Book Title: Prakrit Vyakaranam Part 1
Author(s): Hemchandracharya, Ratanlal Sanghvi
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણીલાલ શાહ ।। णमो सिद्धाणं ।। ज्ञान महोदधि आचार्य हेमचन्द्र प्रणीतम् प्राकृत-व्याकरणम् [ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहितम् ] प्रथम-भाग हिन्दी-व्याख्याता स्वर्गीय, जैन दिवाकर, प्रसिद्धवक्ता, जगत-बल्लभ पं. रत्न श्री १००८ श्री चौथमलजी महाराज के प्रधान-शिष्य चाल ब्रह्मचारी पं. रत्न श्रमण संघीय उपाध्याय श्री १००८ श्री प्यारचन्दजी महाराज 09000 ------ संयोजक:श्री उदयमुनिजी महाराज-सिद्धान्त शास्त्री ___ संपादकः पं. रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ-विशारद; छोटो गादड़ी, (राजस्थान) . प्रथम संस्करण १००० प्रतिया अर्ध-मूल्य छह रुपया बीराद २४६० । विक्रमाव्द २०२० min No मा ३०५ ३५ सय ५१ करन .. . Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણીલાલ અહ *श्रो. ~: सन्धानुक्रम : विषय व्याख्याता का वक्तव्य ७ संयोजक का प्राक-कथन प्रकाशक के दो शब्द सहायातादाता-सूची संपादकीय-निवेदन हिन्दी व्याख्याता श्री प्यारचन्दजी महा. सा. प्राचार्य हेमचन्द्र प्राकृत व्याकरण-मूल-सूत्र शकृत-ध्याकरण-विषयानुक्रमणिका प्राकृत-व्याकरण-प्रिमोदय हिन्दी व्याख्या परिशिष्ट-भाग-अनुक्रमणिका संकेत-बोष ख्याकरण-भागत-कोष-रूप-शब्द-सूची शुद्धि-पत्र १६-२६ २७-३२ २ १४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ व्याख्याता का वक्तव्य यह परम प्रसन्नता की बात है कि आजकल दिन प्रतिदिन प्राकृत-भाषा के अध्ययन अध्यापन की वृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ रही है। किसी भी भाषा के अध्ययन में व्याकरण का पठन करना सर्व प्रथम पावस्या होता है । . .. . . श्राचार्य हेमचन्द्र प्रणीत प्राकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा के लिये सर्वाधिक प्रामाणिक और परिपूर्ण मानी जाती है । इसका पूरा नाम "सिद्ध हेम शब्दानुशासन" है। यह पाठ अध्यायों में विभक्त हैं, जिनमें से सात अध्यायों में तो संस्कृत व्याकरण की संयोजना है और आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की विवेचना है । प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत-व्याकरण को चार पादों में विमाजित किया है, जिनमें से प्रथम और द्वितीय पाद में तो वर्ण-विकार तथा स्वर-ध्यान से सम्बंधित नियम प्रदान किये हैं तथा अध्ययों का भी वर्णन किया है । तृतीय पाद में व्याकरण सम्बंधी शेष सभी विषय संगुफित कर दिये हैं। चतुर्थपाद में सर्व प्रथम धातुओं का बयान करके तत्पश्चात् निम्नोक्त भाषाओं का व्याकरण समझाया गया है:-(१) शौरसेनो (२) मागधी (३) पैशाची (४) चूलिका पैशाची और (५) अपभ्रंश । ग्रन्थका ने पाठकों एवं अध्येताओं की सुगमता के लिये सर्व प्रथम संक्षिप्त रूप से सार गर्भित सूत्रों की रचना की है; एवं तत्पश्चात् इन्हीं सूत्रों पर "प्रकाशिका" नामक वोपज्ञ वृप्ति अर्थात् संस्कृतटीका की रचना की है। प्राचार्य हेमचन्द्र कृत यह प्राकृत व्याकरण भाषा विज्ञान के अध्ययन के लिये तथा आधुनिक अनेक भारतीय भाषाओं का मूल स्थान ढूढने के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इसीलिये श्राजकल भारत को अनेक युनीवरमीटीज याने सरकारी विश्व विद्यालयों के पाठ्यक्रम में इस प्राकृत. ध्याकरण को स्थान दिया गया है। ऐसी उत्सम और उपादेय कृति की विस्तृन किन्तु सरल हिन्दी व्याख्या की अति प्रावश्यकता चिरकाल से अनुभव की जाती रही है; मेरे समीप रहने वाले श्री मेघराजजी म०, श्री गणेशमुनिजी, श्री उद्यमुनिजी आदि सन्तों ने जब इस प्राकृत-व्याकरण का अध्ययन करना प्रारम्भ किया था तब इन्होंने ने भी आग्रह किया था कि ऐसे उच्च कोटि के अन्य की सरल हिन्दी व्याख्या होना नितान्त आवश्यक है। जिससे कि अनेक व्यक्तियों को और भाषा प्रेमियों को प्राकृत-व्याकरण के अध्ययन का मार्ग सुलभ तथा सरल हो जाय । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधान प्राचार्य श्री १००८ श्री श्रात्मारामजी महा. सा., शास्त्रज्ञ पं. रत्न श्री कस्तूरचन्दजी महाराज, पं. मुनि श्री प्रतापमल जी महार, श्री मन्नालाल जी भहा. एवं श्री पन्नालालजो महा० आदि सन्त मुनिराजों को भी प्रेरणा, सम्मति, उद्बोधन एवम् महयोग प्राप्त हुआ कि प्राकृत व्याकरण सरीखे मन्थ को राष्ट्रभाषा में समुपस्थित करना अत्यंत लाभदायक तथा हितावह प्रमाणित होगा। तदनुसार विक्रम संवत् २०१६ के रायचूर (कर्णाटक-प्रान्त ) के चातुर्मास में इस हिन्दी व्याख्या प्रन्थ को तैयार किया। श्राशा है कि जनता के लिये यह उपयोगी सिद्ध होगा। इसमें मैंने ऐसा क्रम रखा है कि सर्व प्रथम मूल-सूत्र, तत्पश्चात् मूल प्रन्थकार की ही संस्कृत-वृत्ति प्रदान की है; तदनन्तर मूल-वृत्ति पर पूरा २ अर्थ बतलाने वाली विस्तृत हिन्दी व्याख्या लिखी है; इसके नीचे ही मूल वत्ति में दिये गये सभी प्राकृत शब्दों का संस्कृत पर्यायवाची शब्द देकर तदनन्तर उस प्राकृत-शबद की रचना में पाने वाले सत्रों का क्रम पाद- पान करते गुण मान्य मानिकी रचना की गई है। यो ग्रन्थ में आये हुए हजारों की संख्या वाले सभी प्राकृत शब्दों की अथवा पड़ों की प्रामाणिक रूप से सूत्रों का उल्लेख करते हुए विस्तृत एवं उपादेय साधनिका की संरचना की गई है। इससे प्राकृत-शब्दों की रचना-पद्धति एवम् इनकी विशेषता सरलता के साथ समझ में आ सकेगी। पुस्तक को अधिक से अधिक उपयोगी बनाने का भरसक प्रयत्न किया है, इसीलिये अन्त में प्राकृत रूपावलि तथा शटर-कोप की भी संयोजना करदी गई है। इससे शब्द के अनुसंधान में अत्यन्त सरलता का अनुभव होगा । श्री. पी. एल. धैद्य द्वारा सम्पादित और श्री भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इंस्टीट्यूट, पूना नं. ४ द्वारा प्रकाशित प्राकृत-व्याकरण के मूल संस्कृत-माग के आधार से मैंने "प्रियोदय हिन्दी-व्याख्या" रूप कृति का इस प्रकार निर्माण किया है। एतदर्थ उक्त महानुभाष का तथा उक्त संस्था का मैं विशेष रूप से नामोल्लेख करता हूं। श्राशा है कि सहृदय सज्जन इस कृति का सदुपयोग करेंगे। विशेषु किम् बहुना ? दीय मालिका विक्रमाय २०१६ रायचूर (कर्णाटक) प्रस्तुतकर्ता उपाध्याय मुनि प्यारचन्द ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य हेमचन्द्र भारतीय साहित्य के प्रांगण में समुत्थित श्रेष्ठतम विभूतियों में से आचार्य हेमचन्द्र एक पवित्र एवं दिव्य विभूति हैं। सन् १०८८ तद्नुसार विक्रम संवत २१४५ को कार्तिक पूर्णिमा बुधवार हो इन लोकोत्तर प्रतिभा संपन्न महापुरुष का पवित्र जन्म दिन है। इनकी अगाध बुद्धि, गंभोर ज्ञान और चलीकिक प्रतिभा काम करना जैसे के लिये अत्यंत कठिन है। आपको प्रकर्ष प्रतिभा से उत्पन्न महा मंगल-मथ ग्रन्थ राशि गल साढ़े आठ सौ वर्षों से संसार के सह्रदय विद्वानों को श्रानन्द-विभोर करती रही है; तथा असाधारण दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर स्वामी के गूढ़ और शान्तिप्रद आदर्श सिद्धान्तों का सुन्दर रीति से सम्यक् परिचय कराती रही है। साहित्य का एक भी ऐसा अंग अछूता नहीं छूटा है; जिस पर कि आपको अमर और थलौकिक लेखनी नही चलो हो; न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, रम, अलंकार, नीति, योग, मन्त्र, कथा, चरित्र, श्रादि लौकिक, अध्यात्मिक, और दार्शनिक सभी विषयों पर आपकी ज्ञान-परिपूर्ण कृतियाँ उपलब्ध हैं । संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में आप द्वारा लिखित महत्वपूर्ण एवं भावमय साहित्य स्त में है। कहा जाता है कि अपने बहुमूल्य जीवन में आपने साढ़े तीन करोड़ श्लोक प्रमाण जितने साहित्य की रचना की थी। महान् प्रतापी राजा विक्रमादित्य की राज संभा में जो स्थान महाकवि कालिदास का था एवं गुणज्ञ राजा हर्ष के शासन काल में जो स्थान गय-साहित्य के असाधारण लेखक पंडित प्रवर बाणभट्ट का था; वही स्थान और वैसी ही प्रतिष्ठा आचार्य हेमचन्द्र को चौलुक्य वंशी राजा सिद्धराज जयसिंह की राज्य सभा में थो। मारिप के प्रवर्तक परिमात महाराज कुमारपाल के तो आचार्य हेमचन्द्र साक्षात् राजगुरु. धर्म-गुरु और साहित्य गुरु थे ! आपका जन्म स्थान गुजरात प्रदेश के अन्तर्गत अवस्थित "धंधुका" नामक गाँव है । इनके माता पिता का नाम क्रमशः "श्री पाहिनो देवा" और 'श्री चावदेव " था । ये जाति के मोढ़ महाजन थे । आपका जन्म-नाम "चंगदेव" था। आश्चर्य की बात है कि जिस समय में आपकी आयु केवल पाँच वर्ष की ही थी, तभी श्री देवचन्द्र सूरि ने इन्हें "जैन साधु" को दीक्षा प्रदान करके अपना शिष्य बना लिया था । यह शुभ प्रसंग वि० संवत् १९५० के माघ शुक्ला चतुर्दशी शनिवार के दिन संपन्न हुआ था । उस समय में आपका नाम "चंगदेव" के स्थान पर सोमचन्द्र निर्धारित किया गया था । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४.) दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात आपके जन्म-जोत गुण तथा सहजात प्रतिभा और सर्वतोमुखी बुद्धि स्वयमेव दिन प्रतिदिन अधिकाधिक विकसित होती गई । जिस संयम में श्रापकी आयु केवल इक्कीस वर्ष को ही थी, तभी आप एक परिपक्व प्रकांड पंडित के रूप में प्रख्यात हो गये थे । आपकी असाधारण विद्वसा एवं अनुपम प्रतिभा से आकर्षित होकर श्री देवचन्द्र सूरि ने वि० संवत् ११६६ के वैशाख शुक्ला तृतीया के दिन मध्याह्नकाल में खंभात शहर में चतुर्विध श्री संघ के समाने श्रापको आचार्य पदवो प्रदान की और आपका शुभ नाम उस समय में "प्राचार्य हेमचन्द्र सूरि" ऐसा जाहिर किया । गुजरात नरेश सिद्धराज जयसिंह के आग्रह से आपने संस्कृत, प्राकृत भाषा का एक आदर्श और सरल किन्तु परिपूर्ण तथा सर्वात संपन्न व्याकरण बनाया; जो कि "सिद्ध हेम शब्दानुशासन" के नाम से विख्यात है। आप ने उक्त व्याकरण के नियमों की सोदाहरण-सिद्धि हेत "संस्कृत इयाश्रय' और "प्राकृत-द्वयाश्रय" नामक दो महाकाव्यों की रचना की है। जो कि काव्य और व्याकरण दोनों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। ये काव्य वर्णन-विचित्रता और काव्य-धमत्कृति के सुन्दर उदाहरण हैं। बड़ी खूबी के साथ कथा-माग का निर्वाह करते हुए व्याकरण-गत नियमों का क्रमशः समावेश इनमें कर दिया गया है। दोनों काथ्यों का परिमाण क्रमशः २८२८ और १५०० श्लोक संख्या प्रमाण है। संस्कृत काव्य पर अभय तिलक गणि की टीका और प्राकृत काव्य पर पूर्ण कलश गरिण की टीका उपलब्ध है। दोनों ही काव्य सटीक रूप से बम्बई संस्कृत सीरीज (सरकारी प्रकाशन) द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। ____ "ध्याकरण और काव्य" रूप ज्ञान-मन्दिर के स्वर्ण-कलश समान चार कोष मन्थों का भी प्राचार्य हेमचन्द्र ने निर्माण किया है। जिनके क्रमशः नाम इस प्रकार हैं:-(१) अभिधान चिन्तामणि; (२) अनेकार्थ संग्रह; (३) देशी नाममाला और (४) शेष नाम मालो । भाषा विज्ञान की दृष्टि से ' देशी नाम माला" कोष का विशेष महत्व है । यह कोष पूना से प्रकाशित हो चुका है। रस और अलंकार जैसे विषयों का विवेचन करने के लिये आपने काव्यानुशासन नामक ग्रन्थ की रचना की है । इस पर दो टीका ग्रन्थ मी उपलब्ध है। जो कि क्रमशः "अलंकार चूड़ामणि" और "अलंकार-वृत्ति-विवेक'' के नाम से विख्यात हैं। छन्द-शास्त्र में "छन्दानुशासन" नामक आपकी कृति पाई जाती हैं। इसमें संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं के छन्दों का अनेक सुन्दर उदाहरणों के साथ विवेचन किया गया है। आध्यात्मिक विषय में आपको रचना 'योग-शास्त्र' अपर नाम 'अध्यात्मोपनिषद्' है । यह ग्रन्थ मूल रूप से १२०० श्लोक प्रमाण है । इस पर भी बारह हजार श्लोक प्रमाण स्वोपज्ञ दीका उपलब्ध है। स्तोत्र ग्रन्थों में बोतराग-स्तोत्र" और "महादेव-स्तोत्र" नामक दो स्तुति ग्रन्थ आप द्वारा रचित पाये जाते हैं। अति-विस्तृत और अति गंभीर 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र" तथा परिशिष्ट पर्व प्रन्थ आपकी कथात्मक कृतियाँ हैं । इन प्रों की कथा-वस्तु की दृष्टि से उपयोगिता है । इतिहास के तत्त्व भी इनमें हूँढने से प्राप्त हो सकते हैं। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) न्याय-विषय में "प्रमाण-मीमांसा" नामक अधूरा प्रन्थ पाया जाता है। इनकी न्याय-विषयक बत्तीसियों में से एक "श्रन्ययोग व्यवच्छेद" है और दूसरी "अयोग व्यवच्छेद" है । दोनों में प्रसाद गुण संपन्न ३२-३२ श्लोक हैं । उदयनाचार्य ने कुसुमांजलि में जिस प्रकार ईश्वर की स्तुति के रूप में न्यायशास्त्र का संथन दिया है उसी तरह से इनमें भी भगवान महावीर स्वामी की स्तुति के रूप में षटदर्शनों की मान्यताओं का विश्लेषण किया गया है । श्लोकों की रचना महाकवि कालिदास और स्वामी शंकराचार्य की रचना-शैली का स्मरण कराती है । दार्शनिक श्लोकों में भी स्थान स्थान पर जो विनोदमय अंश देखा जाता है; उससे पता चलता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र हंसमुख और प्रसन्न प्रकृति वाले होंगे। "अन्य-योग-व्यवच्छेद" बत्तीसी पर मल्लिषेण सूरि कृत तीन हजार श्लोक प्रमाण "स्याद्वाद मन्जरी" नामक प्रसाद गुण संपन्न भाषा में सरल, सरस और ज्ञान-वर्धक व्याख्या अन्य उपलब्ध है । इस व्याख्या प्रन्थ से पता चलता है कि मूल कारिकाएँ कितनी गंभीर, विशद अर्थ वाली और सच कोटि को है। इस प्रकार हमारे चरित्र-नायक की प्रत्येक शास्त्र में अव्याहत गति दूरदर्शिता, व्यवहारज्ञता, एवं साहित्य-रचना-शक्ति को देख करके विद्वान्तों ने इन्हें "कलिकाल-सर्वज्ञ" जैसी उपाधि से विभूषित किया है । पीटर्सन श्रादि पाश्चिमात्य विद्वानों ने तो प्राचार्य श्री को Ocean of Knowledge अर्थात् शान के महा सागर नामक जो यथा तथ्य रूप वाली उपाधि दी है। वह पूर्ण रूपेण सत्य है । ___ कहा जाता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्रशंसनीय जीवन-काल में लगभग डेद लान मनुष्यों को अर्थात तैतीस हजार कुटुम्बों को जैन-धर्मावलम्बी बनाये थे। अन्त में चौरासी वर्ष की आयु में आजन्म अखंड प्रमचर्य व्रत का पालन करते हुए और साहित्य-प्रन्थों की रचना करते हुए संवत् १२२६ में गुजरात प्रान्त के ही नहीं किन्तु सम्पूर्ण भारत के असाधारण तपोधन रूप इन महापुरुष का स्वर्गवास हुश्रा । आपके अनेक शिष्य थे, जिनमें श्री रामचन्द्र आदि सात शिष्य विशेष रूप से प्रख्यात हैं । अन्त में विशेष भावनाओं के साथ में यही लिखना है कि प्राचार्य हेमचन्द्र की श्रेष्ठ कृतियों, प्रशस्त जीवन और जिन-शासन-सेवा यही प्रमाणित करते हैं कि आप असाधारण विद्वान, महान जिन-शासन-प्रभावक और भारत की दिव्य विभूति थे। अनन्त चतुर्दशी विक्रमाद २०१६ । । रतनलाल संघवी छोटी सादड़ी, (राजस्थान) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल-सूत्राणि प्राकृत व्याकरणस्य प्रथमः पादः अथ प्राकृतम् | १-१ | बहुलम्। १-२ ओम् १०३ । दीर्घ- स्त्री मिथो वृत्त। १-४ | पदयोः संधि १.५ । न युवर्णस्य स् । १-६ । एदोतोः स्वरे । १७ | स्वरस्यो। १-८ |त्यावेः १-६ लुक्। १-१० । अन्त्यव्यञ्जनस्य । १-११ । न श्रदः । १-१२ / निदुर्वा १-१३ |स्वरेत्तर १-१४ । त्रियामादविद्यतः । १- १५ । रो रा १ - १६ धो हा। १-१७ शरदादेरत्। १.१८ ॥ दिक् प्रावृपोः सः १- १६ रसरसीव १२० । ककुभो हा १-२१ धनुषी वा १-२२ | मनुम्बरः । १-२३ | या स्वरे मश्च १-२४ | इ-न-ण-नो व्यक जने । १-२५ विकादावन्तः । १-२६ |त्वा स्यादेर्णव । १-२७ | विंशत्या देलुका १०८ मांसादेव १२६ वर्गेन्त्यो वा । १-३० प्रवृद शरत्तरणयः पुंसि । १३१ | स्नमदाम शिरो नमः । १-३२ | वाच्यर्थ वचनायाः। १३३ । गुणाद्याः क्लीबे वा । १-३४ मजल्याचाः स्त्रियाम्। १-३५ । बाहीरात्। १३६ । अतो दो विसस्य १-३७ (निष्प्रतीप मायस्थ १६ ||: । १-३६ त्याव्ययात् तत्स्वरस्य लुक् । १-४० पादपेत्र ९-४१ । इते: स्वरात् तश्चद्विः। १-४२ |लुन य-स्य श ष स श ष स दीर्घः । १-४३ / सः समृध्यारो धा ।१-४४ १४५ ||१-४६ पत्रकाकार - ललाटे वा । १-४७ मध्यम कतमे । द्वतीयस्या १-४८ सप्तपर्णे वा १-४६ | १५० रे बा। १-५५ ध्वनि-विश्वचोरुः । १-५२ बन्द्र - सिद्धते णा वा । १-५३ मव वः । १- ५४। प्रथमे प-धोशी १-५५ ज्ञो णत्वे - भिज्ञादौ । १-५६ (एच्छय्यादौ । १-५७ वायुत्कर- पर्यन्तार्ये बा १-५८ ब्रह्मचर्ये चः। १-५६. तोन्तरि। १-६० श्रोत्। १-६९ नमस्कार - परस्परे द्वितीयम्या १-६२ । वापी १-६४ | नात्पुनर्याई का १-६५ वालाब्धरण्ये लुक्। १-६६ |वाव्ययोत्खातावदातः । १-६७ घन वृद्ध व १-६८ महाराष्ट्र १-६६ । मांसादिष्वनुस्वारे। १-७० श्यामाके मः १-७१ इःसदादी वा १-७२ आचार्ये चोच्च १-७३ |ई:स्यान खल्वाटे । १-७४ ।उः सास्ना-स्तावके। १-७५ | उद्वासारे। १ ७६ | आर्यायां यः श्वश्वाम् १-७७ ।। १७८ द्वारे वा । १२७६ [पारापतेरोवा १-८० मात्रटि वा १-८१ उदोगा। १-८२ ओदाल्यां पंौ १-८३ स्वः संयोगे १-८४ इत एद्वा । १८५ | किशुके या १-८२ । मिरायाम्। १८७ | पथिपृथिवो प्रतिश्रन्मूषिक-हरिद्रा-बिभीत के ध्वत् । १८८ | शिथिलेश दे बा १८६ तित्तिरी : १-६० ततो वाक्याद १-६१ ईर्जिया सिंह- त्रिंशद्विशतीत्या) १-६२ लुकिनिरः | १-६३ | द्वियोरुत् | १४ | प्रवासीत । १-६५ | युधिष्ठिरेा । १-६६ | ओषद्विधाकृगः । १-६७ वा निर्झरेना १-६५ हरीतक्यामीतोत्। १-६६ / आकश्मीरो १-१०० |पानीयादिवित्। १-१०१ | उब्जीर्णे । १-१०२ (ऊर्हीन- विहीनेत्रा १-१०३ तीर्थे । १-१०४ | एल्पीयूष पीड-बिभीतक की दृशेदृशे । ९-१०५ नीड-पीठे वा १-१०६ । उतोमुकुलादिष्वत्। १.१०७ । वोपरी १-१०८ गुरौ के बा। १-१०६ |इभुंकुटौ । १-११० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( १७ ) पुरोः। १-१११ (ई: जुते । १-११२ उत्सुभग-मुसले वा १-११३ / अनुत्साहोत्सने सच्छे १-११४ लुकि दुरो वा १-११५ । श्रत्संयोगे । १-११६ | कुतूहले वा हस्वञ्च । १-११७ । अदूतः सूक्ष्मे वा। १-११८ | दुकूले बालश्रद्विः । १-११६ | ईर्वोद्वयूढे । १-१२० | उ-हनुमत्कएयवातूले। १-१२१ मधूकेषा १-१२२ | इतनूपुरेवा १-१२३ ओत कूष्माण्डी तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल गुडूची मूल्ये १-१२४ / स्थूणा तूऐवा । १-१२५ ।। १-१२६ बोत्कृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा १-१२७ इत्कृपादौ । १-१२८ | पृष्ठेवानुत्तरपदे १-१२६ मिसृण-मृगाक मृत्युशृङ्ग-धृष्टे वा १-१३० |उत्बाद। १-१३१ | निवृत्त वृन्दारके बा। १-१३२ वृषभे वा । १-१३३ । मौणान्त्यस्याः १-१३४ |मातुरिद्वा । १-१३५ | उन्मृषि। १३६ । दुत्तवृष्टि-पृथङ - मृदङ्ग नप्तृके। १-१३७ वा बृहस्पतौ । १-१३८ । इदेदोद्धृन्त १-१५६ । रिः केवलस्य । १ - १४० ऋण वृषभत्कृषौ वा । १-१४१ : क्विपू-टक्सकः। १-१४२ । द्विः। १-१४३ प्ते । १-१४४ । लृत इलिः क्लृपक्लृन्ने। १-१३५। एत इद्वा वेदना-चपेटा देवर- केसरे । १-१४६ रुने वा १-१४७ पत एतू! १-१४८ इत्सैन्धव-शनैश्वरे। १-१४६ | सैन्ये वा । १ - १५० | अइत्यादो । १-१५१ [बैरा वा। १-१५२ पच्च देवे। १-१५३ | उच्चैर्नीचस्यैश्चः । १- १५४ ई०। १-१५५ श्रोतोज्ञान्योन्य - प्रकोष्ठातोय शिरोवेदना-मनोहर सरोरुहे क्लोव वः। १-१५६ |ऊत्सोच्छ्वासे । १-१५७ |गव्य- आश्वः । १-१५८ |श्रत श्रत् । १-१४६ । उत्सौन्दर्यादौ । १-१६० | कौक्षेयके धा १९६१ : पौराचा १- १६२ | आच्च गौरवे । १-१६३ । नाव्यावः ॥ १-१६४ । एत्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वरव्यखनेन १-१६५ |स्थविर - विच किलायस्कारे ।१-१६६ वा कदले १-१६७ ( वेतः कर्णिकारे । १-१६८ वेत्। १-१६८ श्रोत्तर-धदर नवमालिका नवफलिका- पूगफले । १-१७० न वा मयूख-लव-चतुगुण चतुर्थ-चतुर्दश चतुर्वार सुकुमार-कुतूहलो दूखलोलूखले । १-१७१ | अनापते । १-१७२ ऊबोपे। १-१०३ । उमी निषणे। १-१७४ । प्रावरणे श्रङ गवाऊ। १-१७५ स्वरादसंयुक्तस्थानादेः । १-१७६ |क-गन्च-ज त-द-पय-यां प्रायो लुक्। १-१७७।यमुना-चामुण्डा कामुका तिमुक्तके मोनुनासिकश्च । १-१७८ नावत्पः श्रुतिः। १-१८० कुज कर्पर कीले क. खोपुष्पे । १-१८१ मरकत मदकले गः कन्दुके त्वादेः। च: । १-१८३ | शीकरे महौ वा । १-१८४ । चन्द्रिकायां मः १-१८५ निकष- स्फटिक चिकुरे हः। -ध-भाम् ॥१-१६ पृथक घो वा । १ १८८। शङखले ख:कः ११-१८६ पुन्नाग-भागिन्योर्गे मः ॥१- १६०॥ छालः | १ १६१। ऊबे दुभंग-सुभगेवः । १-१६२ । खचित-पिशाचयोवः स-ल्लौ वा । १-९६३ जटिले जो झो षा |१-१६४२ टो डः ॥ १-१६५ सटा शकट- कैद ढः ११-१६६/ स्फटिके लः ॥१-१६७७ चपेटा पार्टी वा । ९-१६८ कोढः ॥१-१६६१ अोठ ल्लः । १-२००१ पिठरे हो वा रच उ: ।१ २०१३ डो लः । १ २०२० देणौ णो वा । १- २०३ । १-५६ | अवर्णो १-१८२ । किराते १-९८६ । खध । प्रत्यादौ डः | १ -२०६ । सप्ततौरः ॥१-२१० तुच्छेत छौ वा ॥१-२०४ | तगर - असर- तूबरे बः । १- २०५ । गर्भितातिमुक्तके णः (१-२०८) रुदिते दिना णः | १- २०६ ।१-२११। पलिते वा ।१-२९२ ॥ पीते वो ले वा ॥ १-२१३० वितस्ति- वसत्ति - भरत - कातर- मातुलिङ्ग हः ॥१-२१४| मेथि-शिथिर- शिथिल प्रथमे यस्य ढः ११-२१५२ निशीथ - पृथिव्योर्वा ॥१-२१६ दशन- दष्ट-दग्ध दोला-परळ-दरदाह दम्भ दर्भ- कवन दोहदे वो वा खः ।१-२१७१ देश होः । १-२१८| संख्या- गद्गदे रः । १-२१६ | कदल्यामङ्कुमे |१-२२० । प्रदीप दोहदे लः ॥ १-२२१ । कदम्बे वा ॥१-२२२३ दोपौ धोका ११-२२३ | कदर्थिते वः ॥१-२२४१ देहः । १-२२५॥ निषधे घोढः । १-२२६। घौषवे ।१-२२७॥ नो णः । १-२२८ वादौ ।१-२२६१ निम्न-ना पिते इत्वे वेतसे |१ -२०७/ अतसी - सातवाहने लः Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल-गह वा ॥१-२३०1 पो वः ।।१-२३१॥ पाटि-पुरुष-परिघ-परिवा-पनस-पारिभद्र फः ॥१-२३२। प्रभुते का ॥१.२३३श नीपापीडे मो था ।१-२३४। पोपों रः ।१-२३५। फो महौ ।१-२३६। बो यः ।१-२३७। बिसिन्यां भः ।१-२३८। कयन्धे म यौ।१-२३ । फैटमे भो वः ।१-२४०। विषमे मोटो बा १-२४१॥ मन्मथे बः ।१-२४२। वामिमन्यो ।१-२४३॥ भ्रमरे सो वा ।।२४४| आइयों जः ।१-२४५। युष्मद्यर्थपरेतः ।१-२४३॥ यष्टयां स: ११.२४७) षोत्तरीयानीय-तीय कृयज्जः १-२४६ लायायां हो कान्ती वा । १.२५६डाह-वौ कतिपये ।१-२५०१ किरि-भेरे रोडः।१-२५११ पर्याणे डावा ।१-२५३ । करवीरे णः ।१-२५३६ हरिद्रावी लः।१-२५४। स्थूले-लो र ।१-२५५/ लाहल-लाल-लाङ्ग ले वादेणः 1१-२५६/ ललाटे च । १-२५७। शबरे यो मः । १.२५८स्वप्न नीव्योर्वा ।१-२५६। शपोः सः ११-२६०१ रनुषायां रहो न वा १-२६११ दश पाषाणो हः ।१-२६२। दिवसे सः ११-६३। हो धोनुस्वारात 1१-२६ षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेधादेश्यः ।१-२६५। शिरार्या वा १.२६६। लुग माजनदनुज-राजकुले जः सरवरस्य न वा 1१-२६७ व्याकरण-प्राकारागते कगोः ।१.२६८। किसलय-कालायस हृदये अः ११-२६६। दुर्गादेव्युदुम्धर-पादपतन-पादपीठन्तदः ।१-२७०/ यावसाजीविताधर्तमानावट-प्रावारकदेवकुलैवमेवे वः ॥ १-२०॥ प्राकृत व्याकरणस्य द्वितीयः पादः संयुक्तस्य १२-१४ शक्त मुक्त-पष्ट-गण-मदुत्वे को वा १२-२क्षः खः क्वचित्त छ-झौ ।२-३, कस्कयोनाम्नि २-४। शुष्क स्कन्दे वा २५येटकादौ ।२-६) स्थाणायहरे ॥२- स्तम्भे स्तो षा २८) य. ठावस्पन्दे ।२.६। रक्त गो वार-१०। शुरुके शो का११कृति चत्वरे चः ॥२१त्योचैत्ये । २-१३। प्रत्यूषेपश्च हो वा २-१४॥ वश्व-द-ध्याय-छ-ज-माः क्वचित् ।२-१५। वृश्चिके श्वन्धुर्षा ।२-१६१ छोत्यादी ॥२-१७ समायों को।२-१८/ ऋसेवा २-१६। हरणे उत्सार-२०हस्वान ध्य-श्व-स-सामनिश्चले २-२ सामथ्योत्सुकोत्सवे का १२-२२। पहायाम् (२-२३। वय्यां जः ॥२-५४। अभिमन्यौ ज-खौ वा २-२५॥ साम्यस-ध्य-या मः ॥२-२६। ध्वजे या ।२०२७) इन्धी झा । -२८। वृत्त प्रकृत-मृत्तिका-पत्तन कर्थिते दः ।२.२६॥ तस्याधूलादी ।२-२३०। वृन्ते एटः (२३श ठोस्थि-विसंस्थुले । ३२ म्यान चतुर्थार्थे वा ।२-३३। दृत्यानुष्ट्रघा. संदष्टे ।२-३४॥ गर्ने ।२-३५॥ समई-विसर्दि-विच्छर्दछर्दि-कपई मदिले दस्य ।२-३६ गर्दभे वा ।२-३० कन्दरिका-भिन्दिपाले राष्ट्रः ।२-३। स्तब्धे ठ-दौ ।२-३६1 दग्ध विवन्ध-वृद्धि-वृद्धे ढः ॥२-४०1 श्रद्धर्द्धि-मूर्धान्ते बा १२-४॥ म्नझोर्णः १२.४२। पञ्चाशत्पञ्चदश-दो-४३. मन्योन्तो ना।२०४४। स्तस्य था समस्तस्तम्बे ।२-४५॥ स्तवे वा २.४६ पर्यस्त थ-टौ ॥२-४७: बोत्साहे थोइश्चरः ३.४८ आश्लिष्ठ ल-धो ।२३। चिहन्धो वा ।२-५० भस्मात्मनो पो था ।१५। डग-मोः ।२-१२। प-स्पयोः फः ॥२-५३। भीषो मः ॥२-५४| श्लेष्मणि वा ।-५५/ ताम्रान म्बः।-५क्ष हो भी वा ॥२-५७) वा विल्लले बी वश्च ।२-५८| वोर्चे ।२.५६। कश्मीरे म्मो चो 1२-६० न्मी मः ॥२-६१। ग्मो यो ।.६२ प्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य शौराष्ट्रीय योरः ॥२-६३॥ धैर्ये पा-६४। एतः पर्ये ते १२-६५॥ श्राश्चर्ये ।१६। अतो रिश्रार-रिजरीअं १२-६७) पर्यस्त-पर्याणसौकुमाय-लः ॥२-६८ बृहस्पति-बना-पत्योः सो वा २-६६। बाप हो अणि ।२-७०/ कापिणे ।२-७१। दुःख-दक्षिण तीर्थे वा २.७५ कूष्मारडयो मो लस्तु एडो वा ।२.७३ । पदम-श्म-म-स्म-झा म्हः ॥२-७४। सूक्ष्म Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ( १९ ) श्म-ष्ण-रुः ह्र-हृ-दणौयहः ।२२७५ हो : २७६ क-गट-उ-तदपशप पामूर्ध्वं लुक १२-७७ अधो म-न-याम् ।२-७८। सर्वत्र तब रामवन्द्र २.७६ द्रेरोन वा २८० धात्र्याम् १२.८१४ तीच णः (२ ८२ । ज्ञो नः ।२-८३ । मध्याह्न ६ २४ | दशा २८५ यादेः श्मश्र श्मशाने १२.०६ | श्री हरिचन्द्र १२-८७| रात्रौ वा ॥ २८८॥ श्रनादौ शेषावेशयार्द्वित्वम् ॥२८६ । द्वितीय तुवयोरुपरि पूर्वः | २६०। दीर्घे वा | २-६१| न दीर्घानुखारात् । २.६१ रह: ।२-६३ । धृष्टद्युम्ने णः | २-२४| कर्णिकारे वा १२६ |--६६। समासे वा । २-६७ तैलादी २६८ सेवादौ वा । २०६६। शानात्पूर्वोत् ।२.१००। दमा लाषारत्नेन्त्यव्यञ्जनात् । २-१०२ नेहाग्नया ।२.१०२ / प्लते लात् । २- १०३ ई-श्री-हो-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित् ।२-१०४। शर्ष-तप्न बज्रे वा | २-५०५३ लात् १२-१०३ । म्याद भव्य चैत्य- चौर्यसनेषु यात् ॥ २-१०७/ स्वप्नेनात् |२-१८८ स्निग्धे वांतौ । २ १०६ । कृष्णे वर्णे वा । २ ११० उच्चाईति । २ -१११| पद्मा मूर्ख-द्वारे वा १०-११२। तन्वोतुल्येषु । २-११३१ एकम्बरेधः वे /२०११४: ज्यायामीत् १२-१९५॥ करेणू-वाराणस्यां रोत्ययः ।२-११६। आलाने लताः ॥२-११७॥ श्रचलपुरे चलोः | २०११८| महाराष्ट्र हरोः | २-११६/ हृदे हन्दी १२-१२० । हरिताले र खोने वा । २-१२१। लघुके ल- हो: ।२-१२२१ ललाटे ल-होः | २- १२३ : २-२४ स्तोकस्य थोक थो थेषाः १२-१२५॥ दुहितृभगिन्योधू आ हियौ । २ १२६ । वृक्ष-प्रियो रुख ढौ ।२.१२७॥ वनिताया लिया | २-१६ गौणत्येषत क्रूर: १२-१२६ स्त्रिया इत्थी १२-१३० धृतेर्दिहिः १२-१३२० मार्जारस्य मञ्जर-बञ्जरौ । ।२-१३२| वैडूर्यस्य वेरलियं । २-१३३॥ एहिं एता इदानीमः | २ - १३४ | पूर्वस्व पुरिम: (२-१३५ बस्तस्य हित्य-तट्ठी | २-१३६॥ बृहस्पती बझे भयः । २- १३७ मलिनोभय शक्ति- कुमारध-पातेइलावह-सिप्पि-लिकाढत्त-पाक्कं २-१३ दाया दाढा | २-१३६ | बहिसी बाहिंबाहिरी 1२-१४० अ | २- १४१| मातृ-पितुः स्वसुः सिमा छौ । २-१४२ ॥ तिर्यचस्तिरिद्धिः | २-१४३ । गृहस्य घरोपसौ । २-१४४ शीला चर्थस्र: ।२-१४५ वस्तुमत्त तुप्राणाः । १४६ मर्थस्य केरः । २-१४७] पर-राजय कडिको च |२-१४८ | युष्मदस्मदोष एव यः ।२-१४६ | वर्तेर्षः २- १५० | सर्वाङ्गदीनस्येकः १२-१५११ क्यो यस्येकट |२-१४२॥ ईयस्यात्मनो यः | २०१५३॥ स्वस्य हिमा-तौ वा । २ १५४ | अनोठा रौलस्य डेल्लः | २- १५५ यत्तदेतदतोरिति एव च । २-२५६ इकमा डेत्तिम-डेत्तिल-डेद्दा: । २- १५७ कृत्वसो हु। २-१५८। चिल्लोल्लालवन्तमन्ते शेर-मणा मन्तोः १२-१५६ तो दो तसो वा । २-१६०। त्रपो हिन्हन्त्याः ॥२- १६१। बैकाहः सि सि इ | २-१६२ / डिल्ल-डुल्लौ भवे ॥२- १६३ | स्वार्थे कश्च वा | २-१६४१ ल्लो नचैकाद्वा ।२-१६५। उपरेः संव्याने । २-१६६ । षो मया मया | २-१६७॥ शतैसो डिम् | २-१६८। मनाको न वा दर्य च । २-१६६। मिश्राड्डासिंअः । २- १७० रां दीर्थात् /२-१७१) त्वादेः सः ॥२- १७२ / विद्युत्पत्र-पीतान्वाल्लः ॥२-१७३। गोणादयः ।२-१७४॥ अव्ययम् । २- १७५ । तं वाक्योपन्यासे । २- १७६ । आम अभ्युपगमे । २-१७७२ णवि वैपरीत्ये ।२-१७८| पुणरुतं कृतकरणे । - १७११ हन्दि विषाद-विकल्प पश्चात्ताप-निश्चय - सत्ये २-१८० हद च गृहाणार्थे ।२-१८१ मि पिष वि व्य व विश्र इवार्थे वा १२-१८२ । जेण तेण लक्षणे | २०१८ घर वे विश्व च अवधारणं १०-१८४ बले निर्धारण- निश्चययोः | २-१३ ५। किरेर हिर किलार्थे वा ११- १८६१ वर केले ।२-१८७० थानन्तर्ये वरि ।२-१८८। अलाहि निवारणे २- १८६१ पण गाई नपयें | २-१६०| माई मार्थे ।२-१६१८ हद्धी निर्वेदे | २-१६२। वे भय चारण- विषादे | २-१६३/ वेष्व च मन्यसे Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) | २-१६४ | मामि हा हले सख्या वा | २-१६५ | दे संमुखीकरणे च । २- १६६ हुं दान-पृच्छा निवारणे १२-१६०| छु खु निश्चयचितर्क संभावन-विस्मये | २-१६८ / ऊ गक्षेप विस्मय- सूचने । २- १६६ / थू कुत्सायाम् ।२-२०० | रे अरे संभाषण- रतिकलहे । २- २०१ हरे क्षेपे च । २- २०२ श्री सूचना पश्चात्तापे २ २०३ । श्रवो सूचना- दुःख- संभाषणापराध-विस्मयानन्दादर भय-खेद-विवाद पश्चात्तापे | २- २०४ | ६ संभावने । २ - २२५ | निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ।२-२०६ । मणे विमर्श ।२-२००७ अम्मो श्राश्वर्ये २-२०८ स्वयमोर्ये पो न वा ।२-२०११ प्रत्येकमः पाहि पाढिएक्क्रं १२-२१० | उ पश्य । २-२११ । इहरा इतरथा | २-२४ एक्कसरि वित्ति संप्रति २-२१३ । मोरउल्ला मुधा ।२-२१४। दश २०२१५६ किलो प्रश्ने १२-२१६। इजे-राः पादपूरणे । २-२१७| याच्यः ।२-२१८| प्राकृत व्याकरणस्य तृतीयः पादः वात्स्याये स्वरे मोगा । ३-१ | अतः सेर्डीः 1३-२१ चैतत्तदः | ३ ३३ जस-शमोलुक् ॥ ३-४ | श्रमोस्य । ३-४ | दा - मोर्णः | ३-६ । भिसो हिहिहिं ॥३०७॥ बसेस् तो दो-दु-हि- हिन्तो-लुकः | ३.८ । भ्यसस् तो दो दुहि हिन्तो सुन्तो (३०६ | इसः रसः । ३-१०। डेमिक : १३-११। जस्- स ङसि सोदो- द्वामिदीर्घः १३-१२) भ्यसि वा (३-१३। टारा - शस्येत् । ३-१४ मिम्भ्यसुषि ।३-१५१ इदुतो दीर्घः । ३- १६। चतुरो वा (३-१७० लुप्ते शसि १३-१८ | अक्लीये सौ |३-१६। पुसि जसोडा ३-२० घोतो डयो | ३ २१| जम् शोणवा १३-२२| सि-सोः पु'-क्लोबे वा १३-२३१ टोणा १३-२४) क्लीचे स्वरान्म से १३- २५ | जस्-शम ई-ई-णयः सप्राग्दीर्घाः | ३ २३॥ स्त्रियामुदोतौ वा ३-२ ईतः संश्चावा २ टा-इ-रेदादिदेद्वा तु बसेः १३-०६ नात यात् । ३-३०। प्रत्यये ङीर्नवा । ३-३१ श्रजातेः पुंसः ३-३२॥ किं यत्तस्यमामि ॥३-३३ छाया-हरिद्रयोः १३-२४| स्वस्रा | ३-३५। ह्रस्वोमि १३-३६ | नामन्यात्समः १३-३७ डो दीर्घो वा ३-३८) द्वा३-३६ नाम्न्यरं वा । ३-४०| बाप ए ३-४९। ईदूतोहस्यः १३ ४२ विव: ।३-४३ ऋतामुदस्य मौसु वा । ३-४४ ॥ आरः स्यादौ । ३-४५ वा अरा मातुः | ३ ४६ । नान्यरः । ३-४७ सौ न वा ३-४८ राज्ञः ३ ४१| जस शस्इसिङसांणो । ३-५०। टोणा । ३ ५११ इर्जस्य णो णा हौ ।३-५२२ हणममामा | ३-५३1 ईम्यिसाम्सुपि १३-५४। आजस्यटा-छसि उस्सु साणोष्षण १३-५५ पुस्यन श्राणो राजवच्च । ३ ५६ | श्रात्मनो णित्रा इआ ॥३-५७| अतः सर्वादेर्डेर्जस: । ३-५८ ङ सिम्मि-स्थाः ॥३-५६१ न बानि वमेतदो हिं । ३-६२॥ श्रमो डेलि | ३-६१। किंतद्भयां डामः ३.६२॥ किंचन्यो उसः १३-१३। ईद्रयः सासे | ३-६४ | डोह डाला इआ काले । ३-६५) असेम्हां । ३-६६। तदो डोः १३-६५१ किमो डिपो डीसौ ।३-६८ इदमेतत्किं यत्तद्भयष्टो डिया १३-६६। तदो णः स्यादौ क्वचित् । ३-७०१ किमः कखोश्च । ३-७११ इदम इम: १३०७२ | पु-स्त्रियोर्न वायमिमिश्रा सौ १३-७३ | सिसयोरत् ।३-७४ | मैनहः । ३-०५। न त्थः । ३-५६ । सोम-शस्टा-भिसि ।३-७७२ श्रमेणम् ३८) क्ली बेस्य मेदमिएमो व ३-७६ फिमः किं । ३-८०) वेदं तदेतदो असम्भ्यां से सिमौ ३-८१) वैत्तदशे ङसेस्तो 'प्ताहे ॥३-८२। त्थे च तस्य लुक् ॥३-०३। परदीत म्मो वा । ३-८४ वैसेणमिणमोसिना १३-८५) तदश्च तः सोक्लीये | ३-८६ ॥ वादसो दस्य होनोदाम ३-मुः स्यादौ । ३८ म्मावयेश्री वा २३-५६॥ युष्मदस्तं तु Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१) तुवं तुह तुमं सिना ।३-६८ मे तुम्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उव्हे-जसा ।1-४१॥ तं तु तुम तुर्व तुझ् तुमे तुए अमा १३.६२। वो तुज्झ तुम्भे तुम्हे उरई भे शसा ।३-६३। भे दि दे ते तह तए तुम तुमइ तुमए तुम तुमाइ टा १३-६४) मे तुम्भेहि उज्मेहि उम्हेहिं तुम्हेहि जव्हहिं भिसा |३-६५। तह-तुव-तुम-तुह-तुष्मा असी ॥३-६६। तुग्रह तुम्म नहिन्तो उमिना ।३-६७) तुम्भ-तुम्हीयहोम्हा भ्यसि ॥३-६। तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुई-तुव-तुम-तुमेन्तमोतृमाइ-दि-द-इ-ए-तुठभाभीयहाबसा |३.६E! तु को भे तुम तुम तबमाण तुपण तुमाण तहाण उम्हाण अामा ॥३-१००। तुम तुमए तुमाइ तइ तए जिना |३-१०१। तु-तुव-तुम तुह-तुम्भा डौ ।३.१०२। सुपि । ३-१०३। भो म्ह-ज्झौ वा ३-१०४ अरमदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अयं सिना ॥३-१०५) अम्ह अम्हे अन्ही मो वयं थे जैसा ।३-१०६॥ पामे अम्मि अम्ह मम्ह मं मम मिमं अहं अमा ।३.१०७८ अम्हे अम्हो अम्ह रणे शमा १३.१८८० मि मे ममं ममप ममाइ मइ मग मयाइ रणे टा (३.१६। अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे णे भिसा ३-११० मह-मम-मह-मज्मा सौ ३-१.११ ममाहौ भ्यसि ।३-११२१ मे मह मम मह महं मम ममं अम्ह अम्हं बसा ३-११३। णे णो मन्म अम्ह अह अम्हे-अहो अम्हाण ममाण महाण मज्माण प्रामा ।३-११४। मि मइ ममाइ मए मे मिना ॥३-११५॥ श्रम्ह-मम-मह-मज्झा छौ ।३-११६। सुपि १३-१६७ ब्रेस्ती तृतीयादौ ।३.११८४ वर्दो वे ।३.११६। दुधे दोरिण वेरिण च जस्-शसो ।३.१२) स्तिरिण: ३-१२। चतुरश्रत्तारी चउरो चत्तारि १३ १२२ । संख्याया अामो रह एहं ।३.१२३। शेषे वन्तवत् ।३-१२४॥ न दीर्घो रणो ।३-१२५ सेलु क ।३-१२६। भ्यपश्च हिः ॥३-१२७ हु: ।३-१२८। पत ३-१२६। द्विवचनस्य बहुवचनम् ।३ १३॥ चतुर्थाः षष्ठी ।३-१३१॥ तादथ्य वा ॥३-१३२। वधाढाइश्च या १३-१३३॥ क्वचिद् द्वितीयादेः ।३.१३४। द्वितीया-तृतीययोः सप्तमी ।३-२३॥ पञ्चम्योस्तृतीया च ॥३-१३६। सप्तम्या द्वितीया (३-१३७। यहोयलुक्न ।३.१३८॥ त्यादीनामायत्रयम्यायस्येचेचौ ।३.१३६॥ द्वितीयस्य सि से ।।-१४० तृतीयस्य मिः ॥३-१४१बहुवावस्य न्ति न्ते हरे ।३-१४२ । मध्यम-स्येत्था-हचौ ।३-१४३॥ तृतीपस्य मो-मु-माः ।३.१४४। अत एवं च से ।३-१४॥ सिनास्तेः सिः ॥३-१४३ मि-मो-मैम्हि म्हो म्हा वा ।३.१४७॥ अत्थिस्त्यादिना (३-१४८/ णेरदेदावावे ॥३-१४६। गुर्वावरवि ॥३-१५०। भम्रगलो वा ।३-१५१लुगावी क्त-भाव-कर्मसु १३-१५२) अदेल्लुफ्यादेरत श्राः १३-१५३। मौ वा । ३-१५४। इव मो-मु-मे वा ॥३-१५५। क्त ३-१५६। एच क्त्वा-तुम्-तव्य भविष्यत्सु १३-१४०। वर्तमाना-पञ्चमी-शमषु वा ॥३-१५८। जा-जे ।३-१५६। ईन-इज्जौक्यस्य १३-१६० शि-वीस-डुवं ।३-१६१। सी ही ही भूतार्थस्य ३-१६। ध्यानादीपः ॥३-१६३। तेनास्तेरास्यहेसी ॥३-१६४। जात्सप्तम्या इर्वा ।३.१६५। भविष्यति हिरादिः ।३.१६६। मि-मो-मु-मे स्सा हा न वा १३-१६७। मो-मु-मानां हिस्सा हिस्था १३-१६८। मेः सं १३-१६६। कृ-दो हं ।३-१७०। श्रनामि-रुदि-विदि-दशिमुधि-वचि-छिदि-भिदि भुजां सोच्छ गच्छं रोच्छं वेच्छं दच्छं मोच्छं वोच्छं छेच्छ भेच्छं भोच्छं ३-१७१। सोच्छादय इजादिषु हिलुक् च वा ॥३-१७ । दु सु मु विध्यादिध्वे कमिस्त्रयाणाम् ।३.१७३। सोहि ॥३-११ अत इजस्विजहीजे-लुकोवा ३-१७५। बहुणु न्तु ह मो ॥३-१७६। वर्तमाना-भविष्यन्त्योश्च ज्ज ज्जा वा १३-१४७। मध्ये च स्वरान्ताद्ध। ।३-१७८० कियातिपत्तेः ॥३-१७६ । न्त माणौ ॥३-१८० शबानशः ३-१८॥ई च खियाम् ।३.१८॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९). प्राकृत व्याकरणस्य चतुर्थः पादः इदिसो वो ।४-११ कर्जज्जर-पाजरोगाल-पिसुण-संघ योल्ल घघ जम्प-सीम साहाः ॥४२॥ दुःखेणिन्वरः।४ ३१ जुगुप्सेझुण दुगुच्छ दुगुल्छाः ४४. बुभुक्षि-वोज्योर्णीख-वोजी ।४-५ च्या गोमां-गौ ।४-६। झो जाण मुरणौ ॥४॥ उदो मो धुमा, ४. श्रदो धो दहः ।४.६। पिबेः पिज्ज हल्ल पट्ट-धोट्टाः १४-१०॥ उदातेरोरुम्मा वसुश्रा १४.१३ निद्रातेरोहीरोचौ ४-५२। श्राधे राइग्धः ।४-१३॥ स्नासेरभुत्तः ।४-१४. समः स्त्यः खाः ।४-१५) स्थष्ठा थक चिट्ठ निरप्पाः ।।१६। उदृष्ट कुकरौ ।४-१५) म्लेर्या पथ्यायौ ।४-१८/ निर्मा निम्माण निम्मवौ ।४-१६। क्षणिज्झरो वा ४-२०१ छदेणेगम नूम सन्नुम तकौम्बाल पधालाः '४-२१। निधि पत्याणिहोडः ॥४-२२। दूको दूमः।४-२३॥ धवले मः ।४ २४॥ तुलेरोहामः ॥४-२५॥ विरिचेगेलुण्डोल्लुण्ड. पल्हत्थाः।४२५॥ तहेराहोड-विहोडौं।४-२४) मिर्वीसाल मेलौ ।४-२८) उद्धलेमुण्ठः [H-२६) भ्रमेस्तालिअण्ट-तमाडौ ।४ ३०। नशेविड-नासव-हाख विप्पगाल-पलावाः ॥५-३१॥ दृशेव-दस-दक्खवाः ॥४-३२॥ उद्घटेसनमः ।४-३३॥ स्पृहः सिहः १४-३४। संभावेरासंघः ।४-३५ उन्नमेरुत्थघोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेल्लाः ।४-३६। प्रायाः पट्टवरेण्डयौ ।४-३७ विज्ञापेक्काबुक्की ।४-३८॥ अरल्लिव वाचुप्प-पणामाः ।४-३६) यापेर्जयः १४-४० लावरोवाल-पालौ ।४-४१। विकोशेः पापोडः।४-४२। रोमन्थेरोगगाल-बग्गोनी ।४-४३। कमेरिणहुयः ।४-४॥ प्रकाशेणुचः ॥४-४५१ कम्पेविच्छोलः ।४-४६। पारांपेर्चलः ॥४-४७/ दो ले-लोलः ॥४-४। रक्ष रावः ।४-४६। घटे परिवाडः ४-५०१ वेष्टेः परिचालः ॥४-५१। क्रियः किणो वस्तु कके च ।४-१२। भियो भा-बीहो ।४-५३। श्रालीकोल्ली ५-५४। मिलोणिलोअपिलुस्क-गिरिग्ध लुक्कलिक्क-हिङ्गका (४-५५॥ विलीविरा ४-५७ रुरुक्षरुण्टौ ।४-५८। धूगेधु वः ।४-५६) भुधेही हुव-हवाः ।४-६०। प्रवित्ति हु. १४.६१। पृथन स्पष्टे रिणवहः ।४-६२। प्रभौ हुप्पो वा ।४-६३। तेहः ।४-६४ ऋगेः कुणः ।४-६५। कारणेक्षिते णिभारः।४-६६। निष्टम्भावष्टम्भे निटूह-संशएं.।४-६७। श्रमे वावस्फः '४-६० मन्युनौष्ठमालिन्ये णित्रोल: ।५.६६। शैथिल्य-लम्बने पयल्लः ।४-७०/ निष्पाताच्छोटे णीलुब्छः ।४-७१। कर कम्मः ।४-७२। चाटौ गुलला ।६-७३। स्मरेझर-झर-भर भल-लद-विम्हर सुमर-पयर-पम्हुहाः ४.७४। विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः।४-७५| म्यागेः कोक पोकौ ।४-७६। प्रसरः पयल्लोवेल्लौ ।४.७७१ महमहो गन्धे ।४--1 निस्सरेणीहर-नोल-घाडवरहाडाः ।४-७६। जाग्रेजग्गः ॥४-८० च्याप्रेराअडद्धः ॥४-८१॥ संगेः साहर-साहट्टौ ।४-८२१ आरके समामः ।४-८२ प्रहगे सारः।-८४) अवतरेरोह-ओरसी।४-शशकेश्चय-तर-तोर-पाराः।४.८६। फकास्पक ।४-८० म्लाघः सलहः ।५-८८ खर्चेअडः।४-८६/ पन्नेः सोल्ल पउलौ ।४-१०। मुचेश्छन डावहेड-मेल्लोस्सिका रेषव-णिल्लुन्छ-भंसाडाः ।-६१. दुःखे णिज्यल:४-१२। पञ्चवहवन्वेलव-जूस्खोमध्छाः १४-६३। रपेहग हावह-विडनिड्डाः ।४-६४) समारचेनवहत्थ-तारख-समार-केला याः ।४-६५ सिचेः सिञ्च-सिम्पौ ।४-६६१ प्रच्छः पुच्छः 18-६७) गर्जेबुक्कः ।४-८। वृषे दिनमः ।४-६६) राजेरम्घ-छज्ज-सह-रीर रेहा: 18-१०॥ मस्जेराउड्ड-णिउद्द-बुड-खुप्पाः।४-१०१३ पुजेरायोल-बमालो ।४-१०२। लस्जे महः ।१-१०॥ तिजेरोसुक्क 1४-१०४) मृजेरुग्घुस-लुछ-पुन्छ-पुस फुस-पुस लुह-हुल-रोसाणाः।४-१०५१ मा वमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड चिर-पविररूज-फरकज नीररूजाः ।४-१०६) अनुवजेः पलिअग्गः ॥४-१०७। अर्जेविढयः ।४-१०८युजो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३) जुज जुन-जुप्पाः ।४-१२६ । शुजो भुज-जिम-जेम-क्रम्माण्ह-चमद-समाण चड्डाः ।४-११८। वोपेन कम्मवः १४.११११ घटेरादः ।४-११२। समो गलः ।४.११३। हासेन स्फुटमुरः ।४-११४। मण्डोचिच-चिञ्चत्र-चिञ्चिल्ल-रोड टिविडिकाः ।४-११५॥ तुडेस्तोबतु-खुट्ट-खुडोक्खुखोल्लूक्क-णिलुक्क लुक्कोल्लूराः ॥४-११६६ घूर्णो धुल-घोल घुम्न-पहल्लाः ।४-११७। विवृतन्डेसः ।४-११८। क्वथेरहः ॥४-११६। प्रन्थेर्गण्ठः ।४-१२०॥ मन्ये. घुसल-विरोलौ ।४-१२१॥ हादेख अच्छः ॥४-१२२। नेः सदो मज्जः ।४-१२३॥ छिदेदुहाव रिएछल्ल-णिझोडणिव्यर-गिल्लूर लूराः ।४-१२४। आम ओपन्दोद्दालौ ।४-१२५। मृदो मल-मट-परिह-ख-चा-मह-पन्नादाः 18-१२६। स्प-देश्चुलुचुलः ।४-१२७४ निरः पदेईलः ।४-१२८. विसंवदेविप्र-बिलोट्ट-फंसाः।४-१६६। शदो मडपलोडौ ।४.१३०। पाकन्देीहरः ।४-१३१। खिमेजूरः विसूगै ।४-१३२॥ रुधेरत्यक्बः १४-१३३॥ निषेधेहक्कः ।४-१३४। धेरः ।४-१३५। अनी जा जम्मी ।४-६३६: सस्तह-ततध-विरल्लाः ।४.१३७१ सृपस्थिापः १४.१३८। उपसरल्लिनः ।४-१३६। संतः४-१४० च्यापेरोअग्गः ।४-१४१। समागे: समाणः ।४-१४ क्षिपेर्गलस्थाबुक्ख-सोल्ल-पेल्ल-गोल्ल-छुह-हुल-परी पत्ताः ॥४-१४३। उत्क्षिपेगुलगुब्छोत्थंघाल्लल्योरभुत्तो. रिसफा हक्खुवा १४-१४४। माक्षिीरवः ।४-१४५॥ स्वपः कमवस-लित-लोट्टाः ।४-१४६/ वेपेरायम्बायझी १४-१४७। विलपेम-वडवाडौ ।४-१४८। लिपो लिम्पः ४-१४६ । गुण्येविर णडौ ।४-१५०। कपोवहीणिः।४-१५१॥ प्रदीपेस्तेव-सन्दुम-सन्धुक्कामुत्ताः ।४-१५२१ लुभेः संभावः ।४-१५३। चुभेः खउर-पड्डुहो ।४-१५४1 को रभे रम्भादवी ।४-१५५॥ उपालम्भेझ पचार-वेलवाः ।४-१५६। अवेज़म्भो जम्मा ॥४-१५७/ भाराकान्ते नमेणिसुद्धः।४-१५८। विश्रमेणिवा ।४-१५६) अाक्रमेरोहा वोत्थारच्छन्दाः ॥४-१६०। भ्रमेष्टिरिटिल्ल-दुएदुल्ल-ढण्ढल्ल-चम्म-भम्मड-भमड-ममाड-तल-अण्ट-झण्ट-झम्प भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुम-परी-पराः ४. १६१। गमेरई-अइच्छागुवज्जायजसोफ्कुसाक्कुस-पचड़ पच्छन्द-णिम्मह-जो-णीण-णीलुक-पदा-रम्भ-परिमल्ल-बोल-परिअल णिरिणास-रिणवहादसेहावहराः।-१६२/ पान अहिपच्चुत्रः।४-१६३। समा अभिडः १४-१६४ अभ्याडोम्मत्थः ।४-१६५। प्रत्याका पलोट्टः ।४.१६६। शमेः पद्रिसा-परिसामौ ।४-१६७। रमेः संखुड़खेडोभाव किलिकिश्च-कोट्ट म-मोट्टाय-णोसर-वेल्लाः १४-१६८। पूरेरग्घाडाघयोद्धमा गुमाहिरेमाः ४-१६६। स्वरस्तुवर-जउडौ ।४-१७०त्यादिशवोस्तूर: १४-१७१। तुरोत्यादौ ।४-१७२। तरः खिर झर-पग्झर-पच्चरणिश्चल-णि प्राः ।४-१७३उच्छल उत्थल्लः ।४-६७४। विगलेस्थिप्प-णिद दुहौ ।४-१७५॥ दलि-वल्योर्विसट्टधम्फो ।४-१७६। भ्रशेः फिष्ठ-फिटूट-फुट-फुट-चुक मुल्लाः ।४-१७७। नशेर्णिरणास-णिवहादसेह-पडिसासेहावहराः ।४.१७८। अयात्काशो वास: ।४-१७६) संदिशेरप्पाह: ।५-१८०। दशो निमच्छापेच्छाययच्छाक्यज्म - वज्ज – सम्बद –दे स्खो - अखावक्खावअक्ख - पुलोत्र -- पुलमनिआवश्वास-पासाः । ४-१८५ । स्पशः फास-फंस-फरिस-छिव-छिहालुशालिहाः । ४-९८२ | प्रविशे रिः ।४-१८३) प्रान्मश-मुधोम् सः।४-१०४। विषेणिवहारिणरिणाम-रिपरिणज्ज-रोचचड़ाः।१-१८॥ भषेभुकः ।४-१८६) कृषः कट्ट-साअड्डाञ्चाणच्छायच्छाइछा: 18-१६७ असावाखोडः ४-५८८ गवेषेदुण्दुल्ल-ढण्ढोल-गमेस-वत्ताः ।४.१८६४ श्लिषेः सामग्गाषयास-परिचन्ताः [४-E01 म्रक्षेश्वोप्परः १४-१६१। काले राहिलवाहिलधु-वच्च बम्फ-मह-सिह-विलुम्पाः ।४.१६२) प्रतीक्षः मामय विहीर-विरमालाः ॥४-१६३। तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः १-१६४ विकसे: कोबास-वोसट्टौ ।४-११५/ हसेगुनः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) ४-१९६१ नसेलहस-डिम्मी ४-१६ व सेर्डर-योज-धज्जाः।४-१६मा न्यसो णिम-गुमौ ।४-१६६ पर्यंसः पलोट्टपल्लट-पल्हन्थाः ।४-२००निःश्वसमशः ।-२०१। उल्लसेरूसलोसुम्भ-णिल्लम-पुलाअ-गुखोल्लारोत्राः १४-२०२। भासंर्भिसः ।४-२०३। प्रसेप्रिंसः ।४-२०४। अवाद्गगाहर्वाहः १४-२०५। प्रारुहेश्वड-बलगौ ।४-२०११ मुगुम्म-गुम्मडौ ।४-२०७। दहेरहिउलालुद्धौ ।४-२०८। महो वल-रह-हर-पङ्ग-निरुवारा हिपचुआः।४-२०६१ क्वा-तुम्-तव्येयुप्रेत् ४.२१०) वचो वोत ।४-२११। रुद-भुज-मुरांतोन्त्यस्य ।४-२१२. दृशस्तेन टुः ।४-२१३/ था कगों भूत-भविष्यतोश्च ।४-२१४ गमिष्यमासां छः ।४-२१५॥ छिदि-भिदोन्नः ४-२१६। युध-बुध-गृध-धसिंध-मुहां झः ।४-२.१७) रुधौन्ध म्भौध ।४-२१८. सद-पतोहः ।४-२१६। क्वथ-वर्धा ढः ।४-२२०। बेष्टः १४-२२२। समो ल्लः !४-२२२। वोदः । २-२२३॥ स्थिदा जः ।४-२२४ा ब्रजनत-मदा कचः ॥५-२२५॥ मत-नमोर्वः 1४-२२६। उद्विजः ४.२२७। खाद-बाबोलुक् ।४-२२८ सृजो रः ।४.२२६ शकादीनां द्वित्वम् ।'४-२३०स्कुटेचले ।४-२३१॥ प्रादेर्माले: ४-२३२) उवणस्यावः।४-२३३। ऋवर्णस्यारः ।४-२३४। वृषादीनांमरिः ।४.२३५॥ रुषादीनां दीर्घः ४।-२३६। युवर्णस्य गुणः ।४-२३७। स्वराणां स्वराः ४-२३८। व्यञ्जनाददन्ते ।४-२३६) स्वरादनतो वा ।४-२४०1 चि-जि-अ-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो ह्रस्वश्च ।४-२४। नवा कर्म-भावे वः क्यस्य च लुक् ।४-२४३१ म्मश्च ।४-२५३श हन्खनोन्त्यस्य १४-२४४ उमो दुह-लिह-यह-रधामुपात: ।४-२४५) दहो जभः ।४.४६। यन्धो न्धः ।४-२४७। समनूपात्र धेः ।४-२४८) गमादीनां द्वित्वम् ।४.२४६ / ह कृ तामीरः ॥४-२५०। अंजढिप्पः ।। २५११ शो णध्व-णजी ४२५२। व्यागेवोहिन्पः ॥४-२५३। प्रारभेरादप्पः ।४-२५४ स्निहसिचोः सिप्पः ।४.२५५प्रर्धेपः ।४-२५६। स्पशेश्छिप्पः ।४.२५७/ क्तेनाप्फुण्णाश्यः ।४-२५८। वानवोर्थान्तरंपि ।४.२६ । तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ।४-२६० अधः क्वचित् ।४.२६११ वादेस्तावति ।४.२६२। श्रा आमन्त्र्ये सौवेनो नः ॥४-२६३ मो वा ।४-२३४। भवद्भगवतीः ।४-२६५॥ न वा ? य्यः ।४.२६६। थो धः ।४-२६७/ इह हवाहस्थ ।४:२६८। भुवो भः ।४-२६६। पूर्वस्य पुरकः।४-२७०० क्त्व इय दूरणौ ।४.२७१। कृ गमो सामः।४-२७२। दिरिचेचोः ।४.२७३। श्रतो देश्च ।४-२७४। भविष्यति सिः ।४.२७५) अतो इसेड दो डादू ५४-२७६इदानीमो दाणिं ४-२७३/ तस्मात्ताः।४.२७८० मोम्त्याएको वैदेतोः ।४-२७६ / एवार्थे ग्येव ।१२८ हने चेट्याहाने ४-०८१। हीमाणहे विस्मय निर्वेदे ।४ २८२। णं नन्वर्थे ।४.२८३। अम्मई हर्षे ॥४-२८४। हीही विदूषकस्य ४.२४। शेषं प्राकृनवत् ।४-२८६ श्रत एत्सौ पुमि मागध्याम् ।४-२०७। र-सोल-शौ ।४-२८६। स पो; संयोगे सोमीष्मे ।४-२८) -ष्टयास्टः ।४-२६०। स्थ र्थयोस्तः ।४.२६१ ज-य यां य: ।४-२६२। न्य-य-ब-खो यः।१-२६३। जो जः।४.२६४ लस्य श्वोनादौ ।४-२६५ क्षस्य का ४.२६६। स्क: प्रेक्षाचक्षोः।४-२६७ तिष्ठश्चिष्ठः ।४-२६८। अवर्णाद्वा सो डाहः ।४.२६६। आमो डॉ वा ॥४-३००। श्रहं वयमोहो ४-३०१॥ शेष शौरसेनीवात् ।४-३२। झो व्यः पैशाच्चाम् ।४-३०३। राझो वा चिष ।४-३०४, न्ध-एयोन 12-३०५। णो नः ।४ ३०६। तदोस्तः ।४ ३०७) लोक ४-३०८। शपोः सः ।४-३०६। हृदये यस्य प: ।।-३१० टोस्तु ।४-३११। क्त्वस्तूनः ।४-३१२१ भून-खूनौ व्दवः ।।-३१३। यस्न-ट्री रिय-सिन-सटा: क्वचित् ।४-३१४॥ अयस्येय्यः ।४-३१५॥ कृगो डोरः ।४-३१६) यादृशादेदु स्तिः ।४-३१७) इचः १४-३१४ श्राशेश्च १४-३१६। भविष्यत्येय्य एव ।४-३२० । अतोडसेडोतो-डातू ।४-३२१॥ तदिदमोष्टा नेन स्त्रियां तुनाए ।४-३२२ शेष शौरसेनीवत् ।४-३२३॥ न क-ग-च-जादि-षट्शम्यन्त-सूत्रोक्तम् ।४-३२४। चूलिका-पैशाचिके तृतीय-तुर्ययोराध Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयौ । १-३२५॥ रस्य लो वा ।४-३२६। नादि-युज्योरन्येषाम् ।४-३२७॥ शेष प्राग्वत् ।४-३२८। स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे ।४-३२६। स्यादौ दीर्घ-हस्वौ ।४-३३०स्यमोरस्योत् ।४-३३१॥ सौ पुस्योद्वा ।४-३३५॥ एट्टि।४-३३३॥ डिजेच ४-३३४) मिस्येद्वा ।४-३३५। सेहें हू ।४-३३६। भ्यसो हुँ ।४-३३७/ सः सु-होत्सवः ।४-३३८। पामो हं ।४-३३६) हुं चेदुद्याम् ।४-३४० मसि-भ्यस्मीना हे हुं-हयः ।४-३४१। आटो णानुस्वारौ ।४-३४॥ एं घेदुतः १४-३४३। स्यम् जस-शसा लुक् ।४-३४४। षष्ठयाः ।४.४५॥ श्रामन्ये जसो होः ।४-३४६. मिस्सुपोर्हि १४-३४७१ स्त्रियां जस्-शसीरुदोत् ।४-३४८) द ए ।४-३४६। इस्-डस्योः ।४-३५०। भ्यसामोहुः ।४-३५१। केहि ३४-३५२३ क्लीये जस्-शसारिं ।४ ३५३। कान्तस्यास्यमोः ।४-३४४॥ सर्वादे सेही १४-३५५ किमो डिहे वा १४-३५६) डोहि ।४-३५७। यत्तरिकभ्यो कसो हासुन वा ।४-३५८१ स्त्रियां उडे ।४-३५६। यत्तदः स्यमोध्र, त्रं ।४-३६०। इदम इमुः गलोबे।४-३६१। एतदा स्त्रो-युगलीये एह एहो पहु ।४-३६२। एइजत-शसोः ।४-३६३ अदस अोइ ।४.३६४। इहम प्रायः ।४-३६५। सर्वस्य साहो वा ।४-३६६ किमः काइं-कवणौ वा ४-३६७१ युष्मदा सौ तुई।४-३६८। जस्-शसोस्तुम्हे तुम्हई ।४-३६६) टा-ब्यमा पई तई १४.३७०१ भिसा तुम्हेहि |४-३७१। रूसि-हरभ्यां तउ तुज्म तुध्र ।४-३७२। भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं ॥४-३७३। तुम्हासु सुपा ४-३७४। सावस्मदो हवं ॥४-३७५। जस् शसोरम्हे अम्हई ।४-३७१। टा-यमा भई १४-३७७। अन्हहि भिसा ।४-३७२। महु मज्मु सि-इस्भ्याम् ।४-३७६ अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् ।४-३८० सुपा अम्हासु ।४.३८१॥ त्यादेराद्य त्रयस्य संबन्धिनो हिं न वा ।४-३८२ मध्य-अयस्यायस्य हिः ।४-३८३, बहुत्वे हुः १४-३८४) अन्त्य-त्रयम्यायस्य १४-३८५) बहुत्वे हु' ।१-३८६। हि-स्वयोरिदुदेत् ।४.३८७१ वस्यति-म्यस्य सः ।४.३८ । क्रिये: कीसु।४-३८६) मुवः पर्याप्ती हुचः ॥४-३६०। ब्रूगो वो वा १४.३६१३ प्रज्ञेषुषः ॥४-३६२) दृशेः प्रस्स: १४.३६३१ ग्रहे रहा ।४-३६४/ तक्ष्यादीनां छोल्लादयः ॥४-३६५। अनादी स्वरादसंयुक्ताना क-ख-स-थ-प-फां-म-घ-म-ध-व-भाः ।४-३६६। मोनुनासिको वो बा ४-३६७/ वोधा रो लुक् ।४-३६८। अभूतोपि क्वचित् ।४-३६६। श्रोपद्विपसंपदा द् ३: ।४-४००) कथं यथा-तथा-थादेरेमेहेधाडितः ।४-४०११ याहताहकी हगीरशां दादेहः १४-४०२। अर्ता इइप्स: ४-४०३१ यत्र-तब-योस्त्रस्य डिदेत्य्वस्तुं [४-४०४। एल्युकुत्रात्रे ।४-४८५॥ यावत्तावतोवर्वादे म महि ।४-४०६। वा यत्तदोतो.वडः ।४-४०७। वेद-किमोर्यादेः ।४-४०८। परस्परस्यादिरः ।४-४०६/ कादि-स्थेदोतोरुच्चार-लाधयम् ।४-४१०/ पदान्ते उ-हुं-हि-हंकाराणाम् ।४-४११॥ म्हो म्भो वा ।४-४१२। अन्याहशोभाइसावराइसौ ।४-४१३। प्रायसः प्राउ-प्राइव-प्राइम्ब-परिगम्वाः।४-४१४। वान्यथोनुः ।४-४९५॥ कुतसः काउ कहन्तिहु ।४-४१६। ततस्तदोस्तोः ।४-४१७) एवं-पर-सम-ध्र व-मा-मनाक-एम्प पर समाणु ध्र वुमं मणारं 1४-४१८ किलाथवा-दिवा सह नेहः किराहवइ दिवे सहुँ नाहिं ।४-४१६) पश्चादेवमेवैवेदानी प्रत्युतेतसः पच्छड एम्बइ जि एम्यहिं पच्चलिउ एतहे।४-४२०॥ विषएणोक्त-वर्मनो चुम्न-वुत्त-विध ४-४२११ शीघ्रादीनां वहिल्लादयः ।४-४२२। हुहुर-धुग्गादयः शब्द-चेष्टानुकरणयोः ।४-४२३। घामादयोनर्थकाः १४-४२४तादयें केहि-तेहि रेसि-रेसिं-तणेणाः ।४-४२५। पुवर्विनः स्वार्थेदुः ।४-४२६। अवश्यमोहे-हौ।४-४२७ एकशलो टि १४-४२८। अ-एड-बुल्ला स्वार्थि-क-लुत च ।४-४२६/ बोगजाश्चैषाम् ।४ ४३०। स्त्रियां तदन्तासीः ।४-४३१॥ प्रान्तान्नााः ।४-४३२। अस्येदे ।४-४३३॥ युष्मदादेरीयस्य डारः ।४-४३४। अतो. तु लः ।४४३५॥ त्रस्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डेसहे ४-४३६। त्व त्वली: पणः ।४-४३७। तव्यस्य इएव्व एवढं एवा ।४-४३८० क्त्व इ.इउ इवि-अवयः १४.४३६। एप्पपिपरवेव्येविणवः।४-४४॥ तुम एष मणाणहमणहिं च ४-४४९। गमेरेपिपरवे-प्योरेलुग वा ६४-४४२। हनीणश्रा १४४४३। इनार्थे नं-नर-नाइ-नाव-जशि-जणवः ।४-४४४॥ लिङ्गमतन्त्रम् ।४१४५॥ शौरसेनीयत ।४.४४६॥ व्यत्ययश्च ।४-१४ शेपं संस्कृतवत्सिद्धम ४.४४८। 12t- . : -- .--:- Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत-व्याकरण की सूत्रानुसार--विषयानुक्रमणिका . 0000000000 प्रथम पादः. क्रमांक विषय सूत्रांक पृष्ठांक १०से १४ २३ से २७ से ३० ३१ से ३६ प्राकृत-शब्द-आधार और स्वर व्यञ्जनादि विकल्प-सिद्ध सर्व शब्द संग्रह ३ आर्ष-रूप-संग्रह स्वरों की दोध-हस्व-व्यस्था स्वर-संधि स्वर अथषा व्यञ्जन की लोप-विधि शब्दान्त्य-व्यञ्जन के स्थान पर आदेश-विधि अनुस्वार-विधि अनुस्वार-लोप-विधि शब्द-लिंग-विधाम ११ विसर्ग स्थानीय "ओ" विधान १२ "निर और प्रति" उपसर्गों के लिये उपविधान श्रव्यथों में लोप विधि हस्व-स्वर से दीर्घ स्वर का विधान ___ "अ" स्वर के स्थान पर क्रम से "इ-श्रइ-ई-तु-ए-ो-उ श्रा-प्राइ-" प्राप्ति का विविध रूप से संविधाम "अ" स्वर का वैकल्पिक रूप से लोप-विधान _ "धा" स्वर के स्थान पर क्रम से "अ-इ-ई-3--ए-" और ओ-यो" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १८ दीर्घ स्वर के स्थान पर हस्व स्वर की प्राप्ति का विवान ___ "इ" स्वर के स्थान पर क्रम से "ए-अ-ई-इ--" और प्रो"." प्राप्ति का विविध रूप से संविधान मासे १७ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ११७ १०७ से ११८ १.४ १३३ १६० १६२ क्रमांक विषय सूत्रांक २० "न" सहित "इ" के स्थान पर "ओ" प्राप्ति का विधान "ई" स्वर के स्थान पर क्रम से "अ-श्रा-इ-उ-ऊ-उ-ए" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान हह से १०६ "उ" स्वर के स्थान पर क्रम से "श्र-इ-ई-3-प्रो" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान "अ" स्वर के स्थान पर क्रम से "श्र-ई इ-उ-तथा "ह और ए" की तथा "ओ" की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान ११६ से १२५ "" स्वर के स्थान पर क्रम से "अ-श्रा-इ-3-"इ एवं उ" तथा उ-3-ओ, इ-उ, इ-ए-ओ, रि, और "दि" की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १२६ से १४४ "ल" के स्थान पर "इलि" आदेश प्राप्ति का विधान "ए" स्वर के स्थान पर कम से "इ-3" प्राप्ति का विधान १४६ से १४७ २७ "हे" स्वर के स्थान पर क्रम से "ए-इ-अइ, "ए और अइ". अ अ तथो ई" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १४८ से १५५ २८ . "ओ" स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "अ" की तथा "ऊ और अख" एवं आश्र की प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १५६ से १५८ "ौं" स्वर के स्थान पर क्रम से "श्रो उ-अउ, "आ और अ" तथा आवा" प्राप्ति का विविध रूप से संविधान १५६ से १६४ व्यञ्जन लोप पूर्वक विभिन्न स्वरों के स्थान पर विभिन्न स्वरों को प्राप्ति का विधान १६५ से १७५ ध्यान-विकार के प्रति सामान्य-निर्देश "क--च-ज-त-इ-प-य-व" व्यञ्जनों के लोप होने का विधान "म" व्यञ्जन को लोप-प्राप्ति और अनुनासिक प्राप्ति का विधान । १७८ "प" व्यञ्जन के लोप होने की निषेध विधि १७६ लुप्त व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए "म" के स्थान पर "य" अति की प्राप्ति का विधान १८० "क" के स्थान पर "ख-ग-च-भ-म-ह" की प्राप्ति का विधान १८१ से १८६ ३७ "ख-ब-थ-घ-' के स्थान पर "ह" की प्राप्ति का विधान १८७ ३५. थ" के स्थान पर "ध" की प्राप्ति का विधान १७६ १६५ २०६ २१३ २२० १८६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक २२१ ३६ yo २२२ २२३ २२५ १२६ २३२ २३२ २४६ २५२ २५३ क्रमांक विषय सूत्रांक ___ "ब' के स्थान पर "क" की प्राप्ति का विधान १८ __ "ग" के स्थान पर "म-ल-ब" की प्राप्ति का विधान १६. सं १९२ "घ" के स्थान पर "स" और "ल्ल" की प्राप्ति का विधान १६३ "ज" के स्थान पर "झ' की प्राप्ति का विधान "" के स्थान पर "उ-द-ल" की प्राप्ति का विधान ११५ से ११८ "ठ'' के स्थान पर "ढ ललह ल' को प्राप्ति का विधान १६६ से २०? "ड" के स्थान पर "ल" की प्राप्ति का विधान ५०२ "" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ल" की प्राप्ति का विधान २०३ 'त" के स्थान पर "च-छ-ट-ड-ण-गण-र-ल-व-ह" की विभिन्न रोति से प्राप्ति का विधान २०४ से २१४ "थ" के स्थान पर "ढ' की प्राप्ति का विधान २१५ से २१६ "" के स्थान पर "उ-र-ल-ध-व-ह" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २१७ से २२५ "" के स्थान पर 'द' की प्राप्ति का विधान २२६ से २२० "" के स्थान पर "ण" की प्राप्ति का विधान २२८ से २२६ "न' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ल" और "रह" की प्राप्ति का विधान "प" के स्थान पर 'व-फ-म-र" को प्राप्ति का विधान २३१ से २३५ "फ" के स्थान पर "भ' और "6" की प्राप्ति का विधान "व" के स्थान पर "व-भ-म-य" की प्राप्ति का विधान २३७ से २३६ "म" के स्थान पर "व" की प्राप्ति का विधान २४. "म" के स्थान पर "ढ-व-स" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २४१ से २४४ "य" के स्थान पर "ज-त-ल-ज-ह-"बाह-पाह'-" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २४५ से २५. "र" के स्थान पर "ड-डा-ण-ल" की विभिन्न रीति से प्राप्ति का विधान २५१ से २५४ "ल" के स्थान पर "र-" की प्राप्ति का विधान २५५ से २५७ "व" और 'व' के स्थान पर "म" की प्राप्ति का विधान २५८ से २५६ "श" और "प" के स्थान पर “स" को प्राप्ति का विधान २६० "प" के स्थान पर "एह" की प्राप्ति का विधान २६१ ६४ “श" और "प" तथा "स" के स्थान पर (वैकल्पिक रूप से) २३० ०५५ २३६ २६० २६३ २६४ ३६४ २६६ २७२ २७६ US Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक २८१ २८३ २६३ २६३ REL क्रमांक विषय सूत्रांक "ह" की प्राप्ति का विधान २६२ से २६३ ६५ "ह" के स्थान पर "," की प्राप्ति का विधान २६४ ६६ “ध', 'श" और "स' के स्थान पर 'छ" को प्राप्ति का विधान २६५ से २.६६ स्वर सहित "ज-क-गा-य-द व" व्यञ्जनों का विभिन्न रूप से एवं विभिन्न शब्दों में लीप-विधि का प्रदर्शन २६७ से २७१ द्वितीय पाद: संयुक्त-व्यञ्जनों लिए अधिकार-सूत्र "क्त-ष्ट-रण-त्व" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "क" आदेश प्राप्ति "क्ष" के स्थान पर "ख-छ-झ" की आदेश प्राप्ति 'क-स्क-व-स्थ-स्त" के स्थान पर विभिन्न रूप से और विभिन्न शब्दों में ""यादेश प्राप्ति का विधान "स्त" के स्थान क्रम से "J" और " ' की प्राप्ति "क" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से “ग'' की प्राप्ति 'ल्क" के स्थान पर वैकल्पिक रूप से "ग" की प्राप्ति श्रमुक संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध रीति से और विविध रूपों में "च" की प्राप्ति १२ से "त्व-एक--ध्व" के स्थान पर क्रम से 'च-छ-ज-झ" की प्राप्ति "" के स्थान पर "चु" की वैकल्पिक प्राप्ति कुछ संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध रीति से और विविध शब्दों में 'छ" ध्यान की प्राप्ति विशेष संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर विविध श्राधार से "अ" और "अ" व्यन्जन की प्राप्ति ४ से २५ संयुक्त व्यजनों के स्थान पर "झ" व्यजन की प्राप्ति संयुक्त "न्ध" के स्थान पर ''झा" की प्राप्ति "त" और "से" के स्थान पर "ट" की प्राप्ति "न्त" के स्थान पर "एट" को प्राप्ति संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ठ" की प्राप्ति ३२ से ३४ संयुक्त व्यजन के स्थान पर "ड" की प्राप्ति संयुक्त व्यजन के स्थान पर "एड' की प्राप्ति "स्तब्ध" में संयुक्त व्यन्जनों के स्थान पर क्रम से "B" और "तु" को प्राप्ति अमुक संयुक्त व्य-जन के स्थान पर "" की प्राप्ति ४० से ४१ ३०० ३०२ ३०५ ३२२ ३२६ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय सूत्रांक ३३६ ४३ ३३७ ३३७ ४५-४६-४८ ३४१ ५१ से ५२ ३४४ ३४६ ५७ से ५६ क्रमांक ८. "न" और 'ज्ञ' के स्थान पर "!" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "ण' की प्राप्ति । 'मन्यु" शब्द में संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "न्त" की वैकल्पिक प्राप्ति श्रमुक संयुक्त व्याजन के स्थान पर "ध की प्राप्ति "पर्यस्त'' में संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर क्रम से "थ" और "ट" की प्राप्ति "आश्लिष्ट' में संयुक्त व्यजनों के स्थान पर क्रम से "ल" और "ध" की प्राप्ति "चिह्न" में संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से - "ध" की प्राप्ति ६६ अमुक संयुक्त व्यजन के स्थान पर "प" की प्राप्ति ६७ अमुक संयुक्त व्याजन के स्थान पर "फ' की प्राप्ति ६८ अमुक संयुक्त व्यजन के स्थान पर "ब" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यंजन के स्थान पर "म" की प्राप्ति १०. "कश्मीर" में संयुक्त व्यंजन के स्थान पर "म्म" की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति १०१ अमुक संयुक्त व्यंजन के स्थान पर "म" की प्राप्ति १०२ अमुक संयुक्त व्यजन के स्थान पर "र" की प्राप्ति १०३ "यं" के स्थान पर 'रिअ-पर-रिज्ज-रीश्र" और "ल्ल' की प्राप्ति का विधान १०४ अमुक संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर "स" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्यन्जन के स्थान पर "ह" की प्राप्ति अमुक संयुक्त व्याजन के स्थान पर "म्ह, रह और ल्ह" को प्राप्ति का विधान १०७ "क-ग-द-उ-तू-द्-प-श-प-स-क-प" के लोप होने का विधान "म-न-य' और 'ल-ब-र" के लोप होने की विधि १०६ "र" का वैकल्पिक-लोप ११. "ग", "न", "ह" का वैकल्पिक लोप . १११ श्रादि "श", "श्व" और "त्र" की लोप-विधि १५२ शेष अथवा आदेश प्राप्त व्यञ्जन को "द्वित्व-प्राप्ति का विधान ११३ "द्वित्व-प्राप्त" व्यजनों में से प्राप्त पूर्व ध्यजन के स्थान पर ३४८ વેદ ६१ से ६१ ६३ से ६६ ६७ से ६८ ३५२ ७० से ७३ १०६ ७४ से ७६ ३५५ ३६४ २० से २१ ८२ से ८५ ८६ से १८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ३८३ ३८० ३६२ ४१५ क्रमांक विषय सूत्रांक प्रथम अथवा तृतीय व्यजन की प्राप्ति का विधान ११४ "दोध" शब्द में "र" के लोप होने के पश्चात "ध" के पूर्व में श्रागम रूप "ग" प्रारित का वैकल्पिक विधान अनेक शब्दों में लोपावस्था में अथवा अन्य विधि में श्रादेश रु.प से प्राप्तव्य "द्विर्भाव" की प्राप्ति की निषेध विधि अनेक शब्दों में धादेश प्राप्त व्यजन में वैकल्पिक रूप से द्वित्व प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से "अ" और "," स्वर की प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से क्रम से "अ" और "इ" दोनों हो स्वर की प्राप्ति का विधान १० से ११० "अर्हत्" शब्द में श्रागम रूप से क्रम से "उ", "अ" और "इ' तीनों ही स्वर की प्राप्ति का विधान अमुक शब्दों में आगम रूप से "उ" स्वर की प्राप्ति का विधान ११२ से ११४ "ज्या" शब्द में आगम रूप से "ई" स्वर की प्राप्ति अमुक शब्दों में स्थित व्यनों को परस्पर में व्यत्यय भाव की प्राप्ति का विधान ११६ से १२४ अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से किन्तु वैकल्पिक रूप से नूतन शब्दादेश-प्राप्ति का विधान १२५ से १३८ अमुक संस्कृत शब्दों के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में सम्पूर्ण रूप से और नित्यमेव नूतन शब्दादेश-प्राप्ति का विधान १३६ से "शील-धर्म-साधु-' अर्थ में प्राकृत-शठनों में जोड़ने योग्य 'इर" प्रत्यय का विधान "क्त्वा" प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में "तुम् अत्-तूण-तूआण" प्रत्ययों की श्रादेश प्राप्ति का विधान "तद्धिन" से संबंधित विभिन्न प्रत्ययों की विभिन्न अर्थ में प्राप्ति का विधान १४७ से १७३ कुछ रूढ और देश्य शब्दों के सम्बन्ध में विवेचना __ अव्यय शब्दों की भावार्थ-प्रदर्शन-पूर्वक विवेचना १७५ से २१८ ५१६ ४२० ४२० ४२४ ४३४ ४३७ ४३६ ४४१ - - 0000000 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " || ॐ श्री अत्-सिद्धेभ्यो नमः ॥ आचार्य हेमचन्द्र रचितम् ( प्रियोदय हिन्दी - व्याख्यया समलंकृतम् ) प्राकृत - व्याकरणम् S earest fageftन्त्यम संख्यमाद्यं । म्हणfreetee समकेतुम् ॥ artreet feaयोगमनेकमेकं । ज्ञानस्वरूपममलं प्रवन्ति सन्तः ॥ १ ॥ अथ प्राकृतम् ॥ १-१॥ ' अथ शब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थच ॥ प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत भगतं वा प्राकृतम् । संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रितो || संस्कृतानन्तरंच प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानमे संस्कृतयोरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृत लक्षणेनैव गतार्थम् । प्राकृते च प्रकृति-प्रत्यय-लिंग-कारक- समाससंज्ञादयः संस्कृत व वेदितव्याः । लोकाद् इति च यते । तेन --- ऐ -ङ - ञ-श-प-विसजनीयप्लुत-वय वर्णसमाम्नायो लोकाद् अवगन्तव्यः । ब-जी स्व-वन्ये संयुक्तौ भवत एव । ऐदौतों च केषां चित् । * कैतवम् । कैश्रवं ॥ सौन्दर्यम् । सौश्ररिश्रं | कौरवाः | कौरवा || तथा अस्वरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थी - बहु वचनं च न भवति ॥ 1 अर्थ :- "अ" शब्द के वो अर्थ होते हैं - (१) पश्चात् वाचक और (२) "अधिकार" या "आरंभ" अक्व ""मंगलाचरण" याचक | यहाँ पर "प्रकृति" शब्द का तात्पर्य "संस्कृत" है; ऐसा मूल ग्रंथकार का मन्तव्य है । सवनुसार संस्कृत से आया हुआ अपना संस्कृत से उत्पन्न होने वाला शब्द प्राकृत-शब्द होता है ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का दृष्टि Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ] कोण है । परन्तु भाषाविज्ञान को दृष्टि से ऐसा अर्थ ठीक नहीं है। किसी भी कोष में अथवा व्युपत्ति-शास्त्र में "प्रकृति" शब्द का अर्थ "संस्कृत" नहीं लिखा गया है। यहाँ "प्रकृति" राज्य के मुख्य अर्थ "स्वभाव" अथवा "जनसाधारण" लेने में किसी तरह का विरोध नहीं है। "प्रकृत्या स्वभावेन सिचं इति प्राकृतम् अथवा “प्रकृतीनां - साधारण जनानामिदं प्राकृतम्” यही व्यत्पत्ति वास्तविक और प्रमाणयुक्त मानी जा सकती है। तदनुसार यहाँ पर सुविधानुसार प्राकृत-शब्दों की सामनिका संस्कृत शब्दों के समानानन्तर का का आधार लेकर की जायगी। क्योंकि बिना समानान्तर रूप के साथनिका की रचना नहीं की जा सकती है। जिस भाषा प्रवाह का परिवर्तित रूप 'प्राकृत" में उपलब्ध है; वह भाषा-प्रवाह लुप्त हो गया है; अतः समानान्तर आधार के लिये हमें संस्कृत भाषा की ओर अभिमुख होना पड़ रहा है ऐसे तात्पर्य को अभिव्यक्ति प्रकृतिः संस्कृत" शों द्वारा जानना प्रथम संस्कृतव्याकरण का निर्माण सात अध्यायों में करके इस आठवें अध्याय में प्राकृत-व्याकरण की रचना की जा रही है। संस्कृत व्याकरण के पश्चात् प्राकृत-करण का विधान करने का ताल यह है कि प्राकृत भाषा के संस्कृत के समानान्तर ही होते हैं और कुछ को साधना करनी पड़ती है। अतः प्राकृत शब्द 'शाम' यह बताने के लिये उपरोक्त सूत्र की रचना की गई है। प्राकृत भाषा में संस्कृत भाषा के जैसे ही जिन जिन समानान्तरादों की उपलब्धि पाई जाती है; उन शब्दों की सावना संस्कृत-व्याकरण के अनुसार ही जानता। जो कि सात अध्यायों में पहले ही संगु फिल कर दिये गये है। * प्राकृत व्याकरण * कुछ तो नहीं है; संस्कृत रूपों से भिन्न रूपों में पाये जाने वाले शब्दों की सिद्धि अर्थ इस क्याकरण की रचना की जा रही है । प्राकृत भाषा में भी प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास और संज्ञा इत्यादि सभी आवश्यकीय वैयाकरणीय व्यवस्थाएँ भी संस्कृत व्याकरण के समान हो जानना । इन का सामान्य परिचय इस प्रकार है:- नाम, धातु, कश्यप, उपसर्ग भाव "प्रकृति" के अन्तर्गत समझे जाते हैं। संज्ञाओं में जोड़े जाने वाले "सि" आदि एवं धातुओं में मोड़े जाने वाले 'ति' आदि प्रत्यय कहलाते हैं पुल्लिंग स्त्री लिंग तथा नपुंसक लिंग में तीन किग होते है। फर्ता, फर्म, करण संप्रदान अपादान संबंध अधिकरण और संबोधन कारक होते हैं। समास छह प्रकार के होते हैं-अव्ययीभाव, इंड. कर्मधारय हितु और बहुबीहि। यह अनु हेमचन्द्राचार्य रचित सिद्ध हेम व्याकरण के अनुसार जानना स्वर और प की परंपरापूर्व काल से चलो आ रही है, इनमें से ऋ, लृ, लू, ऐ, औ, ङ, प्र. स. प. किसनीय-विस और प्लुत को छोड़ करके वर्गव्यवस्था लौकिक वर्ण-व्यवस्थानुसार समझाना चाहिये और 'म' वे अपने अपने वर्ग के अक्षरों के साथ संयुक्त रूप से माने हलत रूप से पाये जाते हैं। 'ऐ' और 'ओ' भी कहीं कहीं पर देखे जाते हैं। जैसे-यम् = अयं । सौन्दर्यम् - सोरिय और कौरवाः-कौरवाः । इम उदाहरणों में 'ऐ' और 'ओ' की उपलब्धि है। प्राकृत भाषा में स्वर बहुवचन भी नहीं होता है। शिववन को अभिव्यक्ति बहु के रूप में होती है, एवं अतुर्थी-वचन का उल्लेख षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय संयोजित करके किया जाता है। रहित व्यञ्जन नहीं होता है। द्विवचन और चतुर्थी का तवम् संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप अर्थ होता है। इस सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का सोव ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'में' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर केवं रूप सिद्ध हो जाता है। सीन्दयम् संस्कृत रूप है। इसका प्रकृत रूप सौमरिमं होता है। इसमें सूत्र संख्या १२५ से सात'' के स्थान पर अनुम्वार को प्राप्ति १-१७७ से '' का लोप और २-७८ से 'प' का लोप २ १०७ से शेष हलन्त '' में आगम कप 'इ' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त भू' का अनुस्वार होकर सोअरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। कौरवाः संस्कृत है। इसका प्राकृत क Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * कोरवा होता है । इसमें सत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस्, प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में अरय हस्व स्वर 'अ' को वीर्घ स्वर मा की शामिल होकर कोरा का सितम हो माल : १. सा बहुलम् ॥१२॥ बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आशास्त्रपरिसमाप्तः ॥ ततश्च । कचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा कचिद् अन्यदेव भवति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः ।। __ अर्थः-प्राकृत-भाषा में अनेक ऐसे शव्य होते हैं। जिनके एकाधिक रूप पाये जाते है। इनका विधान इस सूत्र से किया गया है । तदनुसार इस व्याकरण के चारों पाद पूर्ण हो, यहाँ तक इस पत्र का अधिकार क्षेत्र जानना इस सूत्र को कहीं पर प्रवृत्ति होगी; कहीं पर अप्रति होगी; कहीं पर वैकल्पिक प्रवृत्ति होगी और कहीं पर कुछ नवीनता होगी | यह सब हम यथास्थान पर बतलागे ।।१-२|| आर्षम् ॥१-३॥ ऋषीणाम् इदम् श्रापम् । आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः । आर्षे हि सर्व विधयो विकल्प्यन्ते ।। अर्थ:-जो शब्द अषि-भाषा से संबंधित होता है; वह शब्ब 'आर्य' कहलाता है। ऐसे आर्ष शम्म प्राकृत भाषा में बहुतायत रूप से होते हैं । उन सभी का दिग्दर्शन हम यथा स्थान पर आगे ग्रंथ में बतलायेंगे | माप-शनों में सूत्रों द्वारा सानिका का विधान वैकल्पिक रूप से होता है । तदनुसार कभी कभी तो आर्ष-शम्वों को साघनिहा सूत्रों द्वारा हो सकती हैं और कभी नहीं भी हुआ करती है । अतः इस सम्बन्ध में वैकल्पिक-विधान जानता ॥१-३।। दीर्घ-हस्त्रौ मिथो वृत्तौ ॥१-४॥ वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घ हस्वौ बहुलं भवतः । मिथः परस्परम् ।। तत्र हस्वस्य दीर्घः ॥ अन्तर्वेदिः । अन्तावेई ।। सप्तविंशतिः । ससावीसा ॥ कचिन्न भवति । जुबई-अणो ॥ कचिद् विकल्पः । वारी-मई वारि-मई ॥ भुज-यन्त्रम् | भुया यन्तं भुश्र-यन्तं ॥ पतिगृहम् । पई हर पइ हरं । वेलू-वणं वेलु-वणं ।। दीवस्य हस्त्रः । निअम्ब सिल-खलिअ-वीइ-मालस्म ॥ क्वचिद् विकल्पः । जउँण-यडं जाणा-यडं । नह-सोतं नई-सोत्तं । गोरि-हरं गोरी-हरं । बहु-मुहं वहू-मुहं ॥ वर्ष--समासगत भावों में रहे हए स्वर परस्पर में दस्व के स्थान पर वो और वीर्घ के स्थान पर हस्थ बक्सर हो आया करते हैं। हस्व स्वर के घोघं स्वर में परिणत होने के उदाहरण इस प्रकार : Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * अन्तरि:अन्तावेई । सप्तविंशतिः = ससावीसा || किसी किसो शम में हस्व स्वर से वीर्घ-स्वर में परिणति नहीं भी होती है। अमे--यवति-अमः - सुबह-अणो || किसो किसी शब्द में हस्व स्वर से धोघं-स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होती है। जैसे-वारि-मतिः - वारी-मई वारिमई भुज-यन्त्रम् = भुआ-यन्त अथवा भुअ-. यस्त ।। पति-गृहम् :: पई-हरं अश्या पइ-हरं ॥ वेणु-बनम् = वेबगं अथवा वेल-वणं । दीर्व स्वर से हुस्व स्वर में परिणत होने का उदाहरण इस प्रकार है:-नितम्ब-शिला-स्खलित-वीचि-मालस्यनिअम्ब-सिल-खलिम-वीइ-मालस्त । इस उदाहरण में 'शिला' के स्थान पर 'सिस' की प्राप्ति हुई है। किसी किसी शक्ल में वीर्घ स्वर से हस्व स्वर में परिणति वैकल्पिक रूप से भी होतो है । उदात्रण इस प्रकार है: यम ना-तटम् = जउँण-यई अथवा जउँगा-पडं || नहो-खोतम = नइ-सोत्तं अथवा नई-सोतं || गौरी गृहम = गोरि-हर अथवा गोरो-हरं । वधू-म खम - बहु म अथवा बहू-महं ।। इन उपरोक्त सभी उदाहरणों में दीर्घ स्वरों की और हस्व स्वरों की परस्पर में व्यत्यय-स्थिति समझ लेनी चाहिये । ___ अन्तदिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तावेई होता है। इसम सूत्र-संख्या १-४ से 'त' में स्थित हृस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'ब्' का लोर और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हुस्व इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर अन्ताई रूप सिद्ध हो जाता है। सप्तविंशतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सत्तावीसा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से '' का लोप; १-४ से 'त' में स्थित हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ता' के पूर्व में '' का लोप होने से द्वित्व 'त्ता' को प्राप्ति; १.२८ से 'वि' पर स्थित अनुस्वार का लोप; १-९२ से शेष 'वि' में स्थित हस्व स्वर''के स्थान पर 'ति' का लोप करते हुए दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-२६. से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बल बबर में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'स' में स्थित हुण्य स्वर 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'या' को प्राप्ति होकर सत्तावीसा रूप सिद्ध हो जाता है। युवति-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जुबइ-अणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के मान पर 'ज' को प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' का और (द्वितीय) 'ज्' का लोप; १-२२८ मे 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुबइ-अणो कम सिद्ध हो जाता है । वारि-मतिःहत रूप है । इसके प्राकृत रूप वारोमई, और वारि-मई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४ से 'रि' में रियत '' को वैकल्पिक रूप से दीर्घ 'ई' को प्राप्ति; १-१७७ से '' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्थ इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के पान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर कम से धोनों रूप वारी-मई और मारि मई सिद्ध हो जाते है । भुज-यन्त्रम् संकृत रूप है । इसक प्राकृत रूप भा-यन्तं और भु अ-पन्त होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१७७ से ' का लोप, १-४ से शेष 'अ' को वैकल्पिक रूप से 'आ' को Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T ▼ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ५ प्राप्ति २-७९ से 'त्र' में स्थित '' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिए में 'ख' के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से दोनों प भुआ-पन्तं भुज-यम् सिद्ध हो जाते हैं। पतिगृहम् संस्कृत रूप है। इसके और पहर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' अवेश; कई 'त' का लोपः १-४ से शेष 'इ' को वैकल्पिक रूप से 'ई' की प्राप्ति १-१९८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' को प्राप्त ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मैं अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' के स्थान पर प्रस्थय की प्राप्ति और १-२३ मे प्राप्त 'म्' का अनुश्वार होकर कम से दोनों रूप पई-हरं और पहरं सिद्ध हो जाते हैं। घे गुचनम् संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप वेनू और वे होते हैं। न-१-२०३ से 'ण' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति: १-४ से 'ज' को विकरूप से 'ऊ' की प्राप्तिः १-२२८ सेन के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति ३२५ सेप्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रस्थय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों दूध और सिद्ध हो जाते हैं। TW नितम्ब - शिला- स्खलित-वीषि - मालस्य संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रूप निजम्ब--सिल खलिश - बीड -मालम्स होता है। इसमें सूत्र संख्या - १-१७७ से दोनों 'त्' वर्जी' का लोग; १-२६० से 'शु' के स्थान पर 'सु' को प्राप्ति १०४ मे 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति ५-७७ से हलत जन प्रथम '' का ११०७सेच का कोर और १-१० से पछी-विभक्ति के एक वचन में 'इस' के स्थानीय प्रत्यय 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप निम्ब-सिल-खलिय - मालरस सिद्ध हो जाता है। यमुनातटम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जग पई और जगर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या१-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति १-१७८ से प्रथम 'म्' का लोप होकर स्वर पर अनुनासिक की प्राप्ति १-२२८ से 'न' के स्थान पर '१४से प्राप्त 'गा' में हिस्व'' के स्थान परकरूप से स्वस्वर' की १-१७७ से 'लू' का लोन १-१८०हुए 'तू' में से १-१९५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति २२५ से प्रथमा विभक्ति के एक रहे हुए 'अ' को 'प' की प्राप्ति वचन में अकारान्त नपुंसक में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त '' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप जप और माय सिद्ध हो जाते हैं। इसके प्राकृत रूप इस बर नई देते हैं। इनमें संख्या सूत्र १-४ से शेष दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति २-९८ से. '' को 'त' को त३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त'' का अनुसार नदी १- १७७ का २-७९ ''कालो Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण # होकर क्रम से दोनों कप नह- सोत-और मई-सोसं सिद्ध हो जाते है । गौरीगृहम् संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप गोरि-हरं और गोरो-हर होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-१५९ से 'मो' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति; १-४ से बीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हस्व 'ई' को प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह के स्थान पर 'पर' आदेश; १.१८७ से आदेश प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह को प्राति ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में सि' प्रश्पप के स्थान पर 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'भ' का अनुस्वार होकर दोनों छप गोरिहर भौर गीरी हर सिद्ध हो जाते हैं। वधु-मुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बहु-महं और घा-महं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १.१८७ से 'घ' और 'ख' के स्थान पर हैं की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त 'ह' में स्थित हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से गोर्घ स्वर 'क' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभिक्ति के एक वनम में अकारान्त नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कर से दोनों रूप पहु-मुई और बहू-मुहं सिद्ध हो जाते हैं १-४|| पदयोः संधिवा ॥१-५॥ संस्कृतोक्तः संधिः सर्वः प्राकृने पदयोंर्व्यवस्थित-विभाषया मवति ॥ बासेसी वासइसी । विसमाययो विसम-आयवो । दहि-ईसरो दहीसरो । साऊअयं साउ-उअयं ॥ पदयो रिति किम् । पाओ । पई। बच्छाओ। मुद्धाइ । मुद्धाए। महइ। महए। बहुलाधिकारात् क्वचिद् एक-पदेपि । काहिह काही । बिइप्रो बीओ॥ अर्थ-संस्कृत-भाषा में जिस प्रकार से वो परों को संषि परस्पर होती है। वही सम्पूर्व संधि प्राकृतभाषा में भी वो पदों में व्यवस्थित रीति से मिल कल्पिक रूप में होती है ।स:-पास-अधिवास सो मथवा वास-इसी । विषम + आतप विवभातप-विसमायवो अथवा विसम-आयो। वषि + ईयरा वषीश्वरःपहि-ईसरो अथवा रहीसरी । स्वायु-उवकम् स्वादरकम् साऊअयं अथवा साउ-उअयं ॥ प्रश्न:-'संधि दो पदों की होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उसरः-पर्योकि एक हो पर में संधि-योग्य स्थिति में रहे हए स्वरों को परस्पर में तषि नहीं हुआ करती है; अतः दो पदों का विधान किया गया है । जैसे:-पाव = पाओ । पतिः = पई । वृक्षात् = पछाओ । मापया = भखाई अथवा मुनाए । कांशति मह अथवा महए । इन ( उदाहरणों में ) प्राकृत-हरों में संपि-योग्य स्थिति में दो हो स्वर पास में आये हुए है। किन्तु ये संषि-मोम्प स्वर एक ही पहन रहे इए है। अतः इनकी परस्पर में संधि नहीं हुई है। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ 'लम्' सूत्र के अधिकार से किसी किसी एक पब में भी दो स्वरों की संधि होती हुई देखी जाती है। जैसे:- करिष्यति = काहिइ अथवा काही । द्वितीयः विइलो अथवा बोल । इन उदाहरणों में एक ही पद में दो की परस्पर में व्यवस्थित रूप से किन्तु बँकल्पिक रूप से संधि हुई है । यह 'बहुलम, सूत्र का ही प्रताप है । व्यास - ऋषिः सं कृत रूप बासेसी अथवा बास- इसी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - २७८ से 'यू' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्तिः १-२६० से प्' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति ३ १९ मे प्रश विभक्ति को एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हृस्व स्वर 'ई' को दीर्घ स्वर 'द' की प्राप्ति और १०५ 'स' में स्थित 'म' रहे हुए 'अ' के साथ 'इस' ' 'इ' को वैकल्पिक रूप से संधि होकर खोनों रूप से वास इसी और वासी सिद्ध हो जाते हैं । विवस + आतपः = विषमातयः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप विसमायो अथवा विसम-आयनो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या - १-२६० से 'व' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः १-१७७ से 'लू' का सोप; १-१८० से लोप हुए 'स्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'थ' की प्राप्तिः १२३१ सेप के स्थान पर 'ब' की प्राप्तिः १-५ से 'विसम' में स्थित 'म' में रहे हुए 'अ' के साथ 'आय' के 'आ' को वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति को एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप विसमायवी और विसम-आयको सिद्ध हो जाते हैं; + ईश्वरः दधीश्वरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप नहि + ईस और बहोसरो होते हैं इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'धू' के स्थान पर है की प्राप्ति २-७९ से 'व' का लोपः १-२६० से शेष 'दा' का 'स' १-५ स' 'वह' में स्थित 'इ' के साथ 'ईसर' के '' की बैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'जो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप दहि-ईसरी और दहीसरी सिद्ध हो जाते हैं। हवावु + उदकम् = स्वादकम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप साक्रमयं और साउ- ऊअर्थ होते हैं । इन सूत्र-संक्या-२०७९ से 'ब' का लोपः १-१७७ से दोनों 'वु' का तथा 'कू' का लोपः १-१८० से लोप हुए 'कु' से शेष रहें ए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः १-५ से 'साठ' में स्थित 'उ' के साथ 'अ' के 'उ' की वैकल्पिक रूप से संधि होने से दीर्घ 'ऊ' की प्राप्ति और ३- २५ से प्रथमा विभक्ति को एक वचन में अकारान्त ngen लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हम से दोनों रूप साउभर्थ और साउ-उअर्थ सिद्ध हो जाते है । पाद संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पाम्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रश्यप की प्राप्ति होकर पाओ रूप सिद्ध हो जाता है । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * पतिः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप प होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोर और . ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्ष इकारान्त पुल्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य 'इ' को वीर्घ है की प्राप्ति होकर पई रूप सिद्ध हो जाता है। वृक्षान् संस्कृत पञ्चम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप बच्छाओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'भ' को प्राप्ति २-३ सेल' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति; २-८९ में पाप्त '' को विस्व 'छ् छ' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति, ३-८ र पंको प्रत्यय 'इसि' के स्थानीय रूप त' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय को पारित और ३-१२ मे पास प्रत्यय 'ओ' के पूर्व में बच्छ के अन्त्य 'अ'को बोध स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर पाओ रूप सिद्ध होता है। मुग्धया संस्कूल तृतीयान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप मुद्धाए और मुद्धाइ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से 'म'का लोप: २०८९ से दोष 'ब' को विस्व ' घ की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '५' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति, ३.२९ से संतान तृतीय-विभक्ति के एक कान के प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'या' के स्थान पर प्राकृत में कम 'क' और ' प्ररमा को प्राप्ति और ३-२९ हो पात प्रत्यय 'ए' और 'इ' के पूर्व में अक्षय स्वर मा कोई सार 'आ' की प्राप्ति होकर कम से दोनों प सुधाए एवं मुद्धाह सिद्ध हो जाते हैं। कांक्षति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप महा और महए होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-१९-२ से 'काम' धातु के स्थान पर 'मह' का आवेश; ४-२३९ से प्राप्त 'मह' में हलन्स 'ह,' को 'अ' को प्राप्ति; ३-१३९ में वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'इ' और 'ए' को प्राप्ति होकर दोनों रूप. कसं महद और महए सिद्ध हो जाते हैं । करिष्यति:-क्रिया पर का संस्कृत काह। इसके प्राकृत कम काहि और कालो होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या ४-२१४ से मस धातु 'क' के स्थान पर 'का' का आवेश, ३-१६६ से संस्कृत भविषवत्-कालीन संस्कृत के स्थान पर ' की प्राप्तिः ए३-१३१ व काल के प्रथम के एकवचन में 'इ' को प्राप्ति और १-५ से 'हि' में स्थित 'ई' के साथ आगे रही हई' की संधि कल्पिक रूप से होकर दोनों रूप क्रम से काहिह और काही सिद्ध हो जाते हैं। दितीत विशेषण रूप है। इसमें प्राकृत रूप बिइभी और बीओ होते हैं। उनमें सत्र-संख्या २-७७ से 'व' का लोपः १-१00 से 'त' कर और कालोप -४ से दिलच बोध के स्थान पर हस्क 'इ' की प्राप्तिः १-५ से प्रथम के साथ वितीय ' को बैकल्पिक रूप से संधि होकर पीर्घ ६ की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूपापिओ और बीजी सित हो जाते हैं।१-५॥ न युवर्णस्यास्वे ॥ १--६ ॥ इवर्णस्य उवर्णस्य च असे वर्षे परे संधि न भवति ! न वेरि-बम्गे वि अश्यासो ! बन्दामि अज्ज-बहर !! Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિમ્હેન મજ઼ીલાલ સાં [ E * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित **** द इन्द रुहिर - लित्तो सहइ उइन्दी नह - पहावलि - अरुणो | संझा-बहु - बारिशे विष्णुला-बभिन्न ॥ दुवस्येति किम् । गूढोअर - तामरमाणुमारिणी भमर- पन्तिव्य । श्रस्व इति किम् | पुहवीसो || अर्थ:- प्राकृत में 'इवर्ण' अथवा 'उबर्ग' के आगे विजातीय स्वर रहे हुए हों तो उनको परस्पर में संधि नहीं हुआ करती है। जैसे:-न वैरिवपि अवकाशः म बेरि-बग्गे दि अवयास । इस उदाहरण में 'वि' में स्थित '' के आगे 'अ' रहा हुआ है। किन्तु संस्कृत के समान होने योग्य संधि का भी यहां निषेध कर दिया गया है। अर्थात् संधि का विधान नहीं किया गया है। यह 'इ' और 'अ' विषयक संधि-निषेध का उदाहरण हुआ। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- वन्दामि आर्य-वैरं वन्दामि अज्ज-वइरं । इस उदाहरण में 'वन्दामि' में स्थित अन्त्य 'इ' के आगे 'अ' आया हुआ है; परन्तु इनमें संधि नहीं की गई है। इस प्रकार प्राकृत में 'इ' वर्ण के जाने विजातीयस्वर को प्राप्ति होने पर संधि नहीं हुआ करती है । यह तात्पर्य है । उपरोक्त गाथा की संस्कृत छात्रा निम्न है । दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः राजते उपद्रो नखप्रभावल्यरुणः । सन्ध्या वधूगूडो नव वारिवर इव विद्युत्प्रतिभिन्नः ॥ इस गाय में संधि-विषमक स्थिति को समझने के लिये निम्न शब्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिये:- 'दणु इन्द; 'उ + इवो; ' 'पहावलि + अरुणो; ' 'वह अवऊडो; ' इन शब्दों में क्रम से 'उ' के पश्चात् 'द' 'इ' के पश्चात् 'अ' एवं 'उ' के पश्चात् 'अ' आये हुए ह। ये स्वर विजातीय स्वर हे मतः प्राकृत में इस सूत्र (१-६) में विधान किया गया है कि 'व' वर्ण और 'उ' वर्ग के आगे विजातीय स्वर आने पर परस्पर में संधि नहीं होती है। जबकि संस्कृत भाषा में सवि हो जाती है । जैसा कि इन्हीं शब्दों के संबंध में उपरोक्त श्लोक में देखा जा सकता है । प्रश्न:- 'इवणं' और 'उम्र का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? अन्य स्वरों का उल्लेख क्यों नहीं किया गया है ? उत्तर:- अन्य स्वर 'अ' अथवा 'अ' के आगे विजातीय स्वर आ जाय तो इनकी संधि हो जाया करती है अतः 'अ' 'मा' की पृथक् संधि-व्यवस्था होने से केवल 'क' वर्ण और 'उ' वर्ग का ही मूल-सूत्र में उल्लेख किया गया है । उदाहरण इस प्रकार है: - ( संस्कृत - छाया )- गूढोदर - तामरसानुसारिणी-भ्रमरपक्तिरिव = गुडोअरतामरसानुसारिणी भमर-पन्ति य; इस वाक्यांश में 'गूढ + उअर' और 'रस + अनुसारिणी' शब्द संधि-योग्य दृष्टि से ध्यान देने योग्य हैं। इनमें 'अ + उ' की संधि करके 'ओ' लिखा गया है। इसी प्रकार से 'कब' की संधि करके 'आ' लिखा गया है। यों सिद्ध होता है कि 'अ' के पश्चात् विजातीय स्वर 'ज' के आ जाने पर भी संधि होकर 'ओ' की प्राप्ति हो गई। अतः यह प्रमाणित हो जाता है कि 'इ' अथवा 'उ' के आगे रहे हुए विजातीय स्वर के साथ इनकी संधि नहीं होती है। जबकि 'अ' अथवा 'आ' के नागे संधि हो जाया करती है। विजातीय स्वर रहा हुआ हो तो इनकी Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० ] * प्राकृत व्याकरगा प्रश्न:- विजातीय' अथवा 'अस्व' स्वर का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:- 'इ' वर्ग अथवा 'उ' वर्ण' के आगे विजातीय स्वर नहीं होकर यदि 'स्वजातीय' स्वर रहे हुए हों इनकी परस्पर में मंधि हो जाया करती है । इस भेद को समझाने के लिये 'अस्व' अर्थात् 'विजातीय' ऐसा लिखना पड़ा है। उदाहरण इस प्रकार है-पृथिवीशः ही इस उदाहरण में 'दुहवी सो' शब्द है + इनमें 'बी' में रही वर्ष दोघं 'इ' के साथ आगे रहो हुई दीवं 'ई' को संधि की जाकर एक ही वर्ण 'वो' का निर्माण किया गया है । इससे प्रमाणित होता है कि स्वं जातीय स्वरों की परस्पर में संधि हो सकती है। अतः मल सूत्र में 'अ' लिल कर यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि ब-जातीय स्वरों की संधि के लिये प्राकृत भाषा में कोई नहीं हैं। न वैरि-ये अवकाशः संस्कृत वाक्य है। इसका प्राकृत कम न वैरियमेव अवयास होता है। इसमें सूत्र संस्था - १-१४८ से 'ए' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-७९ से 'र्' का लोप २-८९ से शेष 'ग' को द्विश्वम्प' को प्राप्ति १-४१ से 'अभिग्यय के 'म' का लोप १-२३१ से १' का '' १-१७७ से 'कु' का लोग ११८० से लोप हुए 'कु' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति १२६० से 'या' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभवित के एक वचन मे अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'न वेरि-घग्गे वि अवयासी' रूप सिद्ध हो जाता है। धन्दामि आर्य येरम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप बन्दामि अन्न बहर होता है। इसमें क संस्था १-८४ से 'मार्च' में स्थित दीर्घ वर 'अ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'न' की प्राप्ति २८९ 'ज' को विश्व 'पत्र' की प्राप्ति १५२ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यक्ष 'अम्' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १२३ के प्राप्त 'पू' का अनुस्वार होकर 'पन्दामि भज-वह कप सिद्ध हो जाता है। . इग्य-दहिए-लिलो होता है। लोप; १ ८४ मे कोष हुए का सोप १-१८७ से '' दनुजेन्द्र- रुधिर-लिप्तः सं कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप व इसमें सूत्र - संख्या - १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १-१७७ से 'जू' का ''शेष रहे हुए 'ए' स्वर के स्थान पर इस्वर को प्राप्ति २७९ के स्थान पर है' की प्राप्ति २७७ से ''कालो २८९ से दोष' को विश्व 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दणु-इन्द्र- रुहिर- लित्तो रूप सिद्ध हो जाता है । राजते संस्कृतकिया का रूप है। इसका प्रतरूपसह होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१०० 'राज' धातु के स्थान पर 'सह' का आदेश ४-२३९ से हल पातु 'सह' के अन्त्यवर्ग 'ह' में अ' की प्राप्ति और २-१३९ वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन मे संस्कृत प्रथम 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सड़ कप सिद्ध हो जाता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११ उपेन्द्रः संरकृत रूप है इसका प्राकृत रूप उ इन्दो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'द' का लोप; १-८४ शेष 'ए' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति २-७९ से ' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्सि के एक पवन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उबन्दी ए सिद्ध हो जाता है। मरव-प्रभापलि-अरुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गह-प्पहाबलि-अरुणो होता है। होता है । इसमें सूत्र-संख्या--१-१८७ से 'स' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; २-८९ मे शेष ' को विस्व 'स्व' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर है की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नह-प्यहा-पालअरुणो रूप हो जाता है। सन्ध्या -वधु + उपगूढो संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संझा-बा-अवऊठो होता है। इसमें सूत्रसंख्या-१-२५ से हलन्त 'न् को अनाचार की प्राप्ति, २-२६ से ध्य के स्थान पर 'म' को प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान परह' की प्राप्ति, १-१०७ से 'उप' के 'उ'को 'अ' की प्राप्ति;1-२३१ से 'प'के में स्थान की प्राप्ति, १-१७७ से 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बच्चन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संझा-बहु-अपऊढी रूप सिद्ध हो जाता है। मव पारिधरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप णव-वारिहरी होता है। इसमें सूत्र संख्या -२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति; १-१८७ से 'ब' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति, ५-२ से प्रपमा विभक्ति के एक धसम में अकारान्त पुल्किग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णव-पारिहरी रूप सिड हो जाता है। इस संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत-रूप व होता है । इसमें सत्र-संख्या २-१८२ से 'हव'के स्थान पर 'स्व' आदेश की प्राप्ति होकर च रूप सिद्ध हो जाता है । विगुत-प्रतिभिन्न संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप विजुला-परिभिलो होता है। इसमें सूत्र-सल्या २-२४ से 'छ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति। २-८९ से प्राप्त 'अ' को द्वित्व 'क्ज' को प्राप्ति २-१७३ से प्राप्त रूप - 'विज्ज' में 'स्व' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-३१ को वृत्ति में गणित (हैं. २-४) के उल्लेख से स्त्रीलिंग रूप ममा' की प्राप्ति से 'बिजुला' की प्राप्ति; १-११ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोपः २-७९ से 'र' का लोपा १.२०६ से 'ति' कंत्' को 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बबन में अकारान्त पुल्लिप में सि' प्रत्यय . स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विजुला-पडिभिन्नो रूप सिद्ध हो जाता है। गूढोदर तामरसामुसारिणी संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप गूढोअर-तामरमाणुसारिणी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से '' का लोपा मोर १-२८८ में 'न' के स्थान पर 'प' को प्राप्ति होकर गुडोअर तास- माणुसारिणी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] * प्राकृत व्याकरण * अमर-पंक्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भमर पन्ति होता है। इस सूत्र संख्या २७९ से 'र' का लोपः १-३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'तू' होने से 'न' की प्राप्ति २७७ से 'कू' का लोप और १-११ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप होकर भमर-पन्ति सिद्ध हो जाता है रूपक इसमें ऊपर करदी गई है। पृथिवी : ईशः = पृथ्वीशः ) संस्कृत रूप हं । इसका प्राकृत रूप हवीसो होता है। इसमें सूत्र संख्या ११३१ से 'क' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति १-८८ से प्रथम '' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति १-१८७ से 'य' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति १५ से द्वितीय 'ई' की सजातीय स्वर होने से संधिः १-२१० से ' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति को एक वचन म अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुहवीतो रूप सिद्ध हो जाता है । १-६ ॥ एदोतोः स्वरे ॥ १-७ ॥ एकार - श्रकारयोः स्वरे परे संधिर्न भवति ॥ बहु नहुलि बन्वन्तीए कन्चु मयरद्धय-सर-धोरण-धारा -अ च दीसन्ति ॥ | मासु अज्जम - कलम-दन्ता वहा समूरुजु तं चैव मलि-विस- दण्ड- विरस मालक्खिमां एसिंह || २ | अहो अच्छर । एदोतीरिति किम् ॥ अत्थाजोग्रण- तरला इअर कई ममन्ति बुद्धी श्री । अत्थच्चे निरारम्भमेन्ति हिग्रयं कन्दाणं || ३ || अङ्गं । १ ॥ अर्थः- प्राकृत शब्दों में अन्त्य 'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् कोई स्वर आ जाय तो परस्पर में इस 'ए' reer 'ओ' के साथ आगे आये हुए स्वर की संधि नहीं होती है। जैसा कि उपरोक्ष गायाओं में कहा गया है: 'लिहणे आवन्तोए' 'में' 'ए' क' पदचात् 'आ' आया हुआ हूं तथा 'आलक्सिमो एव्ह' में 'ओ' के पश्चात् 'ए' माया हुआ है । परन्तु इनकी संधि नहीं की गई हूँ । यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । उपरोक्त गाथाओं की संस्कृत छाया इस प्रकार हूं। Fear (वधू कायाः) नखोलेखने आवघ्नत्या कञ्चुकमङ गे । मकरध्वज-शर- धोरखि-धारा छेदा इच दृश्यन्ते ॥ १ ॥ अपर्याप्त भदन्तावभासमूरुयुगम् 1 तदेव मृदित बस दण्ड विरसमालचयामह इदानीम् ॥ २ ॥ उपमासु Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણીલાલ શાહ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * - अचम् = 'ओ' के पश्चात् 'म आने पर भी इनकी परस्पर में संधि नहीं हुमा करती है । मही अच्छरिस प्रश्न:-'ए' अथवा 'ओ' के पश्चात् आने वाले स्वरों को परस्पर में संधि नहीं होती है'-ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:-अन्य सजातीय दरों को संषि हो जाती है एवं 'अ' अथवा 'मा' क पश्चात् आने वाले '' अपवा 'उ' की संधि भी हो जाया करतो जैसे-गया दितीय में आया है कि-'अपज्जत+म' = अपाजतेमा बस अपहास = वन्तावहास । माथा तृतीय में आया है कि-मस्थ + आलोग = अत्यालो प्रजा याजियो अन्य स्वरों को संधि-स्थिति एवं 'ए' मथवा 'ओ' की संधि-स्थिति का अभाव बतलाने के लिये 'ए' अथवा 'मों काल में उल्लेल किरा गया है। तुतीय गाया की संस्कृत छाया इस प्रकार हैं: अर्थालोचन-तरला इतर कवीनां भ्रमन्ति बुद्धयः । अर्थाएव निरारम्भं यन्ति हृदयं कवीन्द्राणाम् ॥ ३ ।। पकाया:-संस्कृत षष्ठयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप बहुभाइ होता है । इसमें सूत्र-- संश-१-१८७ से 'ब' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति १-४ दीर्घ के स्थान पर हस्य 'उ' ३-२९ से षष्ठी विभक्ति के एक पचन में सकारात स्त्रीलिंग में 'पा' प्रत्या के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-१७. सेब का लोर होकर बहुभाई रूप सिद्ध हो जाता है । नरखाल्लेव ने संस्कृत सप्तम्यन्त रूप। इसका प्राकृत रूपमल्लिहले होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से दोनों स्न' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति; १.१४६ से प्रथम 'ए के स्थान पर की प्राप्तिः १-२२८ ले 'न' ने स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३.११ से सप्तमी विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिा में संस्कृत प्रत्यय 'हि' के स्थानीय रूप 'द' के स्थान पर माकुन में भी 'ए' को प्राप्ति होकर मल्लिणे रूप सिब हो जाता है। आवघ्नत्याः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आवग्धतीए होता है । इसमें सत्र संख्या १-२६ से '' व्यस्मन पर भागम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; १.३० से प्राप्त अनुस्वार के आगे 'घ' व्यजन होने से अनुस्वार; के स्थान पर '' को प्राप्ति, ३-१८. से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी वर्तमान कुडन्त के अर्थ में 'न्त' प्रत्यय को प्राप्ति; ३.१८२ से प्राप्त 'त' प्रत्यय में स्त्रीलिंग होने से 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति तरनुसार 'न्ती' की प्राप्ति; और पळी विभक्ति के एक बंधन में इकारान्त स्त्रीलिंग में ३-२९ से संस्कृत प्रत्यय 'स' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आफन्वन्तीए कप सिब हो जाता है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] * प्राकृत व्याकरण * . . कञ्चकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कञ्चों होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप: ३.