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* प्राकृत व्याकरण*
विकसन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापन का रूप है। इसका प्राकृत रूप विसन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप; ४-२३६ से हलन्त धातु 'विश्रम' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति
और ३-१४२ से वर्तमानकोल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। : 'स्वयं संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप अपणो होता है । इसमें सूत्र संख्या -२०६ से 'स्वयं' के स्थान पर "gram' पायोस को पारित होकर 'अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है।
कमल सरांसि संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कमल-सरा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-३२ से मूल संस्कृत शब्द 'कमल-भरस्' को संस्कृतीय नपुंसकत्र से प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'स' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस के पूर्वस्थ 'र' ध्यान में स्थित हरष स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर कमल-सरा रूप सिद्ध हो जाता है।
स्वयम् संस्कृत अव्ययात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप सयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७६ से '' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म' का अनुस्वार होकर सर्य रूप सिद्ध हो जाता है।
'च' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८४ में की गई है।
जानासि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणसि होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृतीय मूल धातु 'झा' के स्थानीय रूप 'जान् के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' श्रादेश; ४-२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'मुण' में बिकरण प्रत्यय अ' की प्राप्ति और ३-१५० से वर्तमानकाल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मुणसि रूप सिद्ध हो जाता है। 'करणिय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.२४८ में को गई है ।। २-२०६ ।।
प्रत्येकमः पाडिक्क पाडिएक्कं ॥२-२१० ॥ प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिक्कं पाडिएक्के इति च प्रयोक्तव्यं वा । पाडिक्कं । पाडिएक्कं । पक्षे । पत्ते ।।
अर्थ:--संस्कृत 'प्रत्येकम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'पाडिक्क' और 'पाडिएक्क' रूपों का प्रयोग किया जाता है। पक्षान्दर में 'पत्तेअं' रूप का भी प्रयोग होता है । जैसे:--प्रत्येकम् - पडिक्क अथवा पाखिएकक अथवा पत्ते।
प्रत्येकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप पाडिस; पाठिएक और पत्त होता हैं। इनमें