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* प्राकृत व्याकरण *
पतिश्रत संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडतुआ होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-७१ ते 'प्र' में स्थित 'का लोप; १-२०६ मे 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर की प्राप्ति; १.८८ से प्राप्त 'डि' में स्थित '' के के स्थान पर की प्राप्तिः १-२६ से प्राप्त '' पर आगम कप अगस्वार की प्राप्ति २-७९ से 'भू' में स्थित "१ का लोपः १-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'ग्' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति भौर १.१५ से अस्प हलन्त पना 'त्' के स्थान पर स्त्री-लिग-अर्थफ 'आ' की प्राप्ति होकर पडसा रूप सिद्ध हो जाता है।
उपरि संस्कृप्त रूप है। इसका प्राकृत कप अवार होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०८ से 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और 1-२६ से अन्य रि' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति होकर अरिं रूप सिद्ध हो जाता है।
अतिमुक्तकम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अणितयं, महमुतयं और अइमत्तयं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में पूत्र-मस्या १-२०८ से ति' में स्थित 'त' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७८ से 'म' का लोप होकर शेष रहे हए स्वर 'ब' पर अमृनासिक को प्राप्ति; २-५७ से 'पत' में स्थित हलात 'क' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क' का कोप; १-१८० से मंतिम 'क्' के लोय होने के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान or 'य' की प्राप्ति ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचन में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रुप 'अणिउतयं मिस हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अतिमुक्तकम् = ) अहमतयं में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'सि' में स्थित स्' का लोपः १.२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में श्यित 'क' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क' का लोप १-१८० से लोप हुए 'क के पश्चात शेष रहे हुए '' के स्थान पर 'घ' को प्राप्ति और शंष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान हो ३.५ और १-२३ से होकर द्वितीय रूप 'अ तयं सिद्ध हो जाता है ।
सृतीय रूप-(अतिमुक्तकम् = ) अमुत्तमं में मूत्र-संध्या १.१७७ से "ति' में स्थिन '' का लोप; २-७७ से 'क्त में स्थित 'क' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हूए 'त' को हित्व 'त' को प्राप्ति; १.१७७ ते मंतिम 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए क' के पश्चात शेष रहे हए 'म' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति और शेष सायनिका की प्राप्ति प्रयम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर ततीय रूप अइमुत्तर्य सिद्ध हो जाता है।
देषनाग-नुवर्ण संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप देव नाग-भुवण्ण होता है। इसमें सत्र संख्या १-२६ से वेब' में स्थित 'व' व्यञ्जन पर बागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-७९ से अंतिम संयक्त घजन 'ण' गॅस्थित रेफ रूप हरून्त 'र' का लोप और २०८९ से लोप हुए रके यश्चात् शेष रहे हए 'ग' को द्वित्व 'ण' को प्राप्ति होकर प्राकृत-गाथा-अंश 'देषनाग-सुषण्ण' सिद्ध हो जाता है । ९-२६ ।।
क्वा--स्यादेणे-स्वोवा ॥ १..२७॥ . .