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निगोदर हिन्दी व्याख्या सहित -
अर्थ:-संस्कृत शब्द लक्ष' में सभी ग्यान संयुक्त स्थिति वाले हैं। अतः यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'पल' में स्थित 'ल' पञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'ए' में पागम रूप 'अ' की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में होती है। जैसे-लक्षः- पलकखो ।
लक्षः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पलखा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१०३ से हलन्त ध्यञ्जन 'प' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २.८६ से प्राप्त 'ख' फो द्वित्व 'ख ख' की प्राप्ति; ५-६७ से प्राप्त पूर्व ख' को 'क' को गाप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक ववन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मे' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलक्खो रूप सिद्ध हो जाता है । ।। २-१०३ ।।
है - श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित् ॥२-१०४ ॥
एष संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारो भवति ॥ ह ।। अरिहइ । अरिहा ! गरिहा । घरिहो ॥ श्री । सिरी । हो । हिरी ॥ हीतः । हिरीयो ।। अहीकः । अहिरीयो । कृत्स्नः । कसिणो । क्रिया । किरिया ॥ आर्षे तु । हयं नाणं किपा-हीणं ॥ दिष्ट्या । दिद्विना ||
अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में 'ह' रहा हुश्रा है; ऐसे शब्दों में तथा 'श्री, ह्री, कृत्स्न, क्रिया, और दिष्टया 'शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यजनों के अन्त्य व्य-जन के पूर्व में स्थित हलन्त ध्यान में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। जैसे-'ह' से संबंधित शब्दों के उदाहरण:--अर्हति अरिहह ।। अहोः अरिहा ।। गर्दा गरिहा । वहः बरिहो । इत्यादि ।। श्री-सिरी ।। ह्री-हिरी ।। ह्रीत:=हिरीयो । अहीक: अहिरीयो । कृत्स्ना कमिणी ॥ क्रिया-किरिश्रा ॥ श्रार्ष-प्राकृत में क्रिया का रूप किया' भी देखा जाता है। जैसे:हतम् ज्ञानम् क्रिया-हीनम् = हयं नाणं किया-होणं ।। दिष्ट्या दिविश्रा ।। इत्यादि ।
अर्हति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप अरिहा होता है । इस में सूत्र. संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३.१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'ई प्रत्यय की प्राप्ति हो कर अरिहड़ रूप सिद्ध हो जाता है।
अहः संस्कृत विशेषण रूप है । इस का प्राकृत रूप अरिहा होता हैं। इस में सूत्र-संख्या २-६०४ से संयुक्त व्यसन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के यह वचन में अकारांत पुल्जिम में प्राप्त 'जस, का लोप और ३-१२ से प्राप्त और लुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति हो कर अरिहा रूप सिद्ध हो जाता है।
__गहीं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गरिहा होता है । इस में सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त ध्यान 'हो' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रुप 'इ' की प्राप्ति हो कर गरिहा रूप सिद्ध हो जाता है।