५ मे द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का स्वार होकर कन्युझं म्प सिद्ध हो जाता है। अंगे संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'अंगे' ही होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग अयथा नपुसकलिंग में 'डि' के स्थानीय रूप 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' की की प्राप्ति होकर अंगे रूप सिद्ध हो जाता है। . मकर-पज-धार-धोराण-धारा-छेदा-संस्कृत वाक्यांश रूप है । इसका प्राकृत रूप मयर-अय-सरघोरणि-वारा-एज होता है । इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष रहे 'म' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-७९ से 'ब' का लोप; २-८९ से शेष 'ध' को बित्व 'ध' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व ' के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-१७७ - '' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हए 'भ को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-१७७ से 'द' का लोप और १-४ से अन्त्य बोध स्वर आ के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति होकर मयर-ञ्चय-सर-धोराणि-धारा-छेअरूप सिद्ध हो जाता है। व्व को सिदि सूत्र-संख्या 1-६ में की गई है। दृश्यन्ते-संस्कृत किया पद रूप है । इसका प्राकृत रूप बीसन्ति होता है । इसमें स्त्र-संध्या-३-१६१ से 'दृश्य' के स्थान पर 'दोस्' आदेश ४-२३९ से हलन्त प्राप्त 'दोस्' धातु में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बट बचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर दीसन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। उपमासु संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवमासु होता है इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति, और ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहु वचन में फारान्त स्त्री लिंग में 'सुप्' प्रत्यय की प्राप्ति; एवं १-११ से अन्त्य व्यञ्जन प्रत्ययस्थ 'ए' का लोप होकर उपमासु रुप सिंह हो जाता है। अपर्याप्तंभ किलभ) दन्तावभासम' संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप अपग्मत्तेम-फलभ चन्तावहासं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-२४ से संयुक्त ध्यस्मत 'य' के स्थान पर 'ज' को प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'ग्जा' में स्थित दीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति २-७७ से '' का लोप २-८९ से शेष 'त' को द्विस्व 'स' की प्राप्ति १-१८७ से तृतीय के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रपमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार को प्राप्ति होकर अपज्जत्रोभ-कलम-दन्ताबहार्स रूप सिस हो जाता है। अरुयुगस् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रज़र्श होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'यू' के स्थान पर की प्राप्ति; १-१७७ से 'गु' का लोप; ३-२५. से प्रथमा विभक्ति के एक षचन में अकारान्त नपुसक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१५ लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ऊरुजु रूप सिब हो साता है। तदेव संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप तं एव होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ (संस्कृत मूल रूप तत् में स्थित ) अन्त्य व्यञ्जन 'तू' का लोप; ३.२५ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में अक्षाराम्स नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार और 'एव' को स्थिति संस्कृत वत् ही होकर तं एवं रूप सिद्ध हो जाता है। मृदित बिस दण्ड विरसम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मलिअ-बिस-वा-विरसं होता है। इसमें सूत्र संख्या ४.१२६ से 'मृद्'ानु के स्थान पर 'मल' आदेशः ३-१५६ से प्राप्त रूप 'मल' में विकरण प्रत्यप रुप'' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का खोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में मसक लिंग में सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मलिभ-विस-दण्ड-विरसं रूप सिद्ध हो जाता है। अलक्षयामह ाका पराकम है। इसका प्राकृत ख्य आलक्खिमो होता है। इसमें सूत्र-संस्था २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स्व' को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्तिः ४-२३९ से हलन्त 'भातु' आलवखे में बिकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१५५ सं 'ख' में प्राप्त 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; और ३.१४४ से उत्तम पुरुष याने तृतीय पुरुष के महूवचन में वर्तमान काल में 'मह' के स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आलक्खिमो रूप सिद्ध हो जाता है। इदानीम संस्कृत अपय है । इसका प्राकृत रूप एहि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३४ से संपूर्ण 'अध्यय रूप' 'इदानीम् ' के स्थान पर प्राकृत में 'एण्हि' आवेश की प्राप्ति होकर 'एम्हि रूप सिद्ध हो जाता है। अहो ! संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रुप भी 'महो' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-२१७ को त्ति से 'अहो' रूप को यथा-स्थिति संस्कृत बस् ही होकर 'अहो' अव्यय सिद्ध हो जाता है। आश्चर्यन संस्कृत का है । इसका प्राकृत रूप अच्छरिस होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-२१ से 'इच' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति; २-८१ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व '' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति २-६७ सम के स्थान पर "रिअ' आदेश और १-२३ से हलन्त अन्त्य 'म्' को अनुस्वार की शान्ति होकर प्राकृत रूप 'अच्छरि सिख हो जाता है। अालोचन-तरला संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप अत्पासोअग-सरला होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७९ से रेफ रूप हलन्त 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् क्षेप रहे एए '' को द्विस्व 'थ्य की प्राप्ति: २-९० से प्राप्त पूर्व '' के स्थान पर 'त' की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'मत्व के अन्रय 'अ' को भाग रहे हए 'आलोचन = आलोअण' के आदि 'आ' के साथ संधि होकर 'अस्था' रूप को प्राप्ति: १-७७... Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * 'कालोपा १-२२८ सेम' के स्थान पर 'ष' को प्राप्ति; ३-३१ से स्त्रीलिंग-मर्थ में मूल प्राकृत विशेषन रूप 'सरल' में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में मंस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जर काममोप होकर अत्यालोजण-तरला प सिद्ध हो जाता। इतर-फीनाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इअर-कईणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या 1-1७७ से' और 'व' का लोपः ३-१२ से मूल रूप 'कवि' में स्थित अन्त्य हव 'इ' को वीर्घ 'ई' को प्राप्ति; ३-६ में संस्कृतीय षष्ठी विमक्ति के मनुवचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम' के स्थानीय रूप 'नाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'प' अस्पय को आदेश आप्ति र र र र पारस बार की प्राप्ति होकर 'जभर-फाड़ कप सिद्ध हो पाता है। अमन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापन का रूप है । इसका प्राकृत रूप भमन्ति होता है। इसम सूत्र-संख्या २-७५ का लोप; ४-२३९ से हलन्स पातु 'भम' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; और ३-१४२ से बसमान काल के प्रथम पुरुष के बहुवचन में संस्कृत के समान हो प्राकृत में भी 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर भवन्ति र सिद्ध हो जाता है। वलयः संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत का सीओ होता है । इसम सूत्र -संख्या-३-२५ से सप'बुद्धि' में स्थित भन्स्व हस्व स्वर 'इ' को वीर्घ 'ई' की प्राप्ति एवं.३-२७ से हो संस्कृतोष प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्ताप प्रत्यय 'जस्' :: अस्' के स्शन पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की गप्ति होकर बचिो म सिद्ध हो जाता है। अर्थाः संस्कृत प्रपशन्त बावधन प है । इसका प्राकृत रुप (यहां पर) अत्य है । इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्वतात शेष रहे हए 'घ' को वित्व 'थ्य' को प्राप्ति; २-८९ से प्रान्त पूर्व के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त कर 'अश्य' के अन्स्य हुन्ध स्वर 'अ' के स्थान पर 'मा' को प्राप्ति; ३-४ से पपव विभमित के बहबचन में संस्कृतीय प्राप्तम्प प्रत्यय 'जस' का पाकृत में लोप; मौर १-४ पाकृत में प्राप्त बहुवचनान्त रुप 'भरथा' में स्थित अन्त्य दोध स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ को पाप्ति होकर अस्थ' रुप सिद्ध हो जाता है। एवं संस्कृत विश्वय माधक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप से होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-१८४ से 'एच' के स्थान पर धे' आयेश और २-९९ से प्राप्त 'चेब' में स्थित '' का द्विस्व 'क' को प्राप्ति होकर 'रअ' रूप सिद्ध हो जाता है। . निरारम्भम् मरगत द्वितीयान्स एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप भी निरारम्भम् हो होता है। इसमें एकरूपता होने के कारण से सानिका को आवश्यकता न होकर अपवा ३-५ से 'म' प्रत्यक्ष की प्राप्ति होकर भारत में भी बितीया-विभक्ति के एक अपन में निरारम्भम् तक ही सिद्ध करते हैं क्योंकि Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१७ इसका यन्ति संस्कृत सकर्मक क्रिया पर का रूप है । इसका प्राकृत रूप एन्ति होता है। इसमें पूत्र-संख्या(हेम० ) ३-३-६ से मल पातु 'इण' की प्राप्ति, संस्कृतीय विधानानुसार मूल धातु इण' में स्थित अन्स्य हसन्त 'ण' की इत्संझा होकर लोप; ४-२३७ से प्राप्त धातु 'ई' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति; और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बल वचन में संस्कृत के समान हो प्राकृत में भी 'म्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर एन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। हृदयम संस्कृत रूप हं । इसका प्राकृत रुप हिअयं होता है ।सम सूत्र-संख्या १-१२८ से 'क' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति १-१७७ से 'द' का लोप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचा में 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर हिशयं रूप सिद्ध हो जाता है। . कवीन्द्राणाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कइन्वाणं होता है। इसमें सूबसंख्या १-१७७ से '' का लोप: १-४से वीर्घ स्वर के स्थान पर स्व स्वर की प्राप्तिः २-७९सेर का लोप: ३-१२ स प्राप्त प्राकृत रूप 'कइन्च' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-६ से संस्कृतीप षष्ठी विभक्ति के यह वचन में 'आम' प्रत्यय के स्थानीय रूप ‘णाम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय को प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर काइन्मार्ण रूप सिद्ध हो जाता है । १-७॥ स्वरस्योवृत्त ॥ १-८॥ व्यञ्जन-संपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उदृत इहोच्यते । स्वरस्य उवृत्ते स्वरे परे संधिनं भवति ।। विगसिज्जन्त-महा-पमु-दसण-संभम-परोपरारूढा । गयणे च्चिय गन्ध-उडि कुणन्ति तुह कउल-गणारीयो ।। निसा-श्ररो। निसि-अरो : रयणी-अरो । मणुअत्त । बहुलाधिकारात् क्वचिद विकल्पः । कुम्भ-ग्रारो कुम्भारो । सु-उरिसों सूरिसो । क्वचित् संधिरेच सालाहणो चक्काओ || अतएव प्रतिपेधात् समासे पि स्वरस्य संधी भिन्नपदत्वम् ॥ : अर्थ-व्यञ्जन में मिला हुआ स्वर उस समय में 'उबृत्त-स्वर' कहलाता है। जबकि वह व्यञ्जन लुप्त हो जाता है और केवल 'रवर' हो शेष रह जाता है । इस प्रकार अवशिष्ट 'स्वर' को संज्ञा 'उवृत्त स्वर' होती हैं । ऐसे उवृत्त स्वरों के साथ में पूर्वस्प स्वरों की संधि नहीं हुआ करती है। इसका तात्पर्य यह है कि उदत्त स्वर अपनी स्थिति को ज्यों की त्यों बनाये रखते हैं और पूर्वस्थ रहे हए स्वर के साथ संधि-पोग नहीं करते है । जैसे कि मूल माया में ऊपर गन्य-पुटीम के प्राकृत रूपान्तर में 'गन्ध-डि' होने पर 'घ' में स्थित 'अ' को 'पुटीम्' में स्थित 'यू' का Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] * प्राकृत व्याकरण * लोप होने पर उपपत्त स्वर रूप 'ज' के साथ संधि का अभाव प्रदशित किया गया है । यो 'जन्स-रबर' की स्थिति को जानना चाहिये। ऊपर पत्र की वृत्ति में उद्धृत प्राकृत-गाथा का संस्कृत-रूपान्तर इस प्रकार है: विशस्यमान-महा पशु-दर्शन-संग्रम-परस्परारूढाः॥ गगने एवं गन्ध-पुटीम् कुर्वति तप फौल-नायः।। अर्थ-कोई एक रमांक अपने निकट के व्यक्ति को कह रहा है कि-'तुम्हारी ये उम-संस्कारों वाली स्त्रिया इम बसे सके पशुओं को मारे जाते हुए देख कर घसाई हुई एक दूसरे की मोट में पाने परस्पर में छिपने के सिमे प्रयत्न करती हुई (और अपने पित की इस धूवामय बीस हटाने के लिये) आकाश में हो (अर्थात् निरापार रूप से ही मानों) गन्ध-पात्र (को रचना करने जैसा प्रयत्न ) करती है (अथवा कर रही है) काल्पनिक-चित्रों की रचना कर रही है। उत्त-स्वरों की संथि-अभाव-प्रवर्शक कुछ उदाहरण इस प्रकार है-निशाचरः = निसा-अरो; निशाचरनिसि-भरो; रजनी-पर: = रयणी-अरो; मनुजत्वम् :- मणुअत्तं । इन उदाहरणों में 'घ' और 'इ' का लोप होकर 'अ' स्वर को उछृत्त स्वर को संज्ञा प्राप्त हुई है और इसी कारण से प्राप्त उद्वस स्वर 'अ' की संघि पूर्वस्य स्वर के साप नहीं होकर उत्त-स्वर अपने स्वरूप में हो अवस्थित रहा है। यों सर्वत्र उवृत्त स्वर की स्थिति को समझ लेना पाहिये । 'बहुल' सूत्र के अधिकार से कभी कभी किसी किसी शब्द में उत्त स्वर की पूर्वस्व घर के साथ कल्पिक रूप से संधिशोती हई देखी जाती है। जैसे-कम्भकारः कुम्भ-आरो-अथवा कुम्भारो। सु-पुरुषः = सु-उरिसो= अथवा सूरिसो । इन उदाहरणों में बढ़त स्वर को वैकल्पिक रूप से मंधि श्वशित की गई है। किन्ही किन्ही शम्बों में उदवृत्त स्वर की संधि निश्चित रूप से भी पाई जाती है। जैसे-शातवाहनः = साल + आगो - सालाहणो और चक्रवाकः = चक्क + माओ=सरकाओ । इन उदाहरणों में उदयत स्वर की संधि हो गई है । परन्तु सर्व-सामान्य सिद्धान्त यह निश्चित किया गया है कि उद्दत स्वर की संधि नहीं होती है। तवनुसार यदि अपवाद रूप से कहीं कहीं पर उस सवृत्त स्वर की संधि हो जाय तो ऐसी अव था में भी उस उदवृत्त स्वर का पृथा अस्तित्व अवश्य समझा जाना चाहिये और इस अपेक्षा से उस उद्धृत्त स्यर को 'भिमत्व' पद वाला ही समझा जाना चाहिये । विशस्यमान संस्कृत विशेषण-रूप है । इसका प्राकृत रूप विससिज्जन्त होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-१६० से संस्कृत की भाय-कर्म-विधि में प्राप्तम्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्म' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१८१ से संस्कृत में प्राप्तव्य वर्तमान-कृदन्त-विधि के प्रत्यय 'मान' के स्थान पर प्राकृत में 'म्त' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विससिज्जन्त रूप सिद्ध हो जाता है। महा-पशु-दर्शन संस्कृत पाक्यांपा है। इसका प्राकतरूप महा-पसु-सण होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १-२६० से प्रथम "श" के स्थान पर "स" की प्राप्ति १-२६ से "" पर भागम कप मनुस्वार की प्राप्ति २-७९ से Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६ रेफ रूप 'र' का लोप; १-२६० से द्वितीय 'श' के स्थान पर "स' की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर महा-पसु-दसण' रूप सिद्ध हो जाता है । संभ्रम-पररथरारूडा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संभम-परोप्पराकडा होता है। इसमें सूध संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; १-६२ से वित्तीय 'र' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ओ' को प्राप्ति २-७७ खें हल त व्यञ्जन 'स' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात् रहे हुए 'प' को द्विस्व 'प' की प्राप्ति; ३-१२ से अस्य शम 'स्व' में स्थित अस्य हुम्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति और ३.४ से प्रथमा विमति के महवचन में संस्कृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'जम = अस' का प्राकृत में लोप होकर-संभव-परोप्परा रूदा कप सिद्ध हो जाता है। गगन संस्कृत सप्तम्यन्त एक बच्चन रूप है । इसका प्राकृत रूप गयणे होता है । इसमें सूत्र-संख्या-4-१७७ से द्वितीय 'ग्' का लोप; १-१८० • लोप हुए 'ग: के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के पान पर 'ग' को प्राप्ति और ३-११ से संस्कृतीय सप्तमा विमक्ति के एक बचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'डि = इ' के स्थान पर प्राकृत में 'ड' प्रत्यय की प्राप्ति; तबनुसार प्राप्त प्रत्यय 'ई' में '' इत्संक होने से पूर्वस्य पर गयण' में स्थित अन्स्य 'प' के 'अ' की परसंज्ञा होने से लोप एवं तत्पश्चात शेष हलन्त 'म्' में पूर्वोक्स '' प्रत्यय को संयोजना होकर गयणे' रूप सिद्ध हो जाता है। ‘एवं संस्कृत अस्वय है। इसका प्राकृत रूप 'चिन' होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-1८४ से 'एब' के स्थान पर नि आदेश और २-९९ से प्राप्त चिज' में स्थित 'च' को द्वित्व 'बच्' को प्राप्ति होकर चिम रूप सिद्ध हो जाता है। गन्ध-गुटीम संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप-'गंध-डि होता है। इसमें मूत्र-संख्या -१७७ से 'ए' का लोप; १-८ से पूर्वोक्त 'प' का लोप होने से शेष 'उ' को उत्त स्वर के रूप में प्राप्ति मौर संधि का अभाव, १-१९५५ से 'द' के स्थान पर 'ड' को प्राप्ति, ३-३६ से दीर्घ स्वर ६ के स्थान पर हुस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति, ३-५ से द्वितं या विभक्ति के एक बयान में 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर गन्ध-उहि रूप सिद्ध हो जाता है। कुवैति संस्कृत सकर्मक किया पर का रूप है। इसका प्राकृत रूप कुणन्ति होता है। इसमें सूर-संख्या४-६५ से मत संस्कृत क्षतु 'कृ' के स्थानापन्न रूप 'कुर्व' के स्थान पर प्राकृत में 'कुष' बादेश; और ३-१४२ से वर्तमान-काल के प्रथम पुरुष के बहु बचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुणन्ति रुप सिद्ध हो जाता है। तष संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप सुह होता है 1 इसमें सूत्र-संख्या ३-९९ से संस्कृतीव सर्वनाम 'पुरुमत' के षष्ठी विभक्ति के एक वक्षम में प्राप्त रूप 'लव' के स्थान पर मालतुह आदेश-प्राप्ति होकर 'तुहं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] ** प्राकृत व्याकरण फॉल - नार्यः प्रथमान्त यह वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप जारीओ होता है। इसमें सूत्र -१-१६२ से 'ओ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ६-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में संस्कृत में प्राप्तश्य प्रत्यय 'जस्=असू के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति होकर कउल-णारीओ कर सिद्ध हो जाता है। निशा - परः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप निसा बरो और निसि बरी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से के स्थान पर कोमा १७२ से द्वितीय रूप में "आ" के स्थान पर बैकल्पिक रूप से "इ" को प्राप्तिः १-२७७ से" का सोप; १-८ मे सोप हुए "" के पश्चात् शेष रहे हुए को उस स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृत में प्राप्य "सि" के स्थान पर प्राकृत में "डोओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप से दोनों रूप निसा-अये और नितिअरो सिद्ध हो जाते हैं । रजनी-वरः संस्कृत रूप है। इस प्राकृत रूप रमणी-अरी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ "ज् और "" का छोप; १-१८० से लोप हुए "जु" के पश्चात् शेष रहे हुए "अ" के स्थान पर "" को शाप्ति; १- २२८ से "नु" के स्थान पर "" की प्राप्ति १८ से लोप हुए "" के पश्चात् दोष रहे हुए "म" को उत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्य स्वर के साथ संधि का अभाव और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बज में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर रयणी अरो रूप सिद्ध हो जाता है । मनुजत्वम्, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मणुभ होता है। इसमें संख्या १२२८ से "" के स्थान पर "" की प्राप्ति १-१७७ से ज्" का लोप २७९ से "" का लोप २-८९ से लोप हुए 'व्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय की स्थान पर 'म' प्रत्मय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर मयुतं रूप सिद्ध हो जाता है । कुम्भकारः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कुम्भ-गारो और कुम्भारो होते हैं। इनमें सूत्र संस्था १-१७७ से द्वितीय 'कृ' का लोप १-८ को वृत्ति से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उत्त स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्थ स्वर को सभ्य वैकल्पिक रूप से संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप कुम्भ-भारो और कुम्भारो सिद्ध हो जाते हैं। सु-पुरुषः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सु उरिसरे और रिसी होते हैं इन सूत्र संख्या १-१७७. '' का लोप १-८ की मूर्ति सं सोप हुए 'पू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्धृत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने से पूर्वस्य स्वर 'उ' के साथ वैकल्पिक रूप से सधिः तबनुसार १५ से द्वितीय रूप में दोनों 'उ' कारों के स्थान पर दोघं 'क' फार की प्राप्तिः १ - १११ से 'रु' में स्थित 'ज' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६० सं 'ब' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बदन में प्रकारन्त पुि Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२१ म 'लि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत 'ओ' प्रत्यय को मास्ति होकर कम से दोनों रूप-7-उरिसी और सूरिसो सिद्ध हो जाते है। शात-चाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकत हर-(साल + आहणो - सालाहणी होता है । इसमें सूत्रसंख्या-१-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति, १-२११ से 'त' के स्थान पर 'ल' को प्राप्ति; १-१७७ से '' का लोप; १-८ को वृत्ति से लोप हुए '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को उद्धृत्त स्वर को संज्ञा प्राप्त होने पर भी पूर्वस्थ 'ल' में स्थित 'अ' के साथ संधिः १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पहिलन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकरसालाहगो रूप सिद्ध हो जाता है। चकवाक सस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का चरकामी होता है । इसमें सत्र-सया २.७९ से 'र' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हए 'क' को द्विस्व 'पर' की प्राप्ति; १-१७७ से '' और द्वितीय-(अन्त्य)-'क' का लोप; १-८ को वृत्ति में लोर दुध '' के पश्चात शेष रहे हर आ' को उसत स्वर की संज्ञा प्राप्त होने पर भी १५ से पूर्वस्थ 'क' में स्थिति 'अ' के साथ उस 'आ' को सन्धि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पत्रा में अकारान्त पुलिला में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' प्रत्यर की प्राप्ति होकर परका रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-८ ॥ त्यादेः ॥ १-६॥ तिवादीनां स्वरस्य स्वरे पर संधि ने भवति ।। भवति इह । होइ इह ।। अर्थः-धातुओं में अर्थात कियाओं में सयोजित किये जाने वाले काल बोधक प्रत्यय तिब' 'तः' और : 'अन्ति' आदि के प्राकृतीय व 'ड', 'ए'ति', 'न्ले' और 'इरे' आदि में स्थित अन्य स्वर' को आगे रहे हए सजातीय स्वरों के साथ भी संधि नहीं होती है । जैसे:-भवति इह । होइ इह 1 TR उबाहरप्प में प्रथम 'र' तिबादि प्रत्यय सूचक है और आगे भी सजातीय घर 'इ' को प्राप्ति हुई, पर फिर भी दोनों 'दकारों' को परस्पर में सधि नहीं हो सकती है । यो सघि--गत विशेषता को ध्यान में रखना चाहिय । भवति संस्कृत अकर्मक क्यिापन का रूप है । इसका प्राकृत रूप होइ होता है। इसमें सबसपा ४-६० से सस्कृत धातु 'भू' के स्थानीय रूप विकरण-प्रत्यय सहित 'भव' के स्थान पर प्राकृत में 'हो' आवेश और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हाइ रूप सिद्ध हो जाता है। इह संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप भी इह ही होता है । इसमें सूत्र-सख्या ४-४४८ से लापतिका को आवश्यकता नहीं होकर 'इह' रुप ही रहता है । १-९॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] * प्राकृत व्याकरण * लुक् ॥ १-१०॥ स्वरस्य स्वरे परे बहुल लुग भवति ।। त्रिदशेशः । तिअसीसो ॥ निःश्वासोच्छ बासौं । नीसाससासा ।। ___ अर्थ:-प्राकृत-भाषा में (संधि-योग्य) स्वर के आगे स्वर रहा दमा हो तो पूर्व के स्वर का अक्सर करके लोप हो जाया करता है ! जैसे:-त्रिदश + ईशः = त्रिदशेश:-तिअस + ईसो - तिअसीसो और निःश्वास: + उच्छ्वास: निश्वासोच्छ्वासी-नोसासो + ऊसासो = नीसासूसासा । इन उदाहरणों में से प्रथम उदाहरण में 'अ + ई' में में 'अ' का लोप हुआ है और द्वितीय उदाहरण में 'ओ + 3' में से ओ का लोप हुआ है । यो 'स्वर के बाद स्वर आने पर पूर्व स्वर फे लोप' की व्यवस्था समझ लेनी चाहिये । विश+ ईशः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तिअसीसो होता है इसमें सत्र-संकपा-२-७९ से 'वि' में स्थित 'र' का लोपः १-१७७ से 'दु' का लोप; १-२६० से दोनों 'श' कारों के स्थान पर कर से दो 'स' कारों की प्राप्ति: १-१० से प्रात प्रथम 'स' में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर के आगे'ई' रचर की प्राप्ति होने से लोप सत्पश्चात् शेष हलन्त 'स्' में आगे रहो हुई 'ई' म्बर को संधि और ३-२ से श्यमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर तिमसीसी रूप मिस हो जाता है। निघासः + उत् + वासः-निश्वासोच. वासी संकृत द्विवचनांत रूप है । इसका प्राकृत रूप (द्विवचन का अभाव होम से} बहुवचनांत रूप-नोसासो + ऊसासी = नोसासूसासा होता है । इसमें सूत्र-संख्पा-१-१३ से 'निः' में स्थित विसर्ग के स्थानीय रूप ' का लोप; १-१३ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष 'नि' में रियत हुस्त्र स्वर '' की वीर्घ प्राप्ति: १-२६० से श' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति; २-७९ से 'व' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभषित के एक वचन में अकारान्स पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होने से प्रथम पद 'नोसासो' की प्राप्ति द्वितीय पद में १-११ की वृत्ति से 'उत्' में स्मित हलन्त 'त' का लोप; १-४ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष हस्व स्वर “उ' के स्थान पर दीर्थ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-७९ में 'व्' का लोप; ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होने से द्वितीय पर 'ऊसासो को प्राप्ति१-१० से प्रथम पद 'नोसासों' के अन्य व्यञ्जन 'सो' में स्थित 'ओ' स्वर के आगे 'ऊसासो' का 'क' स्वर रहने से लोप; तत्पश्चात् शोष हलन्त व्यञ्जन 'स' में 'ऊ' स्वर की संधि संयोजना; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहु वचन की प्राप्ति तदनुसार ३-४ से प्राप्त रूप 'नोप्सासूसास' में प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत-प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोप और ३-१२ में प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जल' के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर 'अ' पर वीर्ष स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर समासात्मक नीसासूसासा रूप सिद्ध हो जाता है॥ १-१०॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२३ अन्त्यव्यञ्जनस्य ॥ १-११ ॥ शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्व लुग भवति ॥ जाव । ताव । जसो । तमो । जम्मो ॥ समासे तु वाक्य विभक्त्यपक्षायाम् अन्त्यत्व अनन्स्यत्वं च । तनोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः । सभिक्खू । सज्जनः । सज्जणी ॥ एतद् गुणाः । एम-गुणा ॥ तद्गुणाः । तग्गुणा ।। अर्थ:-संस्कृत-दावों में स्थित अन्त्य हलन्त यजन का प्राकृत-रूपान्तर में लोच हो जाता है। जैसेयावत् = जाव; तावत् = साव; यशस् = यशः = जसो तमस्-तमः = तमो; और जन्मन् = जन्म = गम्भो; इत्यादि । समास-गत शब्दों में मध्यस्थ शब्दों के विभक्ति-योधक प्रत्ययों का लोपही आता है एवं मध्यस्थ स गौण हो जाते है तथा अन्य शम्ब मुख्य हो जाता है। तब मुख्य शम्न में ही विभक्ति-बोषक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं। तदनुसार मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त ध्यजन को कभी कभी तो 'अन्त्य व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त होती है और कभी कभी 'अन्स्य व्यान' को ससा नहीं भी प्राप्त होती है। एसी व्यवस्था के कारण से समास एत मध्यस्थ साम्दों के अन्तिम हलन्त ध्यञ्जन 'अन्य' और 'अनन्त्य दोनों प्रकार से कहे जा सकते हैं। सबनुसार सूत्रसंख्या १.११ के अनुसार जब समास-गत मध्यस्थ शब्दों में थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को 'अन्त्य-यजन' को संशा प्राप्त हो तो उस 'अन्त्य-व्यञ्जन' का लोप हो जाता है और यदि उस व्यञ्जन को 'अन्त्य व्यञ्जन' नहीं मानकर 'अनन्तम व्यजन' माना जायगा तो उस हलन्त व्यञ्जन का लोप नहीं होगा । जैसे-सद-भिक्षः समिक्स इस उदाहरण में 'सत्' शब्द में स्थित 'द' को 'अन्त्य हलन्त-यजन' मानकर के इसका लोप कर दिया गया है। सत् + जनः = सज्जन: = सजणो; इसमें 'सत्' के 'त्' को 'अनन्त्य' मान करके 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' के रूप में परिणत किया है। अन्य उदाहरण इस प्रकार है-एतद्गुणा:-ए-गुणा और तद-गुणाः - तरंगणा; इन उदाहरणो में कम रो अन्त्यत्व और अनन्स्यत्व माना गया है। तदनुसार क्रम से लोप-विधान और द्वित्व-विधान किया गया है । यो समास-गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त जन की 'अरश्य-स्थिति' तथा 'अनन्य-स्थिति समझ लेनी चाहिये। यापन संस्कृत अध्यष है । इसका प्राकृत रूप जाध होता है इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हसन्त यजन 'त' का लोप होकर जा रूम सिद्ध हो जाता है। ताधार संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप ताव होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-११ से अन्य हलन्त ___ पञ्जन 'त्' का लोप होकर 'त.वं रूप सिद्ध हो जाता है। यशस् । = यशः) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जसो होता है । इसमें सूत्र-संस्था १-२४५ से '' के स्थान पर '' की प्राप्ति 1-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जस' को पुल्लिगस्य की प्राप्ति और.३-२ से प्रपमा विभक्ति के एक बहन में सकारात (में प्राप्त) पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जसो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] * प्राकृत व्याकरण * तमस् ( = तमः ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूम नमो होता है इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्य हलन्त व्यंजन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'तम' को पुल्लिास्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त (मान) पलिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रस्तष की प्राप्ति ह कर तमी रूप सिद्ध हो जाता है। जन्मन् = (जन्म) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत कम जम्मो होता है। इ: सूत्र-संकरा २-७८ से प्रथम हलन्त 'न्' का लोप; २-८९ से लोग हुए न्' के पश्चात् शेष रहे हए. 'म' को द्वित्व '' की प्राप्ति; १-११ से मरय हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जन्म' को पुल्लिनत्व की प्राप्ति और ३-२ सं प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त (में प्राप्त पुल्लिग में 'सि प्रत्या के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्मो रूप सिद्ध हो जाता है । सदभिक्षुः संस्कृत रूप है। इसका पाकृत रूम सभिशय होता है। इसमें सूर-संख्या १-११ से 'ब' का लोप: २-३ से '' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'त्र' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में उफारान्त पुलि प्रस्मय के स्थान पर मात्य हस्व स्वर 'उ' को दोत्रं स्वर 'क' की प्राप्ति होकर सभिक रूप सिद्ध हो जाता है। सज्जनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सन्जयो होना है। इस में सूत्र संख्या १-११ को वृत्ति से प्रथम हलन्त 'ज्' को अनन्त्यत्व को संज्ञा प्राप्त होने से इस प्रथम हलन्त 'ज' को लोपाभाष को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सज्जणोध्या सिद्ध हो जाता है ! एतद्गुणाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप एअ-- गुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ थे 'त्' का लोप; १-११ से हलन्त 'ब' को अन्त्य-व्यञ्जन को मांज्ञा प्राप्त होने से 'द' का लोय; ३-४ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'एअ-गुण' में प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीव-पत्यय 'जन् की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ में प्राप्त तथा लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण ते अन्त्य हव स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' को प्राप्ति होकर एअ-गुणा रूप सिद्ध हो जाता है। सदगुणा: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत-रूप तागुणा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११ : नहीं किन्तु २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द' के पश्चात् शेष रहे छुए 'ग' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति शेष सानिका उपरोक्त 'एअ-गुणा' समान ही ३-४ तया ३-१२ से होकर नग्गुणाः रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-११॥ न श्रदुदोः ॥ १-१२॥ श्रद् उद्' इत्येतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य लुग् न भवति ।। सदहिअं । सद्धा । उग्गयं । उन्नयं ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२५ अर्थ:-'भद' और 'जबू' में रहे हए अन्त्य हलन्त पञ्जन 'इ' का लोप नहीं होता है। से:-म + बषितम् = सदहिम, श्रद + था-पट्टा = सद्दा; उ + गतम् = उग्गय और उद् + नतम = उन्नयं । प्रथम से उदाहरणों में श्रद' में स्थित 'द' ययावत् अवस्थित है। और अन्त के को उबाहरणों में 'उद्' में स्थित '' मारान्तर होता हुआ अपनी स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है; यो लोपाभाव की स्थिति 'गई और उद् में व्यक्त की गई हैं। श्रदाधितम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सहिझं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७९ से 'या' '' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से श् के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १-१२ से प्रथम '' का लोपाभाष; १-१८७ से '' के स्थान पर है, की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रपा विभक्ति के एक अचम में अकारान्त नपुसक लिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर सहहि रूप सिम हो जाता है। श्रद्धा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब' में स्थित 'र'का लोर; १.२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे ४१ 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-१२ से '' का लोपाभाव होकर सा रूप सिद्ध हो जाता है। उद् + गतम् सर्षस्कृत विशेण रूप है । इसका प्राकृत रूप जग्गय होता है इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से '' का ( प्रच्छन्न रूप से ) लोप; २.८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'ब' के पश्चात आगे रहे हुए 'ग' को हिरन 'ग' को प्राप्ति; १-१७७ से'' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिग में म प्रत्यय को प्राप्ति मौर १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर उग्गयं रूप सिद्ध हो जाता है 1 उद् + नतम् सस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उन्नवं होता है। इसमें सूत्र-संस्पा २-७७ से '' का (प्रसन्न रूप से ) लोप; २-८१ स (प्रग्छन कप से लुप्त 'द' के स्थान पर आगे रहे हए 'न' को द्वित्व '' को प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोष; १-१८० से लोप लए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उन्नयं रूप सिद्ध हो जाता है। १-१२।। निदुरोवा ॥ १-१३॥ निर् दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति ।। निस्सहं नीसह । दुस्सहो दूसहो । दुक्खिों दुहिओ ॥ अर्थ:-'निर और 'दुर इन दोनों उपसगों में स्थित अन्त्य हलन्त-व्यञ्जन 'र' का बकल्पिक रूप से लोप होता है। जैसे:-निए+ सहं ( निःसहं ) के प्राकृत रूपान्तर मिस्सह और नीसहं होते है । दुर् + सहः ( दुस्सहः ) के प्राकृत रूपान्तर पुस्सहो और दूसही होते हैं। इन उदाहरणों से शात होता ह कि "निस्तह' और 'दुस्तहो' में 'र' Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] * प्राकृत व्याकरण * का (प्रज्छन्न रूप से ) सद्भाव है; जबकि 'नीसह' और 'ट्रमहो' में 'र' का लोप हो गया है । दुःखितः = वुक्निो और वृहिओ । इन उदाहरणों में से प्रथम में विसर्ग' के पूर्व कप 'र' का प्रच्छन्न रूप से 'क' रूप में सद्भाव है और द्वितीय उदाहरण में उक्त '' का लोप हो गया है। यों व कशिक रूप मे 'बुर्' और 'निर्' में स्थित 'र' का लोप हुआ करता है। निःसहं ( = निर् + सह ) संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप निस्सहं और नीसह होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सुब-संख्या १-१३ से 'र' के स्थान पर लोगभाव होने से 'विसर्ग' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्त 'विसर्ग' के स्थान पर मागे 'स' होने से 'स्' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्स नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रस्मय को प्राप्ति और १-२३ से पास 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप निस्सह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(निर् + सह = ) नीसह में सूत्र-संख्या १-१३ मे 'र' का लोप; १-९३ से 'नि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम के समान ही होकर द्वितीय रूप नीसह भी सिद्ध हो जाता है। सहः सहः ) संस्कृति बिक है। इसके प्राकृत रूप दुस्सहों और दूसही होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोपाभाव; ४-४४८ से अलएन 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स' वर्ण होने से 'स' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दुस्सही सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दुर् + सहः-) दूस सो में सूब-संख्या १-१३ से '' का लोप १-११५ से हुस्व स्वर 'उ' के स्थान पर बोध स्वर 'ॐ को प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय-रूप दूसही भी सिद्ध हो जाता है। दुःखितः ( - दुर् + खितः ) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत म बुक्तिओ और दुहिओ होते हैं। इनमें से. प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग का सोपा भाव; ४-४४८ से प्राप्त 'विप्तर्ग' के स्थान पर जिह, वामूलीय रूप हलन्स 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दिखओं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( दुःखितः = ) दुहिओ में सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग' का लोप, १-१८७ से 'ख' के स्थान पर हैं' की प्राप्ति २-१७३ से 'त्' का लोप और-२ सेप्रममा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुहिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बितीय रूम बुद्धिी सि हो जाता है। १-१३॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२७ स्वरेन्तरश्च ॥ १-१४ ॥ आन्तरी निर्दथान्त्य व्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग् न भवति ॥ अन्तरप्पा। निरन्तरं । निरवसेसं ॥ दुरुत्तरं । दुरवगाहं ॥ क्वचिद् भवत्यधि । अन्तोवरि || अर्थ-'अन्तर', 'निर्' और 'दुर्' उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन र' का उस अवस्था में लोप नहीं होता है जब कि इस अस्य 'x' के आगे 'स्वर' रहा हुआ हो। जैसे-अन्तर् + आत्मा = अन्तरपा । निर् + अन्तरं निरन्तरं । निर् + अवशेषम् = निरवसेसं । 'दुर्' के उदाहरणः-दुर् + उत्तरं = बुरुत्तरं और दुर् + अवगाह - दुरवगाह कभी कभी उक्त उपसर्गों में स्थित अन्त्य हात व्यञ्जन 'र' के आगे स्वर रहने पर भी लोप हो जाया करता है। जैसे-अन्तर + उपरि = अन्तरोपरि - अन्सोपरि । अन्तर् + आत्मा अन्तरारमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तरप्पा होता है। इसमें सूत्र-संपा-१-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त 'अ' को संधि, २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म के स्थान पर 'च' को प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' को प्रशस्ति; १-११ से मूल संस्कृत शाम-आरमन के समय न्' का लोप, ३-४९ तथा ३-५६ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन' में 'न्' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष अकारात रूप में प्रथया विभा ने एक घबन में 'सि' प्रस्प के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर अन्तरप्पा कर सिद्ध हो जाता है। निरन्तरम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निरन्तर होता है। इसमें पत्र-संख्या १-१४ से 'निरमें स्थित अन्त्य 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ की संगि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाराम्त भसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति ओर १-२३से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर निन्तरं रूप सिद्ध हो जाता है। - मिर् । अवशेषम् = निरवशेषम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निरवसेसं हता है । इसमें सुत्र संख्या १-१४ पे हलन्त म्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'न' को संषि १-२६० से 'श' और 'ष' के रथान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से अथवा विभक्ति के एक वचन में अकारास्त गपुंसक लिय में 'सि' प्ररस्थ के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मिरवसेसं रूप सिद्ध हो बाता है। दुर् + उत्तर - दुरुत्तरम् संस्कृत रूप है । इसका प्राहत रूप दुरुसर होता है । इसम सूत्र संख्या १-१४ से 'रका लोपा भाव; १-५ से हलन्त 'द' के साथ 'उ' की संधि और शेष सानिका ३-२५ और १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर दुरुत्तरं रूप सिद्ध हो जाता है। तुर् + अवगाहम् = दुरुचगाहम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भी दुरवगाहं होता है ।समें त्रसंख्या १-१४सका लोपा भाव; १-५ से हलन्स 'ए' के साथ 'भ' की संधि और शेष साधमिका ३-२९ तफा १-२३ से मिरवसस के समान ही होकर दुरदगाहं रूम सिद्ध हो जाता है। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] * प्राकृत व्याकरण * अन्तरीपरि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्सोवरि होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४ की वृत्ति से प्रथम 'र्' का लोप १-१० से 'त' में स्थित 'अ' के आगे 'ओ' आ जाने से लोन १-५ आगे रहे हुए 'ओ' की संधि; और १-२३१ से '' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होकर अन्नोपरि रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-१४ ॥ 'हलम्त 'त्' के साथ स्त्रियामादविद्यतः ॥ १-१५ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य धात्वं भवति विद्यच्छन्दं वर्जयित्वा I लुगपवादः ॥ सरित् । सरिया || प्रतिपद् । पाडिया || संपद् । संपा || बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतर यश्रुतिरपि । सरिया । पाडिवया । संपया || अविद्युत इति किम् ॥ विज्जू ॥ I ⭑ अर्थ:-विद्युत शब्द को छोड़ करके शेष 'अन्त्य हलन्तयञ्जन बाले संस्कृत स्त्री लिंग (वाचक) शब्दों के अम्म हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर 'आरव आ' की प्राप्ति होती है । यों व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग वाले संस्कृत शब्द प्राकृत में आकारान्त हो जाते हैं। यह सूत्र पूर्वोक्त (१-११ वाले) सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है । उदाहरण इस प्रकार है: -सरित् = सरिआ; प्रतिपद् = पाश्विआ; संपद् = संपजा हरयादि । 'बहु' सूत्र के अधिकार से हलस्त वयञ्जन के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'आ' स्वर के स्थान पर 'सामान्य स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने वाले' ऐसे 'या' की प्राप्ति भी होती हुई पाई जाती है । जैसे:- सरित् सरिया अथवा सरिया प्रतिप-पाडिया अथवा डिमा और संपत् = संपला अथवा संपया इस्यामि । = प्रश्नः - 'विद्युत् ' शब्द का परिस्याग क्यों किया गया है ? उत्तरः- चूंकि प्राकृत-साहित्य में 'विद्युत्' का रूपान्तर 'विज्म' पाया जाता है; अतः परम्परा का उल्लंघन कैसे किया जा सकता हूँ ? साहित्य की मर्यादा का पालन करना सभी वैयाकरणों के लिये अनिवार्य है; वर 'विद्युत् = विज्जू' को इस सूत्र -विधान से पृथक, ही रक्खा गया है इसकी साधनिका अन्य सूत्रों से की जायगी । सरित् संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप सरिया और सरिया होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५ से प्रथम रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति और द्वितीय रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर क्रम से सरिआ और सरिया रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रतिपद संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप पाडिया और पाडिवया होते २-७९ से '' का लोपः १-४४ से प्रथम 'ए' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' को प्राप्तिः स्थान पर '' आवेश १-२३१ से द्वितीय पं' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और १-१५ से 'तू' के स्थान पर कम से' दोनों रूपों में 'आ' और 'या' की प्राप्ति पाडिया सिद्ध हो जाते हैं । हैं। इनमें सूत्र- संख्या १ - २०६ से 'त' के हलन्त अन्स्य व्यञ्जन होकर क्रम से दोनों कप- पाडियआ तथा Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ २६ '' संपद संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप संपआ और संपया होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५ से हलन्त अन्त्य व्यञ्जन 'स्' के स्थान पर कम से दोनों रूप संप और संपया सिद्ध हो जाते हैं। विद्युत् संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्जू होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२४ सेके स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ञ' को प्राप्ति १-११ सो अन्त्य हलन्त '' का लोग और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्स्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दोर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर विज्जू रूप सिद्ध हो जाता है । १-१५ ।। रोरा ॥ १-१६ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यस्य रेफस्य रा इत्यादेशो भवति ।। श्रच्चापवादः । गिरा। धुरा । पुरा !! अर्थ:- संस्कृत भाषा में स्त्रीलिंग रूप से वर्तमान जिन शब्दों के अन्त में हलन्त रेक 'र्' रहा हुआ है। उन शब्दों को प्राकृत रूपान्तर में उक्त हलन्त रेक रूप 'र' को स्थान पर 'रा' आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-गिर्= गिरा; बुर्बुरा और पुर = पुरा। इस सूत्र को सूत्र संख्या १-१५ का अपवाद रूप विधान समझना चाहिये। क्योंकि सूत्र संख्या १-१५ में अन्त्य व्यञ्जन के स्थान पर 'आ' अथवा 'घा' की प्राप्ति का विधान है। जबकि इसमें अन्य यञ्जन सुरक्षित रहता है और इस सुरक्षित रेफ रूप 'ए' में 'बा' की संयोजना होती है। अतः यह सूत्र १-१५ को लिये अपवाद रूप है । . I गिर संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरा होता है । इस सूत्र संख्या १-१६ से अन्य रेफ रूप 'क' स्थान पर 'रा' आवेश होकर गिरा रूप सिद्ध हो जाता है । धर संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप धुरा होता । इसमें सूत्र संख्या १-१६ से अन्य रेफ रूप '' को स्थान पर 'श' की आवेश-प्राप्ति होकर रा रूप सिद्ध हो जाता है । पुर संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरा होता है। इसमें सूत्र- संख्या १ १६ से अन्त्य रेफ रूप 'क' स्थान पर 'रा' आवेश होकर पुरा दप सिद्ध हो जाता है ।। १-१६ ॥ क्षुधोहा ॥ १-१७ ॥ I 1 क्षुघ् शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हादेशो भवति ।। छुहा ॥ अर्थ संस्कृत भाषा के 'धू' शब्द के अत्यन्त हलत अन '' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हा' मावेश-प्राप्ति होती है। जैसेः तृष्= छुहा ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] * प्राकृत व्याकरण * शुधू संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छहा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से संयुक्त व्यञ्जन 'x' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति और १-१७ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'ध' के स्थान पर 'हा' आदेश होकर हां स्प सिद्ध हो जाता है। 1-१७॥ शरदादेरत् ॥ १-१८॥ । शरदादेरन्त्य व्यञ्जनस्य अत् भवति ।। शरद् । सरओ ॥ भिसक् । भिसो ॥ अर्थ-संस्कृत भाषा के 'शरव' भिसक' आदि शब्दों के अन्श्यस्य हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होती है जैसे-शरद::: सरओ और भिसक् = भिसओ इस्पादि। शरद संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सरओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-१८ से अन्त्य हलन्त व्यसन 'द' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुस्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' की प्राप्ति; 'ओ' के पूर्वस्व 'अ' को Ke होकर भोप होकर सरओ रूप सिद्ध हो जाता है। भिषा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मिसओ होता है इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१८ से अस्य हलन्त व्यञ्जनक' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा निमक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर उपरोक्त 'सरओ' के समान ही 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भिसभी कम सिट हो पाता है । १-१८॥ दिक्-प्रावृषोः सः ॥ १-१६ ॥ । एतयोरन्स्यव्यञ्जनस्य सो भवति ॥ दिसा । पाउसो ।। अर्थ-संस्कृत शब्द 'टिक' और 'प्रावृट्' में स्थित अन्य हलन्त म्यम्जन के स्थान पर 'स' का आदेश होता है जैसे-रिक्-दिसा और प्राक्ट पाउसो। दिक संस्कृत रप हैं इसका प्राकृत रुप दिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९ से अस्य हलन्त ध्यान 'क' के स्थान पर प्राकृत में 'स' भादेश-प्राप्ति; और ३-३१ की वृत्ति से स्त्रीलिंग अर्थक 'मा' प्रत्यय की प्राप्ति होफर दिसा रूप सिद्ध हो जाता है। प्रावृट ( = प्रायः) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पाउसो होता है। इसमें सूत्र-सख्या-२-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ स 'क' का लोए; १-१३१ से लोप हुए 'के पश्चात शेष रही हुई 'ऋ' के स्थान पर '3' की प्राप्तिा. १-१ से अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'इ' (अथवा 'ए के स्थान पर 'स' को प्राप्ति १-३१ से प्राप्त Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણલાલ શાહ * पिगोदग हिन्दी व्याख्या सहित me TIME [३१ रुप पाउस' को प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाउसो रूप सिद्ध हो जाता है । १-१९।। अायुरप्सरसोर्वा ॥ १-२०॥ एतयोरन्स्य व्यंजनस्य सो वा भवति ।। दीहाउसो दीहाऊ । अच्छरसा अच्छरा॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'आयुष' और 'अप्सरस्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन '' और 'म्' के स्थान पर प्राकृत रूपातर में कल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति होती है । जैसे:-दीर्घायुष = बोहाउसो अथवा दोहाम और अप्सरस् = अच्छरसा और अच्छरा । दीर्घायु संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बीहाउसो और दोहाज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संश्या २-७९ से'' का लोप; १-१८७२ 'ए' के स्थान पर 'ह' को पाप्ति; १-१७७ से 'य' का लोफ; ५-२० से अन्त्य हलन्त त्यम्जन 'ए' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और 4-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग रूप 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दीहाउसी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-( दोघायुष् ) दोहाऊ में सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; t-1८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह.' की प्राप्ति; १-१७७ से 'र' का लोप; १-११ से अन्स्य व्यञ्जन 'ए' का लोप और ३-१९ से प्रचमा विभक्ति के एक वचन में उकारात पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्स्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-दीहाऊ भी सिद्ध हो जाता है। अप्सरन संस्कृत स्प है। इसके प्राकृत रूप अच्छरसा और अछरा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में प्रत्रसंख्या २-२१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' को प्राप्ति; ३-९० से प्राप्त पूर्व छ' के स्थान पर 'च' की प्रापित १-२० से अस्म सन्त व्यवन 'स' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और ३-३१ की वृत्ति से प्राप्त रूप 'प्रच्छरस' में स्त्रीलिंग अर्थक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम कृप अच्छरसा सिद्ध हो जाता है । सीय-रूप-(अप्सरस - ) अछरा में 'अच्छरस्' तक की सानिका उपरोक्त रूप के समान १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और ३-३१ की वृति से प्राप्त रूप 'अछछर' मेस्त्रीलिंग-अयंक 'अ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अच्छरा सिद्ध हो जाता है । १-२० ॥ ककुभो हः॥ १--२१ ॥ ककुभ शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो भवति ।। कउहा ।। अर्थ-संस्कृत शब्द 'ककुभ्' में स्थित अन्स्य हलम्त स्यम्जन 'भ' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'ह को प्राप्ति होती है । जैसे-कुभ - कजहा । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] ककुभ संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कउहा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'कु' का प१-२१ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'भू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-३१ को वृति से प्राप्त रूप 'वह' स्त्रीलिंग अयंक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कउहा रूप सिद्ध हो जाता है । १-२१। 3 रूप से * प्राकृत व्याकरण धनुषो वा ॥ १- २२ ॥ 'धनुः शब्दस्यान्त्य व्यञ्जनस्य हो वा भवति || धणुहं । ध || अर्थ संस्कृत शब्द 'धनुष' में स्थित अन्य हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक की प्राप्ति होती है। जैसे- धनुः = (धमुष = पर॥ धनुषु = ( धभुः = ) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वहं और धणू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप से सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १-२२ से अन्य हलन्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ३-६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'सु' प्रत्यय और १ - २३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुवार होकर प्रथम रूप धणुई सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप - ( धनुष्) धणू में सूत्र संख्या १-२२८ से 'म्' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति; १-११ मे य लभ्स ध्यक्जन 'ष' का लोप; १-३२ से प्राप्त रूप 'षणु' को पुल्लिंगस्थ की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृस्व स्वर 'उ' को धीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप धणू भी सिद्ध । जाता है। १-२२ ॥ मोनुस्वारः ॥ १-२३ ॥ अन्त्य मकारस्यानुस्वारो भवति । जलं फलं चन्द्रं गिरिं पेच्छ || कचिद् अनन्त्यस्यापि । वर्णम्म | वर्णभि || अर्थ:-पव के अन्त में रहे हुए हलन्त 'म्' का अनुस्वार हो जाता है । जैसे :- जलम् = जलं फलम् फलं वृक्षम और गिरिम् पश्य गिरि पेच्छ । किसी किसी पव में कभी कभी अनन्त्य-याने पद के अन्तर्भाग में रहे हुए हलन्त 'म' का भी अनुस्वार हो जाता है। जैसे :- वने = वर्णाम्मि अथवा वर्णमि । इस उदाहरण में अन्तर्भाग 'म रहे हुए हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति प्रवजित की गई है। यों अन्यत्र भी समझ लेना चाहिये । जलम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप जल होता । इसमें सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय और १-२३ से 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर जलं रूप सिद्ध हो जाता है। फलम् संस्कृत द्वितीयात एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप फलं होता है। इसमें उपरोक्त 'जर्स' के समान ही सूत्र संख्या ३५ और १ - २३ से साथनिका की प्राप्ति होकर फलं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३३ - वृक्षम संरकुत द्वितीयान्त एक बचत का रूप है । इसका प्राकृत रूप बच्छ होता है । इसमें सूत्र-संस्था १-१२६ से 'र' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-३ से 'ब' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २-८९ है प्राप्त छ' को द्वित्व '' की राप्ति; २-१० में टल गर्न सके स्थान पर 'च' को प्राप्ति; ३-५ से हितीया विभक्ति का एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और 1-२३ सं 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर पच्छ सप सिद्ध हो जाता है। गिरिम संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप गिरि होता है । इसमें उपरोक्त भी के समान ही मूत्र- सस्या ३-५ और १-२३ से सानिका की प्राप्ति होकर गिरि रूप सिद्ध हो जाता है। पश्य संरकृत आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एक वचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप ऐच्छ होता है । इसमें सब-संख्या ४-१८१ से मुल संस्कृत पातु 'ह' के स्थानीय रूप 'पश्य ' के स्थान पर प्राकृत में 'पेन्छ' मावेश को प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त हलन्त धातु 'पेम्छ' में विकरण प्ररपथ 'अ' को प्राप्ति और ३.१७५ से आज्ञार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राकृत में 'प्ररपय लोप' को प्राप्ति होकर पेच्छ क्रियापद-रूप सिद्ध हो जाता है। बने संस्कृत सप्तम्यन्त एक वचम का रूप है। इसमें प्राकृत रूप वणम्मि और वर्गमि होते है। इनमें पुत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर '' को प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति में एक वचन में ६' प्रत्यय के स्थान पर संयुक्त 'म्मि' और १-२३ से 'म्मि' में स्थित हलन्त 'म' के स्थान पर पकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से शेनों रुप 'वणम्मि' और 'वर्णमि सिद्ध हो जाते हैं। १-२३ ।। वास्वरे मश्च ॥ १-२४ ॥ अन्त्य मकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भत्रति ! पक्षे लुगपवादो मस्य मकारश्च भवति । चन्दे उसमें अजिनं । उसभमजियं च बन्दे ।। बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यअनस्य मकारः ।। साक्षात् । सक्खं ।। यत् । जं ।। तत् । तं ॥ विष्वक् । बीसु॥ पृथक पिहं । सम्यक् । मम्म इहं । इहर्ष । बालेदु अं । इत्यादि। अर्थ-यदि किसी पत्र के अन्त में रहे हए हलात 'म् के पाचाल कोई स्थर रहा हा हो तो उस पवात हलन्त 'म' का वैकल्पिक रूप से अनुस्वार होसा है । वैकल्पिक पक्ष होने से यदि उस हलन्त 'म्' का अनुवार नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में सूत्र-संरूपा ५-११ से 'म' के लिये प्राप्तव्य लोप-वस्पा का भी अभार ही रहेगा; इसमें कारण यह है कि आगै 'स्वर' रहा हुआ है। तकनुसार उक्त हलन्त 'म'को स्थिति 'म' रूप में हो कायम रहकर उस हलन्त 'म' में आगे रहे घए 'स्वर' की संधि हो जाती है। जो पदान्त हलन्त 'म्' के लिये प्रारतस्य लोप-प्रक्रिया के प्रति यह अपवाब-रूप स्थिति मानना । जैसे:-ये प्रवभम् अजितम् = पन्चे उसमें Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * अजिसं अथवा उसभमनिर्थक बरवे । इस उदाहरण में यह व्यक्त किया गया है कि प्रथम अवस्था में 'उसमें में पदान्त 'म् ' का अनुस्वार कर दिया गया है और हिलीय अवस्था में 'उसमममिम' में पदान्त 'म' की स्थिति ययावत कायम रमली भाकर उसमें आगे रहे हुए 'भ' स्वर को संधि-सपोजमा कर की गई है। एवं भूत्रसंध्या १-११ से 'म' के लिये प्राप्तव्य लोप स्थिति का अभाव भी प्रदर्शित कर दिया गया है। यों पदान्त 'म'को सम्पूर्ण स्थिति को ध्यान में रखना चाहिये । पलक अधिकार से भी कभी पात में स्थित 'म'के अतिरिक्त अन्य हलन्त व्यन्जनको स्थान पर भी अनुस्वार की प्राप्ति हो जाया करती है । जैस: साक्षात सक्छ; यत् = मं; तत्त इन उदाहरणों महसन्त 'त' व्यसनम के स्थान पर अनुम्बार को प्राप्ति प्रचशित की गई है। अन्य उदाहरण इस प्रकार हैदिया पीसु, पृथक् = विहं सम्यक सम्म'; ऋधक - प्रहं । इन बाहरणों में हलन्त 'क' पञ्जन के स्थान मावारीमाति जय हो गई । संस्कृत शब 'ह' के प्राकृत रूपान्तर 'सहर' में किसी भी व्यम्जन के स्थान पर 'अनुस्वार' को प्राप्ति नहीं हुई है, किन्तु सूत्र-संख्या १-२६ से अन्य तृतीय स्वर 'अ' में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। इसी प्रकार में संस्कृत रूप माइलेक्ट्रम के प्राकृत पान्तर 'भालेट,में सूत्र-संध्या २-१६४ से पास 'म' के पूर्व राधक-प्रत्यय-क' की प्राप्ति होकर 'भाले? अं रूप का निर्माण हुआ है। तदनुसार इस हलन्त अन्त्य 'म' साजन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति हुई है। यों 'पदान्त 'म' और इससे संबंधित अनुस्वार' संबंधी विशेषताओं को ध्यान में रखना प्राहिये। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'इत्यावि' शब्द से समझना चाहिये। व संस्कृत रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप भी बच्चे ही है। इसमें सूत्र संख्या ४.२३९ से हलन्स शन 'बन्द' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति, ४-४४८ से बर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एक बयान में संस्कृत को मात्मने पर-क्रियाओं में प्राप्तम्य प्रत्यय 'इ' की प्राकृत में भी 'इ' की प्राप्ति और १-१ में स्म बिकरण प्रत्यय के साथ प्राप्त कास-बोधक प्रत्यय 'र' को संधि होकर पन्दे मप सिद्ध हो जाता है। ऋषभम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उसमें होता है। इसमें सूत्र-संस्का-१-१३१ से ''के स्थान की प्राप्ति 1-२६. सेब के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में प्रत्यय को प्राप्ति और १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर वसभं रूप सिद्ध हो जाता है। अजितम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का अजिअं होता है। इसमें सूत्र-मख्या १-१७७ से 'त्' का होप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक पचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और ! १३ से 'म' का अनुवार होकर जिअं रूप सिद्ध हो जाता है। को मि-सीमा उसभमनिर्भरूप में सूत्र संख्या १-५ से हलास-भ में आ रहे ए ' होकर संवि-प्रात्मक पर 'उसभमणि सिबोजाता है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * साक्षातू संस्कृत अव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप सक्कं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'सा' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-३ से 'भ' के स्थान पर '' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त स्' को विस्व 'खल की प्राप्ति २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'ई'को प्राप्ति; १-४ से अपना १-८४ से पदस्थ द्वितीय '' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति और १-२४ को वृत्ति से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त म्' के स्थान पर अनुरवार की प्राप्ति होकर सारखे रूप सिम हो जाता है। यत् संस्कृत अस्पय रूप है । इसका प्राकृत रूप में होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और १-२४ से अन्स्य हलन्त घ्यजन 'त्' के स्थान पर हलन्त 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर जं रूप सिद्ध हो जाता है। - --- तत् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२४ मे अन्य हलन ध्यञ्जन 'त्' के स्थान पर हलन्स 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर त रूप सिद्ध हो जाता है। -- - - व संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप ची होता है । इसमें पत्र-संख्या ३-४३ से हस्थ स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्तिः २-७१ से द्वितीय 'व' का लोप; १-२६० से लोप हए 'व' के पश्चात शेष रहेगए 'ष'को 'स' की प्राप्ति: १-५२ से प्राप्त व्यञ्जन 'स' में स्थित 'म' के स्थान पर की प्राप्ति; १-२४ मे अन्त्य हलन्त स्यम्जन 'क' के स्थान पर हलन्स म' को प्राप्ति भीर १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म'. स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर या रूप सिद्ध हो जाता है। पृथक् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप पिह होता । इसमें सूत्र संख्या 1-१३७ से के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति १-१८७ से 'प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति, ९-२४ से अन्त्य हलात सम्मान के स्थान पर हलन्त 'म'को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हलन्त 'म' के स्थान पर मनुस्वार की प्राप्ति होकर पिहं सप सिद्ध हो मला है। सम्यक संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सम्म होता है । इसमें टूर्व संध्या २-७८ से '' का लोप २-८९ मे लोप पए '' के पश्चात् कोष रहे एए 'म' को शिल्य 'आम' की प्राप्ति; १-२४ से सन्य हलन्त ध्यजन क्के स्थान पर हलन्त 'म'को प्राप्ति और १-२६ से प्राप्त हलन्त 'म स्थान पर अनुवार को प्राप्ति होकर सम्म स्प सिद्ध हो जाता है। - - .. . Deewanimlner.. ऋषक संस्कृत अस्थय रूप है। इसका प्राकृत रूप हं होता है । इसमें सूत्र-सल्या १-१२८ से '' स्थल पर '' की प्राप्ति, १.१८७ से 'प' के स्थान पर हैं' की प्राप्ति, १-६४ से मत्स्य 'क' के स्थान पर म' की माप्ति और १-२३ सेम् के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कई रूप सिब हो जाता है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * . इहकं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इह्य होता है । इस में सूत्र-संस्था २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति, ५-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क' का लोप और १-१८० से लोप हए 'क' के पश्चात् दोष रहे हुए 'अ' के प्रधान पर 'य' की प्राप्ति और १-२६ से अन्य स्थर 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर इयं सप सिद्ध हो जाता है। आरलेस्टुकम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप आलेटुअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'श' का लोप; २-३४ से 'ट् के स्थान पर'' को प्राप्ति; २-८९ - प्राप्त 'इ' को द्वित्व ६६' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'इ' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; २-१६४ से रक-अर्थ' में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'क' प्रस्पप की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त प्रत्यय 'क' का लोप और १-२३ से अन्स्य हलन्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर आलंट? रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२८ ।। ङ-अ-ए-नो व्यञ्जने ॥ १-२५ ॥ ङ-अ ण न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति ।। ङ । पङक्तिः । पंती ॥ पराङ्मुखः । परंमुहो ।। । कञ्चुकः ! कंधुनो । लाञ्छनम् । लंकणं ।। ण । परमुखः । छंमुहो ॥ उत्कण्टा | उक्कंठा ॥ न । सन्ध्या । संझा ॥ विन्ध्यः । विभो ॥ अर्थ-संस्कृत शाक्बों में यवि '', 'म', 'ण', और 'न' के पश्चात् व्यन्जन रहा हा हो तो इन शम्बों के प्राकृत रूपान्तर में इन ', '' 'ण' और 'म्' के स्थान पर (पूर्व व्यञ्जन पर) अनुस्वार की प्राप्ति हो जाती है। जैसे' के उदाहरणः-पडितः = पंती भौर पराङ्मुखः = परंमुहौ । '' के उदाहरणः कम्युकः = कंसुओ और लाग्छमम् - लछणं । 'म्' के उदाहरणः-पण्मुलः छमुल्हो और उत्कयला = नक्कंठा । 'न' के उदाहरणः-सन्ध्या = संसा और विन्ध्यः विनोइत्यादि। पक्ति -संस्कृप्त रूप है । इसका प्राकृत रूप पंती होता है। इसमें नत्र संख्या-१-२५ से हलन्त ध्यजन 'ह' के स्थान पर (पूर्व-न्यजन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में स्थित हलन्त 'क्' का लोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वक्षन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर को वीर्घ की प्राप्ति होकर पती रूप सिद्ध हो जाता है। परामुख-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप परंमूहों होता है इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से '' में रिपत 'भा के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; १-२५ से हलम्त व्यञ्जन 'इ' के स्थान पर (पूर्व व्यजन पर) अनुस्वार की प्राप्ति; १-१८७ से 'स' में स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक रबन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परंमुहो रूप सिद्ध हो जाता है। काहरु का साकृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कंधुओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त जन 'ज' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३७ - वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' • प्रत्यय को प्राप्ति होकर कंचुओ रूप सिम हो जाता है। - - लाञ्छन म संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लेछग होता । इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ला' में स्थित 'सर' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ज़' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नसाला में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म' का अनुवार होकर लंछ गप सिद्ध हो जाता है। षण्मुखः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छंधुही होता है । इसमें सूत्र-संरूपा १-२६५ से 'ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति १-२५ से हलन्त यजन 'प' के स्थान पर अनुहार को प्राप्ति; १-१८७ से 'स' के स्थान पर 'ह की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छमुही रूप सिद्ध हो जाता है। उत्कण्ठा संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप उकठा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त एजन 'त' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और १-२५ से झलन्त उपमन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर उक्का रूप सिद्ध हो जाता है। सन्ध्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संसा होता है इसमें सूत्र-संस्पा १-२५ से हलन्त व्यसन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और २-२६ से 'म्' के स्थान पर '' को प्राप्ति होकर संझा रूप सिक हो जाता है। विन्ध्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विझो होता है इसमें मूत्र-संख्या १-२५ से हल त व्यन्जन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; २-२६ से '' के स्थान पर '' की प्राप्ति और ३-२ से प्रममा विक्षि के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में "fe' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रस्पय की प्राप्ति होकर विज्ञाप सिद्ध हो जाता है । १.२५ ।। वकादावन्तः ॥ १-२६॥ वादिष यथा दर्शनं प्रथमादेः स्वरस्य अन्त आगम रूपोऽनुस्वारो भवति ॥ वकं । तंसं । अंसु । मम् । पुंछ । गुंछ । मुदा । पंचू । बुधं । ककोडो । कुपलं । दसणं । विंचियो । गिंठी । मंजारो । एप्याद्यस्य ॥ वयंसो । मणंसी । मणसिणी। मणसिला । पडसुश्रा एषु द्वितीयस्य ॥ अवरिं । अणिउतयं । अइमुतयं । अनयोस्तृतीयस्य ॥ वक्र । यस { अश्रु । श्मश्रु ! पुन्छ । गुच्छ । मूईन् । पशु । युध्न | कर्कोट । कुडमल । दर्शन । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] * प्राकृत व्याकरण * वृश्चिक । गृष्टि । मार्जार । व्यस्य · | मनस्विन् । मनस्विनी । मनःशीला । प्रतिथ त् । उपरि । अतिमुक्तक । इत्यादि ॥ चिच्छन्दः पूरणेपि । देव-नाग-सुवपण ॥ क्वचिन्न भवति । गिट्ठी । मज्जारो | मणसिला । मणामिला ॥ आर्षे ।। मणोसिला । अइमुत्तयं ॥ अर्थ:-संस्कृत भाषा के वक्र आदि कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनका प्राकृत-रूपान्तर करने पर उनमें रहे हुए आदि-स्वर पर याने आदि-स्वर के अन्त में आगम का अनुस्वार की प्राप्ति होती है । जैसे:-चक्रम् = वक, त्र्यत्रम् = तंस, अ = अंसुं श्मश्रुः = मनः पुच्छम् = पुछ, गुच्छर = गछ, मूर्दा = मुढा, पश: :: पंः बुनम् = बुध; कर्कोट: - ककोडो; कुमसम् = कुंपलं; दर्शनम् = वंसर्ग: वृश्चिक: विछिओ; गृष्टिः = गिठी और माार:= मंजारो; इन पाकृत-शयों के सर्व-प्रयम अर्यात आदि स्वर के अन्त में आपम रूप अनुस्वर को प्राप्ति प्रदर्शित की गई है। इसी प्रकार से संस्कृत-भाषा के कुछ काम ऐसे हैं, जिनका प्राकृत-रूपान्तर करने पर उनमें रहे हुए द्वितीय स्वर पर आगम रूप अनुवार को प्राप्ति होती है । जैसे:-वयस्यः-वयंसो; मनस्वी-मसो; मनस्विनी = मर्णप्तिणी; मनःशिला = मणसिला और प्रतिषुत् = पटंसुआ; इन प्राकृत-शब्दों के द्वितीय स्वर के अन्त में आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति प्रदशित की गई है। इसी प्रकार से संस्कृत-भाषा के कुछ शब ऐसे भी है, जिनका प्राकृत रूपान्तर करने पर उनमें रहे हए तृतीय स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती है जैसे:-उपरि = अवरित और अतिमुक्तकम् - अणि उत्तयं अथवा अरतयंइन प्राकृत-शब्दों के तृतीय-स्वर के अन्त में आगम कप अनुग्दार को प्राप्ति प्रदशित की गई है। इस प्रकार से विदित होता है कि प्राकप-भाषा के किसी-किसोर के प्रथम स्वर पर, किमो-किमी शब्द के द्वितो स्वर पर और किसी किसी शब्द के तृतीय स्वर पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होती हई पाई जाती है। ऐसा विधान इस सूत्रानुसार जानना चाहिये। जब कभी प्राकृत-माया के गाथा कप छन्द में गणनानुसार वर्ण का अभाव प्रतीत होता हो तो वर्ण-मूक्ति के लिये भी आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति देखी जाती है । जैसे:-'देव-नाग-सुषण' गाथा का एक चरण है, किन्तु इसमें लय टूटती है। अत: 'देव' पद पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति की जाकर यो लय-पूर्ति की जाती है कि:'देव-नाय-मुवण्ण' इत्यादि । यो छन्द-पूर्ति के लिये भी 'आगम रूप अनुम्बार की प्राप्ति का प्रयोग किया जाता है। किन्हीं किन्हीं शब्दों में प्राप्तम्प आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती हुई भी देखी जातो है। जैसे-गाष्टि: पिठी अथवा गिट्ठो मारि:-मंजारो अथवा मज्जारो; मनःशिला-मणसिला अथवा मणसिला अथवा मणामिला; एवं आर्ष -प्राकृत में इसका रूपान्तर मणोसिला भी पाया जाता है । इसी प्रकार से अति-मुक्तकम् के उपरोक्त दो प्राकृत रूपान्तरों- (अणि उतयं और अइमुत) के अतिरिक्त आर्ष-प्राकृत में लनीय रूप 'अइ-मृत्य' भो पाया जाता है। वकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप3 १-२६ से 'व पर आगम सप अनुस्वार की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बवन में अकारान्ल-नपूसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर बैंक रुप सिद्ध हो जाता है। Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३६ न्यखम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तसं होता है । इसमें मूत्र-संस्था २-७९ से'' और '' में स्थित चोनों 'र' का लोप; २-७८ से 'म्' का लोप; १-२६ से 'त' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर तंसं रूप सिद्ध हो जाता है। अश्रु-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अंसु होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६ से 'अ' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-३९ से 'श्रु में स्थित 'र' का लोप१-२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हए 'शु' के 'क' को 'स' को प्राप्ति; ३-२५ मे प्रथमा विभक्त के एक वचन में अकासम्त नपुंसकलिप में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और !-२३ से 'म'का अनुस्वार होकर अंतुं रूप सिद्ध हो जाता है। इमनु-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मंसू होता है। इसमें सूब-संख्या २-८६ से प्रथम हलन्त 'श्' का लोपः १-२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्तिः २-७१२ में चित 'र' का लोग; १.१६० में लोपए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' में स्थित 'श' के स्थान पर स्' को प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिए में संस्कृत प्रत्यय 'सि के स्थान पर अन्स्य हस्व स्वर 'उ' को दोषं स्वर '' को प्राप्ति होकर मैम रूप सिद्ध हो जाता है। पुच्छम्- संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुछ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८६ से '' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ की वृत्ति से हलम्त '' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म'का अनुस्वार होकर पुछ रूप सिद्ध हो जाता है। गुच्छम् संस्कृप्त रूप है । इसका प्राकृत रूप गुछ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६ से 'गु' पर आपम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-१७७ को वृत्ति से हलन्त 'च' का लोप और मंत्र साधनका उपरोक्त के समान ३-२५ तथा १-२३ से होकर गुंछ रूप सिद्ध हो जाता है । म संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुढा होता है। इसमें सूत्र संस्पा १-८४ से दीर्घ स्वर 'क' के स्थान पर हृस्व स्वर 'उ' की प्राप्लि; १-२६ से प्राप्त 'म' पर आम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७१ मे हलन्त 'र' का लोप २-४१ से संयुक्त पाजन 'छ' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; १-११ से मूल संस्कृत रूप 'मून' में स्थित अन्त्य हलन्त भ्यन्जन न्' कर लोप और ३-४९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में 'नकारात-शन' में अन्य लोप होने के पश्चात् संप अन्त्य 'अ' को 'आ' की प्राप्ति होकर भुटा रूप सिद्ध हो जाता है। पशुः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६ से '' पर आगम सप अनुस्वार की प्रारित; २-११ मे 'र' का लोप; १-२६२ से 'न' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा क्मिपित के एक बचन में अकारात पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'अ'को दीर्घ स्वर' को प्राप्ति होकर पंस रूप सिद्ध हो जाता है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * बुझ्नम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बुध होता है : इपर्ने सूत्र-संश्या १-२६ से '' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७८ से 'न' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर धुंध रूप सिद्ध हो जाता है। ___ कर्कोटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ककोडी होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२६ से प्रयम पर आगम रूप, अनुस्वार को प्राप्ति २-७१ से हलन्त 'र' का लोर, १-१९५ से 'द' के स्थान पर '' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पहिलग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर औं प्रत्यय की प्राप्ति होकर ककोडो रूप सिद्ध हो जाता है। कुलमलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुंग्लं होता है। इसमें सूत्र-संस्था १-२६ से 'कु पर आगम स्प अनुस्वार को प्राप्ति; २-५२ से 'इम' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक मन में अकारान्त नपुस लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' श्यप की प्राप्ति और १-२३ से 'म' के स्थान पर अनुधार को प्राप्ति होकर पल रूप सिद्ध हो जाता है। दर्शनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दसणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६ से 'ब' पर आपम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७९ से 'र' का लोग; १-२६० से 'व' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२२८ में 'न' को 'ग' की प्राप्ति और ३-२५ से प्रथमा विमति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म' का अनुम्बार होकर देसणं रूप मित्र हो आता है। वृश्चिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दिछिओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८ से 'का' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त वि' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-२१ से 'इच के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रपमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिंछिमो रूप सिद्ध हो जाता है । गृष्टिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गिठी और गिट्ठी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में शुत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्तिः १-२६ से प्राप्त गि' पर आगम व अनुस्वार को प्राप्ति; २-३४ से 'द में स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक यवन में इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर ६' को दीधं स्वर ई की प्राप्ति होकर गिठी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( गृष्टिः = ) गिट्ठी में सूत्र-संगमा १-१२८ सं 'क' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति २-३४ से 'ष्ट्र के स्थान पर ह' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त '' को द्वित्व '' को प्राप्ति : २-९० से प्राप्त पूर्व के स्थान पर की प्राप्ति और ३.११ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृस्व स्वर 'ई' को दीर्घ स्वर की प्राप्ति होकर द्वितीय रुप गिदठी भी सिठ हो जाता है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४१ मार्जार-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मंमारो और मामारी होते हैं। इनमें से प्रथम रूम में सूत्र संख्या १-८४ से "मा" में स्थित "" के स्थान पर "ब" को प्राप्ति: १-२६ से "म" पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७९ से रेफ रूप हलन्त " का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पन में अकारान्त पुल्लिग में सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रस्थय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप मंजारो सिब हो जाता है। द्वितीय रूप-(मार्जार:-) मारी में सूत्र-संख्या १-८४ से "मा" में स्थित "मा" के स्थान पर 'अ' को शस्ति; २-७९ से रेफ रूम " को -८६ पचात् शेष रहे " को द्विस्व "ज" को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में "सि" प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप मज्जारो भी सिद्ध हो जाता है । ययस्य:-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत व वर्षसो होता है। इसमें संक्षा १-२६ से प्रथम 'य" पर अगम कप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७८ से द्वितीय '' का लोप और १-२ से प्रथमा विभक्ति के एक सदन में अकारान्त पुल्सिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर वयंसो रूप सिद्ध हो जाता है। मनस्वी-संकृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मसी होता है। इसमें सुध-संस्था १-२२८ हे 'न' के स्थान पर 'ष' को प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ग' पर आपम रूप मनुस्वार की प्राप्ति, २-७९ से '' का लोग, १-१ से मूल संस्कृत शब्द 'मनस्विन्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और 4-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में प्राप्त ह्रस्व इकारन्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हव स्वर 'इ' को वो स्वर को प्राप्ति होकर मणंसी रूप सिब हो जाता है। मनस्विनी-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मणमिणी होता है। इसमें सब-संख्या १-२२८ से '' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति ; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति; २-७१ से ''का लरेप और 1-२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति होकर मणसिणी रूप सिद्ध हो जाता है। मनः शिला संस्कृत रूप है । इसके प्राकूस रूप मगसिला, मणसिला, मणासिका और (आर्ष-प्राकृत में) मणोसिला होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'प' को प्राप्ति; १-२६ से प्राप्त 'ण' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १-११ से 'मनस् = मनः' शम के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप और १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मणसिला सिब हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२६ के अतिरिक्त घोष सूत्रों को प्रथम-रूप के समान हो' प्राप्ति होकर द्वितीय रूप 'मण-सिला' सिद्ध हो जाता है। तृतीम रूप में सूत्र-संख्या 1-४३ है प्राप्त द्वितीय रूप मण-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ' को दोष स्वर 'जा' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप मणा-सिला सिद्ध हो जाता है। पतु प-में सूत्र संख्या १-३ से प्राप्त द्वितीय रूपम-सिला' में स्थित 'ण' के 'अ'को वैकल्पिक रूपले '' की प्राप्ति होकर पतुर्ष आर्य रुप 'मणो-सिला भी सिद्ध हो जाता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * पतिश्रत संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडतुआ होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-७१ ते 'प्र' में स्थित 'का लोप; १-२०६ मे 'ति' में स्थित 'त्' के स्थान पर की प्राप्ति; १.८८ से प्राप्त 'डि' में स्थित '' के के स्थान पर की प्राप्तिः १-२६ से प्राप्त '' पर आगम कप अगस्वार की प्राप्ति २-७९ से 'भू' में स्थित "१ का लोपः १-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'ग्' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति भौर १.१५ से अस्प हलन्त पना 'त्' के स्थान पर स्त्री-लिग-अर्थफ 'आ' की प्राप्ति होकर पडसा रूप सिद्ध हो जाता है। उपरि संस्कृप्त रूप है। इसका प्राकृत कप अवार होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०८ से 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और 1-२६ से अन्य रि' पर आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति होकर अरिं रूप सिद्ध हो जाता है। अतिमुक्तकम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अणितयं, महमुतयं और अइमत्तयं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में पूत्र-मस्या १-२०८ से ति' में स्थित 'त' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १-१७८ से 'म' का लोप होकर शेष रहे हए स्वर 'ब' पर अमृनासिक को प्राप्ति; २-५७ से 'पत' में स्थित हलात 'क' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क' का कोप; १-१८० से मंतिम 'क्' के लोय होने के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान or 'य' की प्राप्ति ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचन में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रुप 'अणिउतयं मिस हो जाता है। द्वितीय रूप-(अतिमुक्तकम् = ) अहमतयं में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'सि' में स्थित स्' का लोपः १.२६ से 'म' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७७ से 'क्त' में श्यित 'क' का लोप; १-१७७ से अंतिम 'क' का लोप १-१८० से लोप हुए 'क के पश्चात शेष रहे हुए '' के स्थान पर 'घ' को प्राप्ति और शंष साधनिका की प्राप्ति प्रथम रूप के समान हो ३.५ और १-२३ से होकर द्वितीय रूप 'अ तयं सिद्ध हो जाता है । सृतीय रूप-(अतिमुक्तकम् = ) अमुत्तमं में मूत्र-संध्या १.१७७ से "ति' में स्थिन '' का लोप; २-७७ से 'क्त में स्थित 'क' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हूए 'त' को हित्व 'त' को प्राप्ति; १.१७७ ते मंतिम 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए क' के पश्चात शेष रहे हए 'म' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति और शेष सायनिका की प्राप्ति प्रयम रूप के समान ही ३-५ और १-२३ से होकर ततीय रूप अइमुत्तर्य सिद्ध हो जाता है। देषनाग-नुवर्ण संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप देव नाग-भुवण्ण होता है। इसमें सत्र संख्या १-२६ से वेब' में स्थित 'व' व्यञ्जन पर बागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-७९ से अंतिम संयक्त घजन 'ण' गॅस्थित रेफ रूप हरून्त 'र' का लोप और २०८९ से लोप हुए रके यश्चात् शेष रहे हए 'ग' को द्वित्व 'ण' को प्राप्ति होकर प्राकृत-गाथा-अंश 'देषनाग-सुषण्ण' सिद्ध हो जाता है । ९-२६ ।। क्वा--स्यादेणे-स्वोवा ॥ १..२७॥ . . Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * क्वायाः स्यादीनां च यो गस्तयोरनुस्वारोन्तो वा भवति ॥ क्त्वा || काऊणं काउमा काउाणं काउमाण ।। स्यादि । बच्छेग वच्छेण । वच्छेसु' वच्छेमु ।। णस्वोरितिकिम् । करिश्र । अग्गियो ।। अर्थ:-संस्कृत-भाषा में संबंध भूत कृदन्त के अर्थ में क्रियाओं में करवा' प्रत्यय को संशेजना होती है। इसी 'कला' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में सत्र संख्या-२-१४६ से 'तू' और 'तुआण' अथवा 'अण' और 'आप' प्रस्पयों की प्राप्ति का विधान है। सबनसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों में स्थित अंतिम '' स्यम्भन पर स्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्तिहमा करती है । जैसे-कृत्वा-काऊर्ग अथवा कामण, और काउअरणं; अथवा काउमाण इसी प्रकार से प्राकृत भाषा में संशाओं में तृतीया विभक्ति के एक वचन में, षष्ठो विमति के पहुवचन में तथा सप्तभी विभक्ति के बहुवचन में प्रम से 'ण' और 'सु' प्रत्यय को प्रशस्ति का विधान है। तनुसार इन प्राप्तव्य प्रत्ययों पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होती है । जैसे-वृक्षेम = इच्छेमं अथवा मणक्षाणाम् = इच्छाण पयवा बच्छाण भौर वझे-अच्छेनु अथवा वस्छेसुः इत्यादि । प्रश्न-प्राप्तम्य प्रत्यय 'प' और 'सु' पर ही बैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राधि होती है। ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर प्राप्तब्य रत्यय ज' और 'सु' के अतिरिक्त यदि अन्य प्रत्यय रहे एए हों उन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति का कोई विधान नहीं है। तदनुसार अन्य प्रत्ययों के सम्बन्ध में अगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति का अभाव हो समयमा चाहिये । जैसे - कृत्वा - करिअ; यह उदाहरण सम्बन्ध भूत कृवन्त का होता हया भी इसमें 'ण' संयुक्त प्रत्यय का अभाव है। अतएव इसमें आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति का भी अमाव हो प्रशित किया गया है। विभक्ति योधक प्रत्यम का उदाहरण इस प्रकार है-अग्नयः - अपवा अग्नोन अगिगणो; स बाहरण में प्रथमा अथना द्वितीया के बहुवचन का प्रदर्शक प्रत्यय संयोजित है। परन्तु इस प्रत्यय में 'म' अथवा 'मु' का अभाव है; तदनुसार इसमें आगम रूप अनस्थार की प्राप्ति का भी अभाव ही प्रदर्शित किया गया है। यो 'प' अथवा 'सु' के सदभाव में ही इन पर अगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति बैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यह तात्पर्य ही इस सूत्र का है। कृाषा संस्कृत कृवन्त रूप है, इसके प्राकृत रूप काऊणं कारुण, काउआण, काउआण और करिश होते हैं। इन में मे प्रथम चार रूपों में पत्र संख्या-४-.२१४ से मूल संस्कृत धातु "कृ" के स्थान पर प्राकृत में 'का' को प्राप्ति; २-१४६ से कूदन्त अर्थ में संस्कृत प्रत्यय 'त्या' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तण' और 'प्राण' के मिक स्थानीय रुप 'ऊग' और 'कआण' प्रत्यमों की प्राप्ति १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ऊण' और 'ऊमाण' में स्थित अस्य यजन 'ण' पर वैकल्पिक रूपम रूप अनाचार की प्राप्ति होकर फ्रम से चारों रूप-साडणे. काऊण, काऊआषं, और काऊमाण सिम हो जाते हैं। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] * प्राकृत व्याकरण * पांचवे रूप. ( कुत्वा = ) करिम में सूत्र-संख्या-४-२३४ से मूल संस्कृत पातु 'क' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर'मर' आदेश की प्राप्ति; ४-२३९ से प्राप्त हलन्त घातु 'कर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति, ३.१५७से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ के स्थान पर '६' को प्राप्ति ५-१४६ से सबंध भूतकृयन्त सूचक प्रत्यय 'क्वा' के स्थार. पर प्राकृत में अत्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-११ से प्राप्त प्रत्यय 'अत्' के अन्त में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर करिअ रूप सिद्ध हो जाता है। वृक्षण संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वच्छेणं और वच्छेग होते हैं । इनमें सत्र-संख्या- १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर की प्राप्ति; २-३ से 'म' के स्थान पर 'छ' को प्राप्ति -४९ से प्राप्त 'छु' को विरव 'छ. को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व छ' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति; ३-६ से तृतीया बिभक्ति के एक बस में अरु - राम्त पुल्लिा में संस्कृत प्रत्यय 'टा = आ' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति, ३-१४ से प्राप्त प्रस्थय '' के पूर्वस्व बच्छ' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर "अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और १.२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप बच्छेणे और वच्छेण सिद्ध हो जाते हैं। वृक्षा संस्कृत रुप है । इस के प्राकृत रूप वच्छ और वच्छतु होते हैं इनमें 'घाछ कप मूल अंग को प्राप्ति उपरोक्त रौति मनुसार तत्पश्चात् सत्र संख्या ४-४४८ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सु' प्रत्यय को प्राप्ति; ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' के पूर्वस्य 'वरुद्व में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'म' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'सु' पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार को प्राप्ति होकर ऋम से बोनों रूप परछे हुँ और बच्छेनु सिब हो जाते हैं। अग्नयः और अग्नीन संस्कृत के प्रथमान्त द्वितीयात बहवमान क्रमिक रूप है । इनका प्राकुन रूप अग्गिणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न्' का लोप; २-८१ से लोप हुए 'न्' के पश्चात शेष रहे हुए '' को विस्व 'ग' को प्राप्ति; और ३-२२ से प्रपमा विभक्ति तथा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में इकारान्त पुल्लिग में 'अस् = अस्' और 'शस्' प्रत्यय के स्थान पर 'गरे प्रत्यप को प्राप्ति होकर ग्गियो रूप सिद्ध हो जाता है । १-२ विंशत्यादे लुक ।। १-२८ ॥ विंशत्यादीनाम् अनुस्वारस्य लुग् भवति । विंशतिः । वीसा ॥ त्रिंशत् । तीसा । संस्कृतम् । सक्कयं ॥ संस्कार : । सकारो इत्यादि ।। अर्थ-विशति आदि संस्कृत शब्दों का प्राकृत-रूपान्तर करने पर इन शब्दों में आदि अफर पर स्थित अनुस्वार का लोप हो जाता है । जैसे -विशति:- वोसा; त्रिंशत् = तोसा, संस्कृतम् : सक्कर्ष और संस्कार = सक्कारो; त्यादि। पिंशतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बौसा होता है। इसमें सूत्र-संक्पा १.२८ से अनुस्वार का Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४५ १-९२ से हो स्वर सहित १-११ से अन्य हलन्त लोप १ ९२ से 'वि' में स्थित हस्व स्वर 'व' को दीर्घ स्वर ई' को प्राप्ति तथा 'सि' व्यञ्जन का लोप अथवा अभाव १-२६० से श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप और ३-३१ से स्त्रीलिंग अर्थक प्रत्यय 'भा' को प्राप्त रूप 'बोस' में प्राप्ति होकर वीसा रूप सिद्ध हो जाता है । शिव संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तीसा होता है। इस सूत्र संख्या १-२८ से अम्बार का लोपः २ ७९ से 'जि' में स्थित हलन्त व्यञ्जन ' का लोप: १-९२ मे स्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्तिः १-२६० सेश के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त च 'ह' काल और ३-३से स्त्री-अर्थप्रत्य 'अ' को प्राप्त रूप 'तोस' में' प्राप्ति होकर तीसारून सिद्ध हो ता है। संस्कृतम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सक्क होता है। इसमें सूत्र -१-२८ से अनुस्वार का लोप २७७ से द्वितीय 'स्' का लोप १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति २-८९ से पूर्वोश्त लोप हुए 'स् के पश्चात् शेव रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्तिः १ १७७ से 'त्' हा लोर १-१८० से लोग हुए 'स्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक ववन में अकारान्त नपुंसक लिंग में '' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रश्यम'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर सक्करं रूप सिद्ध हो जाता है । संस्कार' संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप सवकारी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से अनुस्वार का लोप २०७७ से द्वितीय हलन्त व्यञ्जन 'सु' का लोप २-८९ से लोप हुए 'स' के पश्चात शेष रहे हुए 'क' को द्विस्व 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सक्कारी रूप सिद्ध हो जाता है । १-२८ ॥ मांसादेवा ॥ १-- २६ ॥ मांसादीनामनुस्वारस्य लुग्वा भवति । मासं मंसं । मासलं मंसलं । कासं कसं । पापंसू कह कहं । एव एवं नूण नूणं । इआणि इआणि दाणि दाणि । कि कांमि कि करेमि । समुहं संमुहं । सुत्रं किं । सीहो सिंघो || मांस | मांसल 1 कांस्य | पांसु । कथम् एयम् । नूनम् । इदानीम् । किम् । संमुख । किंशुक | सिंह | इत्यादि || अर्थ-मांस आदि अनेक संस्कृत शब्दों का प्राकृत रूपान्तर करने पर उनमें स्थित अनुस्वार का विकल्प लोप हो जाया करता है । जैसे- मांसम् मासं अथवा मंसं मांतलम् = मासलं अथवा मंसलं कश्यम् = फासं अथवा कंसं पांसुः पासू अथवा पंसू कयम कह अथवा कह एवम् एव अथवा एवं नूनम, नूम अश्वा नः इदानीम् आणि अथवा इआणि इनानीम् (शौरसेनी मॅ-) बाणि अथवा दाणि किम् करोमि कि 3 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] = = करेमि अथवा हि करेमि सम्मुख सम अथवा मंहं शिशुरूप के अथवा किंतु और सिसोही अमवासियो इत्यादि । * प्राकृत व्याकरण * मांस संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूपमा और मंतं होते हैं इनसे सूत्र संख्या १-२९ से'' पर थित अनुस्वार का लोप १-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लि 'म्' की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रस्थय 'म्' के स्थान पर अरवार की प्राप्ति होकर प्रथम रूपमा सिद्ध हो जाता है द्वितीय रूप - (ateम् = ) मंसं में सूत्र संख्या १७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'मां' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर स्वर 'अ' को प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप से भी सिद्ध हो जाता है । मांसल संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मासले और मंसलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप मं सूत्र संख्या १-२९ से 'मां' पर स्थित अनुस्वार का लोप; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग मे' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मास सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (मांस) में स्थित बीधे स्वर 'बा' के स्थान पर दुख मंस भी सिद्ध हो जाता है । में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'मां' र 'अ' की प्राप्ति और दोष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर कांस्यम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कास और कंसं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२९ से 'क' पर स्थित अनुस्वार का कोप २७८ से 'व्' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १२३ के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रथम रूप फार्स सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (कांस्यम् = ) कंसं में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'को' में स्थित दीर्घ स्वर 'बा' के स्थान पर दूश्य स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप से भी सिद्ध हो जाता है। पांसुः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पासू और पंसू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२९ से 'प' पर स्थित अनुस्वार का छोप और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुलिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर स्व स्वर '' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पालू सिद्ध हो जाता है। = द्वितीय रूप (पांसु ) ) पंसू में सूत्र संख्या १-७० से अनुस्वार का लोप नहीं होने की स्थिति में 'पा' मं स्थित दीर्घं स्वर 'आ' के स्थान पर हुस्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधतिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पंसू भी सिद्ध हो जाता है। