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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
बोत्साहे थो हव रः ॥२-४८ ॥ उत्साह शब्द संयुक्तमय थो वा भवति तत्सं निगोगे च इस्य रः || उत्थारी उच्छाहो ॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'उत्साह' में रहे हर संयुक्त व्य जन 'स' के स्थान पर विकल्प से 'य' की प्राप्ति होती है । एवं थ' की प्रारित होने पर हा अन्तिम व्यजन ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति हो जाती है । पक्षान्तर में संयुक्त व्यसन ल्स के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति नहीं होने की दशा में अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी र' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-उत्माह:-उत्थारो और पक्षान्तर में लाहो।यों कए-भिनला का स्वरूप समझ लेना चाहिये।
उत्साहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उत्यारो और उच्छाहो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-प्रख्या २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'थ' की प्रामि PE से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति; २४ से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'त' की प्राप्ति, २४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर प्राप्त 'थ' का संनियोग होने से अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप उत्थारो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उच्छाहों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११४ में की गई है ।।२-४८॥
आश्लिष्टे ल-धौ ॥२--४६॥ पाश्लिष्टे संयुक्त पार्यथासंख्य ल ध इत्येतो भवतः ॥प्रालिद्धो ।।
अर्थ---संस्कृत शब्द 'श्राश्लिष्ट' में रहे हुए प्रथम संयुक्त व्यवन श्ल' के स्थान पर 'ल' होता है और द्वितीय संयुक्त व्यजन 'ट' के स्थान पर 'ध' होता है। यों दोनों संयुक्त व्यजनों के स्थान पर यथा-क्रम से 'ल' की और 'ध' की प्राप्ति होती है । जैसे:-आश्लिप: प्रालिद्रो ।
आश्लिष्टसंस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रालिदो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४६ से प्रथम संयुक्त व्यन्जन 'श्ल' के स्थान पर ल' की प्राप्ति; २.४E से ही द्वितीय संयुक्त व्यकजन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति २८६ से प्राप्त 'ध' को द्वित्व 'धध' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्रानि होकर आलिखो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-४६।।
चिन्हे न्धो वा ॥२-५०॥ चिन्हे संयुक्तस्य धो वा भवति ॥ व्हापवादः ॥ पचे सो पि ॥ चिन्धं इन्ध चिएह ॥