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* प्राकृत व्याकरण *
से 'द्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तन् के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रोघिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
लजिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप लजिजरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय तृन' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' श्रादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मी' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लाजिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
जल्पिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप जम्पिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन' के स्थान पर प्राप्त 'इना' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति, २.७८ से 'ल' का लोप; १-२६ से 'ज' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १.३० से आगम रूप से प्राम अनुस्वार के स्थान पर आगे 'प' वर्ण होने से पचमान्त वर्ण 'म्' की प्राप्ति, और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्पिरी रूप सिद्ध हो जाता है।
वैपिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप वेविरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेपिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
अमिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप भमिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-६ से ' का लोप २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भमिरो रूप सिद्ध हो जाता है ।
उच्च वसिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकात रूप ऊससिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या ५- १४ से 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ॐ' की प्राप्ति; मूल संस्कृत शब्द उत् + श्वास का उच्छवास होता है। तदनुसार मूल शरद में स्थित 'त' का सूत्र संख्या २-७७ से लोप; २-७६ से 'व' का लोप, १-८४ से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'श्रा' के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अससिरो रूप सिद्ध हो जाता है।
गमन झीलः संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकृत रूप गमिरो होता है । मूल संस्कृत धातु 'गम्' है;