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : I , * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४७ कथम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कह और कह होते है। इनमें सूत्र संपा-१-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और १-२९ से अनुस्वार का बैकल्पिक रूप से लोप होकर कम से दोनों रूप कह और कई सिद्ध हो जाते हैं । एवम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप एव और एवं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १ २३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १-२९ से उक्त अनुस्वार का वैकrिee रूप से लोन होकर क्रम से दोनों एव और एवं सिद्ध हो जाते हैं । नम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप तूण और नूर्ण होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से द्वितीय मं के स्थान पर '' की प्राप्ति १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १-२९ से उक्त अनुस्वार का defore से लोप होकर कम से दोनों रूप नूण और नृणं सिद्ध हो जाते हैं । इदानीम् संस्कृत अध्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप आणि ओर आणि होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप १-२२८ से 'त्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः १-८४ से दीर्घस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर अनुस्वार की प्राप्ति और १-२९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से इआणि सिद्ध हो जाते हैं । 'इ' की प्राप्ति १ २३ से 'म्' के स्थान पर लोप होकर कम से दोनों रूप आणि और इदानीम् संस्कृत अभ्यय रूप है। इसके शौरसेनी भाषा में बाण और बागि रूप होते हैं। इनमें सूत्र संस्पा-४--७७ से ‘इदानीम्' के स्थान पर 'दाबि' आदेश दौर १०२९ से अनुस्वार का कल्पिक रूप से लोप होकर म से दोनों रूप ण और दाणिं सिद्ध हो जाते हैं । किम, संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कि और कि होते है। इनमें सूत्र-संस्था १-२३'' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और १-२९ से उक्त अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोप होकर क्रम से दोनों कि और किं सिद्ध हो जाते हैं । को संस्कृत क्रिया का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप करेमि होता है। इसमें सूत्र संस्था ४ २३४ से मूल संस्कृत धातु 'कृ' में स्थित '' के स्थान पर 'र्' आवेश ४ २३९ में प्राप्त हुलन्स धातु कर' में विकरण प्रश्यय 'ए' की संधि और ३-१४१ से वर्तमान काल के तृतीय पुष के एक वक्त में 'मि' प्रत्यय को संयोजना होकर करामे रूप सिद्ध हो जाता है। संमुखम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप समुहं और समुह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२९ से 'से' पर स्थित अनुस्वार का वैकल्पिक रूप से लोपः १-१८७ से 'व' के स्थान पर हैं' को प्राप्ति और १-२३ से अन्य हुलात 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप समुहं और समुहं सिद्ध हो जाते हैं। किंशुकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत 'इ' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'ए' को प्राप्ति रूप केसु और किमुनं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८६ से १-२९ से 'कि' पर स्थित अनुस्वार का वैकनिक रूप से लांच; Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] 4444 * प्राकृत व्याकरण ♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦♦ १-२६० से '' के स्थान पर 'स्' को प्राप्ति; १-१७७ से 'कृ' का लोप और ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कप से दोनों हर के अं और फि सिद्ध हो जाते। I सिंहः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप सी और सिंघों होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसं १-९२ से ह्रस्व वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्तिः १-२९ से अनुस्वार का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप first fसद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( सिंह: : ) सिंघी में सूत्र संख्या १-२६४ से अनुस्वार के पश्चात् रहे हुए 'ह' के स्थान पर 'घ' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'क्ष' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सिंघा भी सिद्ध हो जाता है || १-२९ ॥ वर्गेन्त्यो वा ॥ १-३० ॥ अनुस्वारस्य बर्गे परे प्रत्यासत्ते स्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा भवति ॥ पङ्को पैको । सो I संखो । अङ्गणं अंगणं । लक्षणं लंघणं । कञ्चु कंचुओ । लञ्छणं लचर्ण । अञ्जि अंजियं । समा संझा | कण्ट कंटओ । उक्कण्ठा उक्कंठा । कण्डं कडं । सपढो संढो । अन्तरं अंतरं । पन्थी पंथी | चन्दो चंदो बन्धवो बंधवो । कम्पइ कंपड़ । वम्फइ बंकर । कलम्बो कलंबो | आरम्भ आरंभ || वर्ग इति किम् । संस । संहरइ || नित्यमिच्छन्त्यन्ये ॥ I अर्थ - प्राकृत भाषा के किस शव में यदि अनुस्वार रहा हुआ हो और उस अनुस्वार के आगे यदि कोई aita - (वर्ग-वर्ग-वर्ग-तवर्ग कर पवर्ग का) अक्षर आया हुआ हो तो जिस वर्ग का अक्षर माया हुआ हो; उसी वर्ग का परचम अक्षर उस अवार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हो जाया करता हूं। जैसे- वर्ग को उदाहरण:- पपङ्को अथवा पंफोः शङ्कः = सो अथवा संखो; अङ्गणम् = अङ्गणं अथवा अंगणं लङ्घनम् =रुणं अथवा लंघणंव के उदहरण:-शुकः कचुओ अपना कंचुओ; लाञ्छनम् = लञ्छणं अथवा लंछणं अनि अथवा अंजिश । सन्ध्या सभा अथवा संशो वर्ग के उदाहरण - कण्टकः कष्टओ अथवा कंटो; उत्कण्ठा उक्कण्ठा अथवा उक्कंठा काण्डम् = कडं अथवा कर्ज षण्ढः = सण्डो अथवा सहो । तवर्ग के उदाहरण अन्तरम् = अन्तर अथवा अंतरं; पंथः पत्यो अथवा पंथो चन्द्रः = धन्वो अथवा चंदोः बान्धवः बन्धवो अथवा बंधयो । कम्पते कम्पर अयथा कंपइ कांति वम् अथवा बंद, लंबः = कलम्बो अथवा फलंदो और आरंभ: = आरम्भो अथवा नारंभ इत्यादि । 1 = प्रश्नः - अनस्वार के आगे वर्गीय अक्षर आने पर ही अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से उसी अक्षर के वर्ग का पंचम अक्षर हो जाता है; ऐसा उल्लेख क्यों किया गया ? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६ उतर:-यवि अमुस्वार के आगे वर्गीय अक्षर नहीं होकर कोई घर अपवा अमर्गीय-व्यञ्जन आया हमा होगा तो उस अनस्यार के स्थान पर किसी भी वर्ग का-('म्' के अतिरिक्त) पंचम असर नहीं होगा; इसलिये 'वर्ग' शव का भार-पूर्वक उल्लेख किया गया है । उदाहरण इस प्रकार है-संशय -संसओ और संहरति-संहरह; इत्यादि । किन्ही किन्ही-डयाकरणाचार्यों का मत है कि प्राकृत-भाषा के शब्दों में रहे हुए अमुस्वार को स्थिति नित्य 'अनुस्वार रूप ही रहती है एवं उसके स्थान पर वर्गीय पंचम-अशर की प्राप्ति असी अवस्था नहीं प्राप्त हुआ करती है। पंकः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पङ्को और पंको होते है। इनमें पत्र संख्या १-२५ मे हलम्त '. के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर 'भ' देशस्पिक रूप से और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बच्चन में अकारात पुस्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर मो' प्रस्थय को प्राप्ति होकर कम से दोनों पर पंको तथा पंको सिद्ध हो जाते हैं। . शंख: संस्कृत रूप है । इसके प्राहस रूप सङ्को और संधी होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' प्राप्ति मोर शेष सापनिका उपरोक्त पंको-पंकों के अनुसार हो १-२५॥ १-३० और ३.२ से प्राप्त होकर कम से दोनों रुप संलो और संखो सिद्ध हो जाते हैं। अङ्गणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अङ्कणं और अंगण्य होते हैं । इममें सूत्र-सल्या १-२५ सेहतात 'क' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १.३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर कल्पिक रूप से, हलन्त व्यंजन की प्राप्तिः३-२५ से प्रपमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्ररदय रे स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और१-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप अक्षण और अंगणं सिद्ध हो जाते हैं। लगम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप लङ्कर्ष और लंधणं होते है। इन में अत्र-संख्या १.२२८ से '' के रघाम पर 'ग' को प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त अङ्गण-अगणं, के अनुसार हो १.२५, १-३०, ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर कमाः दोनों रूप लक्षण और लंधणं सिद्ध हो जाते हैं। कन्षुकः संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत रूप को और कंजुओ होते है। इनमें सूत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'म' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'अ' व्यजन की प्राप्ति, १.१७ से 'क' का लोप और ३-२ स प्रथमा विभक्ति के एक वचम में प्रकाराम्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों पकनुओ और कंनुओ सिद्ध हो जाते हैं। लान्छमम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लम्छक और लंछणं होते हैं। इनमें पूत्र-संख्या १.८४ से 'ला' में स्थित 'आ' के स्थान पर ,अ' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त '' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; {-10 से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'म' म्यजन को प्राप्ति; १-२२८ से र' के स्थान पर की Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * प्राप्ति -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त मपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप लञ्छशं और लंधणे सिस हो जाते हैं। अजितम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत अजिन और जिन होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-२५ से हलन्त 'ब' के स्थान पर मनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्कर के स्थान पर अकल्पिक रूप से 'म' व्यञ्जन की प्राप्ति; १.१७७ से 'त्' व्यञ्जन का लोप; ३-२५ से प्रणमा विभक्ति के एक घधन में अकारान्त मपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुष्यार होकर आज और अंजिभ योनों रूप श्रम से सिद्ध हो जाते हैं। सन्ध्या संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप सम्मा और संशा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.२५ से हल-त म्पनन 'न्" के स्थान पर अनुरवार को प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन ध्या के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति और १-३० से पूर्व में प्राप्त अनु चार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हुलम्त '' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर कम से बोनों रूप समझा और संझा सिद्ध हो जाते हैं। कण्टक: संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कष्टओ और कटओ होते हैं। इनमें सुत्र संख्या १.२५ से हलात व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर कल्पिक रूप से '' यजन की प्राप्ति १-.७७ से मितीय '' म्यञ्जन का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर श्रम से दोनों पकण्टओ और कंटको सिद्ध हो जाते हैं। उत्कण्ठा संस्कृत कम है । इसके प्राकृत रूप वाष्ठा ओर उठा होते हैं । हन सूत्र-संश्या २-७७ से हलम्स उपन्जन 'त्' का लोप; २८९ से लोप हुए 'स्' के पश्चात शेष रदे हुए 'क' को द्वित्व 'क' को प्राप्ति; १-२५ से हलन्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति और १-३० से प्राप्त अनुग्वार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हलन्त 'ग्' व्यञ्जन की प्राप्ति होकर पाम से सोनों रूप उक्कण्ठा और उक्कंठा सिद्ध हो जाते हैं। काण्डम् भंस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप फण्ड और फंड होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.८४ से 'का' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; १.२५ से हलन्त ग्यजन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १.३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त 'ग' पञ्जन को प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में '' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' के स्थान र अनुस्वार की प्राप्ति होकर ऋम से दोनों रूप कण्डं और केंड सिद्ध हो जाते हैं। पण्डः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सण्डो और संडो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२५ से हलन्त म्यम्जन 'ण' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १.३० से प्राप्त Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रितोद हिन्दी सहि [ ५१ पड़ी और सं अनुस्वार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हलन्त '' व्यजन को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बच में अकारान्त पुस्लिय में प्रिय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फंसे दोनों सिद्ध हो जाते है । अन्तरम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अन्तर और अंतर होते हैं। इनमें सूत्र- १-२५ से हल जन 'नू' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हन्त '' व्यञ्जन की प्राप्ति ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुचार होडर कर से दोनों रूप असारं और अंतरं वि हो जाते हैं। पन्थः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पत्यो और पंथी होते हैं इन सू-१-२५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्तिः १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप '' यमन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में कापुर में प्रत्यय स्थान पर सिं के 'अ)' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप पन्थो और पंथी सिद्ध हो जाते हैं। चन्द्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बन्यो और दो होते हैं इन-१-२५ से ह व्यञ्जन 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक हा सेहत 'न्' को प्राप्ति २-८० से हम ''जन का लोप और ३-२ में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों चन्द्र और यंत्रों सिद्ध हो जाते है। बान्धवः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वो और बंधवो होते है । इनमें सूत्र संख्या १-८४ से '' में स्थित 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-२५ सेशन 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-३० से प्राप्त स्वार के स्थान पर वैकल्पिक रूप से हलन्त '' जन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर से दोनों क्रम रू पन्धवो और बंध सिद्ध हो जाते हैं। कम्पते संस्कृतक किया पद का रूप है। इसके कम्प और कंपड होते। इनमें सू संख्या १-२२ को वृत्ति से हल न व्यन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-३० से प्राप्त अदवार के स्थान हलन्त पर वैकल्पिक रूप से इन्त ""जन की प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक द से 'से' प्रत्यय के स्थान पर 'क' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप कम्पड़ और रइ सिद्ध हो जाते कांक्षति संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत (आदेश प्राप्त रूप वम् और बंकई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४-१९२ से संस्कृत धातु 'का' के स्थान पर प्राकृत में 'बम्फू' को आदेश प्राप्तिः १-२३ को वृति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति १-३० सेअनुस्वार के स्थान पर वैकल्पिक Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] * प्राकृत व्याकरण * रूप से हलन्त्र 'म्' ध्यनन की प्राप्ति, ४-२३९ से प्राप्त धातु-रूप 'व' और 'व' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति और ३-१३१ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप पम्फड़ और फइ सिद्ध हो जाते हैं। कलम्बः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कलम्बो और कलंबो होते हैं। इनमें भूत्र-संख्या १-२३ की वृत्ति से हलन्त 'म्' व्यञ्जन के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति; १-३० से प्राप्त अन स्वार के स्थान पर वैकल्पिक हा से हलन्त 'म्' व्यजन की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक चयन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप कलम्बो और कलबी सिद्ध हो जाते हैं। आरम्भः सस्कृत का है । इसके प्राकृत रूप आरम्भो और आरंभो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२३ की वत्ति से हलन्त 'म्' व्यम्जन के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति, १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर बैकल्पिक रूप से हलन्त 'म' ध्यञ्जन की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप आरम्मी और आरंभी सिद्ध हो जाते हैं। संशयः सस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संसओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १-१७७ से '' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन मे अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संसओ रूप सिद्ध हो जाता है। संहरति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप संहरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३९ से भूल प्राकृत धातु 'संहर्' में विकरण प्ररपय 'अ' की प्राप्ति और ३.१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रस्थय को प्रारित होकर संहरड़ रूप सिम हो जाता है। १-३०॥ प्रावृद्-शरत्तरणयः पुंसि ॥ १-३१ ॥ प्रावृष शरद् तरणि इत्येते शब्दाः पुसि पुल्लिङ्ग प्रयोक्तव्याः ।पाउसो । सरभो । एस तरणी ॥ तरणि शब्दस्य पुस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम् ।। अर्थ:-संस्कृत भाषा में प्राथषु (अर्थात् वर्षा ऋतु) शरद (अर्थात् ठंड ऋतु) और तरणि (अर्थात् नौका नाव विशेष) शम्न स्त्रीलिंग रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। परन्तु प्रकृत-भाषा में इन शब्दों का लिग-परिवर्तन हो जाता है और ये पुल्लिंग रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं । जैसे:-प्रावृष् = पाउसो; शरद = सरओ और एषा तरणिः = एस तरणो । संस्कृत भाषा में 'तरगि' शब्द के दो अर्थ होते हैं। १ सुर्य और २ नौका; तवनुसार 'सूर्य-अयं' में तरणि शब्द पुल्लिग होता है और 'मौका-अर्थ' में यही तरणि शतम स्त्रीलिए वाला हो जाता है। किन्तु प्राकृत भाषा में 'तरणि' शब्द नित्य पुल्लिग ही होता है। इसी तात्पर्य-विशेष को प्रकट करने के लिये यहाँ पर 'तरणि' शब्द का मुख्यतः उल्लेख किया गया है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'पाउसो' रूप की सिदि सूत्र-संस्था १-१९ में की गई है। 'सरो ' रूष की सिद्धि सूत्र-संख्या?-१८ में की गई है। _ 'एषा संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप-(पुल्लिग में) एस होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.८५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में मूल-संस्कृत सर्वनाम रूप 'एतत् के स्थान पर 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'एस' मावेश होकर 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है । तरणिः संस्कृत स्त्रीलिग बाला रूप है । इसका प्राकृत (पुलिस में) पतरणो होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-३१ से 'तरणि' शन को स्त्रीलिंगत्व में पुल्लिपर को प्राप्ति और ३-१९ से प्रवमा विभक्ति एक बधम में इकारान्त पुल्लिग में 'स प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हब स्वर को दोघं स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर लरणी रूप सिद्ध हो जाता है । -३१।। स्नमदाम-शिरो-नमः ॥ १-३२ ॥ दामन शिरस् नभस् वजितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्दरूप 'सि प्रयोक्तव्यम् । सान्तम् । जसो । पत्रा । तमी । ते श्री । उग ।। नान्तम् । जम्मो । नम्मी । मम्मो || अदाम शिरो नम इति किम् । दामं । सिरं । नई । यच सेयं वयं सुमणं सम्म चम्ममिति दृश्यते तद् बहुलाधिकारात् । __ अर्थ: वामन्, शिरस् और नमस् इन संस्कृत शब्दों के अतिरिक्त जिन संस्कृत शब्दों के मन में हलन्त 'R' अथवा हलन्त 'न्' है; एसे सकारान्त अथवा नकारान्त संस्कृत शब्दों का प्राकृत मान्तर करने पर इनके सिप में परिवर्तन हो जाता है। तबन्सार य नयु सरु लिग से पुरिजा बन जाते हैं । जैसे-सहारान्त शाओं के उगाहरन यशस् - जसो; पयसम्पओ; तमस्-तमो; तेजस् :: ते यो; उरस् : उरी; इत्यारि । नकारान्त शम्दों के उराहरणजन्मन = जम्मो; नर्मन - नम्मो और मनन् - मम्मी; इत्यारि । प्रश्न-दामन्, शिरम और मभस् शशे का लिग परिवर्तन क्यों नहीं होता है ? उत्तर-पे शब्द प्राकृत भाषा में भी नमक लिंग व ले ही रहते हैं। आएव इनको त लिए परिवर्तन वाले विधान से पृथक हो रखना पड़ा है। जैसे-वामन = दाम; शिरस् = सिरं और नभस् = नहं। अन्य शर भी ऐसे पाये जाते हैं। जिनके लिंग में परिवर्तन नहीं होता है। इसका कारण 'बहुलं' सूत्रानुसार हो समाम लेना साहिय । जैसे-श्रेयस् = सेमं; वयस् = वर्ष सुमनस् = सुमणं; शर्म = सम्म और धर्म = चम्म; इस्यादि। ये शारक्ष सकारान्त अथवा नकारान्त हैं और संस्कृत भाषा में इनका लिंग नपुसक लिग है। तदनुसार माकृत-रूपान्तर में भी इनका लिग नपुंसक लिग हो रहा है। इनमें लिंग का परिवर्तन नहीं हुआ है। इसका कारण बालम्' सूत्र हो जानना चाहिये । भाषा के प्रवलित और बदमाय प्रवाह को पारगतो पता न हो सकते हैं। जसा शम्द की सिद्धि सूत्र-संस्था १-११ में की गई है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] * प्राकृत व्याकरण * पयस् संस्कृत शम्व है । इसका प्राकृत रूप 'पओ' होता है। इसमें सूत्र-संरूपा १.१७३ से यू' का लोग १-११ से 'स्' का लोप; १-३२ से नपुंसक लिंगत्व से पुल्लिगरव का निधारण; ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में 'ओ' प्रस्पय की प्राप्ति होकर 'पओं' स्प सिद्ध होता है। तमो शम्ब की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११ में की गई है। तेजस् संस्कृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप तेश्रो' होता है। इसमें सूत्र-संस्था १-१७७ से 'ज' का लोर, १-११ से अन्य स्' का लोप; १.३२ से पुस्लिगस्य का निर्धारण; और ३.२ से प्रयमा के एक यमन में 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर 'तओ रूप सिद्ध होता है। उरस संकृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप 'उर' होता है। इसमें सत्र संख्या १.११ से अगत्य 'स' का लोप; १-३२ से पुर्तिलगत्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एक पचन में 'सो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उरी रूप सिंह होता है। जम्मो दाद की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। नर्मन् सस्कृत शग्य है । इसका प्राकृत कर नामो होता है इसमें मूत्र संख्या २.७१ से 'र' का लोप २-८९ से 'म'का द्वित्व 'मम'; १.११ से अस्पन' का लोप; १.३२ से पुस्तित्वका निर्धारण; और ३.२से प्रथम के एक वचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर "मम्मी का सिद्ध होता है। भर्मन् संस्कृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप मम्मो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७९ से र' का लोप; २०८९ से द्वितीय 'म' को द्विस्व 'म्म' की प्राप्ति; १-१ से 'न' का लोप; १-३२ से पुल्लिपस्व का निर्धारण; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मम्मी' रूप सिद्ध होता है। दामन संस्कृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप काम होता है। इसमें सूत्र-संख्या १- १ से'' का लोप; ३-२५ से प्रयमा के एक वमन में नपुंसक होने मे 'म्' प्रत्यय को प्राप्तिः ५.२३ से प्रारत प्रत्यय 'म'का अनुस्वार होकर रामं रूप सिद्ध होता है। शिरम् संस्कृत पास है इसका प्राकृत का सिर होता है । इप्समें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.११ से अत्य 'स' का लोप; ३-२५ से प्रयमा एक वचन में नपुंसक होने से 'भ' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर सिरं कप सिद्ध होता है। नमस संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप नहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१८७ से 'म' का ह'; १-११ से 'स्' का लोप; ३.२५ से प्रयना के एक यवन में नपुंसक होने से 'म' प्रत्यय को प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्पप म' का अनुस्वार होकर 'नह" रूप सिद्ध हो जाता है। श्रेयस् संगकृत शबा है । इसका प्राकृत रूप से होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.२६० से '' का '' २-७९ से '' का लोप: १-११ से 'स' का लोप: ३-२५ ले प्रथमा एक वचन में नपुसक होने से 'म' प्रत्यय को प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सर्य' रूप सिद्ध हो जाता है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * वयस् संस्कृत शम्न है। इसका प्राकृत रूप वयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११ से 'स' का लोप; ६ -२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक होने से 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-३३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर 'पर्य' रूप सिद्ध हो जाता है। सुमनस संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सुमणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'प'; १-११ से अन्स्य 'स' का लोप; ३-२५ सें प्रथमा के एक मन में नपुंसक होने से 'म' प्रत्यय को प्राप्ति; और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर सुमणं रूप सिब हो जाता है। शर्मन, संस्कृत पाया है। इसका प्राकृत रूप सम्म होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २ का लो; २२.से निrat'; से सम्स्य 'न' का लोप; ३-२५ से प्रममा के एक बधन में मसक होने से 'म' प्रत्यय की प्रापिता और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म'का अनुस्वार होकर सम्म सप सिम हो जाता है। वर्मन् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप चम्म होता है। इसमें सूत्र-संस्था २-७९ से 'र' का लोप; २.८९ से 'म' का विस्व 'म'; १-११ से '' का लोप; ३.२५ से प्रथमा के एक पचम में नपुसक होने से 'म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' का अनुस्वार होकर चम्म रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३२॥ वाक्ष्यर्थ-वचनाद्याः ॥ १-३३ ॥ अक्षिपर्याया वचनादयश्च शब्दा: पुसि वा प्रयोक्तव्याः ॥ अक्ष्यर्थाः। प्रज्ज वि सा सवइ ते अच्छी । नच्चावियाई नेणम्ह अच्छीई ।। अजल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलिङ्ग पि । एसा अच्छी । चक्खू 'चक्खई । नयणा नयणाई । लोअणा लोणाई || पचनादि । अयणा वरणाई। विज्जुणा विज्जए । कुलो कुलं । छन्दो छन्। माहप्पो माहप्प। दुक्खा दुक्रवाई भाषणा भायणाई । इत्यादि । इति वचनादयः ॥ नेत्ता नेत्ताई । कमला कमलाइ इत्यादि तु संस्कृतवदेव सिद्धम् ।। वर्थ-ल के पर्यायवाचक शम और वान आदि शम्ब प्राकृत भाषा में विकल्प से पुल्लिा में प्रसक्त किये आने चाहिये । जैसे कि बाल अर्थक शम्म-अफज मिसा सवइ ते अच्छी अर्थात् रह (स्त्री) भाव भी तुम्हारी (दोनों) आंखों को भाप देती है। अथवा सौगंध देती है। यहां पर अच्छो' को पुल्लिग मानकर द्वितीया पहुवचन का प्रत्यम जोड़ा गया है । मरुधाविया तेलम्ह अच्छीई अर्थात् उसके द्वारा मेरो ऑन नचाई गई। यहां पर 'भन्छोई' लिमकर 'अाही' शब्म को नपुसक में प्रयुक्त किया गया है । अंजली गावि के पाठ से 'अति' शम स्त्रीलिंग में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। जैसे-एसा अचमी अर्थात् यह माख । यहाँ पर बम्हो हाम्द स्त्रीलिंग में प्रमुमत किया गया है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * चक्यू पावई = अखि । प्रथम रूप प्रयमा बहुवचन के पुल्लिा का है: जबकि दूसरा रूप प्रजमा बहुवचन के नपुंसक लिग का है इसी प्रकार नयणा और नयणा: लोअणा और लोअण्णाई; ये शब्द भी आंख याचक है । इसमें प्रथम रुप तो प्रथमा बहुवचन में पुस्लिग का है; और द्वितीय रूप प्रयमा बहुवचन में मसक लिंग का है। वसन आदि के उधाहरण इस प्रकार -वयणा और यणाई; अर्थात वचन : प्रथम रूप पुल्लिा में प्रयमा बहुवचन का है और द्वितीय रूप नपुसक लिंग में प्रयगा बहुवचन का है । विजणा, विनए अति विद्युत से । प्रथम म पुलिलग में तृतीया एक वचन का है; और द्वितोष रूप स्त्रीलिंग में तृतीया एक वचन का है । कुलो कुलं अर्थात् कुदम्य । प्रथम प पुल्लिा में प्रयमा एक बचन का है और द्वितीय रूप नसा लिा में प्रथमा एक बचन का है । छन्दो-छन्वं अर्थात् छन्द । यह भी कम से पुलिला और नसोक तथा प्रथमा एक बचन के का है। माहप्पो माहापं अर्थात् माहात्म्य । यहाँ पर भी क्रम से पुल्लिग और मसर लिंग है; तथा प्रथमा एक धधन के रूप है । वुक्खा दुषलाई अर्थात् विविध दुःख । य भी ऋम से पुल्लिग और नपुसक लिंग में लिखे गये है। तथा प्रथमा बहुवचन के रूप है । भापणा भायणाई = भाजन बर्तन। प्रथम रूप पुल्लिंग में और द्वितीय रूप नपुंसक लिग में है। दोनों को विक्षित प्रथमा बहुमान हैं । यो उपरोक्त बचन आदि शब्द विकल्प से पुल्लिग भी होते हैं और नपुसकॉलग भी । किन्तु नेत्ता और मेताई अर्थात् आंख तथा कमला और कमला अर्थात् कमल इत्यादि शबयों के लिंग संस्कृत के समान ही होते हैं। अतः यहां पर बचन आदि के साय इनको गणना नहीं की गई है। ___ अद्य संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप अब होता है। इसमें सूब-सा २-२४ से '' का ज; ८९ से प्राप्त 'ज' को विरष 'उज' की प्राप्ति होकर 'अ' रूप सिद्ध हो जाता है। "वि अग्यय की सिद्धि सम-संख्या १-६ में की गई है। सा संस्कृत सर्वनाम स्त्रीलिंग शब्द इसका प्राकृत र 'सा' हो होता है। 'सा' सर्वनाम का मल शग 'त' है। इसमें पत्र संख्या ३.८६ से 'तद्' को 'स आदेश हुआ। ३.८७ का पति में उल्लिखित 'हेम व्याकरण २-४-१८ से 'आत्' सूत्र से स्त्रीलिंग में 'स' का 'सा होता है । तत्पश्चात् ३.३३ से प्रसमा के एक बचन में 'सि' प्रत्यय के योग से 'सा' रूप सिद्ध होता है। झापत्ति संस्कृत क्रिया पर है। इसका प्राकृत का सबह होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२६० से 'श' का 'स'; १-२३1 से 4 का 'क'; ३-१३९ से ति' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम पुरुष के एक बचन में वर्तमाम काल का रूप 'सवाई सिद्ध हो जाता है। तक संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत कर ते होता है। इसमें सत्र संख्या ३-९९ से 'तर' के स्थान पर 'ते मादेश होकर तश्व सिद्ध हो जाता है। अक्षिणी संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अन्छो होता है ! इसमें सूत्र संख्या २.१७ से '' '' २.८९ से प्राप्त 'छका द्विस्व 'छछ' की प्राप्ति २-९- से प्राप्त पूर्व'छके स्थान पर की प्राप्तिा .१-३३ से Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ५७ से 'अच्छ' शब्द को पुल्लिम पक्ष की प्राप्ति ३-४ से द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में इस प्रत्यय की प्राप्ति होकर को बीता की प्राप्ति होकर अच्छी रूप सिद्ध हो जाता है। से 'इस' के स्थान नर्त्तिते संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयावियाई होता है। इसमें सूत्र संख्या ११२६ से 'ऋ' के स्थान पर अ४-२२५ से अन्य व्यजन 'ल' के स्थान पर 'अब यहाँ पर प्रेरक अर्थ होने पर सूत्र संख्या ३-५२ से 'आदि' प्रत्यय की प्राप्ति १ १० सं 'य' में स्थित 'अ' का लोप 'लू' का लोप ३.३० से घर में स्थान पर बहुवचन में 'जस प्रत्यय की प्राप्तिः ३ २६ से 'जस' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' का आदेश; तथा पूर्व के स्वर 'अ' को दीर्घता प्राप्त होकर मच्चाविमाई रूप सिद्ध हो जाता हूँ । १-१७७ से द्वितीय तेरे सर्वनाम है इसका प्राकृत रूप लेग होता है इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल शब् 'त' के 'बृ' का लोप ३-६ से तृतीया एक वचन में 'ण' को प्राप्त ३-१४ सेस' में स्थित 'न का ए होकर तेय रूप सिद्ध हो जाता है। अस्माकम संस्कृतसर्वनाम है इसका प्राकृत रूप बम्ह होता है 1 इसमें सूत्ररूपा ३-११४ से मूल शब्द अस्मत् को षठी बहुवचन के 'आम्' प्रत्यय के साथ अम्ह आदेश होता है। य 'अहं' रूप सिद्ध हो जाता हूँ । वाक्य में स्थित 'तेण अन्ह' में 'ण' म स्थित 'त्र' के आगे 'ब' लाने से' ११० सेके होकर संधि हो आने पर गम्ह सिद्ध हो जाता है रूप अछी होता है, इसमें अक्षीणि संस्कृत शब्द है इसका २-१७' ''का '' २-८९ से प्राप्त ''का' २-९० प्राप्त पूर्वका २-२६ सोया बहुवचन में शस प्रत्यय के स्थान पर 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति और इसी सूत्र से अत्स्य स्वर को दोता प्राप्त होकर अच्छी रूप सिद्ध हो जाता है एवा संस्कृत नाम है। इसका प्राकृत का एक होता है। इसमें सूत्र- ११ म श एतत् के अंतिम 'तू' का लोप ३-८६ से 'सि' को पति होने पर प्रथा एक वचन में 'एल' का एस रूप होता है । २-४-१८ से लौकिक सूत्र से स्त्रीलिंग का आ' प्रत्यय जोड़कर संधि करने से 'एस' रूप सिद्ध हो जाता है। अक्षिः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप होता है इस सूत्र सं २०१७ से 'क्ष' का 'छ': अच्छी २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्विस्व 'छ' २९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का '' १-३५ से इसका स्त्रीलिंग निर्धारण ३-१९ से एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हुस्य को बीई प्राप्त होकर अच्छी रुप सिद्ध हो जाता है। चक्षुष संस्कृत वन है। इसका प्राकृत रूप '' ९८९ से प्राप्त 'व' का द्वित्व 'स्व' २-९० सेप्पू से 'क्लु' शब्द को विकल्प से पुल्लिंगता प्राप्त होने पर ३-१८ से 'सि' प्रथमा एक वचन के प्रत्यय के 'दस्य उ' को बोधे 'क' होकर चक्षू रूप सिद्ध होता है एवं पुल्लिंग नहीं होने पर याने नपुंसक लिए होते है इसमें सूत्र संख्या २०३ से '' को का १-१२ से १-२१ स्थान पर होने पर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] * प्राकृत व्याकरण * ३-२६ से प्रथमा बहुवचन के 'जस' प्रस्थय के स्थान पर प्रत्यय को प्राप्टिस के माय पूर्व स्व स्वर को दीर्घता प्राप्त होकर घरसूई रूप सिद्ध होता है । नयनानि संस्कृत शन्न है । इसके प्राकृत ताप नषणा और नयणाई होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १.३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगता को प्राप्तिा ३-१० से 'जस्-शास' या प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन को प्राप्ति होकर इनका लोप; ३.१२ से अंतिम 'ण' के 'अ' का 'आ' हो हर नया रूप सिद्ध होता है। एवं जय पुल्लिग नहीं होकर नपुंसक लिंग हो तो ३०२६ से प्रयमा-द्वितीया के बहुपवन के 'जस-शम्' प्रत्यों के स्थान पर '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर नयणाई रूप सिद्ध हो जाता है। लोचनानि संस्कृत शा है । इसके प्राकृत रूप लोअगा और लोप्रणाई होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'म्' का लोप; १.२२८ से 'न' का 'ग'; १.३३ से वैकल्पिक स से पुलिलगता को प्राप्ति; ३-४ से 'जम्-शस्' गने प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन की प्राप्ति होकर इनका लोर, ३-१२ से अंतेम 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर लोअणा रूप सिद्ध होता है । एवं जब पुल्लिग नहीं होकर नपुसक लिग हो तो ३-२६ से प्रयमा द्वितीया के बहुवचन के 'अस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर लागणाई रूप सिद्ध हो जाता है। वचनानि संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप वयणा और वयणाई होते है इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च'का लोप१-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से. 'न' का 'ण'; १-३ से कल्पिक रूप से पुस्लिगता की प्राप्ति; ३.४ से 'चस-शस याने प्रथमा और द्वितीया कं बहुवचन को प्राप्ति होकर इनका लोप; ३-१२ से अतिम 'ग' के 'अ' का 'आ' होकर वयणा रूप सिद्ध होता है । एवं जब पुल्लिग नहीं होकर नपुसक लिंग हो तो ३-२६ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के 'जस्-शस्' प्रत्ययों के स्थान पर '' प्रत्यय होकर क्यणाई रूप सिद्ध हो जाता है। विद्युत मूल संस्कृत पाय है । इसके प्राकृत रूप विरजणा और विरए होते हैं। इसमें सूत्र संल्पा २-२४ से 'ग' का 'ज'; २.८९ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'जन'; १-११ से अन्त्य 'त्' का लोपः १-३३ से वैकल्पिक ससे पुल्लिगता की प्राप्ति; ३०२४ से तृतीया एक वचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'णा' को प्राप्ति होकर विज्जुणा शाम्ब को सिद्धि हो जाती है । एवं स्त्रीलिंग होने को वशा में ३-२९ से तृतीया एक वचन में 'टा प्रत्यय के स्थान पर एमावेश; एवं 'उनु' केहस्व उ' को वोर्ध 'क' की प्राप्ति होकर विज्जुए रूप सिद्ध हो जाता है। - कुल मूल संस्कृत शम्ब है । इसके प्राकृत रूप कुलो और कुलं होते हैं। इसमें सूत्र संया ३-२ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्राप्त होकर कुलो रूप सिद्ध हो जाता है । और १-३३ से नपुंसक होने पर ३.२५ से प्रथमा एक बचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्तिा १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर कुलं रूप सिद्ध हो जाता है। छन्दम् मूल संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप छन्दो और छन्में होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १.१. से 'स्' का लोप; १-३२ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिारता की प्राप्ति, ३-२ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रस्पय के स्थान पर 'ओं प्राप्त होकर छन् र सिख हो जाता है । और नपुंसक होने पर ३.२५ से श्पमा एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति, १-२३ से 'म्' का अनुरुषार होकर 'छन्हें प सिद्ध हो जाता है। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५६ माहात्म्य मूल संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप माहप्पो और माह होते हैं इनमें सूत्र-संख्या १-८४ 'हा' के 'आ'का ''; २.७८ से 'कालोप; २५१ से म' का आदेश 'प'; २-८१ से प्राप्त 'प'मा दिय१.३३ सेविका का पुल्लिगता का निधारण; ३-२ से प्रथमा के एक क्चर में सि' के स्थान पर 'ओ' होकर माहपो रूप सिद्ध हो जाता है। और जब १-३३ से नपुंसक विकल्प रूप से होने पर ३.२५ से स स्थान पर म' पर ए. १-२३ ५' का अनुस्वार होकर माहव्यं रूप सिद्ध हो जाता है। दु:ख मूल संस्कृत शब्द हैं। इसके प्राकृत रूप दुक्खा और दुखाई होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-१३ से दुर के 'र' का अर्थात विसर्ग का लोप; २-८९ से 'न' का द्विस्व 'रयत'; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क'; १.३३ से वैकल्पिक रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति ३.४ से प्रथमा और द्वितीया के बहुचन के प्रत्यय 'जस्-शस' का लोप; ३.१२ से वीर्घना प्राप्त होकर दुक वा रूप सिद्ध हो जाता है। १-३३ से नपुंसकता के विकल्प में ३-२६ से अंतिम स्वर की बोर्धता के साथ 'ड' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टुक्रवाईप सिद्ध हो जाता है। भाजन मूल संकृत रूप है। इसके प्राकृत रूप भायणा और भायणाई होते हैं। इनमें भूत्र-संख्या १.१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से 'अ' का '4'; १-२२८ से 'न' का ''; १.३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व को प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जम्' शास्' का लोप; २-१२ से अंतिम स्वर को पता प्राप्त होकर भाराणा रूप सिद्ध हो जाता है । १-३३ से नपुसकत्व के विकल्प में ३.२६ से अंतिम स्वर को रोघता के साप '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर भायणाई रूप सिद्ध हो जाता है। नेत्र मूल संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप नेता और नेताई होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७१ से का लोप; २-८९ से शेष 'त' का द्विस्व 'त'; १-३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगत्व की प्राप्ति; ३-४ से प्रयमा द्वितीया के बलुवचन के प्रत्यय 'जस्' 'शस्' का लोप, ३-१२ से अंतिम स्वर को दोघंता प्राप्त होकर नेता रूप सिव हो जाता है। १.३३ से नपुसकत्व के विकल्प में ३.२६ से अंतिम स्वर की दीर्घता के साथ ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मेसाई रूप सिद्ध हो जाता है। कमल मूल संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप कमला और कमलाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.३३ से विकल्प रूप से पुल्लिगस्य की प्राप्ति; ३.४ से प्रथमा-द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'अस्' और 'शस्' का लोप; 1-१२ से अंतिम स्वर को वोधता प्राप्त होकर कमला रूप सिद्ध हो जाता है । १-३३ से नपुसकत्व के विकल्प में ३.२६ से अंतिम स्वर को दोपता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमलाई रूप सिम हो जाता है ॥ ३३ ।। गुणाधाः क्लीवे वा ॥ १-३४ ॥ गुणादयः क्लीवे वा प्रयोक्तव्याः ॥ गुणाई गुणा ॥ विहवेहि गुमगाई मग्गन्ति | देवाणि देवा । बिन्दूई । बिन्दुणो । खग्गं खम्गो । मण्डलग्गं मण्डलग्गो । कररुहे. कररुहो । रुवखाई रुपखा । इत्यादि ।। इति गुणादयः ।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] * प्राकृत व्याकरण * अर्थ -- गुणइत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसक लिंग में और हमें प्रयुक्त किये जाते ह गुणाई और गुणा से हवाई और कश्या तक जानना। इनमें पूर्व पद नवक लिंग में है और उत्तरपद प्रयुक्त किया गया है। भाप को १-११ में सिद्धि की गई है और १-२४ सेवन होने पर १-२६ से अंतिम स्वर की पीता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुणाई रूप सिद्ध हो जाता है। 4 ग fure: संस्कृत पद है । इसका प्राकृत रूप विवाह होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'म' का 'ह' ३-७ से तृतीया बहुपचन के प्रत्यय 'मिस' के स्थान पर 'हिं' होता है। ३१५ अन्त्य ' के 'अ' का 'ए' होकर बिरूप सिद्ध हो जाता है। में गुणाई शब्द की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर को गई है। विशेषता यह है कि '' के स्थान पर यहां पर हँ प्राय हैं जो कि सूत्र संख्या ३०२६ से समान स्थिति वाला ही है। मृग्यन्ते संस्कृत क्रिया पर है। इसका प्राकृत रूप मग्गन्ति होता है। इस सूत्र संख्या १-१२६ से ' का 'अ' २०७८ से '' का लोप २-८९ से शेष ''कर' २-१४२ से वर्तमान काल प्रथम पुरुष में 'रिस' प्रत्यय का आवेश होकर मग्गन्ति रूप सिद्ध हो जाता है । के देवाः संस्कृत शब्द हैं इसके प्राकृत रूप देवाणि और देवा होते है। इनमें १३४ से नपुंसक की प्राप्ति करके ३-२६ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में 'णि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देवानि होता है। जयदेव पुलिस में होता है तब ३-४ से 'जय' का लोप होकर एवं ३-१२ अ स्वर को दोघंता प्राप्त होकर देवा रूप सिद्ध हो जाता है। विन्द्रयः संस्कृत शव है। इसके प्राकृत रूप बिन्दु और बियुमो होते है। इसे सूत्र- १.३० नपुसकरव की प्राप्ति करके ३ २६ स प्रथमा द्वितीया के बहुवचन में अग्स्यस्वर को दीर्घता के साथ 'इं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिन्दुई रूप सिद्ध होता है। जब बिन्दु शब्द पुलिस में होता है त३-२२ मा द्वित के बहुवचन के 'दास' प्रत्ययों के स्थान पर 'जो' आवेश होकर बिन्दुणो रूप सिद्ध होत है। मंडलाग्रः संस्कृत शब्द है; 'ख' के 'बा' का 'म' २०७९ नपुसकत्व की प्राप्ति होने से ३ २५ से 'ड' का लोप २०८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग' खड्गः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूपये और लग्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२७७ स १-३४ से नपुंसकत्व की प्राप्ति करके ३-२५ १०२३ [प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खरगं रूप सिद्ध एक वचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त प्रथमा एक वचन नपुंसक लिंग में 'म्' की प्राप्ति हो जाता है जब पुल्लिंग में होता है तब २-२ से प्रथना होकर खरगो रूप सिद्ध हो जाता है। इसके प्राकृत रूप मण्डल और मण्डल का लोप २००५ स'' का प्रथमा एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ १-३४ से विकल्प रूप से १-२३ स प्राप्त Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'म्' का अनुस्वार होकर भण्डलग्गरूप सिद्ध होता है । जब पुल्लिगत्व होता है तब ३-३ से पयमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्राप्त होकर मण्डग्गी कप सिद्ध हो जाता है। कररुहः सस्कृत शन है। इसके शकृत रूप करहह और करमही होते हैं। इनमें सूत्र सल्या १-३४ से विकल्प रूप से नपुसकत्व की प्राप्ति होने से ३.२५ प्रथमा एक वचर में 'हि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' को Ria; "-३ प्राय ' का अनुस्वार होकर करसहं रूप सिद्ध हो जाता है । जब पुस्लिाव होता है; तर ३-२ से प्रयमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्राप्त होकर करतहो रूप सिद्ध हो जाता है । वृक्षाः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप क्याई और नक्षा होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१२, से पक्ष का आदेश 'रुख' हो जाता है; १.३४ से विकल्प रूप से नपुसकत्व की प्राप्ति; ३-२६ से प्रयमा द्वितीय के बहुवचन में 'जस -मास' प्रत्ययों के स्थान पर ।' का आदेश सहित अन्य स्वर को दोधता प्राप्त होकर याने '' का 'खा' होकर रुकवाई रूप सिद्ध हो जाता है। जब पुलि लगत्व होता है। सब ३-४ से प्रथमा द्वितीया के बहुवचन के प्रत्यय 'जस्-शस्' को प्राप्ति और इनका लोपः ३-१२ में अन्त्य स्वर को दीर्घजा होकर सावा रुप सिद्ध हो जाता है। वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम् ॥ ३४ ॥ इमान्ता असल्यादयश्च शब्दाः स्त्रियां वा प्रयोक्तव्याः । एस । रिमा एम गरिमा एसा महिमा एस महिमा । एसा निल्लजिनमा एम निल्लन्जिमा । एसा धुचिमा पम धुत्तिमा । अञ्जन्यादि । एसा अञ्जली एस अञ्जली । पिट्ठी पिढे । पृष्ठमित्वे कृते स्त्रियामेवेत्यन्ये ।। अच्छी अच्छि । पण्हा पण्डो । चोरिया चोरिअं । एवं कुछी । बली । निहीं । विही । रस्सी गण्ठी । इत्यञ्जन्यादयः । गहा गट्ठो इनि तु संस्कृतवदेव मिद्धम् । इमेति तन्वेग वा देशस्य डिमाइत्यस्य पृथ्वादीम्नश्चसंग्रहः । त्वादेशस्य स्त्रीत्वमेवेन्छन्त्येके ।। अर्थ:-जिन शब्दों के अंत में "इमा" है वे शम और अजली आदि शा प्राकृत में विकाय रूप से स्त्रो शिग में प्रयुक्त किये जाने चाहिये । जैसे-एसा गरिमा एस गरिमा से लगा कर एसा सिपा-एस धुत्तिया तक जानना। अंजली आदि शम भी विकरूप से स्त्री लिा में होते हैं । जैसे-एमा अमिलो एस अजली । पिट्ठी पिटु' । लेकिन कोई कोई "पृष्ठम्" के रूप पिढ' में 'इत्व ' करने पर इस शायर को स्त्रीला में ही मानते हैं । इसी प्रकार साछी से गण्ठो तक "अंजल्यावयः" के कथनानुसार विकल्प से इन वानों को स्त्रीला में जानना । गहा और गहों शगों को लिा सिद्धि संस्कृत के समान ही जान लेना । "इमा" सत्र से युक्त इमान्त शाम और "व' प्रत्यय के आवेश में प्राप्त "rमा" अन्त वाले पाग्द; यो दोनों ही प्रकार के इमान्त" श यहां पर विकल्प हा से स्त्रीला में माने गरे है। मेसे-पृथु + मा प्रथिमा मादि शब्दों को यहां पर इस सत्र को विधि अनुसार जानना । अति इई भी विकल्प से स्त्रीलिंग में जानना । किन्ही किन्हीं का मत ऐसा है कि "a" प्रत्पर के स्थान पर आवेश रूप से प्राप्त होने वाले भविमा" के इमान्त' वाले शम्ब निस्य स्त्रीलिंग में ही प्रयुक्त किये जाय ।। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] * प्राकृत व्याकरण * ++++ एसा शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई है। गरिमा-संस्कृत रूप है। इसका मूल शब्द गरिमन् है। इसमें सूत्र संख्या ११५ से "न्” का लोप होहर "आ" होता हूँ । यो गरिमा रूप सिद्ध हो जाता है । एस:- शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या- १-३२ में की गई है। महिमा:- सस्कृत रूप है। इसका मूल शब्द महिमन् है । इसमें सूत्र संख्या १-१५ से '' का लोप होकर "आ" होता है वो महिमा रूप सिद्ध हो जाता है । निर्लज्जत्वम्:- संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मिल्लज्जिमा होता है। इस सूत्र संख्या-२-७९ से "र" का लोप; २-८९ से "ल" का द्वित्व "हल''; २-१५४ से स्वम के स्थान पर 'डिमा" अर्थात् "इमा" का आदेश १-१० से 'ज' में स्थित "अ" का लोप होकर "ज" में "इमा" मित्र कर मारून सिद्ध हो जाता है। धूर्तम्: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप वृतिमा होता है । इसमें सूत्र संख्या - २०७२ से "इ" का लोप; २००७ है ""'-""क" का "हुम्ब उ"; २-६५४ से "स्वप्" के स्थान पर "हिमा" अर्थात् "इमा का आदेश १-१० से "त" में स्थित "अ" का लोप होकर ' त्" में "इमा" मिलकर धुतिमा रूप सिद्ध हो जाता है। अञ्जलिः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप ( एसा) अञ्जली और (एस) अञ्जली होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १- ३५ से अन्जली विकतर से स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों लिंगों में प्रयुक्त किये जाने का विधान हूं। अतः ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में और स्त्रीलिंग में दोनों लिंगों में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर का दीर्घ स्वर हो जाता है; यों (एला) अजली और (एस) अञ्जली सिद्ध हो जाते हैं। पुष्ठम् संस्कृत शब्द हैं। इसके प्राकृत रूप पिट्ठी और पिट्ठ होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-९२९ से २-९० से प्राप्त पूर्व' का '' १-४६ से से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' की 'इ' २०३४ से 'ष्ठ' का 'ठ' २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; '' में स्थित 'अ' की '' १-३५ से स्त्रोलिंग में होने पर और ३-१९ के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' को दोघं 'ई' होकर पिठी रूप सिद्ध हो जाता है । १-२५ से विकल्प से नपुंसक होने की दशा में ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर पिठ्ठे रूप सिद्ध हो जाता हूँ अच्छी-शब्द सूत्र संख्या १-३३ में सिद्ध किया जा चुका है। अक्षम् संस्कृत शब्व है। इसका प्राकृत रूप अच्छि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' का ''; २-८९ से द्विख 'छ्छ' की प्राप्ति; २९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का ' १-३५ से विकल्प से स्त्रीलिंग नहीं होकर नपुंसक लिंग होने पर ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३. से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अच्छे' रूप सिद्ध हो जाता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * प्रश्न:-संस्कृत शम्न है । इसके प्राकृत रूप पाहा और पाहो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २-७५ से 'इन' का 'ह' आदेश; १-३५ से स्त्रीलिंग विकल्प से होने पर प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर सिम हेम व्याकरण के २-४.१८ के सूत्रानुसार 'आ' प्रत्यय प्राप्त होकर पण्हा रूप सिद्ध हो जाता है । एवं लिंग में वैकल्पिक विधान होने से पुल्लिा में ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'मो' प्रस्पर की प्राप्ति होकर पण्हो रूप सिद्ध हो जाता है। चीर्यम्:-संस्कृत शम्न है । इसके प्राकृत रूप चोरिजा और वोरिज होते हैं । इसमें सूत्र-संख्या-1-१५९ से "ओ' का ओ'; २-१०७ से 'इ का आगम होकर 'र' में मिलने पर 'रि' हुआ । १-१५० से 'य' का लोप; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ से स्त्रीलिंग वाचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति १-११ से अन्य 'म्' का सोपा होकर चोरिआ रूप सिद्ध हो जाता है । चूसरे रूप में सूत्र १-३५ में जहाँ स्त्रीलिंग नहीं गिना बाया; अति मपुंसकलिग में ३-२५ से प्रपमा एक घघन में नपुंसक लिंग का 'म्' प्रत्यय; १-२३ से 'म'का अनुस्वार होकर चोरिअंकप सिब हो जाता है। कुक्षिः संस्कृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप कुनछी है । इसमें सूत्रसंख्या-२-१७ से '' का "छ"; २-८९ से प्राप्त 'छ' का विस्व 'छ छ'; २-९० से प्राप्त पूर्व छ' का ''१-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण ३-१९ से प्रपा एक वचन में "सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर '' होकर कुच्छी रूप सिद्ध हो जाता है। बलि:-संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप बली होता है। इसमें सब संस्था-१-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण ३-१९स प्रघमा एक पनन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'स्व स्वर' की दीर्घस्बर होकर पली प सिद्ध हो जाता है। निधिः-संस्कृत शाब है । इसका प्राकृत रूप निही होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-१८५ से ''पका 'ह'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; ३-१ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को रोष होकर निहीं रूप सिद्ध हो जाता है। विधिः-संस्कृत शम है। इसका प्राकृत रूप विही होता है। इसमें मूत्र संसपा-१-१८७ से 'क' का ही १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण ३-१९ से प्रयमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर इस '' का '' होकर विही रूप सिद्ध हो जाता है। रश्मि:-संस्कृत पाय है। इसका प्राकृत रूप रस्ती हो जाता है । इसमें भूत्र-संध्या-२-७८ से 'म का लोप; १-२६० से '' का 'स': २.८९ से 'स्' का द्विव 'रस'; ३-१९ से प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हसबकी बोध होकर रस्सी रूप सिब हो जाता है। शन्थिः संस्कृत शाम हैं। इसका प्राकृत रूप गच्छी होता है। इस सूत्र संख्या ४.१२० से प्रतिके स्थान Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] * प्राकृत व्याकरण * पर पण्ठि मावेश होता है। 1-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण, ३-११ से प्रथमा एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्ब 'इ' का वीर्घ 'ई' होकर गण्ठी रूप सिद्ध हो जाता है। गती संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप गड्डा और गडो बनते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-३५ से संयुक्त 'त' का 'ड', २.८१ से प्राप्त '' का द्वित्व 'ई'; १-३५ से स्त्रीलिंग का निर्धारण; सिद्ध हेम ज्या० के २-४-१८ से 'आ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर 'गारूप सिद्ध हो जाता है । और पुल्लिग होने पर प्रथमा एक वचन में ३-२ स,'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्राप्त होकर 'मड्डो' रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३५ ॥ बाहोरात् ॥ १-३६ ॥ बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति ॥ बाहाए जेण धरिओ एकाए । स्त्रियामित्येव । वामेअरो वाहू ॥ अर्थ:-बाल पास के स्त्रोलिंग रूप में अन्त्य 'उ' के स्थान पर 'आ' आदेश होता है। जैसे बाह का माहा यह रूप स्त्रीलिंग में ही होता है । और पुल्लिग में बाढ़ का बाह हो रहता है। बाहुना संस्कृत शब्ब हैं । इसका प्राकृत रूप बाहाए होता है। इसमें सूत्र संख्या १.३६ में स्त्रीलिग का निर्धारण और अन्त्य 'ज' के स्थान पर 'आ' का आदेश; ३.२९ से तृतीया के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर 'बाहाए'रूप सिद्ध होता है। येन संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप जेग होता है। संस्कृत मूल शब्द 'यत्' है। इसमें १.११ से 'त्' का लोप; १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६ से तृतीया एक वचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-४ से प्राप्त 'ज' में स्थित 'म' का 'ए' होकर जण रूप सिद्ध हो जाता है । धृतः संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप परिओ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३४ संकका 'अर ४-२३९ से हलन्त 'र' में 'अ' का आगम; सिद्ध हैम व्याकरण के ४-३२ से 'त' प्रत्यय के होने पर पूर्व में 'इ' का आगम; १.१० प्राप्त के पहिले रहे हुए 'या' का लोप; १-१७० से 'त्' का लोप; ३-२ सं प्रथमा के एक बच्चन में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' होकर धरित्री रूप सिद्ध हो जाता है। . एकन संस्कृत शब है । इसका प्राकृत रूप स्त्रीलिंग में एक्काए होता है । इसमें पूत्र संख्या २-१९ से 'क' का द्वित्व 'क'; सिख हेम व्याकरण के २०४-१८ से स्त्रीलिंग में अकारान्त का 'आकारान्त'; और ३-२९ से वृतीया के एक वचन में 'टा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय को प्राप्ति होकर एक्झाए रूप सिद्ध हो जाता है। पामेतरः संस्कृत शाम्ब है। इसका प्राकृत रूप वामेरो होता है । इसमें सूत्र संख्या (-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रयमा एक षचन में 'सि' प्रत्यय के मान पर 'ओ' होकर वामेअरो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * बाहुः संरकृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप बाह होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१९ से प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर विसर्ग' का लोप होकर अन्त्य हम्ब स्वर 'ज' का दीर्घ स्वर 'क' होकर वाहू रूप सिद्ध हो जाता है ।। ३६।। अतो डो विसर्गस्य ॥ १-३७ ॥ संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परम्य विमर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति । सर्वतः । सवनी ।। पुरतः । पुरओ ।। अग्रतः । अग्गयो । मार्गतः । मग्गो ॥ एवं सिद्धावस्था पेक्षया । भवतः । भवभो ।। भवन्तः । भवन्ता ॥ सन्तः । सन्ती ॥ कुतः । कुदौ ।। अर्थ:-संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्राप्त हुए 'त' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'डो' अर्थात् 'ओ' आदेश हुआ करता है। जैसे-सर्वतः में सम्यो । यो आग के शव उबाहरण मागत: में ममओ तक जान लेना। अन्य प्रत्ययों से सिद्ध होने वाले शब्दों में भी यदि 'तः शप्त हो जाय, तो उस 'त:' में स्थित विसर्ग के स्थान पर 'जो' अर्थात् 'भो आदेश हुआ करता है । जैसे-भवतः में भवो । भवन्तः में भवन्तो । यों ही सन्तो और वो भी समझ लेना । सर्वतः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सम्बओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; २.८९ से 'प' का द्वित्व'; १-१७७ से 'त्' का लोप; १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' का आदेश होकर सध्खो रूप सिद्ध हो जाता है। पुरतः संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप पुरो होता है । इसमें सूत्र संख्या -१७७ से त्' का लोप: १-३७ से निसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर पुरओ रूप सिब हो जाता है। अग्रता संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप आगओ होता है । इसमें मूत्र संख्या २.७९ से 'र' का लोप; २-८९ से 'ग' का द्विस्व 'ra'; १-१७७ से 'त' क: लोपऔर १-७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' मावेश होकर अग्गो रुप सिद्ध हो जाता है। मार्गतः संस्कृत शब का प्राकृत रूप ओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'मा' के 'आ' का ' २-७१ से 'र' का लोप, २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ग'; १-१७७ से 'त' का लोप और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आवेश होकर मग्गी रूप सिद्ध हो जाता है। भवतः संस्कृत शब्व है। इसका प्राकृत रूप भवो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.२७७ से 'त्' का लोप; १.३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' बादेश होकर अपनी रूप सिद्ध हो जाता है। सषन्तः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप भवन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आवेश होकर भवन्तो रुप सिद्ध हो जाता है। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] * प्राकृत व्याकरण * सन्तः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सन्तो होता है । इसमें सूत्र-संहया १-३७ से विसा के पान पर 'ओ' आवेश होकर सन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। फुतः संस्कृत शब्द है । इसका शोरसेनी भाषा में कटो प होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२६० से 'त' का 'व'; और १-३७ से विसर्ग के स्थान पर 'ओ' आदेश होकर छुड़ो रूप सिद्ध हो जाता है । निष्प्रती अोत्परी माल्य-स्थोत्रा ॥ १-३८ ॥ निर प्रति इत्येतो माल्य शब्द स्थाधातौ च पर यथा संख्यम् ओत् परि इत्येवं रूपों वा भवतः । अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । श्रीमालं । निम्मल्लं ।। ओमालयं वहइ । परिहा । पइट्ठा । परिद्विअं पइट्टि ।। अर्थ:...माल्य शब्द के साथ में पवि निर उपसर्ग आवे तो निर उपसर्ग के स्थान पर आवेश रूप से विकल्प से 'भो' होता है । तथा स्था धातु के साथ में यदि 'प्रति' उपसर्ग आवे तो 'प्रति' उपसर्ग के स्थान पर मावेश रूप से जिकरुप से परि' होता है। इस सूत्र में को उपसर्गों को जो बात एक ही साथ कही गई है। इसका कारण यह है कि संपूर्ण उपसर्ग के स्थान पर आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-निर्मात्पम् का औमालं ओर निभ्मल्ल । प्रतिष्ठा का परिट्टा और पइट्ठा प्रतिष्ठितम् का परिदिठा और पाठ। निर्माल्यम् संस्कृत शब है। इसके प्राकृत रूप ओमास और निम्मल्लं वोनों होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-३८ से विकल्प से निर' का 'भो'; २-७८ से 'म्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक लिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर ओमालं रूप सिम होता है। द्वितीय रूप में १.८४ से 'मा' में स्थित 'दा' का 'अ'; २-७९ से 'र' का लोप; २.८९ से 'म' का विश्व 'मम'; २-७८ से 'म्' का लोप; २-८९ से 'स' का हित्व 'लल'; ३-२५ से प्रथमा के एक सचम में नपुसकलिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति ; और १.२३ से 'म् का अनुस्वारहोकर निम्मल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। निर्माल्य कम् संस्कृत शम है । इसका प्राकृत रूप ओमालयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-३८ से (विकल्प से) 'मिर्' का 'ओ'; २-७८ से '' का लोप; १-१७७ से 'क' का लोप; १.१८० से 'क' के 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर ओमालयं कप सिद्ध हो जाता है। वहति संस्कृत धातु रूप है । इसका प्राकृत रूप बहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१३९ में वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर '' होकर बहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। प्रतिष्ठा संस्कृत शाम्य है । इसके प्राकृत रूप परिष्टुः और पइट्ठा होते हैं। इसमें सत्र संख्या १-३८ से 'प्रति' के स्थान पर विकल्प से परि' आदेश; २.७७ मे 'व' का लोप; २-८९ से '8' का द्वित्व 'छ', २-९० से Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * प्राप्त 'पूर्व छ' का 'द; सिख हेम व्याकरण के २-४-१८ से प्रथमा के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'आ' को प्राप्ति होकर परिवठा रूप सिद्ध हो जाता है। वित्तीय रूप में जहाँ 'परि' आदेश नहीं होगा, वहां पर सुत्र संख्या २.७२ से' का लोप १-१७७ से 'त्' का लोप; २-७७ में '' का लोप; २८९ से '3' का द्विस्व 'ई'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'द'; सिद्ध हेम व्याकरण के २०४-१८ स प्रथा के एक वचन में त्रीलिग में 'आ, की प्राप्ति होकर पड़ा रूप सिद्ध हो जाता है। प्रतिष्ठितम् संस्कृत रूप हं ! इसके प्राकृत रूप परिट्ठिों और पट्ठिभं होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-३८ से विकल्प से 'प्रति' के स्थान पर 'परि' आदेश; २-७७ से 'ए' का लोप: २.८९ से 8' का द्विस्व 'छ', २.९० से प्राप्त पूर्व '' का 'द'; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रपमा एक वचन में नपुंसक लिग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति; १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर 'परािष्ट्र' रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय कप में जहा परि' आदेश नहीं होगा; यहाँ पडष्टि रूप सिद्ध हो जाता है। श्रादेः॥ १-३१ ॥ श्रादेरित्यधिकार: कगचज (१-१७७) इत्यादि सूत्रात् प्रागविशेपे वेदितव्यः ।। अर्थ:-यह सूत्र आणि अक्षर के संयंत्र में यह आदेश देता है कि इस सूत्र से प्रारंभ करके आगे १.१७७ सूत्र से पूर्व में रहे हए सभी सूत्रों के सम्बन्ध में यह विधान है कि जहाँ विशेष कुछ भी नहीं कहा गया है। यहां इस शुभ से शादों में रहे हए मावि अक्षर के समान्य में कहा हुआ उल्लेख' समझ लेना । अर्थात सूत्र संख्या १-३९ से १.१७६ तक में यदि किसी शम्ब के सम्बन्ध में कोई उल्लेख हो; और उस उल्लेख में आदि मध्य अन्स्य अथवा उपान्त्य असा कोई उल्लेख न हो सो समान लेना कि यह उल्लेख आदि अक्षर के लिये है। न कि शेष अक्षरों के लिये। त्यदायव्ययात् तत्स्वरस्य लुक ।। १-४०॥ त्यदादेरव्ययाच्च परस्य तयोरेव त्यदायव्यययोरादेः स्वरस्य बहुलं लुग भवति ।। मम्हेत्थ अम्हे एत्थ । जइमा जइ इमा । जइह जइ अहं ।। अर्थ:-समान शायदों और अध्ययों के आगे पवि सर्वनाम शब्द और अव्यय आदि आ जाय; से इन सम्बों में रहे हुए पर यघि पास-पास में आ जाय तो आदि स्वर का बना करके लोप हो जाया करता है। अयम् संस्कृत शब्द है । इसका मूल 'अस्मद' में प्रवमा के बहुवचन में 'जस्' प्रत्यय सहित पत्र संख्या ५-१०६ 'अम्हे' आदेश होता है । यो अम्हे रूप सिद्ध हो जाता है। अन संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप एत्य होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.५७ से 'अ' का 'ए'; और २-२६१ से 'नके स्थान पर 'स्व' होकर एत्थ रूप सिब हो जाता है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * अम्हे + एत्य = अम्हेत्थ; यहाँ पर सूत्र संख्या १-४० से एत्य के आदि 'ए का विकल्प से लोप होकर एवं संधि होकर अम्हेत्स रूप सिद्ध हुआ । तथा जहाँ लोप नहीं होता है। वहाँ पर अम्हे एत्य होगा । यदि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप जह होता है । इसमें सत्र संख्या-१-२४५ से 'य' का 'ज'; और १-१७७ से 'द' का लोप होकर जइ रूप सिद्ध हो जाता है। इयम् संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप दमा होता है । इसमें सूत्र संख्या-३-७२ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के परे रहन पर मूल शब्द इरम् का 'इम' आदेश होता है । तत्पश्चात् सिद्ध हेम व्याकरण के ४-४-१८ से स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय लगा कर इमा' रूप सिद्ध हो जाता है । ज+इमा = जामा; यहाँ पर पत्र संख्या १-४० से 'हमा के आदि हवर 'इ' का विकल्प से लोम होकर एवं संधि होकर जइमा रूप सिद्ध हो जाता है । तया जहाँ लोप नहीं होता है। वहाँ पर जड़ जमा होगा। अहम् संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप भी अहं ही होता है। अस्मन् मूल शब्ब में सूत्र संस्था ३-१०५ से प्रथमा के एक वमन में 'सि' प्रत्यय परे रहने पर अस्मद् का अहं आवेश होता है । यो अहं रूख सिद्ध हो जाता है। जइ + अ = जाह; यहाँ पर सूत्र-संख्या १-४० से 'महम् के आविस्वर 'अ' का विकल्प से लोप होकर एवं संघि होकर जइह रूप सिद्ध हो जाता है । तथा जहाँ लोप नहीं होता है, वहां पर जड़ अहं होगा ।। ४० ।। पदादपेर्वा ॥१-४१॥ पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे लुग वा भवति ॥ तं पि तमचि । किं पि किमवि । केण वि । केणावि । कहं पि कहमवि ।। अर्थ:-पद के आगे रहने वाले अपि अध्यय के आदि स्वर 'अ' का विकल्प से लोप हुआ करता है । जैसेतं पि तमवि । इत्यादि रूप से शेष सदाहरणों में भी समान लेना । इन उदाहरणों में एक स्थान पर तो लोप हुआ है। और दूसरे स्थान पर लोप नहीं हुआ है । लोप नहीं होने की दशा में संधि-योग्य स्थानों पर संधि भी हो मामा करती है। '' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है। अपि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप यहाँ पर 'पि' है। इसमें मूत्र संख्या १-४१ से 'अ' का लोप होकर 'पि रूप सिद्ध हो जाता है । अयि संस्कृत अध्यय हैं। इसका प्राकृत रूप अपि है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प'का 'होकर अधि स्प सिब हो जाता है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [६६ 'कि' शब्द को सिद्धि १.६९ में की गई है। केन संस्कृत सर्वनाम है। इसका प्राकृत रूप केण होता है। इसमें मूत्र-संख्स ३.७१से 'किम' का 'क'; 1-६ से तुलीया एक वचन में 'दा' प्रत्यय के स्थान पर 'ण'; ३-१४ से 'क' के 'अ' का 'ए'; होकर 'ण' रूप सिद्ध हो जाता है। इसी के साथ प 'अपि' अपय है; अतः ण' में स्थित 'अ' और 'अपि' का 'अ' बोनों की सधि १५ से होकर केणावि रूप सिद्ध हो जाता है। कथमपि संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप कहमचि होता है। इसको सिदि १.२१ में करको इतेः स्वरात् तश्च द्विः ॥ १-४२ ॥ पदात परस्य इतरादे लुग भवति स्वरात परश्च तकारी द्विभवति ।। कि ति । जति । दिट्ठति । न जुत्तं ति ॥ स्वरात् । तह त्ति । म ति । पिलो ति । पुरिसो ति ॥ पदादित्येव । इस विझ-गुहा-निलयाए । अर्थ:-यदि 'इति' अव्यय किसी पद के मार्ग हो तो इस 'इति' को आदि 'इ' का लोप हो जाया करता है। और यदि '' लोप हो जाने के बाद शेष रहे हए 'ति' के पूर्व-पर के अंत में स्वर रहा हुआ हो तो इस पति के 'त' का द्वित्व 'त' हो जाता है । जैसे-"किम् इति' का कि ति'; 'यत इति' का जति'; 'दृष्टम् इति' का 'विट्ठति' और 'न सक्तम् इति' का 'न जसं ति । इन उदाहरणों में 'इति' अश्यप पदों के आगे रहा हा हं; अतः इनमें 'इ' का लोप रेखा जा रहा है। वर-संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:-'तथा इति' का तह ति'; 'ज्ञा इति' का जत्ति'; 'प्रियः इति' का 'पिओ ति'; 'पुरुषः इति' का 'पुरिलो त्ति' इन उदाहरणों में 'इति' के शेष रूप 'ति' के पूर्व पदों के अंत में स्वर है। अत: ति' के 'त्' का द्विस्व 'त' हो गया है । 'पवात' ऐसे शन का उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि यदि 'इति' अव्यय किसी पर के आगे न रह कर बाक्य के आवि में ही आ जाय तो 'इ' का लोर नहीं होता असा कि हम विन-गुहा-निलयाए' में देखा जामकता है। 'क' शम्म की सिद्धि-१-२९ में को गई है। (किम् इति संस्कृत अध्यय है। इनका प्राकृत रूप कि ति' होता है। सूत्रसंख्या १-४२ से 'हमि' के 'इ' का लोप होकर 'ति' रूप हो जाता है । 'यद इति संरकृत अव्यय है। इनका प्राकृत 'जति होता है । 'ज' को सिद्धि-१-३४ में कर दी गई है । और इति' के 'ति' को सिद्धि भी इसी सत्र में कार दी गई है। दृध्द इति संस्कृत शब्द है । इनका प्राकृत रूप बिट्ट ति होता है । इनमें सूत्र-संस्पा १-१२८ से 'ऋ' का '; २-३४० से 'ट' का 'ठ'; २-८. से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'क'; २-९० से प्राप्त पूर्व '8' का 'ट; ३-५ से हितोया के एक वचन में 'अम्' प्रत्यय के 'अ' का लोप १-२३ 'म्' का अनुस्वार होकर दिलं रूप सिद्ध हो जाता है । मौर १-४२ से 'इति' के ''का लोप होकर विदठति सिद्ध हो जाता है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] * प्राकृत व्याकरण * ('न) युक्तम् (इति', संस्कृत शमहं । इनका प्राकृत रूप 'न जुत्तं ति' है । इनमें से 'न' की सिद्धि १-६ में की गई है । और "ति' को सिद्धि भी इसी सूत्र में की गई है । जत की सानिका इस प्रकार है। इसमें सूत्रसंख्या १-२४५ से 'य' का 'ज',२-७७ से 'क' का लोप २-८९ से शेष 'ल' का द्वित्व 'त'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति, १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर जुत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। तथा इति संस्कृत अव्यय है। इनके प्राकृत रूप तह त्ति होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १४२ से प्रति के 'कालोप; और 'त्ति' के 'त'का द्विस्व 'त'; १-८४ से 'हा के 'आ' का 'अ' होकर सह ति रूप सिद्ध हो जाता है। झग इति संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप अत्ति होते हैं। इनमें धूम संख्या १-११ से 'ग' का लोय; १-४२ से पति के 'इ' का लोप; तथा 'ति' के 'त' का द्वित्व 'त' होकर झाति रूप बन जाता है। प्रियः (इंति) संस्कृत शब्द हैं । इनके प्राकृत कर पिओ ति' होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-५९ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'य' का लोष; ३-२ मे प्रथमा एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पिओ रूप सिद्ध हो जाता है। 'ति'शी सिद्धि इसी सत्र में की गई है। मुरुषः इति संस्कृत शम्ब है । इनके प्राकृत रूप पुरिसो ति होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.-१११ से '' है '' को 'इ', १-२६० से 'a' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर पुरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। 'त्ति' की सिद्धि इसी सूत्र में की गई है। इति संस्कृत अध्यय है । इसका प्राकृत रूप है। इसमें सूत्र संघा-१-९१ से 'ति' में रही हुई 'इ' का 'अ' १-१७७ से 'त्' का लोप होकर 'इ' कप सिद्ध हो जाता है। विध्य संस्कृत शम्न है। इसका प्राकृत रूप विश्न होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२६ से 'य' का 'म'; १-३० से अनुस्वार का 'अ' होकर विकस रूप सिब हो जाता है। महा शब्द का रुप संस्कृत और प्राकृत में 'गुहा होता है । निलयायाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निलयाए होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२९ से इस याने षष्ठी एक वचन के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर निलयाए रूप सिद्ध हो जाता है ।। ४२ ॥ लुप्त-य-र-व-श-ष-सां श-ष-सां दीर्घः ॥ १-४३॥ प्राकृतलक्षणशालुप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकारपकारसकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति ।" शस्थ य लोपे। पश्यति । पासइ । कश्यपः । कासयो । आवश्यकं । आवासयं ।। रलोपे । विश्राम्यति । वीसमइ । विश्रामः । वीसामी ॥ मिश्रम् । भीर्य ॥ संस्पर्शः। संकासो ।। वलोपे । अश्वः । श्रासो। विश्वसिति । वीससइ ॥ विश्वासः । वीसासौ ॥ शलोपे । । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित k दुश्शासनः । दूसासणी ॥ मनः शिला । मणासिला । पस्य यलोपे । शिष्यः । सीसो ।। पुष्यः । पूसो । मनुष्यः । मणमो ।। रलोये। कषकः । कासनी ।। वर्षाः । वासा ॥ वर्षः वासो॥ बलोये । विष्वाणः। बीसागो । विष्षक । वी।। पलोपे । निष्पिक्तः । नीसित्तो ॥ सस्य यलोपे । सस्यम् । सासं ॥ कस्यचित् कासइ रलोये। उसः । ऊसो ॥ विश्रम्मः । वीसम्भो ।। वलोपे । विकस्वरः। विकासरो। निःस्वः नीसो ॥ सलोपे। निस्सहः । नीसहो ।। नदीर्घानुस्वरात् (२-१२) इति प्रतिपेवात् सर्वत्र अनादौ शेषादेरायोद्वित्वम् ( २-८६ ) इति द्वित्वाभावः ।। ___अर्थ:-प्राकृत-व्याकरण के कारण से शफार, पकार, और सकार से संबंधित य, र, व, श, ष, स. का पूर्व में अथवा पश्चात् में लोप होन पर कार, षकार और सकार के आदि स्वर का दीर्घ स्वर हो जाता है। जैसे-शकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण - इसमें 'र' के पूर्व में रहे हर स्वर का दोघं होता है। जैसे--पश्यति = पास। कश्यपः = काप्यो । आवश्यक = मायालयं । यहाँ पर 'य' का लोप होकर '' के पूर्व स्वर का रोर्च हुआ हूं। शकार के साथ में रहे उएर केलोप के जवाहरण । जैसे-बिधाम्यति =बीसमा॥ विधामः -पोसामो।। मियम :- मोस || संस्पर्शः = संफालो ।। इनमें ' के पूर्व में रहे हए स्वर का रीर्घ हुआ है। प्रकार के साथ में रहे हुए 'व' के लोप के उदाहरण । जैसे अश्य आसो । विश्वप्तिति = दोससह ।। विश्वास:- वोसासो || इनमें 'श्' के पूर्व में रहे एए स्वर का रीर्घ हुका है। शकार के साथ में रहे हुए 'श' के लोप के बाहरण । जैसे-दुश्शासमः = दूसासको । मनः शिलाभणासिला । इनमें भी '' के पूर्व में रहे हए स्वर का वीर्ष मा है। बकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण । जैसे-शिष्यः = सीसो | पुष्यः= पूसो ! मनुष्यः = मा सौ ॥ इनमें ' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है। 'पकार' के साथ में रहे हए 'र' के लोप के उदाहरण जैसे-कर्षक:कालो . वर्षाः = वासा ।। वर्षः = वासो । यहाँ पर 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दीर्घ हुआ है। 'पकार' के साथ में रहे हए 'ब' के लोप के उदाहरण । सेविकामः = बीसायो । विश्वक = बोसु । इनमें 'ष' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दोघं हुई है। 'पकार' के साथ में रहे हुए 'ष' के लोप के उगाहरण । जैसे-निस्यिक्तः = नीसित्तो । यहाँ पर 'द' के पूर्व में रहे हुए स्वर का वीर्य हुमा है। सकार के साथ में रहे हुए 'य' के लोप के उदाहरण । जैसे -सस्यम् = सास | कस्यचित - कसा । यहाँ पर 'स' के पूर्व में रहे हुए स्वर का दौर्घ हुआ है। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] * प्राकृत व्याकरण * सकार के साय में रहे हुए 'र' के लोप के उदाहरण । जैसे-उRः = ऊतो । विस्रम्भः-वीसम्मो ॥ यही र 'स' के पूर्व में रहे साए मार का दोहा है! सकार के साथ में रहे हुए 'व' के लोप के उदाहरण । जैसे-विकस्वर; - विकास रो। नि: यः = नोसो । यहाँ पर 'स' के पूर्व में रहे हए स्वर का दीर्घ हुआ है। सकार के साथ में रहे हए 'स' के लोप के उदाहरण । जैसे -निस्सह =नोसहो यहां पर 'स' के पूर्व में रहे हए स्वर का वीर्घ हुआ है। यहाँ पर वर्ण के लोए होने पर इसी व्याकरण के पार द्वितीय के सूत्र संख्या ८९ के अनुसार शेष वर्ण को विस्य वर्ण की प्राप्ति होनी चाहिये यो; किन्तु इसी याकरण के पान द्वितीय के सूत्र-संख्या ९२ के अरसार द्वित्वप्राप्ति का निषेध कर दिया गया है। अतः वित्त का अभाव जानना। पश्याति संस्कृत क्रिया पर है। इसका प्राकृत रूप पास होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से य का लोग १-४३ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-२६० से '' का 'स'; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल के एक घर में "ति' के स्थान पर 'इ' होकर पासइ रूप सिद्ध हो जाता है। कश्यपः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कासबो होता है। इसमें सूब-संख्या-२-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से श' का 'स'; १.४३ सेक'के 'अ'का 'आ'; १-२३१ से 'व' का 'ब'; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में "विसर्ग' अथवा 'सि' के स्थान पर 'ओ' होकर कासको रूप सिद्ध हो जाता है । आषश्यकम् संस्कृत शम्य है। इसका प्राकृत रूप आवासयं होता है। इसमें प्रत्र-संख्या-२.७८ से 'य' का लोप; १.२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से व' के 'अ' का 'आ'; १-७७ से 'क' का लोप; १-१८० से 'क' के शेष 'अ' का ''; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर आषासयं रूप सिद्ध हो जाता है। विश्राम्यति संस्कृत क्रियापद है । इसका प्राकृत रूप वोसमा होता है। हमारे सत्र -संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; १-२६० से 'या' का 'स'; १.४३ से वि' को 'इ' को दोर्ष '; १-८४ से 'सा' के 'आ'; का 'अ' २-७८ से' ' का लोप; ३-१३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल के एक वचन में 'ति' के स्थान पर 'ह' होकर पीसमड़ रूप सिद्ध हो जाता है। विश्वामः संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप वीसामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ सं 'र' का लोपः १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से 'वि' को 'इ' को दीर्घ 'ई'; ३.२ से प्रयमा के एक वचन में 'सि' अथवा विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर विसामो रूप सिद्ध हो जाता है। मिश्रम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मोसं होता है । इसमें सत्र-संख्या २.७९ से '' का लोप; १-४३ से की दीर्घ ''; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रषमा के एक बयान में नपुंसक लिंग में 'स' के स्थान पर 'म्'; १-२३ से 'म् का अनुस्वार होकर मास कप सिद्ध हो जाता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * परित संस्पर्शः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप संफासो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-५३ से 'स्प' का 'क'; २-७९ से 'र' का लोप; १-४३ से 'फ' के 'अ' का 'या'; १.२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा के एक पचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर 'संफासी रूप सिख हो जाता है। अश्वः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप आसो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१७. से'' का लोप १-४३ से अवि 'अ' का 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२ से प्रथमा पुल्लिग एक वचन में 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर 'भासो रूप सिद्ध हो जाता है। विश्वसिति संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप वोतसइ होता है। इसमें सत्र संख्या १.१७७ से '' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १०४३ से 'वि' के 'इ' को बोर्ड 'ई'; ४-२३९ से 'सि' के '' का '; ३.३३९ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एक वन में 'ति' के स्थान पर '' होकर पीससड़ रूप सिख हो जाता है। विश्वासः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत प बोसासो होता है । इसमें सूत्र-संस्था १-१७७ से 'व' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से '' को दोध 'ई; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होगा सासोए सहा जाता है। दुशासनः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृप्त रूप दूसासणो होता है । इसमें सूत्र-संल्या २-७७ से 'श्' का लोप; १-४३ से '3' का वीर्ष १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'म' का 'ण'; ३-२ से प्रपमा पुल्लिग एक बचम में 'ति' अथवा विसर्ग के स्थान पर 'ओ' होकर दूसासको रूप सिद्ध हो जाता है। मणासिला की सिद्धि सूत्र संख्या १.२६ में की गई है। शिव्या संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप सीसा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७८ से '' का लोप; १-२६० से 'श' और 'ब' का 'स'; १-४३ से '' की वीर्घ 'ई'; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर सोशो रूप सिद्ध हो जाता है। पुष्यः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तसो होता है । इसम सूत्र-संख्या २-७८ से '' का लोप; १.२६० से 'क' का 'स'; १-४३ से'' का वो 'क'; ३-२ से प्रथमा के एक वचम में पुल्लिा में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ होकर पूसो रूप सिद्ध हो जाता है। मनुष्यः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मणूसो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'म्' का लोप; १-२६० से 'ब'कास'; १४३ से 'उ' का दीर्घ 'क'; १-२२८ में '' का 'ण' और ३-२ से प्रषमा के एकवचन में पुल्लिा में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर मणूमो रूप सिद्ध हो जाता है। फर्यकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कासओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'का लोप; १-४३ से आदि 'क' के 'अ' का 'मा'; १-२६० से कास'; १-१७७ से 'क' का सोप; ३-२ से प्रथमा के एक बयान में पुस्लिग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ होकर कासओ कप सिद्ध हो जाता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] वर्षा संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप वाला होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ लो १-४३ से 'व' के 'अ'का 'ना' १-२६० से '' का 'स' ३-४ से प्रथम बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय को प्राप्ति तथा सोप और ३-१२ से 'स' के 'अ' का 'आ' होकर वासा रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण वर्षः संस्कृत शब्द हूं। इसका प्राकृत रूप दास होता है। इस सूत्र संख्या २-७९ से 'कृ' का लोप १-४२ से 'व' के 'अ' का 'जा' १-२६० से 'व' का 'ख' और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में 'सि' या 'मिस' के स्थान पर 'ओ' होकर 'वास' रूप सिद्ध होता है । विष्वाणः संस्कृत शब्व है। इसका प्राकृत रूप बोसागी होता है। इसमें सूत्र संख्या सोप १-४३ से 'बि' के 'इ' की दीर्घ 'ई' १-२६० से ''का 'स' ३-२ से प्रथम के एक 'सि' अथवा विसर्ग के स्थान 'ओ' होकर वीसाणो रूप सिद्ध हो जाता 1 'दीसु' शभ्य की सिद्धि १-२४ में की गई है । निष्क्तिः संस्कृत सभ्य है। इसका प्राकृत रूप नोसिस होता है। इसमें मूत्र-संख्या खोप १-४३ से 'नि' के '' की दोघं 'ई' १-२६० से 'च' का 'स' २०७७ से 'क' का लोप पुल्लिंग के एक वचन में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' होकर नीतितो रूप सिद्ध हो जाता है । १-१७७ से '' का वचन में पुल्लिंग में कस्यचित् संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप कास लोड १-४३ से '' के 'ज' का 'आ' १-१७७ से '' का लोप सिद्ध हो जाता है। २०७७ से 'व्' का ३-२ से प्रथमा में सस्यम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से '' का लोप १-४३ से व्यादि 'स' के 'अ' का 'आ' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक स्प्रिंग में 'सि' के स्थान पर 'म्' और १-२३ से '' का अनुस्वार होकर 'सास' कप सिद्ध हो जाता है। होता है इस सूत्र संख्या २०८ से'' का १-११ से 'तु' का कोप होकर 'कास' रूप उम्र: संस्कृत शव है। इसका परकृत रूप ऊस होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'दृ' का लोप; १-४३ से ह्रस्व 'ड' का बीघं 'क' १-२ से प्रथमा एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा बिसगं के स्थान पर 'हो' होकर उसी रूप सिद्ध हो जाता है। विश्रम्भः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप बीसम्भो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ से का लोप; १-४३ से 'जि' के स्व 'ड' की बीर्थ 'ई' १-२६० से '' का 'स' ३-२ से अमा के एक वचन में पुल्लिंग में सि' अथवा 'विस' के स्थान पर 'भो' होकर पीसम्भो रूप सिद्ध हो जाता है। विकस्वर: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विकास होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय ''का १४३ से 'क' के 'ज' का 'अ' ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुदि में 'सि' भगवा '' के स्वाम पर 'ओ' होकर विकासरी कप सिद्ध हो जाता है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [७५ नि:स्पः संस्कृत शब्न है। इसका प्राकृत रुप कोसो होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७७ से "निः' में रहे हए विसर्ग अर्थात 'स' का लोप; १-४३ से 'नि' के हस्व 'ई' को दीर्घ ; १-१७७ से 'ब' का लोपः ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'ओं की प्राप्ति होकर नीसो रूप सिद्ध हो जाता है। निस्सहः संस्कृत शम्म है । इसका प्राकृत रूप नीसहो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से आरि 'स' का लोग; १.४३ से नि' में रही हुई हस्व को दी "; ३-२ सप्रथमा के एकवचन में पुस्लिप में 'सि' अथवा 'विस' के स्थान पर 'भो' होकर नीसही रूप सिद्ध हो जाता है। अतः समृद्ध्यादौ वा ॥ १-४४ ॥ समृद्धि इत्येवमादिपु शब्देषु श्रादेरकारस्य दीर्घो वा भवनि । सामिद्धी समिद्धी । पासिद्धी पसिद्धी । पायर्ड पयर्ड । पाडिया पडिवमा | पासुत्तो पमुत्तो । पाडिसिद्धी पडिसिद्धी । सारिच्छो सरिच्छो । माणसी मणंसी | माणसिणी भणसिणी । आहिसआई अहिश्राई । पारोहो परोहो । पायासू पवार । पाडिप्फद्वी पडिफद्धी ॥ समृद्धि । प्रसिद्धि । प्रकट । प्रतिपन । प्रसुत । प्रतिसिद्धि । सहक्ष | मनस्विन् । मनस्विनी । अभियाति । प्ररोह । प्रवासिन् । प्रतिस्पर्द्धिन् ॥ आकृतिगणोयम् । तेन ! अस्पर्शः । श्राफंसो ॥ परकीयम् । पारकरं । पारक्कं ।। प्रवचनं । पावयणं ।। चतुरन्तम् । चाउरन्तं इत्यापि भवति ।। अर्थः-समृद्धि आदि इन शब्दझे में आदि में रहे हुए 'अ' का विकल्प से दरोर्घ अर्थात् 'श' होता है जैसे-समृद्धि - सामिडी और समिद्धो । प्रसिद्धि - पासिद्धि और पसिढी । प्रकट = पापा और पया । पतिपत: पारिवा और पिया ।यों आगे भी दोष शब्दों में समझ सेना चाहिये। त्ति में 'माकृति गगोऽयम्' कह कर यह तात्पर्य समझाया है कि जिस प्रकार में बाहरण पिये पये है। बस ही अन्य शारों में भी मावि 'अ' का शीर्ष 'मा' आवश्यकतानुसार समझ लेना । जैसे कि-अस्पर्श - अाफसो. परकीयम् पारकर और धारक || प्रवचनम् = पावपणं ॥ चतुरन्तम् पाउरन्तं स्यादि रूप से 'ब' का 'मा' जाम सेना। समृद्धिः संस्कृत शम्य है । इसके प्राकृत रुप सामिडो और समिद्धी होते है। इनमें सूत्र संस्था (-२२८ 'कृ' को '; १-४ से विकल्प से कादि ''का 'मा', ३-१९ से प्रपमा के एक वचन में स्त्रीलिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व '' दीर्घ होकर सामिली और समिदी रूप सिड हो जाते है। प्रसिद्धिः संस्कृत शम्न है। इसके प्राकृत रूप पासिखी मोर पतिकी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २.७९ से '' का लोप; १.४४ से आदि 'अ का 'या' विकल्प से होता है । ३-१९ से प्रथमा के एक पचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्परन पर 'हरब-इ' दीर्घ ' होकर पासिही और पसिद्धी कप सिद्ध हो जाते हैं। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] * प्राकृत व्याकरण * प्रकटन संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पायडं और पयडं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २७१ से 'र्' का लोपः १-४४ से आदि 'अ' का 'मा' विकल्प से होता है । १-१७७ से 'कृ' का लोग १ - १८० से शेष 'अ' का 'य' १०९९५ से 'ट' का '' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रस्थम के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पायर्ड पथडं रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रतिपदा संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पाडियआ और पडिव होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २७९ से 'र्' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का 'आ' विकल्प से होता है: १- २०६ से '' का '१-२३१ से ''का 'व' १-१५ से अत्स्य व्यञ्जन अर्थात् '' के स्थान पर 'अ' होकर पाfree और पडिव रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रसुप्तः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पासो पत्तो होते हैं। हमें सूत्र संख्या २७९ से '९' का लोप: १-४४ से आवि 'अ' का विकल्प से 'आ'; २-७७ से द्वितीय 'प्' का लोप २-८९ शेष 'त' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' अथवा 'विसर्ग' के स्थान पर पासुत्तों और पशु रूप सिद्ध हो जाते हैं । 'नो' होकर प्रतिसिद्धिः संस्कृत शब्द है इसके प्राकृत रूप पासिद्धी और परिसिद्धी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'ए' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ'; १-२०६ से त' का 'ड' ३-१९ से प्रथमा के एकवचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व '' की दीर्घ होकर पाडिसिद्धी और पडिसिटी रूप सिद्ध हो जाते हैं। सहक्षः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप सारियो और सरिच्छो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४२ से 'ट' का 'रि' १-४४ से आदि-'म' का विकल्प से 'आ' २-३ से' 'क्ष' का 'छ' २-८९ से प्राप्त 'छ' का द्विव 'छ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'छ' का '' और ३-२ से प्रथमा पुल्लिंग एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'शो' होकर सारिच्छों और सरिच्छो रूप सिद्ध हो जाते हैं । मर्णसी की सिद्धि १ - २६ में की गई है। मासी की सिद्धि-१-४४ से जावि 'अ' का वीर्य 'आ' होकर होती है। शेष सिद्ध मणंसी के समान जाना! मणसिप्पी की सिद्धि- १ - २६ में की गई है। प्राणंसिणी में १-४४ ले आदि 'अ' का दीर्घ 'आ' होकर यह रूप सिद्ध हो जाता है। अभियाती संस्कृति शय है । इसके प्राकृत रूप आहिआई और अहिमाई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ई' १-४४ से आणि 'अ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से 'य्' का और 'त्' का लोप तथा ३-१८२ से बात श्री प्राप्त होक आहिआई और अहिआई रूप सिद्ध हो जाते है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ७७ परीहः - संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पारोहो और परोहो होते हैं । इनमें सूत्र संस्था- २ - ७९ से 'र्' का लोप ९-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ' ३-२ से प्रथमा में पुल्लिंग के एक वचन के 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर यारोहों और परोहों रूप सिद्ध हो जाते है। प्रवासी संस्कृत शब्द है । इसका मूल प्रवासिन् है । इसके प्राकृत रूप पावासू और पवासू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - २ - ७९ से 'र' का लीप; १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से 'आ' १-१५ से ६' का 'उ' १-११ से अन्य व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-१९ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का वो स्वर 'ॐ' होकर पावासू और पवासू रूप सिद्ध हो जाते हैं । प्रतिस्पर्धी संस्कृत शब्द है । इसका मूल रूप प्रतिस्पद्धित् है । इसके प्राकृत रूपी पडी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या-२-७९ से दोनों '' का लोपः १-४४ से आदि 'अ' का विकल्प से दीर्घ आ; १- २०६ से 'स' का 'ड', २-५३ से 'स्प' का 'क' २८९ से प्राप्त 'क' का द्वित्व 'फफ' २-९० से प्राप्त पूर्व 'फू' का ''; पाडि फर्सी और १-११ सेन 'म्' का लोप और ३-१९ से अन्त्य 'इ' की बोर्घ 'ई' होकर डिप्फी रूप सिद्ध हो जाते हैं । अस्पर्शः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप आफंसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ की वृत्ति से आणि 'अ' का 'आ'; ४-१८२ से स्पर्श के स्थान पर 'फेस' का आवेश; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आफंसो रूप सिद्ध हो जाता है । परकीय संस्कृत शब्द हूं। इसके प्राकृत रूप पारकेएं और पारवर्क होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४४ की वृत्ति से 'आदि-अ' का 'आ' २०१४८ से कीयम् के स्थान पर केर और एक की प्राप्ति; ३ २५ से नपुंसकलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पारकरें और पारक्कं रूप सिद्ध हो जाते हैं प्रवचनम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पावणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २७९ से 'र्' का लोप १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से '' कालाप: १-१८० से शेव 'अ' का 'य' १-२२८ से 'न' का 'ण' ३ २५ से नपुंसक लिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर पावयणं रूप सिद्ध हो जाता है। चतुरन्तम्, संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप चाउरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४४ से आदि 'अ' का 'आ'; १-१७७ से 'तू' का लोप ३ २५ से नपुंसक लिंग में प्रथम के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर वाउरन्तं रूप सिद्ध हो जाता है ॥ ४४ ॥ दक्षिणे हे ॥ १-४५ ॥ दक्षिण शब्दे आदेरतो हे परे दीर्घो भवति । दाहिणो || ६ इति किम् । दक्खियो !! Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-शिम शग्व में यषि नियमानुसार 'क्ष' का है हो जाप तो ऐसा 'ह' आगे रहने पर 'द' में रहे हुए 'अ' का 'मा' होता है। जैसे कि-वक्षिणः = दाहियो ।'' ऐसा क्यों कहा? क्योंकि यदि 'ह' नहीं होगा तो 'ब' के 'अ'का 'आ' महीं होगा। जैसे कि-रक्षिण: रक्षिणो॥ दक्षिणः संस्कृत कम है। इसके का और दबिगो जैगों होते हैं। इनम सूत्र संख्या २-७२ से विकल्प से 'भ' का 'ह! १-४५ से आदि 'अ' का 'या'; ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दाहिणो रूप सिस हो जाता है। द्वितीय रूप में प्रत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; २-८९ से प्राप्त 'ख' का द्वित्व 'ख'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'क'; ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर दक्षिणो रूप सिद्ध हो जाता है ।। ४५ ॥ इः स्वप्नादौ ॥ १-४६ ॥ स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति ॥ सिविणो । सिमिणो ॥ आर्षे उकारोपि । सुमिणो । ईसि । वेडिसी। विलियं । विअणं । मुइङ्गो। किविणी। उत्तिमो । मिरिक्षं। दिएणं । बहुलाधिकारापणत्वाभावे न भवति । दचं । देवदत्तो॥ स्वप्न । ईषत् । वेतस | व्यलीक । व्यजन । मृदङ्ग । कृपण । उत्तम । मरिच । दत्त इत्यादि ।। अर्थ:-स्वप्न आदि इन शब्दों में आदि 'अ' को 'इ' होती है। जैसे-स्वप्नः - सिविणो और सिभिषो । आर्षरूप में 'उ' भी होता है-जैसे-सुमिणी ।। ईषः = ईसि | वेतसः- येडिसो । व्यालीकम् = विलिऊँ । व्यजनम् = विअणं | मृदङ्ग = मुइंगो । कृपणः किषिणो ॥ उत्तमः = उत्तिमो मरिचम् = मिरि ॥ वत्तम् - वि || 'बहुलम्' के अधिकार से जब वत्तम् में 'प' नहीं होता है। अर्यात दिण्णं रूप नहीं होता है; तब बत्तम् में आदि 'अ' को 'इ' भी नहीं होती है । जैस-दसम् = इत्तं ।। देवदत्तः = देवदत्तो ।। इत्यादि । स्वप्नः संस्कृत शम्व है। इसके प्राकृत रूप सिविणो; सिमिणो; और आप में सुमिणो होते है। इनमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' के 'अ' को 'इ'; १-१७७ से ' का लोप; २-१०८ से 'न' से पूर्व 'प' में की प्राप्ति; १.२३१ से '' का 'द'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२ से प्रथमा के एक पचन में पुल्लिग में 'सि' के स्थान पर 'नो' होकर 'सिविणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सिमिणो में सूत्र संख्या १-२५९ से '' के स्थान पर 'म' होता है; तव सिमिणो रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप में पत्र संख्या १-४६ को पत्ति के अनुसार 'आप' में आदि 'अ' का 'उ' भी हो जाता है । यों सुमिणो रूप सिद्ध हो जाता है। शेष सिद्धि ऊपर के समान प्रानना। ईषत् संस्कृत अम्पय है । इसका प्राकृत रूप ईसि होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२६० से 'ष' का 'स'१-४६ से 'स' के 'अकी '१-११ से अन्त्य म्यञ्जन 'त'का लोप होकर 'ईसि रूप सिद्ध हो जाता है। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 4+ [ ७६ ग् चेतसः संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप बेडियो होता है। इसम सूत्र संस्था-१-४६ से '' के 'अ' को 'इ' १२०७ से 'ल' का '' २-२ से प्रथम के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'वेडिसी' रूप सिद्ध हो जाता है। सतिकडून व्यलीकम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप विली होता है। इसमें सूत्र संख्या-२-७८ से '५' का लोपः १-४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की ' १८४ से 'ली' के दो 'क' १-१७७ से 'कू' का लोप १-२५ से प्रवर के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्तिः १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर बिलिअं रूप सिद्ध हो जाता है। इसका प्राकृत रूप मुद्दइयो १-१७७ से '' का लोप होकर सिद्ध हो जाता है। * व्यजनम संस्कृत शब्द है। इस प्राकृत रूप विभ होता है इसमें सूत्र संख्या २७८ से 'म्' कालोप १-४६ से प्राप्त 'व' के 'अ' की 'इ' १-१७७ से 'म' का लोपः १-२२८ से 'न' का 'ण' ३२५ से प्रथमा में एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'न' का अनुस्वार होकर 'f' रूप सिद्ध हो जाता है। मुजः संस्कृत शब्द है। ''१-४६ से 'व' के 'अ' की 'इ' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर होता है। इसमें सूत्र संख्या ११३७ से ''का ३-२ से प्रथम के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' -१-१२८' को '' १४६ कृपण: संस्कृत शब्द है इसका रूप थियो होता है। इसमें सूत्र से 'प' के 'अ' की 'ह' १-२३१ से 'ए' का 'व' ३-२ से प्रथम के एक वचन में पुल्लिन में 'सि' प्रत्ययन के स्थान पर 'भी' होकर किविणो रूप सिद्ध हो जाता है । उत्तमः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप उतिमी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'त' के 'अ' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर उत्तिम रूप सिद्ध हो जाता है। मरिच संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मिरिअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १२४६ से 'म' के 'अ' की 'इ' १-१७७ से '' का लोप; ५-२५ से नपुंसक लिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रश्थय के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मिरिअं रूप सिद्ध हो जाता है। दत्तम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विष्णं बनता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ 'व' के 'ब' की 'इ' २-४३ 'स' के स्थान पर 'ण' का आदेश २-८९ से प्राप्त 'प' का हित्य 'म' ३२५ से नपुंसक लिंग में प्रथम के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर दिये रूप सिद्ध हो जाता है । देवदन्तः संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप घेववतो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से पुल्लिंग में प्रथमा के एकवचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर देवदत्त रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-४६ ।। