकृतेस्तु उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु जघन्येति, मोहनीयरहितानां तु शेषप्रकृतीनां अन्यतमाया उत्कृस्थितेः सद्भावे मोहनीयस्य शेषाणां च उत्कृष्टा वामध्यमा वा, न तु जघन्येति प्रासङ्गिक द्वितीयगाथाव्याख्या-सप्तानामायुष्करहितानां कर्मप्रकृतीनां या पर्यन्तवर्तिनी स्थितिस्तामझीकृत्य सागरोपमाणां कोटीकोटी तस्याः कोटीकोव्या अभ्यन्तरत एव, तुशब्दोऽवधारणार्थः, कृत्वाऽऽत्मानमिति गम्यते 'यदि लभते यदि प्राप्नोति, चतुर्णी श्रुतसामायिकादीनामन्यतरत्, तत एवं लभते नान्यथेति, पाठान्तरं वा 'कृत्वा सागरोपमाणां स्थितिं लभते चतुर्णामन्यतरत्' इत्यक्षरगमनिका । अवयवार्थोऽभिधीयते-सप्तानां प्रकृतीनां यदा पर्यन्तवत्तिनी सागरोपमकोटीकोटी पल्योपमासंख्येयभागहीना भवति, तदा धनरागद्वेषपरिणामोऽत्यन्तदुर्भेद्यदारुग्रन्थिवत् कर्मग्रन्थि निकपति. प्रतिविधान, इत्यादितः संवेधकथनरूपं, प्रसास्तु पूर्वगुरुकृष्टस्थिती सामाषिकप्रतिषेधात् मध्यमायां तु लाभकधनात, Bाससखिती क्षीणायां या शेषा तिष्ठति सा. * मेवेति. + तत्र. तिसजावे. तर एष. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०६], भाष्यं - ॥७४॥ आवश्यक- र्भवतीति, आह च भाष्यकार:-"गंठिति सुदुन्भेओ कक्खडघणरूढगूढगंठिच । जीवस्स कम्मजणिओ घणरागदो- हारिभद्री सपरिणामो ॥ १॥ इत्यादि" तस्मिन् भिन्ने सम्यक्त्वादिलाभ उपजायते, नान्यथेति, तन्नेदश्च मनोविघातपरिश्रमादिभिः का दुस्साध्यो वर्तते, तथाहि-सं जीवः कर्मरिपुमध्यगतः तं प्राप्य अतीव परिश्राम्यति, प्रभूतकारातिसन्यान्तकृत्त्वेन विभागः१ संजातखेदत्वात् , संग्रामशिरसीव दुर्जयाषाकृतानेकशत्रुनरनरेद्रभटवत् । अपरस्त्वाह-किं तेन भिन्न ? किं वा सम्यक्त्वादिनाऽवाप्तेन I, थाऽतिदीर्घा कर्मस्थितिः सम्यक्त्वादिगुणरहितेनैव क्षपिता, एवं कर्मशेषमपि गुणरहित एव क्षपयित्वा |विवक्षितफलभाग भवतु, अबोच्यते, स हि तस्यामवस्थायां वर्तमानोऽनासादितगुणान्तरोन शेषक्षपणया विशिष्टफल-13 प्रसाधनायालं, चित्तविघातादिप्रचुरविघ्नत्वात् विशिष्टाप्राप्तपूर्वफलप्राप्त्यासन्नत्वात् प्रागभ्यस्तक्रियया तस्यावाप्तुमशक्यत्वाच, अनेकसंवत्सरानुपालिताचाम्लादिपुरश्चरणक्रियासादितगुणान्तरोत्तरसाहायक्रियारहितविद्यासाधकवत्, तथा चाह भाष्यकार:-"पाएण पुषसेवा परिमउई साहणमि गुरुतरिआ। होति महाविजाए किरिया पायं सविग्धा य ॥१॥ हातह कम्मठितीखवणे परिमउई मोक्खसाहणे गरुई । इह दसणादिकिरिया दुलभा पायं सविग्धा य ॥२॥" । अथवा SCSC+CG ROSROSS ॥ ४ प्रविरिति सदुदः कर्कशधनरूदगूलनन्धियत् । जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामः ॥ १॥ (विशेषावश्यके पापा ११९५), २ विद्यासाधकस्य विभीपिकादिनेथ मनाक्षोभा. ३ प्रायेण पूर्वसेवा परिमृही साधने गुरुतरा । भवति महाविद्याथाः क्रिया प्रायः सविना च ॥1॥ तथा कर्मस्थितिक्षपणे परिगही मोक्षसाधने गुर्वी । इह दर्शनादिक्रिया दुर्लभा प्रायः सविना च ॥२॥ (विशेषावश्यके गाधे १९९९-१२००) * मध्यं गतः. + तावती. रान्तस्सहा...हित.. ॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०६], भाष्यं - (४०) यत एष बही कर्मस्थितिरनेन उन्मूलिता, अत एवापचीयमानदोषस्य सम्यक्त्वादिगुणलाभः संजायते, निश्शेषकर्मप-18 है रिक्षये सिद्धत्ववत् , तत एव च मोक्ष इति, अतो न शेषमपि कर्म गुणरहित एवापाकृत्य मोक्ष प्रसाधयतीति स्थितम् ।। इदानी सम्यक्त्वादिगुणमाप्तिविधिरुच्यते-जीवा द्विधा भवन्ति-भव्याश्चाभव्याश्च, तत्र भच्याना करणत्रयं भवति, करणमिति परिणामविशेषः, तद्यथा-यथाप्रवृत्तकरणं अपूर्वकरणं अनिवृत्तिकरणं च । तत्र यथैव प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं तच्चानादि, अप्राप्तपूर्वमपूर्व, निवर्त्तनशीलं निवर्ति न निवति अनिवर्ति, आ सम्यग्दर्शनलाभात् न निवर्तते, तत्राभव्यानां आद्यमेव भवति, तत्र यावदन्थिस्थानं तावदाद्यं भवति, तमतिकामतो द्वितीयं, सम्यग्दर्शनलाभाभिमुखस्य तृतीयमिति ॥१०६॥ इदानी करणत्रयमङ्गीकृत्य सामायिकलाभदृष्टान्तानभिधित्सुराह पल्लय १ गिरिसरिउवला २ पिवीलिया ३ पुरिस ४ पह ५ जरग्गहिया ६ । कुदव ७ जल ८ वत्थाणि ९ य सामाइयलाभविट्ठन्ता ॥ १०७॥ व्याख्या-तत्र पल्लकदृष्टान्त:-पल्लको लाटदेशे धाग्यधाम भवति, तत्र यथा नाम कश्चिन्महति पत्ये धान्य प्रक्षिपति8 स्वल्पिं स्वल्पतरं, प्रचुरं प्रचुरतरं त्वादत्ते, तच्च कालान्तरेण क्षीयते, एवं कर्मधान्यपल्ये जीवोऽनाभोगतः यथाप्रवृत्तकरणेन स्वल्पतरमुपचिन्वन् बहुतरमपचिन्वंश्च प्रन्थिमासादयति, पुनस्तमतिकामतोऽपूर्वकरणं भवति, सम्यग्दर्शनलाभाभिमु कर्मक्षपणनिवन्धनस्याथ्यवसायमानस्य सर्वदेव भावात् (इति वियो० १२०१ गाथावृत्तौ), २ सम्यत्तवाविरूप० * उच्छेदिता. + नेदं | याधारो. नेदं न मल्पमल्पतरं. अल्पतर०. Sarwajaniorary om पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: सामायिकलाभे पल्लक-आदि ९ दृष्टन्तानि ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] आवश्यक हारिभद्री यवृत्तिः ॥७५॥ 16विभागः१ खस्यतु अनिवतीति, एष पल्यंकदृष्टान्तः । आह-अयं दृष्टान्त एवानुपपन्नः, यतः संसारिणो योगवतः प्रति- समयं कर्मणश्चयापचयावुक्ती, तत्र चाँसयतस्य बहुतरस्य चयः अल्पतरस्य चापचयः, यत आगमः-"पल्ले महइमहल्ले कुंभं पक्खिवइ सोहए णालि । असंजएँ अविरए बहु बंधइ निजरइ थोवं ॥१॥ पल्ले महतिमहल्ले कुंभ | सोहेइ पक्खिये णालिं । जे संजए पमत्ते बहु निजरइ बंधई थोवं ॥२॥ पल्ले महइमहल्ले कुंभ सोहेइ पक्खिवे | न किंचि । जे संजए अपमत्ते बहु निजरे बंधइन किंची ॥३॥" ततश्च एवं पूर्वमसंयतस्य मिथ्यादृष्टेः प्रभूततरबन्धकस्य कुतो अन्धिदेशप्राप्तिरिति, अत्रोच्यते, ननु मुग्ध ! बाहुल्यमङ्गीकृत्य इदमुक्तं यद्-असंयतस्य बहुतरस्योपचयोऽल्प-11 तरस्य चापचयः, अन्यथाऽनवरतप्रभूततरबन्धाङ्गीकरणे खल्वपचयानवस्थानात् अशेषकर्मपुद्गलानामेव ग्रहणं प्रामोति, | अनिष्टं चैतत् , सम्यग्दर्शनादिप्राप्तिश्च अनुभवसिद्धा विरुध्यते, तस्मात् प्रायोवृत्तिगोचरमिदं पल्येत्यादि द्रष्टव्यमिति १ । कथं पुनरनाभोगतः प्रचुरतरकर्मक्षय इति आह-गिरेः सरिद् गिरिसरित् तस्यां उपलाः-पाषाणाः गिरिसरिदुपलाः तद्वत्, एतदुक्तं भवति यथा गिरिसरिदुपलाः परस्परसन्निघण उपयोगशून्या अपि विचित्राकृतयो जायन्ते, एवं यथाप्रवृत्तिकरणतो जीवास्तथाविधकर्मस्थितिविचित्ररूपाश्चित्रा इति २। पिपीलिका:-कीटिकाः, यथा तासां क्षिती स्वभावगमनं S ॥७५॥ पक्येऽतिमहति कुम्भं प्रक्षिपति शोधयति मालिकाम् । असंयतोऽविरतः बहु बभाति निर्जस्यति स्तोकम् ॥१॥ पक्ष्येऽतिमहति कुम्भ शोधयति प्रक्षिपति मालिकाम् । यः संयतः प्रम तः बहु निर्जरपति बाराति स्तोकम् ॥२॥ पल्येऽतिम ति कुम्भ शोधयति प्रक्षिपति न किचित् । यः संवतोऽप्रमत्तः बहु Kानिजेरपति म बाति किचित् ॥३॥ २ अविरतिमिच्यादृष्टिः. * पन्या + एवमुक्त सस्थाहर खिलूपचपा.10तिचित्र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] 1504 भवति १ तथा स्थाण्वारोहणं २ संजातपक्षाणां च तस्मादप्युत्पतनं ३ स्थाणुमूर्धनि चावस्थानं ४ कासाश्चित् स्थाणुशिरसः प्रत्यवसर्पणं ५ एवमिहापि जीवानां कीटिकास्वभावगमनवत् यथाप्रवृत्तकरणं, स्थाण्वारोहणकल्पं त्वपूर्वकरणं, उत्पतनतुल्यं त्वनिवर्तिकरणमिति, स्थाणुपर्यन्तावस्थानसदृशं तु ग्रन्थ्यवस्थानमिति, स्थाणुशिरसः प्रत्यवसर्पणसमानं तु पुनः कमेस्थितिवर्धनमिति ३ । पुरुषदृष्टान्तो यथा-केचन व्रयः पुरुषा महानगरयियासया महाटवी प्रपन्नाः, सुदीर्घमध्वानं अतिक्रामन्तः कालातिपातभीरवो भवस्थानमाढीकमानाः शीघ्रतरगतयो गच्छन्तः पुरस्तात् उभयतः समुत्खातकरवाल-16 पाणितस्करद्वयमालोक्य तत्रैकः प्रतीपमनुप्रयातः अपरस्तु ताभ्यामेव गृहीतः तथाऽपरस्तावतिक्रम्य इष्टं नगरमनुप्राप्त इति। एष दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयः-एवमिह संसाराटच्या पुरुषाः संसारिणत्रयः कल्प्यन्ते, पन्थाः कर्मस्थितिरतिदीर्घा, भयस्थानं तु ग्रन्थिदेशः, तस्करद्वयं पुना रागद्वेषौ, तत्र प्रतीपगामी यो यथाप्रवृत्तकरणेन प्रन्थिदेशमासाद्य पुनरनिष्टपरिणामः सन् कर्मस्थितिमुत्कृष्टामासादयति, तस्करद्वयावरुद्धस्तु प्रबलरागद्वेषोदयो ग्रन्थिकसत्त्व इत्यर्थः, अभिलषितनगरमनुप्राप्तोऽपूर्वकरणतो रागद्वेषचौरौ अपाकृत्य अनिवर्तिकरणेनावाधसम्यग्दर्शन इति ४ । आह-सहि सम्यग्दर्शनमुपदेशतो लभते उतानुपदेशत एवेति, अत्रोच्यते, उभयथापि लभते, कथम् ?, पंथः परिभ्रष्टपुरुषत्रयवत् , यथा हि कश्चित् पधि परिभ्रष्टः उपदेशमन्तरेणैव परिभ्रमन् स्वयमेव पन्थानमासादयति, कश्चित्तु परोपदेशेन, अपरस्तु नासादयत्येव, एवमिहा पाशुद्धने (इति वि० १२०० गाथावृत्ती) मूलं चुभोगिनामकः इत्यमरः. २ सर्वेऽप्येते सुमार्थाः, अन्यथा अपूर्वकरणकालाप्राक्तनत्वं विरुध्येत. गहिति सुतुबनेको कक्सदधणेश्यारिके घणरागहोसपरिणामोतिवचनात्, * पथपरि (पाटः पथश्च मार्गति निकायोषा), + १५५० 4%252%25% waajaneiorary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०७], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्रांक आवश्यक- प्यत्यन्तापैनष्टसत्पथो जीवो यथाप्रवृत्तकरणतः संसाराटव्यां परिभ्रमन् कश्चिद्रन्थिमासाद्य अपूर्वकरणेन च तमतिक्रम्य ||हारिभद्री अनिवर्तिकरणमनुप्राप्य स्वयमेव सम्यग्दर्शनादि निर्वाणपुरस्य पन्धानं लभते, कश्चित्परोपदेशात् , अपरस्तु प्रतीपगामी 6 यवृत्तिः ॥७६॥ ग्रन्थिकसत्त्वो वा नैव लभते इति ५ । इदानी ज्वरहष्टान्तो-यथा हि ज्वरः कश्चित् स्वयमेवाति कश्चिनेषजोपयोगेन विभागः१ कश्चित्तु नैवाति, एवमिह मिथ्यादर्शनमहाज्वरोऽपि कश्चित्स्वयमेवापैति कश्चित् अहंद्वचनभेषजोपयोगात् अपरस्तु | तदोषधोपयोगेऽपि नापति, करणत्रययोजना स्वयमेव कार्या ६ । कोद्रवदृष्टान्तः-यथा इह केपाश्चित् कोद्भवाणां मदनभावः स्वयमेव कालान्तरतोऽपैति तथा केषाश्चित् गोमयादिपरिकर्मतः तथा परेषां नापति, एवं मिथ्यादर्शनभावोऽपि कश्चित्स्वयमेवाति कश्चिदुपदेशपरिकर्मणा अपरस्तु नापति, इह च भावार्थः-स हि जीवोऽपूर्वकरणेन मदः नार्धशुद्धशुद्धकोद्रवानिव दर्शनं मिथ्यादर्शनसम्यग्मिध्यादर्शनसम्यग्दर्शनभेदेन त्रिधा विभजति, ततोऽनिवर्तिकरणविशेपात्सम्यक्त्वं प्रामोति, एवं करणत्रययोगवतो भव्यस्य सम्यग्दर्शनप्राप्तिः, अभव्यस्यापि कस्यचिदू यथाप्रवृत्तकरणतो ग्रन्थिमासाद्य अहंदौदिविभूतिसदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्त्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति, न शेषलाभ | इति । इदानीं जलदृष्टान्ता-यथा हि जल मलिनार्धशुद्धशुद्धभेदेन त्रिधा भवति, एवं दर्शनमपि मिथ्यादर्शनादिभेदेन अपूर्वकरणतस्त्रिधा करोतीति, भावार्थस्तु पूर्ववदेव ८ । वस्त्रदृष्टान्तेऽप्यायोजनीयमिति गाथार्थः९॥ १०७ ।। प्रासङ्गिक मत्र पूर्वत्र च, परं न दृष्टान्तानुक्रमेण किंतु यथास्वरूपं. २ दर्शनमोहनीय पुतलरूपं, मिथ्यात्वस्य सरयेऽपि भागश्रयम्, शुद्धत्वावस्थानत आश्रित्य मिष्यापावस. ३ आदिना गणभूवादिविभूत्यादिमहा, तवं तु सत्कारकारणमेतदिति बुद्धौ. ४ देवत्वनरेन्द्रत्वसौभाग्यरूपबलावात्यादिप्रहः.*०न्तमनट +०तिदर्शन। SSCCCCCCCC अनुक्रम wwlanniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [१०७], भाष्यं [-] मुच्यते-- एवं सम्यग्दर्शनलाभोत्तरकालमवशेषकर्मणः पस्योपमपृथक्त्वमिं तिस्थितिपरिक्षयोत्तरकालं देशविरतिरवाप्यते, पुनः शेषायाः संख्येयेषु सागरोपमेषु स्थितेरपगतेषु सर्वविरतिरिति, पुनरवशेषस्थितेरपि संख्येयेष्वेव सागरोपमेषु क्षीणेषु उपशामकश्रेणी, अनेनैव भ्यायेन क्षपकश्रेणीति, इयं च देशविरत्यादिप्राप्तिरेतावत्कालतो देवमनुष्येषु उत्पद्यमानस्य अप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य नियमेनोत्कृष्टतो द्रष्टव्येति, अन्यथा अन्यतरश्रेणिरहितसम्यक्त्वादिगुणप्राप्तिरेकभवेनाप्य विरुद्वेति, उकं च भाष्यकारेण - "सम्मेत्तंमि उ उद्धे पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा । चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा हुति ॥ १ ॥ एवं अपरिवडिए सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु । अण्णतरसेढिवजं एगभवेणं च सवाई ॥ २ ॥" अभिहितं आनुषङ्गिकं इदानीं यदुदयात् सम्यक्त्व सामायिकादिलाभो न भवति, संजातो वाऽपैति तानिहावरणरूपान् कषायान् प्रतिपादयन्नाह - पढ मिडुः । अथवा यदुक्तं 'कैवल्यज्ञानलाभो नान्यत्र कषायक्षयात्' इति इदानीं ते कषायाः के ? कियन्तः १ को वा कस्य सम्यक्त्वादिसामायिकस्यावरणं ? को वा खलु उपशमनादिक्रमः कस्य इत्यमु मर्थमभिधित्सुराह पढमियाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं । सम्महंसणलं भं भवसिद्धीपावि न लहंति ॥ १०८ ॥ देवभवेऽधिकस्थितावपि तावत्याः स्थितेः सद्भावादुपचयेन म देशविरविप्रसङ्गः इति प्रथमपचाशकतो. २ सम्यक्त्वे तु लब्धे पत्योपमपृथकत्वेन श्रावको भवेत्। चरणोपशमक्षयेषु सागराः संस्थेवा अन्तरं भवति ॥ १ ॥ एवमप्रतिपतिते सम्यये देवमनुष्यजन्मसु । अन्यतरश्रेणिव एकभयेनापि सर्वाणि ॥ २ ॥ (विशे० १२२२-१२२३) ३ श्रुतसम्यक्त्वादिप्राप्तिहेतुतया प्रसङ्गः नेदस्. + उपशमश्रे०. तदिदानीं क० ०पशमादि ० Education intimational For First Use Only www.pincibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः सम्यक्त्व आदि सामायिके आवरणं (अनन्तानुबन्धि कषायानां कारणे सम्यक्त्व आदीनाम् अलाभ:) ~ 163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१०८], भाष्यं - आवश्यक ॥७७॥ GIRROR उत्तरगाथा अपि प्रायः कियत्योऽपि उक्तसंबन्धा एवेति, तत्र व्याख्या-प्रथमा एव प्रथमिलुकाः, देशीवचनतो जहा हरिभद्री'पढमिल्ला एस्थ घरा' इत्यादि, तेषां प्रथमिल्लुकानां-अनन्तानुबन्धिनां क्रोधादीनामित्युक्तं भवति, प्राथम्यं चैषां सम्यक्त्वा- यवृत्तिः ख्यप्रथमगुणविघातित्वात् क्षेपणक्रमाद्वेति, उदयः-उदीरणावलिकागततत्पुद्गलोद्भूतसामर्थ्यता तस्मिन् उदये, किम् ?-13 विभागः१ 'नियमात् नियमेनेति, अस्य व्यवहितपदेन साधू संबन्धः, तं च दर्शयिष्यामः, इदानीं पुनः प्रथमिठुका एव विशिप्यन्ते-किविशिष्टानां प्रथमिछुकानां कर्मणा तत्फलभूतेन संसारेण वा संयोजयन्तीति संयोजनाः, संयोजनाश्च . कषायाश्चेति विग्रहः तेषामुदये, किम् -नियमेन सम्यक्-अविपरीतं दर्शनं सम्यग्दर्शनं तस्य लाभा-प्राप्तिः सम्यग्दर्श-18 नलाभः तं, भवे सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः । आह-सर्वेषामेव भवे सति सिद्धिर्भवति ?, उच्यते, एवमेतत्, किंतु इह । प्रकरणात् तद्भवो गृह्यते, तद्भवसिद्धिका अपि न लभन्ते' न प्रामुवन्ति, अपिशब्दाद् अभव्यास्तु नैव, अथवा परीतसंसारिणोऽपि नैवेति गाथार्थः ॥ १०८॥ बिइयफसायाणुदए अपञ्चक्खाणनामधेजाणं । सम्मईसणलंभं विरयाविरई न उ लहंति ॥१०॥ व्याख्या-'द्वितीया' इति देशविरतिलक्षणद्वितीयगुणघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा, 'कषाया' इति 'कप गती' इति कषशब्देन कर्माभिधीयते, भवो वा, कषस्य आया लाभाः प्राप्तयः कषायाः क्रोधादयः, द्वितीयाश्च ते कषायाश्चेति समासः, तेषां, 'उदयः' इति अस्य पूर्ववदर्थः, किंविशिष्टानां -'अप्रत्याख्याननामधेयानां न विद्यते देशविरतिसर्वविरतिरूप प्रत्याख्यानं येषु उदयप्राप्तेषु सत्सु ते अप्रत्याख्यानाः, सर्वनिषेधवचनोऽयं नञ् द्रष्टव्यः, अप्रत्याख्याना एवं नामधेय येषां। T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [१०९], भाष्यं [-] ते तथाविधाः तेषामुदये सति किम् - सम्यग्दर्शनलाभ, भव्या लभन्ते इति शेषः, अयं च वाक्यशेषो विरताविरतिविशेषणे तुशब्दसंसूचितो द्रष्टव्यः तथा चाह-विरमणं विरतं तथा न विरतिः अविरतिः विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्ती सा तथोच्यते, देशविरतिरित्यर्थः तां विश्ताविरतिं नतु लभन्ते, खुशब्दात् सम्यग्दर्शनं तु लभन्ते इति गाथार्थः ॥ १०९ ॥ तइयकसायाद पञ्चक्खाणावरणनामधिजाणं । देसिकदेसविरहं चरित्तलंभं न उ उर्हति ॥ ११० ॥ व्याख्या — सर्वविरतिलक्षणतृतीयगुणघातित्वात् क्षपणक्रमाद्वा तृतीयाः, 'कपायाः' पूर्ववत्, तृतीयाश्च ते कपायाश्चेति समासः, कषायाः क्रोधादय एव चत्वारस्तेषां 'उदय' इति पूर्ववत् किंविशिष्टानां ? - आवृण्वन्तीत्यावरणाः, प्रत्याख्यानं सर्वविरतिलक्षणं तस्यावरणाः प्रत्याख्यानावरणाः प्रत्याख्यानावरणा एव नामधेयं येषां ते तथाविधास्तेषां । आह-नन्वप्रत्याख्याननामधेयानामुदये न प्रत्याख्यानमस्तीत्युक्तं, नञा प्रतिषिद्धत्वात् इहापिच आवरणशब्देन प्रत्याख्यानप्रतिबेधात् क एषां प्रतिविशेष इति उच्यते, तत्र न सर्वनिषेधवचनो वर्त्तते, इह पुनः आङने मर्यादेपदर्थवचनत्वात् ईपन्मर्यादया वाssवृण्वन्तीत्यावरणाः, ततश्च सर्वविरतिनिषेधार्थ एवायं वर्त्तते न देशविरतिनिषेधे खल्वावरणशब्द इति, तथा चाह-देशश्चैकदेशश्च देशैकदेशी, तत्र देशः-स्थूरप्राणातिपातः, एकदेशः तस्यैव यथादृश्यवनस्पतिकायातिपातः, तयोः विरतिः- निवृत्तिः तां लभन्ते इति वाक्यशेषः, अत्रापि वाक्यशेषः चारित्रविशेषणे तुशब्दाक्षिप्त एव द्रष्टव्यः, यत आह-'चारित्र' इति 'घर गतिभक्षणयो' रिति, अस्य 'अर्त्तिलूधूसूख निसहिचर इत्रः' (पा.३-२-१८४ ) इतीत्रप्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनिन्दितमनेन इति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावश्चारित्रं, एतदुक्तं भवति इहान्यजन्मोपात्ता Educatin itemational For Only www.g पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 165~ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११०], भाष्यं [-] ॥ ७८।। आवश्यक- विधकर्मसंचयापचयाय 'चरणं चारित्रं, सर्वसावद्ययोगनिवृत्तिरूपा क्रियेत्यर्थः, तस्य लाभश्चारित्रलाभस्तं न तु लभन्ते, हारिभद्रीतुशब्दादेशैकदेशविरतिं तु लभन्त एवेति गाथार्थः ॥ ११०॥ इदानीममुमेवार्थमुपसंहरन्नाह यवृत्तिः विभागः१ मूलगुणाणं लभं न लहइ मूलगुणघाइणं उदए । उदए संजलणाणं न लहइ चरणं अहक्खायं ॥१११॥ व्याख्या-मूलभूता गुणा मूलगुणा उत्तरगुणाधारा इत्यर्थः, ते च सम्यक्त्वमहानताणुव्रतरूपाः तेषां मूलगुणानां लाभ 'न लभते' न प्राप्नोति, कदेति आह-मूलगुणान् घातयितुं शीलं येषां ते मूलगुणघातिनः तेषां मूलगुणघातिना-अन-12 न्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणानां द्वादशानां कषायाणामुदये, तथा ईषद् ज्वलनात् संज्वलनाः सपदि परीषहादिसंघातज्वलनाद्वा संज्वलनाः क्रोधादय एव चत्वारः कषायाः तेषां संज्वलनानामुदये न लभते चारश्चरणं, भावे ल्युट्प्रत्ययः, लब्धं वा त्यजति, किं सर्वम् ।-नेत्याह-यथैवाख्यातं यथाख्यातं इति अकषाय, सकपायं तु लभते एवेति ॥१११॥ न च यथाख्यातचारित्रमात्रोपघातिन एव संज्वलनाः, किंतु शेषचारित्रदेशोपघातिनोऽपि, तदुदये शेषचारित्रदेशातिचारसिद्धेः, तथा चाहसव्वेविअ अइयारा संजलणाणं तु उद्यओटुंति । मूलच्छिज्जं पुण होइ बारसण्हं कसायाण ॥११२ ॥ व्याख्या-'सर्वे' आलोचनादिच्छेदपर्यन्तप्रायश्चित्तशोध्या, अपिशब्दात कियन्तोऽपिच, अतिचरणाम्यतिचाराः X ॥७८॥ चारित्रस्खलनाविशेषाः, संज्वलनानामेवोदयतो भवन्ति, तुशब्दस्य एवकारार्थत्वात् द्वादशानां पुनः कषायाणां उदयतः, हाकिम् ?-मूलच्छेद्यं भवति, एवं पदयोगः कर्तव्यः, 'मूलेन' अष्टमप्रायश्चित्तेन 'छियते' विदार्यते यद्दोषजातं तन्मूलच्छेच, ACCACANCE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११२], भाष्यं [-] प्रत सूत्रांक अशेषचारित्रच्छेदकारीति भावार्थः, पुनःशब्दस्तु प्रक्रान्तार्थविशेषणार्थ एवेति, 'भवति' संजायते 'द्वादशानां' अनन्तानुबन्धिमभृतीनां कषायाणां, उदयेनेति संवध्यते, अथवा मूलच्छेद्यं यथासंभवतः खल्यायोजनीय, प्रत्याख्यानावरणकषा-1 योदयतस्तावत् मूलच्छेद्य-सर्वचारित्रविनाशः, एवमप्रत्याख्यानकषायानन्तानुवन्ध्युदयतस्तु देशविरतिसम्यक्त्वं मूलच्छेचं यथायोगमिति गाथार्थः ॥ ११२ ॥ यतश्चैवमतःबारसविहे कसाए खइए उबसामिए व जोगेहिं । लम्भह चरित्तलंभो तस्स विसेसा हमे पंच ॥ ११३ ॥ व्याख्या 'द्वादशविधे द्वादशप्रकारे अनन्तानुवन्ध्यादिभेदभिन्ने 'कषायें क्रोधादिलक्षणे, 'क्षपिते सति' प्रशस्तयोगैः-निर्वाणहुतभुक्तुल्यता नीते 'उपशमिते' भस्मच्छन्नाग्निकल्पतां प्रापिते, वाशब्दात् क्षयोपशमं वा-अर्धविध्यातानलोद्घट्टनसमतां नीते 'योगैः' मनोवाकायलक्षणैः प्रशस्तैर्हेतुभूतैरिति, किम् ? लभ्यते चारित्रलाभः 'तस्य' चारित्रलाभस्य सामान्यस्य न तु द्वादशविधकषायक्षयादिजन्यस्यैवेति, 'विशेषा' भेदा 'एते' वक्ष्यमाणलक्षणाः 'पञ्च पञ्चेति संख्या, (इति) गाथाक्षरार्थः ॥११३ ॥ अनन्तरगाधासूचितपञ्चचारित्रभेदप्रदर्शनायाह सामाइयं च पदम छेओवट्ठावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुहुमं तह संपरायं च ॥११४ ॥ तत्तो य अहक्खायं खायं सम्बंमि जीवलोमि। चरिकण सुविहिआ वच्चंतयरामरं ठाणं ॥११५॥ "प्रथमगाथाव्याख्या-'सामायिक' इति समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणां आया-समायः, समाय एवं सामायिक, विनयादिपाठात् स्वार्थे ठक्, आह-समयशब्दस्तत्र पठ्यते, तत्कथं समाये प्रत्ययः, उच्यते, 'एकदेशविकृतमनन्यवद्र अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | चारित्रस्य सामायिक-आदि पञ्च-भेदा: एवं तेषाम् व्याख्या: ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं - आवश्यक । ॥७९॥ प्रत सूत्रांक |वती' तिन्यायात् , तच सावद्ययोगविरतिरूपं, ततश्च सर्वमध्येतच्चारित्रं अविशेषतः सामायिक, छेदादिविशेषैस्तु विशे- हारिभद्री प्यमाणं अर्थतःशब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति, तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्र स्वल्पकालमित्वरं, तच्च भरतैरवतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेषु अनारोपितव्रतस्य विभागः१ शिक्षकस्य विज्ञेयमिति, यावत्कथिकं तु यावत्कथा आत्मनः तावत्कालं यावत्कथं यावत्कथमेव यावत्कधिक आभववतीतियावत्, तच्च मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयमिति, तेषामुपस्थापनाऽभावात्, अत्र प्रसङ्गतो मध्यमविदेहपुरिमपश्चिमतीर्थकरतीर्थवर्तिसाधुस्थितास्थितकल्पः प्रदर्श्यते-तत्र ग्रथान्तरे विवक्षितार्थप्रतिपादिकेयं गाथा"आचेलकु१देसिय २ सेजायर ३ रायपिंड ४ किइकम्मे ५ वय ६ जिड ७ पडिकमणे ८ मासं ९ पजोसवणकप्पो १०॥१॥" अस्या गमनिका-चउसु ठिआ छसु अहिआ, केषु चतुर्ष इति, आह-सिज्जायरपिंडे या चाउज्जामे य |पुरिसजिहे य । किनकम्मस्स य करणे चत्तारि अवडिआ कप्पा ॥१॥नास्य चेलं विद्यते इत्यचेलकः तदाबः अचेलकत्वं अचेलकत्वे स्थिताः, एतदुक्तं भवति-न वैदेहमध्यमतीर्थकरतीर्थसाधवः पुरिमपश्चिमतीर्थवर्तिसाधुवत् अचेलवे स्थिताः कुतः-तेषां ऋजुप्रज्ञत्वात् महाधनमूल्यविचित्रादिवत्राणामपि परिभोगात्, पुरिमपश्चिमतीर्थकरतीथेवत्तिसाधूनां तु| T ऋजुवक्रजडत्वात् महाधनमूल्यादिवस्त्रापरिभोगाज्जीर्णादिपरिभोगाच्च अचेलकत्वमिति । आह-जीर्णादिवस्त्रसद्भावे, कथमचेर लकत्वम् ।, उच्यते, तेषां जीर्णत्वात् असारत्वात् अल्पत्वात् विशिष्टार्थक्रियाऽप्रसाधकत्वात् असत्त्वाविशेषात् इति, तथा चेत्थंभूतवस्त्रसद्भावेऽपि लोकेऽचेलकत्वव्यपदेशप्रवृत्तिदृश्यते, यथा-काचिदङ्गना जीर्णवखपरिधाना अन्याभावे सति अनुक्रम -- -- wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: आचेलक आदि दश कल्पा: ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं - S 25-5 तदावेऽपि च समर्पितसाटकं कुविन्दं तनिष्पादनमन्थरं प्रति आह-त्वर कोलिक ! नग्निकाऽहमिति' १। तथा औद्दे|शिकेऽप्यस्थिता एव, कथम् ?-इह पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधु उद्दिश्य कृतमशनादि सर्वेषामकल्पनीयं, तेषां तु यमुद्दिश्य कृतं तस्यैवाकल्पनीयं न शेषाणामिति २ । तथा शय्यातरराजपिण्डद्वारम्,-पिण्डग्रहणमुभयन संवध्यते, तत्र शय्यातर-। |पिण्डे स्थिता एव, शय्यातरपिण्डोहि यथा पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां अकल्पनीयः, एवं मध्यमतीर्थकरसाधूनामपि । राज |पिण्डे चास्थिताः, कथम् । स हि पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनामग्राह्य एव, मध्यमानां तु दोषाभावात् गृह्यते ४ा तथा कृतिकर्म वन्दनमाख्यायते, तत्रापि स्थिताः, कथम् ? यथा पुरिगपश्चिमतीर्थकरसाधूनां प्रभूतकालपत्रजिता अपि संयत्या पूर्व वन्दनं | कुर्वन्ति, एवं तेषामपि, यथा वा क्षुल्लका ज्येष्ठार्याणां कुर्वन्ति, एवं तेषामपि ५ । ब्रतानि प्राणातिपातादिनिवृत्तिलक्षणानि तेष्वपि स्थिता एव, यथा पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधवः व्रतानुपालनं कुर्वन्ति, एवं तेऽपीति, आह-तेषां हि मैथुनविरतिवज्योनि चत्वारि व्रतानि, ततश्च कथं स्थिता इति, उच्यते, तस्यापि परिग्रहेऽन्तर्भावात् स्थिता एव, तथाच नापरि|गृहीता योषित् उपभोकुं पार्यते । तथा ज्येष्ठेति-ज्येष्ठपदे स्थिता एव, किन्तु पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां उपस्थापनया | ज्येष्ठः, तेषां तु सामायिकारोपणेनेति । तथा प्रतिक्रमणे अस्थिताः, पुरिमपश्चिमसाधूनां नियमेनोभयकालं प्रतिक्रमणं,81 | तेषां तु अनियमः, दोषाभावे सर्वकालमध्यप्रतिक्रमणमिति ८ तथा मासपर्युषणाकल्पद्वार,-तत्र मासकल्पेऽप्यस्थिताः कथम् ?-पुरिमपश्चिमतीर्थकरसाधूनां नियमतो मासकल्पविहारः, मध्यमतीर्थकरसाधूनां तु दोषाभावे न विद्यते, एवं पर्युपणाकस्पोऽपि वक्तव्यः, एतदुक्तं भवति--तस्मिन्नपि अस्थिता एव ९-१०-इति समुदायार्थः, विस्तरार्थस्तु कल्पादवग EAXE JABERand पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ (मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [११५], भाष्यं [-] ॥ ८० ॥ आवश्यक- न्तव्यः । अभिहितमानुषङ्गिकं, इदानीं प्रकृतमुच्यते - आह-पुरिमपश्चिमतीर्थकर साधूनामपि यदित्वरं सामायिकं तत्रापि ★ करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीव' इतीत्वरस्याप्याभवग्रहणात् तस्यैव उपस्थापनायां परित्यागात् कथं न प्रतिज्ञा४ लोप इति, अत्रोप्यते - अतिचाराभावात्, तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगविनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य शुद्ध्यन्तरापादनेन संज्ञामात्र विशेषात् इति । चशब्दो वाक्यालङ्कारे, 'प्रथमं' आद्यं चारित्रमिति, इदानीं 'छेदोपस्थापनं' छेदश्चोपस्थापनं च यस्मिंस्तच्छेदोपस्थापनं, एतदुक्तं भवति - पूर्वपर्यायस्य छेदो महाव्रतेषु चोपस्थापनमात्मनो यत्र तच्छेदोपस्थापनं तच्च सातिचारमनतिचारं च तत्रानतिचारं यदित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्य आरोप्यत इति, तीर्थान्तरसंक्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थात् वर्धमान स्वामितीर्थं संक्रामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्ताविति, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यत् पुनर्प्रतोचारणमिति, उक्तं छेदोपस्थापनं, इदानीं परिहारविशुद्धिकं तत्र परिहरणं परिहारः- तपोविशेषः तेन विशुद्धिर्यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिकं तच्च द्विभेदं निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च तत्र निर्विशमान कास्तदासेवकाः तदव्यतिरेकात् तदपि चारित्रं निर्विशमानकमिति, आसेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायाः त एव स्वार्थिकप्रत्ययोपादानात् निर्विष्टका| विकाः तदव्यतिरेकाञ्चारित्रमपि निर्विष्टका विकमिति, इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका भवन्ति, अपरे तु तद्वैयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः एतेषां च निर्विशमानका नामयं परिहारः - परिहारियाण उ तवो जहण्ण मज्झो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहिं पत्तेयं । १ । परिहारिकाणां तु तपो जन्यं मध्यमं तथैवोत्कृष्टम् । शीतोष्ण वर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् 1 Jus Educat For Final P हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 170 ~ ॥ ८० ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११५], भाष्यं -1 तत्थं जहण्णो गिम्हे चउत्थ छई तु होइ मझिमओ । अठममिहमुकोसो पत्तो सिसिरे पवक्खामि । २ । सिसिरे तु जह पणादी छट्ठादी दसमचरिमगो होति । वासासु अहमादी बारसपजतगो णेओ।३। पारणगे आयाम पंचसु गहो भदोसभिग्गहो भिक्खे । कप्पडियादि पइदिण करेति एमेव आयामं । ४ । एवं छम्मासतवं परितु परिहारिया अणुचरति । अणुचरगे परिहारियपदहिते जाव छम्मासा ।५। कप्पडितोवि एवं छम्मासतवं करेंति सेसा उ । अणुपरिहारिंगभावं वयंति कप्पष्टिगत्तं च । ६। एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वण्णिओ कप्पो । संखेवओ विसेसा विसेससुत्ताओ णायवो । ७॥ कप्पसमत्ती' तयं जिणकप्पं वा उविति गच्छं वा । पडिवजमाणगा पुण जिणस्स पासे पर जंति । ८ । तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व णो उ अण्णस्स । एतेसिं जं चरणं परिहारविसुद्धिगं तं तु ।९।''तथा' इत्यानन्तर्यार्थे, गाथाभङ्गाभयाव्यवहितस्योपन्यासः, 'सूक्ष्मसंपराय' इति संपर्येति एभिः-संसारमिति संपरायाः कषायाः, सूक्ष्मा लोभांशावशेषत्वात् तत्र जघन्य प्रीष्मे चनुयः पठस्तु भवति मध्यमकम् । अष्टम इह उत्कृष्टं इतः शिक्षिरे प्रवक्ष्यामि । २ । शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं | भवति । वर्षामु अष्टमादि द्वादशपर्यन्तकं ज्ञेयम् । ३ । पारणके आचामाम्लं पत्र महा द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् । कल्पस्थितादयः प्रतिदिन कुर्वन्ति एवमेवाचामाम्लम् । । । एवं षण्मासतपः चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । मनुचरकाः परिहारिकपदस्थिताः बावत्वपमासाः। ५। कल्पस्थितोऽपि एवं पण्मासतपः करोति शेषास्तु अनुपरिहारिकमा प्रजन्ति कल्पस्थितस्वं चाराएवमेयोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कपः । संक्षेपतः विशेषतो विशेषसूत्राज्ञातव्यः 1. कल्पसमाप्ती तं जिनकल पोपयन्ति वा । प्रतिपद्यमामकाः पुनर्जिनस्ट पार्थ प्रपचन्ते । । तीर्थकरसमीपासेवकप पार्थे वा गत्वन्यस्य । एतेषा यमरणं परिहारविशुद्धिक तत् ॥९॥ Majansorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा -], निर्युक्तिः [११५], भाष्यं [-] ॥ ८१ ॥ * आवश्यक संपराया यत्र तत् सूक्ष्मसंपरायं तच्च द्विधा विशुध्यमानकं संक्लिश्यमानकं च तत्र विशुध्यमानकं क्षपकोपशमकश्रेणिद्वयमारोहतो भवति, संक्लिश्यमानकें तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्येति, 'चः' समुच्चये इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या 'ततश्च' सूक्ष्मसंपरायानन्तरं यथैवाख्यातं यथाख्यातं अकषायचारित्रमिति यथा ख्यातं - प्रसिद्धं सर्वस्मिन् ४ जीवलोके, तच्च छद्मस्थवीतरागस्य केवलिनश्च भवति, तत्र च छद्मस्थस्य उपशामकस्य क्षपकस्य वा, केवलिनस्तु सयोगिनोऽयोगिनो वेति शेषं निगदसिद्धं, नवरं मरणं मरः जरा च मरश्च जरामरौ तौ अविद्यमानौ यस्मिन् तदजरामर - मिति गाथार्थः ॥ ११५ ॥ तत्रैतेषां पञ्चानां चारित्राणां आद्यं चारित्रत्रयं क्षयोपशमलभ्यं चरमचारित्रद्वयं तूपशमक्षयलभ्यमेव, तत्र तत्कर्मोपशमक्रमप्रदर्शनायाह अणदंसनपुंसित्थी वैद्यकं च पुरुसवेयं च । दो दो एगन्तरिए सरिसे सरिसं उवसमेइ ।। ११६ ।। अथवा चरमचारित्रद्वयं श्रेण्यन्तर्भाविनस्तद्विनिर्गतस्य च भवति, अतः श्रेणिद्वयावसरः, तत्र उभयश्रेणिलाभे चादावुपशमश्रेणिर्भवतीत्यतस्तत्स्वरूपाभिधित्सयैवाह- अणदंस० । गाथाव्याख्या- तत्रोपशमश्रेणिप्रारम्भको भवत्यप्रमत्तसंयत एव, अन्ये तु प्रतिपादयन्ति - अविरत देश विरतप्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतम इति, श्रेणिपरिसमाप्तौ प्रमत्ताप्रमत्तसंयतानामन्यतमो भवति, स चैवमारभते-अण रणेति दण्डकधातुः अस्याच्प्रत्ययान्तस्य अण इति भवति, शब्दार्थस्तु अणन्तीत्यणाः अणन्ति-शब्दयन्ति अविकलहेतुत्वेन असातवेद्यं नारकाद्यायुष्कं इत्यणा:- आद्याः क्रोधादयः, अथवा अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयः अनाः, समुदायशब्दानामवयवे वृत्तिदर्शनात् भीमसेनः सेन इति यथा, तत्रासौ प्रतिपत्ता प्रशस्तेष्वध्यवसाय Education national For Party हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 172~ ॥ ८१ ॥ पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११६], भाष्यं [-] (४०) SSC | स्थानेषु वर्तमानः प्रथम युगपदन्तर्मुहर्त्तमात्रेण कालेन अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन् उपशमयति, एवं सर्वत्र युगपदुपश|मककालोऽन्तर्मुहर्सप्रमाण एव द्रष्टव्यः, ततो दर्शनं दर्शस्तं, दर्शनं त्रिविधं-मिथ्या सम्यग्मिथ्या सम्यग्दर्शनं युगपदेवेति, ततोऽनुदीर्णमपि नपुंसकवेदं युगपदेव यदि पुरुषः प्रारम्भका, पश्चात्स्त्रीवेदमेककालमेवेति, ततो हास्यादिषद-हास्यरत्य|रतिशोकमयजुगुप्सापदं, पुनः पुरुषवेदं । अथ स्त्री प्रारम्भिका ततः प्रथम नपुंसकवेदमुपशमयति पश्चात्पुरुषवेदं ततः षट्व ततः स्त्रीवेदमिति । अथ नपुंसक एव प्रारम्भकः ततोऽसौ अनुदीर्णमपि प्रथमं स्त्रीवेदमुपशमयति पश्चात्पुरुषवेदं ततः पदं ततो नपुंसकवेदमिति, पुनः 'द्वौ द्वौ क्रोधाद्यौ 'एकान्तरिती' संचलनविशेषक्रोधाद्यन्तरितो 'सदृशी' तुल्यौ 'सदृशं' युगपदुपशमयति, एतदुक्तं भवति-अप्रत्याख्यानमत्याख्यानावरणक्रोधौ सदृशी कोधत्वेन युगपदुपशमयति, ततः संज्वलनं क्रोधमेकाकिनमेव, ततः अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणमानौ युगपदेव ततः संज्वलनमानमिति, एवं मायाद्वयं सदृशं पुनः संज्वलनां मायां, एवं लोभद्वयमपि पुनः संग्वलनं लोभमिति, तं चोपशमयंत्रिधा करोति, द्वौ भागौ युगपदुपशमयति, तृतीयभाग संख्येयानि खण्डानि करोति, तान्यपि पृथक् पृथक् कालभेदेनोपशमयति, पुनः संख्येयखण्डानां चरमखण्डं असंख्येयानि खण्डानि करोति, सूक्ष्मसंपरायस्ततः समये समये एकैकं खण्डं उपशमयतीति, इह च दर्शनसप्तके उपशान्ते निवृत्तिवादरोऽभिधीयते, तत ऊर्यमनिवृत्तिबादरो यावत् संख्येयान्तिमद्विचरमखण्डं । आह-संज्वलनादीनां । युक्त इत्थमुपशमः, अनन्तानुबन्धिनां तु दर्शनप्रतिपत्तावेवोपशमितत्वान्न युज्यत इति, उच्यते, दर्शनप्रतिपत्ती तेषां क्षयो SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११६], भाष्यं [-] यवृत्तिः विभाग-१ प्रत सूत्रांक आवश्यक- पशमात् इह चोपशमादविरोध इति, आह-क्षयोपशमोपशमयोरेव कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, क्षयोपशमो खुदीर्णव क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षया उपशमः, प्रदेशानुभवतस्तु उदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उक्त ॥८२॥ टच भाष्यकारेण-"वेदेई संतकम्म खओवसमिएसु नाणुभावं सो । उवसंतकसाओ उण वेएइ न संतकम्मपि ॥१॥" आह-संयतस्यानन्तानुबन्धिनामुदयो निषिद्धस्तत् कथमुपशम इति, उच्यते, स ह्यनुभावकर्माङ्गीकृत्य न तु प्रदेशकर्मेति, तथा चोकमार्च-"जीवे' भन्ते ! सर्यकर्ड कर्म वेदेइ, गोयमा ! अत्धेगइ वेइए अस्थगइ नो वेएइ, से केणड्डेणं ? भन्ते ! पुच्छा, गोयमा दुविहे कम्मे पण्णत्ते, तंजहा-पएसकम्मे अ अणुभावकम्मे अ, तत्थ णं जं तं पएसकम्म त नियमा वेएइ, तत्थ ण जंतं अणुभावकम्मं तं अत्धेगइ वेएइ, अत्थे गइयंणो वेपइ" इत्यादि, ततश्च प्रदेशकर्मानुभावोदयस्येहोपशमो द्रष्टव्यः । आह-ययेवं संयतस्य अनन्तानुबन्ध्युदयतः कथं दर्शनविघातो न भवति?, उच्यते, प्रदेशकर्मणो मन्दानुभावत्वात् , तथा कस्यचिदनुभावकर्मानुभवोऽपि नात्यन्तमपकाराय भवन्नुपलभ्यते, यथा संपूर्णमत्यादिचतुर्तासनिनः तदावरणोदय इत्यलं विस्तरेण ॥११६॥ 643 अनुक्रम ॥८२॥ वेदयति सत्कर्म झायोपशमिकेषु नानुभावं सः। उपशान्तकषायः पुनर्वेदयति न सत्कर्मापि।।। २ जीवो भइम्त ! स्वयंकृतं कर्म वेदयति ! गौतम ! अस्पेकक (किजिद) वेदयति, भरत्येककं ग वेदयति, तत् केनार्थेन भदन्त ! पृच्छा, गौतम । विविध कर्म प्रज्ञप्तं, तबया-प्रदेशकर्म अनुभाव-12 कर्मच, नत्र यत्सत् प्रदेशकों तत् नियमादेदवति, तत्र यत् अनुभाषकर्म तत् अस्त्वेककं वेदयति, अत्येक मो वेदयति. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [११६], भाष्यं [-] अत्र स्थापना उपशम श्रेणे:-इह च संख्येयलोभखण्डान्युपशमयन् वादरसंपरायः, चरमसंख्येयखण्डासंख्येयखण्डान्युप शमयन् सूक्ष्मसंपराय इति, तथा चाह नियुक्तिकारःसूक्ष्म लोभाणु वेअंतो जो खलु उवसामओ व खवगो बा। सो सुष्टुमसंपराओ अहखाया ऊणओ किंची।। ११७॥ गाथेयं गतार्थत्वात् न वित्रियते, नवरं यथाख्यातात् किश्चिन्यून इति, ततः सूक्ष्मसंपरायाव-| स्थामन्तमुहर्त्तमात्रकालमानामनुभूयोपशामकनिम्रन्थो यथाख्यातचारित्रीभवति ॥११७॥ स च | यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते तदवस्थश्च वियते, ततो नियमतोऽनुत्तरविमानवासिषु उत्पयते, श्रेणि• सं-मा प्रच्युतस्य त्वनियमः, अथाबद्धायुः अतोऽन्तर्मुहूर्त्तमान उपशामकनिर्ग्रन्थो भूत्वा नियमतः पुनरपि संको"उदितकपायः कात्स्येन श्रेणिप्रतिलोममावर्तते, तथा चामुमेवार्थमभिधित्सुराह नियुक्तिकार: जवसाम उवणीआ गुणमहया जिणचरित्तसरिसंपि। . पडिवायंति कसाया किं पुण सेसे सरागत्थे ॥११८॥ : व्याख्या-'उपशमः' शान्तावस्था तमुपशम, अपिशब्दात् अयोपशममपि, उपनीताः गुण.... . हान् गुणमहान तेन गुणमहता-उपशमकेन, किम् ?-प्रतिपातयन्ति कषायाः, संयमा भवे वा, कम् ?-जिनचारित्रतुल्यमपि उपशमकं, किं पुनः शेषान् सरागस्थानिति । यथेह भस्मच्छमानलः पवनाथासादितसहकारिका ख-म-मा ०० -अ-मा अ-प्र-को नए श्री. JABERatinintamational Clandionary.com पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [११८], भाष्यं -] आवश्यक ॥८३॥ रणान्तरः पुनः स्वरूपमुपदर्शयति, एवमसावप्युदितकषायानलो जघन्यतस्तद्भव एव मुक्तिं लभते, उत्कृष्टतस्तु देशोनमर्ध- निहारिभद्रीपुद्गलपरावर्त्तमपि संसारमनुवनातीति ॥ ११८ ॥ यतश्चैवं तीर्थकरोपदेशः अत औपदेशिकं गाथाद्वयमाह नियुक्तिकारः जइ उवसंतकसाओ लहइ अर्णतं पुणोऽपि पडिवाण हुभे वीससियब्वं थेवे य कसायसेसंमि ॥११९॥ ४ विभागः१ अणथोवं वणथोवं अग्गीथोवं कसायथोवं च । गहु मे वीससियव्वं थेवपि हुतं यहं होइ ॥ १२० ॥ प्रथमगाथा प्रकटार्थत्वान्न वितन्यते, द्वितीयगाथाव्याख्या-ऋणस्य स्तोकं ऋणस्तोकं तथाच स्वल्पादपि ऋणात दासत्वं प्राप्ता वणिग्दुहितेति, उक्त च भाष्यकारेण-"दासत्तं देइ अणं अचिरा मरणं वणो विसर्पतो। सबस्स दाहमग्गी देति कसाया भवमणतं ॥ १॥" अपिचशब्दनिपातसाफल्यं पूर्वोक्तानुसारेण स्वबुद्ध्या वक्तव्यमिति गाथार्थः ॥१२० ॥ इत्थमौपशमिकं चारित्रमुक्तं, इदानी क्षायिकमुच्यते, अथवा सूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रद्वयं उपशमश्रेण्यङ्गीकरणेनोकं, इदानीं क्षपकश्रेण्यङ्गीकरणतः प्रतिपादयन्नाह____ अण मिच्छ मीस सम्मं अट्ठ नपुंसिस्थीवेय छक्कं च। पुंवेयं च खबेइ कोहाइए य संजलणे ॥ १२१॥ व्याख्या-इह क्षपकश्रेणिप्रतिपत्ताऽसंयतादीनामन्यतमोऽत्यन्तविशुद्धपरिणामो भवति, स च उत्तमसंहननः, तत्र पूर्वविदप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि प्रतिपद्यते, अपरे तु धर्मध्यानोपगत एवेति, प्रतिपत्तिकमश्चायम्-प्रथममन्तर्मुहर्तेन ॥८३॥ अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन् युगपत्क्षपयति, तदनन्तभागं तु मिथ्यात्वे प्रक्षिप्य ततो मिथ्यात्वं सहैव तदंशेन युगपत् 1 दासत्वं ददाति पाणं अधिराम्मरणं गणो विसर्पन् । सर्वस्व वाहमानिर्ददति कषाया भवमनन्तम् ॥ १ ॥ (विशेषावश्यकगाया 1211). Matangibrary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१२१], भाष्यं [-] क्षपयति, यथा हि अतिसंभृतो दावानलः खलु अर्धदग्धेन्धन एव इन्धनान्तरमासाद्य उभयमपि दहति, एवमसाकपिट क्षपकः तीनशुभपरिणामत्वात् सावशेष अन्यत्र प्रक्षिप्य क्षपयति, एवं पुनः सम्यग्मिथ्यात्वं ततः सम्यक्त्वमिति, इह च| यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते अनन्तानुबन्धिक्षये च ब्युपरमति, ततः कदाचित् मिथ्यादर्शनोदयतस्तानपि पुनरुपचिनोति, मिथ्यात्वे तद्वीजसंभवात् , क्षीणमिथ्यात्वस्तु नोपचिनोति, मूलाभावात् , तदवस्थश्च मृतोऽवश्यमेव त्रिदशेषु उत्पद्यते क्षीणसप्तकोऽपि तदप्रतिपतितपरिणाम इति, प्रतिपतितपरिणामस्तु नानामतित्वात् सर्वगतिभाग भवति, आह-मिथ्या-| दर्शनादिक्षये किमसौ अदर्शनो जायते उत नेति, उच्यते, सम्यग्दृष्टिरेवासी, आह-ननु सम्यग्दर्शनपरिक्षये कुतः सम्यग्दृष्टित्वम् !, उच्यते, निर्मदनीकृतकोद्रवकल्पा अपनीतमिथ्यात्वभावा मिथ्यात्वपुगला एवं सम्पग्दर्शनं, तत्परिक्षये| च तत्त्वश्रद्धानलक्षणपरिणामाप्रतिपातात् प्रत्युत श्लक्ष्णाभ्रपटलापगमे चक्षुर्दर्शनवत् शुद्धतरोपपत्तेरिति अलं प्रपञ्चेन । स 2 ४च यदि बद्धायुः प्रतिपद्यते ततो नियमात् सप्तके क्षीणे अवतिष्ठत एव, स च सम्यग्दर्शनमशेषमेव क्षपयति, अबद्धायुस्तु अनुपरत एव समस्तां श्रेणिं समापयति इति, स च स्वल्पसम्यग्दर्शनावशेष एव अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकं युगपत् आरभते ॥ १२१ ॥ एतेषां च मध्यभागं क्षपयन् एताः सप्तदश प्रकृतीः क्षपयति, तत्प्रतिपादकमिदं गाथाद्वयम्गइआणुपुष्वी दो दो जाइनामं च जाव चरिंदी । आयावं उज्जोयं थावरनामं च सुहमं च ।। १२२ ।। साहारणमपज्जतं निद्दानि च पयलपयलं च।थीणं खवेइ ताहे अवसेसं जं च अट्ठण्हं ॥ १२३॥ व्याख्या गतिश्चानुपूर्वी च गत्यानुपूव्यों 'दो दो' इति द्वे द्वे तन्नामनी, जातिनाम चेत्यस्मात् नामग्रहणं अभिसंब NCREDIC T Mansindianarmom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१२३], भाष्यं [-] आवश्यक- ॥८४॥ ध्यते, एतदुक्तं भवति-नरकगतिनाम नरकानुपूर्वीनाम च, आनुपूर्वी-वृषभनासिकाम्यस्तरसंस्थानीया, यया कर्मपुद्गल- हारिभद्री|संहत्या विशिष्ट स्थान प्राप्यतेऽसौ, यया वोर्वोत्तमाङ्गाधश्चरणादिरूपो नियमतः शरीरविशेषो भवति साऽऽनुपूर्वीति, तथा यवृत्तिः तिर्यग्गतिनाम तिर्यगानुपूर्वीनाम च, एवं गत्यानुपूर्वीनामनी दे दे, तथा 'जातिनाम' एकेन्द्रियादिजातिनाम यावच्चतुरि- विभागः१ न्द्रियाः, एतदुक्तं भवति-एकेन्द्रियजातिनाम द्वीन्द्रियजातिनाम एवं शेषयोजनाऽपि कार्येति । आह-एकेन्द्रियाद्यानुपूर्वीनाम कस्मान्नोच्यते, आचार्य आह-तस्य तिर्यगानुपूर्वीनामक्षपणप्रतिपादनेनोक्तार्थत्वात् , 'चः समुच्चये, तथा 'आतपं इति आतपनाम, यदुदयात् आतपवान् भवति, 'उद्योत' इति उद्योतनाम, यदुदयादुधोतवान् भवति, स्थावरा:-पृथि-IG ब्यादयः तन्नाम च पूर्ववत्, 'सूक्ष्म' इति सूक्ष्मनाम च, 'साधारणं' इति साधारणनाम, अनन्तवनस्पतिनामेत्यर्थः, 'अपर्याप्त' इति अपर्याप्तकनाम, तथा निद्रानिद्रा च इत्यादि प्रकटार्थत्वान्न विप्रियते, नवरं स्त्याना चैतन्यऋद्धिर्यस्यां सा स्त्यानधिः, स्त्यानयुत्तरकालमवशेष यदष्टानां कषायाणां तत् क्षपयति, सर्वमिदमन्तर्मुहर्त्तमात्रेणेति, ततो नपुंसकवेदं, ततः खीवेदं, ततो हास्यादिपर्दू, ततः पुरुषवेदं च खण्डनयं कृत्वा खण्डद्वयं युगपत् क्षपयति, तृतीयखण्डं तु संज्वलनक्रोधे प्रक्षिपति, पुरुषे प्रतिपत्तर्ययं क्रमः, नपुंसकादिप्रतिपत्तरितु उपशमश्रेणिन्यायो वक्तव्यः, ततः क्रोधादीच संज्वलनान् प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालेनोक्तेनैव न्यायेन क्षपयति, श्रेणिपरिसमाप्तिकालोऽप्यन्तर्मुहर्तमेव, अन्तर्मुहूर्तानामसंख्येयत्वात् , लोभ|चरमखण्डं तु संख्येयानि खण्डानि कृत्वा पृथक पृथक् कालभेदेन क्षपयति, चरमखण्डं पुनरसंख्येयानि खण्डानि करोति, तान्यपि समये समये एकैकं क्षपयति, इह च क्षीणदर्शनसतको निवृत्तिवादर उच्यते, तत ऊध्र्वमनिवृत्तिवादरी यावत् K SCXNXX ८४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१२३], भाष्यं [-] (४०) चरमलोभखण्डमिति, तत ऊर्बमसंख्येयखण्डानि क्षपयन् सूक्ष्मसंपरायो यावशरमलोभाणुक्षयः, तत ऊर्ध्वं यथाख्यात. चारित्रीभवति ।। १२३ ॥ स च महासमुद्रप्रतरणपरिश्रान्तवत् मोहसागरं तीवों विश्राम्पति, ततश्छास्थवीतरागत्वद्वि चरमसमययोः प्रथमे निद्रादि क्षपयति तथा चाह नियुक्तिकार:दावीसमिकण नियंठो दोहि ज समएहि केवले सेसे । पढमे निदं पयलं नामस्स इमाओ पयडीओ ॥१२४ ॥ IN देवगइआणुपुब्धीविउविसंघयण पढमबजाइ । अन्नयरं संठाणं तित्थयराहारनामं च ॥ १२५ ॥ 5 अर्धस्तु प्रायः सुगमत्वात् न वितन्यते, नवरं वैकुर्विकं च संहननानि चेति समासः, तानि प्रथमसंहननवोनि क्षप-| दयति, तानि च षड्भवन्ति, तथा चोक्तम्-"बजेरिसहनारायं परमं विइयं च रिसहनारायं।णारायमद्धणाराय कीलिया| तह य छेवई ॥१॥" तथा अन्यतरसंस्थानं मुक्त्वा यस्मिन्व्यवस्थितः शेषाणि क्षपयति, तानि चामूनि-"चरंसे णग्गोहे | मंडले साति वामणे खुजे । हुंडेवि अ संठाणे जीवाण छ मुणेयबा ॥१॥ तुलं वित्थडबहुलं उस्सेहबहुं च मडहकोडं च । हेडिलकायमडहं सवत्थासंठियं हुंडं ॥२॥" तथा तीर्थकरनाम आहारकनाम च क्षपयति, यद्यतीर्थकरः प्रतिपत्तेति, अथ तीर्थकरस्ततः खल्याहारकनामैवेति, 'चः' समुचये ॥ १२४-१२५ । चरमे नाणावरणं पंचविहं दसणं चउवियप्पं । पंचविहमंतराय खवइत्ता केवली होइ ॥ १२६ ॥ बनर्षभनाराचं प्रथम द्वितीयं च ऋषभनाराथम् । नाराचमर्धनारा कीलिका राव सेवार्तम् ॥1॥ २ चतुरखं म्यग्रोध मण्डल सादि वामन कुन्जम् । हुण्डमपि च संस्थानानि जीवानां पद मुणितन्यानि ॥1॥ तुल्यं विस्तृतबाइल्यान्या सेपबदल व मदभकोई च । भधाकाथमदर्भ सर्वग्रासन रिपत हुण्डम् ॥३॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१२६], भाष्यं [-] आवश्यक ॥८५॥ गमनिका-घरमे समये ज्ञानावरणं पञ्चविध मतिज्ञानावरणादि, दर्शनं चतुर्विकल्पं चक्षुर्दर्शनादि पञ्चविधमन्तरायं च हारिभद्रीदानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाख्यं क्षपयित्वा केवली भवतीति गाथार्थः ॥ १२६ ॥ ततः यवृत्तिः असंख्ये. लो. स्थापना चेयम्. विभागा नसंख्याको संभिषणं पासंतो लोगमलोगं च सवओसव्वं । तं नस्थि जंन पासह भूयं भव्वं भविस्सं च ॥१२७॥ माया. व्याख्या समेकीभावेन भिन्न भिन्न, यथा बहिस्तथा मध्येऽपीत्यर्थः, अथवा संभिन्नमिति-18 मान सं.को. द्रव्यं गृह्यते, कथम् कालभावी हि तत्पर्यायौ, ताभ्यां समस्ताभ्यां समन्ताद्वा भिन्नं संभिन्न | 'पश्यन्' उपलभमानो, लोक्यत इति लोका, केवलज्ञानभास्वतोपलभ्यत इति भावार्थः, अलो-12 हास्यादि कोऽप्युपलभ्यत एव, तथापि धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां यत्र स लोकः इति तं, अलोकं च इत्यनेन क्षेत्र प्रतिपादितं भवति, द्रव्याघेतावदेव विज्ञेयमिति, किमेकया दिशा!-नेत्याह-'सर्वतः मात्र प्रत्या......... सर्वासु दिक्षु, तास्वपि किं कियदपि द्रब्यादि उत नेत्याह-'सर्व' निरवशेष, अमुमेवार्थ स्पष्टय ॥८५॥ दान नाह-तन्नास्ति किञ्चित् ज्ञेयं यन्न पश्यति 'भूत' अतीतं, भवतीति भव्य, वर्तमानमित्यर्थः।। भमन्ता..... भावकर्मणोः प्राप्तयोः 'भव्यगेयेत्यादिनिपातनात्' (भव्यगेयप्रवचनीयोपस्थापनीयजन्याप्लाघ्यापात्या वा (पा०३-४-६८) कर्तरि सिद्धं, 'भविष्यद' भावि वा, 'च' समुच्चये इति गाथार्थः ॥ १२७ ।। ०००००० बी. T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~180 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१२७], भाष्यं [-] (४०) * _ इत्थं तावदुपोद्घातनिर्युक्तो प्रस्तुतायां प्रसङ्गतो यदुक्तं-'तपोनियमज्ञानवृक्षमारूढः केवली' इति अयमसौ केवली निदर्शितः, एतस्मात् सामायिकादिश्रुतं आचार्यपारम्पर्येण आयातं, एतस्माच्च जिनप्रवचनप्रसूतिः, सर्वमिदं प्रासङ्गिकं नियुतिसमुत्थानप्रसङ्गेनोतं, इदानीमपि केयं जिनप्रवचनोत्पत्तिः कियदभिधानं चेदं जिनमवचनं को वाऽस्य अभिधान-1 विभाग इत्येतत् प्रासङ्गिकशेषं शेषद्वारसङ्घहं वाऽभिधातुकाम आह जिणपषयणउप्पत्ती पवयणएगढिया विभागो यादारविही य नयविही वक्खाणविही य अणुओगो ॥१२८॥ दिा व्याख्या-इह 'जिनप्रवचनोत्पत्तिः प्रवचनकाधिकानि एकार्थिकविभागश्च' एतत् त्रितयमपि प्रसजशेष, द्वाराणां विधिः द्वारविधिः, विधान विधिः, स ह्युपोद्घातोऽभिधीयते, नयविधिस्तु चतुर्थ अनुयोगद्वारमिति, शिष्याचार्यपरीक्षाऽभि धानं तु व्याख्यानविधिरिति, अनुयोगस्तु सूत्रस्पर्शकनियुक्तिः सूत्रानुगमश्चेति समुच्चयार्थः । आह-चतुर्थमनुयोगद्वार नियविधिमभिधाय पुनस्तृतीयानुयोगद्वाराख्यानुयोगाभिधानं किमर्थम् ? उच्यते, नयानुगमयोः सहचरभावप्रदर्शनार्थ, तथाहि-नयानुगमौ प्रतिसूत्रं युगपद् अनुधावतः, नयमतशून्यस्य अनुगमस्याभावात्, अनुयोगद्वारचतुष्टयोपन्यासे तु नयानामन्तेऽभिधानं युगपद्वक्तुं अशक्यत्वात् । आह-चतुरनुयोगद्वारातिरिक्तव्याख्यानविधेरुपन्यासो अनर्थकः, न, अनुगमाङ्गत्वात् , व्याख्याऽङ्गत्वाचानुगमाङ्गता इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ १२८ ॥ तत्र जिनप्रवचनोत्पत्तिनियुक्तिसमुत्थानप्रसङ्गतोऽभिहिता, अर्हद्वचनत्वात् प्रवचनस्य, इदानी प्रवचनैकार्थिकानि तद्विभागं च प्रदर्शयन्नाहएगट्ठियाणि तिपिण उ पवयण सुसं तहेव अत्थो । इकिकस्स य इत्तो नामा एगडिआ पंच ।। १२९॥ + +S CRG auntaintionary.com पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | प्रवचनस्य एकार्थाः शब्दा; ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३१], भाष्यं [-] हारिभद्री यवृत्तिः आवश्यक- सुय धम्म तिस्थ मग्गो पावयणं पचयणं च एगट्ठा । सुत्तं तंतं गंथो पाढो सत्थं च एगहा ॥ १३०॥ अणुओगो य नियोगो भास विभासा य वत्तियं चेच । अणुओगस्स उ एए नामा एगहिआ पंच ॥ १३१॥ ॥८६॥ विभागः१ प्रथमगाथाव्याख्या-एकोऽर्थो येषां तान्येकाथिकानि, त्रीण्येव, प्रवचनं पूर्वव्याख्यातं, सूचनात् सूत्रं, अर्यत इत्यर्थः, ४'च' समुच्चये, इह च प्रवचनं सामान्य श्रुतज्ञानं, सूत्रार्थों तु तद्विशेषाविति, आह-सूत्रार्थयोः प्रवचनेन सहकार्थता युक्ता, तद्विशेषत्वात् , सूत्रार्थयोस्तु परस्परविभिन्नत्वात् न युज्यते, तथा च सूत्रं व्याख्येयं अर्धस्तु तब्याख्यानमिति, अथवा त्रयाणामप्येषां भिन्नार्थतैव युज्यते, प्रत्येकमेकार्थिक विभागसद्भावात्, अन्यथा एकार्थिकत्वे सति भेदेनैकार्थिकाभिधान-181 मयुक्तमिति, अत्रोच्यते, यथा हि मुकुलविकसितयोः पद्मविशेषयोः संकोचविकासपर्यायभेदेऽपि कमलसामान्यतयाऽभेदः, एवं सूत्रार्थयोरपि प्रवचनापेक्षया परस्परतश्चेति, तथाहि-अविवृत मुकुलतुल्यं सूत्र, तदेव विवृतं प्रबोधितं विकचकल्पमर्थः, प्रवचनं चोभयमपीति, यथा चैपामेकार्थिकविभाग उपलभ्यते-कमलमरविन्दं पङ्कजमित्यादि पौकार्थिकानि, तथा कुड्मलं | ४. वृन्द संकुचितमित्यादि मुकुलैकार्थिकानि, तथा विकचं फुलं विबुद्धमित्यादि विकसितैकार्थिकानि, तथा प्रवचनसूत्रार्थाना मपि पद्ममुकुलविकसितकल्पानामेकार्थिकविभागोऽविरुद्धः । अथवा अन्यथा व्याख्यायते-एकार्थिकानि त्रीण्येवानित्य वक्तव्यानि, प्रवचनमेकार्थगोचरः तथा सूत्रमर्थश्चेति, शेषं पूर्ववत्। आह-द्वारगाथायां यदुक्तं 'प्रवचनैकार्थिकानिवक्तव्यानि | जातव्याहन्यते, न, सामान्यविशेषरूपत्वात्प्रवचनस्य, सूत्रार्थयोरपि प्रवचनविशेषरूपत्वेन प्रवचनत्वोपपत्तेः । आह-यद्येवं विभागश्चेति द्वारोपन्यासानर्थक्य, न, विभागश्चेति किमुक्तं भवति ? नाविशेषेणकार्थिकानि वक्तव्यानि सामान्यविशेषरूप-11 SARKAR पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ १३१], भाष्यं [-] स्यापि प्रवचनस्य पश्चदशेति, किं तर्हि ? - विभागश्च वक्तव्यः, विशेषगोचराभिधानपर्यायाणां सामान्यगोचराभिधानपर्यायत्वानुपपत्तेः, न हि चूतसहकारादयो वृक्षादिशब्दपर्याया भवन्ति, लोके तथाऽदृष्टत्वाद् इति गाथार्थः ॥ १२९ ॥ द्वितीयगाथाव्याख्या - श्रुतस्य धर्मः - स्वभावः श्रुतधर्मः, बोधस्वभावत्वात् श्रुतस्य धर्मो बोधोऽभिधीयते, अथवा जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च तद्धर्मश्चेति समासः, सुगतिधारणाद्वा श्रुतं धर्मोऽभिधीयते, 'तीर्थ' प्राकृनिरूपितशब्दार्थ, तच्च संघ इत्युक्तं, इह तु तदुपयोगानन्यत्वात् प्रवचनं तीर्थमुच्यते, तथा मृज्यते शोध्यते अनेनात्मेति मार्गः, मार्गणं वा मार्गो, अन्वेषणं शिवस्येति, तथा प्रगतं अभिविधिना जीवादिषु पदार्थेषु वचनं प्रावचनं, प्रवचनं तु पूर्ववत् । उक्तः प्रवचनविभागः, इदानीं सूत्रविभागोऽभिधीयते तत्र सूचनात् सूत्रं, तन्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अर्थ इति तन्त्रं, तथा ग्रथ्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वाऽर्थ इति ग्रन्थः, पठनं पाठः पठ्यते वा तदिति पाठः पठ्यते वाऽनेनास्मादस्मि निति या अभिषेयमिति पाठः, व्यक्तीक्रियत इति भावार्थ:, तथा शास्यतेऽनेनास्मादस्मिन्निति वा ज्ञेयमात्मनेति वा शास्त्रं, एकार्थिकानीति पुनरभिधानं सामान्यविशेषयोः कथञ्चिद्भेदख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ १३० ॥ तृतीयगाथा व्याख्या - सूत्रस्यार्थेन अनुयोजनमनुयोगः, अथवा अभिधेयो व्यापारः सूत्रस्य योगः, अनुकूलोऽनुरूपो वा योगोऽनुयोगः, यथा घटशब्देन घटोऽभिधीयते, तथा नियतो निश्चितो वा योगो नियोगः, यथा घटशब्देन घट एवोच्यते न पटादिरिति तथा भाषणात् भाषा, व्यक्तीकरणमित्यर्थः, यथा घटनात् घटः, चेष्टावानर्थी घट इति, विविधा भाषा विभाषा, पर्यायशब्दैः तत्स्वरूपकथनं, यथा घटः कुटः कुम्भ इति, वार्तिकं त्वशेषपर्यायकथनमिति शेषं सुबोधं, अयं गाथा Education intemational For First पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३१], भाष्यं [-] आवश्यक ॥८७॥ प्रत सूत्रांक समुदायार्थः, अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति, तत्र प्रवचनादीनामविशेषेणैकार्थिकाभिधानप्रक्रमे सति एकाथिकानुयोगादे-15 हारिभद्रीभेदेनोपन्यासान्वाख्यानं अर्थगरीयस्त्वख्यापनार्थं, उक्तं च-'सुत्तधरा अस्थधरो इत्यादि' ॥११॥ तत्र अनुयोगा-18 यवृत्तिः ख्यप्रथमद्वारस्वरूपव्याचिख्यासयाऽऽह विभागः१ णामं ठवणा दविए खित्ते काले य वयण भावे या एसो अणुओगस्स उणिक्खेवो होइ सत्तविहो ॥१३२॥ गमनिका-'नाम' प्राक् निरूपितं, तत्र नामानुयोगो यस्य जीवादेरनुयोग इति नाम क्रियते, नानो वा अनुयोगो नामा|नुयोगः, नामव्याख्येत्यर्थः, 'स्थापना' अक्षनिक्षेपादिरूपा, तत्र अनुयोगं कुर्वन् कश्चित् स्थाप्यते, स्थापनायामनुयोगः स्थापनानुयोग इति समासः, स्थापना चासौ अनुयोगश्चेति वा, 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषयोऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, स च आगमनो-14 आगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्त द्रव्यस्थ द्रव्याणां द्रव्येण द्रव्यैः द्रव्ये द्रव्येषु वाऽनुयोगो द्रव्यानुयोगः, एवं क्षेत्रादिष्वपि | षडूभेदयोजना कायेंति,तत्र द्रव्यानुयोगो द्विविधः-जीवद्रव्यानुयोगः अजीवद्रव्यानुयोगश्च, एकैकः स चतुर्धा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतो जीव एकं द्रव्यं क्षेत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगाढः कालतोऽनाद्यपर्यवसितः भावतोऽनन्तज्ञा-14 नदर्शनचारित्राचारित्रदेशचारित्रअगुरुलघुपर्यायवान् इति, अजीवद्रव्याणि परमाण्वादीनि, तत्र परमाणुव्यत एक द्रव्यं | क्षेत्रत एकप्रदेशावगाढः कालतो जघन्येन समयमेकं द्वौ वा उत्कृष्टतस्तु असंख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः, भावतस्तु एकरस R ८७॥ एकवर्णः द्विस्पर्श एकगन्ध इति, एतेषां च स्वस्थानेऽनन्ता रसादिपर्याया एकगुणतिकादिभेदेन द्रष्टव्या, एवं व्यणुका-10 दीनामप्यनन्ताणुस्कन्धावसानानां स्वरूपं द्रष्टव्यं, उक्को द्रव्यानुयोगः, इदानी द्रव्याणां स च जीवाजीवभेदभिन्नानां अनुक्रम JAMERatinintamational KHandsonamom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अनुयोगस्य नामादि सप्त निक्षेपा: वर्ण्यते ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [-] अवसेयः, यथा प्रज्ञापनायां समुदितानां जीवानामजीवानां च विचारः, तथा चोकं-"जीवपजवाणं भंते ! किं संखेजा असंखेज्जा अणंता ?, गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेजा अणंता, एवं अजीवपज्जवाणं पुच्छा उत्तरं च दवं" अलं विस्तरेण । द्रव्येणानुयोगः प्रलेपाक्षादिना, द्रव्यस्तैरेव अक्षादिभिः प्रभूतैरिति, द्रव्ये फलकादौ द्रव्येषु प्रभूतासु निषद्यासु अवस्थितोऽनुयोगं करोतीति । एवं क्षेत्रानुयोगेऽपि क्षेत्रस्य भरतक्षेत्रादेः क्षेत्राणां जम्बूद्वीपादीनां यथा बीपसागरप्रज्ञाया| मिति, क्षेत्रेण यथा पृथिवीकायादिसंख्याव्याख्यानं, उक्तं च "बुद्दीवपमाणं, पुढविजिआणं तु पत्थयं काउं । एवं मविजमाणा हवंति लोगा असंखिज्जा ॥१॥" क्षेत्रैरनुयोगो यथा “बहुँहिं दीवसमुद्देहिं पुढविजिआणमित्यादि" क्षेत्रे तिर्य-1 ग्लोकेऽनुयोगो भरतादौ वा क्षेत्रेषु अनुयोगः अर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु । कालस्य अनुयोगः समयादिप्ररूपणा, कालानां & प्रभूतानां समयादीनो, कालेनानुयोगो यथा-बादरवायुकायिकानां वैक्रियशरीराण्यद्धापल्योपमस्य असंख्यभागमात्रेणापहियन्ते, कालैरनुयोगो यथा प्रत्युत्पन्नत्रसकायिका असंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते प्रतिसमयापहारेण, कालेऽनुयोगो द्वितीयपौरुष्या, कालेषु अवसर्पिण्यां त्रिषु कालेषु-सुषमदुष्पमायां चरमभागे दुष्पमसुषमायां दुष्पमायां चेति, उत्सपिण्यां कालद्वये-दुष्पमसुषमायां सुषमदुष्षमायां च । वचनस्यानुयोगो यथा इत्थंभूतं एकवचनं, वचनानां द्विवचनबहुवचनानां पोडशानां वा, वचनेनानुयोगो यथा-कश्चिदाचार्यः साध्वादिभिरभ्यर्थित एकवचनेन करोति, जीवपर्यया भवन्त ! कि संख्या असंख्येया अनन्ताः !, गौतम ! नो संख्येयाः नो असंख्येषा अनन्ता, एक्मजीवपर्यवाणा पछा उत्तरं च इष्टयं । C. जम्बूद्वीपप्रमाणं पृथ्वीजीवानां तु प्रस्थकं कृत्वा । एवं मीयमाना भवन्ति लोका असंख्येयाः ॥1॥ ३ बहुभिपिसमुः पृथ्वी जीवाना. JABERatinintamational InHorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥ ८ ॥ प्रत सूत्रांक CCC वचनैः स एव बहुभिः असकृद् अभ्यर्थितो वेति, वचनेऽनुयोगः क्षायोपशमिके, वचनेषु तेष्वेव बहुषु, अन्ये तु प्रतिपा- हारिभद्रीदयन्ति-वचनेषु नास्त्यनुयोगः, तस्य क्षायोपशमिकत्वात् , तस्य चैकत्वादिति भावार्थः । भावानुयोगो द्विधा-आगमतो|यूपत्ता नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमत औदयिकादेरन्यतमस्येति, भावानां औदयिकादीनां, भावेन संग्रहा- विभागा दिना, उक्तं च-"पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं वाएज्जा, तंजहा-संगहढ्याए १ उवग्गहठ्ठयाए २ निजरठ्ठयाए ३ सुयपज्जवजातेणं ४ अबोरिछत्तीए ५" भावैरेभिरेव समुदितैरनुयोगः, भावे क्षायोपशमिके, भावेषु आचारादिषु, अथवा प्रतिक्षणपरिणामत्वात् | क्षयोपशमस्य भावषु अनुयोगः, अथवा भावेषु नास्त्येव, क्षयोपशमस्यैकत्वात् । एतेषां च द्रव्याद्यनुयोगानां परस्परसमावेशः स्ववुड्या वक्तव्यः, उक्तं च भाष्यकारेण-"दवे णियमा भावो ण विणा ते यावि खित्तकालेहिं (ग्रन्धानम् २५००) खित्ते तिण्हषि भयणा काले भयणाए तीसुपि ॥१॥ इत्यादि" उक्तोऽनुयोगः, एतद्विपरीतस्तु अननुयोग इति गाथार्थः। ॥ १३२ ॥ साम्प्रतं तत्प्रतिपादकदृष्टान्तान् प्रतिपादयन्नाहवच्छगगोणी १खुज्जा २ सज्झाए ३ चेव वहिरउल्लाबो४।गामिल्लए ५य वयणे सत्सेवय हुंति भावंमि ॥१३३॥13 व्याख्या-तत्र प्रथममुदाहरणं द्रव्याननुयोगानुयोगयोः बत्सकगौरिति-गोदोहेओ जदि जं पाडलाए वच्छयं तंपू M८॥ | बहुलाए मुयइ बाहुलेर वा पाडलाए मुयइ, ततो अणणुओगो भवति, तस्स य दुद्धकजस्स अपसिद्धी भवति, जदि पुण. पत्रभिः स्थानैः सूत्र वाचन, सपा-संग्रहार्थाय । उपमहााय र निर्जराथाय । श्रुतपर्वावनातन परिवषा ५। २ गोदोदको यदि यः। पाटलाया वत्स बटुलावै मुमति, बाहुलेयं पाटलायै मुमति, ततोऽननुषोगो भवति, तस्य च दुग्धकार्यसमप्रसिद्धिर्भवति, यदि पुनः अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अनुयोग-अननुयोगे वत्सकगौ आदि दृष्टान्ता: ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं -1 (४०) ज' जाए सं ताए मुयइ, तो अणुओगो, तस्स य दुद्धकजस्स पसिद्धी भवति । एवं इहावि जदि जीवलक्खणेण अजीपंग परूवेइ अजीवलक्खणेण वा जीवं, तो अणणुओगो भवति । तं भावं अण्णहा गेण्हति, तेण अत्थो विसंवदति, अत्ण विसंवयंतेण चरणं, चरणेण मोक्खो, मोक्खाभावे दिक्खा णिरस्थिआ । अह पुण जीवलक्षणेण जीवं परूवेइ, अजीवलक्खणेणं अजीवं, तो अणुओगो, तस्स य कजसिद्धी भवतित्ति, अविगलो अत्यावगमो, ततो चरणवुही, ततो मोक्खोत्ति । एस पढमदिहतो ॥१॥ KI क्षेत्राननुयोगानुयोगयोः कुलोदाहरणम्-पइहोणे णगरे सालिवाहणो राया, सो वरिसे वरिसे भरुयच्छे नरवाहणं रोहेति, जाहे य वरिसारत्तो पत्तो ताहे सयं णगरं पडिजाति, एवं कालो बच्चति, अण्णया तेण रण्णा रोहएणं गएल्ल एणं अत्थाणमंडवियाए णिच्छूद, तस्स य पडिग्गधारिणी खुजा, अपरिभोगा एसा भूमी, पूर्ण राया जातुकामो, तीसे य राउलओ जाणसालिओ परिचिओ, ताए तस्स सिई, सो पए जाणगाणि पमक्खित्ता पयट्टावियाणि य, यो यस्थासं तरी मुमति, सोनुयोगः तस्य च दुग्धकार्यस्व प्रसिद्धिर्भवति । एवमिहापि यदि जीवलक्षणेन अजीब प्ररूपयति, मजीवलक्षणेन वा जीवं। | सत्तोऽननुयोगो भवति, तं भावमभ्यथा गृह्णाति, तेनार्थों विसंवदति, अर्थेन विसंवदता चारित्रं (विसंवदति), धरणेन मोक्षः, मोक्षाभाये दीक्षा निरथिका । अथ पुनर्जीवलक्षणेन जीवं प्ररूपयति, अजीवलक्षणेन अजीवं, ततोऽनुयोगः, तस्य च कार्यस्य सिद्धिर्भवति इति अविकलोऽर्थावगमस्तवचरणवृद्धिः, ततो मोक्ष | इति, एष प्रथमष्टान्तः १. २ प्रतिष्ठाने नगरे पालिवाहनो राजा, स वर्षे वर्षे भृगुकच्छे नरवाहनं रुणदि, यदा च वर्षारानः प्राप्तो (भवेत्) सदा स्वक | नगरं प्रतियाति, एवं कालो प्रगति, अन्यदा तेन राज्ञा रोधकेन (रोढुं) गतेन आस्थानमण्डषिकायां निहतं, तस्य च प्रतिमहचारिणी कुन्जा, अपरिभोगा एषा भूमिः, नूनं राजा यातुकामः, तस्याश्च राजकुलगो पानशालिका परिचितः, तथा तौ शिष्टं स प्रगे यानानि प्रमाष्टर्य प्रवर्तितवान् पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | क्षेत्र अनुयोग-अननुयोगे कुब्जस्य उदाहरण ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] ॥८९॥ आवश्यक-हात दळूण सेसओ खंधावारो पडिओ, राया रहमि एकल्लो धूलादिभया गच्छिस्सामित्ति पए पयहो, जाव सोऽवि खंधा-16 हारिभद्रीवारो पट्टितओ दिडो, राया चिंतेति-ण मया कस्सवि कथितं, कहमेतेहिं णाय?, गविडं परंपरएण जाव खुजत्ति, खुजा विभागः१ पुच्छिता, ताए तह चेव अक्खायं, एस अणणुओगो, तीसे मंडवियाए खेत्तं चेव चिन्तिजति, विवरीओ अणुओगो, एवं णिप्पदेसमेगन्तणिच्चमेगमागास पडिवजातस्स अणणुओगो, सप्पएसादि पुण पडिवजावेंतस्स अणुओगोत्ति ॥२॥ | कालाननुयोगानुयोगयोः स्वाध्यायोदाहरणं-ऐको साधू पादोसियं परियद॒तो रहसेणं कालं ण याणति, सम्मद्दिहिगा। |य देवया तं हितठ्याए बोधेति मिच्छादिठियाप भएणं, सा तकस्स घडियं भरेउ महया महया सद्देणं घोसेति-महित महितंति, सो तीसे कण्णरोडयं असहंतो भणति-अहो तक्कवेलत्ति, सा पडिभणति-जहा तुझ सम्झायवेलत्ति, ततो साहू उपउंजिऊण 5 तं दृष्टा पोषः स्कन्धावारः प्रस्थितः, राजा रहसि एकको भूल्पादिभयात् गमिष्यामीति प्रगे प्रवृत्तः (गन्तुं ), यावत् सोऽपि स्कन्धावारः प्रस्थितो टः, राजा चिन्तयति-न मया कमेचिदपि कथितं, कथमेतैज्ञातम् ! गवेषितं परम्परकेण बायकुब्जेति, कुम्जा पृष्टा, तया तवैवारूपातं, एषोऽननुवोगः, तस्याः मण्डपिकायाः क्षेत्रमेव चिन्तयेदिति, विपरीतोऽनुयोगः, एवं निष्णदेशामेकान्तनित्यमेकमाकाशं प्रतिपायमानस्य अननुयोगः, समदेशादि पुनः प्रति-16 पायमानस्य अनुयोग इति । २ एक साधुः प्रादोषिक परिवर्गबन रभसा कालं न जानाति, सम्बदष्टिका च देवता तं हितार्थाय बोधयति मिच्याइष्टिकाया भयेन सा तकस्य घटिका भूत्वा महता महता शब्देन घोषयति-मधित मचितमिसि, स तस्याः कर्णरोटकं (रार्टि) असहमानो भणति-अहो सकवेळेति, साx प्रतिभणति-यथा तब स्वाध्यायवेलेति, ततः साधुरुपयुज्य. ॥८९।। A JAMERatinintamational Alainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: काल अनुयोग-अननुयोगे स्वाध्यायस्य उदाहरणं ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] मिच्छामिदुकर्ड भणति, देवताए अणुसासिओ-मा पुणो एवं काहिसि,मा मिच्छद्दिडियाए छलिहिजिसि, एस अणणुओगो, काले पढियवं तो अणुओगो भवति ॥ ३॥ इदानी बचनविषयं दृष्टान्तद्वयमननुयोगानुयोगयोः प्रदश्यते-तत्र प्रथमं बधिरोल्लापोदाहरणम् -ऐगंमि गामे बहिरकुटुंषयं परिवसति, थेरो थेरी य, ताणं पुत्तो तस्स भज्जा, सो पुत्तो हलं वाहेति, पथिएहिं पंथं पुच्छितो भणति-घरजायगा मज्झ एते बइला, भज्जाए य से भत्तं आणीयं, तीसे कथेति जहा-बइला सिंगिया, सा भणति-लोणितमलोणितं वा, माताए ते सिद्धयं, सासूए कहियं, सा भणति-थूलं वा बरडं वा वा थेरस्स पोतं होहिद, थेरं सदावेइ,'धेरो भणइ-पिड ते जीएण, एगपि तिलं न खामि, एवं जदि एगवयणे परूवितबे दुवयणं परवेति, दुवयणे वा एगवयणं तो अणणुओगो, अह तहेव परूवेति, अणुओगो॥४॥ मिथ्या मे दुष्कृतं भणति, देवतयाऽनुशिष्टः-मा पुनरेवं कार्षीः, मा मिष्यादृष्टया चीफलः, एषोऽननुयोगः, काले पठितव्यं तदानुयोगो भवति । २ एकस्मिन् ग्रामे बधिरकुटुम्बकं परिवसति, स्थविरः स्थविरा च, तयोः पुत्रः तख भायर्या, स पुत्रो हलं वाहपति, पथिकैः पन्थानः पृष्टो भणति-गृहजाती ममैतौ पलीवदों, भार्या पतस भक्तमानीतं, तस्यै कथयति यथा-बलीवी प्रक्रिती, सा भणति-लोणितं (सलवण) मनोणितं वा, मात्रा ते साधितं | व कषिर्त, सा भणति-धूई वा वा स्थविरस्य पोतिका भविष्यति, स्थविरं शब्दयति, स्थविरो भणति-पिचामि (पापथः) जीवितं (तेन), एकमपि तिलं न सावामि, एवं बकवचने प्ररूपवितव्ये द्विवचनं प्ररूपयति द्विवचने वा एकवचनं तदाऽमनुयोगः, भय तथैव प्ररूपयति सदाऽनुयोगः. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] आवश्यक ॥ ९ ॥ प्रत ग्रामेयकोदाहरण द्वितीयं वचन एव, प्रस्तुतानुयोगप्राधान्यख्यापनार्थमिति । एगमि नयरे एगा महिला, सा भत्तारे हारिभद्रीमए कट्ठादीणिवि ताव अकीयाणि, घोच्छामोत्ति अजीवमाणी खुड्यं पुत्तं घेर्नु गामे पवुत्था, सो दारओ वहृतो मायरायवृत्तिः पुच्छति-कहिं मम पिता!, मओ त्ति, सो केणं जीविताइतो, भणति-ओलग्गाए, तो भणइ-अहंपि ओलग्गामि, सा भणति-ण जाणिहिसि ओलग्गिउं, तो कह ओलग्गिजइ, भणिओ-विणयं करिजासि, केरिसो विणओ?, जोकारो कायबो णीयं चकमियचं छंदाणुवत्तिणा होयचं, सो णगरं पधाविओ, अंतरा णेण वाहा मिगाणं णिलुका दिहा, वड्डेणं सद्देणं| जोकारोत्ति भणितं, तेणं सद्देणं मा पलाणा, तेहिं घेत्तुं पहतो, सम्भावो णेण कहिओ, भणितो तेहि-जदा एरिस पेच्छे-II जासि, तदा णिलुकतेहिं णीय आगंतवं, य उल्लविज्जति, सणि वा, ततो गेण रयगा दिट्ठा, ततो णिलुकंतो सणिअं| एति, तेसिं च रयगाणं पोत्ता हीरंति, धाणयं बर्द्ध, रक्खंति, एस चोरोत्ति बंधिओ पिट्टिओ सम्भावे कहिए मुक्को, सूत्रांक अनुक्रम एकमिनगरे एका महिला, सा भर्तरि एते काहादीन्यपि तावद्विक्रीतवती, गर्दिताः म इति बजीवन्ती भुलकं पुर्व गृहीत्या प्रामं प्रोषिता, स दारको वर्धमानः मातरं पृष्ठति-कमम पिता !, मृत इति, स केन जीविकाषितः । भणति-अवलगनया, ततो भगति-अहमपि अवलगामि, सा भणति-न जानासि भवलगित, ततः कथमवलम्यते , भणित:-विनयं कुर्याः, कीरशो विनयः1, जोरकारः (जयोरकारः) कर्तव्यः नीचैर्गतम्यं छन्दोवृत्तिना भवितव्यं, स नगरं प्रधावितः, अन्तरा अनेन ग्याधा मृगेभ्यः (मुगान् प्रदीत) निलीना दृष्टाः, बृहता शम्देन जोरकार इति भणितं, तेन याम्देन सुगाः पला-15॥९ यिताः, दीवा प्रहतः, सजावोऽनेन कविता, भणितस-पदैतादर्श पश्येस्तदा निलीयमानेन गम्तम्ब, गवताप्यते, शनैः शनैर्वा, ततोऽनेन बजका रष्टा सो निलीयमानः पानः गच्छति, तेषां च रजकानां वनाणि हियन्ते, स्थान बद्धं, रक्षन्ति, एष चौर इति पद्धः पिडितः सदावे कषिते मुक्ता, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] तेहि भणितं-सुद्धं भवतु, एगस्थ बीयाणि वाविजंति, तेण भणि-सुद्धं भवतु, तेहिवि पिट्टिओ, सम्भावे कहिए मुक्को, एरिसे-बहुं भवतु भंडं (डिं) भरेह एयस्स, अण्णत्थ मडयं णीणिज्जतं दर्दु भणति-बहु भवतु एरिसं, तत्थवि हतो, सन्भावे कहिए मुक्को भणितो एरिसे वुचति-अच्चंतविओगो भवतु एरिसेणं, अण्णत्थ विवाहे भणइ-अचंतविओगो भवतु एरिसेणं, तत्थवि हतो, सम्भावे कहिए भणितो-एरिसे(सा)णं णिचं पिच्छया होह सासयं च भवतु एयं, अण्णत्थ णिअलब यं दंडिअं दद्दूण भणति-णिच्वं एयारिसाण पेच्छंतओ होहि, सासतं च ते भवतु, तत्थवि हतो सम्भावे कहिए मुक्कोएयाओ भे लहुं मोक्खो भवतु, एयं भणिज्जसि, अण्णत्थ मिते संघाडं करेंति, तत्थ भणति-एयाओभेलहु मोक्खो भवतु, तत्थवि हतो सम्भावे कहिते मुक्को एगस्स दंडगकुलपुत्तगस्स अल्लीणो, तत्थ सेवंतो अच्छति । अण्णया दुम्भिक्खे तस्स कुलपुत्तगरस अंबिलजवागू सिंद्धल्लिया, भजाए से सो भणति-जाहि महायणमझाओ सद्देहि जो मुँजति सीतला अजोग्गा, माणितं-शुद्धं भवतु, एकत्र वीजानि अध्यन्ते, तेन भणितं-शुद्ध भवतु, तैरपि पिहितः, सद्भावे कथिते मुक्का, एतादृशे-बटु भवतु भावानि भरन्तु | एतेन, अन्यत्र सूतक नीयमानं दृष्ट्वा भणति-बहु भवस्वेतादर्श, तत्रापि इतः, सद्भावे कथिते मुक्तो भणितः एतारश उच्चते-अत्यन्त वियोगो भवस्वीहशेन, अन्यत्र विवाहे भणति-भवन्तं वियोगो भवत्वीरशेन, तत्रापि हतः, सदावे कधिते भपिता-दरशानां नित्यं प्रेक्षका भवत शावतं च भवस्वेतत्, अन्यत्र लिगउचदं दण्डिकं दृष्ट्वा भणति-निसमेतारशानां प्रेक्षको भव, माश्वतं च ते भवतु, तन्त्रापि इतः सजावे कषिते मुक्तः, एतस्मात् भवतां लघु मोक्षो भवतु, एतत् | भणे:, अन्यत्र मित्रापि संघाटकं कुर्वन्ति, सत्र भणति-एतस्मात् भवतां कषुमोक्षो भवतु, तत्रापि हतः सदावे कविते मुक्त एक दण्डिककुलश्रमालीनः, तन्त्र | सेवमानस्तिष्ठति । अन्यदा दुर्भिक्षे तस्य कुलपुत्रकस्य अम्लयवागू सिद्धा, भार्यया तस्य स भपिता-याहि महाजनमध्यात् शब्दप यत् भुझे शीतलायोग्या, RS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३३], भाष्यं [-] आवश्यक- तेण गंतुं सो भणिओ-एहि किराई सीतलीहोति अंबेल्ली, सो लज्जितो, घरंगएण अंबाडिओ, भणितो-एरिसे कजे णीहारिभद्री कण्णे कहिजइ, अण्णया घर पलितं, ताहे गंतुं सणि कण्णे कहेति, जाव सो तहिं अक्खाउंगतो ताव पर सर्व झामि. .यवृत्तिः तत्थावि अंबाडिओ भणिओ य-एरिसे कजे नवि गम्मति अक्खायएहि, अप्पणा चेव पाणीयाई काउं गोरसंपि छुब्भइ8 विभागः१ जहा तहा विज्झाउत्ति, अण्णया धुवंतस्स गोभत्तं छूढं । एवं जो अण्णंमि कहेयवे अण्णं कहेइ ताहे अणणुओगो भवति, सम्म कहिज्जमाणे अणुओगो भवति ॥ सप्तैव च भवन्ति 'भावे' भावविषये, अननुयोगानुयोगयोः प्रतिपादकानि सप्तोदाहरणानि भवन्तीति गाथार्थः ॥ १३३ ॥ तानि चामूनि सावगमज्जा १ सत्सवइए २ अ कुंकणगदारए ३ नउले ४। कमलामेला ५ संबस्स साहसं ६ सेणिए कोचो ७॥१३४ ॥ ॥११॥ तेन गरवा स भणितः, एहि किल शीतलीभवति रब्बा, स लजितः, गृहगतेन तिरस्कृतः, भणितः-ईशे कायें नीचैः कर्णयोः कथ्यते, अन्यदा गृई प्रदीप्तं, तदा गत्वा शनैः कर्णयोः कथयति, यावत्स तयाख्यातुं गतस्तावद्गुहं सर्व मातं, तत्रापि तिरस्कृतो भणितश्च-ईदृशे कार्वे नैव गम्यते भाख्यायकेन, आत्मनैव पानीवादि कृत्वा गोरस (गोभक्तादि) अपि क्षिप्यते, यथा तथा विध्यावविति, अन्यदा धूपयतः (उपरि) गोभक्त (छगणादि) क्षितं । एवं पोऽन्यसिान कवयितव्ये अन्यत् कथयति तदाऽननुयोगो भवति, सम्यक् कथ्यमाने अनुषोगो भवति । पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भाव अनुयोग-अननुयोगे 'श्रावकभार्या' आदि सप्त दृष्टाता: ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] व्याख्या-तत्र आवकभार्योदाहरणं-सांवगेण णिययभजाए वयंसिया विउबिया दिवा, अज्झोववण्णो, दुब्बलो भवति, महिलाए पुच्छिते निबंधे कए सिई, ताए भणित-आणेमि, तेहिं चेव वत्थाभरणेहिं अप्पाणं णेवस्थित्ता अंधयारे| अल्लीणा, अच्छितो, पच्छा बिइयदिवसे अधिति पगतो वयं खंडियंति, ताए साभिण्णाण पत्तियावितो। एवं जो ससमयबत्तवयं परसमयवत्तवयं भणति, उदइयभावलक्खणेणं उपसमियलक्खणं परवेति, ताहे अणणुओगो भवति, सम्म परूविजमाणे अणुओगोत्ति १ सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकः-सत्तपदिगो ऐगंमि पञ्चंतगामे एगो ओलग्गयमणूसो, साधुमाणादीणं न सुणेति, ण वा अल्लीणति, ण वा सेज देति, मा मम धम्म कहेहिन्ति, ताहे मा सदओ होहामित्ति । अण्णया कया तं गामं साहुणो आगता, पडिस्सयं मम्गति, ताहे गोहिलएहिं एसो न देतित्ति सोवि एतेहिं पवंचिओ होउत्ति तस्स घरं चिंधि, जहा एरिसो तारिसो सावगोत्ति तस्स घर जाह, तं गता पुच्छंता, दिहो, जाव ण चेव आढाति, तत्थेकेण साहुणा श्रावकेण निजभाषाया वपसा क्रिया (उद्भूतरूपा) या, अायुपपनो, दुबलो भवति, महेलया पृष्टे निर्बम्धे कृते विश, तवा भणित-आनयामि, तरेव वखाभरणैरात्मानं नेपथ्यविस्खा अन्धकारे भालीना, स्थितः, पलाद्वितीयदिवसे अति प्रगतः तं खण्डितमिति, तया साभिज्ञानं प्रत्यायितः । एवं यः स्वसमयवतम्पतां परसमयवतम्यतां भणति, औदविकभावलक्षणेनौपशमिकलक्षणं प्ररूपपति, तदाऽननुयोगो भवति, सम्पङ प्ररूपमाणे अनुयोग इति । K२ साप्तपदिकः एकसिन् प्रत्यन्तग्रामे एकोऽवलगकमनुष्यः साधुबाह्मणादीनां न शूणोति न वा सेवते (बालीनोति)नचा शय्यां ददाति, मा मे धर्म चीकयन् इति बदामा सवयो भूवमिति । अन्यदा कदाचित् तं ग्रामं साधव भागताः, प्रतिनयं मार्गयन्ति, सदा गोष्ठीकैरेष न ददातीति सोऽप्येभिः प्रतितो भवस्विति तख गृहं दर्शितं यथा-सातादशो वा श्रावक इति तस्य गृहं बात, तदू गताः पृच्छन्तः, रप्टो पाववादियते, सीकेन साधुना R JABERahanirahmational Janeiorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] आवश्यक- %456 ॥१२॥ विभागः१ % भणिअं-जदि वा ण चेव सो एसो अहवा पर्वचिता मोत्ति, तं सोऊण पुच्छिता तेण, कथितं जहा ! अम्ह कथितं ४ हारिभद्री एरिसो तारिसो सावगोत्ति, सो भणति-अहो अकज्ज, ममं ताव पवंचतु, ता किं साधुणो पवंचितेन्ति, ताहे मा यवृत्तिः सारत्ता तेसिं होउत्ति भणति-देमि पडिस्सयं पकाए यवत्थाए-जदि मम धर्म ण कहेह, साहहिं कहियं-एवं होजत्ति, दिणं परं, परिसारत्ते वित्ते आपच्छतेहिं धम्मो कहिओ, तत्थ ण किंचि तरइ घेत्तुं मूलगुणउत्तरगुणाणं मधुम-IGI जमंसविरतिं वा, पच्छा सत्तपदिवयं दिण्ण-मारेउकामेणं जावइएणं कालेणं सत्त पदा ओसकिजति एवइ कालं पडिक्खित्तु मारेयवं, संबुझिस्सतित्तिकाउं, गता। अण्णया चोरो(रओ गतो, अवसउणेणं णिअत्तो, रत्तिं सणिअंघरं एति, तद्दिवस |च तस्स भगिणी आगएलिआ, सा पुरिसणेवत्थिंआ भाउजायाए समं गोज्झपेक्खिया गया, ततो चिरेण आगया, णिद्द| कंताओ तहेव एकमि चेव सयणे सइयाओ, इअरो अ आगओ, ततो पेच्छति, परपुरिसोत्ति असिं करिसित्ता आहणेमित्ति, 4% राणानां मधुमचमांसविरर्ति बा, भणित-यदि वा नव स एषोऽथवा प्रवद्धिताः इति, तच्छुत्वा पृष्टास्तेन, कधितं यथाऽस्माकं कषितं माया श्रावक इति, स भणति-अहो। भकार्य, मां तावत्प्रसञ्चयता, तत् किं साधवः अवश्यन्ते, मा तेषामसारसा भूत इति भणति-ददामि प्रतिश्रय एकया व्यवस्थया-यदि मयं धर्म न कथयत, साधुभिः कषितम्-एवं भवत्विति, वसं गृहं, वर्षाराचे वृत्ते भारष्टैधर्मः कथितः, नत्र म किञ्चित् शक्रोति प्रहीतुं मूलगुणोत्तरगुणानां मधुमयमांसविरति बा, पश्चात् सप्तपदिकवतं दर्स, मारयितुकामेन बापता कालेन सप्त पदानि भववष्यन्ते एतावन्तं कालं प्रतीक्ष्य मारवितम्ब, संभोग्यत इतिकृत्वा गताः। भन्बदा चौरो (भूत्वा) गतः, अपशकुनेन निवृत्तः, रात्री शनैहमेति, तदिवसे च तस्य भगिनी आगता, सा पुरुषनेपथ्या भानु यया समं नृत्यविशेषप्रेक्षिका गता, सतश्रिरेणागता, निहाकान्ते तकमिानेच शयने शयिते, इतरमागतः, ततः पश्यति, परपुरुष इत्यसि कहा भाहन्मीति 'वल्र्थ काकण ॥१२॥ rajanmorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] वतं सुमरियं, ठितो सत्तपदंतरं, एअंमि अंतरे भगिणीअ से बाहा भजाए अऋतिआ, ताए दुक्खाविनंतियाए भणिअंहला! अधणेहि वाहाओ मे सीसं, तेण सरेण णाया भगिणी एसा मे पुरिसणेवत्थत्ति लज्जितो जातो, अहो मणागं मए अकज न कयंति । उवणओ जहा सावगभजाए, संबुद्धो, विभासा, पबइओ२। KI इदानी कोङ्कणकदारकोदाहरणम्-कोंकणंगविसर एक्को दारगो, तस्स माया मुया, पिता से अण्णमहिलिअंण लभति सवत्तिपुत्तो अस्थित्ति । अण्णदा सपुत्तो कहाणं गतो, ताहेणेण चिंतिअं-एअस्स तणएण महिल ण लभामि, मारेमित्ति कंडं खित्तं, आणत्तो-वच्च कंडं आणेहि, सो पहावितो, अण्णेणं कंडेणं विद्धो, चेडेण भणिअं-किं ते कंडं खित्तं, विद्धो मित्ति, पुणोवि खितं, रडन्तो मारिओ, पुर्व अजाणतेण विद्धोमित्ति अणणुओगो, मारिजामित्ति एवं णाते अणुओगो, अहवा सारक्खणिजं मारेमित्ति अणणुओगो, सारक्खंतस्स अणुओगो । जहा सारक्खणिजं मारेंतो विपरीतं करेति, वतं स्मृत, स्थितः सप्तपदान्तर, अन्नान्तरे भगिन्यास्तस्य भुजो भार्ययाऽऽक्रान्तः, तया दुःखितया (दुःखयन्त्या) भणितम्-हले ! अपनय भुजाया मे | शिरः, सेन स्वरेण ज्ञाता भगिनी एषा मे पुरुषनेपध्येति सजितो जातः, अहोमनाक् (बिलम्बेन) मया अकार्य न कृतमिति । उपनयो यथा श्रावकभाषया, संवृद्धो, | निभाषा, प्रबजितः। २ कोकणकविषये एको दारकः, तस्स माता मृता, पिता तस्म भन्थम हेलां न लभते सपशीपुत्रोऽस्तीति, अन्यदा सपुत्रः काटेभ्यो गता, | तदाऽनेन चिन्तित एतेन समयेन मदेसी मलमे, मारयामीति धारः क्षिप्तः, आज्ञप्तः-ग्रज शरमानप, स प्रभावितः, अन्येन शरेण विद्धः, पेटकेन (वारण) भणित-किं त्वया शरः क्षिप्तः, विद्धोऽसीति, पुनरपि क्षिप्तः, रटन मारितः, पूर्वमजानता विद्धोऽसीति (पुत्रविचारे) अननुयोगः, मायें इमिखेवं ज्ञावे अनु| योगा, अथवा संरक्षणीयं मायामीति अननुपोगः (पितुः) संरक्षतः अनुयोगः । यथा संरक्षणीयं मारयन् विपरीतं करोति, JABERatinintamathone manniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥ ९३ ॥ [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्मुक्तिः [१३४] आयं [-] एवं अण्णं परुवेयवं अण्णं परुवेमाणस्स विपरीतत्वात् अणणुओगो भवति, जहाभूतं परूवेमाणस्स अणुओगो भवति ‍। उले उदाहरण-एगा चांरगभडिया गब्भिणी जाया, अण्णावि णडलिया गम्भिणी चेव, तत्थ एगाए राईए ताओ सरिसिआओ पसूआओ, ताए चिंतिअं - मम पुत्तस्स रमणओ भविस्सइ, तस्स पीर्यं खीरं च देति । अण्णआ तीसे अविरतिआए खंडंतीए जत्थ मंचुलिआए सो डिकरओ उत्तारितो, तत्थ सप्पेणं चडिसा खड़तो मतो, इतरेण णउलेण ओयरंतो दिट्ठो मंचुलिआओ सप्पो, ततो ोणं खंडाखंडि कतो, ताहे सो तेण रुहिरलित्तेणं तुंडेणं तीसे अविरतियाए मूलं गंतूण चाडूणि करेइ, ताए णायं एतेण मम पुत्तो खइओ, मुसलेण आहणित्ता मारितो, ताहे धावंती गया पुत्तस्स मूलं, जाव सप्पं खंडाखंडीकयं पासति, ताहे दिगुणतरं अधितिं पगता । तीसे अविरइआए पुषिं अणणुओगो पच्छा अणुओगो, एवं जो अण्णं परुवेयवं अण्णं परुवेति सो अणणुओओ, जो तं चैव परूवेति तस्स अणुभगो ४ । १ एवमन्यारूपयितव्यं ( यत्र तत्र ) अन्यत् प्ररूपयतः विपरीतत्वात् अननुयोगो भवति यथाभूतं रूपयतः अनुयोगो भवति. २ नकुलविषयमु दाहरणं एका चारकभट्टिनी (भर्तृका) गर्भिणी जाता, अन्याऽपि नकुलिका गर्भिणी चैव तत्रैकस्यां रात्री ते युगपत् प्रसूते, तथा चिन्तितं मम पुत्रख रमणको भविष्यति, तस्मै (पृथुकं क्षीरं च दते । अन्यदा तस्यां अविरयां कण्डयन्यां यत्र मचिकायां स पुत्रः अवतारितः (शायितः), तत्र सर्वेण पठित्वा खादितः (दष्टः सुतः, इतरेण मकुलकेनावतरन् दृष्टः मचिकायाः सर्पः, ततस्तेन खण्डखण्डीकृतः, तदा स तेन रुधिरलिप्तेन तुण्डेन तस्या अविरत्या मूलं गत्वा चाटूनि करोति तथा ज्ञातं एतेन मम पुत्रः खादितः, मुशलेनाहत्य मारितः तदा धावन्ती गता पुत्रस्य मूर्ख, पावस खण्डखण्डीकृतं पश्यति तदा द्विगुणामप्रति प्रगता । तस्या अविरतेः पूर्वमननुयोगः पश्चादनुयोगः, एवं योज्यत् प्ररूपयितव्यमन्यत् प्ररूपयति सोऽननुयोगः यस्तदेव प्ररूपयति तस्य अनुयोगः । Education national For Fast Use Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 196 ~ ॥ ९३ ॥ www.joncibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] कमलामेलाउदाहरण-बारवईए बलदेवपुत्तस्स निसढस्स पुत्तो सागरचंदो रूवेणं उकिहो, सबेसि संवादीणं इहो, तत्थ य बारवईए वत्थषरस व अण्णस्स रण्णो कमलामेलानाम धूआ उकिसरीरा, सा य उम्गसेणपुत्तस्स णभसेणस्स वरेलिया, इतो य णारदो सागरचंदस्स कुमारस्स सगासं आगतो, अन्भुडिओ, उपविढे समाणे पुच्छति-भगवं! किंचि अच्छेरय दिड, आम दिई, कहिं ? कहेह, इहेव वारवईए कमलामेलाणामदारिया, कस्सइ दिण्णिआ, आम, कर्थमम ताए। समं संपओगो भवेजा, ण याणामित्ति भणित्तागतो। सोय सागरचंदो तं सोऊण णवि आसणे णवि सयणे धिति लभति, सदारियं फलए लिहंतो णामं च गिण्हतो अच्छति, णारदोऽवि कमलामेलाए अंतिअं गतो, ताएवि पुच्छिओ-किंचि अच्छेरयं दिछपुर्वति, सो भणति दुवे दिवाणि, रूवेण सागरचंदो विरूवत्तणेण णभसेणओ, सागरचंदे मुच्छिता णहसेणए विरत्ता, णारएण समासासिता, तेण गंतुं आइक्खितं-जहा इच्छतित्ति । ताहे सागरचंदस्स माता अण्णे अ कमलामेलोदाहरण-द्वारिकायां बलदेवपुत्रस्य निषधस्य पुनः सागरचन्द्रः रूपेणोत्कृष्टः, सर्वेषां शाम्यादीनामिष्टः, तत्र च द्वारिकायां वास्तव्यस्वैव अन्यस्य राज्ञः कमलामेलानाझी दुहिता उस्कृष्टशरीरा, सा चोग्रसेनपुत्रेण नभःसेनेन वृता, इता नारदः सागरचन्द्रस्य कुमारस्य सकाशं (पार्थ)आगतः, अभ्युस्थितः, उपविष्टे सति पृच्छति-भगवन् ! किश्चिदाश्चर्य दृष्टम् । ॐदएं, क कययत, इहैव द्वारिकायां कमलामेलानाम्नी दारिका, कम्मैचिदत्ता',* कथं मम तया समं | संप्रयोगो भवेत् । न जानामीति भणित्वा गतः। स च सागरचन्द्रः सत् श्रुत्वा नाण्यासने नापि शयने प्रति लभते, तो दारिको फलके लिखन् नाम च गृहन् । | तिष्ठति, नारदोऽपि कमलामेलावा अन्तिक गतः, तयाऽपि पृष्टः (सुखनृत्तान्तः ) किविदाचा दृष्टपूर्वमिति, स भणति-वे दृष्टे रूपेण सागरचन्द्रः | विरूपतया नभःसेनः, सागरचन्दे मूर्छिता, नभःसेने विरका, नारदेन समाश्वासिता, तेन गत्वाऽऽख्यात-यथेच्छत्तीति, तदा सागरचन्द्रस्य माता अन्ये च JABERatinintamational marwsaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥ ९४ ॥ [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-], निर्मुक्तिः [१३४] आयं [-] कुमारा आदण्णा मरइत्ति, संबो आगतो जाव पेच्छति सागरचंदं विलयमाणं, ताहे णेण पच्छतो ठाऊण अच्छीणि दोहिवि हत्थेहि छादिताणि, सागरचंदेण भणितं कमलामेलत्ति, संवेण भणितं णाहं कमलामेला, कमलामेलोsहं, सागरचंदेण भणितं -- आमं तुमं चैव ममं विमलकमलदललोअणि कमलामेलं मेलिहिसि, ताहे तेहिं कुमारेहिं संबो मज्जं पाएत्ता अच्भुवगच्छाविओ, विगतमदो चिंतेति-अहो मए आलो अब्भुवगओ, इदानीं किं सकमण्णहाकाउं?, णिवहियवंति पजण्णं पण्णतिं मग्गिऊण जंदिवस तस्स णभसेणस्स विवाहदिवसो तद्दिवसं ते सागरचंदसंबप्पमुहा कुमारा उज्जाणं गंतुं णारदस्स सरहस्सं दारिया सुरंगाए उज्जाणं णेत्तुं सागरचंदो परिणाविओ, ते तत्थ किडुंता अच्छेति । इतरे य तं दारियं ण पेच्छति, मग्गंतेहिं उज्जाणे दिडा, विज्जाहररूवा विउविया, नारायणो सबलो णिग्गओ, जाव अपच्छिमं संवरूवेणं पाएसु पडिओ, सागरचंदस्स चैव दिण्णा, णभसेण तणया अ खमाविया । एत्थ सागरचंदस्स १ कुमाराः सिना ब्रियत इति, शाम्ब भगतो यावत्प्रेक्षते सागरचन्द्रं विपन्तं तदाऽनेन पश्चात्स्थित्वा अक्षिणी द्वाभ्यामपि हस्ताभ्यां छादिते, सागरचन्द्रेण भणितं कमलामेलेति, शाम्बेन भणितं नाहं कमलामेला कमलामेोऽहं सागरचन्द्रेण भणितं एवं त्वमेव मां विमलकमलदललोचनां कमलामेलां मेलविष्यसि तदा तैः कुमारैः शाम्यो मयं पायवित्वाऽभ्युपगमितः, विगतमदचिन्तयति महो मयाऽऽहमभ्युपगतं इदानीं किं शक्यमन्यथाकर्तुं निर्ह्रहणीयमिति प्रद्युनं प्रशसिं मार्गवित्वा यदिवसे तस्य नभःसेनस्य निवाहदिवसः तस्मिन् दिवसे ते सागरचन्द्र शाम्बप्रमुखाः कुमारा उद्यानं गत्वा नारदेन सरहस्यं दारिकां सुरया उद्यानं भीत्वा सागरचन्द्रः परिणायितः, ते तत्र क्रीडन्तस्तिष्ठन्ति । इतरे च तां दारिकां न प्रेक्षन्ते मार्गपरिचाने दृष्टा विद्याधररूपाणि चिकुर्वितानि, नारायणः सबलो निर्गतः यावत्यान्ते शाम्बरूपेण पादयोः पतितः, सागरचन्द्रायैव दचा, नभः खेनतनयाय क्षमिताः । अन्न सागरचन्द्रस्य. Education national For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 198~ ॥ ९४ ॥ www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] सर्व' कमलामेलं मण्णमाणस्स अणणुओगो णाहं कमलामेलेति भणिते अणुओगो, एवं जो विवरीयं परूवेति तस्स अणणुओगो जहाभावं परुवेमाणस्स अणुओगो ५) संवस्स साहसोदाहरणं-जंबूवई णारायण भणति-एक्कावि मए पुत्तस्स अणाडिया ण दिहा, णारायणेण भणितंहै अज दाएमि, ताहे णारायणेण जंबूवतीअ आभीरीरूवं कर्य, दोवि तकं घेत्तुं बारबईमोइण्णाणि, महियं विकिणति, संबेण* |दिवाणि, आभीरी भणिता-एहि महिअं कीणामित्ति, सा अणुगच्छति, आभीरो मग्गेण एति, सो एकं देउलिअं पविसइ, सा आभीरी भणति–णाहं पविसामि किंतु मोल्लं देहि तो एत्थ चेव ठितो तकं गेण्हाहि, सो भणति-अवस्स पविसितवं, साणेच्छति, ताहे हत्थे लग्गो, आभीरो उद्धाइऊण लग्गो संबेण सम, संबो आवट्टितो, आभीरो वासुदेवो जातो इतरी जंबूवती, भंगुट्ठीकाऊण पलातो, बिईयदिवसे मड्डाए आणिज्जतो खीलयं घडतो एइ, जोकारे कए वासुदेवेण T शाम्ब कमलामेला मन्यमानस्थाननुयोगो नाई कमलामेलेति भणितेऽनुयोगः, एवं यो विपरीतं प्ररूषयति तस्यामनुयोगो यथाभावं प्ररूपयतः अनुयोगः। २ शाम्यस्य साहसोदाहरणम्-जम्यूबती नारायण भणति-एकाऽपि मया पुत्रस्य अनातिनं एष्टा, नारायणेन भणितम्-अध दर्शयामि, सदा नारायणेन जम्बूषत्या आमीरीरूपं कृतं, बावपि तक गृहीत्या द्वारिकामवती?, गोरस विक्रीणीतः, शाम्येन दृष्टी, आभीरी भणिता-एहि गोरस क्रीणामीति, साऽनुगच्छति, भाभीरः पृष्ठत एति, स एकं देवकुलं प्रविशति, साऽऽभीरी भणति-माहं प्रविशामि, किंतु मूल्यं दधास्तदाऽत्रैव स्थितसकं गृहाण, स भणतिअवश्यं प्रवेष्टम्य, सामेच्छति, तदा हस्ते लमः, भाभीर उद्धाग्य लाः शाम्बेन सम, शाम्बोज्यावृत्तः, आभीरो वासुदेवो जात इतरा जम्बूप ती अटी(शिरोऽवगुण्ड) कृत्वा पलायित्तः, द्वितीय दिवसे बलात्कारेण आमीयमानः कीलकं घटयन् एति, जयोत्कारे फते वासुदेवेन. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥९५॥ पुच्छिओ-कि एयं घडिज्जतित्ति, भणति-जो पारिओसियं बोलं काहिति तस्स मुहे खोट्टिजिहित्ति । पढम अणणुओगो | णोत अणुओगो, एवं जो विवरीयं परूवेति तस्स अणणुओगो इतरस्स अणुओगो ६।। श्रेणिकविषयकोपोदाहरणं-रायगिहे णगरे सेणिओराया, चेल्लया तस्स भजा, सा वद्धमाणसामिमपच्छिमतित्थगरं वंदित्ता 18 यालियं माहमासे पविसति, पच्छा साहू दिछो पडिमापडिवण्णओ, तीए रत्तिं सुत्तिआए हत्थो किहवि विलंबिओ, जया सीतेण टू गहिओ तदा चेतितं, पवेसितो हत्थो, तस्स हत्थरस तणएणं सर्व सरीरं सीतेण गहिअं,तीए भणि-स तवस्सी किं करिस्सति संपय? पच्छा सेणिपण चिंतिय-संगारदिण्णओ से कोई, रुहेण कल्लं अभओ भणिओ-सिग्धं अंतेजरं पलीकेहि, सेणिओ गतो सामिसगासं,अभएण हस्थिसाला पलीबिया,सेणिओ सामिपुच्छति-चेल्लणाकिं एगपत्ती अणेगपत्ती?,सामिणा भणि-एगपत्ती, पृष्टः-किमेतत् धन्यते इति, भणति-या पर्युषितं वृत्तान्तोहापं करिष्यति तस्य मुखे झेप्स्यते इति । प्रथममननुयोगः ज्ञाते अनुयोगः, एवं यो विपरीत प्ररूपयति रामपाननुयोग इतरख अनुयोगः, २ राजगृहे नगरे श्रेणिको राजा चेछना तस्य भार्था, सा वर्धमानस्वामिनमपत्रिमतीर्थकर वन्दिया निकाले माधमासे प्रविशति, पश्चात् साधुईष्टः प्रतिपन्नप्रतिमः, तस्सा रात्रौ सुप्ताया इस्तः कथमपि विलम्बितः (बहिः स्थितः) यदा शीतेन गृहीतः सदा चेतितं, प्रवे. शिवोहता, तस्य हस्तम सम्बन्धिना सर्व पारीर कीसेन गृहीतं, पश्चात् तया भणित-स तपस्वी किं करिष्यति साम्पतं , पत्रात श्रेणिकेन चिन्तित दससहेत्तो-N ऽस्या: कवित, रुटेन कम्येभयो भणित:-शीघ्रमन्तःपुरं प्रदीपय, श्रेणिको गतः स्वामिसकाशं, अभयेन हस्तिषशाला प्रदीपिता, बेणिकः स्वामिनं पृच्छति-18 चेलना किमेकपती अनेकपली!, स्वामिना भणित-एकपती, eu॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [-] | ताहे मा डन्झिहितित्ति तुरितं णिग्गओ, अभओ णिप्फिडति, सेणिएणं भणि-पलीवितं !, सो भणति-आम, तुम किंण पविट्ठो, भणति-अहं पषइस्सामि किं मे अग्गिणा , पच्छा णेण चिंतिअं-मा छड्डिजिहितित्ति भणितं-ण डझत्ति । सेणियस्स चेल्लणाए पुर्वि अणणुओगो पुच्छिए अणुओगो, एवं विवरीए परूविए अणणुओगो जहाभावे परुविए अणुओगो ७ ॥ १३४ ॥ इत्थं तावदनुयोगः सप्रतिपक्षः प्रपश्चेनोक्तः, नियोगोऽपि पूर्वेप्रतिपादितस्वरूपमात्रः सोदाहरणोऽनुयोगवदवसेयः, साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तभाषादिस्वरूपप्रतिपादनायाह कढे १ पुत्थे २ चित्ते ३ सिरिघरिए ४ पुंड ५ देसिए ६ चेव । भासगविभासए वा वत्तीकरणे अ आहरणा ॥१३५॥ &I व्याख्या-तत्र 'काष्ठ' इति काष्टविषयो दृष्टान्तः, यथा काष्ठे कश्चित् तद्रूपकारः खल्वाकारमानं करोति, कश्चित्स्थ लावयवनिष्पत्ति, कश्चित् पुनरशेषाङ्गोपाङ्गाद्यवयवनिष्पत्तिमिति, एवं काष्ठकल्पं सामायिकादिसूत्र, तत्र भाषकः परिस्थूरमर्थमात्रमभिधत्ते-यथा समभावः सामायिकमिति, विभाषकस्तु तस्यैवानेकधाऽर्थमभिधत्ते-यथा समभावः सामायिक, समानां वा आयः समायः स एव स्वार्थिकप्रत्ययविधानात्सामायिकमित्यादि, व्यक्तीकरणशीलो व्यक्तिकरः, यः खलु निरवशेषव्युत्पत्त्यतिचारानतिचारफलादिभेदभिन्नमर्थं भापते स व्यक्तिकर इति, स निश्चयतश्चतुर्दशपूर्वविदेव, इह च तदा मा दाहीति त्वरित निर्गतः, अभयो निस्सरति, श्रेणिकेन भणितं-प्रदीपितं !, स भणति-आमं, त्वं किं न प्रविष्टः !, भणति-अई प्रमजिप्यामि किं ममामिना ? पश्चादनेन चिन्तितं-मा त्याक्षीदिति भणितं-न दग्धेति । श्रेणिकस्य चेहनायां पूर्वमननुयोगः गृहेऽनुयोगः, एवं विपरीते प्ररूपितेऽननुयोगः यथाभावे प्ररूपिते अनुयोगः । पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भाषा आदेः स्वरुपम् प्रस्तुयते ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ १३५], भाष्यं [-] आवश्यक यवृत्तिः ॥ ९६ ॥ भाषकादिस्वरूपव्याख्यानात् भाषादय एव प्रतिपादिता द्रष्टव्याः, कुतः ?, भाषादीनां तत्प्रभवत्वात् १ । इदानीं पुस्त- * हारिभद्री* विषयो दृष्टान्तः- यथा पुस्ते कश्चिदाकारमात्रं करोति, कश्चित् स्थूरावयवनिष्पत्तिं कश्चित्त्वशेषावयवनिष्पत्तिमिति, दाविभागः १ न्तिकयोजना पूर्ववत् २ । इदानीं चित्रविषयो दृष्टान्तः यथा चित्रकर्मणि कश्चित् वर्त्तिकाभिराकारमात्रं करोति, कश्चित्तु हरितालादिवर्णोद्भेदं कश्चित्त्वशेषपर्यायैर्निष्पादयति, दार्शन्तिकयोजना पूर्ववत् ३ । श्रीगृहिकोदाहरणं श्रीगृहं भाण्डागारं तदस्यास्तीति 'अत इनिठनौ' ( ५-२-११५) इति उनीकादेशे च कृते श्रीगृहिक इति भवति, तद्दृष्टान्तः तत्र कश्चिद् रलानां भाजनमेव वेत्ति-इह भाजने रक्षानीति, कश्चित्तु जातिमाने अपि, कश्चित्पुनर्गुणानपि एवं प्रथमद्वितीयतृती यकल्पा भाषकादयो द्रष्टव्याः ४ । तथा 'पोंडं' इति पुण्डरीकं पद्मं तद् यथेषद्भिन्नार्धभिन्नविकसितरूपं त्रिधा भवति, एवं भाषादि विज्ञेयं ५ । इदानीं देशिकविषयमुदाहरणं -देशनं देशः कथनमित्यर्थः, तदस्यास्तीति देशिकः यथा कश्चिद्दे| शिकः पन्थानं पृष्टः दिङ्मात्रमेव कथयति, कश्चित् तद्व्यवस्थितग्रामनगरादिभेदेन कश्चित् पुनस्तदुत्थगुण दोषभेदेन कथयतीति, दार्शन्तिकयोजना पूर्ववत् ज्ञेया ६। एवमेतानि भाषक विभाषकव्यक्तिकरविषयाप्युदाहरणानि प्रतिपादितानि || इति गाथार्थः ॥ १३५ ॥ इत्थं तावद्विभाग उक्तः, इदानीं द्वारविधिमवसरप्राप्तं विहाय व्याख्यानविधिं प्रतिपादयन्नाह - गोणी १ चंदणकंधा २ वेडीओ ३ सावए४बहिर ५ गोहे ६ । टंकणओ बबहारो७, पडिवक्खो आयरियसीसे ।। १३६ ।। आह-- चतुरनुयोगद्वारानधिकृतो व्याख्यानविधिः किमर्थं प्रतिपाद्यत इति उच्यते, शिष्याचार्ययोः सुखश्रवणसुखव्याख्यानप्रवृत्या शास्त्रोपकारार्थः, अथवा अधिकृत एव वेदितव्यः कुतः १, अनुगमान्तर्भावात्, अन्तर्भावस्तु ॥ ९६ ॥ Educat For Parts Only www.janbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः व्याख्यानविधिं प्रतिपादनाय गोः इति दृष्टान्ता:, धृतस्य उदाहरणं ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] 1575% व्याख्यानत्वात् इति । आह-यद्यसावनुगमाङ्गं ततः किमित्ययं द्वारविधेः पूर्व प्रतिपाद्यते?, उच्यते, द्वारविधेरपि बहुवक्तव्यत्वात् मा भूदिहापि व्याख्याविधेविपर्ययः, अतोऽत्रैव आचार्यशिष्ययोर्गुणदोषाः प्रतिपाद्यन्ते, येन आचार्यों गुणवते शिष्यायानुयोगं करोति, शिष्योऽपि गुणवदाचार्यसन्निधावेव शृणोतीति । आह-यद्येवं व्याख्यानविधिरनुगमाङ्गं इहावतार्योच्यते तत्कथं द्वारगाथायामप्येवं नोपन्यस्त इति, उच्यते, सूत्रव्याख्यानस्य गुरुवख्यापनार्थ, विशेषेण सूत्रव्याख्यायां आचार्यः शिष्यो वा गुणवानन्वेष्टव्य इत्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमःप्रक्रान्तगाथाव्याख्या-तत्र गोदृष्टान्तः, एते चाचार्यशिष्ययोः संयुक्ता दृष्टान्ताः, एक आचार्यस्य एकः शिष्यस्येति द्वौ वा एकस्मिन्नेवावतार्याविति । VI एगमि' णगरे एगेण कस्सइ धुत्तस्स सगासाओ गावी रोगिता उद्वितंपि असमत्था णिविद्या चेव किणिता.12 ४ सो तं पडिविकिणति, कायगा भणंति-पेच्छामो से गति पयारं तो किणीहामो, सो भणति-मएवि उवविद्या चेव गहिया, जदि पडिहाति ता तुम्हेवि एवमेव गिण्हह । एवं जो आयरिओ पुच्छितो परिहारंतरं दाउमसमत्थो भणति-मएवि एवं सुयं तुम्हेवि एवं सुणहत्ति, तस्स सगासे ण सोअचं, संसइयपयत्वंमि मिच्छत्तसंभवा, जो पुण एकमिन्नगरे एफेन कस्यचितूर्तस्य सकाशाङ्कौगिणी बत्थातुमप्पसमा निविष्टैच कीता, स तां प्रतिविक्रीणाति, कायका भणन्ति-प्रेक्षामहेऽस्या गतिप्रचार, ततः फेन्यामा, स भणति-मयापि उपविश्व गृहीता, यदि प्रतिभाति तदा यूवमपि एवमेव गृहीत । एवं व आचार्यः पृष्टः परिवारान्तरं दातुमसमर्थो भणति-मयाऽपि एवं श्रुतं यूयमपि एवं प्रणुतेति, तस्य सकाशे न श्रोतव्यं, सोशाषिकपदार्थे मिथ्यायसंभवात, यः पुन JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: अथ धूर्तस्य उदाहरणं प्रस्तुयते ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं -1 आवश्यक- ॥ ९७ ॥ ANDROAD अविफलगोविकिणगो इच अक्खेषणिण्णयपसंगपारगो तस्स सगासे सोयचं, सीसोऽवि जो अवियारियगाही पढमगोविकण- हारिभद्रीगोब सो अजोग्गो इतरो जोग्गोत्ति १।। यवृत्तिः | चंदणकथोदाहरणं-बारवईए वासुदेवस्स तिपिण भेरीओ, तंजहा-संगामिआ उन्भुतिया कोमुतिया, तिण्णिवि गोसी-विभागः१ सचंदणमइयाओ देवयापरिग्गहियाओ, तस्स चउत्थी भेरी असिवुवसमणी, तीसे उप्पत्ती कहिज्जइ-सको सुरमज्झे| वासुदेवस्स गुणकित्तणं करेति-अहो उत्तमपुरिसाणं गुणा, एते अवगुणं ण गेण्हति णीएण य ण जुझंति, तत्थेगो देवो || असद्दहतो आगतो, वासुदेवोऽवि जिणसगासं वंदओ पहिओ, सो अंतराले कालसुणयरूवं मययं विउवेति वावण्णं । दुन्भिगंध, तस्स गंधेण सबो लोगो पराभग्गो, वासुदेवेण दिछो, भणितं चणेण-अहो कालसुणगस्सेतस्स पंडुरा दंता, सोहंति, देवो चिंतितो-सचं सचं गुणग्गाही ततो वासुदेवस्स आसरयणं गहाय पधावितो, सो बंडुरापालएण णाओ, तेणS विकलगोविकायक वाक्षेपनिर्णयप्रसापारगः तख सकायो धोतव्यं, शिष्योऽपि योऽविचायग्राही प्रथमगोविनायक इस सोऽयोग्यः, इतरो योग्य इति ।।२ चन्दनकन्धोदाहरण-द्वारिकायां वासुदेवस्य तिखो भेयः, तद्यथा-समामिकी भाभ्युदविकी कौमुदीकी, तिसोऽपि गोशीर्षचन्दनमय्यो देवतापरिगहीताः तस्य चतुर्थी भेरी अशियोपशमनी, नस्सा उत्पत्तिः कथ्यते-पाकः सुरमध्ये वासुदेवस्य गुणकीनं करोति-अहो उत्तमपुरुषाणां गुणाः, एते अवगुणं न गृहन्ति नीचेन च न युध्यन्ते, तत्रैको देवोऽश्रदधत् आगतः, वासुदेवोऽपि जिनसकाशं बन्दकः (बन्दनाय) प्रस्थितः, सोऽन्तराले कृष्णवरूपं मृतकं विक-मा M पैति व्यापमं दुरभिगन्ध, सस्थ गन्धेन सर्यो कोकः पराभन्मः, वासुदेवेन दृष्टः, भणितं चानेन-अहो कृष्णानः एतस्य पाण्डरा दन्ताः शोभन्ते, देवधिस्तितवान्-सत्यं सत्यं गुणग्राही । ततो वासुदेवस्वाश्वरवं गृहीत्वा प्रधाषितः, स मन्दुरापालकेन ज्ञातः, तेन चितेति. ॥९७॥ rajanmorary om पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | वासुदेव कृष्णस्य चन्दन्कन्था-अर्या: उदाहरणं ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] * % % % कुवित, कुमारा रायाणो व निग्गया, तेण देवेण हयविहया काऊण धाडिआ, वासुदेवोऽवि निग्गओ, भणति-मम कीस | आसरयणं हरसि, देवो भणति-मं जुज्झे पराजिणिऊण गेण्ह, वासुदेवेण भणियं-बाद, किह जुज्झामो? तुम भूमीए अहं रहेण, ता रहं गिण्ह, देवो भणति-अल रहेणंति, एवं आसहत्धीवि पडिसिद्धा, बाहुजुद्धादियाई सवाई पडिसेहेइ, भणइ Vाय-अहिडाणजुद्धं देहि, वासुदेवेण भणि-पराजिओऽहं, णेहि आसरयणं, णाहं नीयजुज्झेण जुज्झामि, ततो देवो तुठो भणितादिओ-वरेहि वरं, किं ते देमि , वासुदेवेण भणिअं-असिवोवसमणी भेरी देहि, तेण दिण्णा, एसुप्पत्ती भेरीए। तहिं 3 हैसा छण्हं छह मासाणं वज्जति, पचुप्पण्णा रोगा वाही वा उवसमंति, णवगा वि छम्मासे ण उप्पजंति, जो सदं मुणेति।। तत्थडण्णदा आगंतुओ वाणिअओ, सो अतीव दाहजरेण अभिभूतो भेरीपालयं भणइ-गेह तुर्म सयसहस्सं, मम एत्तो पलमेत्तं देहि, तेण लोभेण दिण्णं, तस्थ अण्णा चंदणथिग्गलिआ दिण्णा, एवं अण्णेणवि अण्णेणवि मन्गितो दिणं च, T कृजितं, कमारा राजानम निर्गताः, सेन देवेन हतविहतीकृत्य घाटिताः, वासुदेवोऽपि निर्गतः, भणति-मम कस्मादश्वरले हरसि, देवो भणतिमा युद्दे पराजिल्य गृहाण, वासुदेवेन भणित-बाढ़, कयं युध्यावहे वं भूमौ अहं रथेन, सद् रथं गृहाण, देवो भवति-भल रयेनेति, एवमश्वहस्तिनावपि प्रतिषिद्धी, (बाहुयुद्धादीनि सर्वाणि प्रतिषेधयति, भणति च-अधिष्टानयुद्धं देहि, बासुदेवेन भणितं-पराजितोऽहं नय अवरत्न, नाहं नीचयुद्धेन युभ्ये, ततो देवस्तुधे भाणितवान्-शुष्य वरं, किं तुभ्यं ददामि?, वासुदेवेन भणितं-अशिवोपशमनी मेरी देहि, तेन दचा, एषोपनियोः । तत्र सापतिः पहिर्मासैः बाद्यते, प्रत्युत्पन्ना रोगा व्याधयो वोपशाम्बन्ति, नवका अपि पदसु मासेषु नोप्पधन्ते, यः शब्द शृणोति । तत्रान्यदाऽऽगन्तुको पणिछ, सोऽतीव दाहवरेणाभिभूतो मेरीपालक भणतिगृहाण स्वं शतसहस, ममैतस्मात् पळमात्रं देहि, तेन लोभेन दत्तं, तान्या चन्दनधिग्गलिका दचा, एवमन्येनापि अन्येनापि मार्गितो दचं च * ताहे. JABERatinintamational arorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] आवश्यक सा चंदणकथा जाता, अण्णदा असिवे वासुदेवेण ताडाविया, जाव तं चैव सर्भ ण पूरेति, तेण भणि-जोएह भेरि, हारिभद्री. दिवा कंथीकता, सो भेरिवालो ववरोविओ, अण्णा भेरी अट्ठमभत्तेणाराहइत्ता लद्धा, अण्णो भेरिवालो कओ, सो आय- यवृत्तिः ॥९८॥ रक्खेण रक्खति, सो पूइतो-जो सीसो सुत्तत्वं चंदणकथांव परमतादीहिं । मीसेति गलितमहवा सिक्खितमाणी ण सोविभागः१ जोग्गो ॥१॥ कंथीकतसुत्तत्थो गुरुवि जोग्गो ण भासितबस्स । अविणासियसुत्तत्था सीसायरिया विणिदिवा ॥२॥२॥ . इदानी पेटयुदाहरणम्-वसंतपुरे जुण्णसेहिधूता, णवगस्स य सेहिस्स धूआ, तासिं पीई, तहवि से अस्थि धेरो अम्हे | एएहिं उबहिताणि, ताओ अण्णा कयावि मजितुं गताओ, तत्थ जा सा णवगस्स धूआ, सा तिलगचोदसगेणं अलंकारेण अलंकिआ, सा आहरणाणि तडे ठवेत्ता उत्तिण्णा, जुण्णसेहिधूआ ताणि गहाय पधाविता, सा वारेति, इतरी अकोसंती गता, ताए मातापितीणं सिई, ताणि भणंति-तुण्हिका अच्छाहि, णवगस्स धूआ ण्हाइत्ता णियगघरं गया, अम्मापिईहिं| सा (भेरी) चन्दनकन्या जाता, अम्बदाऽशिवे चासुदेवेन ताडिता, यावत्ता सभामपि न पूरयति, तेन भणितं पश्यत भेरी, दष्टा कम्पीकता, स मेरीपालो व्यपरोपितः, अन्या भेर्यष्टमभक्तेनाराभ्य लब्धा, अन्यो भेरीपालकः कृतः, स आत्मरक्षेण रक्षति, स पूजितः-पः शिष्यः सूत्रार्थ चन्दनकन्धामिव परमतादिभिः । मित्रयति गलितमथवा शिक्षितमानी, न स योग्यः । । । कन्धीकृतसूत्रार्थों गुरुरपि योग्यो न भाषितम्यस्य (अनुयोगस्य) अविनाशितसूत्रायाः शिष्याचा विनिर्दिष्टाः ।२।२ वसन्तपुरे जीर्णश्रेष्टिदुहिता, नवस्य च श्रेष्ठिनः दुहिता, तयोः प्रीतिः, तथापि तयोरति वैर वयमेतैरवर्तितानि, ते अन्यदा कदाचिम्मकुंगते, तत्र या सा नवकल्प दुहिता, सा तिलकचतुर्दशकेन अलङ्कारेणालता, साभरणानि नटे स्थापयित्वाऽवतीर्णा, जीर्णवेष्ठिदुहिता तानि गृहीत्वा प्रधाविता, सा वारयति, इतरामोशन्ती गता, तया मातापितृभ्यां शिष्टं, तो भगतः-तूष्णीका तिष्ठ, नवकस्य दुहिता वास्वा निजगृहं गता, मातादपितृभ्यो * कन्याकया. + वालओ. 1 आदरेण कथं क. CASSESSAR - JABERam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] (४०) साहइ, तेहिं मग्गिय, ण देंति, राउले ववहारो, तत्थ णथि सक्खी, तत्थ कारणिया भणंति-चेडीओ वाहिजंतु, तेहिं| वाहिता भणिता-जति तुझच्चयं ता आविंध, ताहे सा जुण्णसेडिचेडी जे हत्थे तं पाए, ण जाणति, तंच से असिलिट्ठ ताहे तेहिं णाअं-जहा एयाई इमीसे ण होति, ताहे इतरी भणिआ-तुमे आर्विध, ताए कमेण आविद्धं, सिलिडं च से जायं, भणिया य-मेल्लाहि, ताए तहेव णिच्चं आमुचंतीए पडिवाडीए आमुकं, ताहे सो जुण्णसेट्ठी डंडितो। जहा सो एगभविअं मरणं पत्तो, एवायरिओविज अण्णस्थ तं अण्णहिं संघाडेति, अण्णवत्तवाओ अण्णत्थ परूवेति उस्सग्गादिआओ, एवं सो संसारदंडेण दंडिजति, तारिसस्स पासे ण सोतवं, जहा सा चेडी जसं पत्ता, एवं चेवायरिओ जो ण विसंवाएति, तेण अरिहंताणं आणा कता भवति, तारिसस्स पासे सोयम् । एत्थ गाथा-अस्थाणथनिउत्ताऽऽभरणाणं जुण्णसेद्विधूअधाण कथयति, ताभ्यो मार्गितं, न दत्तः, राजकुले व्यवहारः, तत्र नास्ति साक्षी, तत्र कारणिका भणन्ति-चेम्वौ व्याहिता, तैयाहत्य भणिता यदि वावकीनं तिलकचतुर्दशकं तदा परिधेदि, तदा सा जीर्णश्रेष्ठिचेटी यत् हसे (हस्तासम्बन्धि) तत् पादे (परिवधाति), न जानाति, तच तस्या अश्लिष्ट, तदा तैति-ययैतान्यस्या न भवन्ति, तदेवरा भणिता-वं परिधेहि, तथा कमेण परिहितं, लिष्टं च तस्या जातं, भणिता च-मुन, तया तथैव नित्यमामुञ्चन्त्या परिपाया आमुफ, तदा स जीर्ण श्रेष्ठी दण्डितः । यथा स एकभाविकं मरणं प्राप्तः, एबमाचार्थोऽपि यत् (सूत्रं) अन्यत्र (उत्सगांदी) तद् अन्यत्र (अपवादादी) संघातयति, अन्ववक्तव्यता अन्यत्र प्ररूपयति उत्सर्गादिकाः, एवं स संसारदण्देन दण्डवते, तारशस्त पार्भे न श्रोतव्यं, यथा सा चेटी यशः प्राप्ता, एवमेवाचार्यो यो न विसंवादयति, तेनाहता आज्ञा कृता भवति, तादृशस्त्र पार्धे श्रोतव्यं । अत्र गाथे-अस्थानार्थनियोक्ता आभरणानां जीर्णश्रेष्टिदुहितेव । न * बाहिता. + एते से. णो. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] ॥९९॥ प्रत सूत्रांक आवश्यक-गुरू विधिभणिते वा विवरीयनिओअओ सीसो॥१॥ सत्थाणथनिउत्ता ईसरधूआ सभूसणाणं च । होइ गूरूहारिभद्री सीसोऽविअ विणिओ तो जहा भणितं ॥ २॥ ३ । श्रावकोदाहरणं पूर्ववत्-नवरमुपसंहारः-चिरपरिचितंपि ण सरति सुत्तत्थं सावगो सभज व । जो ण सो जोग्गो सीसो गुरुत्तर्ण तस्स दूरेणं ॥१॥४ । |विभाग-१ बधिरगोदाहरणं पूर्ववदेव, उपसंहारस्तु गाथयोच्यते-अण्णं पुट्ठो अण्णं जो साहइ सो गुरू ण बहिरोथ । ण य | सीसो जो अण्णं सुणेति अणुभासए अणं ॥ १ ॥ ५ । एवं गोधोदाहरणोपसंहारोऽपि वक्तव्यः ६ । इदानीं रणकोदाहरणं-उत्तरॉवहे टंकणा णाम मेच्छा, ते सुवण्णणं दक्षिणावहाई भंडाई गेण्हंति, ते य परोप्परं। भासं ण जाणंति, पच्छा पुंजं करेंति, हत्थेण उँ छाएंति, जाव इच्छा ण पूरति ताव ण अवर्णेति, पुण्णे अवणेति, एवं अनुक्रम गुरुः विधिमाणिते वा विपरीत नियोजकः शिष्यः । । । स्वस्थानार्थ नियोक्का ईश्वरदुहिता स्वभूषणानामिव । भवति गुरुः शिष्योऽपिच विनियोग तद (विनियोजयन्) यथा भणितम् । ३। २ चिरपरिचितावपि न मारति सूत्राी श्रावकः स्वमार्यामिव । यो न स योग्यः शिष्यः गुरुवं तस्य दूरेण ।।। | ३ अन्यत्पृष्टोऽन्यत् यः कथयति स न गुरुधिर इव । न च शिष्यो योऽन्यच्छृशोत्यनुभाषतेऽन्यत् । ।। ४ उतरापथे टकणानामानो म्लेच्छाः, ते सुवर्णेन | दक्षिणापथानि भाण्डानि गृहन्ति, ते च परस्परं भाषां न जानने, पश्चात् पुञ्ज कुर्वन्ति, हस्तेन स्वाच्छादयन्ति, यावदिच्छा न पूर्यते वावज्ञापनयन्ति, पूर्णेऽपनयन्ति, एवं * हव्येण इच्छाडेति. M ॥९९॥ ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [-] 4565555555 तेसिं इच्छियपडिच्छियववहारो एवं-अक्खेवनिण्णयपसंगदाणग्गहणाणुवत्तिणो दोवि । जोग्गा सीसायरिआ टंकण-18 वणिओवमा एसा ॥१॥७॥ | इत्थमुक्तप्रकारेण गवादिषु द्वारेषु साक्षादभिहितार्थविपर्ययः-प्रतिपक्षः आचार्य शिष्ययोर्यथायोगं योजनीयः, सच योजित एवेति गाथार्थः ॥ १३६ ॥ इदानीं विशेषतः शिष्यदोषगुणान् प्रतिपादयन्नाहकस्स न होही वेसो अनभुवगओअनिरुवगारी अ । अप्पच्छंदमईओ पहिअओ गंतुकामो अ॥१३७॥ विणओणएहिं कयपंजलीहि छंदमणुअत्तमाणेहिं । आराहिओ गुरुजणो सुर्य बहुविहं लहुं देह ॥१३८ । आह-शिष्यदोषगुणानां विशेषाभिधानं किमर्थम् , उच्यते, कालान्तरेण तस्यैव गुरुत्वभवनात, अयोग्याय च गुरुपदनिबन्धनविधाने तीर्थकराज्ञादिलोपप्रसङ्गात् । प्रथमगाथाव्याख्या-कस्य न भविष्यति द्वेश्यः-अप्रीतिकरः, यः किम्भूतः - अभ्युपगतः अनभ्युपगतः-क्षुतोपसंपदाऽनुपसंपन्न इति भावार्थः, उपसंपन्नोऽपि न सर्व एवाद्वेष्यो भवतीत्यत आह-निरुपकारी च' निरुपकर्तुं शीलमस्येति निरुपकारी, गुरोरकृत्यकारीत्यर्थः, उपकार्यपि न सर्व एवाद्वेष्य इत्यत आह-आत्मच्छन्दा आत्मायत्ता मतियेस्य कार्येषु| असावात्मच्छन्दमतिः, स्वाभिप्रायकार्यकारीत्यर्थः, गुर्वायत्तमतिरपि न सर्व एवाद्वेष्यः अत आह–'प्रस्थितः' तेषां ईच्छितप्रतीरिछत (इप्सितप्रतीप्सित) व्यवहारा, पूर्व-भाक्षेपनिर्णवप्रसादानमहणानुवर्तिनो इयेऽपि । योग्या आचार्यशिष्या क्षणय णिगुपमा एषा।।। *. मुक्केन. ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३८], भाष्यं [-] GAONGS आवश्यक- संपस्थितद्वितीय इति, गन्तुकामश्च गन्तुकामोऽभिधीयते यो हि सदैव गन्तुमना व्यवतिष्ठते, वक्ति च-श्रुतस्कन्धादिप-1 *हारिभद्रीरिसमाप्ताववश्यमहं यास्यामि, क इहावतिष्ठते इति, अयमयोग्यः शिष्य इति गाथार्थः ॥ १३७ ॥ इदानीं दोपपरिज्ञानपूर्व-|| | यवृत्तिः ॥१०॥ कत्वात् गुणाः प्रतिपाद्यन्ते-द्वितीयगाथाव्याख्या-विनयः-अभिवन्दनादिलक्षणः तेन अवनताः विनयावनताः तैरित्थं-1 विभागः१ भूतैः सद्भिः, तथा पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यस्ते कृतप्राञ्जलयः तैः, तथा छन्दो-गुर्वभिप्रायः तं सूत्रोक्तश्रद्धानसमर्थनकरणकारणादिनाऽनुवर्तयनिः आराधितो गुरुजनः, 'श्रुतं' सूत्राओंभयरूपं 'बहुविध अनेकप्रकारं 'लघु' शीभं ददाति' |प्रयच्छतीति गाथार्थः ॥१३८॥ इदानीं प्रकारान्तरेण शिष्यपरीक्षा प्रतिपादयन्नाह-- सेलघण कुडग चालणि परिपूणग हंस महिस मेसे आमसग जलूग बिराली जाहग गोभेरि आभीरी ॥१३९॥ व्याख्या-एतानि शिध्ययोग्यायोग्यत्वप्रतिपादकान्युदाहरणानीति । किंच-चरियं च कल्पितं वा आहरणं दुविहमेव नायब । अस्थस्स साहणवा इंधणमिव ओदणहाए । १ । तत्थ इमं कप्पिों जहामुग्गसेलो पुक्खलसंवट्टओ अ महामहो जंबूदीवप्पमाणो, तत्थ णारयस्थाणीओ कलई आँलाएति-मुग्ग-II | सेलं भणति-तुज्झ नामग्गहणे कए पुक्खलसंवट्टओ भणति-जहा णं एगाए धाराए विराएमि, सेलो| *॥१०॥ चरितं च कपितं वाऽऽहरणं द्विविधमेव शासम्यम् । अर्थस्य साधनार्थाय इन्धनानीबौदनार्थाय ।। तनेदं कपितं यथा-मुशैकः पुष्करसंवर्षका 6 महामेधः जम्यूद्वीपप्रमाणः, तत्र नारवस्थानीयः कलहमालगयति (मायोजयति)-मुद्रशैलं भणति-तब नाममइणे ते पुष्कलसंवर्तको भणति-यथैकया धारया विद्दावयामि, शैल * आलो(जो एति. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति शिष्यपरिक्षविषयक विविध-दृष्टांता: ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] उप्पासितो भणति-जदि मे तिलतुसतिभागंपि उल्लेति तो णाम ण वहामि, पच्छा मेहस्स मूले भणति मुग्गसेलवयणाई, सो रुट्ठो, सबादरेण वरिसिउमारद्धो जुगप्पहाणाहि धाराहिं, सत्तरत्ते वुढे चिंतेति-विराओ होहित्ति ठिओ, पाणिए ओसरिए इतरो मिसिमिसिंतो उज्जलतरो जातो भणति-जोहारोत्ति, ताहे मेहो लज्जितो गतो । एवं चेव कोइ सीसो मुग्गसेलसमाणो एगमवि पदं ण लग्गति, अण्णो आयरिओ गज्जतो आगतो, अहं णं गाहेमित्ति, आह-आचार्यस्यैव तजाव्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते । गावो गोपालकेनेव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥ ताहे पढावेउमारद्धो, ण सकिओ, दलजिओ गओ, एरिसस्स ण दायर्व, किं कारणं ?-आयरिए सुत्तमि अ परिवादो सुत्तअस्थपलिम थी। अण्णेसिपियर हाणी पुढावि ण दुद्धया वंझा ॥१॥ पडिवक्खो कण्ह भूमी-बुढेवि दोणमेहे ण कण्हभोमाओ लोट्टए उदयं । गहणधरणासमत्थे इअ देयमछित्तिकारमि ॥१॥ AKASESAMACHAR सत्मासितो (असूषितः) भणति-यदि मे तिलतपत्रिभागमपि भावति तदा नाम न वहामि, पनारमेघस्य मूले भणति मुद्रशैलवचनानि, स रुष्टा, सादरेण वर्षितुमारब्धः, युगप्रधानाभिधाराभिः, सप्तरात्रं दृष्टे चिन्तयति-बिद्रुतो भविष्यति इति खितः, पानीयेऽपसते इसरो दीप्यन् उज्ज्वलतो जातो भणति-जुहारः (जयोकारः) इति, तदा मेघो लजितो गतः ॥ एवमेव कश्चिच्छिष्यो मुद्राकसमान एकमपि पदं न लगयति, अम्ब आचार्यः गर्जयन् आगतः, अहमेनं मायामि तदा पाठयितुमारब्धः, न शक्तिः , लजितो गतः, ईशाय न दातम्ब, किं कारणम् !-आचार्य सूत्रे च परिवादः सूत्रार्थपरिमन्धः (विशः)। अन्येषामपिच हानिः स्पृष्टाऽपि न दुग्धदा (दोमा) वन्ध्या ॥1॥प्रतिपक्षः कृष्णभूमिः-पृष्टेऽपि द्रोणमेघे न कृष्णभूमात् लुठति उदकम् । प्रहगधरणसमर्थे दातव्यमपिछत्तिकरे।।। * बहेवि. + पमाणाहिं. f निराइमो. भणितो. जि. पलिमंथा. दुज्मथा. भूमीसु. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] यवृत्तिः विभागः१ Ta Ta आवश्यक- इदानीं कुटोदाहरणम्-कुटा घटा उच्यन्ते, ते दुविहा-नवा जुण्णा य, जुण्णा दुविहा-भाविया अभाविया य, भाविआ दुविहा-पसत्थभाविआ अपसत्थभाविआ य, पसत्था-अगुरुतुरुक्कादीहिं, अपसत्था-पलंडुलसुणमादीहि, पसत्थ- ॥१०॥ भाविया वम्मा अवम्मा य, एवं अपसत्थावि, जे अपसत्था अवम्मा जे य पसत्था वम्मा ते ण सुंदरा, इतरे सुंदरा, अभा- विता ण केणइ भाविता-णवगा आवागातो उत्तारितमेत्तगा, एवं चेव सीसगा णवगा-जे मिच्छद्दिडी तप्पढमयाए गाहिजंति, जुण्णावि जे अभाविता ते सुंदरा-कुप्पवयणपासत्थेहिं भाविता एवमेव भावकुडा । संविग्गेहि पसत्था वम्माडधम्मा य तह चेव ॥१॥जे अपसस्था बम्मा जे य पसस्था संविग्गा य अवम्मा एते लगा, इतरेवि अवम्मा । अहवा कूडा चउविहा-छिडुकुडे १ बोडकुडे २ खंडकुडे ३ संपुण्णकुडे ४ इति, छिड्डो जो मूले छिड्डो, बोड ओ जस्स ओठा नस्थि, खंडो एग ओहपुडं नस्थि, संपुण्णो सवंगो चेव, छिडे जं छुटं तं गलति, बोडे तावति ठाति, खंडे एगेण पासेण ते द्विविधाः, नपा जीर्णाश्व, जीणी शिविधा-भाविता प्रभाविताच, भाविता द्विविधाः-प्रशसभापिता अपशतभाविताब, प्रास्ता:-मगुरुतुरुष्कादिभिः, अप्रशस्ता:-पलाण्डुलशुनादिभिः, प्रशस्तभाषिता बाम्या अवाम्याच, एवमप्रशस्ता अपि, ये अप्रशसा अवाम्या ये च प्रशस्ता वाम्याने न सुन्दराः, इतरे मुम्दराः, अभाविता न केनचिद्राविता-गवका आपाकादुत्तारितमात्राः, एवमेव शिष्या नवका-ये मिथ्यारष्टयप्रथमतया प्रायन्ते, जीर्णा अपि येऽभाविताने सुन्दराः । कुपवधनपार्श्वबैभाषिता एवमेव भावकुटाः । संविः प्रास्ताः वाम्या अवाम्याश्च तथैव । १। ये अप्रशाम्ता वाम्या ये च प्रशस्लाः संविशात्रावाम्या | पुते लष्ठाः, इतरेऽपयवाम्याः । अथवा कुटाचतुर्विधाः-छिनकुटा अनोष्टकुटः खडकुटा संपूर्ण कुटः इति, छिद्रो यो मूले छिदवान्, अनोएकुटः-यस्य मोष्टी न 1साला, खण्ड एकमोधपुटं नास्ति, संपूर्णः सर्वाङ्गव, छिने परिक्षप्तं तवलति, बोटके तावत् तिष्ठति, सण्डे एकेन पाण. *आवाहगाओ. + ओसण्येटिं. बारे बहम्मा. सत्य बोडो. 22%250- ॥१०॥ Hinathaindianarmon मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) दछड्डिजइ, जदि इच्छा थोवेणवि रुभइ,एस विसेसो बोडखंडाणं,संपुग्णो सर्व धरेति,एवं चेव सीसा चत्तारि समोतारेयवाही PM चालन्युदाहरणम्-चालनी-लोकप्रसिद्धा यया कणिकादि चाल्यते,-जह चालणीए उदयं छुम्भंतं तक्षणं अधोxणीति । तह सुत्तस्थपयाई जस्स तु सो चालणिसमाणो॥१॥ तथाच शैलच्छिद्रकुटचालनीभेदप्रदर्शनार्थमुक्तमेव भाष्य कृता-सेलेयछिद्दचालणि मिहो कहा सोउ उडियाणं तु । छिड्डाह तत्थ बेहो सुमरिंसु सरामिणेयाणीं ॥१॥ एगेण विसति वितिएण नीति कण्णेण चालणी आह । धण्णु त्थ आह सेलो जं पविसइ णीइ वा तुम्भं ॥२॥ तावसखउरकविणयं चालणिपडिवक्खु ण सबइ दवपि । इदानी परिपूणकोदाहरणम्-तत्र परिपूर्णकः घृतपूर्णक्षीरकगालनकं चिटिकावासो वा, तेन ह्याभीर्यः किल घृतं गोलयन्ति, स च कचवरं धारयति घृतमुज्झति, एवं-बक्खाणादिसु दोसे हिययंमि ठवेति मुअति गुणजालं । सीसो सो उ अजोग्गो भणिओ परिपूणगसमाणो ॥१॥ आह-सर्वज्ञमतेऽपि दोषसंभव इित्ययुक्तं, सत्यमुक्तमेव भाष्यकृता निःसरति, यदीच्छा सोकेनापि रयते, एष विशेषो बोटकण्डयोः, संपूर्णः सर्व धारयति, एवमेव शिष्यावरचारः समवतारयितव्याः । २ वधा चालण्यामुदकं क्षिप्यमाणं तक्षणमधो गच्छति । तथा सूत्रार्थपदानि बसा तुस चासनीसमानः।।। ३ शैलच्छिाचालनीनां मिथः का भुत्वोस्थिताना । चिद आह-तत्रोपविष्टः अम्मा मरामि नेदानीम् ।।। एकेन विशति कर्णेन द्वितीयेन निःसरति चाळन्याइ । धन्याऽत्र माह शैलो बनविशति निःसरति वा तव (स्वयि) २ । तापसकमण्डलु चाकनीमतिपक्षः न सवसि इवमपि. ४ व्याख्यानादिपु दोषानं पये स्थापयति मुजति गुणजालम् । शिष्यः स स्वयोग्यो भणितः परिपूणकसमानः ।। रुति. + परिपूणकः (स्यात्). । इत्युक्तं. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] हारिभद्री आवश्यक- ॥१०॥ 2 सर्वण्णुपमाणाओ दोसा ण हु संति जिणमए किं चि । जे अणुवउत्तकहणं अपत्तमासज्ज व भवंति ।१। इदानी हंसोदाहरणम्-अंबत्तणेण जीहाइ कूइआ होइ खीरमुदगंमि । हंसो मोत्तूण जलं आपियइ पयं तह सुसीसोयवृत्तिः विभागः१ ॥१॥ मोत्तूण दढं दोसे गुरुणोऽणुवउत्तभासितादीए । गिण्हइ गुणे उ जो सो जोग्गो समयत्थसारस्स ॥२॥ इदानीं महिषोदाहरणम्-सयमवि ण पियइ महिसो ण य जूहं पियइ लोलियं उदयं । विग्गहक्गिहाहि तहा अथक-IN पुच्छाहि य कुसीसो॥१॥ मेषोदाहरणम्-अवि गोप्पदंमिवि पिवे सुढिओ तणुअत्तणेण तुंडस्स। ण करेति कलुसमुदगं मेसो एवं सुसीसोऽवि ॥१॥ मशकोदाहरणम्-मैसगो व तुदं जच्चादिएहि णिच्छुभते कुसीसोऽवि। जलूकोदाहरणम्-जलूगा व अदूर्मतो पिबति सुसीसोऽवि सुयणाणं । बिराल्युदाहरणम्-छड्डेउँ भूमीए जह खीरं पिबति दुमज्जारी । परिसुडियाण पासे सिक्खति एवं विणयभंसी ॥१॥ सर्वज्ञप्रामाण्यात् दोपा नैव सन्ति जिनमते केऽपि । यदनुपयुक्तकथनं अपात्रमासाद्य वा भवन्ति ।। २ अम्लतया जिवायाः कृर्षिका भवति क्षीरमुदके । हंसो मुक्त्वा जलमापियति पयः तथा सुशिष्यः । । । मुक्त्वा दृढं दोषान् गुरोरनुपयुक्तभाषितादिकान् । गृवाति गुणांस्तु यः स योग्यः समयार्थ(ब) सारस्य ।। ३ स्वयमपि न पिबति महिषो न च यूथं पिबति लोठितमुदकम् । विग्रहविकथाभिस्तथा मविश्वान्तपूच्छाभित्र कुशिष्यः ।।। ४ अपि x ॥१०२॥ गोष्षदेऽपि पिचति मेषमानुत्वेन तुण्डस्य । न करोति कलुषमुदकं मेष एवं सुशिष्योऽपि ।।। ५ मशक इव तुदन जालादिभिरावदाति (तुदति) कृषिष्योऽपि. ६ जलौका इव अदुन्वन् पिबति सुशिष्योऽपि श्रुतज्ञानं. छर्दयित्वा भूमौ यथा क्षीरं पिबति दुष्टमाजोरी । पर्षदुस्थितानां पार्चे शिक्षते एवं विनयभंशी. ॥1॥*केवि. + भणति. वि०, -22--9 natorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] जाहकस्तिर्यविशेषः, तदुदाहरणम्-पातुं थोवं थोवं खीरं पासाणि जाहओ लिहइ । एमेव जितं काउं पुच्छति मतिम ण खेदेति ।। गोउदोहरणम्-एगेण धम्महितेण चाउचेजाण गावी दिण्णा, ते भणति-परिवाडीए दुज्झउ, तहा कतं, पढमपरिवाडीदोहगो चिंतेति-अज व मझं दुद्धं, कलं अण्णस्स होहिति, ता किं मम तणपाणिएण इह हारवितेण ?, ण दिण्ण, एवं सेसेहि वि, गावी मता, अवण्णवादो य धिजाइयाणं, तद्दवण्णदयवोच्छेदो, उक्तं च-अण्णो दोग्झति कलं णिरस्थयं से वहामि किं चारिं। चउचरणगवी उ मता अवण्ण हाणी उ बडुआणं ॥१॥प्रतिपक्षगौः-मो मे होज अवण्णो गोवज्झा मा पुणो व ण लभेजा । वयमवि दोज्झामो पुण अणुग्गहो अण्णदूहेऽवि । दान्तिकयोजना-सीसा पडिच्छगाणं भरोत्ति तेवि य सीसगभरोत्ति । ण करेंति सुत्तहाणी अण्णत्थवि दुलहं तेसिं ॥१॥ अविणीयत्तणओ। 4%25056-5-4556. पीत्वा लोकं लोक क्षीरं पायोजहिको लेडि । एवमेव जीतं (परिचितं) कृत्वा पृष्ठति मतिमान न खेदयति।।। २ गवोदाहरणम्-एलेन । धर्माधिकेन चातुभ्यो गीता, ते भमन्ति-परिपाया दुहन्तु, तथा कृतं, प्रथमपरिपाटीदोहकनिम्तयति-अचव मम दुग्ध, कल्ये अन्यस्य भविष्यति, तरिक मम तृणपानीवाभ्यामाहारिताभ्यामिह !, न दत्तं, एवं शेपैरपि, गौमता, अवर्णवाद धिग्जातीवानां, तद्न्यान्यस्यव्यवच्छेदः, उक्तंच-भन्यो घोषति काये निरर्थक तथा वहामि कि चारीम् । चतुचरणा गौतय, अवर्णो हानिस्तु बटुकानाम् । १।३ माऽस्माकं भूवयों गोवधका (इति) मा पुनश्च न लभिध्वम् । वयमपि धोश्यामः पुनरनुप्रदोऽम्येन दुग्धेऽपि । । " शिष्याः प्रतीच्छकानां भार इति तेऽपि च शिष्यभार इति । न पूर्वन्ति सूबहानिः अन्यत्रापि दुर्लभ वेषां । । । अविनीतत्वात्. *वाडिगो. + मजन इ. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] आवश्यक ॥१०॥ प्रत भेर्युदाहरणं पूर्ववत् । आभीर्युदाहरणम्-आंभीराणि घयं गड्डीए घेत्तूण पट्टणं विकिाणि गयाणि, आढत्ते मप्पे | हारिभद्रीआभीरी हेडओ ठिता पडिच्छिति, आभीरोऽवि वारगेण अप्पिणति, कथमवि अणुवउत्तं प्पिणणे गहणे वा अंतरे वारंगो | यवृत्तिः भग्गो, आभीरी भणति-आ सच गामेल्लग! किं ते कर्डी, इतरोऽवि आह-तुम उम्मत्ता अण्णं पलोएसि अण्णं गेण्हसि, विभागः १ ताणं कलहो, पिट्टापिट्टी जाता, सेसंपि घयं पडियं, उसूरए जताणं सेसघयरूवगा बलद्दा य तेणेहिं हडा, अणाभागिणो संवुत्ताणि। एवं जो सीसो पञ्चुच्चारादि करेंतो अण्णहा परूवेतो पढतो वा सिक्खावितो भणति-तुमे चेव एवं वक्खाणि कहि वा-मा णिण्हवेहि दाउ उवजुंजिअ देहि किंचि चिंतेहि। बच्चामेलियदाणे किलिस्ससि तं चऽहं चेव॥१॥पडिवक्खे कहाणगं पूर्ववत्, नानात्वं प्रदीते, भग्गे वा रगे उत्तिण्णो, दोहिषि तुरितं तुरितं कप्परेहिं घतं लइ, थेवं नई, सो आभीरोभणति सूत्रांक अनुक्रम द भाभीरा घृतं गन्न्या गृहीत्वा पत्तनं विकायका गताः, आरम्धे माने आभीरी अधःस्थिता प्रतीप्सति, आभीरोऽपि वारकेणार्पयति, कथमप्यनुपयुक्त अर्पणे हणे बान्तरा घटो भना, भाभीरी भणति-आः सत्वं ग्रामेषक! कि स्वया कृतं !, इतरोऽध्याह-खमुन्मत्ताऽन्य प्रलोकयसि अन्य गृहाखि, तयोः कलही (जातः) केशाकेशि जातं, शेषमपि धूतं पतितं, हारे पासोः शेषधृतरूप्यका बलीवदी च सेगहती, अनाभागिनी (भोगाना) संवृत्ती । एवं यः शिष्यः | प्रत्युचारादि कुर्वन् अन्यथा प्ररूपयन् पठन् वा शिक्षितः भणति-स्ववैवं व्याख्यातं कथितं वा, मा अपलपीः दवा उपयुज्य देहि किचिचिन्तय । व्यत्याने |दितदाने श्यसि त्वं चाहमेव।। ।प्रतिपक्षे कथानकं, भने घटे उत्तीणी, द्वाभ्यामपि त्वरित चरितं क सं जातं, सोक नई, स आभीरो भणति*विकिणगानि, + मेप्पे, पिदिच्छेति. पि०. कितं. बसूरवणाभागीणि संवचाणि || बारगो बदीग्णो. ॥१०॥ JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [१३९], भाष्यं [-] (४०) प्रत सूत्रांक मए ण सुट पणामितं, सावि भणति-मए ण सुहु गहियं । एवं आयरिएण आलावगे दिपणे विणांसितो, पच्छा आयरिओ ४ भणति-मा एवं कुमुहि, मया अणुवउत्तेण दिण्णो त्ति, सीसो भणति-मए ण सुह गहितोत्ति । अहवा जहा आभीरो जाणति एवडा धारा घडे माइत्ति, एवं आयरिओऽवि जाणति-एव९ आलावर्ग सकेहिति गहिउंति गाथार्थः ॥१३९॥ । इत्थमाचार्यशिष्यदोषगुणकथनलक्षणो व्याख्यानविधिः प्रतिपादितः, इदानीं कृतमङ्गलोपचारो व्यावर्णितप्रसङ्गविस्तरः प्रदर्शितव्याख्यानविधिरुपोद्घातदर्शनायाह उद्देसे १ निद्देसे २निग्गमे ३ खित्त ४ काल ५ पुरिसे ६अ। कारण ७ पचप ८ लक्खण ९ नए १० समोआरणा ११ ऽणुमए १२॥१४॥ किं १३ काविहं १४ कस्स १५ कहिं १६ केसु १७ कह १८ केचिरं १९ हवह कालं। कइ २० संतर २१ मविरहिअं २२ भवा २३ गरिस २४ फासण २५ निरुत्ती २६ ॥१४१ ॥ व्याख्या-उद्देशो वक्तव्यः, एवं सर्वेषु क्रिया योज्या, उद्देशन मुद्देशः-सामान्याभिधानं अध्ययनमिति, निर्देशन निर्देशः-विशेषाभिधानं सामायिकमिति, तथा निर्गमणं निर्गमः, कुतोऽस्य निर्गमणमिति वाच्यं, क्षेत्र वक्तव्य कस्मिन् अनुक्रम मषा न सुधभर्पित, साऽपि भणति-मया न सुए गृहीत । एवमाचार्येण आलापके पत्ते पिनाशितः, पवादाचार्यों भणति-मै कुही।, मयाऽनुपयुक्तेन | दच इति, पिण्यो भणति-मया न सुए गृहीत इति । भयवा यथा आभीरो जानाति-एतावती भारा घटे माति इति, एवमाचार्योऽपि जानाति-पतावन्तं आकापकं शक्ष्यति महीनुमिति. दिलि. +विणासेंते. माति, मेसे प. परदेशः समुदेशः. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति व्याखान-विधि: उपोद्घात: - उद्देश, निर्देश-आदि २६ पदार्था: ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] (४०) आवश्यक ॥१०४॥ हारिभद्रीय यवृत्तिः विभागः१ क्षेत्रे ?, कालो वक्तव्यः कस्मिन् काले ?, पुरुषश्च वक्तव्यः कुतः पुरुषात् ?, कारणं वक्तव्यं किं कारणं गौतमादयः शृण्वन्ति:, तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः स च वक्तव्यः, केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टं ? को पा गणधराणां श्रवण इति, तथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि, तथा नया-नैगमादयः, तथा तेषामेव समर्वतरणं वक्तव्यं यत्र संभवति, वक्ष्यति च 'मूढणइयं सुयं कालियं तु' इत्यादि, 'अनुमतं' इति कस्य व्यवहारादेः किमनुमतं सामायिकमिति, वक्ष्यति-तवसंजमो अणुमओ' इत्यादि, किं सामायिकम् ? जीवो गुणपडिवण्णो' इत्यादि वक्ष्यति, कतिविध सामायिक ? 'सामाइयं च तिविहं सम्मत्त सुयं तहा चरित्तं च' इत्यादि प्रतिपादयिष्यांते, कस्य सामायिकमिति, वक्ष्यति-'जस्त सामाणिओ अप्पा इत्यादि, क सामायिक, क्षेत्रादाविति, वक्ष्यति-'खेत्तकाल दिसि गति भविय' इत्यादि, केषु सामायिकमिति, सर्वद्रव्येषु, वक्ष्यति-संधगतं सम्मत्तं सुए चरित्ते ण पज्जवा सवे इत्यादि, कथमवाप्यते 1, वक्ष्यति'माणुस्सखित्तजाई' इत्यादि, कियश्चिरं भवति ? कालमिति, वक्ष्यति-सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाइ ठिती' इत्यादि, 'कति' इति कियन्तः प्रतिपद्यन्ते ? पूर्वप्रतिपन्नास वेति वक्तव्यं, वक्ष्यति च-'सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमित्ताउ' इत्यादि, १०४॥ सम्यक्त्वसामायिकादे। २ मूदनविक र कालिकं तु ३ तपासंयमोऽनुमतः, जीवो गुणप्रतिपक्षः, ५ सामायिक च विविध सम्पावं श्रुतं तथा चारित्रं च. ६ यस समानीतः आत्मा. . क्षेत्रकालदिग्गतिभन्य. ८ सर्वगतं सम्पकवं श्रुचे चरित्रे न पर्यवाः स. ९मानुष्यं क्षेत्रं जातिः. १. सम्यक्त्वस्य धुसस्य च षट्षष्टिः सागरोपमाणि स्थिति सम्पत्वदेशविरताः पत्याखासंख्यभागमाना एष. * समवतारणं च. + संभवन्ति. यति.. | दिसिकाळ०. पाचन्ते ३०पनावि०मेत्ता, मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] 'सान्तर' इति सह अन्तरेण वर्तत इति सान्तरं, किं सान्तरं निरंतरं वा!, यदि सान्तरं किमन्तरं भवति?, वक्ष्यति-कालमणतं च सुते अद्धापरियट्टगो य देसूणो' इत्यादि, 'अविरहित' इति अविरहितं कियन्तं कालं प्रतिपद्यन्त इति, वक्ष्यति |-'सुर्तसम्मअगारीणं आवलियासंखभाग' इत्यादि, तथा 'भवा' इति कियतो भवानुत्कृष्टतः खल्ववाप्यन्ते 'सम्मत्तदेसविरता| पलियस्स असंखभागमित्ता उ । अभवा चरित्ते' इत्यादि, आकर्षणमाकर्षः, एकानेकभवेषु ग्रहणानीति भावार्थः, 'तिण्हें सहस्सपुहुतं सयपुहुत्तं च होति विरईए । एगभवे आगरिसा' इत्यादि, स्पर्शना वक्तव्या, कियत्क्षेत्रं सामायिकवन्तः स्पृश-| न्तीति, वक्ष्यति-सम्मेत्तचरणसहिआ सधं लोगं फुसे निरवसेस' इत्यादि, निश्चिता उक्तिनिरुक्तिर्वक्तव्या-'सम्मद्दिडी अमोहो सोही सब्भाव दंसणे वोही' इत्यादि वक्ष्यति। अयं तावद्गाथाद्वयसमुदायार्थः, अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः। अत्र कश्चिदाह-पूर्वमध्ययनं सामायिक तस्यानुयोगद्वारचतुष्टयमुपन्यस्तं, अतस्तदुपन्यास एव उद्देशनिर्देशावुक्ती, तथौधनामनिष्पन्ननिक्षेपदये च, अतः पुनरनयोरभिधानमयुक्तमिति, अत्रोच्यते, तत्र हि अन" द्वारद्वयोक्तयोरनागतग्रहणं द्रष्टव्यं, अन्यथा तद्रणमन्तरेण द्वारोपन्यासादय एव न स्युः, अथवा द्वारोपन्यासादिविहितयोस्तत्राभिधानमात्रं इह त्वर्थानुग SC-CRAC% कालोऽनन्तश्च श्रुते, पुद्गलपरावर्तन देशोनः. २ श्रुतसम्यक्त्यागारिणां आवलिकाऽसंख्यभाग. ३ सम्यक्त्वदेशविरताः पयस्वासंकषभाग' |मात्रानेव । अष्टभवास्तु चारित्रे. प्रयाणां सहस्रपथक्वं, बातधर च भवति विरतेः । एकभये भाको:-५ सम्बक्रवचरणसहिताः सर्व लोकं शान्ति [निरवशेष सम्यग्दहिरमोहः शोधिः सद्भावः दर्शनं बोधि वापते. + नेदम्. भावार्थ इति. ति भावाः एतदूरद.. JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] 4 आवश्यक- मद्वाराधिकारे विधानतो लक्षणतश्च व्याख्या क्रियत इति । आह-यद्येवं निर्गमो न वक्तव्यः, तस्यागमद्वार एवाभि- हारिभद्री |हितत्वात् , तथा च 'आत्मागम' इत्याद्युक्तं, ततश्च तीर्थकरगणधरेभ्य एव निर्गतमिति गम्यते इति, उच्यते, सत्यं किंतुटायवृत्तिः ॥१०५॥ इह तीर्थकरगणधराणामेव निर्गमोऽभिधीयते, कोऽसौ तीर्थकरो गणधराश्चेति, वक्ष्यते-वर्धमानो गौतमादयश्चेति, यथाविभागः१ च तेभ्यो निर्गतं तथा क्षेत्रकालपुरुषकारणप्रत्ययविशिष्टमित्यतोऽदोष इति । आह-ययेवं लक्षणं न वक्तव्यं, उपक्रम एव नामद्वारे क्षायोपशमिकभावेऽवतारितत्वात् , प्रमाणद्वारे च जीवगुणप्रमाणे आगमे इति,उच्यते,तत्र निर्देशमात्रत्वात्, इह तु प्रपञ्चतोऽभिधानाददोषः, अथवा तत्र श्रुतसामायिकस्यैवोक्तं, इह तु चतुर्णामपि लक्षणाभिधानाददोषः। आहनयाः प्रमाणद्वार एवोक्ताः किमिहोच्यन्ते ।, स्वस्थाने च मूलद्वारे वक्ष्यमाणा एवेति, उच्यते, प्रमाणद्वारोक्ता एवेह व्याख्यायन्ते, अथवा प्रमाणद्वाराधिकारात्तत्र प्रमाणभावमात्रमुक्त, इह तु स्वरूपावधारणमवतारो वाऽऽरभ्यते, एते च | सर्व एव सामायिकसमुदायार्थमात्रविषयाः प्रमाणोक्ता उपोद्घातोक्ताश्च नयाः प्रसूत्रविनियोगिनः, मूलद्वारोपन्यस्तनयास्तु ४ सूत्रव्याख्योपयोगिन एवेति । आह-प्रमाणद्वारे जीवगुणः सामायिकं ज्ञानं चेति प्रतिपादितमेश्व, ततश्च किं सामायिकदमित्याशङ्कानुपपत्तिः,उच्यते,जीवगुणत्वे ज्ञानत्वे च सत्यपि किं तज्जीव एव आहोस्विद् जीवादन्यदिति संशयः,तदुच्छित्त्यर्थमुपन्यासाददोषः। आह-नामद्वारे क्षायोपशमिक सामायिकमुक्तं तत्तदावरणक्षयोपशमाल्लभ्यत इति गम्यत एव, अतः कथं ॥१०५॥ लभ्यत इत्यतिरिच्यते, न, क्षयोपशमलाभस्वेह शेषाङ्गलाभचिन्तनादिति । एवं यदुपक्रमनिक्षेपद्वारद्वयाभिहितमपि पुनः * ऽभिधानतो. + वक्ष्यति. तथा च यथा च, चिन्यते, न तु सूत्रविनियोगिनः मेवेति. T laneiorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [-] प्रतिपादयति अनुगमद्वारावसरे तदशेष निर्दिष्टनिक्षिप्तप्रपञ्चव्याख्यानार्थमिति । आह-उपक्रमः प्रायः शास्त्रसमुत्थानार्थ उक्तः, अयमप्युपोद्घातः शाखसमुद्घातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः, उच्यते, उपक्रमो देशमात्रनियतः, तदुद्दिष्टवस्तुप्रबोधनफलस्तु प्रायेणोपोद्घातः, अर्थानुगमत्वात् इत्यलं विस्तरेण, प्रकृतमुच्यते ॥ १४१॥ तत्रोदेशद्वारावयवार्थप्रतिपादनायेदमाह नाम ठवणा दपिए स्वेत्ते काले समास उद्देसे । उद्देसुद्देसंमि अ भावंमि अहोई अहमओ ॥ १४२ ॥ व्याख्या-तत्र नामोद्देशः यस्य जीवादेरुद्देश इति नाम क्रियते, नाम्नो वा उद्देशः नामोद्देशः, स्थापनोद्देशः-स्थाप४ नाभिधानं उद्देशन्यासो वा, 'द्रव्ये' इति द्रव्यविषय उद्देशो द्रव्योद्देशः, स च आगमनोआगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्तः द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये या उद्देशो द्रव्योद्देशः, द्रव्यस्य-द्रव्यमिदमिति, द्रव्येण-द्रव्यपतिरयमिति, द्रव्ये-सिंहासने राजा चूते कोकिलः गिरी मयूर इति, एवं क्षेत्रविषयोद्देशोऽपि वक्तव्यः,एवं कालविषयोऽपीति, समासः' संक्षेपस्तद्विषय उद्देशः समासोद्देशः, स| |च अङ्गश्रुतस्कन्धाध्ययनेषु द्रष्टव्यः, तत्र अजसमासोद्देश:-अङ्गं अङ्गी तदध्येता तदर्थज्ञ इत्येवमन्यत्रापि योजना कार्या, उद्देश:-अध्ययनविशेषः तस्य उद्देश उद्देशोदेशः, तद्विषयश्च उद्देश इति, स चोद्देशोदेशोऽभिधीयते-उद्देशवान् तदध्येता | तदर्थज्ञो वेति, भावविषयश्च भवति उद्देशः अष्टमक इति, स चाय-भावः भावी भावज्ञो वेति गाथार्थः ॥१४२॥ अयमेव देशोऽष्टविधविशिष्टनामसहितो निर्देश इत्यवसेयः, तथा चाह नियुक्तिकार:एमेव य निद्देसो अट्ठविहो सोऽवि होइ णायब्यो । अविसेसिअमुद्देसो विसेसिओ होइ निदेसो॥१४३॥ T JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१०६॥ [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ १४३], भाष्यं [-] व्याख्या- 'एवमेव च यथा उद्देश उक्तस्तथा, निर्देशोऽप्यष्टविध एव भवति ज्ञातव्यः, सर्वथा साम्यप्राप्यतिप्रसङ्गविनि* हारिभद्रीवृत्त्यर्थमाह- किंतु 'अविशेषितः' सामान्याभिधानादिगोचरः उद्देशः, विशेषितस्तु भवति निर्देशः, यथा नामनिर्देशो जिन- यवृत्तिः" भद्र इत्याद्यभिधान विशेषनिर्देशः, स्थापनानिर्देशः स्थापना विशेषाभिधानं निर्देशस्थापना वा, विशिष्टद्रव्याभिधानं द्रव्यनि- * विभागः १ देशः यथा-गौः तेन वा- अश्ववानित्यादि, एवं क्षेत्रविशेषाभिधानं क्षेत्रनिर्देशः यथा-भरतं, क्षेत्रेण - सौराष्ट्र इत्यादि, कालविशेषाभिधानं कालनिर्देशः यथा— समय इत्यादि, तेन वा वासन्तिक इत्यादि, समास निर्देश:- आचारा आवश्यकश्रुतस्कन्धः सामायिकं चेति, उद्देशनिर्देश:- शस्त्रपरिज्ञादेः प्रथमो द्वितीयो वेति, भगवत्यां वा पुद्गलोद्देशो वेति, भावव्यक्तय- * भिधानं भावनिर्देशः यथा - औदयिक इत्यादि, तेन -औदयिकवान् क्रोधीत्यादि वेति अलं विस्तरेणेति गाथार्थः॥ १४३ ॥ इह समासोद्देशनिर्देशाभ्यामधिकारः, कथं ?, अध्ययनमिति समासोदेशः सामायिकमिति समासनिर्देशः, इदं च सामायिकं नपुंसकम् अस्य च निर्देष्टा त्रिविधः-स्त्री पुमान् नपुंसकं चेति, तत्र को नयो नैगमादिः कं निर्देशमिच्छतीत्यमुं अर्थमभिधित्सुराह दुविपि णेगमणओ णिसं संगहो य ववहारो । निद्देसगमुजुसुओ उभयसरित्थं च सहस्स ॥ १४४ ॥ व्याख्या- 'द्विविधमपि' निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच्च नैगमनयो निर्देशमिच्छति, कुतः १, लोकसंव्यवहारप्रवणत्वात् नैकगमत्वाच्चास्येति, लोके च निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच्च निर्देशप्रवृत्तिरुपलभ्यते, निर्देश्यवशात् यथा - वासवदत्ता * निरिहं. Education intemational For Fans Only ॥१०६॥ ~ 222~ www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [-] (४०) प्रियदर्शनेति, निर्देशकवशाच्च यथा-मनुना प्रोक्तो अन्धो मनुः,अक्षपादप्रोक्तोऽक्षपाद इत्यादि,लोकोत्तरेऽपि निर्देश्यवशात् यथा-पड्रजीवनिका, तत्र हि पड् जीवनिकाया निर्देश्या इति, एवमाचारक्रियाऽभिधायकत्वादाचार इत्यादि, तथा निर्देशकवशात् जिनवचनं कापिलीयं नन्दसंहितेत्येवमादि, एवं सामायिकमर्धरूपं रूढितो नपुंसकमितिकृत्वा नैगमस्य निर्देश्यवशानपुंसकनिर्देश एव, तथा सामायिकवतः स्त्रीपुन्नपुंसकलिङ्गत्वात् तत्परिणामानन्यत्वाच्च सामायिकार्थरूपस्य स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गत्वाविरोधमपि मन्यते, तथा निर्देष्टुस्विलिङ्गसंभवात् निर्देशकवशादपि त्रिलिङ्गतामनुमन्यते नैगमः । आह--'द्विविधमपि नैगमनयः' इत्येतावत्युक्ते निर्देश्यवशात् निर्देशकवशाच निर्देशमिच्छतीति क्रियाऽध्याहारः कुतोऽवसीयते इति, उच्यते, यत आह-निर्दिष्टं वस्त्वङ्गीकृत्य, संग्रहो व्यवहारः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धो, निर्देशमिच्छतीति वाक्यशेषः अत्र भावना-वचनं ह्यर्थप्रकाशकमेवोपजायते, प्रदीपवत् , यथा हि प्रदीपः प्रकाश्यं प्रकाशयन्नेव आत्मरूपं प्रतिपद्यते, एवं ध्वनिरप्यर्थ प्रतिपादयन्नेव, ततस्तत्प्रत्ययोपलब्धेः, तस्मानिर्दिष्टवशात् निर्देशप्रवृत्तिरिति, ततश्च सामायिकमर्थरूपं रूढितो नपुंसकमतस्तद धिकृत्य संग्रहो व्यवहारश्च निर्देशमिच्छतीति, अथवा सामायिकवतः खीपुंनपुंसकलिङ्गत्वात् तत्परिणामानन्यत्वाच्च सामायिकार्थस्य त्रिलिङ्गतामपि मन्यत इति । तथा निर्देशकसत्त्वमङ्गीकृत्य सामा-12 यिकनिर्देशं ऋजुसूत्रो मन्यते, वचनस्य वक्तुरधीनत्वात् तत्पर्यायत्वात् तद्भावभावित्वादिति । ततश्च यदा पुरुषो निर्देष्टा है तदा पुंलिङ्गता, एवं स्त्रीनपुंसकयोजनाऽपि कार्या, तथा 'उभयसदृशं निर्देश्यनिर्देशकसदृशं, समानलिङ्गमेव वस्त्वङ्गीकृत्य, शब्दस्य निर्देशप्रवृत्तिरिति वाक्यशेषः, एतदुक्तं भवति-उपयुक्तो हि निर्देष्टा निर्देश्यादभिन्न एव, तदुपयोगानन्यत्वात्, JABERatinintamational wwjainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [-] आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१०७॥ ततश्च पुंसः पुमांसमभिदधतः पुनिर्देश एव, एवं स्त्रियाः स्त्रियं प्रतिपादयन्त्याः स्त्रीनिर्देश एव, एवं नपुंसकस्य नपुंसक- मभिदधानस्य नपुंसकनिर्देश एव, यदा तु पुमान् स्त्रियमभिधत्ते, तदा रुयुपयोगानन्यत्वात् स्त्रीरूप एवासी, निर्देश्य- निर्देशकयोः समानलिङ्गतैव, एवं सर्वत्र योज्यं, असमानलिङ्गनिर्देष्टाऽस्य अवस्वेव, यदा पुमान् पुमांसं स्त्रियं चाहेति, कुतः, तस्य पुरुषयोपिद्विज्ञानोपयोगभेदाभेदविकल्पद्वारेण पुरुषयोषिदापत्तेः, अन्यथा वस्त्वभावप्रसङ्गात् , तस्मादुपयुक्तो यमर्थमाह स तद्विज्ञानानन्यत्वात्तन्मय एव, तन्मयत्वाच्च तत्समानलिङ्गनिर्देशः,ततश्च सामायिकवक्ता तदुपयोगानन्यत्वात् | सामायिक प्रतिपादयन्नात्मानमेवाह यतः तस्मात्तत्समानलिङ्गाभिधान एवासी, रूढितच सामायिकार्थरूपस्य नपुंसकत्वा स्त्रियाः पुंसो नपुंसकस्य वा प्रतिपादयतः सामायिकं नपुंसकलिङ्गनिर्देश एवेति गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु विशेविवरणादवगन्तव्य इति । सर्वनयमतान्यपि चामूनि पृथग्विपरीतविषयत्वात् न प्रमाण, समुदितानि त्वन्तर्बाह्यनिमित्तसामग्रीमयत्वात् प्रमाणमिति अलं विस्तरेण, गमनिकामात्रप्रधानत्वात् प्रस्तुतप्रयासस्य ॥ १४४ ॥ | इदानीं निर्गमविशेषस्वरूपप्रतिपादनायाहनामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो उ निग्गमस्सा णिक्खेवो छब्विहो होइ ॥१४५ ॥ | गमनिका-नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्य'निर्गम:-आगमनोआगमज्ञशरीरेतरव्यतिरिका, स च त्रिधा-सचित्ताचित्तमिश्रभेदभिन्नः, तत्र सचित्तात्सचित्तस्य यथा पृथिव्या अकरस्य, सचित्तान्मिश्रस्य यथा-भूमेः पतङ्गस्य, सचित्तादचित्तस्य पक्षस्य अचित्तत्वात. * संयोज्यं. + ति सामा. विम्यस्य द्रव्याद्वा. रिक्त सचिता०. ॥१०७॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४५], भाष्यं [-] --- -- -- -- | यथा-भूमर्याप्पस्य, तथा मिश्रात्सचित्तस्य यथा-देहात्कृमिकस्य, मिश्रान्मिश्रस्य यथा-स्त्रीदेहागर्भस्य, मिश्रादचित्तस्य यथा-देहादू विष्ठायाः, अचित्तात्सचित्तस्य यथा-काष्ठात्कृमिकस्य, अचित्तान्मिश्रस्य यथा-काष्ठाद् घुणस्य, अचित्तादचित्तस्य यथा-काष्ठाद् पूणचूर्णस्य । अथवा द्रव्यात् द्रव्यस्य द्रव्यात् द्रव्याणां द्रव्येभ्यो द्रव्यस्य द्रव्येभ्यो द्रव्याणा|मिति, तत्र द्रव्याद् द्रव्यस्य यथा-रूपकात् रूपकस्य निर्गमः, एकस्मादेव कलान्तरप्रयुक्तादिति भावार्थः, एकस्मादेव कलान्तरतः प्रभूतनिर्गमो द्वितीयभङ्गभावना, प्रभूतेभ्यः स्वल्पकालेनैकस्य निर्गमो भवति तृतीयभङ्गभावना, प्रभूतेभ्यः प्रभूतानां कलान्तरतश्चतुर्थभनभावनेति, 'क्षेत्रे' इति क्षेत्रविषयो निर्गमः प्रतिपाद्यते, एवं सर्वत्र अक्षरगमनिका कार्या, तत्र कालनिर्गमः-कालो ह्यमूर्तस्तथापि उपचारतो वसन्तस्य निर्गमः दुर्भिक्षाद्वा निर्गतो देवदत्तो वालकालाद्धेति, अथवा कालो द्रव्यधर्म एव, तस्य द्रव्यादेव निर्गमः, तत्प्रभवत्वादिति, एवं भावनिर्गमःतत्र पुद्गलाद्वर्णादिनिर्गमः, जीवारक्रोधादिनिर्गमः इति, तयोर्या पुद्गलजीवयोवर्णविशेषक्रोधादिभ्यो निर्गम इति, एष एव निर्गमस्य निक्षेपः पविध इति गाथार्थः ॥१४५ ॥ एवं शिष्यमतिविका शार्थं प्रसङ्गत उक्तोऽनेकधा निर्गमः, इह च प्रशस्तभावनिर्गममात्रेण अप्रशस्तापगमेन वाऽधिकारः, शेरैरपि तदङ्गत्वाद्, इह च द्रव्यं वीरः क्षेत्र महासेनवर्न काल: प्रमाणकालः भावश्च भावपुरुषः, एवं च निर्गमाङ्गानि द्रष्टव्यानीति एतानि च द्रव्याधीनानि यतः अतः प्रथमं जिनस्यैव मिथ्यात्वादिभ्यो निर्गममभिधित्सुराह १ उष्णतायाः. २ केशायुतत्वात एवममेऽपि. र्गमो वक्तव्यः तृती.. + कालान्तरतश्च०. विकासार्थ. ४.-- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक 1120411 [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ १४६ ], भाष्यं [-] पंथ किर देसित्ता साहूणं अडविविप्पणद्वाणं । सम्मत्तपढमलंभो बोद्धवो वद्धमाणस्स ॥ १४६ ॥ गमनिका - पन्थानं किल देशयित्वा साधूनां अटवीविप्रनष्टानां पुनस्तेभ्य एव देशनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्तः, एवं सम्यक्त्वप्रथमलाभो बोद्धव्यो वर्धमानस्येति समुदायार्थः ॥ १४६ ॥ अवयवार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदम् - अवरविदेहे एगंमि गामे बलाहिओ, सो य रायादेसेण सगडाणि गहाय दारुनिमित्तं महाडविं पविडो, इओ य साहुणो मग्गपवण्णा सत्थेण समं वचंति, सत्थे आवासिए भिक्ख पविद्वाणं गतो सत्थो, पहवितो, अयाणंता विभुला, मूढदिसा पंथं अयाणमाणा तेण अडविपंथेण मज्झण्हदेसकाले तण्हाए हाए अपरद्धा तं देस गया जत्थ सो सगडसण्णिवेसो, सो य ते पासित्ता महंतं संवेगमावण्णो भणति - अहो इमे साहुणो अदेसिया तबस्सिणी अडविमणुपविट्ठा, तेसिं सो अणुकंपाए विपुलं असणपाणं दाऊणं आह-एह भगवं । जेण पथे णमवयारेमि, पुरतो संपत्थिओ, ताहे तेऽवि साहुणो तस्सेव मग्गेण अणुगच्छति, १ अपरविदेहेषु एकस्मिन्ामे बलाधिकः, स च राजादेशेन शकटानि गृहीत्वा दारनिमित्तं महादवीं प्रविष्टः इतच साधवः मार्गप्रपन्नाः सार्थेन समं - जन्ति, सायें आवासिते निक्षार्थं प्रविष्टेषु गतः सार्थः, प्रधावितः, अजानन्तो भ्रष्टा, दिग्मूढाः पन्थानमजानानाः तेन अटवीपथेन मध्याह्नदेशकाले तृषा क्षुधा अपराद्धाः ( च व्याप्ताः ) तं देशं गता स शकटसन्निवेशः, स च तान् दृष्ट्वा महान्तं संवेगमापन भगति अहो इमे साधवोऽदेशिकास्तपखिनोऽटवीमनुप्रविष्टाः, तेभ्योऽसौ अनुकम्पया विपुलमशनपानं दत्त्वाऽऽह-पुत भगवन्तः ! येन पथि युष्मानवतारयामि, पुरतः संप्रस्थितः, तदा तेऽपि साधवः तस्यैव पृष्ठतः अनुगच्छन्ति *जह मिच्छत्ततमाओ विणिमाओ जह य केवलं पत्तो । जहय पयासिअमेयं सामइ तह पवस्वामि ॥ १ ॥ ( गाथैषाऽव्याख्याता निर्युक्तिपुस्तके) + पहाविता व पारद्वा. Education intentional For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~226~ ॥१०८॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [ १४६ ], भाष्यं [१] ततो गुरू तस्स धम्मं कहेदुमारद्धो, तस्स सो अवगतो, ते पंथं समोयारेता नियतो, ते पत्ता सदेस, सो पुण अविश्यसम्मदिडी कालं कारण सोहम्मे कप्पे पलिओचमठिइओ देवो जाओ । अस्यैवार्थस्योपदर्शकमिदं गाथाद्वयमाह भाष्यकारः - | अवरविदेहे गामस्स चिंतओ रायदारुवणगमणं । साहू भिक्खनिमित्तं सत्धा हीणे तहिं पासे ॥१॥ (भाष्यम्) दाणन पंधनयणं अणुकंप गुरू कहण सम्मतं । सोहम्मे उबवण्णो पलियाउ सुरो महिडीओ ॥ २ ॥ (भाष्यम् गमनिका - अवरविदेहे ग्रामस्य चिन्तको राजदारुवनगमनं, निमित्तशब्द लोपोऽत्र द्रष्टव्यः, राजदारुनिमित्तं वनगमनं, साधून भिक्षानिमित्तं सार्थाष्टस्तत्र दृष्टवानं दानमन्नपानस्य, नयनं पैथि अनुकम्पया गुरोः कथनं सम्यक्त्वं प्राप्तः मृत्वा सौधर्म उपपन्नः पल्योपमायुः सुरो महर्द्धिक इति गांधाद्वयार्थः । लण य सम्मत्तं अणुकंपाए उ सो सुविहियाणं । भासुरवर बोंदिधरो देवो वैमाणिओ जाओ ॥ १४७ ॥ गमनिका - ध्या च सम्यक्त्वं अनुकम्पयाड सौ सुविहितेभ्यः भास्वरां- दीप्तिमती घरां प्रधानां 'वोदिं' तनुं धारयतीति समासः, देवो वैमानिको जात इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ १४७ ॥ तथा चचऊण देवलोगा इह चैव य भारहंमि वासंमि । इक्खागकुले जाओ उसभसुअसुओ मरीइत्ति ॥ १४८ ॥ १ ततो गुरू त धर्म पवितुमारब्धः तेन सोऽवगतः, तान्यधि समवतार्थ निवृतः, ते प्राप्ताः खदेशं स पुनरविरतसम्यग्दृष्टि का कृत्वा श्रीध कल्पे पस्योपमस्थितिको देवो जातः, * पवि नयनं. + गाथार्थः + सो. Education intol For Full मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अत्र भाष्यम् आरब्धं तद् अन्तर्गत भगवन् महावीरस्य प्रथमभवस्य वर्णनं ~ 227 ~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१४८], भाष्यं [२] आवश्यक॥१०॥ - प्रत सूत्रांक --- ब्याख्या-ततः स्वायुष्कक्षये सति व्युत्वा देवलोकादिहैव भारते वर्षे इक्ष्वाकुकुले 'जातः' उत्पन्नः ऋषभसुतसुतो हारिभद्री|मरीचिः सामान्येन ऋषभपौत्र इति गाथार्थः ॥ १८॥ यतश्चैवमतः | यवृत्तिः विभागः१ इक्खागकुले जाओ इक्खागकुलस्स होइ उप्पत्ती । कुलगरवंसेईए भरहस्स सुओ मरीइत्ति ॥१४९ ॥ व्याख्या-इक्ष्वाकूणां कुलं इक्ष्वाकुकुलं तस्मिन् , 'जातः' उत्पन्नः, भरतस्य सुतो मरीचिरिति योगः, तत्र सामान्यऋषभपौत्रत्वाभिधाने सति इदं विशेषाभिधानमदुष्टमेव, स च कुलकरवंशेऽतीते जातः, तत्र कुलकरा वक्ष्यमाणलक्षणास्तेषां वंशः कुलकरवंशःप्रवाह इति समासः, तस्मिन्नतीते-अतिक्रान्ते इति, यतश्चैवमत इक्ष्वाकुकुलस्य भवति उत्पत्तिः, वाच्येति वाक्यशेषः, इत्ययं गाथार्थः ॥१४९ ॥ तत्र कुलकरवंशेऽतीत इत्युक्तं, अतः प्रथम कुलकराणामेवोत्पत्तिः प्रतिपाद्यते, यत्र यस्मिन्काले क्षेत्रे च तत्प्रभवस्तन्निदर्शनाय चेदमाह-(ग्रन्थानम् ३०००) ओसप्पिणी इमीसे तइयाएँ समाएँ पच्छिमे भागे। पलिओवमट्ठभाए सेसंमि उ कुलगरुप्पत्ती ॥ १५॥ 18 ___ अखभरहमज्झिल्लतिभागे गंगसिंधुमज्झमि । इत्थ बहुमज्झदेसे उप्पण्णा कुलगरा सत्त ॥ १५१ ॥ प्रथमगाथागमनिका-अवसर्पिण्यामस्यां वर्तमानायां या तृतीया समा-सुषमदुष्पमासमा, तस्याः पश्चिमो भागस्तस्मिन् ॥१०॥ कियन्मात्रे पल्योपमाष्टभाग एव शेषे तिष्ठति सति कुलकरोत्पत्तिः संजातेति वाक्यशेष इति गाथार्थः ॥१५०॥ द्वितीय-12 ...तेषां वंशःप्रवाहः. - _ अनुक्रम T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्तिः [१५१], भाष्यं [ २... ] गाथागमनिका - अर्धभरतमध्यमत्रिभागे, कस्मिन् ? - गङ्गासिन्धुमध्ये, अत्र बहुमध्यदेशे न पर्यन्तेषु, उत्पन्नाः कुलकराः सप्त, अर्ध भरतं विद्याधरालयवैताढ्यपर्वतादारतो गृह्यत इति गाथार्थः ॥ १५१ ॥ इदानीं कुलकरवकव्यताभिधायिकां द्वारगाथां प्रतिपादयन्नाह - पुष्वभवजन्मनाम पमाण संघयणमेव संठाणं । वण्णित्थियाज भागा भवणोवाओ य णीई य * ॥ १५२ ॥ गमनिका - कुलकराणां पूर्वभवा वक्तव्याः, जन्म वक्तव्यंः तथा नामानि प्रमाणानि तथा संहननं वक्तव्यं, एवशब्दः पूरणार्थः, तथा संस्थानं वक्तव्यं तथा वर्णाः प्रतिपादयितव्याः तथा स्त्रियो वक्तव्याः तथा आयुर्वक्तव्यं भागा वक्तव्याःकस्मिन् वयोभागे कुलकराः संवृत्ता इति, भवनेषु उपपातः भवनोपपातः वक्तव्यः, भवनग्रहणं भवनपतिनि कायोपपातप्रदर्शनार्थं, तथा नीतिश्च या यस्य हकारादिलक्षणा सा वक्तव्येति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थे तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति ॥ १५२ ॥ तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयेदमाहअवरविदेहे दो वणिय वयंसा माइ उज्जुए चेव । कालगया इह भरहे हत्थी मणुओ अ आयाया ॥ १५३ ॥ दहुं सिणेहकरणं गयमारुहणं च नामणिष्कत्ती । परिहाणि गेहि कलहो सामत्थण विनवण हन्ति ॥ १५४ ॥ गमनिका - अपरविदेहे द्वौ वणिग्वयस्य मायी ऋजुश्चैव कालगतौ इह भरते हस्ती मनुष्यश्च आयाती, दृष्ट्वा स्नेहकरणं गजारोहणं च नामनिर्वृत्तिः परिहाणिः गृद्धिः कलहः, 'सामत्थणं' देशीवचनतः पर्यालोचनं भण्यते, विज्ञापना-ह पुजभव कुलगराणं उसभजिजिंदस्स भरहरणो । इक्खागकुलुप्पत्ती या आणुपुञ्जीए (गाथैषा नियुक्तिपुस्तकेऽन्याख्याता च ). For Fans at Use Only अत्र कुलकरस्य वक्तव्यता प्रस्तुताः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति www.janbayor ~ 229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५४], भाष्यं [२...] आवश्यक- ॥