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* प्राकृत व्याकरण *
उरूलापषम्त्या संस्कृत तृतीयस्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जल्लावेसीए होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२३१ 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति ४-२३९ से संस्कृत में 'उल्लाप' धातु को चुरादिगण वालो मानने सेवाका विकरण प्रलाय 'अप' के स्थान पर प्राकृत में केवल 'म' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति ३-९५८ से विकरण प्रस्थय के आगे वर्तमान कृदस्त का प्रत्यय 'मत' होने से उक्त विकरण प्रत्यय 'अ'के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति १.५ से प्राप्त 'उल्लाय' के हलन्त व्' में आगे प्राप्त विकरण प्राय के स्थानीय रुप 'ए' को संषि; ३-१८१ से वर्तमान कुवात पावक 'शातु' प्रत्यय के स्थानीय संस्कृत प्रत्यय 'स्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'स' प्रत्यय की प्राप्ति; ३.३२ से प्राप्त पुल्लिग रूप से सीलिंग का निर्माणार्य हो' पम्पय को प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'क' में ''इसंज्ञक होमे से पूर्वस्य 'न्त' में स्थित 'अ' को इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोपः १-५ से प्राप्त हलन्त न्तु' में आगे प्राप्त स्त्रीसिंग अर्षक 'डोई प्रत्यय की संधि और ३.२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में दीर्घ ईकाराम्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'हा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उल्लावन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है।
उअ अध्यय रुप को सिद्धि मूम-संख्या १-१७ में की गई है।
खिद्यन्त्या संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जूरतीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.१३२ से संस्कृत पातु सिद्' के स्थान पर प्राकृत में 'वर'मावेश; ४-२३९ से संस्कृत में 'लिब' धातु में स्थित विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त रूप 'जूर' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' को प्राप्ति; ३-१८१ से वर्तमान कुदन्त वाचक शत् प्रत्यय पस्त' के स्थान पर प्राकृत में भी '' प्रत्यय को प्राप्ति,३-३९ से प्राप्त पुल्सिय रूप से स्त्रोलिंग रूप-निर्माणार्म 'को' प्रत्पय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'अ' में 'इ' संशक होने से पूर्वस्य 'न्त' में स्थित 'अ' को इरसंशा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलात 'न्त' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'खोई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से सतीया विभक्ति के एक वचन में वीर्घ ईकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जूरन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है।
तु. संस्कृत निश्चय वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'तु ही होता है।
भीतया संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत सप भीआए होता है। इसमें मूत्र-संख्या १.१७७ से '' बाहोप; ३-३१ से प्राप्त पुस्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'भाषा ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से लोप हुए 'के परवात शेष रहे हए 'ब' के साथ बा प्राप्त प्रयय रूप 'बा' की संधि होने से 'मा' रूप की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'हा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भीाए रूप सिद्ध हो जाता है।
उवातशीलया संस्कृत विशेषण सप है । इसका प्राकृत रूप दव्यानिरीए होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से '' का लोप; २-८२ से लोप हुए 'ब' से पश्चात् शव रहे हए' को द्वित्व म' को प्राप्ति; १.२०६ से 'स' के थाल पर की प्राप्तिा २-१४५ से रिल-अयंक 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१. से पूर्वस्म में स्मित 'अ' वा का आगे 'पर' प्रत्यय की होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलात में आगे प्राप्त 'र 'को संषि -३२