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * पक्वाङ्गार-ललाटे वा ।। १-४७॥ एष्वादेरत इत्वं वा भवति ॥ पिक्क पक्कं । इङ्गालो अङ्गारो । णिडालं णडालं ॥ . अर्थ:-इन शब्दों में पक्य-अङ्गार- और ललाट में आदि में रहे हए 'अ' की 'इ' विकल्प से होती है । [सं-पक्कम = पिक्क और पपकं । अङ्गार:= हङ्गालो और अङ्गारो | ललाटम् - पिडालं और णडालं ।। ऐसा जानना । पक्वम् संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पिक और पर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.४७ से आदि 'अ' को विकल्प से '; १-१७७ से 'व' का लोप; २-८९ सेशेव 'क' का बित्व 'क'; ३-२५ से नपुंसक लिंग में प्रथमा के एक पचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर कम से पिक्कं और यक्कं रूप सिद्ध हो जाते हैं। अङ्गारः संस्कृत शब्द हैं। इसके प्राकृत रूप ङ्गालो और अचारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४७ से आदि 'अ' को विकल्प सइ १-२५४ से 'र' का 'ल' विकल्प से, और ३.२ से पुल्लिग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मो' होकर कम से उकालो और अङ्गारो कृप सिद्ध हो जाते है। ललाटम् संस्कृत शम्य है । इसके प्राकृत रूप णिलाल और गडालं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२५७ मे श्रादिल' का '; १-७ से प्राप्त 'ण' के 'अ' को विकल्प से ''; ११९५ से 'ट' का ''; २-२३ से द्वितीय 'ल' और प्राप्त 'ल' का स्पस्यय ( आगे का पीछे और पीछे का आगे );-३-२५ से नपुसक लिंग में प्रथमा के एक वनन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ऋम से पिंडाले और णडाल रुप सिद्ध हो जाते हैं ॥-४७ ।। मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ॥ १-४८ ॥ मध्यम शब्द कतम शब्दे च द्वितीयस्यात इत्वं भवति ॥ मज्झिमो । कहमो । अर्थ:-मध्यम शब्द में और कतम शम्ब में द्वितीय 'अ'को 'ह' होती है । जैसे-मध्यमः = ममिमी। कतमः= कामो॥ मध्यमः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मजिसमो होता है इसमें सत्र संख्या-१-४८ से द्वितीय 'अ' की'; २-२६ से 'व्य' का 'श'; २-८९ से प्राप्त 'सका द्वित्व श; २-९० से प्राप्त'झ' का 'ज'; ३-२ स पुल्लिग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'मज्झिमो रूप सिद्ध हो जाता है । कतमः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप कइमो होता है। इसमें सत्र संख्या-५-१७७ से 'त' का लोप; १-४८ से शेष द्वितीय 'अ' की '.'; ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एम वचा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर कड़मो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। ४८ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - सप्तपणे वा ॥ १-४६॥ सप्तपणे द्वितीयस्यात इत्व वा भवति ।। छत्तिवएणो । छत्तत्रएणो || अर्थः-सप्तपर्ण शम्ब में द्वितीय 'अ' को 'इ' विकल्प से होती है। बस-सप्तपर्णः - छत्तिवानो और बसवण्णो।। सप्तपर्णः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप छत्तिषण्मो और छत्तवष्णो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-1-२६५ से 'स' का 'छ। २-७७ से 'क' का लोग, २: शेर बहा द्विल'.'.-४. महिला की माने 'स' के 'अ' को ''विकरूप से; १-२३१ सेप' काव२-१ से 'र'का लोग, २-८९ से 'म'का विस्व'-'; और ३-२ स पुस्लिग में प्रथमा के एक यवन में सि' प्रत्यय के स्पान पर 'ओ' होकर कम से उत्तिवण्णो और छत्तषणो रूप सिब हो जाते हैं। ॥ ४९।।। मयटय इ वा ॥ १-५० ॥ मयट प्रत्यये श्रादेरतः स्थाने अइ इत्यादेशो भवति वा । विषमयः । विसमाभो । विसममओ। अर्थ:- 'मयट्' प्रस्पय में मावि 'म' के स्थान पर 'अ' एसा आवेश विकल्प से हुमा करता है । जैसेविषमयः-विसमाओ और विसमओ ।। विषमयः संस्कृत शव है । इसके प्राकृत रूप विसमड़ओ और विसपओ होते हैं । इनमें म ना १-२६० से 'व का 'स'; १-५० से 'मय' में 'म' के 'अ' के स्थान पर 'अ' आदेश की विकता से प्राप्ति; १-१७७ 'म्' का लोप; और ३-२ से पुल्लिग में प्रवपा के एक बच्चन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्ररपय को प्राप्ति होकर कम से घिसमईओ और विसमओ रूप सिब हो जाते हैं। ई हरे वा ॥ १-५१ ॥ हर शब्दे श्रादेरत ईर्वा भवति । हीरो हरी ॥ अर्थ:-हर शम्ब में आदि के 'न की '६" विकल्प से होती है । जैसे-हर हीरो और हरी ॥ हरः संस्कृत शम्य है । इसके प्राकृत रूप हीरा और हरी होते हैं । इनमें प्रम संख्या १.५१ में मावि '' को विकल्प से ; मौर ३.९ से पुल्लिग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर कम से हीरो और हरो रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। ५१।। धनि-विष्वचोरुः ॥ १-५२ ॥ अनयोरादेरस्य उत्वं भवति ॥ झुणी । बीसु॥ कथं सुणभो । शुनक इति प्रकृत्यन्तरस्य ।। अन् शन्दस्य तु साणो इति प्रयोगौ भवतः॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२.] में प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-स्वनि और थिख्यक शब्दों के आदि 'अ' का 'उ' होता है। जैसे-ध्वनि = भुणी । विवावी। 'सुणओं रूप कैसे हुआ ? उत्तर-इसका मूल शव भिन्न है। और यह जनक है । इससे 'सुपओ पतला है । और 'श्वन शब्द के प्राकृत रूप 'सा' और 'सागो' एसे दो होते हैं। ध्यान: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सपो होता है । इसमें सूत्र संस्था २०१५ से 'क' का 'स'; १.५२ आदि 'अ'का'क'; १.२२८ से 'म' का ''; ३-१९ से स्त्रोनिग में प्रथमा के एक बडन में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर हुन्ध 'इ' को दो ।' होकर झुणी कप सिद्ध हो जाता है। 'वीमुंशय की सिद्धि सूत्र संख्या १२४ में की गई है। शुनकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सुणी होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२६० से 'श' का ''; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१५७ से 'क' का लोप; ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एकवचन में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'ओ होकर सुणओ रूप सिद्ध हो जाता है। इधन् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मा होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'ब' का लोप; १-९६० से 'श्' का 'स्'; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का लोए, और ३-४९ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर 'सा' म सिद्ध हो जाता है। इवन संस्कृत शम्न है । इसका प्राकृत रूप सागी होता है। इसमें पत्र संख्या १-१७७ से 'व' का लोप, १-२६० से 'श' का 'स', ३-५६ से 'म्' के स्थान पर 'माण' आवेधा की प्राप्ति १.४ से 'स' के 'अ' के साप में 'माण' के 'R' को संबि, और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिा में सि प्रत्यय के क्यान पर मो होकर साणो रूप सिद्ध हो जाता है। वन्द्र-खण्डिते या वा ॥ १-५३ ॥ अनयोरादेरस्य णकारेण सहितस्प उत्वं वा भवति ।। बुन्द्र वन्द्र ! खुडिओ । खण्डिो । अर्थः-वन शम्म में आदि 'अ' का विकल्प से 'व' होता है। सूत्रानुसार यहाँ पर 'ग' सो दिखलाई नहीं देता है । परन्तु प्राकृत व्याकरण की हस्त लिखित पाटन की प्रति में 'बन्द' के स्थान पर 'बण्ड' लिखा हमा। अतः 'R' और खण्डित में 'ण' के साथ 'आवि-अ' का विकल्प से होता है। से वनम.का बुन और वन्द्रं । सग्निसः कारिओ और पण्डिओ। ‘बन्धम, संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप बुग्न और चन्द्र होते हैं। इनमें सूत्र संस्था १-५३ से मावि-'अ' का विकल्प से 'अ'; ३-२५ से प्रथमा के एक बधम में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' की प्राप्ति १.२३ से प्राप्त 'म्' का मनुस्वार होकर वुन और पन्द्र रूप तिब हो जाते है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # खतः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप लुडिओ और खडिओ होते हैं। इनमें सूत्र संपर १-५३ से अदि- 'अ' का 'म्' सहित विकल्प से ''; १-१७७ से 'त्' का लोप ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' होकर क्रम से खुडिओ और खण्डिओ रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। ५३ ।। गवये वः ॥ १-५४ ॥ वय शब्दे वकाराकारस्य उत्वं भवति || गउओ । गज्या ॥ **** [ ८३ ** अर्थः गवय शब्द में 'ब' के 'अ' का उ' होता है। जैसे- गवयः = गउओ और गउआ || गवयः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप गडओ होता है इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' और 'य्' का लोप: १-५४ सेप्त 'ब' के 'अ' का 'उ' ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में सि' प्रस्थय के स्थान पर 'भी' होकर 'ओ' रूप सिद्ध हो जाता है । प्रथम शब्दे पकार थकारयोरकारस्य या संस्कृत हूँ । इसका प्राकृत रूप गउबा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' और 'य्' का लोप: १०५४ से लुप्त 'व' के 'अ' का 'उ'; और सिद्ध-हेम-व्याकरण के २-४-१८ से सूत्र 'आत्' से प्रथमः के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'लि' प्रमम के स्थान पर 'का' होकर गजआ रूप सिद्ध हो जाता है । । ५४ । प्रथमे पथो वा ॥ १-५५ ॥ युगपत् क्रमेण च उकारों वा भवति ।। पुदुमं पुर्व पदुमे पढमं || अर्थ:-प्रथम शब्द में 'प' के और 'प' के 'अ' का 'उ' विकल्प से एक साथ भी होता है और क्रम से भी होता है। जैसे- प्रथमम् (एक साथ का उदाहरण) पुमं (म के उदाहरण -) पुढमं और पढ़नं । ( विकल्प का उदाहरण) पढमं । पहने। इनमें सूत्र कर 'उ' विकल्प से; प्रथमम् । संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप धार होते हैं। पुर्म एवमं पर्म और संख्या २०७९ से हू' का लोपः १-२१५ से 'च' का 'ढ' १-५५ से 'प' और प्राप्त ' के 'अ' युगपद् रूप से और क्रम मे २-२५ से प्रथमा के एकवचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति १.२३ से प्राप्त ''प्रश्यप का अनुस्वार होकर पुडुमं, पुड, पडसं, और पढ़ कर सिद्ध हो जाते हैं ।। ५५ ।। : ज्ञो पत्वे भिज्ञादों ॥ १-५६ ॥ अभि एवं प्रकारेषु ज्ञस्य त्वे कृते ज्ञस्यैव अत उत्वं भवति || अहिए । सम्बत् । कयष्णुः । श्राममण्णु ॥ एत्व इति किंम् | अहिज्जी । सब्वज्जी ।। श्रभिज्ञादावितिकिम् । प्राज्ञः । पण्णी | ये शस्त्र रात्वे उत्वं दृश्यतेते अभिज्ञादयः ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * ___ अर्थ:-अभिश मावि इस प्रकार के शवों में 'झ' का 'ण' करने पर 'श' में रहे हए 'अ' का '' होता है। जैसे-अभिलः- अहिष्णु । सर्वशः = सम्वष्णू । कृताः = कयण्णू । आगमशः = आगमण्णू | 'गस्व' ऐसा ही क्यों पाहा गया है ? क्योंकि यदि 'ज' का 'ण' नहीं करेंगे तो यहां पर 'श' में रहे हुए 'अ' का 'ज' नहीं होगा । जैसे-अभिन्नःअहिज्जो । सर्वनः = सम्बयो । अभिज्ञ आवि में ऐसा क्यों कहा गया है? क्योंकि जिन शनों में 'ज्ञ' का 'ग' करने पर भी 'स' में रहे हए 'अ' का 'उ' नहीं किया गया है, उन्हें 'अभिश-आदि' शब्दों को श्रेणी में मत गिनमा । बसे-प्राशः = पणो । अतएव जिन शब्दों में 'स' का 'प' करके 'श' के 'अ' का 'उ' देखा जाता है उन्हें ही 'अभिज्ञ' आदि की श्रेणी वाला जानना। - - अभिज्ञः संस्कृत शब है। इसका प्राकृत रूप अहिष्णू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का 'ह'; २-४२ से 'श' का ''; २-८१ से प्राप्त प' का हिट wr: १-५६ से 'or' के 'अ' का 'उ'; ३.१९ से प्रयमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हुस्व स्वर 'उ' का दोघं पर 'ॐ होकर 'अहिण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञः संस्कृत शम्ब है । इसका प्राकृत रूप सवण्णू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७२ से 'र' का लोर २-८९ से 'व' का विश्व 'व'; २-४२ से 'क' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'गण' १५६ से 'ण' के 'अ' का''; ३-१९ से प्रघमा के एक वचन में पुस्लिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर '' का दोई स्वर 'अहोकर 'सवण्णू' रूप सिद्ध हो जाता है। क्रतक्ष: संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप कयण्ण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ ल' का 'अ' (-२७७ से '' का लोप; 100 से 'स' के 'अ' का 'य', २-४२ से 'ब' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'क' का विरव 'ण'; १-५६ से 'ग' के 'अ'का 'उ'; ३-१९ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का वीर्घ स्वर 'क' होकर कयण्गू रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आगम: संरकूस शमा है । इसका प्राकृत रूप आगमण होता है। इसमें सत्र संख्या २-४२ से 'श' का 'ग'; २.८१ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'ण'; १५६ से 'ग' के 'अ' का 'उ'; ३-१९ से प्रयमा के एक बचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्स्प हस्व स्वर 'इ' का दोघं स्वर '' होकर आगमण्ण रूप सिद्ध हो जाता है। अभिज्ञः सांकृत शम है । इसका प्राकृत रूप महिन्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' का है' २-८३ से 'स' में रहे हुए 'म' का लोप; २-८९ से घोष 'ज' का द्वित्व 'ज'; ३.२ से प्रकमा के एक वचन में पुहिला में 'सि' प्रत्यय के स्पान र 'झो' होकर अहिज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। सर्वज्ञः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सम्बायो होता है । इसमें पूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप २०८९ से ' का द्वित्व 'थ्य'; २.८३ से 'स' में रहे हए ' का लोप; २.८९ से शेष '' का free 'ज'; ३२ से प्रमझा के एक वचन में पुल्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर सबज्जी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [८५ माज्ञः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'पग्णो' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-८४ से 'पा' के 'आ' का 'अ' २-४२ से'' का 'ण'; २-८९ से प्राप्त 'ण' का द्विस्व ''; ३-२ से प्रथा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर 'पojो लिया बात है ।। ५६ ॥ एच्छय्यादौ ।। १-५७ ॥ शम्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति ॥ सेज्जा । सुन्दरं । गेन्दुभं । एत्थ ।। शय्या । सौन्दर्य । कन्दुक । अत्र ॥ मार्षे पुरं कम्मं । अर्थः-शम्या आदि शब्दों में आदि 'अ' का 'ए होता है । जैसे-शय्या = सेग्ला । सौन्वयम् = तुन्वर । कन्भुकम् = गैन्युअं । अत्र-रत्य ।। आर्ष में आरि 'मा' का 'ए' मो देखा जाता है। जैसे-पुरा कर्म = पुरे कम्म ।। शय्या संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सेना होता है । इसमें सब संख्पा १-५७ से 'शा' के आदि 'अ' का 'ए'; १-२६० से 'या' का 'स'; २-२४ से 'व्य' का 'ज'; २.८९ से प्राप्त 'ज' का हिस्व 'ज'; और सिख हेम व्याकरण के २-४-१८ से आकारान्त स्त्रोसिस में प्रथमा के एक बबन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ना' होकर सेजा रूप सिद्ध हो जाता है। सौन्दर्यम संस्कृत शम्न हैं। इसका प्राकृत रूप सुन्वेरं होता है। इसमें सम संख्या १-१६. से 'ओ' का 'च१-५७ से 'द' के 'ब' का 'ए'; २-६३ से 'य' का '; ३.२५ से नपुसकसिंग में प्रथमा के एक पवन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति, और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सुन्दरं रूप सिद्ध हो जाता है। कन्चकम् संस्कृत शग है | इसका प्राकृत रूप गेन्चुभं होता है । इसमें सूत्र संस्था १-१८२ से आणि 'क' का 'ग'; १-५७ से प्राप्त 'ग' के 'अ' का 'ए'; १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप; ३-२५ से नपुसक लिय में प्रपमा के एक वचन में 'स' प्रत्यय के स्थान पर 'म' को प्राप्ति; मौर १-२३ से प्राप्त '' का मनुस्वार होकर गेन्दुरुप सिद्ध हो जाता है। 'एत्थ' को सिहि १-४० में की गई हैं। पुराकर्म संस्कृत शम्म है। इसका आर्य प्राकृत रूप पुरे काम होता है । इसमें मूत्र संख्या १-५७ को पत्ति से 'आ' का 'ए'२-७९ से '' का लोप; २-८९ से 'म' का विस्व R'; ३-२५ से प्रथमा के एक वबम में मपुसक लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्'का अनुस्वार होकर 'पुरेकम्म' रूप सिखो जाता है ।। ५७॥ वल्ल्युत्कर-पर्यन्ताश्चय वा ॥ १-५८ ॥ एषु आदेरस्य एत्वं वा भवति ॥ चेल्ली वल्ली । उकेरो उक्करो। परन्तो पज्जन्तो। अच्छेरं अच्छरिश्र अच्छअरं अच्छरिज अच्वरी ॥ . Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] * प्राकृत व्याकरण * **** अर्थ:-हली उरकर, पोराचर्य में आदि 'म' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे- वल्ली = बेल्ली और वल्ली | उत्करः = उनके रो और उक्करो। पर्यन्तःप्रेरन्तो और पज्जन्तो । आश्चर्यम् अच्छरं अन्हरिअं इत्यादि । = वल्ली संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप वेल्ली और बल्ली होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-५८ से आदि 'क' का विकल्प से 'ए' और ३-१९ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य स्वर दीर्घ का दीर्घ ही होकर 'वेल्ली' और वल्ली रूप सिद्ध हो जाते हैं । उत्करः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप उक्तेरो बौर उश्करी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप २-८९ से 'क' का द्वित्व 'क' १-५८ से 'क' के 'म' का विकल्प से 'ए' ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर उक्करो और उक्करी रूप सिद्ध होते हैं 1 पर्यन्तः संस्कृत शब्द हूँ। इसके प्राकृत रूप पेरतो और पजस्तो होते हैं। इनमें सूत्र सं १-५८ से 'प' के 'अ' का ए' २०६५ से ''कार'; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पेरन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय का पजस्तो में सूत्र संख्या २-२४ से '' का 'ज'; २-८९ से प्राप्त 'ज' का विम' ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर जन्ती रूप सिद्ध हो जाते हैं। आश्चर्यम् संस्कृत शव है। इसके प्राकृत रूप अच्छे अच्छरिवं, अच्छसर, अरिवर्ज और अच्छरी होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' का 'अ' २-२१ से 'इ'छ' २८९ से प्राप्त 'छ' का हिस्वा 'छ' २-९० स े प्राप्त पूर्व 'छ' का ' २-६६ से 'मैं' का 'र' १-५८ से 'छ' के 'अ' का विकल्प से 'ए' ३-२५ मे प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्तिः १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर अच्छे रूप सिद्ध हो जाता है । २-६७ से पक्ष में 'यं' का विकल्प से 'रिज'; 'अर' 'रिज', मोर 'अ' ३ - २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से अच्छुरिअं अच्छअरे, अच्छरिर्ज और अच्छरी रूप सिद्ध हो जाते हैं ॥ ५८ ॥ ब्रह्मचर्ये वः ॥ १-५६ ॥ शब्दे च अत एत्वं भवति || बम्हचेर ॥ अर्थ:- शब्द में 'च' '' का 'ए' होता है। जैसे वेरं ॥ लोय; २-७४ से' 'प्र' का 'ह' २-६३ से '' का ''; दवन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' बम्हयेरं रूप सिद्ध हो जाता है ।। ५९ ।। ब्रहमचर्यम्, संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप बरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र्' का १-५९ से 'च' के 'अ' का 'ए' ३ २५ से प्रथमा के एक प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से 'म्' का यनुस्वार होकर = Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * तोन्तरि ॥१.६०॥ अन्तर शब्दे तस्य अत एत्वं भवति ।। अन्तः पुरम् । अन्ते उरं ॥ अन्तवारी । भन्ते पारी । क्वचित्र भवति । अन्तग्गयं । अन्ती-वीसम्भ-निवेसिप्राणं ।। अर्थ:-तर-सत में 'त' के 'अ' का 'ए' होता है । जमें-अन्तः पुरम् = अन्ते उर। अन्तरवारो- बन्ने भारी ।। कहीं कहीं पर 'अन्तर' के 'त' के 'अ' का 'ए' नहीं भी होता है । जैसे-अन्तर्गतम् = मन्तगयं ॥ भन्तरविशम्भ-निषेसितानाम अम्तो-बीसम्भ-निवेसिआण ।। min अन्तःपुरम् संस्कृत शम्ब है । इसका प्राकृत रूप अन्ते उर होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५ से 'र' अथवा 'विसर्ग' का लोप १-६० से 'त' के 'अ' का 'ए', १ .१७७ से प्' का लोए, ३-५ से प्रपमा से एकवधान में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के समान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति, १-२३ से 'म्' का मनुस्वार होकर 'अन्तेजरं' रूप सिद्ध हो जाला है। अन्तश्चारी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप अन्तेारी होता है । इसमें सूत्र संस्था १-११ से 'म का लोप, १.६० से 'a' _ 'अ' का 'ए'; १-१७७ में 'म्' का लोय; ३-१९ से अपमा के एक पवन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य स्वर को वीर्घता होकर अन्तेआरी रूप सिड हो जाता है। अन्तर्गतम् संस्कृत शम्न है। इसका प्राकृत रूप अन्तग्गय होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१ से '' का लोप; २-८५ से 'ग' का द्वित्व 'ग'; १-१५१ से वितोय 'त' का लो५; ११८० से '' के शेष 'म' का 'प'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्तिः १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुश्वार होकर अन्तग्गयं रूप सिद्ध हो जाता है। अन्तर-षिश्रम्भ-निवसितानाम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अन्तो-दोसम्भ-निवेसिा होता है। इसमें सूत्र संख्या १३७ से 'अन्तर' के 'र' का गी; २.७१ से '' के 'र' का लोप; १.२६० से 'श' का 'स'; १-४३ से "व' की 'को दोध है; १-१७७ से 'त' का लोप: ५-६ से पछी बहुवचन के प्रत्यय 'बा' पाने 'माम्' के स्थान पर 'ब' को प्राप्ति। ३.१२ से प्राप्त 'ल' के पहिले के समर 'म' का बोध स्वर 'भा'; १-२७ मे '' पर अनुस्वार का आगम होकर अन्तो-वीसम्भ-निवेसिआण रूप सिद्ध हो जाता है। श्रोत्सदमे ॥ १-६१॥ पम शब्दे आदेरत मोत्वं भवति ॥ पोम्मं ॥ पद्म-छम-(२-११२) इति विश्लेषे न भवति । पउमं॥ अर्थ:-पय शङव में प्रारि 'अ' का 'ओ' होता है । जैसे-पपम् = पोम । किन्तु सत्र संकमा २-११२ से विलेप अवस्था में आवि 'अ' का 'ओ' नहीं होता है। जैसे-पपम् -पउमं ।। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] * प्राकृत व्याकरण * पदमम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पोम्म और पजमं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-६१ से सादि 'अ' का 'ओ'; २-७७ से '' का लोप; २-८९ से 'म' का द्वित्व 'म'; ३.२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पोम्मं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में २-७७ से 'द' का लोय; २- १२ से 'द' के स्थान पर '' को प्राप्ति; ३-.५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पउम रूप सिद्ध हो जाता है। 'छन्न' की सिद्धि आगे ३-११२ में की जायगी ।। ६१ ॥ नमस्कार-परस्परे द्वितीयस्य ।। १-६२ ।। अनयो द्वितीयस्य अत ओत्व भवति ॥ नमोकारो । परोप्परं ॥ अर्थ:-मस्कार और परस्पर इन दोनों शवों में दितीय-अ' का 'ओ' होता है। जो-गमकारःनमोक्कारो । परस्परम् = परोप्परं ।। नमस्कार संस्कृत शम्ब है। इसका प्राकृत रूप नमोक्कारो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६२ से द्वितीय 'म'का 'ओं'; २-७७ से 'स'का लोप, २-८९ से 'क' का 'द्वित्वक, ३.२ से प्रयमा के एक वचन में पुल्लिा में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर नमोक्कारी सिद्ध हो जाता है। परस्परम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप परोप्पर होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६२ से द्वितीय-अ' का 'ओ'; २-७७ से 'स्' का लो०; २-८९ से हितोय 'प' का 'द्वित्व पर; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १.२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर परोप्पर बप सिद्ध हो जाता है। वापो ॥ १-६३॥ अर्पयतौ धातौ श्रादेरस्य श्रोत्वं वा भवति ।। ओप्पेइ अप्पइ । श्रोप्पिय अप्पिा । अर्थ:-'यति धातु में आदि '' का विकल्प से 'ओ' होता है। जैसे-अर्पयति = ओप्पर और अम्पेड़ । अपितम् = मोस्पिर्क और अप्पिरं ॥ अर्पयति संस्कृत प्रेरणार्थक पिया पर है । इसके प्राकृत रूप मओप्पेइ अप्पे होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१२ से बावि का विकल्प से 'ओ'; २-७१ से 'र'का लोप २-८९ से 'प' का विस्व ': ३-१४९ से प्रेरणार्थक में 'णि' प्रत्यय के स्थान पर यहां पर प्राप्त 'अय' के स्थान पर 'ए; और ३-१५९ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष में एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर '' होकर ओप्पेड़ और अप्पेह रूप सिद्ध हो जाते हैं। अर्पितम् संस्कृत भूत कुवन्त क्रियापद है । इसके प्राकृत रूप ओपि और अप्पि होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६३ से आदि का विकल्प से 'यो'; २.७९ से 'र' का लोप: २-८९ से 'प'का निस्व '' ३-१५६ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [८६ से भूत कुन्त के 'त' प्रत्यय के पहिले आने वाली 'इ' को प्राप्ति मौजूद हो है: १-१७७ से 'तु' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक बचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर ओप्पिो अप्पिो रूप सिद्ध हो जाते है ।। ६३ ।। स्वपावुच्च ॥१-६४॥ स्वपितौ धातौ श्रादेरस्य श्रोत् उत् च भवनि । सोवइ सुवइ ।। अर्थ:-स्वपिति' धातु में आदि 'अ' का 'ओ' होता है और 'उ' भी होता है। जैरे-स्वपिति = स्रोग और सुबइ। स्वपिति संस्कृत क्रियापद है। इसका पातु वप है । इसका प्राकृत रूप सोपा और सुबह होता है। इसमें सूत्र संस्था ४-२३९ से हलन्त 'प्' में 'अ' का संयोजन; १-२६० से '' का 'स्'; २-१ से 'व' का लोप; १-२३१ से ' का 'द'; १-६४ से आदि 'अ' का 'ओ' और 'इ' अप से ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक प ति के स्थान पर होर सोपड़ मार सुवह रूप सिद्ध हो जाते हैं ॥ ६ ॥ नात्पुना दाई वा ॥ १-६५ ।। नत्रः परे पुनः शब्दे आदेरस्य 'आ' 'आई' इत्यादेशी वा भवतः ।। न उणा ॥ न उणाइ । पक्षे न उण : न उणो । केबलस्यापि दृश्यते । पुणाइ । अर्थ:-न अव्यय के पश्चात् आप इए 'पुनर्' शद में आदि 'अ' को 'आ' और 'आई' ऐसे यो आदेश शाम से और विकल्प से प्राप्त होते हैं। जैसे-न पुनर = न उणा और न उणा । पक्ष में-न उण और न उणो भी होते हैं। कहीं कहीं पर 'न' अध्यय नहीं होने पर भी 'पुनर' शब म विकल्प रूप से उपरोक्त आच 'माइ' देखा जाता है । जैस-पुनर = पुणाई || न पुन: संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत हम न उणा न खणाद, उन; न उणी होते हैं। इसमें सूत्रमा १-१७७ से 'पू' का लोप; १-२२८ से पुनर् के न' का 'म'; १.११ से विसर्म माने 'र' का लोप; १-६५ सं प्राप्त ग' के 'अ' को कम से और विकल्प में 'आ' एवं 'बार' मावेशों को प्राप्ति होकर न उमान जणाइ, और म उष्ण रुप सिद्ध हो जाते है । एवं पम-११ के स्थान पर १.३७ से निसर्ग के स्थान पर 'मी' होकर न उणो रूप सिद्ध हो जाता है। पुनः का रूप पक्ष में पुणा मो होता है। इसमें सब संख्या १-२२८ से नाकाम'; १-११ से विसर्म सो 'इ' का लोप; और १६५ से 'अ' को वस 'भार' मावेश की प्राप्ति होकर 'पुणा सिद्ध हो पाता है । ६५ ।। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] * प्राकृत व्याकरण * वालाब्वरण्ये लुक् ॥ १-६६ ॥ लाब्वरश्य शब्दयोरादेरस्य लुग्वा भवति । लाउं अलाउं । लाऊ, अलाऊ । र अरणं ॥ श्रत इत्येव । श्ररण- कुञ्जरो व वेल्लन्तो ॥ अर्थ:- अलाबू और अरण्य शब्दों के आदि-'अ' का विकल्प से खोप होता है। जैसे- अलावम् लाउं और अस्सा ं । अरण्यम् = रण्णं और जरणं ।। 'अरम्प' के आदि में 'अ' हो; तभी उस 'अ' का विकल्प से लोप होता है। यदि 'अ' नहीं होकर अन्य स्वर हो तो उसका लोप नहीं होता। जैसे - आरण्य कुञ्जर-इध रममाण: = आरण्ण कुरो ष्व वेल्लन्तो इस दृष्टान्त में 'आरण' में 'आ' है; अतः इसका लोप नहीं हुआ । अलाम् संस्कृत शम्ब है। इसके प्राकृत रूप लाउं और अलाउं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २ ७९ से 'ब' का लोप १-६६ स आदि 'अ' का विकल्प में लोप; ३ २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' अध्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त म्भु' का अनुस्वार होकर कम से लाउं और अलाउं रूप सिद्ध हो जाते हैं । अलाब; संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप लाऊ और थकाऊ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २७९ स े 'य्' का लोपः १-६६ सो आदि-अन्का विकल्प से लोप; और ३-१९ से प्रथमा के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हुष स्वर 'उ' का धौघं स्वर 'ऊ' होकर क्रम से लाऊ और अलाऊ रूप सिद्ध हो जाते हैं । अरण्यम् संस्कृत शब्व है। इसके प्राकृत रूप रणं और बरणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'यू' का लोप २-८९ से 'ग' का द्वित्व 'ण' १-६६ स े भावि 'अ' का विकल्प सो लोपः ३ २५ से प्रथमा के एक चम में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर कम से रणं और अरण्णं रूप सिद्ध हो जाते हैं। आरण्य संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप आरण्ण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ स े 'यू' का लोप; २-८९ का द्वित्व 'ष्ण' होकर आरण्ण रूप सिद्ध हो जाता है । कुञ्जरः संस्कृत शब्द हूं। इसका प्राकृत रूप कुरो होता है। इसमें सूत्र संख्या ६-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' होकर कुञ्जरी रूप सिद्ध हो जाता है । : 'व' को सिद्धि ६ में की गई है। रममाणः संस्कृत वर्तमान दन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बेल्लन्तो होता है। इसमें सूत्र संस्था ४-१६८ से रमाको 'वेल्ल' आवेश; ३-१८१ से मान याने आमश् प्रत्यय के स्थान पर 'स' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२ से प्रथमा के एक वचन पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अरे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेल्लन्तो रूप सिद्ध हो जाता है ॥ ६६ ॥ # Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [६१ वाव्ययोत्खाता दावदातः ॥ १-६७ ॥ अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्दषु श्रादेराकारस्य अद् वा भवति ॥ अव्ययम् । जह जहा । तह तहा । अहव हवा । व वा । ह हा । इत्यादि ॥ उत्खातादि । उक्खयं उक्वायं । चमरो चामरो । कलो कालो ठवित्रो ठाविभो । परिविप्रो परिद्वावियो । संठविओ संठाविभो । पययं पाययं । तलवेण्टं ताल वेण्टं । तल बोएट ताल चोएटं । हलिओ हालिओ । मराओ नाराओ । बलया बलाया। कुमरो मारो। खहरं खाइरं ॥ उत्खात । चामर । कालक । स्थापित । प्राकृत । ताल अन्त | हालिका | नाराच । बलाका । कुमार । खादिर । इत्यादि । केचिद् ब्राह्मण पूर्वाह्वयोर- पीच्छन्ति । बम्हणो वाम्हणो । पुवाहो पुम्बाराहो ॥ दवम्गी । दावग्गी |! चडू चाडू । इति शब्द-भेदात् सिद्धम् ।। अर्थ:-कुछ अव्ययों में और उत्खात आदि शम्बों में प्रादि में रहे हुए 'आ' का विकल्प से न हुआ करता है । अभ्यों के दृष्टान्त इस प्रकार है-पमा = मह और जहा । तया = तह और तहा । अपवा = अहब और अहवा | वा = और वा । हा = ह और हा ।। स्यादि । जस्खात आदि के उदाहरम इस प्रकार है उत्सासम - उपनयं और क्लायं। बामर:-समरोमऔर पामरो| कालक-कलो और कालयो। स्थापितः = ठविभो और अविभो । प्रति स्थापितः = परिदविक्षो और परिद्वावियो । संस्थापितः = संढविमो और मंठाविओ। प्राकृतम -पय और पायर्य। तालयन्तम् = तलवे और तालवेण्टं । तालमोट, तालकोण्ट । हालिक:= हलिलो और हालियो । नाराषः = गरायो और नाराषो । बलाका = बसपा और बलाया । कुमार:-मरो मोर कुमारो । साविरम = सहरं और मार ॥ त्यावि रूप से जानना । कोई २ ब्राह्मण और पूर्वान्ह शादों के मादि 'या' का विकल्प से 'अ' होना मानते है । अंस-माहागः = पम्हगो और बाम्हणो । पूर्वाणः = पुम्बन्हो और पुम्बाहो ॥ स्वाग्निः-भावाग्निः बवग्गो और दावामी । पढः और बादः = च और पाडू अंतिम बार रूपों में-(स्वग्पो से चाडू तक में)-भिन्न भिन्न शब्दों के आधार से परिवर्तन होता है। अतः इनमें यह सूत्र १.६७ नहीं लगाया जाना चाहिये । अपादानको सिद्धि शन-मेव से पाने बालग अलग माधवों से होती है। ऐसा मानना। यथा संस्कृत अध्यय है। इसके प्राकृत रूप जह और जहा होते हैं। इनमें सूत्र संस्था १-२५ से बना 'ब'; १-१८७ से 'अ' का ही १-६७ से 'मा' का विकल्प से 'अ' होकर जह और जहा रूप सिब हो जाते हैं। तथा संस्कृत मध्यय है । इसके प्राकृत रूप तह और तहा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.१८० से 'म' का 'ह'; और १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'म' होकर तह और तहा रूप सिद्ध हो जाते हैं। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * अथषा संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत रूप अहष और अहवा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'य' का 'ह' और १-६७ से 'आ' का विकल्प से 'अहोकर अहष और अहवा रूप सिब हो जाते हैं । चा संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत रूप व और वा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ से 'मा' का विकल्प से 'अ' होकर च और का रूप सिद्ध हो जाते हैं। हा संस्कृत अग्यय है। इसके प्राकृत रूप ह और हा होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १.६७ ते 'आ' का विकल्प से 'अ' होकर 'ह' और 'हा' रूप सिद्ध हो जाते हैं। उत्तवासम् संस्कृत शब है। इसके प्राकृत रूप वश्वपं और उपवार्य होते हैं। इनमें सम संख्पा-२.७७ से झारिस'का लोप; २.८९ से 'ख' का विरद 'क' २.९० से प्राप्त पूर्व ' का 'क'; १.६७ से आ' का विकास से 'अ'१-१७७ से द्वितीय 'त' का लोपः १-१८० से 'के 'अ' का 'य', ३-२५ से प्रथमा के एक वचन मनपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म'का अनधार होकर क्रम से उखये और उपवार्य रूप सिद्ध हो जाते हैं। चामर संस्कृत शम्ब है । इसके प्राकृत रूप चमरो और चामरी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-१-६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ' और ३.२ से प्रयमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर म से चमरो और चामरो रूप सिद्ध हो जाते हैं। फालक संस्कृत शब्द हैं । इसके प्राकृत कप कलओ और कालओ होते हैं। इनमें सूत्र संस्था--१.६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ सेक' का लोप; और ३-२ से प्रथा के एक बबन में पुलिलम 'सि' प्रत्यय के स्थान पर शो प्रत्यय होकर कम से कलओ और कालओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। स्थापित संस्कृत शम्न है । इसके प्राकृत रुप विओ और त्रिभो होते हैं । इन में सूत्र संख्या-४-१६ से "स्था' का ''; १-५७ से प्राप्त 'का" के "आ" का विकल्प से "अ"; १-२३१ से "प" का ""; -१७७ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'fa" प्रत्यय के स्थान पर "ओ' प्रत्यय होतर भमसे ठविमओ और ठाविओ कप मिड हो जाते हैं। प्रतिस्थापितः संस्कृत शम्य है। इसके प्राकृत प परिखियो और परिवादियों होते है। इनमें सूत्र-संख्या-१-३८ से "प्रति" के स्थान पर "परि"; ४-१५ से "स्पा" का ""; २-८९ से "प्राप्त " को हिस्व ""; २.९० से प्राप्त पूर्व "" का ""; १-२३१ से "प" ta"; १.६७ से प्राप्त "" के "" का विकल्प से "अ"; १-१७७. से "त्" का लोए; ३-२ से प्रथमा के एक वचम में पुस्लिप में "म" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" होकर परिद्वापिओ और परिद्धाविमो रूप सिद्ध हो जाते हैं। संस्थापितः संस्कृत शग है। इसके प्राकृत रूपठविमो और संठाविओहोते है। इनमें सूप-संख्या ४.१६ से "स्था" का "ठा"; १-६७ से प्राप्त "ठा" के "आ" का ''"; १-२३१ से "q" का ""; Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * में "सि' प्रत्यय के स्थान पर "ओ" १-१७७ से "त" का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिा होकर क्रम से संठविओं और संठाविसी रूप सिद्ध हो जाते है। प्राकृतम संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पययं और पाययं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २.७१ से 'र' का लोप; १-६७ से 'पा' के 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १.१५७ से 'क' और 'त्' का लोप १-१८० से 'क' और 'त' के शेष दोनों 'अ' को कम से की प्राप्ति; ३-२५ से प्रयमा के एक वचन में मसलिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति; और १.२६ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से पययं और पाययं रूप सिद्ध हो जाते हैं। तालवृन्तम संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप तल, तालवेष्टं, तलवोटं और तास्वोर्ट होते हैं । इनमे सूत्र संख्या १-६७ से आदि 'आ' का विकल्म से 'अ'; १-१३९ से 'क' का 'ए' और 'ओ' कम से; २-३१ से 'त' का 'ष्ट'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति: तौर -२३ से शाम' का अनुसार नोकर कम से हलवेण्ट, तालपेण्ट. तलवीण्टं और तालवोण्ट एप सिद्ध हो जाते हैं। झालिकः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप हलियो और हालिओ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.६७ से आदि 'अ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ से '' का लोग; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुलिस में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय होकर कम से हलिओ और हालिओ रूप सिख हो जाते है। नाराचः संस्कृत शम्म है। इस प्राकृत रूप नरायो और नाराओ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६७ मे आदि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १.१७७ से '' का लोप; और ३-२ में प्रयमा के एक बचन में पुल्लिा में 'प्ति प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर कम से मराओ और नाराओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। पलाका संस्कृत शन है। इसके प्राकृत प बल्या और बलाया होते हैं। इनमें सत्र संख्या १.६७ से आदि 'आ' का विकल्प से 'म'; १-१७७ से कालोप; १-१८. स शेष-'अ' का 'य'; और सिद्ध-हेम व्याकरण के २-४-१८ से अकारान्त स्त्रोलिंग में प्रथमा के एक बबन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'पा' होकर कम से घलया और बलाया रूप सिद्ध हो जाते हैं। कुमारः संस्कृत शब है। इसके प्राकृत रुप कुमरो और कुमारो होते हैं। इन में पूत्र-संख्या १-६७ से 'या' का विकल्प से ''; और ३-२ से पुल्लिग में प्रथम के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से कुमरो और कुमारो र सिद्ध हो जाते हैं। खादिरमः संस्कृत शम्न है । इसके प्राकृत रूप खहरे और बाहर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-१-६७ से आणि 'आ' का विकल्प से 'अ'; १-१७७ ' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक पचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से खहरे और खाहर रूप सिद्ध हो जाते हैं। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ६४ ] * प्राकृत व्याकरण * - - - माहमणः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप बम्हणो और बाम्हणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; ५-७४ से 'स' का म्ह'; १-६७ से आदि 'मा' का विकल्प से 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एक पधन में पुल्लिग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से बम्हणी और पाम्हणो रूप सिद्ध हो जाते हैं। पूर्वाहणः संस्कृत शख है । इसके प्राकृत रूप पुषहो और पुराव्हो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-२.७९ से ' का लोप; २-८९ से 'द' का हिव्य 'स्व'; १-८४ से दोघं 'अ' का हृष 'उ'; १-६७ से आदि 'ओ' का विकल्प से 'म'; २-७५ से 'ह,ण' का ''; और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुलिस में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से पुराहो और पुल्याण्हो रूप सिद्ध हो जाते हैं। दवाग्नि: मंस्कृत शब्द है : इसका प्राकृत रूप धावग्गो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'न' का लोप २-८९ से 'ग' का द्विस्व 'ग' १-८४ से 'वा' के 'आ' का 'अ'; ३-१९ से पुल्लिा में प्रयमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'ई' होकर दवग्गी रूप सिद्ध हो जाता हैं। दावाग्निः संस्कृत शब्व है। इसका प्राकृत रूप वावगी होता है । इसमें मूत्र संख्या २-७८ सेन का लोग; ... से द्वि:); - माये'' का 'म'; .३-१९ से प्रयमा के एक वचन में पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'हस्व स्वर का वीचं स्वर' होकर वावगी रूप सिब हो जाता है। चतुः संस्कृत शम्ब है । इसका प्राकृत रूप घडू होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से'' का '' और ३-१९ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिर में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हरव स्वर '' का शीर्घ स्वर 'अ' होकर घडू रुप सिद्ध हो जाता है। धातुः सस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप चाकू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९५ से '' का ''; और ३.१९ प्रपमा के एक वचन में पुल्लिंग में सि' प्रस्थय के स्थान पर इस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'क' होकर या रूप सिद्ध हो जाता है। ध वृद्ध वा ॥ ६ ॥ घन निमित्तो यो वृद्धि रूप श्राकारस्तस्यादिभूतस्य अद् वा भवति ।। पवहो पवाहो । पहरो पहारो । पयरो पयारो । प्रकारः प्रचारो वा । पत्थयो परथावो ॥ क्वचिन्न भवति । रागः रानी ॥ अर्थ:-या प्रत्यय के कारण से वृद्धि प्राप्त आदि 'आ' का विकल्प से 'अ' होता है । जैसे-प्रवाहः - पबहो और पवाहो ।। प्रहार: पहरो और पहारो ॥ प्रकारः अथवा प्रचार:- पपरो और पयारे । प्रस्तावः = पत्थयो और पस्पात्रो ।। कहीं कही पर 'बा' का 'अ' नहीं भी होता है। जैसे-रागः= रामो Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * प्रवाहः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पवद्रो और पवाहो होते हैं । इनम सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप, १-६८ से 'आ' का विकल्प से 'म'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से पचही और पवाही रूप सिद्ध हो जाते हैं। पहारः संस्कृत शम्ब है । इसके प्राकृत रूप पहरो और पहारो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-६८ से 'आ का विकला से 'x'; और ३.२ से पथमा के एक मवन में पुस्लिम में "fस' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर कम से पहरो और पहारो रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रकारः संस्कृत शम्च है । इसके प्राकृत रूप पपरो और पयारो होते हैं। इन में सूत्र संख्या-२-७९ से '' का लोप; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'म' का 'य ; १.६८ से 'भा' का विकल्प से 'म'; ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर कम से पयरों और पयारो सिद्ध हो जाते हैं । प्रचार के प्राकृत रूप पयरो और पयारो को सिद्धि पर लिखित 'प्रकार कामको सिद्धि के समाम ही जानना! प्रस्ताव संस्कृत सन्द है । इसके प्राकृत रूप पत्थवो और परयायो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या-२-७९ से 'र' का लोप; २-४५ से 'त' का 'य'; २-८९ से प्राप्त 'थ' का विश्व 'थ'; २-९० से प्राप्त पूर्व '' का 'त'; १-६८ से 'आ' का 'अ'; और ३-२से प्रथमा के एक बचन में इल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर कम से पस्यबो और पत्थानो रुप सिद्ध हो जाते है। रागः संस्कृत काव है । इसका प्राकृत म राम्रो होता है । इसमें सूत्र-संख्या- -१७. से 'म्' का लोप; और ३-२ से प्रसमा के एक अचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर 'राओ' रूप सिद्ध हो पाता है। ॥ ६८॥ महाराष्ट्र ॥ १-६६ ॥ महाराष्ट्र शब्दे आदेराकारस्य भद् भवति ।। मरहई । मरहट्ठो । अर्थः महाराष्ट्र शास्त्र में आवि 'अ' का 'अ' होता है। जैसे - महाराष्ट्रन = मरवा महाराष्ट्र: = मरहट्टो महाराष्ट्रम संस्कृत शब्द हैं । इसका प्राकृत मा मरहट्ट होता है। इसमें सूत्र संस्पा १-६९ से आदि 'मा' का 'अ'; १-८४ से 'रा' के 'अ' का ''; २-७९ स' के 'र' का लोर; २-३४ सं'' का '8'; २-८५ * प्राप्त 'ड' का द्विस्व ''; २.९० से प्राप्त पूर्व '' की 'द'; २-११९ से 'ह' और 'र' वरों का ध्यत्यय ३-२५ से प्रथमा के एक पचम में मसक लिंग में "fe' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्तिा और १-२३ से प्रास 'म्' का अनुस्वार होकर मरहट्ट रूप सिब हो जाता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * महाराष्ट्रः = 'मरहट्ठो' शब पुल्लिग और नपुसक लिंग कोनो लिग वाला होने से पुल्लिा में ३-२ से 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर मरहट्टो रूप सिद्ध हो जाता है। मांसादिष्पगुस्वारे ॥ १-३८ ।। ___ मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सति आदेरातः अद् भाति । मंसं । पम् । पंसणो । कसं । कासियो । वंसियो । पंडवो । संसिद्धिो । संजत्तियो ।। अनुस्वार इति किम् । मास । पाम् ॥ मांस । पां। पसिन । कास्य । कांसिक । वांशिक । पाण्डव । सांसिद्धिक । सांयात्रिक । इत्यादि । अर्थ:-मांस आदि जैसे शब्दों में अनुस्वार करने पर आदि 'आ' का 'अ'होता है। जैसे-मांसम् = मंस । पांश: - पंस ।। पांसनः पंसणी । कास्यम् - कसं । कोसिक-कसियो 1 वांशिक:- सिओ। पाण्डवः =पंडवो। सासिद्धिकः= संसिद्धियो । सायानिकः = संजत्तिओ। सूत्र में अनुस्वार का उल्लेख पर्यों किया ? उत्तर-यवि अनुस्वार नहीं किया आपगा तो 'आदि आ' का 'अ' भी नहीं होगा ! जैसे-मांसम् = मासम् । पांशुः=पान । इन उधाहरणों में नादि 'मा' का 'म' नहीं किया गया है । क्योंकि मनुस्वार नहीं है। मसंसद की सिद्धि .-२९ में की गई है। पंसू गाय को सिखि १-२६ में की गई है। पांसनः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पंसणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-७० से 'बा' का १-२८ से 'म'का 'ण': ३-२ से पुल्लिग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओहोकर पंसणो रूप सिद्ध होता जाता है ।। कंसं की सिद्धि १-२९ में की गई है। कासिकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कसिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप; १-७० से आदि 'n' का 'अ'; ३-२ से प्रपमा के वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'हो' प्रत्यय होकर कसिमी कप सिद्ध हो जाता है। वांशिकः संस्कृत शम्व है। इसका प्राकृत रूप बसियो होता है । इसमें प्रत्र-संध्या-१-२६० से 'श' का 'स'; १-७० से 'आदि-जा' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर वंसिओ रूप सिद्ध हो जाता है । पाण्डवः साकृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पंजो होता है। इसमें सत्र-संस्था-१५० से 'मावि-आ' का ''; १.२५ से 'ण' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'ओ' प्रत्यय होकर पंडवो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [६७ सांसिविक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप संसिडिओ होता है । इसमें सूप संख्या १-७० मे अरवि ओ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एकवचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय होकर संसिद्धिा रूप सिद्ध हो जाता है। सोयात्रिक: संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप संजत्तिको होता है। इसमें सूत्र संख्या 1-0 से आदि 'ओ' का 'अ'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-८४ से द्वितीय 'आ' का 'अ'; २.७१ से 'र' का लोपः २.८९ से शेष 'त' का नित्य 'त'; १-१७७ से क का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुस्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर संजत्तिओ रूप सिद्ध हो जाता है। मासं और पामू शब्दों की सिद्धि भी १-२९ में हो गई है ।७० ॥ श्यामाके मः ॥ १.७१ श्यामाके मस्य श्रातः अद् भवति ॥ सामनी॥ अर्थ:-इमामाक में 'मा' के 'आ' का 'अ' होता है। जैसे श्यामाकः = सामओ ।। क्यामाका संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सामओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से' का 'स'; २-७८ से 'य' का लोप; १.७१ से 'मा' के 'आ' का 'म'; १-१७७ से 'क्' का लोपा और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर सामओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। १ ।। इः सदादौ वा ॥ १-७२ ।। सदादिषु शब्देषु श्रात इत्वं वा भवति ॥ सइ सपा । निसिअरो निसा-अरो। कुपिसो कुप्पासो॥ ___ अर्थ:-सबा आवि शनयों में 'आ' को विकल्प से होती है। बंस-सबा-सह और सया । निशाचर:= निसिअरो और निसारो।। फूर्णम: = कुपितो और कुम्पासो ।। सवा संस्कृत अम्पय है। इसके प्राकृत कम सा और सया होते है। इनमें सत्र संख्या-१-१७७ से 'व' का लोप; और १-७ से शेष 'आ' की ''विप से होकर 'सा' वप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में-१-१७, मेन' का लोप; और १-१८. बोष 'अ' प्रमाता का 'या' क्षेकर सया वप सिद्ध हो जाता है। निसिमरोबार निसाबरोधम्मो को सिवि.८ में की गई है। कूर्मासः संस्कृत शम्ब है । इसके प्राकृत कर पिलो और कुम्पासो होते हैं। इनमें सूत्र-संस्था-१-८४ से 'कू'के'क' का ''; २-७९ से 'र' का लोप; २-८९ से '' का द्वित्व 'प'; १-७२ से 'आ' को विकल्प से ''; और ३-२ से प्रपमा के एक वचन में पुलिस में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय होकर फुप्पिसो कुप्पासो र सिल हो जाते हैं ।।७।। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] * प्राकृत व्याकरण * श्राचार्थे चोच्च ।। १-७३ ॥ श्राचार्य शब्दे चस्य श्रात इत्वम् श्रत्वं च भवति ।। आइरिश्रो, आयरिश्रो ।। अर्थ:-आचार्य शब्द में 'चा' के 'आ' की 'इ' और 'अ' होता है । जैसे-त्राचार्यः= आइरिओ और पायरियो । आचार्यः-संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप श्राइरिओ और आयरिओ होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या-१-७३ से 'चा' के 'था' की 'इ' और 'अ'; २-१०४ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'रिथ' रूपः १-१४७ से 'च' और 'य' का लोप द्वितीय रूप में ५-१८० से प्रात 'च' के 'अ' का 'य' और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'बो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आइरिओ और आयरिओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥७३॥ ई: स्त्यान-खल्वाटे ।। १-७४ ॥ स्त्यान खल्बाटयोरादेरात ईर्भवति।। ठीणं । थीणं । थिएणं । खन्लीडो ॥ संखायं इति तु समः स्त्पः खा (४-१५) इति खादेशे सिद्धम् ।। ____ अर्थ:-स्त्यान और खल्वाट शब्दों के आदि 'श्रा' की ई होती है। जैसे-स्थानम् =ठीणं, थीणं. थिएणं । खल्बादः = खल्लीडो । संखायं-ऐमा प्रयोग तो मम् उपप्तरी के बाद में आने वाली स्य धातु के स्थान पर (४-१५) से होने वाले 'खा' श्रादेश से सिद्ध होता है। स्त्यामम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप ठीणं, थीणं और थिरणं होते हैं । इन में सूत्र-संख्या -२-७८ से 'य' का लोप; २-३३ से 'रत' का 'ठ'; १-७४ से 'या' की 'ई'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; यों ठीण हुश्रा । द्वितीय रूप में स्त' का २-४५ से 'थ'; थों थीण हुश्रा । तृतीय रूप में २-६६ से प्राप्त 'ए' का द्वित्व 'एण'; और १-८४ से 'थी' के 'ई' की हस्व 'इ'; यों थिरण" हुश्रा । बाद में ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से ठीणं, थीर्ण और थिण्णं रूप सिद्ध हो जाते हैं । खल्वाटः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप खल्लीडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; २-८८ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल': १-४४ से 'श्रा' की 'ई'; १-१६५ से 'ट' का 'उ', और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर खल्लाडो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ संस्थागम्संस्कृत शठद है । इसका प्राकृत रूप संस्खाय होता है । इसमें सूत्र-संख्या-४-१५ से 'स्त्या' के स्थान पर 'खा' का आदेश; २-७८ से 'न्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Meaniwand * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * imal. प्रथमा के एक वचन में नमक निंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर सखायं रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ ४ ॥ उः साम्ना-स्तावके ॥ १-७५ ॥ अनयोरादेरात उत्वं भवति ।। सुबहा । युवओ || अर्थः-सारना और स्तावक शटलों में प्रादि 'श्रा' का 'उ' होता है। जैसे-मास्ना - सुरहा। स्तावकः = थुवयो। सास्नाः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सुण्डा होता है । इसमें सूत्र-संख्या२-७५ से 'स्ना' का रहा, १-७५ से आदि आ का ; सिद्ध हेन व्याकरण के २-४-१८ से स्त्रीलिंग श्राकारान्त शडझें में प्रथमा के एक बचन में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुण्हा रूप सिद्ध हो जाता है। स्तावकः संस्कृल विशेषण है। इसका प्राकृत रूप थुप्रो होता । इसमें सूत्र-संख्या-२-४५ से 'स्त' का 'थ'; १-४५. से अदि 'स्पा' का 'उ'; १-१७७ मे 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुलिं तग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर शुवो रूप सिद्ध हो जाता है । ।। ७५॥ ऊद्रासारे ॥ १-७६ ।। श्रासार शब्दे आदेरात ऊद्वा भवति । ऊसारो । आसारो ॥ अर्थ:-प्रासार शब्द में आदि 'श्रा' का विकला से होता है। जैसे-आसार:- ऊसारी और आसारो॥ ___ आसारः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप ऊपारो और श्रासारो होते है। इनमें सूत्र संख्या १.७६ से आदि 'आ' का विकल्प से 3 और १२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर कम से असारो और आसारी रूप सिद्ध हो जाते है । ७६ ॥ पायर्या यां यः श्वश्वाम् ॥१-७७ ॥ आर्या शन्दे श्वश्र्या वाच्यायां यस्यात ऊर्भवति ॥ अज्जू ॥ श्वरर्वामिति किम् । अजा ॥ ____ अर्थ:-श्रार्या शब्द का अर्थ जब 'सासु' होवे तो आर्या के 'या' के 'श्रा' का 'ऊ' होता है। जैसे-श्रार्या = अजू-(सासु)। श्वन-याने सासु ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर-जब भार्या का अर्थ सामु नहीं होगा; तब 'या' के 'श्रा' का 'ऊ' नहीं होंगा । जैसे-आर्या-अज्जा ।। (सावी)। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] * प्राकृत व्याकरण * आर्या-संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अज्जू होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४७ से 'या' के 'श्रा का 'ऊ'; २-२४ से 'य' का 'ज'; २-८६ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'अ'; १-८४ से आदि 'या' का 'अ'; ३-१६ से स्त्रीलिंग में प्रथमा के एक वचन में 'सि' प्रश्य के स्थान पर अन्त्य स्वर की दीर्घता-होकर अर्थात् 'ऊ' का 'ऊ' ही रहकर अज्जू रूप सिद्ध हो जाता है। आर्या संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अज्जा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२४ से 'य' का 'ज'; २-४ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; १-८४ से आदि 'श्रा' का 'अ'; सिद्ध हेम व्याकरण के २-४-१८ के अनुसार स्त्रीलिंग में प्रथमा के एक यचन में प्राकारान्त शठन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अज्जा रूप सिद्ध हो जाता है ।। ७७ ।। एद् ग्राह्ये ॥ १-७८ ॥ प्राय शन्दे श्रादेरात् एद् भवति ।। गेज्म । अर्थ:-प्राह्य शब्द में श्रादि 'श्रा' का 'ए' होता है । जैसे-ग्राह्यम् = गेज्मं । ग्राह्यम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप गेऽमं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; १-७८ से आदि 'या' का 'ए';२-२६ से 'ह्य' का 'झ'; २-८८ से प्राप्त 'झ' का द्वित्व 'झम'; २.६० से प्राप्त पूर्व ' का 'ज' ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का. अनुस्वार होकर गेज्ॉ रूप सिद्ध हो जाता है । ७८ !! द्वारे वा ॥ १-७६.॥ द्वार शब्दे श्रात एद् बा भवति ।। देरे । पक्षे । दुआरं दारं वारं ॥ कर्थ नेरइश्रो नारइयो । नैरयिक नारयिक शब्दयो भविष्यति ॥ आर्षे अन्यत्रापि । पच्छेकम्म । असहेज्ज देवासुरी ॥ ___ अर्थ-द्वार शब्द में 'श्रा' का 'ए विकल्प से होता है। जैसे-द्वारम् =धेरै । पक्ष में-दुश्रारं दारं और वारं जानना । नेरहो और नारइयो कैसे बने हैं ? जसर 'नैयिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से नेरइओ बनता है और 'नायिक' ऐसे मूल संस्कृत शब्द से 'नारहो' बनता है। आर्ष प्राकृत में अन्य शब्दों में भी 'आ' का 'ए' देखा जाता है । जैसे—पश्चात कर्म = पच्छे कम्मं । यहां पर 'पा' के 'श्रा' का 'ए' हुआ है। इसी प्रकार से असहाय्य देवासुरी=असहेज देवासुरी। यहां पर 'हा' के 'श्रा' का 'ए' देखा जाता है। धारम:-संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप देरं, तुभारं, दारं और बारं होते हैं । इन में सूत्र-संख्या-१-१४४ से ' का लोप; १-७E से 'श्रा' का 'ए'; ३.२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१०१ हे रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में-२-११२ से विकल्प से 'दू' 'उ' का 'आगम'; १-१७७ से 'व्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुआर सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप में-१-१७७ से 'व्' का लोप; ३- २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति, और १-२३ से करार होकर वारं सिद्ध हो जाता है। चतुर्थ रूप में-२-७७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'धार' सिद्ध हो जाता है । नैरयिकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रुप नेरइओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ 'ऐ' का 'ए' ९-१७७ से 'य्' और 'क' का लोप; ३ - २५ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय होकर मेरइओ रूप सिद्ध हो जाता है । नार्किकः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप नारद्द होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'क' का लोपः ३–२५ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'खो' प्रत्यय होकर नारी रूप सिद्ध हो जाता है । पश्चात कर्म संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पच्छे कम्मं होता है। । इसमें सूत्र संख्या २-२१ से '' का 'छ' २-८६ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छल'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च्' १-७६ की वृत्ति से 'आ' का 'ए' ९-११ से 'तू' का लोप; २-७६ से 'र्' का लोप २-८६ से 'म' का द्वित्व 'न्म' ३–२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पच्छे कम्मं रूप सिद्ध हो जाता है । असहाय्य संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप श्रसहेज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या - १७६ की वृति से 'आ' का 'ए' २-२४ से 'य' का 'ज' से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज्ज'; यों असहेज्ज रूप सिद्ध हो जाता है। देवासुरी का संस्कृत और प्राकृत रूप सामान ही होता है ॥ ७६ ॥ पारापते रो वा ॥ १-८० ॥ पारापत शब्दे रस्थस्यात एद् वा भवति || पारेव पाराव || अर्थ:-पारापत शब्द में 'ए' में रहे हुए 'आ' का विकल्प से 'ए' होता है। जैसे- पारापतः = पारेऔर पाव | पारापतः संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप पारेवओ और पाराव होते हैं । इनमें सूत्र संख्या- ९-८० से 'रा' के 'आ' को विकल्प से 'ए' १-२३१ से 'प' का 'च'; १-१७७ से 'तू' का Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] * प्राकृत व्याकरण लोप; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से पारेषओ और पारापी रूप सिद्ध हो जाते है।। ८०॥ मात्रटि वा ॥ १-८१ ॥ मात्रट्यत्यये आत एद् वा भवति ।। एनिमेचं । एसिश्रम ॥ बहुलाधिकारात् कचिन्मात्रशब्द पि । भोश्रण मेत्तं ।। अर्थ:-मात्रट् प्रत्यय के 'मा' में रहे हुए 'श्रा' का विकल्प से 'ए' होता है । जैसे-तावन-मात्र एत्तिअमेत्त और एत्तिश्रमत्त । बहुलाधिकार से कभी कभी 'मात्र' शब्द में भी 'श्रा' का 'ए' देखा जाता है । जैसे-भोजन-मात्रम् भीषण-मत्त ॥ एताथम्-मात्रम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप एत्तिसमेत्त और पत्तिश्रमत्त होते हैं । इनमें सूत्र संख्या-२-१५७ में एतावन् के स्थान पर 'एस्तित्र' श्रादेश; २-७ से 'र' का लोप, २-८८ से शेष 'त' का द्वित्व 'त'; १-८१ से 'मा' में रहे हुए 'श्रा' का विकल्प से 'प'; द्वितीय रूप में-१-८४ से 'मा' के 'श्रा' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एतिअमेस और एसिसम दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। भोजन-मात्रम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप भोश्रण मेत्त होता है । इसमें सूत्र संख्या१-९४७ से ज्' का लोपः १.२२८ से 'न' का 'रण'; १-८१ की वृत्ति से 'श्रा' का 'ए'; २-० से 'र' का लोप; २-८ से शेष 'त' का द्वित्व 'त'; और ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भोअण-असं रूप सिद्ध हो जाता है ।।१।। उदोहा॥१-८२ ।। आर्द्र शब्दे आदेरात उद् ओष वा भवतः ॥ उल्लं । श्रोन ।। पहे। अन । अद्द ।। पाइ-सलिल-पवहेश उल्लेइ ।। अर्थ:-श्रा शब्द में रहे हुए 'श्रा' का 'उ' और 'श्रो विकल्प से होते हैं । जैसे-आई म् = उल्लं श्रोल्लं. पक्ष में अल्लं और अ६ ॥ याष्प-सलिल प्रवाहेण प्रायति = माह-सलिल-पवहेण उल्लेइ । अर्थात् अश्रुरुप जल के प्रवाह से गीला करता है। आम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रुप उल्ल, श्रोल्लं, अल्लं और श्रद्द होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १८२ से आदि 'श्रा' का विकल्पसे 'उ' और ओ; २-७६ से उर्ध्व 'र' का लोपः २-४७ से 'द्' का लोप; १-२५४ से शेष 'र' का 'ल'; २-८८ से प्राप्त 'ल' का द्वित्ल 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से उल्लं और ओलं रूप सिद्ध हो जाते है। तृतीय रूप में १-६४ से 'श्रा' का ''; और शेष साधनिका ऊपर के समान ही जानना । यो अल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। ___आईमः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप श्रद्द होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'श्रा' का 'अ'; २-४६ से दोनों 'र' का लोप; २-८६ शेष 'द' का द्वित्व , ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' अनुस्वार होकर रूप सिद्ध हो जाता है। बाष्पः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'बाह' होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-७० से 'घ्प' का 'ह' होकर बाह रूप सिद्ध हो जाता है। सलिला संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सलिल ही होता है। प्रवाहन संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पवहेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७ से 'र' का लोक; ३८ से 'श्री' का ' अ ६ से तृतीचा विमसि के पुल्लिग में एक वचन के प्रत्यय 'टा' के स्थान पर 'रण' प्रत्यय की प्राप्ति; और ३-१४ से 'ण' प्रत्यय के पूर्व में रहे हुए 'ह' के 'म' का 'ए' होकर पक्षहण रूप सिद्ध हो जाता है। ___ आर्षयतिः संस्कृत अकर्मक क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप ‘उल्लेइ' होता है । इसमें सत्र-संख्या१-८२ से 'या' का 'उ'; २-७७ से 'द्' का लोप, १-२५४ से 'र' का 'ल'; २-१ से प्राप्त 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; १-१४७ से 'यू' का लोप; ३-१५८ से शेष विकरण 'अ' का 'ए; ३.१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर उल्लेह रूप सिद्ध हो जाता है ।।२।। ओदाल्यां पंक्तौ ॥१-८३ ॥ आली शब्दे पङक्ति वाचिनि आत प्रोत्वं भवति ।। ओलो ॥ पङ क्तावितिकिम् । आली सखी ॥ अर्थ:-भाली' शब्द का अर्थ जब पंक्ति हो; तो उस समय में पाली के 'आ' का 'ओ' होता है। जैसे पाली-(पंक्ति-अर्थ में-) ओली । 'पवित' ऐमा उल्लेख क्यों किया ? उत्तर-जब 'माली' शब्द का अर्थ पंक्तिवाचक नहीं होकर 'सखी' वाचक होता है तब उसमें 'ओ' का 'श्री' नहीं होता है। जैसे-श्राली (सखी अर्थ में) पाली ॥ आली संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'ओखी' होता है । इसमें सूत्र-संख्या-१-५३ से 'या' का 'ओ' होकर आली रूप सिद्ध हो जाता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकत व्याकरण * आली संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप आली ही होता है। हृस्वः संयोगे ॥ १-८४॥ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे पर हस्वो भवति ।। श्रात् । श्राम्रम् । अम्बं ।। ताम्रम् । तम्बं । विरहाग्निः । विरहग्गी ॥ पास्यम् । अस्स ।। ईद । मुनीन्द्रः । मुणिन्दो || तीर्थम् । तित्थं ॥ ऊन् । गुरुवापाः गुरुलावा || चूर्णः। चुण्णो ॥ एत् । नरेन्द्रः । नरिन्दों ॥ म्लेच्छः। मिलिच्छो । दिद्विक्क- थण-पई ।। ओत् अधरोष्ठः । अहरु। नीलोलालम् । नीलुप्पल ॥ संयोग इतिकिम् : प्रायास । ईससे । ऊसवो ॥ ___ अर्थ:--दीर्घ स्वर के आगे यदि संयुक्त अक्षर हो तो; उस दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर हो जाया करता है। 'ओ' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों का उदाहरण; जिनमें कि 'आ' का 'अ' हुना है। उदाहरण इस प्रकार है:- श्रानम् = अम्बं ।। साम्रम् = सम्यं ॥ विरहाग्निः = विरहगी । प्रास्यम्-अस्सं । इत्यादि ।। ईस्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ई' की 'इ हुई है । जैसे कि मुनीन्द्रः = मुणिन्दो ।। तीर्थम् = तित्यं ॥ इत्यादि ॥ 'ऊ' स्वर क आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'क' का 'ज' हुआ है। जैसे कि-गुरुल्लापाःगुरुल्लावा ॥ चूर्णः चुरो । इत्यादि । 'ए' स्वरके आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'ए' का 'इ' हुआ है। जसे कि नरेन्द्रः- नरिन्दो ।। म्लेच्छः = मिलिच्छो । रष्टैक स्तन वृत्तम् दिढिक्का-थण-वट्ट ॥ 'श्री' स्वर के आगे संयुक्त अक्षर वाले शब्दों के उदाहरण; जिनमें कि 'श्री' का 'उ' हुआ है। जैसे कि-अधरोष्ठः- श्रहरु? । नीलोत्पलम् नीलुप्पल !! संयोग अर्थात् 'संयुक्त अझर' ऐसा क्यों कहा गया है ? उतर:-यदि दीर्घ स्वर के आगे संयुक्त अक्षर नहीं होगा तो उस दीर्घ स्वर का हस्व स्वर नहीं होगा । जैसे-श्राकाशम् = पाया । ईश्वर ईसरो। और उत्सवः ऊसवो । वृशि में यथा दर्शनं शब्द लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि यदि शब्दों में दीर्घ का ह्रस्व किया हुआ देखा जाये तो शस्त्र कर देना; और यदि दीर्घ का हस्व नहीं किया हुआ देखा जाये तो सस्त्र नहीं करना; जैसे-ईश्वरः = ईसरो; और उत्सवः = ऊसवो। इनमें 'ई' और 'ॐ' दीर्घ है, किन्तु इन्हें हस्व नहीं किया गया है। आमम्:-संस्कृत शब्द है ।इसका प्राकृत रूप अम्धं होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-८४ से 'श्रा' का 'श्र'; २-५६ से 'न' का 'म्ब'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त " का अनुस्वार होकर अम्ब रूप सिद्ध हो जाता है। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિઓંન મનાલાલ રાધા * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१०५ सायमः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तम्ब होता है । इसमें सूत्र-पंख्या-१-८४ से 'ता' के 'आ' का 'अ'; २-५६ से 'न' का 'ब'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति: १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुसार होकर तम्बं रूप मिद्ध हो जाता है। विरहाग्निः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विरहगी होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'श्रा' का 'श्र; २-७८ से 'न' का लोप; २-८८ से 'ग' का द्वित्व 'ग' और ३-१६ से प्रथमा के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व स्वर दीघ होकर विरहग्गी रूप सिद्ध हो जाता है। आस्थमा संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप असं होता है। इसमें सूत्र-पंख्या-१-८४ से 'पा' का 'अ'; २-४८ से 'य' का लोप; २-८८ से 'स' का द्वित्व 'स्म'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यष्टको भान पर पानी माशि और १२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर अस्सं रूप सिद्ध हो जाता है। मुनीन्द्रः-संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मणिन्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से ६ की 'इ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-७ से '' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुणिन्दो रुप सिद्ध हो जाता है। तीर्थम्: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तित्थं होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-८४ से 'ई की ''; २-E से 'र' का लोप; २८ से 'थ' का द्वित्व 'थ्य'; २-४ से प्राप्त 'थ्' का 'न, ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नित्यं रूप सिद्ध हो जाता है। गुरुल्ला: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप गुहल्जावा होता है। इसमें सूत्र-मख्या-१८४ से 'क' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिग में 'जस' प्रत्यय का लोप; ३-१२ से लुप्त 'जस्' के पूर्व में रहे हुए 'अ' का 'आ' होकर गुरुल्लापा रूप सिद्ध हो जाता है । वर्ण:-संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप चुण्णो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'अ' का 'उ': RAE से 'र' का लोप; २-८ से 'ण' का 'एण'; ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर चुण्णो रूप सिद्ध हो जाता है। नरेन्दः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप नरिन्दो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ से 'ए' की 'इ':२-७ से 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मारन्नो रूप सिद्ध हो जाता है। मलेच्छः-संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मिलिन्छो होता है। इस में सूत्र-मंख्या-२१-६० से 'ल' के पूर्व में याने 'म्' में 'इ' की प्राप्ति; १-८४ से 'ए' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N i * प्राकृत व्याकरण । act -.. . - - . -. - -.- ---in- Hind में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिलिच्छो रूप सिद्ध हो जाता है। दृष्टैक ( दृष्ट + एक ) संस्कृत शब्द है । इमका प्राकृत रूप दिद्विक होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' फी 'इ'; २-३४ से 'ट' का 'ठ'; २-1 से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'इ'; २-० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट': १-८४ से 'ए' की 'इ'; 8-4 से 'क' का द्वित्व 'क'; १-१० से 'ठ' में रहे हुन 'अ' का लोप; और 'लू' में 'इ' की संधि होकर दिद्विरक रूप सिद्ध हो जाता है। __ स्तन संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप थण होता है । उसमें सूत्र संख्या-६-४५ से 'स्त' का 'थ'; और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर 'थर्ण रूप सिद्ध हो जाता है। ::. वृतम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप वट्ट होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-२६ से 'त्त' का 'ट'; २-८८ से शेष 'ट' का द्वित्व 'दृ'; ३.२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पट्ट रूप सिद्ध हो जाता है। अपरोष्ठः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अहरुटुं होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-१८७ से 'ध' का 'ह'; १-८४ से 'ओ' का 'उ'; २-३४ 'ष्ठ' का 'ठ'; २८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ', २-६० से प्राप्त पूर्व 'ब' का 'द'; ३-२५ से प्रथमा के एफ वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति: १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'अहरुद रूपसिद्ध हो जाता है । नीलोत्पलम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप नीलुप्पल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'श्रो' का '5'; २७ सेतू' का लोप; २-८८ से 'प' का द्वित्व 'प्प'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मीलप्पलं रूप सिद्ध हो जाता है। आकाशम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भायास होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-१७५ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'आयास' रूप सिद्ध हो जाता है। ईश्वरः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप ईसरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या-१-१४७ से व' का लोपः १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ईसरो रूप सिद्ध हो जाता है। उत्सवः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप ऊसवो होता है । इसमें सूत्र-संख्या-१-११४ से 'उ' का 'क'; २-७७ से 'तू' कालोप, और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'ऊसवो' रूप सिद्ध होता है ।। ८४ ॥ i -- - ---- - - - - - - -- - - - - .. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१०७ _ इत एहा ॥ १.८५ ॥ . संयोग इति वर्तते । श्रादेरिकारस्थ संयोगे परे एकारो वा भवति ।। पण्डं पिण्डं । धम्मेलं बम्मिल्लं । सेन्रं सिन्दूरं । बेल्हू विणहू । पेढे पिट्ठ। वेन्त बिन्ल ॥ करित्र भवति । चिन्ता । अर्थ:-'संयोग' श्रठद ऊपर के १-८४ सूत्रसे ग्रहण कर लिया जाना चाहिये । संयोग का तात्पर्य 'संयुक्त अक्षर' से है । शब्द में रही हुई आदि हस्व 'इ' के श्रागे यदि संयुक्त अक्षर आजाय; तो उस आदि 'इ' का 'ए' विकल्प से हुआ करता है। जैसे-पिण्डम् = पेण्ड' और पिण्ड । धम्मिल्लम् = धम्मेल्लं और धम्मिल्लं । सिन्दूरम् =सेन्दूर और सिन्दूरं ॥ विष्णुः वेण्हू और विण्हू ।। पिष्टम् - पेटुं और पिट्ठ॥ विल्यम्-वेल्न और बिल्लं । कहीं कहीं पर इस्व 'इ' के आगे संयुक्त अक्षर होने पर भी उस हस्य 'इ' का 'ए' नहीं होता है । जैसे-चिन्ता चिन्ता ।। यहाँ पर 'इ' का 'ए' नहीं हुआ है। पिण्डम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पेण्ड और पिण्ड होते है । इन में सूत्र-संख्या५-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एव वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रमसे पेण्डं और पिण्डं रूप सिद्ध हो जाते है। धम्मिल्लम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप धम्मेल्लं और धम्मिल्ल होते है। इन में सूत्रसंख्य-१-८५ से' का विकल्प से 'ए'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; १-२३ से प्राप्त म्' का अमुस्वार होकर कम से धमेल और धम्भिल्लम रूप सिद्ध हो जाते हैं। सिन्दूरभ संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप सेन्दूरं और सिन्दूर होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए" ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कमसे सेनूर और सिन्दूरं रूप सिद्ध हो जाते हैं। विष्णुः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप वेण्हू और विण्हू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८५ से 'ज्ञ' का विकल्प से 'ए',२-७५ से 'ण' का 'एह'; और ३.१६ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का वीर्घ स्वर याने ह्रस्वज'का 'दीर्घ ' होकर क्रम से वेण्डू और पिण्डू रूप सिद्ध हो जाते हैं। पिष्टन संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पेटुं और पिर्ट्स होते हैं इनमें सूत्र संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से '५'; २-३४ से 'ष्ट' का '४% २८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] 'दू', ३- २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'में' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेट और पिट्ठ रूप सिद्ध हो जाते हैं । * प्राकृत व्याकरण * बिल्वम् संस्कृत शब्द है | इसके प्राकृत रूप बेल्लं और बिल्लं होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या-१-८५ से 'इ' का विकल्प से 'ए' १-१७७ से 'व' का लोप २६ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३–२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से बेल्लं और बिल्लं रूप सिद्ध हो जाते हैं। चिन्ता संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप मी चिन्ता ही होता है ॥ ८५ ॥ किंशुके वा ॥ १ ८६ ॥ किंशुक शब्दे आदेरित एकारो वा भवति ॥ केयं किंसु ॥ अर्थ:- किंशुक शब्द में आदि 'इ' का विकल्प से '' होता है। जैसेकिंसुनं ॥ केयं और किसुयं की सिद्धि सूत्र संख्या १ - २६ में की गई है । मिरायाम् ।। १-८७ ॥ मिरा शब्दे इत एकारो भवति || मेरा || अर्थ:- मिरा शब्द में रही हुई 'इ' का 'ए' होता है । जैसे मिरा = मेरा ॥ P 1 केतु और मिरा देशज शब्द है । इसका प्राकृत रूप मेरा होता है। इसमें सूत्र संख्या १२७ से 'इ' का 'ए' होकर मेरा रूप सिद्ध हो जाता है । पथि - पृथिवी - प्रति न्मूषिक- हरिद्रा - विभीतकेष्वत् ॥ १-८८ ॥ एषु श्रादेरितोकारो भवति ॥ पहो । पुहई । पृढवी | पडँसुआ । मूसओ । हलद्दी । हलदा | बहेडओ || पन्थं किर देसित्तेति तु पथि शब्द समानार्थस्य पन्थ शब्दस्य भविष्यति । हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये । इलिद्दी इलिदा ॥ अर्थ :--- पथि - पृथिवी -प्रतिश्रुत मूषिक-हरिद्रा, और विभीतक इन शब्दों में रही हुई 'आदि' का 'अ' होता है । जैसे--पथिन् ( पन्था ) = पहो; पृथिवी - पुहई और पुढवी । प्रतिश्रुत् = पढौंसुआ ।। मूषिकः = मूसश्रो ॥ हरिद्रा - हलही और हला || बिभीतकः = बहे || पन्थ शब्द का जो उल्लेख किया गया है; वह पनि शब्द का नहीं बना हुआ है। किन्तु 'मार्ग - वाचक' और यही अर्थ रखने वाले 'पन्थ' शब्द से बना हुआ है। ऐसा जानना । कोई २ आचार्य 'हरिद्रा' शब्द में रही हुई 'इ' का 'अ' विकल्प रूप से मानते हैं । जैसे- हरिद्रा हलिदी और हलदा ये दो रूप उपरोक्त हलिड़ी और हलद्दा से . Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१०६ अधिक जानना । इन चारों रूपों में से दो रूपों में तो 'इ' है और दो रूपों में 'अ' है । यो वैकल्पिकव्यवस्था जानना। पन्या संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पहा होता है। इस मूल शरद पथिन है । इसमें सूत्र संख्या-६-८८ से 'इ' का 'अ'; १-६८७ से 'थ' का 'ह'; १-११ से 'न्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक बधन में पुल्लिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' होकर पहो' रूप सिद्ध हो जाता है। पूथिवी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पुरई होता है । इसमें सूत्र संख्या--१-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-८८ से आवि 'ई'फा 'अ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; १-१७ से 'व्' को लोप; और ३-६६ से प्रथमो के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ याने 'ई' का 'ई' होकर पहई रूप सिद्ध होता है। पृथिवी संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप पुढवी होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२१६ से 'थ' का 'ढ'; १-८८ से श्रादि 'इ' का 'अ'; और ३-१६ से प्रथमा के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर का दीर्घ-याने 'ई' का 'ई' ही रह कर पुढी रुप सिद्ध हो जाता है। पहुंमुभा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है। मूषिकः संस्कृत शठच है । इसका प्राकृत रूप मूसलो होता है। इसमें सूत्र-संख्था-१-८८ से 'इ' का 'अ'; १-२६० से 'घ' का 'स';१-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मूसी रूप सिद्ध हो जाता है। हारमा संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप हुलही और हलहा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-५-५८ से 'इ' का 'अ'; १-२५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल' २.७६ से 'र' का श्लोपः २-८ से 'द' का द्वित्व 'इ' ३-३४ से 'आ' की विकल्प से 'ह'; और ३-२८ से प्रथमा के एक धचन में स्त्री लिंग में हलही रुप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में हे०२-४-१८ से प्रथमा के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रा' होकर हलहा रूप सिद्ध हो जाता है। बिमीतकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप बहेडश्री होता है । इसमें सूत्र-संख्या-५-८८ से आदि 'इ' का 'अ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१०५ से 'ई' का 'ए'; १-२०६ से १' का 'ह'; १-१४७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर बहेडमो रुप सिद्ध हो जाता है। हरिद्रा संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप हलिदी और हलिदा होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या५-२५४ से भसंयुक्त 'र' का 'ल'; २-७८ से द्र के 'र' का लोप; २-८८ से 'द' का द्वित्व 'द'; और ३-३४ से 'श्रा' की विकल्प से 'ए' और ३-२८ से प्रथमा के एक बचन में स्त्रीलिंग में हलही रूप सिद्ध हो जाता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * है। द्वितीय रूप में हे०२-४-६८ से प्रथमा के एक बचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मा होकर हलहा रुप सिद्ध हो जाता है। शिथिलेगुदे वा ॥ १-८६ ॥ .. अनगोरादेरितोद् वा भवति । सहिल | पसढिल । सिढिल' । पसिविल ॥ अङ्ग अं इङ्ग अ॥ निर्मित शब्दे तु वा आत्वं न विधेयम् । निर्मात निर्मित शब्दाभ्यामेव सिद्धः।। अर्थ:-शिथिल और इंगुव शठनों में आदि 'इ' का विकल्प से 'श्र' होता है। जैसे-शिथिलम् - सदिल और सिढिलं । प्रशिथिलम् = पसढिलं और पमिटिलं । इंगुदम् = अंगुझं और इंगुअं । निर्मित शन में तो विकल्प रूप से 'इ' का 'आ' करने की आवश्यकता नहीं है । निर्मात संस्कृत शठद से निम्माश्रो होगा; और निर्मित शब्द से निम्मिश्रो होगा । अतः इनमें 'श्रादि 'इ" का 'अ" ऐसे सूत्र की मावश्यकता नहीं है। शिथिलमं संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप सदिलं और सिढिलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-८६ से श्रादि 'ई' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ" का 'ढ'; ३-२५ मे प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सडिर्स और सितिलं रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रशिथिलम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पसढिलं और पसिदिलं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या-२-७६ से 'र' का लोप; १-८४ से आदि 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पसहिले और पसिहिलं रूप सिद्ध हो जाते है। इंगुदम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप अंगुनं और इंगुरं होते हैं । इनमें सूत्र संख्न्यो-१-१ से 'इ' का विकल्प से 'अ'; १-१४७ से 'द्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्वय की प्राप्तिः, और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से अंगु और इंगुभं रूप सिद्ध हो जाता है। तित्तिरोरः॥ १.६० ॥ तिचिरिशब्दे रस्येतोद् भवति ॥ तित्तिरी ।। अर्थ:-तित्तिरि शङद में 'र' में रही हुई 'इ' का 'अ' होता है। जैसे-तित्तिरिः तितिरो॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१११ तित्तिरिः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तित्तिरो होता है। इसमें सूत्र संख्या - १ ६० से 'रि' में ही हुई '' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर तित्ति रूप मिद्ध से जाता है। इतौ तो वाक्यादौ ॥ १-६१॥ वाक्यादिभूते इति शब्दे यस्तस्तत्संबन्धिन इकारस्य अकारो भवति । इअ जम्पि stand | विमसि - कुसुम || वाक्यादाविति किम् । प्रियति । पुरिसो चि ॥ अर्थः- यदि वाक्य के आदि में 'इति' शब्द हो तो; 'ति' में रही हुई 'इ' का 'अ' होता है। जैसे इति कथितावासाने विसाये । इति विकसित - कुसुम राइ विश्रमिश्र-कुसुम-मरी ॥ मूल सूत्र में 'वाक्य के आदि में ऐसा क्यों लिखा गया है ? उत्तर- यदि यह 'इति' श्रव्यय वाक्य की आदि में नहीं होकर वाक्य में अन्य स्थान पर हो तो उन अवस्था में 'ति' की 'इ' का 'अ' नहीं होता है। जैसे- प्रियः इति = पिश्रोति । पुरुषः इति = पुरियोति ॥ 'इ' की सिद्धि सूत्र - संख्या-१-४२ में की गई है। feature संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप जम्पिश्रवसा होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२ से 'फ' धातु के स्थान पर 'जम्म' का आदेश १-१७७ से 'तू' का लोप; १०२२८ से 'न' का 'ए' ३-११ सप्तमी विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्पिआपसा रूप सिद्ध हो जाता है। विकसित-कुसुम शरः संस्कृत शहर है। इनको प्राकृत रूप विश्रमिश्र-कुसुम-सरो होते हैं। इसमें सूत्र संख्या-१-१७७ 'विकसित' के 'क' और 'तू' का लोपः १-२६० से 'श' का 'म'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' होकर विभासेस-कुसुम-सरो रूप सिद्ध हो जाता है। पयोति और पुरिसोत्ति की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। ईर्जा-सिंह- त्रिंशद्विशतो त्या ॥ १-६२ ॥ जिह्वादिषु इकारस्य निशब्देन सह ईर्भवति ॥ जीहा। सीहो । तीसा । बीसा 1) चहुलाधिकारात् कचिन्न भवति । सिंह-दसो सिंह-राओ । = अर्थ:-- जिल्हा सिंह और त्रिंशत् शब्द में रही हुई 'इ' की 'ई' होती है। तथा विंशति शब्द में 'ति' के साथ याने 'ति' का लोप होकर के 'इ' की 'ई' होती है। जैसे- जिला जीहा । सिंह सीहो । त्रिंशस्तीसा । विंशतिः बीमा । बहुलाधिकार से कहीं कहीं पर सिंह' आदि शब्दों में 'इ' की 'ई' नहीं भी होती है। जैसे- सिंह इत्तः = सिंह इत्तो । सिंह- राज: सिंह राम्रो ।। इत्यादि ॥ 1 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ ] * प्राकृत व्याकरण * जिब्रूवा संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप जीहा होता है। इसमें सूत्र संख्या- १-६२ से 'इ' की 'ई'; १-१७७ से 'व्' का लोप; हे० २-४-१८ से स्त्रीलिंग आकारान्त में प्रथमा के एक वचन में 'सि' के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जीद्दा रूप सिद्ध हो जाता है । प्रत्यय सीहो शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १ २६ में की गई है। तीसा और वीसा शब्दों को सिद्धि सूत्र संख्या - १-२८ में गई है । सिंह-वृत्तः संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप सिंह दत्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय आकर सिंह-रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। सिंह -राजः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिंह राम्रो होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-१७७ से 'ज' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय होकर सिंह राओ रूप सिद्ध हो जाता है। ।। ६२॥ लुकि निरः ॥ १-६३ ॥ I निर् उपसर्गस्य रेफलोपे सति हत ईकारो भवति ॥ नीखरइ | नीसासो || लुकीति किम् । निष्य | निरसहा हूँ अङ्गाई ॥ I अर्थ: जिस शब्द में 'निर्' उपसर्ग हो; और ऐसे 'निर' के 'र' का याने रेफ' का लोप होने पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' हो जाती है । जैसे- निर्सरति = नीसरह । निश्र्वास = नीमासो || 'लुक' ऐसा क्यों कहा गया है। उत्तर जिन शब्दों में इस सूत्र का उपयोग नहीं किया जायगा; वहाँ पर 'नि' में रही हुई 'इ' की दीर्घ 'ई' नहीं होकर 'नि' के परवर्ती व्यजन का अन्य सूत्रानुसार द्वित्व हो जायगा | जैसे-निर्णय: निरपत्र । निर्संहानि अङ्गानि निस्सहाऍं अनाहं । इन उदाहरणों में व्यञ्जन का हो गया है। = - निर्संराप्तिं संस्कृत क्रिया है । इसका प्राकृत रूप नीसरह होता है। इसमें सूत्र- संख्या - १-१३ से 'निर्' के 'र्' का लोप; १-६३ से आदि 'इ' की दीर्घ 'ई'; ३-१३६ से प्रथम पुरुष में वर्तमान काल में एक वचन 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' होकर नौसरह रूप सिद्ध हो जाता है । free: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप नीसासो होता है। इसमें सूत्र संख्या-१-१३ से 'नर' के 'र' का लोप; १६३ से 'इ' की दीर्घ 'ई' १-१७० से 'व' का लोप १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर teri रूप सिद्ध हो जाता है । * 1 1 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११३ निर्णयः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'निएणो' होता है। इसमें मूत्र-मंख्या-२-७६ मे 'र' का लोप; २-८८ से 'ए' का विस्त : १.७.के '' का लो, और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय लगकर निण्णी रुप सिद्ध हो जाता है। निर्सहान संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निस्सहाइँ होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'स' का द्वित्व 'रस'; ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहुवचन में नपुंसकलिंग में 'जस्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर 'निस्सहााँ रूप सिद्ध हो जाता है। अंगाणि संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रजाई होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२६ से प्रथमा और द्वितीया के बहु वचन में नपुंसक लिंग में 'जस्' और 'शम्' प्रत्ययों के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; और इसी सूत्र से प्रत्यय के पूर्व स्वर को दीर्घता होकर "अंगाई रूप सिद्ध हो जाता है। द्विन्योरुत् ॥ १-६४ ॥ द्विशब्दे नाचुपमर्गे च इत उत् भवति ॥ द्वि.। दुमत्तो । दुअआई । दुविहो । दुरेहो। दु-वयणं ॥ बहुलाधिकारात् कचित् विकल्पः ।। दु-उणो। बि.उणो । दुइयो । चिइओ ।। क्वचिन्न भवति । द्विजः । दियो । द्विरदः दिरो ॥ क्वचिद् प्रोत्वमपि । दो बयणं । नि । णुमज्जइ । गुमन्नो ।। क्वचिन्न भवति । निवडइ ॥ अर्थ:--'वि' शब्द में और नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है । जैसे-द्वि के उदाहरणद्विमानः-दुमत्तो । द्विजाति:- दुआई । विविधः दुविहो । विरेफ:-दुरेहो। द्विवचनम् =दु-वयणं ।। 'बहुलम्' के अधिकार से कहीं कहीं पर 'द्वि' शबर की 'ई' कर "उ' विकल्प से भी होता है। जैसे किद्विगुणः-दु-उणो और बि-उणो । वित्तीयः = दुश्श्री और बिइयो । कहीं कहीं पर 'दि शब्द में रही हुई 'इ' में किसी भी प्रकार का कोई रूपान्तर नहीं होता है, जैसे कि-द्विजः = दियो । द्विरतः= दिरो ।। कहीं कहीं पर 'वि' शब्द में रही हुई 'इ' का 'ओ' भी होता है। जैसे कि-शि-वचनम् = दो वयणं । नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'उ' होता है । इसके उदाहरण इस प्रकार हैं:-निमजति =णुमज्जइ । निमनः गुमन्नो । कहीं कहीं पर 'नि' उपसर्ग में रही हुई 'इ' का 'ज' नहीं होता है। जैसे-निपतति=निवडई ।। विमात्रः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप दुमत्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या-९-१४४ से 'व्' का लोप; १६४ से 'इ' का 'उ'; १-८४ से 'ओ' का 'अ'; २.७६ से 'र' का लोप; २८ से.'त' का द्वित्व 'स'; और ३-२ से प्रथया के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दुमतो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५] * प्राकृत व्याकरण ** **** द्विजाति: संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप दुआई होता है। इसमें सूत्र संख्या - १२७७ से 'व्' और 'ज्' एवं 'न्' का लोप १-६४ से 'इ' का 'उ ३-१६ से प्रथमा के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'ह' की दीर्घ 'ई' होकर हुआई रूप सिद्ध हो जाता है । fare संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुषि होता है। इसमें सूत्र संख्या - १-१७७ से 'चू' का लोप; १-६४ से आदि 'ह' का 'उ' १-१ से 'घ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्रो' प्रत्यय होकर दुविहो रूप सिद्ध हो जाता है। द्विरेफः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप दुरेही होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-१७७ से 'व्' का लोप; १-६४ से 'इ' का 'ख' १-२३६ से 'फ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर इरेही रूप सिद्ध हो जाता है । द्विवचनं संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप दुवयां होता है; इसमें सूत्र संख्या १-१-४७ से आदि 'व्' और 'च्' का लोप; १-६४ से 'इ' का 'उ'; १-१८० से 'च' के शेष 'अ' का 'य'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राि होकर दूषणं रूप सिद्ध हो जाता है। द्विगुणः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप दु-उगो और बिउ होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' का लोप; १-६४ से 'इ' का ''; १-१७७ से 'गु' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' प्रत्यय होकर दु-उणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से ‘दु' और 'ग्' का लोप; 'ब' का 'व' समान श्रुति से, और ३-२ से प्रथमा एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर दि-उणो रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीयः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप दुइयो और बियो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या१-१७७ से 'व्'; 'त'; और 'य्' का लोप १-६४ से आदि 'इ' का विकल्प से ''; १-१०१ से द्वितीय 'ई' की 'इ'; और ३-२ से प्रथमा के वचन से पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय का 'श्री' होकर तुइओ रूप सिद्ध हो जाता है । 'बिइओ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में करदी गई है। द्विजः संस्कृत शब्द है । इसको प्राकृत रूप विओो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' और 'जू' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय होकर 'दिओ' रूप सिद्ध हो जाता है । द्विरदः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'दिरयो' होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१७५ से 'ब' और द्वितीय 'दु' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'दिरओ' रूप सिद्ध हो जाता है । 1 ★ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११५ विनम, संस्कृत शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप दो बयां होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७० से 'यदि व्' और 'च्' का लोप; १-६४ की वृत्ति से 'इ' का 'श्री'; १५० से शेष 'अ' का 'य' १-२२६ से 'a' का 'ग' ३ २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की होकर 'दो-वयणं' रूप सिद्ध हो जाता है । इसे निमज्जति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप गुमज्जइ होता है। इसमें सूत्र संख्या वर्तमान-काल में प्रथम पुरुष के १-२२८ से 'न्' का 'ण'; १०६४ से आदि '३' का 'उ और ३- ३६ एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर गुमज्जइ रूप सिद्ध हो जाता है। निमग्नः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप मन्नो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से नू' का 'ण्'; १-६४ से 'इ' का 'उ'; २७७ से 'ग' का लोपः २८६ से 'न' का द्वित्वन्न' और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मन्नो रूप सिद्ध हो जाता है। faraft संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप निवडइ होता है। इसमें सूत्र संख्या१–२३१ से 'प' का 'ब' ४-२१६ से पत् धातु के 'त' का 'ड', और ३- १३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय होकर निवडइ रूप सिद्ध हो जाता है। प्रवासीतौ ॥ १-६५ ॥ नोरादेरित उत्वं भवति । पावासुश्र । उच्छू अर्थः- प्रवासी और इनु शब्दों में आदि 'इ' का 'उ' होता है। जैसे-प्रवासिकः = पायासुयो । इक्षुः = उच्छू ॥ प्रवासिक : संस्कृत विशेषण शब्द हैं। इसका प्राकृत रूप पावा होता है। इसमें सूत्र संख्या२-७६ से 'र् का लोप १-४४ से 'प' के 'अ' का 'आ'; १-६५ से 'इ' का 'उ'; ७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय होकर पावासुओ रूप सिद्ध हो जाता है। इक्षुः संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप लू होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६५ से ६' का 'उ' २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; २८६ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ' २०६० से प्राप्त पूर्व 'छ का 'च'; और ३-१६ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उच्छू रूप सिद्ध हो जाता है । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * युधिष्ठिरे वा ॥ १.६६ ॥ युधिष्ठिर शब्दे आदेरित उत्वं वा भवति ।। जहुट्ठिलो । जहिडिलो ॥ : अर्थः-युधिष्ठिर शङद में आदि 'इ' का विकल्प से 'उ' होता है । जैसे-युधिष्ठिरः जटिलो और जहिटिलो ॥ युधिष्ठिरः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप जहुटिलो और जहिट्ठिलो होते है ! इममें सूत्रसंख्या -५-२४५ से 'य' का 'ज'; १-१२७ से 'उ' का 'अ'; 1-1८७ से 'ध्' का 'ह'; १-६६ से श्रादि 'इ' का विकल्प से 'उ'; २-४७ से 'व्' का लोप; २-८६ से 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'लू' का 'द'; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से जटिलो और जहिठिलो रूप सिद्ध हो जाते हैं। श्रोच्च द्विधाकृगः ॥ १-१७॥ द्विधा शब्दे कुग धातोः प्रयोगे इत प्रोत्वं चकारादुत्वं च भवति ॥ दोहा-किग्जइ । दुहाकिज्जइ दोहा-इयं । दुहा- ॥ कृग इति किम् । दिहा-गयं ।। क्वचित् केवलस्यापि ।। दुहा वि सो सुर-बहू-सत्थो॥ अर्थः-द्विधा शब्द के साथ में यदि कृग् धातु का प्रयोग किया हुअा होतो द्विधा' में रही हुई 'ह का 'ओ' और 'उ' क्रम से होता है । जैसे-द्विधा क्रियते =दोहा-फिज्जइ और दुहा-किज्जह ॥ द्विधाकृतम् = दोहा-इशं और दुहा-इश्र । 'कग ऐसा उल्लेख क्यों किया ? सर-यदि द्विधा के साथ में 'कृ' नहीं होगा तो इ' का 'ओ' और 'उ' नहीं होगा । जैसे-द्विधा-गतम् = दिहा-गयं ।। कहीं २ पर केवल द्विधा ही हो और कृग् धातु साथ में नहीं हो तो भी 'विधा' के 'इ' का '' देखा जाता है। जैसे द्विधापि मा सुरवधू-सार्थः- दुहा वि सो सुर-वहू-सत्यों। यहां पर 'द्विधा में रही हुई 'इ' का 'उ' हुआ है। विषा कियते संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप दोहा-किज्जा और दुहा-किज्जइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या--१७७ से 'द' का लोप; १-१७ से द्वि' के 'इ' का क्रम से 'यो' और 'उ'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७ से 'र' का लोप; ३-६० से संस्कृत में कर्मणि वाच्य में प्राप्त 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्ति, १-१० से 'इ' का लोपः ३-१३६ से प्रथम पुरुष के एक वचन में वर्तमान काल के 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोहा-किज्जन और दुहाकिज्जड़ आप सिद्ध हो जाते है। विधा-कृतम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप दोहा-इ और दुहा-इश्र होते हैं। इनमें से दोहा और दुहा की सिद्धि तो ऊपर के अनुसार जानना ! शेष कृतम् रहा । इसकी सिद्धि इस प्रकार है: Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 1. सूत्र-संख्या-१-१२८ से ऋ' की 'इ'; .-१४ से 'क' और 'तू' का लोप; ३.२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्ययं की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोहा-इअं और दुहा- इरूप सिद्ध हो जाते हैं। विधा -गतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप दिहा-गयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या१-१७७ से 'त्र' और 'त्' का लोप; १-१८७ से 'ध' का 'ह'; २-१८० से 'न' के शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसकलिंग में 'सि' के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्रानि; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दिहा-गयं रूप सिद्ध हो जाता है। "दुहा' की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'वि' की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। सः संस्कृत सर्वनाम है । इसका प्राकृत रूप सो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-८६ से 'सो' रूप सिद्ध हो जाता है। सुर-बध-सार्थः संस्कृत शब्द है । इप्तका प्राकृत रूप सुर-बहू-मत्थो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१८७ से 'ध' का 'ह'; १-८४ से 'सा' के 'आ' को 'अ'; २-E से 'र' का लोप; २-८८ से 'थ' का हित्य '५ थ'; २-६० से घात गर्व 'थ्' मा "'; ३- मेरा के सजगल में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुर-बहू-सत्यो रूप सिद्ध हो जाता है। वा निझरे ना ।। १-६८ || निर्भर शब्दे नकारेण सह इत श्रीकारो या भवति ॥ अोझरो निझरो । अर्थ:-निझर शब्द में रही हुई 'नि' आने 'न' और 'इ' दोनों के स्थान पर 'ओ' का विकल्प से श्रादेश हुआ करता है । जैसे-निझरः=ोज्झरो और निझरो। विकल्प से दोनों रूप जानना । . निरः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप ओझरो और निझरो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४८ से 'नि' का विकल्प से 'ओ'; २-9 से 'र' का लोप २- से 'क' का द्वित्व 'झम'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' का 'ज'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से ओझरो और मिजारो रूप सिद्ध हो जाते है । ।। ८ ।। हरीतक्यामीतोत् । १-६६ ।। हरीतकीशब्दे श्रादेरीकारस्य अद् भवति ।। हरडई ।। अर्थ:--'हरीतकी' शब्द में 'आदि 'ई' का 'अ' होता है । जैसे-हरीतकी-हरडई ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] प्राकृत व्याकरण * हरीतकी संस्कृत शटर है। इसका प्राकृत रूप हरडई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६६ से आदि 'ई' फा 'अ'; १-२०६ से 'त' का 'ड'; १-१४७ से 'क' का लोप; होकर हरडई रूप सिद्ध हो जाता है। श्रात्कश्मीरे ॥ १-१०० ॥ । कश्मीर शब्दे ईत श्राद् भवति ।। कम्हारा ।। अर्थः-कश्मीर शब्द में रही हुई 'ई' का 'श्रा' होता है । जैसे-कश्मीराः = कम्हारा ॥ कश्मीराः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कम्हारा होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७४ से 'श्म' का 'म्ह'; १-१०० से 'ई' का 'श्रा'; ३-४ से प्रथमा के बहु ववन में पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं लोप; -१२ से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'या' होकर फम्हारा रूप सिद्ध हो जाता है। पानीयादिष्वित् ॥ १-१०१॥ पानीयादिषु शब्देषु ईत इतू भवति । पाणिनं। श्रलियं । जिमइ । जिनउ । विलियं । करिसो । सिरिसो । दुइझं । तइमं । गहिरं । उपणियं । प्राणिनं पलिविनं। श्रोसिअन्तं । पसिन । गहि | दम्मिश्रो । तयाणि ।। पानीय | अलीक 11 जीवति । जीवतु । बोडित । करीप । शिरीष । द्वितीय । तृतीय । गभीर । उपनीत । आनीत । प्रदीपित । अवसीदत् । प्रसीद । गृहीत । वल्मीक । तदानीम् इति पानीयादयः ।। बहुलाधिकारादेषु क्वचिभित्यं क्वचिद् विकम्पः । न । पाणीअं | अलीअं । जीआइ । करीसो । उवणीओ । इत्यादि । सिद्धम् ।। अर्थः--पानीय आदि शब्दों में रही हुई 'ई' की 'इ' होती है । जैसे-पानीयम् = पाणिनं । अलीकम् -अलिभं । जीवति - जिअह । जीवतु जिज | श्रीडितम् = विलियं । करीषः = करिसो। शिरीषः-सिरिसो । द्वितीयम् = दुइ । तृतीयम् = तइनं । गभीरम् गहिरम् उपनीतम् = उणिवे। श्रानीतम् -श्राणिभं । प्रदीपितम् - पलिविभं ) अबसीदत्तम् श्रोसिअन्तं । प्रसीद-पसिन गृहीतम । वल्मीका-वम्मिश्रो। तदानीम्=तयार्थि। इस प्रकार ये सब 'पानीय आदि' जानना । बहुल का अधिकार होने से इन शब्दों में कहीं कहीं पर तो 'ई' की 'इ' नित्य होती है; और कहीं कहीं पर 'ई' की 'इ' विकल्प से हुआ करती है । इस कारण से पानीयम् = पाणीअं और पारिणअं; अलीकम् = अलीनं और अलिअं; जीवति = जीआइ और जीश्रइ; करीषः-करीमो और करिसो; उपनीतः = उवणीओ और उवरियो । इत्यादि स्वरुप वाले होते हैं। पानीयम संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप पाणि और पाणी होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' का हस्व 'इ'; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [११३ फे एक बचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पाणि रूप सिह मो जाता है । द्वितीय रूप में-१-२ के अधिकार से सूत्र संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर पाणी रूप सिद्ध हो जाता है। अलीफा संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप अलि और अली होते हैं । इसमें सूत्रसंख्या-१-१७७ से 'क' का लोप; १-१०१ से 'दीर्घ ई' का ह्रस्व 'इ'; ३-२५ से प्रयमा के एक वचन में मपु'सक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अलिंग रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रह कर अली रूप सिद्ध हो जाता है। जीपति संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसके प्राकृत रुप जिआइ और जीआइ होते हैं। मूल धातु 'जीव' है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२३६ से 'व' में 'श्र' की प्राप्ति; ६-१०१ से दीर्घ 'ई' की तस्व 'इ' १-१७७ सेव' का लोप, ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिअड़ रूप सिद्ध हो जरता है । द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या १-१०१ का निषेध करके दीर्घ 'ई' ज्यों की त्यों ही रहकर जीअड़ रूप सिद्ध हो जाता है। जीवतु संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप 'जिअउ' होता है। इसमें 'जिन' तक सिद्धि ऊपर के अनुसार जानना और ३-१७३ से आज्ञार्थ में प्रथम पुरुष के एक वचन में 'तु' प्रत्यय के स्थान पर 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिअउ रूप सिद्ध हो जाता है। वीडितम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप विलिन होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२.. से 'र' का लोप; ५-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'ई'; १-२०२ से 'ड' का 'ब' ६-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक बचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर बिलिअं रूप सिद्ध हो जाता है। राषः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप करिसो और करीमो होते हैं। इनमें सूत्र-संन्या१-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; और ३-२ से मथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करिसो रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में १-२ के अधिकार से सूत्र-संख्या-२-२०१ का निषेध करके दीर्घ ई' ज्यों की त्यों ही रह कर करीसो रूप सिद्ध हो जाता है। शिरीषः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप सिरिसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-२६० से 'श' तथा 'ष' का 'स;' और ३-२ से प्रथमा के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.] * प्राकृत व्याकरण * हितीयम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दुइञ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ से 'ध'; त् और 'थ' का लोप; १-६४ से आदि 'इ' का 'उ'; १-१०१ से वीर्घ 'ई' की 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर दुइ रूप सिद्ध हो जाता है । तृतीय र संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप तइन होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'त्' और 'य' का लोप; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तइ रूप सिद्ध हो जाता है। गभीरम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिरम होता है । इसमें सूत्र-संख्या-१-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिरं रूप सिद्ध हो जाता है। उपनीतम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप उवणिर्थ होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२३१ से 'प' का 'व'; १२२८ से 'त' का 'ण'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व 'इ'; १-१७७ से 'न का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक बचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त भ्' का अनुस्वार होकर उपाणिों रूप सिद्ध हो जाता है। आनीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप आरिण होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-२२८ से 'न' का 'श'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' को ह्रस्व 'इ'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक ववन में नपुंसक जिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आणिभं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रतीपितम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पलिविध होता है । इस में सूत्र-संख्या २७॥ से 'र' का लोप; १-२२१ से 'इ' का 'ल'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-२३१ से 'प' का ''; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रामि; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पालविरं रूप सिद्ध हो जाता है। अक्सीनतम संस्कृत वर्तमान कुदन्त है। इसका प्राकृत रूप ओसिअन्त होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१७२ से 'अव' का 'श्री'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-१७७ से 'द' का लोप; ३-१८१ से 'शत् प्रत्यय के स्थान पर न्त' प्रत्यय का आदेश; ३.२५ से प्रथमा एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ओसिअन्तं रूप सिद्ध हो जाता है। A Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरस्पति न भरावा * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [१२१ प्रसीद संस्कृत अकर्मक क्रिया है। इसका प्राकूल रूप पमित्र होता है । इममें सूत्र-संख्या-२-६ से 'र' का लोप; १-१०१ से दीर्घ ई की वस्त्र 'इ'; १-१७७ से 'द' का लोप; होकर पसिअ रूप सिद्ध हो जाता है। गृहीतम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गहिवं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हरख 'इ'; १-१७७ से 'तू' का लोप; ३-२५ से प्रत्रमा के गक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि प्रत्येव के पान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गहिरं रूप सिद्ध हो जाता है । घल्मीकः संस्कृत शहा है। इसका प्राकृत रूप वम्मिओ होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'ल' का लोप; २-८८ से 'म्' का द्वित्व म्म'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्य 'द'; १-१७७ से 'क' का लोप; : और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिग में 'तिः प्रत्यय के स्थान पर श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प.मओ रूप सिद्ध हो जाता है। सहामीम् संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप त्याणि होता है । इसमें सूत्र मख्या १-१७७ से । 'द्'का लोप; १-१८२ से से शेष 'श्रा' का 'या'; १२८ से 'न' का 'ण'; १-१०१ से दीर्घ 'ई' की हस्व'इ'; और -२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर 'तयाणि रूप सिद्ध हो जाता है। . पाणी, अलीअं, ओअइ. करीसो शब्दों की सिद्धि ऊपर की जा चुकी है। उपनीतः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप उवणीश्रो और उरिणो होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या -२३. से पका 'च'; १-२२८ से न' का 'ण'; :-१७५ से 'त्' का लोप; ३-२ से प्रथमा के एक : वचत में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर प्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'उचणीओ रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१०१ से दीर्घ 'ई' की ट्रस्व इ' होकर उवाणिओ रूप सिद्ध हो जाता है ! ॥ ॥ उज्जीणे ॥ १.१०२ ।। जीर्ण शब्दे ईत उद् भवति ।। जुएण- सुरा ।। क्वचिन्न भवति । बिएणे भोप्रणमते ॥ अर्थ:-जीर्ण शब्द में रही हुई 'ई' का 'उ' होता है। जैसे-जीर्ण-सुरा-जुएण-सुरा । कहीं कहीं पर इस 'जीर्ण' में रही हुई 'ई' का '' नहीं होता है । किन्तु दीर्घ 'ई' की ह्रस्व 'इ देखी जाती है। जैसे-जीर्ण भोजन-मात्रे- जिगणे भोअरणमत्त ।। जीर्ण संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप जुएण होता है । इसमें सूत्र संख्या :-१०२ से 'ई' का 'उ'; २-७ से 'र' का लोप; और २.८६ से 'ण' का द्वित्व एए' होकर 'गुण्ण रूप सिद्ध हो जाता है। सुरा संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप भी सुरा ही होता है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] * प्राकृत व्याकरण * जीर्णे संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप जिरणे होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'ई' की 'इ'; २-७ से 'र' का लोप; २-८८ से 'ग' का द्वित्व 'एण'; और ३-११ से सप्तमी के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'कि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'जिपणे' रूप सिद्ध हो जाता है। भोजन-मात्रे संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप भीअण-मत्त होता है। इसमें सूत्र संख्या ५-१७७ से 'ज्' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से 'आ' का 'अ'; २-७६ से 'र' का लोप, २-८६ 'त' का द्वित्व 'त्त'; और ३-११ से सप्तमी के एक वचन में नपुसक लिंग में 'कि' प्रत्यय के स्थान पर ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भोअण-मत्ते रूप सिद्ध हो जाता है। ऊहान-विहीने वा ॥ १-१०३ ।। अनयोरीत ऊत्वं वा भवति ॥ हूणो, हीणो । बिहूणो विहीणो । विहीन इतिकिम् । पहीण-जर-मरणा॥ ___ अर्थ:-हीन और विहीन इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ई' का विकल्प से 'ऊ' होता है । जैसेहीनः= हूणो और हीरणो ॥ विहीनः विहूणो और बिहीणो । विहीन-इस शब्द का उल्लेख क्यों किया ? उत्तर-यदि विहीन शब्द में “घि' उपसर्ग नहीं होकर अन्य उपसर्ग होगा तो 'हीन' में रही हुई 'ई' का 'क' नहीं होगा । जैसे-प्रहीन-जर-मरणाः- पहीण-अर-मरणा । यहाँ पर 'प्र' अथवा 'प' उपसर्ग है और 'वि' उपसर्ग नहीं है; अतः 'ई' का 'ऊ' नहीं हुआ है। हीनः संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप हूणो और हीणो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या-१-१०३ सेई का विकल्प से ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय होकर क्रम से हूणो और हीणो रुप सिद्ध हो जाते हैं । मिहीनः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप बिहूणो और बिहीणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या५-१०३ से 'ई' का विकल्प से 'ऊ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से बिहूणो और विहीणो रुप सिद्ध हो जाते हैं। प्रही संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप पहीण होता है । इसमें-सूत्र-संख्या-२-७८ से '' का लोप; और १-२९८ से 'न' का 'प' होकर पहणि रुप सिद्ध हो जाता है। जरा-मरणाः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप जर-मरणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या.१-८४ से आदि 'आ' का 'अ'; ३-४ से प्रथमा के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्'; प्रत्यय की प्राप्ति; एवं लोप; और ३-१२ से 'ण' के 'अ' का 'आ' होकर जर-मरणा रूप सिद्ध हो जाता है ।। १०३ ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२३ तीर्थे हे ॥ १-१०४॥ तीर्थ शब्दे हे सति ईत ऊत्वं भवति ॥ तूहं ।। इइति किम् । तित्थ ।। अर्थ: तीर्थ शब्द में 'थ' का 'ह' फरने पर तीर्थ में रही हुई 'ई' का 'ऊ' होता है । जैसे-तीर्थम् = तूह | 'ह' ऐसा कथन क्यों किया गया है ? उत्सर-जहां पर तीर्थ में रई हुए 'थ' का 'ह' नहीं किया जायगा; वहां पर 'ई' का 'ऊ' नहीं होगा । जैसे-तीर्थम् = तित्थं । तीर्थम् संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप तूहं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१०४ से 'ई' का ''-७२ से 'र्थ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सूह रूप सिद्ध हो जाता है। 'तित्य' शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८४ में की गई है। एत्पीयूषापीड-बिभीतक कीदृशेदृशे ॥ १-१०५ ॥ एषु ईत एत्वं भवति ॥ पेऊस । भामेलो । बहेडो । केरिसो । एरिसो॥ अर्थः-पीयूष, अपीड, बिमीतक, कीदृश, और ईदृश शब्दों में रही हुई 'ई' की 'ए' होती है। जैसे पीयूपम् = पेऊस; आपीड:-श्रामेलो; बिभीत्तकः = बहेडो; कीदृशः = करिसो; ईदृशः= एरिमो ।। पीयूरम् - संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप पेऊस होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१.५ से 'ई' की 'ए'; १-१७७ से 'य' का लोप; १-२६. से ष' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर जसं रूप सिद्ध हो जाता है। __ पापीडः संस्कृत शब्द है । इस का प्राकृत रूप पामेलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३४ से 'प' का 'म'; १-१०५ से 'ई' की 'ए'; १-२०२ से 'टु' का 'ल'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थाच पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आमेलो रूप सिद्ध हो जाता है। बहेडो की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है। कीदृशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप करिसो होता है। इसमें सूत्र-संस्त्या १.१०५ से 'ई' की 'ए'; १-१४२ से 'ड' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय होकर करितो रुप सिद्ध हो जाता है। विशः संस्कृत विशेषण है इसका प्राकृत रूप एरिसो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०५ से Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] * प्राकृत व्याकरण * 'ई' की 'ए'; १-१४२ से 'ट' की रि; १-२६० से 'श' का 'म'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर एरिसो रूर सिद्ध हो जाता है। नीड-पीठे वा ॥ १-१०६ ॥ अनयोरीत एत्वं वा भवति ।। नेडं नीड । पई पीढं । अर्थ: नीड और पीठ इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ई' की '' विकल्प से होती है । जैसेनीउम् = नेड और नीड । पीठम् = पेढं और पीढं । नीडम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप नेड और नीड होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१०६ से 'ई की विकल्प से 'ए; और ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से नेड और नीर रूप मिद्ध हो जाते हैं। पीठम संस्कृत शब्द है । इमके प्राकृत रूप पेढं और पीढ़ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१०६ से 'ई' की विकल्प से 'ए'; १-१६E से 'ठ' का 'ढ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नमक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पेदं और पीई रूप सिद्ध हो जाते हैं । ॥ १६॥ उतो मुकुलादिष्वत् ॥ १-१०७ ॥ मुकुल इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरुतोत्वं भवति ।। मउलं | मउलो। मउरं मउडं । अगरु । गई । जहुट्ठिलो। जहिडिली। सोअमल्ल । गलोई ॥ मुकूल । मुकुर । मुकुट । अगुरु । गुर्वी । युधिष्ठिर । सौकुमाय । गुडूची । इति मुकुलादयः । क्वचिदाकारी वि । विद्रुतः । बिदाश्रो ॥ ___ अर्थ:- मुकुल इत्यादि इन शब्दों में रहे हुए आदि 'उ' का 'अ' होता है । जैसे-मुकुलम् = मद्धलं और मउलो । मुकुरम्-मउरं । मुकुटम् = मजुङ। अगुरुम् =अगर । गुर्वी गुरुई । युधिष्ठिरः-जहुट्ठिलो और जुहुद्धिलो । मौकुमार्यम् - सोअमल्लं । गुडूची-गलोई । इस प्रकार इन शब्दों को मुकुल श्रादि में जानना । किन्हीं किन्हीं शदनों में श्रादि 'उ' का 'श्रा' भी हो जाया करता है। जैसे-विद्रुतः = विदाओ । इस 'विदाओं शटद में आदि 'उ' का 'या' हुआ है। ऐसा ही अन्यत्र भी जानना ! मुकुलंम संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप मउल और मउलो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप, ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसफ लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर 'मउलं रूप Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२५ Ha सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में लिंग के भेद से पुल्लिग मान लेने पर ३-२ से प्रथमा के एक वचन में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माउलो रूप सिद्ध हो जाता है। मुकुर संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मउरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से प्रादि 'उ' का 'श्र'; १.१७७ से 'क' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर मउरं रूप सिद्ध हो जाता है। मुकुट संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप मउई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से श्रादि 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१६५ से 'ट' का ''; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्रापि; और 2 में प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मउर रूप सिद्ध हो जाता है। अगुरू संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप 'अगरु' होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से आदि 'उ' का 'अ'; ३-२५ से ७.थमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अगर रूप सिद्ध हो जाता है। गुषी संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप गरुई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; २-११३ से 'वी' का 'रुबी'; १-१७७ से प्राप्त "रुवी' में से 'व्' का लोप होकर गलई रूप सिद्ध हो जाता है। बहुहिलो और जहिहिलो शब्दों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६६ में की गई है। सौकुमार्यम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सोचमल्ल होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से 'उ' का 'अ'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१५E से 'औ' का 'ओ'; १-८४ से 'आ' का 'अ';२-६८ से 'य' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुरवार होकर सोअमल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। गुसूची संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रुप गलोई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०७ से श्रादि 'उ' का अ'; १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; १-२०२ से 'ड' का 'ल'; १-६४७ से 'च्' का लोप होकर गल्लोई रूप सिद्ध हो जाता है। पिद्रुतः संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत प विहानी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४ से 'र' का लोप; १-१०७ की वृश्चि से: 'उ' का 'आ'; २-८ से 'द' का द्वित्व 'द'; १-१७७ से 'न' का लोप; और ३.२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिट्दाभोप सिद्ध हो जाता है ।।१०।। maina Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरगा । ... . वोपरी ॥ १-१०॥ . . उपरावृतोद् वा भवति ।। अवरि । उवरि ।। अर्थः-उपरि शब्द में रहे हुए, 'उ' का विकल्प से 'अ' हुआ करता है। जैसे उपरि = प्रवरि और उवरि ।। अवरिं शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८६ में की गई है उपरि संस्कृत अन्यय है। इसका प्राकृत रूप उपरि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२३१ सेप' का 'व'; और १-२६ से अनुस्वार की प्राप्ति होकर उरि रूप सिद्ध हो जाता है। गुरो के वा ।। १-१०६ ॥ - गुरौ स्वार्थ के सति आदेरुतो वा भवति ॥ गरुषो गुरुयो॥ क इति किम् ? गुरू ॥ अर्थ:-गुरु शब्द में स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'गुरु' के आदि में रहे. हुए 'उ' का विकल्प से 'अ' होता है । जैसे:--गुरुकः = गो और गुरुयो । 'क' ऐसा क्यों लिखा है ? उत्तर:- यदि स्वार्थ-वाचक 'क' प्रत्यय नहीं लगा हुअा हो तो 'गुरु' के आदि 'उ' का 'अ' नहीं होगा । जैसे-गुरुः गुरू । गुरूकः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप गरी और गुरुयो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ६-१०६ से आदि 'उ' का विकल्प से 'अ'; १-१५७ से 'क्' का लाप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर क्रम से गरूओ और गुमओ रूप सिद्ध हो जाते हैं। गुरूः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप गुरू होता है। इस में सूत्र-संख्या ३-१६ से प्रथमा के क वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य स्व स्वर का दीर्घ स्वर होकर गुरू रूप सिद्ध हो जाता है। . . . . .. .. .. . इधं कुटौ ॥१-११० ॥ ... भृकुटावादैरुत हर्भवति ॥ भिउठी ॥ अर्थ:-भृ कृटि शब्द में रहे हुए आदि 'उ' की 'इ' होती है। जैसे-भ कुटिः भिउही 11 · श्रृकुटि संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप भिडनी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से फा लोपः १-११० से आदि 'ज' की 'ई'; १-१७४ से 'क' का लोप; १.११५ से 'ट' का और ३-१६ से - - - - - Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२७ प्रथमा के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर भिउडी रूप सिद्ध हो जाता है । । ११०॥ . पुरुषे रोः ॥ १-१११ ॥ पुरुषशब्दे रोरुत इभवति ।। पुरिसो । पउरिसं !! अर्थः-पुरुष शब्द में रु' में रहे हुए 'उ' की 'इ' होती है। जैसे-पुरुषः= पुरिसो । पौरुषम् = परिसं॥ पुरिसो शब्द की सिद्धि सूय संख्या १-४२ में की गई है। .: पौलषं संस्कृत शब है। इसका प्राकृत रूप परिसं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'श्री का 'प्र'; १-१९१ से 'क' के 'उ' की 'इ'; १-२६० से 'ष' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर परिसं रूप सिद्ध हो जाता है। . ईतुते ॥ १-११२ ॥ . . चुतशब्दे आदेरुत ईत्वं भवति ॥ छीअं ॥ अर्थ:-जुत शब्द में रहे हुए आदि 'उ' की 'ई' होती है । जैसे-नुतम् = छीअं । सतमं संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप छीअं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' का 'छ'; १.११२ से 'उ' की ई'; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर 'छी' रूप सिद्ध हो जाता है । ।। ११२॥ .. उत्सुभग-मुसले वा ॥ १.११३ ॥ अनयोरादेरुत उतू वा भवति ॥ महवो सुइयो । मसल मुसल।। अर्थः-सुभग और मुसल इन दोनों शब्दों में रहे हुए श्रादि 'उ' का विकल्प से दीर्घ 'इ' होता है। जैसे-सुभगः सूहयो और सुहो । मुसलम् = मूसलं और मुसलं ॥ सुभगः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप सूहबो और सुहनों होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-११३ से धादि 'उ' का विकल्प से 'अ'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; ५-१६२ से प्रथम रूप में 'ऊ' होने पर 'ग' का Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] * प्राकृत व्याकरण * 'ध'; और द्वितीय रूप में 'ऊ' नहीं होने पर १.१७७ से 'ग' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से सहषो और सुहा रूप सिद्ध हो जाता है। मुसलं संस्कृत शब्द है। इसके काकृत रूप मृसलं और मसले होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११३ से आदि 'उ' का विकल्प से दीर्घ 'ऊ'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रोप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से मूसलं और मुसलं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। ११३ ।। अनुत्साहोत्सन्ने सच्छे ॥ १.११४ ॥ उत्साहोत्समवर्जिते शब्दे यो त्सच्छौ तयोः परयोरादेरुत ऊद् भवति ॥ स । ऊसुत्री। ऊसयो । ऊसित्तो । ऊसरइ ।। छ । उद्गताः शुका यस्मात् सः असुप्रो । ऊससह ।। अनुत्साहोत्सम इति किम् । उच्छाहो | उच्छनी ।। ___ अर्थः-उत्साह और उत्सन्न इन दो शब्दों को छोड़ करके अन्यकिसी शब्द में 'स' अथवा 'कछ' श्रावे; तो इन 'स' अथवा 'च्छ' वाले शब्दों के आदि 'त' का '' होता है । 'रस' के उदाहरण इस प्रकार है:___ उत्सुकः= असुओ। उत्सवः ऊसवो । उसिक्तः = ऊसित्तो । उत्सरति = उसरह । 'च्छ' के उदाहरण इस प्रकार है:-जहाँ से तोता-- पक्षी विशेष ) निकल गया हो वह 'उच्छुक' होता है। इस प्रकार उच्छुकः- उसुश्री। उच्छ वसति = ऊससइ ।। उत्साह और उत्सम इन दोनों शब्दों का निषेध क्यों किया? उत्तरः-इन शब्दों में 'स' होने पर भी श्रादि 'उ' का 'ऊ' नहीं होता है अत: दीर्घ 'क' की उत्पत्ति का इन शब्दों में प्रभाव ही जानना जैसे-उत्साहः उच्छाहो । उत्सनः उच्छन्नो ।। उत्सुकः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप असुश्रो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११४ से श्रादि 'उ' का '5'; २-४७ से 'त्' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसओ रूप सिद्ध हो जाता है। ऊसवो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८४ में की गई है। उत्तिक्त: संस्कृत विशेषण है ! इसका प्राकृत रूप ऊसित्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-११४ से आदि 'उ' का 'ऊ'; २-४७ से 'तू' और 'क' का लोप, २-८८ से शेष द्वितीय 'त' का द्वित्व 'त्त'; और २-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर ऊसित्तो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१२६ उत्सरति संस्कृत अकर्मक क्रिया पर है। इसका प्राकृत रूप ऊसरइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-११४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ'; २-४७ से 'त' का लोप; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊसरह रूप सिद्ध हो जाता है। ___ उरक. - ( उत् + शुकः )-संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत रूप मसुत्रो होता है। इसमें सूत्रसंख्या-१-७६४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ';२-७७ से 'तू' का लोप, १-२६० से 'श' का 'स';१-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रामि होकर ऊमुभो रुप सिद्ध हो जाता है। उपसति (उत्श्वसति) - संस्कृत सकर्मक क्रिया पद है। इसका प्राकृत रूप उससह होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-११४ से श्रादि 'उ' का 'ऊ'; २-४ से 'तू' का लोप, १-५४७ से 'व्' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ऊससह रूप सिद्ध हो जाता है। उत्साहः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप उच्छाहो होता है। इसमें-सूत्र-संख्या २-२१ से 'स' का 'छ; २-८६ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ, छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एक यचम में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उछाहो रुप सिद्ध हो जाता है। उन्सन्नः संस्कृत विशेषरण है । इसका प्राकृत रूप उच्छन्नो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-२१ से 'ल्स' का 'छ', २-८८ से प्राप्त छ' का द्वित्व 'छ छ' २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ'; का 'च'; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उच्चनो रुप सिद्ध हो जाता है ।। ११४॥ लुकि दुरो वा ॥ १.११५ ।। दुपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत उत्धं वा भवति ।। दूसही दुसहो । दूहको दृहभो ॥ लुकीति किम् । दुस्सहो विरही ।। अर्थ:--'दुर्' उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप होने पर 'टु' में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'ऊ' होता है। जैसे:-दुःसहः= दूसहो और दुसहो ॥ दुर्भगः-दूहयो और दुहश्रो 'र' का लोप होने पर ऐसा उल्लेख क्यों किया ? ___ उत्सरः-पदि 'दुर्' 'उपसर्ग में रहे हुए 'र' का लोप नहीं होगा तो 'दु' में रखे हुए 'उ' का भी धीर्ष 'क' नहीं होगा । जैसे:-दुस्सहः विरह-दुस्सहो विरहो । यहाँ पर '' का म् हो गया है और उसका लोप नहीं हुआ है; अतः 'दु' में स्थित 'ड' का भी 'अ' नहीं हुआ है। ऐसा मानना । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] · * प्राकृत व्याकरण * दूसह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है। सहः ( दुस्सहः ) संस्कृत विशेषण है इसका प्राकृत रूप दुसही होता है। इसमें सूत्र संख्या १~१३ से 'र्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुसह रूप सिद्ध हो जाता है । दुर्भगः संस्कृत विशेषण हैं। इसके प्राकृत रूप दूवो और दुहओ होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १-१३ से 'र्' का लोप; १-११५ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ऊ'; (१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१६२ से आदि दीर्घ 'ऊ' वाले प्रथम रूप में 'ग' का 'व' और १-२७७ से हस्त्र 'उ' वाले द्वितीय रूप में 'ग्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से हो और दुहओ रूप सिद्ध हो जाते हैं । दुस्सही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३ में की गई है। विरहः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विरहो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विरही रूप सिद्ध हो जाता है ।। ११५ ।। प्रोत्संयोगे ।। १-११६ ॥ संयोगे परे श्रादेरुत्वं भवति ।। तोराई | मोराडं पोक्खरं कोडिमं पोरथयो । लो ! मोत्या । मोग्गरो पोग्गलं । कोण्ढो । कोन्तो । वोकन्तं ॥ F अर्थः-- शब्द में रहे हुए आदि 'उ' के आगे यदि संयुक्त अक्षर था जोथ; तो उस 'उ' का 'ओ' हो जाया करता है। जैसे- तुण्डम् = तोण्ड' । मुण्ड = मोण्ढ पुष्करम् = पोक्खरं । कुट्टिमम् = कोट्टिमम् । पुस्तकः = पोत्थओ | लुब्धकः = लोढयो | मस्ता = मोत्था मुद्गरः = मोग्गरो । दुद्गतं = पोग्गलं । कुष्ठः कोटो | कुतः = कोन्तो । व्युत्क्रान्तम् = वोचन्तं ॥ तुण्डम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तोयद्ध' होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि 'ङ' का 'श्रो'; ३-२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर तोण्डम् रूप सिद्ध हो जाता है । भुण्डम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मोड होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि '' का 'ओ' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भी रूप सिद्ध हो जाता है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१३१ J पुष्करं संस्कृत शब्द है ! इसका प्राकृत रूप पोक्खरं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि 'ढ' का 'श्रो'; २-४ से 'ष्क' का 'ख'; २-८६ से प्राप्त'ख' का द्वित्व 'ख'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'कू ३- २५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्तिः श्रर १-२३ से प्राप्त ' का अनुस्वार होकर पोक्खरं रूप सिद्ध हो जाता है । संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप कोट्टिमं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि 'ख' का 'ओ' ३२५ से प्रथमा के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'स्' का अनुस्वार होकर कोट्टिमं रूप सिद्ध हो जाता है । पुस्तकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप पोत्थभ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९६ से आदि 'उ' का 'ओो'; २-४५ से 'स्त' का '६'; २-५६ से प्राप्त 'थ' का द्वित्व ' थू थ'; २ ६० से प्राप्त पूर्व 'थ' का 'स्'; १-१७७ से 'क' का लोप; और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पोत्थओं रूप सिद्ध हो जाता हूँ । लख्धकः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप 'लोद्धयो' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से यदि 'उ' का 'ओ'; २७६ से 'ब' का लोप २-८६ से शेष 'ध' का द्वित्व 'ध' २-६० से प्राप्त पूर्व 'घ' का 'दू'; १-१७७ से 'कू' का लोप; और ३-२ से प्रथमा एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोखओ रूप सिद्ध हो जाता है। मुस्ता संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप मोत्या होता है । इसमें सूत्र 'उ' का 'ओ'; २-४५ से 'स्त' का 'थ'; २८६ से प्राप्त 'ध' का द्वित्व 'थ्य 'थ्रु' का 'तू' होकर मोत्था रूप सिद्ध हो जाता है । संख्या १- ११६ से आदि और २६० से प्राप्त पूर्व सुदशरः संस्कृत शब्द है; इसका प्राकृत रूप भोग्गरी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११६ से 'आदि 'उ' का 'ओ'; २-७७ से 'दू' को लोपः २८६ से शेष 'ग' का द्वित्व 'राग'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर थो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मोग्गरी रूप सिद्ध हो जाता है। पुद्गलं संस्कृत शब्द है। इसका प्रकृत रूप योग्गलं होता है। इस में सूत्र संख्या १-९९६ से आदि 'उ' का 'ओ': २ ७७ से 'द्र' का लोप २-८६ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग; ३ २५ से प्रथमा में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रूप सिद्ध हो जाता है। एक वचन कुण्ठ: संस्कृत शब्द है, इसका प्राकृत रूप कोण्ढो होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से श्रादि 'उ' का 'ओ'; १-९६६ से 'ठ' का 'ढ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय होकर कोण्डो रूप सिद्ध हो जाता है । .. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] * प्राकृत व्याकरण कुन्तः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप कोन्तो होता है; इसमें सूत्र संख्या १-११६ से आदि 'ज' का 'ओ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन से पुलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्य की प्राप्ति होकर कोन्सो रूप मिद्ध हो जाता है । व्युत्कान्तं संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप वोक्कत होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोपः १-११६ से श्रादि 'उ' का 'श्री'; २-७६ से 'र' का लोप; २-७७ से '' का लोप: २-८८ से 'क' का द्वित्व 'क'; १-८४ से 'का' में रहे हुए, 'आ' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वोक्कन्तं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥११६।। कुतूहले वा हृस्वश्च ॥ १-११७ ॥ कुतूहल शब्दे उत श्रोद् या भवति तत्संनियोगे हस्वश्च वा ॥ कोउहलं कुऊहलं कोउहन्लं ।। ___ अर्थः-कुतूहल शब्द में रहे हुए आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ' होता है । और जब 'ओ' होता है. तब 'तू' में रहा हुआ दीर्घ 'ऊ' विकल्प से ह्रस्व हो जाया करता है । जैसे-कुतूहल = कोऊहलं; कुऊहलं; और कोउहल्ले। तृतीय रूप में आदि 'उ' का 'श्रो' हुआ है। अतः उसके पास वाले-याने संनियोग वाले 'तू' में रहे हुए दीर्घ 'ॐ' का ह्रस्व 'उ' हो गया है। कुतूहले संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप कोऊहलं; कुऊहलं; कोजहल्लं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११७ से आदि 'उ' का विकल्प से 'ओ'; १-१४४ से सू' को लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से फोहल और कुलहलं रूप सिद्ध हो जाते है । तृतीय रूप में सूत्र संख्या १-११७ से श्रादि 'उ' का 'ओ'; १-१४७ से 'त्' का लोप; १.११७ से 'श्री' की संनियोग अवस्था होने के कारण से द्वितीय दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ'; २.६६ से 'ल' का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर फोहल्लं रूप सिद्ध हो जाता है । ।।११वा अदूतः सूक्ष्मे वा ॥ १-११८ ।। सूक्ष्म शब्दे उतोद् वा भवति ॥ सरह सुरहं ।। आ । सुहुमं ।। अर्थ:-सूक्ष्म शब्द में रहे हुए 'ॐ' का विकल्प से 'अ' होता है। जैसे-सूखमम् = सराई और सुण्इं ।। आर्ष प्राकृत में सुहमं रूप भी पाया जाता है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * in सूक्ष्म संस्कृत विशेषण है; इसके प्राकृत रूप मण्हं और सुरहं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-११८ से 'ऊ' का विकल्प से 'अ'; ३-७५ से 'म' का 'राह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप सह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-११८ के वैकल्पिक विधान के अनुस्वार ':' का 'अ' नहीं होने पर १८४ से दीप ' का ह्रस्व 'अ' होकर भुण्यं रूप सिद्ध हो जाता है। सूक्ष्म संस्कृत विशेषण है । इसका शार्ष में प्राकृत रूप सुहम होता है । इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' का 'ख'; १-१८७ से प्राप्त 'ख' का 'ह'; २-११३ से प्राप्त 'ह' में 'स' की प्रारित; १-८४ से 'सू' में रहे हुए 'ॐ' का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में मपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुझुम रूप सिद्ध हो जाता है। दुकूले वा सश्च द्विः ॥ १-११९ ॥ कल शब्दे उकारस्य भस्व वा भवति । तत्सनियोगे च लकारो निर्मवति ॥ दुअन्लं, दुऊल ॥ आर्षे दुगुन्लं ॥ अर्थ:-दुफूल शब्द में रहे हुग. द्वितीय दीर्घ 3 का विकल्प से 'अ' होता है। इस प्रकार 'थ' होने पर आगे रहे हुए 'ल' का द्वित्व 'स्त' हो जाता है; जैसे-दुकूलम् = दुअल्ल और दुऊल | आर्षप्राकृत में दुकूलम् का दुगुल्ल रूप भी होता है। हुकूलं संस्कृत शब्द है। इसके प्राकृत रूप दुअल्लं और दुऊलं होते हैं। इसमें सूत्र संख्या-१-१७६ से 'क' का लोप; १-११६ से ऊ'का विकल्प से 'अ'; और 'ल'का द्वित्व 'ल्ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दुअल्लं और दुऊलं रूप सिद्ध हो जाते हैं। ___ तुकूलम् संस्कृत शब्द है । इसका आर्ष-प्राकृत में दुगुल्ल रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३ से 'दुकूल' का 'दुगुल्ल., ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एफ वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्सि; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुगुल्ला म सिद्ध हो माता है। ॥१६॥ ईबोंद्वयूढे ॥ १.१२० ।। उदयदशब्दे ऊत ईत्वं वा भवति ।। उन्त्रीवं । उच्चूट । अर्थ:-उदयूट शब्द में रहे हुए दीर्घ 'उ' को विकल्प से दीर्घ 'ई' होती है। जैसे-उदयूटम् - उव्वी और उल्लं ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] * प्राकृत व्याकरण * उक्यूहम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप बच्ची और उब्यूढं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७७ से 'इ' का लोप; २-७८ से 'य्' का लोप; २-८६ से 'व्' का द्वित्व 'बूबू'; १-१२० से दीर्घ 'ऊ' की विकल्प से दीर्घ 'ई' ; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से उढं और उब्यूढं रूप सिद्ध हो जाते हैं । उम्र- हनुमत्कण्डूय - वातूले ॥ १-१२१ ॥ ऊत उत्वं भवति ॥ मया । हणुमन्तो । करदुई | वाउलो || अर्थः- भ्रू, हनुमत, कण्डूयति, और वातूल इन शब्दों में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'ब' होता है । जैसे— भूमया = भुमया । हनूमान = हणुमन्तो । कण्डूयति = कण्डुष्यइ । वातूलः - बाउलो । I भ्रमया संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप भुमया होता है । इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र्' का लीप: १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ' होकर भुमया रूप सिद्ध हो जाता है । हनुमान संस्कृत गुरुनु है । इसका प्राकृत रूप हनुमन्तो होता है। इसका मूल शब्द हनुमत् है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ'; २- १५६ से 'स्वार्थ 'में' मत' प्रत्वय के स्थान पर 'मन्त' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हणुमन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। संस्कृतकर्मक क्रिया है। इसका प्राकृत रूप कण्डुधार होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२१ से दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ' १-१७७ से 'य्' का लोप; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर कण्डअह रूप सिद्ध हो जाता है । वातुलः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप वाउलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७५ से 'तू' का लोप; १-५२९ से दीर्घ 'ऊ' का हस्त्र 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाउलो रूप सिद्ध हो जाना है । ।। १२२ ।। मधूके वा ॥ १-१२२ ॥ मधुक शब्दे ऊत उर्दू या भवति || महुयं महू || अर्थ:- - मधूक शब्द में रहे हुए दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से ह्रस्व 'ड' होता है । जैसे-मधूकम=महु और महू । मधूकं संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप महु और महू होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १०१८७ 1 t Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१३५ से 'ध' का 'ह'; १-१२२ से दीर्घ 'ऊ' का विकल्प से ह्रस्व 'उ'; १-१४७ से 'क' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से मङ्गों और महू रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।।१२२॥ इदेतो नुपूरे वा ॥ १-१२३ ॥ नूपुर शब्दे ऊत इत् एत् इत्येतो वा भवतः ।। निउर नेउरं । पचे नूउरं ।। अर्थः-नूपुर शहद में रहे हुए प्रादि दीर्घ 'ॐ' के विकल्प से 'इ' और 'ए' होते हैं । जैसे-नूपुरम् =निटरं, नेउरं और पक्ष में नूउरं । प्रथम रूप में 'अ' को 'इ'; द्वितीय रूप में 'अ' का 'ग'; और तृतीय रूप में बिकल्प-पक्ष के कारण से 'ॐ' का 'ॐ ही रहा। भूपुरम् संस्कृत शब्न है। इसके प्राकृत रूप निउर, नेउरं और नूउरं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१२३ से आदि दीर्घ 'क' का विकल्प से 'इ' और 'ए'; और पक्ष में 'ऊ'; १-१७६ से 'प' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर कम से निउरं, नेजरं, और नूउरं रूप सिद्ध हो जाते हैं । ॥ १२३ ।। प्रोस्कूष्माण्डीतूणीर-कूपर-स्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये ॥ १-१२४ ।। - एषु उत श्रोत् भवति । कोहण्डी कोहली । तोणारं कोप्परं । थोरं । तम्बोल । गलोई मोल्ल॥ ___ अर्थ:-कूष्माण्डी, तूणीर, कूर्पर, स्थूल, ताम्यूल, गुडूची, और मूल्य में रहे हुए 'अ' का 'ओ' होता है। जैसे-कूष्माण्डी = कोहण्डी और कोहली । तूणीरम् = तोणीरं । पूर्वरम् = कोप्परं । स्थूलम् = थोरं । ताम्यूलम् = तम्बोलं । गुडूची-गलोई । मूल्यं = मोल्लं ।। कूष्माण्डी संस्कृत शब्द है। इसके प्राक्त रूप कोहण्डी और कोहली होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-५२४ से 'ऊ' का 'श्री'; २-७३ से 'एमा' का 'ह'; और इसी सूत्र से 'एड' का विकल्प से 'ल'; होकर कम से कोहण्डी और कोहली रूप सिद्ध हो जाते हैं। तूणीरम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तोणीरं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२४ से का 'श्रो'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तोर रूप सिद्ध हो जाता है। परमें संस्कृत शब्द है इसका प्राकृत रूप कोप्परं होता है। इसमें सूत्र संख्या १०९२४ से '' का 'ओ'; २-६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'प' का द्वित्व 'एप'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रानि; और १.५३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कोप्परं रूप सिद्ध हो जाता है। स्थूलं संस्कृत विशेषण है; इसका प्राकृत रूप थोरं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-४० से स्' का लोप; ६-१२४ से 'ॐ' का 'ओ'; १-२५ से 'ल का र';३-२५५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर थारं रूप सिद्ध हो जाता है। साम्य र संमत रूप है। इसका प्राकृत रूप तम्बोल होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८४से मोदि 'श्रा' का 'अ'; १२४ से 'अ' का 'श्री'; २-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ६.०३ से प्राप्त: 'म्' का नुस्वार होकर सम्बोल रुप सिद्ध हो जाता है। गलोई शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०७ में की गई है। मय संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोल्लं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२४ से 'ऊ' का 'ओ'; २-७८ से 'य' का लोप; २-४ से 'लका 'विस्य 'ल'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्सि; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मोडल रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १२४ ।। स्थूणा-तूणे वा ॥१-१२५॥ अनयोस्त श्रोत्वं वा भवति ।. थोणा धूणा । तोणं तूणं ।। अर्थ:-स्पूणा और तूण शब्दों में रहे हुए 'उ' का विकल्प से 'श्री' होता है । जैसे-स्थूणाथोणा और थूणा । तूपम् तो और तूरणं ।। स्थूणा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप धोणा और थूणा होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-४७ से 'स्' का लोपः १.१२५ से 'अ' का विकल्प से 'ओ' होकर थोणा और शृणा रूप सिद्ध हो जाते हैं। तूर्ण संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप तोणं और तूणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१२५ से '' का विकल्प से 'श्री'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १०२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तीर्थ और सूर्णम्प सिद्ध हो जाते हैं ॥१२॥ ऋतात ।। १.१२६ ॥ श्रादेऋकारस्य अत्वं भवसिगा पृतम् । पर्य ॥ तृणम् । तणं ॥ कुनम् । लयं ॥ वृषभः । घसहो । सुगः । मत्रो ।। पृष्टः । षट्ठो || हाइममिति कपादिपाठात् ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * - अर्थ:--शब्द में रही हुई श्रादि 'ऋ' का 'अ' होता है। जैसे-घृतम् = घयं ॥ तुरणम् - तणं ।। कुतम् = कथं ॥ धृषभः=वपहो । मृगः=मश्रो ।। घृष्टः= घट्ठी ।। द्विधा-कृतम् = दुहाइवे इत्यादि शब्दों की सिद्धि कृपादि' के समान अर्थात् सूत्र संख्या १-१२८ के अनुसार जानना । मृतम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृतक रूप घयं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से '' का 'अ'; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अयं रूप सिद्ध हो जाता है । तृणम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तणं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'च' का 'अ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की . प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सणं रूप सिद्ध हो जाता है। कृतम् संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप कयं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'न'; १-१९७७ से '' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' का 'य'; और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर कायं रूप सिद्ध हो जाता है। वृषभः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वसही होता है इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-२६० से 'घ' का 'स'; १-१८० से 'भ' का 'ह', और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्सहो रूप सिद्ध हो जाता है। अगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मश्रो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वपन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मओ रूप सिद्ध हो जाता है। पृष्टः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप घट्ट होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'भू' का 'अ'; २-३४ से 'ट' का 'ठ', २-८९ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का 'द'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है ।। दुहाइवे शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है ।।१२।। प्राकृशा-मृदुक-मृदुत्वे वा ॥ १.१२७ ।। एषु आहेत पान वा भवति ॥ कासा किसा । माउक्क मउ । मा क मउत्तणं ।। अर्थ:-सा, मृदुक, और मृदुत्व; इन शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' का विकल्प से 'भा' -- Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ * प्राकृत व्याकरण * होता है। जैसे-कृशा=कासा और किसा ।। म दुकम =माउाक और मउभं । म दुत्वम माउर्क और मउराणं ।। कृशा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कासा और किसा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १-२६० से 'श' का 'स' होकर प्रथम रूप कासा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' और शेष पूर्ववत् होकर किसा रूप सिद्ध हो जाता है । मुलुकम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप माउवक और मउभं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१२७ से 'ऋ' का विकल्प से 'आ'; १-१७७ से 'द्' का लोप; २-८६ से 'क' का द्वित्व 'क'; ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसफ लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्तिः और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर मारकर्क रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; ६-१७७ से 'द्' और '' का लोप और शेष पूर्व रूपवत् होकर मर रूप सिद्ध हो जाता है। में मृदुत्वं संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप माइक्कं और मउत्तणं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१९७ से '' का 'आ'; १-१४५ से 'द्' का लोप; २-२ से 'स्व' के स्थान पर विकल्प से 'क' का श्रादेश; २-८८ से प्राप्त 'क' का द्वित्य 'क'; ३.२५. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भाउक्क रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-६२६ से 'ऋ' का 'अ'; १.१८७ से 'द्' का लोप; २-१५४ से 'स्व' के स्थान पर विकल्प से 'तण' का आदेश; और शेष पूर्व रूप वत होकर म उत्तर्ण रूप सिद्ध हो जाता है । इस्कृपादौ ॥ १-१२८ ॥ कृपाइत्यादिषु शब्देषु श्रादेऋत इत्वं भवति ।। किचा । हिययं । मिट्ठ रसे एव । अन्यत्र मई । दिटुं । दिट्ठी । सिद्ध सिट्टी गिट्टी गिएठी। पिच्छी । मिऊ । मिङ्गो । भिगारी। सिङ्गारो। सिपाली । धिणा । घुसिणं । विद्ध-कई । समिद्धी । इदी । गिद्धी । किसी । किसाण । किस।। किन्छ। तिप्प । किमिश्रो । नियो। किच्चा । किई | धिई । कियो । किषिणो। किवाणं । विचुनी। वितं । वित्ती हि । वाहितं । बिहियो । विसी । इसी । विहो । छिहा । सह। उकिट्ठ। निसंसो ।। क्वचित्र भवति । रिद्धी कृपा । हृदय । मृष्ट । दृष्ट । दृष्टि । सृष्ट । सृष्टि । गृष्टि । पृथ्वी । भृगु । भृङ्ग । भृङ्गार | शृङ्गार । शृगाल । घृणा । घुसण । बद्ध कधि । समृद्धि। ऋद्धि । गृद्धि । कृश । कृशानु । कृसरा कृछ । तप्त । कृषित । नृप । कृत्या । कृति । धृति । कुप । कपण । कृपाण । पश्चिक । वृत्त । वृत्ति । हत । ध्याहृत । वृहित । वसी । ऋपि । वितृष्ण । स्पृहा । सकृत । उत्कृष्ट ! नृशंस ! । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१३६ T अर्थ:---कृपा आदि शब्दों में रही हुई आदि 'ऋ' की 'इ' होती है। जैसे -कृपा = किया । हृदयम् हिययं । सृष्टम् == ( रस चाचक अर्थ में हो ) मिटु । मृष्टम् = ( रंम से अतिरिक्त अर्थ में ) मट्ठ । म् =दि | दृष्टिः = विडी | सृष्टम् सिहं । सृष्टिः मिट्टी । गृष्टि = गिट्टी और गिष्ठी । पृथ्वी = पिच्छी । भृगुः =भिक । भृङ्गः भिङ्गो । भृङ्गारः भिकारी । शृङ्गारः = सिङ्गारो 1 श्रृगालः = सियालो । घृणा - घिरा । घुसृणम् = घुमिरणम् । वृद्ध कविः = वि-कई । समृद्धिः समिद्धी । ऋद्धिः = इद्धि । गृद्धिः = गिद्धी । कुशः = किसो | कृशानुः = किसाणू | दुसरा = किसरा | कुच्छम् = किच्छं । नृप्तम् = तिप्पं । कृषितः=किंसिष्यो ! नृपः =नियो । कृत्या = किया | कृतिः = किई । घृतिः धिई | कृपः = किवी । 'कृपणः किञ्चिरणे । कृपार्णम किवाणं । वृश्चिक: वित्रुओं । वृत्तम् = वित्त' | वृत्तिः वित्ती हृतमयं । व्याहनम =वाहित | बृंहितः हि । वृसी विसी । ऋषिः इसी । वितृष्णः = : विरहो | स्पृहा बिहार सकृत् = सह | टम उफ्रिकटु । नृशंसः = निसंसो । किसी किसी शब्द में 'ऋ' को 'इ' नहीं भी होती है । जैसे ऋद्धि रिद्धी 1. i:= - I : = = = कृपा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवा होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १२८ से आदि 'ऋ' को 'इ'; और (-२३१ से 'ए' का 'ष' होकर किंवा रूप सिद्ध हो जाता है । हृदयम् संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप हिय होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२५ से '' को 'इ' १-१७७ से 'इ' का लोप १-१८० से शेष 'अ' का 'ब' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और ४०२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर हिचर्य रूप सिद्ध हो जाता है । सृष्टम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप मिट्ठ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का '': २८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व '' २०६० से प्राप्त पूर्व 'ट' का 'ट; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक चञ्चन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यक के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-९३ से प्राप्त 'ग' का अनुस्वार भिट्ट रूप सिद्ध हो जाता है । · मुष्टम् संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप मट्ठ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'उसे प्राप्त 'ठ' का द्वित्व ''; २६० से प्राप्त पूर्व 'टू' का '': ३-२५ से अश्वमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मई रूप सिद्ध हो जाता है । दिट्ठ रूप की सिद्धी सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। इष्टः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप द्विी होता है, इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' की ''इ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'य'; २८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ' २६० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ट्; ३-१६ से प्रथमा विभति के एक वचन में स्त्रीलिंग से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' लेकर सिद्ध हो जाता है । : Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] * प्राकृत व्याकरण * पृष्टम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सिट्ट' होना है। इसमें सूत्र संख्या १-१२० से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट' का ठ'; २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'र' का 'द्', ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपु'सक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सिदई रूप सिद्ध हो जाता है। सृष्टिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिट्ठी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'२-३४ से 'ट' का ठू', २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट'; ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य द्वस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर सिदठी रूप सिद्ध हो जाता है। गुष्टिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गिट्टी और गिराठी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-६२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'ष्ट का 'ठ'; २-८८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २.१० से प्राप्त पूर्व '' का 'द'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर गिछी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सुत्र संख्या १-५२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से' का 'ठ'; १-२६ मे प्रथम आदि स्वर 'इ' के धागे पागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; और ३-.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर गिण्ठी रूप सिद्ध हो जाता है। पृथ्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिच्छी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ. की 'इ'; २-१५ से 'थ्व का 'छ'; २-८८ से प्राप्त छ' का द्वित्य 'कुछ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ,' का " होकर पिच्छी रूप सिद्ध हो जाता है। भृगुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मिऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१४७ से 'ग्' का लोप; और. ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ॐ' होकर भिऊ रूप सिद्ध हो जाता है। भुंग : संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भिङ्गो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय फी प्राप्ति होकर भिल्गी रूप सिद्ध हो जाता है। भुंगार: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भिकारी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थात पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भिंगारो रूप सिद्ध हो जाता है। श्रकारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिङ्गारो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से '' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * +++++++ की 'इ'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिङ्गारो रूप सिद्ध हो जाता है । [१४१ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय सुगाल" संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिधाली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'श' का 'स्'; १-१७७ से 'ग' का लोप वन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की जाता है । और ३-२ ले प्रथमा विभक्ति के एकप्राप्ति होकर सिभालो रूप सिद्ध हो संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थिया होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से '' की 'इ' होकर विणा रूप सिद्ध हो जाता है । संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घुसियां होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ' म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुक्षिर्ण रूप सिद्ध हो जाता है । fe: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप विद्ध कई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२से 'ऋ' की 'इ'; १-१७७ से 'व्' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में अन्त्य tea स्वर '' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर विकई रूप सिद्ध हो जाता है । मिस्री शत्रु को सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। ऋद्धिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इद्धी हो जाता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' की 'इ; और ३०१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर ही रूप सिद्ध हो जाता है । शृद्धिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गिद्धी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६८ से 'ऋ' की 'इ'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर गिव रूप सिद्ध हो जाता है । कृशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप किसो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१९८ से 'ऋ' को 'इ'; १-६६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसो रूप सिद्ध हो जाता है । कृशानुः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप किसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१९२८ से '' की 'इ'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसाण रूप सिद्ध हो जाता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण - कृसरा संस्थत रूप है । इसका प्राकृत रूप किसरा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१९८ से '' की 'इ'; होकर किसरा रूप सिद्ध हो जाता है। " . कृन्म संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किच्छ होता है। इसमें संख्या १९८ से 'ऋ' की 'इ': २१७६ से अन्य 'र' का लोप; २-८६ से शेष 'छ' का द्वित्व 'छ छ'; २-४.० से प्राप्त पूर्व छ' का 'च'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर किच्छे रूप सिद्ध हो जाता है। .. हप्तं संस्कृत विशेषरण है । इसका प्राकृत रूप तिप्पं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६२८ से 'ऋ' की इ;२-७७ से 'तू' का लोप, २-८८ से शेष 'प' का द्वित्व 'एप', ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर तिप्पं रूप सिद्ध हो जाता है। कृषितः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप किमिश्रो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-६२८ से 'यू' की 'इ ; १९६० से 'ए' का 'स'; १-१५७ से 'त्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किसी रूप सिद्ध हो जाता है। नृयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निको होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२३१ से 'प' का 'व';और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नियो रूप सिद्ध हो जाता है। - कृत्या स्त्री लिंग शब्द है । इसका प्रकृत रूप किसा होता है। इसमें सूत्र-संग्ख्या १५२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-१३ से 'त्य' का 'च'; और २-८८ से प्राप्त 'च' का द्वित्य सच' होकर किच्चा कप सिद्ध हो जाता है। कृति संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप किई होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-१५५ से 'न' का लोप; और ३-१६. से प्रथमा विभक्ति के एक बधम में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर किई रूप सिद्ध होता है। तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धिई होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'; १.१४४ से 'त्' का लोप; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिई रूप सिद्ध हो जाता है। ... कृपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किंवो होता है । इममें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२३१से 'प' का 'ब' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति होकर कियो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदप हिन्दी व्याख्या सहित * [१४३ किषिणो शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १४ में की गई है।. . कृपाणम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किवाणं होता है। इसमें-सूत्र-संख्या-१-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२३१ से प्' का 'व्' ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर कियाणं रूप सिद्ध हो जाता है। . . . . . . . . . पाश्चिकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विचुलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१८ से '' की , २-१६ से स्वर सहित 'श्चि' के स्थान पर 'कचु' का आदेश; -१४४ से क का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विखुओ रूप सिद्ध हो जाता है। तम् संस्कृत पाई। इसका प्राकृत पवित्र होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८ से 'श' की ६,३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की 'प्राप्ति, और १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर वित्तं रुप सिद्ध हो जाता है। त्तिः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप वित्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' की . 'इ'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्त्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर वित्ती रुप सिद्ध हो जाता है। . हृतम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रुप हिंअं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८ से 'ऋ' । की 'इ', १-१७७ से 'तु' का लोप; ३-५ से प्रथमा विभक्त्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की स्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हिमं रुप सिद्ध हो जाता है। व्याहत्तम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वाहित होता है। इसमें सूत्र संख्या २-- मे 'य' का लोप, १-१८ से न' की 'इ'; :-८८ से '' का द्वित्व 'त; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् की प्राप्ति; ६-१८३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर चाहते रूप सिद्ध हो जाता है। .. . हितः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप बिहिनो होता है। इसमें स्त्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'द'; १-१७७ से 'तू' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में पुल्लिग्ग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विहिजो रूप सिद्ध हो जाता है। . .. सी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपविसी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१९८ से '' की :इ होकर पिसी ए सिद्ध हो जाता है। .. .. . . . Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] * प्राकृत व्याकरणं ऋषिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इसी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; १-२६० से 'घू' का 'स्' और २-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान वर अन्त्य ह्रस्व स्वर ''का दीर्घ स्वर 'ई' होकर इसी रूप सिद्ध हो जाता है । विशेष है। इसका भाव तप विरहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-६२८ से 'ऋ' की 'इ': २०७५ से 'शा' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इन्हीं रूप सिद्ध हो जाता है। स्पृहा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लिहा होता है। इसमें सूत्र संख्या ६-१३ से 'स्प' का 'छ', 'और १-१२५ से 'ऋ' की 'इ' होकर बिहा रूप सिद्ध हो जाता है । सकृत् संस्कृत अव्यय है । इसको प्राकृत रूप स होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप: १-१२८ से 'ऋ' की 'इ' १-११ से अन्त्य व्यन 'तू' का लोप होकर सह रूप सिद्ध हो जाता है । उत्कृष्टम् संस्कृत बिशेषण है। इसका प्राकृत रूप उक्कट्ठ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' की 'इ'; २०७७ से 'तू' का लोप २-८ह से 'क' का द्वित्व 'क्क '; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; ०-८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व ठठ २ ६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' का '८'३ ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १०२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है । दर्शसः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निसंसी होता है। इसमें सूत्र संख्या १९२८ से 'ऋ' की '५' १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ख' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिसो रूप सिद्ध हो जाता है । ऋद्धिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रिद्धी होता है। इसमें सत्र संख्या १-१४० से 'ऋ' स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य जाता है ।। १२८ ॥ १-१२६ ॥ पृष्ठ शब्देऽनुत्तरपदे ऋत इद् भवति वा ॥ पिडी पट्टी | पिट्टि परिहविचं ॥ अनुत्तर पद इति कि । मवि ॥ की 'रि'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर रिद्धी रूप सिद्ध हो पृष्ठे वानुत्तरपदे ॥ अर्थ-यदि पृष्ठ' शब्द किसी अन्य शब्द के अन्त में नहीं जुड़ा हुआ हो; अर्थात् स्वतंत्र रूप से रहा हुआ हो अथवा संयुक्त शब्द में आदि रूप से रहा हुआ हो तो 'पृष्ठ' शब्द में रही हुई 'आ' को 'इ' विकल्प से होती है । जैसे- पृष्ठिः = पिट्टी और पट्टी । पृष्ठ-परिस्थापितम, पिट्ठि परिविष्ां । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિમ્બ્રેન મણીલાલ શા राम [१४५ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ***** सूत्र में 'अनुचर पर ' ऐसा क्यों लिखा गया है ? उत्तर- यदि 'पृष्ठ' शब्द आदि में नहीं होकर किसी अन्य शब्द के साथ में पीछे जुड़ा हुआ होगा तो पृष्ठ शब्द में रही हुई 'ऋ' की 'इ' नहीं होगी। जैसेमही पृष्ठम महिवष्टुं | यहाँ पर 'ऋ' की 'इ' नहीं होकर 'अ' हुआ है ॥ पिठ्ठी शब्द की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है। पृष्ठिः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप पट्टी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से '' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ठ'; का 'ह'२-८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठू' का 'द'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सिंप्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है । पुष्ठ-परिस्थापित संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप पिट्टि परिद्वविधं होता है। इसमें सूत्र संख्या १९२८ से 'ऋ' की 'इ'; २-३४ से 'छ' का 'ठ' १८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठूंठ' २०६० प्राप्त पूर्व'' का 'द'; १-४६ से प्राप्त 'द' में रहे हुए 'थ' की 'इ'; ४-१६ स े 'स्था' धातु के स्थान पर 'ठा' का आदेश; १ ६७ से 'ठा' में रहे हुए 'था' का 'अ' से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठूल २ - ६० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'टू'; १-२३१ से 'पू' का 'ब'; १-१७७ से 'न' का लोप; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिट्टि परिहवि रूप सिद्ध हो जाता है । महापृष्ठम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप महिव होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४ से 'ई' की 'इ'; १-१२६ से 'ऋ' का 'अ' १-२३१ से 'पू' का 'व्'; २-३४ से 'ष्ठ' का 'उ'; २-८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-६.० प्राप्त पूर्व '' का 'टू'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर महिषदं रूप सिद्ध हो जाता है । ।१२६॥ मसृण- मृगाङ्क-मृत्यु-भृंग धृष्टे वा ॥ १-१३० ॥ एषु ऋत इद् वा भवति ।। मसिणं मसणं । मिश्रङ्को मयको । मिच्चू । मच्चू सिंङ्ग संग | धिडो ॥ धड़ो । अर्थ:--मसूण, मृगाङ्ग, मृत्यु, वङ्ग, और धृष्टः इन शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से '' होती है। तदनुसार प्रथम रूप में 'ऋ' की 'इ' और द्वितीय वैकल्पिक रूप में 'ऋ' का 'न' होता है। जैसे-मभृणम् =मसिणं और मसणं । मृगाङ्कः = मिङ्को और मयको || मृत्युः = मिथू और मधू / || शृङ्गम् =सिङ्ग ं और सङ्ग' ।। धृष्टः धिट्ठो और थट्टो ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] * प्राकृत व्याकरण * 444444 मण संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप मसिर और मसणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या * १३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' और १-९२६ से 'ऋ' का 'अ' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार, होकर क्रम से मसिणं और मसणं रूप सिद्ध हो जाते हैं । मृगांकः संस्कृत रूप है । इस प्राकृत रूप मिश्री और मयको होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - १३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' १ ९७७ से 'गु' का लोप; १-८४ से शेष 'आ' का ''; और ३-२ से प्रथमा विभक्त के एक बंधन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कि अंकों सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'ग्' का लोप; ३-८४ से शेष 'आ' का ''; १-१८० से प्राप्त 'अ' वा 'य' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रति होकर मयंको रूप सिद्ध हो जाता है ! मृत्युः संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप मिळवू और मच्चू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.६३० से 'ऋ' की विवरुप से 'इ'; २-१३ से ६य् के स्थान पर 'च्' का आदेश; २८६ से आदेश प्राप्त का द्वित्व और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्व हस्व स्वर ' ं' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर मिच्छु रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'श्च'; और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर मह रूप सिद्ध हो जाता है । संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सिङ्ग और सन' होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ'; और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' का 'अ' १-२६० मे 'शु' का 'स्; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ''प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर श्रम से सिंगं और संगं रूप सिद्ध हो जाते हैं । हृष्टः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप धिट्ठो और धट्टो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१३० से 'ऋ' की विकल्प से 'इ' और द्वित्य रूप सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २०१६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ' २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठू' का टू' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से fver और घो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १-१३० ।। उत्त्रादौ ।। १-१३१ ॥ ऋतु इत्यादिषु शब्देषु श्रादे'त उद् भवति ॥ उ । परामुट्ठी । पृट्ठी । पउट्ठों हई । पउत्ती । पाउसो पाउयो । भुई । पहुडि । पाहुडं । परहु । निहुअं । निउ । चिउ ! संकुद्धं । वृत्तन्तो । निध्वु । निव्वुई । वृन्द । वृन्दावणो । त्रुड़ो । बुड्डी । उसहो । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१४७ मुणालं । उज्जू । जामाउओ। माउो । माउआ । भाऊो । पिउनो । पुहुवी ॥ ऋतु । परामृष्ट । स्पृष्ट । प्रवृष्ट । पृथिवी । प्रवृत्ति । प्राप् । प्राकृत । भृति । प्रभृति । प्राभृत । परभृत । निभृत । निवृत्त । विवृत । संत | वृत्तान्त नि त । निति । वृन्द । वृन्दावन । वृद्ध । वृद्धि | ऋषभ । मृणाल । ऋजु । जामाक । मातृक । मातृका । भ्राहका । पितृक । पृथ्वी | इत्यादि ।। अर्थ:-ऋतु इत्यादि शब्दों में रही हुई श्रादि 'ऋ' का 'ड' होता है । जैसे-ऋतु:= उक। परामृधः = परामुट्ठो । सृष्टः = पुट्ठो। प्रवृष्टः पट्ठो । पृथिवी-पुहई । प्रवृत्तिः = पउली। प्रावृष्= (प्राद)=पाउसो | प्रावृतः = पाजो । मानः भुई। प्रभृति = पहुडि । प्राभृतम् = पाहुब । परभृतः = परहुओ ! निभृतम् =निहुध । निवृत्तम् निउग्रं । विवृतम् = विउअं । संवृतम् =संवुन । वृत्तान्तः = चुत्तन्तो । निर्वतम-निव्युनं । निर्वृत्तिः =निव्वुई । वृन्दम्-बुन्दं । वृन्दावनो-वुन्दावणो ! वृद्धः- बुड्ढो । वृद्धिा वुड्डी । ऋषभः = उसहो । मृणालम्-मुपालं ! ऋजुः= उज्जू । जामाकः =जामाउओ | गाना - माउ माका --लाममा सुकाउओ। पितृकः=पिउओ । पृथ्वी-धुहुवी। इत्यादि इन ऋतु आदि शब्दों में आदि 'ऋ' का 'उ' होता है; ऐसा जानना। मतुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उऊ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से '' का ज'; १-१७७ से 'त्' का लोप, और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ 'होकर उऊ रूप सिद्ध हो जाता है। .. परामृष्टः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप परामट्टो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से "' का ''; २-३४ से 'ट' का 'ठ', 25 से प्राप्त 'ठ का द्वित्व 'छ': २-६० से प्राप्त'पूर्व ' का ट्; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परामुट्ठो रूप सिद्ध हो जाता है। स्पृष्टः संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत रूप पुट्ठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-*-से आदि 'म्' का लोप; १-१३१. से 'ऋ' का 'उ'; २.३४ से 'फ्ट' का 'ट; २-4 से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ्ठ'; २-० से प्राप्नं पूर्व 'ठ' का 'द'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एफ बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुदठो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रकृष्ट : संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप पउट्ठो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-5 से र का लोप; १.१७७ से '' का लोप; १-१३१ सं 'ऋ' का 'उ'; २-३४ से 'ट' का 'ठ', २-८ से प्राप्त 'का द्वित्व 'छ' २-६० से प्राप्त पूर्व छ' का 'द'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउछो रूप सिद्ध हो जाता है ! Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] * प्राकृत व्याकरण * पुहई रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८८ में की गई है । प्रवास: संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप पउत्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; 1-१७७ से '' का लोपः १-१३१ 'ऋ' को 'उ'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पउत्ती रूप सिद्ध हो जाता है। पाउसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९ में की गई है। पावृतः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पाउनो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२.५ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' और '' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाउओ रुप सिद्ध हो जाता है। भृतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भुई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'भू' का 'उ'; १-१७७ से 'म्' का लोप; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की हाई पर शेका भुग हो जा है। प्रभात संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप पहुडि होता है। इसमें सूत्र संख्या-२-७ से '' का लोप; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; १-१३१ से ' का 'उ'; और १-२०६ से 'त्' का छ होकर पहुड सिद्ध हो जाता है। भाभतं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पाहुड होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-७ से 'र' का लोप; १-१८७ से 'म्' का 'ह'; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२०६ 'तू' का ''; ३-२५ से प्रथमा विभक्त्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति, और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पाहुई रूप सिद्ध हो जाता है। ___ पर भुतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप परहुओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भू' का 'ह; १-१३१ से 'ऋ' का ''; १-१७७ से 'त्'; का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परशुओ रूप सिद्ध हो जाता है ।। निभुतं संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निहुमं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-९८७ से 'भू' का 'ह';-१७७ से 'स्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मैं नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निन्नुभं रूप सिद्ध हो जाता है। निवृतं संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निउभं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से '' और 'तू' का लोप; १-५३१ से 'ऋ' का 'उ'; ३-२५ से प्रथमा विभषि के एक वचन में नपुसफ लिंग Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निउ रूप सिद्ध हो जाता है। संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप विउ 'व्' और 'सू' का लोप, १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; ३-२४ से में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और free रूप सिद्ध हो जाता है । [१४६ +++ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथमा विभक्ति के एक चचत में नपुंसक लिंग १००३ से प्राप्त म् का अनुस्वार होकर संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप मं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१७७ से 'स्' का लोप ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संयुर्ण रूप सिद्ध हो जाता है । वृत्तः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप वुप्तन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १–८४ से 'आ' का 'अ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। निस् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप निष्युचं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २२७६ से ' का लोप २-८६ से 'धू' का द्वित्व 'व्व'; १-१७७ से 'तू' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निष्टुभं रुप सिद्ध हो जाता है। निर्वृतिः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप frogई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'व' का 'उ'; २-७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से 'य्' का द्वित्व 'हव' १-१७७ से 'तू' का लोप; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' का दीर्घ स्वर 'ई' होकर निव्वुई रूप सिद्ध हो जाता है। सून्वं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप युन्दं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'छ' का ''; ३-२५ ले प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सुन्दै रूप सिद्ध हो जाता है । पुन्वायनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बुन्दाषणो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-१०८ से 'न' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुन्द्रावणो रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्ध' संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वुड, ढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३ से'' Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] ******** का 'उ'; २–४० से 'द्ध' का 'ढ'; २-८९ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ'; ६-६० से प्राप्त पूर्व 'व्' का 'ड'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण ट्राई का प्राकृत रूप वुड ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २-४० से संयुक्त व्यजन 'द्ध' का 'ढ'; से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'ढ' ६० से प्राप्त पूर्व 'द' का ड; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर बुड्ढी रूप सिद्ध हो जाता है । ऋषभः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उसही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; १-२६० से 'ष' का 'स' ११८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उसही रूप सिद्ध हो जाता है । मृणालं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मुणालं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१३' से 'ऋ' का 'उ'; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मृणाल रूप सिद्ध हो जाता है । ऋजुः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप उज्जू होता है। इसमें सूत्र संख्या ९-१३१ से '' का 'उ'; २०६८ से 'ज्' का द्वित्व 'जू'; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर उज्जू सिद्ध हो जाता है । जामातृकः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप जामा 'तू' और 'क्रू' का लोपः १-१३१ से 'ऋ' का ''; और ३-२ से में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामाजको रूप सिद्ध हो जाता है। होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग argh: संस्कृत विशेषण हैं। इसका प्राकृत रूप माउ होता है । इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'सू' और 'क्' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माउओ रूप सिद्ध हो जाता है। मातृका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माउश्रा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'न्' और 'क्रू' का लोप और १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' होकर माउआ रूप सिद्ध हो जाता है। भ्रातृकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भाउओ होता है। का लोप; १-१७७ से 'स्' और 'क' का लोप; १-१३१ से 'ऋ' का 'उ' एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय भाउओ रूप सिद्ध हो जाता है। के स्थान पर 'श्री' इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के प्रत्यय की प्राप्ति होकर F Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *पियोस हिन्दी माझ्या सहित * पिनुकः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप पिउश्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-७७ से 'त्' और 'क्' का लोप; २-१३१ से 'ऋ' का 'उ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्री प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिउओ रूप सिद्ध हो जाता है। पृथ्वी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुहवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; २-११३ से अन्त्य व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में 'उ' की प्राप्ति; १-१८७ से 'थ' का 'ह' होकर पुछपी रुप सिद्ध हो जाता है। निवृत्त-वृन्दारके वा ॥ १-१३२ ।। अनयो त उद् वा भवति ॥ निवुत्तं निअत्तं । वुन्दारया बन्दारया ॥ अर्थ:-निवृत्त और वृन्दारक इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे निवृत्तम् =निवृत्तं श्रथवा नियन्तं । वृन्दारकाः- बुन्दारया अथवा बन्दारया ॥ निवृत्तम् संस्कृत विशेषस है। इसके प्राकृत रूप निवुत्तं और निअर्स होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या-१-१३२ 'ऋ' का विकल्प से ''; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'स' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निथुतं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में -१२६ से 'ऋ' का 'अ'; १-१७७ से 'व' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् होकर निअसं रुप सिद्ध हो जाता है।। वृन्दारकाः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप वुन्दारया और वन्दारया होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-१-९३२ से '' का विकल्प से 'उ'; १-९७७ से 'क्' का लोप; १-१८० सं शेष 'अ' का 'य'; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में "जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और प्राम प्रत्यय का लोप, तथा ३-१२ से अन्त्य स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर घुन्दारया रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १२६ से 'ऋ' का 'अ'; और शेष साधनिका प्रथम रुप वत् होकर पन्दारया रूप सिद्ध हो जाना है। ॥ १-१३२॥ वृषभे वा वा ॥ १.१३३ ॥ अपभे ऋतो बेन सह उद् वा भवति ॥ उसह) वसहो ॥ अर्थः-चूषभ शब्द में रहीं हुई 'म' का विकल्प से '' के साथ 'उ' होता है। अर्थात् '' व्यञ्जन सहित 'ऋ' का विकल्प से 'उ' होता है। जैसे-वृषभः = उसहो और पसहो । इस प्रकार विकल्प पक्ष होने से प्रथम रूप में 'वृ' का 'ख' हुश्रा है और द्वितीय रूप में केवल 'ऋ' का 'अ' हुआ है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] * प्राकृत व्याकरण * उसहों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। वसहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है।।। १-१३३ ॥ गोणान्त्यस्य ॥ १-१३४ ॥ गौण शब्दस्य योन्त्य ऋत् तस्य उद् भवति ।। माउ-मण्डलं । माउ-हरं । पिउ-हरं । माउ-सिमा । पिउ-सिधा । पिउ-बणं । पिउ-वई ॥ अर्थ:--दो अथवा अधिक शब्दों से निर्मित संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए शब्द के अन्त में यदि 'ऋ' हो तो उस 'ऋ' का '' होता है। जैसे-मातृ-मण्डलम् =माउ-मण्डलं । मातृ-गृहम् = माजहरम् । पितृ-गृहम् =पिउ-हरं । मातृ-ब्वमा=माउ-सिधा । पितृ-ध्वसा=पिउ-सिश्रा । पित-वनम् - पिन वणं । पितृ-पतिः पिउ-वई ॥ मातृ-मण्डलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माउ-मण्डलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१३४ से 'ऋ' का '७'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-मण्डलं रूप सिद्ध हो जाता है। मानु-गृहम् संस्कृत 'रूप है । इसका प्राकृत रूप माउ-हर होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'तु का लोप; १-१३४ से अदि '' का 'उ'; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' का आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घ' का 'ह); ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर "म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउ-हर रूप सिद्ध हो जाता है। पितृ-गृहम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिउन्हरं होता है। इसकी साधनिका उपर वर्णित • 'मातृ-गृहम् =माउ-हरे' रूप के समान ही जानना । मातृ-वसा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माउ-सिआ होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप, १.१३४ से 'ऋ' का 'उ', २-१४२ से 'ज्वसा' शब्द के स्थान पर 'सिया' का आदेश होकर माउसिआ रूप सिटू हो जाता है। पितृ-स्वसा संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप पिउ- तिआ होता है। इसकी साधनिका ऊपर• वर्णित मातृ-प्यसा=माउ-सिआ ।। रुप के समान ही जानना । पितृ-वनम् संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप पिउ-वर्ण होता है। इसमें सूत्र-मख्या-१-१४७ से म् का लोप; १.१३४ 'ऋ' का 'उ'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिउ-वर्ण रुप सिद्ध हो जाता है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१५३ पित-पतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिउ-बई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'त्' का लोप, १-१३४ से 'प्रा' का 'उ'; १-२३१ से 'प' का 'ब' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुन्निग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिउबई रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-१३४|| मातुरिछा ।। १-१३५ ।। मात्र शब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति ।। माइ-हेर । माउ-हरं । कचिदगौणस्यापि । माईणं ॥ अर्थ:-किसी संयुक्त शब्द में गौण रूप से रहे हुए 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-मातृ-गृहम् माइ-हरं अथवा माउ-हरं ।। कहीं कहीं पर गौण नहीं होने की स्थिति में भी 'मातृ' शब्द के 'ऋ' की 'इ' हो जाती है। देश मातृणम् - सणं .। मानु-गृहम, संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप माइ-हरं और माउ-हर होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १.१३५ से आदि 'ऋ' की विकल्प से '; और शेष 'हरें' की सोधनिका सूत्र संख्या १-१३४ में वर्णित 'हरे रूप के अनुसार जानना । द्वितीय रूप 'माउ-हरं' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई है। मानुणाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माईणं होता है। इसमें सूत्र संख्या ६-१७७ से 'तू' का लोप; १-१३५ से 'ऋ' की 'इ'; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के अहु वचन में स्त्रीलिंग में 'श्राम्' प्रत्यय के स्थानपर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से 'श्राम् प्रत्यय अर्थात् 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होने के कारण से अन्त्म हस्त्र स्वर 'ह' की दीर्घ स्वर 'ई और १-२७ से प्राप्त ' प्रत्यय पर विकल्प से अनुस्वार की प्राप्ति होकर माईणं रूप सिद्ध हो जाता है । ।११-१३५।। उदूदोन्मृषि ।। १-१३६॥ सृपा शन्दे अत उत् ऊन् पोश्च भवति । मुसा । मूसा - मोसा । मुसा-वानी। मा-बाश्री मोसा-बानो॥ अर्थः--मृषा शब्द में रही हुई 'ऋ' का 'ज' अथवा 'x' अथवा 'यो होता है। जैसे-मृषा = मसा अथवा मूसा अथवा मोसा । मृषा-वानः-मुसा-बानो अथवा मूसा-वाओ अथवा मोमा-वात्रो । भूषा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप क्रम से मुसा, मूमा और मोसा होता है। इनमें सूत्रसंख्या १.१३६ से 'ऋ' का क्रम से 'उ' 'ऊ'; और 'ओ' और १-२६० से 'ष' का 'स' होकर कम से मुसा मुसा और मौसा रूप सिद्ध हो जाता है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * मुषायाः संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रूप मसाधाश्रो; मसावाश्रो; और मोसा-बाश्री होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-१३६ से 'ऋ के क्रम से और विकल्प से 'उ'; 'ऊ'; और 'ओ'; १-२६० से 'ए' फा स; १.१५७ से 'द का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुस्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से और विकल्प से मु याभो, मसाधाओं और मोसा-याओ रूप सिद्ध हो जाते हैं।।१-०३६॥ इदुतोवृष्ट-वृष्टि-पृथङ् मृदंग -नप्तृके ॥ १-१३७ ।। एषु ऋत इकारोकारौ भवतः ॥ विट्ठो बुट्ठो। बिड्डी युट्ठी। पिहं पुहं मिइंगो मुइंगो। नत्तियो नमो ____ अर्थः वृष्ट, वष्टिः पृथक् ; मदन और नातक में रही हुई 'x' की 'इ' और 'उ' क्रम से होते हैं । जैसे:-वृष्टः विट्ठी और बुट्ठो । वृष्टिः = पिट्टी और वुढी । पृथक्-पिहं और पुहं | मृदङ्गः = मिहङ्गो और महङ्गो ! नप्तकः= नत्तिश्रो और नत्तु ओ । वृष्टः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप षिट्ठो और वुट्ठो होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १.१३७ से 'ऋ' की विकल्प से अथवा क्रम से 'ब' और 'उ'; २-३४ से 'ट' का 'ठ'; २-से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ठ'; २-६० से प्राप्त पूर्व ‘ट्' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विदठी और घुटी रूप सिद्ध हो जाते हैं । युष्टिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप विट्ठी और बुट्ठी होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१३७ से 'ऋ' की बिकल्प से अथवा क्रम से 'इ' और 'उ'; २-३४ से 'ष्ट' का 'ठ'; २.८६ से प्राप्त 'ट' का द्वित्व 'छ', २०६० से प्राप्त पूर्व '४' का 'ट्' और प्रथमा विभक्ति के एक वयन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर पिटली और पुढी रूप सिद्ध हो जाते हैं ! पिहं अव्यय की मिद्धि सूत्र-संन्या १-२४ में की गई है। पृथर संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप पुह होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१३७ से 'शू' का 'उ'; १-६८७ से 'थ' का 'ह'; १-११ से अन्त्य व्यञ्चन 'क' का लोप और १-४ से आगम रूप अनुस्वार को प्राप्ति होकर पूह रूप सिद्ध होता है। मइलो रूप की सिद्धि सूत्र-माख्या १-४६ में की गई है। भगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मिइलो होता है । इसमें सूत्र-संख्या--१-१३५ से '' को 'इ'; १-१४७ से 'द' का लोप; १-४६ से शेष 'श्र को 'इ' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिइंगो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ***** [१५५ नकः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप नत्ति और नस श्रो होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या-२-७७ से 'प' का लोन, १-१३७ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; २८६ से 'तू' का द्वित्व ख ९- १७७ से 'कू' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से नसिओ एवं नत्तु रूप सिद्ध हो जाते हैं ॥ १-१३७॥ वा बृहस्पतौ ॥ १-१३= ॥ बृहस्पतिशब्दे ऋतौ वा भत्रतः । बिष्फई बुहप्फई | पक्षे कई ॥ अर्थ:--- बृहस्पति शब्द में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से एवं क्रम से 'इ' और 'उ' होते हैं। जैसे. बृहस्पतिः न बिहाफई और हफई । पक्ष में बहकाई भी होता है । बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इस रूप कई कई और बहफई होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-१३८ से 'ऋ' की क्रम से और विकल्प से 'इ' और 'उ'; तथा पक्ष में १-१२२ से 'ऋ' को 'अ'; २०५३ से 'रूप' का 'फ' २-५६ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व 'क' २०६० से प्राप्त पूर्व 'फू' का 'प्'; १-१७७ से 'सू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य स्वर 'इ' की दीर्घ स्वर 'ई' होकर क्रम से किई; बुहफई और पक्ष में बैकल्पिक रूप से बहफई रूप सिद्ध हो जाते हैं । ॥ १-१३८ ॥ इदेदोवृन्ते ॥ १-१३६ ॥ वृन् शब्दे तहत् एत् श्रोग्च भवन्ति ॥ त्रिएट वेराटं वोएटं ॥ अर्थ:- न्स शब्द में रही हुई '' की 'इ'; 'ए' और 'ओ' कम से एवं विकल्प से होते हैं । जैसे - वन्तम् - [विराट, बेस्ट अथवा बोटं । बोरदं होते है । इन में सूत्र- मंख्या वृतम् संस्कृत रुप है । इनके प्राकृत रूप विएदं, वेष्टं और १-९३६ से 'ऋ' की क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'इ' 'र' और 'ओ'; २-३१ से मंयुक्त 'त' का 'एट': ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुसार होकर क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से विटं वेष्टं और बोटं रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-१३६ ॥ रिः केवलस्य ॥ १-१४० ॥ केवलस्य व्यञ्जने नासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति ।। रिद्धी । रिच्छों ॥ अर्थः- किसी भी शब्द में यदि 'ऋ' किसी अन्य व्यक्जन के साथ जुड़ी हुई नहीं हो, अर्थात् स्वतंत्र Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * रूप से रही हुई हों तो उस 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का श्रादेश होता है । जैसे-ऋद्धिः-रिद्धी । ऋनःरिफ्लो । रिद्धी शब्द की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है। ऋक्षः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप रिच्छी होता है। इसमे सूत्र-संख्धा-१--१४० से 'ऋ' की 'रि'; २-१६ से 'क्ष' का ''; २-८ से प्राप्त 'छ' का द्वित्व 'छ.छ': २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' का 'च् और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रामि होकर रिच्छो रुप सिद्ध हो जाता है। ऋणज्षभत्वृषौ वा ॥ १-१४१ ।। ऋण ऋजु ऋषभऋतु ऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति ।। रिणं अणं । रिज्ज उज्जू . रिसहो उसहो । रिऊ उऊ । रिसी इसी ॥ अर्थ:-ऋण, ऋजु, ऋषम; ऋतु और ऋषि शब्दों में रही हुई 'ऋ' की विकल्प से रि होती है । जैसे-ऋणम् =रिणं अथयो अणं । ऋजुः रिज्जू अथवा अजू । ऋषभः =रिसहो अथवा उसो । ऋतुः =रिऊ अथवा उऊ । ऋषिः =रिसी अथवा इसी ।।। ऋणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रिण अथवा अर्ण होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४१ से 'भू' की विकल्प से 'रि'; ३- ५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में ''ि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होक रिणं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप अणे में सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'अ' और शेष साधनिका प्रथम रूप वत् जानना।। ऋजुः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप रिज्जू और उज्जू होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या-१-१४१ से '' की विकल्प से 'रि'; २-८E से 'ज्' का द्वित्व 'ज्ज' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' का दीर्घ स्वर 'ऊ' होकर रिज्जू रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में मूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' का 'उ'; शेष साधनिक प्रथम रूपवत् जानना । ऋषभः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिसहो और उसहो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-४१ से 'ऋ' की विकल्प 'रि'; १-२६० से 'ष' का 'स'; १-१५७ से भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिसाहो रूप सिद्ध हो जाता है। उमहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। मतुः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप रिऊ और उऊ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; १-७७ से 'त्' का लोप; और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१५७ में अथवा स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उका दीर्घ स्वर · होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है। उऊ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५३१ में की गई है । ऋषिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिसी और इसी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १.१४१ से 'ऋ' की विकल्प से 'रि'; १-६० से 'ए' का 'स्; और ३-१: से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इकी दीर्घ स्वर 'ई' होकर रिसी रूप सिद्ध हो जाता है। इसी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१.८ में की गई है। ।। १-१४१ ।। दृशः क्विप्-टक सकः ॥ १-१४२ ॥ कि टक सक इत्येतदन्तस्य दृशे र्धातो ऋतो रिरादेशो भवति ॥ रक | सरिरूषो । सरि-बन्दीणं ।। सदृशः। सरिसो। सदृक्षः । सरिच्छो । एवम् एवारिसो । भवारिसी । जारिसो । तारिसो । केरिसो। एरिसो | अन्नारिसो । अम्हारिसो। तुम्हारिसो।। टक्सक्साहचर्यात त्यदाद्यन्यादि [हे. ५-१ ] भूत्र-विहितः क्विबिह गृह्यते ॥ अर्थः यदि दृश् धातु में 'क्विप', 'टक', और 'सक्' कृदन्त प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'दश' धातु में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'रि' का आदेश होता है । जैसे-सर-सरि ।। सदृश -वर्णः = सरि-घण्णो । सदृश -रूपः-सरि-ख्यो । सदृश -चन्दीनाम्-सरि-वन्दीणं । सहशःसरिसो । सदृक्षः= सरिच्छो । इसी प्रकार से अन्य उदाहरण यों है:- एतादृशः= एअारिमो । भवादृशः-भवारिसो। यादृशः-जारिसो। तारशः तारिसो । कीरशः= कैरिमो । इदृशःएरिमो। अन्यादशः अन्नारिसो | अस्मादृशः = अम्हारिसो । युष्मादशः = तुम्हारिसो। इस सूत्र में 'टक्' और 'मक्' प्रत्ययों के साथ 'क्विप' प्रत्यय का उल्लेख किया गया है; इस पर से यह समझा जाना चाहिये कि इस सत्र को 'त्यायन्यादि-(हे० ५-१-१५२) सत्र के साथ मिलाकर पढ़ना चाहिये । जिसका तात्पर्य यह है कि 'तत्' आदि सर्वनामों के रूपों के साथ में यदि दृश धातु रही हुई हो और उस स्थिति में 'दृश 'धातु में क्विप् प्रत्यय लगा हुआ हो तो 'दृश' धातु को 'ऋ' के स्थानपर 'रि' का आदेश होता है। ऐसा वात्पर्य समझना। सदृश संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सरि होता है। इसमे मत्र मंल्या १-१४७ से 'द' फा लोप१-१४२ से 'ऋ' की 'रि' और ५-११ से 'क' का लोप होकर सरि रूप सिद्ध हो जाता है। __ वर्णः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वण्णा होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'ण' का द्वित्व 'एण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुलिंग में 'मि प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पण्णो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ * प्राकृत व्याकरण * सहक रूपः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सरियो होता है। इसमें मूत्र संख्या १.१४७ में से 'दु' और 'क' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' को 'रि'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिरूको रूप सिद्ध हो जाता है। सहर बन्दी नाम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सरि बन्दीणं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' और 'क' का लोप; १- ४२ से 'ऋ' की 'रि'; बन्दीनाम का मूल शब्द 'बम्दिन (चारणगायक) (न कि बन्दी याने कैदी) होने से सूत्र संख्या १-११ से 'न का लोप, ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहु बचन के प्रत्यय 'प्राम्' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' के पूर्व हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति; और १-२७ से प्राप्त 'ण' पर श्रागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर सरि-यन्दोणं रूप सिद्ध हो जाता है। सहशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सरिसो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसी कप सिद्ध हो जाता है। सरिच्छो कप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। एतादृशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रुप पारिसो होता है। इसमें मत्र संख्या १-१७७ मे 'त्' और 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा यिभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एआरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। . भवादृशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप भवारिसी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से 'द्' का लोपः।-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-०६० से 'श' का 'स' और ३-२ में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भवारिसी रूप सिद्ध हो जाता है। यादशः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रुप जोरिसो होता है । इसमें सूत्र सख्या १-२४५ से 'च' का 'ज -१४७ से 'द्' का लोप; १-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारिसी रुप सिद्ध हो जाता है। सादृशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप तारिसो होता है । इसमें सूत्र संख्या ५-१४७ से 'दु' का लोप; १-१४२ में 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री प्रत्यय को प्राप्ति होकर सारितो रुप सिद्ध हो जाता है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित रिस रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १०५ में की गई है। एरिस रूप की सिद्धि सत्र संख्या १०५ की गई है । ५ [१५६ अन्याद्दशः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप अन्नारिस होता है। इसमें सूत्र संख्या -२-७८ से 'यू' का लोप २-८६ से 'न' कः द्वित्व 'न' १-१७७ से 'दू' का लोप ९-१४२ से 'ऋ' की 'रि'; १२६० से 'श' का 'स्'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्नरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। अहः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप अम्हारिसों होता है । इसमें सूत्र संख्या २७४ से 'रम्' के स्थान पर 'ह' का आदेश; १-१७७ से 'दू' का लोप १-१४२ से 'ऋ' को 'रि; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की है। सुष्मासः संस्कृत विशेष है। इसका प्राकृत रूप तुम्हारिमो होता है । इसमें सूत्र संख्या- १-२४६ से 'य्' के स्थान पर 'तू' का आदेश २०७४ से 'म्' के स्थान पर 'म्ह' का आदेश; १-१७७ से 'दु' का लॉप, १-१६२ से 'ऋ' की 'रि'; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुम्हारिसों रूप सिद्ध हो जाता है ।। १४२ ।। श्रादृते दि: ॥ १-१४३ ॥ यादत शब्दे ऋतो बिरादेशो भवति । श्रादिओ || अर्थः- आइत शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'वि' आदेश होता है । जैसे - आइतः का आदिश्र ॥ wer: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप श्रढियो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१७७ मे दू का जप १-६४३ से 'ऋ' की 'दि १-१७७ से न' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आढिओ रूप सिद्ध हो जाता है ||४३|| 3 रिते ॥ १-१४४ ॥ स शब्दे ऋतो रिरादेशो भवति || दरियो | दरित्र - सौदे || अर्थ: शब्द में रही हुई 'ऋ' के स्थान पर 'अरि' प्रदेश होता है। हप्तः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप दरिओ होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१४४ से 'ऋ' के स्थान पर 'र' का प्रदेशः २००७ से 'पू' का लोप १-१७७ से 'स' का लोप; और ३-५ से प्रथमा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] * प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर दरिओ रूप सिद्ध हो जाता है। इप्त - सिंहेन संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दरिश्रमीण होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१४४ से ॠ के स्थान पर 'रि' का आदेश; २०७७ से 'प' का लोपः १-१७७ सं' 'तू' का लोप; १६२ से स्व 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६ स अनुस्वार का लोप ३-६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'दा' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की आदेश रूप से प्राप्ति; और ३-१४ से प्राप्त 'य' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ह' के '' को 'ए' होकर 'दरिल सहज रूप सिद्ध हो जाता है | ॥ १४४ ॥ लुत इलिः क्लृप्त- क्लुन्ने ॥ १-१४५ ॥ अनपोत इलिरादेशो भवति ॥ किलित्त-कुभोवारेसु || धारा किलिम-वत्तं ॥ अर्थः- क्लृप्त और क्लून इन दोनों शब्दों में रही हुई 'लू' के स्थान पर 'इति' का आदेश होता । जैसे - तृप्त - कुसुमोपचारेषु किलित - कुसुमो क्यारे ॥ धारा-क्लृन्न पात्रम् = धारा- किलिन्न-वत्त ं ॥ = क्लप्त - कुसुमपचारेषु संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किलितकुसुमोक्यारे होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४५ से 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश; २-७७ से 'पू' का लोप; २-५६ से 'त' का द्वित्व 'त'; १-२३१ से 'प' का 'व' १-१७७ से 'च' का लोप; १-१८० से शेष 'आ' का 'या'; १-२६० से 'घू' का 'स्' और ३०१५ से सप्तमी त्रिभक्ति के बहुवचन में प्राप्त 'सु' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'र' के 'अ' का 'ए' होकर किलित्त-कसमोषयारेसु रूप सिद्ध हो जाता है। धारा-क्लृन्नन्यात्रम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धारा-किलिन्न-वत्त होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४५ से 'लू' के स्थान पर 'इलि' का आदेश १-२३१ से 'पू' का ''; १ ८४ से 'आ' का 'अ'; २७६ से 'र्' का लोप २-८६ से शेष 'स' का द्वित्व 'त' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर धारा- किलिन रूप सिद्ध हो जाता है । । १४५ ।। एता वेदना पेटा देवर - सरे ॥ १-१४३ ॥ -1 वेदनादिषु एत इच्वं वा भवति ॥ विश्रणा वेणा । चविडा | विश्रडचवेडा विणोश्रा । I दिरो देवरो || मह महिम दसरा-किसरं । कैंसरं || महिला महेला इति तु महिला महेलाय शब्दाभ्यां सिद्धम् ॥ अर्थः-- वेदना, चपेटा, देवर, और केसर, इन शब्दों में रही हुई 'ए' की विकल्प से 'ह' होती है । जैसे- वेदना विवरणा और वेषणा || चपेटा चfear || विकट चपेटा-विनोदावयवेढा. = 김 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६१ .... वियो || देवरः = रिधरो और देवरी || मह महिल-दशन केसरम् मह माहे-दसरा - किसरं ॥ अथवा केसरं || महिला और महेला इन दोनों शब्दों की सिद्धि क्रम से महिला और महेला शब्दों से ही जानना । इसका तात्पय' यह है कि 'महेला' शब्द में रही हुई 'ए' की 'इ' नहीं होती हैं। दोनों ही शब्दों की सत्ता पारस्परिक रूप से स्वतंत्र ही है । घेदना संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप विवरण और वे अणा होते हैं। इसमें सूत्र संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'दु' का लोपः १-२२८ से 'न' का 'ए' होकर क्रम से विअणा और अणा रूप सिद्ध हो जाते हैं । चपेटा संस्कृत रूप हैं । इसकर प्राकृत रूप चविडा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-२३१९ से 'प' का 'ब'; और १-१६५ से 'टू' का 'ढ होकर विडा रूप सिद्ध हो जाता है । fone चपेटा - fear संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप विश्रड-चवेडा - विणोआ होता हैं । इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'क' का लोप; १-१६५ से 'द्' का 'ड; १-२३१ से 'पू' का 'बू' १ - १६५ से 'ट' का 'ड'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और १-१७७ से 'दु' का लोप होकर विभड घडा-विणोभा रूप सिद्ध हो जाता है । देवर: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप दिश्ररो और देवरो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; १-१७७ से 'यू' का विकल्प से लोप; और ३- से प्रथमा विभक्ति के एक चचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दिअरी और देवरी रूप सिद्ध हो जाते हैं । महमति संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप मह महिश्र होता हैं। इसमें सूत्र संख्या १-७७ से 'तू' का लोप होकर मह महिन रूप सिद्ध हो जाता है । प्रशन संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप दसरा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' और १- २८ से 'न' का 'ए' होकर दस रूप सिद्ध हो जाता है ! केसरम् संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप किस और कैंसर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१४६ से 'ए' की विकल्प से 'इ'; २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से किसरं और केसर रूप सिद्ध हो जाते हैं । महिला संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप भी महिला ही होता है। इसी प्रकार से महला भी संस्कृत शब्द है और इसका प्राकृत रूप भी महेला होता है । अतएव इन शब्दों में 'ए' का 'इ' होना श्रावश्यक नहीं है | ॥ १४६ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] * प्राकृत व्याकरण * ऊः स्तेने वा ॥ १-१४७ ॥ स्तेने एत उद् वा भवति || धूणो थेणो । अर्थः-'स्तेन' शब्द में रहे हुए 'ए' का विकल्प से 'ऊ होता है । जैसे-शेनः=थूणो और थेणो । स्तेमः संस्कृत पुल्लिंग रूप है । इसके प्राकृत रूप धूरणो और थेयो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २४५. से 'स्त' का स्थ'; १-१४७ से 'ए' का विकल्प से ''; १-२२८ से 'न' का 'ण'; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक धचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से थूणो और येणो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ।। १४७ ॥ ऐत एत् ॥ १-१४८ ॥ ऐकारस्यादौ वर्तमानस्य एवं भवति ।। सेला । सेलोक्कं । एरावणो । फैलासो । वेज्जो । केवो । वेहवे ।। भर्थः-यदि संस्कृत शब्द में श्रादि में ऐ' हो तो प्राकृत रूपान्तर में उस 'ऐ' का 'ए' हो जाता है। जैसे-शैलाः = सेला । त्रैलोक्यम् = तेलोक्कं । ऐरावणः परावणो । कैलासः = केलासो । वैनः धेजो। कैटभः= केटवो । वैधव्यम् = वेहव्वं ॥ इत्यादि । शला' का प्राकृत रूप सेला होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.६६८ से '' का 'ए'; ३-४ प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रयय का लोप, और ३-१२ से 'जस' प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' का 'या' होकर सेला रूप सिद्ध हो जाता है। त्रैलोक्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तेलोकं होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७५ से २.' का लोप; १-१४८ से 'गे' का 'ए'; २.७८ से 'य' का लोप; २-८८ से शेष 'क' का द्वित्व 'क'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसफ लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर तेझोक्कं रूप सिद्ध हो जाता है। ऐराषणः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप एरावगी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'वे' का 'ए'; और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एराषणो रूप सिद्ध हो जाता है। फैलासः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप केलासो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१५ से '' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केलासो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * iw: पैद्यः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धेजो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' का 'ग'; -२४ से 'र' का 'ज'; २-1 से प्राप्त ‘ज का द्वित्व 'उज'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। कटमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप फेढवो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४८ से 'ऐ' का '; १-१६६ से 'ट' का 'द'; १- ४० सेभ' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर केला प सिद्ध हो जाता है । वैधव्यम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत का वेटो गेता है। इसमें पर मंगल्या :-०४८ से ऐ' का 'क'; १-८७ से 'ध' का 'ह'; २-७८ से 'य्' का लोप; २८ से शेष 'व' का द्वित्व 'व्व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसके लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर बेहवं रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १४८ ।। इत्सैन्धव-शनैश्चरे ॥ १-१४६ ॥ एतयोरत इच्वं भवति ।। सिन्धवं । सणिकरो ॥ अर्थ:-सैन्धव और शनैश्वर इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' को 'इ' होती है। जैसे-सैन्धवम् -सिन्धर्व और शनैश्वरः = सणिच्छरो!। सैन्धवम् संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप सिन्धर्च होता है । इसमें स्त्र संख्या १-१४६ से रे की 'इ'; ३-२५ से प्रथमो विभक्ति के एक पचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सिन्धर्व रूप सिद्ध जाता है। निश्चर संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सरिणच्छरो होता है। इसमें सूत्र संख्या -६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १.१४६ से 'ऐ' की 'इ'; २-२१ से श्च' का 'छ'; २.८८ से प्राप्त 'छ' फा द्वित्व 'छछ': २-६० से प्रान पूर्व 'छ' का 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सणिच्छरोप सिद्ध हो जाता है । ॥ ४ ॥ सैये वा ॥ १-१५० ॥ सैन्य शब्दे ऐत हद् वा भरति ॥ सिमं से ॥ अर्थ:- सैन्य शम्म में रही हुई ऐ' की विकल्प से 'इ' होती है। जैसे-सैन्यम्-सि ॥ सन्यम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिन्नं और सेनं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.१५० से ऐ' की विकल्प से 'इ' और १-१४८ से 'ऐ' की 'ए'; २-७८ से 'य' का लोप; २८८ से शेष 'न' का हित्य Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] 'न'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और -२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सिन्नं ओर से रूप सिद्ध हो जाते है | || १५०।। * प्राकृत व्याकरण * दैत्यादौ च ॥ १-१५१ ।। 1 दैन्य । सैन्य शब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतो अह इत्यादेशो भवति । एत्वापवादः ॥ स ं । दहच्चो | दुइअ ं । अइसरि । मद्दरवो । बजवणो । दइव वइमालीश्रं । वइएसो वइए | | बद-भो । बहस्सायरो | कइभवं । वइसाहो । वइसालो । सहरं । चइत || दैत्य ऐश्वर्य । भैरव व जवन | दैवत । वैतालीय । देश । वेदेह । वैदर्भ वैशाख । वैशाल | स्वर । चैत्य । इत्यादि । विश्लेषे न भवति । चैत्यम् । चेमं ॥ चैत्य चन्दनम् । ची-वन्दणं ॥ I 1 श्वानर | केतव | I भावें | | अर्थ:-सैन्य शब्द में और दैत्य, दैन्य, ऐश्वर्य, भैरव, वैजवन, देवत, वैतालीय, वैदेह, वैदर्भ, Farar Ha, Fera, राज खैर, पेय इत्यादियों में हुए ऐ के स्थान पर 'इ' ऐसा आदेश होता है । यह सूत्र सूत्रसंख्या १-१४८ का अपवाद है । जैसे-सैन्यम् = सहनं । दैत्यः =दइच्चों | वैन्यम् - वहन्नं । ऐश्वर्यम् = श्रसरियं । भैरवः = भइरयो । वैजवनः = वइजवरण | दैवतम् इव । वैतालीयम् = वइआलीश्रं । वैदेश: - वहएसो । वैदेहः = बइ हो । वैदर्भः = वइदम्भो। वैश्वानरः = वइस्सारणशे । कैतवम् = कइवं । वैशाखः = वहसाहो । वैशालः = हमालो । स्वैरम् = सहरं । वैत्यम् = चइत्त' | इत्यादि । जिस शब्द में संधि-विच्छेद करके शब्द को स्वरसंयुक्त कर दिया जाय तो उस शब्द में रहे हुए 'ऐ' की 'अ' नहीं होती है । जैसे-चैत्यग्=चेश्रं ॥ यहाँ पर "चैत्यम्" शब्द में संधि-विच्छेद करके 'तिम्' बना दिया गया है; इसलिये 'चैत्यम्' में रहे हुए 'ऐ' के स्थान पर 'अ' आदेश नहीं करके सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' ही किया गया है। आर्ष-प्राकृत में 'चैत्य-वन्दनम' का 'चीवन्दणं' भी होता है ॥ सैन्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सङ्घनं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से 'मे' के स्थान पर 'इ' का यावेश; २७८ से 'यू' का लोपः २८६ से शेष 'न' का द्वित्व 'न'; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सनं रूप सिद्ध हो जाता है । दैत्यः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दक्षच्चो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'इ' का आदेश, २-१३ से 'त्य' का 'च से प्राप्त 'च' का द्वित्व 'च'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रहरी रूप सिद्ध हो जाता है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિમ્બ્રેન મણીયા સા gu #PRETING [१६५ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * दैन्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से ऐ' के स्थान पर 'अ' का प्रदेश २७८ से 'य्' का लोप २६ से शेष 'न' का द्वित्व 'म'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर वनं रूप सिद्ध हो जाता है । ऐ संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप असर होता है । इसमें सूत्र - संख्या १-१५१ से "" के स्थान पर "" का आदेश: २७६ से "व्" का लोपः १ - २६० से शेप "श" का "स"; २०१०७ से 'र्' में "इ" का आगम; १-१७७ से "यू" का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर असर रूप सिद्ध हो जाता है । मेरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भइरवों होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १५५ से "ऐ" के स्थान पर 'अइ" का आदेश; और ३. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "यो ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भइरको रूप सिद्ध हो जाता है। dres: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइजवणी होता है। इसमें सूत्र संख्या ४ - १५१ से "ऐ" के स्थान पर "अ" का आदेश १-२ से "न" का "ए"; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वहजवणो रूप सिद्ध हो जाता है। , द्वैषप्तम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दइयां होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से ' ऐ" के स्थान पर "अ' का आदेश; १-१७७ से "तू" का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "मू" प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त "मू" का अनुस्वार होकर व रूप सिद्ध हो जाता है । tarai संस्कृत रूप है । इसका प्रकृत रूप वह चाली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर '' का आदेश १-१७५ से 'लू' और 'य्' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त भू का अनुस्वार होकर पहली रूप सिद्ध हो जाता है । देश: संस्कृत विशेषण हैं। इसका प्राकृत रूप बरसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- ५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अह का आदेश: १- ७४ से 'दू' का लोप; १६० से 'श' का 'स' ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वइएसी रूप सिद्ध हो जाता है । 'देहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बल्हो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थानपर 'अन' का आदेश १-१७७ से 'द' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] * प्राकृत व्याकरण * . . । प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडएही रूप सिद्ध हो जाता है। - बैदर्भः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप यइदम्भी होता है। इसमें सून संरमा १-१५ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का आदेश; २.७६. से 'र' का लोप; २-८ से 'भ' का द्वित्व 'भभ'; २६ मे प्राप्त पूर्व "भू' का 'ब'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहइन्भी रूप सिद्ध हो जाता है। वैश्वानरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वइस्साणरो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५१ से ऐ के स्थान पर 'अई का आदेश; २-७६ से 'व' लोप,१-२६८ से 'श' का 'स'; २-८६.से प्राप्त 'स' का द्विन्व 'मम'; १-२२८ से 'न का 'गण'; और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिा में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इस्साणरी रूप सिद्ध हो जाता है। कैतषम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कईश्रव होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१५१ से ऐ के स्थान पर 'अव का आदेश; १. १:५७ से 'न् का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर काअवं रूप सिद्ध हो जाता है। _वैशाखः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वइमाम होता है। इसमें मूत्र संख्या १.१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' का श्रादेश; १-२६० से 'श' का 'म'; १-१८७ से 'ख' का ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घड़साहो रूप सिद्ध हो जाता है। वैशालः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप वइमालो होता है इसमें सूत्र संख्या १.१५१ से गो' के स्थान पर 'श्रइ' का प्रादेश; १-२६० से 'श' का 'स'; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर पइसालो रूप सिद्ध हो जाता है। स्वरम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मइरं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-6 से '' का लोप; १-१५१ से '' के स्थान पर 'अइ' का श्रादेशः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् प्रत्यय का अनुस्वार होकर "सहर" रूप सिद्ध हो जाता है। चैत्यम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप चइत और चइन होते हैं । इनमें सूत्र संख्या :-१५१ से 'गो' के स्थान पर 'अई' का आदेश, २-४ से 'य् का लोप; २.८६ से शेष 'त' का द्वित्व 'भूत'; ३- ५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर चइस प्रथम रूप सिद्ध हो जाता है। , Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६७ द्वितीय रूप (i) में सूत्र संख्या १-१४८ से 'ऐ' की 'ए' २१०७ से 'य' के पूर्व में 'इ' का आगम; ९-१७७ से म्' और 'य' का लोप; ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुसार होकर भी सिद्ध हो जाता हैं । चैत्य वन्दनम् संस्कृत रूप है। इसका श्रार्ष- प्राकृत में ची-बन्दणं रूप भी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१५१ की वृति से आर्ष-राष्ट से 'चैत्य' के स्थान पर 'वी' का आदेश १-२२८ से 'न' का 'ख' ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- ३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ची वन्दणं आर्ष-रूप सिद्ध हो जाना है । । - १५१ ।। रादौ वा ॥ १-१५२ ॥ वैरादिपु ऐः देश I हरे | कइलासो कैलासो | कहरवं रवं । इसवणी वेसत्रणो | वहसम्पारण सम्यायो । वइयालियो वैचालियो । वद्दसि बेसिनं । चेती || वर | कैलास | कैरव | श्रवण | वैशम्पायन । वैतालिक । वशिक । चैत्र । इत्यादि । 1 I अर्थ:- र, कैलाम, कैरव, वैश्रवण, वैशम्पायन, वैतालिक, वैशिक और चैत्र इत्यादि शब्दों में रही हुई ऐ के स्थान पर विकल्प से 'अ' आदेश भी होता है। आदेश के अभाव में शब्द के द्वितीय रूप में 'ऐ' के स्थान पर 'ए' भी होता है । जैसे - वैरम्वइरं और बेरं । कैलामः कइलामो और लामो कैरवम् = कइरवं और केरवं । वैश्रवणः = वइसवणो और वेसवसो | वैशम्पायनः = बहसम्पायशो और वेसस्यायो । वैतालिकः वालिओ और बेलिओ | वैशिकम् = वसि और वसिचं । चैत्रः = हत्ती और चेत्तो ॥ इत्यादि ॥ वह रूप की मिद्ध सूत्र संख्या १-६ में की गई हैं। E 11 वैरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वेरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से ऐ का ''; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नप सक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वैरं रूप सिद्ध हो जाता है। ' कैलासः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कलासो और केलासी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इ' का आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कइलासो रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप कला की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४म में की गई है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ * प्राकृत व्याकरण * कैरवम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कहरवं और फेरवं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५२ से 'ऐ के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अई' का श्रादेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में नएसक लिंग 'मि' प्रत्यरा के स्थान पर, 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप "कहर" सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप केरवं में सूत्र संख्या १.१४८ से 'ऐ के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचम में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप फेरवं सिद्ध हो जाता है। अषण: सस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वइसषणो और वेसवणो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-५५२ से रे' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अई का आदेश; २-६ से 'र' का लोप; १.२६० से शेष 'श' का 'स'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन से पुलिं ग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहसवणो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप वेसवणो में सूत्र संख्या १-५४८ से ऐ के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष सिद्धि उपरोक्त वइसवरण के अनुसार होकर वेसषणी भी सिद्ध हो जाता है । वैशम्पायमः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वइसम्पायपरे और वेसम्पायरणी होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५२ से 'ऐ' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'आई' का आदेश; १-०६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ए', और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहसम्पायणो सिद्ध हो जाता है। - द्वितीय रूप वेसम्पायणो में सूत्र संख्या १-६४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्रि; होकर वेसम्पायणी रूप सिद्ध हुआ। शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । तालिकः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप वालिओ और वेश्रालियों होते हैं। इनमें से प्रथम रुप में सूत्र-संख्या -१५२ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अई' का श्रादेश, १-१७५ से 'म' और 'क् का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पालिओ सिद्ध हो जाता है। . द्वितीय रूप वेथालियो में सूत्र-सख्या १-१४८ से 'ऐ' के स्थान पर ए की प्राप्ति और शेष-सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना। यो विभालिभो रुप सिद्ध हुआ । शिकम् संस्कृत रुप है। इसके प्राकृत रूप वइसिध और वेसिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५९ से 'ऐ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राइ' का आदेश; १.६० से 'श' का 'स'; १-१४७ से 'क' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६६ पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप से सिद्ध हो जाता है द्वितीय रूप (से) में सूत्र संख्या १-१४ से 'मे' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यो वेसिअं रूप सिद्ध हो जाता है । चैत्रः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप तो और चेत्तो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-१५२ से 'ऐ' स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऋ' की प्राप्तिः २०७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से 'ल' का द्वित्व 'त'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप ( चेत्तो) में सूत्र संख्या १-१४८ से 'के' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और शेष - सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यो चेत्ती रूप सिद्ध हुआ ।। १-१५२ ।। एच्च दैवे ।। १-१५३ ।। देव शब्दे ऐत एव अादेशो भवति || देव्वं दव्वं दहवं ॥ अर्थ:-- 'देव' शब्द में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'ए' और 'आह' का आदेश हुआ करता हैं। जैसे-दैवम् = देव्यं और दवं । इसी प्रकार से दैवम् = दइवं ।। १ 1 में दैवम् संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप देव दयं और दहवं होते हैं। इन में से प्रथम रूप सूत्र संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-६६ से 'ब' को विकल्प रूप से द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वच में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप देवं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१५३ से 'ऐ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही जानना । वो दध्वं रूप सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप में सूत्र संख्या १०:५३ से 'रे' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - ३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हर्ष रूप भी सिद्ध हो जाता है। ॥ ५३|१ - उच्चैनाचस्यैः ॥ १-१५४ अनयोः प्रम इत्यादेशो भवति । उच्चयं । नीच उच्चनीवाभ्याम् के सिद्धम् । उच्चनीचैसोस्तु रूपान्तर निवृत्यर्थं वचनम् ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] * प्राकृत व्याकरण * . अर्थ:--उच्चैः और नीः इन दोनों शब्दों में रही हुई 'ऐ' के स्थान पर 'अन' का आदेश होता है । जैसे-उच्चैः = उच्चभं और नीचः-नीचरं । उच्चैः और नीचैः शकों की सिद्धि कैसे होती है ? इस प्रश्न के दृष्टि कोण से ही यह बतलाना है कि इन दोनों शवों के अन्य रूप नहीं होते हैं; क्यों कि ये अव्यय है अतः अन्य विभक्तियों में इन के रूप नहीं बनते हैं। . उच्चैम् संस्कृत श्रव्यय है । इसका प्राकृत रूप उच्च होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अ' का आदेश १-१४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर उच्च रूप सिद्ध हो जाता है। नीचैस् संस्कृत श्रन्यय है । इसका प्राकृत रूप नीच होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५४ से 'ऐ' के स्थान पर 'अन' का आदेश; ५-२४ की वृत्ति से 'स्' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर मीयो कप सिद्ध हो जाता है । ईद्धये ॥ १-१५५॥ धैर्य शब्दे ऐत ईद् भवति ॥ धीरं हरइ विसाप्रो ।। अर्थः-धैर्य शब्द में रही हुई 'ऐ की 'ई' होती है। जैसे-धैर्य हरति विषादः-धीरं हर३ विसाश्रो॥ धैर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धीरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५५ से '' की ६२-६४ से 'र्य का विकल्प से 'र';३-५ से द्वितीय विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में अम्' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर धीर रूप सिद्ध हो जाता है। हरति संस्कृत सकर्मक क्रिया है । इसका प्राकृत रूप हरइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-१३६ से समान-कास में प्रथम पुरुष के एक बचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरइ रूप सिद्ध हो जाता है। . विषादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विसाओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से '' का 'स'; १-१४७ से 'द' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिसाओ कप सिद्ध हो जाता है॥1-५५५ ।। श्रोतोद्वान्योन्य-प्रकोष्ठातोद्य-शिरोवेदना-मनोहर. सरोरुहेतोच वः ॥१-१५६ ॥ एषु ओतोच वा भवति तत्संनियोगे च यथा संभवं ककार तकारयोर्चादेशः ॥ अमन Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१७१ | अन्नुन ं । पचट्टो पउड़ो ! आवज आउ । सिर विषणा सिरो-विश्रया । मगहरं मोहरं । सररुहं सरोरुहं || अर्थः- श्रन्योन्य, प्रकोष्ठ, श्रातोय, शिरोवेदना, मनोहर और मरोरुह में रहे हुए 'ओ' का विकल्प से '' हुआ करता है; और थ होने की दशा में यदि प्राप्त हुए उस 'अ' के साथ 'क्रू' वर्ण अथवा 'त्' वर्ष जुड़ा हुआ हो तो उस 'क् श्रथवा उस 'तू' के स्थान पर 'व्' वर्ण का आदेश हो जाया करता है जैसे--अन्योन्यम् = अन्नन्नं अथवा अन्नं । प्रकोष्ट : = पषट्टो और पट्टी । श्रतो आवर्ज और उज्जं । शिरोवेदना सिर- विश्ररणा और सिरो-विणा । मनोहरम् = मरणहरं और मोहरं । सरोरुहम् = सर रुहं और सरोरुहं ॥ अन्योन्यम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अन्नन्नं और अनं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २७८ से दोनों 'य्' का लोपः २-८६ से शेष दोनों 'न' को द्वित्व 'नून' की प्राप्तिः १-१५६ से 'यो' का विकल्प से 'छा'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप अन्नन्नं सिद्ध हो जाता द्वितीय रूप (अन्नं) में सूत्र संख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १-८४ से "ओ" के स्थान पर "अ" नहीं होकर "प्रो" को "उ" की प्राप्ति; और शेष सिद्धि प्रथम रूप जानना । यो अन्तुन्नं रूप सिद्ध हो जाता है । समान ही प्रकोष्ठः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पट्टो और पउट्टो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-७९ से "र्" का लोप १-१५६ से "ओ" का ""; १९५६ से ही "क" को "व्” की प्राप्ति; २-३४ से "ष्ट" का "ठ; २८६ से प्राप्त "ठ" को द्वित्व "ठठ" की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व "" को "द" की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "श्री" प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पषठो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (पट्ठी) में सूत्र-सख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १.८४ से "ओ" को "उ" की प्राप्ति; १-१७७ से "कू" का लोप, और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना ! यो उठो रूप सिद्ध हो जाता है । आतोद्यम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप आवज्जं और उज्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५६ से "थो" को "" की प्राप्ति और इसी सूत्र से "तू" के स्थान पर "बू" का आदेश; २-२४ से 'द्य" को "ज' की प्राप्तिः २ से प्राप्त "ज" को द्वित्व "ज्ज" की प्राप्ति, ३- २५ से प्रथमा विमति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म्" का अनुस्वार होकर प्रथम रूप आवज्जं सिद्ध हो जाता है । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * द्वितीय रूप (आउज्ज) में सूत्र-संख्या १-१५६ के अभाव में वैकल्पिक पक्ष होने से १८४ से "ओ" को “उ" की प्राप्ति; १.१७७ से "त" का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । यो आउज सिद्ध हुआ । शिरोपेतना संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सिरविश्रणा और मिरोवित्रणा होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से "श्री" को "श्र" की प्राप्ति; १-२६० से "" का "स"; १-१४६ से "ए" को 'इ" की प्राप्ति; १-१७७ से “दु" का लोप; १-२२८ से "न" का "ण"; संस्कृत-विधान से स्त्रीलिंग में प्रथमा-विभक्ति के एक वचन में “सि" प्रत्यय की प्राप्ति; इस “सि' में स्थित "इ" की इत् संज्ञा और सूत्र-संख्या १-११ से शेष "स्" का लोप होकर सिरविअणा और सिरोविअणा दोनों ही रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। ममोहरम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मणहर और मनोहरं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से "श्री" को "श्र" की प्राप्ति; १-२२८ से "न" का """; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर “म्" प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्" का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप मणहरं और मणोहरं सिद्ध हो जाते हैं। सरोरुहम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सरह और सरोरुह होसे हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१५६ से वैकल्पिक रूप से "ओ" को "अ" की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर “म्" प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त "म" का अनुस्वार होकर कम से दोनों रूप सररहं और सरोरुह सिद्ध हो जाते हैं । ।।५-१५६|| ऊत्सोच्छवासे ॥१-५७॥ सोच्छ्वास शब्दे अोत ऊद् भवति ॥ सोच्छनासः । सूसासो । अर्थः-सोच्छ्वास शब्द में रहे हुए "ओ" को "कृ" की प्राप्ति होती है । जैसे-सोच्छवामःसूसासो।। सोच्रवासः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सूसासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५७ से "श्रो" को "" की प्राप्ति; "च्छ्वा" शम्शंश का निर्माण संस्कृत-व्याकरण की संधि के नियमों के अनुसार "श्वा' शदर्शश से हुआ है; अत: २-७६ से 'छका लोप, - ६० से "श" का 'स"; और ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "श्री" प्रत्यय की प्राप्ति होकर ससासो रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-१५७ .. गव्यउ-प्रायः॥१-१५ गो शब्दे श्रोत; अउ आश्र इत्यादेशी मवतः ॥ गउनी । गउभा | गानो ।' हरस्स एसा गाई ।। . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अर्थः—गो शब्द में रहे हुए "ओ" के स्थान पर क्रम से "श्रउ' और "आ" का आदेश हुत्रा करता है । जैसे-गवयःTो और गउश्रा तथा गायो । हरस्य एषा गौ: हरस्म एसा गाई ।। गउओ और गरमा इन दोनों शरद-रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १.५४ में की गई है। गौः संस्कृत रूप (गो + सि) है । इसका प्राकृत रूप गाश्रो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१५८ से 'ओ' के स्थान पर 'पाय' का आदेश; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गाना रूप सिद्ध हो जाता है। हरस्य संस्कृत काप है । इसका प्राकृत रूप हरस्त होता है। इसमें 'हर' मूल रूप के साथ सूत्र संख्या ३-१० से पष्ठी विभक्ति के एक वचन का पुल्लिंग का 'रस' प्रत्यय संयोजित होकर हरस्स रूप सिद्ध हो जाता है। 'एसा' मर्व नाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३३ में की गई है। गौः संस्कृत (गो + सि)रूप है । इसका प्राकृत रूप गाई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५८ से 'ओं के स्थान पर 'आन' प्रादेश की प्रार, ३.३ से पुलिस के हीलिंग में रूपान्तर करने पर 'अन्तिम-श्र' के स्थान पर 'ई' की प्राप्रि; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इन-मज्ञा; और १-११ से शेष 'स्' का लोप: होकर गाई रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-१५८11 ओत प्रोत ॥ १.१५६ ॥ . औकारस्थादेरोद् भवति ॥ कौमुदी कोमुई ॥ यौवनम् जोवण ॥ कौस्तुभः कोत्धुहो । कौशाम्बी कोसम्बो ॥ क्रौञ्चः कीञ्चो ।। कौशिकः कोसियो । अर्थः यदि किसी संस्कृत शब्द के आदि में 'नौ' रहा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में उस 'श्री' फा 'श्री' हो जाता है। जैसे-कौमदी - कोमई ! यौवनम् = जोव्वर्ण ॥ कौस्तुभः = कोत्थुहो ॥ कौशाम्बी : कोसम्बी ।। क्रौञ्चः कोचो । कौशिकः = कोसिओ ॥ इत्यादि। कौमुदी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोमई होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१५६ से 'औ' के स्थान पर प्रो'; और १-१.५७ से 'द्' का लोप होकर फोसई रूप सिद्ध हो जाता है। यौषम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जोठवणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१५६ से 'श्री' के स्थान पर 'ओ'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; :-4 से 'च' का द्वित्य 'व्व'; १. २८ से 'न' का 'ण'; ३.०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर जोदयणं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] * प्राकृत व्याकरण कौस्तुमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोत्थुहो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१५६ से 'श्री' के स्थान पर 'ओ'; २-४५ से 'स्त' का 'थ'; २.८८ से प्राप्त 'थ' का द्वित्व श्य; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का ''; १ १८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्त के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर कोत्थुओ रूप सिद्ध हा जाता है। काशाम्बी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोसम्बी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १ १५६ से 'औ के स्थान पर 'ओ'; १-२६० से 'श' का 'स'; और १-१ से 'श्रा' का अ' होकर कोसम्बी रूप सिद्ध हो जाता है। काञ्चः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कोञ्चो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५६ से श्री' के स्थान पर 'ओं'; २-७ से 'र' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कोचो रूप सिद्ध हो जाता है। कौशिफः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कोसिश्री होता है । इममें सूत्र संख्या १-१५६ से श्रीमान पर 'यो': १.२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कोसिमो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥१-१५॥ उत्सौन्दर्यादौ ॥ १.१६० ॥ ___ सौन्दर्यादिषु शन्देषु श्रीत उद् भवति ॥ सुन्दरं सुन्दरि , मुजायणो । सुण्डो । सुद्धोधणी । दुवारिश्री । सुगन्धत्तर्ण । पुलोमी । सुवरिणी ।। सौन्दये। मोजायन । शौएड । शौद्धोदनि । दौवारिक । सौगन्ध्य । पौलोमी । सौवणिक ।। . अर्थः-मौन्दर्य; मौजायन; शौण्ड; शौद्धोदनि; दीवारिक; सौगन्ध्य; पौलोमी; और सौवणिक इत्यादि शयों में रहे हए. 'औ' के स्थान पर 'उ' होता है । जैसे-सौन्दर्यम् = सुन्दरं और सुन्दरिय; मौजायनः =म जायणो; शौण्डः-सुण्डो; शौद्धोदनिः =सुद्धोधणी; दौवारिका दुवारिओ; सौगन्भ्यम् = सुगन्धत्तर्ण; पौलोभी = पुलोमी; और सौवर्णिकः सुषषिणो ॥ इत्यादि ।। सुन्देरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है। सीन्द्रयम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुन्दरिश्र होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'श्री' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-९०७ से 'य' के पूर्व में ' का आगम; २-७८ से 'य' का लोप; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुन्दरि# रूप सिद्ध हो जाता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१७५ Hai n m ---- - - मौजायनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मञ्जायणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'श्री' के स्थान पर उ' को प्राप्ति; १.२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिर में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुजायणी रूप सिद्ध हो जाता है। झोण्डः संस्कृत रूप है । इसका सायात रूप गुण्डी होता है। दृसमें सूत्र संस्था १-२६० से 'श' का 'म'; १-१६० से 'औ के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुण्डो रूप सिद्ध हो जाता है। शौद्धोदामः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुद्धोअणी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१६० से 'यो' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; १-२२८ से 'न्' का 'ण'; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' होकर सुद्धोमणी रूप सिद्ध हो जाता है। दीपारिकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दुवारिश्रो होता है । इसमें सुत्र संख्या १-१६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; १-२७७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकह दुशरिओ रूप सिद्ध हो जाता है। सौगन्ध्यम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुगन्धत्तण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१५४ से संस्कृत 'त्व प्रत्यय वाचक 'य' के स्थान पर 'तण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सुगन्धत्तर्ण रूप सिद्ध हो जाता है। पीलामी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुलोमी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'श्री' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति होकर पुलोमी रूप सिद्ध हो जाता है। _ 'सावर्णिकः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सुवरिणो होता है। इसमें सूत्र संख्या — १-१६० से 'औं के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-5 से 'र' का लोप; २-८८ से 'ण' का द्वित्व 'एण'; ५-१७७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुपरिणओ रूप की सिद्धि हो जाती है ॥ १-१६० ।। कौशेयवे वा ॥ १-१६१ ॥ कौक्षेयक शब्दे औत उद् का भवति ।। कुच्छेअयं । कोच्छेअयं ॥ अर्थः--कौशेयक शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति विकल्प से होती है । जैसेकौशेयकम् =कुच्छेप्रयं और कोच्छेश्रयं ।। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] +44 * प्राकृत व्याकरण * कौक्षेयकम् संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप कुच्छेयं और कोकोअवं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१६१ से वैकल्पिक रूप से 'औ' के स्थान पर 'उ' को प्राप्ति २-१७ से च् के स्थान पर 'छ' का आदेश; २-०६ से प्राप्त 'छ' का द्रित्व छन; २६० से प्राप्त पूर्व 'छं' का 'च' १-७७ से 'य्' और 'क' का लोप; १९८० से शेष अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'य्' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कुच्छेअयं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप ( कोच्छेयं) में सूत्र संख्या १५६ से 'औ' के स्थान पर 'यो' की प्राप्ति; शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना यों कोच्छ्रयं रूप सिद्ध हुआ ।। १६२ ।। उः पौरादौ च ॥ १-१६२ ॥ 1 कौक्षेय पौरादिषु च श्रांत उरादेशो भवति ॥ कउच्छेयं ॥ पौरः । पउरो । पउरजणो ॥ कौरवः । करवी || कौशलम् । कउसलं । पौरुपम् | उरिसं । सौचम् | सउहं ॥ गौडः | गउचो || मौलिः | मउली । मौनम् । मउ || सौराः । सउरा ॥ कौलाः । कउला || । अर्थ:- कौक्षेयक; पौर-जन; कौरव; कौशल; पौरुष; सौध; गौड और कौल इत्यादि शब्दों में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'अ' का आदेश होता है। जैसे- कौक्षेयकम् = कउन्छेर्य पौरः = पउशे; पौरजनः - पर- जो; कौरवः = कडरबो; कौशलम् = कसलं पौरुषम् परिसं; सौधम् = सउह गौड: गउडो; मौलिः = मडली; मौनम् = मंडणं; सौरा:1:- सउरा और कौलाः - कउला इत्यादि ॥ = कौक्षेयकम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कच्छेयं होता है। इसमें सूत्र संख्या - १६२ से 'औ' के स्थान पर 'अ' का आदेश और शेप - सिद्धि सूत्र संख्या १-१६ में लिखित नियमानुसार जानना | यो फउच्छ्रेयं रूप सिद्ध होता हैं । चौरः संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप पडसे होता हैं । इस में सूत्र संख्या १-१६२ से 'द्यौ' के स्थान पर 'उ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउरो रूप सिद्ध हो जाता है । पार-जनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पर जो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-२ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर यउर-जणी रूप सिद्ध हो जाता है । कौरवः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कउरवो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६२ से 'औ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कउरवी रूप सिद्ध हो जाता है । ★ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * त्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१७७ 1. कौशलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उस होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से '' के स्थान पर 'अ' का आदेश १२२६० से 'श' का 'स' ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उस रूप सिद्ध हो आता है। परिसं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१११ में की गई है। सौथम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सजहें होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'उ' का आदेश; १-१८७ से 'ध' का 'ह'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सउ रूप सिद्ध हो जाता है । गैडः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गउड़ों होता है। इस में सूत्र संख्या १- १६२ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भउडी रूप सिद्ध हो जाता है । मौलिः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप मडेली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'आप' का आदेश और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' की दीर्घ 'ई' होकर मडली रूप सिद्ध हो जाता है। मौनम् : संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'ख' का प्रदेशः १-२२८ से 'न' का 'ए' ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रूप सिद्ध हो जाता है। सौराः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सउरा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'ओ' के स्थान पर 'अ' की आदेश प्राप्ति; २-४० से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में पुल्लिंग में में 'जस्' प्रत्मय की प्राप्ति और उसका लोप; ३-१२ से प्राप्त और लुम जम् प्रत्यय की प्राप्ति के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर '' होकर सउरा रूप सिद्ध हो जाता है। 4 कौला' संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कडला होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६२ से 'औ' के स्थान पर 'अ' की आदेश प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप; ३०१२ से प्राप्त और लुप्त जस् प्रत्यये के कारण से अम् हस्व स्वर 'अ' का दीर्घ स्वर 'आ' होकर कला रूप सिद्ध हो जाता है । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ ] * प्राकृत व्याकरण * आच्च गौरवे ॥ १-१६३ ॥ गौरव शब्द श्रौत श्रात्वम् अश्च भवति || गारवं गउर | अर्थ :- गौरव शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर क्रम से 'आ' अथवा 'अ' की प्राप्ति होती है | जैसे-गौरवम् = गारवं और गउरखं ।। गौरवम्, संस्कृत रूप है ! इसके प्राकृत रूप गार और गडरवं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या १-१६३ से क्रमिक पक्ष होने से 'श्री' के स्थानपर 'था' की प्राप्तिः ३००५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गार रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (गउर) में सूत्र संख्या १-१६३ से ही क्रमिक पक्ष होने से 'औ' के स्थानपर 'उ' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । इस प्रकार द्वितीय रूप गउर भी सिद्ध हो जाता है । ।।१-१६३।। नाव्यावः ॥ १-१६४ ॥ नौ शब्दे श्रौत भावादेशो भवति ॥ नात्रा || अर्थः- नौ शब्द में रहे हुए 'औ' के स्थान पर 'भाव' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसेनौ = नावा ॥ मौ संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूपः नावा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६४ से 'औ' के स्थान पर 'व' आदेश की प्राप्तिः १-१५ स्त्री लिंग रूप-रचना में 'आ' प्रत्यय की प्राप्तिः संस्कृत विधान प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'द्द' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्य ..व्यञ्जन 'सू' का लोप होकर नावा रूप सिद्ध हो जाता है । एत त्रयोदशादौ स्वरस्य सस्वर व्यञ्जनेन ॥ १-१६५ ॥ दश इत्येवंप्रकारेषु संख्या शब्देषु प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सह एव भवति || तेरह । तेवीसा । तेतीसा ॥ I अर्थः- त्रयोदश इत्यादि इस प्रकार के संख्या वाचक शब्दों में आदि में रहे हुए 'स्वर' का पर स्वर सहित व्यजन के साथ 'ए' हो जाता है । जैसे - त्रयोदश - तेरह त्रयोविंशतिः = तेबीसा और त्रयस्त्रिंशत् - तेतीसा । ॥ इत्यादि ॥ त्रयोदश संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेरह होता है। इसमें सूत्र संख्या २०७४ से '' " Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रिमोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१७६ में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'श्र' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति, १-२१६ से 'द' के स्थान पर 'र' का आदेश; और १-२६२ से 'श' के स्थान पर 'ह' को श्रादेश होकर तेरह रूप सिद्ध हो जाता है। त्रयोविंशति संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप तेवीसा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १,१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'यो' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति; ०२८ से अनुस्वार का लोप; १-६२ से हस्व इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति और इसी सूत्र से 'ति' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'ब' का 'या'; और ३-४ से प्राप्त 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेवीसा रूप सिद्ध हो जाता है। प्रयस्त्रिंशव संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तेत्तीसा होता है। इसमें सूत्र संख्या २.६ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-१६५ से शेष 'त' में स्थित 'अ' का और 'य' के लोप के साथ 'ए' की प्राप्ति २-७७ से 'सू' का लोप; १-२८ से अनुस्वार का लोप; २-७E से द्वितीय 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २-४ से शेष 'त' को द्वित्व 'सत्' की प्राप्ति; .२ से 'इ' की दीर्घ 'ई'; १-२६० से श' का 'म'; १-११ से अन्त्य व्यन्जन '' का लोप; ३-१२ से 'जस्' अथवा 'शस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने से अन्त्य 'अ' का 'या' और ३-४ से प्राप्त 'जस' अथवा 'श' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एवं इनका लोप हो जाने से तेत्तीसा रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-१६५ ॥ स्थधिर-विवकिलायस्कारे ॥ १-१६६ ॥ एषु प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् भवति । थेरो वेइल्ल । सुद्धविभइन्न-पसण पुञ्जा इत्यपि दृश्यते । एकारो॥ . __ अर्थ:--स्थविर, विचकिल और श्रेयस्कार इत्यादि शब्दों में रहे हुए श्रादि स्वर को पर-वर्ती घर सहित व्यन्जन के साथ 'ए' की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे-स्थविर =थेरोः विकिलम् = वेइल्लं; अयस्कार: एक्कारो । मुग्ध-विचकिल-प्रसून-पुजाः-मद्ध-विअइल्ल-पसूण-पुजा इत्यादि उदाहरणों में इस सूत्र का अपवाद भी अर्थात् “आदि म्वर को परवर्ती स्वर सहित व्याजन के साथ 'ए' की प्राप्ति" का प्रभाव भी देखा जाता है। स्थविरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स्' का लोप; १-१६६ से 'थवि' का 'थे'; ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के साथ 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थैरो रूप सिद्ध हो जाता है। पिचकिलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घेइल्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८.] ... - प्राकृत व्याकरण * .. से 'विच' का 'बे; १-१७८ से 'क्' का लोप; २-६८ से 'ल' का द्वित्व 'लल'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सिप्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्लि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर वेइल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। मुग्ध संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप मुद्ध होता है। इसमें सूत्र संख्या ६-१७७ से 'ग्' का लोप; २-८६ से शेष 'ध' का द्वित्त्र वधु'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'धू' का 'द्' होकर मुद्ध रूप सिद्ध हो जाता है। विवकिल संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रुप विश्रइल्ल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५७७ से '' और 'क' का लोप; और ८ से 'ल' को द्वित्व लूल' को प्राप्ति होकर पिअइल्ल रुप सिद्ध हो हो जाता है। असून संस्कृत रूप है । इसका माकृत रूप पसूण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'र' का लोप और १-२८ से 'न का 'ण' होकर पसूण रूप सिद्ध हो जाता है। पुडा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुछजा होता हैं। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और इसका खोप तथा ३-१२ से 'जम्' प्रत्यय की प्राप्ति एवं इसके लोप होने से पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' का 'या' होकर पुरुभा रूप सिद्ध हो जाता है। . . . . . . . . . . . . अयस्कारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप एकारी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से 'अय' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति, २-७ से 'म'. का लोप; २.८६ से 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्तिः और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एक्कारी रूप सिद्ध हो जाता है । ॥१-१६॥ . . वा कदले ॥१-१६७॥ . ___कदल शब्दे मादेः स्वरस्य परेण सस्वर-व्यञ्जनेन सह एदू का भवति ॥ केलं कयलं । केली कयली ।. .... . ... . ....:: . - अर्थ:-कदल शब्द में रहे हुए आदि स्वर 'अ' को परवर्ती स्वर सहित व्यन्जन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है। जैसे कदलम् = केलं और कयलं ।। कदली केली और कयली ।। कलम, संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केलं और कयलं होता है। इनमें से प्रथम स्प में सूत्र संखया १-१६७ से 'कद' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप केलं सिद्ध हो जाता है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१८१ द्वितीय रूप (कयलं) में सूत्र संख्या १-१७७ से 'दु' का लोप; १-१८० से शेष अ' का 'ब' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही जानना । इस प्रकार कयलं रूप भी सिद्ध हो जाता है। कवली संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप केली और कयली होते हैं। इनमें से प्रथय रूप में सूत्र संख्या १-२६७ से 'कद' के स्थान पर 'के' की प्राप्ति; संस्कृत विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; और प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत् संहा; तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप होकर प्रथम रूप केली रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (कयली) में सत्र संख्या १-१७७ से 'दु' का लोप; ५-८० से शेष 'अ' का 'य' और होम मिद्धि प्रथा कार के समान ना || मकार कयली रूप भी सिद्ध हो जाता है। ।।१-१६८।। वेतः कर्णिकारे ॥१-१६८।। कर्णिकार इतः सस्वर व्यञ्जनेन सह एद् वा भवति ।। करणेरं। करिणभारी !! अर्थः–कर्णिकार शब्द में रही हुई 'इ' के स्थान पर पर-वर्ती स्वर सहित व्याजन के साथ वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति होती है । जैसे-कर्णिकारः = करणेरो और करिणबारो॥ कणिकारः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप करणरो और करिणारी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २.८ से 'रण' का द्वित्व 'गण'; १-१६८ से वैकल्पिक रूप से 'इ' सहित 'का' के स्थान पर 'p' की प्राप्ति, और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम करणेरी रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय कप (करिणयारो) में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः २.८६ से 'ण' का द्वित्व 'एए'; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कण्णिभारी रूप भी सिद्ध हो जाता है। अयौ वत ॥१-१६६॥ अयि शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ऐत् वा भवति । ऐ बीहेमि । अइ उम्मत्तिए । वचनाकारस्यापि प्राकृते प्रयोगः।। . अर्थ:-'अपि' अव्यय सस्कृत शम्न में श्रादि स्वर 'अ' और परवर्ती स्वर सहित व्यन्जन 'वि' के स्थान पर अर्थात संपूर्ण 'अयि' अव्ययात्मक शब्द के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ऐ' की प्राप्ति होती है । जैसे--अयि ! बिभेमि =ऐ बोहेमि ॥ अयि ! उन्मत्तिके = अइ उम्मचिए । इस सूत्र में 'अमि' अव्यय के स्थान पर 'ऐ' का आदेश किया गया है। यद्यपि प्राकृत भाषा में 'ऐ' स्वर नहीं होता है, फिर भी । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] * प्राकृत व्याकरण इस अव्यय में सम्बोधन कप पान्य प्रयोग की स्थिति होने से प्राकृत भाषा में ये स्वर का प्रयोग किया गया है ।। आर्य संस्कृत अव्यय है। इसके प्राकृत रूप में और अइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-१६६ से 'अयि' के स्थान पर 'ऐ' का आदेश; हो जाता है। द्वित्तीय रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'य' का लोप होने से अइ रूप सिद्ध हो जाता है। बिभेमि संस्कृत किया पद है। इसका प्राकत रूप बीहेमि होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-५३ से 'भी' संस्कृत धातु के स्थान पर 'बीह' आदेश की प्राप्ति; ४-२३६ से व्यञ्जनान्त धातु में पुरुष-बोधक प्रत्ययों की प्राप्ति के पूर्व में 'अ' की प्राप्तिः ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर वैकल्पिक रुप से 'ए' का श्रादेश; और ३-१४१ से वर्तमानकाल में मृतीय-पुरुष के अथवा पत्तम पुरुष के एक वचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वीहोम रूप सिद्ध हो जाता है। उन्मत्तिके संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उम्मन्सिप होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'उत्त-मत्तिके' संस्कृत मूल रूप होने से 'त' का लोप; २-८८ से 'म' का द्वित्व' 'मम'; १-१७७ से 'क' का लोप; होकर उम्मत्तिए रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-१६६ ॥ प्रोत्पूतर-बदर-नवमालिका-नवफलिका-पूगफले ॥ १-१७० ॥ पूतरादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह ओद् भवति ॥ पोरो। बोरं । घोरी । नोमालिया ! नोहलिया : पोप्फल। पोप्फली ।। अर्थ:-पूतर; यदर; नवमालिका; नवफलिका और पूगफल इत्यादि शब्दों में रहे हुए, आदि स्वर के साथ परवर्ती स्वर सहित व्यब्जन के स्थान पर 'श्री' आदेश की प्राप्ति होती है । जैसेः-पूतरः = पोरो; बदरम् = बोरं; बदरी = बोरी; नषमालिका = नोमालिया; नवफलिका = नोहलिया; पूगफलम् = पोप्फलं और पूगफली =पोष्फली। पतरः संस्कृत शब्द है। इसका प्राकृत रूप पोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति अर्थात् 'पूत' के स्थान पर 'पो' को प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पोरो रूप सिद्ध हो जाता है। यदरम् संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप बोरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१०० से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'यो' श्रादेश की प्राप्ति; अर्थात् 'बद' के स्थान पर 'बो' की प्राप्ति;३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वधन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्रारित और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर घोर रूप सिद्ध हो जाता है। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१३ अदरी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से आदि स्त्रर 'अ' सहिन परवर्ती स्वर सहित 'द' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; अर्थात 'बद' के स्थान पर 'बी' की प्रापि, संस्कृन विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' को इत्संज्ञा; और १-२१ से शेष म्' प्रत्यय का लोप होकर बोरी रूप सिद्ध हो जाता है नवमालिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोमालिया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'द के स्थान पर 'श्री' श्रादेश की प्राप्ति; (अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति); १-१७७ से 'क' का लोप; संस्कृत-विधान से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोमालिया रूप सिद्ध हो जाता है । नषफालका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नोहलिया होता है । इममें सूत्र संख्या १-१७२ से अादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति (अर्थात् 'नव' के स्थान पर 'नो' की प्राप्ति) १-२३६ से 'फ' का 'ह'; १-१७७ से 'क् का लोप; संस्कृत-विधान से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति तथा प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्मज्ञा और १-११ से शेष 'स्' प्रत्यय का लोप होकर नोहलिआ रूप सिद्ध हो जाता है। पूग कलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोकलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१० से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर माहित 'ग' के स्थान पर 'श्रो' आदेश की प्राप्ति (अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राभिः) २-८६ से 'फ' का द्वित्व 'फ्फ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प' की प्रति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रापि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पोष्फलं रूप सिद्ध हो जाता है। पगफली संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोरफली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१ से श्रादि स्वर 'उ' सहित पर वर्ती स्वर सहित 'ग' के स्थान पर 'ओ' आदेश की प्राप्ति; (अर्थात् 'पूग' के स्थान पर 'पो' की प्राप्तिः) २-८६. से 'फ' का द्वित्व 'क'; २-६० से प्राप्त पूर्व ' को 'प' की प्राप्ति; संस्कृत-विधान के अनुस्वार स्त्रीलिंग के प्रथमा त्रिभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्रामि; इस में 'सि' प्रत्यय में स्थित्त 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से 'स्' का लोप होकर पोप्फली रूप सिद्ध हो जाता है। न वा मयूख-लवण-चतुर्गण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकमार कुतूहलोदूखलोलूखले ॥ १-१७१ ॥ मयूखादितु आदेस्वरस्य परेण सस्वर पञ्जनेन सह औद् वा भवति ॥ मोही मऊहो । लोणं । इस लपणुग्गमा । चोग्गुणो । चउग्गुणो । चोत्थो चउत्थो । चोत्थी चउत्थी । चोदह । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * चउदछ । घोदसी चउडसी। चोव्वारी चउठवारो। सोमालो सुकुमाली। कोहल कोउहल्लं । तह भने कोहलिए । मोहलो उऊहली । ओक्खलं । उलूहलं ।। मोरी मऊ इति तु मीर-मयूर शब्दाभ्यां सिद्धम् ।। अर्थ:-मयूख; लवण; लवणोद्गमा, चतुर्गुण. चतुर्थ, चतुर्थी, चतुर्दश, चतुर्दशी, चतुर, सुकुमार, कुतूहल, कुतूहलिका और उदूखल, इत्यादि शब्दों में रहे हुए आदि स्वर का परवर्ती स्वर सहित यजन के साथ विकल्प से 'श्रो' होता है। जैसे-मयूख: मोहो और मकहो । लवणम् = लोणं और लवणं । चतुर्गुणः = चोरगुरणो और घउग्गुणों । चतुर्थः = चोत्थो और चउत्थो । चतुर्थी =चोयी और चउत्थी ! चतुर्दशः = चोदहो और चउदहो । चतुर्दशीचोहसी और घरहमी । चतुर्धारः- चाव्वारो और चउव्वारो । सुकुमारः =सोमाली और सुकुमोलो । कुतूहलम् = कोहल और कोहल्लं । कुतूहस्लिके - कोहलिए और कुऊहलिए । उदूखलः = ओहलो और उऊहलो । उलूखलम् = प्रोक्खलं और उलूहलं । इत्यादि ।। प्राकृत शब्द मोरो और मऊरो संस्कृत शब्द मोरः और मयूरः इन अलग अलग शब्दों से रूपान्तरित हुए है; अतः इन शब्दों में सूत्र संख्या १-१७१ का विधान नहीं होता है। मयूखः संस्कृत शब्द है । इसके प्राकृत रूप मोहो और मऊहीं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'य' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'अयू' शब्दांश के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'नो' को प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप मोहो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप मऊही में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र संख्या १- ७७ से 'य' का लोप; और शेष मिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप मऊहो भी सिद्ध हो जाता है। लषणम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप लोणं और लवणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यजन के स्थान पर अाम् 'श्रय' शब्दोश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो की प्राति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप लोणे सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप लवणं में वैकल्पिक-विधान होने से सूत्र संख्या 1-१७१ की प्राप्ति का अभाव, और शेष सिद्धि प्रश्रम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप लषणं भी सिद्ध हो जाता है। इति संस्कृत श्रव्यय है। इसका प्राकृत रूप इन होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६१ से 'ति' में स्थित 'इ' का 'अ'; और १-१४७ से 'त्' का लोप होकर इअ रूप सिद्ध हो जाता है। . Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्यारूपा सहित # ******** [१८५ veertain: संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप लवगुग्गमा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'यो' का 'उ'; २७७ से 'दू' का लोपः २८६ से 'ग' को द्वित्व 'गत' की प्राप्ति; ३ २७ से स्त्री लिंग में प्रथमा विभक्ति और द्वितीया विभक्ति में 'जन्' और 'शस्' प्रत्ययों के स्थान पर वैकल्पिक पक्ष में प्राप्त प्रत्ययों का लोप होकर पुग्मा रूप सिद्ध हो जाता है । नुर्गुणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोग्गुणो और चउग्गुणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप चोग्गुणो में सूत्र संख्या १-१७९ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यंजन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दाश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'प्रो' की प्राप्ति २-७६ से 'र्' को लोप; २८६ से 'ग' को द्वित्व 'ग्ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'खो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोग्गुणी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में बैंक होने से १-१७७ से '' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप चउग्गुणो भी सिद्ध हो जाता है। चतुर्थः संस्कृत विशेष रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थो और चउत्थो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्तिः २०७६ से 'र' का लोप २८ से 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'धू' का 'त्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोत्थो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चत्यो में सूत्र संख्या ०-१७७ से 'तू' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर उत्था रूप भी सिद्ध हो जाता है । : चतुर्थी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोत्थी और चउथी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से चादि स्वर 'ख' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात् 'अ' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक से 'श्री' की प्राप्तिः २७६ से 'र' का लोप २-८६ से 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्तिः २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' का 'तू' और ३-३१ से संस्कृत मूल शब्द 'चतुर्थ' के प्राकृत रूप चोत्य में स्त्रीलिंग वाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बोत्थी रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चउत्थी में सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही होकर चस्थ रूप भी सिद्ध हो जाता है। संस्कृत विशेषण रूप हैं । इसके प्राकृत रूप चोरहो और उदहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से यादि पर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'सु' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात 'ऋतु' शब्दशि के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्तिः २००६ से 'र' का लोप; Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] * प्राकृत व्याकरण * २-८८ से 'द' को द्वित्व 'दु' की प्राप्तिा -२६२ से 'श' को 'ह' की प्राप्ति' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बोहो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'चउरहों में सूत्र संख्या ५-१७७ से 'स' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप घउदहो भी सिद्ध हो जाता है। चतुर्दशी संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चोदसी और चपदसी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यक-जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; २-४६. से 'र' का लोप; २८६ से 'द' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२६० से 'श् का 'स्' और ३-३१ से संस्कृत के मूल-शब्द चतुर्दश के प्राकृत रूप चौदस में स्त्री लिंग वाचक स्थिति में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप चोदसी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप रउद्दसी में सूत्र संख्या १-१४७ से 'तू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पाहसी भी सिद्ध हो जाता है। चतारः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप चोब्बारो और चजव्वारी होते हैं। इसके प्रथम रूप घोबारी में सूत्र संख्या १-१७१ से श्रादि स्वर 'अ सहित परवर्ती स्वर सहित 'तु' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अतु' शब्नांश के स्थान पर वैकल्पि रूप से 'श्रो' की प्राप्ति; २-४ से 'र' का लोप; २.८ से '' को द्वित्व 'व्वु' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोखारो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप चउव्यारो में सूत्र संख्या १-१७७ से 'न' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप घउधारो मी सिद्ध हो जाता है। मुकमारः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप सोमालो और सुकुमालो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सोमालो में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'फु' व्याजन के स्थान पर अर्थात् 'जकु' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' को 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सोमाली सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सुकुमालो में सूत्र संख्या १-२५४ से 'र' को 'ल' की प्राप्ति' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सुझुमालो भी सिद्ध हो जाता है। कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहल और कोहल्लं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलं में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर '' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' अन्जन Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિષ્ઠન માળીલાલ શાહ * प्रियोदय हिन्दा व्याख्या सहित १८७ के स्थान पर अर्थात, 'उत्' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कोहलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय कप कोउहल्लं की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। तह अव्यय की सिद्धि मन्त्र संख्या १.६७ में की गई है। मन्ये संस्कृत क्रियापद है। इसका प्राकृत रूप मन्ने होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४८ से 'य' का लोप; २-फर से शेष 'न' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति होकर मन्ने रूप सिद्ध हो जाता है। कुतूहलिक संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप कोहलिए और कुऊलिए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोहलिए में सूत्र संख्या १-१७१ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'तू' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात् 'उतू शब्दोश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'शो' की प्राप्ति; ९-१०७ से 'क' का लोप और ३-४५ से मूल संस्कृत शब्द कुतूहलिका के प्राकृत रूपान्तर कुहलिश्रा में स्थित अन्तिम 'श्रा' का संबोधन के एक वचन में 'ए' होकर प्रथम रूप कोहलिए सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कुहस्लिप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'तु' का लोप और शेष सिद्ध प्रथम रूप के समान ही होफर द्वितीय रूप कुकहलिए भी सिद्ध हो जाता है। उरखलः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अोहली और उऊहलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओहलो में सूत्र संख्या १-०७१ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'दू' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'उदू' शब्दांश के स्थान पर बैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओहलो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उऊहलो में सूत्र संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उऊहलो भी सिद्ध हो जाता है। उल्लूरबलम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप थोक्खलं और उलूहल होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ओक्खलं में सूत्र संख्या १-१७१ से सादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'लू पञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'उलू शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'यो' की प्राप्ति; - से 'ख को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ओक्खलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उस्तूहल में सूत्र संख्या १-९८७ से 'ख' को 'ह' और शेष सिद्धि प्रथम रूप के ममान ही होकर द्वितीय रूप उलूहलं भी सिद्ध हो जाता है। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण मोरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मोरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'मोरो' रूप सिद्ध हो जाता है। मयूरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मऊरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'यू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मऊरो रूप सिद्ध हो जाता हे। ।। १-१७१ ॥ अवापोते ॥ १-१७२ ॥ अवापयोरुपसर्गयोरुत इति विकल्पार्थ-निपाते च प्रादेः स्वरस्य परेण सस्वर व्यञ्जनेन सह श्रोद् वा भवति । अव । श्रोअरह। अवयरह । श्रीवासो अवयासो | अप | श्रीसरह अवसरइ । श्रोसारियं अबसारि ॥ उत । श्री वणं । ओ घणो। उप वणं । उन पणो । चित्र भवित । अवगयं । अवसदो । उप रखी ॥ अर्थ:-'अव' और 'अप' उपसों के तथा विकल्प-अर्थ सूचक 'उत' अव्यय के श्रादि स्वर सहित परवर्ती स्वर सहित व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव', 'अप' और 'उत' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति होती है। जैसे–'अव' के उदाहरण इस प्रकार है :-अवतरति = श्रोअरइ और अवयरइ । अवकाशः = ओसो और अघयासो। 'अप' उपसर्ग के उदाहरण इप्त प्रकार हैं:-अपमरति ओमरइ और अवसरह । अपसारितम् = श्रोसारिश्र और श्रवसारिश्र ॥ उत श्रव्यय के उदाहरण इस प्रकार है:-उतवनम् = ओ वणं । और उथ वर्ण । उतधनः = श्रो घणो और उअ घणो । किन्हीं कन्हीं शब्दों में 'अव' तथा 'अप' उपसगों के और 'उत' अव्यय के स्थान पर 'श्रो' की प्राप्ति नहीं हुश्रा करती है। जैसे अवगतम् = अवगयं ! अपशब्दः = अवसहो । उत रविः = उअ रखी ॥ अवतरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रूप ओभरह और अवयरइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप श्रीधरह में सूत्र-संख्या १–१७२ से श्रादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अव' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्री' की प्रामि; १-१७७ से '' का लोप और ३-१३६. से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय के प्राप्ति होकर प्रथय रूप ओअर सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप अवयरइ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'स्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'स' की प्रानि और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रुप अपयह भी सिद्ध हो जाता है। अवकाशः संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप ओबासो और अवयासो होते हैं। इनमें से प्रथम रुप ओश्रासो में सूत्र संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'अ' संहित परवर्ती स्वर सहित 'ब' व्यन्जन के " Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१८६ स्थान पर अर्थात् 'अव' उपसर्रा के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की प्रापि; १-१७७ से 'क' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओआसो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप अषयासो की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई हैं। अपसरति संस्कृत अकर्मक क्रियापद है। इसके प्राकृत रुप श्रोसरइ और अयसरह होते हैं । इनमें से प्रथम रुप श्रोसरइ में सत्र संख्या १-१७२ से श्रादिस्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपमर्ग के भ्यान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत-प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओसरह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप अवसरह में सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और शेष सिद्धि प्रथम कप के समान ही होकर द्वितीय रूप अवसरद भी सिद्ध हो जाता है।। अपसारितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रोसारिश्र और अवसारिश्र होते हैं । इनमें से प्रथम रूप श्रोसारिश्र में सूत्र संख्या ५-१७२ से श्रादि स्वर 'अ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' यजन के स्थान पर अर्थात् 'अप' उपमर्ग के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ओ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'म्' का लोप और १.११ से 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम कप आसारिअ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'अयसारिश्र में मूत्र संख्या ६-२३१ से. 'प' का 'क' और शेष सिसि प्रथम रुप के समान ही होकर द्वितीय रुप अवसारिज भी सिद्ध हो जाता है। . उतवनम् संस्कृत वाक्यांश है इसके प्राकृत रूप ओवणं और उअवणं होते हैं । इनमें से प्रथम रुप 'श्रोवणं' में सूत्र संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्याजन के स्थान पर अर्थात् 'उत' अव्यय के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की शप्ति; द्वितीय शब्द वणं में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' और १-११ से अन्त्य व्यसन 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप "आपण" सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप 'उग्र वएं में सूत्र-संख्या १-१४४ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रुप 'उअषण' भी सिद्ध हो जाता है। 'उत्तपनः' संस्कृत वाक्यांश है। इसके प्राकृत रूप 'श्रो घणों' और 'उअधणो' होते हैं । इनमें से प्रथम रुप 'श्रो घणणे' में सूत्र-संख्या १-१७२ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'त' व्यञ्जन फे स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रो' की प्राप्तिः द्वितीय शब्द 'घणो' में सूत्र-संख्खा १–२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ओषणो सिद्ध हो जाता है। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण * द्वितीय रुप उअघणों में सत्र संख्या १-१४७ से 'त्' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रुप के समान ही होकर वित्तीय रुप उअधणो भी सिद्ध हो जाता है। अवगतम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अवगयं होता है । इसमें सूत्र संख्या ६-१७७ से 'न' का लोपः १-१८० से शेष ' को 'य' की प्राप्ति; और १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर अवगर्य रुप सिख हो जाता है। अप शब्द संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप अवसद्दो होता है। इसमें सत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२६० से 'श' का 'स'; २-७६ से 'बू' का लोप, २-८८ से 'द' को द्वित्व 'द' की प्रति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अयसहो रूप सिद्ध हो जाता है। उत राव: संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप उअरवी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से 'त् का लोप होकर जन्म अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है । रवी में सत्र संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्मय के स्थान पर अन्त्य इत्व सर को दार्थ सरई की हाल होकर प्राकृत वाक्यांश उअरषी सिर से जाता है॥ १-१५२ ।। ऊचोपे ॥ १-१७३॥ उपशब्द अदिः स्वरस्य परेण . सस्वर व्यजनेन सह ऊत् श्रोच्चादेशौ वा भवतः ।। ऊहसिनं श्रोहसिनं उवहसिभ । ऊज्झाश्रो श्रीमाओं उबझाओ ! ऊबासो ओभासो उववासो॥ अर्थ:--'उप' शब्द में आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् संपूर्ण 'उप' के स्थान पर वैकल्पिक रुप से और कम से 'ऊ' और 'ओ' श्रादेश हुश्रा करते हैं। तदनुसार 'उप' के प्रथम रूप में 'क'; द्वितीय रुप में ओ' और तृतीय रूप में 'उव' क्रम से, वैकल्पिक रूप से और श्रादेश रूप से हुआ करते हैं। जैसे-उपहसितम् - अहमिश्र, श्रोहसिधे और उवहसिकं । उपाध्यायः = अमाओ, प्रोज्झाओ और उवमानो। उपवासः- उासो, श्रोत्रासो और उववासी ॥ उपहसितम् संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप उहसिनं, श्रोहसिनं और उबहसिधे होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊहमिश्र में सूत्र संख्या ३-१७३ से आदि स्वर 'उ सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' म्यजन के स्थान पर अर्थात् 'उप' शब्दशि के स्थान पर वैकल्पिक रुप से '' श्रादेश की प्राप्ति; १.१७७ से 'त' का लोप और १-२३ से अन्स्य 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप ऊहसिभ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप श्रोहसिनं में सत्र संख्या १-१५३ से बैकल्पिक रुप से 'उप' शब्दांश के स्थान पर 'ओ' श्रादेश की प्राप्ति और शेष सिथि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ओहसिभ भी सिद्ध हो जाता है। . Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६१ तृतीय रुप उवहसिथ में वैकल्पिक विधान की संगति होने से सत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'र' और शेष सिरि प्रथम रुप के समान ही होकर तृतीय रुप उपहासों मी सिद्ध हो जाता है। उपाध्यायः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अज्झायो, प्रोज्झाश्रो और उवमाश्री होते हैं । इनमें से प्रथम रुप ऊझाश्रो में सूत्र संख्या १.१७३ से श्रादि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यन्जन के स्थान पर अर्थात् 'उप' शब्दांश के स्थान पर वैकल्कि रुप से '' आदेश की प्राप्ति; १-८४ 'पा' में स्थित 'आ' को 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से 'ध्य' के स्थान पर झ' का आदेश; २-८६ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व मझ की प्रामि, २६० से प्राप्त पूर्व 'झ' का 'ज्'; १-१४७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्ययके स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अज्झामो सिस हो जाता है। द्वितीय रूप प्रोमाओमें सूत्र-सख्या १-७३ से वैकल्पिक रुप से 'उप' के स्थान पर 'ओं' श्रादेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रुप के समान ही होकर रितीय रुप भोजमामो सिर हो जाता है। तृतीय रुप उवझाश्रो में वैकल्पिक-विधान संगति होने से सूत्र-संख्या-१-२३१ 'क' का 'व' और शेष सिति प्रथम रूप के समान होकर तृतीय रूप उपज्झाओ भी सिद्ध हो जाता है । उपवासः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप उश्रासो, ओषधासो और उववासो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप ऊश्रासो में सूत्र संख्या १-१७३ से आदि स्वर 'उ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यन्जन के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'क' श्रादेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप ऊभासो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप श्रोधासी में सूत्र संख्या १-१७३ से वैकल्पिक रूप से 'उप' के स्थान पर 'ओं' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रुप के समान ही होकर द्वितीय रुप ओणासी मी सिम हो जाता है तृतीय रूपश्ववासो में वैकल्पिक-विधान की प्रगति होने से सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का '' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर तृतीय रूप उपचासी भी सिद्ध हो जाता है ॥ १-१७३ ।। उमो निषण्णे ॥ १-१७४ ॥ निषण्ण शन्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह उम आदेशो वा भवति । गुमण्यो सिणसण्णो ॥ अर्थ:-'निषण्ण' शब्द में स्थित आदि स्वर 'इ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'प' व्यञ्जन के Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] *प्राकृत व्याकरण * स्थान पर अर्थात 'इष' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उम' आदेश की प्राप्ति हुआ करती है। जैस-निषण्णः = गुमण्णो और णिसएणो ।। निषण्णः संस्कृत विशेषण रुप हैं। इसके प्राकृत रुप णुमएणो और णिसगणो होते हैं । इनमें से प्रथम रुप गुमरणो में सूत्र संख्या १-०२८ से 'न्' का 'ण'; १-१७४ से आदि स्वर 'इ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'ष' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'इष' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'उम' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप घुमण्णो सिर हो जाता है। द्वितीय रुप णिसएणो में सत्र संख्या १-२२८ से 'न्' का 'ण'; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ सप्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के ध्यान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रुप णिसण्णो भी सिद्ध हो जाता है । ।।२-१७४|| प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ॥ १-१७५ ॥ प्रावरण शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्त्रस्यजनेन सह अङ्ग, आउ इत्येतावादेशी या भवतः ।। पङ्ग रर्ण पाउरणं पावरयां ।। अर्थः-प्रावरणम् शब्द में स्थित श्रादि स्वर श्रा' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यजन के स्थान पर अर्थात् 'भाव' शब्दांश के स्थान पर धैकल्पिक रूप से और क्रम से 'अङ्ग ' और 'पाउ' श्रादेशों की प्राप्ति हुश्रा करती है । जैसे-प्रावरणम् पङ्ग रणं, पाउ रणं और पावरणं । मावरणम् संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप पअंगुरणं, पाऊरणं और पावरण होते हैं। इनमें से प्रथम रुप पन रणं में सूत्र संख्या २-५६ से 'र' का लोप: १-१७५ से आदि स्वर 'आ' सहित परवर्ती स्वर सहित 'व' व्यञ्जन के स्थान पर अर्थात् 'भाव' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अङ्ग' आदेश की प्राप्ति; ३.२५से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में नपुसक-लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप पनपारणं सिर हो जाता है । द्वितीय रूप पाउरण में सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-५७५ से 'आव' शब्दांश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'श्रांज' आदेश की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम प के समान ही होकर द्वितीय रूप पाउरण भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप पावरणं में सूत्र-संख्या २-5 से 'र' का लोप; और शेष सिद्धि प्रथम प के समान ही होकर तृतीय रूप पावरण भी सिद्ध हो जाता है। ॥ १-१७५ ।। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * {१६३ स्वरादसंयुक्त यानादेः ।।१-१७६॥ अधिकारोयम् । यदित ऊ मनुकमिष्यानस्तत्स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्भवतीति चेदितव्यम् ।। अर्थ:-यह सूत्र अधिकार-वाचक सूत्र है । अर्थात् इस सूत्र की सीमा और परिधि आगे श्रान वाले अनेक सूत्रों से संबंधित है । तदनुसार आगे आने वाले सूत्रों में लोप और आदेश श्रादि प्रक्रियाओं का जो बिधान किया जाने वाला है; उनके संबंध में यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है कि लोप और आदेश श्रादि प्रक्रियाओं से संबंध रखने वाले वे वर्ण किसी भी स्वर के पश्चात्वर्ती हो; असंयुक्त हो अर्थात् हलन्त न होकर स्वरान्त हों और आदि में भी स्थित न हो । स्वर से परवर्ती; अमंयुक्त और अनावि ऐसे वर्णों के संबंध में ही श्रागे के सूत्रों द्वारा लोप और आदेश प्रादि प्रक्रियाओं की दृष्टि से विधान किया जाने वाला है । यही सूचना, संकेत और विधान इस सूत्र में किया गया है। अतः वृत्ति में इसको 'नाधिकार का सूत्र की संशा नवाज की गई है जो कि ध्यान में रक्खी जानी चाहिये ।।१-१७६।। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक, ॥१-१७७॥ स्वरात्परेषामनादिभूतानामसंयुक्तानां क ग च ज त द प य वा नां प्रायो लुग भवति । क। तिस्थयरो । लोमओ । सयह ।। ग नओ । नयरं मयको ॥ च । सई । कय ग्गहो । ज । रययं पयावई । गो॥ त । विप्राणं । रसा यलं । जई । द ! गया ।मयणो॥प । रिऊ। मुरिसो ॥ य 1 दयालू । नयणं । विनाओ ।। च । लायएणं । विउहो । वलयाणलो॥ प्रायो ग्रहणात् क्वचिन्न भवति । सुकुसुमं । पयाग जलं । सुगा । अगरू । सचार्य । विजणं । सुतारं । विदुरो। सपा । समवायो। देवो । दाणुबो || स्वरादित्येव । संकरी । संगमो । नक्कंचरो । धणंजनो। विसंतयो । पुरंदरी । संवुडो । संवरो ।। असंयुक्तस्येत्येव ! अक्को । चम्गो | बच्चो । बज्ज । धुत्ता । उद्दामों। विप्पो । कज्ज । सन्वं ॥ क्यचित् संयुक्तस्यापि । नक्तंचर:- नकचरो ॥ अनादेरित्येव । कालो। गन्धो । चोरो । जारो। तरू दयो। पावं ! पण। यकारस्य तु जत्वम् प्रादौ वक्ष्यते । समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया भिन्नपदत्वमपि विवश्यते । तेन तत्र यथादर्शनमुभयमपि भवति । सुहकरो मुहयरो । आगमिओ प्रायमिओ । जलचरी जलयरो । बहुतरी बहुअरी | सुहदो । सुइयो । इत्यादि ।। क्वचिदादेरपि । स पुनः स उण । स च = सो अ॥ चिह्र - इन्धं ॥ क्वचिच्चस्य जः । पिशाची । पिसाजी ।। एकत्वम् = एगसं । एकः = एगो ।। अमुकः = अमुगो॥ अंसुकः = असुगो।। श्रावका - सावगी। आकारः - श्रागारो॥ तीर्थंकरः - वित्थगरो ।। आकर्षः - भागरिसो॥ लोगस्सुजजोगरा इत्यादिषु तु व्यत्यश्च (४.४४७) इत्येव कस्य गत्वम् ।। आर्ष अन्यदापि दृश्यते । आकुचनं - आउण्टणं ।। अत्र चस्य टत्वम् ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] * प्राकृत व्याकरण * __ अर्थ:--यदि किसी भी शब्द में स्वर के पश्चात् क; ग च; ज; त; प; य और व अनादि रूप से-(याने आदि में नहीं) और 'असंयुक्त रूप से (याने हलन्त रूप से नहीं) रहे, हुर हों तो उनका प्रायः अर्थात् बहुत करके लोप हो जाता है । जैसे-'क' के उदाहरणः-तीर्थंकर:- तित्थयरो । लोकः = लोयो । शकटम् = सयढं । 'ग' के उदाहरणः = नगः = नो । नगरम्=तयरं । मृगांक:-मयको ।। 'च' के उदाहरणःशची सई । कचग्रहः कयग्गहो । 'ज' के उदाहरण:-रजतम्-रययं । प्रजापतिःम्पयावई गजः गयो । 'त' के उदाहरणः-वितानम् वित्राणं । रसानलम-रसायलं । यतिः जई || 'द' के उदाहरण:-गदा-या | मदनः भयरणो । 'प' के उदाहरणः-रिपुः-रिऊ | सुपुरुषः-सुरिसो।। 'य' के उदाहरण:-दयालुः झ्यालू । नयनम् नयणं । वियोगा विश्रोमो || 'व' के उदाहरणः-ज्ञावण्यम् लायगणं । विबुध-विउहो । वडवानल:बलयाणलो ।। 'सूत्र में प्रायः' अव्यय का प्रहण किया गया है। जिसका तात्पर्य यह है कि बहुत करके लोप होता है; तदनुसार किन्ही किन्हीं शब्दों में क, ग, च, ज, त, प, य और व का लाप नहीं भी होता है । जैसे-'क' का उदाहरणः-सुकुसुम = सुकुसुमं 'ग' के उदाहरण प्रयाग जलम् पयाग जलं । सुगतः सुगओ । अगुरुः-अगुरू । 'च' का उदाहरणः-सचापम् पचावं । 'ज' का उदाहरणः-व्यजनम् विजणं । 'त' का उदाहरण:-सुतारमन्सुतारं। 'द' का उदाहरण:-विदुरः विदुरो। 'प' का उदाहरणः-सपापम् सपावं । 'व' के उदाहरण:-समवायः समवाओं । देवः देवो । और दानवः-दाणवो ॥ इत्यादि । प्रश्न-'स्वर के पर वर्ती हो-'ऐसा क्यों कहा गया ? उत्तर:-यदि 'क, ग, च, ज. त, द, प, य और व, स्वर के परवर्ती अर्थात् स्वर के बाद में रहे. हुए नहीं हों तो उनका लोप नहीं होता है । जैसे-'क' का उदाहरणः-शंकरः-संकरो। 'ग' का उदाहरण:संगम: संगमो । 'च' का उदाहरणः- नक्तंचरःम्नक्कंचरो। 'ज' का उदाहरणः-धनंजयः-धएंजो । ' को उदाहरण:-द्विषतपः-विसंतवो । 'द' का उदाहरण:--पुरंदर:-पुरंदरो। 'व' के उदाहरणः-संवृतः= संवुडो और संवरः-संवरो॥ प्रश्नः–'असंयुक्त' याने पूर्ण-(हलन्त नहीं)-ऐसा क्यों कहा गया है १ उत्तरः-यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' हलन्त हैं; याने स्वरान्त रूप से नहीं हैं और अन्य वर्ण में संयुक्त रूप से स्थित हैं; तो इनका लोप नहीं होता है। जैसे-'क' का उदाहरण:-अर्कःअक्को । 