११॥ हारिभदी यवृत्तिः विभागः१ इति गाथार्थः ॥ १५४ ।। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, अध्याहार्यक्रियायोजना च स्वबुधा प्रतिपदं कार्या, यथा-अपर- विदेहे द्वौ वणिग्वयस्यौ अभूतामिति, नवरं हस्ती मनुष्यश्च आयाताविति, अनेन जन्म प्रतिपादितं वेदितव्यं, अवरविदेहे दो मित्ता वाणिअया, तत्थेगो मायी एगो उजुगो, ते पुण एगो चेव ववहरति, तत्थेगो जो मायी सो तं उजुअं अति- संधेइ, इतरो सचमगृहंतो सम्म सम्मेण ववहरति, दोवि पुण दाणरुई, ततो सो उजुगो कालं काऊण इहेव दाहिणहे मिहुणगो जाओ, वंको पुण तंमि चेव पदेसे हत्थिरयणं जातो, सो य सेतो वण्णेणं चउद्देतो य, जाहे ते पडिपुण्णा ताहे तेण हथिणा हिंडतेण सो दिहो मिहुणगो, दहण य से पीती उप्पण्णा,तं च से आभिओगजणि कम्ममुदिण्णं, ताहे तेण मिहुणगं खंधे विलइयं, तं दहण य तेण सण लोपण अन्भहियमणूसो एसो इमं च से विमलं बाहणंति तेण से विमलवाहणोत्ति नामं कर्य, तेसिं च जातीसरणं जायं, ताहे कालदोसेण ते रुक्खा परिहायंति-मतंगा भिंगंगा तुडियं च _ T अपरविदेहेषु द्वौ मित्रे वणिजी, तत्रैको मायावी एक जुका, तौ पुनरेकत एवं व्यवहरतः, तत्रैको यो मायाची सतगृलु भतिसन्दधाति, इतरः सर्वमगृहयन् सम्यग् सात्म्येन व्यवहरति, बावपि पुनदानरुची, ततः स ऋणुका कालं कृत्यहैव दक्षिणार्धे मिथुनकनरो जातः, वक्रः पुनः तसिबेव प्रदेशे हस्तिर जातः, स च वर्णन मोतचतुर्दन्तन, यदा ती प्रतिषणों सदा तेन हस्तिना हिण्डमानेन स रष्टः मिथुनकनरः, ष्वा च तस्य प्रीतिरुपना, तच तस्याभियोगजवित कर्मोदीर्ण, तदा तेन मिथुनकनरः स्कन्धे वितगिता, तसा च तेन सर्वेण लोकेन अभ्यधिकमनुष्य एष व चाख विम पाहन मिति तेन तस्य विमलवाहन इति। नाम कृतं, तयोन जातिमारणं जातं, तदा कालदोषेण ते वृक्षाः परिहीयन्ते, तयथा-मामा मृानायुटिताला- *प्रतिपादं. +खावासिष्टा.सि. tणा जाता. पतं०म०. R ॥११०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५४], भाष्यं [२...] (४०) * % -% चित्तगा (य) चित्तरसा । गेहागारा अणियणा सत्तमया कप्परुक्खत्ति ॥१॥ तेसु परिहार्यतेसु कसाया उप्पण्णा-इमं मम, मा एत्थ कोइ अण्णो अल्लियउत्ति भणितुं पयत्ता, जो ममीकयं अल्लियइ तेण कसाइजति, गेण्हणे अ संखडंति, ततो तेहिं चिंतितं-किंचि अधिपतिं ठवेमो जो ववत्थाओ ठवेति, ताहे तेहिं सो विमलवाहणो एस अम्हेहिंतो अहितोत्ति ४ उवितो, ताहे तेण तेसिं रुक्खा विरिका, भणिया य-जो तुभं एयं मेरं अतिक्कमति तं मम कहिजाहत्ति, अहं से 'दंड करिहामि, सोऽवि किह जाणति !, जाइस्सरो तं वणियत्तं सरति, ताहे तेसिं जो कोई अवरज्झइ सो तस्स कहिज्जइ, ताहे | सो तेसिं दंड ठवेति, को पुण दंडो, हक्कारो, हा तुमे दुइ कयं, ताहे सो जाणति-अहं सबस्सहरणो कतो, तं वरं किर हतो मे सीसं छिपणं,ण य एरिसं विडवणं पावितोत्ति,एवं बहुकाले हकारदंडोअणुवत्तिओ । तस्स य चंदजसा भारिया, तीए समं भोगे भुंजंतस्स अवरं मिथुणं जायं, तस्सविकालंतरेण अवरं,एवं ते एगवंसंमि सत्त कुलगरा उप्पण्णा पूर्वभवाः खल्व-14 5 ॐ CLASSASSACC* T चित्राङ्गाचित्ररसाः । गृहाकारा अनमाः सक्षमकाः कल्पवृक्षा इति, ॥ तेषु परिहीयमाणेषु कपाया उत्पन्ना, इदं मम, मा अत्र कोऽपन्यो लगीन इति भणितुं प्रवृत्ता, यो समीकृतं जगति सेन कपावन्ते, महणे च शिलन्ति (संखण्डयन्ति), सतबिन्तितं-कमपि अधिपति स्थापयामो यो अवस्था स्थापपति, सदा वैः स विमकवाहन एषोऽसाम्पमधिक इति स्थापितः, तदा तेन तेम्मो वृक्षा विभक्काः, भणिताब-यो युष्माकं एतां मर्यादा अतिकामति तं माझं रुपयेतः, अहं तस्य दण्वं करिष्यामि, सोऽपि कथं जानीते , जातिम्मरसद् वणिक्वं सरति, तदा तेषां यः कश्चिदपराध्यति स सम्म कथ्यते, तदा स तस्य दण्ड (स्थापयति, कः पुनर्दण्डः, दाकार:-हा खया दुष्कृतं, सदा स जानीने-अई सर्वखहरणीकृतः (खाम्), तदा वरं किल हतः शिरो मे छि, मचेटशं बिटम्बना, प्रापित इति, एवं बहुकालं हाकारदण्दोऽनुवर्तितः। तस्य च चम्यसा भार्या, तथा समं भोयाम्भुअतोऽपर मिथुनकं (युग्म) मातं, तस्यापि कालान्तरेणापरं, एवं ते एकवंशे सप्त कुलकरा उत्पमाः। * चित्र्तगा. + भई बसेरामि. परितोति, 18+% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५४], भाष्यं [२...] (४०) आवश्यक मीषां प्रथमानुयोगतोऽवसेयाः, जन्म पुनरिहैव सर्वेषां द्रष्टव्यम् । व्याख्यातं पूर्वभवजन्मद्वारद्वयमिति, इदानी कुलकर-13 | हारिभद्रीनामप्रतिपादनायाह यवृत्तिः ॥११॥ पढ मित्थ विमलवाहण चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो अ पसेणइए मरुदेवे चेव नाभी य ॥१५५ ॥ विभागः१ | गमनिका-प्रथमोऽत्र विमलवाहनश्चक्षुष्मान् यशस्वी चतुर्थोऽभिचन्द्रः ततश्च प्रसेनजित मरुदेवश्चैव नाभिश्चेति, भावार्थः सुगम एवेति गाथार्थः ॥ १५५ ॥ गतं नामद्वारम् , अधुना प्रमाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽह णव धणुसया य पढमो अट्ठ प सत्तडसत्तमाइंच । छच्चेव अद्वछट्ठा पंचसया पपर्णवीसं तु ॥१५६ ॥ व्याख्या-नव धनुःशतानि प्रथमः अष्टौ च सप्त अर्धसप्तमानि षड् च अर्धपष्ठानि पञ्च शतानि पञ्चविंशति, अन्ये दापठन्ति-पश्चशतानि विंशत्यधिकानि, यथासंख्यं विमलवाहनादीनामिदं प्रमाण द्रष्टव्यं इति गाथार्थः ॥१५६॥ गतं प्रमा णद्वार, इदानी कुलकरसंहननसंस्थानप्रतिपादनायाहबजरिसहसंघयणा समचउरंसा य हुँति संठाणे । वण्णंपि य चुच्छामि पत्तेयं जस्स जो आसी ॥ १५७॥ गमनिका-वज्रऋषभसंहननाः सर्व एव समचतुरस्राश्च भवन्ति 'संस्थाने इति संस्थानविषये निरूप्यामाणा इति, वर्णद्वारसंबन्धाभिधानायाह-वर्णमपि च वक्ष्ये प्रत्येक यस्य य आसीदिति गाथार्थः ॥ १५७ ॥ | ॥११॥ ४|चक्खुम जसमंच पसेणइ एए पिअंगुवण्णाभा। अभिचंदो ससिगोरो निम्मलकणगप्पभा सेसा ॥ १५८ ॥ वसुदेवहिण्डीतः "पण्यचीला य. + पञ्चविंशतिन. .प्यमाणे. ACCES JABELSEAnimalTERTATE wajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१५८], भाष्यं [२...] (४०) गमनिका-चक्षुष्मान यशस्वी च प्रसेनजिचैते प्रियङ्गुवर्णाभाः अभिचन्द्रः शशिगौरः निर्मलकनकप्रभाः शेषाः-विम-18 हालवाहनादयः, भावार्थः सुगम एव, नवरं निर्मलकनकवत् प्रभा-छाया येषां ते तथाविधा इति गाथार्थः ॥१५८ ॥ गतं वर्णद्वारं, स्त्रीद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह चंदजसचंदकंता सरूव पडिरूव चक्खुकता य । सिरिकंता मरुदेवी कुलगरपत्तीण नामाई ॥१५॥ | गमनिका-चन्द्रयशाः चन्द्रकान्ता सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुःकान्ता च श्रीकान्ता मरुदेवी कुलकरपल्लीनां नामानीति | गाथार्थः ।। १५९ ।। एताश्च संहननादिभिः कुलकरतुल्या एव द्रष्टव्याः, यत आहI संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव कुलगरेहि समं । वण्णेण एगवण्णा सव्वारे पियंगुवण्णाओ ॥१०॥ M गमनिका-संहननं संस्थानं उच्चस्त्वं चैव कुलकरैः-आत्मीयैः, सम-अनुरूपं आसां प्रस्तुतस्त्रीणामिति, किंतु प्रमाणेन ईपन्यूना इति संप्रदायः, तथापि ईपन्यूनत्वान्न भेदाभिधानमिति, वर्णेन एकवर्णाः सर्वाः प्रियङ्गुवर्णा इति गाथार्थः ॥१६० ॥ स्त्रीद्वारं गतं, इदानी आयुारम्पलिओवमसभाए पढमस्साउं तओ असंखिजा । ते आणुपुब्विहीणा पुब्बा नाभिस्स संखेजा ॥१६१॥ | व्याख्या-पस्योपमदशभागः, 'प्रथमस्य' विमलवाहनस्य आयुरिति, ततः अन्येषां चक्षुष्मदादीनां असंख्येयानि, पूर्वाणीति योगः, तान्येवानुपूर्वीहीनानि नाभेः संख्येयान्यायुष्कमित्ययं गाथार्थः ॥ १६१ ॥ *भागो. T Palaingionary.com मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६१], भाष्यं [२...] आवश्यक ॥११॥ अन्ये तु व्याचक्षते-पल्योपमदशभाग एव प्रथमस्थायुः ततो द्वितीयस्य असंख्येयाः-पल्योपमासख्येयभागा इति वाक्य हारिभद्रीशेषः, त एव चानुपूर्वीहीनाः शेषाणामायुष्कं द्रष्टव्याः तावद् यावत्पूर्वाणि नाभेः संख्येयानि इति, अविरुद्धा चेयं यत्तिः व्याख्येति । अन्ये तु व्याचक्षते-पल्योपमदशभागः प्रथमस्य आयुष्क, ततः शेषाणां 'असंखेजा' इति समुदितानां पल्योपमासंख्येयभागाः, एतदुक्तं भवति-द्वितीयस्य पल्योपमासंख्येयभागः, शेषाणां तत एवासंख्येयभागोऽसंख्येयभागः पात्यते तावद्यावन्नाभेः असंख्येयानि पूर्वाणि । इदं पुनरपव्याख्यानं, कुतः ?, पश्चानामसंख्येयभागानां पल्योपमचत्वारिंशत्तमभागानुपपत्तेः, कथम् ?, पाल्योपमं विंशतिभागाः क्रियते, तदष्टभागे कुलकरोत्पत्तिः, प्रथमस्य दशभाग आयुः, शेषाणां पञ्चानामर्धरूपाचत्वारिंशत्तमभागाद् असंख्यातोऽसंख्यातो भाग आयुः तथाऽप्य किश्चिन्यून चत्वारिंशत्तमो भागोऽवशिष्यते, यतः कृतविंशतिभागपल्योपमस्य अष्टभागे अष्टभागे इदं भवति, ततोऽपि दशभागे दी जाती, गताः असंख्याताः पञ्चभागाः, अर्धाद् यदध किञ्चिन्यूनं स चत्वारिंशत्तमो भाग इति, उक्तं च-पलिओवमभागे सेसंमि उ4 कुलगरुप्पत्ती' (गाथा १५०), तत्रापि प्रथमस्य दशमभाग आयुष्कमुक्त, तस्मैिश्चापगते विंशतितमभागद्वयस्य व्यपगमाच्छेषश्चत्वारिंशद्भागोऽवतिष्ठते, स च संख्येयतमः, ततश्च कालो न गच्छति, आह-अत एव नाभेरसंख्येयानि पूर्वाणि आयुष्कमिट, उच्यते, इष्टमिदं, अयुक्तं चैतत्, मरुदेव्याः संख्येयवर्षायुष्कत्वात्, न हि केवलज्ञानमसंख्येयवर्षायुषांशा | भवतीति, ततः किमिति चेत्, उच्यते, ततश्च नाभेरपि संख्येयवर्षायुषकत्वम् ।। १५१॥ यत आह- . * या भागाः, + तिम०. पमवि०. क्रियन्ते. आतौ. ति. मिष्ट. JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६२], भाष्यं [२...] (४०) प्रत सूत्रांक जंचेव आउयं कुलगराण तं चेव होई तासिपि । जं पढमगस्स आउं तावइयं चेव हथिस्स ॥१२॥ ___गमनिका-यदेव आयुष्कं कुलकराणां तदेव भवति तासामपि-कुलकराङ्गनानां, संख्यासाम्याच्च तदेवेत्यभिधीयते, तथा यत्तु प्रथमस्यायुः कुलकरस्य, तावदेव भवति हस्तिनः, एवं शेषकुलकरहस्तिनामपि कुलकरतुल्यं द्रष्टव्यमिति गाथार्थः ॥ १६२ ॥ इदानी भागद्वारं-कः कस्य सर्वायुष्कात् कुलकरभाग इति--- जं जस्स आउयं खलु तं दसभागे सम विभईऊणं। मज्झिल्लतिभागे कलगरकालं वियाणाडि ||१६३॥ । व्याख्या-यद्यस्यायुष्कं खलु तद् दशभागान् समं विभज्य मध्यमाष्टत्रिभागे कुलकरकालं विजानीहीति गाथार्थः। ॥ १६३ ।। अमुमेवार्थ प्रचिकटयिषुराह पढमो य कुमारत्ते भागो चरमो य बुडभावंमि । ते पयणुपिज्जदोसा सव्वे देवेसु उबवण्णा ॥ १६४ ॥ गमनिका-तेषां दशानां भागानां प्रथमः कुमारत्वे गृह्यते, भागः चरमश्च वृद्धभाग इति, शेषा मध्यमा अष्टौ भागाः कुलकरभागा इति, अत एवोक्तं 'मध्यमाष्टत्रिभागे' इति, मध्यमाश्च ते अष्टौ च मध्यमाष्टौ त एव च त्रिभागस्तस्मिन् द्र कुलकरकालं विजानीहि, गत भागद्वार, उपपातद्वारमुच्यते-ते प्रतनुप्रेमदेषाः, प्रेम रागे वर्त्तते, द्वेषस्तु प्रसिद्ध एव, सर्वे विमलवाहनादयो देवेषु उपपना इति गाथार्थः ॥ १६४ ॥ न ज्ञायते केषु देवेषु उपपन्ना इति, अत आह दो चेव सुवणेसुं उदहिकुमारेसु हुँति दो चेव । दो दीवकुमारेसुं एगो मागेसु उववण्णो ॥१५॥ * मागो. +इएणं. भाव. बदयक, अनुक्रम JABERatinintamational wwsaneiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६५], भाष्यं [२...] आवश्यक हारिभद्री ॥११३॥ T༔ ༔ Tཤྩ བླ गमनिका-द्वावेव सुपर्णेषु देवेषु उदधिकुमारेषु भवतः द्वावेव द्वौ द्वीपकुमारेषु एको नागेषु उपपन्नः, यथासंख्यमय || विमलवाहनादीनामुपपात इति गाथार्थः ॥ १६५ ॥ इदानीं तत्स्त्रीणां हस्तिनां चोपपातमभिधित्सुराह यवृत्तिः विभागः१ हत्थी छचित्थीओ नागकुमारेसु हुंति उबवण्णा । एगा सिद्धि पत्ता मरुदेवी नामिणो पत्ती ॥१६६ ॥ गमनिका-हस्तिनः पटू स्त्रियश्चन्द्रयशाद्या नागकुमारेषु भवन्ति उपपन्नाः, अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-एक एव हस्ती| षट् स्त्रियो नागेषु उपपन्नाः, शेषैर्नाधिकार इति, एका सप्तमी सिद्धि प्राप्ता मरुदेवी नाभेः पत्नीति गाथार्थः ॥ १६ ॥ उक्तमुपपातद्वारं, अधुना नीतिद्वारप्रतिपादनायाह| हकारे मकारे धिक्कारे चेव दंडनीईओ । वुच्छं तासि विसेसं जहक्कम आणुपुवीए ॥ १६७ ॥ | गमनिका-हकारः मक्कारः धिक्कारश्चैवं दण्डनीतयो वर्त्तन्ते, वक्ष्ये तासां विशेषं यथाक्रम-या यस्येति, आनुपू-14 ा-परिपाट्येति गाथार्थः ॥ १६७ ॥ पढमबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया।पंचमछहस्स य सत्तमस्स तइया अभिनवा उ ॥ १६८॥ । गमनिका-प्रथमद्वितीययोः-कुलकरयोः प्रथमा दण्डनीतिः-हकाराख्या, तृतीयचतुर्थयोरभिनवा द्वितीया, एतदुक्तं ११३॥ भवति-स्वल्पापराधिनः प्रथमया दण्डः क्रियते, महदपराधिनो द्वितीययेत्यतोऽभिनया सेति, सां च मकाराख्या, तथा । *वं. द्वितीयेति. janatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- / गाथा-], निर्युक्ति: [१६८ ], भाष्यं [२...] पञ्चमषष्ठयोः, सप्तमस्य तृतीयैव अभिनवा - धिक्काराख्या, एताश्च तिस्रो लघुमध्यमोत्कृष्टापराधगोचराः खल्ववसेया इति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ | सेसा उ दंडनीई माणवगनिहीओ होति भरहस्स । उस भस्स गिहावासे असओ आसि आहारो ॥ १६९ ॥ गमनिका – शेष तु दण्डनीतिः माणवकनिधेर्भवति भरतस्य, वर्तमानक्रियाभिधानं इह क्षेत्रे सर्वावसर्पिणीस्थितिप्रदर्शनार्थ, अम्यास्वप्यतीतासु एध्यासु चावसर्पिणीषु अयमेव न्यायः प्रायो नीत्युत्पाद इति, तस्य च भरतस्य पिता ऋषभनाथः, तस्य च ऋषभस्य गृहवासे असंस्कृत आसीदाहारः-स्वभावसंपन्न एवेति, तस्य हि देवेन्द्रादेशादेवाः देवकु रूत्तरकुरुक्षेत्रयोः स्वादूनि फलानि क्षीरोदाचोदकमुपनीतयन्त इति गाथार्थः ॥ १६९ ॥ इयं मूलनिर्युक्तिगाथा, एनामेव भाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाह - परिभासणा उ पढमा मंडलिबंध मि होइ बीया उ । चार छविछेआई भरहस्स घडव्विहा नीई ॥ ३ ॥ (भाष्यम्) गमनिका - यदुक्तं शेषा तु दण्डनीतिर्माणवकनिधेर्भवति भरतस्य' सेयं - परिभाषणा तु प्रथमा, मण्डलीबन्धश्च भवति द्वितीयातु, चारकः छविच्छेदश्च भरतस्य चतुर्विधा नीतिः, तत्र परिभाषणं परिभाषा - कोपाविष्करणेन मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानं, तथा मण्डलीबन्धः - नास्मात्प्रदेशाद् गन्तव्यं, चारको बन्धनगृहं, छविच्छेदः - हस्तपादनासिकादिच्छेद इति, इयं * भाष्यकारेण व्याख्यामादस्याः मूलत्वं तन्न पाश्चाखभागका निर्युक्ते मूलभाव्य० + बंधोमि । मूलभाष्यगाथेति नियुक्ति पुस्तके। For Fans Only www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१६९], भाष्यं [३] आवश्यक ॥११४॥ भरतस्य चतुर्विधा दण्डनीतिरिति । अन्ये स्वेवं प्रतिपादयन्ति-किल परिभाषणामण्डलिवन्धी ऋषभनाथेनैवोत्पादिताविति, हारिभद्रीचारकच्छविच्छेदौ तु माणवकनिधेरुत्पन्नौ इति, भरतस्य-चक्रवर्त्तिन एवं चतुर्विधा नीतिरिति गाथार्थः ॥३॥ अथ यवृत्तिः कोऽयं भरत इत्याह-ऋषभनाथपुत्रः,अथ कोऽयं ऋषभनाथ इति तद्वक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽह-नाभी गाहा । अथवा प्रतिपादितः कुलकरवंशः,इदानीं प्राक्सूचितेवाकुवंशः प्रतिपाद्यते-सच ऋषभनाथप्रभव इत्यतस्तद्वक्तव्यताऽभिधित्सयाऽऽहनाभी विणीअभूमी मरुदेवी उत्तरा य साढा य । राया य बहरणाहो विमाणसब्बट्ठसिद्धाओ ॥१७॥ गमनिका-इयं हि नियुक्तिगाथा प्रभूतार्थप्रतिपादिका, अस्यां च प्रतिपदं कियाऽध्याहारः कार्यः, स चेस्थम्-नाभि-13 रिति नाभिनाम कुलकरो बभूव, विनीता भूमिरिति-तस्य विनीताभूमौ प्रायः अवस्थानमासीद्, मरुदेवीति तस्य भार्या, राजा चप्राग्भवे वैरनाभः सन् प्रवज्यां गृहीत्वा तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धा मृत्वा सर्वार्थसिद्धिमवाप्य ततस्तस्याः मरुदेव्याः तस्यां विनीतभूमौ सर्वार्थसिद्धाद्विमानादवतीर्य ऋषभनाथः संजातः, तस्योत्तराषाढानक्षत्रमासीत् इति गाथार्थः॥ १७०॥8 इदानीं यः प्राग्भवे वैरनाभः यथा च तेन सम्यक्त्वमवाप्तं यावतो वा भवान् अवाप्तसम्यक्त्वः संसारं पर्यटितः यथा च | तेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धमित्यमुमर्थमभिधित्सुराहधणसत्यवाह घोसण जइगमण अडविवासठाणं च । वहबोलीणे वासे चिंता घयदाणमासि तया ॥ १७१ ॥ ११॥ * प्रतिपाद. + धमिहुणसुरमहब्बलललियंगयवदरअंधमिहुणे य । सोहम्मविजभचुन चक्की सबह उसभे ॥ (गायेयं व्याख्याता नियुक्ती) REC44 Fu Pan मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अत्र ऋषभनाथस्य वक्तव्यता दर्शयते, तद् अन्तर्गत पुर्वभवा: - धन सार्थवाह आदीनाम् वर्णनं क्रियते ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७१], भाष्यं [३...], प्रक्षेपं [१] -46-4SS* उत्तरकुरु सोहम्मे महाविदेहे महब्बलो राया। ईसाणे ललियंगो महाविदेहे वइरजंघो॥१॥ (प्रक्षिप्ता) उत्तरकुरु सोहम्मे विदेहि तेगिच्छियस्स तत्थ सुओ। रायसुय सेहिमचासत्धाहसुया वयंसा से ॥ १७२॥ | अन्या अपि उक्तसंबन्धा एव द्रष्टव्याः तावत् यावत् 'पढमेण पच्छिमेण' गाहा, किंतु यथाऽवसरमसंमोहनिमित्तमुपन्यासं करिष्यामः । प्रथमगाथागमनिका-धनः सार्थवाहो घोषणं यतिगमनं अटवी वर्षस्थानं च बहुवोलीने वर्षे चिन्ता घृतदानमासीत्तदा । द्वितीयगाथागमनिका-उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे महाबलो राजा ईशाने ललिताङ्गो महाविदेहे च वैरजङ्घः । इयमन्यकर्तृकी गाथा सोपयोगा च । तृतीयगाथागमनिका-उत्तरकुरौ सौधर्मे महाविदेहे चिकित्सकस्य तत्र सुतः राजसुतश्रेष्ठयमात्यसार्थवाहसुता वयस्याः 'से' तस्य । आसां भावार्थः कथानकादवसेयः, प्रतिपदं च अनु-18 रूपः क्रियाऽध्याहारः कार्य इति, यथा-धनः सार्थवाह इति धनो नाम सार्थवाह आसीत् , स हि देशान्तरं गन्तुमना घोषणं कारितवानित्यादि । कथानकम्- 'तेणं कालेणं तेणं समएणं अवरविदेहे वासे धणो नाम सत्यवाहो होत्था, सो खितिपतिहिआओ नयराओ वसंतपुरं पढिओ वणिजेणं, घोसणयं कारेइ-जो मए सद्धिं जाइ तस्साहमुदंतं वहामित्ति, तंजहा-खाणेण वा पाणेण वा वस्थेण वा पत्तेण वा ओसहेण वा भेसज्जेण वा अण्णेण वा केणई जो जेण विसूरइत्ति तस्मिन्काले तसिसमयेऽचरविदेहे वर्षे धनो नाम सार्थवाहोऽभूत् , स क्षितिमतिष्ठितात् नगराइसन्तपुरं प्रस्थितो वाणिज्येन, घोषणां कारयति-यो मया साधं याति तस्याहमुपन्त पहामीति, सबधा-खादनेन वा पानेन वा वस्त्रेण वा पानेग वा औषधेन वा भैपायन वा अन्येन वा यो (विन।) येन केनचिद्विपीदति इति' इयं अन्यकर्नुकी सोपयोगा चेति वृत्तिकारा: + धनसा. -% 84% 91%84%95% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७२], भाष्यं [३..., हारिभद्री सावकारा .यवृत्तिः विभागः१ आवश्यक- तं च सोऊण बहवे तडियकप्पडियादओ पयदृति, विभासा, जाव तेण समं गच्छो साहूण संपडितो, को पुण कालो चरमनिदाघो, सोय सत्थो जाहे अडविमज्झे संपत्तो ताहे वासरत्तो जाओ, ताहे सो सत्थवाहो अइदुग्गमा पंथत्तिका ॥११५॥ दि तत्थेव सत्यनिवेस कार्ड वासावासं ठितो, तंमि य ठिते सबो सत्थो ठितो, जाहे य तेसिं सथिल्लियाणं भोयणं णिद्विय ताहे कंदमूलफलाणि समुद्दिसिउमारद्धा, तत्थ साहुणो दुक्खिया जदि कहवि अहापवत्ताणि लभंति ताहे गेण्हंति, एवं ४ काले वच्चंते थोवावसेसे वासारत्ते ताहे तस्स धणस्स चिंता जाता को एत्थ सत्थे दुक्खिओत्ति, ताहे सरिअं जहा मए समं साहुणो आगया, तेसिं च कंदाइ न कप्पंति, ते दुक्खिता तवस्तिणो, कहं देमित्ति पभाए निमन्तिता भणंति-जं परं| अम्ह कप्पि होना तं गेण्हेज्जामो, किं पुण तुम्भं कप्पति ?, जं अकयमकारियं भिक्खामेत्तं, जंवा सिणेहादि, तो तेण साहूण घयं फासुयं विउल दाणं दिण्णं, सो य अहाउयं पालेत्ता कालमासे कालं किच्चा तेण दाणफलेण उत्तरकुराए तत्वा च बहवसाटिककार्पटिकादयः प्रवर्तन्ते, विभाषा (वर्णन), वावतेन समं गछः साधूनां संपस्थितः, का पुनः कालः, परमनिदाघः, सच सार्थों बदाश्टवीमध्ये संप्राप्तः तदा वर्षाराषो जाता, तदा स सार्थवाहोऽतिदुर्गमाः पन्धान इतिकरवा तीच सार्थनिवेश कृत्वा वर्षावास स्थितः, तमिम स्थिते सर्वः। सार्थः स्थितः, यदा च तेषां साधिकाना भोजनं निष्ठितं तदा कन्दमूलफलानि समुष्ट (अ) आरब्धाः, तत्र साधवः दुःखिता यदि कथमपि यथाप्रवृचानि कभन्ते तदा गृहन्ति, एवं काले ब्रजति स्तोकावशेषो वर्षाशवः तदा धनख चिन्ता जाता-क एतभिन्सायें दासित हति, तदा स्मृतं यथा मया समं साधप आगतालेषां कम्दादिम कल्पते, ते दुःखितालपखिनः, कल्ये दास्प इति प्रभाते निमनिता भणन्ति-वत्परमम्मा कर भवेत्तगुद्दीष्यामः, किं पुनर्भवतां कल्पते , यदकृतमकारितं भिक्षामात्र यहा नेहादि, ततः तेन साधुभ्यो पूतं मासुकं विपुलं दानं दर्ष, स च यथायुकं पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा तेन दानफलेन उत्तरकुरुषु * होज, + सिणेहंति. ॥११५॥ k मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७२], भाष्यं [३...], मणूसो जाओ, तओ आउक्खएणं सोहम्मे कप्पे देवो उववण्णो, ततो चइऊण इहेव जंबूदीवे दीवे अवरविदेहे गंधिला| वतीविजए वेयहपधए गंधारजणवए गन्धसमिद्धे विजाहरणगरे अतिबलेरण्णो नत्ता सयबलराइणो पुत्तो महाबलो नाम राया जाओ, तत्थ सुबुद्धिणा अमञ्चेण सावगेण पिअवयस्सेण गाडयपेक्खाअक्खित्तमणो संबोहिओ, मासावसेसाऊ चावीसदिणे भत्तपञ्चक्खाणं काउं मरिऊण ईसाणकप्पे सिरिप्पभे विमाणे ललियंगओ नाम देवो जाओ, ततो चइऊण इहेब जंबूदीवे दीवे पुक्खलावइविजए लोहग्गलणगरसामी वइरजंघो नाम राजा जाओ, तत्थ सभारिओ पच्छिमे वए पच यामित्ति चिंतंतो पुत्तेण वासघरे जोगधूवधूविए मारिओ, मरिऊण उत्तरकुराए सभारिओ मिहुणगो जाओ, तओ सोहम्मे ४ कप्पे देवो जाओ, ततो चइऊण महाविदेहे वासे खिइपइट्ठिए णगरे वेजपुत्तो आयाओ, जद्दिवसं च जातो तदिवसमे-18 गाहजातगा से इमे चत्तारि वयंसगा तंजहा-रायपुत्ते सेहिपुत्ते अमञ्चपुत्ते सत्थाहपुत्तेत्ति, संवहिआ ते, अण्णया कयाइ मनुष्यो जातः, तत आयुःक्षयेण सौधर्मे कल्पे देव उत्पनः, ततयुवा इहैव जम्बूद्वीपे द्वीये अपरविदेवेषु गन्धिलावत्यां वैताझ्यपर्वते गान्धारजनपदे गन्धसमृन्द विद्याधरनगरे अतिबलराजस्य नप्ता शतबलराजस्य पुत्रः महाबलनामा राजा जातः, तत्र सुदिना अमात्येन श्रावकेण प्रियवयस्पेन नाटक|क्षाक्षिप्तमनाः संबोधितः, मासावशेषायुः द्वाविंशतिदिनी भक्तप्रत्याख्यानं कृत्वा मृत्वेशानकले श्रीप्रभे विमाने ललिताकनामा देवो जातः, वतब्युवेदव | जम्बूद्वीपे द्वीपे पुष्कलावती विजये लोहार्गलनगरस्वामी वनजहनामा राजा ज्ञातः, तत्र सभार्यः पश्चिमे वयसि प्रवजामीति चिन्तयन् पुत्रेण वासगृधे योग धूपधूपिते (तेन)मारितः, मृत्वोत्तरकुल्पु सभार्यों मिथुनको जातः, ततः सौधर्म कल्ये देवो जातः, ततव्युत्वा पुनरपि महाविदेहे वर्षे क्षितिप्रतिष्ठिते नगरे | |वैयपुत्र आयातः, यदिवसे च ज्ञातस्तहिवसे एकाहजीतास्तस्येमे चत्वारो क्यस्यास्तयथा-राजपुत्रः श्रेडिपुत्रः अमावपुत्रः सार्थवाहपुत्र इति, संबंधिताले, अन्यदा कदाचित्, *तेणं. + बलस्स २०. पुणोनि म०, Ajanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७२], भाष्यं [३..., आवश्यक- तस्स वेजस्स घरे एनओ सबे सन्निसण्णा अच्छति, तत्थ साह महप्पा सो किर्मिकुडेण गहिओ आइगतो भिक्खस्स, तेहिं हारिभद्री सप्पणयं सहासं सो भण्णति-तुन्भेहिं नाम सबो लोगो खायचो, ण तुन्भेहिं तवस्सिस्स वा अणाहस्स वा किरिया यवृत्तिः ॥११६॥ कायबा, सो भणति-करेजामि, किं पुण? ममोसहाणि णत्थि, ते भणंति-अम्हे मोल्लं देमो, किं ओसहं जाइजउ?, सो विभागः१ भणति-कंबलरयण गोसीसचंदणं च, तइयं सहस्सपागं तिलं तं मम अस्थि, ताहे मम्गिडं पवत्ता, आग-1 मियं च णेहिं जहा-अमुगस्स वाणियगस्स अस्थि दोवि एयाणि, ते गया तस्स सगासं दो लक्खाणि घेत्तुं, वाणिअओ संभंतो भणति-किं देमि?, ते भणंति-कंचलरयणं गोसीसचंदणं च देहि, तेण भण्णति-किं एतेहिं कजं?, भणंति-साहुस्स दाकिरिया कायचा, तेण भणित-अलाहि मम मोलेण, इहरहा एव गेण्हह, करेह किरियं, ममवि धम्मो होउत्ति, सो वाणि-18 यगो चिंतेइ-जई ताव एतेसिं बालाणं परिसा सद्धा धम्मस्सुवरिं, मम णाम मंदपुण्णस्स इहलोगपडिबद्धस्स नत्थि, सो ___ तस्प वैधव गृहे एकतः सनिषण्णालिष्ठन्ति, तत्र साधुमहात्मा स कृमि कुष्टेन गृहीतः अतिगतो भिक्षायै, तैः सप्रणयं सहास्यं सोऽभाणि-युष्माभिनाम सर्वो लोकः खादितम्यः, न युष्मामिः तपस्विनो वा अनाथस्य वा क्रिया (चिकित्सा) कर्तब्या, स भणति-करोमि किं पुनः मम औषधानि न सन्ति, ते भणन्ति-वर्ष मूल्यं दद्यः, किमौषधं याच्यते (तां), स भणति-कम्बलरख गोशीषचन्दनं च, तृतीयं सहसपार्क तैलं सन्ममास्ति, तदा मार्ग-IC यितुं प्रवृत्ताः, ज्ञातं च तैः यथा-अमुकस्य वणिजो हे अपि एते स्तः, ते गतास्तख सकाशंदे उक्षे गृहीत्वा, वणिक संम्रान्तो भयति-किं ददामि !, ते भणन्ति-कम्ब- ११६॥ | लरखं गोशीर्षचन्दनं च देहि, तेन भण्यते-किमतैः का!, भणन्ति साधोः क्रिया कर्तव्या, तेन भणितं-अकं मम मूल्येन, इतरथैव गृहीत कुरुष्वं क्रियां, ममापि धर्मों भवत्तिति, स वणिम् चिन्तयति-यदि तावदेतेषां बालानामीदशी श्रद्धा धर्मस्योपरि, मम नाम मन्दपुण्यस्ख इहलोकप्रतिबद्धस्त्र नास्ति, स * एगयओ. + कोडेण. बाइयोसयसहक मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा-], निर्युक्ति: [ १७२ ], भाष्यं [३...], 'संवेगमावण्णो तहारूवाणं घेराणं अंतिए पवइओ सिद्धो । अमुमेवार्थं उपसंहरन् गाथाद्वयमाह - विज्जसुअस्स य गेहे किमिकुट्ठोबहुअं जई दहुं । विंति य ते विजयं करेहि एअस्स तेगिच्छं ॥ १७३ ॥ तिलं तेगिच्छसुओ कंबलगं चंदणं च वाणियओ । दाउं अभिणिक्खंतो तेणेव भवेण अंतगडो ॥ १७४ ॥ गमनिका — वैद्यसुतस्य च गेहे कृमिकुष्ठोपटुतं मुनिं दृष्ट्वा वदन्ति च ते वैद्यसुतं कुरु अस्य चिकित्सां तैलं चिकित्सकसुतः कम्बलकं चन्दनं च वणिग् दत्त्वा अभिनिष्क्रान्तः तेनैव भवेन अन्तकृत, भावार्थः स्पष्ट एव, क्वचित् क्रियाध्याहारः स्वबुद्ध्या कार्य इति गाथाद्वयार्थः ॥ १७३ - १७४ ॥ कथानकशेपमुच्यते-इमेवि' घेत्तूण ताणि ओसहाणि गता तस्स साहुणो पासं जत्थ सो उज्जाणे पडिमं ठिओ, ते तं पडिमं ठिअं वंदिऊण अणुण्णवेंति - अणुजाणह भगवं । अम्हे तुम्हं धम्मविग्धं काउं उवडिआ, ताहे तेण तेल्लेण सो साहू अब्भंगिओ, तं च तिलं रोम कूवेहिं सर्व अइगतं, तंमि य अइगए किमिआ सषे संबुद्धा, तेहिं चलंतेहिं तस्स साहुणो अतीव वेयणा पाउन्भूया, ताहे ते निग्गते दडूण कंचलरयणेण ३ संवेगमापन्नः तथारूपाणां स्थविराणां भन्तिके मनजितः सिद्धः । २ इमेऽपि गृहीत्वा तान्पौषधानि गवास्तस्य साधोः पार्श्व यत्र स उद्याने प्रतिमया स्थितः ते तं प्रतिमया स्थितं वन्दित्वाऽनुज्ञापयन्ति-अनुजानीहि भगवन् ! वयं तव धर्मदिकमुपस्थिताः, तदा तेन तैलेन स साधुरभ्यङ्गितः तच तैलं रोमकूपैः (०पेषु) सर्व अतिगतं (ध्यानं ), तसिधातिगते कृमयः सर्वे संन्याः तेषु चसु तस्य साधोरतीय बेदना प्रादुर्भूता तदा ताक्षितान् दृष्ट्वा कम्बलरब्रेन * यति. + वन्दन्ते च रोमं कू०. For Fans Only Baby og मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३...], यवृत्तिः प्रत सूत्रांक मावश्यक-8 सो पाउओ साहू, तं सीतलं, तं चेर्व तेल्लं उपहवीरियं, किमिया तत्थ लग्गा, ताहे पुवाणीयगोकडेवरे पष्फो डेति, ते सर्वे हारिभद्री पडिया, ताहे सो साहू चंदणेण लित्तो, ततो समासत्थो, एवेकसि दो तिण्णि वारे अन्भंगेऊण सो साहू तेहिं नीरोगो ॥११॥ कओ, पदम मक्खिजति, पच्छा आलिंपति गोसीसचंदणेणं पुणो मक्खिजइ, एवेताए परिवाडीए पढमभंगे तयागया | विभागः१ णिग्गया बिइयाए मंसगया तइयाए अद्विगया ३दिया णिग्गया, ततो संरोहणीए ओसहीए कणगवण्णो जाओ, ताहे खामित्ता पडिगता, ते पच्छा साहू जाता, अहाउयं पालइत्ता तम्मूलागं पंचवि जणा अचुए उववण्णा, ततो चइऊण इहेव जंबूदी चे पुषविदेहे पुक्खलावइविजए पुंडरगिणीए नयरीए वे रसेणस्स रण्णो धारिणीए देवीए उयरे पढमो वइर-1 णाभो णाम पुत्तो जाओ, जो से वेजपुत्तो चक्कवट्टी आगतो, अवसेसा कमेण बाहुसुबाहुपीढमहापीहत्ति, वइरसेणो पषइओ, सो य तित्थंकरो जाओ, इयरेवि संवडिया पंचलक्खणे भोए भुंजंति, जदिवसं वइरसेणस्स केवलनाणं उप्पीपणं, स प्रावृतः साधुः, तत् शीतलं, तचैव सैकं वणवीर्य, क्रमवसन लामाः, तदा पूर्वानीतगोकलेवरे प्रस्फोटयन्ति (क्षिपन्ति), ते सर्वे पतिताः, तदा साधुः स चन्दनेन लिप्तः, ततः सभाषन्तः, एवमेकं ही श्रीन वारान् अभ्यङ्गय स साधुसी रोगः कृतः, प्रथमं वक्ष्यते पश्चादालिप्यते गोशीपचन्दनेन पुनस्रः। क्ष्यते, एवमेतया परिपाया प्रथमाभ्य वगता निर्गता द्वितीचार्या मांसगतास्तूतीयायामस्थिगतानिया निर्गताः, ततः संसहयोषध्या कनकवणीमाता, तदा। क्षमविश्वा प्रतिगताः, ते पखात् साधयो आता, यथायुष्कं पालयित्वा तन्मूलं पञ्चापि जना अध्यते प्रत्यक्षात तसव्युवा इहैव जम्बूद्वीपे पूर्व विदेहेषु पुष्करावती[विजये पुण्डरीकियां नगर्या वनसेनस्य राज्ञः धारिण्या देण्या उदरे प्रथमो वजनाभनामा पुत्रो जासः, यः स वैद्यपुत्रश्नकवी आयातः (उत्पाः), अवदोषाः क्रमेण बाहुसुबाहुपीठमहापीठा इति, वनसेनः प्रनजिता, सच तीर्थकरो जातः, इतरेऽपि संवर्धिताः पञ्चल क्षणान् भोगान् भुजते, बहिवसे वनसेचस्य केवल-12 ज्ञानमुल्पवं, *च. + पफोबियं. ताहे पाणिजति. दीवे दीवे. बरसेगस्स. सो वेजपुत्तो. सो जाओ || भोए. समुष्पण. अनुक्रम ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३..., तिदिवस वइरणाभस्स चक्करयणं समुप्पण्णं, वइरो चक्की जाओ, तेणं साहुवेयावच्चेण चक्कवट्टीभोया उदिण्णा, अवसेसा चत्तारि मंडलिया रायाणो, तत्थ वइरणाभचर्कवहिस्स चउरासीर्ति पुबलक्खा सबाउग, तत्थ कुमारो तीसं मंडलिओ सोलस चरखीस महाराया चौदस सामण्णपरिआओ, एवं चउरासीइ सवाउयं, भोगे भुजंता विहरंति, इओ य तित्थय-12 रसमोसारणं, सो पिउपायमूले चउहिवि सहोदरेहिं सहिओ पबइओ, तत्थ वइरणाभेण चउद्दस पुषा अहिज्जिया, सेसा एकारसंगवी चउरो, तत्थ वाहू तेर्सि वेयावच्चं करेति, जो सुबाहू सो साहुणो चीसामेति, एवं ते करेंते वइरणाभो भगवं अणुवूहइ-अहो सुलद्धं जम्मजीविअफलं, जं साहूर्ण वेयावच्चं कीरइ, परिस्संता वा साहुणो वीसामिछति, एवं पसंसइ, एवं पसंसिजतेसु तेसु तसि दोण्हं पच्छिमाणं अप्पत्ति भवइ, अम्हे सज्झायंता न पसंसिज्जामो, जो करेइ सो पसंसिज्जइ T तदिवसे वजनामस्य चकरवं समुत्पन, बज्रनाभः चक्री जातः, तेन साधुवैयाभूत्येन चक्रवत्तिभोगा उदीमा: (लब्धाः), अवशेषाश्चस्वारो माण्डालिका राजानो (जाताः), तत्र वज्रनाभचक्रवर्तिनश्चतुरशीतिलक्षपूर्वाणि सर्वायुष्कं कुमारः त्रिंशतं माण्डलिकः षोडश चतुर्विंशति महाराजः चतुर्दश श्रामण्यपर्यायः, एवं चतुरशीतिः सर्वायुष्र्फ, भोगान् भुजमाना विहरन्ति, इतश्च तीर्थकरसमवसरणं, स पितृपादमूले चतुर्भिरपि सहोदरैः सहितः प्रवजितः, तत्र वज्रनामेन चतुर्दश पूर्वाष्पधीतानि, शेषा एकादशाङ्गवियः चत्वारः, तत्र बाहुलेषां बयावृत्य करोति, यः सुबाहुः स साधून वित्रमयति, एवं तौ कुर्वन्तौ वज्रनाभो भगवान् भनुहयति-अहो सुजम् जन्मजीवितफलं, यत् साधूनां वैयावृत्त्वं क्रियते, परिश्रान्ता चा साधवो विनम्यन्ते, एवं प्रशंसति, एवं प्रशस्वमानयोस्तयोईयोः | पश्चिमयोरपीतिकं भवति, भावां स्वाध्यायन्तौ न प्रशस्थावहे, यः करोति स प्रशस्थते, *.किस्स. + सीई. सरणे.वी. ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [३..., आवश्यक ॥११८॥ हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ सबो (चो) लोगववहारोत्ति, वइरणाभेण य विसुद्धपरिणामेण तित्थगरणामगोतं कम्मं बद्धति । अमुमेवार्थमुपसंहरन्निदं गाथाचतुष्टयमाहसाहुं तिगिच्छिऊणं सामपणं देवलोगगमणं च । पुंडरगिणिए उ चुया तओ सुया वइरसेणस्स ॥ १७ ॥ पढ मित्थ बहरणाभो बाहु सुबाहु य पीढमहपीढ़े।तेसि पिआ तित्थरो णिक्खंता तेऽपि तत्व ॥१७६ ॥ पढमो चउदसपुब्वी सेसा इकारसंगविउ चउरो । बीओ वेयावच्चं किइकम्मं तइअओ कासी ॥ १७७॥ भोगफलं बाहुवलं पसंसणा जिट्ट इयर अचियत्तं । पढमो तित्थयरत्तं वीसहि ठाणेहि कासी य ॥ १७८ ॥ ___ आसामक्षरगमनिका-साधु चिकित्सित्वा श्रामण्यं देवलोकगमनं च पौण्डरीकिण्यां च च्युताः, ततः सुता वैरसेनस्य जाता इति वाक्यशेषः, प्रथमोऽत्र वैरनाभः बाहुः सुबाहुश्च पीठमहापीठी, तेषां पिता तीर्थकरो निष्क्रान्तास्तेऽपि तत्रैवपितुः सकाशे इत्यर्थः, प्रथमश्चतुर्दशपूर्वी शेषा एकादशाङ्गविदश्चत्वारः, तेषां चतुर्णा बाहुप्रभृतीनां मध्ये द्वितीयो वैयावृत्त्य कृतिकर्म तृतीयोऽकार्षीत्, भोगफलं बाहुबलं प्रशंसनं ज्येष्ठ इतरयोरचियत्त, प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्थानैरकार्षीत्, भावार्थस्तु उक्त एव, क्रियाऽध्याहारोऽपि स्वबुद्ध्या कार्यः, इह च विस्तरभयानोक्त इति गाथाचतुष्टयार्थः ॥१७५-१७६-१७७-१७८॥यदुक्तं प्रथमस्तीर्थकरत्वं विंशतिभिः स्थानैरकाषीत्,'तानि स्थानानि प्रतिपादयन्निदं गाथात्रयमाह सौ(यो) लोकव्यवहार इति, बननाभेन च विशुवपरिणामेन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बद्धमिति. * पीढा. + चिकित्सयित्वा. विदरनामःबाहुफलं. विशल्या (स्वात्). ११०॥ ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१७९], भाष्यं [३...], 5-%-9 अरिहंत सिद्ध पवयण गुरु थेर बहुस्सुए तबस्सीसुं। वच्छल्लया एएसिं अभिक्खनाणोवओगे य ॥ १७९ ।। दसण विणए आवस्सए य सीलब्बए निरइआरो। खणलव तवचियाए वेयावच्चे समाही य ॥१८॥ अप्पुष्चनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एएहिं कारणेहिं तिस्थयरत्तं लहइ जीवो ॥१८१॥ | व्याख्या-तत्र अशोकाद्यष्टमहापातिहार्यादिरूपां पूजामहन्तीति अर्हन्तः-शास्तार इति भावार्थः १ । सिद्धास्तु अशेषनिष्ठितकर्माशाः परमसुखिनः कृतकृत्या इति भावार्थः २ प्रवचन-श्रुतज्ञानं तदुपयोगानन्यत्वाद्वा सङ्घ इति । गृणन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवः-धर्मोपदेशा दिदातार इत्यर्थः ४ । स्थविरा:-जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नाः, तत्र जातिस्थविरः पष्टिवर्षः श्रुतस्थविरः समवायधरः पर्यायस्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः ५। बहु श्रुतं येषां ते बहुश्रुताः, आपेक्षिकं बहुश्रुतत्वं, एवमर्थेऽपि संयोज्यं, किंतु सूत्रधरेभ्योऽर्थधराः प्रधानाः तेभ्योऽप्युभयधरा इति ६ । विचित्रं अनशनादिलक्षणं तपो| विद्यते येषां ते तपस्विनः सामान्यसाध वो वा ७ । अरहन्तश्च सिद्धाश्च प्रवचनं च गुरवश्च स्थविराश्च बहुश्रुताश्च तपस्विनश्च अर्हत्सिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विनः । वत्सलभावो वत्सलता, सा चानुरागयथावस्थितगुणोत्कीर्तनायथानुरूपोपचारलक्षणा तया, एतेषामहदादीनामिति, प्राक् षष्ठयर्थे सप्तमी 'बहुस्सुए तबस्सीण' वा पाठान्तरं, तीर्थकरनामगोत्रं कर्म बध्यत इति, अभीक्ष्ण-अनवरतं ज्ञानोपयोगे च सति बध्यते ८ । दर्शन-सम्यक्त्वं, विनयो-ज्ञानादिविनया, स च दशवकालिकादवसेयः, दर्शनं च विनयश्च दर्शनविनयी तयोर्निरतिचारः तीर्थकरनामगोत्रं कर्म वनाति १०-११ | अहम्तव्य (सात). CROSAROKSARASSADOS 54465 Shorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति अरिहन्त आदि २० स्थानकानाम् वर्णनं ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८१], भाष्यं [३...], आवश्यक आवश्यकम्-अवश्यकर्त्तव्यं संयमव्यापारनिष्पन्न तस्मिंश्च निरतिचारः सन्निति १२ । शीलानि च व्रतानि च शीलब्रतानि हारिभद्री शीलानि-उत्तरगुणाः प्रतानि-मूलगुणाः तेषु च अनतिचार इति १३ । क्षणलवग्रहणं कालोपलक्षणं, क्षणलवादिषु संवेग-1 यदृत्तिः ॥११९॥ भावनाध्यानासेवनतश्च बध्यते १४ । तथा तपस्त्यागयोध्यते, यो हि यथाशक्त्या तपः आसेवते त्यागं च यतिजने विभागः१ विधिना करोति १६ । व्यावृतभावो वैयावृत्त्वं, तच्च दशधा, तस्मिन्सति बध्यते १७ । समाधिः-गुर्वादीनां कार्यकरणेने । स्वस्थतापादनं समाधी च सति बध्यते १८ । तथा अपूर्वज्ञानग्रहणे सति श्रुतभक्तिः श्रुतबहुमानः, स च विवक्षितकर्म-1 बन्धकारणमिति १९ । तथा प्रवचनप्रभावनता च, सा च यथाशक्त्या मार्गदेशनेति २० । एवमेभिः कारणैः अनन्तरोक्कैः। तीर्थकरत्वं लभते जीव इति गाथात्रयार्थः ॥ १७९-१८०-१८१॥ पुरिमेण पच्छिमेण य एए सब्वेऽवि फासिया ठाणा।मज्झिमएहिं जिणेहिं एवं दो तिण्णि सव्वे वा ॥१८॥ का गमनिका-पुरिमेण पश्चिमेन च एतानि-अनन्तरोक्तानि सर्वाणि स्पृष्टानि स्थानानि, मध्यमैजिनैः एक द्वे त्रीणि सर्वाणि | चेति गाथार्थः ॥ १८२ ॥ IC आह-तं च कहं बेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाईहि । बज्झइ तं तु भगवओ तइयभवोसकइत्ताणं ॥१८॥ गमनिका -तच्च तीर्थकरनामगोत्रं कर्म कथं येद्यत इति, अग्लान्या धर्मदेशनादिभिः, बध्यते तत्तु भगवतो यो | ॥११९॥ ACCORMOS * यथाशक्ति (स्थात् ). +करणद्वारेण. AN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति | तिर्थड्कर-कर्मन: वेदनं, तस्य बन्धनं ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८३], भाष्यं [३...], भवस्तस्मात् तृतीय भवमवसर्दी, अथवा बध्यते तत्तु भगवतस्तृतीयं भवं प्राप्य, ओसकइत्ताणंति -तस्थिति संसार वाऽवस]ति, तस्य पुस्कृष्टा सागरोपमकोटीकोटिन्धस्थितिः, तच्च प्रारम्भवन्धसमयादारभ्य सततमुपचिनोति, यावदपूकरणसंख्येयभागैरिति, केवलिकाले तु तस्योदय इति गाथार्थः॥१८३।। तत्कस्यां गतौ बध्यत इत्याहनियमा मणुयगईए इत्थी पुरिसेयरो य सुहलेसो। आसेवियबहुलेहिं वीसाए अण्णयरएहिं ॥ १८४॥ गमनिका-नियमात् मनुष्यगतौ बध्यते,कस्तस्यां बनातीत्याशश्याह-खी पुरुष इतरो वेति-नपुंसक (का), किं सर्व एवी, नेत्याह-शुभा लेश्या यस्यासौ शुभलेश्यः, स 'आसेवितबहुलेहिं बहलासेवितैः-अनेकधाऽऽसेवितरित्यर्थः, प्राकृतशैल्या पूर्वापरनिपातोऽतोत्रं, विंशत्या अन्यतः स्थानैनातीति गाथार्थः ॥ १८४॥ कथानकशेषमिदानीम-बाहुणा वेयाविचकरणेण चकिभोगा णिवत्तिया, सुबाहुणा वीसाश्मणाए बाहुबलं निवत्ति, पच्छिमेहिं दोहिं ताए मायाए इत्थिनामगो कम्ममज्जितंति, ततो अहाउअमणुपालेत्ता पंचवि कालं काऊण सबसिद्धे विमाणे तित्तीससागरोवमठिइया देवा T बाहुना कैवायूपकरणेन चक्रिभोगा निर्तिताः, सुबाहुना विश्रामणया बाहुबलं निर्वसितं, पश्चिमाभ्यां द्वाभ्यां तया मायया श्रीनामगोत्रं कर्म अर्जितमिति, ततो यथायुष्कमनुपास्य पञ्चापि काळं कृत्वा सर्वार्थसिदे विमाने वयविंशरसागरोपमस्थितिका देवाः करणं. + पच्यते. .तनंच. बाहुणावि. पवैयावृत्य.. पीसावणाए. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८४], भाष्यं [३...], आवश्यक- ॥१२०॥ 4%95 उवण्णा, तस्थवि अहाउयं अणुपालेत्ता पढर्म वइरणाभो चइऊण इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए वइकताए सुसमा- हारिभद्दीएवि सुसमदुसमाएवि बहुवीइकंताए चउरासीइए पुक्सयसहस्सेसु एगणणउए व पक्खेहि सेसेहिं आसाढबहुलपक्खच- यवृत्ति: उत्थीए उत्तरासाढजोगजुत्ते मियंके इक्खागभूमीए नाभिस्स कुलगरस्स मरुदे वीए भारियाए कुञ्छिसि गन्भत्ताए उव विभागः१ वण्णो, चोईस सुमिणा उसभगयाईआ पासिय पडिबुद्धा, नाभिस्स कुलगरस्स कहेइ, तेण भणियं-तुभ पुत्तो महाकुलकरो भविस्सइ, सक्कस्स य आसणं चलियं, सिग्धं आगमणं, भणइ-देवाणु पिए ! तव पुत्तो सयलभुवणमंगलालओ पढमराया पढमधम्मचकावट्टी भविस्सइ, केई भणंति-बत्तीसपि इंदा आगंतूण वागरेंति, ततो मरुदेवा हहतुवा गम्भ वह-६ | इति । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउववाओ सबढे सब्वेसिं पढमओ चुओ उसभो । रिक्खेण असाढाहिं असाढबहुले चउत्थीए ॥१८५॥ गमनिका-उपपातः सर्वार्थे सर्वेषां संजातः, ततश्च आयुष्कपरिक्षये सति प्रथमच्युतो ऋषभ ऋक्षेण-नक्षत्रेण आषा उत्पन्नाः, तन्त्रापि यथायुरनुपाख्य प्रथम वजनाभन्युचा अस्या अवसर्पिण्याः सुषमसुषमायाँ व्यतिक्रान्तायां सुषमायामपि सुषमदुष्पमावामपि बहुव्य|तिकान्तायां चतुरशीतौ पूर्वशतसहस्त्रेषु एकोननवतौ च पक्षेषु शेषेषु आषाढकृष्णपक्षचतुथ्यौ उत्तराषाढायोगयुक्त मुगाले इक्ष्वाकुभूमी नामेः कुलकरस मरुदेश्या भायांवाः कुक्षी गर्भतयोत्पन्नः, चतुर्दश स्वमान ऋषभगजादिकान ट्रा प्रतिबद्धा, नाभये कुलकराय कथयति, तेन भणितं तव पुत्रो महाकुलको भविष्यति, 14॥१२०॥ शकल्प चासनं चलितं, शीघ्रमागमन, भणति-देवासुप्रिये ! तव पुत्रः सकलभुवनमालालयः प्रथमराजः प्रथमधर्मचक्रवर्ती भविष्यति, केचिद् भणस्ति-द्वात्रिशपि इन्दा भागस्य ब्यागृणन्ति, ततो मरुदेवी हष्टतुष्टा गर्भ बहतीति. * मरुदेषण, + पदस०. नाभिकुल •णुपिया. IM JABERatant andiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋशभस्य जन्म,वृद्धिः, जातिस्मरण आदिनाम् वर्णनं ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८५], भाष्यं [३...], T༄༅ Tཤྩ ཟླ है ढाभिः आषाढबहुले चतुर्थ्यामिति गाथार्थः ॥ १८५॥ इदानीं तद्वक्तव्यताऽभिधित्सया एनां द्वारगाथामाह नियुक्तिकारः जम्मणे नाम बुड्डी अ, जाईएँ सरणे इअ । वीवाहे अ अवच्चे अभिसेए रजसंगहे ॥ १८६ ।। गमनिका-जमण' इति जन्मविषयो विधिवक्तव्यः, वक्ष्यति च 'चित्तबहुलमीए' इत्यादि, नाम इति-नामविषयो विधिर्वक्तव्यः, वक्ष्यति 'देसूणगं च' इत्यादि, 'बुड्डी यत्ति' वृद्धिश्च भगवतो वाच्या, वक्ष्यति च 'अह सो बहुति भगव-15 मित्यादि', 'जातीसरणेतियत्ति' जातिस्मरणे च विधिर्वक्तव्यः, वक्ष्यति च 'जाईसरो य' इत्यादि, 'वीवाहे यत्ति' वीवाहे |च विधिर्वतव्यः, यक्ष्यति च 'भोगसमत्थं' इत्यादि, 'अवच्चेत्ति' अपत्येषु क्रमो वाच्यः, वक्ष्यति च 'तो भरहवंभिसुंदरी-IN त्यादि' 'अभिसेगत्ति' राज्याभिषेके विधिर्वाच्यः 'आभोएडं सको उवागओ' इत्यादि वक्ष्यति, 'रजसंगहेत्ति' राज्यसंग्रहविषयो विधिर्वाच्यः, 'आसा हत्थी गावों इत्यादि । अयं समुदायार्थः, अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं यथावसरं वक्ष्यामः । तत्र प्रथमद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहचित्तबहुलछमीए जाओ उसभो असाढ णक्खत्ते । जम्मणमहो अ सब्बो णेयब्वो जाव घोसणयं ॥ १८७॥ गमनिका-चैत्रबहुलाष्टम्यां जातो ऋषभ आषाढानक्षत्रे जन्ममहश्च सर्वो नेतव्यो यावद् घोषणमिति गाथार्थः ॥१८७॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-सा य मरुदेवा नवर्ह मासाणं बहुपडिपुषणाणं अट्ठमाण! य राईदियाण 1 सा च मरुदेवी नवसु मासेषु बहुप्रतिपूर्णेषु अर्धाष्टसु च रानिन्दिवेषु. * जातीसरणेतिय (वृत्ती). + नामैति. ०णकमिति. माण राई.. JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति | भगवत: जन्म-कल्याणकस्य वर्णनं ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], आवश्यक ॥१२१॥ Ta Ta बहुवीइकताणं अद्धरत्तकालसमयसि चित्तबहुलमीए उत्तरासाँढानक्खत्ते आरोग्गा आरोग्गं दारयं पयाया, जायमाणेसुहारिभद्रीय तित्थयरेसु सबलोए उज्जोओ भवति, तित्थयरमायरो य पच्छण्णगम्भाओ भवंति जरारुहिरकलमलाणि य न हवंति, यवृत्तिः ततो जाते तिलोयणाहे अहोलोयवत्थवाओ अह दिसाकुमारीओ, तंजहा-भोगकरा भोगवती, सुभोगा भोगमालिणी विभागः १ सुवच्छा वच्छमित्ता य, पुष्फमाला अणिंदिया ॥१॥ एयासिं आसणाणि चलंति, ततो भगवं उसहसामि ओहिणा जाय । आभोएऊण दिवेण जाणविमाणेण सिग्घमागंतण तित्थयरं तित्धयरजणणिं च मरुदेविं अभिवदिऊण संलवंति-नमोऽरथु| ते जगप्पईवदाईए, अम्हे णं देवाणुप्पिए ! अहोलोयवधवाओ अह दिसाकुमारीओ भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिम करेमो तं तुन्भेहि न भाइयबंति, ततो तंमि पदेसे अणेगखंभसयसंनिविई जम्मणभवणं विउबिऊण संवट्टगपवणं विउचंति, ततो तस्स भगवंतस्स जम्मणभवणस्स आजोयर्ण सवतो समंता तणकडकंटककक्करसकराइ तमाहुणिय आहुणिय एगते बहुव्यतिक्रान्तेषु अर्धरात्रिकालसमये कृष्णाटम्यां उत्तराषाढानक्षत्रे अरोगा भरोग दारकं प्रजाता, जायमानेषु च तीर्थकरेषु सर्वलोके उद्योतो भवति, तीर्थकरमातरम प्रच्छन्नगर्भा भवन्ति जरारुधिरकलिमलानि च न भवन्ति, ततो जाते त्रिलोकनाथे अधोलोकवासपा अष्ट दिकुमार्यः, तथा-भोगकरा भोगवती सुभोगा भोगमालिनी । सुवत्सा वत्समित्रा च पुष्पमाला अनिन्दिता ॥१॥ एतासामासनानि चलम्ति, ततो भगवन्त ऋषभस्वामिनं भवधिना जातं आभोग्य दिव्येन मानविमानेन भीनमागम्य तीर्यकर तीर्थकरजननी च मरुदेवीमभिवन्य संकपन्ति-गमोऽस्तु तुभ्यं जगप्रदीपदायिके ! वयं देवानुप्रिये! अधोलोकवातम्या मष्ट दिकुमार्यः भगवततीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कुमैतत् त्वया न भेतव्यमिति, ततमामिन् प्रदेशे अनेकताभशतसनिविष्ट जन्मभवनं वि-1 कुर्य संवर्गकपवनं विकुर्वन्ति, ततस्तस्य भगवतः जम्मभवनसायोजन सर्वतः समन्ताव तुणकाटकपटककर्करशर्करादि तत् आय आधूर्यकान्त " उत्तरासादक. ॥१२॥ KJanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति मुनि दीपरत्नसागरेण ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], (४०) 23 HOROSCOPE पक्खिवंति, ततो खिप्पैमेव पचुवसमंति, ततो भगवतो तित्थगरस्स जणणीसहिअस्स पणाम काऊण नाइदूरे निविडाओ परिगायमाणीओ चिट्ठति । तओ उढलोगवत्थवाओ अह दिसाकुमारीओ, तंजहा-मेघंकरा मेघवती, सुमेघा मेघमालिनी । तोयधारा विचित्ता य, वारिसेणा चलाया ॥१॥ एयाओऽवि तेणेव विहिणा आगंतूण अभवद्दलयं विउवित्ता आजोयण भगवओ जम्मणभवणस्स णञ्चोदयं णाइमट्टियं पफुसियपविरलं रयरेणुविणासणं सुरभिगंधोदयवासं वासित्ता पुष्फबद्दलयं विउवित्ता जलथलयभासरप्पभूयस्स विंटठाइस्स दसवण्णस्त कुसुमस्स जाणुस्सेधपमाणमेत्तं पुप्फवासं वासंति, त' चेव जाव आगायमाणीओ चिट्ठति । तओ पुरच्छिमरुयगवत्थवाओ अह दिसाकुमारिसामिणीओ, तंजहा-णंदुत्तरा य जंदा आणंदा णदिवद्धणा चेव । विजया य वेजयंती जयति अवराजिया चेव ॥१॥ तहेवागंतूण जाप न तुम्भेहि | बीहियवंति भणिऊण भगवओ तिस्थगरस्स जणणिसहिअस्त पुरिच्छिमेणं आदंसगहथिआओ आगायमाणीओ चिट्ठति । प्रक्षिपन्ति, ततः क्षिप्रमेव प्रत्युपधामयन्ति, ततो भगवते तीर्थंकराय जननीसहिताय प्रणामं कृत्वा नाविदूरे निविटाः परिगायन्त्य तिष्ठन्ति । तत ऊर्यलोकवास्तव्या अष्ट दिशुमायः, तद्यथा-मेघरा मेघवती, सुमेधा मेघमालिनी । तोषधारा विचित्रा च, वारिषेणा बलाहका ॥१॥ एता अपि तेनैव विधिनागस्वाभ्रवर्दल बिकुर्ववित्वा आयोजनं भगवतो जन्मभवनात् नात्युदकं नातिमृतिक विश्लशीकरं (फुसारं) रजोरेणुविनावानं सुरभिगन्धोदकवर्षी वर्षयित्वा पुष्पवलं विकुष्य जलस्थलजमाखरप्रभूतस्य वृन्तस्थायिनः वशाधवर्णस्य कुसुमख जानूरसेपप्रमाणमात्रां पुष्पवर्षा वर्षयन्ति, तदेव यावद् भागाधनस्यस्तिहन्ति । हाततः पूर्वदिपुचकवासल्या मष्टी दिकमारीखामिया, तबधा-नन्दोत्तराच नन्दा आनन्दा नन्दिवर्धना चैत्र । विजया जयन्ती जयन्ती अपराजिता चैव M ॥ तथैवागत्य वायवयान सम्पमिति भणिया भगवतस्तीर्थकराजननीसहितात्पूर्वखा आदर्शहला भागावत्यसिन्ति। 'सिपा +तह चेक. जयंती. पुरण्टिमेणं. T ajandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक॥१२२॥ [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः +वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्तिः [१८७], भाष्यं [३...], । एवं दाहिणरुयगवत्थवाओ अट्ठ, तंजहा-समाहारा सुप्पदिण्णा, सुप्पबुद्धा जसोहरा । उच्छिमती भोगवती, चित्तगुत्ता वसुंधरा ॥ १ ॥ तहेवागंतूण जाव भुवणाणंदजणणस्स जणणिसहिअस्स दाहिणेणं भिंगारहत्थगयाओ आगायमाणीओ चिति । एवं पच्छिमरुयगवत्थवाओऽवि अड, तंजहा इलादेवी मुरादेवी, पुहवी पउमावती । एगणासा णवमिआ, सीया भदा य अडमा ॥ १ ॥ एयाओऽवि तित्थयरस्स जणणिसहिअस्स पञ्चस्थिमेणं तालियंटहत्थगयाओ आगायमाणीओ चिति । एवं उत्तररूयगवत्थवा ओऽवि अट्ठ, तंजहा अलंबुसा मिस्सकेसी, पुंडरिगिणी य वारुणी। हाँसा सवप्पभा चैव, सिरि हिरी चैव उत्तरओ ॥ १ ॥ तहेवागंतूण तित्थगरस्स जणणिसहिअस्स उत्तरेण णातिदूरे चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ चिति । ततो विदिसिरु यगवत्थवाओ चत्तारि विज्जुकुमारी सामिणीओ, तंजहा चित्ता य चित्तकणगा, सत्तेरा सोयामणी ॥ तहेवा गंतूण तिहुअणबंधुणो जणणिसहिअस्स चउसु विदिसासु दीविवाहत्थगयाओ णाइदूरे आगायमाणीओ चिठ्ठति । ततो १ एवं दक्षिणरुचकवास्तभ्या अष्ट तथा समाहारा सुप्रदत्ता सुमबुद्धा यशोधरा लक्ष्मीवती भोगवती, चित्रगुप्ता वसुन्धरा ॥१॥ तथैवागत्य यावत् भुवनानन्दजनकाजननीसहितात् दक्षिणस्यां भृङ्गारहस्ता आगायन्त्यस्तिष्ठन्ति एवं पश्चिमश्चकवास्तव्या अपि अष्ट तद्यथा-इलादेवी सुरादेवी, पृथ्वी पद्मावती । एकनासा नवमिका, सीता भद्रा चाष्टमी ॥१॥ एता अपि तीर्थकरात् जननीसहितापायां तालवृन्तहस्तगता आगायन्यस्तिष्ठन्ति । एवमुत्तरचक वास्तव्या अपि अष्ट, यथाअलम्बुसा मिश्रकेशी पुण्डरीकिणी व वारुणी हासा सर्वप्रभा चैव श्रीः द्वीश्चैवोत्तरतः ॥ १॥ तथैवागत्य तीर्थंकराजन भी सहितादुत्तरस्यां नाविदूरे चामरहस गता आगायन्यस्तिष्ठन्ति । ततो विदिश्र्चकचास्तम्याश्रतत्रः विद्युकुमारीस्वामिन्यः, तदथा चित्रा व चित्रकनका सत्तारा सौदामिनी ॥ तथैवागत्य त्रिभुवनदभोजननीसहिता चतसृषु विविक्षु दीपिका हस्तगता नातिदूरे आगायन्त्यस्तिन्ति ततो आसा. + उतरा. ०सि बाहिररु०. Education into For Fans Use Only - हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 254 ~ ॥१२२॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति www.lincibrary.or Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], % -0-% मज्झरुयगवत्थवाओ चत्तारि दिसाकुमारिपहाणाओ, तंजहा-रूयया रूययंसा, सुरूया रूयगावती ॥ तहेवागंतूण जाव ण उवरोहं गंतबंतिकट्ठ भगवओ भवियजणकुमुयसंडमंडणस्स चउरंगुलवज णाभिं कप्पंति, वियरयं खणंति, णाभिं वियरए आनिहणंति, रयणाणं वैराण य पूरेंति, हरियालियाए य पीढं बंधेति, भगवओ तिस्थयरस्स जम्मणभवणस्स पुरच्छिमदाहिण-IN उत्तरेण तओ कदलीहरए विज्यंति, तेर्सि बहुमज्झदेसे तओ चंदसाले विउति, तेसिं बहुमज्झदेसे तओ सीहासणे विजचंति, भगवं तित्थयरं करायलपरिग्गहितिस्थगरजणणिं च बाहाए गिहिऊण दाहिणिले कदलीपारचाउस्साले सीहासणे निवेसिऊण सयपागसहस्सपागेहिं तिलहिं अन्भंगेति, सुरभिणा गंधवट्टएण उबर्दिति, तती भगवं तित्थयरं करकम-1* लजुअलरुद्धं काऊण तिहुयणनिब्बुइयरस्स जणणि च सुइरं बाहाहिं गहाय पुरच्छिमिल्ले कदलीघरचाउस्सालसीहासणे सन्नि 0- - 3--04-04- १ मध्यरुचकवास्तव्यातलो दिकुमारीप्रधानाः, तद्यथा-रुचका रुचकांशा, सुरुचा रुचकावती । तथैवागत्य यावनोपरोध गन्तव्यमितिकृत्वा भगवतो | भव्यजनकुमुदषण्डमण्ढनस्य चतुरङ्गलबजे नाभि कप यन्ति, विवरं खनम्ति, नाभि विवरे निशान्ति, स्नै त्रैश्च पूरयन्ति, हरितालिकया च पीठं बन्नन्ति, भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनाद् पूर्वदक्षिणोत्तरासु त्रीणि कलीगृहाणि विकुर्वयन्ति, तेषां बहुमध्यदेशे तिखश्चन्द्रशाला विकुर्वन्ति, तासां बहुमध्यवेदो त्रीणि सिंहासनानि विकन्ति, भगवन्तं तीर्थकर करतलपरिगृहीतं तीर्थकरजननी च बासोः गृहीत्वा दाक्षिणात्ये कदलीगृहचतुःशाले सिंहासने निचेश्व शतपाकसहअपातरम्यङ्गायन्ति, सुरभिणा गन्धवर्तकेनोदर्शयन्ति, तत्तो भगवन्तं तीर्थकरं करकमल युगकरुवं कृत्वा त्रिभुवनानितिकरय जननी च सुचिर बाहुभ्यां गुदीत्या पौरस्त्वे कदलीगृहचतुःशालसिंहासने मारीभो पहा०. . करकमल. घरगे. लसीहा०, ३ निसियापेकण. खहरे। || भयं. छिन्दति. JEELIEREInintainmaTORIA मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [३...], आवश्यक ॥१२३॥ प्रत सूत्रांक ACK 'वेसावेति, ततो मजणविहीए मजति, गंधकासाइएहि अंगया ई लूहेंति, सरसेणं गोसीसचंदणेणं समालहेंति, दिवाई देवहारिभद्रीदूसजुअलाई नियसंति, सबालंकारविभूसियाई करेंति, तओ उत्तरिले कदलीघरचाउस्सालसीहासणे निसीयाविति, ताओ यवृत्तिः |आभिओगेहिं चुलहिमवंतागो सरसाई गोसीसचंदणकट्ठाई आणावेऊण अरणीए अगि उप्पाएंति, तेहिं गोसीसचंदणक- विभागः१ हेहिं अग्गि उज्जालेंति, अग्गिहोम करेंति, भूइकम्मं करेंति, रक्खापोट्टलिअं करेंति, भगवओ तित्थंकररस कण्णमूलंसि दुवे| पाहाणवट्टए टिटियावेति, भवउ २ भवं पधयाउएत्तिक? भगवंतं तित्थकरं करतलपुडेण तित्थगरमातरं च बाहाए गहाय जेणेव भगवओ जम्मणभवणे जेणेव स यणिज्जे तेणेव उवागच्छंति, तिस्थयरजणणि सयणिजे निसियाति, भगवं तित्थयरं पास ठवेंति, तित्धकरस्स जणणिसहिअस्स नाइदूरे आगायमाणीओ चिट्ठति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसंवह मेह आयंसगा य भिंगार तालियंटा य । चामर जोई रक्खं करेंति एयं कुमारीओ॥१८८॥ सचिवेशयन्ति, ततो मजन विधिना मजयन्ति, गन्धकापावी भिरङ्गानि रूक्षयन्ति, सरसेन गोशीर्षचन्दनेन समालभन्ते, दिग्यानि देवदूष्ययुगलानि परिधापयन्ति, सर्वालङ्कारविभूषिते कुर्वन्ति, तत औत्तरे कदलीगृहचतुशालसिंहासने निषादयन्ति, तत आभियोगिकैः क्षुल्लकहिमवतः सरसानि गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि आनाथ्य अरणीतोऽनिमुत्पादयन्ति, तैयाँशीर्षचन्दमकार्व्हरमिं उज्ज्वालयन्ति, अभिहोमं कुर्वन्ति, भूतिकर्म कुर्वन्ति, रक्षापोहलिकां कुर्वन्ति, भगवततीर्थरस्य कर्णमूले द्वौ पाषाणवतुंलो भास्फालयन्ति, भवतु २ भवान् पर्वतायुष्क इतिकृत्वा भगवन्तं तीर्थकरं करतलपुटेन तीर्थकरमातरं च भुजयोगुदीत्वा यत्रैव भगवतो जन्मभवन यत्रैव शयनीयं तत्रैवोपागच्छन्ति, तीर्थकरजननी शयनीये निषादयन्ति, भगवन्तं तीर्थकर पा खापयन्ति, तीर्थकरस्य || जनमीसहितव नातिदूरे भागाषन्त्यस्तिष्ठन्ति । * निसियाचे ति. + गंधकासाहए. गायाई. तत्थ आभिभोगिएहि. वाससय.. ॥ मेर अह अनुलोमा चदिसिरुभगा उ म पस्ने । वविदिसि मजारुयगा इति छप्पणा दिसि कुमारी॥1॥ सोपयोगा प्रक्षिप्ता. निवेशयन्ति. अनुक्रम T THESENTRIATRETIRTURE ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८८], भाष्यं [३...], SONGCREAMGAGAR गतार्था, द्वारयोजनामात्र प्रदर्श्यते-'संवट्ट मेहे'ति संवर्तकं मेघम् उक्तप्रयोजनं बिकुर्वन्ति, आदर्शकांश्च गृहीत्वा तिष्ठन्ति,18 भृङ्गारांस्तालवृत्तांश्चेति, तथा चामरं ज्योतिः रक्षां कुर्वन्ति, एतत् सर्वं दिक्कुमार्य इति गाथार्थः ॥ १८८॥ ततो सकस्स देविंदस्स णाणामणिकिरणसहस्सरजिअं सीहासणं चलिअं, भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएति, सिग्छ पालएण विमाणेणं एइ, भगवं तित्थयरं जणाणिं च तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, वंदई नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-णमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए !, अहं णं सक्के देविंदे भगवओ आदितिस्थगरस्स जम्मणमहिमं करेमि, तंण तुमे ण उवरुझियबंतिकट्ट ओसोयर्णि दलयति, तित्थगरपडिरूवगं विउबति, तित्थयरमाउए पासे ठवेति, भगवं तित्थयरं करयलपुडेण गेण्हति, अप्पाणं च पंचधा विउबति-गहियजिणिंदो एको दोणि य पासंमि चामराहत्था । गहिउज्जलायवत्तो |एको एकोऽथ बजघरो॥१॥ ततो सको चाउबिहदेवनिकायसहिओ सिग्मं तुरियं जेणेव मंदरे पथए पंडगवणे मंदरचूलियाए दाहिणेणं अइपंडुकंवलसिलाए अभिसेयसीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणे पुरच्छाभिमुहे निसीयति, ततः शकस देवेन्द्रस नानामणिकिरणसहस्रजित सिंहासनं चलितं, भगवन्तं तीर्थकरमवधिनाऽऽभोगवति, शीनं पालकेन विमानेनायाति, भगवन्तं तीर्थकर जननी च त्रिकृत्व भादक्षिणप्रदक्षिणं करोति, वन्दते नमस्थति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत्-नमोऽस्तु तुभ्यं रखकुक्षिधारिके !, अहं शक्रो देवेन्द्रो भगवत आदितीर्थकरस्य जम्ममहिमानं करोमि, तत् खया नोपरोडध्यमितिकृत्वाऽचस्वापिनीं ददाति, तीर्थकरप्रतिरूप विकुर्वति, तीर्थकरमातुः पा स्थापयति, भगवन्तं तीर्धकरं करतलपुटेन गृहाति, आत्मानं च पञ्चधा विकुर्वति-गृहीतजिनेन्न एको द्वौ च पायोश्वामरहस्तौ । गृहीतोजावलातपत्र एक एकोऽध वज्रधरः ॥1॥ ततः वानः चतुर्विधदेवनिकायसहितः शीधे त्वरितं यत्रैव मन्दरे पर्वते पाण्डकने मन्दरपूलिकाया दक्षिणेन अतिपाण्टकम्बलशिलायामभिषेकसिंहासनं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य सिंहासने पौरस्त्याभिमुखो निषीदति, मावरुए. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८८], भाष्यं [३..., प्रत आवश्यक एत्थ बत्तीसपि इंदा भगवओ पादसमीवं आगच्छंति, पढम अचुय इंदोऽभिसेयं करेति, ततो अणु परिवाडीए जाव सक्को हारिभद्रीतितो चमरादीया जाव चंदसूरत्ति, ततो सको भगवओ जम्मणाभिसेयमहिमाए निबत्ताए ताए सबिड्डीए चउबिहदेवणि-18 यवृत्तिः ॥१२४॥ कायसहिओ तित्थंकरं घेत्तूण पडियागओ, तित्थगरपडिरूवं पडिसाहरइ, भगवं तित्थयरं जणणीए पासे ठवेइ, ओसो- विभागः१ ४ वर्णि पडिसंहरइ, दिवं खोमजुअलं कुंडलजुअलं च भगवओ तित्थगरस्स ऊसीसयमूले ठवेति, एग सिरिदामगंडं तवणिज्जु जललंबूसगं सुवण्णपयरगमंडियं नाणामणिरयणहारद्धहारउवसोहियसमुदयं भगवओ तित्थगरस्स उप्पिं उल्लोयगंसिX निक्खिवति, जे णं भगवं तित्थगरे अणिमिसाए दिहीए पेहमाणे सुहं सुहेणं अभिरममाणे चिट्ठति, ततो वेसमणो सकव-18 यणेणं बत्तीसं हिरण्णकोडीओ बत्तीसं सुवण्णकोडीओ बत्तीसं नंदाई बत्तीसं भदाई सुभगसोभग्गरूवजोवणगुणलावणं भगवतो तित्थकरस्स जम्मणभवणमि साहरति, ततो सको अभिओगिएहिं देवेहि महया महया सद्देणं उग्धोसावेइ RCRAC सूत्रांक अनुक्रम अत्र द्वात्रिंशवपि इन्द्रा भगवतः पादसमीपमागच्छन्ति, प्रथममच्युतेन्द्रोऽभिषेकं करोति, ततोऽनु परिपाच्या यावत् शकतातश्चमरावयः यावश्चन्द्रस्या इति, ततः शको भगवतो जन्माभिषेकमहिमनि निवृत्ते तया सर्व चतुर्विधदेवनिकायसहितम्तीर्थकरं गृहीत्वा प्रत्यागतः, तीर्थकरमतिरूपं प्रतिसं रति, भगवन्तं तीर्थकर जनन्याः पा स्थापयति, अवस्वापिनी प्रतिसंहरति, दिव्यं औमयुगलं कुण्डलयुग च भगवतस्तीकरसोण्डीर्षकमूले स्थापयति, | एक श्रीदामगण्वं तपनीयोजबलकम्यूसके सुवर्णप्रतरकमण्डितं नानामगिरनहारार्धहारोपशोभितसमुश्यं भगवतस्तीर्धकरसोपरि बलोचे मिक्षिपति, यद् भगवा-1 तीर्थकरोनिमेषया दृश्या प्रेक्षमाणः सुखंसुखेनाभिरममाणस्तिष्ठति, ततो वैवमणः शक्रवचनेन द्वात्रिंशतं हिरण्यकोडी द्वाविंधातं सुवर्णकोटीः द्वात्रिंशत् मन्दा| सनानि द्वात्रिंशत् भवासनानि सुभगसौभाग्यरूपयौवनगुणलावण्यं भगवतम्तीर्थकरस्य जन्मभवने संहरति, ततः शक आभियोगिकदेवमहता महता शब्देनोघोषयति. * अभिनिश्षिक. +पेहमाणे पेहमाणे, अभिओगेहि. ॥१२४॥ KERA Joindiaray.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [१८८ ], भाष्यं [३...], हंदि ! सुणंतु बहवे भवणवइवाणमंतरजोइ सि अवेमाणिआ देवा य देवीओ य जेणं देवाणुपिआ ! भगवओ तित्थगरस्स तित्थगरमाऊए वा असुर्भ मणं संपधारे ति, तस्स णं अज्जयमंजरीविव सत्तहा मुद्धाणं फुट्टउत्तिकट्ट घोसणं घोसावेइ, ततो णं भवणवश्वाणमंतरजोइसियवेमाणिआ देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं काऊण गता नंदीसरवरदीयं तत्थ अट्ठाहिआमहिमाओ काऊण सए सए आलए पडिगतति । जंमणेति गयं, इदानीं नामद्वारं, तत्र भगवतो नामनिबन्धनं चतुर्विंशतिस्तवे वक्ष्यमाणं 'ऊरुसु उसभलछण उसभं सुमिणंमि तेण उसभजिणो' इत्यादि, इह तु वंशनामनिबन्धनमभिधातुकाम आह देणगं च वरिसं सागमणं च वंसठवणा य । आहारमंगुलीए ठवंति देवा मणुपणं तु ॥ १८९ ॥ व्याख्या - देशोनं च वर्ष भगवतो जातस्य तावत् पुनः शक्रागमनं च संजातं, तेन वंशस्थापना च कृता भगवत इति, सोऽयं ऋषभनाथः अस्य गृहा वासे असंस्कृत आसीदाहार इति । किं च सर्वतीर्थकरा एव बालभावे वर्त्तमाना न स्तन्यो:पयोगं कुर्वन्ति, किन्त्वाहाराभिलापे सति स्वामेवाङ्गुलिं वदने प्रक्षिपन्ति, तस्यां च आहारमङ्गुल्यां नानारससमा १ इन्दियन्तु बहवो भवनपतिष्यम्तर ज्योतिष्कवैमानिका देवाख देष्यथ यो देवानुप्रिया ! भगवति वीर्थकरे तीर्थकर मातरि वा अशुभं मनः संप्रधारयति, तस्यार्थमअरीव सप्तधा मूत्र स्फुटत्वितिकृत्या घोषणां घोषयति, ततो भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्क वैमानिका देवा भगवतस्तीथेकरस्य जन्ममहिमानं कृत्वा गता नन्दीश्वरवरद्वीपं तत्राष्टाहिकामहिमानं कृत्वा स्वके स्वके आलये प्रतिगता इति । जन्मेति गतम्. *०धाति. + ऋषभख गृहवासे वनो०. For Use Only www.jancibrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१८९], भाष्यं [३...], प्रत सूत्रांक 2 शा दायुक्तं स्थापयन्ति देवा 'मनोज्ञ' मनोऽनुकूलम् । एवमतिक्रान्तबालभावास्तु अग्निपक्कं गृह्णन्ति, ऋषभनाथस्तु प्रव्रज्यामप्र- आवश्यक हारिभद्री|तिपन्नो देवोपनीतमेवाहारमुपभुक्तवान् इत्यभिहितमानुषङ्गिकमिति गाधार्थः ॥ १८९ ॥ प्रकृतमुच्यते-आह-इन्द्रेण यवृत्ति ॥१२५॥ वंशस्थापना कृता इत्यभिहितं, सा किं यथाकथश्चित् कृता आहोस्वित् प्रवृत्तिनिमित्तपूर्विकेति, उच्यते, प्रवृत्तिनिमित्त-विभागः१ पूर्विका, न यादृच्छिकी, कथम् - सक्को वंसट्टवणे इक्खु अगू तेण हुंति इक्खागा । जं च जहा जंमि वए जोगं कासी य तं सव्वं ॥ १९०॥ कथानकशेषम्-जीतमेतं अतीतपचुप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविंदाणं पढमतित्थगराणं पंसद्ववर्ण करेत्तएत्ति, ततो |तिदसजणसंपरिवुडो आगओ, कहं रित्तहत्थो पविसामित्ति महतं इक्खुलहिं गहाय आगतो। इओ य नाभिकुलकरो उस-18|| भसामिणा अंकगतेण अच्छइ, सकेण उवागतेण भगवया इक्खुलट्ठीए दिही पाडियत्ति, ताहे सकेण भणियं-भय ! कि इक्खू अगू भक्षयसि ?, ताहे सामिणा हत्थो पसारिओ हरिसिओ य, ततो सक्केण चिंतियं-जम्हा तित्थगरो इक्खू अहिलसइ, तम्हा इक्खागवंसो भवउ, पुषगा य भगवओ इक्खुरसं पिपियाइया तेण गोतं कासवंति । एवं सको वंसं ठाविऊण जीतमेतत् अतीतानागतवर्तमानानां पाकाणां देवेन्द्राणां प्रथमतीर्थकराणां वंशस्थापना कमिति, तखिदपाजनसंपरित भागता, कथं रिक्तइतः प्रविशामोति महती इचयष्टिं गृहीत्वाऽऽगतः । इतच नाभिकुलकरो कपभस्वामिनाङ्कगतेन तिष्ठति, शक उपागते भगवतेक्षुयष्टी रष्टिः पातितेति, सदा शक्रेण ॥१२५॥ भणितम्-भगवन् ! किमिखं भक्षयसि, सदा स्वामिना इलः प्रसारितोच, ततः शक्रेण चिन्तितम्-यमात् तीर्थकर चमभिलपति, तस्मादिक्ष्वाकुवंशो | |भवतु, पूर्वजाल भगवत इक्षुरस पीतवस्यालेन गोत्रं काश्पपमिति । एवं शको वंध स्थापषिवा पकमेव. + भरवयलि. 0-10-2-942 CASSACRICORDS अनुक्रम JABERatinintamational wwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९०], भाष्यं [३...], + SEARCRA -- और गो, पुणोवि-जच जहा जंमि वए जोग्ग कासी य तं सति । गाथा गतार्था, तथाऽप्यक्षरगमनिका क्रियते-तत्र शको' देवराडिति 'वंशस्थापने' प्रस्तुते इटुं गृहीत्वा आगतः, भगवता करे प्रसारिते सत्याह-भगवन् ! किं इक्युं अकुहा भक्षयसि ?, अकुशब्द: भक्षणार्थे वत्तेते, भगवता गृहीतं, तेन भवन्ति इक्ष्वाका:-इक्षुभोजिनः, इक्ष्वाका ऋषभनाथवंशजा इति । एवं यच्च वस्तु'यथा' येन प्रकारेण 'यस्मिन् वयसि योग्यं शकः कृतवांश्च तत्सर्वमिति, पश्चार्धपाठान्तरं वा 'तालफलाहयभगिणी होही पत्तीति सारवणा' 'तालफलाहातभगिनी भविष्यति पत्नीति सारवणा' किल भगवतो नन्दायाश्च तुल्यवयःख्यापनार्थमेवं पाठ इति, तदेव तालफलाहत भगिनी भगवतो बालभाव एव मिथुनकै भिसकाशमानीता, तेन च भविष्यति पल्लीति सारवणा-संगोपना कृतेति, तथा चानन्तरं वक्ष्यति "णदाय सुमंगला सहिओ"। अन्ये तु प्रतिपादयन्ति-सर्वैबेयं जन्मद्वारवक्तव्यता, द्वारगाथाऽपि किलैवं पठ्यते-'जम्मणे य विवड्डी य'त्ति, अलं प्रसङ्गेन। इदानीं वृद्धिद्वारमधिकृत्याहअह बड्डइ सो भयवं दियलोयचुओ अणोवमसिरीओ। देवगणसंपरिवुडो नंदाइ सुमंगला सहिओ ॥ १९१॥5 असिअसिरओ सुनयणो विबुट्ठो धवलदंतपंतीओ। वरपउमगम्भगोरो फुलुप्पलगंधनीसासो ॥ १९२॥ | प्रथमगाथा निगदसिद्धैव, द्वितीयगाथागमनिका-न सिता असिता:-कृष्णा इत्यर्थः, शिरसि जाताः शिरोजा:-केशाः असिताः शिरोजा यस्य स तथाविधा, शोभने नयने यस्यासौ सुनयनः, बिस्वं(म्ब)-गोल्हाफलं बिल्व(म्ब)वदोष्ठौ यस्यासी १ गतः, पुनरपि-यच थथा यमिान्वयसि योग्य अकार्षीच तत्सर्वमिति । * भगवं. + भक्षणार्थः.६० फलाहसं. सदैव. फलाहत. C KS मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९२], भाष्यं [३...], (४०) आवश्यक ॥१२६॥ विल्बो(म्बो)यः, धवले दन्तपङ्की यस्य स धवलदन्तपतिकः, वरपद्मगर्भवद् गौरः पुष्पोत्पलगन्धवनिःश्यासो यस्येति गाथार्थः ॥ १९१-१९२ ॥ इदानीं जातिस्मरणद्वारावयवार्थ विर्वरिषुराह यवृत्तिः जाइस्सरो अ भयवं अप्परिवडिएहि तिहि उ नाणेहि। विभागः१ कंती हि य बुद्धीहि य अभहिओ तेहि मणुएहिं ॥ १९३ ॥ गमनिका-जातिस्मरणश्च भगवान् अप्रतिपतितैरेव त्रिभिमा॑नः मतिश्रुतावधिभिः, अवधिज्ञानं हि देवलौकिकमेव | अप्रच्युतं भगवतो भवति, तथा कान्त्या च बुझ्या च अभ्यधिकस्तेभ्यो मिथुनकमनुष्येभ्य इति गाधार्थः ॥ १९३ ॥ इदानी विवाहद्वारव्याचिख्यासयेदमाह पढमो अकालमचू तहिं तालफलेण दारओ पहओ।कपणा य कुलगरेणं सिढे गहिआ उसहपत्ती ॥१९४॥ दा व्याख्या-भगवतो देशोनवर्षकाल एव किश्चन मिथुनकं संजातापत्यं सद् अपत्यमिथुन तालवृक्षाधो विमुच्य रिरसया। क्रीडागृहकमगमत्, तस्माच्च तालवृक्षात् पवनप्रेरितमेकं तालफलमपतत् , तेन दारको व्यापादितः, तदपि मिथुनकं तां दारिका संवर्धियित्वा प्रतनुकषायं मृत्वा सुरलोका उत्पन्नं, सा चोद्यानदेवतेवोत्कृष्टरूपा एकाकिन्येव वने विचचार, दृष्ट्वा च तां त्रिदशवधूसमानरूपां मिथुनकनरा विस्मयोत्फुल्लनयना नाभिकुलकराय न्यवेदयन , शिष्टे च तैः कन्या कुलकरण गृहीता | ॥१२॥ ऋषभपली भविष्यतीतिकृत्वा, अयं गाथार्थः ।। भगवांश्च तेन कन्याद्वयेन सार्धे विहरन् यौवनमनुप्राप्तः, अत्रान्तरे * विवू. + कंतीइ. बुद्धीइ. संवध्य. लोकमुत्पन्न. JABERDunita mtanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९४], भाष्यं [३..., (४०) देवराजस्य चिन्ता जाता-कृत्यमेतदतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां शक्राणां प्रथमतीर्थकराणां विवाहकर्म क्रियत इति संचिन्त्य अनेकत्रिदशसुरवधूवृन्दसमन्वितोऽवतीर्णवान, अवतीर्य च भगवतः स्वयमेव वरकर्म चकार, पत्न्योरपि देव्यो वधूकर्मेति ॥ १९४ ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाहभोगसमत्थं नाउँ वरकम्मं तस्स कासि देविंदो । दुहं वरमहिलाणं बहुकम्मं कासि देवीओ ॥१९५ ॥ गमनिका-भोगसमर्थं ज्ञात्वा वरकर्म तस्य कृतवान् देवेन्द्रः, द्वयोः वरमहिलयोर्वधूकर्म कृतवत्यो देव्य इति । गाथार्थः, भावार्थस्तूक एव ॥ १९५ ॥ इदानीमपत्यद्वारमभिधित्सुराहछप्पुब्बसयसहस्सा पुचि जायस्स जिणवरिंदस्स । तो भरहबंभिसुंदरिचाहुबली चेव जायाई ॥१९६ ॥ निगदसिद्धवेयं, नवरमनुत्तरविमानादवतीर्य सुमङ्गलाया बाहुः पीठश्च भरतब्राह्मीमिथुनकं जातं, तथा सुबाहुमहापीठश्च |सुनन्दाया बाहुबली सुन्दरी च मिथुनकमिति ॥ १९६ ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह मूलभाष्यकार:देवी सुमंगलाए भरहो बंभी य मिहुणयं जायं । देवीइ सुनंदाए वाहुबली सुंदरी चेव ॥४॥ (मू०भा०) सुगमत्वान्न विनियते । आह-किमेतावन्त्येव भगवतोऽपत्यानि उत नेति, उच्यते, अउणापण्णं जुअले पुत्ताण सुमंगला पुणो पसवे । नीईणमइकमणे निवेअणं उसभसामिस्स ॥१९७॥ गमनिका-एकोनपश्चाशत् युग्मानि पुत्राणां सुमङ्गला पुनः प्रसूतवती, अत्रान्तरे प्राक् निरूपितानां हकारादिप्रभू JABERatinintamational RSaneiorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९७], भाष्यं [४], हारिभद्रायवृत्तिः विभागः१ भावश्यक- तीनां दण्डनीतीनां ते लोकाः प्रचुरतरकषायसंभवाद् अतिक्रमणं कृतवन्तः, ततश्च नीतीनामतिक्रमणे सति ते लोका 8 अभ्यधिकज्ञानादिगुणसमन्वितं भगवन्तं विज्ञाय 'निवेदनं' कथनं ऋषभस्वामिने आदितीर्थकराय कृतवन्त इति क्रिया, द अयं गाथार्थः ॥ १९७ ॥ एवं निवेदिते सति भगवानाह--- राया करेइ दंडं सिढे ते विंति अम्हवि स होउ । मग्गह य कुलगरंसोअ बेइ उसभो य भे राया ॥ १९८॥ | गमनिका-मिथुनकैर्निवेदिते सति भगवानाह-नीत्यतिक्रमणकारिणां 'राजा' सर्वनरेश्वरः करोति दण्डं, स च अमात्यारक्षकादिवलयुक्तः कृताभिषेकः अनतिक्रमणीयाज्ञश्च भवति, एवं 'शिष्टे' कथिते सति भगवता 'ते' मिथुनका 'ब्रुवते' भणन्ति-अस्माकमपि 'स' राजा भवतु, वर्तमानकालनिर्देशः खल्वन्यास्वपि अवसर्पिणीषु प्रायः समानन्यायप्रदर्शनार्थः त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थों वा, अथवा प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच्च बेंति इति-उक्तवन्तः, भगवानाह-ययेवं 'मग्गह य [कुलगरं' ति याचवं कुलकरं राजानं, स च कुलकरस्तर्याचितः सन् 'वेईत्ति पूर्ववदुक्तवान्-ऋषभो 'भे' भवतां राजेति गाथार्थः ॥१९८ ॥ ततश्च ते मिथुनका राज्याभिषेकनिवर्तनार्थमुदकानयनाय पद्मिनीसरो गतवन्ता, अत्रान्तरे | देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव, विभाषा पूर्ववत् यावदिहागत्याभिषेक कृतवानिति । अमुमेवार्थमुपसंहरन् अनुक्तं च | प्रतिपादयन्निदमाहKI आभोएउं सक्को उवागओ तस्स कुणइ अभिसे मउडाइअलंकारं नरिंदजोग्गं च से कुणह ॥१९९ ॥ M ॥१२७॥ wwwjandiarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [१९९], भाष्यं [४...], गमनिका-आभोगयित्वा' उपयोगपूर्वकेन अवधिना विज्ञाय 'शको' देवराज उपागतः, 'तस्य' भगवतः करोति 'अभिषेक' राज्याभिषेकमिति, तथा मुकुटाद्यलङ्कारं च, आदिशब्दात् कटककुण्डलकेयूरादिपरिग्रहः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, नरेन्द्रयोग्यं च 'से' तस्य करोति, अत्रापि वर्तमानकालनिर्देशप्रयोजनं पूर्ववदवसेयं, पाठान्तरं वा 'आभोएउं जसको आगंतुं तस्स कासि अभिसेयं । मउडाइअलंकारं नरेंदजोगं च से कासी ॥१॥" भावार्थः पूर्ववदेवेति गाथार्थः ॥ १९९ ॥ अत्रान्तरे ते मिथुनकनरास्तस्मात् पद्मसरसः खलु नलिनीपत्रैरुदकमादाय भगवत्समीपमागत्य तं चालत-18 विभूषितं दृष्ट्वा विस्मयोत्फुल्लनयनाः किंकर्तव्यताब्याकुलीकृतचेतसः कियन्तमपि कालं स्थित्वा भगवत्पादयोः तदुदकं । निक्षिप्तवन्त इति, तानेवंविधक्रियोपेतान् दृष्ट्वा देवराट् अचिन्तयत्-अहो खलु विनीता एते पुरुषा इति वैश्रवणं यक्षराजमाज्ञापितवान्-इह द्वादशयोजनदीर्घा नवयोजनविष्कम्भां विनीतनगरी निष्पादयेति, स चाज्ञासमनन्तरमेव दिव्यभवनप्राकारमालोपशोभितां नगरी चक्रे । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह-अत्रान्तरे । भिसिणीपत्तेहिअरे उदयं घिनुं छुहंति पाएस।साहु विणीआ पुरिसा विणीअनयरी अह निविट्ठा ॥२०॥ | गमनिका-विसिनीपौरितरे उदकं गृहीत्वा 'भंतित्ति प्रक्षिपन्ति, वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् , पादयोः, देवराजो[भिहितवान-साधु विनीताः पुरुषा विनीतनगरी अथ निविष्टेति गाथार्थः ॥ २०॥ गतमभिषेकद्वारम् , इदानी संग्रहद्वाराभिधित्सयाऽऽह * विनीता.. + भिसिनी देवराडमि०. JABERatinintamational मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०१], भाष्यं [४...], (४०) आवश्यक C ॥१२८॥ हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ % 2 आसा हत्थी गावो गहिआई रजसंगहनिमित्तं । धितूण एवमाई चउब्विहं संगहं कुणइ ॥२०१॥ गमनिका-अन्वा हस्तिनो गाव एतानि चतुष्पदानि तदा गृहीतानि भगवता राज्ये संग्रहः राज्यसंग्रहस्तन्निमित्तं | गृहीत्वा एवमादि चतुष्पदजातमसौ भगवान् 'चतुर्विध वक्ष्यमाणलक्षणं संग्रहं करोति, वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववत् , पाठान्तरं वा 'चउबिहं संगहं कासी' इति अयं गाथार्थः ॥ २०१॥ स चायम् उग्गा १ भोगा २ रायण ३ खत्तिा ४ संगहो भवे चाहा। आरक्खि १ गुरु २ वयंसा ३ सेसा जे खत्तिआ ४ ते ७ ॥ २०२॥ गमनिका-उग्रा भोगा राजन्याः क्षत्रिया एषां समुदायरूपः संग्रहो भवेच्चतुर्धा, एतेषामेव यथासंख्य स्वरूपमाहआरक्खीत्यादि, आरक्षका उग्रदण्डकारित्वात् उग्राः, गुर्विति गुरुस्थानीया भोगा, वयस्या इति राजन्याः समानवयस इतिकृत्वा वयस्याः, शेषा उक्तव्यतिरिक्ता ये क्षत्रियाः 'ते तु तुशब्दः पुनःशब्दार्थः ते पुनः क्षत्रिया इति गाथार्थः ॥ २०२ ॥ इदानी लोकस्थितिवैचित्र्यनिवन्धनप्रतिपादनमाह आहारे १ सिप्प २ कम्मे ३ अ, मामणा ४ अ विभूसणा ५। लेहे गणिए ७ अरूबे ८ अ, लक्खणे ९माण १० पोअए ११॥ २०३।। 0 5 + ॥१२८॥ RROct2559 भोजाः. +पादनायाइ. natorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति आहार, शिल्प, कर्म आदि द्वाराणां वर्णनं ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०४], भाष्यं [४...], ववहारे १२ नीइ १३ जुद्धे १४ अ, ईसत्थे १५ अ उवासणा १६ । तिगिच्छा १७ अस्थसत्थे १८ अ, बंधे १९ घाए २० अ मारणा २१ । २०४॥ जण्णू २२ सब २३ समवाए २४, मंगले २५ कोउगे २६ इअ । वत्थे २७ गंधे २८ अ मल्ले २९ अ, अलंकारे ३० तहेव य ॥ २०५॥ चोलो ३१ वण ३२ विवाहे ३३ अ, दत्तिआ ३४ मडयपूअणा ३५। झावणा ३६ धूम ३७ सद्दे ३८ अ, छेलावणय ३९ पुच्छणा ४०॥ २०६॥ एताश्चतम्रोऽपि द्वारगाथाः, एताश्च भाष्यकारः प्रतिद्वारं व्याख्यास्यत्येव, तथाप्यक्षरगमनिकामात्रमुच्यते, तत्रापि प्रथमगाथामधिकृत्याह-तत्र 'आहार' इति आहारविषयो विधिवक्तव्यः, कथं कल्पतरुफलाहारासंभवः संवृत्तः कथं वा| पक्काहारः संवृत्त इति, तथा 'शिल्प' इति शिल्पविषयो विधिर्वक्तव्यः, कुतः कदा कधं कियन्ति वा शिल्पानि उपजातानि!, 'कर्मणि' इति कर्मविषयो विधिर्वाच्यः, यथा कृषिवाणिज्यादि कर्म संजातमिति, तश्चाग्नौ उत्पन्ने संजातमिति, 'च' समुचये 'मामणत्ति' ममीकारार्थे देशीवचनं, ततश्च परिग्रहममीकारो वक्तव्यः, स च तत्काल एव प्रवृत्तः, 'च' पूर्ववत्, विभूषणं विभूषणा मण्डनमित्यर्थः, सा च वक्तच्या, सा च भगवतः प्रथमं देवेन्द्रैः कृता, पश्चालोकेऽपि प्रवृत्ता, 'लेख इति लेखनं लेख:-लिपीविधानमित्यर्थः, तद्विषयो विधिर्वतव्यः, तच्च जिनेन ब्राझ्या दक्षिणकरेण प्रदर्शितमिति, गणित * लवणयण. SCRE T ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६], भाष्यं [४...], हारिभद्री सायवृत्तिः विभागः१ प्रत सूत्रांक आवश्यक-विषयो विधिर्वाच्यः, एवमन्यत्रापि क्रिया योज्या, गणितं-संख्यानं, तच्च भगवता सुन्दा वामकरणोपदिष्टमिति, ' च समुच्चये, रूप-काष्टकर्मादि, तच्च भगवता भरतस्य कधितमिति, 'च' पूर्ववत्, 'लक्षणं' पुरुषलक्षणादि, तच्च भगवतव ॥१२९॥ बाहुबलिनः कथितमिति, 'मानमिति' मानोन्मानावमानगणिमप्रतिमानलक्षणं, 'पोत' इति बोहित्यः प्रोतं वा अनयोमानपोतयोविधिर्वाच्यः, तत्र मानं द्विधा-धान्यमानं रसमानं च, तत्र धान्यमानमुक्तम्-'दो असतीओ पसती' इत्यादि, रसमानं तु 'चउसठ्ठीया बत्तीसिआ' एवमादि १, उन्मानं-येनोन्मीयते यद्वोन्मीयते तद्यथा-कर्ष इत्यादि २. अवमानं येनावमीयते यद्वाऽवमीयते तद्यथा-हस्तेन दण्डेन वा हस्तो वेत्यादि ३, गणिमं-यद्गण्यते एकादिसंख्ययेति ४, प्रतिमान-गुञ्जादि ५, एतत्सर्वं तदा प्रवृत्तमिति, पोता अपि तदैव प्रवृत्ताः, अथवा प्रकर्षेण उतनं प्रोतः-मुक्ताफलादीनां प्रोतनं तदैव प्रवृत्तमिति प्रथमद्वारगाधासमासार्थः । द्वितीयगाथागमनिका-'ववहारे' त्ति व्यवहारविषयो विधिर्वाच्यः, राजकुलकरणभाषाप्रदानादिलक्षणो व्यवहारः, स च तदा प्रवृत्तो, लोकानां प्रायः ४ स्वस्वभावापगमात्, 'णीतित्ति' नीती विधिर्वक्तव्यः, नीतिः-हकारादिलक्षणा सामाधुपायलक्षणा वा तदैव जातेति, हजुद्धे यत्ति' युद्धविषयो विधिर्वाच्यः, तत्र युद्धं-बाहुयुद्धादिकं लावकादीनां वा तदैवेति, 'ईसत्थे यत्ति' प्राकृतशैल्या |सुकारलोपात् इषुशास्त्रं-धनुर्वेदः तद्विषयश्च विधिर्वाच्य इति, तदपि तदैव जातं राजधर्मे सति, अथवा एकारान्ताः 8 सर्वत्र प्रथमान्ता एव द्रष्टव्याः, व्यवहार इति-व्यवहारस्तदा जातः, एवं सर्वत्र योज्यं, यथा-'कयरे आगच्छति दित्त * प्रतिपादनाक + स्वभावोपग०. अनुक्रम | ॥१२९॥ JABERatinintamational Ajanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६], भाष्यं [४...], ॐ45 * 4 - 2 2 18| रुवे इत्यादि' 'उवासणेति' उपासना-नापितकर्म तदपि तदैव जातं, प्राग्व्यवस्थितनखलोमान एवं प्राणिन आसन् इति, & गुरुनरेन्द्रादीनां वोपासनेति, 'चिकित्सा' रोगहरणलक्षणा सा तदैव जाता एवं सर्वत्र क्रियाध्याहारः कार्यः, 'अत्थसत्थे य' त्ति अर्थशाखं, 'बंधे घाते य मारणे ति' बन्धो-निगडादिजन्यः घातो-दण्डादिताडना जीविताब्यपरोपणं मारणेति, सर्वाणि तदैव जातानीति द्वितीयद्वारगाथासमासार्थः । तृतीयगाथागमनिका-एकारान्ताः प्रथमद्वितीयान्ताः प्राकृते भवन्त्येव, तत्र यज्ञाः-नागादिपूजारूपा उत्सवाः-शक्रोत्सवादयः समवाया:-गोष्ठयादिमेलकाः, एते तदा प्रवृत्ताः, मङ्गलानि-स्वस्तिकसिद्धार्थकादीनि कौतुकानि-रक्षादीनि मङ्गलानि च कौतुकानि चेति समासः, मंगलेत्ति एकारः अलाक्षणिको मुखसुखोच्चारणार्थः, एतानि भगवतः प्राग देवैः कृतानि, पुनस्तदैव लोके प्रवृत्तानि, तथा 'वर्ख' चीनांशुकादि 'गन्धः' कोष्टपुटादिलक्षणः 'माल्यं पुष्पदाम 'अलङ्कारः केशभूषणादिलक्षणः, एतान्यपि वस्त्रादीनि तदैव जातानीति तृतीयद्वारगाथासमासार्थः । चतुर्थगाथागमनिका-तत्र 'चूलेति' बालानां चूडाकर्म,तेषामेव कलाग्रहणार्थ नयनमुपनयनं धर्मश्रवणनिमित्तं वा साधुसकाशं नयनमुपनयनं, वीवाह' प्रतीत एव, एते चूडादयः तदैव प्रवृत्ताः (३५००), दत्ता च कन्या पित्रादिना परिणीयत इत्येतत्तदैव संजातं, भिक्षादानं वा, मृतकस्य पूजना मरुदेव्यास्तदैव प्रथमसिद्ध इतिकृत्वा देवैः कृतेति लोके च रूढा, 'ध्यापना' अग्निसंस्कारः, स च भगवतो निर्वाणप्राप्तस्य प्रथमं त्रिदशैः कृतः, पश्चाल्लोकेऽपि संजातः, भगवदादिदग्धस्थानेषु स्तूपाः तदैव कृता लोके च प्रवृत्तार, शब्दश्च-रुदितशब्दो भगवत्येवापवर्ग गते भरतदुःखमसाधारणं ज्ञात्वा शक्रेण कृतः, लोकेऽपि रूढ एव, 'छेलापनकमिति' देशीवचनमुत्कृष्टबालक्रीडापनं सेण्टिताद्यर्थवाचकमिति, तथा - 22 wwtainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: २०६...], भाष्यं [४...], आवश्यक पृच्छनं पृच्छा,साइकिणिकादिलक्षणा इसिणिकाः कर्णमूले घण्टिकां चालयन्ति, पुनर्यक्षाः खल्वागत्य कर्णे कथयन्ति किमपि हारिभदी टुर्विवक्षितमिति, अथवा निमित्तादिप्रच्छना सुखशयितादिप्रच्छना वेति चतुर्थद्वारगाथासमासार्थः ॥२०३-२०४- यवृत्ति ॥१३०॥ २०५-२०६ ॥ इदानी प्रधमद्वारगाथाऽऽद्यद्वारावयवार्थाभिधित्सया मूलभाष्यकृदाह विभागः१ आसी अ कंदहारा मूलाहारा य पत्तहारा या पुष्फफलभोइणोऽवि अ जइआ किर कुलगरो उसभो॥५॥(मू०भा०) II गमनिका--आसंश्च कन्दाहारा मूलाहाराश्च पत्राहाराश्च पुष्पफलभोजिनोऽपि च, कदा !, यदा किल कुलकर ऋषभः। भावार्थः स्पष्ट एव । नवरं ते मिथुनका एवंभूता आसन् , किलशब्दस्तु परोक्षाप्ताऽऽगमवादसंसूचक इति गाथार्थः । तथा आसी अ इक्खुभोई इक्खागा तेण खत्तिआ हंति । सणसत्तरसं धपणं आम ओमं च भुंजीआ॥६॥(मू०भा०) गमनिका-आसंश्च इक्षुभोजिन इक्ष्वाकवस्तेन क्षत्रिया भवन्ति, तथा च शणः सप्तदशो यस्य तत् शणसखदर्श 'धान्य। शाल्यादि 'आम' अपर्क 'ओम' न्यून च 'मुंजीआइति भुक्तवन्त इति गाथार्थः ॥६॥ तथापि तु कालदोषात्तदपि दान जीर्णवन्तः, ततश्च भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवाँश्चाह-हस्ताभ्यां घृष्टाऽऽहारयध्वमिति । अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाहाद। ॥१३०॥ मूलभाष्यकृत्ओमपाहारंता अजीरमाणमि ते जिणमुर्विति।हत्थेहिं घसिऊणं आहारेहत्ति ते भणिआ॥७॥ (मू० भा.) AASARABAR मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: २०६...], भाष्यं [७], गमनिका-ओममप्याहारयन्तः अजीर्यमाणे 'ते' मिथुनका 'जिन' प्रथमतीर्थकर उपयान्ति, सर्वावसर्पिणीस्थितिप्रदर्श-INT नार्थो वर्तमाननिर्देशो, भगवता च हस्ताभ्यां धृष्ट्वा आहारयध्वमिति ते भणिताः सन्तः । किम् ? आसी अ पाणिधंसी तिम्मिअतंदुलपवालपुडभोई। हत्थतलपुडाहारा जइआ किर कुलकरो उसहो ।॥८॥(मू०भा०) व्याख्या-आसँश्च ते मिथुनका भगवदुपदेशात् पाणिभ्यां धष्टुं शीलं येषां ते पाणिघर्षिणः, एतदुक्तं भवति-ता एवौदिषधीः हस्ताभ्यां घृष्ट्वा त्वचं चापनीय भुक्तवन्तः, एवमपि कालदोषात् कियत्यपि गते काले ता अपि न जीर्णवन्तः, पुनर्भ गवदुपदेशत एव तीमिततन्दुलप्रवालपुटभोजिनो बभूवुः, तीमिततन्दुलान् प्रवालपुटे भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तन्दुलशब्देन औषध्य एवोच्यन्ते । पुनः कियताऽपि कालेन गच्छता अर्जरणदोषादेव भगवदुपदेशेन हस्ततलपुटाहारा आसन् , हस्ततलपुटेषु आहारो विहितो येषामिति समासः, हस्ततलपुटेषु कियन्तमपि कालमीषधीः स्थापयित्वोपभुक्तवन्त | इत्यर्थः । तथा कक्षासु स्वेदयित्वेति, यदा किल कुलकरो वृषभा, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः, तदा ते मिथुनका एवंभूता आसन्निति गाथार्थः ॥ पुनरभिहितप्रकारद्व्यादिसंयोगैराहारितवन्तः, तद्यथा-पाणिभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु च। मुहूर्त तीमित्वा तथा हस्ताभ्यां घृष्टा हस्तपुटेषु च मुहूर्त धृत्वा पुनहस्ताभ्यां पृष्ट्वा कक्षास्वेदं च कृत्वा पुनस्तीमित्वा हस्त-15) पुटेषु च मुहर्त धृत्वेत्यादिभङ्गकयोजना, केचित् प्रदर्शयन्ति घृष्ट्वापदं विहाय, तच्चायुक्तं, खगपनयनमन्तरेण तीमितस्यापि *अष्टुं + भजीरण, ऋषभः. JABERatinintamational storary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६...], भाष्यं [८], (४०) विभागः१ प्रत सूत्रांक आवश्यक हस्तपुटघृतस्य सौकुमार्यत्वानुपपत्तेः, श्लक्ष्णत्वग्भावत्वाद्वा अदोष इति, द्वितीययोजना पुनः-इस्ताभ्यां पृष्ट्वा पत्रपुटेषु हारिभद्रीतीमित्या हस्तपुटेषु मुहूर्त धृत्येति, तृतीययोजना पुनः-हस्ताभ्यां घृष्ट्वा पत्रपुटेषु च तीमित्वा हस्तपुटेषु च धृत्वा कक्षासु ॥१३॥ स्वेदयित्वेति ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरनाहघंसेऊणं तिम्मण घसणतिम्मणपवालपुडभोई । घसणतिम्मपवाले हत्थउडे कक्खसेए य॥९॥ (मू० भा०) | भावार्थ उक्त एव, नवरम् उक्तार्थाक्षरयोजना-घृष्ट्वा तीमनं कृतवन्त इत्यनेन प्रागभिहितप्रत्येकभङ्गकाक्षेपः कृतो |वेदितव्यः, 'घृष्टिप्रवालपुटतीमितभोजिन' इत्यनेन द्वितीययोजनाक्षेपः, 'धृष्टदेति' तिमनं 'प्रवाल' इति प्रवाले तिमित्वा हस्तपुटे कियन्तमपि कालं विधाय भुक्तवन्त इति शेषः, इत्यनेन तृतीययोजनाक्षेपः, तथा कक्षास्वेदे च कृते सति भुक्तवन्त भइत्यनेन अनन्तराभिहितत्रययुक्तेन चतुर्भङ्गकयोजनाक्षेप इति गाथार्थः ।। अत्रान्तरे अगणिस्स य उडाणं दुमघंसा दडू भीअपरिकहणं । पासेसुं परिछिंदह गिण्हह पागं च तो कुणह ॥१०॥(मू० भा०) आह-सर्वं तीमनादि ते मिथुनकास्तीर्थकरोपदेशात्कृतवन्तः, स च भगवान् जातिस्मरः, स किमित्यायुत्पादोपदेशं न दत्तवानिति, उच्यते, तदा कालस्यैकान्तस्निग्धत्वात् सत्यपि यत्ने वलयनुत्पत्तेरिति । स च भगवान् विजानाति-न। ॥१३॥ दाधेकान्तस्निग्धरूक्षयोः कालयोवहधुत्पादः किंतु अनतिस्निग्धरूक्षकाल इत्यतो नादिष्टवानिति, ते च चतुर्थेभङ्गविकल्पि-1 * सेईल. + तिमितं. घटा. पर सन् कि.. || चतुर्भ०. अनुक्रम JABERatinintamational Sanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०६...], भाष्यं [१०], (४०) तमप्याहारं कालदोषान्न जीर्णवन्त इत्यस्मिन्प्रस्तावे अग्नेश्चोत्थानं संवृत्तमिति, कुतः, द्रुमघर्षात् , तं चोस्थितं प्रवृद्धज्यालावलीसनाथ भूप्राप्ठं तृणादि दहन्तं दृष्ट्वा अपूर्वरलबुद्धया ग्रहणं प्रति प्रवृत्तवन्तः,दह्यमानास्तु भीतपरिकथनं ऋषभाय कृत-12 वन्त इति,भीतानां परिकथन भीतपरिकथनं, भीत्या वा परिकथनं भीतिपरिकथनं पाठान्तरमिति । भगवानाह-पार्थे त्यादि, सुगम, ते खजानाना बहावेवीषधीः प्रक्षिप्तवन्तः, ताश्च दाहमापुः, पुनस्ते भगवतो हस्तिस्कन्धगतस्य न्यवेदयन-स हि| स्वयमेवौषधीक्षयतीति, भगवानाह-न तत्रातिरोहितानां प्रक्षेपः क्रियते, किन्तु मृत्पिण्डमानयध्वमिति, तैरानीतः, |भगवान् हस्तिकुम्भे पिण्ड निधाय पत्रकाकार निदर्येदृशानि कृत्वा इहैव पक्वा एतेषु पार्क निवत्तेयध्वमित्युक्तवानिति,। ते तथैव कृतवन्तः, इत्थं तावत्प्रथमं कुम्भकारशिल्पमुत्पन्नम् ॥ अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाह पक्खेव डहणमोसहि कहणं निग्गमण हस्थिसीसंमि। पयणारंभपवित्ती ताहे कासी अ ते मणुआ॥११॥+ (मू०भा०) | भावार्थ उक्त एव, किन्तु क्रियाऽध्याहारकरणेन अक्षरगमनिका स्वबुद्धचा कार्या, यथा-प्रक्षेपं कृतवन्तो दहनमौषधीनां12 बभूवेत्यादि । उक्तमाहारद्वार, शिल्पद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहपंचेव य सिप्पाई घडलोहे २ चित्त ३ णंत ४ कासवए ।इकिकस्स य इत्तो वीसं वीसं भवे भेया ॥२०७॥ गमनिका-पञ्चैव 'शिल्पानि' मूलशिल्पानि, तद्यथा-घडलोहे चित्तर्णतकासवए,तत्र घट इति-कुम्भकारशिल्पोपलक्षणं, RI * कुम्भाकार. + मिठेण हस्थिपिदे महियपिंडं गहाय कुदगं च । निबत्तेसि ब लइआ जिणोचहरेण मग्गेण ॥ 1 ॥ निवत्तिए समाणे भण्णई राब तभी बहुजणस । एवहभा मे कुछह पयटिक पढमसिष्पं तु ॥ २॥ (प्रक्षिप्ते भव्यास्थाते च). RSRXxxxxx JABEnicati मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [ दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१३२॥ [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [२०७], भाष्यं [११], लोहमिति - लोहकार शिल्पस्य चित्रमिति-चित्रकरशिल्पस्य णंतमिति - देशीवचनं वस्त्रशिल्पस्य काश्यप इति नापितशि ल्पस्य, एकैकस्य च एभ्यो विंशतिविंशतिः भवन्ति भेदा इति गाथार्थः ॥ २०७ ॥ साम्प्रतं शेषद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाऽऽह भाष्यकारः ---- Indamational कम्मं किसिवाणिज्बाइ ३ मामणा जा परिग्गहे ममया ४ । पुवि देवेहि कया विभूसणा मंडणा गुरुणो ५ ।। १२ ।। लेहं लिबीविहाणं जिणेण गंभीर दाहिणकरेणं ६ । गणिभं संखाणं सुंदरीइ वामेण उवइ ७ ॥ १३ ॥ 'भरहस्स रूवकम्मं ८ नराइलक्खणमहोइअं बलिणो ९ । माणुस्मार्णवमार्णप्पमाणेगणिमावत्थूणं १० ॥ १४ ॥ मणिआई दोराइसु पोआ तह सागरंभि वहणाई ११ । बबहारो लेहवणं कज्जपरिच्छेदत्थं वा १२ ।। १५ ।। पीई हकाराई सत्तविहा अहव सामभेआई १३ । जुदाइ बाहुजुदाइआइ वाइआणं वा १४ ॥ १६ ॥ (भाष्यम् ) * लोहे (मुले). For Parts Only हारिभद्री वृत्तिः विभागः १ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~274~ ॥१३२॥ bayo Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२०७...], भाष्यं [१७], ईसत्थं धणुवेओ १५ उवासणा मंसुकम्ममाईआ १६ ॥ गुरुरायाईणं वा उचासणा पज्जुवासणया ॥१७॥ रोगहरणं तिगिच्छा १७ अस्थागमसत्थमस्थसत्थंति १८॥ निअलाइजमो बंधो १९ घाओ दंडाइताहणया २० ॥१८॥ मारणया जीववहो २१ जण्णा नागाइआण पूआओ २२॥ इंदाइमहा पायं पइनिअया ऊसवा हुंति २३ ॥ १९॥ समवाओ गोहीणं गामाईणं च संपसारो वा २४ । तह मंगलाई सत्थिअसुवणसिद्धस्थयाईणि २५ ॥२०॥ पुचि कपाइ पहुणो सुरेहि रक्खाइ कोउगाई प २६ । तह वस्थगन्धमल्लालंकारा केसभूसाई २७-२८-२९-३०॥२१॥ तं दङ्गण पवसोऽलंकारे जणोऽवि सेसोऽवि। विहिणा चूलाकम्म बालाणं चोलया नाम ३१ ॥२२॥ उवणयणं तु कलाणं गुरुमूले साहुणो तओ धम्म । चित्तुं हवंति सहा केई दिक्खं पवनंति ३२ ॥२६॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [ दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१३३॥ 96 %97 Education intentional [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्तिः [२०७...], भाष्यं [२४], द कर्य विवाह जिणस्स लोगोऽवि काउंमारद्धो ३३ । गुरुदत्तिआय कण्णा परिणिज्जंते तओ पायं ॥ २४ ॥ दत्तिव्व दाणमुसभं दितं दङ्कं जणंमिवि पवत्तं । जिभिक्खादापि हु, दहूं भिक्खा पवत्ताओ ३४ ॥ २५ ॥ मयं मयस्स देहो तं मरुदेवीह पढमसिद्धन्ति । देवेहि पुरा महिअं ३५ झावणया अग्गिसक्कारो ।। २६ ।। सो जिणदेहाईणं देवेहि कओ ३६ चिआसु थूभाई ३७ । सहो अ रुण्णसदो लोगोऽवि तभ तहा पगओ ३८ ॥ २७ ॥ छेलावणमुक्किट्ठाइ बालकीलावणं व सेंटाई ३९ । इंखिणिआइ रु वा पुच्छा पुण किं कहं कर्ज १ ।। २८ ।। अहव निमित्ताणं सुहसइआइ सुहदुक्खपुच्छा वा ४० । इचेवमाह पाएणुप्पन्नं उसभकालंमि ।। २९ ।। किंचिच (त्थ) भरहकाले कुलगरकालेऽवि किंचि उत्पन्नं । पहुणा य देसिआई सव्वकलासिप्पकम्माई ॥ ३० ॥ ( भाष्यम्) For Parts Only हारिभद्रीवृत्तिः विभागः १ ~276~ ॥१३३॥ danibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [−], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्तिः [२०७...], भाष्यं [३०], एताश्च स्पष्टत्वात् प्रायो द्वारगाथाव्याख्यान एव च व्याख्यातत्वात् न प्रतन्यन्ते ॥ उसभचरिआहिगारे सव्वेसिं जिणवराण सामण्णं । संबोहणाइ वुत्तुं वुच्छं पत्ते अमुसभस्स ॥ २०८ ॥ व्याख्या- ऋषभचरिताधिकारे 'सर्वेषाम्' अजितादीनां जिनवराणां 'सामान्यं' साधारणं संबोधनादि, आदिशब्दात् परित्यागादिपरिग्रहः, वक्तु, किम् ?, वक्ष्यति नियुक्तिकारः प्रत्येकं केवलस्य ऋषभस्य वक्तव्यतामिति गाथार्थः ॥ २०८ ॥ Education Intimational बोहण १ परिचाए २, पत्ते ३ उबहिंमि अ ४ । अन्नलिंगे कुलिंगे अ ५, गामापार ६ परीसहे ७ ॥ २०९ ॥ जीबोवलंभ ८ सुलभे ९, पञ्चकखाणे १० अ संजमे ११ । छमस्थ १२ तवोकम्मे १३, उप्पाया नाण १४ संग १५ ॥ २९० ॥ तित्थं १६ गणो १७ गणहरो १८, धम्मोवायरस देसगा १९ । परिआअ २० अंतकिरिआ, कस्स केण तवेण वा २१ १ ।। २११ ।। आसां व्याख्या - स्वयंबुद्धाः सर्व एव तीर्थकृतस्तथापि तु कल्प इतिकृत्या लोकान्तिका देवाः सर्वतीर्थकृतां संबोधनं कुर्वन्ति । परित्याग इति परित्यागविषयो विधिर्वक्तव्यः, किं भगवन्तश्चारित्रप्रतिपत्तौ परित्यजन्तीति । प्रत्येकमिति-कः कियत्परिवारो निष्क्रान्तः । उपधाविति - उपधिविषयो विधिर्वक्तव्यः कः केनोपधिरासेवितः को वा विनेयानामनुज्ञात For Fans Only Jadibray org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति तीर्थकराणाम् संबोधन, परित्याग आदि २१ द्वाराणां वर्णनं आरभ्यते ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१३४॥ [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [२११], भाष्यं [३०...], इति । 'अन्यलिङ्गं' साधुलिङ्गं 'कुलिङ्गं' तापसादिलिङ्गं तत्र न ते अन्यलिङ्गे निष्क्रान्ता नापि कुलिङ्गे, किंतु तीर्थकर - लिङ्ग एवेति, ग्राम्याचाराः विषयाः परीषहाः - क्षुत्पिपासादयः, तत्र ग्राम्याचारपरीषहयोर्विधिर्वाच्यः, कुमारप्रत्रजितैविषयान भुक्ताः शेषैर्भुक्ताः, परीषहाः पुनः सर्वैर्निर्जिता एवेति प्रथमद्वारगाथासमासार्थः । साम्प्रतं द्वितीयगाथागमनिकां-तत्र जीवोपलम्भः सर्वैरेव तीर्थकरैर्नव जीवादिपदार्था उपलब्धा इति । श्रुतलाभः - पूर्वभवे प्रथमस्य द्वादशा- ४ ङ्गानि खल्वासन् शेषाणामेकादशेति । प्रत्याख्यानं च पञ्च महाव्रतरूपं पुरिमपश्चिमयोः मध्यमानां तु चतुर्महान्नतरूपमिति, मैथुनस्य परिग्रहेऽन्तर्भावात् । संयमोऽपि पुरिमपश्चिमयोः सामायिकच्छेदोपस्थापनाभ्यां द्विभेदः, मध्यमानां सामायिकरूप एव, सप्तदशप्रकारो वा सर्वेषामिति । छादयतीति छद्म-कर्माभिधीयते, छद्मनि तिष्ठन्ति इति छद्मस्थाः कः कियन्तं काल छद्मस्थः खल्वासीदिति । तथा तपःकर्म किं कस्येति वक्तव्यं । तथा ज्ञानोत्पादो वक्तव्यो, यस्य यस्मिन्नहनि केवलमुत्पन्नमिति । तथा संग्रहो वक्तव्यः, शिष्यादिसंग्रह इति द्वितीयद्वारगाथासमासार्थः । साम्प्रतं तृतीयद्वारगाथागमनिका-तत्र तीर्थमिति कथं कस्य कदा तीर्थमुत्पन्नमित्यादि वक्तव्यं, तीर्थ- प्रागुक्तशब्दार्थं तच्च चातुर्वर्णः श्रमणसङ्घः, तच्च ऋषभादीनां प्रथमसमवसरण एवोत्पन्नं, वीरस्य तु द्वितीय इति द्वारं । गण इति एकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो न कुलसमुदाय इति, ते च ऋषभादीनां कस्य कियन्त इति वक्तव्यं । तथा गणधराः-सूत्रकर्त्तारः, ते च कस्य कियन्त इति वक्तव्यम् । तथा धर्मोपायस्य देशका वक्तव्याः, तत्र दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्य Educatinamational For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~278~ ॥१३४॥ www.jancibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२११], भाष्यं [३०...], प्रत सूत्रांक उपायो-द्वादशाङ्गं प्रवचनम् अथवा पूर्वाणि धर्मोपार्यस्तस्य देशकाः-देशयन्तीति देशकाः, तेच सर्वतीर्थकृतां गणधरा| टाएव, अथवा अन्येऽपि यस्य यावन्तश्चतुर्दशपूर्वविदः। तथा पर्याय इति-कः कस्य प्रत्रज्यादिपर्याय इत्येतद्वकव्यं । तथा अन्ते क्रिया अन्तक्रिया सा च निर्वाणलक्षणा, सा च कस्य केन तपसा संजाता वाशब्दात् कस्मिन् वा संजाता कियत्परि४ वृतस्य चेति वक्तव्यमिति तृतीयद्वारगाथासमासार्थः ॥ २०९-२१०-२११ ॥ इदानीं प्रथमद्वारगाधाऽऽद्यदलावयसे वार्थप्रतिपादनायाह सच्वेऽवि सयंबुद्धा लोगन्तिअबोहिआ य जीएणं १ । सव्वेसिं परिचाओ संवच्छरिअं महादाणं ।। २१२ ॥ | व्याख्या सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, गर्भस्थानामपि ज्ञानत्रयोपेतत्वात् , लोकान्तिका:-सारस्वतादयः है| तद्बोधिताच जीतमितिकृत्वा-कल्प इतिकृत्वा, तथा च स्थितिरियं तेषां यदुत-स्वयंबुद्धानपि भगवतो बोधयन्तीति । |सर्वेषां परित्यागः सांवत्सरिक महादान-वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ।। २१२॥ रज्जाइचाओऽवियर पत्ते को व कत्तिअसमग्गोको कस्सुवही? कोवाऽणुण्णाओ केण सीसाणं४॥२१॥ व्याख्या-राज्यादित्यागोऽपि च परित्याग एव, 'प्रत्येकम्' एकैका को वा कियत्समग्र इति वाच्यं, कः कस्योपपिरिति, को वाऽनुज्ञातः केन शिष्याणामिति गाथार्थः ॥२१३ ॥ इदं च गाथाद्वयमपि समासव्याख्यारूपमवगन्तव्यम् । साम्प्रतं | प्रपञ्चेन प्रथमद्वारगाथाऽऽद्यावयवार्थप्रतिपादनायाह *धर्मोपायय. अनुक्रम wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२१४], भाष्यं [३०...], आवश्यक यवृत्तिः ॥१३५॥ सारस्सय १ माइबा २ वण्ही ३ वरुणा ४ य गहतोया ५य। हारिभद्रीतुसिआ ६ अब्बावाहा ७ अग्गिच्चा ८ चेव रिहा ९य ॥२१४ ।। गमनिका-'सारस्सयमादिचत्ति' सारस्वतादित्याः, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिका, 'वण्ही वरुणा यत्ति' प्राकृतशैल्या वकार विभागः१ लोपात वयरुणाच, गर्दतोयाश्च तुषिता अव्यावाधाः 'अग्गिच्चा चेव रिठा यत्ति' अग्नयश्चैव रिष्ठाश्च, अग्नयश्च संज्ञान्तरतो मरुतोऽप्यभिधीयन्ते, रिष्ठाश्चेति 'तात्स्थ्यात्तापदेशः' ब्रह्मलोकस्थरिष्ठप्रस्तटाधाराष्टकृष्णराजिनिवासिन इत्यर्थः । अष्ट-18 कृष्णराजीस्थापना वेवम् । उक्तं च भगवत्याम्-“कहिणं भंते ! कण्हराईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! उप्पिं सर्णकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हेहि बंभलोए कप्पे रिडे विमाणपत्थडे, पत्थ णं अक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठियाओ अट्ट कण्हराईओ पण्णत्ताओ" एताश्च स्वभावत एवात्यन्तकृष्णा वर्तन्त इति, अलं प्रपश्यकथयेति गाथार्थः ॥ २१४ ॥ एए देवनिकाया भयवं घोहिंति जिणवरिंदं तु । सबजगजीवहि भय तित्थं पवत्तेहिं ॥२१५॥ गमनिका-एते देवनिकायाः स्वयंबुद्धमपि भगवन्तं बोध्यन्ति जिनवरेन्द्रं तु, कल्प इतिकृत्वा, कथम् , सर्वे च ते जगज्जीवाश्च सर्वजगजीवाः तेषां हितं हे भगवन् ! तीर्थं प्रवर्तयस्वेति गाथार्थः ।। २१५ ॥ उक्तं संबोधनद्वारम्, इदानीं | परित्यागद्वारमाहसंवच्छरेण होही अभिणिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं। तो अत्थसंपयाणं पवत्तए पुब्यसरंमि ॥ २१६ ॥ G ॥१३५॥ कुत्र हे भगवन् ! कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः, गौतम ! उपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः कल्पयोरयताइह्मलोके कल्पे रिहे प्रसटनिमाने, भत्र अक्षाटकसमचतुरस्त्रसंस्थानसंस्थिता भष्ट कृष्णराजयः प्रज्ञप्ताः, * संवन्धविवक्षा. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२१६], भाष्यं [३०...], (४०) 2 भावार्थः स्पष्ट एव, नवरं पूर्वसूर्य-पूर्वाहे इत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ २१६ ॥ कियत्प्रतिदिनं दीयत इत्याह एगा हिरण्णकोडी अट्टेव अणूणगा सयसहस्सा । सूरोद्यमाईअं दिजह जा पायरासाओ ॥ २१७॥ ला गमनिका पूर्वार्ध सुगम, कथं दीयत इत्याह-सूर्योदय आदौ यस्य दानस्य तत् सूर्योदयादि, सूर्योदयादारभ्य। शादीयत इत्यर्थः, कियन्तं कालं यावत् ?-प्रातरशनं प्रातराशः प्रातर्भोजनकालं यावत् इति गाथार्थः ॥ २१७ ॥ यथा दीयते तथा प्रतिपादयन्नाहसिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउमुहमहापहपहेसुं। दारेसु पुरवराणं रत्थामुहमज्झयारेसुं ॥ २१८॥ वरवरिआ घोसिवइ किमिच्छों दिज्जए बहुविही।सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहिआण निक्खमणे ॥ २१९॥ ठा तत्र शुक्रांट त्रिकं । चतुष्कं + चत्वरं चतुर्मुखं 'महापथो राजमार्गः, पथशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, 12 सिङ्घाटकं च त्रिकं चेत्यादिद्वन्द्वः क्रियते, तथा द्वारेषु पुरवराणां प्रतोलिषु इति भावार्थः, 'रथ्यामुखानि' रथ्याप्रवेशा'मध्य-2 कारा' मध्या एव तेषु रथ्यामुखमध्यकारेप्विति गाथार्थः । किं ?, वरवरिका घोप्यते-वरं याचध्वं वरं याचाध्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया वरवरिकोच्यते, किमिच्छकं दीयत इति-कः किमिच्छति ? यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समयत एव किमिदच्छकमित्युच्यते । एकमपि वस्त्वङ्गीकृत्यैतत्परिसमाप्त्या भवति, अतः बहवो विधयो मुक्ताफलप्रदानादिलक्षणा यस्मिंस्त 58-150250-25%95+050- 4 *सिधाटक. + मध्या. याचयध्वं. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [२१९], भाष्यं [३०...], आवश्यक ॥१३६॥ प्रत सूत्रांक बहुविधिक । 'सुरअसुरेत्यादि' सुरअसुरग्रहणात् चतुष्प्रकारदेवनिकायग्रहण,देवदानवनरग्रहणेन तदुपलक्षितेन्द्रग्रहणं वेदि- हारिभद्रीतव्यमिति गाथार्थः ॥ २१८-२१९ ॥ इदानीमेकैकेन तीर्थकृता कियद्रव्यजातं संवत्सरेण दत्तमिति प्रतिपादयन्नाह- यदृत्तिः । तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीइंच हुँति कोडीओ। असिहं च सयसहस्सा एवं संवच्छरे दिपणं ॥ २२०॥ विभागः १ - भावार्थः सुगम एव, प्रतिदिनदेयं त्रिभिः षट्यधिकैर्वासरशतैः गुणितं यथावर्णितं भवति इति गाथार्थः ॥ २२० ॥ ॥ इति प्रथमवरवरिका ॥ साम्प्रतमधिकृतद्वारार्थानुपात्येव वस्तु प्रतिपादयन्नाहचीरं अरिहनेमि पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मुत्तूण जिणे अवसेसा आसि रायाणो ॥ २२१ ॥ रायकुलेसुऽवि जाया विसुद्धवंसेसु खत्तिअकुलेसुन य इत्आिभिसेआ कुमारवासंमि पब्बइआ ॥२२२॥ संती कुंथू अ अरो अरिहंता चेव चवही अ । अवसेसा तित्थयरा मंडलिआ आसि रायाणो ॥ २२३ ।। | एताः तिम्रोऽपि निगदसिद्धा एव, परित्यागद्वारानुपातिता तु राज्य चोक्तलक्षणं विहाय प्रबजिता इत्येवं भावनीया ॥२२१-२२२-२२३ ॥ गतं परित्यागद्वारं, साम्प्रतं प्रत्येकद्वारं व्याचिख्यासुराहएगो भगवं वीरो पासोमल्ली अतिहि तिहि सरहिं भय च वासपज्जोछह पुरिससएहि निक्खंतो ॥२२४॥1॥१६॥ | उग्गाणं भोगाणं रायण्णाणं च खत्तिआणं च । चउहि सहस्सेहसभो सेसा उ सहस्सपरिवारा ॥ २२५ ॥ * श्रीपाणिग्रहणराज्याभिषेकोभयरहिता इत्यर्थः । 55ASAGAR अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२२५], भाष्यं [३०...', व्याख्या-एको भगवान् वीर:-चरमतीर्थकरः प्रवजितः, तथा पार्थो मलिश्च त्रिभित्रिभिः शतैः सह, तथा भगवाश्च वासुपूज्यः षद्धिः पुरुषशतैः सह निष्क्रान्तः-प्रबजितः । तथा उग्राणां भोगानां राजन्यानां व क्षत्रियाणां च चतुर्भिः। सहस्रः सह ऋषभः, किम् . निष्क्रान्त इति वर्तते, शेषास्तु-अजितादयः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ता इति, उप्रादीनां| च स्वरूपमधः प्रतिपादितमेवेति गाथार्थः ।। २२४-२२५ ॥ साम्प्रतं प्रसङ्गतोऽत्रैव ये यस्मिन् वयसि निष्क्रान्ता इत्येतदभिधित्सुराह वीरो अरिहनेमी पासो मल्ली अ वासुपूजो अ। पढमवए पव्वदआ सेसा पुण पच्छिमवयंमि ॥२२६॥ | निगदसिद्धैव । गतं प्रत्येकद्वारं, साम्पतमुपधिद्वारप्रतिपादनायाह सब्वेऽपि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउच्चीस । न य नाम अण्णलिंगे नो गिहिलिंगे कुलिंगे चा५ ॥२२७॥ । गमनिका-सर्वेऽपि 'एकदृष्येण' एकवस्त्रेण निर्गताः जिनवराश्चतुर्विंशतिः, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, 'सर्वे' यावन्तः खल्वतीता जिनवरा अपि एकदृष्येण निर्गताः, किं पुनस्तन्मतानुसारिणः न सोपधयः । ततश्च य उपधिरासेवितो * |भगवभिः स साक्षादेवोकः, यः पुनर्विनेयेभ्यः स्थविरकल्पिकादिभेदभिन्नेभ्योऽनुज्ञातः स खलु अपिशब्दात् ज्ञेय इति, चतुर्विशतीति संख्या भेदेन वर्तमानावसर्पिणीतीर्थकरप्रतिपादिकेति । गतमुपधिद्वारम् , इदानीं लिङ्गद्वार-सर्वे तीर्थकृतः तीर्थकरलिङ्ग एव निष्कान्ताः, न च नाम अन्यलिङ्गेन गृहस्थलिङ्ग कुलिङ्गे वा, अन्यलिङ्गाद्यर्थ उक्त एवेति गाथार्थः ॥ २२७ ॥ इदानीं यो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदभिधित्सुराह JAMERana wwsaneiorary om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२२७], भाष्यं [३०...], आवश्यक- ॥१३७॥ T༔ ༔ Tཤྩ བླ सुमई थ निचभत्तेण निग्गओ वासुपुज्ज जिणो चउत्थेणं । पासो मल्लीवि अ अट्टमेण सेसा उ छट्टेणं ॥२२८॥ हारिभद्री| व्याख्या सुमतिः तीर्थकर, थेति निपातः, 'नित्यभकेन' अनवरतभक्तेन 'निर्गतो' निष्कान्तः, तथा वासुपूज्योा .यवृत्ति जिनश्चतुर्थेन, निर्गत इति वर्तते, तथा पाश्चों मयपि चाष्टमेन, 'शेषास्तु' ऋषभादयः षष्ठेनेति गाथार्थः ॥२२८।। साम्प्रत विभागः१ | मिहैव निर्गमनाधिकाराद्यो यत्र येषूद्यानादिषु निष्कान्त इत्येतत्प्रतिपाद्यते| उसभो अ विणीआए बारवईए अरिहवरनेमी । अवसेसा तित्थयरा निक्खंता जम्मभूमीसु ॥ २२९॥ उसभो सिद्धत्ववर्णमि वासुपुजो बिहारगेहंमि । धम्मो अ बप्पगाए नीलगुहाए अ मुणिनामा ।। २३०॥ | आसमपयंमि पासो वीरजिर्णिदो अनायसंडमि । अवसेसा निक्खंता, सहसंपवणमि उजाणे ॥ २३१ ।। एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एवं ॥ इदानी प्रसङ्गत एव निर्गमणकालं प्रतिपादयन्नाहपासो अरिहनेमी सिजसो सुमह मल्लिनामो अ । पुवण्हे निक्खंता सेसा पुण पच्छिमहमि ॥ २३२ ॥ निगदसिद्धा इत्यलं विस्तरेण ॥ गतमुपधिद्वारं, तत्प्रसङ्गत एव चान्यलिङ्गकुलिङ्गार्थोऽपि व्याख्यात एव । इदानीं ग्राम्याचारद्वारावयवार्थे प्रतिपादयन्नाहगामायारा विसया निसेविआ ते कुमारवज्जेहिं ६।गामागराइएमु व केसु विहारो भवे कस्स ॥२३३॥ त ॥१३७॥ व्याख्या-ग्राम्याचारा विषया उच्यन्ते, निषेवितास्ते कुमारवर्जस्तीर्थकृद्धिा, ग्रामाकरादिषु वा केषु विहारो भवेत् कस्येति वाच्यमिति गाथार्थः॥ २३३ ।। तत्र ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཡྻ सूत्रांक [-] अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [२३४], भाष्यं [३०...], मगहारायगिहाइसु मुणओ खित्तारिएस विहरिंसु । उसभो नेमी पासो वीरो अ अणारिएसुंपि ॥ २३४ ॥ सूत्रसिद्धा । गतं ग्राम्याच्चारद्वारं साम्प्रतं परषहद्वारं व्याचिख्यासयाऽऽह उदिआ परीसहा सिं पराइआ ते अ जिणवरिंदेहिं | नव जीवाइपयत्थे उवलभिऊणं च निक्खता ८ ॥ २३५॥ व्याख्या - उदिताः परीषाहाः शीतोष्णादयः अमीषां पराजितास्ते च जिनवरेन्द्रः सर्वैरेवेति ॥ गतं परीषहद्वारं, व्याख्याता च प्रथमद्वारगाथेति ॥ साम्प्रतं च द्वितीया व्याख्यायते तत्रापि प्रथमद्वारम् आह च नव जीवादिपदार्थान् उपलभ्य च निष्क्रान्ताः, आदिशब्दाद् अजीवाश्रवबन्धसंवरपुण्यपापनिर्जर (मोक्षग्रह इति गाथार्थः ॥ २३५ ॥ गतं जीवोपलम्भद्वारम् अधुना श्रुतोपलम्भादिद्वारार्थप्रतिपादनायाह | पढमस्स बारसंग सेसाणिकारसंग सुयलंभो ९ । पंच जमा पढमंतिमजिणाण सेसाण चत्तारि ॥ २३६ ॥ पञ्चक्खाणमिणं १० संजमो अ पढमंतिभाण दुविगप्पो । सेसाणं सामइओ सत्तरसंगो अ सव्वेसिं ११ ॥ २३७॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव, नवरं 'पढमंतिमाण दुविगप्पो' त्ति सामायिकच्छेदोपस्थापनाविकल्पः ॥ २३६-२३७ ॥ साम्प्रतं छद्मस्थकालतपः कर्मद्वारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह बाससहस्सं १ बारस २ चउदस ३ अट्ठार ४ बीस ५ वरिसाई । मासा छ ६ व ७ तिष्णि अ ८ च ९ तिग १० दुग ११ मिक्कग १२ दुर्ग च १३ ॥ २३८ ॥ For Purs at Use Only मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~285~ incibrary org Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२३९], भाष्यं [३०...J, हा यवृत्तिः आवश्यकतिग १४ दुग १५ मिकग १६ सोलस वासा १७ तिषिण अ१८ तहेवऽहोरत्तं १९ । हारिभद्रीमासिकारस २० नवर्ग २१ चउपपण दिणाइ २२ चुलसीई २३ ॥ २३९॥ । ॥१३८॥ तह बारस वासाई, जिणाण छउमस्थकालपरिमाणं १२।उग्गं च तवोकम्मं विसेसओ वडमाणस्स १३॥२४०॥ & विभागः१ एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एव ॥ २३८-२३९-२४० ॥ इदानीं ज्ञानोत्पादद्वारं विवृण्वन्नाहफग्गुणयहुलिकारसि उत्तरसाहाहि नाणमुसभस्स पोसिकारसि सुद्धे रोहिणिजोएण अजिअस्स २॥२४॥ कत्तिअबहुले पंचमि मिगसिरजोगेण संभवजिणस्स।पोसे सुहचउद्दसि अभीइ अभिणंदणजिणस्स ४ ॥२४२॥ चित्ते सुद्धिकारसि महाहि सुमइस्स नाणमुप्पणं । चित्तस्स पुषिणमाए पउमाभजिणस्स चित्ताहिं ६ ॥२४३॥ फग्गुणबहुले छट्ठी विसाहजोगे सुपासनामस्साफग्गुणबहुले सत्तमि अणुराह ससिप्पहजिणस्स८॥२४४।। कत्तिअसुद्धे तइया मूले सुविहिस्स पुप्फदंतस्स ९।पोसे बहुलचउद्दसि पुव्वासाढाहि सीअलजिणस्स १०॥२४॥ दापण्णरसि माहबहुले सिजंसजिणस्स सवणजोएणं ११ सयभिय वासुपुजे बीयाए माहसुद्धस्स १२ ॥ २४६॥ पोसस्स सुट्ठी उत्सरभद्दवय विमलनामस्स १२ । वइसाह बहुलचउदसि रेवइजोएणऽणतस्स १४ ॥२४७॥ पोसस्स पुषिणमाए नाणं धम्मस्स पुस्सजोएणं १५। पोसस्स सुदनवमी भरणीजोगेण संतिस्स १६ ॥ २४८॥ ॥१३८॥ है चित्तस्स सुद्धतहा कित्तिअजोगेण नाण कुंथुस्स १७। कत्तिअसुद्धे वारसि अरस्स नाणं तु रेवइहिं १८ ॥२४॥ IDIमग्गसिरसुडइकारसीइ मल्लिस्स अस्सिणीजोगे १९ फग्गुणबहले पारसि सवणेणं सुब्बयजिणस्स२० ॥२५॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] *%*%% [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [२५१], भाष्यं [३०...], मगसिरसुद्धिकारसि अस्सिणिजोगेण नमिजिनिंदस्स २१ । आसोअमावसाए नेमिजिनिंदस्स चित्ताहिं २२ ॥ २५१ ॥ चित्ते बहुलचउत्थी विसाहजोएण पासनामस्स २३ । बहसाहसुद्धदसमी हत्धुत्तरजोगि वीरस्स २४ । १४ ॥ २५२ ॥ तेवीसाए नाणं उप्पण्णं जिणवराण पुव्वण्हे । वीरस्स पच्छिमण्हे पमाणपत्ताऍ चरिमाए ।। २५३ ।। एताश्च त्रयोदश गाथा निगदसिद्धाः । साम्प्रतमधिकृतद्वार एव येषु क्षेत्रेषूत्पन्नं तदेतदभिधित्सुराहउसभस्स पुरिमताले वीरस्सुजुवालिआनईतीरे । सेसाण केवलाई जेसुजाणेसु पव्वइआ ॥ २५४ ॥ निगदसिद्धा । साम्प्रतमिहैव यस्य येन तपसोत्पन्नं तत्तपः प्रतिपादयन्नाह - अट्ठमभत्तंतंमी पासोसहमल्लिरिट्ठनेमीणं । वसुपुज्जस्स चडत्थेण छुट्टभत्तेण सेसाणं ।। २५५ ।। निगदसिद्धा । गतं ज्ञानोत्पादद्वारं, इदानीं संग्रहद्वारं विवरीपुराह चुलसीई च सहस्सा १ एगं च २ दुवे अ ३ तिणि ४ लक्खाई । तिण्णि अ वीसहिआई ५ तीसहिआई च तिष्णेच ६ ।। २५६ ।। तिण्णि अ ७ अड्डाइज्जा ८ दुवे अ ९ एगं च १० सयसहस्साई । चुलसीहं च सहस्सा ११ बिसत्तरि १२ अट्ठसद्धिं च १३ ॥ २५७ ॥ Education intimation Forsy www.jacibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [२५८], भाष्यं [३०...], आवश्यक हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ ॥१३९॥ I छाढि १४ चउसहि १५ बावहिं १६ सहिमेव १७ पण्णासं १८॥ चसा १९ तीसा २०वीसा २१ अट्ठारस २२ सोलस २३ सहस्सा ॥२५८॥ चउदस य सहस्साई २४ जिणाण जइसीससंगहपमाणं। अज्जासंगहमाणं उसभाईणं अओ बुच्छं ।। २५९ ॥ तिण्णेव प लक्खाई १ तिण्णि य तीसा य २ तिपिण छत्तीसा। तीसा य छच्च ४ पंच य तीसा ५ चउरो अ वीसा अ॥२६॥ चत्तारि अतीसाई ७ तिषिण अ असिआइ ८ तिण्हमेत्तो अ। बीमुत्तरं 'छलहिअं१तिसहस्सहिअंच लक्खं च ११॥ २६१ ॥ लक्खं १३ अट्ठसयाणि अबावट्ठिसहस्सचउसयसमग्गा १५। एगट्ठी छच सया १६ सहिसहस्सा सया उच १७ ॥ २६२ ।। सढि १८ पणपण्ण १९ वपणे २० गचत्त २१ चत्ता २२ तहहतीसं च २३। छत्तीसं च सहस्सा २४ अजाणं संगहो एसो।। २६३॥ पढमाणुओगसिद्धो पत्तेअं सावयाइआणपि । नेओ सम्बजिणाणं सीसाण परिग्गहो (संगहो) कमसो १५ ॥ २६४ ॥ T ||१३९॥ २% मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२६४], भाष्यं [३०...', एता अपि नव गाथाः स्पष्टा एवेति न प्रतन्यन्ते ॥ २५६-२६४ ॥ गतं संग्रहद्वार, व्याख्याता च द्वितीयद्वारगाथेति । साम्प्रतं तृतीयाद्यद्वारप्रतिपादनाय आहतित्थं चाउचण्णो संघो सो पदमए समोसरणे । उप्पण्णो अ जिणाणं चीरजिणिदस्स वीअंमि१६ ॥२१५॥ निगदसिव, नवरं वीरजिनेन्द्रस्य 'द्वितीये' इति अन्न यत्र केवलमुत्पन्नं कल्पात्तत्र कृतसमवसरणापेक्षया मध्यमायां द्वितीयमुच्यत इति ॥ २६५ ॥ गतं तीर्थद्वारं, साम्प्रतं गणद्वारं व्याचिख्यासुराह चुलसीह १ पंचनउई २ विउत्तरं ३ सोलसुत्तर ४ सयं च ५। सत्तहिअं ६ पणनउई ७ तेणउई ८ अट्ठसीई अ९॥२६६ ॥ इक्कासीई १० बावत्तरी अ११ छावहि १२ सत्तवण्णा य १३ पपणा १४ तेयालीसा १५ छत्तीसा १६ चेव पणतीसा १७ ॥ २७॥ तित्तीस १८ अट्ठबीसा १९ अट्ठारस २० चेव तहय सत्तरस २१ । इकारस २२ दस २३ नवगं २४ गणाण माण जिर्णिदार्ण १७॥ २६८॥ एतास्तिस्रोऽपि निगदसिद्धा एव, नवरमेकवाचनाचारक्रियास्थानां समुदायो गणो न कुलसमुदाय इति पूज्या च्याचक्षते ॥ २६६-२६७-२६८ ॥ गतं गणद्वारम् , अधुना गणधरद्वारच्याचिख्यासयाऽऽहएकारस उ गणहरा जिणस्स वीरस्स सेसयाणं तु । जावइआ जस्स गणा तावडा गणहरा तस्स १८॥२६॥ SCAR JABERatinintamatana मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] आवश्यक ॥१४०॥ %% [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [२६९], भाष्यं [३०...], निगदसिद्धैव, नवरं मूलसूत्रकर्त्तारो गणधरा उच्यन्ते ।। २६९ ।। गतं गणधरद्वारम् इदानीं धर्मोपायस्य देशका |इत्येतद्व्याचिख्यासुराहधम्मोवाओ पवयणमहवा पुव्वाइँ देसगा तस्स । सम्बजिणाण गणहरा चउदसपुब्बी व जे जस्स ॥ २७० ॥ सामाइयाइया वा वयजीवणिकाय भावणा पढमं । एसो धम्मोचाओ जिणेहि सव्वेहि उवइट्टो १९ ॥ २७९ ॥ गाथाद्वयमपीदं सूत्रसिद्धमेव ॥ २७० ॥ २७१ ॥ गतं धर्मोपायस्य देशका इति द्वारम्, इदानीं पर्यायद्वारप्रतिपादनायाहउसभस्स पुच्वलक्वं पुचंगूणमजिअस्स तं चैव । चउरंगूणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥ २७२ ॥ पणवीसं तु सहस्सा पुत्र्वाणं सीअलस्स परिआओ । लक्खाई इक्कवीसं सिसजिणस्स वासाणं ॥ २७३ ॥ पणं १२ पण्णारस १३ तत्तो अट्टमाइ लक्खाई १४ । अड्डाइज्बाई १५ तऔं वाससहस्साई पणवीसं १६ ।। २७४ ॥ तेवीसं च सहस्सा सयाणि अट्टमाणि अ हवंति १७ । इगवीसं च सहस्सा १८ वाससउणा य पणपण्णा १९ ॥ २७५ ॥ अद्धमा सहस्सा २० अहाइजा य २१ सत्त य सयाई २२ । • सपरी २३ विचत्तवासा २४ दिक्खाकालो जिनिंदाणं ॥ २७६ ॥ For Fans Only हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~290~ ॥१४०॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ibrary.org Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [२७६], भाष्यं [३०...], एताः पञ्च निगदसिद्धा एव ॥ २७२-२७६ ॥ एवं तावत्सामान्येन प्रत्रज्यापर्यायः प्रतिपादितः, साम्प्रतमत्रैव भेदेन भगवतां कुमारादिपर्यायं प्रतिपादयन्नाह उसभस्स कुमारतं पुव्वाणं वीसई सयसहस्सा । तेवट्ठी रजंमी अणुपालेऊण क्खितो ॥ २७७ ॥ अजिअस्स कुमारतं अट्ठारस पुब्बसयसहस्साइं । तेवण्णं रज्चंमी पुब्बंगं चेव बोद्धव्वं ॥ २७८ ॥ पण्णरस सयसहस्सा कुमारवासो अ संभवजिणस्स । चोआलीसं रज्जे चउरंगं चैव योद्धव्यं ॥ २७९ ॥ अद्धतेरस लक्खा पुडवाणऽभिणंदणे कुमारतं । छत्तीसा अहं चिय अहंगा चैव रज्जमि ॥ २८० ॥ सुमइस्स कुमारतं हवंति दस पुव्वसयसहस्साई । अउणातीसं रजे वारस अंगा थ बोद्धव्या ।। २८१ ।। पउमस्स कुमारतं पुव्वाणमा सयसहस्सा। अद्धं च एगवीसा सोलस अंगा य रज्जमि ॥ २८२ ॥ पुव्वसयसहस्साई पंच सुपासे कुमारवासो उ । चउदस पुण रजंमी बीसं अंगा य बोद्धव्वा ॥ २८३ ॥ अडाइज्जा [ अब्रुट्टा उ ] लक्खा कुमारवासो ससिप्प होइ । अद्धं छ चिय रज्जे चडवीसंगा य बोद्धच्वा ॥ २८४ ॥ पणं पुचसहस्सा कुमारवासो व पुष्पदंतस्स । तावइअं रज्जंमी अट्ठावीसं च पुण्वंगा ॥ २८५ ॥ पणवीससहस्साई पुव्वाणं सीअले कुमारतं । तावइअं परिआओ पण्णासं चैव रज्जमि ॥ २८६ ॥ वासाण कुमारतं इगवीसं लक्ख हुति सिजसे । तावइअं परिआओ पायालीसं च रजंमि ॥ २८७ ॥ गिहवासे अट्ठारस वासाणं सयसहस्स निअमेणं । चउषण्ण समसहस्सा परिआओ होइ वसुपुजे ॥ २८८ ॥ Forsy acibrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 291~ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [२८९], भाष्यं [३०...', हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ आवश्यक-पण्णरस सपसहस्सा कुमारवासो अ तीसई रज्जे । पणरस सयसहस्सा परिआओ होइ विमलस्स ॥ २८॥ ॥१४॥ अहहमलक्खाई वासाणमणतई कुमारत्ते । तावइ परिआओ रज्जमी हुंति पण्णरस ।। २९० ॥ धम्मस्स कुमारसं वासाणड्डाइआई लक्खाई । तावइअं परिआओ रज्जे पुण हुंति पंचेव ॥ २९१ ॥ संतिस्स कुमार मंडलियचक्किपरिआ चउमुंपि । पत्तेअं पत्तेअं वाससहस्साई पणवीसं ॥ २९२ ॥ एमेव य कुंथुस्सवि चउसुवि ठाणेसु हुंति पत्तेअं। तेवीससहस्साई वरिसाणहमसया य ॥२९३॥ एमेव अरजिर्णिदस्स चउसुवि ठाणेसु हुंति पत्ते । इगवीस सहस्साई वासार्ण हुंति णायव्या ॥२९४ ॥ । मल्लिस्सवि वाससयं गिहवासे सेस तु परिआओ । चउपपण सहस्साई नव चेष सयाइ पुण्णाई॥ २९५॥ अट्ठमा सहस्सा कुमारवासो उ सुब्वयजिणस्स । तावइ परिआओ पण्णरससहस्स रजंमि ॥ २९६॥ नमिणो कुमारवासो वाससहस्साइ दुपिण अद्धं च । तावइ परिआओ पंच सहस्साई रज्जंमि ॥२९७ ॥ तिण्णेव य पाससया कुमारवासो अरिहनेमिस्स । सत्त य वाससयाई सामण्णे होइ परिआओ॥ २९८॥ |पासस्स कुमारत्तं तीसं परिआऔं सत्तरी होइ । तीसा य वडमाणे यायालीसा उ परिआओ ॥ २९९ ॥ | आद्यानां सुविधिपर्यन्तानामनुपरिपाव्येयं श्रामण्यपर्यायगाथा-तद्यथाउसभस्स पुब्बलक्खं पुष्वंगूणमजिअस्स तं चेव । चउरंगूणं लक्खं पुणो पुणो जाव सुविहित्ति ॥३०॥ सेसाणं परिआओ कुमारवासेण सहिअओ भणिओ। पत्तेअंपि अ पुव्वं सीसाणमणुग्गहढाए ॥३०१॥ | ॥१४॥ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] Education intimat [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ ३०२], भाष्यं [३०...], छउमत्थकालमितो सोहे सेसओ उ जिणकालो। सव्वाउअंपि इत्तो उसभाईणं निसामेह ॥ ३०२ ॥ रासी १ बिसत्तरि २ सही ३ पण्णासमेव ४ लक्खाई । चत्त ५ तीसा ६ वीसा ७ दस ८ दो ९ एगं १० च पुण्वाणं ॥ ३०३ ॥ चरासी ११ बावन्तरी १२ अ सही १३ अ होड़ वासाणं । तीसा १४ प दस १५ य एवं १६ च एवमेए सय सहस्सा ॥ ३०४ ॥ पंचा सहस्सा १७ चउरासीई अ १८ पंचवण्णा १९ य । तीसा २० य दस २१ य एगं २२ सयं २३ व बावत्तरी २४ चेव २० ।। ३०५ ॥ एताश्च एकोनत्रिंशदपि गाथाः सूत्रसिद्धा एव द्रष्टव्या इति । गतं पर्यायद्वारम् इदानीमन्तक्रियाद्वारावसर इति, तत्रान्ते क्रिया अन्तक्रिया - निर्वाणलक्षणा, सा कस्य केन तपसा व जाता ?, वाशब्दात्कियत्परिवृतस्य चेत्येतत्प्रतिपादयन्नाह - निव्वाणमंतकिरिआ सा चउदसमेण पढमनाहस्स । सेसाण मासिएणं वीरजिनिंदस्स छडेणं ॥ ३०६ ॥ अद्वावयचंपुचिंत पावासम्मेअसेलसिहरेनुं । उसभ वसुपुज नेमी वीरो सेसा य सिद्धिगया ॥ ३०७ ॥ एगो भयवं वीरो तित्तीसाइ सह निव्दुओ पासो । छत्तीस एहिं पंचहिं सएहि नेमी उ सिडिगओ ॥ ३०८ ॥ पंचहि समणसएहिं मल्ली संती उ नवसपहिं तु । अट्ठसएणं धम्मो सहि छहि वासुपुज्जजिणो ॥ ३०९ ॥ सत्तसहस्साणंतइजिणस्स विमलस्स छस्सहस्साई । पंचसपाह सुपासे पउमाभे तिष्णि अड सया ॥ ३१० ॥ For Fans Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३११], भाष्यं [३०...], आवश्यक | दसहि सहस्सेहि उसभो सेसा उसहस्सपरिचुडा सिहा। कालाइ जं न भणि पढमणुओगाउ तं णेअं॥३१॥ हारिभद्री इचेवमाइ सव्वं जिणाण पढमाणुओगओणेअं। ठाणासुण्णत्थं पुण भणि २१ पगयं अओ वुच्छं ॥३१२॥ यवृत्तिः ॥१४॥ उसभजिणसमुट्ठाणं उठाणं जं तओ मरीइस्स । सामाइअस्स एसो जं पुब्वं निग्गमोऽहिंगओ ॥ ३१३ ॥ विभागः१ एता अप्यष्टौ निगदसिद्धा एव । |चित्तबहुलडमीए चउहि सहस्सेहि सो उ अवरण्हे । सीआ मुर्दसणाए सिखत्थवर्णमि छठेणं ।। ३१४ ॥ __गमनिका-चैत्रबहुलाष्टम्यां चतुर्भिः सहस्रैः समन्वितः सन् अपराहे शिबिकायां सुदर्शनायां व्यवस्थितः सिद्धार्थेवने षष्ठेन भक्तेन निष्कान्त इति वाक्यशेषः, अलकूरणकं परित्यज्य चतुर्मुष्टिकं च लोचं कृत्वेति ॥३१४ ॥ आह-चतुर्भिः सहस्रः समन्वित इत्युक्तं, तत्र तेषां दीक्षां किं भगवान् प्रयच्छति उत नेति, नेत्याहIMचउरो साहस्सीओ लोअं काऊण अप्पणा चेव । जे एस जहा काही तं तह अम्हेऽवि काहामो ॥१५॥ का गमनिका प्राकृतशैल्या चत्वारि सहस्राणि लोचं पञ्चमुष्टिकं कृत्वा आत्मना चैव इत्थं प्रतिज्ञा कृतवन्त:-'यत्' क्रियाऽनुष्ठानं 'एप' भगवान् 'यथा' येन प्रकारेण करिष्यति तत्तथा 'अम्हेऽवि काहामोत्ति' वयमपि करिष्याम इति || गाथार्थः ॥ ३१५ ॥ भगवानपि भुवनगुरुत्वात्स्वयमेव सामायिक प्रतिपद्य बिजहार । तथा चाह M ॥१४२॥ ___ उसभी वरवसभगई चित्तूणमभिग्गहं परमघोरं। वोसहचत्तदेहो विहरइ गामाणुगामं तु ॥३१६॥ *बसमसमगइ. । JABERatinintamational ainatorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [ ३१६], भाष्यं [३०...], गमनिका - ऋषभो वृषभसमगतिर्गृहीत्वा अभिग्रहं 'परमघोरं परमः - परमसुखहेतुभूतत्वात् घोरः - प्राकृतपुरुषैः कर्त्तुमशक्यत्वात् तं 'व्युत्सृष्टत्यकदेहो विहरति ग्रामानुग्रामं तु' ब्युत्सृष्टो - निष्प्रतिकर्मशरीरतया, तथा चोक्तम्- 'अच्छिपि नो पमज्जिज्जा, णोऽविय कंडुविया मुणी गाय' त्यक्तः खलु दिव्याद्युपसर्गसहिष्णुतया, शेषं सुगममिति गाथार्थः ॥ ३१६ ।। स एवं भगवांस्तैरात्मीयैः परिवृतो विजहार, न च तदाऽद्यापि भिक्षादानं प्रवर्त्तते, लोकस्य परिपूर्णत्वादभावाच्च, तथा चाह मूलभाष्यकारः गवि ताव जणो जाणइ का भिक्खा ? केरिसा व भिक्खयरा ? | ते भिक्खमलभमाणा वणमज्झे तावसा जाया ॥ ३१ ॥ ( सू० भा० ) गमनिका - नापि तावज्जनो जानाति का भिक्षा ? कीदृशा वा भिक्षाचरा इति, अतस्ते भगवत्परिकरभूता भिक्षामलभमानाः क्षुत्परीषहार्त्ता भगवतो मौनव्रतावस्थिताद् उपदेशमलभमानाः कच्छमहाकच्छावेवोक्तवन्तः - अस्माकमनाथानां भवन्तौ नेताराविति, अतः कियन्तं कालमस्माभिरेवं क्षुत्पिपासोपगतैरासितव्यं १, तावाहतुः वयमपि न विद्मः, यदि भगवान् अनागतमेव पृष्टो भवेत् किमस्माभिः कर्त्तव्यं १ किं वा नेति, ततः शोभनं भवेत्, इदानीं तु एतावद्युज्यतेभरतलज्जया गृहगमनमयुक्तमाहारमन्तरेण चासितुं न शक्यत इत्यतो वनवासो नः श्रेयान् तत्रोपवासरताः परिशटितपरिणतपत्राद्युपभोगिनो भगवन्तमेव ध्यायन्तस्तिष्ठाम इति संप्रधार्य सर्वसंमतेनैव गङ्गानदीदक्षिणकुले रम्यवनेषु वल्कल1 अक्ष्यपि नो प्रमार्जयेत् नापि च कष्ट्येत् मुनिर्गानम्. Education infamational For Parts Only www.ncbrary.org मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०], मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋषभदेवस्य आहार अन्तराय कथनं एवं तं भिक्षाप्राप्तेः कथा ~ 295~ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३१६...], भाष्यं [३१], आवश्यक- चीरधारिणः खल्वाश्रमिणः संवृत्ता इति, आह च 'वनमध्ये तापसा जाताः' इति गाथार्थः ॥ तयोश्च कच्छमहाकच्छयो। हारिभद्री INIसुती नमिविनमिनी पित्रनुरागात् ताभ्यामेव सह विहृतवन्तौ, तौ च वनाश्रयणकाले ताभ्यामुक्ती-दारुणः खल्विदा- यत्तिा नामस्माभिर्वनवासविधिरङ्गीकृतः तद्याथ यूयं स्वगृहाणीति, अथवा भगवन्तमेव उपसर्पधः, स वोऽनुकम्पयाऽभिलषित- विभागः१ फलदो भविष्यति, तावपि च पित्रो प्रणामं कृत्वा पित्रादेशं तथैव कृतवन्तौ, भगवत्समीपमागत्य प्रतिमास्थिते भगवति || जलाशयेभ्यो नलिनीपत्रेषु उदकमानीय सर्वतः प्रवर्षणं कृत्वा आजानूछ्यमानं सुगन्धिकुसुमप्रकरं च अवनतोत्तमाज-1 क्षितिनिहितजानुकरतलौ प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं राज्यसंविभागप्रदानेन भगवन्तं विज्ञाप्य पुनस्तदुभयपाश्र्षे खगम्यग्रहस्ती तस्थतुः ॥ तथा चाह नियुक्तिकारःनमिधिनमीणं जायण नागिंदो विजदाण वेअड्डे । उत्तरदाहिणसेढी सद्दीपण्णासनगराई ॥ ३१७ ॥ अक्षरगर्मनिका नमिविनमिनोर्याचना, नागेन्द्रो भगवद्वन्दनायागतः, तेन विद्यादानमनुष्ठितं, वैताढ्ये पर्वते उत्तरद-16 क्षिणश्रेण्योः यथायोग षष्टिपश्चाशनगराणि निविष्टानीति गाथाक्षरार्थः ॥ ३१७ ॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् । अन्नया धरणो नागराया भगवंतं वंदओ आगओ, इमेहि य विष्णविअं, तओ सो ते तहा जायमाणे भणति-भगवं चत्तसंगो, ण एयस्स अस्थि किंचि दायचं, मा एयं जाएह, अहं तुभं भगवओ भत्तीप देमि, सामिस्स सेवा अफला माह | ॥१४॥ मन्थदा धरणो मागराजः भगवन्तं वन्दितुमागतः, आभ्यां विज्ञप्तं च, ततः स ती तथा वाचमानौ भणति-भगवान् वक्तसङ्गः, नतस्य वियते विधिहातव्यं, मैनं वाचिष्ट, अहं वां भगवतो भक्त्या ददामि, स्वामिनः सेवाइफला मा. * नेदम् प्र.. + चा. wwwsaneiorary on मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~2964 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३१७], भाष्यं [३१...], भिवउत्तिका पढियसिजाणं गंधवपन्नगाणं अडयालीसं विजासहस्साई गिण्हह,ताण इमाओ महाविजाओ पत्तारि,संजहागोरी गंधारी रोहिणी पण्णत्तित्ति, तं गच्छह तुब्भे विज्जाहररिद्धीए सयणं जणवयं च उचलोभेऊण दाहिणिलाए उत्तरिलाए य विजाहरसेडीए रहनेउरचकवालपामोक्खे गगणवल्लभपामोक्खे य पण्णासं सहिं च विजाहरणगरे णिवेसिऊण विहरह । तो ते लप्पसाया कामियं पुष्फयविमाणं विउविऊण भगवंतं तिरथयरं नागरायंच वंदिऊर्ण पुष्फयविमाणारूढा कच्छमहाकच्छाणं भगवप्पसायं उवदंसेमाणा विणीयनगरिमुवैगम्म भरहस्स रण्णो तमत्थं निवेदिता सयणं परियणं गहाय वेयढे पञ्चए णमी दाहिणिलाए विजाहरसेढीए विणमी उत्तरिल्लाए पण्णासं सडिं च विजाहरनगराइ निवेसिऊण विहरति । अत्रान्तरेभगवं अदीणमणसो संवच्छरमणसिओ विहरमाणो । कण्णाहि निमंतिजइ वत्थाभरणासणेहिं च ॥३१८॥ । व्याख्या-भगः खल्वैश्वर्यादिलक्षणः सोऽस्यास्तीति भगवान् असावपि अदीनं मनो यस्यासी अदीनमनाः-निष्प्रक भूदितिकृत्वा पठितसिद्धानां गन्धर्वप्रशकानां अष्टचत्वारिंशत् विद्यासहस्राणि गृहीतं, तासामिमा महाविद्याश्चतस्रः, सयथा-गौरी गान्धारी रोहिणी प्रज्ञसिरिति, तदू गछतं बुवा विद्याधरयो खजनं जनपदं चोपप्रलोम्य दक्षिणस्यामुत्तरयां च विद्याधरश्रेषयां स्थनूपुरचकवातप्रमुखाणि गगनवडभप्रमुखानि च पञ्चापातं षष्टिं च विद्याधरनगराणि निवेश्य विहरतं । ततस्तौ लब्धप्रसादी कामितं पुष्पकविमानं चिकुव्य भगवन्तं तीर्थकरं नागराज मन्दिरका पुष्पकविमानास्वी कयामहाकच्छाभ्यां भगवत्प्रसाई अपदर्शयन्ती विनीतानगरीमुपागम्य भरताय राशे तमर्थ निवेय स्वजनं परिजनं गृहीत्वा वैताको पर्वते न मिदाक्षिणात्यायो विद्यापरण्यां विगमिरीसरायां पञ्चाशतं षष्टिं च विद्याधरनगराणि निवेश्य विहरता. * दोवि. + मतिगम्म. T मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३१८], भाष्यं [३१...], प्रत सूत्रांक आवश्यक म्पचित्त इत्यर्थः । 'संवत्सरं वर्ष न अशितः अनशितः विहरन् भिक्षाप्रदानानभिज्ञेन लोकेनाभ्यर्हितश्च (श्चेति) कृत्वा कन्या- हारिभद्री भिनिमन्त्र्यते, वस्त्राणि-पट्टांशुकॉनि आभरणानि-कटककेयूरादीनि आसनानि-सिंहासनादीनि एतैश्च निमन्त्र्यत इति । यवृत्तिः ॥१४४॥ वर्तमाननिर्देशप्रयोजनं पूर्ववदिति गाथार्थः॥३१८॥ एवं विहरता भगवता कियता कालेन भिक्षा लब्धेत्येतत्प्रतिपादनायाह- विभाग १ संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसमेण लोगनाहेण । सेसेहि बीयदिवसे लद्धाओ पढमभिक्खाओ ॥ ३१९ ॥ गमनिका-संवत्सरेण भिक्षा लब्धाः ऋषभेण लोकनाथेन-प्रथमतीर्थकृता, शेपैः-अजितादिभिः भरतक्षेत्रतीर्थकृद्भिः द्वितीयदिवसे लब्धाः प्रथमभिक्षा इति गाथार्थः ॥ ३१९ ॥ तीर्थकृतां प्रथमपारणकेषु यद्यस्य पारणकमासीत | तदभिधित्सुराहउसभस्स उ पारणए इक्खुरसो आसि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं अमयरसरसोवमं आसी ॥ ३२० ॥ गमनिका-ऋषभस्य तु इक्षुरसः प्रथमपारणके आसीलोकनाथस्य, शेषाणाम्-अजितादीनां परमं च तदन्नं च परमानं-पायसलक्षणं, किंविशिष्टमित्याह-अमृतरसबद रसोपमा यस्य तदू अमृतरसरसोपममासीदिति गाथार्थः ॥३२०॥ तीर्थकृतां प्रथमपारणकेषु यद्वृत्तं तदभिधित्सुराह| घुईच अहोदाणं दिव्वाणि अ आयाणि तराणि देवा य संनिवइआ वसुहारा चेव बुढा य ॥ ३२१॥ I ॥१४४|| II गनिका-देवैराकाशगतैः घुष्टं च अहोदानमिति-अहोशब्दो विस्मये अहो दानमहो दानमित्येवं दीयते, सुदत्तं । + पडदेवानादीनि. नास्ति पवद्वयमिदं. अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३२१], भाष्यं [३१...J, प्रत सूत्रांक भवतामित्यर्थः, तथा दिव्यानि च आहतानि तूराणि तदा त्रिदशैरिति देवाश्च सन्निपतिताः, तदैव वसुधारा चैव वृष्टा, वसु द्रव्यमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३२१ ।। एवं सामान्येन पारणककालभाव्युक्तम्, इदानीं यत्र यथा च यच आदितीर्थकरस्य पारणकमासीत् तथाऽभिधित्सुराहगयउर सिजसिक्खुरसदाण चमुहार पीढं गुरुपूआ। तक्खसिलार्यलगमणं बाहुबलिनिवेअणं चेव ॥ ३२२ ॥ ___ अस्या भावार्थः कथानकादवबोद्धव्यः । तच्चेदम्-कुरुजणपदे गयपुराणगरे बाहुबलिपुत्तो सोमप्पभो, तस्स पुत्तो सेजसो जुवराया, सो सुमिणे मंदरं पधयं सामवणं पासति, ततो तेण अमयकलसेण अभिसित्तो अभहि सोभितुमाढत्तो, नगरसेट्टी सुबुद्धिनामो, सो सूरस्स रस्सीसहस्सं ठाणाओ चलिय पासति, नवरं सिजसेण हक्युत्तं, सो य अहिअयरं तेयसंपुण्णो जाओ, राइणा सुमिणे एको पुरिसो महप्पमाणो महया रिउघलेण सह जुझंतो दिठो, सिजसेण| साहाजं दिण्णं, ततो गेण तं बलं भग्गति, ततो अत्थाणीए एगओ मिलिया, सुमिणे साहति, न पुण जाणंति-कि भविस्सइत्ति, नवरं राया भणइ-कुमारस्स महंतो कोऽपि लाभो भविस्सइत्ति भणिऊण उडिओ अत्थाणीओ,सिजंसोऽवि गओ कुरुजनपदे गजपुरनगरे बाहुबलिपुत्रः सोमप्रभः, सस्य पुत्रः श्रेयांसो युवराजः, स स्वझे मन्दरं पर्वतं श्यामवर्णमपश्यत् , ततस्तेन भमृतकलशेनाभिपिक्का अभ्यधिकं शोभितुमारब्धः, नगरसेटी सुबुद्धिनामा, स सूर्यस्ख रहिमसहसं स्थानात् चलितं अपश्यत्, नवरं श्रेयांसेन अभिक्षिप्त, सचाधिकतर तेजःसंपूर्णो जावः, राज्ञा खसे एकः पुरुषो महाप्रमाणो महता रिपुबलेन सह युध्यमानो दृष्टः, श्रेयांसेन साहावं दत्तं, ततोऽनेन तदुलं भामिति, सतआस्थानिकायां एकतो | मिलिताः, खमान् साधयन्ति, न पुनजानम्ति-किं भविष्यतीति, नवरं राजा भणति-कुमारस्य महान् कोऽपि लाभो भविष्यतीति भणिया उस्थित आस्थानिकातः, श्रेयांसोऽपि गतो * पेढ०. +दूल.. .पुरे. धिाणाओ. 'साहियं. अनुक्रम मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ऋषभदेवस्य प्रथम भिक्षादाने श्रेयांसकमारस्य प्रबन्ध: ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], आवश्यक- ॥१४५॥ 944- नियंगभवणं, तत्थ य ओलोयणहिओ पेच्छति सामि पविसमाणं, सो चिंतेइ-कहिं मया एरिस नेवत्वं दिवपुष ? जारिस हारिभद्रीपपितामहस्सत्ति, जाती संभरिता-सो पुषभवे भगवओ सारही आसि, तत्थ तेण वइरसेणतित्थगरो तित्थयरलिंगेण यवृत्तिः दिहोत्ति, वइरणाभे य पत्नयंते सोऽवि अणुपबइओ, तेण तत्थ सुयं जहा-एस वइरणाभो भरहे पढमतित्थयरो भविस्स- विभागः१ इत्ति, तं एसो सो भगवंति। तस्स य मणुस्सो खोयरसघडएण सह अतीओ,तं गहाय भगवंतमुवडिओ, कप्पइत्ति सामिणा पाणी पसारिओ, सबो निसिहो पाणीसु, अच्छिद्दपाणी भगवं, उपरि सिहा वहुइ, न य छड्डिजइ, भगवओ एस लद्धी, |भगवया सो पारिओ, तत्थ दिघाणि पाउन्भूयाणि, तंजहा-वसुहारा वुढा १ चेलुक्खेवो को २ आयाओ देवदुंदुहीओ ३ गंधोदककुसुमवरिसं मुकं ४ आगासे य अहोदाणं घुईति ५। तओ तं देवसंनिवाअं पासिऊण लोगो सेज्जंसघरमुवगओ, ते तावसा अन्ने य रायाणो, ताहे सेजंसोते पण्णवेइ-एवं भिक्खा दिजइ, एएसिंच दिण्णे सोग्गती गम्मइ, ततो ते सवेऽवि निजकभवन, तन्त्र पायलोकनस्थितः पश्यति खामिनं प्रविशन्त, स चिन्तयति- भया देश नेपथ्य पूर्व पायां प्रपितामहस्पति, जातिः स्मृता, |-स पूर्वभवे भगवतः सारथिरासीत्, तत्र तेन वज्रसेनतीर्थकरतीर्थकरलिङ्गेन दृष्ट इति, बजनाभे च प्रनजति सोऽप्यनुश्वजितः, तेन तन्त्र श्रुतं यथा-एष चजनाभो भरते प्रथमतीर्थकरा भविष्यतीति, तदेष स भगवानिति । तस्य च मनुष्य इक्षुरसघटेन सहागतः, गृहीत्वा भगवन्तमुपरिषता, कापत इति खामिना । पाणी प्रसारितो, सर्वो निसृष्टः पाण्योः, सच्छिदपाणिभंगवान् , उपरि शिखा वर्धते, न चाधः पतति, भगवत एपा लब्धिः, भगवता स पारितः, तत्र दिव्यानि ॥१४॥ प्रादुर्भूतानि-तद्यथा-वसुधारा वृष्टा चेलोत्क्षेपः कृतः २ आइता देवदुन्दुभयः ३ मन्धोदकुसुमवर्षा मुक्का ४ आकाशे चाहोदानं घुष्टमिति ५ । ततस्तं | देवसनिपावं दृष्ट्वा लोकः श्रेयांसगृहमुपागतः, ते तापसा अन्ये च राजानः, तदा श्रेयांसस्तान् प्रज्ञापयति-एवं भिक्षा दीयते, एतेभ्यन वृत्ते सुगतिर्गम्यतेल | ततस्ते सर्वेऽपि SA * मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक' मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], AE%2 पुच्छंति-कहं तुमे जाणियं ? जहा-सामिस्स भिक्खा दायवत्ति, सेजंसो भणइ-आइसरणेण, अहं सामिणा सह अट्ट भवग्गहणाई अहेसि, तओ ते संजायकोउहल्ला भणति-इच्छामो णाउं असु भवग्गहणेसु को को तुम सामिणो आसित्ति, ततो सो तेसिं पुच्छंताणं अप्पणो सामिस्स य अट्ठभवसंबद्धं कहं कहेइ जहा “वसुदेवहिंडीए", ताणि पुण संखेवओ इमाणि, तंजहा-ईसाणे सिरिप्पभे विमाणे भगवं ललिअंगओ अहेसि, सेज्जंसो से सर्यपभादेवी पुबभवनिन्नामिआ १ पुचविदेहे पुक्खलावइविजए लोहग्गले नयरे भगवं वइरजंघो आसि, सिजंसो से सिरिमती भारिया २ तत्तो उत्तरकुराए भगवं मिहुणगो सेजंसोऽवि मिहुणिआ अहेसि ३ ततो सोहम्मे कप्पे दुवेऽवि देवा अहेसि ४ ततो भगवं अवरविदेहे विजपुत्तो सेजसो पुण जुण्णसेठिपुत्तो केसवो नाम छटो मित्तो अहेसि ५ ततो अचुए कप्पे देवा ६ ततो भगवं पुंडरीगिणीए नगरीए बहरणाहो सेजंसो सारही ७ ततो सबठ्ठसिद्धे विमाणे देवा ८ इह पुण भगवओ पपोत्तो जाओ सेजंसोत्ति । तेर्सि पृच्छन्ति-कथं वषा ज्ञातं ' यथा स्वामिने भिक्षा दातम्येति, श्रेयांसो भणति-जातिम्मरगेन, आहे स्वामिना सहाष्टी भवप्रणाभ्यभूवं, ततस्ते संजासकौतूहला भणन्ति - इच्छामो ज्ञातुं, अष्टम् भवग्रहणेषु कस्करवं स्वामिनोऽभव इति, ततः स तेम्पः पृछाय आत्मनः स्वामिनबाटभवसंपर्दा कथा कथयति यथा वसुदेवहिण्डयां, तानि पुनः संक्षेपत इमानि, तद्यथा-ईशाने श्रीप्रभे बिमाने भगवान् ललिताङ्गक आसीत्, श्रेयांसमस्य वर्षप्रभा देवी पूर्वभवनिर्वामिका । पूर्व विदेहेषु पुष्कलाचतीविजये लोहार्गले नगरे भगवान् बज्रज भासीत्, श्रेयांसस्तस्य श्रीमती भायो २ तत उत्तरकुरुषु भगवान् मिथुनकः श्रेयांसोऽपि मिथुनिका भासीर ३ ततः सौधर्मे करपे द्वावपि देवौ अभूताम् । ततो भगवानपरविदेहेषु वैयपुत्रः श्रेयांसः पुनर्जाणवेष्टिपुत्रः केशवनामा पर्छ मित्रमभूत् ५ ततोऽच्युते कल देवी ६ ततो भगवान पुपडरीकियां नगर्या वजनाभः श्रेयांसः सारथिः ततः सर्वार्थसिद्ध विमाने देवौ ८ इह पुनर्भगवतः प्रपौत्रो जातः श्रेयांस इति । तेषां ॐ4% JABERatinintamational wwjanatarary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३२२], भाष्यं [३१...], I आवश्यक 80-% आवश्यकच तिण्हवि सुमिणाण एतदेव फलं-जं भगवओ भिक्खा दिण्णत्ति । ततो जणवओ एवं सोऊण से जंस अभिणदिऊणहरिभनी सट्ठाणाणि गतो, सेजंसोऽवि भगवं जत्थ ठिओ पडिलाभिओ ताणि पयाणि मा पाएहिं अकमिहामित्ति भत्तीए तत्थयवृत्तिः ॥१४६॥ रयणामयं पेढं करेइ, तिसंझं च अचिणइ, विसेसेण य पवदेसकाले अचिणेऊण भुंजइ, लोगो पुच्छइ-किमयंति, सेजंसो| विभागः१ भणति-आदिगरमंडलगंति, ततो लोगेणवि जत्थ जत्थ भगवं ठितो तत्थ तत्थ पेढं कयं, तं च कालेण आइचपेढं संजायंति गाथार्थः ॥ एवं भगवतः खल्बादिकरस्य पारणकविधिरुक्तः, साम्प्रतं प्रसङ्गतः शेषतीर्थकराणामजितादीनां येषु स्थानेषु प्रथमपारणकान्यासन यैश्च कारितानि तद्गतिश्चेत्यादि प्रतिपाद्यते, तत्र विवक्षितार्थप्रतिपादिकाः खल्वेता गाथा इति । हस्थिणउरं १ अओज्झा २ सावत्थी ३ सय चेव साकेअं४। विजयपुर ५ बंभथलयं ६ पाडलिसंड ७ पउमसंड ८॥ ३२३ ॥ सेयपुरं ९रिद्वपुरं १० सिहत्वपुरं ११ महापुरं १२ चेष। धण्णकड १३ बद्धमाणं १४ सोमणसं १५ मंदिरं १६ चेव ।। ३२४ ॥ चकपुरं १७ रायपुरं १८ मिहिला १९ रायगिहमेव २० बोडव्वं । वीरपुरं २१ बारचई २२ कोअगई २३ कोल्लयग्गामो २४ ॥ ३२५ ।। ॥१४६॥ पत्रयाणामपि स्खमानामेतदेव फलं-पत् भगवते भिक्षा दरोति । ततो जनपद एवं श्रुत्वा श्रेयांसमभिनन्य स्वरषानं गतः, श्रेयांसोऽपि भगवान् | वत्र स्थिता मतिलम्भिता तानि चरणानि मा पादराक्रमिषमिति भक्त्यातच रत्नमय पीठं करोति, विसावं चायति, विशेषेण च पर्वदेशकालेऽविश्वा भुके, लोकः15 पृच्छति-किमेतदिति, श्रेयांसो भणति-आदिकरमण्डलमिति, ततो लोकेनापि यत्र यन्न भगवान स्थितः तत्र तत्र पीठं कृतं, तत्र कालेनादित्यपी संजातमिति. &CAN मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३२६], भाष्यं [३१...], (४०) एएसु पढमभिक्खा लद्धाओ जिणवरेहि सब्वेहिं । दिण्णाउ जेहि पदम तेसिं नामाणि वोच्छामि ॥ ३२६ ॥ सिज्जंस १बंभदत्ते २सुरेंददत्ते ३ य इंददते ४ अ । पउमे ५ अ सोमदेवे ६ महिंद ७ तह सोमदत्ते ८ अ ।। ३२७ ।। पुस्से ९ पुणब्वसू १० पुणनंद ११ सुनंदे १२ जए १३ अ विजए १४ य । तत्तो अ धम्मसीहे १५ सुमित्त १६ तह बग्घसीहे १७ अ॥ ३२८ ॥ अपराजिअ १८ विस्ससेणे १९ वीसइमे होइ बंभदत्ते २० अ। दिपणे २१ वरदिपणे २२ पुण धणे २३ पहले २४ अ बोडब्धे ।। ३२९ ॥ एए कयंजलिउडा भसीबहुमाणमुफलेसागा । तत्काल पहट्ठमणा पडिलाभेसुं जिणवरिंदे ॥ ३३०॥ सव्वहिपि जिणेहिं जहि लहाओ पढमभिक्खाओ । तहिअं वसुहाराओ वुढाओ पुष्फवुट्टीओ ॥ ३३१॥3 अद्धत्तेरसकोडी उकोसा तत्थ होइ बसुहारा । अहत्तेरस लक्खा जहपिणआ होइ वसुहारा ॥ ३३२ ।। सब्वर्सिपि जिणाणं जेहिं दिण्णाउ पढमभिक्खाओ। ते पयणुपिजदोसा दिव्ववरपरकमा जाया ॥ ३३३ ॥ | कई तेणेव भवेण निब्बुआ सव्वकम्मउम्मुक्का । अन्ने तइअभवेणं सिजिझस्संति जिणसगासे ॥ ३३४ ॥ अक्षरगमनिका तु क्रियाऽध्याहारतः कार्या, यथा---गजपुरं नगरमासीत् , श्रेयांसस्तत्र राजा, तेनेचरसदानं भगवन्तम JABERatinintamational mlanmiorary.om मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३३४], भाष्यं [३१...], S आवश्यक A हारिभद्री यवृत्तिः | विभागः१ % ॥१४७॥ A धिकृत्य प्रवर्तितं, तत्रार्धत्रयोदशहिरण्यकोटीपरिमाणा वसुधारा निपतिता, पीठमिति-श्रेयांसेन यत्र भगवता पारित तत्र तत्पादयोर्मा कश्चिदाक्रमणं करिष्यतीतिभक्त्या रलमयं पीठं कारितं । गुरुपूजेति-तदर्चनं चक्रे इति । अत्रान्तरे भगवतः तक्षशिलातले गमनं बभूव, भगवत्प्रवृत्तिनियुक्तपुरुर्बाहुबलेनिवेदनं च कृतमित्यक्षरगमनिका । एवमन्यासामपि संग्रहगाथाना स्वबुद्ध्या गमनिका कार्येति गाथार्थः ॥ ३२२-३३४ ॥ इदानी कथानकशेषम् बाहुबलिणा चिंति-कल्ले सबिड्डीए वंदिस्सामित्ति निग्गतो पभाए, सामी गतो विहरमाणो, अदिखे अद्धिति काऊण जहिं भगवं वुत्थो तत्थ धम्मचक्क चिंधं कारियं, तं सवरयणामयं जोयणपरिमंडलं पंचजोयणूसियदंडं । सामीवि बहलीयर्डचइलाजोणगविसयाइएसु निरुवसग्गं विहरतो विणीअणगरीए उज्जाणत्थाणं पुरिमतालं नगरं संपत्तो । तत्थ य उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे सगङमुहं नाम उजाणं, तंमि णिग्गोहपायवस्स हेटा अहमेणं भत्तेणं पुषण्हदेसकाले फरगुणबहुलेकारसीए उत्तरासाढणक्खत्ते पवज्जादिवसाओ आरम्भ वाससहस्संमि अतीते भगवओ तिहुअणेकबंधवस्स दिवमणतं केवलनाणमुप्पण्णंति । अमुमेवार्थमुपसंहरन् गाथाषदमाह SASSES ॥१४७॥ बाहुबलिना चिन्तितम्-कल्ये सर्वया बन्दिष्य इति निर्गतः प्रभाते, स्वामी गतः विदरन् , अदृष्ट्वाऽचतिं कृत्वा यत्र भगवानुपितस्तत्र धर्मचक्र [ चिकारितं, नत, सर्वरत्नमय योजनपरिमण्डलं पापोजनोचित दण्ड । स्वाम्पपि बहल्यडम्बहलायोनकविषयादिकेषु निरुपसर्ग बिहरन् विनीतनगर्या स्थानस्थानं पुरिमतार्क नगरं संप्राप्तः । तत्र व उत्तरपूर्वदिग्भागे शकटमुखं नाम उचानं, तस्मिन् न्यग्रोधपादपखाधः अष्टमेन भकेन पूर्वाह्नदेशकाले फाल्गुनकृष्णैकादश्यां उत्तराषाढानक्षत्रे प्रमज्यादिवसादारभ्य वर्षसहनेऽतीते भगवतत्रिभुवनैकबान्धवख दिव्यमनन्तं केवलज्ञानमुपनमिति । मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा -], निर्युक्ति: [ ३३५], भाष्यं [३१...], कलं सविडीए पूएमहदडु धम्मचक्कं तु । विहरह सहस्समेगं छउमत्थो भारहे वासे ॥ ३३५ ॥ बहलीअडंबइल्ला जोण गविसओ सुवण्णभूमी अ । आहिंडिआ भगवआ उसभेण तवं चरंतेणं ॥ ३३६ ॥ बहली अ जोणगा पल्हगा य जे भगवया समणुसिद्धा । अन्ने य मिच्छजाई ते तइआ भइया जाया ॥ ३३७ ॥ | तित्थयराणं पढमो उसभरिसी विहरिओ निरुषसग्गो । अट्ठावओ णगवरो अग्ग (घ) भूमी जिणवरस्स ||३३८ || छउमत्थष्परिआओ वाससहस्सं तभो पुरिमताले । णग्गोहस्स व हेडा उप्पण्णं केवलं नाणं ॥ ३३९ ॥ फग्गुणबहुले एकारसीद अह अहमेण भन्तेणं । उप्पण्णंमि अनंते महत्वया पंच पण्णव ॥ ३४० ॥ आसां भावार्थः सुगम एव, नवरम् अनुरूपक्रियाऽध्याहारः कार्यः, यथा कलं - प्रत्यूषसि सर्वर्ध्या पूजयामि भगवन्तम्- आदिकर्त्तारं अहमिति - आत्मनिर्देशः, अदृष्ट्वा भगवन्तं धर्मचक्रं तु चकारेत्यादि गाथापट्टाक्षरार्थः ।। ३३५-३४० ॥ | महाव्रतानि पञ्च प्रज्ञापयतीत्युक्तं, तानि च त्रिदशकृतसमवसरणावस्थित एव, तथा चाहउप्पण्णमि अणते नाणे जरमरणविप्प मुक्कस्स । तो देवदाणविंदा करिंति महिमं जिविंदस्स ।। ३४१ ॥ गमनिका - उत्पन्ने-घातिकर्मचतुष्टयक्षयात् संजाते अनन्ते ज्ञाने केवल इत्यर्थः, जरा-बयोहानिलक्षणा मरणं-प्रतीतं जरामरणाभ्यां विप्रमुक्त इति समासः तस्य, विप्रमुक्तबद्विप्रमुक्त इति, ततो देवदानवेन्द्राः कुर्वन्ति महिमां - ज्ञानपूजां जिनवरेन्द्रस्य । देवेन्द्रग्रहणात् वैमानिकज्योतिष्कग्रहः, दानवेन्द्रग्रहणात् भवनवासिव्यन्तरेन्द्रग्रहणं । सर्वतीर्थकराणां च For Fasten www.ncbrary.or मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [४०] मूलसूत्र [०१] "आवश्यक" मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति ~ 305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४१], भाष्यं [३१...], आवश्यक- बालक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ % ॥१४८ ME% देवा अवस्थितानि नखलोमानि कुर्वन्ति, भगवतस्तु कनकाबदाते शरीरे जटा एवाजनरेखा इव राजन्त्य उपलभ्य घृता इति गाथार्थः ॥ ३४१ ॥ इदानीमुक्तानुक्तार्थसंग्रहपरां संग्रहगाथामाह|उजाणपुरिमताले पुरी(इ) विणीआइ तत्व नाणवरं । चक्कुप्पांया य भरहे निवेअणं चेव दोण्हपि ॥ ३४२ ॥ | गमनिका-उद्यानं च तत्पुरिमतालं च उद्यानपुरिमतालं तस्मिन् , पूर्वी विनीतायां तत्र ज्ञानवरं भगवत उत्पन्नमिति वाक्यशेषः । तथा तस्मिन्नेवाहनि भरतस्य नृपतेरायुधशालायां चकोत्पादश्च बभूव । 'भरहे निवेअर्ण चेव दोण्हपि' त्ति भरताय निवेदनं च द्वयोरपि-ज्ञानरलचकरलयोः तन्नियुक्तपुरुषैः कृतमित्यध्याहार इति गाथार्थः ।। ३४२ ॥ अत्रान्तरे | भरतश्चिन्तयामास-पूजा तावडूयोरपि कार्या, कस्य प्रथमं कर्तुं युज्यते ? किं चक्ररत्नस्य उत तातस्येति, तत्रतापंमि पूइए चक पूइ पूअणारिहो ताओ । इहलोइअं तु चकं परलोअसुहावहो ताओ ॥ ३४३ ॥ गमनिका-'ताते'-त्रैलोक्यगुरी पूजिते सति चक्र पूजितमेव, तत्पूजानिवन्धनत्वाचकस्य । तथा पूजामर्हतीति पूजाई तातो वत्तेते, देवेन्द्रादिनुतत्वात्। तथा इह लोके भवं चैहलौकिकं तु चक्रं, तुरेवकारार्थः, स चावधारणे, किमवधारयति? ऐहिकमेव |चक्र, सांसारिकसुखहेतुत्वात् । परलोके सुखावहः परलोकसुखावहस्तातः, शिवसुखहेतुत्वाद् इति गाथार्थः ॥ ३४३॥ तस्मात् | "तिष्ठतु तावच्चक, तातस्य पूजा कर्तुं युज्यते' इति संप्रधार्य तत्पूजाकरणसंदेशव्यापतो बभूव । इदानीं कथानकम् ॥१४८॥ * पापाभो य (स्यात्) + आइहवरसालाए उप्पणं चारयण भरहस्स । जक्यसहस्सपरिखुदं सवरयणामयं पकं ॥1॥ (म.पा.) मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र - [४०], मूलसूत्र - [०१] "आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचित वृत्ति : ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक” - मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [–], मूलं [−/गाथा - ], निर्युक्ति: [ ३४३], भाष्यं [३१...], भरहो सबिडीए भगवंतं बंदिवं पयट्टो, मरुदेवीसामिणी य भगवंते पवइए भरहरजसिरिं पासिऊण भणियाइआ-मम पुत्तस्स एरिसी रज्जसिरी आसि, संपयं सो खुहापिवासापरिगओ नग्गओ हिंडइति उपेयं करियाइआ भरहस्त तित्थकरविभूई वर्णेतरसवि न पत्तिजियाइआ, पुत्तसोगेण य से किल शामलं चक्खुं जायं रुयंतीए, तो भरहेण गच्छंतेण विष्णत्ता-अम्मो ! एहि, जेण भगवओ विभूई दंसेमि । ताहे भरहो हत्थिखंधे पुरओ काऊण निग्गओ, समवसरणदेसे य गयणमंडलं सुरसमूहेण विमाणारुदेणोत्तरंतेण विरायंतधयवडं पहयदेवदुंदुहिनिनायपूरियदिसामंडलं पासिऊण भरहो भणियाइओ-पेच्छ जइ एरिसी रिद्धी मम कोडिसयसहस्सभागेणवि, ततो तीए भगवओ छत्ताइच्छत्तं पासंतीए चेव केवलमुप्पण्णं । अण्णे भणति भगवओ धम्मकहासद्दं सुणंतीए । तक्कालं च से खुट्टमाउगं, ततो सिद्धा, इह भारहोसपिणीए पढमसिद्धोत्तिकाऊण देवेहिं पूजा कया, सरीरं च खीरोदे छूढं, भगवं च समवसरणमज्झत्थो सदेवमणुया सुराए १ भरतः सर्वय भगवन्तं वन्दितुं प्रवृतः महदेवीस्वामिनी च भगवति प्रमजिते भरतराज्यश्रियं दृष्ट्रा भणितवती-मम पुत्रस्येशी राज्य श्रीरभवत्, साम्प्रतं स पिपासापरिगतः ननो हिण्डत इत्युद्वेगं कृतवती, भरते तीर्थकरविभूतिं वर्णयत्यपि न प्रतीतवती पुत्रशोकेन च तस्याः किल ध्यामलं प्रक्षुजतं हत्याः, तदा भरतेन गच्छता विज्ञता अन्य युहि वेन भगवतो विभूतिं दर्शयामि तदा भरतः हस्तिस्कन्धे पुरतः कृत्वा निर्गतः, समवसरणदेशे च गगनमण्डलं सुरसमूहेन विमानारूडेनोतरता विराजध्वजपटं प्रहतदेवदुन्दुभिनिनादापूरितदिग्मण्डलं दृड्डा भरतो मणितवान् पश्य यदि ईटशी डिम कोटीश तसहस्रभागेनापि ततस्तथा भगवतश्छत्रातिच्छत्रं पश्यन्त्या एव केवलमुत्पन्नं । अन्ये भणन्ति-भगवतो धर्मकथाशब्दं शृण्वन्त्याः | तरकालं च तस्याः त्रुटितमायुः ततः सिद्धा, इह भरतावसर्पिभ्यां प्रथमसिद्ध इतिकृत्वा देवैः पूजा कृता, शरीरं च क्षीरोदे क्षिप्तं, भगवन समवसरणमध्यस्थः सदेवमनुजासुरायां Education intemational For P www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः मरुदेव्या: केवलज्ञान एवं निर्वाणस्य प्रबन्ध: ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४३], भाष्यं [३१...], आवश्यक ॥१४९॥ प्रत सूत्रांक द सभाए धर्म कहेइ, तत्थ उसभसेणो नाम भरहपुत्तो पुववद्धगणहरनामगोत्तो जायसंवेगो पबइओ, बंभी य पवइआ, हारिभद्री भरहो सावगो जाओ, सुंदरी पचयंती भरहेण इत्थीरयणं भविस्सइत्ति निरुद्धा, सावि साविआ जाया, एस चउबिहो सम- यवृत्तिः णसंघो । ते य ताबसा भगवओ नाणमुप्पण्णंति कच्छमहाकच्छवजा भगवओ सगासमागंतूण भवणवइयाणमंतरजोइ-18 |विभागः१ सियवेमाणियदेवाइण्णं परिसं दहण भगवओ सगासे पबइआ, इत्थ समोसरणे मरीइमाइआ बहवे युमारा पपइआ । साम्प्रतमभिहितार्थसंग्रहपरमिदं गाथाचतुष्टयमाह|सह मरुदेवाइ निग्गओ कहणं पब्बल उसभसेणस्स।भीमरीइदिक्खा सुंदरी ओरोहसुअदिक्खा ॥३४४॥18 [पंच य पुससयाई भरहस्स य सत्त नसूअसयाई । सयराह पब्बइआ तंमि कुमारा समोसरणे ॥ ३४५ ॥ भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी अ । सविड्डिइ सपरिसा कासी नाणुप्पयामहिम ॥३४६॥ दडूण कीरमाणिं महिमं देवेहि खत्तिओ मरिई । सम्मत्तलद्धबुद्धी धम्मं सोऊण पब्वइओ ॥ ३४७ ।। व्याख्या-कथन' धर्मकथा परिगृह्यते, मरुदेव्यै भगवद्विभूतिकथनं वा । तथा 'नप्तशतानीति' पौत्रकशतानि । तथा अनुक्रम |॥१४९॥ सभायां धर्म कथयति, सन्त भयमसेनो नाम भरतपुत्रा पूर्वपद्धगणधरनामगोत्रः जातसंवेगः प्रबजिता, पाणी प्रजिता, भरतः श्रावको | जातः, सुन्दरी अनजन्ती भरतेन खीरवं भविष्यतीति निरुद्धा, सापि श्राविका ज्ञाता, एष चतुर्विधः श्रमगसर से च तापसा भगवतो शानमुपनमिति कच्छमहाकच्छवर्जा भगवतः सकाशामागत्य भवनपतिप्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकदेवाकीणों पर्पदं रहा भगवतः सकाशे प्रनजिताः, अत्र समवसरणे मरीच्यादिका बहवः कुमाराः प्रबजिता: JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], सयराहमिति' देशीवचनं युगपदर्थाभिधायकं त्वरितार्थाभिधायकं वेति । 'मरीचिरिति' जातमात्रो मरीचीन्मुक्तवान् इत्यतो मरीचिमान मरीचिः, अभेदोपचारान्मतुब्लोपादेति, अस्य च प्रकृतोपयोगित्वात्कुमारसामान्याभिधाने सत्यपि भेदेनोपन्यासः । सम्यक्त्वेन लब्धा-पाप्ता बुद्धिर्यस्य स तथाविधः । शेष सुगममिति गाथाचतुष्टयार्थः ॥ ३४४-३४७ ॥ कथानकम्-भरहोऽवि भगवओ पूअं काऊण चक्करयणस्स अठ्ठाहिआमहिमं करियाइओ, निवत्ताए अष्टाहिआए तं, |चक्करयणं पुहिमुहं पहावि, भरहो सबबलेण तमणुगच्छिआइओ, तं जोयणं गंतूण ठिअं, ततो सा जोअणसंखा जाआ, पुषेण य मागहतित्थं पाविऊण अहमभत्तोसितो रहेण समुद्दमवगाहित्ता चक्कगाभिं जाव, ततो णामकं सरं विसजियाइओ, सो दुवालसजोयणाणि गंतूण मागहतित्थकुमारस्स भवणे पडिओ, सो तं दद्दूण परिकुविओ भणइ-केस णं |एस अपस्थिअपस्थिए ?, अह नामयं पासइ, नायं जहा उप्पण्णो चक्कवट्टित्ति, सरं चूडामणिं च घेत्तूण उवडिओ भणतिअहं ते पुषिल्लो अंतेवालो, ताहे तस्स अठ्ठाहिमहामहिमं करेइ । एवं एएण कमेण दाहिणेण वरदाम, अवरेण पभासं, ताहे | T भरतोऽपि भगवतः पूजा कृत्या पाकरणस्याष्टाहिकामहिमानं कृतवान् , निवृत्तेऽष्टाहिके तचकरवं पूर्वाभिमुखं प्रधावितं, भरतः सर्वदलेन तदनुगतवान् तद्योजनं गत्वा स्थितं, ततः सा योजनसंख्या जाता, पूर्वयां व मागधतीर्थ प्राप्पाष्टमभक्कोपितो रथेन समुद्रमवगाह्य चकनाभि यावत्, ततो नामाई वारं | विसृष्टवान्, स द्वादमा योजनानि गत्या मागधतीर्थकुमारस्य भवने पतितः, स तं दृष्ट्वा परिकुपितो भणति-क पुषोभार्थितमार्थक: ?, अध नाम पश्यति, ज्ञातं | यथा अपनवकवीति, शारं पूधामणि च गृहीत्वोपस्थितो भणति-अहं तव पौरस्त्योऽन्तपालः, तदा तथाट दिकं महामहिमान करोति । एवमेतेन क्रमेण | | दक्षिणस्यां वरदामं अपरयां प्रभास, तदा * मरीचिवान्. + पुवामुई. 4 wwwjandiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भारतस्य दिग्विजय-साधनार्थे गमनं ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], आवश्यक ॥१५०॥ प्रत सूत्रांक सिंधुदेविं ओयवेइ, ततो वेयङगिरिकुमारं देवं, ततो तमिसगुहाए कयमालयं, तओ सुसेणो अद्धबलेण दाहिणिलं सिंधु- हारिभद्री[निक्खूड ओयवेइ, ततो सुसेणो तिमिसगुहं समुग्घाडेइ, ततो तिमिसगुहाए मणिरयणेण उज्जो काऊण उभओ पासिं|.यवृत्तिः पंचधणुसयायामविक्खंभाणि एगूणपण्णांसं मंडलाणि आलिहमाणे उज्जोअकरणा उम्मुग्गनिमुग्गाओ अ संकमेण विभागः१ उत्तरिऊण निग्गओ तिमिसगुहाओ, आवडिअं चिलातेहिं सम जुद्धं, ते पराजिआ मेहमुहे नाम कुमारे कुलदेवए |आराहेति, ते सत्तरत्तिं वास वासेंति, भरहोऽवि चम्मरयणे खंधावारं ठवेऊण उपरि छत्तरयणं ठवेइ, मणिरयणं छत्तरयणस्स पडिच्छभा"ए ठवेति, ततोपभिइ लोगेण अंडसंभवं जगं पणीअंति, तं ब्रह्माण्डपुराणं, तत्थ पुवण्हे साली दुप्पइ, अवरण्हे जिम्मइ, एवं सत्त दिवसे अच्छति, ततो मेहमुहा आभिओगिएहिं धाडिआ, चिलाया तेसिं वयणेण | उवणया भरहस्स, ततो चुलहिमवंतगिरिकुमारं देवं ओयवेति, तत्थ बावत्तरि जोयणाणि सरो उवरिहुत्तो गच्छति, 9 -06 CORRECENESS -2 अनुक्रम सिन्धुदेवीमुपैति, ततो वैताम्यगिरि कुमार देषं, ततसमिश्नगुहायाः कृतमाल्यं, ततः सुपेणोऽर्धयलेन दाक्षिणात्य सिन्धुभिकूट उपति, ततः सुपेणतमिश्रगुहां समुद्घाटयति, ततस्तमिसगुदायां मणिरलेनोद्योतं कृत्वोभवपाश्चैवोः पनधनुःशखायामविष्कम्भाणि मन्डलाणि एकोनपञ्चाशतमालिसन् वद्योतकरणादुम्मन्नानिमने च संक्रमेणोत्तीर्य निर्गतस्तमिखगृहाथाः, आपतितं किरातैः समं युद्ध, ते पराजिताः भेषमुखान् नाम कुमारान् कुलदेवता आराधयन्ति, ते | सप्तरात्र वर्षा वर्षयन्ति, भरतोऽपि चर्मरखे स्कन्धाचार स्थापयित्वोपरि उबरवं खापयति. मनिरतं उपस्वस प्रतीक्ष्यभागे ( मध्ये दण्डख) स्थापयति, तत:प्रकृति लोकेनाण्डप्रभवं जगवाणीतमिति, तत्स म पूर्वावशालय उपन्त, अपराजिस्यते एवं सादिनानि तिष्ठति, ततो मेघमुखा आभियोगिकिनिघाटिता, किरातानेपां वचनेनोपनता भरताय, ततः क्षुल्लकहिमवद्भिरिकुमारं देवमुपैति, तत्र द्वाससति योजनानि शर उपरि गच्छति, * गुहमुग्धा D+ .पणासमंजमायो.सत्तरच.पद्विविधा. अच्छति. 62-64 ॥१५ ॥ marwjanmitrayog पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], ततो उसभकूडए नाम लिहइ, ततो सुसेणो उत्तरिलं सिंधुनिक्खूडं ओयवेइ, ततो भरहो गंगं ओयवेइ, पच्छा सेणावती | उत्तरिलं गंगानिक्खूड ओयवेइ, भरहोऽवि गंगाए सद्धिं वाससहस्सं भोगे भुंजइ,ततो वेयढे पबएणमिविणमिहिं समं बारस |संवच्छराणि जुद्धं, ते पराजिआ समाणा विणमी इत्थीरयणं णमी रयणाणि गहाय उवहिया, पच्छा खंडगप्पवायगुहाए नट्टमालयं देवं ओयवेइ, ततो खंडगप्पवायगुहाए नीति, गंगाकूलए नव निहओ उवागांच्छंति, पच्छा दक्खिणिलं गंगानिक्खूड सेणावई ओयवेइ, एतेण कमेण सट्ठीए वाससहस्सेहिं भारह वासं अभिजिणिऊण अतिगओ विणीयं रायहाणिति, वारस वासाणि महारायाभिसेओ, जाहे बारस वासाणि महारायाभिसेओ वत्तो राइणो विसजिआ ताहे निययवग्गं | सरिउमारतो, ताहे दाइजति सबे निइल्लिआ, एवं परिवाडीए सुंदरी दाइआ, सा पंडुलंगितमुही, सा य जदिवसं रुद्धा तद्दिवसमारद्धा आयंबिलाणि करेति, तं पासित्ता रुहो ते कुटुंबिए भणइ-किं मम नस्थि भोयणं, जं एसा एरिसी तत अपभकूटे नाम लिखति, सत: सुषेण औतरीय सिन्धुनिष्कूटं उपयाति, ततो भरतो गलामुपयाति, पारसेनापतिरोत्तरं ममानिष्फूटमुपयाति, भरतोऽपि गङ्गया साध वर्षसहयं भोगान्भुनक्ति, ततो वैताकये पर्वते नमिविनमिभ्यां समं द्वादश संवत्सराणि युद्ध, तौ पराजितौ सन्तौ विनमिः बीरवं नमिः रवानि गृहीत्वोपस्थिती, पश्चात्खण्डमपालगुहाया नृत्यमाल्य देवमुपयाति, ततः खण्डमपातगुहाया नियोति, गङ्गाकूले नव निधय उपागच्छन्ति, पश्चात् दाक्षिगाय गङ्गानिकूट सेनापतिरुपयाति, एतेन क्रमेण षष्टया वर्षसहौः भारत वर्ष अभिजियातिगतो विनीता राजधानीमिति, हावका वर्षाणि महाराजाभिषेको, यदा द्वादश वर्षाणि महाराजाभिषेको वृतो राजानो विमृष्टाः सदा निजकवर्ग यार्तुमारब्धः, तदा दर्शन्ते सर्वे निजकाः, एवं परिपाव्या सुन्दरी दर्शिता, सा पण्डराङ्गितमुखी, सा च यदिवसे रुवातमादिवसादारभ्याचाम्लानि करोति, तारा रुष्टस्तान् कौटुम्विकान् भणति-किं मम नास्ति भोजनं, यदेषा इंशी * नामयं. + गंगाकूलेण. गच्छतित्ति महारला. KARE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | भगवत् पुत्री सुन्दरी एवं तस्या चारित्रराग: ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥ १५१ ॥ [भाग-२८] “आवश्यक मूलसूत्र- १/१ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-] निर्बुक्ति: [ ३४७], आष्यं [३१]...]. - रुवेण जाया, विज्जा वा नत्थि ?, तेहिं सिद्धं जहा-आयंबिलाणि करोति, ताहे तस्स तरसोवरिं पयणुओ रागो जाओ, सा य भणिया-जइ रुच्चइ तो मए समं भोगे भुंजाहि, णवि तो पञ्चयाहित्ति, ताहे पाएसु पडिया विसज्जिया पाइआ । अन्नया भरहो तेसिं भाउयाणं दूयं पड़वेइ जहा मम रज्जं आँयणह, ते भति-अम्हवि रज्जं ताएण दिण्णं, तुज्झवि, एतु ताव ताओ पुच्छिजिहित्ति, जं भणिहिति तं करिहामो । ते णं समए णं भगवं अद्वावयमागओ विहरमाणो, एत्थ सधे समोसरिआ कुमारा, ताहे भणति-तुम्भेहिं दिण्णाई रज्जाई हरति भाया, ता किं करोमो ? किं जुज्झामो जयाहु आया णामो?, ताहे सामी भोगेसु निवत्तावेमाणो तेसिं धम्मं कहेइ-न मुत्तिसमं सुहमत्थि, ताहे इंगालदाहकदितं कहेइ - जहा एगो इंगालदाहओ एवं भाणं पाणिअस्स भरेक णं गओ, तं तेण उदगं णिङ्कविअं, उवरिं आइचो पासे अग्गी पुणो परिस्समो दारुगाणि कुतरस, घरं गतो पाणं पीअं, मुच्छिओ सुमिणं पासइ, एवं असम्भावपट्टवणाए कुवतलागनदिदहसमुद्दा यसबे Education national ते 5 रूपेण जाता, वैद्य या न सन्ति ? तैः शिष्टं यथाऽऽचाम्लानि करोति तदा तस्य तस्या उपरि प्रतनुको रागो जातः सा च भणिता-पदि रोचते तदा मया समं भोगान् मुद्रक्ष्य, मैव तर्हि प्रबल, तदा पादयोः पतिता विसृा प्रत्रजिता । अम्वदा भरतस्तेषां भ्रातॄणां दूतान् मेषपति यथा मम राज्यमाज्ञापयत, भगन्ति अस्माकमपि राज्यं तातेन दत्तं तथापि, एतु तावत्तातः पृण्डवते, यमिति तत्करिष्यामः । तस्मिन्समये भगवानष्टापद्मागतो विहरन्, अन्त्र सर्वे समवसृताः कुमाराः सदा भणन्ति - युष्माभितानि राज्यानि हरति आता, तकिं कुर्मः ? किं युध्यामह उताहो आज्ञप्यामहे, तदा स्वामी भोगेभ्यो नव यमानः तेभ्यो धर्म कथयति-न मुक्तिसमं सुखमस्ति तदाऽङ्गारदा हकदृष्टान्तं कथयति-यथैकोऽङ्गारदादक एक भाजनं पानीयस्य नृत्वा गतः तत्सेनोदकं निष्ठापितं, उपरि आदित्यः पार्श्वयोरभिः पुनः परिश्रमो दारूणि कुतः गृहं गतः पानं पीतं मूच्छितः स्वमं पश्यति, एवमसद्धावस्थापनवा कूपतटाकनदीइदसमुदाय सर्वे * •याह + अट्ठावदे समागतो. भरहो ता ताओ करेमि भरे. 8 कोणतस्व. For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~ 312~ ॥ १५१ ॥ www.incibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३४७], भाष्यं [३१...], (४०) पीओं, न य छि ताहे एगंमि जिण्णकूवे तणपूलिअंगहाय उस्सिचइ, जे पडियसेस तं जीहाए लिहइ । एवं तुभेहिपि अणु सद्दफरिसा सबसिद्धे अणुभूआ, तहषि ततिं न गया । एवं वियालि अं नाम अझयणं । भासइ 'संबुझह किं न बुज्झहा ?' एवं अहाणउए वित्तेहिं अहाणउइ कुमारा पबइआ, कोइ पढमिल्लुएग संबुद्धो कोइ |वितिएण कोइ ततिएण जाहे ते पषइआ। अमुमेवार्थमुपसंहरमाहमागहमाई विजयो सुंदरिपब्वज बारसभिसेओ। आणवण भाउगाणं समुसरणे पुच्छ दिलुतो ॥ ३४८ ॥ गमनिका-मागधमादौ यस्य स मागधादिः, कोऽसौ ! विजयो भरतेन कृत इति । पुनरागतेन सुन्दर्यवरोधस्थिता दृष्टा, क्षीणत्वान्मुक्ता चेति । द्वादश वर्षाणि अभिषेकः कृतो भरताय, आज्ञापनं भ्राणां चकार, तेऽपि च समवसरणे भगवन्तं पृष्टवन्तः, भगवता चाङ्गारदाहकदृष्टान्तो गदित इति गाथाक्षरार्थः ॥ ३४८ ॥ इदानीं कथानकशेपम्-कुमारेसु पषइएसु भरहेण बाहुबलिणो दूओ पेसिओ, सो ते पवइए सोउं आसुरुत्तो, ते बाला तुमए पवाविआ, अहं पुण जुद्धसमत्थो,४ -2 4 0- पीताः, नच उिद्यते तृष्णा, तवैकसिजीर्णकूपे तृणपूलं गृहीत्योखिमति, यापतितशेष तजिदया लेति । एवं युष्माभिरपि अनुसरा सर्वलोके शब्दस्पर्शाः सर्वार्थलियेऽनुभूतासयापि तृप्तिं न गताः, एवं वैदारिकं नामाध्ययन भाषते, संध्यत किं न बुध्यत! एवमटनवत्या रिटनवतिः कुमारा: प्रनजिताः कश्चित् प्रथमेन संबुदः कश्चिद्वितीयेन कश्चित्तृतीयेन, यदा ते प्रमजिताः।२ कुमारेषु प्रमजितेषु भरतेन चाहुगलिने दूतः प्रेषितः, स तान्प्रनजितान् श्रुत्वा कुद्धः, ते बालास्त्वया प्रवाजिताः, भई पुनः युद्धसमर्थः * पीआ य. + परिजइ. मागहवरदामपभास सिंधुखंडप्पवायतमिसगुहा । सहि वाससहस्से, ओअवि भागो भरहो ॥१॥(प्र०व्या०). Hirwainiorary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: बाहुबले: कथानकं ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H आवश्यक ॥१५२॥ [भाग-२८] “आवश्यक मूलसूत्र- १/१ (मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) ” - अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-] निर्बुक्ति: [ ३४८], आष्यं [३१]...]. ता एहि, किंवा मर्ममि अजिए भरहे तुमे जिंअंति । ततो सघबलेण दोवि मिलिआ देते, बाहुबलिणा भणिअं - किं अणवराहिणा लोगेण मारिएणं ?, तुमं च अहं च दुवेऽवि जुज्झामो, एवं होउत्ति, तेसिं पढमं दिडिजुद्धं जायं, तत्थ भरहो पराजिओ, पच्छा वायाए, तत्थवि भरहो पराइओ, एवं बाहाजुद्वेण पराजिओ मुहिजुद्धेऽवि पराजिओ दंडजुद्धेऽवि जिष्यमाणो भरहो चिंतियाइओ-किं एसेव चक्की ! जेणाहं दुबलोत्ति, तस्स एवं चिंतंतस्स देवयाए आउहं दिष्णं चक्करयणं, ताहे सो तेणं गहिएणं पहाविओ । इओ बाहुबलिणा दिट्ठो गहियदिवरयणो आगओ, सगबं चिंतियं चाणेण-सममेएण भंजा मि एयं किं पुण तुच्छाण कामभोगाण कारणा भट्ठनियपइण्णं एयं मम बाबाइडं न जुतं, सोहणं मे भाउगेहिं अणुट्ठिअं, अहमवि तमणुहामित्ति चिंतिऊण भणियं चाणेण धिसि घिसि पुरिसत्तणं ते अहम्मजुद्धपवत्तस्स, अलं मे भोगेहिं, गेण्हाहि रज्जं पदयामित्ति, मुकदंडो पवइओ, भरहेण बाहुबलिस्स पुत्तो रज्जे ठविओ । बाहुबली विचिते - तायसमीवे भाउणो मे 1 3 तत् एहि, किंवा मध्यजिते भरते त्वया जितमिति । ततः सर्ववडेन द्वावपि मिलितौ देशान्ते, बाहुबलिना भणितं किमनपराधिना लोकेन मारितेन ?, त्वं चाहूं च द्वावेव युध्यावद्दे, एवं भवत्विति तयोः प्रथमं दृष्टियुद्धं जातं, तत्र भरतः पराजितः, पञ्चाद्वाचा तत्रापि भरतः पराजितः, एवं बाहुयुद्धेन पराजितो मुष्टियुद्धेऽपि पराजितो दण्डवेऽपि जीवमानो भरतश्चिन्तितवान् किमेष एव चक्रवत्ती १ येनाहं दुर्बल इति तस्यैवं चिन्तयतो देवतया आयुधं दतं चकर, तदा स तद् गृहीत्वा प्रभावितः। इतो बाहुबलिना दृष्टः गृहीतदिव्यरन आगतः, सगर्व चिन्तितं चानेन सममेतेन भनयेनं किं पुनस्तुच्छानां कामभोगानां कारणाष्टपतिज्ञमेनं व्यापादवितुं न युक्त, शोभनं मे भ्रातृभिरनुष्ठितं अहमपि तदनुतिष्ठामि इति चिन्तयित्वा भणितं चानेन धिग्धि पुरुषायं तेऽधर्मयुद्धप्रवृत्तख मे भ ज्यं प्रजामीति, मुकदण्डः प्रमजितः भरतेन बाहुबलिनः पुत्रो राज्ये स्थापितः । बाहुबली विचिन्तयति तातसमीपे आतरो मे वि नेदम्. जामि. ttmational For Funny हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः १ ~314~ ॥१५२॥ www.jancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३४८], भाष्यं [३१...], 196 प्रत सूत्रांक लहुयरा समुप्पा ते किह निरइसओ पिच्छामिा, एत्धेय ताव अच्छामि जाव केवलनाणं समुप्पण्णति, एवं सो पडिम ठिओ. मा. पर, जाणइ सामी तहवि न पट्टवेइ, अमूढलक्खा तित्थयरा, ताहे संवच्छरं अच्छा काउस्स-181 ग्गेणं, बल्लीविताणेण वढिओ, पाया य धम्मीयनिग्गएहिं भयंगेहि, पुण्णे य संवच्छरे भगवं बंभीसुंदरीओ पट्टवेइ, पुर्वि है। न पट्टविआ, जेण तया सम्मं न पडिवाइत्ति, ताहिं सो मग्गंतीहिं वल्लीतणवेदिओ दिट्ठो, परूदेणं महलेणं कुचणंति, तं | दण वंदिओ, इमं च भणियं-तिाओ आणवेइ-न किर हत्थिविलग्गस्स केवलनाणं समुप्पज्जइत्ति भणिऊणं गयाओ, ताहे पचिंतितो कहिं एत्थ हत्थी, ताओ अ अलियं न भणति, ततो चिंततेण णायं-जहा माणहत्यित्ति, को य मम माणो?, ४ वञ्चामि भगवतं वदामि ते य साहुणोत्ति पादे उक्खित्ते केवलनाणं समुप्पण्णं, ताहे गंतूण केवलिपरिसाए ठिओ । ताहे भर-17 लाहोऽवि रज भुंजइ । मरी ईवि सामाइयादि एकारस अंगाणि अहिन्जिओ। साम्प्रतमभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथासप्तकमाह-18 लघुतराः समुपमशानातिशयाः, तान् पार्थ निरतिशयः पश्यामि', अत्रैव तावतिहामि पावकेवल ज्ञानं समुत्पामिति (समुषवत इति), एवं सx प्रतिमां स्थितः, मानपर्वतशिखरे, जानाति स्वामी तथापि न प्रस्थापयति, अमूडवक्ष्यास्तीर्थ कराः, तदा संपरसरं तिति कायोत्सर्गेण, बलीबितानेन वेष्टितः,14 पादौ च वल्मीकनिर्गत जी, पूर्णेच संवासरे भगवान् माहीसुन्दयाँ प्रस्थापयति, पूर्व न प्रस्थापिते, येन तदा सम्बन प्रतिपचत इति, ताभ्यां मार्गय तीभ्यां स बल्लीतृणवेष्टितो इष्टः, अरुवेन महता उर्चेनेति, तं दृष्ट्वा वन्दितः, इदं च भणितम्-तात आज्ञापयति-न किल हस्तिबिलास्य केवलज्ञानं समुत्पयत. चिम्तितमारब्धवान) कान हसी, तातचालीक म भगति, ततचिन्तयता ज्ञात-पथा मानो इम्तीति, कब मम मानः बजामि भगवन्त (पति) वन्दे तांश्च साधूनिति पादे वरिक्षसे केवलज्ञानं समुत्पलं, तदा गरवा केवकिपर्षदि स्थितः । तदा भरतोऽपि राज्यं भुनक्ति। मरीचिरपि । सामाविकादीन्येकादशानाम्बधीतवान्, पढविआमो. + पडिवनिहित्ति. जेम! तामी. किल. नाचिन्तितो. अनुक्रम BE 9 69 Swjanmorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३४९], भाष्यं [३२], T༔ ༔ Tཤྩ བླ आवश्यक- |बाहुबलिकोवकरणं निवेअणं चक्कि देवया कहणं । नाहम्मेणं जुज्झे दिक्खा पडिमा पइण्णा य ।। ३४९॥ हारिभद्रीपढम दिट्ठीजुद्धं वायाजुद्धं तहेव बाहाहिं । मुट्ठीहि अ दंडेहि अ सव्वस्थवि जिप्पए भरहो ॥ ३२॥ यवृत्तिः ॥१५॥ विभागः१ सो एच जिप्पमाणो विहुरो अह नरवई विचिंतेइ । किं मन्नि एस चक्की ? जह दाणि दुचलो अयं ॥३३॥ संवच्छरेण धूअं अमूढलक्खो उ पेसए अरिहा । हत्थीओ ओयरत्ति अ वुत्ते चिन्ता पए नाणं ॥ ३४ ॥ | उप्पण्णनाणरयणो तिण्णपइपणो जिणस्स पामूले । गंतुं तित्थं नमिउं केवलिपरिसाइ आसीणो ॥ ३५ ॥ काऊण एगछतं भरहोऽवि अ भुंजए विउलभोए। मरिईवि सामिपासे विहरइ तवसंजमसमग्गो ॥३६॥ सामाइअमाईअं इकारसमाउ जाच अंगाउ। उज्जुत्तो भत्तिगतो अहि जिओ सो गुरुसगासे ॥ ३७॥ (भाष्यम्) | आसामभिहितार्थानामपि असंमोहार्थमक्षरगमनिका प्रदश्यते-भरतसंदेशाकर्णने सति बाहुबलिनः कोपकरण, तन्निनवेदनं चक्रवर्तिभरताय दूतेन कृतं, 'देवयत्ति' युद्धे जीयमानेन भरतेन किमयं चक्रवर्ती न त्वमिति चिन्तिते देवता आगतेति, 'कहणंति' बाहुबलिना परिणामदारुणान् भोगान् पोलोच्य कथनं कृतं-अलं मम राज्येनेति, तथा चाह-नाध-5 मिण युध्यामीति, दीक्षा तेन गृहीता, अनुत्पन्नज्ञानः कथमहं ज्यायान् लघीयसो द्रक्ष्यामीत्यभिसंधानात् प्रतिमा अङ्गीकृता प्रतिज्ञा च कृता-नास्मादनुत्पन्नज्ञानो यास्यामीति नियुक्तिगाथा, शेषास्तु भाष्यगाथाः ॥ ३४९॥ | ॥१५॥ *ताहे चक्र प्रक्षरमणमि । बाहुबलिया व भनिभं घिरधु रजस्स तो तुम चिंतेह य सो मझ सहोरा पुनदिक्षिया | नाणी । अयं केवल पहिमं ॥२॥(प्र. अश्या०) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [३४९], भाष्यं [३७], तयोश्च भरत मं दृष्टियुद्धं पुनर्वाग्युद्धं तथैव बाहुभ्यां मुष्टिभिश्च दण्डैश्च, 'सर्वत्रापि' सर्वेषु युद्धेषु जीयते भरतः ॥ स एवं विधुरोऽथ नरपतिर्विचिन्तितवान् किं मन्ये एष चक्रवत्तीं ? यथेदानीं दुर्बलोऽहमिति । कायोत्सर्गावस्थिते भगवति बाहुबलिनि संवत्सरेण 'धूतां' दुहितरं अमूढलक्षस्तु प्रेषितवान् 'अर्हन्' आदितीर्थकर, 'हस्तिनः अवतर' इति चोके चिन्ता तस्य जाता, यामीति संप्रधार्य 'पदे' इति पादोरक्षेपे ज्ञानमुत्पन्नमिति ॥ उत्पन्नज्ञानरत्नस्तीर्णप्रतिज्ञो जिनस्य पादमूले के लिए पदं गत्वा तीर्थं नत्वा आसीनः ॥ अत्रान्तरे कृत्वा एकच्छत्रं भुवनमिति वाक्यशेषः, भरतोऽपि च भुङ्क्ते विपुलभोगान् । मरीचिरपि स्वामिपार्श्वे विहरति तपःसंयम समग्रः ॥ स च सामायिकादिक मेकादशमङ्गं यावत् उद्युक्तः क्रियायां भक्तिगतो भगवति श्रुते वा, अधीतवान् स गुरुसकाश इत्युपन्यस्तगाथार्थः ॥ ३२-३७ ॥ अह अण्णया कयाई गिम्हे उन्हेण परिगयसरीरो । अण्हाणएण चइओ इमं कुलिंगं विचिंते ॥ ३५० ॥ गमनिका -- 'अर्थ' इत्यानन्तयें 'कदाचिद्' एकस्मिन्काले ग्रीष्मे उष्णेन परिगतशरीरः 'अस्नानेनेति' अस्नानपरीपण त्याजितः संयमात् 'एतत्कुलिङ्ग' वक्ष्यमाणं विचिन्तयतीति गाथार्थः ॥ ३५० ॥ मेरुगिरीसमभारे न हुमि समत्थो मुहुत्तमवि वोढुं । सामण्णए गुणे गुणरहिओ संसारमणुकखी ॥ ३५१ ॥ गमनिका - मेरुगिरिणा समो भारो येषां ते तथाविधास्तान् नैव समर्थो मुहूर्त्तमपि वोढुं कान्?, श्रमणानामेते श्रामणाः, # दुहितरौ + पदो० परिषदं तत्तीर्थ Education intemational Forest Use Only www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र -[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः मरीचि कथानकं ~ 317 ~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३५१], भाष्यं [३७...], आवश्यक- ॥१५४॥ प्रत सूत्रांक के ते?, गुणाः विशिष्टक्षान्त्यादयस्तान् , कुतो, यतो धृत्यादिगुणरहितोऽहं संसारानुकाङ्गीति गाथार्थः ॥ ३५१॥ ततश्च हारिभद्रीकिं मम युज्यते , गृहस्थत्वं तावदनुचितं, श्रमणगुणानुपालनमप्यशक्यं यवृत्तिः एवमणुचितंतस्स तस्स निअगा मई समुप्पण्णा । लद्धो मए उवाओ जाया मे सासपा बुखी ॥५२॥ 8 व्याख्या--'एवं' उक्तेन प्रकारेण अनुचिन्तयतस्तस्य निजा मतिः समुत्पन्ना, न परोपदेशेन, स ह्येवं चिन्तयामासलब्धो मया वर्तमानकालोचितः खलूपायः, जाता मम शाश्वता बुद्धिः, शाश्वतेति आकालिकी प्रायो निरवधजीविकाहेतुखात् इति गाथार्थः ॥ ३५२ ॥ यदुक्तं 'इदं कुलिङ्गं अचिन्तयत्' तत्प्रदर्शनायाहसमणा तिदंडविरया भगवंतो निहुअसंकुइअअंगा। अजिइंदिअदंडस्स उ होउ तिथं महं चिंधं ॥ ३५३ ॥ गमनिका-श्रमणाः मनोवाकायलक्षणत्रिदण्डविरताः, ऐश्वर्यादिभगयोगानगवन्तः, निभृतानि-अन्तःकरणाशुभव्यापारचिन्तनपरित्यागात् संकुचितानि-अशुभकायव्यापारपरित्यागात् अङ्गानि येषां ते तथोच्यन्ते, अहं तु नैवंविधो यतोऽत:-'अजितेन्दियेत्यादि' न जितानि इन्द्रियाणि-चक्षुरादीनि दण्डाश्च-मनोवाकायलक्षणा येन स तथोच्यते, तस्य अजितेन्द्रियदण्डस्य तु भवतु त्रिदण्डं मम चिहं, अविस्मरणार्थमिति गाथार्थः ॥ ३५३ ॥ |॥१५॥ लोइंदिअमुंडा न अहयं खुरेण ससिहो अ । थूलगपाणिवहाओ वेरमणं मे सया होउ ॥ ३५४ ॥ गमनिका यो भवति-द्रव्यतो भावतश्च, तत्रैते श्रमणा द्रव्यभावमुण्डाः, कथम् ।, लोचेन इन्द्रियैश्च मुण्डाः। अनुक्रम सकल JAMEain Swatanniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३५४], भाष्यं [३७...], संयतास्तु, अहं तो यतः अतः अलं द्रव्यमुण्डतया, तस्मादहं क्षुरेण मुण्डः सशिखश्च भवामि, तथा सर्वप्रा|णिवधविरताः अहं तु नैवंविधो यतः अतः स्थूलप्राणातिपाताविरमणं मे सदा भवत्विति गाथार्थः ॥३५४॥ निकिंचणा य सभा अकिंचणा मज्म किंचणं होउ । सीलसुगंधा समणा अहयं सीलेण दुग्गंधो ॥३५५ ॥ गमनिका-निर्गतं किंचन-हिरण्यादि येभ्यस्ते निष्किञ्चनाश्च श्रमणाः तथा अविद्यमानं किञ्चनम्-अल्पमपि येषां तेऽकिञ्चना-जिनकल्पिकादयः, अहं तु नैवंविधो यतः अतो मार्गाविस्मृत्यर्थं मम किश्चनं भवतु पवित्रिकादि। तथा शीलेन शोभनो गन्धो येषां ते तथाविधाः, अहं तु शीलेन दुर्गन्धः अतो गन्धचन्दनग्रहणं मे युक्तमिति | गाथार्थः ॥ ३५५ ॥ तथाववगयमोहा समणा मोहच्छपणस्स छत्तयं होउ । अणुवाहणा य समणा ममं तु उवाहणा होन्तु ।। ३५६॥ गमनिका-व्यपगतो मोहो येषां ते व्यपगतमोहाः श्रमणाः, अंहं तु नेत्थं यतः अतो मोहाच्छादितस्य छन्त्रकं भवतु।। | अनुपानकाच श्रमणाः मम चोपानही भवत इति गाथाक्षरार्थः ॥ ३५६ ॥ तथा सुकंवरा य समणा मिरंचरा मज्म धाउरत्ताई । हुंतु इमे वत्थाई अरिहो मि कसायकलुसमई ॥ ३५७ ।। गमनिका-शुक्लान्यम्बराणि येषां ते शुक्लाम्बराः श्रमणाः, तथा निर्गतमम्बरं (अन्धानम् ४०००) येषां ते निरम्बरा *कानं. + जन अ०. ना जि. गाथार्थः. JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३५८], भाष्यं [३७...], आवश्यक ॥१५५। T༔ ༔ Tཤྩ, ཟླ་ जिनकल्पिकादयः 'मञ्झन्ति' मम च, एते श्रमणा इत्यनेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणब्युदासः, धातुरक्तानि भवन्तु मम वस्त्राणि हारिभद्रीकिमिति ?, 'अहोऽस्मि' योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः कलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथार्थः॥३५७॥तथा- यवृत्ति वजंतऽवज्जभीरू बहुजीवसमाउलं जलारंभ । होउ मम परिमिएणं जलेण पहाणं च पिअणं च ॥ ३५८॥ विभागः१ गमनिका-वर्जयन्ति अवधभीरवो बहुजीवसमाकुलं जलारम्भ, तत्रैव वनस्पतेरवस्थानात् , अवयं-पापं, अहं तु नेत्थं यतः अतो भवतु मे परिमितेन जलेन स्नानं च पानं चेति गाथार्थः ॥ ३५८॥ एवं सो रुइअमई मिअगमहविगप्पि इमं लिंगं । तडितहेउसुजुत्तं पारिवलं पवत्तेह ॥ ३५॥ | गमनिका-स्थूलमूषावादादिनिवृत्तः, एवमसौ रुचिता मतिर्यस्य असौ रुचितमतिः, अतो निजमत्या विकल्पितं निज मतिविकल्पितं, इर्द लिङ्ग, किंविशिष्टम् -तस्य हितास्तद्धिताः तद्धिताश्च ते हेतवश्चेति समासः, तैः सुषु युक्त-श्लिष्ट-IN |मित्यर्थः, परिव्राजामिदं पारिवज्यं, प्रवर्त्तयति, शास्त्रकारवचनात् वर्तमाननिर्देशोऽप्यविरुद्ध एव, पाठान्तरं वा 'पारिवज्ज है ततो कासी' ति पारिवाज-तंतः कृतवानिति गाधार्थः ॥ ३५९ ॥ भगवता च सह विजहार, तं च साधुमध्ये विजातीयं | दृष्ट्वा कौतुकाल्लोकः पृष्टवान् , तथा चाह| अह तं पागडरूवं दई पुच्छेइ बहुजणो धम्मं । कहा जईणं तो सो विआलणे तस्स परिकहणा ॥ ३६॥ | ॥१५५॥ गमनिका रूप-विजातीयत्वात् दृष्ट्वा पृच्छति बहुर्जनो धर्म, कथयति यतीनां संबन्धिभूतं क्षान्त्यादियतो रुचि * JABERDurati पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३६१], भाष्यं [३७...], (४०) लक्षणं ततोऽस भणन्ति-यद्ययं श्रेष्ठो भवता किं नाङ्गीकृत इति विचारणे तस्य परि-समन्तात् कथना परिकथना 'श्रम विरता इत्यादिलक्षणा', पृच्छतीति त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थत्वादेवं निर्देशा, पाठान्तरं वा 'अह तं पागडरूवं दह पुग्छिसु बहुजणो धम्मं । कहतीसु जतीणं सो वियालणे तस्स परिकहणा ॥१॥ प्रवर्तत इतिY गाथार्थः ॥ ३६॥ 'धम्मकहाअक्खित्ते उपट्टिए दे भगवओसीसे । गामनगराइआई विहरद सो सामिणा सद्धिं ॥ ३६१ ॥ गमनिका-धर्मकथाक्षिप्तान उपस्थितान् ददाति भगवतः शिष्यान, ग्रामनगरादीन् विहरति स स्वामिना साफ, भावार्थः सुगमः, इत्थं निर्देशप्रयोजनं पूर्ववत्, ग्रन्थकारवचनत्वाद्वाऽदोष इति गाथार्थः ॥ ३६१ ॥ अन्यदा भगवान् विहरमाणोऽष्टापदमनुप्राप्तवान् , तत्र च समवस्तः, भरतोऽपि भ्रातृप्रवण्याकर्णनात् संजातमनस्तापोऽधृति चक्रे, कदाचिदोगान् दीयमानान् पुनरपि गृह्णन्तीत्यालोच्य भगवत्समीपं चागम्य निमन्त्रयश्च तान् भोगैः निराकृतश्च चिन्तयामासएतेषामेवेदानी परित्यक्तसङ्गाना आहारदानेनापि तावद्धर्मानुष्ठान करोमीति पञ्चभिः शकटशतैर्विचित्रमाहारमानाय्योपनिमन्त्र्य आधाकर्माहतं च न कल्पते यतीनामिति प्रतिषिद्धः अकृताकारितेनान्नेन निमन्त्रितवान् , राजपिण्डोऽप्यकल्पनीय इति प्रतिषिद्धः सर्वप्रकारैरहं भगवता परित्यक्त इति सुतरामुन्माथितो बभूव, तमुन्माथितं विज्ञाय देवराट् तच्छोकोपशान्तये भगवन्तमवग्रहं पप्रच्छ-कतिविधोऽवग्रह इति, भगवानाह-पञ्चविधोऽवग्रहः, तद्यथा-देवेन्द्रावग्रहः राजा *प्रतिषिदे. SAR %25% T %25 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३६१], भाष्यं [३७...], आवश्यक ॥१५६॥ वग्रहः गृहपत्यवग्रहः सागारिकावग्रहः साधर्मिकावग्रहश्च, राजा-भरताधिपो गृह्यते, गृहपतिः-माण्डलिको राजा, सागा- हारिभद्रीरिका-शय्यातरः, साधर्मिकः-संयत इति, एतेषां चोत्तरोत्तरेण पूर्वः पूर्वो बाधितो द्रष्टव्य इति, यथा राजाऽवग्रहेणायात विभागः१ देवेन्द्रावग्रहो बाधित इत्यादि प्ररूपिते देवराडाह-भगवन् ! य एते श्रमणा मदीयावग्रहे विहरन्ति, तेषां मयाऽवग्रहोड-131 नुज्ञात इत्येवमभिधाय अभिवन्ध च भगवन्तं तस्थौ, भरतोऽचिन्तयत्-अहमपि स्वमवग्रहमनुजानामीति, एतावताऽपि नः कृतार्थता भवतु, भगवत्समीपेऽनुज्ञातावग्रहः शक्र पृष्टवान्-भक्तपानमिदमानीतं अनेन किं कार्यमिति, देवराडाहगुणोत्तरान् पूजयस्व, सोऽचिन्तयत्-के मम साधुव्यतिरेकेण जात्यादिभिरुत्तराः, पोलोचयता ज्ञात-श्रावका विरता-15 विरतत्वाद्गुणोत्तराः, तेभ्यो दत्तमिति । पुनर्भरतो देवेन्द्ररूपं भास्वरमाकृतिमद् दृष्ट्वा पृष्टवान्-किं यूयमेवंभूतेन रूपेण देवलोके तिष्ठत उत नेति, देवराज आह-नेति, तत् मानुषैर्द्रष्टुमपि न पार्यते, भास्वरत्वात् , पुनरम्याद भरतः तस्याकृति-17 मात्रेणापि अस्माकं कौतुकं, तन्निदयंतां, देवराज आह-खमुत्तमपुरुष इतिकृत्वा एकमङ्गावयवं दर्शयामीत्यभिधाय योग्यालङ्कारविभूषितां अङ्गुलीमत्यन्तभास्वरामदर्शयत् , दृष्ट्वा च तां भरतोऽतीव मुमुदे, शकाली च स्थापयित्वा महिमामष्टाहिका चक्रे, ततःप्रभृति शक्रोत्सवप्रवृत्त इति । भरतश्च श्रावकानाद्वय उक्तवान् भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं | भोक्तव्यं, कृष्यादि च न कार्य, स्वाध्यायादिपरैरासितव्यं, भुक्के च मदीयगृहद्वारासन्नव्यवस्थितैः वक्तव्यम्-जितो भवान् । इमनलाविति पादिक इमनि रूपं, बाहुस्यात् अनुक्कामद्देः, तथा च हजनिभ्यामिमश्चिति सूत्रणेमन , दीर्घादिरूषप्रस्थत एच. "खाण मह.. +मावे JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३६१], भाष्यं [३७...], (४०) वर्धते भयं तस्म, हनेति, ते तथैव कृतवन्तः, भरतश्च रतिसागरावगाढत्वात् प्रमत्तत्वात् तच्छन्दाकर्णनोत्तर कालमेव केनाहं जित आः ज्ञातं-कपायैः, तेभ्य एव च वर्धते भयमित्यालोचनापूर्व संवेगं यातवान् इति । अत्रा-18 ५न्तरे लोकबाहुल्यात् सूपकाराः पाकं कर्तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्त:-नेह ज्ञायते-कः श्रावकः को वा नेति, लोकस्य प्रचुरत्वात्, आह भरत:-पृच्छापूर्वकं देयमिति । ततस्तान् पृष्टवन्तस्ते-को भवान् , श्रावकः, श्रावकाणां कति | व्रतानि ?, स आह-श्रावकाणां न सन्ति व्रतानि, किन्त्वस्माकं पञ्चाणुव्रतानि, कति शिक्षाब्रतानि ?, ते उक्तवन्तः-सप्त |शिक्षाब्रतानि, य एवंभूतास्ते राज्ञो निवेदिताः, स च काकिणीरलेन तान् लाञ्छितवान्, पुनः षण्मासेन येऽन्ये भवन्ति तानपि लाञ्छितवान् , षण्मासकालानुयोगं कृतवान् , एवं ब्राह्मणाः संजाता इति । ते च स्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तः, ते च प्रवज्यां चक्रुः, परीपहभीरवस्तु श्रावका एवासन्निति इयं च भरतराज्यस्थितिः, आदित्ययशसस्तु काकिणीरत्नं नासीत्, सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान् , महायशःप्रभृतयस्तु केचन रूप्यमयानि, केचन विचित्रपट्टसूत्रमयानि, है इत्येवं यज्ञोपवीतप्रसिद्धिः । अमुमेवा) समोसरणेत्यादिगाथया प्रतिपादयतिसमुसरण भत्स उग्गह अंगुलि झय सक्क सावया अहिआ।जेआ बहुइ कागिणिलंछण अणुसज्जणा अट्ठ॥३६२॥10 गमनिका-समवसरण भगवतोऽष्टापदे खल्वासीत् , भक्तं भरतेनानीतं, तदग्रहणोन्माथिते सति भरते देवेशो भगवन्तमवग्रहं पृष्टवान, भगवांश्च तस्मै प्रतिपादितवान् । 'अंगुलि झय'त्ति भरतनृपतिना देवलोकनिवासिरूपपृच्छायां कृतायां इन्द्रेण अङ्गुलिः प्रदर्शिता, तत एवारभ्य ध्वजोत्सवः प्रवृत्तः । 'सकत्ति भरतनृपतिना किमनेनाहारेण कार्यमिति पृष्टः T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३६३], भाष्यं [३७...], भावश्यक- शक्रोऽभिहितवान्-त्वदधिकेभ्यो दीयतामिति, पर्यालोचयता ज्ञात-श्रावका अधिका इति । 'जेया वहुइत्ति' प्राकृतशैल्या सारभूद्रा यवृत्तिः 'जितो भवान् वर्धते भयं' भुक्तोत्तरकालं ते उक्तवन्तः, 'कागिणिलंछणत्ति' प्रचुरत्वात् काकिणीरलेन लाञ्छनं-चिहं तेषांक ॥१५७॥ विभागः१ कृतमासीत् 'अणुसजणा अढ'त्ति अष्टी पुरुषान् यावदयं धर्मः प्रवृत्तः, अष्टौ वा तीर्थकरान यावदिति गाथार्थः ॥ तत ऊध्र्व मिथ्यात्वमुपगता इति ॥ ३६२॥ |राया आइञ्चजसो महाजसे अइचले अ बलभद्दे । बलविरिए कत्तविरिए जलविरिए दंडविरिए य ।। ३६३ ॥ भावार्थ: सुगम एवेति गाथार्थः ।। एएहिं अद्धभरहं सपलं भुतं सिरेण धरिओ अ। पवरो जिणिंदमउडो सेसेहिं न चाइओ बोहुँ॥३६४ ॥ II गमनिका-एभिरधभरतं सकलं भुक्त, शिरसा धृतश्च, कोऽसावित्याह-अवरो जिनेन्द्रमुकुटो देवेन्द्रोपनीतः शेषैः नरपतिभिः न शकितो वोढुं, महाप्रमाणत्वादिति गाथार्थः ॥ ३६४ ।। अस्सावगपडिसेहो छढे छठे अ मासि अणुओगो । कालेण य मिच्छत्तं जिणंतरे साहुवोच्छेओ ॥ ३६५ ।। गमनिका-अश्रावकाणां प्रतिषेधः कृतः, ऊर्ध्वमपि षष्ठे षष्ठे मासे अनुयोगो बभूव, अनुयोगः-परीक्षा, कालेन गच्छता ॥१५७॥ मिथ्यात्वमुपगताः, कदा!, नवमजिनान्तरे, किमिति !, यतस्तत्र साधुव्यवच्छेद आसीदिति गाथार्थः ॥ ३६५ ॥ साम्प्रतमुक्तानुक्तार्थप्रतिपादनाय संग्रहगाथामाह *प्रथमो. 2 - १ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३६६], भाष्यं [३७...], माहणाणं १ ए कासी अ२ पुच्छ ३ निब्वाणं ४। कुछ ५ थूभ ६ जिणहरे ७ कविलो ८ भरहस्स दिक्खा य ९॥३६६ ॥ (मूलदारगाहा) CI गमनिका-दान च माहनानां लोको दातुं प्रवृत्तो, भरतपूजितत्वात्। 'वेदे कासी अत्ति आर्यान् वेदान् कृतवांश्च भरत एव, तत्स्वाध्यायनिमित्तमिति, तीर्थकृत्स्तुतिरूपान् श्रावकधर्मप्रतिपादकांश्च, अनार्यास्तु पश्चात् सुलसायाज्ञवल्क्यादिभिः। कृता इति । 'पुच्छत्ति भरतो भगवन्तमष्टापदसमवसृतमेव पृष्टवान्-यादग्भूता यूयं एवंविधास्तीर्थकृतः कियन्तः खल्विह | भविष्यन्तीत्यादि । 'णिबाण'ति भगवानष्टापदे निर्वाणं प्राप्तः, देवैरग्निकुण्डानि कृतानि, स्तूपाः कृताः, जिनगृहं भरत|श्चकार, कपिलो मरीचिसकाशे निष्कान्तः, भरतस्य दीक्षा च संवृत्तेति समुदायार्थः ॥ ३५६ ॥ अवयवार्थ उच्यतेआद्यावयवद्वयं व्याख्यातमेव, पृच्छावयवार्थं तु 'पुणरवि' गाथेत्यादिना आहपुणरवि अ समोसरणे पुच्छीअजिणं तु चकिणो भरहे। अप्पुट्ठो अ दसारे तित्थयरो को इहं भरहे ॥३६७॥ ___गमनिका-पुनरपिच समवसरणे पृष्टांश्च जिनं तु चक्रवर्तिनः भरतः, चक्रवर्तिन इत्युपलक्षणं तीर्धकृतश्चेति, भरतविशेषणं वा चक्री भरतस्तीर्थकरादीन् पृष्टवान् । पाठान्तरं वा 'पुच्छीय जिणे य चकिणो भरहे' पृष्टवान् जिनान् चक्रवर्तिनश्च भरतः, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, भगवानपि तान् कथितवान् , तथा अपृष्टश्च दशारान् , तथा तीर्थकरः क इह भरतेऽस्यां परिपदीति पृष्टवान् , भगवानपि मरीचिं कथितवान् इति गाथाक्षरार्थः ॥२६७ ॥ तथा चाह नियुक्तिकार: * चक्रवर्ती पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३६८], भाष्यं [३७...], आवश्यकजिणचफिदसाराणं वण्ण १ पमाणाई २ नाम ३ गोत्ताई ४। हारिभद्री आऊ ५ पुर ६ माइ ७ पियरो ८ परियाय ९ गई च १० साही ॥ ३३८ । (दारगाहा) यवृत्तिः ॥१५८॥ [विभाग १ गमनिका-जिनचक्रिदशाराणां' जिनचक्रवर्तिवासुदेवानामित्यर्थः, वर्णप्रमाणानि तथा नामगोत्राणि तथा आयु:| पुराणि मातापितरी यथासंभवं पर्यायं गतिं च, चशब्दात् जिनानामन्तराणि च शिष्टवान् इति द्वारगाथासमासाथैः ॥३६८॥ अवयवार्थं तु वक्ष्यामः । तत्र प्रश्नावयवमधिकृत्य तावदाह भाष्यकार: जारिसया लोअगुरू भरहे वासंमि केवली तुम्भे । एरिसया कइ अन्ने ताया! होहिंति तित्धयरा ॥ ३८॥ (भाष्यम् ) व्याख्या-यादृशा लोकगुरवो भारते वर्षे केवलिनो यूयं, ईदृशाः कियन्तोऽन्येऽत्रैव तात ! भविष्यन्ति तीर्थकराः। ४ इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ अह भणइ जिणवरिंदो भरहे वासंमि जारिसो अहयं । एरिसया तेवीसं अण्णे होहिंति तित्थयरा ।। ३६९ ॥ 1 निगदसिद्धा॥ ते चैवंहोही अजिओ संभव अभिणदण सुमइ सुप्पभ मुपासो।ससि पुष्पदंत सीअल सिजंसो वासुपुज्जो अ॥३७०॥3 |॥१५८॥ दाविमलमणतइ धम्मो संती कुंथू अरो अ मल्ली अ। मुणिमुन्वय नमि नेमी पासो तह बहमाणो अ॥ ३७१॥ * भरते. +चे मासे. 964 -% पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [३८], xिk भावार्थः सुगम एवार द अह भणइ नरवरिंदो भरहे वासंमि जारिसो उ अहं । तारिसया कइ अण्णे ताया होहिंति रायाणो? ॥३७२॥ गमनिका-अथ भणति नरवरेन्द्रो-भरतः, भारते वर्षे यादृशस्त्वहं तादृशाः कल्यन्ये तात! भविष्यन्ति राजान द इति गाथार्थः ॥ ३७२ ॥ अह भणइ जिणवरिंदो जारिसओ तं नरिंदसलो । एरिसया एकारस अण्णे होहिं ति रायाणो ॥ ३७३ ॥ गमनिका-अथ भणति जिनवरेन्द्रो-यादृशस्त्वं नरेन्द्र शार्दूलः, शार्दूला-सिंहपर्यायः, ईदशा एकादश अन्ये भविप्यन्ति राजानः ॥ ३७३ ॥ ते चैते-- होही सगरो मघवं सर्णकुमारो य रायसहूलो । संती कुंथू अ अरो होई सुभूमो य कोरब्बो ॥ ३७४ ।। णवमो अ महापउमो हरिसेणो चेव रायसङ्कलो । जयनामो अ नरवई वारसमो वंभदत्तो अ ॥ ३७५ ॥ 8गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । यदुक्तम् 'अपृष्टश्च दशारान् कथितवान् तदभिधित्सुराहि भाष्यकार:होहिंति वासुदेवा नव अण्णे नीलपीअकोसिज्जा। हलमुसलचक्कजोही सतालगरुडज्क्षया दो दो॥३९॥ (भाष्यम्) व्याख्या-भविष्यन्ति वासुदेवा नव बलदेवाश्चानुक्का अप्यत्र तत्सहचरत्वात् द्रष्टव्याः, यतो वक्ष्यति 'सतालगरुडझया दो दो', ते च सर्वे बलदेववासुदेवा यथासंख्यं नीलानि च पीतानि च कौशेयानि-वस्त्राणि येषां ते तथाविधाः, ___ * तादृशः + हवइ. सियाह. -C4XX T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | वासुदेव-बलदेव आदीनाम् नाम-निर्देश: ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३७५], भाष्यं [३९], आवश्यक ॥१५॥ 8 यथासंख्यमेव हलमुशलचक्रयोधिनः-हलमशलयोधिनो बलदेवाः चक्रयोधिनो वासदेवा इति, सह तालगरुडध्वजाभ्यां हारिभद्री यवृत्तिः वर्त्तन्त इति सतालगरुडध्वजाः । एते च भवन्तो युगपद् द्वौ द्वौ भविष्यतः, बलदेववासुदेवाविति गाथार्थः ॥ वासुदेवा-13 विभागः१ भिधानप्रतिपादनायाह तिविहू अ १ दिवि २ सयंभु ३ पुरिसुत्तमे ४ पुरिससीहे ५।। तह पुरिसपुंडरीए ६ दत्ते ७ नारायणे ८ कण्हे ९॥ ४० ॥ (भाष्यम् ) निगदसिद्धा ॥ अधुना बलदेवानामभिधानप्रतिपादनायाह अयले १ विजए २ भद्दे ३, सुप्पभे ४ अ सुदंसणे ५। आणंदे ६णंदणे पउमे ८, रामे ९ आवि अपच्छिमे॥४१॥ (भाष्यम्) निगदसिद्धा ॥ वासुदेवशत्रुप्रतिपादनायाह आसग्गीवे १ तारय २ मेरय ३ महकेढवे ४ निसुंभे ५ । बलि ६ पहराए ७ तह रावणे ८ अ नवमे जरासिंधू ॥४२॥ (भाष्यम्) निगदसिद्धा एव ॥ ॥१५९॥ एए खलु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सन्चे अचकजोही सब्वे अहया सचक्केहिं ॥४३॥(भाष्यम्) गमनिका-एते खाद प्रतिशत्रवः-एते एव खलुशब्दस्य अवधारणार्थत्वात् नान्ये, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवाना, सर्व चक्र पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३७५], भाष्यं [४३], (४०) - योधिनः, सर्वे च हताः स्वचकैरिति-यतस्तान्येव तच्चक्राणि वासुदेवव्यापत्तये क्षिप्तानि तैः, पुण्योदयात् वासुदेवं प्रणम्य 8 तानेव व्यापादयन्ति इति गाथार्थः ॥ एवं तावत्यागुपन्यस्तगाथायां वर्णादिद्वारोपन्यासं परित्यज्य असंमोहा-11 VIमुत्क्रमेण जिनादीनां नामदारमुक्त, पारभविकं चैषां वर्णनामनगरमातृपितृपुरादिकं प्रथमानुयोगतोऽवसेयं, इह विस्तर-1 भयानोक्कमिति ॥ साम्प्रतं तीर्थकरवर्णप्रतिपादनायाहपउमाभवासुपुज्जा रत्ता ससिपुष्पदंत ससिगोरा । सुब्बयनेमी काला पासी मल्ली पियंगामा ॥ ३७६ ।। वरकणगतविअगोरा सोलस तित्थंकरा मुणेयब्वा । एसो वषणविभागो चउवीसाए जिणवराणं ॥ ३७७॥ गाथाद्वयं सूत्रसिद्धमेव ।। साम्प्रतं तीर्थकराणामेव प्रमाणाभिधित्सयाह पंचेर्व १ अपंचम २ चत्तार ३ बुह ४ तह तिग ५ चेव ।। अड्डाइजा ६ दुषिण ७ अ दिवड ८ मेगं घणुसयं ९ च ।। ३७८॥ नउई १० असीइ ११ सत्तरि १२ सट्ठी १३ पण्णास १४ होइ नायव्वा । पणयाल १५ चत्त १६ पणतीस १७ तीसा १८ पणवीस १९ वीसा २०य ॥ ३७९ ॥ पण्णरस २१ दस धणूणि य २२, नव पासो २३ सत्तरयणिओ वीरो। नामा पुब्बुत्ता खलु तित्थयराणं मुणेयव्वा ॥ ३८॥ * सभी पंचधशुस्सय पासो नव सत्तरयणिो वीरो । सेसह पंच अव य, पपणा दस पंच परिहीणा ॥1॥(प्र. सध्या०). wrwaneiorary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [३८०], भाष्यं [४३...], हारिभद्री आवश्यक ति विभागः१ ॥१६॥ एतास्तिस्रोऽपि पाठसिद्धा एव ॥ ३७८-३७९-३८० ॥ साम्प्रतं भगवतामेव गोत्राणि प्रतिपादयन्नाहमुणिसुब्वओ अ अरिहा अरिहनेमी अ गोअमसगुत्ता सेसा तित्थयरा खलु कासवगुत्ता मुणेयव्वा ॥३८१॥ निगदसिद्धा ॥ आयुष्कानि तु प्राक्प्रतिपादितान्येवेति न प्रतन्यन्ते, भगवतामेव पुरप्रतिपादनाय गाथात्रितयमाह इक्खाग भूमि १ उज्झा २ सावस्थि ३ विणिअ ४ कोसलपुरं ५ च । कोसंबी ६ वाणारसी ७ चंदाणण ८ तह य काकंदी ९॥ ३८२ ॥ भदिलपुर १० सीहपुरं ११चंपा १२ कंपिल्ल १३ उज्ज्ञ १४ रयणपुरं १५ । तिण्णेव गयपुरंमी १८ मिहिला १९ तह चेव रायगिहं २०॥ ३८३ ॥ मिहिला २१ सोरिअनयर २२ वाणारसि २३ तह य होइ कुंडपुरं। उसभाईण जिणाणं जम्मणभूमी जहासंखं ॥ ३८४ ॥ निगद सिद्धाः॥ भगवतामेव मातृप्रतिपादनायाह मरुदेवि १ विजय २ सेणा ३ सिद्धत्था ४ मंगला ५ सुसीमा ६ य । पुहवी ७ लक्खण ८ सामा ९नंदा १०विण्ह ११ जया १२ रामा १३ ॥ ३८५।। सुजसा १४ सुब्बया १५ अइरा १६, सिरी १७ देवी १८ पभावई १९ । पउमावई २० अ वप्पा २१ अ, सिव २२ वम्मा २३ तिसला २४ इअ ॥ ३८६॥ ॥१६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | भगवत: नगरी, माता, पिता आदिनाम् नाम-निर्देश: ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३८७], भाष्यं [४३...], (४०) गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव । भगवतामेव पितृप्रतिपादनायाहनाभी १जिअसत्तू २ आ, जियारी ३ संवरे ४ इअ । मेहे ५ घरे ६ पाढे ७ अ, महसेणे ८ अखत्तिए॥३८७॥ सुग्गीवे ९ दढरहे १० विण्ड ११, चसुपूजे १२ अ अखत्तिए। कयवम्मा १३ सीहसेणे १४ अ, भाणू १५ विससेणे १६ इअ ॥ ३८८।। सूरे १७ सुदंसणे १८ कुंभे १९ सुमित्तु २० विजए २१ समुदविजए २२ अ। राया अ अस्ससेणे २३ सिद्धत्थेऽविय २४ खत्तिए ॥ ३८९॥ | निगदसिद्धाः॥पयायो-गृहस्थादिपर्यायो भगवतामुक्त एव तथैव द्रष्टव्यः। साम्प्रतं भगवतामेव गतिप्रतिपादनायाहसब्वेवि गया भुक्खं जाइजरामरणबंधणविमुका । तित्थयरा भगवंतो सासयसुक्खं निरावाहं ॥३९॥ | निगदसिद्धा ॥ एवं तावत्तीर्थकरान् अङ्गीकृत्य प्रतिद्वारगाथा व्याख्याता, इदानीं चक्रवर्तिनः अङ्गीकृत्य व्याख्यायतेएतेषामपि पूर्वेभववक्तव्यतानिवद्धं यवनादि प्रथमानुयोगादवसेयं, साम्प्रतं चक्रवर्तिवर्णप्रमाणप्रतिपादनायाहसब्वेवि एगवण्णा निम्मलकणगप्पभा मुणेयब्वा । छक्खंडभरहसामी तेसि पमाणं अओ चुच्छं ।। ३९१ ॥ पंचसय १ अद्धपंचम २ बायालीसा य अधणुअं च । इगयाल धणुस्सद्धं ४ च चउत्थे पंचमे चत्ता ५॥३९२॥ पणतीसा ६ तीसा ७ पुण अट्ठावीसा ८ य वीसइ ९धणूणि। पण्णरस १० बारसेव य ११ अपच्छिमो सत्त व धणूणि १२॥ ३९३ ॥ T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [३९४], भाष्यं [४३...], आवश्यक हारिभद्री.यवृत्ति विभागा ॥१६॥ * निगदसिद्धाः ॥ नामानि प्राक्प्रतिपादितान्येव, साम्प्रतं चक्रवर्तिगोत्रप्रतिपादनायाह--- कासवगुत्ता सब्वे चउदसरयणाहिवा समक्खाया। देविंदरदिएहिं जिणेहिं जिअरागदोसेहिं ।। ३९४॥ सूत्रसिद्धा ।। साम्प्रतं चक्रवत्योयुष्कप्रतिपादनायाह चउरासीई १ यावत्तरी अ पुब्वाण सयसहस्साई२॥ पंच ३ य तिषिण अ४ एगं च ५ सयसहस्सा उ वासाणं ॥ ३९५ ।। पंचाणउइ सहस्सा ६ चउरासीई अ ७ अहमे सही८1 तीसा ९य दस १० य तिणि ११ अ अपच्छिमे सत्तवाससया १२ ॥ ३९६ ।। गाथाद्वयं पठितसिद्धम् ॥ इदानी चक्रवर्तिनां पुरप्रतिपादनायाह जम्मण विणीअ १ उज्झा २ सावत्धी ३ पंच हथिणपुरमि८। वाणारसि९ कंपिल्ले १०रायगिहे ११ चेव कंपिल्ले १२ ।। ३९७॥ निगदसिद्धा एव ।। साम्प्रतं चक्रवर्तिमातृप्रतिपादनायाह सुमंगला १ जसवई २ भद्दा ३ सहदेवि ४ अहर ५ सिरि ६ देवी ७॥ तारा ८ जाला ९ मेरा १० य वप्पगा ११ तह य चूलणी अ॥ ३९८॥ निगदसिद्धा ॥ साम्प्रतं चक्रवर्तिपितृप्रतिपादनाथाह | ॥१६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | चक्रवर्तिनां आयुः, नगरी, माता आदिनाम् नाम-निर्देश: ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [३९९], भाष्यं [४३...], उसभे १ सुमित्तविजए २ समुद्दविजए ३ अ अस्ससेणे अ ४। तह वीससेण ५ सूरे ६ सुदंसणे ७ कत्तचिरिए ८ अ ॥ ३९९ ॥ पउमुत्तरे ९ महाहरि १०विजए राया ११ तहेव बंभे १२ अ । ओसप्पिणी इमीसे पिउनामा चक्कबहीणं ।। ४००॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धमेव ॥ पर्यायः केषाश्चित् प्रथमानुयोगतोऽवसेयः, केषाश्चित् प्रत्रज्याऽभावात् न विद्यत एवेति ॥ साम्प्रतं चक्रवर्तिगतिप्रतिपादनायाहअहेच गया मोक्खं सुभुमो बंभो अ सत्तमि पुढविं । मघवं सर्णकुमारो सर्णकुमारं गया कप्पं ॥४०१॥ निगदसिद्धा ॥ एवं तावञ्चक्रवर्मिनोऽप्यधिकृत्य व्याख्याता प्रतिद्वारगाथा, इदानी वासुदेवबलदेवाङ्गीकरणतो व्याख्यायते-एतेषामपि च पूर्वभववक्तव्यतानिवद्धं च्यवनादि प्रथमानुयोगत एवावसेयं, साम्प्रतं वासुदेवादीनां वर्णप्रमाणप्रतिपादनायाहवण्णेण वासुदेवा सब्वे नीला बला य सुक्किलया। एएसि देहमाणं वुच्छामि अहाणुपुठवीए ॥ ४०२॥ पढमो धणूणसी३१ सत्तरि २ सही ३ अ पण्ण ४ पणयाला ५। अउणत्तीसं च धणू ६ छब्बीसा ७ सोलस ८ दसेव ९॥ ४०३ ॥ गाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ नामानि प्रागभिहितान्येव । साम्प्रतं वासुदेवादीनां गोत्रप्रतिपादनायाह सर%A4%94%AC ACK पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४०४], भाष्यं [४३...], आवश्यक ॥१६॥ T༔ ༔ Tཤྩ བླ बलदेववासुदेवा अड्लेव हवंति गोयमसगुत्ता । नारायणपउमा पुण कासवगुस्सा मुणेअव्वा ॥ ४०४॥ हारिभद्रीनिगदसिद्धा ॥ वासुदेवबलदेवानां यथोपन्यासमायु-प्रतिपादनायाह यवृत्तिः चउरासीई बिसत्तरि २ सहीतीसा य४ दस ५ य लक्खाई। विभागः१ पण्णटि सहस्साई ६ छप्पण्णा ७ बारसेगं च ९॥ ४०५॥ |पंचासीई १ पण्णत्तरी अ२ पण्णहि ३ पंचवण्णा ४ य । सत्तरस सयसहस्सा५पंचमए आउभं होई ॥४०६॥ पंचासीइ सहस्सा ६ पण्णट्ठी ७ तह य चेव पण्णरस ८बारस सयाई ९आउं बलदेवाणं जहासंखं ॥४०७॥8॥ निगदसिद्धाः ॥ साम्प्रतममीषामेव पुराणि प्रतिपाद्यन्ते-तत्र पोअण १ बारवइतिगं ४ अस्सपुरं ५ तह य होइ चकपुरं ६॥ बाणारसि ७रायगिहं८ अपच्छिमो जाओ महुराए ९॥४०८ ।। निगदसिद्धा ॥ एतेषां मातापितृप्रतिपादनायाह मिगावई १ उमा चेव २, पुहवी ३ सीआ य ४ अम्मया ५। लच्छीमई ६ सेसमई ७, केगमई ८ देवई ९ इअ ॥४०९॥ ॥१६॥ भ६१ सुभद्दा २ सुप्पम ३ सुदंसणा ४ विजय ५ वेजयंती ६अ। तह य जयंती ७ अपराजिआ८ य तह रोहिणी ९ चेव ॥ ४१०॥ JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | वासुदेव-बलदेवादिनां आयुः, नगरी, माता आदिनाम् नाम-निर्देश: ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४११], भाष्यं [४३...', हवह पयावह १बंभो २ रुहो ३ सोमो ४ सियो ५ महसियो ६अ। अग्गिसिहे ७ अ दसरहे ८ नवमे भणिए अवसुदेवे ९॥४११॥ निगदसिद्धाः॥ एतेषामेव पर्यायवक्तव्यतामभिधित्सुराहपरिआओ पवजाऽभावाओ नत्थि वासुदेवाणं । होइ बलाणं सो पुण पढमऽणुओगाओं णायब्वो॥ ४१२॥ निगदसिद्धा एव । एतेषामेव गति प्रतिपादयन्नाह8 एगो अ सत्तमाए पंच य छट्ठी' पंचमी एगो । एगो अ चउत्थीए कण्हो पुण तच्चपुढवीएं ।। ४१३॥ गमनिका-एकश्च सप्तम्यां पश्च च षष्ठयां पञ्चम्यामेकः एकश्च चतुर्थी कृष्णः पुनस्तृतीयपृथिव्यां यास्यति गतो वेति | सर्वत्र कियाध्याहारः कार्यः, भावार्थः स्पष्ट एव ॥ ४१३ ॥ बलदेवगतिप्रतिपिपादविषयाऽऽह *बीसभूई । पाइए २ घणदस ३ समुदत्त सेवाले ५ । पिनमित्त सलिममिले ७ पुणवसू गंगदसे ॥१॥ एवाई नामाई पुषभचे मासि बासुदेवाणं । इत्तो बकदेवाणं जहकर्म कित्तइस्त्रानि ॥ २ ॥ विरसनंदी । सुचती २४ सागरदते ३ असोभ ललिए ५ मा वाराह धणस्सेणे . अवराइन | ८ रायललिए य ॥३॥ संभून सुभद्द २ सुर्वसणे ३ असिजंस कह ५ गंगे ६ । सागर ७ समुइनामे ८ वमसेणे ९४ अपरिमे ॥ ॥ एए2 धम्मावरिमा किचीपुरिसाण वासुदेवाणं । पुवभवे आसीआ जत्थ निणाइ कासी ॥५॥ महुरा । व कणगवत्थू २ सावधी ३ पोमणं च रायगिहं ५ कावंदी ५ मिहिलावि य. वाणारसि इस्थिणपुरं च ॥ ६॥ गावी जूए संगामे इत्थी पाराइए रंगमि । भनाणुरागगुही परबडी मावगा इभ ॥७॥ महसुका पाणय संतगाउ सहसारओ अ माहिदा । बंभा सोहम्म सर्णकुमार नवमो महामुका ॥ ८॥ तिपणेवणुसरेहिं तिथणेव भवे तथा महासुखा । अवसेसा बलदवा क्षणतर बमलोगचुभा ॥९॥ (म. अव्या०). RSS JABERatin intimationa पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४१४], भाष्यं [४३...], आवश्यक ॥१६॥ प्रत सूत्रांक अढतगडा रामा एगो पुण बंभलोगकप्पंभि । उबवण्णु तओ चइ सिज्झिस्सइ भारहे वासे ॥ ४१४॥ दहारिभद्रीगमनिका-अष्ट अन्तकृतो रामाः, अन्तकृत इति ज्ञानावरणीयादिकर्मान्तकृतः, सिद्धिं गता इत्यर्थः । एकः पुनःयवृत्तिः ब्रह्मलोककल्ये उत्पत्स्यते उत्पन्नो वेति क्रिया । ततश्च ब्रह्मलोकाच्युस्खा सेत्स्यति मोक्षं यास्यति भारते वर्ष इति गाधार्थः | ॥ ४१४ ॥ आह-किमिति सर्वे वासुदेवाः खल्वधोगामिनो रामाश्चोर्ध्वगामिन इति ?, आहअणिआणकडा रामा सव्वेऽवि अ केसवा निआणकडा । उहुंगामी रामा केसव सब्वे अहोगामी ॥ ४१५॥ | गमनिका-अनिदानकृतो रामाः, सर्वे अपि च केशवा निदानकृतः, ऊर्ध्वगामिनो रामाः, केशवाः सर्वे अधोगामिनः ।। भावार्थः सुगमो, नवरं प्राकृतशैल्या पूर्वापरनिपातः 'अनिदानकृता रामाः' इति, अन्यथा अकृतनिदाना रामा इति द्रष्टव्यं, केशवास्तु कृतनिदाना इति गाथार्थः ॥४१५|| एवं तावदधिकृतद्वारगाथा 'जिणचक्किदसाराणमित्यादिलक्षणा प्रपश्वतो व्याख्यातेति । साम्प्रतं यश्चक्रवर्ती वासुदेवो वा यस्मिन् जिने जिनान्तरे वाऽऽसीत् स प्रतिपाद्यत इत्यनेन संबन्धेन WIजिनान्तरागमनं, तत्रापि तावत्प्रसङ्गत एव कालतो जिनान्तराणि निर्दिश्यन्ते उसमो वरवसभगई ततिअसमापच्छिमंमि कालंमि | उप्पण्णो पढमजिणो भरहपिआ भारहे वासे ॥१॥ ॥१६॥ * सबबबु तत्य भोए, भोजु अयरोवमा दस व ॥ १॥ तत्तो म चहत्तार्ण इहेब उस्सप्पिणीइ भरह मि । भवसिद्धिमा अभयवं सिनिस्सह काहतिथंमि ॥ (साधों पाठान्तररूपा). अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: जिनानाम् अन्तराणि प्रदर्श्यते ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४१५], भाष्यं [४३...], पण्णासा लक्खेहिं कोडीणं सागराण उसभाओ। उप्पण्णो अजिअजिणो ततिओ तीसाएँ लक्खेहिं ॥२॥ जिणवसहसंभवाओ दसहि उ लक्खेहि अयरकोडीणं । अभिनंदणो उ भगवं एवइकालेण उप्पपणो ॥३॥ अभिणंदणाउ सुमती नवहि उ लक्खेहि अपरकोटीणं । उप्पण्णो सुहपुण्णो सुप्पभनामस्स बोच्छामि ॥४॥ दाई प सहस्सेहिं कोडीणं सागराण पुण्णाणं । सुमइजिणाउ पउमो एवतिकालेण उप्पण्णो ॥५॥ पउमप्पहनामाओ नवहि सहस्सेहि अयरकोडीणं । कालेणेवइएणं सुपासनामो समुप्पण्णो ॥६॥ कोडीसएहि नवहि उ सुपासनामा जिणो समुप्पण्णो । चप्पभो पभाए पभासयंतो उ तेलोकं ॥७॥ उईए कोडीहिं ससीउ सुविहीजिणो समुप्पण्णो।सुविहिजिणाओ नवहि उ कोडीहिं सीअलो जाओ॥८॥ सीअलजिणाउ भयवं सिज्जंसो सागराण कोडीए । सागरसयऊणाए वरिसेहिं तहा इमेहिं तु ॥९॥ छव्वीसाऐं सहस्सेहिंचेच छावहि सयसहस्सेहिं । एतेहिं ऊणिआ खलु कोडी मग्गिल्लिआ होइ ॥१०॥ चउपपणा अयराणं सिजंसाओ जिणो उ वसुपुज्जो । वसुपुज्जाओ विमलो तीसहि अयरेहि उप्पण्णो ॥११॥ 2 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-1, नियुक्ति: [४१५...], भाष्यं [४३...], आवश्यक-दविमलजिणा खप्पणो नवहिं अयरेहिणतइजिणोऽवि । चउसागरनामेहिं अर्णतईतो जिणो धम्मो ॥१२॥ हारिभद्री धम्मजिणाओ संती तिहि उ तिचउभागपलिअऊणेहिं । अयरेहि समुप्पपणो पलिअद्धेणं तु कुंथुजिणो ॥१३॥ | यवृत्तिः ॥१६॥रापमानणाआसताताह पलिअचउभारणं कोडिसहस्सूणएण वासाणं । कुंथूओ अरनामो कोडिसहस्सेण मल्लिजिणो ॥ १४ ॥ विभाग-१ मल्लिजिणाओ मुणिसुब्बओ य चउपण्णवासलक्खेंहिं । सुब्वयनामाओं नमी लक्खेहिं छहि उ उप्पण्णो ॥१५॥ पंचहि लक्खेहिं तओ अरिहनेमी जिणो समुप्पण्णो । तेसीइसहस्सेहिं सएहि अमेहिं च ॥१६॥ नेमीओ पासजिणो पासजिणाओ य होइ वीरजिणो । अड्डाइजसएहिं गएहि चरमो समुप्पण्णो॥१७॥ | इयमन्त्र स्थापना-उसभाओ कोडिलक्ख ५० अजिओ, कोडिलक्ख ३० संभवो, कोडिलक्ख १० अभिनंदणो, कोडिलक्ख ५ सुमती, कोडीओ नउईओ सहस्सेहिं ९० पउमप्पहो, कोडीनवसहस्सेहिं ९ सुपासो, कोडीनवसपहिं || चंदप्पभो, कोडीओ उइओ ९० पुष्पदंतो, कोडीओ णवहि उ ९ सीअलो, कोडीऊणा १०० सा० ६६२६००० वरिसाई सेजंसो, सागरोपमा ५४ वासुपुज्जो, तीससागराई ३० विमलो, सागरोवमाई ९ अणंतो, सागरोवमाई ४ धम्मो, सागरोवमाई ३ अणाई पलिओवमचउभागेहिं तिहिं संती, पलिअद्धं २ कुंथू, पलियचउम्भाओ ऊणओवासकोडीसहस्सेण १ अरो, | ॥१४॥ वासकोडीसहस्सं १ मल्ली, वरिसलक्खचउपण्णा मुणिसुवओ, बरिसलक्ख ६ नमी, वरिसलक्ख ५ अरिहनेमी, वरिससहस्सा ८३७५० पासो, वाससयाई २५० वद्धमाणो । जिणंतराई। साम्प्रतं चक्रवर्तिनोऽधिकृत्य जिनान्तराण्येव प्रतिपाद्यन्ते तत्र ASS SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४१६], भाष्यं [४३...], उसमे भरहो अजिए सगरो मघवं सर्णकुमारो । धम्मस्स य संतिस्स य जिणंतरे चकवादुिर्ग ॥ ४१६ ।। संती कुंथू अ अरो अरहंता चेव चक्कवही अ। अरमल्लीअंतरे उ हवद सुभूमो अ कोरब्वो ॥४१७॥ मुणिसुब्बए नर्मिमि अ हुति दुवे पउमनामहरिसेणा। नमिनेमिसु जयनामो अरिट्टपासंतरे पंभो॥ ४१८॥ इह च असंमोहार्थ सर्वेषामेव जिनचक्रवर्तिवासुदेवानां यो यस्मिन् जिनकालेऽन्तरे वा चक्रवर्ती वा वासुदेवो वा भविप्यति बभूव वा तस्य अनन्तरच्यावर्णितप्रमाणायु:समन्वितस्य सुखपरिज्ञानार्थमयं प्रतिपादनोपायः बत्तीसं घरयाई काऊं तिरियायताहिं रेहाहि । उड्डाययाहिं कार्ड पंच घराई तओ पढमे ॥ १॥ पन्नरस जिण निरन्तर सुण्णदुर्ग ति जिण सुण्णतियगं च । दो जिण सुण्ण जिर्णिदो सुण्ण जिणो सुण्ण दोण्णि जिणा ॥२॥ वितियपंतिठ-13 वणा-दो चक्कि सुण्ण तेरस पण चकि सुण्ण चक्कि दो सुण्णा । चक्कि सुण्ण दुचकी सुण्णं चकी दु सुण्णं च ॥३॥ ततियपंतिठवणा-दस मुण्ण पंच केसव पण सुपणं केसि सुण्ण केसी य । दोसुण्ण केसवोऽवि य सुण्णदुर्ग केसब ति सुण्णं ॥४॥ प्रमाणान्यायूंषि चामीषां प्रतिपादितान्येव । तानि पुनयेंधाक्रम ऊध्वायतरेखाभिरधोधोगृहद्वये स्थापनीयानीति । तत्र इयं स्थापना साम्प्रतं प्रदर्यते पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक"- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४१८], भाष्यं [४३...], आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ ॥१६॥ विष्टः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंह भरती मघवान : निरकुमार शान्ति ॥१६॥ ऋषभः अजितः ARA अभिनन्दनः सुमतिः पभ्रममा सुपावः चन्द्रप्रभः सुविधिः कीतकः श्रेयांसः वासुपूज्य: विमला अनन्तः धर्मः शान्ति पा JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४१८], भाष्यं [४३...], उक्तसम्बन्धगाथात्रयगमनिका-ऋषभे तीर्थकरे भरतश्चक्रवर्ती, तथा अजिते तीर्थकरे सगरश्चक्रवर्ती भविष्यति एवं। तीर्थकरोकानुवादः, सर्वत्र भविष्यकालानुरूपः क्रियाध्याहारः कार्यः, त्रिकालसूत्रप्रदर्शनार्थो वा भूतेनापि न दुष्यति, तथा चावोचत्--'मघवा सणंकुमारो सणंकुमारं गया कप्पं' इत्यादि । एवं सर्वत्र योज्यमिति । मघवान् सनत्कुमारश्च एतच्चक्रवर्तिद्वयं धर्मस्य शान्तेश्च अनयोरन्तरं तस्मिन् जिनान्तरे चक्रवर्तिद्वयं भविष्यत्यभवद्वेति गाथार्थः ॥ द्वितीयगाथागमनिका-शान्तिः कुन्धुश्चारः, एते त्रयोऽप्यशोकाद्यष्टमहाप्रातिहादिरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तश्चैव चक्रवर्त्तिनश्च, तथा अरमहयन्तरे तु भवति सुभूमश्च कौरव्या,तुशब्दोऽन्तरविशेषणे, नान्तरमात्रे, किन्तु पुरुषपुण्डरीकदत्तवासुदेवद्वयमध्यइति गाथार्थः॥ तृतीयगाथागमनिका-मुनिसुव्रते तीर्थकरे नमौ च भवतः द्वौ, की द्वो?, पद्मनाभहरिषेणी 'नमिनेमिसु जयनामो अरिङपासंतरे बंभो' त्ति नमिश्च नेमी च नमिनेमिना, अन्तरग्रहणमभिसंवध्यते, ततश्च नमिनेम्यन्तरे जयनामाVIऽभवत्, अरिष्टग्रहणादू अरिष्टनेमिः, पाति पार्थस्वामी, अनयोरन्तरे ब्रह्मदत्तो भविष्यत्यभवति गाथार्थः। ॥ ४१६-४१७-४१८ ॥ इदानीं वासुदेवो यो यत्तीर्थकरकालेऽन्तरे वा खल्वासीत् असौ प्रतिपाद्यते पंचरहते वदंति केसवा पंच आणुपुब्वीए । सिजंस तिविहाई धम्म पुरिससीहपेरता ॥ ४१९ ॥ अरमल्लिअंतरे दुपिण केसवा पुरिसपुंडरिअदत्ता । मुणिमुव्वयनमिअंतरि नारायण कण्हु नेमिमि ॥ ४२० ॥ गमनिका-पञ्च अर्हतः वन्दन्ते केशवाः, एतदुक्तं भवति-पञ्च केशवा अर्हतो वन्दन्ते, वन्दन्त इत्येतेषां सम्यवक्त्वख्यापनार्थमिति । कियन्तोऽर्हन्तः किमेकः द्वौ त्रयो वा?, नेत्याह-पंच' पश्चेति पश्चैव, किं यथाकथञ्चित् । wwwwsaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४२०], भाष्यं [४३...J, आवश्यक- नेत्याह-आनुपूर्त्या परिपाच्या 'सिजंस तिविछाई धम्म पुरिससीहपेरंता' श्रेयांसादीन त्रिपृष्ठादयः धर्मपर्यन्तान् पुरुष- हारिभद्रो सिंहपर्यन्ता इति, वन्दन्त इति शास्त्रकारवचनत्वात् वर्तमाननिर्देशः, पाठान्तरं वा 'पंचऽरिहंते वंदिसु केसवा' इत्यादि । यवृत्तिः ॥१६॥ गाधार्थः ॥ द्वितीयगाथागमनिका-अरश्च मल्लिश्च अरमल्ली तयोरन्तरम्-अपान्तरालं तस्मिन् , द्वौ केशवौ भविष्यतः, विभागा१ कौ द्वौ इत्याह-पुरुषपुण्डरीकदत्ती 'मुणिसुषयणमिअंतरे णारायणो' ति मुनिसुव्रतश्च नमिश्च मुनिसुव्रतनमी तयोरन्तरं। मुनिसुव्रतनम्यन्तरं तस्मिन् नारायणो नाम वासुदेवो भविष्यति अभवद्वा । तथा 'कण्हो ये नेमिंमि'त्ति कृष्णाभिधान-IX श्चरमो वासुदेवो नेमितीर्थकरे भविष्यति बभूव वेति गाथार्थः ॥ ४१९-४२० ॥ एवं तावत् चक्रवर्तिनो वासुदेवाश्च यो शायजिनकाले अन्तरे वा स उक्तः, साम्प्रतं चक्रवर्तिवासुदेवान्तराणि प्रतिपादयन्नाहचिकिदुगं हरिपणगं पणगं चकीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव दु चक्की केसी अ चक्की अ॥ ४२१॥ । गमनिका-प्रथममुक्तलक्षणकाले चक्रवर्तिद्वयं भविष्यति अभवद्वा, ततखिपृष्ठादिहरिपञ्चकं, पुनः पञ्चकं मघवादीनां चक्रवर्तिनां, पुनः पुरुषपुण्डरीकः केशवः, ततः सुभूमाभिधानश्चक्रवर्ती, पुनर्दत्ताभिधानः केशवः, पुनः पद्मनामा चक्रवत्येव, पुनर्नारायणाभिधानः केशवः, पुनः हरिषेणजयनामानौ द्वौ चक्रवर्तिनौ, पुनः कृष्णनामा केशवः, पुनब्रह्मदत्वाभिधानश्चक्रवर्तीति, क्रियायोगः सर्वत्र प्रथमपदवद् द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥ ४२१ ॥ उक्तमानुषङ्गिक, प्रकृतं प्रस्तुमः-तत्र यदुक्तम् 'तित्थगरो को इहं भरहे!' त्ति तब्याचिख्यासयाऽऽह-मूलभाष्यकार: 'कण्ड (इति स्थात्). १६६॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४२१], भाष्यं [४४], अह भणह नरवरिंदो ताय ! इमीसित्तिआइ परिसाए। अण्णोऽवि कोऽवि होही भरहे वासंमि तित्थयरो ॥४४॥ (मू. भा०) गमनिका-अत्रान्तरे अध भणति नरवरेन्द्रः-तात ! अस्था एतावत्याः परिषदः अन्योऽपि कश्चिद् भविष्यति तीर्थकरोऽस्मिन् भारते वर्षे ?, भावार्थस्तु सुगम एवेति गाथार्थः ।। तस्थ मरीईनामा आइपरिव्वायगो उसभनत्ता । सज्झायझाणजुत्तो एगते झायह महप्पा ॥ ४२२॥ गमनिका-तत्र' भगवतः प्रत्यासने भूभागे मरीचिनामा आदी परिव्राजक आदिपरिव्राजकः प्रवर्तकत्वात्, ऋषभ नक्षा-पौत्रक इत्यर्थः । स्वाध्याय एव ध्यानं स्वाध्यायध्यानं तेन युक्तः, एकान्ते ध्यायति महात्मेति गाथार्थः॥ ४२२ ॥ तं दाएइ जिणिदो एव नरिंदेण पुच्छिओ संतो। धम्मवरचक्कवट्टी अपच्छिमो वीरनामुत्ति ॥ ४२३ ॥ गमनिका-भरतपृष्टो भगवान् 'त' मरीचिं दर्शयति जिनेन्द्रः, एवं नरेन्द्रेण पृष्टः सन् धर्मवरचक्रपती अपश्चिमो वीरनामा भविष्यति इति गाथार्थः ॥ ४२३ ॥ आइगरु दसाराणं तिविनामेण पोषणाहिवई । पिअमित्तचकवट्टी मूआर विदेहवासंमि ॥ ४२४ ॥ गमनिका-आदिकरो दशाराणां त्रिपृष्ठनामा पोतना नाम नगरी तस्या अधिपतिः भविष्यतीति क्रिया । तथा प्रियमित्रनामा चक्रवती मूकायां नगर्यो 'विदेहवासमिति महाविदेहे भविष्यतीति गाथार्थः ।। ४२४ ॥ तं वयणं सोऊण राया अंचियतणरुहसरीरो । अभिवंदिऊण पिअरं मरीइमभिवंदओ जाह ।। ४२५॥ wwwjanmiarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | मरीचि, तस्य कुलमद प्रसंग: ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४२५], भाज्यं [४४], आवश्यक॥१६७॥ गमनिका-'तद्वचनं तीर्थकरवदनविनिर्गतं श्रुत्वा राजा अञ्चितानि तनूरुहाणि-रोमाणि शरीरे यस्य स तथाविधः | हारिभद्रीअभिवन्द्य 'पितरं तीर्थकर मरीचिं अभिवन्दिष्यत इत्यभिवन्दको याति । पाठान्तरं वा 'मरीइमभिवंदिउँ जाइत्तियत्तिः मरीचिं याति किमर्थम् -अभिवन्दितुं-अभिवन्दनायेत्यर्थः, यातीति वर्तमानकालनिर्देशः त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थ विभागः१ इति गाथार्थः ॥ ४२५ ॥ सो विणएण उवगओ काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो। वंदर अभित्थुर्णतो इमाहि महराहि वग्गृहि ॥४२६॥ गमनिका-'सः' भरतः विनयेन-करणभूतेन मरीचिसकाशमुपागतः सन् कृत्वा प्रदक्षिणं च 'तिक्खुत्तोत्ति त्रिकृत्वः तिम्रो वारा इत्यर्थः, वन्दते अभिष्टुवन एताभिः 'मधुराभिः' वल्गुभिः वाग्भिरिति गाथार्थः ॥ ४२६ ॥ लाहा हु ते सुलहा जंसि तुम धम्मचक्कबहीणं । होहिसि दसचउदसमो अपच्छिमो चीरनामुत्ति ॥ ४२७ ॥ | गमनिका-'लाभा' अभ्युदयप्राप्तिविशेषाः, हुकारो निपातः, स चैवकारार्थः, तस्य च व्यवहितः संबन्धः, 'ते' तव सुलब्धा एव, यस्मात् त्वं धर्मचक्रवर्तिना भविष्यसि 'दशचतुर्दशमः' चतुर्विंशतितम इत्यर्थः, अपश्चिमो वीरनामेति गाथार्थः ॥ ४२७ ॥ तथा आइगरु० (४२१) पूर्ववत् ज्ञेया । एकान्तसम्यग्दर्शनानुरञ्जितहृदयो भावितीर्थकरभक्त्या च तमभिवन्दनायोधतो भरत एवाह | ॥१६७॥ मुपगतः पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४२८], भाष्यं [४४], 560 हैणावि अ पारिब्वज वंदामि अहं इमं व ते जम्मं । जे होहिसि तिस्थयरो अपच्छिमो तेण वंदामि ॥ ४२८ ॥ | गमनिका नापि च परिव्राजामिदं पारिबाज बन्दामि अहं इदं च ते जन्म, किन्तु यविष्यसि तीर्थकरः अपश्चिमः तेन वन्दे इति गाथार्थः ॥ ४२८ ॥ तथाएवण्हं थोऊणं काऊण पयाहिणं च तिक्खुत्तो । आपुच्छिऊण पिअर विणीअणगरि अह पविट्ठो ॥४२९ ॥ गमनिका-एवं स्तुत्वा 'हमिति निपातः पूरणार्थो वर्त्तते, कृत्वा प्रदक्षिणां च त्रिकृत्वः आपृच्छय 'पितरं' ऋषभदेवं 'विनीतनगरी अयोध्या 'अथ' अनन्तरं प्रविष्टो भरत इति गाथार्थः ॥ ४२९ ॥ अत्रान्तरेतब्वपर्ण सोऊणं तिषई आप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अन्भहिअजायह रिसो तत्थ मरीई इमं भणह॥ ४३०॥ गमनिका-तस्य-भरतस्य वचनं तद्वचनं श्रुत्वा तत्र मरीचिः इदं भणतीति योगः, कथमित्यत आह-त्रिपदी दत्त्वा, रङ्गमध्यगतमल्लवत्, तथा आस्फोव्य त्रिकृत्व:-तिम्रो वारा इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् इत्यत आह-अभ्यधिको जातो हों दायस्येति समासः, तत्र स्थाने मरीचिः 'इदं वक्ष्यमाणलक्षणं भणति, वर्त्तमाननिर्देशप्रयोजनं प्राग्वदिति गाथार्थः ॥ ४३० ।। जह वासुदेवु पदमो मूआइ विदेहि चकवहितं । चरमो तित्थयराणं हो अलं इत्ति मज्झ ।। ४३१॥ गमनिका-यदि वासुदेवः प्रथमोऽहं मूकायां विदेहे चक्रवर्तित्वं प्राप्स्यामि, तथा 'घरमः' पश्चिमः तीर्थकराणां४ भविष्यामि, एवं तर्हि भवतु एतावन्मम, एतावतैव कृतार्थ इत्यर्थः, 'अलं' पर्याप्तं अन्येनेति । पाठान्तरं वा 'अहो भए एत्ति ल ' ति गाथार्थः ॥ ४३१ ॥ 5 JABERatinintamational Handsorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३२], भाष्यं [४४...', आवश्यक ॥१६॥ अहयं च दसाराणं पिभा य मे चक्कवहिवंसस्स । अजो तित्थयराणं, अहो कुलं उत्तम मज्झ ॥ ४३२॥ हारिभद्री गमनिका-अहमेव, चशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, किम् , दशाराणां प्रथमो भविष्यामीति वाक्यशेषः, पिता च 'मे' मम नायवृत्तिः चक्रवर्तिवंशस्य प्रथम इति क्रियाऽध्याहारः । तथा 'आर्यकः' पितामहः स तीर्थकराणां प्रथमः, यत एवं अतः 'अहो । विभागः१ विस्मये कुलमुत्तमं ममेति गाथार्थः ॥ ४३२ ॥ पृच्छाद्वारं गतम् , इदानीं निर्वाणद्वारावयवार्थाभिधित्सयाऽऽहअह भगवं भवमहणो पुख्वाणमणूणगं सयसहस्सं । अणुपुब्वि विहरिऊणं पत्तो अट्ठावयं सेलं ॥४३३ ॥ गमनिका-अथ भगवान् भवमथनः पूर्वाणामन्यून शतसहनं आनुपूर्ध्या विहृत्य प्राप्तोऽष्टापदं शैलं, भाषार्थः सुगम एवेति गाथार्थः ॥ ४३३ ॥ अट्ठावयंमि सेले चउदसभत्तेण सो महरिसीणं । दसहि सहस्सेहि समं निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥ ४३४॥ गमनिका-अष्टापदे शैले चतुर्दशभक्तेन स महर्षीणां दशभिः सहस्रैः समं निर्वाणमनुत्तर प्राप्तः । अस्या अपि भावार्थः सुगम एव, नवरं चतुर्दशभक्तं-परात्रोपवासः । भगवन्तं चाष्टापदप्राप्त अपवर्गजिगमिधु श्रुत्वा भरतो दुःखसंतप्तमानसः पद्यामेव अष्टापदं ययौ, देवा अपि भगवन्तं मोक्षजिगमिथु ज्ञात्वा अष्टापदं शैलं दिव्यविमानारूढाः खलु आगतवन्तः, | उकं च 'भगवति मोक्षगमनायोद्यते-जाव य देवावासो जाव य अडावओ नगवरिंदो। देवेहि य देवीहि य अविरहियं ॥१६॥ *जारिसयेत्यत आरभ्य अन्तरा बिहाथैकादश सर्वा अपि भाष्यगाथा इति कस्यचिदभिप्रायः. CAR T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४३४], भाष्यं [४४...], CONCE प्रत सूत्रांक संचरतेहिं ॥१॥" तत्र भगवान् त्रिदशनरेन्द्रैः स्तूयमानो मोक्षं गत इति गाथार्थः ॥ ४३४ ॥ साम्प्रतं निर्वाणगमनविधिप्रतिपादनाय एनां द्वारगाथामाहनिब्वाणं१चिइगागिई जिणस्स इक्खागसेसयार्ण चर।सकहाश्थूभ जिणहरे४ जायगश्तेणाहिअग्गित्ति ६४३५ | व्याख्या-'निर्वाणमिति' भगवान् दशसहस्रपरिवारो निर्वाणं प्राप्तः, अत्रान्तरे च देवाः सर्व एवाष्टापदमागताः । 'चितिकाकृतिरिति' ते तिस्रः चिता वृत्तव्यनचतुरस्राकृतीः कृतवन्तः इति, एका पूर्वेण अपरां दक्षिणेन तृतीयामपरेणेति, तत्र पूर्वा तीर्थकृतः दक्षिणा इक्ष्वाकूणां अपरा शेषाणामिति, ततः अग्निकुमाराः वदनैः खलु अग्निं प्रक्षिप्तवन्तः, तत एव निबन्धनालोके 'अग्निमुखा वै देवाः' इति प्रसिद्ध, वायुकुमारास्तु वातं मुक्तवन्त इति, मांसशोणिते च ध्यामिते सति मेघ| कुमाराः सुरभिणा क्षीरोदजलेन निर्वापितवन्तः। 'सकथेति' सकथा-हनुमोच्यते, तत्र दक्षिणां हनुमां भगवतः संबन्धिनी शको जग्राह वामामीशानः आधस्त्यदक्षिणां पुनश्चमरः आधस्त्योत्तरां तु बलिः, अवशेपास्तु त्रिदशाः शेषाङ्गानि गृही-13 तवन्तः, नरेश्वरादयस्तु भस्म गृहीतवन्तः, शेषलोकास्तु तदस्मना पुण्डूकाणि चक्रुः, तत एव च प्रसिद्धिमुपागतानि । 'स्तूपा जिनगृहं चेति' भरतो भगवन्तमुद्दिश्य वर्धकीरलेन योजनायाम त्रिगव्यूतोच्छ्रितं सिंहनिषद्यायतनं कारितवान्, |निजवर्णप्रमाणयुक्ताः चतुर्विंशति जीवाभिगमोक्तपरिवारयुक्ताः तीर्थकरप्रतिमा तथा भ्रातृशतप्रतिमा आत्मप्रतिमां च स्तूपशतं च,मा कश्चिद् आक्रमणं करिष्यतीति, तत्रैकां भगवतः शेषान् एकोनशतस्य भ्रातृणामिति, तथा लोहमयान यन्त्र| पुरुषान् तद्वारपालांश्चकार, दण्डरलेन अष्टापदं च सर्वतश्छिन्नवान्, योजने योजने अष्टौ पदानि च कृतवान् , सगरसुतैस्तु अनुक्रम alangionary.com पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: जिनेश्वरस्य निर्वानगमनविधि: कथयते ~347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३५], भाष्यं [४४...', आवश्यक हारिभद्री यवृतिः विभागा१ ॥१६९॥ २ स्ववंशानुरागाद्यथा परिखां कृत्वा गङ्गाऽवतारिता तथा ग्रन्थान्तरतो विज्ञेयमिति । 'याचकास्तेनाहिताग्नयः' इत्यस्य व्याख्या- देवैर्भगवत्सकथादौ गृहीते सति श्रावका देवान् अतिशयभक्त्या याचितवन्तः, देवा अपि तेषां प्रचुरत्वात् महता यलेन याचनाभिद्रुता आहुः-अहो याचका अहो याचका इति, तत एव हि याचका रूढाः, ततोऽग्निं गृहीत्वा स्वगृहेषु स्थापितवन्तः, तेन कारणेन आहिताग्नय इति तत एव च प्रसिद्धाः, तेषां चाग्नीनां परस्परतः कुण्डसंक्रान्तावयं विधिःभगवतः संबन्धिभूतः सर्वकुण्डेषु संचरति, इक्ष्वाकुकुण्डाग्निस्तु शेषकुण्डाग्निषु संचरति, न भगवत्कुण्डाग्नौ इति, शेषानगारकुण्डाग्निस्तु नान्यत्र संक्रमत इति गाधाः ।। ४३५ ॥ साम्प्रतमप्रतिहतद्वारगाथाया द्वारद्वयव्याचिख्यासया मूलभाष्यकार आह थूभसय भाउगाणं चउचीसं चेव जिणहरे कासी। सव्वजिणाणं पडिमा वण्णपमाणेहिं निअएहिं ।। ४५॥ (मू०भा०) गमनिका-स्तूपशतं भ्रातॄणां भरतः कारितवान् इति, तथा चतुर्विंशतिं चैव जिनगृहे-जिनायतने (नानि) कासीति' | कृतवान् , का इत्याह-सर्वजिनानां प्रतिमा वर्णप्रमाणः 'निजैः' आत्मीयैरिति गाथार्थः । साम्प्रतं भरतवक्तव्यतानिवद्धां संग्रहगाथां प्रतिपादयन्नाह आयंसघरपचेसो भरहे पडणं च अंगुलीअस्स । सेसाणं उम्मुअणं संवेगो नाण दिक्खा य ॥ ४३६ ॥ अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-भगवतो निवाणं गयस्स आययणं काराविय भरहो अउज्झमागओ, कालेण १ भगवतो निर्माणं गतस्य आयतनं कारयित्वा भरतोऽयोध्यामागतः, कालेन. 6-10-%-- | ॥१६९॥ - पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भरत चक्रे: केवलज्ञान-वक्तव्यता ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३५], भाष्यं [४५], NAGAR ये अप्पसोगो जाओ, ताहे पुणरवि भोगे भुंजिउं पवत्तो, एवं तस्स पंच पुषसयसहस्सा अइकता भोगे भुजंतस्स, अन्नया कयाइ सबालंकारभूसिओ आयसघरमतिगतो, तत्थ य सबंगिओ पुरिसो दीसइ, तस्स एवं पेच्छमाणस्स अंगुलिजयं पडियं, तं च तेण न नायं पडियं, एवं तस्स पलोयंतस्स जाहे सा अंगुली दिहिंमि पडिया, ताहे असोभतिआ दिवा, ततो कड़गंपि अवणेइ, एवमेकेकमवणेतेण सधमाभरणमवणीअं, ताहे अप्पाणं उच्चियपउमं व पउमसरं असोभतं पेच्छिय संवेगावण्णो परिचिंति पयत्तो-आगंतुगदबेहिं विभूसियं मे सरीरगति न सहावसुंदरं, एवं चिन्तन्तस्स अपुषकरणज्झाणमुवडिअस्स केवलनाणं समुप्पणति । सको देवराया आगओ भणति-दवलिंग पडिवजह, जाहे निक्खमणमहिमं । करेमि, ततो तेण पंचमुडिओ लोओ कओ, देवयाए रओहरणपडिग्गहमादि उवगरणमुवणीअं, दसहिं रायसहस्सेहिं समं पवइओ । सेसा नव चकिणो सहस्सपरिवारा निक्खंता । सकेणं बंदिओ, ताहे भगवं पुवसयसहस्सं केवलिपरियागं पाउ-14 चाल्पशोको जातः , तदा पुनरपि भोगान् भोक्तुं प्रवृत्तः, एवं तस्य पञ्च पूर्वशतसहस्राणि अतिक्रान्तानि भोगान् भुतानस्य, अन्पदा कदाचित् | सर्वालङ्कारविभूषित भादर्शगृहमतिगतः, तत्र च सर्वाशिका पुरुषो दृश्यते, तस्वैवं प्रेक्षमाणस्वानुलीयकं पतितं, तच तेन न ज्ञातं पतितं, एवं तस्य प्रलोकमा नख यदा साङ्गुलिष्टी पतिता, तदाऽशोभमाना टा, ततः कटकमपि अपनपति, एवमेकैकमपनयता सर्वमाभरणमपनीतं, तदाऽऽरमानं उचितपर्म इव पनसरः | अशोममान प्रेक्ष्य संवेगापनः परिचिन्तितुं प्रवृत्तः-आगन्तुकद्दष्यैः विभूषितं मे शरीस्कमिति न स्वभावसुन्दरम् , एवं चिन्तयतः अपूर्वकरणध्यानमुपस्थितस्य केबलज्ञानं समुत्पामिति । शक्रो देवराज आगतो भगति-वन्यलिङ्क प्रतिपद्यस्त्र, यतः निष्क्रमणमहिमानं करोमि, ततस्तेन पञ्चमुष्टिका लोचः कृतः, देवतया रजोहरणप्रतिमहादि उपकरणमुपनीतं, दशभिः राजसहप्रैः समं प्रवाजितः । शेषा नव चक्रिणः सहस्रपरिवारा निष्क्रान्ताः । शक्रेण वन्दितः, तदा भगवान् पूर्वशतसहन केवलिपर्यायं पालयित्वा । CALCC T JABERatani पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४३६], भाष्यं [४५...], (४०) आवश्यक-णिचा परिणिचुडो य । आइञ्चजसो सक्केणाभिसित्तो, एवमट्टपुरिसजुगाणि अभिसित्ताणि। उक्तो भावा(गाथा)र्थः, साम्प्रतम- हारिभद्री क्षरगमनिका-आदर्शकगृहे प्रवेशः, कस्य? 'भरहेत्ति' भरतस्य प्राकृतशैल्या षष्ट्या सप्तमी, तथा पतनं चाङ्गुलीयस्य वभूव, | यवृत्तिः ॥१७॥ शेषाणां कटकादीनां तून्मोचनं अनुष्ठितं, ततः संवेगः संजातः, तदुत्तरकालं ज्ञानमुत्पन्नमिति, दीक्षा च तेन गृहीता, चशब्दा-1 विभागः१ निर्वृत्तश्चेत्यक्षरार्थः ॥४३६॥ उक्तमानुषङ्गिकं इदानीं प्रकृतां मरीचिवक्तव्यतां पृच्छतां कथयतीत्यादिना प्रतिपादयति-तत्र पुच्छताण कहेइ उपट्टिए देइ साहुणो सीसे । गेलन्नि अपडिअरणं कविला इत्यपि इहयंपि ॥ ४३७॥ गमनिका-पृच्छतां कथयति, उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यान् , ग्लानवे अप्रतिजागरणं कपिल ! अत्रापि इहापि। भावार्थ:-स हि प्राग्व्यावर्णितस्वरूपो मरीचिः भगवति निवृत्ते साधुभिः सह विहरन् पृच्छतां लोकानां कथयति धर्म, जिनप्रणीतमेव, धर्माक्षिप्तांश्च प्राणिन उपस्थितान् ददाति साधुभ्यः शिष्यानिति । अन्यदा स ग्लानः संवृत्तः, साधवोडप्यसंयतत्वान्न प्रतिजाग्रति, स चिन्तयति-निष्ठितार्थाः खलु एते, नासंयतस्य कुर्वन्ति, नापि ममैतान् कारयितुं युज्यते, तस्मात् कञ्चन प्रतिजागरकं दीक्षयामीति, अपगतरोगस्य च कपिलो नाम राजपुत्रो धर्मशुश्रूपया तदन्तिकमागत इति, कथिते साधुधर्मे स आह-यद्ययं मार्गः किमिति भवता एतदङ्गीकृतम् ?, मरीचिराह-पापोऽहं, 'लोएंदियेत्यादिविभाषा| पूर्ववत्, कपिलोऽपि कर्मोदयात् साधुधर्मानभिमुखः खल्वाह-तथापि किं भवद्दर्शने नास्त्येव धर्म इति, मरीचिरपि ९७०॥ प्रचुरकर्मा खल्वयं न तीर्थकरोक्तं प्रतिपद्यते, वरं मे सहायः संवृत्त इति संचिन्त्याह-'कबिला एत्थंपित्ति' अपिशब्दस्यैवकारार्थत्वात् निरुपचरितः खल्वत्रैव साधुमार्गे 'इहयंपित्ति' स्वल्पस्तु अत्रापि विद्यते इति गाथार्थः ॥ ४३७॥ स ह्येवमाI परिनितम्ब । आदित्ययशाः शक्रेणाभिषिक्तः, एवमएपुरुषयुगान्यभिषिक्तानि । SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३७], भाष्यं [४५...], प्रत सूत्रांक क कर्ण्य तत्सकाश एवं प्रव्रजितः, मरीचिनाऽप्यनेन दुर्वचनेन संसारोऽभिनिवर्तितः, त्रिपदीकाले च नीचैर्गोत्रं कर्म बद्धमिति ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाइ दुम्भासिएण इक्केण मरीई दुक्खसायरं पत्तो। भमिओ कोडाकोडिं सागरसरिनामधेनाणं ।। ४३८॥ तम्मूलं संसारो नीआगोत्तं च कासि तिवइंमि । अपडिकतो बंभे कविलो अंतद्धिओ कहए ॥ ४३९ ॥ प्रथमगाथागमनिका-'दुर्भाषितेनैकेन उक्तलक्षणेन मरीचिर्दुःखसागरं प्राप्तःभ्रान्तः कोटीना कोटी कोटीकोटी तां, केषादमित्याह-'सागरसरिनामधेजाणंति' सागरसदृशनामधेयानां, सागरोपमाणामिति गाथार्थः। द्वितीयगाथागमनिका-'तन्मूल'दु र्भाषितमूलं संसारः संजातः, तथा स एव नीचर्गोत्रं च कृतवान्-निष्पादितवान् त्रिपद्यां' प्राग्व्यावर्णितस्वरूपायामिति । 'अप-10 डिकंतो बभेत्ति' स मरीचिः चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राणि सर्वायुष्कमनुपाल्य तस्मात् दुर्भाषितात् गर्वाच्च 'अप्रतिक्रान्तः' अनि-18 वृत्तः ब्रह्मलोके दशसागरोपमस्थितिः देवः संजात इति। कपिलोऽपि ग्रन्धार्थपरिज्ञानशून्य एव तद्दर्शितक्रियारतो विजहार, आसुरिनामा च शिष्योऽनेन प्रबाजित इति, तस्य स्वाचारमात्रंदिदेश, एवमन्यानपि शिष्यान् स गृहीत्वा शिष्यप्रवचनानुराग. तत्परो मृत्वा ब्रह्मलोक एवोत्पन्नः, स ह्युत्पत्तिसमनन्तरमेव अवधि प्रयुक्तवान्-किं मया हुतं वा? इष्टं वा ? दानं वा दत्तं ? येनैषा दिव्या देवर्द्धिः प्राप्तेति, खं पूर्वभवं विज्ञाय चिन्तयामास-ममहि शिष्यो न किञ्चिद्वेत्ति, तत्तस्य उपदिशामि तत्त्वमिति, तसी आकाशस्थपञ्चवर्णमण्डलकस्थः तत्त्वं जगाद, आह च-कपिलो अंतद्धिओ कहए' कपिलः अन्तर्हितः कथितवान्, किम् ?