Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 539
________________ [ ५२५ और (४) संभावना - श्रर्थ में क्रमिक उदाहरण इस प्रकार है: -- (१) निश्चय विषयक दृष्टान्तः- निश्चयं ददामि=ब देमि अर्थात् निश्चय हो मैं देता हूं । (२) विकल्प - अर्थक दृष्टांतः सवति वा न भवति = होइ षणे न होइ अर्थात (ऐसा हो (भी) सकता है अथवा नहीं (भी) हो सकता है । (३) अनुकम्प्य अर्थात् 'दयायोग्य स्थिति' प्रदर्शक दृष्टान्तः- दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्यते दासो वणेन मुरुद अर्थात (कितनी ) दयाजनक स्थिति है ( कि बेचारा ) दास ( दासता से) मुक्त नहीं किया जा रहा है। संभावना दर्शक दृष्टान्तःनास्ति वयन ददाति विधि परिणामः नत्थि बणे जं न देइ विहि परिणामो अर्थात ऐसी कोई वस्तु नहीं है; जिसको कि भाग्य - परिणाम प्रदान नहीं करता हो; तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति का योग केवलं भाग्य - परिणाम से ही संभव हो सकता है । सम्भावना यही है कि भाग्यानुसार हो फल प्राप्ति हुआ करती है । यों 'वर' अव्यय का अर्थ प्रसंगानुसार व्यक्त होता है । # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *******+ 'वणें' प्राकृत - साहित्य का रूढ अर्थक और रूढ रूपक अव्यय है; तदनुसार साधनिका की की आवश्यकता नहीं है । दद्दाभि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप देमि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय दू' का लोपः ३-१५८ से लोप हुए 'दू' के पश्चात शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति १०९० से प्रथम 'द' में स्थित 'अ' के आगे 'ए' की प्राप्ति होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'दु' में आगे प्राप्त 'ए' की संधि और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दो रूप सिद्ध हो जाता है । 'होई' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है । 'म' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। दासः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दासो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३०२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय मि' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दासी रूप सिद्ध हो जाता है । त्यज्यते (=मुच्यते) संस्कृत कर्मणि प्रधान क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुच होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२४६ से कर्मणि प्रयोग में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन '' को द्वित्व 'ब' की प्राप्ति; और ४-२४६ से ही 'च्' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति होने पर संस्कृत रूप में रहे हुए कर्मणि रूप वाचक प्रत्यय 'य' का लोप; ४-२३६ से प्राप्त हलन्त 'च्चू' में 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुचइ रूप सिद्ध हो जाता है। नास्ति संस्कृत अव्यय-योगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप नत्थि होता है । इस (न+अस्ति ) में सूत्र संख्या ३-१४८ से 'अस्ति' के स्थान पर 'अस्थि' आदेश; १-१० से 'न' के अन्त्य

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