'ग्' का उदाहरणः-वर्गः-वग्गो । 'च' का उदाहरण:-अर्चः= अञ्चो । 'ज' का उदाहरणः-- वनम् वज्ज । 'त्' का उदाहरणः-धूर्तः धुत्तो । 'दू' का उदाहरण:= उदामः = उद्दामो । 'पू' का उदाहरणः-विप्रः विप्पो । य का उदाहरण:-कार्यम् = कर्ज । और '' का उदाहरणः-सर्वम् = सध्वं ।। इत्यादि । किन्हीं किन्हीं शब्दों में संयुक्त रूप से रहे हुए 'क' 'ग्' आदि का लोप भी देखा जाता है। जैसे-जक्तं चर:-न घरो । यहां पर संयुक्त 'त्' का लोप हो गया है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६५ प्रश्न:--'अनादि रूप से रहे हुर हों' अर्थात् शल्य के आदि में नहीं रहे हुए हों; ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तरः यदि 'क, ग, च, ज. त, द, प, य और व' वर्ण किसी भी शब्द के आदि भाग में रहे हुर हों तो इसका लोग नही होगा। कहा सदाहरण:-कालः कालो । 'ग' का उदाहरण:गन्धः गन्धो । 'च' का उदाहरण:-चोर: चोरो । 'ज' का उदाहरण:-जारम्जारो। 'त' को उदाहरण:तरु-तरू । 'द' का उदाहरणः-दवा-दवो । 'प' का उदाहरणः-पापम्=पावम् ! 'व' का उदाहरणःवर्ण:-अएणो । इत्यादि ।। . शब्द में आदि रूप से स्थित 'च' का उदाहरण इस कारण से नही दिया गया है कि शब्द के थादि में स्थित 'य' का 'ज' हुशा करता है । इसका उल्लेख आगे सूत्र संख्या १-२४५ में किया जायगा । ममास गत शब्दों में वाक्य और विभक्ति की अपेक्षा से पदों की गणना अर्थात शब्दों की मान्यता पृथक् पृथक भी मानी जा सकती है; और इसी बात का समर्थन आगे भी किया जायगा; तदनुसार उन समास गन शब्दों में स्थित 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' का लोप होता है और नहीं भी होता है । दोनों प्रकार की स्थिति देखी जाती है। जैसे-'क' का उदाहरण:-सुखकरः सुहकरो अथवा सुहयरो। 'ग' का उदाहरणः-श्रागमिकः-आगमित्रो अथवा श्रायमिश्रो । 'च' का उदाहरण जलचरः जलघरो अथवा जलयरो 'त' का उदाहरण बहुतरः = बहुतरो अथवा बहुअरो। 'द' का उदाहरणः-सुखा-पुहहो अथवा सुहओ ॥ इत्यादि ॥ किन्हीं किन्हीं शब्दों में यदि 'क, ग, च, ज, त, द, प, य और व' आदि में स्थित हो तो भी उनका लोप होता हुआ देखा जाता है । जैसे-'प' का उदाहरण:-स पुनःस उरण || 'च' का उदाहरण:स च =सो श्र ।। चिह्नम् = इन्धं ।। इत्यादि । किसी किसी शब्द में 'च' का 'ज' होता हुआ भी पाया जाता है । जैसे-पिशाची-पिसाजी । किन्हीं किन्हीं शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे-एकत्वम्-पग ॥ एक: एगो॥ अमक:-श्रमगो । असुक:-असुगो ।। श्रावका सावगी ॥ आकार: आगारो । तीर्थकर:-तित्थगरो । आकर्षः अागरिसो । लोकस्य उद्योतकराःम्लोगरस उज्जोगरा ॥ इत्यादि शब्दों में 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है । इसे व्यत्यय भी कहा जाता है । व्यत्यय का तात्पर्य है--वर्गों का परस्पर में एक के स्थान पर दूसरे की प्राप्ति हो जाना; जैसे—'क' के स्थान पर 'ग' का होना और 'ग' के स्थान पर 'क' का हो जाना 1 इमका विशेष वर्णन सूत्र-संख्या ४-४४७ में किया गया है । आप प्राकृत में वर्णों का अव्यवस्थित परिवर्तन अथवा अव्यवस्थित वर्ण आदेश भी देखा जाता है । जैसे-पाकुचनम्= पाउण्टणं ॥ इस उदाहरण में 'च' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति हुई है । यो अन्य पार्ष-रूपों में भी समझ लेना चाहिये ॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] * प्राकृत व्याकरण * तीर्थकरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्ययरो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीघ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'थ' का द्वित्व थथ; २०६० से प्राप्त पूर्व 'थ्' का 'त'; १-१७७ से ' का लोप; ६-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तिथयरो कप सिद्ध हो जाता है। लोक संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लोश्रो होता है । इसमें सूत्र संख्या १. १४७ से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोओ रूप सिद्ध हो जाता है। शफटम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयढं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-१६६ से 'ट' को 'ड' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नए सब लिंग में 'मि' प्रत्याशा पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सय रूप सिद्ध हो जाता है। — नगः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ नगरम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नयरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१४७ से 'ग्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्रामिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर भयर रूप सिद्ध हो जाता है। मयको रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है। __ शची संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप सई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १. ६० से 'श' को स; १-१७७ से 'च' का लोप; और संस्कृत-विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एक षचन में दीर्घ ईकारांत स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति; इसमें अन्त्य 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष 'स' का लोप होकर सड़ रूप सिद्ध हो जाता है। कचग्रहः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप कयम्गहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; १-१८० से 'म' को 'य' की प्राप्ति; २-७ से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'ग' को द्वित्व 'मग' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयग्गहो रूप सिम हो जाता है। रजतम् संस्कृत रूप है । इप्तका प्राकृत रूप रययं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से, ज्' और 'तू' का लोप; १-१८० से शेष दोनों 'अ' 'अ' के स्थान पर 'प' 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभनित Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [१६७ | के एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर रयर्य रूप सिद्ध हो जाता है। प्रजापतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप पयावई होता है। इसमें सत्र-संख्या २-७ से'र' का फा लोप: १-१७७ से 'ज' और 'त' का लोप; १-१८० से लुप्त 'ज्' के अवशिष्ट 'श्रा' को 'या' की प्राप्ति १-०३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इस्त्र ईकारांत पुल्लिग में सि प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर'ई' की प्राप्ति होकर पयावई रुप सिद्ध हो जाता है। गजा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गओ रूप सिब हो जाता है। वितानम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विप्राणं होता है । इस में सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक जिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निमार्ण रूप सिद्ध हो जाता है। रसातलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रसायलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त् का लोप; १.१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रसायलं सिद्ध हो जाता है। यतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हब स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर जई रूप सिद्ध हो जाता है। गड़ा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गया होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द' का लोप; १-१८० से शेष 'आ' को 'या' की प्राप्ति, संस्कृत विधान के अनुस्वार प्रथमा विभक्ति के एक वचन में श्राकारान्त स्त्री लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा और १-११ से शेष अन्त्य 'स' का लोप होकर गया रूप सिद्ध हो जाता है । मड़ना सस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मयणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से शेष 'श्र' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ए' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयपो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] * प्राकृत व्याकरण: * रिपुः सस्कृत रूप है । इसका प्राकन रूप रिऊ होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'ए' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ का दीर्घ स्वर 'ॐ' होकर रिऊ रूप सिद्ध हो जाता है। सुउरितो रूप की सिद्धि सत्र संख्या १८ में की गई है। दयालुः सस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दयालू होता है। इसमें सत्र सख्या १-४७ से 'यू' का लोप; १-१८० से शेष 'या' को 'या' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा मिक्ति के एक वचन में उकारान्स पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर दयालू रूप सिद्ध हो जाताहै। नयमम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नयणं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मरणं रूप सिद्ध हो जाता है। . वियोगः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विओओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' और 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विओओ रूप सिद्ध हो जाता है। लापण्यम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लायरणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'व्' अ र 'य' का लोपः १-१८० से लुप्त ' के अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; 2 से 'श' को द्वित्व 'एमा' की प्राप्ति; ३-१५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लायपणे रूप सिद्ध हो जाता है। विचुधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विउहो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२३७ से 'ब' को 'व' की प्राप्ति; १-९७७ से प्राप्त 'ब' का लोप; -१८७ से 'धू' को 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रास्ति होकर विउही रूप सिद्ध हो जाता है। पडवानल संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थलयाणलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२०२ से 'दु' को 'ल' की प्राप्ति; १.१७७ से द्वितीय ' का लोपः १-१८० से लुप्त द्वितीय 'म्' में से अवशिष्ट 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३.२ से प्रथमा विभक्त्ति के एक वचन में पुल्लिग . में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलयाणलो रूप सिद्ध हो जाता है । मुकुसुमम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुकुसुम होता है । इसमें सूत्र संख्या ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म्' का प्रमुस्वार होकर मुकुसुम रूप सिद्ध हो जाता है। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણીલાલ શાહ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [१६8 प्रयाग जलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पयागजलं होता है। इसमें मूत्र संख्या २-७ से '' का लोप और १-२३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार होकर पयाग जल रूप सिद्ध हो जाता है। मुगतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुगओं होता है । इसमें सूत्र संख्या१-१७७ से 'न् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुगओ रूप सिद्ध हो जाता है। ____ अगुरुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अगुरू होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व 'उ' को दीर्घ 'अ' को प्राप्ति होकर अगुरू रूप सिद्ध हो जाता है। सचाय संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सचाव होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-०३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सचार्य रूप मिस हो जाता है। _____ व्यजनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विजणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४८ से 'य' का लोप; -४६ से शेष 'ध' में स्थित 'अ' को 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ए की प्राप्ठि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिजणं रूप सिद्ध हो जाता है। सुतारम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सुतारं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुतारं रूप सिद्ध हो जाता है।। विदुरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विदुरो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'बो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिदुरो रूप सिद्ध हो जाता है। सपापम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सपावं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३६ से '4' को 'व' की प्राप्ति, ३:२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्वार होकर सपा रूप सिर हो जाताई। समवायः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप समाओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०० से 'य' का लोप और ३-२ से प्रभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समममो रूप सिर हो जाता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० * प्राकृत व्याकरण * . वेषः संस्कृत इंप है। इसका प्राकृत रूप देवो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर देखो रूप सिर हो जाता है। डामयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वाणवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ढ़ाणको रूप सिद्ध हो जाता है। शंकरः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप संकरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या :-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १-२५ से 'हु' का अनुस्वार; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संकरो रूप सिद्ध हो जाता है। संगमः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संगमो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संगमो रूप सिद्ध हो जाता है। नक्तंचरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नचरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४ से 'त्' का लोप; २-८६ से शेष 'क' का द्वित्व 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नक्कंघरो रुप सिद्ध हो जाता है। __ धनञ्जयः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धणंजो होता है। इसमें सूत्र-संख्या 1-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; १-२५ से 'क' को अनुस्वार की प्राप्ति; १-५४७ से 'य का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर षणंजओ रूप सिद्ध हो जाता है। विषतपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विसंतवो होता है। इसमें सत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १-२६० से 'ष' को 'स' की प्राप्ति १-२३१ से 'प' को 'व' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विस्तो रुप सिस हो जाता है। पुरंदर: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरंदरो होता है। इसमें सत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुरंदरो रूप सिद्ध हो जाता है। संवतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संबुडो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' को 'ड' की शप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संबुडो रूप मिद्ध हो जाता है। संघरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप स'वरो होता है। इसमें सत्र संख्या ३-२ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संवरो रूप सिद्ध हो जाता है। __ अर्कः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अक्को होता है । इसमें सूत्र संख्या २-5 से 'र' का लोप; 4 से शेष 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अक्को' रूप सिद्ध हो जाता है । वर्गः संस्कृन रूप है । इसका प्राकृत रूप वग्गो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७E से 'र' का लोप; २-६ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वग्गो रूप सिद्ध हो जाता है। अर्चः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अच्चो होता है । इसमें सूत्र संख्या २७ से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'अच्चों' रूप सिद्ध हो जाता है। धजम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६. से 'र' का लोप; २.८६ से शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर कज्ज रूप सिद्ध हो जाता है। - धूर्तः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धुत्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ 'ऊ' का ह्रस्व 'उ'; २-७६ से 'र' का लोप, २-८६ से शेष 'त' का द्वित्व 'स' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भुत्तो रूप मिद्ध हो जाता है। ___ उद्दामः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप उछामो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उद्दामो रूप सिद्ध हो जाता है। _ विप्रः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विप्पो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'प' को द्वित्व 'प्प की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिप्पो रूप सिब हो जाता है। कार्यम् संस्कृत विशेष रूप है । इसका प्राकृत रूप कज्ज होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] दीर्घ 'श्रा' का ह्रस्व 'अ' की प्राप्तिः २-२४ से 'र्य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'उन'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कज्जं रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * सम, संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सव्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र्' का लोपः २-८६ से शेष 'व' को द्वित्व 'ब्व' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सव्वं रूप सिद्ध हो जाता है । नक्च रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है । कालः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कालो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कालो रूप सिद्ध हो जाता है । गन्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गन्धो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गन्धो रूप सिद्ध हो जाता है। " चोरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चोरी रूप सिद्ध हो जाता है जारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जारी होता है। इसमें सूत्र संख्या ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जारी रूप सिद्ध हो जाता हैं । तरुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तक होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ह्रस्व 'उ' का दीर्घ 'ऊ' होकर तक रूप सिद्ध हो जाता है। दषः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप को होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वृषो रूप सिद्ध हो जाता है । ! पापम, संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पार्व होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' को 'व'; ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पार्श्व रूप सिद्ध हो जाता है । T Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२०३ पएणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४२ में की गई है। सुखकरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप सुहकरो और सुह्यरो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ग्य' का ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुहफरो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सुहयरो में सूत्र संख्या ५-६८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुहमरो रूप सिद्ध हो जाता है। आगमिकः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप आगमिओ और प्रायमिओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप आगमिश्रो में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप आगमिओ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप आयमिओ में सूत्र-मंख्या १-१७७ की वृत्ति से वैकल्पिक-विधान के अनुमार 'ग्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति :-१७ से 'क' का लोप पौर ३-२ से पथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आगमिमी भी सिद्ध हो जाता है। जलधरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जलचरो और जलयरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप जलचरों में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जलचरो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप जलयरी में सूत्र-संख्या १-१४४ से 'च' का लोप; १-१८० से शेष ' को 'य' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप जलयरो भी सिद्ध हो जाता है। बहुतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप बहुतरो और बहुअरी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप बहुतरो में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर भी प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहुतरो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप बहुअरों में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप बहुअरी भी सिद्ध हो जाता है। सुरषदः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत म्प सुहदो और सुहश्रो होते हैं। इनमें से प्रथम प सुहदो में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुन्नदो सिद्ध हो जाता है । ___ द्वितीय रूप सुहओ में सूत्र संख्या १-१८से '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; और ३.२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुहओ सिद्ध हो जाता है। 'स' संस्कृत सर्व नाम रूप है । इसके प्राकृत रूप सो और स होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-३ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर वैकल्पिक रूप से 'सो और 'स' रूप सिद्ध होते हैं। उण अव्यय की मिद्धि सूत्र संख्या १-६५ में की गई है। सो सर्व नाम की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। च संस्कृत संबंध वाचक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप 'श्र' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च्' का लोप होकर 'अ' रूप सिन हो जाता है। चिन संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इन्धं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'घ' का लोप; २-५० से 'ह' के स्थान पर 'न्ध' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वयम में नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर इन्ध रूप सिद्ध हो जाता है। पिशाची संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिसाजी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स्'; १-१७७ की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होकर पिसाजी रूप सिद्ध हों जाता है। एकत्वम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रुप पग होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; २-७६ से '' का लोप; २-८८ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एगर्त रूप सिद्ध हो जाता है।। एकः संस्कृत सर्व नाम रूप है । इसका प्राकृत रूप एगो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४ को धृत्ति से श्रथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एगो रूप सिद्ध हो जाता है। अमुक संस्कृत सर्व नाम है । इसका प्राकृत रूप अमगो होता है। इसमें सत्र संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुगो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२०५ अमुकः संस्कृत रूप है । इप्तका प्राकृत रूप असुगो होता है । इसमें सूत्र-मख्या १-१७७ की वृत्ति से और ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अमुगो रूप सिद्ध हो जाता है। शाषकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सावगो होता है। इसमें इसमें मत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सायगो रूप सिद्ध हो जाता है । आकार:संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप श्रागारो होता है । इसमें सत्र-संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ५-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगारी रूप सिद्ध होता है। तीयकरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तित्थगरा होता है इममें मत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ ई' के स्थान पर हस्र 'इ' की प्राप्ति, २-E से 'र' का लोप; २-८८ से शेष 'थ' को द्वित्व 'यूथ' की प्राप्ति; २६ से प्राप्त पूर्व 'थ्' को 'त्' की प्राप्ति; १-१ से अनुस्वार का लोप; ५-१७७ की पृत्ति से अथवा ४-३८६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तित्थगरो रूप सिद्ध हो जाता है। आकर्षः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप आगरिसो होता है। इसमें मत्र-संख्या ६-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग, की प्राप्ति २-१०५ से 'प' के पूर्व में 'इ' का आगम होकर 'र' को 'रि' की प्राप्ति १.२६० से 'प' के स्थान पर 'स' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। लोकस्य संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लोगरूप होता है । इसमें सत्र संख्या -७७ की वृत्ति से और ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; और ३-१० से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में "डस्' प्रत्यय के स्थान पर 'रस' प्रत्यय को प्राप्ति होकर लोगस्स रूप सिद्ध हो जाता है। उधोतकराः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उज्जोगरा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-२-२४ से 'य.' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ज' का द्वित्व 'ज'; १-१७४ से 'न' का लोप; १-१७५ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति और उसका लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व 'अ' का दीर्घ 'श्रा' होकर उज्जोअगरा रूप सिद्ध हो जाता है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] * प्राकृत व्याकरण * आकुत्र्वनम् संस्कृत रूप है । इसका आर्ष-प्राकृत रूप श्रावणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'कू' का लोप; १-१७७ की वृत्ति से 'च' के स्थान पर 'ट' को प्राप्तिः १-३० से 'ब' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आउट रूप सिद्ध हो जाता है | ॥ १-१७७ ॥ यमुना-चामुण्डा का मुकातिमुक्त के मोनुनासिकच ॥ १-१७८ ॥ ए मस्य लुग्भवति, लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति ॥ जउँगा | चाउँण्डा । का उँभो । अखिउँ तयं ॥ क्वचिन्न भवति । अमु तयं । श्रमुत्तयं ॥ अर्थ – यमुना, चामुण्डा, कामुक और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'म्' का लोप होता है और लुप्त हुए 'म्' के स्थान पर 'अनुनासिक' रुप की प्राप्ति होती है। जैसे-यमुना = जउँणा | चामुण्डा = | कामुकःकाउँ । अतिमुक्तकम् - अतिथं । कभी कभी 'म्' का लोप नहीं होता है और तदनुसार अनुनासिक की भी प्राप्ति नहीं होती है । जैसे- प्रतिमुक्तकम् अहमुतयं और श्रमुत्तरं ॥ इस उदाहरण में अनुनासिक के स्थान पर वैकल्पिक रूप से अनुस्वार की प्राप्ति हुई है । जउँगा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-४ में की गई है । चामुण्डा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चाउँण्डा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से अनुनासिक की प्राप्ति होकर चाउँण्डा रूप सिद्ध हो जाता है । कामुकः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप का उँधो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७८ से 'म्' का लोप और इसी सूत्र से शेष 'उ' पर अनुनासिक की प्राप्ति; १-७७ से 'कू' का लोप और ३-० से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काउं रूप सिद्ध हो जाता है । श्रणिउँतयं, श्रइमु तयं और अहमुत्तयं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६ में की गई है । ।।१-१७८।। नावर्णा पः ॥ १-१७६ ॥ अवर्णात् परस्यानादेः पस्य लुग् न भवति ॥ सबहो । साथी || अनादेरित्येव परउड्डो || अर्थ: यदि किसी शब्द में 'प' आदि रूप से स्थित नहीं हो तथा ऐसा वह 'प' यदि 'अ' स्वर के पश्चात् स्थित हो तो उस 'प' व्यञ्जन का लोप नहीं होता है । जैसे शपथ:-सवहो । शापः - सावो । प्रश्न- 'अनादि रूप से स्थित हो ऐसा क्यों कहा गया है ? , Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * २०७ उत्तर---क्योंकि श्रादि रूप से स्थित 'प्' का लोप होता हुआ भी देखा जाता है। जैसे-पर-पुष्टः परजट्टो॥ शपथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सबहो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स; १-२३१ से 'प' का 'ब'; १-१८७ से 'थ' को 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सबहो रूप सिद्ध हो जाता है। झापः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साचो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के HER पर 'सोसाय की मान होकर साशो का सिद्ध हो जाता है। पर-पुष्टः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पर-उट्ठो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'प' का लोप; २-३४ से 'ष्ट का 'ठ २-८ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'छ'; २-६० से प्राप्त पूर्व '' का 'ट्' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-उढोप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-५७६ ॥ अवणों य श्रुतिः ॥ १-१८० ॥ ... क ग च जेत्यादिना लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात् परो लघु प्रयत्नतर यकार अतिर्भवति ॥ तित्थयरो । सयद । नयरं । मयको । कयग्गहो । कायमणी । रयर्य । पयावई रसायलं । पायालं । मयणो । मया । नयणं । दयालू । लायएणं ।। अवर्ण इति किम् । स उणो । पउणो । पउरं । राईवं । निहो। निनी । बाऊ । कई ॥ अवर्णादित्येव । लोअस्स । देअरी ।। क्वचिद् भवति । पियइ । अर्थ:-क, ग, च, ज इत्यादि व्य-जन वर्गों के लोप होने पर शेष 'अ वर्ण के पूर्व में 'श्र अथवा श्रा' रहा हुअा हो तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार हुआ करता है। जैसे-तीर्थकरः तिरथयरो । शकटम् मयढं । नगरम्-नयरं । मृगाकः मयको । कच-ग्रहः-कयमाहो । कामणिः कायमणी । रजतम-रययं । प्रजापतिः पयावई । रसातलम्-रसायलं । पातालम-पायालं । मदनःमयणो । गदा-गया । नयनम् नयणं । दयालुःयालू । लावण्यम् लायएणं ।। प्रश्नः-लुप्त व्यन्जन-वर्गों में से शेष ' वर्ण का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः-क्यों कि यदि लुप्त व्यञ्जन वर्णो में 'अ' स्वर के अतिरिक्त कोई भी दूसरा स्वर हो; तो उन शेष किसी भी स्वर के स्थान पर लघुतर प्रयत्न वाला 'य' कार नही हुआ करता है। जैसे:-शकुनः= सउणो । प्रगुणः पजणो । प्रचुरम् परं । रोजीवम् राईवं । निहतः निहो। निनदः-निनो । वायु:पाऊ । कतिः-कई ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] निहतः और निनदः में नियमानुसार लुप्त होने वाले 'तू' और 'द' व्यञ्जन वर्णों के पश्चात् शेष 'अ' रहता है न कि 'अ' । तदनुसार इन शब्दों में शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं हुई है। * प्राकृत व्याकरण * प्रश्न- शेष रहने वाले 'अ' वर्ग के पूर्व में ' अथवा ' हो तो उस शेष 'अ' के स्थान पर 'य' कार होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- क्योंकि यदि शेष रहे हुए 'अ' वर्ग के पूर्व में 'अ अथवा आ' स्वर नहीं होगा तो उस शेष 'अ' वर्ण के स्थान पर 'य' कार की प्राप्ति नहीं होगा । जैसे -लोकस्य जोअप | देवरः- देवशे । किन्तु किसी किसी शब्द में लुप्त होने वाले व्यञ्जन वर्णों में से शेष 'अ' वर्ग के पूर्व में यदि ' अथवा 'आ' नहीं हो कर यदि कोई अन्य स्वर भी रहा हुआ हो तो उस शेष 'अ' वर्ग के स्थान पर 'य' कार भी होता हुआ देखा जाता है । जैसे- पिवति पियइ ॥ इत्यादि ॥ तित्थयरो सयढं और नयरं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। मी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- १३० में की गई है। काही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। काच मणिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप काय मणी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोपः १-१५० से शेष 'अ' को 'य' को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इको दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर काय मणी रूप सिद्ध हो जाता है । स्वयं पयावई, रसायल और मयणो रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। पातालम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पायोल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोपः १ १८० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ag' सकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पाया रूप सिद्ध हो जाता है। ‘गया'; 'नय’; ‘दयालू'; और 'लाचरण' रूपों की भी सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है । शकुनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सउणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० 'श' का 'स'; १-१७७ से क् का लोपः १-२२६ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सउणो रूप सिद्ध हो जाता है । Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२०६ प्रगुणः संस्कृत विशेषण रूप हैं । इसका प्राकृत रूप पडणो होता है। इसमें सूत्र- संख्या २०१६ से 'र' का लोप; १-१७७ से ग् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पउणो रूप सिद्ध हो जाता है । प्रचुरम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसता प्राकृत रूप परं होता है। इसमें सूत्र- संख्या २७६ से 'र' का लोप; १-२७७ से 'च्' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पञ्जरं रूप सिद्ध हो जाता है। राजीवम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप राई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप ३ २५ से प्रथमा विभक्ति में एक वचन में नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राई रूप सिद्ध हो जाता है। निहतः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप निह होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१७७ से 'त' का लीप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निहओ रूप सिद्ध हो जाता है । वायुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बाऊ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'यू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बाऊ रूप सिद्ध हो जाता है । कई रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १- १२८ में की गई है । लोकस्य संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लोअस्स होता है। इसके सूत्र संख्या १-१७७ से 'कू' का लोप और ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'ङस्' प्रत्यय के स्थान पर 'रूप' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोअर रूप सिद्ध हो जाता है। देवर: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप देअरी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ 'व्' का लीप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अरो रूप सिद्ध हो जाता है । पिवति संस्कृत सकर्मक क्रिया रूप है। इसका प्राकृत रूप पियह होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १७७ से 'व' का लोप; १-१०० से शेष 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पियह रूप सिद्ध हो जाता है। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] ++++ * प्राकृत व्याकरण * कुज - कप रे - कीले कः खोऽनुष्ये ॥ १-१८१ ।। एषु कस्य खो भवति पुष्पं चेत् कुब्जाभिधेयं न भवति । खुजो । खप्परं । खोली || पुष्प इति किम् । बंधे कुज्जय-पसूं । श्रर्षेऽन्यत्रापि । कासितं । खासि । कसितं । I 1 I खसि ॥ अर्थ :- कुब्ज; कर्पर; और कीलक शब्दों में रहे हुए 'क' वर्ण का 'ख' हो जाता है। किन्तु यह ध्यान में रहे कि कुब्ज शब्द का अर्थ 'पुष्प' नहीं हो तभी 'कुब्ज' में स्थित 'क' का 'ख होता है; अन्यथा नहीं । जैसे- कुदजः खुज्जी । कर्परम् = खप्परं । कीलकः - खील ॥ प्रश्नः - -'कुब्ज' का अर्थ फूल - 'पुष्प' नहीं हो, तभी कुब्ज में स्थित 'क' का 'ख' होता है ऐसा कहा गया है ? उत्तरः- क्योंकि यदि कुज का अर्थ पुष्प होता हो तो कुछ में स्थित 'क' का 'क' ही रहता है । जैसे:- बंधितुम् कुब्जव प्रसूनम् बंधे कुज्जय-पसू || आर्ष- प्राकृत में उपरोक्त शब्दों के अतिरिक्त अन्य शब्दों में भी 'क' के स्थान पर 'ख' का आदेश होता हुआ देखा जाता है । जैसे:- कासितम् = खासियं । सितम् - खसि ॥ इत्यादि । लुडजः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप खुजो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १८१ से 'क' को 'ख' की प्राप्ति २-७६ से 'ब्' का लोप २८ से 'ज' को द्वित्व 'ज्ञ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खुओ रूप सिद्ध हो जाता है । कर्यरस संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खप्परं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९८१ से 'क' को 'ख' की प्राप्ति २७६ से प्रथम 'र्' का लोपः २८६ से 'प' को द्वित्व पूप' की प्राप्ति ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खप्परं रूप सिद्ध हो जाता है। कीलकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खीलो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१८' से प्रथम 'क' को 'ख' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क्रू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर स्पीलओ रूप सिद्ध हो जाता है। बेधितुम् संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप बंधे होता है। संस्कृत मूल धातु 'बंधू' हैं। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त 'धू' में 'अ' की प्राप्ति; संस्कृत ( हेमचन्द्र ) व्याकरण के ५-१-१३ सूत्र से हेत्वर्थ कृदन्त में 'तुम' प्रत्यय की प्राप्ति एवं सूत्र संख्या ३- १५७ से 'घ' में प्राप्त 'अ' को Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 'ए' की मानि; १-१७५ से तुम्' प्रत्यय में स्थित 'त्' का लोप और १-०३ से अन्त्य 'म्' का अनुस्वार हो कर बंधे रूप सिद्ध हो जाता है । कजक संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुजय होता है । इसमें सूत्र- मख्या २-से 'ब्' का लोप; २-८८ से 'ज' को द्वित्व 'जन्न' की प्राप्ति; १.१७७ से द्वितीय ' का लोप और १-८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्ति होकर कुज्जय रूप सिद्ध हो जाता है। काशितम संस्कृत का है। प्रार्ण-मान में समा रूप लामिश्र होता है। इसमें सुत्र- संख्या १-१८१ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर 'ज्' का श्रादेश; १.१७७ से त' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्त के एक वचन में घुसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५२३ से प्रात 'म्' का. श्रानुस्वार होकर खासि रूप सिद्ध हो जाता है। फसितम् संस्कृत रूप है । आप- प्राकृत में इसका रूप खसिर्थ होता है । इसमें सूत्र- संख्या १.१८१ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर 'ख' का श्रादेश और शेष सिद्धि उपरोक्त खासिभं रूप के समान ही जानना ॥१-६८५॥ मरकत-मदकले गः कंदु के वादेः ॥ १-१८२ ॥ अनयोः कस्य गो भवति, कन्दुत्वाद्यस्य कस्य ।। मरगयं | मयगलो। गेन्दु ॥ अर्थ:-मरकत और मदकल शब्दों में रहे हुा, "क" का तथा कन्दुक शहर में रहे हुए श्रादि 'क' का "ग" होता है । जैसे:-मरकतम् नरगः मकलामयगलो और कन्दुकम्=ोन्दुवे ।। . मरकतम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मरगयं होता है । इममें सूत्र-संख्या १-१२ से "क" के स्थान पर "ग" की प्राप्ति; १-१७७ ले त का लोप १-१० से शेष 'अ' को य की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में "मि" प्रत्यय के स्थान पर "म्" प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त “म्" का अनुस्वार होकर मरगय रूप सिद्ध हो जाता है। मरकल: मंस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप मयगलो झेता है । इममें सूत्र-संख्या १-१४० में ' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्तिः १-१५२ से'क' के स्थान पर 'ग' का श्रादेश; और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मयगलो रूप सिद्ध हो जाता है। गेन्दुभं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५७ में की गई है । ॥ १-१८२ ॥ . किराते चः ॥ १-१८३ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] * प्राकृत व्याकरण में किराते कस्य चो भवति || चिलाओ । पलिन्द एवायं विधिः। कामरूपिणि तु नेष्यते । नमिभी हर-किरायं ॥ अर्थ:-'किरात' शब्द में स्थित 'क' का 'च' होता है । जैसे:--किरात: चिलायो || किन्तु इम में यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि जब 'किरात' शरद का अर्थ 'पलिन्द्र' याने मील जाति वाचक हो; तभी किरात में स्थित 'क' का 'च' होगा । अन्यथा नहीं । द्वितीय बात यह है कि जिमने स्वेका पूर्वक 'भील' रूप धारण किया हो और उस समय में उसके लिये यदि 'किरान' शब्द का प्रयोग किया जाय तो प्राकृत भाषा के रूपान्तर में उम 'किरात' में स्थित 'क' का 'च' नहीं होगा। जैसे-तमामः हर किरातम्= नमिमो हर-किरावं ॥ किरातः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चिलायो होता है । इसमें सूत्र-मंख्या-१-८३ से 'क' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; १-२५४ से र्' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिला रूप सिद्ध हो जाता है । ममामः संस्कृत्त सकर्मक क्रिया पद है । इमका प्राकृत रूप नमिमो होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त 'नम्' धातु में 'अ' की प्राप्ति; ३-१५५ से प्राप्त 'अ' विकरण प्रत्यय के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ३-१४४ से वर्तमानकाल के तृतीय पुरुष ( उत्तम पुरुष ) के बहु वचन में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नमिमा रूप सिद्ध हो जाता है। हर-किरातम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप हर-किरायं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; १-१८० से शेष 'अ' को 'य' की प्राप्तिः ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में प्रात 'श्रम' प्रत्यय में स्थित 'अ' का लोप और १-२३ से शेष 'म्' का अनुस्वार होकर हर किरायं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-१८३ ॥ शीकरे भ-हो वा ॥ १-१८४ ॥ शीकरे कस्य भहौं वा भवतः ।। सीभरो सीहरो । पक्ष सीअरो ॥ - अर्थः- शीकर शब्द में स्थित 'क' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से 'भ' अथवा 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे- शीकरः = सीभरो अथवा सीहरो ॥ पक्षान्तर में सीअरो भी होता है। शीकरः- संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सीभरो, सीहरो और सीअरी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्'; १-१८४ से प्रथम रूप और द्वितीय रुप में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'क' के स्थान पर 'भ' अथवा 'ह की प्राप्ति; १-१७७ से तृतीय रुप में पत्तान्तर के कारण से 'क' का लोप और ३.२ से सभी रूपों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से सीभरो, सीहरी और सीमरो रूप सिद्ध हो जाते हैं ।।१९८४ ॥ चंद्रिकायां मः ॥ १-१८५ ॥ [२१३ चंद्रिका शब्द कस्य मो भवति ॥ चं देमा || अर्थ :-- चन्द्रिका शब्द में स्थित 'कू' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति होती है । जैसे:- चंद्रका= चन्दिमा || ++ चन्द्रिका संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप चन्दिमा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र' का लोप और १-१८५ से 'क' के स्थान पर 'म' को प्राप्ति होकर चन्द्रमा रूप सिद्ध हो जाता है । १-१८५ निकष- स्फटिक चिकुरेहः ॥ १०९८६ ॥ एषु क्रस्य हो भवति || निहो । फलिहो चिहुरो | चिहुर शब्दः संस्कृतेपि इति दुर्गः ॥ अर्थः- निकष, स्फटिक और चिकुर शब्दों में स्थित 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे-निकषः=निहसो | स्फटिकः =फलिहो । चिकुरः चिहुरी || चिहुर शब्द संस्कृत भाषा में भी होता है; ऐसा दुर्गकोष में लिखा हुआ है । free: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निहसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८६ से 'क' के स्थान पर हो की प्राप्ति; १-२३० से 'प' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निहस रूप सिद्ध हो जाता है। स्फटिकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फलिहो होता है। इसमें सूत्र संख्या में 'स' का लोपः १-५६७ से दू' के स्थान पर 'लू' की प्रामि १-१८६ से 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फलिहो रूप सिद्ध हो जाता है । ख-घ -थ-ध-- भाम् ॥ १--१८७ ॥ चिकुरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चिहुरी होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८६ से 'क' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिह्नरो रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १-१८६ ।। स्वरात् परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां ख घथ ध म इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । ख । साहा | मुई | मेहला | लिहड़ । घ । मेहो जहणं । माहो लाइ । थ | नाही | आवसही । मिणं । कहह । श्र । साहू । वाहो । बहिरो । बाहर | इन्द- ह || भ 4 1 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] I I सहा | सहावी | नहं । थहरो । सोहइ || स्वरादित्येव । संखो | संधी | कथा | बंधी खंभो । असंयुक्तस्येत्येव । अक्खड़ । श्रव । कत्थइ । सिद्धयो । बन्बई | लभ || श्रादेरित्येव । गज्जन्ते खे मेहा | गच्छर घणो । प्राय इत्येव । सरिसव खत्तो । पलय-वणो । ऋथिसे । जि-धम्मो | पाठ भी | नर्म ॥ * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-'ख' का 'घ' का, 'थ' का, 'घ' का और 'भ' का प्रायः '' उस समय होता है; जब कि ये वर्ण किसी भी शब्द में स्वर से पीछे रहे हुए हों; श्रमंयुक्त याने हलन्त न हों तथा उस शब्द में आदि अक्षर रूप से नहीं रहे हुए हो । जैसे- 'ख' के उदाहरणः - शाखा माहाः मुखम् = मा मेखला = मेहला और लिखति लिइ ॥ 'घ' के उदाहरण: - मेघ: मेहो; जयनम् जहणं; माघः माह और श्राघते - लाह ॥ 'थ' के उदाहरणः-नाथः = नाही; आवसथः = या बस हो; मिथुनम् - मिडुखं और कथयतिक ॥। 'घ' के उदाहरण:- साधुः साहू; व्याधः वाहो; बधिरः = बाहरी बाधते=बाद और इन्द्र-धनुः इन्द- हणू || 'भ' के उदाहरणः - सभा - महा; स्वभावः = सहावो; नमम्=नहं स्तन - भरः यणहरी और शोभते सोहर || प्रश्नः – 'ख' 'घ' आदि ये वर्ण स्वर के पश्चात् रहे हुए हो ऐसा क्यों कहा गया हैं ? हुए हों तो उस अवस्था में इन वर्णों के स्थान पर 'ह' की - शंखः संखो । 'ध' का उदाहरण - संघ:- संघो । 'थ' का . बन्धः = बन्धो और 'भ' का आहरण- खम्भः =मों | इन के पश्चात् रहे हुए हैं, अतः इन शब्दों में 'ख' '' आदि वर्णों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं हुई है । उत्तर:- क्योंकि यदि ये वर्ण स्वर के पश्चात् नहीं रहते हुए किसी हलन्त व्यञ्जन के पश्चात रहे प्राप्ति नहीं होगी । जैसे:-'ख' का उदाहरण उदाहरण = कन्या कथा | 'घ' का उदाहरणशब्दों में 'ख' 'घ' आदि वर्ग हलन्त व्यभजनों प्रश्न: - -'असंयुक्त याने हलन्त रूप से नहीं रहे हुए हों; तभी इन वर्षों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः---क्योंकि यदि ये 'ख' 'व' आदि वर्ण हलन्त रूप से अवस्थित हो तो इनके स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी। जैसे- स्तू' का उदाहरण आख्याति = श्रक्वाइ । 'घ्' का उदाहरण- श्रते = अग्घइ । 'थ्' का उदाहरण - कथ्यते = कत्थइ । 'धू' का उदाहरण - सिध्यकः = सिद्धओ | बद्धयते = बन्धइ और 'भ' का उदाहरण - लभ्यते = लब्भइ ॥ प्रश्नः - 'शब्द में आदि अक्षर रूप से ये व' 'घ आदि वर्ण नहीं रहे हुए हों तो इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है'; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्योंकि यदि ये 'ख' 'घ' आदि वर्ण किसी भी शब्द में आदि अक्षर रूप से रहे हुए हों तो इनके स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होती है । जैसे- 'ख' का उदाहरण - गर्जन्ति स्खे मेघाः = खे मेहा | 'घ' का उदाहरण - गच्छति घनः गम्बइ घणो ॥ इत्यादि इत्यादि ॥ गज्जन्ते Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२१५ प्रश्नः - 'प्रायः इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है' ऐसा 'प्रायः अव्यय' का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः--क्योंकि अनक शब्दों में 'स्वर से परे असंयुक्त और अनादि होते हुए भी इन वर्णों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखी जाती है, जैसे-' का ज्याहरणार्थ- जलः = सरिसत्रखलो || 'घ' का उदाहरण- प्रलय घनः पय-वरणो ॥ 'थ' का उदाहरण- अस्थिरथिरो ॥ 'घ' कर उदाहरण-जिन-धर्मः-जि-धम्मो ॥ तथा 'भ' का उदाहरण- प्रष्ट भयः = पराद्रु भय और नभम्नभं ॥ इन उदाहरणों में ख़' 'त्र' आदि वर्षों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं हुई है । शाखा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साहा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-०६० से 'शू' का 'स्'; और १-९८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर साहा रूप सिद्ध हो जाता है। सुखम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहं होता है। इसमें सूत्र संख्या १८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-१३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुहं रूप सिद्ध हो जाता है । मेखला संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप मेहला होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर मेहला रूप सिद्ध हो जाता हैं । लखति संस्कृत क्रिया - पर रूप है। इसका प्राकृत रूप लिहइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-९३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुप के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर लिइ रूप सिद्ध हो जाता है। घः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप मेहो होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मेही रूप सिद्ध हो जाता है । जघनम् संस्कृत रूप है | इसक प्राकृत रूप जहणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १८७ से 'प' के स्थान पर 'ह' को प्राप्तिः १२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर जहणं रूप सिद्ध हो जाता है । माघः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप माहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माहो रूप सिद्ध हो जाता है । मला संस्कृत सकर्मक क्रिया-पह रूप है। इसका प्राकृत रूप लाइ होता है । इसमें सत्र संख्या Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] * प्राकृत व्याकरण * २-७७ से 'श' का लोप; १.१८७ से 'घ' के स्थान पर ह' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम के पुरुष एक वचन में 'ते' प्रत्ययके स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर लाहइ रूप सिद्ध हो जाता है नाथः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नाहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्त और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नाहो रूप सिद्ध हो जाता है। आवसथा संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप पावसहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आवसही रूप सिद्ध हो जाता है ! मिथुनम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रुप मिहुणं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२०८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मिहुर्ण रूप सिद्ध हो जाता है। कथयति संस्कृत क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रूप कहइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से 'कथ' धातु के हलन्त 'थ्' में विकरण प्रत्यय 'श्र' की प्राप्ति; संस्कृत-भाषा में गण-विभाग होने से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अय' का प्राकृत-भाषा में गण-विभाग का अभाव होने से लोप; १-१८० से थ' के स्थान पर ', की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक घचन में संस्कृत प्रल्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कह रूप मिस हो जाता है। साधुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप साहू होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त: पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीघ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर साहू रुप सिद्ध हो जाता है। व्याधः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रूप वाहो होता है ? इममें सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप; -१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाही रूप सिद्ध हो जाता है। बीधरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रुप बहिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बहिरो रूप सिद्ध हो जाता हैं। पाधते संस्कृत सकर्मक क्रियापद रूप है । इसका प्राकृत रुप बाहर होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ध के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति ४.२४६ से 'ध्' हलन्त व्यजन के स्थानापन्न व्याजन 'ह' में Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२१७ विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। इन्छ धनुः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप इन्दहा होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७८ से 'र' का लोपः १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' को प्रामि; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर इन्द्रहणु रूप सिद्ध हो जाता है। सभा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सहा होता है। इसमें सूत्र- संख्या ५-७ से 'भ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और संस्कृत-व्याकरण के विधानानुसार श्राकारान्त स्त्रीलिंग वाचक शब्द में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' स्वर को इसंज्ञो तथा १-११ से शेष 'स्' का लोप प्रथमा विभक्ति के एक पचन के रूप से सहा रूप सिद्ध हो जाता है। __ स्वभावः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रुप सहायों होता है । इसमें सूत्र-संख्या ६-७ से व्' का लोप; १-१८७ से भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहावी रूप सिद्ध हो जाता है। नह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-17 में की गई है। स्तन भरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप थणहरो होता है । इममें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थणहरो रूप सिद्ध हो जाता है। शोभते संस्कृत अकर्मक क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप सोहइ होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२३६ से 'शोम्' धातु में स्थित हलन्त 'म्' में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; १-०६० से 'श' का 'म'; १-१८७ से 'भ' का 'ह'; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सोहइ रूप सिद्ध हो जाता है। संखो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-20 में की गई है। सधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संघो होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५ ' ' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संघो रूप मित्र हो जाता है। फन्था संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कंथा होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५ से 'न्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार प्रथमा विभक्ति के एक वचन Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] * प्राकृत व्याकरण - न में स्त्रीलिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इसंज्ञा तथा १-११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर कथा रूप मिद्ध हो जाता है। बन्धः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रंघो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५ से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान एर 'यो प्रत्यय की प्राप्ति होकर धो रुप सिद्ध हो जाता है। स्तम्भः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत का खंभो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २८ से 'स्त' के । स्थान पर 'ख' की प्राप्ति १-२६ की वृत्ति से 'म्' के स्थान पर अनुस्वार की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खंभी रूप सिद्ध हो जाता है। आख्याति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद रुप है। इसका प्राकृल कर अक्खद होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-८४ से आदि 'श्रा के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २.७८ से 'य्' का लोप; २-८६ से शेष 'ख' को द्वित्व 'खूख' की प्राप्ति; -7 से प्राप्त पूर्शन, को 'क' की प्राप्ति; ४-०३८ से 'खा' में स्थित 'या' को 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अक्खड़ रूप सिद्ध हो जाता है । अयते संस्कृत कर्म भाव-वाफ्य क्रिया पद रूप है । इसका प्राकृत रूप अग्य होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४६ से 'र' का लोप; २.७८ से 'य' का लोप; ६ से शेष 'घ' को द्वित्व घघ' की प्राप्तिः २-६० से प्राप्त पूर्व 'घ' को 'ग' की प्राप्ति; ३-१३६. से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अग्घर रूप सिद्ध हो जाता है। कथ्यते संस्कृत कर्म भाव-वाच्य क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत-रूप कत्थइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६८ से य' का लोप; २-८८ से शेष 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्ष 'थ' को 'न' को प्राप्ति; ३-१७७ से कर्म भाव-बाल्य प्रदर्शक संस्कृत प्रत्यय य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तब्य ज्ज अथवा 'ज्जा' प्रत्यय का लोप और ३-५३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'त' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कत्थई रूप सिद्ध हो जाता है। सिधकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिद्धभी होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६. से 'र' का लोप; २-८८ से शेप. "ब' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिद्धओ रूप सिद्ध हो जाता है। . बध्यते संस्कृत यम भाव-वाच्य क्रिया पर रूप है । इसका प्राकृत रूप बन्या होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१४७ से कर्म भाव-वाच्य प्रदर्शक संस्कृत प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तम्य 'जज' Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२१४ श्रथवा 'ज्जा' प्रत्यय का लोप; ४-२३६ से शेष हलन्त 'ध' में 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बन्धक रूप सिब हो जाता है। लभ्यते संस्कृत कर्म भाव-याच्य क्रिया पद रूप है। इसका प्राकृत रूप लभइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-२४६ से कर्म-भाव-घोच्य 'य' प्रत्यय का लोप होकर शेष 'भ' को द्वित्व भभ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'च' की याति ५.२३६ से नान्न भ में 'श्र' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सभा रूप सिक हो जाता है। ___ गर्जन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापद रुप है । इसका प्राकृत रूप गज्जन्ते होता है। इसमें भूत्रसंख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के बहु वचन में संस्कृत प्रत्यय 'न्ति' के स्थान पर 'न्ने प्रत्यय को प्राप्ति होकर गचन्ने रूप सिद्ध हो जाता है। खे संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप भी खे ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में 'कि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खे' रुप सिद्ध हो जाता है। मेघा: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप मेहा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' को 'ह' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप तथा ३-१२ से प्रान होकर लुप्त हुए जस प्रत्यय के कारण से अन्त्य 'अ' को श्रा' की प्राप्ति होकर मेहा रुप मिद्ध हो जाता है गच्छत्ति संस्कृत सकर्मक क्रियापद रुप है। इसका प्राकृत रूप गच्छा होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-२३६ से गच्छ धातु के हलन्त छ.' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गच्छन रूप सिद्ध हो जाता है। घणो रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। सर्प-खलः संस्कृत विशेषण रुप है। इसका प्राकृत रुप सरिसव-खलो होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-१०५ से प' शब्दांश के पूर्व में अर्थात् रेफ रुप २' में श्रागत रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'प' का 'स'; १-२३१ से 'प' का 'व'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरिसक-खलो रूप सिख हो जाता है। प्रलय संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पलय होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप होकर पलय रुप सिद्ध हो जाता है। . Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] * प्राकृत व्याकरण * घणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ?-१७२ में की गई है। अस्थिरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप अश्रिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४७ से 'स' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अथिरो रूप मित हो जाता है। जिनधर्मः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप जिण-धम्मो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; २-८८ से 'म्' को द्वित्व 'मम' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जिण-धम्मो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रणष्टः संस्कृत विशेषण मप है । इसका प्राकृत रूप पणटो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-३४ से 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; ८. से 'ठ' को द्वित्व छ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' को व्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणही रुप सिद्ध हो जाता है। __ भयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप भी होता है ! इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से . 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर भो रूप सिन हो जाता है। नभं रूप को सिसि सूत्र-संख्या १-37 में की गई है ।। १-१८७ !! पृथकि धो वा ॥ १-१८८ ॥ पृथक् शम्दे थस्य धो वा भवति ॥ पिधं पुधं । पिहं पुहं ॥ अर्थः-पृथक् शब्द में रहे हुर 'थ' का विकल्प रुप से 'ध' भी होता है। अतः पृथक शब्द के प्राकृत में वैकल्पिक पक्ष होन से चार रूप इस प्रकार होते हैं:-पृथक्-पिध; पुध पिहं और पुहं ।। पृथक् संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत पिधं, पुधं पिहं और पुहं होते हैं । इसमें सूत्र संख्या १-१३७ से 'ऋ' के स्थान पर विकल्प रूप से और कम से 'इ' अथवा 'उ' की प्राप्ति; १-१८८ से 'थ' के स्थान पर विकल्प रूप से प्रथम दो रूपों में 'ध' की प्राप्ति; तथा १-१८७ से तृतीय और चतुर्थ । विकल्प से 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यजन 'क' का लोप; और १-२४ की वृत्ति से अन्त्य स्वर 'अ' को 'अनुस्वार' की प्राप्ति होकर क्रम से चारों रुप पिंध, युध, पह और पुहं सिद्ध हो जाते हैं ॥ १-१८८ ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२२१ शृखले खः कः ॥ १-१८९i श्रृङ्खले खस्य को भवति ॥ सङ्कलं ।। अर्थ:-शृङ्गन शब्द में स्थित 'ख' व्यजन का 'क' होता है। जैसे-शधलम्:-सङ्कलं ।। अवलम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप सङ्कलं अथवा संकलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'श्र' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; १.३० और १-२५ से 'छ' त्र्य जन का विकल्प से अनुस्वार अथवा यथा रूप की प्राप्ति; १-१८६ से 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सङ्कलं अथवा संकलं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-१८६ ॥ पुन्नाग-भागिन्योगों मः॥१.१६० ॥ अनयोगस्य मो भवति ।। पुनामाई वसन्ते । मामिणी ॥ अर्थ:-पुभाग और भागिनी शब्दों में स्थित 'ग' का 'म' होता है। जैसे पुन्नागानि-पुन्नामाई ॥ भागिनी =भामिणी ।। युन्नागानि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुनामाई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६० से 'ग' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहु-वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'जस' प्रत्यय के स्थान पर 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति और श्रन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति भी इसी सूत्र (३-२६) से होकर युनामाई रूप सिद्ध हो जाता है। वसन्ते संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वसन्ते होता है । इस में मूत्र संख्या ३-११ से मप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'कि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसन्ते रूप सिद्ध हो जाता है । भागिनी संस्कृत स्त्री लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप भामिणी होता है। इसमें सुत्र संख्या १-१६० से 'ग्' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण' और संस्कृत व्याकरण के विधानानुसार दीर्घ ईकारान्त स्त्री लिंग के प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'मि' प्रत्यय में स्थित 'इ' की इत्संज्ञा तथा १-११ से शेष अन्त्य 'स्' का लोप होकर भामिणी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-१६॥ छागे लः ॥ १-१६१ ॥ छागे गस्य लो भवति ॥ छालो छाली ॥ अर्थ:-छाग शब्द में स्थित 'ग' का 'ल' होता है। जैसे:-छाग:-छालो ॥ छागी छाला ।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] छाग: संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप छालो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-९६१ से 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छालो रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण * छागीः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप वाली होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६१ 'ग' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति होकर छाली रूप सिद्ध हो जाता है ।।। १-१६१ ॥ ऊत्वे दुभंग-सुभगे वः ॥ १-१६२ ॥ अनयोरुत्ये गस्य वो भवति । दूहवो । सुहवो || उत्व इति किम् । दुहश्र ॥ सुश्री ॥ अर्थः- दुभंग और सुभग शब्दों में स्थित 'ग' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति होती है । जैसे:-दुर्भगःदूहवो । सुभगः=सुहवो ॥ किन्तु इसमें शर्त यह है कि 'ग' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होने की हालत में 'दुभंग' और 'सुभग' शब्दों में स्थित ह्रस्व 'उ' को दीर्घ 'क' की प्राप्ति भी होती है। यदि ह्रस्व 'उ' के स्थान पर दीर्घ 'ऊ' नहीं किया जायगा हो कि 'ग' को 'क' की नहीं सोकर 'ग' का लोप हो जायगा । इसीलिये सत्र में और वृत्ति में 'ऊत्य' की शर्त का विधान किया गया है। अन्यथा 'ग' का लोप होने पर 'दुभंग' का 'दुहओ' होता है और 'सुभगः' का 'सुहो' होता है ॥ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११५ में की गई है । सुहवो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। दुहओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११५ में की गई है। सुह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११३ में की गई है । ।। १-१६२ ।। खचित-पिशाचयोवः स - लौ वा ॥ १-१६३ ॥ श्रनयोश्चस्य यथासंख्यं स ल इत्यादेशो वा भवतः ॥ खसि खड़ओो । पिसल्लो पिसायो । अर्थः- खचित्त शब्द में स्थित 'च' का विकल्प से 'म' होता है । और पिशाच शब्द में स्थित 'च' का विकल्प से 'ल्ल' होता है। जैसे:- खचितः खमियो अथवा खइओ और पिशाचः = पिसल्लो अथवा पिसाओ । afe: संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप खसिओ और खच्यो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१६३ से विकल्प रूप से 'च' के स्थान पर 'स' आदेश की प्राप्ति और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से सूत्र संख्या १-१७७ से 'च्' का लोप; दोनों ही रूपों में सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप और १-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारास्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से खसिओ तथा खड़भी रूपों को सिद्धि हो जाती है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२२३ पिशाचः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पिसल्लो और पिसा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से 'शू' का 'सू'; ९-१६३ से 'च' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से आदेश की प्राप्ति २ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप 'पिसल्लो' सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप पिसाओ में सूत्र- संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'च्' का लोप और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पिता भी सिद्ध हो जाता है । जटिले जो को वा ।। १-१६४ ॥ जटिले जस्य को वा भावति ॥ भडिलो जडिलो || " अर्थः जटिल शब्द में स्थित 'ज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'फ' की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-- जटिल:- मडिलो अथवा जडिलो || जटिलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रुप झडिलो और जडिलो होते हैं। इनमें सुखसंख्या १९६४ से 'ज' के स्थान पर विकल्प रूप से 'फ' की प्राप्ति; १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर झडलो और जडिलो रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। १-१६४ ॥ ॥ टो ङः १-१६५ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्टस्य डो भवति ।। नडो ! भडो । घडी | घडड़ || स्वरादित्येव । घंटा || असंयुक्तस्येत्येव । खट्टा || अनादरित्येव । टक्को ॥ क्वचिन्न भवति । श्रद्धति || अ || अर्थ:- यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ, असंयुक्त और अनादि रूप हो; हलन्त भी न हो तथा आदि में भी स्थित न हो; तो उस 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होती है ! जैसे:- नट-- नडी ॥ भट:- भडो । घटः = घडी || घटति= घड | प्रश्न:- "स्वर से परे रहता हुआ हो" ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'द' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस '' का 'ड' नहीं होगा । जैसे घण्टा घंटा ॥ प्रश्न:- संयुक्त अर्थात् हलन्त नहीं होना चाहिये; याने असंयुक्त अर्थात् स्वर से युक्त होना चाहिये "ऐसा क्यों कहा गया है ! Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] * प्राकृत व्याकरण * उत्तर:- क्योंकि यदि किमी शब्द में 'ट' वर्ण संयुक्त होगा; तो उस 'ट' का 'ड' नहीं होगा। जैसेः- खट्वा = खट्टा ॥ प्रश्न:- अनादि रूप से स्थित हो; याने शब्द के श्रादि- स्थान पर स्थित नहीं हो;- ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ट' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा तो उस 'ट' का 'ड' नहीं होगा । जैसे:- टक टक्को । __ किसी किसी शय्द में ऐसा भी देखा जाता है कि 'ट' वर्ण शब्द में अनादि और असंयुक्त है तथा स्वर से परे भी रहा हुश्रा है; फिर भी 'ट' का 'ड' नहीं होता है। जैसे:- अति- श्रटइ । नटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नडो होता है । इसमें सूत्र- संख्या १-१६५ से 'ट' का '' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारांत पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नडो रूप सिद्ध हो जाता है। ___ भटः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भडो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६५ से 'ट" का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भडो सिद्ध हो जाता है। घटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घडो होता है । इममें सूत्र संख्या १-१६.५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घडो रूप सिद्ध हो जाता है। घटति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद रूप है । इसका प्राकृत रूप घडइ होता है । इसमें मत्र संख्या १-१६५ से 'ट का 'ड' और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घडइ रूप सिद्धि हो जाता है। घण्टा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घंटा होता है। इसमें सत्र संख्या १-२५ से '' का अनुस्वार होकर घंटा रूप सिद्ध हो जाता है। खट्वा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खट्टा होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७ से 'ब' का लोप; २-८८ से 'ट' को द्वित्व 'टु' की प्राप्ति; और संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' का इत्संज्ञानुसार लोप तथा १-११ से शेष 'स' का लोप होकर खट्टा रूप सिद्ध हो जाता है। टक्कः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टक्को होता है । इसमें सत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टक्को रूप सिद्ध हो जाता है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સુરસ્વતિહેન મણીલાલ શાન * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२२५ अटति संस्कृत अकर्मक क्रियापद को रूप है। इसका प्राकृत रूप अदर होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अट रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १-१६५ ।। सटा-शकट-कैटभे ढः ॥ १-१६६ ॥ एषु टस्य ढो भवति ।। सहा । सयढो । केढयो । अर्थः-सटा, शकट और कैटभ में स्थित 'ट' का 'ढ' होता है। जैसे:-सटा- सदा ।। शकटःसयढो ॥ कैटभः= केढवो ।। सटा संस्कृत स्त्री लिंग रूप हैं। इसका प्राकृत रुप सदा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से '' का 'ढ'; संस्कृत- व्याकरण के अनुसार प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त स्त्रीला में प्राप्त 'सि' प्रत्यय में स्थित 'इ' का इःसंज्ञानुसार लोप और १-५१ से शेष 'म्' का लोप होकर सदा रूप मिट हो जाता है। शकटः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप सयहो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१७७ से 'क्' का लोप; १-१८० से लुप हुर 'क' में स्थित 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-१६६ से 'ट; का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सबढो रूप सिद्ध हो जाता है। केदयो रूप की सिद्धि सत्र-संख्या १-१४८ में को गई है। १-१६६ ॥ स्फटिके लः ॥ १-१६७ ॥ स्फटिके टस्य लो भवति ।। फलिहो ।। अर्थः स्फटिक शब्द में स्थित 'ट' वर्ण का ल' होता है । जैसे:- स्फटिकः- फलिहो । फलिहो रूप को सिसि सूत्र- संख्या १-१८६ में की गई है।॥ १-१६७ ।। चपेटा--पाटो वा ।। १ - १६८ ॥ चपेटा शब्दे ण्यन्ते च पदि धातो टस्य लो वा भवति ॥ चविला चविडा । फालेइ फाडे । अर्थ:-चपेटा शब्द में स्थित 'ट' का विकल्प से 'ल होता है । तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट' का 'ड' होगा। जैसे:- चपेटा= चविला अथवा चविडा । इसी प्रकार से 'पटि धातु में भी प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप होने की हालत में 'ट' का वैकल्पिक रूप से 'ल' होता है। तदनुसार एक रूप में तो 'ट' का 'ल' होगा और द्वितीय रुप में चैकल्कि पक्ष होने से 'ट' का 'ढ' होगा | जैसे:- पाटयनि- फालेइ और काडेइ ।। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] * प्राकृत व्याकरण चपेटाः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप चविला और चविडा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र- संख्या १-२३१ से 'प' का 'च';.१-१४६ स 'ए' को 'इ' की प्राप्ति१-२६८ से 'ट' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ल' का आदेश होकर चचिला रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पिडा की सिसि सूत्र- संख्या १-१४६ में की गई है। पाटयति संस्कृत सकर्मक प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप फालेइ और फाइ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सुत्र संख्या १-२३२ मे 'ए' का 'फ'; १-१८ से बैकल्पिक रूप से 'ट' के स्थान पर 'ल' का आदेश; ३-१४६ से प्रेरणार्थक में संस्कृत प्रत्यय 'णि के स्थान पर अर्थात् 'गिण' स्थानीय 'अय' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति से 'ल + ए ='ले'; और ३.१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप फाले सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप फाडेइ में पत्र संख्या १-१६५ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ट्' के स्थान पर '' की प्राप्ति और शेष सिवि प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप फाडंह भो सिद्ध हो जाता है । ॥१-६६८!! ठो ढः ॥ १-१६६ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्ठस्य ढो भवति ॥ महो । सढो । कमहो । कुढारो । पसइ ।। स्वरादित्येव । बेठो । संयुक्तस्येत्येव । चिट्ठइ ।। अनादेरित्येव । हिअए ठाइ ॥ अर्थः यदि किसी :शब्द में 'ट' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त और श्रनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त भी न हो तथा श्रादि में भी स्थित न हो; तो उस 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-मठः-मटो; शठः सद्घो; कमटः कमढो; कुठारः-कुढारो और पठति पढइ ।। प्रश्न:-'स्वर से परे रहता हुश्रा हो' ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:---क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ठ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ठ' का 'उ' नहीं होगा । जैसे:-चैकुण्ठः वेठो ।। प्रश्नः-'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; याने स्वर से युक्त होना चोहिये' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण संयुक्त होगा-हलन्त होगा-स्वर से रहित होगा; तो उस 8' का 'ढ' नहीं होगा । जैसे:-तिष्ठति-चिट्ठइ॥ प्रश्नः-शब्द के आदि स्थान पर स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहो गया है ? Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * उत्तरः- क्योंकि यदि किसी शब्द में ह' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'ट' का 'द' नहीं होगा । जैसेः- हाये तिष्ठति= हिश्रए ठाइ ।। [२२७ +++ मः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप मठो होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १६६ से 'ठ' का 'ढ' और १-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शिव जाता है। शः संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप मढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से श का 'स'; १-९६६ से 'ठ' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सही रूप सिद्ध हो जाता है । कमठः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप कमी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९६६ से 'ठ' का 'द' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमडो रूप सिद्ध हो जाता है। कुठारः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कुढारी होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-९६६ से 'ठ' का 'द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुठारो रूप सिद्ध हो जाता है । पति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-१६६ से 'उ' का 'द' और ३- १३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'त्ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पकड़ रूप सिद्ध हो जाता है । बैकुण्ठः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बेकुठो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-१४८ से 'ऐ' स्थान पर 'ए' की प्राप्तिः ४ २५ से 'ए' के स्थान पर 'अनुस्वार' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुंठ रूप सिद्ध हो जाता है । fast संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है ! इसका प्राकृत रूप चिट्ठर होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर चिट्ठ' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चिट्ठा रूप सिद्ध हो जाता है । हृदये संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हिए होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति: १-१७७ से 'द्' और 'य्' दोनों वर्णों का लोप; और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसक लिंग में 'ङि' 'इ' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिभए रूप सिद्ध हो जाता है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] * प्राकृत व्याकरण * । - तिष्ठति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप ठाइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या ४-१६ से संस्कृत धातु 'स्था' के आदेश रूप 'तिष्ठ' के स्थान पर 'ठा' रूप आदेश को प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ठाइ रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-९६६ || अङ्कोठे ल्लः ॥ १-२०० ।। अकोठे ठस्य द्विरुक्तो लो भवति ।। अकोल्ल तेलतुप्पं ।। अर्थ:--संस्कृत शठन अकोठ में स्थित '४' का प्राकृत रूपान्तर में द्वित्व 'ल्ल' होता है । जैसे अकोट तैल वृतम् अकोल्ल-तेल्ल-तुप्पं ।। __ अंकोठ संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप अकोल्ल होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२०० से 'ट' के स्थान पर द्वित्व ल्ल' की प्राप्ति होकर पल हर शिव हो जाताएं: तैल संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप तेल्ल होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४८ से 'गो के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और २-६८ से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति होकर 'तेल्ल' रूप सिद्ध हो जाता है। वृत्तम संस्कृत रूप है। इसका देश्य रूप तुरुपं होता है। इसमें सुत्र संख्या का अभाव है; क्यों कि तम् शब्द के स्थान पर तुप्पं रूप की प्राप्ति देश्य रूप से है। अतः तुप्पं शब्द रूप देशज है; न कि प्राकृत ज ।। तदनुसार तुप्प देश्य रूप में ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देश्य रूप तुष्पं सिद्ध हो जाता है । ॥ १-२००। - - पिठरे हो वा रच डः ॥ १-२०१॥ पिठरे ठस्य हो वा भवति तत् संनियोगे च रस्य हो भवति ।। पिहडो पिढरो॥ अर्थ:-पिठर शब्द में स्थित 'ठ' का वैकल्पिक रूप से 'ह' होता है। अतः एक रुप में 'ठ' का 'ह' होगा और द्वितीय रुप में वैकल्पिक पन होने से 'ठ' का 'ढ' होगा । जहाँ 'ठ' का 'ह' होगा; वहां पर एक विशेषता यह भी होगी कि पिठर शब्द में स्थिन र'का 'ड' होजायगा । जैसे:-पिठर:-पिहो अथवा पिढरो। पिठरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप पिहडी और पिटरी होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२०१ से 'ठ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'ह' की प्राप्ति और इसी सूत्रानुसार 'ह' की प्राप्ति होने से 'र' को 'ड' की प्राप्ति तथा ३-२ से प्रथमा विभावत के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप पिहाडो सिद्ध हो जाता है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२२६ द्वितीय रूप में सूत्र- संख्या १-१६६ से वैकल्पिक पक्ष होने से '४' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ३.२ से 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रुप पिडरी भी सिद्ध हो जाता है ।।५-२० ॥ डोलः॥ २०२॥ स्त्ररात् परस्यासंयुक्तस्थानादेर्डस्य प्रायो लो भवति ।। बडवामुखम् । वलयामुई ॥ गहलो !। तलाय । की । स्वादिलोन | मोडं । कोंडं । असंयुक्तस्येत्येव । खग्गो ।। अनादेरित्येव । रमह डिम्भो ॥ प्रायो ग्रहणात् क्वचिद् विकल्पः । यलिसं वडिस । दालिमं दाडिमं । गुलो गुडो । णाली णाडी। णलं गडं । आमेलो आवेडी || क्वचिन्न भवत्येव । निविडं । गउड़ो । पीडिभं । नीडं । उडू तडी ।।। अर्थः- यदि किमी शब्द में 'तु' वर्ण स्वर से परे रहता हुया संयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त - ( स्वर रहित ) भी · न हो तथा प्रादि में भी स्थित न हों; तो उस 'ड' वर्ण का प्रायः 'ल' होता है। जैसे- वडवामुखम्= वलयामहं । गरुडः = गरुलो ।। तडागम् = तलायं । कोइति= कीलइ ।। परन:-..." स्वर से पर रहता हुआ हो" ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-क्योंकि यदि किसी शब्द में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'ड' का 'ल' नहीं होगा । जैसे:- मण्डम= मोड और कुण्डम= कोंड' इत्यादि । प्रश्नः- ' संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; अर्थात् असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये ' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- क्योंकि यदि किसी शब्द में 'डः वर्ण संयुक्त होगा - हलन्त होगा - स्वर से रहित होगा, तो उस 'ड' वर्ण का 'ल' नहीं होगा । जैसे:- खड गः= खग्यो । प्रश्नः-- "अनादि रूप से स्थिन हो; शब्द के श्रादि स्थान पर स्थित नहीं हो; शब्द में प्रारंभिकअक्षर रूप से स्थित नहीं हो; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्योंकि यदि क्रिसी शत्र में 'ड' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'दु' का 'ल' नहीं होगा । जैसे:-- रमते डिम्भः- रमह डिम्भी॥ प्रश्न:- "प्रायः " अव्यय का प्रहण क्यों किया गया है ? उत्तर:-"प्रायः " श्राव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्हीं किन्ही शब्दों में 'ड' वर्ष स्वर से परे रहता हुआ; असंयुक्त और अनादि होता हुआ हो तो भी उस 'ड' वर्ण का 'ल' वैकल्पिक रूप से होता है । जैसे:-- विशम् = वलिम अथवा वडिसं ॥ दाडिमम् = दालिम अथवा दाडिमं ॥ गुड: Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] * प्राकृत व्याकरण * गुलो अथवा गुडो ॥ नाटी णाली अथवा गाडी । नम्= रणलं अथवा गृह ॥ अापीडः= अामलो अथवा पामेडो ।। इत्यादि !! किन्हीं किन्हीं राठों में 'ड' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ; आमंयुक्न एवं अनादिकप हो; तो भी उस'डवर्ण का 'ल' नहीं होता है। जैसे:-- निबिडमनिबिड ।। गौडः= गउहा ।। पीइतम पीडिअं॥ नीडम् नोड ।। उडुः = उडू ।। तडित- तप्डो ॥ इत्यादि । वडवामुखम:- संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वलयामह होता है । इसमें सूत्र- संख्या १-२८२ से 'दु' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'व' का लोप; १-१८० से लुप्म 'व' में से शेष 'या' के स्थान पर 'या' की प्राग्नि; १-१८७ से 'ख' को 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अन्नारान्त नपुंसक लिंग में प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राति और १-.३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर वलयामुहं रुप सिद्ध हो जाता है। गरुडः संस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रुप गरुलो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर गहलो रूप सिद्ध हो जाता है। ___तडागम् संस्कृत रूप है ! इसका प्राकृत रूप तलार्य होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२२ से 'ह' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ग्' का लोपः १-१८० मे तुप्त 'ग' में से शेष 'श्र' को 'य' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तलाय रूप सिद्ध हो जाता है। कीडति संस्कृत अकमक क्रिया का रूप है । इसका प्राकृत रूप कीलइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप; १-२०२ से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कीलइ रूप सिद्ध हो जाता है। मोडं रूप की सिद्धिः सूत्र संख्या १-११६ में की गई है। कुण्डम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कोंड होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११६ से 'उ' के स्थान पर 'ओं की प्राप्ति; १-२५. से 'ए' के स्थान पर पूर्व व्यजन पर अनुस्वार की शानि; ३.८५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की गति और १-२३ से प्राप्त “म' का अनुस्वार होकर कोडं रूप सिद्ध हो जाता है। खग्गी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३४ में की गई है। रमते संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसको प्राकृत रूप रमइ होता । इसमें सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में 'ते' प्रत्यय के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रमह रूप सिद्ध हो जाता है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२३१ डिम्म संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप डिम्भो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डिम्भो रूप सिद्ध हो जाता है। बडिश र संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप धलिस और वडिस होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३७ से 'ब' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १.२०२ से चकल्पिक विधान के अनुमार 'ड' के स्थान पर विकल्प रूप से 'ला की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्रात 'म' का अनुस्वार होकर वलिस और पडिस रूप सिद्ध हो जाते हैं। 3 दाडिमम् संस्कृत रुप है । इसके प्राकृत रुप दालिम और दाडिमं होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १.२०२ से बैक लेक विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दालिमं और दाडिम रूप सिद्ध हो जाते हैं। शुद्धः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गुलो और गुडो होते हैं । इनमें सूत्र- संख्या १.२०२ से वैकल्पिक-विधान के अनुपार विकल्प से 'इ' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुलों और गुलो रूप सिद्ध हो जाते है। नाडी संस्कृत रूप है । इसमें प्राकृत रूप णाली और णाडी होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण की प्राप्ति और १-२०२ से धैकल्पिक- विधान के अनुसार विकल्प से '' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति होकर णाली और णाडी रुप सिद्ध हो जाते हैं। नडम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णलं और एड होते हैं। इनमें सूत्र- मख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिः, १-२०२ से वैकल्पिक- विधान के अनुसार विकल्प से 'ड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारांत नपुसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर णलं और गडं रूप सिद्ध हो जाते है। भामेली रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या?–१०५ में की गई है। आपीडः मंस्कृत रुप है। इसका प्राकृत रूप ामेडो होता है। इलमें सूत्र-संख्या १-२३४ से वैकल्पिक रूप से 'प' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; १-१०५ से 'ई के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति हो कर आमेडो रुप सिद्ध हो जाता है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] * प्राकृत व्याकरण डिम् संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप निबिड' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-०३ से 'भू' का अनुस्वार होकर निविडं रूप सिद्ध हो जाता है । गउडो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६२ में की गई है। पीडितम् संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप पीड होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप: ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पीडिओ रूप सिद्ध हो जाता है। नी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०६ में की गई हैं । उ: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उडू होता है। इसमें सूत्र संख्या ३ १६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हम्ब स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर जडू रूप सिद्ध हो जाता हैं। तद - ( अथवा तडित् ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तडी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से 'दू' अथवा 'तू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर तड़ी रूप सिद्ध हो जाता है | ॥१-२०२ वेणौ णो वा ॥ १ - २०३ ॥ वेणौ णस्य लो वा भवति || वेलू | वेणू || अर्थः- बेगु शब्द में स्थित 'ए' का विकल्प से 'ल' होता हैं। जैसे:--वेणुः = बेलू श्रथवा वेणू || संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बेलू, और वेणू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या - २०३ से 'ग' के स्थान पर विकल्प से 'ल' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर बेलू और वे रूप सिद्ध हो जाता है । । ६- २०३ ॥ तुच्छे तश्च - छौ वा ॥ १-२०४ ॥ तुच्छ शब्दे तस्य च छ इत्यादेशौ वा भवतः ॥ चुच्छं । हुच्छं | तुच्छं ॥ अर्थ:- तुच्छ शब्द में स्थित 'तू' के स्थान पर वैकल्पि रूप से और क्रम से 'च' अथवा 'छ' का प्रदेश होता है । जैसे:- तुच्छम् तुच्छं अथवा लुच्छं अथवा तुच्छं ॥ तुच्छम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप चुच्छं; छुच्छं और तुच्छं होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२०४ से 'तू' के स्थान पर क्रम से और वैकल्पिक रूप से 'चू' अथवा 'छ' का आदेश: ३ २५ से Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२३३ प्राथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से एवं वैकल्पिक रूप से चुन्छ छुन और तुन्छ रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥ १-२०४ ।। तगर-त्रसर-तूवरे टः ॥ १-२०५ ।। एप तस्य टो भवति ।। टगरी टसरो । द्रवरों ॥ अर्थ:-तगर; मर और नूबर शब्दों में स्थित 'त' काट' होता है। जमे:-नगर: = टगरी; वार:= दमरो और तूबरः- टूवरो ।। तगरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टगरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२०५ मे 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुन्जिा म पनि प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर टगरी कप सिद्ध हो जाता है। सर: संस्कृत का है। इसका प्राकृत रूप टसरो होता है। इसमें मूत्र-मंख्या २-३६ मे 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; १-२०५. से शेष 'त' के कारट' की प्राप्ति और ... लिकिन के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर टप्सरो रूप मिद्ध हो जाता है। तूवरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप टूवरो होता है। इस में मूत्र-संख्या १-२०५ से 'त' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यत्र के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इवरो रुप सिद्ध हो जाता है ।। १।०५।। प्रत्यादौ डः ॥ १-२०६॥ प्रत्यादिष तस्य डो भवति ।। पडिवन्न । पडिहासो । पडिहारो । पाडिफद्री । पडिसारो पडिनिअत्तं । पडिमा । पडिवया । पडंसुश्रा । पडिकरइ । पहुडि । पाहुडं । वावडो। पडाया । बहेडो । हरडई । मडयं ।। आर्षे । दुष्कृतम् । दुकडं ॥ सुकृतम् । सुकडं ।। आहृतम् । आहडं । अवहृतम् । अवहर्ड। इत्यादि । प्राय इत्येव । प्रति समयम् । पइ समयं ॥ प्रतीपम् । पईवं ।। संप्रति । संपइ । प्रतिष्ठानम् । पइट्टाणं ॥ प्रतिष्ठा । पट्टा । प्रतिज्ञा। पइगाया ॥ प्रति । प्रभृति । प्राभृत । व्याप्त । पताका । विभीतक । हरीतकी । मृतक । इत्यादि । अर्थ:-प्रति आदि उपसर्गों में स्थित 'त' का 'T' होता है । जैसे:-प्रतिपन्न अडियन्नं ॥ प्रतिभासः= पडिहासो ॥ प्रतिहारः= पडिहारी ॥ प्रतिस्पःि -पाडिरफद्धी ॥ प्रतिमार:=पडमारो ॥ प्रतिनिवृत्तम् = पडिनिश्रत्त ।। प्रतिमा-पडिमा । प्रतिपदा-पडिवया । प्रनिश्रु घड'मुग्रा ॥ प्रतिकरोति Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] * प्राकृत व्याकरण * पडिकरइ ।। इस प्रकार 'प्रति' के उदाहरण जानना । प्रभृति = पद्धि । भाभृत्तम् पाहुई। व्यापत:बावड्डो ॥ पताका-पडाया ॥ विभीतकः = बहेडी ।। हरीतकी हरद्दई ।। मृतकम् - मडयं ।। इन जड़ाहरणों में भी 'त' का 'व' हुआ है ।। आर्ष-प्राकृत में भी 'त' के स्थान पर 'ड' होता हुआ देखा जाता है। जैसेः-दुष्कृतम् = दुक्कड । सुकृतम् - सुकड' । आइतम पाहड । अवहृतम् = अबहड' ।। इत्यादि ।। अनेक शब्दों में ऐसा भी पाया जाता है कि संस्कृत रूपान्त से प्राकृत रूपान्तर में त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होनी हुई नहीं देखी जाती है । इसी चिदम को मानाय चन्द्र ने इसी सूत्र की वृत्ति में 'प्रायः' शब्द का उल्लख करके प्रदर्शित किया है। जेसे:-प्रतिसमयम् = पइसमये ।। प्रतीपम् = पईवं || संप्रति= संपइ । प्रतिष्ठानम् - पइट्ठाणं ।। प्रतिष्ठा = पइछा ॥ प्रतिज्ञा = पइराणा ।। इत्यादि ।। प्रतिपन्नम संस्कृत रुप हैं । इसका प्राकृत रूप पडियन्नं हाता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-७६ से र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय 'प' के स्थान पर 'व की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में "मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मडिपन्न रूप सिद्ध हो जाता है। प्रतिभासः संस्कृत रूप है । इसकाप्राकृत रूप पडिहासो होता हैं। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'म' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' होकर पडिहासो रुप सिद्ध हो जाता है। JNIMILmandu t o प्रतिहारः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पद्धिहारो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७ से ' का लोप; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में श्राकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिहारी रूप सिद्ध हो जाता है। पडिप्फी कप की सिद्धि सूत्र-संख्या १–४४ में की गई है। प्रतिसारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडिसाये होता है। इसमें सूत्र--संख्या २-६ से 'र' का लोप; १-२०६ से 'त के स्थान पर 'लु' की प्राप्त; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर :ओ' होकर पडिसारो रुप सिद्ध हो जाता है। प्रतिनिवृतम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पडिनिअत्त होता है। इसमें सूत्र संख्या --५६ से 'र' का लोप; १.२०६ से प्रथम 'a' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप: १-१२६ मे शंप 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन से अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और -२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पहिनिअन रुप सिद्ध हो जाता है । कर Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - २३५ प्रतिमा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडिमा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप थौर १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति होकर पाडमा रूप सिद्ध हो जाता है । पार्डधया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। पडतुआ रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है। प्रति करोति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पद्धिकरइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या -७ से प्रथम 'र' का लोप;; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; ४-२३४ से 'करो' क्रिया के मूल रुप 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'अर्' की प्राप्ति; ४-२३६ से प्राप्त 'अर्' में स्थित हलन्त 'र' में 'अ' रूप श्रागम की प्राप्ति, और ३-१३६ से वर्तमान काल में प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पडिकरइ रूप सिद्ध हो जाता है। पहाई रूप की सिद्ध सूत्र - संख्या १-१३7 में की गई है। पाहुडं रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१३१ में की गई है। ध्यापूतः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप वावडो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४ से ' का लोप; १.