________________
*सियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
शंख-शुक्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत कम मज-सुत्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'श' व्यञ्जमों के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १.३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'ख' व्यञ्जन होने से कवर्गीय पश्चम-अक्षर की प्राप्ति; ५-७७ से 'क्ति' में स्थित हलन्त 'क' ध्यान का लोप; २-८६ से लोप हुए 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर सला-भुत्ति रूप सिद्ध हो जाता है।
'च' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। ... पश्य सस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप पुल अ भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से संस्कृत मून धातु दृश' के स्थानीय रुप पश्य' के स्थान पर पूल' आदेश की प्रामि और ३.१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्रम्य प्रत्यय का लोप होकर पुरुष रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२११ ॥
इहरा इतरथा ॥२-२१२॥ इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा ॥ इहरा नीसामनेहिं । पथे । इसरहा ॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'इतरथा' के अर्थ में प्राकृत-साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'इहरा' अध्यय का प्रयोग होता है । जैसे:-इत्तरथा निः सामान्य इहरा नोसामोहिं धर्मात् अन्यथा असाधारण द्वारा(वाक्य अपूर्ण है)। कल्पिक पक्ष होने से जहाँ 'इहरा' रूप का प्रयोग नहीं होगा वहाँ पर 'इभरहा' प्रयुक्त होगा। इस प्रकार 'इनरथा' के स्थान पर 'इहरा' और 'इअरहा' में से कोई भी एक रूप प्रयुक्त किया जा सकता है।
इतरथा संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप इहरा और इअरहा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २.२१२ से 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरो' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहरा सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(इतरथा%3D) इअरहा में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ११८७ से यू' के स्थान पर 'ह' प्रादेश की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इभरहा भी सिद्ध हो जाता है।
नि सामान्य संस्कृत विशेषणरूप है। इसका प्राकृत रूप नीसामहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या २.७७ से विमर्ग रूप 'स' का लोप; १-४३ से विसर्ग रूप 'स' का लोप होने से 'नि' व्यन्जन में स्थित रघ स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-८४ से 'मा' में स्थित दोघं स्वर 'श्रा' के स्थान पर हम्ब स्वर 'अ' की प्राप्ति: २-७८ ले 'य' को लोप; E से लोप हुए 'य' के पश्चात शे; रहे हुए 'न' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया त्रिभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'मिस्' के स्थानीय रूप 'एस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से