Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 553
________________ "श्रो॥ प्राकृत-व्याकरण में प्रथम-द्वितीय पाद में - सिद्ध किये गये शब्दों की कोष-रूप-सूची [पद्धति-परिचय:-प्रपम शव प्राकृत-भाषा का है; द्वितीय अक्षरात्मक लघु-संकेत HEER SAT को व्याकरणगत विशेषता का सूचक है। तृतीय कोष्ठान्तर्गत शम्न मूल प्राकृत शम्ब के संस्कृत रूपान्तर का अबोवा है और चतुर्थ स्थानीय शव हिन्दी-तात्पर्य बाधक है। इसी प्रकार प्रथम मंक प्राकृत-व्याकरण का पारश्रम बोधक है और अन्य अंक इसी पाव के सूत्रों की कम संख्या की प्रदशित करते।योध्याकरण-गत शब्दों का यह शब-सोष ज्ञातव्य हैं। अ. () और, पुन; फिर, अवधारण, निश्चय | अगायो पु. (अग्रतः) सामने, नागे; १.३७ । इत्यादि १-१-४, २-१४४, 1८८; १९३।। | अग्गी पु (अग्नि) आग; १०२ अइब (अति) मतिशय, अतिरेक, उत्कर्ष, महत्व, अग्धह मंक. (राबते) वह सुशोमित होता है, कमकता पूजा, प्रशंसा आदि अर्षों में प्रयुक्त किया जाता है। है। 1-१८७। १-१६९, २-१७९, २०५७ अकोल्लो पु, मोठः वृक्ष विशेष; १-२००, २-१५५ । अहम्मि थि. (अतीते) म्पतीत अर्थ में; २-२०४।। अंगे (अंग) अंग पर; १७ अंगाई (अंगानि) अत्रमुत्तयं पु (अतिमुक्तकम् ) अयवन्ता कुमार को; शरीर के अवयवों में (अपवा को); १-९३ । १.२६, १८, २०८। अंगहि , अंगः)शरीर के अवयवों द्वारा प्राइमुसयं पु. ( मतिमुक्तकम् ) अपबन्ता कुमार को; १-२६, १७८। अङ्गणं अंगणं न. (अंगगम्) आंगन; १.३०। अइसरिश्र न. (ऐश्वर्यम् । वैभव, संपत्ति, गौरव १-१५१ | अङ्गारों पु. ( अगार:) जलता हुमा कोयला; चन अंसु न. (मश्र आंसु नेत्र-जल १-२६ । साधुओं के लिये मिक्षा का एक दोष; |१-४७ श्रको पु० (अक: ) सूर्य आक का पेठ, स्वर्ण-सोना; अंगु न. (इंगुदम्। इंगुष वृक्ष का फल; 1-८१ । १-१७७, २-७१, ८१। श्रच्चो कि. (मध्यः) पूज्य, पूजनीय; १.१७७ अक्खाइ सफ. आख्याति) वह कहता है; 1-1८७। अच्छअर न. (आश्चर्यम् ) विस्मय चमत्कार; १५८ अनवराण ( अक्षराणाम् ) अक्षरों के, वर्णो के; २-६७। २-१५॥ अच्छपसा स्त्री (अप्सराः) इन्द्र की एक पटरानी; देवी अगणी पु. (अग्निः) भाग; २-१०२। रूपवती स्त्री; १-२०॥ गया पु० देशज =( असुराः । दैत्य, दानव ; २-१७४ अच्छरा स्त्री (असा ) इन्द्र की एक पटरानी; देवी; अगलं पु.न. (अगरूः) सुगंधित काष्ठ विशेष:१-१०७ १-२००२-२२। अगह मि. (अगः) जो बड़ा नहीं ऐसा लघु,छोटा; ] अच्छरिश्रम. ( आश्कर्षम ) विस्मय, चमत्कार; १५८ २-६७।

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