-अव्यक्तात् व्यकं प्रभवति, ततः षष्टितन्त्रं जातं, तथा चाहुस्तन्मतानुप्तारिणः-"प्रकृतेमहांस्ततोऽहङ्कार अनुक्रम amtantiarayan पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | भगवत् महावीरस्य पूर्व-भावानाम् कथनं ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४३९], भाष्यं [४५...], हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत सूत्रांक आवश्यक- स्तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥१॥” इत्यादि, अलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः दि इति गाथार्थः ॥ ४३८-४३९ ॥ ॥१७॥ इक्खागेसु मरीई चउरासीई असंभलोगमि । कोसिउ कुल्लागंमी (गेसुं) असीइमाउं च संसारे ॥ ४४०॥ गमनिका-इश्वाकुषु मरीचिरासीत्, चतुरशीतिं च पूर्वशतसहस्राण्यायुष्क पालयित्वा 'बंभलोयंमि' ब्रह्मलोके कल्पे देवः संवृत्तः, ततश्चायुष्कक्षयाचयुत्वा 'कोसिओ कुल्लाएसुन्ति' कोल्लाकसंनिवेशे कौशिको नाम ब्राह्मणो बभूव, 'असीइमाउँ |च संसारेत्ति' स च तत्राशीतिं पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमनुपाल्य 'संसारेत्ति' तिर्यग्नरनारकामरभवानुभूतिलक्षणे पर्यटित इति | गाथार्थः ।।४४०॥ संसारे कियन्तमपि कालमटित्वा स्थूणायां नगर्या जात इति, अमुमेवार्थ 'थूणाईत्यादिना प्रतिपादयति थूणाइ पूसमित्तो आउं बावत्तरिं च सोहम्मे । चेइअ अग्गिजोओ चोवडीसाणकप्पमि ॥ ४४१॥ । व्याख्या-स्थूणायां नगर्या पुष्पमित्रो नाम ब्राह्मणः संजातः 'आउं बावत्तरि सोहम्मेति तस्यायुष्क द्विसप्ततिः पूर्वCशतसहस्राण्यासीत्, परिव्राजकदर्शने च प्रवज्यां गृहीत्वा तां पालयित्वा कियन्तमपि कालं स्थित्वा सौधर्म कल्पे अजघ-16 न्योत्कृष्टस्थितिः समुत्पन्न इति । 'चेइअ अग्गिजोओ चोवठ्ठीसाणकप्पमीति' सौधर्माच्युतः चैत्यसन्निवेशे अग्निद्योतो ब्राह्मणः संजातः, तत्र चतुःषष्टिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीत्, परित्राट् च संजातो, मृत्वा चेशाने देवोऽजघन्योत्कृष्टस्थितिः संवृत्त इति गाथार्थः ।। ४४१॥ 62-5 अनुक्रम ॥१७॥ JABERatinintamational wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४२], भाष्यं [४५...], (४०) प्रत सूत्रांक मंदिरे अग्गिभूई छप्पण्णा उ सणकुमारंमि । सेअवि भारद्दाओ चोआलीसं च माहिदें ॥ ४४२॥ गमनिका-ईशानाञ्चयुतो 'मन्दिरेत्ति' मन्दिरसन्निवेशे अग्निभूतिनामा ब्राहाणो बभूव, तत्र षट्पञ्चाशत् पूर्वशतसह8 स्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्च बभूव, मृत्वा 'सर्णकुमारमीति' सनत्कुमारकल्पे बिमध्यमस्थितिर्देवः समुत्पन्न इति । 'सेअवि भारदाएँ चोआलीसं च माहिंदेत्ति' सनत्कुमारात् च्युतः श्वेतव्यां नगर्या भारद्वाजो नाम ब्राह्मण उत्पन्न इति, तत्र च चतुश्चत्वारिंशत् पूर्वशतसहस्राणि जीवितमासीत्, परिव्राजकश्चाभवत् , मृत्वा च माहेन्द्रे कल्पेऽजघन्योत्कृस्थितिर्देवो बभूवेति गाथार्थः ॥ ४४२॥ संसरिअ थावरो रायगिहे चउतीस यंभलोगंमि । छस्सुवि पारिव्वजं भमिओ तत्तो अ संसारे ॥ ४४३॥ गमनिका-माहेन्द्रात् श्युत्वा संसृत्य कियन्तमपि कालं संसारे ततः स्थावरो नाम ब्राह्मणो राजगृहे उत्पन्न इति, तत्र च चतुस्त्रिंशत् पूर्वशतसहस्राण्यायुष्कं परिव्राजकश्चासीत्, मृत्वा च ब्रह्मलोकेऽजघन्योत्कृष्ठस्थितिर्देवः संजातः, एवं षट्स्वपि वारासु परिव्राजकत्वमधिकृत्य दिवमाप्तवान् । भमिओ तत्तो अ संसारे' ततो ब्रह्मलोकाफ्युत्वा भ्रान्तः संसारे प्रभूतं कालमिति गाथार्थः ॥ ४४४ ॥ रायगिह विस्सनंदी विसाहभूई अ तस्स जुवराया। जुवरण्णो विस्सभूई विसाहनंदी अ इअरस्स ॥ ४४४॥ रायगिह विस्सई विसाहभूहसुओ खत्तिए कोडी। वाससहस्सं दिक्खा संभूअजहस्स पासंमि ॥ ४४५ ॥ * ओ. अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], आवश्यक हारिभद्रीयवृत्तिः |विभाग१ ॥१७२॥ भावार्थः खल्वस्य गाथाद्वयस्य कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-रायगिहे नयरे विस्सनंदी राया, तस्स भाया विसाहभूई, सोय जुवराया, तस्स जुवरण्णो धारिणीए देवीए विस्सभूई नाम पुत्तो जाओ,रण्णोऽवि पुत्तो विसाहनंदित्ति, तत्थ विस्स- भूइस्स वासकोडी आऊ, तत्थ पुष्फकरंडकं नाम उज्जाणं, तत्थ सो विस्सभूती अंतेउरवरगतो सच्छंदसुहं पवियरइ, ततो जा सा विसाहनंदिस्स माया तीसे दासचेडीओ पुष्फकरंडए उज्जाणे पत्ताणि पुष्पाणि अ आणति, पिच्छंति अ विस्सभूतिं कीडतं, तासिं अमरिसो जाओ, ताहे साहिति जहा-एवं कुमारो ललइ, किं अम्ह रजेण वा बलेण वा जइ| विसाहनंदी न भुंजइ एवंविहे भोए, अम्ह नामं चेव, रज पुण जुवरण्णो पुत्तस्स जस्सेरिसं ललिअं, सा तासि अंतिए सोउं देवी ईसाए कोवघरं पविट्ठा, जइ ताव रायाणए जीवंतए एसा अवस्था, जाहे राया मओ भविस्सइ ताहे एत्व अम्हे | को गणिहित्तिा, राया गमेइ, सा पसायं न गिण्हइ, किं मे रजेण तुमे वत्ति, पच्छा तेण अमच्चस्स सिर्छ, ताहे अमच्चोऽवि राजगृहे नगरे विश्वनन्दी राजा, तस्य भ्राता विशाखभूतिः, स च युवराजः, तस्य युवराजय धारिण्या देव्या विधभूति म पुत्रो जातः, राज्ञोऽपि पुत्रो विशाखनन्दीति, तस्य विधभूतवर्षकोव्यायुः, तत्र पुष्पकरण्डकं नाम उचान, तत्र स विबभूतिः चरान्तःपुरगतः स्वछन्देन सुसं प्रविचरति, ततो या सा विशास्त्रनन्दिनो माता तथा दासचेयः पुष्पकरण्डकादुधाचारपुष्पाणि पत्राणि चानवन्ति, प्रेक्षन्ते च विश्वभूति क्रीडन्तं, तासाममों जाता, सदा साधयन्ति यथा-एवं कुमारो कलति (विलसति), किमसाकं राज्येन वा बलेन वा यदि विपासनन्दी न मुझे एवंविधान् भोगान् , अस्माकं नामव, राज्य पुनर्युचराजस्व पुत्रस्य वस्येशं ससितं, सा तासामन्तिके श्रुत्वा देवीjया कोपगृहं प्रविष्टा, यदि तावद्राशि जीपति एषाऽवस्था, षदा राजा महतो भविष्यति तदानास्मान् को गणिव्यति राजा गमवति, सा प्रसाद न गृहाति, किं मे राज्येन स्वया वेति, पश्चात्तेनामात्याय शिर्ष, तदाऽमात्योऽपि. १७२॥ 445 JABERatinintimational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], (४०) 'तं गमेइ, तहवि न ठाति, ताहे अमञ्चो भणइ-राय!मा देवीए वयणातिकमो कीरउ, मा मारेहिइ अपाणं, राया भणइ-को उवाओ होजा?, ण य अम्हं वंसे अण्णंमि अतिगए उजाणे अण्णओ अतीति, तस्थ वसंतमासं ठिओ, मासग्गेसु अच्छति, अमच्चो भणति-उवाओ किजउ जहा-अमुगो पर्चतराया उकुडो(बट्टो),अणजंता पुरिसा कूडलेहे उवणेतु, एवमेएण कयगेण ते कूडलेहा रण्णो उवहाविया, ताहे राया जत्तं गिण्हइ,तं विस्सभूशणा सुयं, ताहे भणति-मए जीवमाणे तुम्भे किं निग्गच्छही, ताहे सो गओ, ताहे चेव इमो अइगओ, सोगतोतं पञ्चतं, जाव न किंचिपिच्छा आहेमरेतं, ताहे आहिंडित्ता जाहे नत्थि कोई जो आणं अइक्कमति, ताहे पुणरवि पुप्फकरंडयं उज्जाणमागओ, तत्थ दारवाला दंडगहियग्गहत्था भणंति-मा अईह सामी!, सो भणति-किं निमित्तं , एत्थ विसाहनन्दी कुमारो रमइ, ततो एयं सोऊण कुविओ विस्सभूई, तेण नायं-अहं कयगेण निग्गच्छाविओत्ति, तत्थ कविहलता अणेगफलभरसमोणया, सा मुडिपहारेण आहया, ताहे तेहिं कविहेहिं भूमी अरथुआ, तां गमयति, तथापि न विष्ठति, तदाऽमात्यो भणति-राजन् ! मा देव्या वचनातिक्रमं करोतु, मा मीमरदात्मानं, राजा भपति क उपायो भवेत् ,न चास्माकं बंदोऽम्यस्मिन् भतिगते उद्याने अन्योऽतिवाति, तत्र वसन्तमासं खितः मासोऽतिहति, अमात्यो भणति-उपायः क्रियतां यथा-असुका प्रत्यन्तराजः | सस्कृष्टः (स.), भज्ञायमानाः पुरुषा कूटलेखानुपनयन्तु, एवमेतेन कृतकेन ते कूटलेखा राज्ञे उपस्थापिता:, तदा राजा यात्रा ग्रहाति, तत् विभूतिना धुतं, तदा भगति-मयि जीवति यूर्व किं निर्गच्छत, तदा सगतः, तवैवार्य (विशाखनन्दी) अतिगतः,स गतः तं प्रत्यन्तं, यावन्न कविपश्यति उपद्रवन्त, तदादिण्डव बदा नासि कोऽपि य आज्ञामतिकामति, तदा पुनरपि पुष्पकरडकमुद्यानमागतः, तत्र द्वारपाला गृहीतदग्दारहता भणन्ति-मा अतियासी: स्वामिन् !, स भणति-किंनिमित्तम् अत्र विशाखनन्दी कुमारी रमते, तत पुतत् श्रुत्वा कुपितो विश्वभूतिः, तेन शातं अहं कृतकेन निर्गमित इति तत्र कपिस्थलता अनेकफलभरसमवनता, सामुष्टिमहारेणाइता, तदा तैः कपिचिर्भूमिरास्तृता. *मासतमासम्मे७. + मरतं. Palanmitrary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], A आवश्यक ॥१७॥ प्रत ते भणति-एवं अहं तुझं सीसाणि पाडितो जइ अहं महलपिउणो गोरवं न करेंतो, अहं भे छम्मेण नीणिओ, तम्हा अलाहि हारिभद्रीभोगेहि, तओ निग्गओ भोगा अवमाणमूलन्ति, अजसंभूआणं थेराणं अंतिए पबइओ, तं पवइयं सोउं ताहे राया संते- यवृत्तिः उरपरियणो जुवराया य निग्गओ, ते तं खमाति, ण य तेसिं सो आणत्तिं गेहति । ततो बहुहिं छहमादिपहिं अपाणं|8 विभागः१ भावेमाणो विहरइ, एवं सो विहरमाणो महुरं नगरिं गतो। इओ य विसाहनंदी कुमारो तत्थ महुराए पिउँच्छाए रण्णो अग्गमहिसीए धूआ लद्धेलिआ, तत्थ गतो, तत्थ से रायमग्गे आवासो दिण्णो । सो य विस्सभूती अणगारो मासखमणपारणगे हिंडतो तं पदेसमागओ जत्थ ठाणे विसाहणंदीकुमारी अच्छति, ताहे तस्स पुरिसेहिं कुमारो भण्णति-सामि! तुम्भे एयं न जाणही, सो भणति-न जाणामि, तेहिं भण्णति-एस सो विस्सभूती कुमारो, ततो सस्स तं दहूण रोसो जाओ। एत्वंतरा सूतिआए गावीए पेल्लिओ पडिओ, ताहे तेहिं उकिटकलयलो कओ, इमं च णेहिं भणि-तं बलं तुज्झ सूत्रांक C अनुक्रम वान भणति-एषमई युष्माकं पिरोस्थपातयिष्य ययई पितृव्यस्य गौरवं नाकरिष्यम्, अहं भवनिश्वनना नीतः, तस्मादलं भोगैः, ततो निर्गतो भोगा अपमानमूलमिति, आर्यसंभूतानां स्थविराणामस्तिके प्रमजितः, तं प्रनजितं श्रुत्वा तदा राजा सान्तःपुरपरिजनो युवराजश्व निर्गतः, ते तं क्षमयन्ति, न च तेषां स आशति (विज्ञप्ति) गृङ्गाति । ततो बहुभिः षष्टाष्टमादिकैरात्मानं भावयन् विहरति, एवं स विहरन् मथुरा नगरौं गतः । इतश्च विशाखनन्दी कुमारसत्र मधु रायां पितृथ्वसू राज्ञोऽममहिथ्या दुहिता लब्धपूर्वा (इति) तत्र गतः, तब तस्य राजमार्गे भावासो दतः। स च विश्वभूतिरनगारः मासक्षपणपारणे हिण्डमानः IP॥१७॥ Fा प्रदेशमागतः वत्र स्थाने विज्ञास नन्दी कुमारः तिष्ठति, तदा तस्य पुरुषैः कुमारो भण्यते-स्वामिन् वं एनंग जानीयास भणति-न जानामि, तैभण्यते-एप स विश्वभूतिः कुमारः, ततस्तस्य तं दृष्ट्वा रोषो जातः । अत्रान्तरे प्रसूतथा गवा प्रेरितः पतितः, तदा तैरुत्कृष्टकलकलः कृतः, इदं च सैर्भणितम्-तत् बलं तव 45 JABERatunintamational wwwsandiprary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४४], भाष्यं [४५...], AAAAAEKABCDEXSE कविठ्ठपाडणं च कहिं गतं, ताहे णेण ततो पलोइय, दिडो य णेण सो पावो, ताहे अमरिसेणं तं गाधि अग्गसिंगेहिं गहाय उई उपहति, सुदुब्बलस्सवि सिंघस्स किं सियालेहिं बलं लंपिज्जी, ताहे चेव नियत्तो, इमो दुरप्पा अज्जवि मम रोस वहति, ताहे सो नियाण करेति-जइ इमस्स तवनियमस्स बंभचेरस्स फलमस्थि- तो आगमसाणं अपरिमितबलो भवामि । तत्थ सो अणालोइयपडिकतो महासुके उववन्नो, तत्थुकोसठितिओ देवो जातः । ततो चइऊण पोअणपुरे णगरे पुत्तो पयाव-14 इस्स मिगाईए देवीए कुञ्छिसि उववण्णो । तस्स कह पयावई नाम, तस्स पुर्व रिउपडिसत्तुत्ति णाम होत्या, तस्स य? भद्दाए देवीए अत्तए अयले नाम कुमारे होत्या, तस्स य अयलस्स भगिणी मियावईनाम दारिया अतीव ख्ववती, सा य उम्मुक्कबालभावा सबालंकारविभूसिआ पिउपायबंदिया गया, तेण सा उच्छंगे निवेसिआ, सो तीसे रूबे जोवणे य अंगफासे य मुच्छिओ, तं विसज्जेत्ता पउरजणवयं वाहरति-जं एत्थं रयणं उप्पजइ तं कस्स होति ?, ते भणंति-तुभ, एवं तिष्णि कपिथपातनं च क गतं ?, तदाऽनेन ततः प्रलोकितं, दृष्टश्चानेन स पापः, तदाऽमर्पण सां गां मनश्काभ्यां गृहीत्वोर्षमुरिक्षपति, सुदुर्बलस्थापि | सिंहस्य किं गालवलं छहयते, तदैव निवृत्ता, अयं दुरामाध्यापि मयि रोपं चहति, तदा स निदानं करोति-पद्यस्य तोनियमा ब्रह्मचर्यख फलमस्ति तर्हि भागमिष्यन्यो भपरिमितबलो भूयासं । तत्र सोनाकोचितप्रतिकान्तो महानुफे पनः, तत्रोकृष्टस्थितिको देवो जातः । ततनयुत्वा पोतनपुरे नगरे पुत्रः प्रजापतेगावस्या देव्याः कृक्षी उत्पन्नः । तस्स कथं प्रजापति म, तस्य पूर्व रिपुप्रतिशत्रुरिति नामाभवत्, तख च भद्राया देव्या भात्मजः मचलो नाम कुमारोऽभवत्, तस्य चाचळव भगिनी मृगावती नाम दारिकाऽतीव रूपवती, सा चोन्मुक्तवालभाचा सर्वालारविभूषिता पितृपादवन्दिका गता, तेन सोरसने निवेशिता, स तसा रूपे यौवने चाकस्पर्श च मूर्णितः, तां विसज्य पौरजनपर्व पाइरति-यन्त्र रसमुत्पद्यते तस्कस्य भवति , ते भणन्ति-तव, एवं श्रीन्. -SCHES JAMERatantnt aantantiarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], आवश्यक- ॥१७४॥ वारा साहिए सा चेडी उबविआ, ताहे लज्जिआ निग्गया, तेसिं सवेसि कुबमाणाणं गंधवेण विवाहेण सयमेव विवाहिया, हारिभद्री| उप्पाइया णेणं भारिया, सा भद्दा पुत्तेण अयलेण समं दक्षिणावहे माहेस्सरिं पुरि निवेसेति, महन्तीए इस्सरीए कारियत्ति 3 यवृत्तिः माहेस्सरी, अयलो मायं ठविऊण पिउमूलमागओ, ताहे लोएण पयावई नाम कयं, पया अणेण पडिवण्णा पयावइत्ति, विभागा१ वेदेऽप्युक्तम्-"प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयत" । ताहे महासुक्काओ चइऊण तीए मियावईए कुञ्छिसि उववण्णो, सत्त | सुमिणा दिवा, सुविणपाढएहिं पढमवासुदेवो आदिहो, कालेण जाओ, तिण्णि यसे पिहकरंडगा तेण से तिविणाम कयं,8 माताए परिमक्खितो उम्हतेलेणंति, जोबणगमणुपत्तो। इओ य महामंडलिओ आसग्गीवो राया, सोगेमित्तियं पुच्छति-कत्तो मम भयंति, तेण भणिय-जो चंडमेहं दूतं आधरिसेहिति, अवर तेय महाबलगं सीह मारेहिति, ततो ते भयंति, तेण सुयं जहापयावइपुत्ता महाबलवगा, ताहे तत्थ दूतं पेसेति, तत्थ य अंतेउरे पेच्छणयं वदृति,तत्थ दूतो पविहो,राया उद्विओ, पेच्छणयं8 वारान् साधित्ते सा चेटबुपस्थापिता, तदा लजिता निर्गताः, सर्वेषां तेषां कूजतां गान्धर्वेण विवाहेन स्वपमेव विवाहिता,त्पादिता तेन भार्या, सा भदा पुत्रेणाचलेन समं दक्षिणापथे माहेश्वरीं पुरी निविशति, महला इथयों का रितेति माहेश्वरी, अचलो मातरं खापयित्वा पितृमूलमागतः, उदा लोकेन प्रजापतिः नाम कृतं, प्रजा भनेन प्रतिपन्ना प्रजापतिरिति । तदा महाशुकात् व्युत्वा तथा मृगावत्याः कुक्षाबुरपना, सस स्वप्ना दृष्टाः, खानपाठः प्रथमवासुदेव आदिष्टः, कालेन जातः, प्रीणि च तस्य पृष्ठकरण्डकानि तेन तस्य त्रिपृष्टः नाम कृतं, मात्रा परिनक्षितः उगतलेनेति, यौवनमनुप्राप्तः । इता महामापलिकः अश्वनीवो राजा, स नैमितिकं पृच्छति-कुतो मम भयमिति, तेन भणितम्-यमण्डमेधं दूर्त आर्षियति, अपरं तब च महाबलिनं सिंदं मारविष्यति, ततस्तव भवमिति, तंन श्रुतं यथा-प्रजापतिपुषी महापलिनी, तदा तत्र दूतं प्रेषयति, वा चान्तःपुरे प्रेक्षणकं वर्तते, नाता प्रविष्टः, राजोत्थितः, प्रेक्षणक ॥१७४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययनं [-] मूलं [ / गाथा-] निर्युक्तिः [४४५], आष्यं [४५...]., भैग्गं, कुमारा पेच्छणगेण अक्खित्ता भणति को एस ?, तेहिं भणिअं - जहा आसग्गीवरण्णो दूतो, ते भांति - जाहे एस वच्चेज ताहे कहेजाह, सो राइणा पूरऊण विसज्जिओ पहाविओ अप्पणो विसयस्स, कहियं कुमाराणं, तेहिं गंतूण अद्धपहे हओ, तस्स जे सहाया ते सवे दिसोदिसिं पलाया, रण्णा सुयं जहा-आधरिसिओ दूओ, संभंतेण निअत्तिओ, ताहे रण्णा बिउर्ण तिगुणं दाऊण मा हु रण्णो साहिजसु जं कुमारेहिं कथं, तेण भणियं-न साहामि, ताहे जे वे पुरतो गता तेहिं सिहं जहा आधरिसिओ दूतो, ताहे सो राया कुविओ, तेण दूतेण णायं जहा-रण्णो पुर्व कहितेलयं, जहावित्तं सिद्धं, ततो आसग्गीवेण अण्णो दूतो पेसिओ, वच्च पयावई गंतूण भणाहि मम सालिं रक्खाहि भक्खिजमाणं, गतो दूतो, रण्णा कुमारा उवलद्धा किह अकाले मब्बू खवलिओ ?, तेण अम्हे अवारए वेब जत्ता आणत्ता, राया पहाबिओ, ते भति-अम्हे बच्चामो, ते रुभंता मडाए गया, गंतूण खेत्तिए भणति - किडणे रायाणो रकूखियाइया ?, ते भवंति - आसहत्थिरहपुरिस १ भनं, कुमारी प्रेक्षणकेनाक्षितौ भणतः क एषः १, तैर्भणितं वया-अश्वमीवराजस्य दूतः, तौ भणतः यदा एष ब्रजेत् तदा कथयेत, स राज्ञा पूजयित्वा विसृष्टः प्रधावित आत्मनो विषयाय, कवितं कुमाराभ्यां ताभ्यां गत्वाऽर्धपये दतः, तस्य ये सहायाः ते सर्वे दिशोदिशि पलायिताः, राशा श्रुतं यथा-आधर्षितो दूतः संभ्रान्तेन निवर्तितः, तदा राक्षा द्विगुणं त्रिगुणं दत्त्वा मैव चीकथः राजे यत्कुमाराभ्यां कृतं तेन भणितं न साधयामि तदा ये ते पुरतो गताः शिष्टं यथा-आधर्षितो दूतः, तदा स राजा कुपितः तेन वूतेन ज्ञातं यथा-राज्ञे पूर्वं कथितं यथावृत्तं शिष्टं ततः अश्रमीचेणान्यो दूतः प्रेषितः, मज प्रजापति गव्या भण-सम शाही भक्ष्यमाणान् रक्ष, गतो दूतः, राक्षा कुमारावुपालब्धौ किमकाले मृत्युरामश्रितः १, तेनास्माकमवारके एवं यात्राऽशक्षा, राजा प्रधावितः (गन्तुमारब्धः), ती भणतः, आवां ब्रजावः, तौ रुध्यमानी बढाती गाना क्षेत्रिकानू भणतः कथमन्ये राजानः रक्षितवन्तः ?, ते मणन्ति मनाइतिरधपुरुषै Education intimational For Funny www.ncbrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], हारिभद्री यवृत्तिः विभागः१ प्रत आवश्यक- पागार काऊणं, केचिरं ?, जाव करिसणं पविटं, तिवित भणति-को एच्चिरं अच्छति !, मम तं पएसं दरिसह, तेहिं कहियं- |एताए गुहाए, ताहे कुमारो रहेणं तं गुहं पविहो, लोगेण दोहिवि पासेहि कलयलो कओ, सीहो वियंभतो निग्गओ, ॥१७५॥ लकुमारो चिन्तेइ-एस पाएहिं अहं रहेण, विसरिसं जुद्धं, असिखेडगहत्थो रहाओ ओइण्णो, ताहे पुणोवि विचिन्तेइ-एस दाढानक्खाउहो अहं असिखेडएण, एवमवि असमंजसं, तंपि अणेण असिखेडग छड्डियं, सीहस्स अमरिसो जातो-एगंता| |रहेण गुहं अतिगतो एगागी, वितिअं भूमि ओतिष्णो, तति आउहाणि विमुक्काणि, अज णं विणिवाएमित्ति महता अव-1 दालिएण वयणेण उक्खंदं काऊण संपत्तो,ताहे कुमारेण एगेण हत्येण उवरिल्लो होहो एगेणं हेडिलो गहिओ, ततोणेण जुण्ण-| पडगोविच दुहाकाऊण मुक्को, ताहे लोएण उकुटिकलयलो कओ, अहासन्निहिआए देवयाए आभरणवत्थकुसुमवरिसं, परिसियं, ताहे सीहो तेण अमरिसेण फुरफुरतो अच्छति, एवं नाम अहं कुमारेण जुद्धेण मारिओत्ति, तं च किर कालं। सूत्रांक अनुक्रम प्राकार कृत्या, फियथिर १, यावत् कर्षणं प्रविष्ट (भवति), त्रिपृष्ठः भगतिक इयश्चिरं तिष्ठति ?, सझं तं प्रवेशं दर्शयत, तैः कथितं-एतस्यां गुहायां, दतदा कुमारो रथेन तो गुहां प्रविष्टः, कोकेन कलकको योरपि पार्वयोः कृतः, सिंहो विजम्भमाणः निर्यतः, कुमारबिन्तपति-पुष पादाभ्यामहं रथेन, विप्नदर्श बुद्ध, भसिखेटकहतः स्यादवतीणा, सदा पुनरपि विचिन्तयति-एष दंष्ट्रानवायुधः अहमसिरोटकेन, एवमयसमजस, तप्यसिखेटकमनेन त्यक्त, सिंहस्खामों। जात:-एक तावत् रथेन गुहामतिगतः एकाकी, द्वितीय भूमिमवतीर्णः, तृतीयमायुधानि विमुक्कानि, भय एनं विनिपातयामीति महताऽवदारितेन वदनेनोरकन्द । कृत्वा संप्राप्तः, तदा कुमारेणकेन सोनोपरितन ओष्ठ एकेनाधस्यो गृहीतः, ततस्तेन जीर्णपट इन विधाकृत्य मुक्ता, सदा कोकेनोस्कृष्टिकहकलः कृतः, यथासनि|दितथा तुदेवतयाभरणवत्रकुसुमवर्ष वर्षित, तदा सिंहसेनामर्षेण पुरंस्तिष्ठति, एवं नामाई कुमारेण बुदेन मारिता इति, तसिंच किल काले. R ॥१७॥ ॐ JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...J, भगवओ गोअमसामी रहसारही आसी, तेण भण्णति-मा तुर्म अमरिसं वहाहि, एस नरसीहो तुम मियाहिवो, तो जइ सीहो सीहेण मारिओ को एत्थ अवमाणो?, ताणि सो वयणाणि महुमिव पिवति, सो मरित्ता नरएसु उबवण्णो, सो कुमारो। तच्चम्म गहाय सनगरस्स पहावितो, ते" गामिल्लए भणति-च्छह भो तस्स घोडयगीवस्स कहेह जहा अच्छसु वीसत्थो, तेहिं गंतूण सिई, रुहो दूतं विसजेइ, एते पुत्ते तुमं मम ओलग्गए पडवेहि, तुर्म महल्लो, जाहे पेच्छामि सकारेमि रजाणि य देमि, तेण भणियं-अच्छंतु कुमारा, सयं चेवणं ओलग्गामित्ति, ताहे सो भणति-किं न पेसेसि ? अतो जुद्धसज्जो निग्गच्छा सि, सो दूतो तेहिं आधरिसित्ता धाडिओ, ताहे सो आसग्गीवो सबबलेण उवडिओ, इयरेवि देसते ठिआ, सुबहुं कालं जुज्झेऊण हयगयरहनरादिक्खयं च पेच्छिऊण कुमारेण दूओ पेसिओ जहा-अहं च तुमंच दोषिणवि जुद्धं सर्पलग्गामो, किंवा बहुएण अकारिजणेण मारिएण? एवं होउत्ति, बीअदिवसे रहेहिं संपलग्गा, जाहे आउधाणि खीणाणि -%AGAR भगवतो गीतमस्वामी रथसारथिरासीत् , तेन भण्यरो-मा त्वममय वाहीः, एष नरसिंहः बसगाधिपः, सबदि सिंदः सिंहन मारिता कोनापमानी तानि वचनानि स मचिव पिचति, समूत्वा नरके उत्पमा, स कुमारस्तचर्म गृहीत्वा खनगराप प्रभावितः, तांश प्रामेयकान् भवति-गान भोः सबै अश्वपीवाय कथयत बचा लिष्ठ विश्वतः, तैर्गत्वा शिष्ट, रुहो दूतं विसृजति, एचौ पुत्री ममावलगके प्रस्थापष, स्वं वृद्धः, यतः पश्यामि सस्कारयामि राज्यानि च ददामि, तेन भणितम्-तिएता कुमारी स्वयमेवावलगामीति, तदा स भणति-किन प्रेषयसि । अतो युद्धसज्जो निर्गच्छ, स दूतसराय धादितः, तदा सोनाग्रीवा सर्वमलेनोपस्थिता, इतरेऽपि देशान्ते स्थिताः, सुपडं कालं युवा हयगजरथनरादिक्षवं च प्रेक्ष्य कुमारेण दूतः प्रेषितो यथा-मई पसंच द्वायपि युद्ध संप्रलगाक, किंचा पाहुनाकारिजनेन मारितेनी, एवं भवविति, द्वितीयदिवसे रथैः संभलनाः, यदायुधानि क्षीणानि, ते प. + महो. 1 निग्गयाति. JABERatinintamational Swamirary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४५], भाष्यं [४५...], -%94%- आवश्यक- ताहे चक्कं मुयइ, तं तिविडुस्स तुबेण उरे पडिअं, तेणेव सीसं छिन्नं, देवेहिं उग्घुटुं-जहेस तिविद्दू पढमो वासुदेवो उप्प-18 हारिभद्री॥१७॥ राणोत्ति । ततो सबे रायाणो पणिवायमुवगता, उयवि अहभरह, कोडिसिला दंडवाहाहिं धारिआ, एवं रहावत्तपवयीयवृत्ति समीवे जुद्धं आसी । एवं परिहायमाणे वले कण्हेण किल जाणुगाणि जाव किहवि पाविआ। तिविडू चुलसीइवाससयस-IN विभागः१ हस्साई सवाउयं पालइत्ता कालं काऊण सत्तमाए पुढवीए अप्पइटाणे नरए तेत्तीसं सागरोवमहितीओ नेरइओ उववण्णो। ४ अयमासां भावार्थः, अक्षरार्थस्त्वभिधीयते-राजगृहे नगरे विश्वनन्दी राजाऽभूत् , विशाखभूतिश्च तस्य युवाराजेति, तत्र "जुवरण्णोति युवराजस्य धारिणीदेव्या विश्वभूति नामा पुत्र आसीत् , विशाखनन्दिश्चेतरस्य राज्ञ इत्यर्थः, तत्रेस्थमधिकृतो मरीचिजीवः 'रायगिहे विस्सभूति'त्ति राजगृहे नगरे विश्वभूतिर्नाम विशाखभूतिसुतः क्षत्रियोऽभवत् , तत्र च वर्षकोव्यायुष्कमासीत्, तस्मिंश्च भवे वर्षसहस्रं 'दीक्षा' प्रव्रज्या कृता संभूतियतेः पार्थे । तत्रैव81 गोत्तासिउ महुराए सनिआणो मासिएण भत्तेणं । महसुक्के उववपणो तओ चुओ पोअणपुरंमि ॥ ४४६ ॥ | तदा चक्रं मुञ्चति, तत् निपृष्ठस्य तुम्बे नोरसि पतितं, तेनैव किरविल, देवैस्तुघुष्टम्-बधैय त्रिपृष्ठः प्रथमो वासुदेव उत्पन्न इति । ततः सर्वे राजानः | ॥१७६॥ ICमणिपातमुपागताः, अपचितं (साधित) भरतं, कोटीशिका दण्याबाहुभ्यां धारिता, एवं स्थावर्तपतसमीपे बुखमासीत् । एवं परिदीयमाणे घले कृष्णेन | [किल जानुनी यावत् कथमपि प्रापिता । त्रिपक्षश्चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि सर्वायुः पालयित्वा कालं कृष्वा सप्तम्यां पृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके प्रपत्रिंशासाग-15 रोपमस्थितिका नैरपिक उत्पनः। *हितीए. +न्दिामा राक, नेदम्, 1 मेवम् भूति म. इति. Manmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४६], भाष्यं [४५...J, गमनिका-पारणके प्रविष्टो गोत्रासितो मथुरायां निदानं चकार, मृत्वा च सनिदानोऽनालोचिताप्रतिक्रान्तो मासि|केन भक्तेन महाशुक्रे कल्पे उपपन्न उत्कृष्टस्थितिदेव इति, 'ततो' महाशुक्राच्युतः पोतनपुरे नगरे पुत्तो पयावहस्सा मिआईदेविकुच्छिसंभूओ।नामेण तिविद्दुत्ती आई आसी दसाराणं ॥ ४४७॥ गमनिका-पुत्रः प्रजापते राज्ञः मृगावतीदेवीकुक्षिसंभूतः नाम्ना त्रिपृष्ठः 'आदिः'प्रथमः आसीदू दसाराणां, तत्र वासुदेवत्वं चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि पालयित्वा अधः सप्तमनरकपृथिव्यामप्रतिष्ठाने नरके त्रयखिंश (ग्रन्थानम् ४५००) सागरोपमस्थिति रकः संजात इति ॥ ४४७ ॥ अमुमर्थ प्रतिपादयन्नाहचुलसीईमप्पइड्ढे सीहो नरएसु तिरियमणुएसु । पिअमित्त चकवट्टी मूआइ विदेहि चुलसीई ॥ ४४८॥ गमनिका-चतुरशीतिवर्षशतसहस्राणि वासुदेवभवे खल्वायुष्कमासीत्, तदनुभूय अप्रतिष्ठाने नरके समुत्पन्नः, तस्मादप्युद्वय सिंहो बभूव, मृत्वा च पुनरपि नरक एवोत्पन्न इति, 'तिरियमणुएमुत्ति' पुनः कतिचित् भवग्रहणानि तिर्यग्मनुष्येषूत्पद्य 'पिअमित्त चक्कवट्टी मूआइ विदेहि चुलसीहत्ति अपरविदेहे मूकायां राजधान्यां धनञ्जयनृपतेः धारिणीदेव्यां प्रियमित्राभिधानः चक्रवती समुत्पन्नः, तत्र चतुरशीतिपूर्वशतसहस्राण्यायुष्कमासीदिति गाथार्थः ॥ ४४८॥ पुत्तो धर्णजयस्सा पुहिल परिआउ कोडि सबढे। गंदण छत्तग्गाए पणवीसा सयसहस्सा ॥ ४४९॥ गमनिका-तत्रासौ प्रियमित्रः पुत्रो धनञ्जयस्य धारिणीदेच्याश्च भूत्वा चक्रवर्चिभोगान् भुक्त्वा कथञ्चित् संजातसं* गंदणो उत्तगाए. SACS पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४४९], भाष्यं [४५...], हारिभद्रा यवृत्तिः प्रत सूत्रांक आवश्यक-2 वेगः सन् 'पोहिले इति' प्रोष्ठिलाचार्यसमीपे प्रबजितः 'परिआओ कोडि सबढे' त्ति प्रव्रज्यापर्यायो वर्षकोटी बभूव, मृत्वा ॥१७७॥ महाशुक्रे कल्पे सर्वार्थे विमाने सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवोऽभवत् 'णंदण छत्तग्गाए पणवीसा सयसहस्सेति' ततः सर्वा-1 महाशुक्र कल्प सवा सार्थसिद्धायुत्या छत्रापायां नगी जितशत्रुनृपतेभेद्रादेव्या नन्दनो नाम कुमार उत्पन्न इति, पञ्चविंशतिवर्षशतसहस्राण्या युष्कमासीदितिगाथार्थः ॥ ४४९ ॥ तत्र च वाल एव राज्यं चकार, चतुर्विशतिवर्षसहस्राणि राज्यं कृत्वा ततः| पञ्चज्ज पुहिले सयसहस्स सब्वत्थ मासभत्तेणं । पुप्फुत्तरि उववण्णो तओ चुओ माहणकुलंमि ॥ ४५०॥ गमनिका-राज्यं विहाय प्रव्रज्यां कृतवान् पोट्टिलत्ति' प्रोष्ठिलाचार्यान्तिके 'सयसहस्सं ति वर्षशतसहस्रं यावदिति,8 कथम् ?, सर्वत्र मासभक्तेन-अनवरतमासोपवासेनेति भावार्थः, अस्मिन् भवे विंशतिभिः कारणैः तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निकाचियित्वा मासिकया संलेखनयाऽऽस्मानं क्षपयित्वा षष्टिभक्तानि विहाय आलोचितप्रतिक्रान्तो मृत्वा 'पुप्फोत्तरे उववण्णोत्ति' प्राणतकल्पे पुष्पोत्तरावतंसके विमाने विंशतिसागरोपमस्थितिर्देव उत्पन्न इति । 'ततो चुओ माहणकुलमित्ति' ततः पुष्पोत्तराच्चयुतः ब्राह्मणकुण्डग्रामनगरे ऋसभदत्तस्य ब्राह्मणस्य देवानन्दायाः पत्न्याः कुक्षौ समुत्पन्न इति | गाथार्थः ॥ ४५० ॥ कानि पुनर्विंशतिः कारणानि ? यैस्तीर्थकरनामगोत्रं कर्म तेनोपनिबद्धमित्यत आह rol अरिहंतसिद्धपवयण ॥४५॥दसण॥४५२॥अप्पुव्व०॥४३॥पुरिमेण॥४६४ातं च कहं॥४५६॥निअमा०॥४६॥ * पोठिल इति. + विंशत्या (स्थात् ). निकाच्य (स्थात् ). अनुक्रम ॥१७७॥ rwsaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५७], भाष्यं [४५...], A एता ऋषभदेवाधिकारे व्याख्यातत्वान्न विनियन्ते । माहणकुंडग्गामे कोडालसगुत्तमाहणो अस्थि । तस्स घरे उबवण्णो देवाणंदाइ कुञ्छिसि ॥४५॥ __ अस्या व्याख्या-पुष्पोत्सराजयुतो ब्राह्मणकुण्डग्रामे नगरे कोडालसगोत्रो ब्राह्मणः ऋषभदत्ताभिधानोऽस्ति, तस्य गृहे। उत्पन्नः, देवानन्दायाः कुक्षाविति गाथार्थः॥ ४५७॥ साम्प्रतं वर्धमानस्वामिवक्तव्यतानिवद्धां द्वारगाथामाह नियुक्तिकार: सुमिण १ मवहार २ ऽभिग्गह ३ जम्मण ४ मभिसेअ ५ वुद्धि ६ सरणं ७ च । भेसण ८ विवाह ९ बच्चे १० दाणे ११ संयोह १२ निक्खमणे १३ ॥ ४५८ ॥ गमनिका सुमिणेति' महास्वप्ना वक्तव्याः, यान् तीर्थकरजनन्यः पश्यन्ति, यथा च देवानन्दया प्रविशन्तो निष्काम-161 दन्तश्च दृष्टाः, त्रिशलया च प्रविशन्त इति । 'अवहारत्ति' अपहरणमपहारः स वक्तव्यो यथा भगवानपहत इति । 'अभि ग्गहेत्ति' अभिग्रहो वक्तव्यः, यथा भगवता गर्भस्थेनैव गृहीत इति । 'जम्मणेति' जन्मविधिर्वक्तव्यः । 'अभिसेउत्ति अभिषेको वक्तव्यः, यथा विबुधनाथाः कुर्वन्ति, 'बुढित्ति' वृद्धिर्वक्तव्या भगवतो यथाऽसौ वृद्धिं जगाम । 'सरणंति' द जातिस्मरणं च वक्तव्यं । 'भेसणेति' यथा देवेन भेषितः तथा वक्तव्यं । 'विवाहेति' विवाहविधिर्वक्तव्यः । 'अवच्चेत्ति अपत्यं-पुत्रभाण्डं वक्तव्यं । 'दाणेत्ति' निष्क्रमणकाले दानं वाच्यं । 'संबोहेति' संबोधनविधिर्वक्तव्यः यथा लोकान्तिकाः संबोधयन्ति । 'निक्खमणेत्ति' निष्क्रमणे च यो विधिरसौ वक्तव्य इति गाथासमुदायार्थः ॥ ४५८ ॥ अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति भाष्यकार एव, तत्र स्वप्नद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भगवत् महावीर (वर्धमान)स्य संबंधे स्वप्न, अपहार, अभिग्रह आदि द्वाराणाम् कथनं ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८], भाष्यं [४६], आवश्यक ॥१७८॥ प्रत सूत्रांक गय १ वसह २ सीह ३ अभिसेअ ४ दाम ५ ससि ६ दिणयर ७ सय ८कुम्भ। हारिभद्रीपउमसर १० सागर ११ विमाणभवण १२ रयणुचय १३ सिहिं च १४ ॥ ४६॥ (भाष्यम्) यवृत्तिः गमनिका-गजं वृषभं सिंह अभिषेक दाम शशिनं दिनकर ध्वज कुम्भं पद्मसरः सागर विमानभवनं रत्नोच्चयं | शिखिनं 'च, भावार्थः स्पष्ट एव, नवरं अभिषेक:-श्रियः परिगृह्यते, दाम-पुष्पदाम रत्नविचित्रं, विमानं च तद्भवनं च विमानभवन-वैमानिकदेवनिवास इत्यर्थः, अथवा वैमानिकदेवप्रच्युतेभ्यः विमानं पश्यति, अधोलोकोद्वृत्तेभ्यस्तु भवनमिति, न तूभयमिति ॥ एए चउदस सुमिणे पासइ सा माहणी सुहपसुत्ता। रयणि उबवण्णो कुञ्छिसि महायसोचीरो॥४७॥(भा०) ___गमनिका-एतान् चतुर्दश महास्वप्नान् पश्यति सा ब्राह्मणी सुखप्रसुप्ता, यस्यां रजन्यामुत्पन्नः कुक्षी महायशा वीर इति । पश्यतीति निर्देशः पूर्ववत्, पाठान्तरं वा 'एए चोइस सुमिणे पेच्छिआ माहणी' ततश्च दृष्टवतीति गाथार्थः॥ अह दिवसे बासीई वसइ तहि माहणीइ कुञ्छिसि।चिंतइ सोहम्मवई, साहरि जे जिणं कालो॥४८॥ (भा०) गमनिका-अथ दिवसान् ब्यशीतिं वसति तस्या ब्राह्मण्याः कुक्षाविति । अथानन्तरं एतावत्सु दिवसेषु अतिक्रान्तेषु । ॥१७८॥ दाचिन्तयति सौधर्मपतिः संह 'जे' निपातः पादपुरणार्थः, जिनं कालो वर्तते इति गाथार्थः ॥ किमिति संहियत इत्याहअरहत चकवडी बलदेवा चेव वासुदेवाय । एए उत्तमपुरिसा नहु तुच्छकुलेसु जायंति ॥४९॥(भाष्यम् ) भावार्थः स्पष्ट एव, नवरं 'तुच्छकुलेषु' असारकुलेषु इति । केषु पुनः कुलेषु जायन्ते इत्याह अनुक्रम NCRUST JABERatinintamational wwjanminary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [५०], । उग्गकुलभोगखत्तिअकुलेसु इक्खागनायकोरब्वे । हरिवंसे अविसाले आयंति तहिं पुरिससीहा ॥५०॥(भा०) | गमनिका-उपकुलभोजक्षत्रियकुलेषु इक्ष्वाकुज्ञातकौरव्येषु पुनः कुलेषु हरिवंशे च विशाले 'आयति' आगच्छन्ति उत्पद्यन्त इत्यर्थः 'तत्र' उग्रकुलादौ 'पुरुषसिंहाः तीर्थकरादय इति गाथार्थः। यस्मादेवं तस्माद् भुवनगुरुभक्त्या चोदितो देवराजो हरिणेगमेपिमभिहितवान्-एष भरतक्षेत्रे चरमतीर्थकृत् प्रागुपात्तकर्मशेषपरिणतिवशात् तुच्छकुले जातः, तदयमितः संहृत्य क्षत्रियकुले स्थाप्यतामिति । स हि तदादेशात्तथैवचके।भाध्यकारस्तु अमुमेवार्थ 'अह भणती' त्यादिना प्रतिपादयतिअह भणइ णेगमेसि देविंदो एस इत्य तित्थयरो। लोगुत्तमो महप्पा पववण्णो माहणकुलंमि ॥५१॥ (भा०) गमनिका-'अथ' अनन्तरं भणति 'णेगमेर्सि' ति प्राकृतशैल्या हरिणेगमेषि देवेन्द्रः 'एप' भगवान् 'अत्र' ब्राह्मणकुले | 'लोकोत्तमो' महात्मा उत्पन्न इति गाथार्थः । इदं चासाधु, ततश्चेदं कुरुखत्तिअकुंडग्गामे सिद्धत्थो नाम खत्तिओ अत्थिा सिद्धस्थभारिआए साहर तिसलाइ कुञ्छिसि॥५२॥ (भा०) गमनिका-क्षत्रियकुण्डग्रामे सिद्धार्थो नाम क्षत्रियोऽस्ति, तत्र सिद्धार्थभार्यायाः संहर त्रिशलाया: कुक्षाविति गाथार्थः ॥ बादंति भाणिऊणं वासारत्तस्स पंचमे पक्खे । साहरइ पुव्वरते हत्थुत्तर तेरसी दिवसे ॥५३॥ (भाष्यम् ) FA गमनिका-स हरिणेगमेषिः 'बादति भाणिऊण ति बाढमित्यभिधाय, अत्यर्थ करोमि आदेश, शिरसि स्वाम्यादेशमिति, वर्षारावस्य पश्चमे पक्षे मासदयेऽतिक्रान्ते अश्वयुगबहुलत्रयोदश्यां संहरति पूर्वरात्रे-प्रथमप्रहरयान्त इति भावार्थः, हस्तोत्तरायां त्रयोदशीदिवसे इति गाथार्थः॥ ainatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [१४], आवश्यक हारिभद्रीयत्तिः विभागः१ ॥१७९॥ प्रत सूत्रांक गयगाहा ॥५४॥ एए चोदससुमिणे पासह सा माहणी पडिनिअत्ते। रयणी अवहरिओ कुच्छीऑमहायसो वीरो॥५६॥(भा) पूर्ववत् । इदनानात्वं पश्यति सा ब्राह्मणी प्रतिनिवृत्तान् यस्यां रजन्याम् अपहृतः कुक्षितः महायशा वीर इति गाथार्थः ।। गयगाहा ॥५६॥ (भाष्यम्) एए चोदस सुमिणे पासइ सातिसलया सुहपसुत्ता जरयणि साहरिओ कुञ्छिसि महायसो वीरो॥५७ाभा० | इदं गाधाद्वयं त्रिशलामधिकृत्य पूर्ववद्वाच्यम् ॥ गतमपहारद्वारम् , साम्प्रतमभिग्रहद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह|तिहि नाणेहि समग्गो देवी तिसलाइ सोअकुञ्छिसि।अह वसइ सपिणगम्भो छम्मासे अद्धमासंच॥२८॥भा० | गमनिका-'अथ' अपहारानन्तरं वसति संज्ञी चासौ गर्भश्चेति समासः, क-देव्याः त्रिशलायाः स तु कुक्षी, आहसर्यो गर्भस्थः संन्येव भवतीति विशेषणवैफल्यं, न, दृष्टिवादोपदेशेन विशेषणत्वात्, सच ज्ञानद्वयवानपि भवत्यत आह-त्रिभिज्ञानः-मतिश्रुतावधिभिः समग्रः । कियन्तं कालमित्याह-पण्मासान् अर्धमासं चेति गाथार्थः ।। अह सत्तमंमि मासे गम्भत्थो चेवऽभिग्गहं गिण्हे।नाहं समणो होहं अम्मापिअरंमि जीवंते॥५९॥ (भा०) | गमनिका-अथ सप्तमे मासे गर्भादारभ्य तयोर्मातापित्रोर्गर्भप्रयलकरणेनात्यन्तस्नेहं विज्ञाय अहो ममोपर्यतीव अनयोः स्नेह इति यद्यहमनयोः जीवतोः प्रवज्यां गृहामि नूनं न भवत एतावित्यतो गर्भस्थ एव अभिग्रहं गृहाति. *म (मूळे) -9649-7-%4562-%-2-560% अनुक्रम T 4% ॥१७९॥ www.janatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [१९], प्रत सूत्रांक ज्ञानत्रयोपेतत्वात् । किंविशिष्टमित्याह-नाहं श्रमणो भविष्यामि मातापित्रोजींवतोरिति गाथार्थः ॥ एवं दोण्हं वरमहिलाणं गन्भे वसिऊण गन्भमकुमालो । नवमासे पडिपुण्णे सत्त य दिवसे समहरेगे ॥३०॥(भा) X गमनिका-द्वयोवरमहिलयोः गर्भे उषित्वा गर्ने सुकुमारः गर्भसुकुमारः, प्रायः अप्राप्तदुःख इत्यर्थः । कियन्तं कालम् । &ानव मासान् प्रतिपूर्णान् सात दिवसान् 'सातिरेकान्' समधिकान् इति गाथार्थः ॥ अह चित्तसुद्धपक्खस्स तेरसीपुब्वरत्तकालंमि । हत्थुत्तराहिं जाओ कुण्डग्गामे महावीरो॥६१॥(भाष्यम्) | गमनिका-अथ' अनन्तरं चैत्रस्य शुद्धपक्षः चैत्रशुद्धपक्षः तस्य चैत्रशुद्धपक्षस्य त्रयोदश्यां पूर्वरात्रकाले-प्रथममहरद्वयान्त इति भावार्थः । हस्तोत्तरायां जातः हस्त उत्तरो यासां ता हस्तोत्तराः-उत्तराफाल्गुन्य इत्यर्थः । कुण्डग्रामे महावीर इति ॥ जातकर्म दिक्कुमार्यादिभिनिवर्तितं पूर्ववदवसेयं, किञ्चित्प्रतिपादयन्नाह आभरणरयणवासं पुढे तित्थंकरंमि जायंमि । सको अ देवराया उवागओ आगया निहओ ॥ १२॥ (भा०) MI गमनिका-आभरणानि-कटककेयूरादीनि रक्षानि-इन्द्रनीलादीनि तद्वर्ष-वृष्टिं तीर्थकरे जाते सति, शक्रश्च देवराज उपागतस्तत्रैव, तथा आगताः पद्मादयो निधय इति गाथार्थः ॥ तुहाओ देवीओ देवा आणंदिआ सपरिसागा । भयवंमि बद्धमाणे तेलुकमुहावहे जाए ॥ ६३ ॥ (भाष्यम्) | व्याख्या-तुष्टा देव्यः देवा आनन्दिताः सह परिषद्भिः वर्तन्त इति सपरिषदः भगवति वर्धमाने त्रैलोक्यमुखावहे जाते सतीति गाथार्थ: ।। गतं जन्मद्वार, अभिषेकद्वारावयवार्थ प्रतिपादयन्नाह अनुक्रम CX Santaratmi M oraryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [६४], आवश्यक ॥१८॥ भवणवइवाणमंतरजोइसवासी विमाणवासी ।सब्बिडीइ सपरिसा चविहा आगया देवा ॥६४॥(भा०) हारिभद्री गमनिका-भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनश्चेति समासा, विमानवासिनश्च सर्वा सपरिपदः चतुर्विधा 8 यवृत्तिः आगता देवा इति गाथार्थः॥ |विभागा१ देवेहिं संपरिबुढो देविंदो गिहिऊण तित्थयरं । नेऊण मंदरगिरि अभिसेअंतत्थ कासीअ ॥६५॥(भाष्यम्) व्याख्या-देवैः सपरिवृतो देवेन्द्रो गृहीत्वा तीर्थकरं नीत्वा मन्दरगिरि अभिसेअंति अभिषेकं तत्र कृतवांश्चेति गाथार्थः ।। काऊण य अभिसेअं देविंदो देवदाणवेहि समं । जणणीइ समप्पित्ता जम्मणमहिमंचकासी॥६६॥ (भा०) | गमनिका-कृत्वा चामिषेक देवेन्द्रो देवदानवैः सार्ध, देवग्रहणात् ज्योतिष्कवैमानिकग्रहणं, दानवग्रहणात् व्यन्तरभवनपतिग्रहणमिति । ततो जनन्याः समर्प्य जन्ममहिमां च कृतवान् स्वर्गे नन्दीश्वरे द्वीपे चेति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदिन्द्रादयो भुवननाथेभ्यो भक्त्या प्रयच्छन्ति तद्दर्शनायाहखोमं कुंडलजुअलं सिरिदामंचेव देह सक्को से। मणिकणगरयणवासं उवच्छुभे जंभगा देवा ॥३७॥(भा०) ___गमनिका-क्षीम' देववस्त्रं 'कुण्डलयुगलं' कर्णाभरणं 'श्रीदाम' अनेकरत्नखचितं दर्शनसुभगं भगवतो ददाति शक्रः | 'से' तस्य । इत्थं निर्देशस्त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थः । 'जम्भकाः' व्यन्तरा देवाः, शेष सुगममिति गावार्थः॥ ||१८०॥ विसमणवपणसंचोहा उ ते तिरिअजंभगा देवा।कोडिग्गसो हिरणं रयणाणि अ तत्थ उपणिति ॥१८॥(भा०) | गमनिका-वैश्रमणवचनसंचोदितास्तु ते तिर्यग्जृम्भका देवाः । तिर्यगिति तिर्यग्लोकजुम्भकाः 'कोव्यमशः' कोटीप wwwjanatarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [६८], C+ रिमाणतः 'हिरण्यम्' अघटितरूपं रत्नानि च इन्द्रनीलादीनि तत्रोपनयन्तीति गाथार्थः । गतमभिषेकद्वारं, इदानी वृद्धिद्वारावयवार्थमाह अह बड्डइ सो भयवं दिअलोअचुओअणोवमसिरीओ।दासीदासपरिवुडोपरिकिण्णो पीढमद्देहिं ॥१९॥(भा०) FI अस्य व्याख्या-अथ वर्धते स भगवान देवलोकच्युतः अनुपमश्रीको दासीदासपरिवृतः परिकीर्णः पीठमर्दै' महानपतिभिः परिवृत इति गाथार्थः ॥ द्वारम् । . असिअसिरओ सुनयणो० ॥७० ॥ जाईसरो अभयव०॥७१ ॥ (भाष्यम् ) गाथाद्वयमिदं ऋषभदेवाधिकार इव द्रष्टव्यम् । भेषणद्वारावयवार्थमाहअह ऊणअट्ठवासस्स भगवओ सुरवराण मज्झंमि । संतगुटुंकित्तणयं करेइ सको सुहम्माए ॥७२॥ (भा०) गमनिका-'अथ' अनन्तरं न्यूनाष्टवर्षस्य भगवतः सतः सुरवराणां मध्ये सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः तेषां कीर्चनंशब्दनमिति समासः, करोति 'शको' देवराजः 'सुधर्मायां' सभायां व्यवस्थित इति गाथार्थः ॥ किंभूतमित्यत आहबालो अबालभावो अबालपरक्कमो महावीरो । न हु सक्कइ भेसे अमरेहिँ सईदएहिपि ॥७३॥ (भाष्यम् ) गमनिका-बालः न बालभावोऽबालभावः, भावः-स्वरूपं, न बालपराक्रमोऽवालपराक्रमः, पराक्रमः-चेष्टा, 'शूर वीर * गुणकितणय (सूची). T +USIGARHICE पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७३], ॐ आवश्यक-विक्रान्ता' विति कषायादिशत्रुजयाद् विक्रान्तो वीरः, महांश्चासौ वीरश्चेति महावीरः, नैव शक्यते भेषयितुं 'अमरैः' देवैः हारिभद्रीसेन्ट्रैरपीति गाथार्थः॥ यवृत्तिः ॥१८॥ तं वयणं सोऊण अह एगु सुरो असहहंतो उाएइ जिणसण्णिगासं तुरिअं सो भेसणहाए ॥७४॥(भाष्यम्विभागः १ गमनिका-तद्वचनं श्रुत्वा अथैकः 'सुरो देवः अश्रद्धानस्तु-अश्रद्दधान इत्यर्थः, 'एति आगच्छति 'जिनसन्निकाशा |जिनसमीपं त्वरितमसौ, किमर्थम् -'भेषणार्थम्' भेषणनिमित्तमिति गाथार्थः । स चागत्य इदं चक्रे सप्पं च तरुवरंमी काउंतिदूसरण डिंभं च । पिट्ठी मुबीइ हओ वंदिअ वीर पडिनिअत्तो ॥ ७५ ॥ (भा०) | अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-देवो भगवओ सकाशमागओ, भगवं पुण चेडरूवेहि समं रुक्खखेड्डेण कीलड, तेस रुक्खेस जो पढम विलग्गति जोय पढम ओलुहति सो चेडरूवाणि वाहेइ, सो अ देवो आगंतूण हेडओ रुक्सस्स सप्परूवं विउवित्ता अच्छइ उप्परामुहो, सामिणा अमूढेण वामहत्थेण सत्ततिलमित्तत्ते छुढो, ताहे देवो चिंतेइ-पत्थ ताव न छलिओ । अह पुणरवि सामी तेंदूसएण रमइ, सो य देवो चेडरूवं विउबिऊण सामिणा समं अभिरमइ, तत्थ सामिणा ॥१८॥ देवो भगवतः सकाशामागतः, भगवान्पुनः चेटरूपैः समं पक्षक्रीडया कीडति, तेषु क्षेषु यः प्रथममारोदति या प्रथममवरोहति स चेटरूपाणि वाहयति, सच देव आगत्यायो वृक्षस सर्परूपं विकुळ तिष्ठति अपरिमुखः, स्वामिना अमूढेन वामहस्तेन सप्ततालमात्रतस्यक्ता, तदा देवचिन्तयति-अन्न तावना उलितः । अब पुनरपि स्वामी तिन्दूसकेन रमते, स च देवश्चटरूपं विकुर्य खामिना सममभिरमते, तत्र स्वामिना 25555 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७५], सो जिओ, तस्स उपरि विलग्गो, सो य वहिउँ पवत्तो पिसायरूवं विउवित्ता, तं सामिणा अभीएण तलष्पहारेण पहओ जहा तस्थेव णिबुड्डो, एत्थवि न तिण्णो छलिउँ, देवो वंदित्ता गओ। अयं पुनरक्षरार्थ:-सर्प च तरुवरे कृत्वा 'तेन्दूसकेन' क्रीडाविशेषण हेतुभूतेन 'डिम्भं च' बालरूपं च, कृत्वेत्यनुवर्तते । पृष्ठौ मुष्टिना हतः वन्दित्वा वीर प्रतिनिवृत्त इत्यक्षरार्थः ॥ अन्यदा भगवन्तमधिकाष्टवर्ष कलाग्रहणयोग्यं विज्ञाय मातापितरौ लेखाचार्याय उपनीतवन्तौ । आह च अह तं अम्मापिअरो जाणित्ता अहिअअट्ठवासंतु। कयकोउअलंकारं लेहायरिअस्स उवणिति ॥७६॥ (भा०) * गमनिका-'अर्थ' अनन्तरं भगवन्तं मातापितरौ ज्ञात्वा अधिकाष्टवर्षे तु कृतानि रक्षादीनि कौतुकानि केयूरादयोऽलङ्काराश्च यस्येति समासः, तं 'लेखाचार्याय उपाध्यायायेत्यर्थः । 'उवणेति' ति प्राकृतशैल्या उपनयतः, पाठान्तरं वा उवणेसु' तदा उपनीतवन्त इति गाथार्थः । अत्रान्तरे देवराजस्य खल्वासनकम्पो बभूव, अवधिना च विज्ञायेदं प्रयोजनं अहो खस्वपत्यस्नेहविलसितं भुवनगुरुमातापित्रोः येन भगवन्तमपि लेखाचार्याय उपनेतुमभ्युद्यतौ इति संप्रधार्य | आगत्य चोपाध्यायतीर्थकरयोः परिकल्पितयोः बृहदल्पयोरासनयोः उपाध्यायपरिकल्पिते बृहदासने भगवन्तं निवेश्य शब्दलक्षणं पृष्टवान् ॥ अमुमेवार्थ प्रतिपादयति भाष्यकारः 'सक्को अ०' इत्यादिनेति । *सको अ तस्समक्खं भगवंतं आसणे निवेसित्ता।सदस्स लक्खणं पुच्छे वागरण अवयवा इंदं ॥७॥(भा०) स जितः तस्योपरि विलनः, स च वर्धित प्रवृत्तः पिशाचरूपं विकुळ्य, तथा स्वामिनाऽभीतेन तळप्रहारेग प्रहतः यथा तत्रैव निमनः, अवापि ना | शक्तन्वलित, देवो वन्दित्वा गतः। 29 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [७७], आवश्यक- गमनिका-शक्रश्च 'तत्समक्षं लेखाचार्यसमक्षं 'भगवंत' तीर्थकर आसने निवेश्य शब्दस्य लक्षणं पृच्छति । पाठान्तरं हारिभद्रीदवा 'पुच्छिसु सद्दलक्खणं, वागरणं अवयवा इंद' पृष्टवान् शब्दलक्षणं, भगवता च व्याकरणमभ्यधायि, व्याक्रियन्ते । यवृत्तिः ॥१८॥ लौकिकसामयिकाः शब्दा अनेनेति व्याकरण-शब्दशास्त्र, तदवयवाः केचन उपाध्यायेन गृहीताः, ततश्च ऐन्द्रं व्याकरणं | विभागः१ संजातमिति गाथार्थः ॥ द्वारम् । विवाहद्वारावयवार्थमभिधित्सयाऽऽह| उम्मुकवालभायो कमेण अह जोब्वर्ण अणुप्पत्तो।भोगसमत्थं णा अम्मापिअरोउ वीरस्स ॥ ७८॥ (भा) । गमनिका-एवं उन्मुक्तो बालभावो येनेति समासः, 'क्रमेण उक्तप्रकारेण 'अथ' अनन्तरं 'यौवनं वयोविशेषलक्षणं बालादिभावात् पश्चात् प्राप्तः अनुप्राप्तः । अत्रान्तरे भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयः तेषां समर्थों भोगसमर्थः तं ज्ञात्वा भगवन्तं, कौ ?-मातापितरौ तु वीरस्येति गाथार्थः ॥ किम् ?तिहिरिक्खंमि पसत्थे महन्तसामन्तकुलपसूआए।कारंति पाणिगहणं जसोअवररापकण्णाए ॥७९॥(भा) गमनिका-तिथिश्च ऋक्षं च तिथिऋक्षं, ऋक्ष-नक्षत्रं, तस्मिन् तिथिऋक्षे, 'प्रशस्ते' शोभने, महन्च तत्सामन्तकुलं च महासामन्तकुलं तस्मिन् प्रसूतेति समासः तया, कारयतः मातापितरौ, पाहणं पाणिग्रहणं, कया ?-यशोदा चासौ ॥१८॥ वरराजकन्या चेति विग्रहः तया, तब 'महासामन्तकुलप्रसूतया इत्यनेनाग्वयमहत्त्वमाह, 'परराजकन्यया' इत्यनेन तु| तत्कालराज्यसंपधुकतामाहेति गाथार्थः ॥ द्वारम् । अपत्यद्वारावयवार्धं व्याचिख्यासुराह ANSAR Tanminaryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४५८...], भाष्यं [८०], पंचविहे माणुस्से भोगे मुंजितु संह जसोभाए । तेयसिरिव सुरूवं जणेइ पिअदसणं धूअं ॥८॥(भा०) गमनिका-'पञ्चविधान्' पञ्चप्रकारान् शब्दादीन मनुष्याणामेते मानुष्यास्तान् भोगान् भुक्त्वा 'ततो' यशोदायाः, तेजसः श्रीः तेजःश्रीः तां तेजःश्रियमिव सुरूपां, अथवा तस्याः श्रियमिवेति पाठान्तरं वा । जनयति प्रियदर्शनां 'धुतां' दुहितर, 'जणिसु' वा पाठः, जनितवानिति गाथार्थः॥ द्वारम् । अत्रान्तरे च भगवतः मातापितरौ कालगती, भगवानपि तीर्णप्रतिज्ञः प्रत्रज्याग्रहणाहितमतिः नन्दिवर्धनपुरस्सरं स्वजनमापृच्छति स्म, स पुनराह-भगवन् ! क्षारं क्षते मा|8| क्षिपस्व, कियन्तमपि कालं तिष्ठ, भगवानाह-कियन्तम् , स्वजन आह-वर्षद्वयं, भगवानाह-भोजनादौ मम व्यापारो नदी वोढव्य इति, प्रतिपन्ने भगवान् समधिक वर्षद्वयं प्रासुकैषणीयाहारः शीतोदकमप्यपिवन तस्थौ, अत्रान्तर एव महादानं दत्तवान् ,लोकान्तिकैश्च प्रतिबोधितः पुनः पूर्णावधिः प्रबजित इति ॥ अमुमेवार्थं संक्षेपतः प्रतिपादयन् आह नियुक्तिकृत्हत्थुसरजोएणं कुंडग्गाममि खत्तिओ जच्चो । वनरिसहसंघयणो भविअजणविबोहओ वीरो ॥ ४५९॥ सो देवपरिग्गहिओ तीसं वासाइ वसइ गिहवासे । अम्मापिइहिं भयवं देवत्तगएहि पब्वइओ ॥ ४६० ॥ गमनिका-हस्तोत्तरायोगेन' उत्तराफाल्गुनीयोगेनेत्यर्थः, कुण्डग्रामे नगरे क्षत्रियो 'जात्यः' उत्कृष्ट इत्यर्थः, वज्रऋषभपू संहननो भव्यजनविरोधको वीरः, किम् -मातापितृभ्यां भगवान् देवत्वगताभ्यां प्रबजित इति योगः। द्वितीयगाथाग * तमो वृत्ती प्रक irwanmitrayog पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०], भाष्यं [८०], प्रत सूत्रांक आवश्यक- मनिका-'सः' भगवान देवपरिगृहीतः त्रिंशद्वर्षाणि वसति, उषित्वा वा पाठान्तरं, गृहवासे शेष व्याख्यातमेव ॥ ४५९-18 हारिभद्री४६०॥ साम्प्रतं भाष्यकारः प्रतिद्वारं अवयवार्थ व्याख्यानयति-'संवच्छरेण.' गाथेत्यादिना यवृत्तिः ॥१८॥ संवच्छरेण ॥८॥एगा हिरण |८|| सिंघाडय०॥८३॥ वरवरिआ०॥८४॥ तिपणेव य०॥८५।। (भा०) | विभागः१ इदं गाथापश्चकं ऋषभदेवाधिकारे व्याख्यातत्वान्न वित्रियते ॥ द्वारम् । संबोधनद्वारावयवार्थमाह सारस्सयमाइचा०॥ ८६ ।। एए देवनिकाया०॥८७॥ (भा०) एवं अभिथुव्वतो बुडो बुखारविंदसरिसमुहो। लोगंतिगदेवेहि कुंडग्गामे महावीरो ॥ ८८ ॥ (भा०) इदमपि गाथात्रयं व्याख्यातत्वात् न प्रतन्यते । आह-ऋषभदेवाधिकारे 'संवोहणपरिच्चाएत्ति' इत्यादिद्वारगाथायां संबोधनोत्तरकालं परित्यागद्वारमुक्त, तथा मूलभाष्यकृता व्याख्या कृतेति, अधिकृतद्वारगाथायां तु 'दाणे संबोध निक्खमणे' इत्यभिहितं, इत्थं व्याख्या (च) कृतेति । ततश्च इह दानद्वारस्य संबोधनद्वारात् पूर्वमुपन्यासः तत्र वा संबोधनद्वारादुत्तरं परित्यागद्वारस्य विरुध्यत इति, उच्यते, न सर्वतीर्थकराणामयं नियमो यदुत-संबोधनोत्तरकालभाविनी महादानप्रवृत्ति-10 cारिति, अधिकृतग्रन्थोपन्यासान्यथानुपपत्तेः, नियमेऽपीह दानद्वारस्य बहुतरवक्तव्यत्वात् संबोधनद्वारात्मागुपन्यासो न्याय प्रदर्शनार्थोऽविरुद्ध एव, अधिकृतद्वारगाथानियमे तु व्यत्ययेन परिहारः-तत्राल्पवक्तव्यत्वात् संबोधनद्वारस्य प्रागुपभ्यासः, ॥१८॥ इत्येतावन्तः संभविनः पक्षाः, तत्त्वं तु विशिष्टश्रुतविदो जानन्तीति अलं प्रसझेन ॥ द्वारम् । साम्प्रतं निष्क्रमणद्वारावयवार्थ ब्याचिख्यासुराह । अनुक्रम allantanasanayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [८९], CIRCRACT मणपरिणामो अकओ अभिनिक्खमणमि जिणवरिंदेणादेवहि य देवीहिँ यसमंतओ उच्छयं गयण।८९॥ (भा०) गमनिका-मनःपरिणामश्च कृतः 'अभिनिष्क्रमणे' इति अभिनिष्क्रमणविषयो जिनवरेन्द्रेण, तावत् कि संजातमित्याह-देवैर्देवीभिश्च 'समन्ततः' सर्वासु दिक्षु 'उच्छयं गयणं' ति व्याप्तं गगनमिति गाथार्थः॥ भवणवइवाणमंतरजोहसवासी विमाणवासी आधरणियले गयणयले विजुजोओकओ खिप्पं ॥१०॥(भा०) | गमनिका-थैर्देवैः गगनतलं व्याप्तं ते खल्बमी वर्तन्ते-भवनपतयश्च व्यन्तराश्च ज्योतिर्वासिनश्चेति समासः, ज्योतिःशब्देन इह तदालया एवोच्यन्ते, विमानवासिनश्च । अमीभिरागच्छद्भिः धरणितले गगनतले विद्युतामिवोद्योतो विद्युदुद्योतः कृतः क्षिप्रं शीघ्रमिति गाथार्थः ।। जाव य कुंडग्गामो जाव य देवाण भवणआवासा । देवोह य देवीहिँ य अविरहिअं संचरतेहिं ॥ ९१ ॥ (भा०) | गमनिका-यावत् कुण्डग्रामो यावच्च देवानां भवनावासां अत्रान्तरे धरणितलं गगनतलं च देवैः देवीभिश्च 'अविरहित' ब्याप्तं संचरद्भिरिति गाथार्थः ॥ अत्रान्तरे देवैरेव भगवतः शिविकोपनीता, तामारुह्य भगवान् सिद्धार्थवनमगमत् , अमुमेवार्थ प्रतिपादयति-'चंदप्पभा येत्यादिना'चन्दप्पभा य सीआ उवणीआ जम्मजरणमुक्कस्स।आसत्तमल्लदामा जलयथलयविकुसुमहिं ॥९॥ (भा०) व्याख्या-चन्द्रप्रभा शिबिकेत्यभिधानं 'उपनीता' आनीता, कस्मै ?-जरामरणाभ्यां मुक्तवत् मुक्तः तस्मै-वर्धमानाये T JABERatinintamational Hiranjanniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१२], हारिभद्री आवश्यक ॥१८॥ SCSSCk त्यर्थः, पष्ठी चतुर्थ्यर्थे द्रष्टव्या। किंभूता सेत्याह-आसक्तानि माल्यदामानि यस्यां सा तथोच्यते, तथा जलजस्थलजदिव्यकुसुमैः, चर्चितेति वाक्यशेषः इति गाथार्थः ॥ शिबिकाप्रमाणदर्शनायाह यवृत्तिा पंचासह आयामा धणूणि विछिपण पण्णवीसंतु। छत्तीसइमुग्विद्धासीया चंदप्पभा भणिआ ॥९३॥ (भा०)द विभागः१ __व्याख्या-पश्चाशत् धनूंषि आयामो-दैर्ध्य यस्याः सा पञ्चाशदायामा धषि, विस्तीर्णा पञ्चविंशत्येव, पत्रिंशद्धषि 'उविद्धत्ति' उच्चा, उच्चैस्त्वेन षट्त्रिंशद्धपीति भावार्थः, शिविका चन्द्रप्रभाभिधाना 'भणिता' प्रतिपादिता तीर्थकरगणधरैरिति, अनेन शास्त्रपारतन्त्र्यमाहेति गाथार्थः॥ सीआइ मज्झयारे दिव्वं मणिकणगरयणचिंचइसीहासणं महरिहं सपायचीदं जिणवरस्स ॥१४॥(भा०) | व्याख्या-शिविकाया मध्य एव मध्यकारस्तस्मिन् 'दिव्यं सुरनिर्मितं मणिकनकरत्नखचितं सिंहासनं महाई, तत्र मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः कनक-देवकाञ्चनं रत्नानि-मरकतेन्द्रनीलादीनि 'चिंचइ ति देशीवचनतः खचितमित्युच्यते । सिंहप्रधानमासनं सिंहासनं, महान्तं भुवनगुरुमर्हतीति महार्ह, सह पापीठेनेति सपादपीठं, जिनवरस्य, कृतमिति | वाक्य शेषः इति गाथार्थः॥ ॥१८॥ आलइअमालमउडो भासुरवोंदी पलंबवणमालो । सेययवत्थनियत्थो जस्स य मोल्लं सपसहस्सं ॥१५॥ उद्वेणं भत्तेणं अज्झवसाणेण सोहणण जिणो । लेसाह विसुझंतो आरुहई उत्तमं सीअं ॥९६ ॥ (भा.) * सुंदरेण वृत्तौ. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-, नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [९६], 4 %AA व्याख्या-आलइ आविद्धमुच्यते, माला-अनेकसुरकुसुमग्रथिता, मुकुटस्तु प्रसिद्ध एव, माला च मुकुटश्च मालाxiमुकुटी आविडी मालामुकुटौ यस्येति विग्रहः । भास्वरा-छायायुक्ता बोन्दी-तनुः यस्य स तथाविधा, प्रलम्बा वनमाला-151 प्रागभिहिता अन्या वा यस्येति समासः । 'सेययवत्थनियत्थो' ति नियत्थं-परिहितं भण्णइ, निवसितं श्वेतं वस्त्रं येन स निवसितश्वेतवस्त्रः, बन्धानुलोम्यात् निवसितशब्दस्य सूत्रान्ते प्रयोगः, लक्षणतस्तु बहुव्रीही निष्ठान्तं पूर्व निपततीति पूर्व द्रष्टव्यः, श्वेतवस्त्रपरिधान इत्यर्थः। यस्य च मूल्यं शतसहस्रं दीनाराणामिति गाथार्थः। स एवंभूतो भगवान् मार्गशीर्ष-18 बहुलदशम्या हस्तोत्तरानक्षत्रयोगेन 'छट्वेणं भत्तेणं' इत्यादि, पछेन भक्तेन, दिनद्वयमुपोषित इत्यर्थः । अध्यवसानं-अन्तःकरणसव्यपेक्ष विज्ञानं तेन 'सुन्दरेण शोभनेन 'जिनः' पूर्वोक्तः, तथा लेश्याभिर्विशुध्यमानःमनोवाकायपूर्विकाः कृष्णादि-I द्रव्यसंबन्धजनिताः खलु आत्मपरिणामाः लेश्या इति, उक्तं च-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् ,परिणामो य आत्मनः। स्फटिक-13 स्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥" ताभिः विशुध्यमानः, किम् ?-आरोहति 'उत्तमा प्रधानां शिबिकामिति गाथार्थः ।। सीहासणे निसण्णो सकीसाणा य दोहि पासेहिं । वीअंति चामरेहिं मणिकर्णंगविचित्तदंडेहिं ॥१७॥ (भा०) द व्याख्या-तत्र भगवान् सिंहासने निषण्णः शक्रेशानी च देवनाथौ द्वयोः पार्श्वयोः व्यवस्थिती, किम् ?-वीजयतः, काभ्याम् ?-चामराभ्यां, किंभूताभ्याम् ?-मणिरत्नविचित्रदण्डाभ्यामिति गाथार्थः ॥ एवं भगवति शिविकान्तर्वतिनि |सिंहासनारूढे सति सा शिविका सिद्धार्थोद्याननयनाय उत्क्षिप्ता ॥ कैरित्याह * यण वृत्ती. Indiarary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [९८], Ta Ta आवश्यक- पुब्धि उक्खित्ता माणुसेहि सा हट्ठरोमकूवेहि। पच्छा वहति सीअं असुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥९८॥ (भा०) हारिभद्री | व्याख्या-'पूर्व प्रथम 'उत्क्षिप्ता' उत्पाटिता, कैः?-मानुपैः, सा शिविका, किंविशिष्टैः?-दृष्टानि रोमकूपानि येषामिति- यवृत्तिः ॥१८५॥ समासः, तैः। पश्चाद्वहन्ति शिविका, के ?-असुरेन्द्रसुरेन्द्रनागेन्द्रा इति गाथार्थः । असुरादिस्वरूपव्यावर्णनायाह ४ विभागः१ चलचवलभूसणधरा सच्छंदविउब्विआभरणधारी। देविंददाणविंदा वहंति सीअंजिणिदस्स ॥ ९९ ॥ (भा०) गमनिका-चलाश्च ते चपलभूषणधराश्चेति समासः । चलाः-गमनक्रियायोगात् हारादिचपलभूषणधराश्च । स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण विकुर्वितानि-देवशक्त्या कृतानि आभरणानि-कुण्डलादीनि धारयितुं शीलं येषामिति समासः । अथवा चलचपलभूषणधरा इत्युक्तं, तानि च भूषणानि किं ते परनिर्मितानि धारयन्ति उत नेति विकल्पसंभवे व्यवच्छेदार्थमाह'स्वच्छन्दविकुर्विताभरणधारिणः',क एते ?-देवेन्द्रा दानवेन्द्राः,किम् ?-वहन्ति शिविका जिनेन्द्रस्येति गाथार्थः। अत्रान्तरेकुसुमाणि पंचवण्णाणि मुयंता दुंदुही पताङता। देवगणा य पहट्ठा समंतओ उकछयं गयणं ॥१०॥(भा०) । व्याख्या--भगवति शिविकारूढे गच्छति सति नभःस्थलस्थाः कुसुमानि शुक्लादिपञ्चवर्णानि मुश्चन्तः तथा दुदुम्भी-1 Iस्ताडयन्तश्च, के-'देवगणाः' देवसंघाताः, चशब्दस्य प्रासंबन्धो व्यवहितः प्रदर्शित एव, प्रकर्षेण हृष्टाःप्रहृष्टाः, किम् ? भगवन्तमेव स्तुवन्तीति क्रियाऽध्याहारः । एवं स्तुवद्भिर्देवैः किमित्याह-समन्ततः' सर्वासु दिक्षु सर्व 'उच्छयं गगणं' व्याप्तं गगनमिति गाथार्थः ॥ वणसंडोब्ब कुसुमिओपउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं इय गगणयलं सुरगणेहिं ।१०१शभाका SASARACK पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भगवत: दीक्षा (अभिनिष्क्रमण) स्य वर्णनम् ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०१], गमनिका-वनखण्डमिव कुसुमितं पद्मसरो वा यथा शरत्काले शोभते कुसुमभरेण-हेतुभूतेन, 'इय' एवं गगनतलं सुरगणैः शुशुभे इति गाथार्थः ॥ सिद्धत्थवणं च(व)जहा असणवणं सणवणं असोगवणाचूअवर्णव कुसुमिअंइअगयणयलं सुरगणेहिं१०२(भा०) व्याख्या-सिद्धार्थकवनमिव यथा असनवनं, अशनाः-बीजकाः, सणवनं अशोकवनं चूतवनमिव कुसुमितं, 'इ' एवं गगनतलं सुरगणै रराजेति गाथार्थः॥ अयसिवणं व कुसुमिअं कणिआरवणं व चंपयवणं य । तिलयवणं व कुसुमिअं इअ गयणतलं सुरगणेहिं ॥१०३ ॥ (भा०) व्याख्या-अतसीवनमिव कुसुमितं, अतसी-मालवदेशप्रसिद्धा, कर्णिकारवनमिव चम्पकवनमिव तथा तिलकवनमिव IPIकुसुमितं यथा राजते, 'इअ' एवं गगनतलं सुरगणैः क्रियायोगः पूर्ववदिति गाथार्थः॥ वरपडहभेरिझल्लरिदुंदुहिसंखसहिएहिं तूरेहिं । धरणियले गयणयले तूरनिनाओ परमरम्मो ॥१०४॥(भा०) व्याख्या-घरपटहभेरिझलरिदुन्दुभिशङ्खसहितैस्तूयः करणभूतैः, किम् ?-धरणितले गगनतले 'तूर्यनिनादः' तूर्यनिर्घोषः परमरम्योऽभवदिति गाथार्थः॥ एवं सदेवमणुआसुराएँ परिसाएँ परिवुडो भयवं । अभिथुव्वंतो गिराहिं संपत्तो नायसंडवणं ॥१०५॥ (भा०) SISAK*S***** CESS JABERatindile पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०५], आवश्यक ॥१८॥ प्रत सूत्रांक गमनिका-एवं' उक्तेन विधिना, सह देवमनुष्यासुरैर्वर्त्तत इति सदेवमनुष्यासुरा तया, कयेत्याह-परिषदा परि- हारिभद्री|| वृतो भगवान् अभिस्तूयमानो 'गीर्भि' वाग्भिरित्यर्थः, संप्राप्तः ज्ञातखण्डवनमिति गाथार्थः ।। | बवृत्तिः उज्जाणं संपत्तो ओरुभइ उत्तमाउ सीआओ। सयमेव कुणइ लोअंसको से पहिच्छए केसे ॥१०६॥ (भा०)18 विभागः१ | गमनिका-उद्यानं संप्राप्तः, 'ओरुहइत्ति अवतरति उत्तमायाः शिबिकायाः, तथा स्वयमेव करोति लोचं, 'शको देवराजा से' तस्य प्रतीच्छति केशानिति, एवं वृत्तानुवादेन ग्रन्थकारवचनत्वात् वर्तमाननिर्देशः सर्वत्र अविरुद्ध एवेति गाथार्थः॥ 'जिणवरमणुण्णवित्ता अंजणघणरुयगविमलसंकासा। केसा खणेण नीआ खीरसरिसनामयं उदहिं ॥ १०७॥ (भा०) गमनिका-शक्रेण-जिनवरमनुज्ञाप्य अञ्जन-प्रसिद्धं घनो-मेघः रुक-दीप्तिः, अञ्जनघनयो रुक् अञ्जनघनरुक् ४ अञ्जनधनरुग्वत् विमलः संकाश:-छायाविशेषो येषां ते तथोच्यन्ते । अथवा अञ्जनघनरुचकविमलानामिव संकाशो येषामिति समासः 'रुचक: कृष्णमणिविशेष एव, क एते ?-केशाः, किम् ?-क्षणेन नीताः, कम् ?-क्षीरसदृशनामानमुदर्षि' क्षीरोदधिमिति गाथार्थः ॥ अत्रान्तरे च चारित्रं प्रतिपत्नुकामे भगवति सुरासुरमनुजवृन्दसमुद्भवो ध्वनिस्तूर्यनि|नादश्च शक्रादेशाद् विरराम, अमुमेवार्थं प्रतिपादयन्नाह ॥१८६॥ में दिव्यो मणूसघोसो तूरनिनाओ अ सकवयणेणं। खिप्पामेव निलुको जाहे पडिवजई चरित्तं॥१०८॥ (भा०) गमनिका-'दिव्यो' देवसमुत्थो मनुष्यघोषश्च, चशब्दस्य व्यवहितः संवन्धः, तथा तूर्यनिनादच शक्रवचनेन 'क्षिप्र अनुक्रम JAMEar time पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~382~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०८], CS प्रत सूत्रांक मेव' शीघ्रमेव 'निलुकोत्ति' देशीवचनतो विरतः 'यदा' यस्मिन् काले प्रतिपद्यते चारित्रमिति गाथार्थः ॥ स यथा चारित्रं प्रतिपद्यते तथा प्रतिपिपादयिषुराहकाऊण नमोकारं सिहाणमभिग्गहं तु सोगिण्हे ।सव्वं मे अकरणिनं पावंति चरित्तमारूढो ॥१०९॥(भा०) ___ व्याख्या कृत्वा नमस्कारं सिद्धेभ्यः अभिग्रहमसौ गृह्णाति, किंविशिष्टमित्याह-सर्व 'मे' मम 'अकरणीयं न कर्त्तव्यं, किं तदित्याह-पापमिति, किमित्याह-चारित्रमारूढ इतिकृत्वा, स च भदन्तशब्दरहितं सामायिकमुच्चारयतीति गाथार्थः॥ चारित्रप्रतिपत्तिकाले च स्वभावतो भुवनभूषणस्य भगवतो निर्भूषणस्य सत इन्द्रो देवदूष्यवस्त्रमुपनीतवान् इति । अत्रान्तरे कथानकम्-एंगेण देवदूसेण पचएइ, एतं जाहे अंसे करेइ एत्थंतरा पिउवयंसो धिज्जाइओ उवहिओ, सो अ दाणकाले कहिंपि पवसिओ आसी, आगओ भजाए अंबाडिओ, सामिणा एवं परिचत्तं, तुमं च पुण वणाइ हिंडसि, जाहि जइ इत्यंतरेऽवि लभिजासि । सो भणइ-सामि ! तुन्भेहिं मम न किंचि दिणं, इदाणिपि मे देहि । ताहे सामिणा तस्स। दूसस्स अद्धं दिण्णं, अन्नं मे नस्थि परिचत्तंति । तं तेण तुण्णागस्स उवणी जहा एअस्स दसिआओबंधाहि । कत्तोत्ति अनुक्रम एकेन देवदूष्येण प्रनजति, एतद् बदाइंसे करोति, अत्रान्तरे पितृवयम्यो चिजातीयः उपस्थितः, सच दान काले कुत्रापि प्रोपितोऽभवत्, आगतो भार्यया सर्जितः-स्वामिना एवं परित्यक्तं, त्वं च पुनर्वनानि हिन्डसे, याहि यत्रान्तरेऽपि लभेधाः । स भणति-स्वामिन् ! युष्माभिर्मम न किश्चिद, इदानीदमपि मह्यं देहि । तथा स्वामिना तो दूष्यस्था दर्ग, अन्यन्मे नास्ति परित्यक्तमिति । तत्तेन तुजवायायोपनीतं पर्यतस्य दशा वधान । कुत इति पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१०९], ॥१८७॥ GRAOCALCCCCCC पुच्छिए भणति-सामिणा दिण्णं, तुण्णाओ भणति-तंपि से अर्दू आणेहि, जया पडिहिति भगवओ अंसाओ, ततो अहं हारिभद्रीतण्णामि ताहे लक्खमोलं भविस्सइत्ति तो तुज्झवि अर्द्ध मज्झवि अद्धं, पडिवण्णो ताहे पओलग्गिओ, सेसमुवरियवृत्तिः भणिहामि । अलं प्रसङ्गेन । तस्य भगवतश्चारित्रप्रतिपत्तिसमनन्तरमेव मनःपर्यायज्ञानमुदपादि, सर्वतीर्थकृतां चाय विभागः१ क्रमो, यत आह तिहि नाणेहि समग्गा तित्थयरा जाव हुँति गिहवासे।। पडिवणमि चरित्ते चउनाणी जाव छउमत्था ॥११०॥ (भा०) व्याख्या-'त्रिभिमा॑नः' मतिश्रुतावधिभिः संपूर्णाः तीर्थकरणशीलास्तीर्थकरा भवन्तीति योगः। किं सर्वमेव कालम् , नेत्याह-यावद्गृहबासे भवन्तीति वाक्यशेषः । प्रतिपन्ने चारित्रे चतुर्सानिनो, भवन्तीत्यनुवर्तते । कियन्तं कालमित्याहयावत् छद्मस्थाः तावदपि चतुज्ञानिन इति गाथार्थः ॥ एवमसी भगवान् प्रतिपन्नचारित्र: समासादितमनःपर्यवज्ञानो |ज्ञातखण्डादापृच्छय स्वजनान् कारग्राममगमत् । आह च भाष्यकार:बहिआ य णायसंडे आपुच्छित्ताण नायए सब्वे। दिवसे मुहत्तसेसे कुमारगामं समणुपत्तो ॥१११॥ (भा०)। व्याख्या-बहिर्धा च कुण्डपुरात् ज्ञातखण्ड उद्याने, आपृच्छच 'ज्ञातकान्' स्वजनान् 'सर्वान्' यथासन्निहितान्, ISI ॥१८७॥ १ पृष्टे भणति-स्वामिना दत्तं, तुमचायः भणति-तदपि तस्या आनय, बदा पतति भगवतोऽसात् , ततोऽहं क्यामि । तदा लक्षमूल्यं भविष्यतीति, ततस्तवाप्य ममाप्यध, प्रतिपयस्ता प्रावलमः । शेषमुपरिष्टात् भाषिष्यामि. wajaniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: भगवत् महावीरस्य विहार एवं उपसर्गानां वर्णनं ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१११], तस्मात् निर्गतः, कर्मारग्रामगमनायेति वाक्यशेषः । तत्र च पथद्वयं-एको जलेन अपरः स्थल्या, तत्र भगवान स्थल्या | गतवान् , गच्छंश्च दिवसे मुहत्तशेपे कारग्राममनुप्राप्त इति गाथार्थः ॥ तत्र प्रतिमया स्थित इति । अत्रान्तरे-तत्थेगो गोषो. सो दिवसं बइल्ले बाहित्ता गामसमीर्य पत्तो, ताहे चिंतेइ-एए गामसमीवे चरंतु, अहंपि ता गावीओ दुहामि.IN सोऽवि ताव अन्तो परिकम्मं करेइ, तेऽवि बइल्ला अडविं चरन्ता पविडा, सो गोवो निग्गओ, ताहे सामि पुच्छइ-कहिं|P बइला?, ताहे सामी तुण्हिको अच्छइ, सो चिंतेइ-एस न याणइ, तो मग्गिउँ पवत्तो सबरतिपि, तेऽवि बइल्ला सुचिरं भमित्ता गामसमीवमागया माणुसं दखूण रोमर्थता अच्छंति, ताहे सो आगओ, ते पेच्छइ तत्थेव निविहे, ताहे आसुरुत्तो । एएण दामएण आहणामि, एएण मम एए हरिआ, पभाए घेत्तूण वञ्चिहामित्ति । ताहे सक्को देवराया चिंतेइ-कि अज सामी पढमदिवसे करेइ?, जाव पेच्छइ गोवं धावंतं, ताहे सो तेण थंभिओ, पच्छा आगओ तं तज्जेति-दुरप्पा!न याणसि सिद्धत्थरायपुत्तो एस पवइओ । एयंमि अंतरे सिद्धत्यो सामिस्स माउसियाउत्तो बालतवोकम्मेणं वाणमन्तरो जाएलओ, पादाभ्याम् प० २ को गोपः स दिवस बकीवर्दी वाहयित्वा प्रामसमीर्ष प्राप्तः, वदा चिन्तयति-एती प्रामसमीपे परता, अहमपिताबदू गा दोझि, सोऽपि तावदन्तः परिकर्म करोति, तावपि बलीवदौं चरन्तावटवीं प्रविष्टी, स गोपो निर्गतः, तदा स्वामिनं पृच्छति-क वकीक्दौं !, तदा स्वामी तूष्णीकस्तिष्ठति, स चिन्तयति-एष न जानाति, ततः मार्गयितुं प्रवृपः सर्वरात्रिमपि, तावपि बलीवदौं सुचिरं भ्रामवा ग्रामसमीपमागती मानुषं दृष्ट्वा रोमन्धायमानौ तिष्ठतः, तदा स आगतः, तो परवति तत्रैव निविष्टी, सदा कुछ एतेन दाम्नाऽऽइन्मि, एतेन मम एतौ हती, प्रभाते गृहीत्वा प्रजिष्यामीति । तदा शक्रो देवराजचिन्तयति-किमद्य स्वामी प्रथमदिवसे करोति, यावपश्यति गोपं धावन्तं, तदा स तेन खम्भितः, पश्चादायतसं तसंपति-दुरात्मन् ! न जानीपे सिद्धार्थराजपुत्र एप प्रनजितः । एराखिनन्तरे सिद्धार्थः स्वामिनः मातृष्वस्त्रेयः बालतपःकर्मणा वानमन्तरी जातोऽभवत्। T JABERDurali Tangibrary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६०...], भाष्यं [१११] आवश्यकासो आगओ । ताहे सको भणइ-भगवं! तुम्भ उवसग्गबहुलं, अहं पारस बरिसाणि तुभ वेयावच्च करेमि, ताहे सामिणा हारिभद्री भणि-न खलु देविंदा! एयं भूअं वा (भव वा भविस्सं वा) जपणं अरहंता देविदाण वा असुरिंदाण वा निस्साए कडायवृत्तिः ॥१८॥ केवलनाणं उप्पाडेंति, सिद्धिं वा वञ्चंति, अरहंता सरण उहाणबलविरियपुरिसकारपरकमेणं केवलनाणं उप्पाडेति । ताहे विभागः१ सकेण सिद्धत्थो भण्णइ-एस तव नियल्लओ, पुणो य मम वयणं-सामिस्स जो परं मारणंतिअं उवसग्गं करेइ तं वारेजसु, एवमस्तु तेण पडिस्सु, सको पडिगओ, सिद्धत्यो ठिओ। तदिवसं सामिस्स छडपारणयं, तो भगवं विहरमाणो गओ कोलागसण्णिवेसे, तस्थ य भिक्खडा पविहो बहुलमाहणगेह, जेणामेव कुल्लाए सन्निवेसे बहुले माहणे, तेण महुपयसंजुत्तेण परमण्णण पडिलाभिओ, तत्थ पंच दिवाई पाउन्भूयाई । अमुमेवार्थमुपसंहरनाह गोवनिमित्तं सकस्स आगमो वागरेइ देविंदो । कोल्लाबहुले छहस्स पारणे पयस चसुहारा ॥ ४६१॥ व्याख्या-ताडनायोचतगोपनिमित्तं प्रयुक्तावधेः 'शक्रस्य देवराजस्य, किम् ?, आगमनं आगमः अभवत्, विनिवार्य स आगतः । तदा शको भणति-भगवन् ! तव नवसर्गबहुलं (श्रामण्यं) अहं द्वादश वर्षाणि तब वैयावृत्यं करोमि, तदा स्वामिना भणितम्-न खलु देवेन्द्र ! एतद्भूत वा ३(भवति वा भविष्यति पा) बद् अन्तः देवेन्द्राणां वा असुरेन्द्राणां चा निश्रया कृत्या केवलज्ञानमुत्पादयन्ति, सिदिया बजन्ति, अन्तः सकेन रवानबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमेण केवलज्ञानमुत्पादयन्ति । तदा शरण सिद्धार्थों भव्यते-पुष तव निजकः, पुना मम पचन-स्वामिनः ॥१८८॥ या पर मारणान्तिकमुपसर्ग करोति सं वारयः । तेन प्रतिधुतं, पाकः प्रतिगतः, सिद्धार्थः स्थितः । तदिवस स्वामिना पापारणक, ततो भगवान् विहान गतः कोलाकस निवेशे, तन्त्र च भिक्षा प्रविष्टः पालनाक्षणगृयत्रैव कुल्लाकसनिवेशे बहुलो ब्राह्मणः, तेन मधुपतसंयुक्तेन परमार्जन प्रतिलम्भितः, तना दिव्यानि प्रादुर्भूतानि. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) प्रत सूत्रांक RANSKRICA च गोपं 'वागरेइ देविंदो' त्ति भगवन्तमभिवन्ध 'व्याकरोति' अभिधत्ते देवेन्द्रो-भगवन् ! तवाहं द्वादश वर्षाणि वैयावृत्त्य हैकरोमीत्यादि, 'वागरिंसु' या पाठान्तरं,व्याकृतवानिति भावार्थः, सिद्धार्थ वा तत्कालप्राप्तं व्याकृतवान् देवेन्द्रः-भगवान् खया न मोक्तव्य इत्यादि । गते देवराजे भगवतोऽपि कोल्लाकसन्निवेशे बहुलो नाम ब्राह्मणः 'षष्ठस्य' तपोविशेषस्य पारणके, किम् ?, 'पयस' इति पायस समुपनीतवान्, 'वसुधारे'ति तद्गृहे वसुधारा पतितेति गाथाक्षरार्थः॥ कथानकम्-तओ। सामी विहरमाणो गओ मोरागं सन्निवेसं, तत्थ मोराए दुइजता नाम पासंडिगिहत्था, तेर्सि तत्थ आवासो, तेसिं च कुलवती भगवओ पिउमित्तो, ताहे सो सामिस्स सागएण उवडिओ, ताहे सामिणा पुवपओगेण बाहा पसारिआ, सोA भणति-अस्थि घरा, एत्थ कुमारवर ! अच्छाहि, तत्थ सामी एगराइअं बसित्ता पच्छा गतो, विहरति, तेण य भणियंविवित्ताओ वसहीओ, जइ वासारत्तो कीरइ, आगच्छेजह अणुग्गहीया होजामो । ताहे सामी अङ्क उउबद्धिए मासे | विहरेत्ता वासावासे उवागते तं चेबदुइजतयगाम एति, तत्थेगमि उडवे वासावासं ठिओ । पढमपाउसे य गोरूवाणि चारित्र अलभंताणि जुण्णाणि तणाणि खायंति, ताणि य घराणि उबेल्लेंति, पच्छा ते वारेति, सामी न वारेइ, पच्छा दूइज्जतगा| ततः स्वामी विहरन् गतो मोराकं सन्निवेश, सत्र मोराके दूइजन्ता (द्वितीयान्ता)नाम पापण्डिनो गृहस्वाः, तेषां तन्त्रावासः, तेषां च कुलपतिः । भगवतः पितुः मित्रम्, तवा स स्वामिनं स्वागतेन उपस्थितः, तदा स्वामिना पूर्वप्रयोगेण बाहुः प्रसारितः, सभणति-सन्ति गृहाणि, अन्न कुमारवर ! तिष्ठ, तब स्वामी एका रानि उपिया पश्चागतः, विहरति, तेन च भप्पितम्-विविक्ता वसतयः, यदि वर्षारानः क्रियते, बागमिष्यः अनुगृहीता अभविष्याम । तदा स्वामी अष्टी तुबद्धान् मासान् विहत्य वर्षावासे उपागते तमेव द्वितीयान्तकग्राममेति, तत्रैकस्मिन् उटजे वर्षावासं स्थितः । प्रथमावृषि च गावः चारिमलभमाना जीणां नि तृणानि सायन्ति, तानि च गृहाणि उद्वेलयन्ति, पश्चासे वारयन्ति, स्वामी न वारयति, पत्रादू द्वितीयान्तकाः.* उवगे प्र०. २ मदे प्र.18 अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] आवश्यक- व तावहारिभद्री ॥१८९॥ प्रत तस्स कुलवइस्स साहेति जहा एस एताणि न णिवारेति, ताहे सो कुलवती अणुसासति, भणति-कुमारवर! सउणीवि ताव | |अप्पणिअं रक्खंति, तुमं वारेज्जासि, सप्पिवासं भणति ।ताहे सामी अधियत्तोग्गहोत्तिकाउं निग्गओ, इमे य तेण पंच | यवृत्ति | अभिग्गहा गहीआ, तंजहा-अचियत्तोग्गहे न वसिय १ निच्चं वोसहकाएण २ मोणेणं ३ पाणीसु भोत्तवं ४ गिहत्थो नाविभागः१ वंदियघो नऽभुढेतबो ५, पते पंच अभिम्गहा । तत्थ भगवं अद्धमासं अच्छित्ता तओ पच्छा अहितगार्म गतो । तस्स पुण| अडिअगामस्स पढम वद्धमाणगं नाम आसी, सो य किह अछियग्गामो जाओ,धणदेवो नाम बाणिअओ पंचहिं धुरसरहिं| गणिमधरिममेजस्स भरिपहिं तेणंतेण आगओ, तस्स समीवे य वेगवती नाम नदी, तं सगडाणि उत्तरंति, तस्स एगो बइलो। | सो मूलधुरे जुप्पति, तावच्चएण ताओ गड्डिओ उत्तीण्णाओ, पच्छा सो पडिओ छिन्नो, सो वाणिअओ तस्स तणपाणि पुरओ छडेऊण तं अवहाय गओ। सोऽवि तत्थ वालुगाए जेठ्ठामूलमासे अतीव उण्हेण तण्हाए छुहाए य परिताविजइ, सूत्रांक अनुक्रम तमै कुलपतये कथयन्ति-पधा एष एता न निवारयति, तदा स कुलपतिरनुशालि, भणति-कुमारवर शकुनिरपि तावदात्मीयं नीदं रक्षति,बंधारयः, | सपिपास भणति । तदा खामी मप्रीतिकावग्रह इतिकृया निर्गतः, इमे च तेन पब अभिमहा गृहीताः, तबधा-अमीतिकावप्रहेन वसनीय, नित्यं म्युरसृष्टकायेन, मौनेन, पाग्योभीकम्प, गृहस्थो न वन्दयितव्यः, नाभ्युत्थासम्पः, पते पञ्च अभिप्रहाः । तत्र भगवान् अर्धमासं स्थित्वा ततः पश्चात् अस्थिकामं गतः, तस्य | पुनरस्थिकग्रामस्य प्रथम वर्षमानक नामासीत्, स च कथमस्थिकग्रामो जातः, धनदेवो नाम वणिक् पञ्चभिर्धशतैः धिमधरिममे तैखेन मार्गेज आगतः, तस्य समीपे च वेगवती नाम नदी, तां शकटानि उत्तरन्ति, तस्य एको बलीवर्दः समूलधुरि योग्यते, तदीयेन (पीण) तामन्य उत्तीर्णाः, पचास्स छिनः पतितः, [स वणिक् तख तृणपानीयं पुस्तस्वक्त्वा तं अपहाय गतः । सोऽपि तत्र वालुकायां ज्येष्ठामूलमासे अतीवोषणेन तृपया क्षुधा च परिताप्यते. * रकुवंति प्र.. १८९॥ JAMERIMARom 1 ciaroo पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] विद्धमाणओ य लोगो तेणंतेण पाणितणं च वहति, न य तस्स कोइवि देइ, सो गोणो तस्स पओसमावण्णो, अकाम तण्हाछुहाए य मरिऊणं तत्थेव गामे अग्गुजाणे सूलपाणीजक्लो उप्पण्णो, उवउत्तोपासति तं बलीवद्दसरीरं, साहे रुसिओ मारिं विउपति, सो गामो मरिउमारद्धो, ततो अद्दण्णा कोउगसयाणि करेंति, तहवि ण हाति, ताहे भिष्णो गामो अण्णगामेसु संकेतो, तत्वाविन मुंचति, ताहे तेसिं चिंता जाता-अम्हेहिं तत्थ न नज्जइ-कोऽवि देवो वा दाणवो वा विराहिओ, तम्हा तहिं चेव बच्चामो, आगया समाणा नगरदेवयाए विउलं असणं पाणं खाइम साइमं उपक्खडावेंति, बलिउवहारे करता समंतओ उडमुहा सरणं सरणंति, जं अम्हेहिं सम्मं न चेहि तस्स खमह, ताहे अंतलिक्खपडिवण्णो सो देवो भणति-तुम्हे दुरप्पा निरणुकंपा, तेणतेण य एह जाह य, तस्स गोणस तर्ण वा पाणिअंधान दिण्णं, अतो नस्थि भेमोक्खो, ततो व्हाया पुप्फबलिहत्थगया भणंति-दिवो कोवो पसादमिच्छामो, ताहे भणति-एताणि माणुसअछिआणि वर्धमान लोक तेन मार्गेण पानीयं तृणं च पति, न च तमै कश्चिदपि ववाति, सगौलव प्रद्वेषमापनः, अकामतृषा क्षुधा च मृत्मा तीच यामे अनोबाने (मायुधाने)शूलपाणिर्यक्ष बत्पनः, उपयुक्तः पश्यति तत् बलीधईशरीर, तदा रुष्टो मारि विकुर्वतिस प्रामो म मारब्धः, ततोऽतिमुपगताः कौतुकशतानि कुर्वन्ति, तथापि न तिष्ठति (म चिरमति), बदा भिनो प्रामः अन्यप्रामेषु संक्रान्तः, तत्रापि न मुञ्चति, तदा तेषां चिन्ता जाता, अस्माभिसत्र न ज्ञायतेकोऽपि देवो वा दानयो वा विरावा, तस्मात् तत्रैव बजामः, भागताः सन्तः मगरदेवतायै विपुलमशनं पानं खाणं खायं उपस्कुर्वन्ति, बल्युपहारान् कुर्वन्तः समन्तत मुखाः शरणं शरणमिति, बदमाभिः सम्पम् न चेष्टितं तत् क्षमस्व, तदा अन्तरिक्ष प्रतिपन्नः स देवो भणति-यूर्य दुरात्मानो निरनुकम्पाः, तेन मार्गगव आगच्छत यात च, तम गये तृणं वा पानीयं वा न दत्तं, तो नाति भवतां मोक्षः, ततः, खाताः हस्तगतपुष्पवालिकाः भणन्ति-re: कोपः प्रसाइमिच्छामः, तदा भणति-एतानि मानुपास्थीनि पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] हारिभद्रीयवृत्ति। विभागः१ आवश्यक-हापुंजं काऊण उवरि देवउलं करेह, सूलपाणिं च तत्थ जक्खं बलिवई च एगपासे ठवेह, अण्णे भणति-तं वइल्लरूवं करेह, दितस्स य हेढा ताणि से अद्विआणि निहणह, तेहिं अचिरेण कयं, तत्थ इंदसम्मो नाम पडियरगो कओ। ताहे लोगो ॥१९०॥ पंथिगादि पेच्छइ पंडरहिअगामं देवउलं च ताहे पुच्छंति अण्णे-कयराओ गामाओ आगता जाह वत्ति, ताहे भणति- जत्थ ताणि अद्वियाणि, एवं अद्विअगामो जाओ। तत्थ पुण वाणमंतरघरे जो रतिं परिवसति सो तेण सूलपाणिणा जक्खेण वाहेत्ता पच्छा रतिं मारिजइ, ताहे तत्थ दिवसं लोगो अच्छति, पच्छा अण्णत्थ गच्छति, इंदसम्मोऽवि धूपं दीवगं च दाउं दिवसओ जाति। इतो य तत्थ सामी आगतो, तिजंतगामपासाओ, तत्थ य सबो लोगो एगत्थ पिंडिओ अच्छइ, सामिणा देवकुलिगो अणुण्णविओ, सो भणति-गामो जाणति, सामिणा गामो मिलिओ चेवाणुण्णविओ, गामो भणति-एत्थ न सका वसिर्ज, सामी भणइ-नवरं तुम्हे अणुजाणह, ते भणंति-ठाह, तत्थेकेको वसहिं देइ, सामीणेच्छति, पुजं कृत्वा उपरि देवकुलं कुरुत, शूलपाणि च तत्र यक्षं वाली वर्दै कपार्थे स्थापयत्त, अन्ये भणन्ति-तं वलीवर्वरूपं कुरुत, तस्थाधतात तानि तखाखीनि निहत, रचिरात् कृतं. नवशर्मा नाम प्रतिचरका क्रतः । तदा लोका पान्थादि पश्यति, पाणराषिकमाम देवकुलं च तदा पृच्छन्ति मन्ये. कतरस्मात् प्रामावागताः । यात वेति, तदा भणन्ति-पत्र तानि अस्थीनि, एवमस्थिकामो जातः । तत्र पुनर्पन्तरगृहे यो रात्री परिवसति स तेन शूलपागिना यक्षेण वाहयित्वा पश्चात् रात्री मार्यते, ततस्तत्र दिवसं (बावन ) लोकतिष्ठति, पश्चात् अम्पन्न गच्छति, इन्दशर्मापि रूपं दीपकं च दवा विवसे । याति । इतत्र तत्र स्वामी भागतः, द्वितीयान्तमामपार्धात्, तत्रच सों लोक एकत्र पिण्डितस्तिष्ठति, सामिना देवकुलिकोऽनुज्ञापितः, स भगति-ग्रामो जानाति, स्वामिना प्रामो मिलित एवानुशाषिता, प्रामो भणति-अत्र न शक्का वसित, खामी भणति-परं यूपमनुजानीत, ते भणन्ति-तिशत, सकको वसति दिने, स्वामी नेच्छति ॥१९॥ JanEaiahin पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं -1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६१], भाष्यं [१११...] (४०) जाणति-जहेसो संबुझिहितित्ति, ततो एगकूणे पडिम ठिओ, ताहे सो इंदसम्मो सूरे धरेते चेव धूवपुप्फ दाउं कप्पडियकारोडिय सबै पलोइत्ता भणति-जाह मा विणस्सिहिह, तंपि देवज्जयं भणति-तुम्भेवि णीध, मा मारिहिजिहिध, भगवं तुसिणीओ, सो वंतरो चिंतेइ-देवकुलिएण गामेण य भण्णंतोऽवि न जाति, पेच्छ जं से करेमि, ताहे संझाए चेव भीमं| अट्टहासं मुअंतो बीहावेति ॥ अभिहितार्थोपसंहारायेदं गाथाद्वयमाहदूइज्जतगा पिउणो वयंस तिब्वा अभिग्गहा पंच।अचियत्तुग्गहिन वसण १ णिचं वोसह २ मोणेणं ३॥४२॥ पाणीपत्तं ४ गिहिवंदणं च ५ तो बडमाणवेगवई । घणदेव सूलपाणिंदसम्म यासऽद्विअग्गामे ।। ४६३ ॥ | व्याख्या-विहरतो मोराकसन्निवेश प्राप्तस्य भगवतः तन्निवासी दूइजन्तकाभिधानपापण्डस्थो दूतिजंतक एवोच्यते, । पितुः सिद्धार्थस्य 'वयस्यः' स्निग्धकः, सोऽभिवाद्य भगवन्तं वसतिं दत्तवान् इति वाक्यशेषः । विहत्य च अन्यत्र वर्षाकालगमनाय पुनस्तत्रैवागतेन विदितकुलपत्यभिप्रायेण, किम् ?, 'तिबा अभिग्गहा पंच' त्ति 'तीब्रा रौद्राः अभिग्रहाः पञ्च गृहीता इति वाक्यशेषः । ते चामी 'अचियतुम्गहि न बसणं ति' 'अचियत्त' देशीवचनं अप्रीत्यभिधायक, ततश्च तत्स्वामिनो न. प्रीतियस्मिन्नवग्रहे सोऽप्रीत्यवग्रहः तस्मिन् 'न वसन' न तत्र मया वसितव्यमित्यर्थः, "णिचं वोस मोणे जानाति-पौष संभोग्यत इति, तत एकमिन् कोणे प्रतिमा स्थितः, तदा स इन्वयमा सूर्य प्रियमाणे (सति) एप धूपपुष्पं दवा कापेटिका करोटिकान् सर्वान् प्रलोक्य भणति-बात मा विनेशत, तमपि देवार्य भणति-यूपमपि निर्गत, मा मारिभवं (म), भगवान् तूष्णीका, सम्पन्तरचिन्तयति-देवकुलिकेन प्रामेण च भण्यमानोऽपि न याति, पक्ष यत्तख करोमि, तदा सन्ध्यायामेव भीममहाहहासे मुझन् भापयति । JABERatinintamational Sarwanmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] आवश्यक- ति नित्यं सदा व्युत्सृष्टकायेन सता मौनेन विहर्त्तव्यं पाणिपत्तंति पाणिपात्रभोजिना भवितव्यं, 'गिहिवंदणं चेत्ति' गृहस्थस्य । हारिभद्री॥१९॥ | वन्दनं, चशब्दादभ्युत्थानं च न कर्तव्यमिति । एतान् अभिमहान गृहीत्वा तथा तस्मानिर्गत्य 'वासऽडिअग्गामेत्ति' वर्षा- यवृत्तिः कालं अस्थियामे स्थित इति अध्याहारः, स चास्थिग्रामः पूर्व वर्धमानाभिधः खल्वासीत् , पश्चात् अस्थिप्रामसंज्ञामित्थं प्राप्तः, विभागः१ तत्र हि वेगवतीनदी, तां धनदेवाभिधानः सार्थवाहः तं प्रधानेन गवाऽनेकशकटसहितः समुत्तीर्णः, तस्य च गोरनेकशकटस-14 मुत्तारणतो हृदयच्छेदो बभूव, सार्थवाहः तं तत्रैव परित्यज्य गतः, सवर्धमाननिवासिलोकाप्रतिजागरितो मृत्वा तत्रैव शुलपाणिनामा यक्षोऽभवत्, दृष्टभयलोककारितायतने स प्रतिष्ठितः, इन्द्रशर्मनामा प्रतिजागरको निरूपित इत्यक्षरार्थः। एवमन्यासामपि गाथानामक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति । कथानकशेषम्-जाहे सो अट्टहासादिणा भगवंतं खोभेर्ड पवत्तो ताहे सो सबो लोगो तं सई सोऊण भीओ, अज सो देवजओ मारिजइ, तत्थ उप्पलो नाम पच्छाकडओ पासावच्चिजओ परिषायगो अडंगमहानिमित्तजाणगो जणपासाओ तं सोऊण मा तित्थंकरो होज अधिति करेइ, बीहेइ काय रतिं गतं, ताहे सो वाणमंतरो जाहे सदेण न बीहेति ताहे हत्थिरवेणवसर्ग करेति, पिसायरूवेणं नागरूवेण य. T |१९|| बदा सोऽहाहाहाखादिना भगवन्तं क्षोभयितुं प्रवृत्तस्तदा स सर्वलोकस्तं शब्द भुवा भीतः, अद्य स देवार्यः मार्यते, तत्रोत्पलो नाम पनारकृतका पापित्यः परिमाजकोटाजमहानिमित्तज्ञायक: जनपाक्षात् तत् श्रुत्वा मा तीर्थकरो भवेत् (इति) अर्शत करोति, बिभेति च रात्री गन्त, ततः स न्यन्तरः यदा शब्देन न बिभेति तदा हस्तिरूपेणोपसर्ग करोति, पिशायरूपेण नागरूपेण च पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] प्रत सूत्रांक एतेहिंपि जाहे न तरति खोभेउ ताहे सत्तविहं वेदणं उदीरेइ, तंजहा-सीसवेयणं कण्ण अच्छि नासा दंत नह पद्विवेदणं च एकेका वेअणा समत्था पागतस्स जीवितं संकामेऊ, किं पुण सत्तवि समेताओ उज्जलाओ, अहियासेति, ताहे सो देवो। जाहे न तरति चालेडं वा खोभेउं वा, ताहे परितंतो पायवडितो खामेति, खमह भट्टारगत्ति । ताहे सिद्धत्थो उद्धाइओ भणति-हभो सूलपाणी! अपस्थिअपत्थिआ न जाणसि सिद्धत्थरायपुत्तं भगवंतं तित्थयर, जइ एयं सको जाणइ तो ते निविसयं करेइ, ताहे सो भीओ दुगुणं खामेइ, सिद्धत्थो से धम्मं कहेइ, तत्थ उवसंतो महिमं करेइ सामिस्स, तत्थ लोगो| चिंतेइ-सो तं देवजयं मारित्ता इदाणिं कीलइ, तत्थ सामी देसूणे चत्तारि जामे अतीव परियाविओ पहायकाले मुहुत्त मत्तं निद्दापमादं गओ, तत्थ इमे दस महासुमिणे पासित्ता पडिबुद्धो, तंजहा-तालपिसाओ हओ, सेअसजणो चित्तको |इलो अ दोऽवि एते पजुवासंता दिहा, दामदुगं च सुरहिकुसुममयं, गोवग्गो अपज्जुवासेतो, पउमसरो विबुद्धपंकओ,। एतैरपि यदा न शक्नोति क्षोभवितुं तदा सप्तविधा वेदनामुदीरयते, सयथा-शीर्षवेदनां कर्ण अक्षि नासा दन्त नस० प्रतिवेदनी च, एकका। | वेदना समधा प्राकृतस्य जीवितं संक्रमितुं, किं पुनः सप्तापि समेता अश्वला, अध्याते, तदा स देवो यदा न शक्नोति चालयितुं वा क्षोभाषितुं वा तदा | परिश्रान्तः पादपतितः क्षमयति-क्षमस्व महारकेति । तदा सिद्धार्थ उद्भावितो भणति-इंदो शूलपाणे!, अप्रार्थितपार्थक! न जानासि सिद्धार्थराजपुत्रं भगवन्तं तीर्थकर, यवेतत् शको जानाति तदा त्या निर्विषयं करोति, तदास भीतो द्विगुणं क्षमपति, सिद्धार्थः तम धर्म कधपति, सत्रोपशाम्तो महिमानं करोति IN स्वामिना, तत्र लोकश्चिन्तयति-सतं देवाय मारयित्वेदानी कीदति, तन्त्र स्वामी देशोनान् चतुरो यामान् अतीप परितापितः प्रभातकाले मुह मात्र निद्राप्रमादं गतः, तत्रेमान् दश महास्वमान् वा प्रतिबुद्धः, तद्यथा-ताल पिशाचो हतः, तशकुनः चित्रकोकिळा हावपि एतौ पर्युपासमानौ दृष्टी, दामहिक च सुरभिकुसुममयं, गोवर्गश्च पर्युपासमानः, पनतरः विबुद्धपार्ज. अनुक्रम JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] आवश्यक ॥१९॥ SLCOME सागरो अ मे निस्थिण्णोत्ति, सूरो अ पइण्णरस्सीमंडलो उग्गमंतो, अंतेहि य मे माणुसुत्तरो वेढिओत्ति, मंदरं चारूदो- हारिभद्रीमित्ति । लोगो पभाए आगओ, उप्पलो अ, इन्दसम्मो अ, ते अ अञ्चणि दिवगंधचुण्णपुष्फवासं च पासंति, भट्टारगायवृत्ति च अक्खयसबंर्ग, ताहे सो लोगो सबो सामिस्स उक्किट्ठसिंहणायं करेंतो पाएमु पडिओ भणति-जहा देवजएणं देवो विभागः१ उबसामिओ, महिमं पगओ, उप्पलोऽवि सामि दडे बंदिअ भणियाइओ-सामी! तुन्भेहिं अंतिमरातीए दस सुमिणा दिला, तेसिम फलंति-जो तालपिसाओ हओ तमचिरेण मोहणिजं उम्मूलेहिसि, जो अ सेअसउणो तं सुकम्झाणं काहिसि, जो|3|| दाविचित्तो कोइलो तं दुवालसंग पण्णवेहिसि, गोवग्गफलं च ते चउबिहो समणसमणीसावगसाविगासंघो भविस्सइ, पउम-1 सरा चउबिहदेवसंघाओ भविस्सइ, जं च सागरं तिण्णो तं संसारमुत्तारिहिसि, जो अ सूरो तमचिरा केवलनाणं ते उप्प-| |जिहित्ति, जंचतेहिं माणुसुत्तरो वेदिओ तं ते निम्मलो जसकीतिपयावो सयलतिहुअणे भविस्सइत्ति, जंच मंदरमारूढोऽसि सागर मया निस्तीर्ण इति, सूर्यश्च प्रकीर्णरश्मिमण्डल उद्गच्छन् , अप्रैश मया मानुषोत्तरो वेष्टित इति, मन्दर चारूदोऽसीति । लोकः प्रभाते आगतः, उत्पा , इन्वयर्मा च, ते चार्गनिका दियगम्पपूर्णपुष्पवर्ष च पश्यन्ति, भट्टारकं चाक्षतसां तदा स लोका सर्वः स्वामिनः कृष्टं सिंहनादं कुर्वन् पादयोः । पतितो भणति-यथा-देवार्वेण देव उपशमिता, महिमानं प्रगतः, उत्पलोऽपि स्वामिनं दृष्ट्वा वन्दित्वा भणितवान्-स्वामिन् ! स्वया भम्हारानी दश स्वमा दृष्टाः, नेपामिद फल मिति-यस्तालपिशाचो सातदपिरेण मोहनीयमन्मळयिष्यसि. या श्वेतशकुनः तत् पश्यानं करियसि, यो विचिका कोकिला खत द्वादशाही प्रज्ञापयिष्यसि, गोवर्गफलं च तव चतुर्विधः श्रमणश्रमणीश्रावकश्राविकासङ्घः भविष्यसि, पानसरसः चतुर्विधदेवसंघातो भविष्यति, यच्च सागरस्तीर्णतत् ४ ॥१९२॥ | संसारमुत्तरिष्यसि, यत्र सूर्यस्तत् अचिरान केवलज्ञानं ते वत्परसयत इति, यच्चान्नैमानुषोत्तरो देष्टितस्तते निर्मला यशःकीर्तिप्रतापत्रिभुवने सकले भविष्यतीति, बच मन्दरमारूढोऽसि. 456 T 44 JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] 'तं सीहासणत्यो सदेवमणुआसुराए परिसाए धम्मं पण्णवेहिसित्ति, दामदुर्ग पुण न याणामि, सामी भणति-हे उप्पल ! जण्णं तुम न जाणासि तण्णं अहं दुविहं सागाराणगारिअं धम्मं पण्णवेहामित्ति, ततो उप्पलो वंदित्ता गओ, तत्थ सामी अद्धमासेण खमति । एसो पढमो वासारत्तो ११ ततो सरए निग्गंतूण मोरागं नाम सण्णिवेसं मओ, तत्थ सामी बाहिं उज्जाणे ठिओ, तत्थ मोराए सण्णिवेसे अच्छंदा नाम पासंडत्था, तत्थेगो अच्छंदओ तंमि सण्णिवेसे कौंटलवेंटलेण जीवति, सिद्धत्थओ अ एकलओ दुक्खं अच्छति बहुसंमोइओ पूअं च भगवओ अपिच्छतो, ताहे सो वोर्लेतयं गोवं सद्दावेत्ता भणति-जहिं पधावितो जहिं जिमिओ पंथे य जं दिह, दिछो य एवंगुणविसिहो सुमिणो, तं वागरेइ, सो आउदो गंतुंगामे मित्तपरिचिताणं कहेति, सोहिंगामे य पगासि-एस देवजओ उजाणे तीताणागयवट्टमाणं जाणइ,४ ताहे अण्णोऽवि लोओ आगओ, सबस्स वागरेइ, लोगो आउट्टो महिमं करेइ, लोगेण अविरहिओ अच्छइ, ताहे सो लोगो तसिंहासनस्थः सदेवमनुज्ञासुरायाँ पर्पदि धर्म प्रज्ञापयिष्यसि इति, दामविक पुनर्न जानामि, स्वामी भणति-हे उत्पल ! यत् वं न जानीषे तदई विविध सागरिकानगारिकं धर्म प्रशापयिष्यामीति, तत उत्पलो बन्दित्वा यतः, तत्र स्वामी अर्धमासेन क्षपयति । एष प्रथमो वर्षाराबः । ततः शरदि | निर्गत्य मोराक नाम सनिवेशं गतः, तत्र स्वामी पहिरवाने स्थितः, तत्र मोराके सनिवेशे यथाश्छन्दा नाम पापण्डस्थाः, तत्रैकः यथाछन्तकः तस्मिन् सनिवेश कार्मणवशीकरणादिना जीवति, सिद्धार्यकश्च एकाकी दुःखं तिष्ठति बहुसंमुदितः पूजां च भगवतः अपश्यन् , तदा स प्रजन्तं गोपं शब्दयित्वा भणति-यत्र गतः सायन जिमितः पथि च यदृष्ट, उष्टावंगुणविशिष्टः स्वमः, तयाकरोति, स आवजितो ग्रामे गत्वा मित्रपरिचितेभ्यः कथयति, सर्वनामे च प्रकाशितं-एप देवार्य | ज्याने अतीतानागतवर्तमानं जानाति, तदा अन्योऽपि कोक आगतः, (तममा अपि) सर्वी व्याकरोति, लोक आवणितो महिमानं करोति, लोकेना[विरहितः तिष्ठति, तदा स लोको JMERTIME पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६३], भाष्यं [१११...] आवश्यक ॥१९॥ 552544) भणइ-एस्थ अच्छंदओ नाम जाणओ,सिद्धत्थो भणति-सो ण किंचि जाणइ, ताहे लोगो गंतुं भणइ-तुम न किंचि जाणसि, हारिभद्रीदेवजओ जाणाइ, सो लोयमझे अप्पाणं ठावेउकामो भणति-एह जामो, जइ मन्झ पुरओ जाणइ तो जाणइ, ताहेयवृत्तिः लोगेण परिवारिओ एइ, भगवओ पुरओ ठिओ तणं गहाय भणति-एयं तणं किं छिंदिहिति नवत्ति, सो चिंतेइ-जइ विभागः१ भणति-न छिजिहि इति ता णं छिंदिस्स, अह भणइ-छिजिहित्ति, तोन छिंदिस्सं, ततो सिद्धस्थेण भणिों-न छिजिहित्ति, सो छिदिउमाढत्तो, सकेण य उवओगो दिण्णो, व पक्खित्तं, अच्छंदगस्स अंगुलीओ दसवि भूमीए पडिआओ, ताहे| लोगेण खिसिओ, सिद्धत्थो य से रुहो । अमुमेवार्थ समासतोऽभिधित्सुराहरोहा य सत्त वेयण थुइ दस सुमिणुप्पलऽद्धमासे य । मोराए सकारं सको अच्छंदए कुविओ॥४६४ ॥ समासव्याख्या-रौद्राश्च सप्त वेदना यक्षेण कृताः, स्तुतिश्च तेनैव कृता, दश स्वप्ना भगवता दृष्टाः, उत्पलः फलं जगाद, 'अद्धमासे यत्ति' अर्धमासमर्धमासं च क्षपणमकापीत् , मोरायां लोकः सत्कारं चकार, शक्रः अग्छन्दके तीर्थकरहीलनात् परिकुपित इत्यक्षरार्थः ॥ इयं नियुक्तिगाथा, एतास्तु मूलभाष्यकारगाथाः भणति-अब यथारउन्दको नाम ज्ञायका, सिद्धार्थो भणति-सन किचिद जानाति, तदा लोको गत्वा भणति-वं न किञ्चित् जानासि, देवार्यको नानाति, स लोकमध्ये आस्मानं स्थापयितुकामो भणति-एत बामः, यदि मम पुरतो जानाति तदा जानाति, तदा लोकेन परिचारित एति, भगवतः पुरतः | ॥१९॥ स्वितः तृणं गृहीत्वा भणति-एतत् तृणं किं डेस्पते मवेति, स चिन्तयति-बदि भगति-मत्स्यते इति तदेतत् छेत्स्वामि, अथ भणति-हेरखते इति तदान छेत्स्वामि, ततः सिद्धार्थेन भणितम्-न त्स्वतीति, समारब्धः, शक्रेण च उपयोगो दत्तः, वनं प्रक्षिसं, मच्छन्दकस्याख्यो दशापि भूमी पतिताः, तदा लोकेन हीछितः, सिद्धार्थश्च ती मयः । 4. Healanmiarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४६४], भाष्यं [११२] भीमहहास हत्थी पिसाय नागे य वेदणा सत्त । सिरकपणनासदन्ते नहऽच्छी पट्ठीय सत्तमिआ॥११२ ।। (मू०भा०) तालपिसायं १ दो कोइला य ३ दामदुगमेव ४ गोवरगं ५। सर ६ सागर ७ सूरं ८ ते ९ मन्दर १० सुविणुप्पले चेव ॥ ११३ ॥ (मू०भा०) मोहे१यमाण २ पवयण ३ धम्मे ४ संघे५य देवलोए ६य। संसारंणाण ८ जसे ९ धम्म परिसाएँ मजमि ॥ ११४ ॥ (मू० भा०) व्याख्या-भीमाट्टहासः हस्ती पिशाचो नागश्च वेदनाः सप्त शिरःकर्णनासादन्तनखाक्षि पृष्ठौ च सप्तमी, एतयन्त-1 दरेण कृतं । तालपिशाचं द्वौ कोकिलौ च दामद्वयमेव गोवर्ग सरः सागर सूर्य अत्रं मन्दरं 'सुविणुप्पले चेवत्ति' एतान्ह स्वमान् दृष्टवान् , उत्पलश्य फलं कथितवान् इति । तच्चेदम्-मोहं च ध्यानं प्रवचन धर्मः सहश्च 'देवलोकश्च देवज-IN निश्चेत्यर्थः, संसारं ज्ञानं यशः धर्म पर्षदो मध्ये, मोहं च निराकरिष्यसीत्यादिक्रियायोगः स्वबुक्या कायें॥ मोरागसण्णिवेसे बाहिं सिद्धस्थ तीतमाईणि । साहह जणस्स अच्छंद पओसो छेअणे सको ॥१॥ अर्थोऽस्याः कथानकोक्त एव वेदितव्य इति । इयं गाधा सर्वपुस्तकेषु नास्ति, सोपयोगा च । कथानकशेषम्-तओ सिद्धत्थो तस्स पओसमावण्णो तं लोग भणति-एस चोरो, कस्स गेण चोरियंति भणह, अत्थेत्थ वौरघोसो णाम ततः सिद्धार्थः तस्मिन् प्रदेषमापनस्तं लोक भणति-एष चौरः, कस्थानेन चोरितं इति मग, अस्त्यत्र वीरघोषो नाम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं -], मूलं [- /गाथा-], नियुक्ति: [४६४], भाष्यं [११४] आवश्यक 5425 ॥१९४|| 500-56-4-9-15600- कम्मकरो!, सो पादेसु पडिओ अहति, अस्थि तुभ अमुककाले दसपलयं वट्टयं णहपुष ?, आम अत्थि, तं एएण हरिय, तं पुण| हारिभद्री कहिं १, एयरस पुरोहडे महिसिंदुरुक्खस्स पुरस्थिमेणं हत्थमित्तं गंतूणं तत्थ खणिउं गेण्हह । ताहे गता, दिहुँ, आगया कल यवृत्तिः विभागः१ कलं करेमाणा । अण्णंपि सुणह-अस्थि एत्थं इंदसम्मो नाम गिहवई, ताहे भणति-अस्थि, ताहे सो सयमेव उवडिओ,जहा | अहं, आणवेह, अस्थि तुभ ओरणओ अमुयकालंमि नहिलओ!, स आह-आम अस्थि, सो एएण मारित्ता खइओ, & अद्रियाणि य से बदरीए दक्खिणे पासे उकुरुडियाए नियाणि, गया, दिहाणि, उकिटकलयलं करता आगया, ताहे भणति-एयं विति। अमुमेवार्थ प्रतिपादयन्नाह नियुक्तिकृत्• तण छेयंगुलि कम्मार वीरघोस महिसिंदु दसपलि। पिइइंदसम्म ऊरण पयरीए दाहिणुकुरुडे ॥ ४६५ ।। व्याख्या-अच्छन्दकः तृणं जग्राह, छेदः अङ्गुलीनां कृतः खल्विन्द्रेण, 'कम्मार वीरघोसत्ति' कर्मकरो वीरघोषः, तत्सं-IA वन्ध्यनेन 'महिसिंदु दसपलिय' दशपलिकं करोटक गृहीत्वा महिसेन्दुवृक्षाधः स्थापित, एक तावदिदं, द्वितीयं-इन्द्रशर्मण ऊरणकोऽनेन भक्षितः, तदस्थीनि चाद्यापि तिष्ठन्त्येव बदर्या अध दक्षिणोत्कुरुट इतिगाथार्थः ॥४६५॥ ततियं पुण अवच्चं, कर्मकर, सपाइयोः पतित: महमिति, अस्ति तव अमुककाले दशपलमानं वर्तुलं नष्टपूर्वम् !, ओमति, तदनेन हृतं, तरपुमः १, एतस्य गृहपुरतः D ॥१९४॥ | खजुरीवृक्षस्य पूर्वस्यां सामानं गत्वा तन्न खात्वा गृहीत । तदा गताः, टं, आगताः कळकळं कुर्वन्तः । अन्यदपि शृणुत-अस्त्यत्र इन्द्र शर्मा नाम गृहपतिः, तदा भणति-अस्ति, तदा स खबमेनोपस्थितः, यथाऽ, माज्ञापयत, अमित तवोर्णायुः अमुककाले नष्टः, स भाइ-भीमति, स एतेन मारपिया खादितः, भस्थीनि |च तख यर्या दक्षिणे पा उत्कुकटके निखातानि, गताः, दृष्टानि, उत्कृष्टकलकलं कुर्वन्त आगताः, तदा भणन्ति-एतद्वितीयम् २ तृतीयं पुनरवाच्यं. 6 AnEained Haniprayog पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६५], भाष्यं [११४...] C अलाहि भणितेण, ते निबंध करेंति, पच्छा भणति-बच्चह भजा से कहेहिइ, सा पुण तस्स चेव छिड्डाणि मग्गमाणी अच्छति, ताए सुर्य-जहा सो विडंबिओत्ति, अंगुलीओ से छिन्नाओ, सा य तेण तदिवसं पिट्टिया, सा चिंतेति-नवरि एउं गामो, ताहे साहेमि, ते आगया पुच्छति, सा भणइ मा से नामं गेण्हह, भगिणीए पती ममं नेच्छति, ते उकिहिं करेमाणा तं भणति-एस पावो, एवं तस्स उड्डाहो जाओ, एस पावो, जहा न कोइ भिक्खंपि देइ, ताहे अप्पसागारियं आगओ| भणइ-भगवं 1 तुम्भे अन्नत्थवि पुजिजह, अहं कहिं जामि !, ताहे अचियत्तोग्गहोत्तिका सामी निग्गओ । ततो बच्चमाणस्स अंतरा दो वाचालाओ-दाहिणा उत्तरा य, तासिं दोण्हवि अंतरा दो नईओ-सुवष्णवालुगा रुष्पवालुगा य, ताहे सामी दक्खिण्णवाचालाओ सन्निवेसाओ उत्तरवाचालं वच्चइ, तत्थ सुवण्णवालुयाए नदीए पुलिणे कंटियाए तं वत्थं विलग्गं, सामी गतो, पुणोऽवि अवलोइअं, किं निमित्तं ?, केई भणंति-ममत्तीए, अवरे-किं थंडिल्ले पडिअं अथंडिल्लेत्ति, ASSAS भलं भक्तेिन, ते निर्बन्धं कुर्वन्ति, पश्चाद् भणति-मजत भार्या सस्य कथयिष्यति, सा पुनस्तस्य छिद्राण्येव सुगयमाणा तिष्टति, तया श्रुतम्-यथा स विम्बित इति, अकुलायसव छिनाः, सा च तेन तदिवसे पिहिता, साचिन्तयति-परमायात प्रामः, तदा साधयामि, त आगताः पृच्छन्ति, सा भणति-मा तख नाम ग्रहीष्ट, भगिन्याः पतिर्मा नेति, त उस्कृर्षि कुर्वन्समा भणन्ति-एष पापः, एवं तस्योडाहो जातः, एष पापः, यथा (बदा)न कविद् भिक्षामपि ददाति, तदाऽल्पसागारिक भागतो भणति-भगवन्तः! यूयमन्यत्रापि पूयिष्यध्वं, अहंक यामि, तदा अप्रीतिकावग्रह इतिकृत्वा स्वामी निर्गतः । ततो प्रजतः अन्तरा हे वाचाले-दक्षिणा उत्तरा च, तथोईयोरपि अन्तरादे नद्यौ-सुवर्णवालुका रूथवालुका च, तदा स्वामी दक्षिणवाचालात् सन्निवेशात् उत्तरवाचालं बजाति, तव सुवर्णवालुकाया नयाः पुहिने कण्टिकायो तसं विलन, स्वामी गतः, पुनरप्यवलोकितं, किं निमित्तम् , केचिए भणन्ति-ममत्वेन, अपरे-कि स्पण्डिले पतितमस्थापिटले इति. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६५], भाष्यं [११४...] आवश्यक- हारिभद्रीविभागः१ यवृत्तिः ॥१९५॥ कई-सहसागारेणं, केई-वरं सिरसाणं वत्थपत्तं सुलभं भविस्सइ, तं च तेण धिज्जाइएण गहिरं, तुण्णागस्स उवणी, सयसहस्समोठं जाय, एकेकस्स पण्णासं सहस्साणि जायाणि । अमुमेवार्थमभिधित्सुराह तइअमवचं भजा कहिही नाहं तओ पिउवयंसो । दाहिणवायालसुवण्णवालुगाकंटए वत्थं ॥ ४६६ ॥ पदानि-तृतीयमवाच्य भार्या कथयिष्यति । ततः पितुर्वयस्यस्तु दक्षिणवाचालसुवर्णवालुकाकण्टके वस्त्रं, क्रियाऽध्या| हारतोऽक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति । ताहे सामी वच्चइ उत्तरवाचालं, तत्व अंतरा कणगखलं नाम आसमपयं, तत्थ दो पंथा-उज्जुगो को य, जो सो उजुओ सो कणगखलंमग्मेण वच्चइ, बंको परिहरंतो, सामी उज्जुगेण पहाविओ, तत्थ गोवालेहिं वारिओ, एत्थ दिविविसो सप्पो, मा एएण वच्चह, सामी जाणति-जहेसो भविओ संबुझिहिति, तओ गतो जक्खघरमंडवियाए पडिमं ठिओ । सो पुण को पुवभवे आसी, खमगो, पारणए गओ वासिगभत्तस्स, तेण मंडुक्कलिया विराहिआ, खुड्डएण परिचोइओ, ताहे सो भणति-किं इमाओऽवि मए मारिआओ लोथमारिआओ दरिसेइ, ताहे खुड्डएण -१ केचित्-सहसाकारेण, केचित्-पर शिष्याणां वनपा सुकभं भविष्यति तच तेन धिरजाती येन गृहीतं, तुधाकस्य अपनीतं, शतसहस्त्रमूल्यं जातं, | एकैकस्य पञ्चाशत् सहनाणि जातानि । २ तदा स्वामी ब्रजति उत्तरवाचार्क, सत्रान्तरा कनकखलनामाश्रमपदं तत्र बी पम्थानी-कर्वकन, योऽसौ कलः स | कनकवलमध्येन बजाति, वफः परिदरन्, स्वामी मखना प्रभावितः, तत्र गोपावारितः, अत्र रष्टिविषः सपा, मतेन माजीः, खामी जानाति-यथैष भम्पः । |संभोत्यत इति, ततो गतो यक्षगृहमण्डपिकायां प्रतिमा स्थितः । स पुनः कः पूषभये आसीत् , क्षपकः, पारणके गतः पर्युषितभक्ताव, वेन मण्डूकी विराद्धा, लालन परिचोदितः, सदा स भणति-किमिमा अपि मया मारताः लोकमारिता दर्शयति, सदा चखकेन. ॥१९५॥ JAMEairathe N amibrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६६], भाष्यं [११४...] नार्य-वियाले आलोहिइत्ति, सो आवस्सए आलोएत्ता उवविटो, खुड्डुओ चिंतेइ-नूणं से विस्सरिय, ताहे सारि, रुहो। आहणामित्ति उद्धाइओ खुडुगस्स, तत्थ धंभे आवडिओ मओ विराहियसामण्णो जोइसिएसु उववण्णो, ततो चुओ कणग15खले पंचण्हं तावससयाणं कुलवइस्स तावसीए उदरे आयाओ, ताहे दारगो जाओ, तस्थ से कोसिओत्ति नाम कयं, सो य अतीव तेण सभावेण चंडकोधो, तत्थ अन्नेऽवि अस्थि कोसिया, तस्स चंडकोसिओत्ति नाम कयं, सो कुलवती मओ, ततो य सो कुलवई जाओ, सो तत्थ वणसंडे मुच्छिओ, तेसिं तावसाण ताणि फलाणि न देइ, ते अलभता गया दिसो8 दिसं, जोऽवि तत्थ गोवालादी एति तंपि हंतुं धाडेइ, तस्स अदूरे सेयंबियानाम नयरी, ततो रायपुत्तेहिं आगंतूर्ण विर हिए पडिनिवेसेण भग्गो विणासिओ य, तरस गोवालएहिं कहियं, सो कंटियाणं गओ, ताओ छड्डेत्ता परसुहत्थो गओ रोसेण धमधमतो, कुमारेहिं दिवो एंतओ, तं दण पलाया, सोऽवि कुहाडहस्थो पहावेत्ता खड्डे आवडिऊण पडिओ, सो ज्ञात-विकाले भालोचविष्यतीति, स आवश्यके आलोचवित्वा उपविष्टा, क्षुलकजिन्तयति-नूनमख विस्मृतं, ततः सारितं, रुष्ट भाहम्मीयुद्धावितः क्षुल्लकाय, सन्न स्तम्भे आस्फलितो मृतो विराचितश्रामण्य ज्योतिषकेषु वत्पनः, ततश्युतः कनकवले पज्ञानां तापसशताना कुलपतेः तापस्था पदरे आयातः, तदा दारको जातः, तन्न त कोशिक इति नाम कृतं, सचातीव तेन स्वभावेन पण्डोधा, सन्न अन्धेऽपि सन्ति कोशिकार, सख चण्डकौशिक इति नामति कृतं, स कुलपतिसृतः, ततश्च स कुलपतिआंतः, स तत्र वनखण्डे मूर्छितः, तेभ्यः ताप सेभ्यः तानि फलानि न ददाति, तेऽभमामा गता दिशि विशि, योऽपि तन्त्र गोपालादिक भायाति तमपि हवा धापति, तस्यातूरे वेतम्बीकानामनगरी, ततो राजपुत्रैरागल्य विरहिते प्रतिनिदेशेन भनो विनाशितन्त्र, ती गोपाळकैः कथितं, स कष्टकेम्पो गतः, तस्ववत्वा परशुधलो गतो रोपेण धमधमापमानः, कुमारैर्दष्टः आगच्छन् तं दृष्ट्वा पळाषिताः, सोऽपि कुठारहना प्रधाव्य गर्ने आपत्य पतितः, स JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~ 401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६६], भाष्यं [११४...] आवश्यक- हारिभद्रीयवृत्तिः ॥१९॥ प्रत कुहाडो अभिमुहो ठिओ, तत्थ से सिरं दो भाए कर्य, तत्थ मओ तंमि चेव वणसंडे दिट्टीविसो सप्पो जाओ, तेण रोसेण लोभेण य तं रक्खइ वणसंडं,तो ते ताबसा सवे दहा, जे अदहगा ते नट्ठा, सो तिसंझं वणसंडं परियचिऊणं जं सउण- गमवि पासइ तं डहइ, ताहे सामी तेण दिडो, ततो आंसुरुत्तो, ममं न याणसि ?, सूरं णिज्झाइत्ता पच्छा सामि पलोएइ, सो न उज्झइ जहा अण्णे, एवं दो तिण्णि वारा, ताहे गंतूण डसइ, डसित्ता अवक्कमइ-मा मे उवरि पडिहित्ति, तहवि न मरइ, एवं तिणि वारे, ताहे पलोएंतो अच्छति अमरिसेणं, तस्स भगवओ रूवं पेच्छंतस्स ताणि विसभरियाणि अच्छीणि ४ विज्झाइयाणि सामिणो कतिसोम्मयाए, ताहे सामिणा भणिअं-उवसम भो चंडकोसिया, ताहे तस्स ईहापोहमग्गणगवेसणं करेंतस्स जातीसरणं समुप्पण्णं, ताहे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेता भत्तं पञ्चक्खाइ मणसा, तित्थगरो जाणइ, ताहे सो बिले तुंडं छोढुं ठिओ, माऽहं रुटो संतो लोग मारेहं, सामी तस्स अणुकंपाए अच्छइ, सामि दहण गोवा सूत्रांक -36 अनुक्रम VI|१९६० कुठारः अभिमुखः स्थितः, वन्न तस्थ शिरो विभागीकृतं, तन्न मृतस्तम्भिव बनलपटे दृष्टिविपः सो जातः, तेन रोषेण लोभेन च तं रक्षति बनखण्वं, | ततस्ते तापसाः सर्वे दग्धाः, ये अदग्धास्ते नष्टाः, स त्रिसन्ध्यं वनसण्ड परीय यं जन शकुनमपि पश्यति सं दहति तदा स्वामी तेन ए,ततः कुछः, मो न जानासि!, सूर्य निष्याय पश्चात्स्वामिनं प्रलोकपति, स न दाते यथाऽन्ये, एवं द्वौ श्रीन वारान , तदा गस्वा दधाति, इष्ट्वाऽपकामति-मा ममोपरि पप्तत् इति | तथापि न म्रियते, एवं ग्रीन वारान् , तदा प्रलोकमानस्तिष्ठति अमर्षेण, तख भगवतो रूपं प्रेक्षमाणस्य ते विषभृते अक्षिणी विध्याते स्वामिनः | कान्तिसौम्येन, तदा खामिना भणितम्-उपपाम्य भोः चण्डकौधिक !, तदा तस्य ईहापोहमार्गणगवेषणां कुर्वतः जातिमारणं समुत्पच, तदा विकृषः भाद|क्षिणमदक्षिणं कृत्वा भकं प्रत्याख्याति मनसा, तीर्थंकरो जानाति, तदा सवितु स्थापयित्वा स्थितः, माऽहं रुटः सन् कोकं मीमरम्, स्वामी तसानुकम्पया तिति, स्वामिनं टा. ब Jaintain valanmitraryorg पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६६], भाष्यं [११४...] CONS लवच्छवाला अल्लियंति, रुक्खेहिं आवरेत्ता अप्पाणं तस्स सप्पस्स पाहाणे खिवंति, न चलतित्ति अल्लीणो कडेहिं घट्टिओ, तहवि न फंदतित्ति तेहिं लोगस्स सिहं, तो लोगो आगंतूण सामि वंदित्ता तंपि य सप्पं महेइ, अण्णाओ य घयविकिणियाओ तं सप्पं मक्खेंति, फरुर्सिति, सो पिवीलियाहिं गहिओ, तं वेयर्ण अहियासेत्ता अद्धमासस्स मओ सहस्सारे उवपणो । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहउत्तरवाचालंतरवणसंडे चंडकोसिओ सप्पो । न डहे चिंता सरणं जोइस कोवा हि जाओऽहं ॥ ४६७॥ गमनिका-उत्तरवाचालान्तरवनखण्डे चण्डकौशिकः सर्पः न ददाह चिन्ता स्मरणं ज्योतिष्कः क्रोधाद् अहिर्जातोऽह-18 |मिति, अक्षरगमनिका स्वबुद्ध्या कार्येति ॥ ४६७ ।। अनुक्तार्थ प्रतिपादयन्नाह उत्तरवायाला नागसेण खीरेण भोयणं दिब्वा । सेयवियाय पएसी पंचरहे निजरायाणो॥ ४६८॥ गमनिका-उत्तरवाचाला नागसेनः क्षीरेण भोजनं दिव्यानि श्वेतम्यां प्रदेशी पश्चरथैः नयका राजानः-नैयका गोत्रतः, प्रदेशे निजा इत्यपरे । शेषो भावार्थः कथानकादवसेयः तच्चेदम्-तओ सामी उत्तरवाचालं गओ, तत्थ GAON गोपालवत्सपाला आगच्छन्ति, वृक्षरावार्यात्मानं तस्य सर्पस्व (उपरि) पापाणान् क्षिपन्ति, न चलतीति ईपल्लीना काठपंडितः, तथाऽपि न सन्दत हति तैलोकाय शिष्ट, ततो लोक आगत्य स्वामिनं वन्दित्वा तमपि च सर्प महति,अन्यान घृतविक्राधिकासं सपै म्रक्षयन्ति स्पृशन्ति, स पिपीलिकाभिहीतः। at वेदनामध्यास अधमासेन मृतः सहस्रारे उत्पनः । २ सतः स्वाम्युत्तरवाचालं गतः, तत्र JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~403~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥१९७॥ पक्खक्खमणपारणते अतिगओ, तत्थ नागसेणेण गिहवइणा खीरभोयणेण पडिलाभिओ, पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि, हारिभद्रीततो सेयवियं गओ, तत्थ पदेसी राया समणोवासओ भगवओ महिमं करेइ, तओ भगवं सुरभिपुरं वच्चइ, तत्वंतराए| शायवृत्तिः जगा रायाणो पंचहिं रथेहिं एन्ति पएसिरण्णो पासे,तेहिं तत्थ सामी वंदिओ पूइओ य,ततो सामी सुरभिपुरं गओ, तत्व विभाग-१ गंगा उत्तरियवा, तत्थ सिद्धजत्तो नाम नाविओ, खेमल्लो नाम सउणजाणओ, तत्थ य णावाए लोगो विलग्गइ, कोसिएण महासउणेण वासियं, कोसिओ नाम उलूको, ततो खेमिलेण भणियं-जारिसं सउणेण भणियं तारिस अम्हेहिं मारणंतियं पावियचं, किं पुण ! इमस्स महरिसिस्स पभावेण मुचिहामो, सा य णावा पहाविया, सुदाढेण य णागकुमारराइणा दिडो भयवं णावाए ठिओ, तस्स कोवो जाओ, सो य किर जो सो सीहो वासुदेवत्तणे मारिओ सो संसारं भमिऊण सुदाढो नागो जाओ, सो संवट्टगवायं विउवेत्ता णावं ओबोलेउं इच्छइ । इओ य कंबलसंबलाणं आसणं चलियं, का पुण| पक्षक्षपणयारणकेऽतिगतः, तत्र नागसेनेन गृहपतिना क्षीरभोजनेन प्रतिकम्भितः, पन दिव्यानि प्रादुर्भूतानि, नतः श्वेतम्बीं गतः, सन्न प्रदेशी राजा श्रमणोपासको भगवतो महिमानं करोति, ततो भगवान् सुरभिपुरं अजति, तत्रान्तरा नयका राजानः पञ्चभी स्थैरायान्ति प्रदेशिराज्ञः पार्थे, तैखत्र स्वामी बन्दितः पूजितश्च, ततः स्वामी सुरभिपुरं गतः, तत्र गङ्गा उत्तरीतम्या, तत्र सिद्धयानो नाम माविकः, क्षेमिलो नाम शकुन ज्ञाता, तत्र च नाचि लोको विक्रगति, कौशिकेन महापाकनेन वासितं, कौशिको नाम उलूकः, ततः क्षेभिलेन भणितं-यादशं शकुनेन भणितं तारयामसारीभारणान्तिकं प्राप्तम्ब, किं पुनः! अस मह। प्रभावेण मोषामदे, साच नीः प्रधाविता, गुड्रेिण च नागकुमारराजेन स्टो भगवान् नावि स्थितः, तस कोपो जाता, सप किक यः स सिंह वासुदेवस्ये मारितः स संसार भान्स्वा सुदंष्टो नागो जाता, स संवतकयातं विकुष्यं नावमुगुदयितु इच्छति । इतम कम्बलसम्यकबोरान किर्स, का पुमा १९७|| सव पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं [-], मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] |'कंबलसंवलाण उष्पत्ती–महुराए नगरीए जिणदासो वाणियओ सड्डो, सोमदासी साविया, दोऽवि अभिगयाणि परिमाणकडाणि, तेहिं चउपयस्स पञ्चक्खायं, ततो दिवसदेवसि गोरस गिण्हंति, तत्थ य आभीरी गोरसं गहाथ आगया, सा ताए सावियाए भण्णइ-मा तुम अण्णस्थ भमाहि, जत्तिअं आणेसि तत्तिअंगेण्हामि, एवं तासिं संगर्य जायं, इमावि गंधपुडियाइ देइ, इमावि कूइगादि दुद्धं दहियं वा देइ, एवं तासिं दढं सोहियं जायं । अण्णया तासिं गोवाणं विवाहो। जाओ, ताहे ताणि निमंति, ताणि भणन्ति-अम्हे वाउलाणि ण तरामो गंतु, जं तत्थ उवउज्जति भोयणे कडगभंडादी। हवस्थाणि आभरणाणि धूवपुष्फगंधमलादि वधूवरस्स तं तेहिं दिण्णं, तेहिं अतीव सोभावियं, (५०००) लोगेण य सला-14 हियाणि, तेहिं तुडेहिं दो तिवरिसा गोणपोतलया हसरीरा उवठिया कंबलसंबलत्ति नामेणं, ताणि नेच्छंति, बला बंधि गयाणि,ताहे तेण सावरण चिंतियं-जइ मुचिहिति ताहे लोगो वाहेहित्ति, ता एत्थ चेव अच्छंतु, फासुगचारी किणिऊणं काबशम्बलयोरुत्पत्तिः --मधुरायां नगर्यो जिनदासो पनिर थावः, सोमदासी श्राविका, अपि अभिगतौ (जीवादिशातारी)कृतपरिमाणी, ताभ्यां चतुष्पदं प्रवाण्यातं, ततो दिवसदैवसिक गोरसं गृहीतः, तत्र चामीरी गोरसं गृहीत्वा आगता, सा तया भाविकया भण्यते-मा स्वमन्यत्र भ्रमी, बाबदामयसि तावहामि, एवं तयोः संगतं जातं, इयमपि गन्धपूटिकादि ददाति, इयमपि फूधिकादि दुग्ध दधि वा ददाति, एवं तपो सोहर जातं ।। अन्पदा तेषां गोपानी विवाहो जातः, तदा तौ निमनपतः, तो भणतः-आवां व्याकुलीन शाकुब मागन्त, यत्तत्रोपयुज्यते भोजने कटाहभाण्डा दिपसाग्याभरणानि भूपपुष्पगन्धमाश्यादि वधूवरयोः सीदंसं, तैरतीच शोभित, लोकेन चडाधिती, ताभ्यां वृष्टाभ्यां द्वौ त्रिी गोपोतो हटवारीरी उपरथापिती कम्बलशम्बकापिति नाना, ती नेच्छतः, पळावा गती, तदा तेन श्रावकेण चिन्तितं-पवि मुच्यते तदा लोको वाइविष्यति इति तद् अत्रैव तिष्ठता, मासुझचारिकीत्वा JAMERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: कंबल-शंबल कथानक ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययनं 1-1, मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] प्रत सूत्रांक आवश्यक-दिजइ, एवं पोसिजंति, सोऽवि सावओ अहमीचउद्दसीसु उववासं करेइ पोत्थयं च वाएइ, तेऽवि तं सोऊण भत्या जाया हारिभद्रीसणिणो य, जदिवसं सावगो न जेमेइ तद्दिवसं तेऽविन जेमंति, तस्स सावगस्स भावो जाओ-जहा इमे भविया यवृत्तिः ॥१९८॥ विभागः१ जवसंता, अब्भहिओ य नेहो जाओ, ते रुवस्सिणो, तस्स य सायगस्स मित्तो, तत्व भंडीरभणजत्ता, तारिसा नस्थि अ-1 पणस्स बदला, ताहे तेण ते भंडीए जोएत्ता णीआअणापुच्छाए, तत्थ अण्णेण अण्णेणवि समं धावं कारिया, ताहे ते छिन्ना, तेण ते आणे बद्धा, न चरंति न य पाणियं पिवंति, जाहे सबहा नेच्छंति ताहे सो सावओ तेर्सि भत्तं पञ्चक्खाइ, नमु-I7 कारं च देइ, ते कालगया णागकुमारेसु उववण्णा, ओहिं पति, जाव पेच्छंति तित्थगरस्स उवसगं कीरमाणं, ताहे तेहिं चिंतिय-अलाहि ता अण्णेणं, सामि मोएमो, आगया, एगेण णावा गहिया, एगो सुदाढेण समं जुज्झइ, सो महिहिगो, तस्स पुण चवणकालो, इमे य अहुणोववण्णया, सो तेहिं पराइओ, ताहे ते नागकुमारा तित्थगरस्स महिमं करेंति दीयते, एवं पोप्येते, सोऽपि भावकोशष्टमीचतुर्दश्योरुपवासं करोति पुस्तक व वाचवति, तावपि तत् भुवा भनकी जाती संशिनी च, यदिवसे | श्रावको न जेमति तदिवसे तावपि न जेमतः, तस्य श्रावकस भावो जातः-यथेमौ भन्यायुपशान्ती, अभ्यधिक हो जातःती रूपवन्ती, तस्य च श्वावकस्य मित्र, तन्त्र भण्डीरमणयात्रा, तारशी न सोडन्यस्य बालीपी, तदा तेन भण्डयां योगविरचा भीती मनापृच्छया, तान्येनान्येनापि सम भावनं कारिती, तदा ती छिनी, तेन सावानीय बौन चरतो न च पानीयं पिचता,यदा सर्वथा नेच्छतस्तदा सावकस्तौ भक्तं प्रत्याख्यापयति, नमस्कारं च ददाति, ती काळगती | ॥१९८॥ नागकुमारेपूत्पनी, भवधि प्रायुजां यावत्पश्यतः तीर्थकरस्योपसमें क्रियमाणं, तदा ताभ्यां चिन्तितम्-अर्क तावदन्येन, स्वामिनं मोचयानः, भागती, एकेन * नत्गृहीता, एका मुद्रेन समं पुण्यते, स महर्षिका, तस पुनभ्यवनकालः, इमो चाधुनोत्पनी, सताभ्यां पराजितः, तदा तौ नागकुमारी तीर्थकरस्य महिमानं कुरुतः CAX अनुक्रम +5 JABERati Sarwanmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४६८], भाष्यं [११४...] CASTOREGAOSAXCC सत्तं रूवं च गायंति, एवं लोगोऽवि, ततो सामी उत्तिष्णो, तत्थ देवहिं सुरहिगंधोदयवासं पुष्फवासं च वुटुं, तेऽवि पडिगया । अमुमेवार्थमुपसंहरन्नाहसुरहिपुर सिहजत्तो गंगा कोसिअ विऊय खेमिलओ।नाग सुदाढे सीहे कंबलसबला य जिणमहिमा॥४६९॥ महुराए जिणदासो आहीर विवाह गोण उपचासे । भंडीर मित्त अवच्चे भत्ते णागोहि आगमणं ॥ ४७० ॥ | वीरवरस्स भगवओ नावारूढस्स कासि उवसग्गं । मिच्छादिवि परद्धं कंबलसबला समुत्तारे ॥ ४७१॥ पदानि-सुरभिपुरं सिद्धयात्रः गङ्गा कौशिकः विद्वांश्च खेमिलकः नागः सुदंष्ट्रः सिंहः कम्बलसबली च जिनमहिमा, मथुरायां जिनदासः आभीरविवाहः गोः उपवासः भण्डीरः मित्रं अपत्ये भक्तं नागी अवधिः आगमनं वीरवरस्य भगवतः नावमारूढस्य कृतवान् उपसर्ग मिथ्याष्टिः 'परद्धं विक्षिप्तं भगवन्तं कम्बलसबली समुत्तारितवन्तौ । अक्षरगमनिका स्वबुझ्या कार्या । ततो भगवं दगतीराए इरियावहियं पडिकमइ, पत्थिओ ततो, णदीपुलिणे भगवओ पादेसु लक्खणाणि दीसंति महुसिथचिक्खले, तत्थ पूसो नाम सामुहिओ, सो ताणि पासिऊण चिंतेइ-एस चकवट्टी गतो एगागी, वच्चामि णं वागरेमि, तो मम एत्तो भोगा भविस्संति, सेवामिणं कुमारत्तणे, सामीऽवि धूणागस्स सण्णिवेसरस बाहिं पडिमं CARNCREASE सर्व रूपं च गायतः, एवं लोकोऽपि, ततः स्याम्पुत्तीर्णः, तत्र देवैः सुरभिगम्धोदकवर्षों पुष्पवर्षा च टा, तावपि प्रतिगती २ ततो भगवान् दकतीरे। इपिथिकी प्रतिकाम्यति, प्रस्थितस्ततः, नदीपुलिने भगवतः पादयोक क्षणानि श्यन्ते मधुसिक्थकर्दमे, तत्र पुष्पो नाम सामुद्रिका, स तानि हटा चिन्ससापति-एष चक्रवर्ती गत एकाकी, प्रजामि संध्याकरोमि, ततः ममामानोगा भविष्यन्ति, सेवेतं कुमारवे, खाम्पपि स्थूणाकस्य सन्निवेशस्य बहिगि प्रतिमा For PAHATEEPIVanupontv पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७१], भाष्यं [११४...] हारिभद्री| यवृत्तिः विभागः१ - आवश्यक-ठिओ, तत्थ सो सामि पिच्छिऊण चिंतेइ-अहो मए पलालं अहिजि, एएहि लक्खणेहिं जुत्तं, एएण समणेण न होउं इओ य सको देवराया ओहिणा पलोएइ-कहिं अज्ज सामी, ताहे सामि पेच्छइ, तं च पूस, आगओ सामि वन्दित्ता ॥१९॥ भणति-भो पूस ! तुम लक्खणं न याणसि, एसो अपरिमिअलक्षणो, ताहे वण्णेइ लक्खगं अधिभतरगं-गोखीरगोरं रुहिरे पसत्थं, सत्धं न होइ अलिअं, एस धम्मवरचाउरंतवकवट्टी देविंदनरिंदपूइओ भवियजणकुमुयाणंदकारओ भविस्सइ, ततो सामी रायगिह गओ, तत्थ णालंदाए बाहिरियाए तंतुवागसालाए एगदेसंमि अहापडिरूवं उग्ग अणुण्णवेत्ता पढौ मासक्खमणं उपसंपन्जित्ताणं विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं मंखली नाम मंखो, तस्स भद्दा भारिया गुविणी सरवणे नाम सण्णिवेसे गोबहुलस्स माहणस्स गोसालाए पसूआ, गोण्णं नाम कयं गोसालोत्ति, संवहिओ, मंखसिप्पं अहिजिओ, चित्तफलयं करेइ, एकलओ विहरतओ रायगिहे तंतुवायसालाए ठिओ, जत्थ सामी ठिओ, तत्थ वासावासं उवागओ। - - 550% M ॥१९९॥ स्थितः, तत्र स स्वामिन प्रेक्ष्य चिन्तयति-अहो मा पलालमधीत, पुतैर्लक्षणैर्युक्तः, एतेन श्रमणेन न भाष्यं । इतच शक्रो देवराजोअधिना प्रलोकयति-काद्य स्वामी?, तदा स्वामिनं प्रेक्षते, तं च पुष्पं, आगतः स्वामिनं वन्दिावा भणति-भोः पुष्प! त्वं लक्षणं न जानासि, एपोअरिमितलक्षणः, तदा | पर्णयति लक्षणमभ्यन्तरं-गोक्षीरगौरं रुधिरं प्रशस, शाखं न भवति मलीक, एष धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती देवेन्द्रनरेन्द्रपूजितः भव्यतनकुमदानन्दकारकः भविप्य ति, ततः स्वामी राजगृहं गतः, तत्र नालन्दास्पशाखापुरे तन्तुवायशालायां एकदेशे यथाप्रतिरूपमवग्रहमनुज्ञाप्य प्रथमं मासक्षपणमुपसंपच विहरति । तस्मिन् काले तस्मिन् समये मङ्कलि म मङ्गः, तख भद्रा भायां गुर्षिणी शरवणे नाम सनिवेशे गोबहुलस्य ब्राह्मणस्य गोशालायां प्रसूता, गीर्ण नाम कर्त गोशाल इति, संवर्धितः, महशिल्पमध्यापितः,चित्रफलकं करोति, एकाकी विहरन् राजगृहे तन्तुवायशालायां स्थितः, पत्र स्वामी स्थितः, तत्र वर्षांचासमुपागतः JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७१], भाष्यं [११४...] 50-50% भगवं मासखमणपारणए अम्भितरियाए विजयस्स घरे विउलाए भोयणविहीए पडिलाभिओ, पंच दिवाणि पाउम्भूयाणि, गोसालो सुणेत्ता आगओ, पंच दिवाणि पासिऊण भणति-भगवं! तुझं अहं सीसोत्ति, सामी तुसिणीओ निग्गओ, बितिअमासखमणं ठिओ, बितिए आणदस्स घरे खजगविहीए ततिए सुर्णदस्स घरे सब कामगुणिएणं, ततो चउत्थं मासखमणं उवसंपन्जिताणं विहरइ । अभिहितार्थोपसंग्रहायेदमाहथूणाऍ यहिं पूसो लक्षणमभंतरं च देविंदो । रायगिहि तंतुसाला मासक्खमणं च गोसालो ॥ ४७२ ॥ मंखलि मंख सुभद्दा सरवण गोवहुलमेव गोसालो। विजयाणंदसुणंदे भोअण खजे अ कामगुणे ॥४७३॥ पदानि-स्थूणायां बहिः पुष्यो लक्षणमभ्यन्तरं च देवेन्द्रः राजगृहे तन्तुवायकशाला मासक्षपणं च गोशालः मञ्जली मङ्ख: सुभद्रा शरवर्ण गोपाल एवं गोशालो विजय आनन्दः सुनन्दःभोजनं खाद्यानि च कामगुणं । शरवर्ण-गोशालोत्पत्तिस्थानं । शेषाऽक्षरगमनिका स्वधिया कार्या । गोसालो कत्तियदिवसपुषिणमाए पुच्छइ-किमहं अज भत्तं लभिस्सामि?, सिद्धत्धेण भणियं-कोदवकूरं अंबिलेण कूडरूवगं च दक्खिणं, सो णयरिं सवादरेण पहिडिओ, जहा भंडीसुणए, न कहिंचिवि संभाइयं, T भगवान् मासक्षपणपारणके अभ्यन्त रिकार्या विजयस्व गृहे विपुलेन भोजन विधिना प्रतिलभितः, पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूनानि, गोशाला स्वागतः, | पज्ञ दिव्यानि इसा भणति-भगवन् ! सवाई शिष्य-इति, स्वामी तूष्णीको निर्गतः, द्विवीषभासक्षपणं स्थितः, द्वितीयमिन् आगन्दस्य गृहे खाद्यकविधिना तृतीये सुनन्दख रहे सर्वकामगुणितेन, ततश्रतुर्थं मासक्षपणमुपसंपद्य विहरति । २ गोशालः कार्तिकपूर्णिमादिवसे पृच्छति-किमहमव भक्तं लप्स्ये', सिद्धान | भणितम्-कोदवतन्दुलान् भरलेन कूट रूप्यं च दक्षिणायां, स नगर्या सादरेण प्रहिण्डिता, यथा गन्त्रीश्चा, न कमिभिषि संभाजितः. का पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७३], भाष्यं [११४...] प्रत आवश्यकताहे अवरण्हे एक्केणं कम्मकरण अंबिलेण कूरो दिण्णो, ताहे जिमिओ, एगो रूवगो दिण्णो, रूवगो परिक्खाविओ जाव हारिभद्री | कूडओ, ताहे भणति-जेण जहा भवियवं ण तं भवति अण्णहा, लजिओ आगतो। तओ भगवं चउत्थमासखमणपार- यवृत्तिः ॥२०॥ गए नालिंदाओ निग्गओ, कोल्लाकसन्निवेसं गओ, तत्थ बहुलो माहणो माहणे भोयावेति घयमहुसंजुत्तेणं परमण्णेणं, विभागः१ ताहे तेण सामी पडिलाभिओ, तत्थ पंच दिवाणि । गोसालोऽवि तंतुवागसालाए सामि अपिच्छमाणो रायगिहें सब्भ-18 तरबाहिरि गवसति, जाहे न पेच्छइ ताहे नियगोवगरणं धीयाराणं दार्ज सउत्तरोह मुंडं काउं गतो कोल्लागं, तत्थ भगवतो मिलिओ, तओ भगवं गोसालेण समं सुवण्णखलगं वच्चइ, एत्थंतरा गोवा गावीहिंतो खीरं गहाय महल्लिए थालीए| णवरहिं तंदुलेहिं पायसं उवक्सडेंति, ततो गोसालो भणति-एह भगवं! एस्थ भुंजामो, सिद्धत्थो भणति-एस निम्माण चेव न वच्चइ, एस भजिहिति उल्लहिज्जती, ताहे सो असद्दहतो ते गोवे भणति-एस देवजगो तीताणागतजाणओ| सूत्रांक अनुक्रम T तदाऽपराहे एकेन कर्मकरेण अग्लेन तन्दुला दत्ता, तदा जिमितः, एको रूप्यको दलः, रूप्यकः परीक्षितः यावत् कूटः, तदा भणति-येन यथा | भवितव्यं न सवसन्यथा, लजित आगतः । ततो भगवान् चतुर्थमासक्षपणपारणके नालन्दाया निर्गतः, कोल्लाकसनिवेशं गतः, तत्र बहुलो माह्मणो श्राह्मणान् । भोजपति पृतमधुसं युकेन परमान, तदा तेन स्वामी प्रतिलम्भितः, तन्त्र पञ्च दिच्यानि । गोशालोऽपि तन्वायशालायां खामिनमप्रेक्षमाणः राजगृहं साभ्यन्तर|४|| माझं गवेषयति, यदा न प्रेक्षते सदा निजकोपकरण घि सदा निजकोपकरणं धिकारेभ्यो दत्त्वा सोत्तरी मुण्डनं कृत्वा गतः कोलार्क, तत्र भगवता मिलितः, ततो भगवान् गोशालेन । समं सुवर्णखलं नजति, सत्रान्तरा गोपा गोभ्यः क्षीरं गृहीत्वा महल्यां स्थास्यां नषैतन्दुलैः पायसमुपस्कुर्वन्ति, तसो गोपालो भणति-पाव भगवन् ! अत्र। भुणावा, सिद्धार्थो भणति-एषा निर्माणमेव न प्रजिष्यति, एषा भवति वाहिश्यमाना, तदा सोऽवदधानः तान् गोपान भणति-एष देवार्यकः तीतानागतशाषकात Jaindinrary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७३], भाष्यं [११४...] COCACADASREAST भणति-एस थाली भजिहिति, तो पयत्तेण सारक्खह, ताहे पयत्तं करेंति-वंसविदलेहिं सा बद्धा थाली, तेहिं अतीव बहुला तंदुला छूढा, सा फुट्टा, पच्छा गोवालाणं जेणं जं करुलं आसाइयं सो तत्थ पजिमिओ, तेण न लद्धं, ताहे | सुडतरं नियतिं गेहइ । अमुमेवार्थ कथानकोक्तमुपसंजिहीर्घराह-- कुल्लाग घहुल पायस दिब्बा गोसाल दहु पयज्जा। बाहिं मुवण्णखलए पायसथाली नियइगहणं ॥ ४७४ ॥ पदानि कोल्लाकः बहुलः पायसं दिव्यानि गोशालः दृष्ट्वा प्रव्रज्या बहिः सुवर्णखलात् पायसस्थाली नियतेनेहर्ण च।। पदार्थ उक्त एव । बभणगामे नंदोवनंद उवर्णद तेय पञ्चद्धे । चंपा दुमासखमणे वासापास मुणी खमह ॥ ४७५ ॥ पदानि-श्राह्मणग्रामे नन्दोपनन्दी उपनन्दः तेजः प्रत्यर्धे चम्पा द्विमासक्षपणे वर्षावास मुनिःक्षपयतीति । अस्याः पदार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम् ततो सामी बंभणगामंगतो, तत्थ नंदो उवणंदोय भायरो, गामस्स दो पाडगा, एक्को नन्दस्स बितिओ उवणंदस्स, ततो सामी नंदस्स पाडगं पविठ्ठो नंदघरं च, तत्थ दोसीणेणं पडिलाभिओ नंदेण भणसि-एषा स्थाली भक्ष्यति ततः प्रयत्नेन संरक्षत, तदा प्रयतं कुर्वन्ति, बंशविदलः सा बड़ा स्थाली, तैरतीय बद्दबस्सन्दुलाः क्षिप्ताः, सा स्फुटिता, पसात् गोपालानां येन यरकपालमासादितं स तत्र प्रजिमितः, तेन न लब्धं, तदा सुष्टुतरं नियति गृहाति। ततः स्वामी ब्राह्मणप्रामं गतः, तत्र नन्द उपनन्दा भातरी, ग्रामस्य द्वौ पाटको, एको नन्दस्य द्वितीय अपनन्दस्य, ततः स्वामी नन्दस्य पाटकं प्रविष्टः नन्दगृहं च, तत्र पिताजेन प्रतिलम्भितः नन्देन, * खल पायसथाली निषाद गहणं च.प्र. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७५], भाष्यं [११४...] आवश्यक- ॥२०१॥ गोसालो उवनंदस्स, तेण उवर्णदेण संदिहं देहि भिक्खं, तत्थ न ताव वेला, ताहे सीअलकूरो णीणिओ, सो तं णेच्छइ, 5 हारिभद्रीपच्छा सा तेणवि भण्णति-दासी! एयस्स उवरि छुभसुत्ति, तीए छूढो, अपत्तिएण भणति-जइ मज्झ धम्मायरिअरस का यवृत्तिः साविभागः१ अस्थि तवो तेए वा एयरस घर डग्झउ, तरथ अहासण्णिहितेहिं वाणमंतरेहिं मा भगवतो अलियं भवउत्ति तेण तं दही घरं । ततो सामी चंपं गओ, तत्थ वासावासं ठाइ, तत्थ दोमासिएण खमणेण खमइ, विचित्तं च तवोकम्म, ठाणादीए 8 पडिमं ठाइ, ठाणुकडगो एवमादीणि करेइ, एस ततिओ वासारत्तो। कालाऍ सुण्णगारे सीहो विजुमई गोहिदासी य । खंदो दन्तिलियाए पत्तालग सुण्णगारंमि ॥ ४७६ ॥ पदानि-कालायां शून्यागारे सिंहः विद्युन्मती गोष्ठीदासी च स्कन्दः दन्तिलिकया पात्रालके शुन्यागारे । अक्षरगमनिका | क्रियाऽध्याहारतः स्वधिया कार्या । पदार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-ततो चरिमं दोमासियपारणयं बाहिं पारेत्ता कालायं नाम सणिवेसं गओ गोसालेण सम, तत्थ भगवं सुण्णघरे पडिमं ठिओ, गोसालोऽवि तस्स दारपहे ठिओ, १ गोशाल उपनन्दस्व, तेनोपनन्देन संविष्टम्-देहि भिक्षा, तत्र न तावडेला, तदा शीतलकुरो नीतः, स तं नेच्छति, पश्चात् सा तेनापि भावते-दालि! |एतस्योपरि क्षिति, तथा क्षिसः, अप्रीया भणति-पदि मम धर्माचार्यख अस्ति तपसोजो वा एतस्य गृहं दद्यतां, तब वधासनिहितवनिमन्तरेः मा भग ॥२०१॥ वान् अकीको भवरिवति तैस्तद् दग्धं गृहं । ततः स्वामी चम्पां गतः, तत्र वर्षावासं तिपति, तत्र दिमासक्षपणेन तपस्थति, विचित्रं च तपःकर्म, स्थानादिना प्रतिमा (कायोत्सर्ग) करोति, स्थानमुत्कटुकः एवमादीनि करोति, एष तृतीयो वरात्रः । २ ततश्चम द्विमासिकपारण बदिष्कृत्वा काला नाम | सजियेशं गतः गोशालेन समं, तत्र भगवान शून्यगृहे प्रतिमा स्थितः, गोकालोऽपि तस्य द्वारपये स्थितः. JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७६], भाष्यं [११४...] (४०) तत्थ सीहो नाम गामउडपुत्तो विजुमईए गोहीदासीए समं तं चेव सुपणपरं पविठ्ठो, तत्थ तेग भण्गइ-जइ इत्थ समणो दावा माहणो वा पहिको वा कोह ठिओ सो साहउ जा अन्नत्थ बच्चामो, सामी तुहिक्कओ अच्छइ, गोसालोऽपि तुहि-2| कओ, ताणि अच्छित्ता णिग्गयाणि, गोसालेण सा महिला छिक्का, सा भणति-एस एस्थ कोइ, तेण अभिगतूण पिट्टिओ, एस धतो अणायारं करेंताणि पेच्छंतो अच्छाइ, ताहे सामि भणइ-अहं एफिलओ पिट्टिज्जामि, तुम्भेण बारेह. सिद्धत्यो। भणइ-कीस सील न रक्खसि ?, किं अम्हेऽवि आहष्णामो?, कीस वा अंतो न अच्छसि, ता दारे ठिओ। ततो निग्गतण सामी पत्तकालयं गओ, तत्थवि तहेव सुपणघरे ठिओ, गोसालो तेण भएणं अंतो ठिओ, तत्थ खंदओ नाम गामउडपुत्तो |अप्पिणिचियादासीए दत्तिलियाए समं महिलाए लज्जतो तमेव सुण्णघरं गओ, तेऽपि तहेव पुच्छति, तहेव तुहिका तब सिंहो नाम ग्रामपुत्रः विद्युन्मस्या गोष्ठीदास्या समं तदेव यम्प प्रविष्टः, तत्र तेन भन्यते-या श्रमणो वा ब्राह्मणो वा पथिको वा कवित स्थितः स साधयतु यतः अन्यत्र सजायः, स्वामी तूष्णीकस्तिष्ठति, गोशालोऽपि तूष्णीका, तौ स्थिस्त्रा निर्गती, गोशालेन सा महेला स्पृष्टा, सा भगति-एषोऽत्र कश्चित् , तेनाभिगम्य पिहितः, एष धूतः अनाचारं कुर्वन्ती पश्यन् तिष्ठति, तदा स्वामिनं भणति-अदमेकाकी पिहथे, यूर्य न वारयत, सिहार्थों भणति-कृतः शीलं न रक्षसि ?, किं वयमपि आहन्यामहे', कुतो वान्त: म तिष्ठसि ?, खतो द्वारे स्थितः। ततो निर्गत्य स्वामी पात्राल के गतः, तत्रापि तथैव शून्पगृहे स्थितः गोशालस्तेन भयेनाम्त: स्थितः, तत्र स्कन्दको नाम ग्रामङ्कटपुत्रः पाश्मीवया दास्या दन्तिलिकया समं महिकायाः लजमानः तदेव शून्यगृहं गतः, तावपि तथैव छतः, तथैव तूष्णीकी JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७६], भाष्यं [११४...] हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ प्रत - सूत्रांक - - - आवश्यक-IDI |अच्छंति, जाहे ताणि निग्गच्छंति ताहे गोसालेण हसियं, ताहे पुणोऽवि पिट्टिओ, ताहे सामि खिंसइ-अम्हे हम्मामो, | तुम्भे न वारेह, कि अम्हे तुम्हे ओलग्गामो ?, ताहे सिद्धत्थो भणति-तुम अप्पदोसेण हम्मसि, कीस तुंडं न रक्खेसि-1 ॥२०२॥ • मुणिचंद कुमाराए कूवणय चंपरमणिजउजाणे । चोराय चारि अगडे सोमजयंती उचसमेइ ।। ४७७॥ । पदानि--मुनिचन्द्रः कुमारायां कृपनयः चम्परमणीयोद्याने चौरायां चारिकोडगडे सोमा जयन्ती उपशामयतः । पदार्थः । कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-तैतो भगवं कुमारायं नाम सण्णिवेस गओ, तत्थ चम्परमणिजे उजाणे भगवं पडिमं ठिओ। इओ य पासावचिजो मुणिचंदो नाम थेरो बहुस्सुओ बहुसीसपरिवारो तंमि सन्निवेसे कूवणयस्स कुंभगारस सालाए। ठिओ, सो य जिणकप्पपडिम करेइ सीसं गच्छे ठवेत्ता, सो य सत्तभावणाए अपाणं भावेति, तवेण सत्तेण सुत्तेण |एगत्तेण बलेण य । तुलहा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पडिवजओ ॥१॥ एआओ भावणाओ, ते पुण सत्तभावणाए भावेंति, सा पुण “पढमा उवस्सयंमि, बितिया बाहिं ततिय चउकमि । सुण्णधरंमि चउत्थी, तह पंचमिआ मसाणंमि॥१॥" तिष्ठतः, यदा ती निर्गच्छतः तदा गोशालेन हसितं, तदा पुनरपि पिट्टितः,तदा स्वामिनं जुगुप्सते-अहं बन्ये, पूर्वन वारयत, किंयुष्मान् वयमवलगामः तदा सिद्धार्थो भणति-त्वमात्मदोषेण इन्यसे, कुतस्तुपडं न रक्षसि ।।२ ततो भगवान् कुमाराकं नाम सनिवेशं गतः, नन्न चम्परमणीये उद्याने प्रतिमा भगवान् खितः । इतन्त्र पार्वापरयः मुनिचन्द्रो नाम स्थविरः बहुश्रुतः बहुशियपरिवारः तस्मिन् संनिवेशे कूपनयस्य कुम्मकारस्य शालायां खितः, सच जिनकल्पप्रतिमा करोति शिष्यं गच्छे स्थापयित्वा । ते सवभावनयामानं भावयन्ति-तपसा सत्वेन सत्रेणकरवेन बलेन च । तुलना पञ्चधोक्ता जिनकत्वं प्रतिपिल्सोः ॥ १॥ एताः भावनाः, ते पुनः सत्वभावनया भावयन्ति, सा पुनः-प्रथमा उपाश्रये द्वितीया बहिः तृतीया चतुष्के । शून्यगृहे चतुर्थी तथा पत्रमी श्मशाने॥१॥ *- अनुक्रम | ॥२०२।। पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] 2-54-4-54 सो बितियाए भावेइ । गोसालो सामि भणइ-एस देसकालो हिंडामो, सिद्धत्थो भणइ-अज्ज अम्ह अन्तर,पच्छा सो हिंडतो, ते पासावचिजे पासति, भणति य-के तुभे?, ते भणंति-अम्हे समणा निग्गंधा, सो भणति-अहो निग्गंधा, इमो भे एत्तिओ गंथो, कहिं तुम्भे निग्गंधा ?, सो अप्पणो आयरियं वण्णेइ-एरिसो महप्पा, तुम्भे एत्थ के ?, ताहे तेहिं भण्णइजारिसो तुम तारिसी धम्मायरिओऽवि ते सयंगहीयलिंगो, ताहे सो रुटो-अम्ह धम्मायरियं सवहत्ति जइ मम धम्मायरियस्स अस्थि तयो ताहे तुभ पडिस्सओ डज्झउ, ते भणंति-तुम्हाणं भणिएण अम्हे न डज्झामो, ताहे सो गतो साहब सामिस्स-अज मए सारंभा सपरिग्गहा समणा दिहा, तं सर्व साहद, ताहे सिद्धत्येण भणियं-ते पासावचिज्जा साहवो, न ते डझंति, ताहे रत्ती जाया, ते मुणिचंदा आयरिया बाहिं उयस्सगस्स पडिमं ठिआ, सो कूवणओ तदिवस सेणीए भत्ते पाऊण वियाले एइ मत्तेल्लओ, जाव पासेह ते मुणिचंदे आयरिए, सो चिंतेइ-एस चोरोत्ति, तेण ते गलए गहीया, ते T 1Xस द्वितीयया भावयति । गोशाला स्वामिन भणति-एप देशकालः हिषडाबहे, सिद्धार्थो भणति-अयामाकमतर (उपचास.), पश्चात्स हिण्डमानः तान् पाया पान् पश्यति, भणति च-के यूयम् ,ते भणन्ति-वयं श्रमणा निन्थाः , स भगति-अहो निर्भन्धाः, अयं भवतामिपान ग्रन्था, कयूर्य निन्धा:', स आत्मन माआचार्य वर्णयति-ईरशो महात्मा, चूपमन्त्र के १, सदा तैर्भण्यते-याइशरवं तादृशोधर्माचार्योऽपि तव स्वगृहीतलिया, तदा स रुष्ट:-मम धर्माचार्य शपथ इति रापदि मम धर्माचार्य स्वास्ति तपः सदा युप्मा प्रतिक्षयो दातां, ते भणन्ति-युष्माकं भणितेन वयं न वनाम, तदा स गता कधपति स्वामिने, भय मया । सारमा सपरिग्रदा श्रमणा दृष्टाः, तत् सर्व कथयति, सदा सिद्धार्थन भषितम्-ते पापवासाचयो, मते दाम्ते, तदा रात्रिर्जाता. ते मनिचन्द्राचार्या बहिण्याश्रयस्य प्रतिमा स्थित स कूपनतो भक्के तहिवसे श्रेणी पीत्वा विकाले आयाति मत्तः, यावत्पश्यति तान् मुनिचन्दान् भाचार्यान् , स चिन्तयति-एष चौर इति, तेन ते ग्रीवायां गृहीताः, ते Hinatorary.om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२०३॥ विभागः१ MSROS निरुस्सासा कया, न य झाणाओ कंपिआ, ओहिणाणं उप्पण्णं आउंच णिडिअं, देवलोअंगया, तत्थ अहासन्निहिपहिं हारिभद्रीवाणमंतरेहिं देवेहि महिमा कया, ताहे गोसालो बाहिं ठिओ पेच्छइ, देवे उबट्टते नियंते अ, सो जाणइ-एस डझइ यत्तिः सो तेसिं उवस्सगो, साहेइ सामिस्स, एस तेसिं पडिणीयाणं उवस्सओ डग्झइ, सिद्धत्थो भणइ-न तेसिं उबस्सओ डन्झइ,81 तेसिं आयरियाणं ओहिणाणं उप्पण्णं, आउयं च णिढ़िय, देवलोगं गया, तत्थ अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिं देवेहि महिमा |कया, ताहे गोसालो बाहिठिओ पिच्छइ, ताहे गओ तं पदेस, जाय देवा महिम काऊण पडिगया, ताहे तस्स तं गंधोद|गवासं पुष्फवासं च दण अन्भहियं हरिसो जाओ, ते साहुणो उट्टवेइ-अरे तुम्भे न याणह, एरिसगा चेव बोडिया हिंडह, उद्देह, आयरिय कालगयंपि न याणह, सुवह रतिं सवं, ताहे ते जाणंति-सच्चिल्लओ पिसाओ, रतिपि हिंडइ, ताहे तेऽवि तस्स सद्देण उडिआ, गया आयरियस्स सगासं, जाव पेच्छंति-कालगयं, ताहे ते अद्धितिं करेइ-अम्हेहिं ण णाया CRRC- T निरुच्छासाः कृताः, न च ध्यानाकम्पिताः, अवधिज्ञानं उत्पन्नं आयुध निहितं, देवलोकं गताः, तत्र यथासविदितम्यस्तरदेवमहिमा फुतः, सदा गोशालो बहिःखितः पश्यति-देवानवपतत उत्पत्ततच, स जानाति-एप दह्यते स तेषामुपाश्रयः, कथयति खामिने-एष तेषां प्रत्पनीकानामुपाश्रयो दाते, सिद्धार्थो भाति-न तेषामुपाश्रयो दयते, तेषामाचार्याणामधिज्ञानमुत्पत्रं, आयुध निष्ठितं, देवलोकं गताः, तत्र यथासनिहितपन्तरदेवमहिमा कृतः, तदा गोशालो बहिःस्थितः प्रेक्षते, तदा गतसं प्रदेश, यापदेवा महिमानं कृत्वा प्रतिगताः, तदा तख वा मन्धोदका पुष्पवर्षां च स्टाऽभ्यधिको हो जातः, तान् साधनस्थापयति-अरे सूर्य न जानीध, ईशा एवं मुण्टका हिपटवे, अतिष्ठत, आचार्य कालगतमपि न जानीथ, खपिय रात्रिं सर्वा, सदा ते जानन्तिसखः पिशाचः, रात्रावपि हिण्डते, सदा तेऽपि तस्य शम्देन उत्थिताः, गता आचार्यख सकाश, वायरमेक्षन्ते कालातं, तदा तेर्ति कुर्वन्ति-अमाभिने ज्ञाता ॥२०३॥ - JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७७], भाष्यं [११४...] आयरिया कालं करेंता, सोऽवि चमढेत्ता गओ । ततो भगवं चोरागं सभिवेसं गओ, तत्थ चारियत्तिकाऊण उडवालगा अगडे पक्विविजेति, पुणो य उत्तारिजंति, तस्य पढमं गोसालो सामी न, ताव तत्थ सोमाजयन्तीओ नाम दुवे| उप्पलस्स भगिणीओ पासावच्चिजाओ जाहे न तरंति संजमं काउं ताहे परिवाइयत्तं करेंति, ताहिं सुर्य-एरिसा केवि दो जणा उड़बालएहिं पक्विविजंति, ताओ पुण जाणंति-जहा चरिमतित्थगरो पबइओ, ताहे गयाओ, जाव पेच्छंति, ताहि | मोइओ, ते उज्झसिआ अहो विणस्सिउकामेति, तेहिं भएण खमाविया महिया य। पिट्टीचंपा चासं तत्थं च जम्मासिएण खमणेणं । कयंगल देउलवरिसे दरिद्दथेरा य गोसालो ॥ ४७८ ॥ ततो भगवं पिट्ठीचंपंगओ, तत्थ चउत्थं वासारतं करेइ, तत्थ सो चउम्मासियं खवणं करेंतो विचित्तं पडिमादीहिं। करेइ, ततो बाहिं पारित्ता कयंगलं गओ, तत्थ दरिद्दधेरा नाम पासंडत्या समहिला सारंभा सपरिगहा, ताण वाडगस्स मादायाँ: काळ कर्वन्तः, सोऽपि तिरस्कृत्य गतः । ततो भगवान् चोराके सन्निवेशं गतः, तत्र चारिकावितिहरवा कोपालकै अग प्रक्षिप्येते, पुनश्चोत्ताने, तत्र प्रथमो गोशालो न स्वामी, तावतत्र सोमाजयन्तीनाम्म्यौ हे उत्पल व भगिन्यौ पाच परये यदा न तस्तः (वानुतः) संयम कर्तुं तदा परिमाजिकावं कुरुतः, साभिः श्रुतम्-ईशौ कौचिदपि द्वौ जनी आरक्षकैः प्रक्षिप्येते, ते पुन जीनीतः यथा चरमतीर्थकरः प्रनजितः, तदा गते, यावत्पश्यतः साताभ्यां मोचिता, ते तिरस्कृताः अहो विनंएकामा इति, ते येन क्षामितः माहितश्च । २(पृष्ठचम्पा वरात्र तत्र चातुर्मासिकेन क्षपणेन । कृतामलायां देवकुलं दिवर्षा दरिद्वषविराम गोशालः ॥ ८॥) ३ततो भगवान् पृष्ठचम्पां गतः, तत्र चतुर्थ वर्षारानं करोति, नत्र स चतुर्मासक्षपर्ण कुर्वन् विचित्रं कायोत्सर्गा दिभिः करोति, ततो बहिः पारयित्वा कृताङ्गको गतः,तन्त्र दरिद्रमविरा नाम पाण्डवाः समद्देनाः सारम्भाः सपरिमा, तेवा वाटकरख. *मुणी चाचम्मासिख मणेणं. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७८], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२०४॥ मज्ने देवउलं, तत्थ सामी पडिम ठिओ, तहिवसं च फुसि सीयं पडति, ताणं च तदिवसं जागरओ. ते समहिला गायंति. हारिभद्रीतत्थ गोसालो भणति-एरिसोऽवि नाम पासंडो भण्णइ सारंभो समहिलो य, सबाणि य एगहाणि गायंति चायति य, यवृत्तिः | ताहे सो तेहिं णिच्छूढो, सो तहिं माहमासे तेण सीएण सतुसारेण अच्छद संकुइओ, तेहिं अणकपतेहिं पुणोऽवि विभागः१ आणिओ, पुणोऽवि भणति, पुणोऽवि णीणिओ, एवं तिणि बारा णिच्छूढो अतिणिओ य, ततो भणइ-जइ अम्हे फुडं| भणामो तो णिच्छुभामो, तत्थडण्णेहिं भण्णइ-एस देवजयस्स कोऽपि पहिआवाहो छत्तधारो वा आसी तो तुहिका णि | अच्छह, सघाउज्जाणि य खडखडाचेह जहा से सद्दो न सुवति,सावत्थी सिरिभद्दा निंदू पिउदास पयस सिवदत्तेदारगणी नखवालो हलिद्द पडिमागणी पहिआ॥४७९॥ ततो सामी सावस्थिं गओ, तत्थ सामी बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ गोसालो पुच्छति-तुन्भे अतीह ?, सिद्धस्थो भणति मध्ये देवकुलं, तब स्वामी प्रतिमा स्थितः,तदिवसे च स्वरूपविन्दु शीतं पतति, सेपांव तदिवसे जागरणं, ते समहिला गायन्ति, तत्र गोशाको भणतिईशोऽपि नाम पापपरो भण्वते सारमा समहिलन, सर्वे चकत्र गायन्ति वादयन्ति च, तदा सतनिक्षिप्तः, सतब माघमासे तेन शीतेन सतुपारेण तिष्ठति संकुचितः, तैरमुकम्पयनिः पुनरप्यामीतः, पुनरपि भणति-पुनरपि नीतः, एवं बीन् वारान् बहिनिक्षितः आनीतच, ततो भणति-यदि पर्ष स्फुदं भणामः सदा | निष्काश्यामहे,तत्राभण्यते-एष देवार्यस्ख कोऽपि पीठमदेवाहक अधरो वा भविष्यति ततः तूष्णीकासित, सर्वातोवानि चावयत षया तख शम्यो न धूयते | का ॥२०४॥ २(श्रावस्ती श्रीमहा निन्दुः पितृएनः पापस शिवनाद्वारमशिः नखा वाला हरिद्रः प्रतिमा अग्निः पथिकाः ॥७९॥) ३तता स्वामी प्रावी गतः, तन। स्वामी बहिः प्रतिमां स्थितः, तत्र गोशालः पृच्छति-यूयं चलत', सिद्धार्थो भणति पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७९], भाष्यं [११४...] (४०) अज्ज अम्ह अंतरं, सो भणति-अज अहं किं लभिहामि आहारं!, ताहे सिद्धत्थो भणइ-तुमे अज्ज माणुसमंसं खाइअचंति, सो भणति-तं अज्ज जेमेमि जत्थ मंससंभवो नत्थि, किमंग पुण माणुसमंसं, सो पहिंडिओ । तत्थ य सावत्थीए नयरीए पिउदत्तो णाम गाहावई, तस्स सिरिभद्दा नाम भारिआ, सा य जिंदू, णिंदू नाम मरंतवियाइणी, सा सिवदत्तं नेमित्ति पुच्छइ-किहवि मम पुत्तभंडं जीविजा, सो भणति-जो सुतवस्सी तस्स तं गन्भं सुसोधितं रंघिऊण पायसं करेत्ता ताहे देह, तस्स य घररस अण्णओ हुत्तं दारं करेजासि, मा सो जाणित्ता डहिहित्ति, एवं ते थिरा पया भविस्सइ, ताए तहा कयं, गोसालो य हिंडतो तं घरं पविडो, तस्स सो पायसो महुघयसंजुत्तो दिण्णो, तेण चिंतिअं-एत्थ मंसं कओ भविस्सइत्ति | ताहे तुडेण भुतं, गंतुं भणति-चिरं ते णेमित्तियत्तर्ण करेंतस्स अजंसि णवरि फिडिओ, सिद्धत्थो भणइन विसंवयति, जइ न पत्तियसि वमाहि, वमियं दिवा नक्खा विकूइए अवयवा य, ताहे रुडोतंघरं मग्गइ, तेहिवितं बार ओहाडियं, तं तेण अचामाकमभक्कार्थी, स भणति-अद्याई किं लपये आहारम् , तदा सिहायों भपति-खवाय मनुष्यमांस खादितम्ममिति, सभणति-सत् अथ जेमामि यत्र मांससंभवी मालि, किमा पुनर्मनुष्यमांस ?, स पहिण्डितः । तत्र १ श्रावस्त्यां नगयाँ पितृदत्तो नाम गाथापतिः, तस्य श्रीभदा भावां नाम, साप निन्दुः, निम्दुनाम नियमाणप्रजनिका, सा शिवदर्ष मैमित्रिकं पृच्छति-कथमपि मम पुषभाई जीयेत्', स भगति-यः सुतपस्सी सी संग सुशोधित रम्पविरुवा पायस कृपया तदा देहि, तस्य च गृहस्थाश्यतो भूतं द्वारं कुर्याः, मा सज्ञारवा धामीत् इति, एवं तप स्थित प्रजा भविष्यति, तथा तथा तं, गोशाला हिण्डमानः सद्गृह प्रविष्टः, सम्म तत्पायसं मधुपुतसंयुक्त दर्श, तेन चिन्तितम्-मांस कुतो भविष्यति इति, तदा तुष्टेन भुकं, गत्वा भपति-चिरं तब नमितिवं पूर्वतोऽयासि पर स्फिटितः, सिद्धार्थों भणतिन विसंवदति, बदिन प्रत्येषि वम, बान्तं दृष्टा मखा विकिरता अवयवान, तदा गटसद्गृह्म मार्गपति, ताभ्यां अपि तद्वारं स्फेटितं, तत्वेन SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४७९], भाष्यं [११४...] आवश्यक %A5% हारिभद्री| यवृत्तिः विभागा१ २०५॥ प्रत सूत्रांक REC ने जाणति, आहाडिओ करेइ, जाहे न लभइ ताहे भणति-जइ मम धम्मायरियस्स तवतेओ अस्थि तओ डझर, ताहे सवा दहा बाहिरिआ। ताहे सामी हलिङ्गो नाम गामो तं गओ, तत्थ महापमाणो हलिदुगरुक्खो, तत्व सावत्थीओ णगरीओ निग्गच्छंतो पविसंतो य तत्थ वसइ जणवओ सत्यनिवेसो, सामी तत्थ पडिमं ठिओ, तेहिं सत्थेहिं रतिं सीयकालए अग्गी जालिओ, ते बड्डे पभाए उडेत्ता गया, सो अग्गी तेहिं न विज्झाविओ, सो डहंतो सामिस्स पासं गओ, सो सामी परितावेइ, गोसालो भणति-भगवं! नासह, एस अग्गी एइ, सामिस्स पाया दहा, गोसालो नहोतत्तो य णंगलाए डिंभ मुणी अच्छिकडणं चेव । आवत्ते मुहतासे मुणिओत्ति अ बाहि बलदेवो॥४८॥ ततो सामी नंगला नाम गामो, तत्थ गतो, सामी वासुदेवघरे पडिम ठिओ, तत्थ गोसालोऽवि ठिओ. तत्थ य चेड़स्वाणि खेलंति, सोऽवि कंदप्पिओ ताणि चेडरूवाणि अच्छीणि कहिऊण बीहावेइ, ताहे ताणि धावंताणि पडंति, जाणूणि न जानाति, आधाटीः करोति, बदा न लभते तदा भणति-यदि मम धर्माचार्यस्य तपस्तेजोऽसि तदा दक्षता, तदा सर्वा दग्धा बाहिरिका । तदा स्वामी इरिहाको नाम ग्रामः तं गतः, तन महस्त्रमाणो हरिदको वृक्षः, तन्त्र श्रावस्तोतो नगर्या निर्गच्छन् प्रविसंश्च तत्र वसति जानपदः सार्थनिवेशः, स्वामी तत्र प्रतिमा स्थितः, तैः साधिक रात्रौ शीतकाले नियालितः, ते वृहति प्रभाते उत्थाय गताः, सोऽग्निस्तैर्न विध्यातः, स दहन् स्वामिनः पार्थं गतः, स स्वामिनं परितापयति, गोशालो भणति-भगवन्तः ! नश्यत एषोऽभिरावाति, स्वामिनः पादौ दग्धी, गोशालो नष्टः । ततश्च नालायां विम्भाः मुनिः अधिकर्षण इति च बहिबलदेवः ॥ १८॥ ततः खामी नछा नाम ग्रामस्तत्र गतः, स्वामी वासुदेवगृहे मतिमा स्थिता, तत्र गोशाकोऽपि स्थितः, तत्र च चेटरूपाणि कीडन्ति, सोऽपि कान्दर्षिकः तानि चेटरूपाणि अक्षिणी कर्षयित्वा विकृत्य) भापयति, तदा तानि धावस्ति पतन्ति जानूनि अनुक्रम ॥२०५॥ Sirwsaneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) ཡྻ सूत्रांक अनुक्रम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [४८० ] भष्यं [१९४...] ये फोडिज्जंति, अध्पेगइयाणं खुखुणगा भजंति, पच्छा तेसिं अम्मापियरो आगंतूण तं पिवृंति, पच्छा भणति देवज्जगस्स एसो दासो नूणं न ठाति ठाणे, अण्णे वारेंति-अलाहि, देवजयस्स खमियां । पच्छा सो भगति अहं हम्मामि, तुम्भे न वारेह, सिद्धत्थो भणति-न ठासि तुमं एकलो अवस्स पिट्टिज्जसि, ततो सामी आवत्तानाम गामो तत्थ गतो, तत्थवि सामी पडिमं ठिओ बलदेवघरे, तत्थ मुहमकडिआहिं भेसवेइ, पिट्टेतिवि, ततो ताणि चेडरूवाणि रूवंताणि अम्मापिऊणं साहति, तेहिंगंतूण घेचिओ, मुणिओत्तिकाउं मुको, मुणिओ-पिसाओ, भणति य-किं एएण हरणं ?, एवं से सामिं हणामो जो एवं न वारेइ, ततो सा बलदेवपडिमा हलं बाहुणाऽद्दिक्खिविऊर्ण उडिआ, ततो ताणिय पायपडियाणि सामिं खातिचोरा मंडव भोजं गोसालो वहण तेय झामणया । मेहो य कालहत्थी कलंबुयाए उ उवसग्गा ॥ ४८१ ॥ ततो सामी चोरायं नाम संणिवेसं गओ, तत्थ गोहिअभत्तं रज्झइ पञ्चति य, तत्थ य भगवं पडिमं ठिओ, गोसालो १ च स्फुटति, घुर्पुरका (गुरुका) अध्येककानां भज्यन्ते, पश्चात् तेषां मातापितरौ आगत्य तं पितः पश्चात् मणतः देवार्थस्य पुष दासो नूनं न तिष्ठति स्थाने, अन्ये वारयन्ति अलं, देवार्थख क्षमितम्यं पश्चात् भगति अहं इम्वे यूयं न वारयत, सिद्धार्थो भगति न तिष्ठसि त्वमेकाकी अवश्यं पिट्टिष्य से, ततः स्वामी आवर्ता नाम ग्रामस्तत्र गतः तत्रापि स्वामी प्रतिमां स्थितः बलदेवगृहे, तत्र मुखमर्कटिकाभिर्मापयति, पियतेऽपि ततस्तानि चेटरूपाणि रुदन्ति अम्बापित्रोः कथयन्ति ताभ्यां गत्वा पिहितः, मुगित इतिकृत्वा मुक्तः, मुणितः पिशाचः, भणतश्च-किमेतेन इतेन ? पुनमस्य स्वामिनं हन्यः य एनं न वारयति, ततः सा बलदेवप्रतिमा हलं बाहुनाऽभिक्षिप्योत्थिता, ततः ते पादपतिताः स्वामिनं क्षमयन्ति (चोराकः मण्डपः भोज्यं गोशालो हननं तेजः दाहः । मेघश्व कालहस्ती कलम्बुकायां तूपसर्गाः ॥ ४८१ ॥ ततः स्वामी चोराकं नाम सनिवेशं गतः, तत्र गोष्ठिकभक्तं राज्यते पच्यते च तत्र च भगवान् प्रतिमां स्थितः, गोशालो Education intol For Parts Only www.jancibrary.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 421 ~ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८१], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२०६॥ भणति-अज एत्थ चरियर्ष, सिद्धत्यो भणइ-अज अम्हे अच्छामो, सोऽवि तस्थ णिउडुकुंडियाए पलोएड-किं देसकालोनी नवत्ति, तत्थ य चोरभयं, ताहे ते जाणंति-एस पुणो पुणो पलोएइ, मण्णे-एस चारिओ होजत्ति, ताहे सो घेतूण निसई यत्तिः हम्मइ, सामी पच्छपणे अच्छइ, ताहे गोसालो भणति-मम धम्मायरियस्स जइ तवो अस्थि तो एस मंडयो डज्झउ, डहो।। ततो सामी कलंबुगा नाम सण्णिवेसो तत्थ गओ, तत्थ पचंतिआ दो भायरो-मेहो कालहत्थी य, सो कालहस्थी चोरेहि सम | उद्धाइओ, इमे य पुढे अग्गे पेच्छइ, ते भणंति-के तुम्भे?, सामी तुसिणीओ अच्छा, ते तत्थ हम्मंति, न य साहति, तेण ते बंधिऊण महलस्स भाउअस्स पेसिआ, तेण जं भगवं दिहोतं उहित्ता पूइओ खामिओ य, तेण कुंडग्गामे सामी दिहपुरोलाढेसु य उपसग्गा धोरा पुण्णाकलसा य दो तेणा । वजहया सकेणं भद्दिा वासासु चउमासं ॥४८२॥ ततो सामी चिंतेइ-बहुं कर्म निजरेय, लाढाविसयं वच्चामि, ते अणारिया, तत्थ निजरेमि, तत्थ भगवं भणनि-अद्यान्न चरितव्यं, सिवायों भणति-अय वर्ग तिष्ठामा, सोऽपि तत्र निकृत्युरकटतया प्रकोकयति-कि देशकालो न वेति, तत्र च चौरभयं, तदा ते Vान्ति-एष पुनः पुनः प्रलोकयति, मन्ये एप चौरो भवेत् इति, नदास गृहीवाऽयम् हन्यते, स्वामी प्रकले तिष्ठति, तदा गोशालो भणति-मम धर्मा चार्यस पदि तपोऽस्ति तदैष मण्डपो दहातां, दग्धः। ततः खामी कलम्बुका नाम संनिवेशः तत्र गतः, तत्र प्रत्यन्तिकौ द्वौ भ्रातरौ-भेषः कालहस्ती च, स कालहली चौः समभुबाषितः, श्मौ चामतःपूर्व प्रेक्षते, ते भणन्ति-की बुवा', स्वामी सूष्णीकस्तिष्ठति, तौ तब हम्येते, न च कथयतः, सेन ती यवा महले मात्र प्रेषिती, मातेन च पर भगवान् बरः सदुस्थाव पूजितः अमिता, तेन पुण्यप्रामे स्वामी दृष्टपूर्वः (लादेषु च उपसर्गाः पोराः पूर्णकलशाही सेनौ । पजाती शकेण भत्रिका वर्षायां चतुर्मासी ॥ १८२॥)तता स्वामी चिन्तयति-ब कर्म मिर्जरवितव्यं, लाढाविषवं प्रजामि, तेनायाः, तत्र निजैरथामि, तत्र भगवान् २०१॥ SiwanNIDrary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~422~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८२], भाष्यं [११४...] (४०) अच्छारियादितं हियए करेइ । ततो पविछो लाढाविसयं कम्मनिज्जरातुरिओ, तत्थ हीलणनिंदणाहिं बहुं कर्म निजरेइ, पच्छा ततो णीइ । तत्थ पुण्णकलसो नाम अणारियग्गामो, तत्वंतरा दो तेणा लाढाविसयं पविसिउकामा, अवसउणो एयरस वहाए भवउत्तिकद्दु अर्सि कहिऊण सीसं छिंदामत्ति पहाविआ, सक्केण ओहिणा आभोइसा दोऽवि बजेण हया। एवं विहरंता भद्दिलनयरिंपत्ता, तत्थ पंचमो वासारत्तो, तत्थ चाउम्मासियखमणेणं अच्छति, विचित्तं च तवोकम्मं ठाणादीहिं। कयलिसमागम भोयण मंखलि दहिकूर भगवओ पडिमा।जंबूसंडे गोही य भोयणं भगवओ पडिमा ॥४८३ ।। १ ततो बाहिं पारेत्ता विहरतो गओ, कयलिसमागमो नाम गामो, तत्थ सरयकाले अच्छारियभत्ताणि दहिकूरेण निसह दिति, तत्थ गोसालो भणति-वच्चामो, सिद्धत्थो भणति-अम्ह अंतरं, सो तहिं गओ, भुंजइ दहिकूरं सो, बहिफोडो न चेव धाइ, तेहिं भणिय-बई भायणं करंबेह, करंबियं, पच्छा न नित्थरह, ताहे से उबरि छुर्द, ताहे। सावकदृष्टान्तं हवये करोति । ततः प्रविष्टो काढाविषयं कर्मनिर्जरास्वरितः, तत्र हीलननिन्दनाभिहु कर्म निरपति, ततः पश्चात् निर्गच्छति । तत्र पूर्णकलशो नामानार्थग्रामः, तत्रान्तराद्वी सेनी लादाविषयं प्रवेष्टुकामी, अपशकुन एतस्य बधाय भववितिकृत्वाऽसि कष्टा शीर्ष छिन् इति प्रधावितो, शकणावधिनाभोग्य द्वावपि वनेण इत्तौ । एवं बिहरन्तौ मदिकानगरी प्राप्ती, तत्र पञ्चमो वर्षारानः, तत्र चतुर्मासक्षपणेन तिष्ठति, विचित्रं च तपःकर्म स्थानादिभिः। कदलीसमागमः भोजनं महिदधिकरभगवतः प्रतिमा । जम्बूषण्डः गोष्टी (गोष्ठीका) भोजनं भगवतः प्रतिमा ॥ ५ )सतो। बहिः पारयित्वा विहरम् गतः, कदलीसमागमो नाम मामः, सन्न पाएकाले लावकभक्तं दधिरेणास्वन्तं दीयते, सन गोशालो भपति-बजावः, सिद्धार्थों भणति-अमाकमभक्ताथा, स तत्र गतः, भुके दधिर, सोपविस्फोटः न चैव प्रायते, तैर्भणितं यूहनाजनं करम्बय, करम्वितं, पश्चात मिस्तरति, तदा तस्योपरि क्षिप्तं. taneiorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], निर्यक्ति: [४८३], भाष्यं [११४...] हारिभद्रीयवृत्तिः विभागः१ आवश्यक- उक्किलंतो गच्छइ । ततो भगवं जंबूसंडं नाम गामं गओ, तत्थवि अच्छारियाभत्तं तहेव नवरं तत्थ खीरकूरे, तेहिवि तहेव निधरिसिओ जिमिओ अ॥२०७॥ तंबाएनंदिसेणोपडिमा आरक्खि वहण भय डहणं। कूविय चारिय मोक्खे विजय पगम्भा य पत्ते॥४८४॥ ततो भगवं तवायं णाम गाम एइ, तत्थ नंदिसेणा नाम घेरा बहुस्सुआ बहुपरिवारा पासावच्चिजा, तेऽवि जिणकप्पस्त परिकम्मं करेंति, इमोऽवि बाहिं पडिमं ठिओ, गोसालो अतिगओ, तहेव पुच्छइ, खिंसति य, ते आयरिआ तदिवस। चउक्के पडिमं ठायंति, पच्छा तहिं आरक्खियपुत्तेण चोरोत्तिकाउं भलएण आहओ, ओहिणाणं, सेसं जहा मुणिचंदस्स, जाव गोसालो बोहेत्ता आगतो । ततो सामी कृपि नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थ तेहिं चारियत्तिका घिपति बझंति पिट्टिजति य । तत्थ लोगसमुलावो-अहो देवजओ रूवेण जोवणेण य अप्पतिमो चारिउत्तिकाउं गहिओ । तत्थ विजया तदोत्कलन् गच्छति । ततो भगवान जम्बूपई नाम माम गतः, तत्रापि लावकभक्तं तथैष नवरं तत्र क्षीरफूरी, तैरपि तथैव धर्षितो अमितन्त्र (तानायां मन्दिषेणः प्रतिमा बारक्षका हननं भयं दहनं । कूपिका चारिकः मोक्षः विजया प्रगल्भा च प्रत्येकम् ॥५८५1) ततो भगवान् तम्बाकं नाम प्राममागात् , तन्त्र नन्विषेणा नाम स्थविरा बहुश्रुता बहुपरिवाराः पार्थापत्याः, तेऽपि जिनकल्पस्य परिकर्म कुर्वन्ति, अयमपि बहिः प्रतिमया स्थितः, गोशालोऽतिगतः, तथैव पृच्छति, ख्रिसति च, ते आचार्यास्तदिवसे चतुष्के प्रतिमया अस्थुः, पश्चात्तबारक्षकपुत्रेण चौर इतिकृत्वा भल्लेनाहतः, अवधिज्ञानं, शेषं यथा मुलिचवस्त्र, याबद्गोशालो बोधयित्वाऽऽगतः । ततः खामी कूपिकासनिवेशं गतः, तत्र तैश्वारिका वितिकृत्वा गृोने वध्येते पिवेते च । तत्र लोकसमुल्लापः-अहो देवार्यः रूपेण यौवनेन चाप्रतिमश्चारिक इतिकृत्वा गृहीतः । तत्र विजया ॥२०७॥ JAMERatinittinational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८४], भाष्यं [११४...] पंगम्भा य दोणि पासंतेवासिणीओ परिवाइयाओ लोयस्स मूले सोऊण-तित्थकरो पबइओ, वच्चामो ता पलोएमो, कोK जाणति होज्जा, ताहे ताहि मोइओ-दुरप्पा ! ण याणह चरमतित्धकरं सिद्धत्थरायपुत्तं, अज भे सक्को उबालभहिइ, ताहे मको खामिओ य । 'पत्तेय' ति पिहिपीहीभूता सामी गोसालो य, कहं पुण!, तेर्सि बच्चताणं दो पंथा, ताहे गोसालो। भणति-अहं तुम्भेहि समं न वच्चामि, तुम्भे ममं हम्ममाणं न वारेह, अविय-तुन्भेहिं समं बहूवसग्गं, अण्णं च-अहं चेव पढम हम्मामि, तओ एकलओ विहरामि, सिद्धत्थो भणति-तुमं जाणसि । ताहे सामी वेसालीमुहोपयाओ, इमो य भगवओ फिडिओ अण्णओ पहिओ, अंतरा य छिण्णद्धाणं, तत्थ चोरो रुक्खविलग्गो ओलोएति, तेण दिह्रो, भणति-एको नग्गओ समणओ एइ, ते य भणंति-एसो न य बीहेइ नस्थि हरियवंति, अज्ज से नस्थि फेडओ, जं अम्हे परिभवति तेणेहि पहे गहिओ गोसालो माउलोत्ति वाहणया । भगवं वेसालीए कम्मार घणेण देविंदो ॥ ४८५॥ CCCOURSE प्रगाभा च पाश्चान्तवासिन्यौ परिवाजिके लोकस्य पाई श्रुत्वा-तीर्थकरः प्रजाजितः, जावलावर प्रलोकयावः को जानाति भवेन (सः), तदा ताभ्यां मोचितः-दुरात्मन् ! न जानीषे (दुराधमानः ! न जानी) चरमतीर्थंकर सिदार्थराजपुत्रं, अद्य भवद्भयः शक उपालप्स्थति, रादा मुक्तः क्षमितश्च । 'प्रत्येक मिति पृथक् पृथग्भूतौ स्वामी गोशालश, कथं पुनः, तयोर्नजतोः द्वौ पन्थानो, तदा गोशाको भणति-अहं भवद्भिः समं न बजामि, यूयं मां इन्यमानं न वारयत, अपिच-भवद्भिः समं बहूपसर्ग, अन्यच अदमेव प्रथम हुन्थे, तत एकाकी विहरामि, सिद्धार्थों भणति-वं जागीचे । तदा स्वामी विधालामुखः प्रस्थितः (प्रयातः), अयं च भगवतः स्फिटितोऽन्यतः प्रस्थितः, अन्तरा च छिन्नावा, वत्र चोरो वृक्षविलमोऽवलोकयति, तेन दृष्टो, भणति-एको नमः श्रमणक एति, ते च भणन्ति-एप नैव बिभेति नास्ति हर्तव्यमिति, अद्य तस्य नास्ति स्फेटका, यदस्मान् परिभवति । (स्तेनैः पथि गृहीतो गोशालो मातुल इतिकृत्वा वाहनम् । भगवान् विशालायां कर्मकारः धनेन देवेन्द्रः ॥ ४८५ ॥) JABERatinintamnathana Tangibraryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~425~ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८५], भाष्यं [११४...] आवश्यक- आगओ पंचहिवि सएहिं वाहिओ माउलत्तिकाऊणं, पच्छा चिंतेइ-वरं सामिणा समं, अविय-कोइ मोएइ सामि, हारिभद्री तस्स निस्साए मोयणं भवइ, ताहे सामि मग्गिउमारद्धो । सामीविवेसालिंगओ, तत्थ कम्मकरसालाए अणुण्णवेत्ता पडिमयवृत्तिः ॥२०८॥ ठिओ, सा साहारणा, जे साहीणा तत्थ ते अणुष्णविआ । अण्णदा तत्थेगो कम्मकरो छम्मासपडिलग्गओ आढत्तो सोह विभागः१ कतिहिकरणे, आउहाणि गहाय आगओ, सामिं च पासइ, अमंगलंति सामिं आहणामित्ति पहाविओ घणं उग्गिरिऊणं, सक्केण य ओही पउत्तो, जाव पेच्छइ, तहेव निमिसंतरेण आगओ, तस्सेव उवरिं सो घणो साहिओ, तह चेव मओ, सकोऽवि वंदिता गओगामाग बिहेलग जक्स्व तावसी उचसमावसाण थुई । छवण सालिसीसे विसुज्झमाणस्स लोगोही ॥ ४८६॥ ततो सामी गामायं नाम सण्णिवेसं गओ, तत्थुजाणे विहेलए विभेलयजक्खो नाम, सो भगवओ पडिमं ठियस्स आगतः पञ्चभिरपि शतवाहितः मातुल इतिकृत्वा, पश्चाश्चिन्तयति-वरं स्वामिना समं, अपिच-कोऽपि मोचयति स्वामिनं, तस्य निश्रया मोचन भवति, तदा स्वामिनं मार्गविनुमारब्धः। स्वाम्बपि विश्वालां गतः, तन्त्र कर्मकरशालायां अनुज्ञाप्य प्रतिमां स्थितः, सा साधारणा, ये स्वाधीनास्तत्र तेऽनुशापिताः । अन्यदा तकः कर्मकरः षण्मासान् प्रतिलमः ( भन्नः) आरम्भः शोभनतिधिकरणे, आयुधानि गृहीत्वाऽऽगतः, स्वामिनं पश्यति च, अमङ्गलमिति स्वामिन-II २०८॥ माहन्मीति प्रधावितो घनमुद्रीर्य, शक्रेण चावधिः प्रयुक्तः, यावत्पश्यति, तथैव निमेषान्तरेणागतः, तस्मैवोपरि सपना साधितः, तथैव मृतः, शक्रोऽपि वन्दित्वाx | गतः। (मामाक विभेलका यक्ष: तापसी उपशमावसाने स्तुतिः । षष्ठेन पालिशी विशुध्यमानस्य लोकावधिः॥ ४४६ ॥ ततः स्वामी प्रामाकं नाम सनिवेशं गतः, तत्रोद्याने विभेष्ठके विभेलक यक्षो नाम, स भगवतः प्रतिमा स्थितस्य JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८६], भाष्यं [११४...] महिमं करेइ । ततो भगवं सालिसीसयं नाम गामो तहिं गतो, तत्थुज्जाणे पडिम ठिओ माहमासो य वट्टइ, तत्थ कडपूयणा नाम वाणमंतरी मामि दळूण तेयं असहमाणी पच्छा तावसीरूवं विउवित्ता वक्लनियत्था जडाभारेण य सणं सरीरं पाणिपण ओलेत्ता देहमि उवरिं सामिस्स ठाउं धुणति वातं च विउबइ, जइ अन्नो होन्तो तो फुट्ठो होन्तो, तं तिवं वेअणं अहियासितस्स भगवओ ओही विअसिउब लोग पासिउभारद्धो, सेसं कालं गब्भाओ आढवेत्ता जाव सालिसीसं ताव एकारस अंगा सुरलोयप्पमाणमत्तो य ओही, जावतियं देवलोएम पेच्छिताइओ । साऽवि वंतरी पराजिआ,18 पच्छा सा उवसंता पूअं करेइपुणरवि भअिनगरे तवं विचित्तं च छट्टवासंमि । मगहाए निरुवसरगं मुणि उउवहमि विहरित्था ॥ ४८७॥ ततो भगवं भदियं नाम नगरिंगतो, तत्थ छह वासं उवागओ, तत्थ वरिसारत्ते गोसालेण सम समागमो, छठे मासे गोसालो महिमानं करोति । ततो भगवान् शालिशीर्षों नाम ग्रामः तत्र गतः, तत्रोधाने प्रतिमा स्थितो माघमासान वर्तते, तन कटपूतना नाम ग्यन्तरी स्वामिनं दृष्ट्वा तेजोऽसहमाना पश्चातापसीरूपं विकुथै वल्कलवना जटाभारेण च सर्व शरीरं पानीदेनाईविस्वा देहस्य उपरि स्वामिनः स्थित्वा भूनाति वातं ध विकुर्वति, पान्योऽभविष्यचदा स्फुटितोऽभविष्यत् , तो तीव्र वेदनामध्यासयतो भगवतोऽवधिविकशित इव लोकं द्रष्टुमारब्धः, शेषे काले गर्भादारभ्य यावच्छालिशीर्ष तावदेकादशाकानि सुरलोकप्रमाणमाश्चावधिः, यावत् देवलोकेऽदर्शत् । साऽपि व्यन्तरी पराजिता पत्रात्सोपशान्ता पूजां करोति । (पुनरपि भनिकानगों तपो विचित्रं च पावर्षायाम् । मगधेषु निरुपसर्ग मुनिः ऋतुबद्ध व्यहावीत् ॥ १८ ॥) ततो भगवान् भद्रिको नाम नगरी गतः, तन्त्र पाही वर्षा-1 मुपागतः । तत्र वर्षाराने गोचालेन समं समागमः, षष्ठे मासे गोशालो पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं -/गाथा-], नियुक्ति: [४८७], भाष्यं [११४...] आवश्यक- ॥२०॥ मिलिओ भगवओ। तत्थ चउमासखमणं विचित्ते य अभिग्गहे कुणइ भगवं ठाणादीहिं, बाहिं पारेत्ता ततो पच्छा मगहाहारिभद्रीविसए विहरइ निरुवसग्गं अह उडुवद्धिए मासे, विहरिऊण यवृत्तिः | आलभिआए वासं कुंडागे तह देउले पराहुत्तो । महण देउलसारिअ मुहमूले दोसुवि मुणित्ति ॥ ४८८॥ विभागः१ | आलंभिरं नयरिं पइ, तत्थ सत्तमं वासं उधागओ, चउमासखमणेणं तवो, बाहिं पारेत्ता कुंडागं नाम सन्निवेस तत्थ एति । तत्थ वासुदेवघरे सामी पडिमं ठिओ कोणे, गोसालोऽवि वासुदेवपडिमाए अहिवाणं मुहे काऊण ठिओ, सो य से |पडिचारगो आगओ, तं पेच्छइ तहाठियं, ताहे सो चिंतेइ-मा भणिहिइ रागदोसिओ धम्मिओ, गामे जाइत्तु कहेइ, एह पेच्छह भणिहिह 'राइतओ'त्ति, ते आगया दिडो पिट्टिओ य, पच्छा चंधिज्जइ, अन्ने भणंति-एस पिसाओ, ताहे मुक्को। * _ T मीलितः भगवता । तन्त्र चतुर्मासक्षपणं विचित्रवाभिमहान् करोति मगवान स्थानादिभिः, बहिः पारयित्वा ततः पश्चात् मयपविषये विहरति निरु-| पसर्गमष्ट मतुवद्धिकान् (दान)मासान् , विद्वल्प (आलभिकायां वी कुण्यागे तथा देवकुले पराक्मुखः । मनं देवकुलसारकः मुखमूले द्वयोरपि मुनिरिति ॥४८॥) भारम्भिको नगरीमेति, तत्र सप्तमं वर्षारात्रमुपागतः, चतुर्मासक्षपणेन तपः, बहिः पारविश्या कुण्डाकमामा सनिवेशः तौति । तत्र वासुदेवगृहे | स्वामी कोणे प्रतिमा स्थितः, गोशालोऽपि वासुदेवप्रतिमाया मुझे अधिष्ठान कृत्वा स्थितः, सच तथाः प्रतिचारक मागतः, संप्रेक्षते तयास्थितं, तदा स चिन्तयति-मा भाणिषुः रागद्वेषवान् धार्मिका, प्रामे गत्वा कथयत्ति-पूत प्रेक्षध्वं भणिध्यय रागवान् इति, ते भागता दष्टः पिहिता, पक्षात् बध्यते, अन्ये भणन्ति- एष पिशाचः, तदा मुक्तः । ॥२०॥ . पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८८], भाष्यं [११४...] तओ निग्गया समाणा मद्दणा नाम गामो, तत्थ बलदेवस्स घरे सामी अन्तोकोणे पडिम ठिओ, गोसालो मुहे तस्स | सागारिअंदा ठिओ, तत्थवि तहेव हओ, मुणिओत्तिकाऊण मुक्को । मुणिओ नाम पिसाओ। बहुसालगसालवणे कडपूअण पहिम विग्धणोवसमे । लोहग्गलंमि चारिय जिअसत्तू उप्पले मोक्खो ॥४८॥ RI ततो सामी बहसालगनाम गामो तत्थ गओ, तत्थ सालवणं नाम उज्जाणं, तत्थ सालज्जा वाणमंतरी, सा भगवओ सापकरे. अण्णे भणति-जहा सा कडपूअणा वाणमंतरी भगवओ पडिमागवस्त उवसगं करेइ, ताहे उवसंता महिम। करेइ । ततो णिग्गया गया लोहम्गलं रायहाणिं, तत्थ जियसत्तू राया, सो य अण्णेग राइणा समं विरुद्धो, तस्स चारपुरिसेहिं गहिआ, पुग्छिजंता न साहंति, तत्थ चारियत्तिकाऊण रपणो अस्थाणीवरगयस्त उबविआ, तत्थ य उप्पलो तो निर्गती सन्ती मदना नाम ग्रामः, सन बलदेवस्य गृहे स्वामी अन्तःकोण प्रतिमा स्थितः, गोशालो मुखे तस्य सागारिक (मेहनं) दत्त्वा स्थितः, तत्रापि तथैव हत्तः, मुणित इतिकृत्वा मुक्कः । मुणितो नाम पिशाचः । (बहुशालकशाकवने कटपूतना (वत्) प्रतिमा विज्ञकरणमुपशमः । लोहार्गले लिचारिकः जितशत्रुः उत्पळ: मोक्षः ॥ ४८९१) ततः स्वामी बहुशालकनामा प्रामः तत्र गतः, तत्र शाळवने नामोधानं, तत्र सहबा (शालार्या) व्यन्तरी, सा भगवतः पूजां करोति, अन्ये भणन्ति-यथा सा कपूतना व्यन्तरी भगवतः प्रतिमागतस्योपसर्ग करोति, तदोपशान्ता महिमानं करोति । ततो निर्गतौ गती लोहार्गलां राजधानी, नत्र जितश राजा, स चान्येन राज्ञा सम विरुवा, तस चारपुरुषैहीतौ पृच्छयमानौ न कथयतः, तत्र चारिकारितिकृत्या राज्ञे मास्यामें निकाचरगतायोपस्थापितो, तत्र चोत्यको KARO पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४८९], भाष्यं [११४...] आवश्यक- हारिभद्री यवृत्तिः ॥२१०॥ अहिअगामाओ सो पुवमेव अतिगतो, सो य ते आणिजते दण उछिओ, तिक्खुत्तो चंदइ, पच्छा सो भणइ-ण एस चारिओ, एस सिद्धत्धरायपुत्तो धम्मवरचक्कवट्टी एस भगवं, लक्खणाणि य से पेच्छह, तत्थ सक्कारिऊण मुक्को। तत्तो य पुरिमताले वग्गुर ईसाण अच्चए पडिमा । मल्लीजिणायण पडिमा उण्णाए वंसि बहुगोडी ।। ४९॥ ततो सामी पुरिभतालं एइ, तत्थ वग्गुरो नाम सेठी, तस्स भद्दा भारिआ, वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया, बहूणि देवस्स उवादिगाणि काउं परिसंता । अण्णया सगडमुहे उज्जाणे उज्जेणियाए गया, तत्व पासंति जुण्णं देवउलं सडियपडियं, तत्थ मल्लिसामिणो पडिमा, तं णमंसंति, जइ अम्ह दारओ दारिआ वा जायति तो एवं चेवं देउलं करेस्सामो, एयभत्ताणि य होहामो, एवं नमंसित्ता गयाणि । तत्थ अहासन्निहिआए वाणमंतरीए देवयाए पाडिहेर कयं, आहूओ गम्भो, ज, चेव आहूओ तंचेव देवउल काउमारद्धाणि, अतीव तिसंझं पूअं करेंति, पबतियगे य अल्लियंति, एवं सो सावओ ******* |विभागा१ 1.ऽस्थिकामात्स पूर्वमेवातिगतः, स च तावानीवमानौ दृष्ट्वोस्थितः, विकृत्वः वन्दते, पचास भणति-एष न चारिका, एष सिद्धार्थराजपुत्रः धर्मपरचक्रपत्ती एष भगवान् , कक्षणानि चाख प्रेक्षय, तन्न सरकारयित्वा मुक्तः (ततश्च पुरिमचाले वारः ईशानः अर्चति प्रतिमाम् । माहीजिनायतनं प्रतिमा अषणाके | बंशी बहुगोष्टी । ४९०॥ ततः स्वामी पुरिमतालमेति, तन्त्र वनगुरो नाम श्रेष्ठी, तस्य भट्टा भार्या, वन्ध्या अन्नसविनी जानुकूर्परमाता, बहूनि देवखोपयाचितानि कृया परिश्रान्ता । अन्यदा शकटमुखे बचाने क्यानिकाथै गती, तन्न पश्यतः जीर्य देवकुलं शटितपतितं, तन मछीस्वामिनः प्रतिमा, तो नमस्वतः, यथावयोदोरको दारिका ना जायते तदैवमेवं देवकुलं करिष्यावः, एतजक्ती च भविष्यावः, एवं नम स्थिरवा गतौ । तत्र यथाससिदितया म्यन्तर्या देवतया प्रातिहार्य कृतं उत्पनो गर्भः, यदैवाहूतस्तदैव देवकुलं कर्तुमारधी, अतीच त्रिसन्ध्वं पूजां कुरुतः, पर्वत्रिके चाश्रयता, एवं स श्रावको ******** ||२१०॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९०], भाष्यं [११४...] * * *5 जाओ। इओ य सामी विहरमाणो सगडमुहस्स उजाणस्स नगरस्स य अंतरा पडिमं ठिओ, वग्गुरो य हाओ उल्लपड| साडओ सपरिजणो महया इहीप विविहकुसुमहत्थगओ तं आययणं अचओ जाइ । ईसाणो य देविंदो पुषागयओ सामि | वंदित्ता पजुवासति, वग्गुरं च वीतीवंतं पासइ, भणति य-भो वग्गुरा ! तुम पञ्चक्खतित्थगरस्स महिमं न करेसि तो पडिमं अञ्चओ जासि, एस महावीरो वद्धमाणोत्ति, तो आगओ मिच्छादुक्कडं काउं खामेति महिमं च करेइ । ततो सामी |उण्णार्ग वचाइ, एत्थंतरा वधूवर सपडिहुत्तं एइ, ताणि पुण दोण्णिवि विरुवाणि दंतिलगाणि य, तत्थ गोसालोभणति-अहो | इमो सुसंजोगो-"तत्तिल्लो विहिराया, जाणति दूरेवि जो जहिं वसइ । जं जस्स होइ सरिसं, तं तस्स विइजयं देह ॥१॥"|| जाहे न ठाइ ताहे तेहिं पिट्टिओ, पिट्टित्ता बंसीकुडंगे छूढो, तत्थ पडिओ अत्ताणओ अच्छइ, बाहरइ सामि, ताहे CAल 3555645%25 जातः । इतश्च स्वामी विहरन शाकटमुखस्योद्यानस्य नगरस्य च मध्ये प्रतिमां स्थितः, जागुरच सात बापटशाटकः सपरिजनः महस्यध्या विविधकुसुमहस्तका (हस्तगतविविधकुसुमः) तदायतनमर्चको याति । ईशानन देवेन्द्रः पूर्वागतः स्वामिन पन्दिरमा पर्युपाते, बारं च व्यतिबजन्तं पश्यत्ति, भणति च-मो वग्गुर ! प्रत्यक्षतीर्थकरय महिमानं न करोषि ततः प्रतिमामचितुं यासि, एष महावीरो वर्धमान इति, तत आगतो मिथ्यादुरकृतं कृत्वा क्षमयति महिमानं च करोति । ततः स्वामी वर्णाक मजति, अचान्तरा वधूवरौ सप्रतिपक्ष (संमुख) भायातः, तौ पुन द्वांवपि विरूपौ दन्तुरीच, तत्र गोशालो भणति-अहो अयं | सुसंयोगा ! 'दक्षो विधिराजः जानाति दूरेऽपि यो यत्र बसति । यद्यख भवति योग्य, तत्तख द्विसीयं ददाति ॥1॥ यदा न तिष्ठति तदा ताभ्यां पिट्टितः, पिहयित्वा वंशीकुरो क्षिप्तः, तत्र पतितोत्राणस्तिष्ठति, व्याहरति स्वामिनं, तदा * उताणमओ (तत्परः) पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९०], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२१ ॥ PAL सिद्धत्थो भणति-सयंकयं ते, ताहे सामी अदूरे गंतुं पडिग्छइ, पच्छा ते भणंति-नूणं एस एयरस देवजगस्स पीदिया-दहारिभद्रीवाहगो वा छत्तधरो वा आसि तेण अवडिओ, ता णं मुयह, ततो मुक्को । अण्णे भणति-पहिपहिं उत्तारिओ यवृत्तिः सामि अच्छतं दण। विभागः१ गोभूमि बजलावे गोवकोवे य वंसि जिणुवसमे । रायगिहट्ठमवासा बज्जभूमी बहुवसग्गा ॥ ४९१ ॥ ल ततो सामी गोभूमिं वच्चइ । एत्थंतरा अडवी घणा, सदा गावीओ चरंति तेण गोभूमी, तत्थ गोसालो गोवालए भणइ-अरे वज्जलाढा! एस पंथो कहिं वच्चइ ?। वज्जलाढा नाम मेच्छा । ताहे ते गोवा भणंति-कीस अक्कोससि?, ताहे |सो भणइ-असूयपुत्ता खउरपुत्ता ! सुहु अक्कोसामि, ताहे तेहिं मिलित्ता पिट्टित्ता बंधित्ता वंसीए छढो, तत्थ अण्णेहिं पुणो मोइओ जिणुवसमेणं । ततो रायगिहं गया, तत्थ अहम वासारत्तं, तत्थ चाउम्मासखवणं विचित्ते अभिग्गहे बाहिं पारेत्ता सरए सिद्धार्थो भणति-स्वयंकृतं स्वया, तदा स्वामी अदूरं गत्वा प्रतीच्छनि, पश्चाचे भणन्ति-नूनमेष एतस्य देवार्यख पीठिकावाहको वा छत्रधरो याऽऽसीत् तेनावस्थितः, तत् एनं सुचत, ततो मुक्तः । अन्ये भणन्ति-पथिकैरुत्सारितः स्वामिनं तिष्ठन्तं दृष्ट्वा ॥ (गोभूमिः ववलाढा गोपकोपश्च वंशी जिनोषशमः । राजगृहेऽष्टमवर्षारानः वनभूमिः बहूपसगाः ॥ ४९11) ततः स्वामी गोभूमि व्रजति । अत्रान्तराष्टवीधना, सदा गावचरन्ति तेन गोभूमिः, सन्त्र गोशाको ॥२१॥ गोपालकान् भणति-भरे बनलाढाः! एष पन्थाः प्रति! । बबलाढा नाम म्लेच्छाः । तदा ते गोपा भणन्ति-कुत भाकोशसिी, सदा स भगति-असूयपुत्राः औरपुत्राः मुटु आक्रोशामि, तदा तमिलित्वा पियित्वा वला वश्यां क्षिप्तः, तत्रान्यैः पुनः मोचितो जिनोपशमैन । ततो राजगृहं गती, तत्राहम वर्षारावं तत्र चातुर्मासक्षपणं विचित्रा अमिमहाः बहिः पारयित्वा शरदि* असुयपुत्ता पमुयपुत्ता । असुदपियपुत्ता (अमुना प्रामुखुनाः । अवतपितृपुत्राः।) JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९१], भाष्यं [११४...] -CG * 'दिद्रुत करेति समतीए, जहा-एगस्स कुटुंबियस्स बहुसाली जाओ, ताहे सो पंथिए भणति-तुभ हियइच्छि भत्तं देमि मम लूणह, एवं सो उवाएण लूणावेद, एवं चेव ममवि बहुं कम्मं अच्छइ, एतं अच्छारिएहिं निजरावेयवं । तेण अणारियदेसेसु लाढावज्जभूमी सुद्धभूमी तत्थ विहरिओ, सो अणारिओ हीलइ निंदइ, जहा बंभचेरेसु-'छुछु करेंति आहेसु समणं कुक्कुरा डसंतु'त्ति एवमादि, तत्थ नवमो वासारत्तो कओ, सो य अलेभडो आसी, वसतीवि न लब्भइ, तत्थ छम्मासे अणिचजागरियं विहरति । एस नवमो वासारत्तो।अनिअयवासं सिद्धत्वपुरं तिलत्थंव पुच्छ निष्फत्ती। उप्पाडेइ अणज्जो गोसालो बास बहुलाए ॥ ४९२॥ ततो निग्गया पढमसरए सिद्धत्थपुरं गया । तओ सिद्धत्थपुराओ कुम्मगाम संपडिआ, तत्वंतरा तिलत्थंबओ, तं दहण गोसालो भणह-भगवं! एस तिलरथंबओ किनिष्फजिहिति नवत्ति, सामी भणति-निष्फजिहिति, पए य सत्त कष्टान्तं करोति समत्या यथा-एकस्य कौटुम्बिकसप बहुशालिजातः, तदा स पथिकान भणति-युष्मभ्यं हृदयेष्टं मक्तं ददामि मम लुनीत, एवं स पायेन लावयति, एवमैच ममापि बहु कर्म तिष्ठति, एतत् लावकैनिजेरणीयं । तेनानायदेशेषु लावावनभूमिः शुबभूमिस्त विहतः सोऽना हीलति निन्दति, यथा प्रह्मचर्ये-'खुकुर्वन्ति भवन श्रमणं कुकुरा! दशन्तु' इति एवमादि । तत्र नवमो वरात्रः कृतः, स चास्थिर भासीत् , वसतिरपि न लभ्यते, तत्र षण्मासान अनित्यचागरिक विहरति । एष नवमो वर्षारानः । (अनिषतदासः सिद्धार्थपुरं तिलस्तम्यः पृच्छा निष्पत्तिः । उत्पाटयसनायों गोशालो वर्षा बहुलायाः ॥४१२॥) ततो निर्गतौ प्रथमशरदि सिद्धार्थपुरं गतौ, ततः सिद्धार्धपुरात् कूर्मग्राम संग्नस्थितौः, तत्रान्तरा तिलस्तम्बः, तं दृष्ट्वा गोशालो भणति-भगवन् ! एष तिलसम्बः कि निष्पत्सते नवेति, स्वामी भणति-निष्पत्यते, एते च सप्त -* % % % % पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४९२], भाष्यं [११४...] लतिलपुष्फजीवा उद्दाइत्ता एगाए तिलसंगलियाए वच्चायाहिति' ततो गोसालेण असद्दहतेण ओसरिऊण सलेट्गो उप्पाआवश्यकता डिओ एगते पडिओ, अहासन्निहिएहि य वाणमंतरेहिं मा भगवं मिच्छावादी भवउ, वासं वासितं, आसत्थो, बहुलिआ हारिभद्री दयवृत्तिः ॥२१॥18|य गावी आगया, ताए खुरेण निक्खित्तो पहिओ, पुष्फा य पच्चाजाया विभागः१ मगहा गोबरगामो गोसंखी वेसियाण पाणामा। कुम्मग्गामायावण गोसाले गोवण पउढे ॥ ४९३ ॥ ताहे कुम्मगाम संपत्ता, तस्स बाहिं वेसायणो बालतवस्सी आयावेत, तस्स का उप्पत्ती ?, चंपाए नयरीए रायगिहस्स य अंतरा गोबरगामो, तत्थ गोसंखी नाम कुटुंबिओ, जो तेसिं अधिपती आभीराणं, तस्स बन्धुमती नाम भजा अवियाउरी । इओ य तस्स अदूरसामंते गामो चोरेहिं हओ, तं हंतूण बंदिग्गहं च काऊण पहाविया । एकाऽचिरपसूइया पर्तिमि मारिते चेडेण समं गहिया, सा तं चेडं छड्डाविया, सो चेडओ तेण गोसंखिणा गोरुवाणं गएण दिडो ४ गहिओ य अप्पणियाए महिलियाए दिण्णो, तत्थ पगासियं-जहा मम महिला गूढगठभा आसी, तत्थ य छगलयं मारेत्ता तिलपुष्पजीवा उपगुत्य एकस्वां तिलशिम्यायां प्रत्यायास्यन्ति, ततो गोशालेनादधताऽपसत्य समूल जापाटित एकान्ते पतितः, यथासमिहितपन्तरेशमा भगवान् सपावादी भूः, वर्षा वर्षिता, आश्वस्तः, बहुलिका च गौरांगता, तस्याः खुरेण निक्षिप्तः प्रतिष्टितः, पुष्पाणि च प्रत्याजातानि (मगधो गोवरमामः गोही वैशिकानां प्राणामिकी । कूर्मग्राम भातापना गोशाला गोवनं प्रति ॥४९३॥) तदा धर्मप्रामं प्राप्ती, तणावहिः वैश्यावनो बालतपसी भातपति, तख कोरपत्तिः !, चम्पाया नगर्या राजगृहस्थ चान्तराले गोवरमामः, सत्र गोशसी नाम कौटुम्बिका, यस्तेषामधिपतिरामीराणां, तस्य बन्धुमति म भार्याऽप्रसविनी। इतम तस्यादूरखामन्ते प्रामरिहंतः, सं इस्वा बन्दीग्राहं च कृत्वा प्रधाविताः । एकाऽचिरप्रसूता पत्यौ मारिते दारकेण समं गृहीता, सा तं दारक त्याजिता, स दारकतेन गोशाहिना गोरूपेभ्यो गतेन दृष्टो गृहीतश्चास्मीयाथै महेलाथै दत्तः, तन्न प्रकाशितं यथा-मम मदेला गूढगाऽऽसीद , सब च उगलकं मारयित्वा २१२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] (४०) SASARS लोहिअगंधं करेत्ता सूइयानेवत्था ठिया, सर्व जं तस्स इतिकत्तवं तं कीरइ, सोऽविताव संवहुइ, सावि से माया चंपाए विक्किया, वेसियाथेरीए गहिया एस मम धूयत्ति, ताहे जो गणियाणं उवयारो तं सिक्खाविया, सा तत्थ नामनिग्गया गणिया जाया । सो य गोसंखियस्स पुत्तो तरुणो जाओ, घियसगडेणं चंपं गओ सवयंसो, सो तत्थ पेच्छइ नागरजर्ण जहिच्छि अभिरमंतं, तस्सवि इच्छा जाया-अहमवि ताव रमामि, सो तत्थ गतो वेसावाडयं, तत्थ सा चेव माया अभिरुइया, मोल्लं देइ विआले. हायविलित्तो बच्चइ । तत्थ वच्चंतस्स अंतरा पादो अमेझेण लित्तो, सोन याणइ केणावि लित्तो। एत्वंतरा तस्स कुलदेवया मा अकिबमायरउ बोहेमित्ति तत्थ गोठ्ठए गाविं सवच्छियं विउविऊण ठिया, ताहे सो तं पायं| तस्स उवरि फुसति, ताहे सो वच्छओ भणइ-किं अम्मो! एस ममं उवरि अमेज्झलित्तयं पादं फुसइ, ताहे सा गावी माणुसियाए वायाए भणइ-'किं तुमं पुत्ता! अद्धिति करेसि', एसो अज मायाए समं संवासं गच्छइ, तं एस एरिसं अकिच्चं रुधिरगन्ध कृत्वा प्रसूतिनेपल्या स्थिता, सर्व पत्तस्येतिकर्तव्यं तस्करोति, सोऽपि तावत् संवर्धते, साऽपि तस्य माता चम्पायां विक्रीता, वेश्यास्थविरया गृहीतैषा मम दुहितेति, तदा यो गणिकानामुपचारतं शिक्षिता, सा तत्र निर्गतनामा गणिका जाता । स च गोशालिनः पुनस्तरुणो जातो, घृतशकटेन | चम्पां गतः सक्यस्यः, स तत्र प्रेक्षते नागरजनं याठिकमभिरममाणं, तखापीच्छा जाता-अहमपि ताप रमे, स तत्र गतो वेषापाठ के, सन्न संच माताभिः | रुचिता, मूल्यं ददाति विकाले वातविलिप्तो ब्रजति । तत्र व्रजतः अन्तरा पादोऽमध्येन लिप्तः, स न जानाति केनापि लिप्तः । भवान्तरे तस्य कुलदेवता मा। | अकृत्यमाचारीत् बोधयामीति तन गोहे गां सवत्सां विकुऱ्या स्थिता, तदा स तं पादं तस्योपरि स्पृशति, तदा स वसो भणति-किमम्ब ! एप ममोपरि अमे| भयलिप्त पाद स्पृशति, तदा सा गार्मानुष्या काचा भणति-किं त्वं पुत्राति करोपि!, एषोऽध मात्रा सम संवासं गच्छति, तदेव इरशमकत्वं laneioraryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~435~ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] आवश्यक- ॥२१॥ 4%9C ववसइ अन्नपि किं न काहितित्ति' । ताहे तं सोऊणं तस्स चिंता समुप्पण्णा-'गतो पुच्छिहामि', ताहे पविछो पुच्छइ-'का हारिभद्रीतुझ उप्पत्ती ?', ताहे सा भणति-किं तव उप्पत्तीए!, महिलाभावं दाएइ सा, ताहे सो भणति 'अन्नपि एत्ति मोलायवृत्तिः देमि, साह सम्भावं'ति सबहसावियाए सवं सिहति, ताहे सो निग्गओ सग्गामं गओ, अम्मापियरो य पुच्छइ, ताणि न विभागः१ साहेति, ताहे ताव अणसिओ ठिओ जाव कहियं, ताहे सो त मायरं मोयावेत्ता वेसाओ पच्छा विरागं गओ, एयावस्था विसयत्ति पाणामाए पवजाए पवइओ, एस उप्पत्ती। विहरतोयतं कालं कुम्मग्गामे आयावेइ, तस्स य जडाहिंतो छप्पयाओ आइच्चकिरणताविआओ पडंति, जीवहियाए पडियाओ चेव सीसे छुभइ, तंगोसालो दळूण ओसरित्ता तत्थ गओभणइ-कि भवं मुणी मुणिओ उयाहु जूआसेज्जातरो, कोऽर्थः ? 'मन् ज्ञाने' ज्ञात्वा प्रनजितो नेति, अथवा किं इत्थी पुरिसे वा?, |एकसिं दो तिणि वारे, ताहे वेसिआयणो रुडो तेयं निसिरइ, ताहे तस्स अणुकंपणहाए वेसियायणस्स य उसिणतेय % 82 व्यवसति बन्यदपि किं न करिष्यतीति । तदा तत् धुत्वा तस्स चिन्ता समुत्पना 'गतः प्रक्ष्यामि सदा प्रविष्टः पृच्छति-का सयोस्पतिः, तदा सा भजात कितवात्यया,महिलाभावं दर्शयति सा, तदा सभणति-अन्यदपि एतावन्मूल्यं ददामि कव समावमिति शपथशापितया सर्व शिष्मिति, तदास | निर्गतः खग्राम गतः, मातापित्तरीच पृच्छति, तीन कथषतः, तदा तावदनशितः स्थितो यावत्कथितं, सदा सतां मातरं मोचविस्वा वेश्यायाः पाद्वैराग्यं गतः, | एतदवस्था विषया इति प्राणामिक्या प्रवज्यया प्रवजितः, एषोत्पत्तिः । विहरंश्च तत्काले कूर्मग्रामे आतापयति, तस्य च जटायाः पदपदिका आदिवकिरणता पिताः पतन्ति, जीवहिताय पतिता एवं शीर्षे क्षिपति, तोशाको रष्ट्राध्यसूत्य तन्त्र गतो भवति-किं भवान् मुनिमुणित आहोश्चित् पूकाशयातरः, अथवा कि ४ाबी पुरुषो वा!, एकशःद्वी बीन्वारान्, तदा वैश्यायनो रुष्टस्तेजो निस्वति, तदा तस्यानुकम्पनार्थाय वैश्वाधाख चोष्णतेजा ॥२१३॥ का JABERatanitary vartantiarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] पडिसाहरणहाए एत्थंतरा सीयलिया तेयलेस्सा निस्सारिया, सा जंबूदीवं भगवओ सीयलिया तेयलेसा अम्भितरओ दिवेदेति, इतरा तं परियंचति, सा तत्थेव सीयलियाए विज्झाविया, ताहे सो सामिस्स रिद्धिं पासित्ता भणति-से गयमेवं भगवं ! से गयमेवं भयवं, कोऽर्थः -न याणामि जहा तुम्भं सीसो, खमह, गोसालो पुच्छइ-सामी ! किं एस जूआसेजातरो भणति ?, सामिणा कहिय, ताहे भीओ पुच्छइ-किह संखित्तविउलतेयलेस्सो भवति?, भगवं भणति-जेणं गोसाला! छहं छठेण अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं आयावेति, पारणए सणहाए कुम्मासपिडियाए एगेण य वियडासणेण जावेद जाव छम्मासा, सेणं सखित्तविउलतेयलेस्सो भवति । अण्णया सामी कुम्मगामाओ सिद्धत्थपुरं पत्थिओ, पुणरवि तिलथंबगस्स अदरसामंतेण वीतीवयइ, पुच्छइ सामि जहा-न निष्फण्णो, कहियं जहा निष्फण्णो,तं एवं वणस्सईणं पट्ट परिहारो, पिउट्टपरिहारो नाम परावर्त्य परावत्यै तस्मिन्नेव सरीरके उबवजंतितं असद्दहमाणो गंतृण तिलसंगलियं हत्थेण फोडित्ता ते तिले प्रतिसंहरणार्थ अत्रान्तरे कीतला तेजोलेश्या निस्सारिता, सा जम्बूद्वीपं भगवतः शीतला तेजोलेश्याभ्यन्तरतो वेष्टपति, इतरा तो पर्यंति, सा तय शीतकया विध्यापिता, तदा स स्वामिन कादि हा भणति-असौ गत एवं भगवन् ! असौ गत एवं भगवन् !, न जानामि यथा तव शिष्यः, क्षमख, गोपाल पृच्छति-स्वामिन् ! किमेष यूकाशच्यातरो भणति १, स्वामिना कथितं, तदा भीतः पृच्छति-क संक्षिप्त विपुलतेजोलेश्यो भवति?, भगवान् भणति-यो गोशाल! पहपठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणाऽऽतापयति, पारणके सनस्त्रया कुल्माषपिण्डिकषा एकेन चपासुकजलचुलुकेन यापयति यावत्पण्मासाः, स संक्षिसविपुलतेजोळेश्यो भवति । अन्यदा स्वामी धर्मप्रामासिद्धार्थपुरं प्रस्थितः, पुनरपि तिलस्तम्बस्थादूरसामन्तेन व्यतिनजाति, पृष्ठति स्वामिनं यथा न निष्पन्नः, कथितं यथा | निष्पक्षः, तदेवं वनस्पतिजीवाना परावय परिहारा, शरीरके बत्पद्यन्ते, तदअहधानो गत्वा तिलशम्बा विदार्य हसेन तातिलान् पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [४९३], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२१॥ प्रत सूत्रांक - ECRAKAASAXAS गणेमाणो भणति-एवं सधजीवावि पउर्दु परियति, णियइवादं धणियमवलंबेत्ता तं करेइ जं उवदिई सामिणा जहाहारिभद्रीसखित्तविउलतेयलेस्सो भवति, ताहे सो सामिस्स पासाओ फिट्टो सावत्थीए कुंभकारसालाए ठिओ तेयनिसगं आयावेह, यवृत्तिः छहिं मासेहिं जाओ, कृवतडे दासीओ विण्णासिओ, पच्छा छदिसाअरा आगया, तेहिं निमित्तउल्लोगो कहिओ, एवं सो|विभागः१ अजिणो जिणप्पलावी विहरइ, एसा से विभूती संजाया। वेसालीए पडिमं डिंभमुणिउत्ति तत्थ गणराया। पूएइ संखनामो चित्तो नावाए भगिणिसुओ॥४९४ ॥ ____भगवंपि बेसालिं नगरि पत्तो, तत्थ पडिमं ठिओ, डिंभेहिं मुणिउत्तिकाऊण खलयारिओ, तत्थ संखो नाम गणराया, सिद्धत्थरस रण्णो मित्तो, सो तं पूरति। पच्छा वाणियग्गामं पहाविओ, तत्वंतरा गंडइया नदी, तं सामी णावाए उत्तिण्णो, ते णाविआ सामि भणंति-देहि मोलं, एवं वाहंति, तत्थ संखरपणो भाइणिज्जो चित्तो नाम दूएकाए गएल्लओ, णावाकडएण एइ, ताहे तेण मोइओ महिओ य।। गणयन् भणति एवं सर्वे जीवा अपि परावर्य परिवर्तन्ते, नियतिवाई बाढमवलमय तकरोति बदुपदिष्टं स्वामिना यथा संक्षिसविपुलतेजोलेश्यो। भवति, तदा स स्वामिनः पार्थास्फिटितः श्रावस्त्यां कुम्भकारशालायां स्थितस्तेजोनिसर्गमातापयति, पहिमसिर्जातः, कूपतटे दास्तां विन्यासिता, पश्चात् पद | दिशाचरा मागतासैनिमित्तारलोका कथितः, एवं सोऽजिनो जिनालापी विहरति, एषा तस्य विभूतिः संजाता। (वेसालीए पूर्व संखो गणराय पिनवयंसो| उ । गंवाया सर रपर्ण चित्तो नावाए भगिणिसुओ इति प्र.) भगवानपि वैशाली नगरी प्राप्तः, तत्र प्रतिमा स्थितः, विम्भैः पिशाच इतिहरवा स्वकीकृतः ॥२१॥ | तन्त्र धाको नाम गणराजः, सिद्धार्थ राजो मित्रं, स पूजयति । पश्चाद्वाणिजमाम प्रधावितः, तत्रान्तरा गण्टिका नदी, तां स्वामी नायोत्तीर्णः, ते नाविकाः खामिनं भणन्ति-बेहि मुल्य, एवं व्यथयन्ति, सब शराझो भागिनेयः चित्रो नाम दतकार्य गतवानभत, नावाकटकेनेति, तदा तेन मोचितः महितम। वस्थ पनी एक माहनो भयो, सा रुसिभा कोसह, तमो गुफा तेवळेसा, सादडा,जामो तस्स पच्चओ, जहा सिवा में तबाहता अनुक्रम 4%25 wwjanmitrayog पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९५], भाष्यं [११४...] SSAGAR वाणियगामायावण आनंदो ओहि परीसह सहिति । सावत्थीए वासं चित्ततवो साणुलहि बहिं ॥ ४९५॥ तत्तो वाणियग्गामं गओ, तस्स चाहिं पडिमं ठिओ । तत्थ आणंदो नाम सावओ, छह छट्वेण आयावेइ, तस्स ओहिनाणं समुप्पण्णं, जाव पेच्छइ तित्थंकर, वंदति भणति य-अहो सामिणा परीसहा अहियासेजंति, एञ्चिरेण कालेण तुझं केवलनाणं उपजिहिति पूएति य । ततो सामी सावस्थि गओ, तत्थ दसमं वासारतं, विचित्तं च तवोकर्म ठाणादिहिं । ततो साणुलड़ियं नाम गाम गओ।। पडिमा भद्द महाभह सवओभरा पढमिआ चउरो । अट्ठयवीसाणंदे बहुलिय तह उज्झिए दिव्या ॥ ४९६ ॥ तत्थ भई पडिमं ठाइ, केरिसा भद्दा ? पुवाहत्तो दिवस अच्छइ, पच्छा रतिं दाहिणहत्तो, अवरेण दिवस, उत्तरेण रात, एवं छहभत्तण निद्विआ, पच्छा न चेव पारेइ, अपारिओ चेव महाभई पडिमं ठाइ, सा पुण पुवाए दिसाए अहोरत्तं, एवं चउमुवि दिसासु चत्तारि अहोरत्ताणि, एवं सा दसमेणं निठाइ, ताहे अपारिओ चेव सबओभई पडिम ठाइ, सा पुण|8| हा ततो वाणिज्यमामं गतः, तस्मात् बहिः प्रतिमां स्थितः । तत्रानन्दो नाम आवकः, पटपटेनातापयति, तस्यावधिज्ञानं समुत्पलं, यावपश्यति तीर्थ रं, वन्दते भणति च-अहो सामिना परीपहा मध्यास्यन्ते, इसचिरेण कालेन तब केवलज्ञानमुत्पत्स्यते पूजयति च । ततः स्वामी श्रावती गतः, तत्र दशर्म वर्षारानं, विचित्रं च तपःकर्म स्थानादिभिः । ततः सानुलष्टं नाम ग्रामं गतः । तत्र भइपतिमा करोति, कीदृशी भद्रा, पूर्वमुधो दिवसं तिष्ठति, पवादात्री - |क्षिणमुखः, अपरेण दिवसमुत्तरेण रानी, एवं षष्ठभकेन निहिता, पश्चात् नैव पारयति, अपारित एव महामनप्रतिमा करोति, सा पुनः पूर्वस्या दिश्यहोरात्रभेचं पतष्वपि दिनु पवार्यहोरामाणि, एवं सा दयामेन निसिएति, तदाऽपारित एव सर्वतोभना प्रतिमा करोति, खा पुनः JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति : [४९६], भाष्यं [११४...] आवश्यक- ॥२१॥ सवतोभद्दा इंदाए अहोरतं एवं अग्गेईए जामाए नेरईए वारुणीए वायबाए सोम्माए ईसाणीए, विमलाए जाई उड्डलोइ- हारिभदीयाई दवाणि ताणि निझायति, तमाए हेट्ठिलाई, एवमेवेसा दसहिंवि दिसाहिं बावीसइमेणं समष्पइ । | यवृत्तिः I 'पढमिआ चउरो' त्ति पुवाए दिसाए चत्तारि जामा, दाहिणाएवि ४ अवराएवि४ उत्तराएवि ४ा बितीयाए अह, पुवाए विभागः१ बेचउरो जामाणं एवं दाहिणाए उत्तराएवि अह, एए अह । ततीयाए वीसं, पुवाए दिसाए बेचउक्कं जामाणं जाव अहो बेचउक्का, एए वीसं । पच्छा तासु समत्तासु आणंदस्स गाहावइस्स घरे बहुलियाए दासीए महाणसिणीए भायणाणि खणीकरेंतीए दोसीणं छड्डेउकामाए सामी पविठ्ठो, ताए भण्णति-किं भगवं! अहो ?, सामिणा पाणी पसारिओ, ताए परमाए सद्धाए दिण्णं, पंच दिवाणि पाउन्भूआणि । दढभूमीए बहिआ पेढालं नाम होइ उजाणं । पोलास चेइयंमी ठिएगराईमहापडिम ॥ ४९७॥ सर्वतोभद्रा ऐन्यामहोरात्रमेवमामेश्यां याम्या नैऋत्यां वारुग्यो वायन्यां सोमायामशान्यां पिमलायां यानि अलौकिकानि न्याणि तानि निध्यायति, तमायामधस्तनानि, एवमेषा दशभिरपि दिम्भिाविंशतितमेन समाप्यते । प्रथमा चरवार इति पूर्वसां दिशि चत्वारो यामा, दक्षिणस्थामपि । अपरखामपि ४ वत्सरसामपि । दितीयायामा पूर्वस्वां द्विचत्वारो यामा एवं दक्षिणस्यामुच्चरस्यामप्यष्ट एतेऽटा । तृतीयस्था विशतिः, पूर्वसां दिशि द्विचतुष्कं । यामानां यावदधो द्विचतुष्कमेते विंशतिः । पश्चातामु समासासु मानन्दस्य गाथापतेह बहुलिकायां दास्या महान सिम्यां भाजनानि प्रक्षालयम्त्यां पर्युषितं | ॥२१५॥ त्यकामायां स्वामी प्रविष्टः, तथा भण्यते-भिगवन् ! अर्थः, स्वामिना पाणिः प्रसारितः, तया परमया अदया दर्ग, पत्र दिब्धानि प्रादुर्भूतानि. * बाहिंx पेढालुजाणमागभो भयवं प्र०. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [४९७], भाष्यं [११४...] ततो सामी दढभूमिं गओ, तीसे बाहिं पेढालं नाम उजाणं, तत्थ पोलासं चेइअं, तत्थ अहमेणं भत्तेणं एगराइयं । पडिम ठिओ, एगपोग्गलनिरुद्धदिही अणमिसनयणो, तस्थवि जे अचित्ता पोग्गला तेसु दिहि निवेसेइ, सचित्तेहिं दिहि। अप्पाइजइ, जहासंभवं सेसाणिवि भासियबाणि, इसिंपन्भारगओ-ईसि ओणयकाओसक्कोअ देवराया सभागओभणइ हरिसिओ वयणं। तिपिणवि लोग समस्था जिणवीरमण न चालेखं ॥४९८॥ इओ य सक्को देवराया भगवंतं ओहिणा आभोएत्ता सभाए सुहम्माए अस्थाणीवरगओ हरिसिओ सामिस्स नमोकार | काऊण भणति-अहो भगवं तेलोकं अभिभूअ ठिओ, न सका केणइ देवेण या दाणवेण वा चालेसोहम्मकप्पवासी देवो सकस्स सो अमरिसेणं । सामाणिअ संगमओ बेइ सुरिंदं पडिनिविट्ठो ॥ ४९९ ॥ तेल्लोकं असमत्थंति पेहए तस्स चालणं काउं । अज्जेव पासह इमं ममवसगं भट्ठजोगतवं ॥५०॥ अह आगओ तुरंतो देवो सफस्स सो अमरिसेणं । कासी य हउवसग्गं मिच्छट्ठिी पडिनिविट्ठो ॥५०१॥ इओ य संगमओ नाम सोहम्मकप्पवासी देवो सक्कसामाणिओ अभवसिद्धीओ, सो भणति-देवराया अहो रागेण । ततः स्वामी रतभूमि गतः, तस्या बहिः पेढालं नामोद्यानं, तन्त्र पोलासं चैत्वं, तत्राष्टमेन भनेकरात्रिकी प्रतिमा स्थितः, एक पुतलनिरुद्धष्टिरनिमेपनयना, तत्रापि येऽचित्ताः पुजलास्तेषु दृष्टिं निवेशपति, सचिनेभ्यो दृष्टिं निवर्तयति, यथासंभवं शेषान्यपि भाषितम्यानि, ईस्मारभारगत ईषदवनतकाथः । इतच कशाको देवराजः भगवन्तमवधिनाभोग्य सभायां सुधर्मायामास्थानीवरगतो हएः स्वामिने नमस्कृत्य (स्वामिने नमस्कार कृष्वा) भणति-अहो भगवान् त्रैलोक्यमभिभूय स्थितः, न शाक्यः केनचिद्देवेन वा दानवेन वा चालयितुम् । इस संगमको नाम सौधर्मकल्पवासी देवः शकसामानिको भवसिद्धिकः, स भणति-देवराजः अहो रागेण *चलेयं जे प्रा. T foneinraryom पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: | संगमदेवकृत् उपसर्गाणाम् वर्णनं ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०१], भाष्यं [११४...] आवश्यक हारिभद्रीविभागार यवृत्तिः ॥२१६॥ ************* उल्लवेइ, को माणुसो देवेण न चालिज्जइ', अहं चालेमि, ताहे सको तं न वारेइ, मा जाणिहिइ-परनिस्साए भगवं तवो- कम्मं करेइ, एवं सो आगओधूली पिवीलिआओ उइंसा चेव तहय उपहोला । विठ्ठय नउला सप्पा य मूसगा चेव अट्ठमगा ॥५०२ हत्थी हत्थीणिआओ पिसायए घोररूव वग्धो य । थेरो थेरीह सुओ आगच्छह पक्कणो य तहा ॥५०३ ॥ खरवाय कलंकलिया कालचक तहेव य । पाभाइय उवसग्गे वीसइमो होइ अणुलोमो ॥ ५०४॥ सामाणिअदेवहि देवो दावेह सो विमाणगओ। भणइ य वरेह महरिसि! निष्फत्ती सग्गमोक्खाणं ॥५०५॥ उवहयमइविषणाणो ताहे वीरं बहु प्पसाहेउ । ओहीए निज्झाइ झायह छज्जीवहियमेव ॥ ५०६॥ । ताहे सामिस्स उवरिं धूलिवरिसं वरिसइ, जाहे अच्छीणि कण्णा य सबसोत्ताणि पूरियाणि, निरुत्सासो जाओ, तेण सामी तिलतुसतिभागमित्तंपि झाणाओ न चलाइ, ताहे संतोतं तो साहरिता ताहे कीडिआओ विउधह बजतुंडाओ, |ताओ समंतओ विलम्गाओ खायंति, अण्णातो सोत्तेहिं अन्तोसरीरगं अणुपविसित्ता अण्णेणं सोएणं अतिंति अण्णेण णिति, बलपति, को मनुष्यो देवेन नचायते, मई चालवामि, तदा शकतं न चारयति, मा शासीत् परनिश्चया भगवान् तपःकर्म करोति, एवं स आगतः । तदा खामिन उपरि भूलिवर्षा वर्षवति, पवाक्षिणी कौँ च सर्वश्रोतांसि पूरितानि, निरुप्यासी जातः, तेन स्वामी तिनुपविभागमात्रमपि ध्यानान | चलति, तदा श्रान्तस्तां तसः सहस्य तदा कीटिका विकृति वज्रनुपिडकाः, ताः समन्ततो बिलमा खादन्ति, अभ्यश्यात् श्रोतसोऽन्तःशरीरमनुप्रविश्यान्येन श्रोत| सातिषान्ति (अन्येन नियान्ति), बहु सहाचे प्रा. + जाव प्र.. पालिको प्रक ॥२१६॥ Rajaniorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०६], भाष्यं [११४...] चालिणी जारिसो कओ, तहवि भगवं न चालिओ, ताहे उसे वज्जतुंडे विउबइ, ते तं उदंसा वज्जतुंडा खाईति, जे एगेण |पहारेण लोहियं नीणिति, जाहे तहवि न सका ताहे उण्होला विउपति, उण्होला तेल्लपाइआओ, ताओ तिक्खेहिं तुंडेहि अतीव डसंति, जहा जहा उबसगं करेइ तहा तहा सामी अतीव झाणेण अप्पाणं भावेइ , जाहे तेहिं न सक्किओ ताहे विच्छुए विउवति, ताहे खायंति, जाहे न सका ताहे नउले विउबइ, ते तिक्खाहिं दाढाहिं डसंति, खंडखंडाई च अवकणेति, पच्छा सप्पे विसरोसपुण्णे उग्गविसे डाहजरकारए, तेहि वि न सका, मूसए विउबइ, ते खंडाणि अवणेत्ता तत्थेव बोसिरति मुत्तपुरीसं, ततो अतुला वेयणा भवति, जाहे न सका ताहे इत्थिरूवं विउबति, तेण हस्थिरूपेण सुंढाए गहाय हा सत्तट्टताले आगास उक्खिवित्ता पच्छा दंतमुसलेहिं पडिच्छति, पुणो भूमीए "विधति, चलणतलेहिं मलइ, जाहे न सको ताहे हस्थिणियारूवं विउबति, सा हस्थिणिया सुंडाएहि दंतेहिं विंधइ फालेइ य पच्छा काइएण सिंचाइ, ताहे चलणेहिं मलेइ T चाकनीसदशः कृतः, तथापि भगवास चलति (पक्षिता,), तवा उद्देशान् बचतुण्डान बिकुर्वति, ते तमुया वत्रतुण्डाः सादन्ति, ये एकेन प्रहारेण रुधिरं निष्काशावन्ति, बदा तथापि न शक्ततदा पवेकिका विकुर्वति, 'पहोला इति तैलपापिया' सास्तीवगैस्तुपैरतीव दशन्ति, यथा यथोपसर्ग करोति तथा तथा स्वाम्यतीव पानेनामानं भावयति, बदा तेन पाकितातो वृधिकान् बिकुति, तदा खादन्ति, पदा न शक्तस्तदा नकुलान् विकर्वति, ते तीक्ष्णाभिष्ट्रिाभिदेशन्ति, सपडसादानि च अपनयन्ति, पश्चात् सनि विषरोषपूर्णान् उपविषान् दाहम्बरकारकान , तैरपि न शक्तो मूषकान् विकुर्वति, ते खण्डान्यपनीय तत्रैव पुरुषजन्ति भूत्रपुरीषं, ततोऽतुला बेदना भवति, यदा न शाक्तिस्तदा हसिरूपं विकृति, तेन हस्तिरूपेण सुपचया गृहीत्वा सप्लाटतालानाकाको परिक्षष्य पाइन्तमुशलाभ्यां प्रतीच्छति, पुनर्भूम्यां विध्यति, चरणतलैमईयति, बदाम शक्कलदा इस्तिनीरूपं विकुर्वति, साइसिनी शुण्डाभिदन्तैर्विध्यति विदारयति च पवाकाधिकेन सिञ्चति, तदा चरमैमदेवति, उबंधति.. Maanasarayan पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०६], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२१७॥ T༔ ༔ Tཤྩ, ཟླ་ आहे न सका ताहे पिसायरूवं विउधति, जहा कामदेवे, तेण उवसग्गं करेई, जाहे न सका ताहे वग्घरूवं विउवति, सोहारिभद्रीदादेहिं नहि य फालेइ, खारकाइएण सिंचति, जाहे न सका ताहे सिद्धत्थरायरूवं विउबति, सो कठ्ठाणि कलुणाणि | यवृत्तिः विलवइ-एहि पुत्त ! मा मा उज्झाहि, एवमादि विभासा, ततो तिसलाए विभासा, ततो सूर्य, किह !, सो ततो खंधावार | विभाग:१ विउबति. सो परिपेरतेसु आवासिओ, तत्थ सूतो पत्थरे अलभतो दोण्हवि पायाण मज्झे अग्गि जालेत्ता पायाण उवरित उक्खलियं काउं पयइओ, जाहे एएणवि न सक्का ततो पक्कण विउबति, सो ताणि पंजराणि बाहुसु गलए कण्णेसु य ओलएइ, ते सणगा तं देहिं खायंति धिंति सण्णं काइयं च वोसिरंति, ताहे खरवायं विउबेह, जेण सका मंदरपि|| चालेड, न पुण सामा विचन्द, तेण उप्पाडेत्ता उप्पाडेत्ता पाडेइ, पच्छा कलंकलियवायं विउच्चइ, जेण जहा चक्काइछगो Minहा ममाडेजइ, नंदिआपत्तो वा, जाहे एवं न सका ताहे कालचक विउचति, तं घेत्तूर्ण उहुं गगणतलं गओ, एत्ताहे यदा न शक्तस्तदा पिशाचरूपं बिकुर्वति, यथा कामदेवे, तेनोपसर्ग करोति यदा न शक्तस्तदा व्यानरूपं विकुर्वति, स वंष्ट्राभिनव पाटपति, भारकापिक्या सिञ्चति, यदा न शक्तसदा सिद्धार्थराजरूपं विकुर्वति, स कष्टानि करुणानि बिलपति-एहि पुत्र मा मा उसी। एवमादिविभाषा, ततखिशलया। विभाषा, ततः सूर्व, कथं?, स तत स्कन्धावार बिकुर्वति, स पर्यन्तेषु परितः आवासितः तत्र सूदः प्रस्तरानलभमानोहयोरपि पदोमध्येऽग्नि ज्वलविवा पदोपरि पिठरिकां कृत्वा पकुमारब्धवान् , यदेतेनापि न शक्तस्तत्तश्चाण्डालं बिकुर्वति, स तानि पजराणि बाह्वोर्गले कर्णयोश्च उपलगयति, ते शकुनातं तुण्डैः खादन्ति विध्यन्ति संज्ञां काबिकी च व्युत्सृजान्ति, तदा खरवातं विकुर्वति येन शक्यते मन्दरोऽपि चालयितुं, न पुनः स्वामी विचलति, तेनोपाव्य उत्पाय पातयति, पिनाकलङ्कलिकावात विकुर्वति, येन यथा चक्राविद्धः तथा भ्राम्यते नन्यावों बा, यदैवं न शक्तस्तदा कालचक्र विकुर्वति, नदीखोर्च गगनतवं गतोऽधुना. कामदेवो सबो क्वस प्रक पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम H [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र - १/१ ( मूलं+निर्युक्तिः + वृत्तिः) अध्ययन [ ], मूलं [ / गाथा-], निर्युक्तिः [ ५०६ ] भष्यं [११४ ...] मारेमित्ति मुएइ वज्जसंनिभं जं मंदरंपि चूरेजा, तेण पहारेण भगवं ताव णिबुड्डो जाव अग्गनहा हत्थाणं, जाहे न सका तेणवि ताहे चिंतेति न सका एस मारेडं, अणुलोमे करेमि, ताहे पभायं विउचाइ, लोगो सबो चंक्रमितं पवतो भणति-देवजगा ! अच्छसि अज्जवि १, भयर्वपि नाणेण जाणइ जहा न ताव पभाइ जाव सभावओ पभायंति, एस वीसइमो । अन्ने भणन्ति तुहोमि तुज्झ भगवं ! भण किं देमि ? सम्गं वा ते सरीरं नेमि मोक्खं वा नेमि, तिण्णिवि लोए तुज्झ पादेहिं | पाडेमि ?, जाहे न तीरइ ताहे मुहुयरं पडिनिवेस गओ, कल्लं काहिति, पुणोवि अणुकइवालय पंथे तेणा माउलपारणग तत्थ काणच्छी । तत्तो सुभोम अंजलि सुच्छित्ताए य विरूवं ॥ ५०७ ॥ ततो सामी बालुगा नाम गामो तं पहाविओ, एत्थंतरा पंचचोरसए विउद्यति, बालुगं च जत्थ खुप्पइ, पच्छा तेहि माउलोत्ति वाहिओ पद्मयगुरुतंरेहिं सागयं च वज्जसरीरा दिंति जहिं पद्ययावि फुट्टिज्जा, ताहे बालुयं गओ, तत्थ सामी Education intimation 1 5 मारयामीति मुखति वज्रसभं यन्मन्दरमपि चूरयेत् तेन प्रहारेण भगवान् तावत् ब्रूडितो यावदना हसायोः यदा न शक्तस्तेनापि तदा चिन्तयति-न शक्य एष मारवितुम् अनुलोमान् करोमि, तदा प्रभातं विकुर्वति, लोकः सर्वक्रमितुं प्रवृत्तो भणति देवार्य ! तिष्ठसि ? अद्यापि भगवान् ज्ञानेन जानाति यथा न तावत्प्रभाति यावत्स्वभावतः प्रभातमिति पुष विंशतितमः अन्ये भणन्ति तुष्टोऽस्मि तुम्यं भगवन् ! भण किं ददामि ? स्वर्ग वा ते शरीर नयामि मोक्षं वा नयामि, श्रीमपि लोकान् तव पादयोः पातयामि यदा न शक्नोति तदा सुष्टुतरं प्रतिनिवेशं गतः कल्ये करिष्यति, पुनरप्यनुकर्षति । ततः स्वामी वालुका नाम ग्रामस्तं प्रधावितः अत्रान्तरे पक्ष चौरशतानि विकुर्दति, वालुकां च यत्र मज्ज्यते पश्चात् तैर्मातुल इति चाहितः पर्वतगुरुतरैः स्वागतं वज्ञशरीश ददति, यत्र पर्वता अपि स्फुटेयुः तदा वालुको मतः, तत्र स्वामी तत्यंतरा प्र० + सरीरेहिं कसाबाई व० प्र०. - For Fans Use Only पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः ~ 445 ~ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५०७], भाष्यं [११४...] 453 हापरिटियो, तत्थावरतं भगवतो रूवं काणच्छि अविरइयाओ णडेइ, जाओ तस्थ तरुणीओ ताओ हम्मति, ताहे IRरिभटी निग्गतो। भगवं सुभोमं वकाइ, तत्थवि अतियओ भिक्खायरियाए, तत्थवि आवरेत्ता महिलाणं अंजलिं करेइ, पच्छा तेहिं यात्तिः ॥२१८॥ पिट्टिजति, ताहे भगवं णीति, पच्छा सुच्छेत्ता नाम गामो तहिं वच्चाइ, जाहे अतिगतो सामी भिक्खाए ताहे इमो आवरेत्ता विभागः१ विडरुवं विउवा, तत्थ हसद य गायइ य अट्टहासे य मुंचति, काणच्छियाओ य जहा विडो तहा करेइ, असिहाणि य भणइ, तत्थवि हम्मइ, ताहे ततोवि णीतिमलए पिसायरूयं सिवरूवं हथिसीसए चेष । ओहसणं पडिमाए मसाण सको जवण पुच्छा ॥५०८॥ ततो मलयं गतो गार्म, तत्थ पिसायरूवं विउवति, उम्मत्तयं भगवतो रूवं करेइ, तत्थ अविरइयाओ अवतासेइ गेण्हाइ, तत्थ चेडरूवेहि छारकयारेहि भरिजइ लेडु(ह)एहिं च हम्मइ, ताणि य बिहावेइ, ततो ताणि छोडियपडियाणि नासंति तस्थ कहिते हम्मति, ततो सामी निग्गतो, हत्थिसीसं गामं गतो, तत्थ भिक्खाए अतिगयस्स भगवओ सिवरुवं विउबई भिक्षा प्रदिण्डितः, तत्राबुल भगवती रूपं काणाक्षोऽविरतिका बाधते,यास्तत्र तरुण्यस्ता प्रम्ति, सदा निर्गतः। भगवान् सुभौम मजति, तत्रापि अतिगतो भिक्षाचाँधि, तवाप्यावृत्य महिलाभ्योऽजलिं करोति, पक्षातः पित्यते, तदा भगवान् निर्गच्छति, पश्चात् सुक्षेत्रनामा प्रामस्न नजति, पदातिगतः स्वामी भिक्षा तदाऽयमावृत्य विटरूपं विकुर्वति, सहसति च गायति च महाहहासांश्च मुञ्चति, काणाक्षिणी च बया विटलया करोति, अशिष्टानि च भणति, समापि २१८॥ इम्यते, ततोऽपि निर्धाति । ततो मलयं गतो माम,तन्त्र पिशाचरूपं विकुर्वति, उन्मसं भगवतो रूपं करोति, तत्रापिरतिका अपत्रासयति गृहाति, तत्र चेटरूपैर्भपाकचरीमियते ले कैश्च हन्यते तानि च भापयते, सत्तमतानि छोटितंपत्तितानि नश्यन्ति, तत्र कथिते हन्यते, ततः खामी निर्गतो, इतिशी प्रामं गतः, तत्र मिक्षायै भतिगतस्य भगवतः शिव (भव्य)रूपं विकुति. * एण्यवि प्र०. SCkA पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०८], भाष्यं [११४...] . ६ सागारियं च से कसाइययं करेइ ,जाहे पेच्छइ अविरइयं ताहे उट्टवेइ, पच्छा हम्मति, भगवं चिंतेति-एस अतीव गाढं| उड्डाह करेइ अणेसणं च, तम्हा गार्म चेव न पविसामि बाहिं अच्छामि, अण्णे भणति-पंचालदेवरूवं जहा तहा विजपति, तदा किर उप्पण्णो पंचालो, ततो बाहिं निग्गओ गामस्स, जओ महिलाजहं तओ कसाइततेण अच्छति, ताहे किर ढोंढसिवा पवत्ता, जम्हा सकेण पूइओ ताहे ठिआ, ताहे सामी एगतं अच्छति, ताहे संगमओ उद्दसेइ-न सका तुम ठाणाओ चालेउं ?, पेच्छामि ता गाम अतीहि, ताहे सक्को आगतो पुच्छइ-भगवं ! जत्ता भे? जवणिज अवाबाहं फासुयविहारं 1, वंदित्ता गओ तोसलिकुसीसरुवं संविच्छेओ इमोत्ति वज्झो य । मोएइ इंदालिउ तत्थ महाभूइलो नाम ॥ ५०९ ॥ ताहे सामी तोसलिं गतो, बाहिं पडिम ठिओ, ताहे सो देवो चिंतेइ,एस न पविसइ, एत्ताहे एथवि से ठियस्स करेमि | उपसगं, ततो खुडुगरूवं विउवित्ता संधि छिदइ उपकरणेहिं गहिएहिं धाडीए तओ सो गहितो भणति, मा ममं हणह, सागारिक (भिक) तय कपापितं (लम्ब) करोति, यदा प्रेक्षतेऽविरतिकां तदोप्थापयति, पश्चान्यते, भगवान् चिन्तयति-एषोऽतीव गाउमपभ्राजा करोति भनेषणां च तम्बाहाममेव न प्रविणामि गहितिष्ठामि, भन्ये भगन्ति-पञ्चासदेवरूपं यथा तथा विकुर्वति, तदा किलोत्पसः पचालः, ततो बहिनिर्गतो मामात्, यतो महिलाषूथं ततः कापायित केन तिष्ठति, तदा किल हेलना प्रवृत्ता, यस्मात् शकेण पूजितस्तस्मारिस्थता (निवृचा), सदा स्वाम्येकाम्ते तिष्ठति, तदा संगमकोपहसति-न शाक्यस्पं स्थानाचालयितुं, प्रेक्षे ताबहामं वाहि, तदा शक भागतः पृच्छति-भगवन् ! यात्रा भवतां ? यापनीयमस्यामा प्रासुकविहारः, यन्दित्वा गतः । तदा स्वामी तोसलिं गतः, बहिः प्रतिमया स्थितः, सदा स देवचिन्तयति-एष न प्रविशति, अधुनाऽत्रापि भख स्थितस्य करोम्युपसर्ग, | ततः शुभकरूप विकुष्य सन्धि छिनत्ति उपकरणेषु गृहीतेषु धाब्या, ततः स गृहीतो भणति-मामा वषिष्ट. JABERatinintamational पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५०९], भाष्यं [११४...] विभाग: १ आवश्यक- अहं किं जाणामि?,आयरिएण अहं पेसिओ, कहिं सो ?, एस बाहि अमुए उज्जाणे, तत्थ हम्मति, बज्झति य, मारेजउत्ति हारिभद्री॥२१९॥ द्रय वज्झो णीणिओ, तत्थ भूइलो नाम इंदजालिओ, तेण सामी कुंडग्गामे दिडओ, ताहे सो मोएइ, साहइ य--जहा एसायवृत्तिः |सिद्धत्थरायपुत्तो, मुको खामिओ य, खुड्डओ मग्गिओ, न दिहो, नायं जहा से देवो उवसर्ग करेइ|मोसलि संधि, सुमागह मोएई रडिओ पिउवयंसो। तोसलि य सत्तरजू वावत्ति तोसलीमोक्खो ॥ ५१०॥ ततो भगवं मोसलिं गओ, तत्थवि बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थवि सो देवो खुडुगरूवं विउवित्ता संधिमार्ग सोहेइ पडिलेहेइ य, सामिस्स पासे सवाणि उवगरणाणि विउबइ, ताहे सो खुडओ गहिओ, तुमं कीस एत्थ सोहेसि ?, साहइ-मम धम्मायरिओ रति मा कंटए भंजिहिति सो सुहं रत्तिं खत्तं खणिहिति, सो कहिं !, कहिते गया दिडो सामी, ताणि य परिपेरन्ते पासंति, गहितो आणिओ, तत्थ सुमागहो नाम रहिओ पियमित्तो भगवओ सो मोएइ, ततो सामी तोसलिं अई किंजाने 1, आचार्यणाई प्रेषिता, कसा, एष बहिरमुकमिनुधाने, तत्र हन्यते बध्यते च, मार्यतामिति च वध्यो निष्काशितः, तत्र भूतिको नामेन्द्रजालिका, तेन स्वामी कुण्डमामे रयः, तदास मोचयति, कथयति प-यप सिद्धार्थराजपुत्रो, मुक्तः क्षामितश्च, क्षुलको मार्गितः, गए, ज्ञातं यथा तस्य देव उपसर्ग करोति । ततो भगवान मोसलिगता, तत्रापि पहिः प्रतिमया स्थितः, तत्रापि स देवः भुलकरूपं विकुष्य सन्धिमार्ग शोधयति प्रतिलिखति च, स्वामिनः पाणे सर्वापयुपकरणानि विकुर्वति, तदा स क्षुल्लको गृहीतः, स्वं कधमत्र शोधयसि !, कथयति-मम धर्माचार्यः रात्रौ मा कण्टका भारिपुः इति स G ॥२१९॥ सुत्रं रात्रौ खात्रं खनिष्यति, सक?, कथिते गता हष्टः स्वामी, तानि च परितः पर्यन्ते पश्यन्ति, गृहीत आनीतः, तत्र सुमागधो नाम राष्ट्रिकः पितृमित्रं भगवतः स मोचयति, सतः स्वामी तोसली JaintaimOM rajanmorary on पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१०], भाष्यं [११४...] गओ, तत्थवि तहेव गहिओ, नधर-उकलंबिजिउमादत्तो, तत्थ से रजू छिपणो, एवं सत्त वारा छिण्णो, ताहे सिहं तोसतालियस्स खत्तियस्स, सो भणति-मुयह एस अचोरो निद्दोसो, तं खुड्डयं मग्गह, मग्गिजंतो न दीसइ, नायं जहा देवोत्तिसिजस्थपरे तेणेसि कोसिओ आसवाणिओ मोक्खो। वयगाम हिंडणेसण बियदिणे वेइ उवसंतो॥५११॥ ततो सामी सिद्धत्थपुरं गतो, तत्थवि तेण तहा कयं जहा तेणोति गहिओ, तत्थ कोसिओ नाम अस्सवाणियओ, ६ तेण कुंडपुरे सामी दिहिलओ, तेण मोयाविओ। ततो सामी वयगामति गोउलं गओ, तत्थ य तदिवसं छणो, सबस्थ परमणं उवक्खडियं, चिरं च तस्स देवरस ठियस्स उवसग्गे कार्ड सागी चिंतेइ-गया छम्मासा, सो गतोत्ति अतिगओ जाव असणाओ करेति, ततो सामी उवउत्तो पासति, ताहे अद्धहिंडिए नियत्तो, बाहिं पडिमं ठिओ, सो य सामि ओहिणा आभोएति-किं भग्गपरिणामो न वत्ति?,ताहे सामी तहेव सुद्धपरिणामो, ताहेदई आउट्टो, न तीरइ खोभेडं, जो गतः, तथापि तथैव गृहीता नवरं महम्पयितुमारब्धः, तत्र तय रश्मिा , एवं सप्त वासंश्छिला, तवा शिर्ष सोसनिकाय क्षत्रियाय, स भणति-मुशतः | एपोऽचोरो निर्दोषा, संचड मार्गपत, माग्यमाणो न पश्यते, ज्ञातं यथा देव इति । ततः स्वामी सिद्धार्थपुरं गतः, तत्रापि तेन तथा कृतं यथा तेन इति | | गृहीतः, सत्र कौशिकनामा मनवाणि, तेन कुण्ठपुरे स्वामी रष्टः, तेन मोचितः । ततः स्वामी प्रजप्राममिति गोकुलं गता, तप च तस्मिन् दिवसे क्षणः, सर्वत्र | परमानमुपस्कृतं, तस्मिन् देवेच चिरमुपसगांकृत्या स्थिते स्वामी चिन्तयति-गताः षण्मासाः स गत इति अतिगतो यावदनेषणाः करोति, ततः स्वाम्युपबुक पश्यति, तदाहिग्यितो निर्गतः, पहिः प्रतिमया स्थिता, सच स्वामिनमवधिमाऽऽभोगपति-कि भापरिणामो नति, तदा स्वामी तथैष शुद्धपरिणामः, तदा ट्वामृतः, न पश्यते क्षोभवितुं, यः. *तस्थवि ०. Mandionary.org पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग-२८] “आवश्यक”– मूलसूत्र - १/१ ( मूलं + निर्युक्तिः+वृत्तिः) अध्ययन [-], मूलं [- /गाथा - ], निर्युक्तिः [५११], भाष्यं [११४ ...] आवश्यक छहिं मासेहिं न चलिओ एस दीहेणावि कालेण न सका चालेडं, ताहे पादेसु पडिओ भगति सञ्चं जं सको भणति, सबं खामेइ-भगवं ! अहं भग्गपतिष्णो तुम्हे समत्तपतिष्णा ॥२२०॥ वचह हिंडह न करेमि किंचि इच्छा न किंचि वक्तव्वो । तत्थेव वच्छवाली थेरी परमन्नवसुहारा ॥ ५१२ ॥ छम्मासे अणुबद्धं देवो कासीय सो उ उवसग्गं । दट्ठूण वयग्गामे वंदिय वीरं पडिनियत्तो ॥ ५१३ ॥ जाह एताहे अतीह न करेमि उवसग्गं, सामी भणति भो संगमय । नाहं करसइ वत्तवो, इच्छाए अतीमि वा गवा, ताहे सामी बितियदिवसे तत्थेव गोडले हिंडतो वच्छवालथेरीए दोसीणेण पायसेण पडिलाभिओ, ततो पंच दिवाणि पाउन्भूयाणि, ऐंगे भणंति-जहा तद्दिवसं खीरं न लद्धं ततो वितियदिवसे ऊहारेऊण उवक्खडियं तेण पडिलाभिओ । इओ य सोहम्मे कप्पे सब्बे देवा तद्दिवसं ओविग्गमणा अच्छंति, संगमओ य सोहम्मे गओ, तत्थ सको तं दङ्कण परंमुही ठिओ, भणइ १ पतिर्मासैर्न चलित एष दीर्घेणापि कालेन न शक्यश्वाखयितुं सदा पादयोः पतितो भगति सत्यं वच्छको भगति, सर्व क्षमयति-भगवन्तः ! अ भप्रतिशो पूर्व समाप्तप्रतिज्ञाः । याताऽधुनाऽटत न करोम्युपसर्ग, स्वामी भणति भोः संगमक ! नाहं केनापि वक्तव्य इच्छामि वानवा, तदा स्वामी द्वितीय दिवसे तत्रैव गोकुले हिण्डमानः, जसपालिका स्थविरया पर्युषितेन पायसेन प्रतिवाभितः, ततः पञ्च दिव्यानि प्रादुर्भूतावि, एके भजन्ति यथा दिवसा क्षौरेयी न खब्धा ततो द्वितीयदिवसे अवधार्योपस्कृतं तेन प्रतिकाभितः । इत सौधर्मे ये सर्वे देवाः सद्दिवस ( यावत्) द्विद्ममनस्तिष्ठन्ति, संगमकश्च सौधर्मं गतः, तत्र शक्रस्तं दृष्ट्वा पराङ्मुखः स्थितो भणति * परिक्षाभिभो इति पर्यन्तं न प्र०. For Final P हारिभद्री यवृत्तिः विभागः ६ ~450~ ॥२२०॥ www.janbay.org पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[४०] मूलसूत्र - [०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्तिः Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१३], भाष्यं [११४...] (४०) |'देवे-भो ! सुणह एस दुरप्पा, ण एएण अम्हवि चित्तावरक्खा कया अन्नेसि वा देवाण, जओ तित्थकरो आसाइओ, न | पएण अम्ह कर्ज, असंभासो निविसओ य कीरउ-- है वो चु(ठि)ओ महिहीओ वरमंदरचूलियाइसिहरंमि । परिवारिउ सुरवहहिं आउंमि सागरे सेसे॥५१॥ ताहे निच्छूढो सह देवीहि मंदरचूलियाए जाणएण विमाणेणागम्म ठिओ,सेसा देवा ईदेण वारिता,तस्स सागरोवमठिती सेसा। आलभियाए हरि विजू जिणस्स भत्तिऍ वंदओएइ।भगवं पियपुच्छा जिय उवसग्गत्ति धेवमवसेसं ॥५१५॥ हरिसह सेयविधाए सावत्थी खंद पडिम सक्को य । ओयरिउ पडिमाए लोगो आउद्दिओ वंदे ॥ ५१६॥ तत्थ सामी आलभियं गओ, तत्थ हरि विजुकुमारिंदो एति, ताहे सो वंदित्ता भगवओ महिमं काऊण भणतिभगवं ! पियं पुच्छामो, नित्थिण्णा उबसग्गा, बहुं गये थोवमवसेस, अचिरेण भे केवलनाणं उपजिहिति । ततो सेयद वियं गओ, तस्थ हरिसहो पियपुच्छओ एइ, ततो सावत्थिं गओ, बाहिं पडिमं ठिओ, तत्थ खंदगपडिमाए महिम लोगो देवान्-भोः ऋणुत एप दुरात्मा, तेनामाकमपि चित्तावरक्षा कृता अन्येषां वा देवानां, बततीर्थकर माशातिता, नैतेनामा कार्यम् , संभाष्यो निर्विषयच क्रियतां । तदा नियूंदः सब देचीभिः मन्दरचूलिकायां यानकेन विमानेनागल्य स्थितः, शेषा देवा इन्द्रेण वारिताः, तख सागरोपमस्थितिः शेषा । ४ तत्र स्वामी मालम्भिको गता, तत्र हरिवियुत्कुमारेन्ज एति, तदा स वन्दिवा भगवतो महिमानं कृपा भगति-भगवन् ! प्रियं पृच्छामि निस्तीणों उपसर्गाः, बहु गतं स्तोकमवशेषम् , अचिरेण भवतां केवलज्ञानमुत्परस्पते । ततः श्वेताम्बीं गतः, तत्र हरिस्सदः प्रियमका पति, ततः भावी गतः, बहिः प्रतिमषा स्थितः, तत्र स्कन्दप्रतिमाया महिमानं लोकः Matanasanayam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”-मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्ति:) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१६], भाष्यं [११४...] विभागः१ T༔ ༔ Tཤྩ, ཟླ་ आवश्यक सारेड. सफो ओहिं पउंजति, जाव पेच्छा खंदपडिमाए पूर्य कीरमाणं, सामि गाढायंति, उत्तिण्णो, सा य अलंकियानी रहं बिलग्गिहितित्ति, ताहे सको तं पडिमं अणुपविसिऊण भगवंतेण पहिओ, लोगो तुह्रो भणति-देवो सयमेव विलग्गि-1 ॥२२॥ यवृत्तिः |हिति, जाप सामि गंतूण वंति, ताहे लोगो आउट्टो, एस देवदेवोति महिमं करेइ जाव अच्छिओद्रा कोसंबी चंदसूरोपरणं वाणारसीय सको उ । रायगिहे ईसाणो महिला जणओ य धरणो य ।। ५१७॥ ततो सामी कोसपिं गतो, तत्थ चंदसूरा सविमाणा महिमं करेंति, पियं च पुच्छंति, वाणारसीय सको पियं पुच्छइ, रायगिहे ईसाणो पिय पुच्छइ, मिहिलाए जणगो राया पूर्व करेति, धरणो य पियपुच्छओ एइबेसालि भूयणंदो चमरुप्पाओ य सुंसुमारपुरे । भोगपुरि सिंदकंग माहिंदो खत्तिओ कुणति ॥५१८॥ ततो सामी वेसालिं नगरिं गतो, तत्थेक्कारसमो वासारत्तो, तस्थ भूयाणंदो पियं पुच्छइ नाणं च वागरेइ । ततो सामी करोति, पाकोऽवधि प्रयुनक्ति, पापापेक्षते स्कन्दमतिमायाः पूजां क्रियमाणां, स्वामिनं नानियन्ते, अवतीर्णः, साप मलता रथं विलगविष्यतीति, तदा। पक्रस्तां प्रतिमामनुमविश्व भगवन्माण प्रस्थिता, छोकस्तुष्टो भष्पति-देवः स्वयमेव विलागिपति, पावत्स्वामिनं गया वन्दते, तदा कोक आवृत्त:-एष देवदेव इति महिमानं करोति यावत् स्थितः । ततः स्वामी कौशाम्यां गतः, तत्र सूर्याचन्दमसौ सविमानौ महिमानं कुरुतः, प्रियं च पृच्छतः, वाराणस्यां शक्रः प्रियं पृच्छति, राजगृहे ईशानः प्रियं पृच्छति, मिथिकायां जनको राजा पूजां करोति, धरणच प्रियप्रछक एति । ततः स्वामी विशाको नगरी गतः, वर्षकादशो पारात्रः, तत्र भूतानन्दः प्रियं पृच्छति, ज्ञानं च म्यागृणाति । ततः स्वामी ॥२२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५१८], भाष्यं [११४...] (४०) MIKसुमारपुरं एइ, तत्थ चमरो उप्पयति, जहा पन्नत्तीए, ततो भोगपुरं एइ, तत्व माहिंदो नाम खत्तिओ सामि दलण सिंदिकंदयेण आहणामित्ति पहावितो, सिंदी-खजूरी वारण सणकुमार नंदीगामे पिउसहा वंदे । मंढियगामे गोबो वित्तासणयं च देविंदो ॥५१॥ एत्यंतरे सणंकुमारो एति, तेण धाडिओ तासिओ य, पियं च पुच्छइ। ततो नंदिगाम गओ, तत्थ णंदी नाम भगवओ पियमित्तो, सो महेइ, ताहे मेंढियं एइ । तत्थ गोवो जहा कुम्मारगामे तहेव सक्केग तासिओ वालरज्जुएण आहणंतोकोसंविए सयाणीओ अभिग्गहो पोसबहुल पाडिवई । चाउम्मास मिगावई विजयसुगुत्तो य नंदा य ॥५२०॥ तचावाई चंपा दहिवाहण वसुमई विजयनामा । धणवह मूला लोयण संपुल दाणे य पवजा ।। ५२१ ॥ | ततो कोसंविंगओ, तत्थ सयाणिओ राया, मियावती देवी, तच्चावाती नामा धम्मपाढओ, सुगुत्तो अमच्चो, गंदा से भारिया, सा य समणोवासिया, सा य सहित्ति मियावईए वयंसिंदा, तत्थेव नगरे धणावहो सेट्ठी, तस्स मूला भारिया, एवं ते सकम्मसंपउत्ता अच्छंति । तत्थ सामी पोसबहुलपाडिवए इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ चउबिह-दवओ ४ १ सुंमुमारपुरमैति, तब चमर उत्पतति, क्या प्रज्ञप्ती, ततो भोगपुस्मेति, सत्र माहेन्द्रो नाम क्षत्रियः स्वःमिन रष्ट्वा सिन्दीकपडकेन आहन्मीति प्रधाविता, सिन्दी खजूरी । अत्रान्तरे सनत्कुमार आगच्छति, तेन निर्धादितः श्रासितश्च,प्रियं पृच्छति । ततो नन्दीग्रामं गतः, तत्र नन्दीनामा भगवतः पितृमित्रम्, समहति । तदा मेखिकाने ति, तत्र गोपो यथा कारनामे तथैव शकेण बासितः वालरज्ज्वान् । ततः कोशाध्यां गतः, तत्र शतानीको राजा, मृगावती देवी, नववादी नाम धर्मपाठकः, सुगुप्तोऽमात्यो, नन्दा तस्य भार्या, सा च श्रमग्योपातिका, सा च श्राद्धीति मृगावत्या वयस्पा, तत्रैव नगरे धनावहः श्रेष्टी, सख मूला भार्या, एवं ते स्वकर्मसंप्रयुक्ता विहन्ति । तत्र स्वामी पौष्ण कृष्णप्रतिपदि हममेतद्पमामिग्रहमभिगृहाति चतुर्विध मण्यतः ४. T पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: चन्दनबालाया: कथानक ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] भावश्यक-देवओ कुम्मासे सुप्पकोणेणं, खेत्तओ एलुगं विक्खंभइत्ता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जहा रायधूया दास- हारिभद्री तणं पत्ता नियलबद्धा मुंडियसिरा रोवमाणी अहमभत्तिया, एवं कप्पति सेसं न कप्पति, एवं घेत्तूण कोसंबीए अच्छति, यवृत्तिः ॥२२॥ दिवसे दिवसे भिक्खायरियं च फासेइ,किं निमित्तं ?, बावीस परीसहा भिक्खायरियाए उइज्जति,एवं चत्तारि मासे कोसंबीए विभागा? हिंडंसस्सत्ति । ताहे नंदाए घरमणुप्पविट्ठो, ताहे सामी णाओ, ताहे परेण आदरेण भिक्खा णीणिया, सामी निग्गओ, सा अधिति पगया,ताओ दासीओ भणंति-एस देवजओ दिवसे दिवसे एस्थ एइ,ताहे ताए नायं-नूणं भगवओ अभिग्गहो कोई, ततो निरायं चेव अद्धिती जाया, सुगुत्तो य अमच्चो आगओ, ताहे सो भणति-किं अधितिं करेसि!, ताए कहियं, भणति-किं अम्ह अमबत्तणेणं, एवञ्चिरं कालं सामी भिक्खं न लहइ, किं च ते विनाणेणं, जइ एवं अभिग्गहं न याणसि, तेण सा आसासिया, कल्ले समाणे दिवसे जहा लहइ तहा करेमि। एयाए कहाए वट्टमाणीए विजयानाम पडिहारी द्रव्यतः कुल्मापाः सूर्पकोणेन, क्षेत्रतः देहली विश्कभ्य, कालतो निवृत्तेषु भिक्षाचरेषु, भावतो यथा राजसुता दासत्वं प्रामा निगडयदा मुण्डितशिराः wil | रुदन्ती अष्टममक्तिका, एवं कल्पते शेषं न कल्पते, एवं गृहीत्वा कोशाम्यां तिहति, दिवसे दिवसे मिक्षाचीच स्पृशति, किं निमित्तम् द्राविंशतिः परीपहा ] |भिक्षाचर्यायामुदीयन्ते, एवं चत्वारो मासाः कोशाम्यां हिण्डमानस्येति । तदा नन्दाया गृहमनुप्रविष्टः, तदा स्वामी ज्ञातः, तदा परेणादरेण भिक्षा आनीता, स्वामी निर्गतः, साश्यति प्रगता, ता दास्यो भणन्ति-एष देवायों दिवसे दिवसे वायाति, तदा तया हात-जून मगवतोऽभिग्रहः कश्चित् , तो नितरां चैवातिर्माता, सगसचामाय भागता, सदा सभणति-किमति करोपि, तया कथितं, भणति-किमाकममायरवेन यिचिरे का स्वामी मिक्षा गमते,IMI किं च तव विज्ञानेन, योनमभिमई न जानासि , तेन साऽऽशासिता, कक्ये समाने (सति) दिवसे यथा कभते नया करोमि । एतखो कमायो वर्तमानायां बिजया नाम प्रतिहारिणी पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] T༄༅ Tཤྩ ཟླ 69-0-40-449 मिंगावतीए भणिया सा केणइ कारणेणं आगया, सा तं सोऊण उल्लावं मियावतीए साहइ, मियावतीवि तं सोऊण | महया दुक्खेणाभिभूया,सा चेडगधूया अतीव अद्धितिं पगया, राया य आगओ पुच्छइ, तीए भण्णइ-किं तुझ रजेणं? मते वा, एवं सामिस्स एवतियं कालं हिंडंतस्स भिक्खाभिग्गहो न नजइ, न च जाणसि एत्थ विहरतं, तेण आसासिया-तहा करेमि जहा कल्ले लभइ, ताहे सुगुत्तं अमञ्चं सद्दावेद, अंबाडेइ य-जहा तुम आगयं सामि न याणसि, अज किर चउत्थो मासो हिंडंतस्स, ताहे तच्चावादी सद्दावितो, ताहे सो पुच्छिओ सयाणिएण-तुभ धम्मसत्थे सबपासंडाण आयारा आगया | ते तुम साह, इमोऽवि भणितो-तुमंपि बुद्धिवलिओ साह, ते भणति-बहवे अभिग्गहा, ण णजंति को अभिप्पाओ?, दव जुत्ते खेतजुते कालजुत्ते भावजुत्ते सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ, ताहे रण्णा सबत्थ संदिवाओ लोगे, तेणविर परलोयकंखिणा कयाओ, सामी आगतो, न य तेहिं सबेहिं पयारेहिं गेण्हइ, एवं च ताव एयं । इओ य सयाणिओ चं गावस्या भणिता सा केनचिरकारणेमागता, सातमुखापं श्रुत्वा मृगावती कथयति, सगावस्यपि सं श्रुत्वा महता दुःखेनाभिभूता, सा पेटकहिताऽतीया प्रति प्रगता, राजा धागतः पृष्ठति, तथा भण्यते-किं तव राज्येन मया पा', एवं खामिन एतावन्तं कालं हिण्डमानस्स मिक्षाभिग्रहो न ज्ञायते, न च जानामन्त्र विहरत, तेनामाखिता-तथा करिष्यामि यथा कल्ये लभते, सदा सुगुप्तममात्य शब्दयति अपलभते च-पधा स्वमागर्त स्वामिनं न जानासि, भय किलचतुर्थों मासो हिण्डमानस्य, तदा तत्त्वबादी शब्दितः, तदा स पृष्टः शतानीकेन-तव धर्मपाले सर्वपापण्डानामाचारा आमतालान् त्वं कथष, अवमपि |भणिता यमपि पुदिवली कथष, ती भणता-बहनोऽभिप्रहाः, न ज्ञायते कोऽभिप्रायः, अध्ययुक्तः क्षेत्रयुक्तः कालगुको भावयुक्तः सप्त पिण्षणाः सप्त पानपणाः, तदाराशा सर्वत्र संदिष्टा कोके, तेनापि परलोककाक्षिणा कृताः, स्वाम्यागतः, न च तैः सबै प्रकारकाति, पर्वच सावदेतत् । इतमातानीकबम्पा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं - /गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२२॥ पहाविओ, दधिवाहणं गेण्हामि, नावाकडएणं गतो एगाते रत्तीते, अचिंतिया नगरी वेदिया, तत्थ दहिषाहणो पलाओ, हारिभद्रीरण्णा य जगहो घोसिओ, एवं जग्गहे घुढे दहिवाहणस्स रणो धारिणी देवी,तीसे धूया वसुमती, सा सह धूयाए एगेण १ यवृत्तिः होडिएण गहिया, राया य निग्गओ, सो होडिओ भणति-एसा मे भजा, एयं च दारियं विकणिसं, (५५००)सा तेण विभागा१ मणोमाणसिएण दुक्खेण एसा मम धूया ण णज्जइ किं पाविहितित्ति अंतरा चेव कालगया, पच्छा तस्स होडियस्स चिंता जाया-दुह मे भणियं-महिला ममं होहित्ति, एतं धूयं से ण भणामि, मा एसावि मरिहित्ति, ता मे मोल्लंपि ण होहित्ति ताहे तेण अणुयत्तंतेण आणिया विवणीए उड्डिया, धणावहेण दिहा, अणलंकियलावण्णा अवस्सं रण्णो ईसरस्स वा एसा धूया, मा आवई पावउसि, जत्तियं सो भणइ तत्तिएण मोल्लेण गहिया, बरं तेण समं मम तमि नगरे आगमणं गमण च होहितित्ति, णीया णिययघरं, कासि तुमंति पुच्छिया, न साहइ, पच्छा तेण धूयत्ति गहिया, एवं सा पहाविया, मूलावि ॥२२॥ T मघाविता, दधिवाहनं गृहामि, नीकटकेन गत एकया राज्या, मचिन्तिता रिता नगरी, तत्र दधिवाहनो राजा पलायितः, राज्ञा प पाहो धोपितः, एवं बददे पुरे दधिवाइनस्य राज्ञो धारिणी देवी, तस्याः पुत्री वसुमती, सा सह दुहिना एकेन नाविकेन गृहीता, राजा च निर्गतः,सनामिको भणति-एषा मे भायो, | एतां च बालिका विक्रव्ये, सा तेन मनोमानसिकेन दुखेन एषा मम दुहिता न ज्ञायते किं प्राप्यतीति इत्यन्तरेप कालगता, पचात्तस्य नाविकमा चिन्ता जाता-II दुपु मया भणितं-मबिला मम भविष्यतीति, पता दुहितरं तथा न भणामि, मा एषापि मृतेति, ततो मे मूल्यमपि न भविष्यतीति, तदा तेनानुवर्षयता मानीता विषण्यामू कृता, धनावहेन एटा, मनलस्कृतलावण्याऽवश्वं राज्ञ चिरस्थ वैचा दुहिता, मा मापदःप्रापदिति, यावत्स भणति तावता मूल्येन गृहीता, बरं तेन | समं मम सचिमगरे भागमनं गमनं च भविष्यतीति, नीता निजगृदं, कासि त्वमिति पृष्ठा, न कथयति, पश्चानेन दुहितेति गृहीता, एवं सा अपिता, मूगऽपि JAMEaurat swamirary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन [-1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] नेव भबिया-एस तुज्न भूया, एवं सा तत्थ जहा नियघरं तहा सुहंसुहेण अच्छति, ताएवि सो सदासपरियणो लोगो सीलेणं विणएण य सयो अपण्णिजओ कओ, ताहे ताणि सबाणि भणति-अहो मा सीलचंदणत्ति, ताहे से वितियं । नाम जायं-चंदणत्ति, एवं वच्चति कालो, ताए य घरणीए अवमाणो जायति, मच्छरिजइ य, को जाणति ? कयाति एस एवं पडिवजेजा, ताहे अहं घरस्स अस्सामिणी भविस्सामि, तीसे य वाला अतीव दीहा रमणिज्जा किण्हा य, सो सेट्टी मज्झण्हे जणविरहिए आगओ, जाव नत्थी कोइ जो पादे सोहेति, ताहे सा पाणियं गहाय निग्गया, तेण वारिया, सा मडाए पधाविया, ताहे धोवंतीए वाला बद्धेल्लया छुट्टा, मा चिक्खिल्ले पडिहिंतित्ति तस्स हत्थे लीलाकट्ठयं, तेण धरिया, बद्धा य, मूला य ओलोयणवरगया पेच्छइ, तीए णाय-विणासियं कज, जइ एयं किहवि परिणेइ तो ममं एस नत्थिा जाव तरुणओ वाही ताव तिगिच्छामित्ति सिडिमि निग्गए ताए ण्हावियं सहावेत्ता बोडाविया, नियलेहिं बद्धा, पिट्टिया सेन भणिता-एषा तब दुदिता, एवं सा तत्र यथा निजगृहे तथा सुखसुखेन तिष्ठति, तथापि स सदासपरिजनो कोका पनि विनयेन च सर्व आत्मीयः कृतः, तदा ते सर्वे मनुष्या भणस्ति-अहो इयं शीलचन्दनेति, तदा तस्या द्वितीयं नाम जातं चन्दनेति, एवं मजति काला, तथा च | गृहिण्या अपमानो जापते, मत्सरायते च, को जानाति ? कदाचिदेष एता प्रतिपयेत, तदाऽई गृहस्वास्वामिनी भविष्यामि, तस्यान याला अतीव दीर्धा रमणीयाः कृष्णाब, सश्रेष्ठी मध्याहे जमविरहिते मागतः, यावसास्ति कोऽपि यः पादी शोधयति, तदा सा पानीवं गृहीत्वा निर्गता, तेन बारिता, सा बलात् प्रधाविता, तदा प्रक्षालयन्या वाला यहाश्चुटिताः, मा कर्दमे पप्तन् (इति)सख इसे कीडाकाष्ठं तेन घताः बहान, मूला चावलोकनवरगता प्रेक्षते, तया ज्ञातंविनष्ट कार्य, यदि एतां कथमपि परिणेष्यति तदा ममैप नाति, यावत्तरुणो व्याधिस्तावचिकित्सामि इति हिनि निर्गते वया नापितं शब्दयित्वा मुण्डिवा, | निगडा, पिहिता. RA T पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -1, मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] आवश्यक ॥२२॥ Ta Ta ASACASSAR य, वारिओ णाए परिजणो-जो साहइ वाणियगस्स सो मम नत्थि, ताहे सो पिल्लियओ, सा घरे छोटूर्ण बाहिरि कुहंडिया, हारिभद्रीसो कमेण आगओ पुच्छइ-कहिं चंदणा, न कोइवि साह्इ भयेण, सो जाणति-नूर्ण रमति उवरिं वा, एवं रातिपियवृत्तिः पुच्छिया, जाणति-सा सुत्ता नूणं, बितियदिवसेऽवि सा न दिवा, तत्तिय दिवसे घणं पुच्छइ-साहह मा भे मारेह, ताहे विभागः१ द्राथेरदासी एका, सा चिंतेइ-किं मे जीविएण?, सा जीवउ वराई,ताए कहियं-अमुवघरे, तेण उम्पाडिया, छुहाहयं पिच्छित्ता करं पमग्गितो, जाव समावत्तीए नस्थि ताहे कुम्मासा दिहा, तीसे ते सुप्पकोणे दाऊण लोहारघरं गओ, जा नियलाणि छिंदावेमि, ताहे सा हथिणी जहा कुलं संभरिउमारद्धा एलुगं विक्खंभइत्ता, तेहिं पुरओकरहिं हिययभंतरओ रोवति, सामी य अतियओ, ताए चिंतियं-सामिस्स देमि, मम एवं अहम्मफलं, भणति-भगवं! कप्पइ ?, सामिणा पाणी पसारिओ, चउबिहोऽवि पुण्णो अभिग्गहो, पंच दिवाणि, ते वाला तयवत्था चेव जाया, ताणिऽवि से नियलाणि फुहाणि | % -% E च, वारितोऽनया परिजन:-यः कथयति चणिजः स मम नास्ति, तदा स प्रेरितः(भीतः), तागृहे नित्या कोशागारो मुहितः, स कमेणागतः पृच्छति-क चन्दना कोऽपि कथयति भयेन, स जानाति नून रमते परिवा, एवं राचावपि पृष्टा, जानाति सा सुप्ता नून, द्वितीयदिवसेऽपि साम रहा, तृतीचे दिवसे धनं। पृच्छति-कथयत मा पूर्व मारयत, तदा स्थविरदाखेका, सा चिन्तयति-किं मम जीवितेन, सा जीवतु वराकी, तथा कथितम्-अमुकस्मिन् गृहे,तेनोपाटितं, क्षुधाहतां प्रेक्ष्य कूर प्रमागिता, यावत्समापल्या नास्ति तदा कुश्माषा टाः, तस्यै तान् सूर्पकोणे दवा कोहकारगृहं गतो यचिगवान् छेदयामि, तदा सा इसिसनी पधा कुल संख्ममारब्धा देखी विष्कम्य, तेषु पुरस्कृतेषु दयाभ्यन्तरे रोदिति-स्वामी चातिगतः, तथा चिन्तितं स्वामिने वदामि, ममैतदधर्मफल,IGI भणति-भगवन् ! कल्पते , खामिना पाणिः प्रसारितः, चतुर्विधोऽपि पूर्णोऽभिमहः, पञ्च दिव्यानि, ते वालास्तवस्था एवं आताः, तथा निगवे अपि ते फुटिते * कुद्धम्बिया प्र०. + परियणं प्र० ॥२२४|| JAIMEREST पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४०) [भाग-२८] “आवश्यक”- मूलसूत्र-१/१ (मूलं+नियुक्ति:+वृत्तिः ) अध्ययन -], मूलं [-/गाथा-], नियुक्ति: [५२१], भाष्यं [११४...] ) सोवणियाणि नेउराणि जायाणि, देवेहि य सबालंकारा कया, सक्को देवराया आगओ, वसुहारा अद्धतेरसहिरण्णकोडिओ पटियाओकोसंबीए य सबओ उग्घुटु-केण पुण पुण्णमंतेण अज सामी पडिलाभिओ?, ताहे राया संतेउरपरियणो आगओ, ताहे तत्थ संपुलो नाम दहिवाहणस्स कंचुइज्जो, सो बंधित्ता आणियओ, तेण सा णाया, ततो सो पादेसु पडिऊण परुण्णो, राया पुच्छइ-का एसा ?, तेण से कहियं-जहेसा दहिवाहणरष्णो दुहिया, मियावती भणइ-मम भगिणीधूयत्ति, अमच्चोऽवि सपत्तीओ आगओ, सामि वंदइ, सामीवि निग्गओ, ताहे राया तं वसुहारं पगहिओ, सक्केण वारिओ, जस्सेसा देइ तस्साभवइ, सा पुच्छिया भणइ-मम पिउणो, ताहे सेठिणा गहियं । ताहे सक्केण सयाणिओ भणिओ-एसा चरिमसरीरा, एयं संगोवाहि जाव सामिस्स नाणं उप्पज्जइ, एसा पढमसिस्सिणी, ताहे कन्नतेउरे छढा, संवहति । छम्मासा तया पंचहि दिवसेहिं ऊणा जद्दिवसं सामिणा भिक्खा लद्धा । सा मूला लोगेणं अंबाडिया हीलिया य । सौचणे नूपुरे जाते, देवा सर्वालकारा कृता, शक्रो देवराज भागतः, वसुधारार्धत्रयोदशाहिरण्यकोटयः पतिताः, कोशाव्यां च सर्वोपुष्टं, केन पुनः पुण्यमताय स्वामी प्रतिकम्भितः १, तदा राजा सान्तःपुरपरिजन आगतः, तदा तन्त्र संपुलो नाम दधिवाहनस्य कचकी, समानीतसेम सा ज्ञाता, ततः स पदोः पतिस्वा प्रणः, राजा पृच्छति-पा, तेन तौ कथितं-यथैषा दधिवाहनस्य राज्ञो दुहिता, सुगावती भणति-मम भगिनीदुहितेति, अमात्योऽपि | सपनीक आमतः स्वामिनं वन्दते, स्वाम्बपि निर्गतः, तदा राजा तां वसुधारा ग्रहीतुमारब्धः, शक्रेण बारितः, यी एषा ददाति तस्याभवति, सा पृष्टा भणति| मम पितुः, तदा अधिना गृहीतं । तदा शक्रेण शतानीको भणितः-एषा चरमशेरीरा एतां संगोपय पावरस्वामिनो ज्ञानमुत्पद्यते, एषा (स्वामिनः) प्रथम-| शिष्या, तदा कन्यान्तापुरे क्षिप्ता संवर्धते । पष्मासास्तदा पञ्चभिर्दिवसैरूना यदिवसे स्वामिना भिक्षा लब्धा । सा मूला लोकेम तिरस्कृता दीलिता च।। 5-50-250 T भाग पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[४०] मूलसूत्र-[०१] आवश्यक मूलं एवं हरिभद्रसूरिरचिता वृत्ति: 'आवश्यक'-मूलसूत्र [१/१] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, ___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविध्या, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: आगम [40/1] भाग-२८, नियुक्ति :- (००१-५२१) पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “आवश्यक मूलसूत्र” (मूलसूत्र-१/१) [मूलं एवं हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: - "आवश्यक” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्त: "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-28 ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਤਕ ਸ ਸ ਭਗਤ ਵਲ ਵਧ ਰ ਸ ਨੂੰ ਹਸ मागमान माल्या की सात वाचना शताब्दी वर्ष गरम आज पाँचमणमा यम बनाम पर ~463~ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपख्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा a IHOHROMEOSE ~465~ Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म आजम आम आगम मूल संशोधक .. पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आ आगम 40 "आवश्यक" मूलं एवं वृत्ति: [1] माजमा आणम् आग अभिनव-संकलनकर्ता आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आगम आजम आगम आजम आगम ~466~