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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यप की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से दोनों पदीहरं और दीह सिद्ध हो जाते है ॥ २-१७१ ।।
त्वादेः सः॥२-१७२॥ ___ भावे त्व-तल (हे. ७-१) इत्यादिना विहितावादेः परः स्वार्थे स एव त्वादि र्वा भवति ॥ मृदुकत्वेन । मउ अत्तयाई ॥ श्रातिशायिका त्रातिशायिक संस्कृतवदेव सिद्धः । जेदुयरो। कणिद्वयरो॥
al:--वाचार्य मन का मंत व्याकरण में (हे० ७-१-सूत्र में)-भव-अर्थ में 'स्व' और 'तस्' प्रत्ययों की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। प्राकृत-व्याकरण में भी 'भाव अर्थ' में इन्हीं स्व' आदि प्रत्ययों की हो प्राप्ति बकहिपक रूप से तथा 'रष-अब-बोधकता' रूप से होती है। जैसे:-मनुकत्वेन-उत्तयाइ । अतिशयता' सूचक प्रत्ययों से निमित संस्कृत-शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में उन्हीं अतिशयता' सूचक प्रत्ययों को प्राप्ति होती है। वो कि 'अतिशयता-सूचक' अर्थ में संस्कृत में बायें हैं । जैसे:-ज्येष्ठतर जेट्टयरो। इस उराहरण में संस्कृत-रूप में प्राप्त प्रत्यय 'तर' का ही प्राकृत रूपान्तर 'यर' हुआ है । यह 'सर' अथवा 'पर' प्रत्यय आतिशायिक स्थिति का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार :-कनिष्ठतर कणिद्वयरो। इस उदाहरण में भी प्राप्त प्रत्यय 'सर' अथवा 'पर'तार• तम्य रूप से विशष हीनता सूचक होकर आतिशायिक-स्थिति का घोतक है। यों अन्य उदाहरणों में भी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले आतिशामिक स्थिति के छोतक प्रत्ययों की स्थिति प्राकृत-रूपान्तर में बनी रहती है।
मृहकावेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ । मलमत्तयार होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'द्' और 'क' का लोप; २-७१ से 'ब' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को हिस्व 'त की प्राप्ति; ३-३१ को पत्ति से स्त्रीलिग-वाचक अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१८. से प्राप्त स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'आ' के स्थान पर 'म' को प्राप्ति और ३-२६ से तृतीपा विभक्ति के एक पचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मउअसथाई रूप सिक हो जाता है।
ज्येष्ठतरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप जेट्टयरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'म' का लोपः २-७७ से '' का लोप; २.८९ से लोप हुए '' के पश्चात् भेष रहे हए 'ड' के स्थान पर हित्त्व 'छ' को प्राप्ति; २.९० से प्राप्त हुए पूर्व 'ड' के स्थान पर 'द' को प्राप्तिः १-९७७ से 'त' का लोप; १.१८० से लोपाए 'त के पश्चात शेष रहे हए 'म' के स्थान पर 'म' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाराम्स पुल्लिग में 'सि' प्रस्मम के स्थान पर 'यो' प्रत्यप की प्राप्ति होकर जेट्टयरो रूप सिद्ध हो जाता हैं।
फनिष्ठतरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कगिट्टयरो होता है। इसमें पत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष सम्पूर्ण सानिका उपरोक्त 'जंदुयरो' इप के समान ही होकर काणिहयरी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ २-१५२ ।।