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*प्राकृत व्याकरण
तृतीया विभक्ति के बहु वचन में प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्व 'क' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर निसामन्नेहि रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२१६ ॥
- एक्कसरि झगिति संप्रति ॥ २-२१३ ॥ एकसरिअं झगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम् ॥ एक्कसरि । झगिति सांप्रत यो ।
अर्थ:-शीघ्रता' अर्थ में और संप्रति अाजकल' अथ में याने प्रसंगानुसार दोनों अर्थ में प्राकृत-साहित्य में केवल एक ही अव्यय 'एकसरिअ' प्रयुक्त किया जाता है । इस प्रकार 'एक्कसरित्र" अव्यय का अर्थ शीघ्रता-तुरन्त' अथवा 'झटिति' ऐसा भी किया जाता है और 'आजकल-संपति' ऐसा भी अर्थ होता है। तदनुसार विषय प्रसंग देखकर दोनों अर्थों में से कोई भी एक अथ 'एकसरिश्र' अव्यय का किया जा सकता है।
झटिति संस्कृत अव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप एककसरि होता है। इसमें सूत्र संख्या २.२१३ से 'झटिति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिश्र' रूप की श्रादेश-प्राप्ति होकर एक्कसरिमें रूप सिद्ध हो जाता है।
संप्रति संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप एक्कसरिअं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.२१३ से 'संप्रति के स्थान पर प्राकृत में 'एक्करिअं' रूप को श्रादेश-प्राप्ति होकर एक्कसरि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२१३॥
मोरउल्ला मुधा ॥२-२१४॥ मोरउल्ला इति सुधार्थे प्रयोक्तव्यम् ।। मोरउन्ला । मुधेत्यर्थ : ॥
अर्थः-संस्कृत अव्यय 'मुघा='व्यर्थ' अर्थ में प्राकृत-भाषा में 'मोरजल्ला' अव्यय का प्रयोग होता है । जब 'व्यर्थ' ऐसा भाव प्रकट करना हो तो 'मोरउल्ला' ऐसा शब्द ओला जाता है। जैसे:मुधा-मोरउल्ला अर्थात् व्यर्थ (है)।
मुधा संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप मोरडल्ला होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२१४ से 'भुधा' के स्थान पर प्राकृत में मोरउल्ला' आदेश की प्राप्ति होकर मीरउल्ला रूप सिद्ध हो जाता है। ।।२-२१४॥
दराधील्पे ॥ २-२१५ ॥ दर स्त्यव्ययमर्धार्थे ईपदर्थे च प्रयोक्तव्यम् ।। दर-विमसि । अर्धेनेपदा विकसित्तमित्यर्थः ॥