९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिलग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर पावडो रुप सिद्ध हो जाता है। पताका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पडाया होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२०६ से 'त्' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१४७ से 'क' का लोप और १-१८० से लुप्त 'क' में से शेष रहे हुए 'श्रा के स्थान पर 'या होकर पडाया रुप सिद्ध हो जाता है। बहेडओ रूप की सिद्धि सूत्र • संख्या १-८८ में की गई है। हरडई रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-९९ में की गई है। मृतकम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मडयं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'न' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष 'अ' का 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मडयं रूप की सिद्धि हो जाती हैं। दुष्कृतम, संस्कृत रूप है । इसका पाप-प्राकृत में दुबकड रूप होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७४ से 'प' का लोप; १-५२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ की प्राप्ति; २-८८ से 'क' को द्वित्व 'क' को प्राप्ति Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * । १-६८५ से 'त' का '' की प्राणि ३ २५. से प्रथम विभक्त के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दुक्कडं रूप सिद्ध हो जाता है। सुकृत संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुक्कड होता है । इसमें सूत्र संख्या १-५२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-८८ से 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति, १-२०६ से 'न' को 'दु की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नासक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर मुक्कडं रूप सिद्ध हो जाना है। आहृतं संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप आहढ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-२०६ से 'त' को 'ड' प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आहडं रूप सिद्ध हो जाता है। अवहतं संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अवह होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्तिः के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवहडं रूप सिद्ध हो जाता है । प्रतिसमयं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पहप्तमयं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः १.१७७ से 'त्' का लोपः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पइसमय रूप मिद्ध हो जाता है। प्रतीयम् संस्कृत विशेषण रूप है । इमका प्राकृल रूप पईवं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-१७७ से 'तु' का लोपः १-२३१ से द्वितीय 'प' को 'व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंमक लिंग में 'सि-प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पई रुप सिद्ध हो जाता है । संप्रति संस्कृत अन्यय है । इसका प्राकृत रूप संपह होता है। इस में सूत्र-संख्या २.७६ से 'र' का लोप और १-१४७ से ,त्' का लोप होकर सपड़ रुप सिद्ध हो जाता है। प्रतिष्ठानम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप पइट्ठाणं होता है। इसमें मत्र संख्या २७६ से 'र' का लोप; १-१४७ से 'त्' का लोप; २.६७ से 'ष' का लोप; ८ से शेष ' को द्वितीय 'छु' की प्राप्ति २-१० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति ३-२५. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर यइ ठाणे रूप मिद्ध हो जाता है। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 니 સરસ્વતિષ્ણુન મણીલાલ શાહ AREL MENDAL [२३७ * प्रिभोदय हिन्दी व्याख्या सहित # पट्टा रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-३८ में की गई है। प्रतिज्ञा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पइरणा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र्' का लोप १-७७ से 'त्' का लोप २०१२ से श के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और २८ से प्राप्त 'ए' को द्वित्व की प्राप्ति होकर पइण्णा रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२८६ ।। इत्वे वेतसे ॥ १- २०७ ॥ देत से तस्य डो भवति इत्वे सति || बेडिसो || इत्व इति किम् | वेअसो || हः स्वप्नादौ [१-४६] इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिबलात् ॥ अर्थ:- वेतस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर ड' की प्राप्ति उस अवस्था में होती है; जबकि 'त' में स्थित '' स्वर सूत्र संख्या १-४६ से 'इ' स्वर में परिणत हो जाता हो । जैसे: वेतसः - बेडिसो || प्रश्न: - वेतस शब्द में स्थित 'त' में रहे हुए 'थ' को 'इ' में परिणत करने की अनिवार्यता का farara क्यों किया है ! उत्तरः- वेतस शब्द में स्थित 'त' का 'ड' उसी अवस्था में होगा; जब कि उस 'त' में स्थित 'प्र' स्वर को 'इ' स्वर में परिणत कर दिया जाय; तदनुसार यदि 'त' का 'ड' नहीं किया जाता है; तो उस अवस्था में 'त' में रहे हुए '' स्वर को इ' स्वर में परिणत नहीं किया जायगा। जैसेः - वेतमः येथसो | इस प्रकार सूत्र-संख्या १-४६-( इ: स्वप्नादी ) - के अनुसार 'अ' के स्थान पर प्राप्त होने वाली 'इ' का यहाँ पर निषेध कर दिया गया है। इस प्रकार का नियम 'व्याकरण की भाषा' में 'व्यावृत्तिवाचक' नियम कहलाता है । तदनुसार व्यावृत्ति के बल से' 'इत्व' की प्राप्ति नहीं होती है । airat : -- रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४६ में की गई है। वेतसः-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वेद्यतो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' होकर असो रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १-२०० ॥ गर्भितातिमुक्तके यः ॥ १-२०८ ॥ अनयोस्तस्य यो भवति ।। गन्मियो अणितयं ।। कचिश्रभवत्यवि । अहमुत्तयं ॥ कथम् रावणो । ऐरावण शब्दस्य । एरावओ इति तु ऐरावतस्य ॥ अर्थ:-- गर्मित और अतिमुक्तक शब्दों में स्थित 'त' को 'ए' की प्राप्ति होती है। अर्थात् 'त' के स्थान पर 'ए' का आदेश होता है । जैसे:- गर्भितः - गम्भिो ॥ श्रतिमुक्तकम् = श्रतियं । कमी कमी Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्राकृत व्याकरमा * 'अतिमक्तक' शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती हुई नहीं देखो जाती है जैसे:अतिमुक्तकम् अइमुत्यं ।। प्रश्नः—क्या एरानणो' प्राकृत शाकद संस्कृत 'ऐरावत' शब्द से रूपान्तरित हुआ है ? और क्या इस शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हुई है ? उत्तरः-प्राकृत 'एरावणो' शब्द संस्कृत 'ऐकावण:' शब्द से करानारत हुआ है; शतः इस शरद में 'त' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। प्राकृत शब्द 'गरावो' का रूपान्तर 'ऐशवतः' संस्कृत शरद से हुआ है। इस प्रकार एराबर। और एसबी प्राकृत शलमों का रूपान्तर क्रम से ऐरावण और परावतः संस्कृत शब्दों से हुआ है। लानुपार एरावणो में 'त' के स्थान 'ए' की प्राप्ति होने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। गभितः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप भरिभरण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप, २-८६ से 'भ् को द्वित्व भ म को प्राप्ति; २.६ से प्राप्त पूर्व 'भ' को 'बू की प्राप्ति; ३-२०० से 'न' को रण की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गरिभणी रूप सिद्ध हो जाता है। अणिउँतर और अहमुत्सय रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२F में की गई है। एराषणो रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४८ में की गई है। एरावतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप एरावओ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर एराचओ रूप की सिद्धि हो जाती है।-२०८ ।। रुदिते दिनागपः ॥ १-२०६ ।। रुदिते दिना सह तस्य द्विरुक्तो णो भवति ।। रुगणं ॥ अत्र कंचित् त्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनी मागधी-विषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि | ऋतुः । रिक । उऊ ।। रजतम् । स्पर्य ।। प्रत । एनं ।। गतः । म ।। पामतः । आगो । मांसम् | संपयं ।। यतः । जी ॥ ततः। तो ।। कृतम् । कयं ॥ हृतम् । इये । हताशः । हयासी ॥ श्रुतः । सुश्री ॥ आकृतिः । पाकिई ॥ नितः । निच्छुश्री ॥ तातः । तानो ॥ कतरः। कपरों ॥ द्वितीयः । दुइयो इस्यादयः प्रयोगा भवन्ति । न पुनः उरपाई इत्यादि ।। कचित् भावे पि व्यत्ययश्च (४-४४५)इत्येत्र सिद्धम् ।। दिही इत्येतदर्थ तु धनेर्दिहिः (२-१३१) प्रति बच्यामः ।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [२३६ अर्थ:--'रुदिप्त' शब्द में रहे हुए 'दि' सहित 'त' के स्थान पर अर्थात् 'दित' शम्नांश के स्थान पर द्वित्व 'एण' की प्राप्ति होती है । याने 'दिल' के स्थान पर 'पण' आदेश होता है जैसे:-रुदितम् = भएणं । 'त' वर्ण से संबंधित विधि-विधानों के वणन में कुछ एक प्राकृत व्याकरणकार 'ऋत्वादिषु ' अर्थात् ऋतु आदि शब्दों में स्थित 'त' का '६' होता है ऐसा कहते हैं; वह कथन प्राकृत-भाषा के लिये उपयुक्त नहीं है। क्योंकि 'त' के स्थान 'द' को प्राप्ति शौरसेनी और मागधी भाषाओं में ही होती हुई देखी जाती है। न कि प्रकृत-भाषा में । अधिकृत-व्याकरण प्राकृत भाषा का है; अतः इसमें 'त' के स्थान पर 'द्' की प्राप्ति नहीं होती है। उपरोक्त कथन के समर्थन में कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है:-ऋतुः-रि ऊ अथवा 'नऊ ॥ रजतमअयं ॥ एतद्-परं । गतः गया ।। आगत: प्रागो ॥ सांप्रतम संपयं ।। यतः जना ।। सत: तो ।। कृतम् कयं ।। हतम-हयं ॥ हताशः-हयामा । श्रुतःो ॥ आकृति:-श्रापिई ॥ निवृत:निन्युयो । तात:-चाओ ।। कतर कयरो। और द्वितीया-दुइया । इत्यादि 'त' संबंधित प्रयोग प्राकृतभाषा में पाये जाते हैं। प्राकृत भाषा में ' के या 'द' को शामिल नहीं होती है। केवल शौरसेनी और मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश होता है । इसके उदाहरण इस प्रकार है:ऋतुः-उदू अथवा सदू ॥ रजतम्रयद इत्यादि । यदि किन्हीं किन्हीं शब्दों में प्राकृत-भाषा में 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती हुई गई जान तो उसको सूत्र-संख्या ४-४४७ से वर्ण-व्यत्यय अर्थात् अक्षरों का पारम्परिक रूप से अदला-बदली का स्वरूप समझा जाय; न कि 'त' के स्थान पर 'द' का श्रादेश माना जाय । इस प्रकार से सिद्ध हो गया कि केवल शौरसेनी एवं मागधी भाषा में ही 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती है; न कि प्राकृत भाषा में ।। दिही ऐसा जो रूप पाया जाता है; वह धृति शब्द का आदेश रूप शरद है; और ऐसा उल्लेख भागे सूत्र संख्या २-१३५ में किया जायगा । इस प्रकार उपरोक्त स्पष्टीकरण यह प्रमाणित करता है कि प्राकृतभाषा में 'त' के स्थान पर 'द' का आदेश नहीं हुश्रा करता है। तदनुसार प्राकृत-प्रकाश नामक प्राकृतव्याकरण में 'ऋत्यादिषु तोदः 'नामक जो सूत्र पाया जाता है। उस सूत्र के समान अर्थक सूत्र-रचने की इस प्राकृत-व्याकरण में आवश्यकता नहीं है । ऐसा आचार्य हेमचन्द्र का कथन है । ___ काईतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रुण्यं होता है । इसमें मत्र संख्या १-२० से 'दिन' शब्दोश के स्थान पर द्वित्व 'एण' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर रुण्ण रूप सिद्ध हो जाता है। रिक रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-१४१ में की गई है। उऊ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। इपर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] * प्राकृत व्याकरण * एतद संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप एअं होता है । इस में सूत्र संख्या १-११ मे अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'द्' को लोप: १-१७७ से 'तू' का लोप; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर एअरुप सिद्ध हो जाता है। गतः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप गी होता है। इसमें सूत्र-संख्या -१७७ से 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मनी रूप सिद्ध हो जाता है। श्रागतः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप आगश्री होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.३.७७ से 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आगओ रुप सिद्ध हो जाता है। सांप्रतम संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप संपर्य होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-७६ से 'र' का लोप; १-९४७ से 'त्' का लोप, १-९८० से लोप हुए 'तू' में से शेष रहे हुए. 'अ' को 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर संपयं रूप सिद्ध हो जाता है। यतः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' को 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'म्' का लोप; और १-३७ से विसर्ग को 'श्रो' की प्राप्ति होकर जओ रूप सिद्ध हो जाता है। सतः संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'त्' का लोप और १.३७ से विसर्ग को 'श्री' की प्राप्ति होकर तो रूप सिद्ध हो जाता है। · कर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२२६ में की गई है। हतम संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९७७ से 'स का लोप; १-१८० से लुप्त 'स्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हयं रूप सिद्ध हो जाता है। इसाशः संस्कृत विशेषण है । इसको प्राकृत रूप हयासो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लुप्त 'त्' में से शेष रहे हुए '' को 'य' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'स' की Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४१ प्राप्ति और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक बधन में अकारान्त पुल्लिंग में मि प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' होकर हयासो रूप सिद्ध हो जाता है। श्रतः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका नाकाम सुप्रो होता है। इसमें सत्र संख्या २-७९ सेर का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति; १५७१ से 'त् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सुओ रूप सिद्ध हो जाता है। आकृतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आकिई होता है । इप्समें सूत्र संख्या १-१२८ से 'ऋ' को 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक ववन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस स्वर 'इ' को दोर्य-स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर आर्किई रूप सिद्ध हो जाता है। निर्वृतः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निब्युयो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १.९३१ से 'र' को 'उ' को प्राप्ति; ..८६ से 'च' को द्वित्व 'व्व की प्राप्ति, १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नियुभो रूप सिद्ध हो जाता है। तात: संस्कन रूप है । इसका प्राकृत रूप ताओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'अ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ताओ रूप सिद्ध हो जाता है। कतरः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कयरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोपः १-१८० से लोप हुए 'त्' में से शेष रहें हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कारो रूप सिद्ध हो जाता है। दुरी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई है। अतुः संस्कृत रूप है । इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में उदू रूप होता है। इसमें सुत्र संख्या १-१३१ से 'ऋ' को 'उ' की प्राप्ति; ४-२६० से 'त्' को 'दू" को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर उदू रूप सिद्ध हो जाता है। रजतम् संस्कृत रूप है । इसका शौरसेनी और मागधी भाषा में रयदं रूप होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति ४-२६० से 'त' को 'द' की प्राप्ति; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] * प्राकृत व्याकरण * प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति: और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रयई रूप सिद्ध हो जाता है। धतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निही होता है। इसमें मन्त्र-संख्या २-१३१ से 'वृति' के स्थान पर 'दिहि रूप का आदेश और ३-१४ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर दिही रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-२०६ ।। सप्ततौरः ॥ १-२१० ॥ । सप्ततौ तस्य रो भवति ।। सत्तरी ।। अर्थ:-सप्तत्ति शब्द में स्थित द्वितीय त' के स्थान पर 'र' का आदेश होता है । जैसे:-सप्ततिः -सत्तरी ।। सप्तासः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सत्तरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'प्' का लोप; २६ से प्रथम 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्रापित १-२९० से द्वितीय 'तू' के स्थान पर 'र' का आदेश और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त रूप में 'सि प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य इस्व स्वर 'इ' को दीघ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर सत्तरी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-२१०।। अतसी-सातवाहने लः ॥१-२११ ॥ अनयोस्तस्य लो भवति ॥ अलसी । सालाहणो । सालवाहणो । सालाहणी भासा ॥ अर्थ:--अतसी और सातवाहन शठकों में रहे हुए 'त' वर्ण के स्थान पर 'ल वर्ण की प्राप्ति होतो है । जैसे:-श्रतमी-अलसी ।। शातवाहन पालाहणो और सालवाहणो ॥ शातवाहनी भाषा-सालाहणी भासा अलसी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अलसी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.२११ से 'स्' के स्थान पर'ल' का आदेश होकर अलसी रूप सिद्ध हो जाता है। सालाहणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८ में की गई है। शातवाहनः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालवाहणणे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२११ सेति' के स्थान पर 'ल' का आदेश; १-२२८ से 'न' का 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सालपाहणो रूप सिद्ध हो जाता है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४३ ज्ञातवाहमी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सालाहणी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० में 'श' का 'स'; १-२११ ले पर' के स्थान पर काम श: १-१४४४ में 'व' का लोप; ५-५ से लोप हुए 'व' में से शेप रहे हुए 'आ को पूर्व वर्ण 'ल' के साथ संधि होकर ‘ला की प्राप्ति और १-२२८ से 'न' को 'ण की प्राप्ति होकर सालाणी रूप सिद्ध हो जाना है। भाषा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भामर होता है । ममें मत्र मंग्या :.:६० से 'प' का 'म होकर भासा रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-२१५ ॥ पलिते वा ॥ १-२१२॥ पलिते तस्य लो वा भवति ॥ पलिलं । पलिभं ॥ अर्थ:... पलित शब्द में स्थित 'त' का विकल्प से 'ल' होता है। जैसे:-पलितम् पलिलं अथवा पलियं ।। पालतम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पलिलं और पलिअं होते हैं। इनमें सत्र संख्या १-२१२ से प्रथम रूप में 'न' के स्थान पर बिकल्प से 'ल' आदेश की प्राप्ति; और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-१७७ से 'त्' का लोप, ३-२५ से दोनें रूपों में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' कर अनुस्वार होकर कम से पलिल और पलिभं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥१-२१२ ॥ . पीते वो ले वा ॥ १-२१३ ।। पीते तस्य वो वा भवति स्वार्थलकारे परे ॥ पीवलं ।। पीअलं ॥ ल इति किम् । पी । अर्थ:-'पीत' शब्द में यदि 'स्वार्थ-बोधक' अर्थात् 'वाला' अर्थ बतलाने वाला 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुश्रा होतो 'पीत' शब्द में रहे हुग. 'त' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'च' वर्ण का प्रादेश हुअा करता है। जैसे:-पीतलम् पीवलं अथवा पीअल-पीले रंग याला ।। मश्नः-मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः- 'ल' वर्ण संस्कृत-व्याकरण में 'स्वार्थ-बोधक' अवस्था में शब्दों में जोड़ा जाता है। तदनुसार यदि 'पीत' शब्द में स्यार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय जुड़ा हुआ हो; तभी 'पीत' में स्थित 'त' के स्थान पर 'ब' वर्ण का वैकल्पिक रूप से प्रादेश होता है; अन्यथा नहीं। इसी तात्पर्य को समझाने के लिये मूल-सूत्र में 'ल' वर्ण का उल्लेख किया गया है। स्वार्थ-बोधक 'ल' प्रत्यय के अभाव में पीत शब्द में स्थित 'त' के स्थान पर 'व' वर्षे का आदेश नहीं होता है । जैसे-पीतम् पी । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] * प्राकृत व्याकरण में पीतलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पीयलं और पीअलं होते हैं। इनमें से प्रश्रम रूप में सूत्र संख्या १.२१३ से बैकल्पिक रूप में 'न' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में १-१७5 से 'त' को लोप; ३-२५ से नोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पीवल और पीअलं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । पीतम् संस्कृत रूरूप है । इसका प्राकृत रूप पीअं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक घचन में अकारान्त नपुंसक्त लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पी रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १-२१३ ।। वितस्ति-वसति-भरत-कातर-मातुन्निो हः ।। १-२१४ ॥ एषु तस्य हो भवति ।। विद्वत्थी । वसही ॥ बहुलाधिकारात् कचिम्म भवति । वसई । भरहो । काहलो । माइलिङ्ग । मातुलुङ्ग शब्दम्य तु माउलुङ्गम् ।। अर्थ:--वितस्ति शब्द में स्थित प्रथम 'त' के स्थान पर और वसति, भरत, कातर तथा मातुलिङ्ग शब्दों में स्थित 'त' के स्थान पर है की प्राप्ति होती है। जैसे:-वितस्तिः-विहल्यी; वसतिः-वसही; मरतः भरहो; कातरः काहलो; और मातुलिङ्गम् मालिङ्ग । 'बहुलाधिकार' सूत्र के आधार से किसी किसी शब्द में 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-वसतिः वसई ॥ मातुलुङ्ग शब्द में स्थित 'त के स्थान पर ह' की प्राप्ति नहीं होती है । अत: मातुलुङ्गम् रूप का प्राकृत रूप माउलुङ्ग होता है। वितस्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विहत्यी होता है। इसमें सूत्र संस्त्या १.२१४ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त थ' को द्वित्व 'थथ'; २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'तु की प्राप्ति, और ३-१६ से प्रथमा विमति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पिहाथी रूप सिद्ध हो जाता है। वसतिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वसही और वसई होते हैं। इनमें प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२ के अधिकार से तथा १-१७७ से त्' का लोप; तथा दोनों रूपों में सूत्र संख्या ३-१४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्री लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हरघ स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर क्रम से सही और वसई दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४५ भरतः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भरहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२१४ से 'त' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भरहो रूप सिद्ध हो जाता है । ++ कातरः संस्कृत विशेषण है। इसका ताटलीत है। इनमें सूत्र संख्या १- २०४ से त' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति; १-२५४ से 'र' के स्थान पर 'ल' की पात्रि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर काहलो रूप सिद्ध हो जाता है । मातुलिंगम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माहुलिंगं होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-२१४ से 'तू' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माहुलिंगं रुप सिद्ध हो जाता है । मातुलुङ्गम्, संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप माउलुन होता है। इसमें मूत्र- मंख्या १- १७७ से 'तू' का लोप; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि प्रत्यय के स्थान पर 'स्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-०३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर माउलुङ्गम् रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-२१४ ।। मेथि-शिथिर - शिथिल -प्रथमे थस्य ढः ॥ १-२१५ ॥ एषु थस्य हो भवति । हापवादः || मेढी । सिढिलो | सिटिलो । पढमो ॥ अर्थ: सूत्र संख्या १- १८७ में यह विवान किया गया है कि संस्कृत शब्दों में स्थित 'थ' का प्राकृत रूपान्तर में 'ह' होता है । किन्तु यह सूत्र उक्त सूत्र का अपवाद रूप विधान है। तदनुसार मेथि; शिथिर; शिथिल और प्रथम शब्दों में स्थित 'थ' का 'ढ' होता है । जैसे:-मेथि: - मेढी; शिथिरः = सिढिलो; शिथिल'- सिढिलो और प्रथमः पदमो || इस अपवाद रूप विधान के अनुसार उपरोक्त शब्दों में 'थ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति नहीं होकर 'द' की प्राप्ति हुई है । = माथः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मेढी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ में 'थ' के स्थान पर द' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मेढी रूप सिद्ध हो जाता है। afr: संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप सिढिलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२१५ से 'थ' के स्थान पर 'ढ' को प्राप्तिः १-२५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] * प्राकृत व्याकरण विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिढिलो रूप सिद्ध हो जाता है। शिथिलः संस्कृत विशेषण रूप है इसका प्राकृत रूप सिढिलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; 1-2 से 'थ' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिढिलो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रथम: संस्कृत विशेष रूप है । इसका प्राकृत रूप परमो होता है । इसमें सूत्र संख्या 1 से 'र' का लोप; ५-१५ से 'थ' के स्थान पर 'द की प्राप्ति; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर परमो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १.२१५ ॥ निशीथ-पृथिव्यो वा ॥ १-२१६ ॥ अनयोस्थस्य ढो वा भवति ॥ निसीढी । निसीहो । पुढवी ॥ पुहबी ॥ अर्थ:-निशीथ और पृथिवी शब्दों में स्थित 'थ' का विकल्प से 'टु' होता है। तदनुसार प्रथम रूप में 'थ' का 'ढ' और द्वित्तीय रूप में 'थ' का 'ह' होता है । जैसे:-निशोथः =निसीढो अथवा निसीहो और पृथिवी-पुढवी अथवा पुहवी ।। निशीथः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप निसीढो और निसीहो होते हैं इनमें सूत्र संख्या १-२६०० से 'श' का 'स'; १-२१६ से प्रथम रूप में 'थ' का 'ढ' और १-१८७ से द्वितीय रूप में 'थ' का 'ह'; और ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकागन्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से निसाही और निसीही दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। पुढची रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.८८ में की गई है। पृथिवी संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पुहवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१३१ से 'अ' का 'उ'; १-१८७ से 'थ' का 'ह'; और १-८८ से 'थि' में स्थित 'इ' को 'थ' की प्राप्ति होकर पुहवी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-२१६॥ दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दहि-दम्भ-दर्भ-कदन दोहदे दो वा डः ॥ १-२१७ ॥ एषु दस्य डो वा भवति ।। इसणं दसर्ण ।। डठ्ठो दह्रो ॥ डडो दवो। डोला दोला ॥ डण्डो दण्डो ॥ डरो दरो ॥ डाहो दाहो ॥ उम्मा दम्भो ।। इभो दभो ॥ कडणं कयणं । होहलो दोहलो ।। दशब्दस्य च मयार्थवृत्ते रेव भवति । अन्यत्र दर-दलिअं॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४७ अर्थ:-इशान, दृष्ट, नग्ध, दोला, दगड, दर,दाह, दम्भ, दर्भ, कदन श्री-दोहद शब्दों में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' होता है । जैसे:-दशनम्-डमणं अथवा दसणं ।। इष्टः इदठी अथवा इट्ठो ।। दग्धः डड्डो अथवा दडढो । दोलान्डोला अथवा दोला । दण्डः डण्डी अथवा दण्डा । दर:-डरो अथवा दरो ।। दाहः लाहो अथवा दाहो ।। दम्भ: इम्भो अथवा दम्भी ।। दर्भ:= डटभो अथवा दबभी ॥ कदनम् - कडणं अथवा कयणं ।। दोहदः-डोहलो अथवा दाहलो ।। 'दर' शब्द में स्थित 'द' का वैकल्पिक रूप में प्राप्त होने वाला 'दु' उप्सी अवस्था में होता है। जबकि दर शब्द का अर्थ 'उर' अर्थात् भय-वाचक हो; अन्यथा 'दर' के 'द' का उ' नहीं होता है । जैसः-दर-दलितम् = दर-दलिनं ॥ तदनुसार 'दर' शब्द का अर्थ भय नहीं होकर थोड़ा सा' अथवा 'सूक्ष्म' अर्थ होने पर 'दर' शब्द में स्थित 'द का प्राकृत रूप में 'द' ही रहा है । नाक 'द' का 'ड' हुआ है । ऐसी विशेपत्ता 'इर' शब्द के सम्बन्ध में जानना ।। दशनम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप इमणं और दसरणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२१५ से 'द का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १-०६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से डसणं और इसणं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। दष्टः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप डट्टो और दट्ठो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२५७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; २-३४ से '' का 'ठ'; २-८६ से प्राप्त 'ठ' का द्वित्व 'ड'; २-६० से प्राप्त पूर्व ' का 'द'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डट्ठो और दट्ठो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । ग्धः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप डट्टो और दड्डो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; २-४० से 'ग्ध' का 'ढ'; २.८६ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व व २.६० से प्राप्त पूर्व 'ढ' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डड्डी और दहहो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। दोला संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप डोला और दोला होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ख' होकर कम से डोला और दोला दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। इंडः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप डण्डो और दण्डो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १.३० से अनुस्वार का श्रागे 'इ' होने से हलन्त 'ण'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर श्राम से डण्डो और दण्डो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। दरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप डरो और दो होते हैं इनमें सूत्र संख्या १.२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से '' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डरो और करो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । वाहः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप डोहो और दाहो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डाहो और दाहो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । * प्राकृत व्याकरण * दम्भ : संस्कृत रूप है इसके प्राकृत रूप डम्भो और दम्भो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२१७ से 'द' का 'कल्पिक रूप से 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से डम्मी और दम्भो दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । दर्भः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप डब्भो और भी होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या १-२१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; २ ७६ से 'र' का लोप; २-५६ से 'भ' का द्वित्व 'म' २०१० से प्राप्त पूर्व 'भू' का 'बू'; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डम्मी और दम्भी दोनों रूप कम से सिद्ध हो जाते हैं । कदम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कहां और कयणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-०१७ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'दु' का लोप तथा ११८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से दोनों रूपों ''न' का 'ण'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर कडणं और कयणं दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं । / sher: संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप डोहली और दोहली होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२१७ से प्रथम 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ड'; १.२२१ से द्वितीय 'द' का 'ल': और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डोहलो और diet दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं । दर-दलितम, संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप दर दलिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - १७७ से 'तू' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२२ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दर-टि रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-२१७ दंश-दहोः || १ - २९८ ॥ अनयोर्धात्वोर्दस्य डो भवति ॥ सइ | डहइ || Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२४६ अर्थः-दंश और दह धातुओं में स्थित 'द' का प्राकृत रूपान्तर में 'ड' हो जाता है ।जैमे:दशति = डसइ ।। दहति - डहइ ।। दशात मस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप इसह होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२१८ से द' का 'ड'; १.०६० से 'श' का 'स' और ३-१३६ से वतमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत में प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ढसह रूप सिद्ध हो जाता है। दहात मंस्कृत मकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप डहइ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२१८ से 'द' का 'ड और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर डहइ रूप सिद्ध हो जाता है । ।। १.२१८ ।। संस्था-गद्गदरः ..२१६ ॥ संख्यावाचिनि गद्गद् शब्दे च दस्य गे भवति । एआरह । बारह ।। नेरह । गग्गरं । अनादेरित्येव । ते दस ॥ असंयुक्तस्येत्येव ॥ चउद्दह ।। अर्थः-संख्या वाचक शब्दों में और गद्गद् शटद में रहें हुए 'द' का 'र' होता है। जैसे:-एकादश प्रारह ।। द्वादश-बारह ।। त्रयोदश-बेरह ।। गद्गदम-गग्गरं ।। 'सूत्र संख्या १-१७६ का विधान-क्षेत्र यह सूत्र भी है; ननुमार संख्या वाचक शब्दों में स्थित 'द' यदि अनादि रूप से ही हो; अथात् संख्या-वाचक शन्नों में आदि रूप से स्थित नहीं हो; तभी उम 'द' का होता है। यदि मुख्या-वाचक शब्दों में 'द' श्रादे अक्षर रूप से स्थित है; नी उम 'द' का 'र' नहीं होता है। ऐमा बनलाने के लिये ही इस सूत्र की वृत्ति में अनादेः रूप शब्द का उल्लेख करना पड़ा है। जैसे:-तव दश ने दस ॥ सूत्र-मस्त्या १-१७६ के विधान अन्तर्गत होने से यह विशेषता और है कि संख्या-वाचक शब्दों में स्थित 'द' का 'र' उसी अवस्था में होता है जबकि 'द' अमंयुक्त हो; हलन्त नहीं हो; स्वर माहित हो इसीलिये सूत्र की युत्ति में 'असंयुक्त ऐसा विधान किया गया है। संयुक्त' होने की दशा में 'द' का 'र' नहीं होगा । जैसे:-नतुर्दश-चउदह ।। इत्यादि ।। एकादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पारह होता है। इसमें सूत्र संख्या -१७७ से 'क' का लोप; १-१६ से 'द' का 'र'; और १-२६२ में 'श' का 'ह' होकर एआरह रूप सिद्ध हो जाता है। बादश संख्या वाचक संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप बारह होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' को लोप; २-१७४ से वर्ण-व्यत्यय के सिद्धान्तानुसार 'व' के स्थान पर 'ब' का आदेश Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] १-२१६ से द्वितीय 'द' का 'र' और १-२६२ से 'श' का 'ह' होकर बारह रूप सिद्ध हो जाता है । तेरह रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या १- १६५ में की गई हैं। गदगदम, संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गन्गरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द् का लोपः २८६ से द्वितीय 'ग' को द्वित्व 'गुग' की प्राभिः १-२१६ से द्वितीय' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ६-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गरगरं रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण तब दश संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ते दस होता है। इसमें सूत्र- संख्या ३-६६ से संस्कृत नाम 'युष्मद्' के षष्ठी विभक्ति के एक वचन के 'तब' रूप के स्थान पर 'ते' रूप का आदेश और १-२६० से 'श' का 'स' होकर ते दस रूप सिद्ध हो जाता है । उदह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है ।। १-२१६ ।। केली ॥ कदल्यामद्रुमे ॥ १-२२० ॥ कदली शब्दे अद्रुम - वाचिनि दस्य रो भवति । करली || अद्रुम इति किम् । कथली अर्थः---संस्कृत शब्द कवली का अर्थ वृक्ष- याचक केला नहीं होकर मृग-हरिए 'वाचक' अर्थ हो तो उस दशा में कदली शब्द में रहें हुए 'द' का 'र' होता है । जैसेः -- कदली- करली अर्थात् मृग विशेष ।। प्रश्नः – सूत्र में 'श्रद्रुम' याने वृक्ष अर्थ नहीं ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'कदली' का अर्थ पशु-विशेष वाचक नहीं होकर केला वृक्ष-विशेष वाचक हो तो उस दशा में कदली में रहे हुए 'द' का 'र' नहीं होता है; ऐसा बतलाने के लिये हो सूत्र में 'अङ्कुम' शब्द का उल्लेख किया गया है । जैसे:- कदली - कयली अथवा केली अर्थात् केला वृक्ष विशेष ॥ कदली संस्कृत रूप हैं । इसको प्राकृत रूप करली होता है। इसमें सूत्र संख्या १ - २२० से 'द' का '' होकर करली रूप सिद्ध हो जाता है। arrior रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या १-१६७ में की गई है ।। १०२२० ।। प्रदीपि - दोहदे लः ॥१-२२१ ॥ पूर्वे दीप्यतो घात दोहद-शब्दे च दस्य लो भवति || पलीवेह | पलियं । दोहली || I अर्थः--'प्र' उपसर्ग सहित दीप धातु में और दोहद शब्द में स्थित 'द' का 'ज' होता है। जैसे:प्रदीपयति = पलीबेड़ || प्रदीप्तम्- पलित्त || दोहदः दोहलो ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [२५१ upted संस्कृत सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप पलीवेद्द होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ मे 'र' का लोप; १-२२१ से 'द' का 'ल'; १-२३५ से 'प' का 'व'; ३-१४६ से प्रेरणार्थक प्रत्यय '' के स्थानीय प्रत्यय 'अय के स्थान पर 'ए' रूप आदेश की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन में 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलीद रूप सिद्ध हो जाता है। प्रदीप्तम् संस्कृत विशेषण हैं। इसका प्राकृत रूप पलित्त होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र्' का लोपः १-२२१ से द' का 'ल'; १-८४ से दीघ 'ई' की हस्थ 'इ'; २७७ से 'प' का लोप २-८६ से 'त को द्वित्वत' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पलित्तं रूप सिद्ध हो जाता है। ही रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१७ में की गई है । ।। १-२२१ ।। कदम्बे वा ।। १-२२२ ॥ कदम्य शब्दे दस्ग लो वा भवति ॥ कलम्बो । कम्बो || अर्थ:--कदम्ब शब्द में स्थित 'द' का बैकल्पिक रूप से 'ल' होता है । जैसे:- कदम्बः = कलम्ची अथवा कयम्बो || कदम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कलम्बो अथवा कम्बो होते हैं । प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-२२२ से 'द' का वैकल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कलम्बा सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूपयो की सिद्धि सत्र संख्या १३० में की गई है ।। १-२२२ । दीपो धो वा ॥ १-२२३ ॥ दीप्यत दस्य भो वा भवति || त्रिप्प | दिप्प || अर्थ-दीप धातु में स्थित '' का वैकल्पिक रूप से 'ध' होता है। जैसे- दीप्यते धिप्पड़ अथवा दिप || dharatee क्रिया का रूप हैं। इसके प्राकृत रूप धिप्पद और दिप्पद होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ 'ई' की ह्रस्व '' १-२२३ से 'द्र' का वैकल्पिक रूप से धूप से यू' का लोप; २-८६ से '१' का द्वित्व 'पप'; और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक दवन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति होकर दोनों रूप विपद और विप्पद क्रम से सिद्ध हो जाते हैं । ।। १-२५३ ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] * प्राकृत व्याकरण * कदर्थिते वः ॥ १-२२४ ॥ कदर्थिते दस्य को भवनि ॥ कट्टियो । अर्थ:- कर्थित शब्द में रहे हुए 'द' का 'व' होता है । जैसे कर्थित:-कट्टियो ।। कदाथतः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप कट्टिो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२४ से 'द' का 'व'; २-से संयुक्त 'थ' का 'ट'; २-८८ से प्राप्त 'ट' का द्वित्व 'दृ'; १.१७७ से 'त्' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के पक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कपट्टिो रूप सिद्ध हो जाता है ।।१-२०४|| ककुदे हः ।। १-२२५ ॥ ककुदे दस्य हो भवति । कउहं ॥ अर्थ-ककुद् शब्द में स्थित 'द' का 'ह' होता है । जैसे-ककुद्-कउहं ।। ककुद् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कलह होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४७ से द्वितीय 'क' का लोप; १-२२५ से 'द् का 'ह'; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कई रुप सिद्ध हो जाता है ।।१-२२५।। निषधे धो ढः ॥ १-२२६ ।। निषधे धस्य ढो भवति । निसढी ॥ अर्थ:-निषध शब्द में स्थित 'ध' का 'ढ होता है । जैसे:-निषध निसढो । निषधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निसढो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ष' का 'स'; १.१२६ से 'ध' का 'ढ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' - प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निसही रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १.२६ ।। वोषधे ।। १-२२७ ॥ औषधे धस्य ढो वा मवति ॥ श्रीसदं । ओसई ।। अर्थ:-श्रौषध शलद में स्थित 'ध का वैकल्पिक रूप से 'द' होता है। जैसे-औषधम् = ओसद अथवा ओसहं ।। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२५३ .... . औषधम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप श्री नढं और श्रोसहं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५६ से 'औ' का 'ओ'; १-२६० से 'प' का 'म'; १-२२७ से प्रथम रूप में वैकल्पिक रूप से 'ध' का 'ढ' नथा द्वितीय रूप में १.१८७ से 'ध' का 'छ'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप ऑसद और आसह सिद्ध हो जाते हैं । ।। १-२२७ ।। नो णः ॥ १-२२८ । स्वरात परस्पासंयुक्तस्यानावेनस्य णो भवति ॥ कायं । मयणो । वयणं । नयणं । माणइ ।। श्रार्ये ।। आरनालं । अनिलो । अनलो । इत्याद्यपि ॥ अर्थ:-यदि किमी शब्द में 'न' वर्ण म्बर से पर रहता हुअा असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् वह 'न' वर्ण हलन्त मी न हो याने स्वर रहित भी न हो; तथा आदि में भी स्थित न हो; शब्द में 'आदि अक्षर रूप से भी स्थित न हो; तो उस 'न' वर्ग का 'ण' हो जाता है । जैसे:-कनकम्-कणयं । मदनः मयगो ।। वचनम् बयणं नयनम् जयणं ।। मानयाते = मागाइ ।। आर्ष-प्राकृन में अनेक शहद ऐसे भी पाये जाते हैं, जिनमें कि 'न' वर्ण स्वर स पर रहता हुया असंयुक्त और अनादि रूप होता है; फिर भी उस 'न' वर्ण का 'ए' नहीं होता है। जैसे:=ग्रारनालन प्रारनालं ॥ अनिलः अनिलो || अनल:अनलो ।। इत्यादि। कमकम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कणयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२२ से 'न' 'ण'; १-१४७ से द्वितीय 'क' का तोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुन 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'न् का अनुस्वार होकर कणयं कप मिद्ध हो जाता है। मयणो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। वचनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप क्यण होता है । इसमें मूत्र संख्या १-१४५ से 'च' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'च' में से शेष रहे हुए 'अ' का 'य' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर वय रूप सिद्ध हो जाता है। नयण रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-१७७ में की गई है। मानयति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है । इसका प्राकृत रूप माणइ होता है । इनमें सूत्र संख्या ३-२२८ से 'न' का 'गण'; १-२३६ से संस्कृत धातुओं में प्राप्त होने वाले विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत धातु 'माणु में स्थित हलन्त 'ण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] *प्राकृत व्याकरण * H istomaniant वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माणड़ रूप सिद्ध हो जाता है । आरनाल य संस्कृत रूप है। इमका याप-प्राात में आरनालं ही रूप होता है । इसमें सूत्र संख्या ३.०५ से प्रथमा विक्ति के एक क्चर में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर आरनालं रूप सिद्ध हो जाता है। आनिल! और अनलः संस्कृत रूप । आप-प्राकृत में इनको रूप क्रम में अनिलो और अनला होते हैं । इनमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा वर्मा के एक बनन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम में आनिलो और अनलो रूप सिद्ध हो जाते हैं। ॥ १-२२८ ।। वादौ ॥ १-२२६ ॥ असंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्य गो वा भवति । गरो नरो । णई नई । णेइ नेइ । असंयुक्तस्येत्येव । न्यायः । नायो । अर्थ:-किन्हीं किन्हीं शब्दों में ऐमा भी होता है कि यदि 'न' वर्ण आदि में स्थित हो और वह असंयुक्त हो; याने हलन्त न होकर स्वरान्त हो; तो उस 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' हो जाया करता है । जैसे:-नरः= रणरो अथवा नरो । नदी गई अथवा नई ।। नेतिणे अथवा नेइ । प्रश्नः शब्द के श्रादि में स्थित 'न' असंयुक्त होना चाहिये' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-यदि शब्द के यादि में स्थित होता हुआ भी'न'वर्ण हलत हुआ; संयुक्त हुआ तो उस 'न' वर्ण का 'ण' नहीं होता है ऐसा बतलाने के लिये 'असंयुक्त विशेषर का प्रयोग किया गया है । जैसे:न्याया-नायो।। नरः संस्कृत रूप है इसके प्राकृत रूप णरो और नरो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या :.:२६ से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'ण' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से परो और नरों दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। नदी संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप णई और नई होते हैं। इनमें सुत्र संख्या १-२२६ से'न' का Jफल्पिक रूप से 'ण' और १-१७७ से 'द' का लोप होकर गई और नई दोनों रूप क्रम से सिद्ध होजाते हैं। नेति संस्कृत श्रव्यय है । इसके प्राकृत रूप णेर और नेह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १.२२६ से 'न' का बल्पिक रूप से 'ण' और १-१५७ से 'तू' का लोप होकर गइ और नेइ दोनों रूप क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। - - - - Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * (२५५ न्यायः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नाो होता है । इममें सूत्र संख्या २-७८ से प्रथम '' का लोप; १-१७७ से द्वितीय 'य' का भी लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नाओ रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १-२२६ निम्ब-नापिते-ल-गह वा ॥ १-२३० ॥ अनयानस्य ल राह इत्येतो या भवतः ।। लिम्बो निम्यो । एहाविमो नावियो ।। अर्थ:--निम्म' शब्द में स्थित 'न' का बैकल्पिक रूप से 'ल' होता है । तथा 'नापित शब्द में स्थित 'न' का वैकल्पिक रूप से रह होता है। जैसे:-निम्बा लिम्बो अथवा निम्बा । नापित:-रहावित्री अथवा नाविश्रो ।। निम्बः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लिम्बो और निम्बी होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १.२३० से 'न' का वक्रल्पिक रूप से 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिम्बा और निम्बी दोनों रूपों की कम से सिद्धि हो जाती है। नापतः संस्कृत रूप में के प्रति व सावित्रो कौर नाविगो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३० से 'न' का वैकल्पिक रूप से 'राह'; १.२३१ से 'प' का 'ब'; १-२४७ से 'स्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एफ वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर ण्हाधिओ और नाविमो दोनों रूपों की क्रम से सिद्धि हो जाती है। ॥ १-२३०॥ पो वः ॥ १.२३ ॥ स्वरात परस्यासंयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति । सवहो । मावो । उवसम्गो । पईयो । कोसयो । पावं ! उवमा । कविलं । कुणवं । कलायो । कवाल महि-त्रालो । गो-बई । तवइ । स्वरादित्येव । कम्पड् ।। असंयुक्तस्थेत्येव । अप्पमत्तो || अनादेरित्येव । सुहेण पहा ।। प्राय इत्येव । कई । रिऊ । एतेन पकारस्य प्राप्तयो लोप वकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुति सुखमुत्पद्यते स तत्र काय:।। अर्थः-यदि किसी शब्द में '' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् हलन्त (स्वर-सहित ) भो न हो एवं श्रादि में भी स्थित न हो; तो उस '५ वर्ण का प्रायः 'व' होता है। जैसे:-शपथः = सबहो । श्राप सावो ॥ उपसर्गः-उपसग्गो ॥ प्रदीप:- पईवोकाश्यपः = कासयो । पापम्पावं ॥ उपमा - उवमा ।। कपिलम कवितं ॥ कुणपम् -- कुणावं ॥ कलापः = कलावा ॥ कपालम् = कवालं ।। महि-पालः = महिवालो ।। गोपायति = गोवइ ।। तपति =तवह ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] * प्राकृत व्याकरण * प्रश्न:-'स्वर में परे रहता हुआ हो' ऐपा क्यों कहा गया है ? उत्तरः-क्यों कि यादे किमी शब्द में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुश्रा नहीं होगा तो उस 'प' का 'व' नहीं होगा । जैसे:-कम्पते - कम्पइ ।। इस उदाहरण में 'प' वर्ण स्वर से परे रहता हुया नहीं है; किन्तु हलन्त व्यन्जन के परे रहा हुआ है; अतः यहाँ पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है। यों अन्य उदाहरणों में भी जान लेना ॥ प्रश्नः --'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहये किन्तु असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये ऐसा क्यों कहा गया है? उत्तर:-क्यों कि यदि किसो शब्द में 'प' वर्ण संयुक्त होगा स्वर रहित होगा-हलन्त होगा; तो उस 'प' वर्ण का 'व' नहीं होगा। जैसे:-अप्रमत्तः-अप्पमत्तो ।। इस उदाहरण में 'प' वर्ण 'र' वर्ण में जुड़ा हुआ होकर संयुक्त है स्वर रहित है-हलन्त है; अतः यहाँ पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है। यही बात अन्य उदाहरणों में भी जान लेना ।। प्रश्नः—'अनादि रूप से स्थित हो; शब्द में प्रथम अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; अर्थात् शब्द में श्रादि-स्थान पर स्थित नहीं हो;" ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-क्यों कि यदि किसी शब्द में 'प' वर्ण आदि अक्षर रूप होगा; तो उस 'प' वर्ण का '' वर्ण नहीं होगा। जैसे:-सुखेन पठति सहेण पढइ ॥ इस उदाहरण में 'पत्रणे 'पठति' क्रियापद में श्रादि अक्षर रूप से स्थित है; अत: यहाँ पर 'प' का 'व' नहीं हुआ है । इमी प्रकार से अन्य उदाहरणों में जान लेना। प्रश्नः-- 'प्रायः' अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है ? उत्तर:-'प्रायः' अय्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्हीं शब्दों में '' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होता हुआ हो; तो भी उस 'प' वर्ण का 'ब' वर्ण नहीं होता है। जैसे:-कपिः-कई और रिपुःरिक। इन उदाहरणों में "प' वण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त भी है, और अनादि रूप भी है: फिर भी इन शटडों में 'प' वर्ण का व वर्ण नहीं हुआ है। यों अन्य शब्दों में भी समझ लेना चाहिये। अनेक शब्दों में सूत्र संख्या १-१७७ से 'प' का लोप होता है और अनेक शब्दों में सूत्र संख्या ६-२३१ से 'प' का 'व होता है। इस प्रकार 'प' वर्ण की लोप-स्थिति एवं 'वकार-स्थिति' दोनों अवस्था हैं; इन दोनों अवस्थाओं में से जिस अवस्था-विशेष से सुनने में आनंद आता हो: श्रुति-सुख उत्पन्न होता हो; उसी अवस्था का प्रयोग करना चाहिये; ऐमा सूत्र की वृत्ति में ग्रंथकार का आदेश है। जो कि ध्यान रख्नने के योग्य है ।। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२५७ , नवहो और साो रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १.१७९ में की गई है। उपसर्गः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप उबसग्गो होता है । इसमें मूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; २-5 से 'र' का लोप; २-८८ से 'ग' का द्वित्व गग' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उपसग्गी रूप मिद्ध हो जाता है। | प्रदीपः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पश्वा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-% से 'र' का लोप; १-१४७ से 'द्' का लोप; १-२३५ से द्वितीय 'प' का 'व' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पईवो रूप मिद्ध हा जाता है। कासको रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४३ में की गई है। पावं रूप की सिद्धि सून संख्या १.१७५ में की गई है। उपमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवमा होता है । हम में सूत्र संख्या १-२३१ से प' का 'व' होकर उधमा रूप सिद्ध हो जाता है । कपिलम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कविलं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कपिलं रूप मिद्ध हो जता है । झुणपम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कुम होता है । इसमें सूत्र-मंख्या १.२३१ से "q" का "व": ३.२५ से प्रथमा विभा केत्त के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में "मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुणवं रूप सिद्ध हो जाता है। कलापः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कलावों होता है । इममें सूत्र संख्या : २३१ मे 'प' का 'व' और ३-२ मे प्रथमा विभक्त के एक वचन में अकारांन पुलिंजग में 'सि' प्रत्यय के म्यान पर 'श्री प्रत्यय की प्राप्ति होकर कलाको रूप सिद्ध हो जाता है। महापालः संस्कृत है । इसका प्राकृत रूप महिंघालो होता है । इस में सूत्र संख्या १-४ से ही में स्थित दोघ 'ई' की ह्रस्व 'इ'; १-२३२ से 'प' का 'व' और ३-२ प्रथमा विभकिन के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महिषाली रूप सिद्ध हो जाता है। गोपायति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इमका प्राकृत रूप गोवइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३. से 'प' का 'व'; ४.३६ में संस्कृत व्यञ्जनान्त धातु 'गोम' में प्राप्त संस्कृत Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ] धात्विक विकरण प्रत्यय 'आय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१३६ स वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गोष रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण तपति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप तब होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व' और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तवह रूप सिद्ध हो जाता है। कम्प रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १०० में की गई है। अप्रमत्तोः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पमत्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७६ से 'र्' का लोप २६ से 'प' का द्वित्व 'पप' और ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पमत्तो रूप सिद्ध हो जाता है । सुखेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सुहेरा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' का 'ह'; ३-६ से अकारान्त पुल्लिंग अथवा नपुंसक लिंग वाले शब्दों में तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित '' को 'ए' की प्राप्ति होकर सुहेण रूप सिद्ध हो जाता है । es रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९९ में की गई है । कपिः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप कई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'पू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है । रिक रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है | ॥ १-२३१ ।। पाटि - परुष- परिघ परिखा पनस - पारिभद्रो फः ॥ १-२३२ ॥ यन्ते पटि धातौ परुषादिषु च पस्य को भवति || फालेड़ फाडे फरुसो फलिहा । फलिहा । फणसो । फालिहद्दो || अर्थः-- प्रेरणार्थक क्रिया बोधक प्रत्यय सहित पटि धातु में स्थित 'प' का और परुष, परिघ, परिखा, पनस एवं पारिभद्र शब्दों में स्थित 'प' का 'फ' होता है। जैसे:- पाटयति=फाले अथवा फाडेइ ॥ परुषः =फरुसो | परिघः फलिहो || परिखा =फलिहा || पनसः फणसो पारिभद्रः कालिहो || फालेइ और फाड़ेइ रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १०९९८ में की गई है। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२५६ परुषः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप फरूसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १.६० से 'प' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकरान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर फरूसी रूप सिद्ध हो जाता है। परिधः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप फलिहो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५३२ मे 'प' का 'फ'; १.२५४ से 'र' का 'ल'; १.१८७ से 'घ का 'ह' और ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिंग में सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फलिहो रूप सिद्ध हो जाता है। परिखा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप फलिहा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १.२५४ से 'र' का 'ल' और १-१८७ से 'ख' का 'ह' होकर फलिहा रूप सिद्ध हो जाता है ।। पनसः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फणसो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३२ से 'प' का 'फ'; १-२२८ से 'न' का 'ण' ओर ३-२ से प्रथना विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फणसो रूप सिद्ध हो जाता है। पारिभवः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फालिहदो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२३२ से "प" का "फ"; १-२५४ से "र" का "ल"; १-१८७ से "म" का "ह"; २.७८ से द्वितीय "र" का लोप; २-८८ से "द" का द्वित्व "६" और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फालिहदो रूप सिद्ध हो जाता है । ॥ १.२३२ ।। प्रभूते कः ॥ १-२३३ ॥ प्रभूते पस्य वो भवति ।। बहुत्त' अर्थः प्रभूत विशेषण में स्थित 'प' का 'व' होता है। जैसेः-प्रभूतम् = बहुत्त' ।। प्रभत्तम् संस्कृत विशेषरण है । इसका प्राकृत रूप बहुत्त होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२३३ से 'प' का 'व'; २-E से 'र' का लोप; १-१८७ से 'भ' का ह'; १-८४ से दीर्घ स्वर '' को हस्व स्वर 'उ'; ५-८६ से 'त' का द्वित्व 'त्त'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर बहुतं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥१-२३३।। नीपापीडे मो वा ॥१-२३४॥ अनयोः पस्य मो वा भवति ॥ नीमो नीवो ।। श्रामेलो आवेडो ।। अर्थः-जीप और श्रापीड शब्दों में स्थित 'प' का विकल्प से 'म' होता है । तदनुसार एक रूप Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * में तो 'प' का 'म' होता है और द्वितीय रूप में पका 'व' होता है। जैसे:-जीपः- नीमो अथवा नीवो और पापोडः = अामेलो. श्रावट नीपः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप नीमो और नीको होते। इनमें से प्रश्न म्प में सूत्र संख्या १-२३४ से ५ का विकल्प से 'म और द्वितीय रूप में मूत्र संख्या -३१ से 'प' का 'त्र' तथा दोनों ही रूपों में ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्जिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से नीमो और नीघो रूप सिद्ध हो जाते हैं। आमेलो रूप की मिद्धि मूत्र संख्या १-१०५ में की गई है। आपेडो रूप की सिद्धि मूत्र संख्या १२07 में की गई है। । १-२३४ ।। पापद्धौं सः ॥ १.२३५ ।। पापद्धविपदादौ पकारस्य रो भवति ॥ पारद्धी ॥ अर्थ:-पापर्द्धि शहर में रहे हुए, द्वितीय 'प' का 'र' होता है। जैसे:-पापदि: पारद्धी ।। इस में विशेष शर्त यह कि 'पापर्द्धि' शब्द वाक्य के प्रारंभ में नहीं होना चाहिये; तभी द्वितीय 'प' का 'र' होता है यह बात वृत्ति में 'अपादो' से बतलाई है। ___पापछिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पारद्धी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३५ से द्वितीय 'प' का 'र'; २-5 से रेफ रूप 'र' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्त होकर पारद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। फो भ-हौ ॥ १-२३६ ।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः फस्य महौ भवतः ॥ क्वचिद् भः । रेफः । भो ॥ शिफा । मिभा। ववचित्तु हः । मुत्ताहलं ॥ क्वचिदुभावपि । सभलं सहलं । सेभालिया सेहालिया। सभरी सारी । गुभइ गुहइ ॥ स्वरादित्येव । गुफा ।। असंयुक्तस्येत्येव । पुष्पं ॥ अनादेरित्येव । चिट्ठइ फणी ॥ प्राय इत्येव । कमण-फणी ।। ____अर्थ:- यदि किसी शठन में 'फ' वण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थात् वह 'क' वर्ण हलन्त याने म्बर-रहित भी न हो; एवं आदि में भी स्थित न हा; तो उस 'फ' वर्ण का 'भ' और 'ह' होता है। किसी किसी शठन में 'भ' होना है। जैसे:-रेफः-रेभो । शिफा=सिमा । किसी किसी शब्द में 'ह' होता है । जैसेः-मुक्ताफलम्-मुत्ताहनं ।। किसी किसी शब्द में फ' का 'भ' Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * २६१ और 'ह' दोनों ही होते हैं । जैसे:-सफलम् सभलं अथवा महलं ।। शेफालिका-सेभालिया अथवा सहालिआ || शफरी =सभरी अथवा सहरी । गुफत्ति = गुमइ अथवा मुहइ ।। प्रश्नः-- 'स्वर से परे रहता हुअा हो' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-क्यों कि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण स्वर मे परे रहता हुआ नहीं होगा तो उस 'फ' वर्ण का 'म' अथवा 'ह' नहीं होगा । जैसे:---गुम्फति =गुफइ । इस उदाहरण में 'क' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ नहीं है, किन्तु सकस भजन म परे रहा हुआ है; अतः यहाँ पर 'क' का 'भ' अथवा 'ह' नहीं हुआ है। ऐसा ही अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना ॥ प्रश्न:--'संयुक्त याने हलन्त नहीं होना चाहिये; किन्तु असंयुक्त याने स्वर से युक्त होना चाहिये ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्यों कि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण संयुक्त होगा-स्वर रहित होगा-हलन्त होगा; तो उस 'क' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होगा । जैसे:-पुष्पम = पुष्पं ।। (ग्रंथकार का यह दृष्टान्त यहाँ पर उपयुक्त नहीं है; क्यों कि अधिकृत विषय हलन्त 'फ' का है; न कि किसी अन्य वर्ण का; अतः हलन्स 'फ' का उदाहरण अन्यत्र देख लेना चाहिये ।) प्रश्नः-अनादि रूप से स्थित हो; शब्द में प्रथम अक्षर रूप से स्थित नहीं हो; अर्थात् शहद में श्रादि स्थान पर स्थित नही हो'; ऐसा क्यों कहा गया है ? । उत्तरः-क्यों कि यदि किसी शब्द में 'फ' वर्ण श्रादि अक्षर रूप होगा; तो उस 'फ' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होगा। जैसे:-तिष्ठति फणी-चिट्ठइ फणी ॥ इस उदाहरण में 'फ' वर्ण 'फणी' पद में श्रादि अक्षर रूप से स्थित है; अत: यहाँ पर 'फ' का 'भ' अथवा 'ह' नहीं हुआ है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिये ।। प्रश्न: -वृत्ति में 'प्रायः' अव्यय का ग्रहण क्यों किया गया है ? उत्तर:-'प्रायः अव्यय का उल्लेख यह प्रदर्शित करता है कि किन्हीं किन्हीं शब्दों में 'फ' वर्ण स्वर से परे रहता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप होता हुआ हो; तो भी उस 'फ' वर्ण का 'भ' अथवा 'ह' नहीं होता है। जैसे:-कृष्ण-फणी कसण-कणो ।। इस उदाहरण में 'फ' वर्ण स्वर से परे होता हुआ असंयुक्त और अनादि रूप है; फिर भी 'फ' वर्ण का न तो 'भ' ही हुआ है और न ह' ही। ऐसा हो अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिये । रेफ: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रेभी होता है । इसमें सुत्र संख्या १-२३६ से 'फ' का 'म' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर रेभो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ * प्राकृत व्याकरण * शिफा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिमा होता है। इसमें सूय संख्या १-२६० से 'श' का 'स' और १-२३६ से 'फ' को 'भ' होकर सिभा रूप सिद्ध हो जाता है। मुक्ताफलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुत्ताहलं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.४७ से 'क' का लोप; २.८६ से 'त' का द्वित्व 'त'; १-२३६ से 'फ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन । में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' पलाश के स्थान पर '' प्रत्यय की निट और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुत्ताहल रूप सिद्ध हो जाता है। सफलम् संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप सभलं और सहलं होते हैं इसमें सूत्र संख्या १-२३६ से क्रम से प्रथम रूप में 'फ' का 'भ' और द्वितीय रूप में 'फ' का 'ह'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से सभल और सहलं दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं । शेफालिका संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सेमालिया और सेहालिया होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.२३६ से 'फ' का क्रम से प्रथम रूप में 'भ' और द्वितीय रूप में 'फ' का 'ह'; और १-१७७ से 'क' का लोप होकर कम से सेभालिआ और सेहालिआ दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं । शफरी संस्कृत रूप है । इसके 3 अकृत रूप समरी और सहरी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श'; का 'स'; १-२३६ से कम से 'फ' का 'भ' प्रथम रूप में और 'फ' का 'ह' द्वितीय रूप में होकर दोनों सभरी और सहरी रूप सिद्ध हो जाते हैं । गुफति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है । इसके प्राकृत रूप गुभइ और गुहइ होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३६ से क्रम से 'फ' का 'भ' प्रथम रूप में और 'फ' का 'ह' द्वितीय रूप में और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से अभइ और गुहइ दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । गुम्फति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है; इसका प्राकृत रूप गुफा होता है। इसमें सूत्र-संस्त्या १-२३ से 'म् का अनुस्वार और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुंफा रूप सिद्ध हो जाता है। पुष्पम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पुप्फ होता है । इसमें सूत्र संख्या २-५३ से 'प' का 'फ'; २-८८ से प्राप्त 'फ' का द्वित्व "फ'; २-० से प्राप्त पूर्व 'क' का 'प्', ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पुष्पं रूप सिद्ध हो जाता है। चिट्ठह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१९९ में की गई है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२६३ कृष्ण संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप कसण होता है। इस में सून संख्या १.१२६ से 'ऋ' का 'अ'; २-११० से हलन्द 'ए' में 'अ' की प्राप्ति; और १-२६० से प्राप्त प' का 'म' होकर फसण रूप सिद्ध हो जाता है। वो वः ॥ १-२३७ ॥ स्वरान् परस्यासंयुक्तस्यानादेवस्य वो भवति ॥ अलावू । अलादू । अलाउ ।। शबलः । सवलो । अर्थ: यदि किसी शाटन में 'ब' वर्ण स्वर से परे रहता हुया असंयुक्त और अनादि रूप हो; अर्थान् वह 'ब' वर्ण हलन्त याने स्वर रहित भी न हो एवं आदि में मा स्थित न हो; तो उस 'ब' वर्ण का 'व' हो जाता है । जैसे:-अलाबू: अलाबू अथवा अलावू अथवा अलाऊ ।। शबलः सवलो!! अलावू संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अलायू, और अलावू और अलाऊ होते हैं । इनमें से प्रथम रूप अलावू में सूत्र संख्या ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ऊकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीघ स्वर 'अ' एवं विसर्ग का दीर्घ स्वर 'ऊ' ही रह कर अलाबू सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२३७ से 'ब' का 'ब' और ३-१६ से प्रथम रूप के समान ही प्रथमा विभक्ति का रूप सिद्ध होकर अलावू रूप भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप अलाऊ की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। शवल: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सवलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२३७ से 'ब' का 'ब' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सबलो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-२३७ ।। बिसिन्यां भः ॥ १-२३८ ॥ बिसिन्यां बस्य भो भवति ॥ भिसिणी ।। स्त्रीलिंगनिर्देशादिह न भवति । विस- . तन्तु-पेलवाणं ॥ __ अर्थ:-यिसिनी शब्द में रहे हुए 'ब' वर्ण का 'म' होता है । जैसे:-विमिनी-भिसिणी ॥ विमिनी शब्द जहां स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होगा; यहीं पर ही चिसिनो में स्थित 'व' का 'भ' होगा । किन्तु जहाँ पर 'विस' रूप निर्धारित होकर नपुंसक लिंग में प्रयुक्त होगा; वहाँ पर 'विस' में स्थित 'ब' का 'म' नहीं होगा । जैसेः-विस-सन्तु-पेलवानाम्-बिस-तन्तु-पेलवाणं ।। इस उदाहरण में 'विस' शब्द नमक लिंग में रहा हुअा है; अतः 'बिस में स्थित जका 'भ' नहीं हुआ है। यों लिंग-भेद से वर्ण-भेद जान लेना। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] * प्राकृत व्याकरण पिसिनी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मिसिणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३८ से 'ब' का 'भ' और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर मिसिणी रूप सिद्ध हो जाता है। विस-तन्तु-पेलवानाम् संस्कृत षष्ठयन्त वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूपांतर बिम-तन्तु-पेलबार्ण होता है। इसमें केवल विभक्ति प्रत्यय का ही अन्तर है। तदनुसार सूत्र-संख्या ३-६ से संस्कृत षष्ठी बहुवचन के प्रत्यय 'श्राम' के स्थान पर 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'व' में रहे हुए 'अ' को 'श्रा' की प्राप्ति, और १-२७ से 'ए' प्रत्यय पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर विस-तन्तु पेलपाण रूप की सिद्धि हो जाती है ॥ १-२३६ ।। कबन्धे म-यो । १-२३६ ॥ कबन्धे बस्य मयौ भवतः ॥ कमन्धो । कयन्धो ।। अर्थः-कबन्ध शब्द में स्थित 'ब' का कमी 'म' होना है और कभी 'य' होता है। तदनुसार कबन्ध के दो रूप होते हैं । जो कि इस प्रकार हैं:--कमन्धों और कयन्धो । कबन्धः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कमन्धो और कयन्धो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ५-२३९ से प्रथम रूप में 'ब' की 'म' और द्वितीय रूप में इसी सूत्रानुसार '' का 'य' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से कमन्धी और कयन्धो की सिद्धि हो जाती है। ।। १-२३६ ॥ कैटभे भो वः ॥ १-२४० ॥ कैटभे मस्य वो भवति ॥ केढवो ।। अर्थ:-कैटभ शब्द में स्थित 'भ' का 'व' होता है। जैसे:-कैटभः केढयो।। फेडयो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४८ में की गई है। ॥ १-२४० ॥ विषमे मो ढो वा ॥ १-२४१ ॥ विषमे मस्य दो वा भवति ॥ विसढो । विसमो ! अर्थ:-विषम शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'ट' होता है । जैसे:-विषमः क्सिदो अथवा विसमो॥ विषमः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप विसढो और विसमो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या :-२६० से '' का 'स'; १.२४१ से 'म' का वैकल्पिक रूप से 'द' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२६५ वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से विसो और सिम की सिद्धि हो जाती है । ।। १-२४१ ।। मन्मथे वः ।। १-२४२ ॥ मन्मथे मस्य वो भवति || वम्महो । 11 अर्थः- मन्मथ शब्द में स्थित आदि 'म' का 'व' होता है। जैसे-महो ॥ भन्मथः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप वम्हो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४२ से आदि 'म' का 'व'; २-६१ से 'न्म' का 'म'; २-८३ से प्राप्त 'म' का द्वित्व 'म्म'; १-१०० से 'थ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मह रूप सिद्ध हो जाता है | ॥ १-२४२ ॥ वाभिमन्यौ । १-२४३ ॥ अभिमन्यु शब्दे मो वो वा भवति ॥ अवन्तु अहिमन्नू ॥ अर्थ – अभिमन्यु शब्द में स्थित 'म' का वैकल्पिक रूप से 'व' होता है । अभिमन्युः श्रबिन्नू अथवा अहिमन्नू || अभिमन्युः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप अविन्नू और हिमन्नू होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ का 'ह' २-२४३ से 'म' का विकल्प से 'व' २७ से 'य' का लोपः २६ से शेष 'न' का द्वित्व 'न' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य ह्रस्वर'' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर क्रम से अविन्नू और अहिमन्नू दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । ।। १-२४३ ॥ भ्रमरे सो वा ॥ १-२४४ ॥ भ्रमरे मस्य सो वा भवति । भसलो भमरो ॥ अर्थ:-भ्रमर शब्द में स्थित 'म' का विकल्प से 'स' होता है। जैसे:- भ्रमरः मसलो अथवा भमरी ॥ भ्रमरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप असलो और भमरो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २०७६ से प्रथम 'र्' का लोपः १-२४४ से विकल्प से 'म' का स; १-२५४ से द्वितोय 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भसको सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २७६ से प्रथम 'शु'का लोप; Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भमरो भी सिद्ध हो जाता हैं । ।। १-२४४ ।। श्रादेर्यो जः ॥ १-२४५ ॥ * प्राकृत व्याकरण * ।। पदार्यस्य जो भवति ॥ जसो । जमो | जाड़ । श्रादेरिति किम् । श्रवयवी । वि बहुलाधिकारात् सोपसर्गस्यानादेरपि । संजमो संजोगो । अवजयी || क्वचिन्न भवति । पश्रश्र ॥ श्रार्षे लोपोपि । यथाख्यातम् । श्रहखायं ॥ यथाजातम् । अहाजायं ॥ 1 अर्थः- यदि किसी पद अथवा शब्द के आदि में 'य' रहा हुआ हो; तो उस 'य' का प्राकृत रूपान्तर में 'ज' हो जाता है। जैसे:-यशः जसो | यमः जमो || याति जाइ ॥ प्रश्नः - 'य' वर्ण पद के आदि में रहा हुआ हो; तभी 'य' का 'ज' होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः--- यदि 'य' व पद के आदि में नहीं होकर पर के मध्य में अथवा अन्त में रहा हुआ हो; अर्थात् 'य' वर्ण पद में अनादि रूप से स्थित हो तो उस 'य' का 'ज' नहीं होता है । जैसे:- अवयवः अवयवो || विनयः = | इन उदाहरणों में 'य' अनादि रूप है; अतः इनमें 'य' का 'ज' नहीं हुआ है । यो अन्य पदों के सम्बन्ध में भी जान लेना ॥ 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से यदि कोई पर उपसर्ग सहित है; तो उस उपसर्ग सहित पद में अनादि रूप से रहे हुए 'य' का भी 'ज' हो जाया करता है । जैसे:- संयमः- संजमो || संयोगः संजोगो ॥ अपयशःजसो || इन उदाहरणों में अनादि रूप से स्थित 'य' का भी 'ज' हो गया है। कभी कभी ऐसा पद भी पाया जाता है जो कि उपमर्ग सहित हैं और जिसमें 'य' वर्ण अनादि रूप से स्थित है; फिर भी उस 'य' का 'ज' नहीं होता है। जैसे:-प्रयोग: पश्रीश्री || आर्ष-प्राकृत - पत्रों में आदि में स्थित 'य' वर्ण का लोप होता हुआ भी पाया जाता है। जैसेः यथाख्यातम् अहक्वायं ॥ यथाजातम् - श्रहा जायं ॥ इत्यादि ॥ जस रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। यमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जमी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जमी रूप सिद्ध हो जाता है । याति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जाइ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-९३६ से वर्तमान काल के एक वचन के प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाह रूप सिद्ध हो जाता है । ↓ , : Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * २६७) अश्यकः संग्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अवयवो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अवयको रूप सिद्ध हो जाता है। विनयः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विर, ओ होता है । इममें सूत्र संख्या १.२२८ से 'न' का 'ण'; १-१७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर षिणो रुप सिद्ध हो जाता है। सयमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संजमो होता है । इसमें सूत्र संख्या -२४५ से 'य' का 'ज' और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संजमो रूप सिद्ध हो जाता है। सयोगः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप संजोगी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग म 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संजोगी रूप सिद्ध हो जाता है। अपयशस् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अवजसो होना है। इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२४५ से 'य' का 'ज'; १-२६० से 'श' का 'स'; १-११ से अन्त्य हलन्त 'स' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' की प्राप्ति होकर अपजसी रूप सिद्ध हो जाता है। प्रयागः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पोत्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७१ से 'र' फा लोप; १.४.७७ से 'य' और 'ग' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभिक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति होकर पाओ रूप सिद्ध हो जाता है। यथाख्यातम् संस्कृत रूप है। इसका श्राप प्राकृत रूप अहक्खायं होता है । इम में सब मंख्या १-२४५ से-(वृति से)-'य' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१८ से 'थ' का 'ह'; १-८४ से प्राप्त 'हा' में स्थित 'श्रा' को 'अ' की प्राप्ति; २०७० से 'य' का लोप; २.८६ से 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २६० से प्रान पूर्व 'ज्' को 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तू' का लोप; १.१८० से लोप हुए 'त' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर अहकरवायं रूप सिद्ध हो जाता है। यथाजात र संस्कृत विशेषण है। इसका श्रार्ष-प्राकृत में अहाजार्य रूप होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२४५. की वृत्ति से 'य' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; {- ८७ से 'थ' का 'ह'; १-१७७ से 'तू' का लोप; १-१८० से लोप हुप '' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विक्ति के Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६८ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ सं प्राप्त 'म्' का 'अनुस्वार होकर अहाजायें रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२४६ ।। युष्मद्यर्थपरेतः ॥ १-२४६ ।। युष्मच्छन्देर्धपरे यस्य तो भवति || तुम्हारिमा | तुम्हरी || अर्थ र इति किम् । जुम्ह दम्ह-पयर ं ।। अर्थः-- जब 'युष्मद्' शब्द का पूर्ण रूप से 'तू-तुम' अर्थ व्यक्त होता हो; तभी 'पुष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' हो जाता है। जैसे:- युष्माद्दश: तुम्हारियो । युष्मदीयः तुम्हरो ॥ प्रश्नः - 'अर्थ परः' अर्थात् पूर्ण रूप से 'तू तुम' अर्थ व्यक्त होता हो: नभी 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' वर्ण का 'त' होता है;' ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि तू-तुम अर्थ 'युष्मद्' शब्द का नहीं होता हो, एवं कोई अन्य अर्थ 'युष्मद्' शब्द का प्रकट होता हो तो उस 'युष्मद्' शब्द में स्थित 'य' का 'त' नहीं होकर 'य' का 'ज' सूत्र संख्या १-२४५ के अनुसार होता है । जैसे:- युष्मदस्मत्प्रकरणम् - (अमुक-तमुक से संबंधित अनिश्चित व्यक्ति से संबंधित = ) जुम्ह दम्ह पयरणं । इस उदाहरण में स्थित 'युष्मद्' सर्वनाम 'तू-तुम' अर्थ को प्रकट नहीं करता है; अतः इस में स्थित 'य' वर्ण का 'त' नहीं होकर 'ज' हुआ है ॥ तुम्हारिस रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१४१ में को गई है। युष्मदस्यः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप तुम्हरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२४६ से 'य्' का 'तू' २०७४ से 'म' के स्थान पर 'मह' की प्राप्ति १-११ से 'युष्मद्' शब्द में स्थित अन्त्य व्यञ्जन 'त' का लोप २-९४७ से 'सम्बन्ध वाला' अर्थग्रोतक संस्कृत प्रत्यय 'ई' के स्थान पर भाकृत में 'कर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तुम्हरी रूप सिद्ध हो जाता है। युष्मत्-अस्मत् संस्कृत सर्वनाम मूल रूप हैं । इनका (अमुक-तमुक अर्थ में) प्राकृत रूप जुम्ह दम्ह होता है। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य्' का 'ज़; २-७४ से 'म' और 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति -५ से 'युष्मद्' में स्थित 'द्' की परवर्ती 'अ' के साथ संधि; और १-११ से 'अस्मद्' में स्थित अन्त्य 'द्' का लोप होकर जुम्हदम्ह रूप की सिद्धि हो जाती हैं । प्रकरणम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पयरणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २ से प्रथम 'र्' का लोप; १--१७७ से 'कू' का लोप १-९८० से लोप हुए कू में में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पयरणं रूप सिद्ध हो जाता है । ।।१-२४६ ॥ J Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२६६ यष्ट्यां लः॥ १-२४७ ॥ यष्ट्यां यस्य लो भवति ॥ लट्ठी 1 चेणु-जही । उच्छु-लट्ठो । महु-लट्ठी ॥ अर्थः-यष्टि शब्द में स्थित 'य' का 'ल' होता है । जैसे:-यष्टि: लट्ठी ।। वणु-यष्टि: वेणु-लट्ठी ।। इलु-यष्टिः-उच्छु-लट्ठी ।। मधु-यष्टिः महु-लट्ठी ।। यष्ठिः - संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप लट्ठी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४७ से 'य' का 'ल ; २-२४ से 'ष्ट' को 'ठा; २-८६ से प्रान 'ठ' का द्विव 'छ'; २-६० से प्रान पूर्व ' का 'द', और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्थ स्वर 'इ' एवं विर्ग को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर लल्ली रूप सिद्ध हो जाता है। ___णु-याष्टिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वेषण-लट्ठी होता है। इस रूप की सिद्धि, ऊपर सिद्ध । व ये हुए 'लट्ठी' रूप के समान ही जानना ।। शु-यदि:-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उकछु-लट्ठी होता है । इसमें सूत्र संख्या १.६५ से 'इ' को 'उ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' को 'छ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ'; ६० से प्राप्त पूर्व 'छ' को च' की प्राप्ति और शेष मिद्धि उपरोक्त लट्ठो के समान ही होकर उच्छु लट्ठी रूप की सिद्धि हो जाती है। मधु-याष्टिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मजु-भट्ठी होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१८७ से 'ध' का ह' और शेष मिद्धि उपरोक्त लट्ठी के समान ही होकर मनु-लाठी रूप को मिद्धि हो जाती है। वोत्तरीयानीय-तीय-कृये ज्जः ॥ १-२४८ ॥ उत्तरीय शब्दे अनीयतीय कृद्य प्रत्ययेषु च यस्य द्विरुक्तो जो वा भवति ।। उत्तरिज्ज उत्तरीअं ॥ अनीय । करणिज्ज-करणीअं ॥ विम्हणिज्ज विम्हणणीअं !! अवणिज्ज । जवणीअं ।। तीय । बिइज्जो बीयो । कृद्य | पेज्जा पेया॥ अर्थ:-उत्तरोय शम्न में और जिन शयों में 'अनीय', 'अथवा 'नीय अथवा कृदन्त वाचक 'य प्रत्ययों में से कोई एक प्रत्यय रहा हुश्रा हो तो इसमें रहे हुा. 'य' वर्ग का द्वित्व 'ज' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-उत्तरीयम् उत्तरिज अथवा उत्तरीधे ।। 'अनीय' प्रत्यय मे संबंधित उदा. हरण इस प्रकार हैं:-करणीयम् करणिज्ज अथवा करणीअं ॥ विस्मयनीयम-विम्याणिज्ज अथवा विम्हयणीअं । यापनीयम् जवणिज्जं अथवा जवणीअं ।। 'तीय' प्रत्यय का उदाहरण:-द्वितीयः-बिहजो Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] * प्राकृत व्याकरण * अथवा वीओ || कृदन्त वाचक 'य' प्रत्यय का उदाहरण: - या = पेज्जा अथवा पे || उपरोक्त सभी उदाहरणों में 'य' वर्ण को द्वित्व 'उ' की विकल्प से प्राप्ति हुई है। +++ उत्तरीयम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उत्तरज्जं अथवा उत्तरीयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्तिः १-२४८ से विकल्प से 'व' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूपं उत्तरिज्जं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १०१७७ से 'यू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर उसरीअं रूप जानना । करणीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप करणिज्जं अथवा करणीयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्तिः १-४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व 'ज' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुवार होकर प्रथम रूप करणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप करणीओ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'यू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होती है । विस्मयनीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप विम्यगिज्जं अथवा विम्हायणी होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७४ से 'रम' के स्थान पर 'म्ह' को प्राप्ति २-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति -२४८ से द्वितीय 'य' को विकल्प से द्वित्व 'ज्ज' की प्रामि ३०२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप विम्यणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य्' का विकल्प से लोप और शेप सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर विम्यणअं जानना । यापनीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप जवणिज्जं अथवा जवणी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-२४५ से आदि 'य' को 'ज' की प्राप्तिः १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' को प्राप्ति; १-२३१ से १' का 'व'; १-२२ से 'न' का ''; १-८४ से दीर्घ 'स्वर' 'ई' को ह्रस्व 'इ' की प्राप्तिः १-२४= से वैकल्पिक रूप से द्वितीय 'य' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-०३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप जवणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य्' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर जवणीअं सिद्ध हो जाता है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२७१ LAA. द्वितीय संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप बिहानो और बीश्री होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; ४-४४७ से 'व' के स्थान पर 'ब की प्रामि; १-१७७ से 'न' का लोप; १८४ से दीर्घ स्वर 'ईके स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; १-२४ - से 'य के स्थान पर द्वित्व 'जज' की विकल्प से प्रामि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बिइज्जो रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप बीओ की सिद्धि सूत्र संख्या १.५ में की गई है। पंया संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप पज्जा और पेश्रा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२४८ से 'य' के स्थान पर विकल्प से द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होकर पेज्जा रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'य' का लोप होकर पा रूप सिद्ध हो जाता है ।१-२४८। छायायां हो कान्तौ वा ॥१.२४६ अक्रान्ती वर्तमाने छाया शब्दे यम्य हो वा भवति ।। वच्छस्स छाही । वच्छस्स छाया ! आतपाभावः । सच्छाई सच्छाये ।। अकान्नाविति किम् ।। मुह-च्छाया । कान्ति रित्यर्थः ॥ अर्थः छाया शब्द का अर्थ कांति नहीं होकर परछाई हो तो छाया शब्द में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'ह' होता है। जैसे:-वृक्षस्य छायो-वच्छस्सछाही अथवा बन्छस्स-छाया ॥ यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य 'आतप श्रर्थात् धूप का अभाव है। इसीलिये छाया में रहे हुए 'य' वर्ण का विकल्प से 'इ' हुश्रा है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-सच्छायम् ( छाया सहित ) सच्छाहं अथवा सच्छायं ।। प्रश्न- 'छाया शब्द का अर्थ कांति नहीं होने पर ही 'छाया' में स्थित 'स' वर्ण का विकल्प से '' होता है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- यदि छाया शब्द का अर्थ परछाई नहीं होकर कांति वाचक होगा तो उस दशा में छाया में रहे हुग. 'य' वर्ण को विकल्प से होने वाले 'ह' की प्राप्ति नहीं होगी; किन्तु उसका 'य' वर्ण ही रहेगा। जैसे:-मुख-छाया = ( मुख की कांति । = मुह-छाया । यहाँ पर छाया शब्द का तात्पर्य कान्ति है। अतः छाया शब्द में स्थित 'य' वणं 'ह' में परिवर्तित नहीं होकर ज्यो का त्यों ही-यथा रूप में ही स्थिन रहा है। वृक्षस्य संस्कृत षष्टयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप यच्छस्त होता है। इममें सूत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' का 'थ', २-१७ से 'क्ष' का 'छ', २८६ से प्राप्त छ' को द्वित्व 'बछ' की प्रापिः २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च्' की प्राप्ति; और ३-१० से संस्कृत में पाठी-विभक्ति-बोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पच्छस्स रूप सिद्ध हो जाता है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२] * प्राकृत व्याकरण छाया संस्कृत रूप है। इमके प्राकृत रूप बाही और छाया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ५-२४६ से 'य' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति और ३-३४ से 'या' में अर्थान् आदेश रूप से प्राप्त 'हा' में स्थित 'श्रा' को स्त्रीलिंग-स्थिति में विकल्प से 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप छाहा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप छाया संस्कृत के समान हो होने से सिद्धवत् हो है। सच्छायम संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रुप सन्छाई और सच्छार्य होता है। प्रश्रम रूप में सूत्र-संख्या १-२४६ से 'य' के स्थान पर है! की प्रानि; ३-२५ से प्रथमा 'विमति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ' म प्रत्यय की प्राप्ति और. १.१३ से प्राप्त 'म्' का अनुखार होकर प्रथम रूप सच्छाह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संग्ख्या १-२३ से 'म्' का अनुस्वार हो कर सच्छार्य रूप सिद्ध हो जाता है। मुख छाया संस्कृत रुप है । इसका प्राकृतारूप मुह-च्छाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८५ से 'ख' का 'ह'; -६ से 'छ' को द्वित्व 'छछ की प्राप्ति और २-६० से प्राप्त पूर्व छ' को च' को प्राप्ति होकर मुहच्छाया रूप सिद्ध हो जाता है। ।। १.२४६ ।। डाह-वौ कतिपये ॥ १-२५० ॥ कतिपये यस्य डाह व इत्येती पर्यायेण भवतः ।।कइवाह । कइअयं ।। अर्थ:- कतिपय शब्द में स्थित 'य' वर्ण को कम से एवं पर्याय रूप से 'आह' की और 'य' की प्राप्ति होती है। जो कि इस प्रकार है:-कहवाहं और कइअवं ॥ कतिपयम् संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत में कइवाहं और कइश्रवं दो रूप होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ५-२३१ से 'प' का 'व'; १-२५० से 'य' को 'प्राह की प्राप्ति; १-५ से 'व' में स्थित 'अ' के साथ प्राप्त 'आह' में स्थित 'आ' की संधि होकर 'वाह' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रुप कड़वाह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कइन में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' और 'प' का लोप; १-२५० से 'य' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर कईअयं रूप की सिद्ध हो जाती है ||२५|| किरि-भेरे रो डः ॥ १-२५१ ।। अनयो रस्य हो भवति । किडी । भेडो । अर्थ:-किरि और भेर शब्द में रहे हुए 'र' का 'तु' होता है । जैसे:-किरिः किडी भेर: भेडी।। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रस्पति - HEART * प्रियोदय हिन्दी व्याया {२७३ किरिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप किडी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५१ मे र का 'ड' और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्य इस्त्र स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर किडी रूप सिद्ध हो जाता है। __भरः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप भेड़ो होता है। इसमें मूत्र-मंख्या १-२५१ से 'र' का 'ड' और ३-२ में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर . 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भेडो रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-२५१ ।। पर्याणे डा वा ॥ १-२५२ ॥ पर्याणे रस्य डा इत्यादेशो वा भवति ॥ पडायाणं । पल्लाणं ॥ अर्थः-पर्याण शब्द में रहे हुए 'र' के स्थान पर विकल्प से 'डा' का श्रादेश होता है। जैसे:-पर्याणम् = पड़ायार्ण अथवा ललाणं ॥ पर्याणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पडायाणं और पल्लाणं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संग्ख्या १-२५२ से 'र'को स्थान पर 'डी' का विकल्प से आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पडायाणं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-६८ से 'र्य के स्थान पर 'ल्ल' की प्राप्ति और शेष मिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर पल्लाणं रूप सिद्ध हो जाता है ।। १-२५६ ।। __ करवीरे णः ॥ १-२५३ ।। करवीरे प्रथमस्य रम्य णो भवति ॥ कणचीरो ।। अर्थः-करवीर शब्द में स्थित प्रथम 'र' का 'रण' होता है। जैसे: करवीर: कणवीरो ॥ करवीरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कणवीरो होता हैं। इसमें सूत्र-संपन्या १-२५३ से प्रथम 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर कणधीरो रूप की सिद्धि हो जाती हैं ।।१-२५।। हरिद्रादो लः ॥ १-२५४ ॥ हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लो भवति ॥ हलिही दलिद्दाइ । दलिदो ' दालिद । हलिहो । जहुहिलो । सिदिलो । मुहलो । चलयो । बलुणो । कलुशो। इङ्गालो । सकालो। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] ।। सोमाली । चिलाओ। फलिहा । फलिहो । फालिहो । काहलो । लुकी । श्रवहाल । भमलो । ari | बदलो | निट्टू लो I बहुलाधिकाराच्चरण शब्दस्य पादार्थवृत्तेरेव । अन्यत्र चरणकरणं || अमरे स संनियोगे एव । अन्यत्र भ्रमरो तथा जहरं । घढरी । निट्ठ ुरो इत्याद्यपि ॥ हरिद्रा दरिद्राति । दरिद्र । दारिद्र्य | हारिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर | मुखर | चरण | वरुणा | *.रुण | अङ्गार | सत्कार | सुकुमार । किरात । परिखा परिघ । पान्भिद्र कातर रुग्ण | द्वार । भ्रमर | जरठ | बठर । निष्ठुर |त्यादि । श्रार्षे दृवालसङ्गो इत्याद्यपि ॥ 1 + * प्राकृत व्याकरण * | अर्थः- इसी सूत्र में नीचे लिखे हुए हरिद्रा, दरिद्राति इत्यादि शब्दों में रहे हुए श्रमंयुक्त अर्थात् स्वरान्त '२' वर्ण का 'ल' होता है। जैसे:- हरिद्रा -हलिीः वरिद्रातिदलिदाड दरिद्रः लिहो, दारिद्रयम् मालिए; हारिद्रः=सलिदे:: युधिष्ठिरः = हुट्टिलो; शिथिर:- सिढिलो, मुखर:- मुहली; चरणः चलणोः बरुणः= यलुणो; करुणः = कलुणो; श्रङ्गारः = इङ्गालो; सत्काराः = सकालीः सुकुमारः सोमाली; किरातः = चिलाश्री; परिखा-फलिहा; परिघः फलिहो; पारिभद्रः = फालिह्दो; कातरः = काहलीः रुग्ण :- तुको; द्वारम्= श्रत्रद्दालं; भ्रमरः =भसली; जठरम् = जढलं; बटर: चढतो; और निष्ठुरा = निट्ट लो ॥ इत्यादि || इन उपरोक्त सभी शब्दों में रहे हुए असंयुक्त 'र' वर्ण का 'ल' हुआ है। इसी प्रकार से अन्य शब्दों में भी 'र' का 'ल' होता है; ऐसा जान लेना || 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से 'चरण' शब्द में रहे हुए संयुक्त 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि 'चरण' शब्द का अर्थ 'पर' हो, यदि 'चरण' शब्द का अर्थ चारित्र वाचक हो तो उस समय में 'र' का 'ल' नहीं होगा। जैसे:- चरण करणम्चरण करणं अर्थात् चारित्र तथा गुण-संयम । इसी प्रकार से 'भ्रमर' शब्द में रहे हुए 'र' का 'ल' उसी समय में होता है; जबकि इसमें स्थित 'म' का 'स' होता हो; यदि इस 'म' का 'स' नहीं होता है तो '२' का भी 'ल' नहीं होगा | जैसे:- भ्रमरः = भमरो इसी प्रकार से बहुलं सूत्र के अधिकार से कुछ एक शब्दों में 'ए' का 'ल' विकल्प से होता है, तदनुसार उन शब्दों के उदाहरण इस प्रकार है:- जठरम् = जढरं जढलं; बठरः = बढ़रो बढलो, और निष्ठुरः = निट ठुरो निट ठुलो इत्यादि || आर्य-प्राकृत में 'द' का भी 'ल' होता हुआ देखा जाता है । जैसे:- द्वादशाङ्ग – दुयालसंगें ॥ इत्यादि ॥ हलि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-८८ में की गई है. । संस्कृतकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप इलिदाइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२५४ से प्रथम एवं संयुक्त 'र' का 'ल'; २७६ से अथवा २८० से द्वितीय 'र्' का लोप; २८ से लोप हुए र् में से शेष रहे हुए 'द' का द्वित्व 'द' और ३-१६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दाह रूप सिद्ध जाता है। दारिद्रः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप लिये होता है। इसमें सूत्र संख्या - २५४ से असंयुक्त 'र' का 'ल; २२५६ से ८० से द्वितीय 'र' का लोप; २.८६ लोप हुए 'र' में से > Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [२७५ शेप रहे हुए. 'द्' मा द्वित्व 'द' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इलिदो रूप मिद्ध हो जाता है। ___ दारिद्रयम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दालिद होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२५४ से 'पा संयुक्त' 'र' का 'ल'; २-७६ से अथवा २-८० से द्वित्व 'र' का लोप; २-४८ से 'य' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र' तथा ' में से शेष रहे हुए 'द' का द्वित्व 'द'; ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त हुए. 'म' . का अनुस्वार होकर ड्रालि रूप सिद्ध हो जाता है। __हारिद्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हलिदो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से आदि दीध स्वर 'या' के स्थान पर हव स्वर ''काम१.०५४ से अमयुक्त 'र' का 'ल'; २-७६ से अथवा २-८० से द्वितीय संयुक्त 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र' में सं शेष रहे हुए. 'द' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हालको रूप सिद्ध हो जाता है । जहलिटलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६६ में की गई है। सिडिला रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१५ में की गई है। मुखरः संस्कृत विशेषण हे । इसका प्राकृत रुप मुहलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-६८७ से 'ख' का 'ह'; १-२५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्त होकर मुहलो रूप सिद्ध हो जाता है। .. घरण: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चलणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ से र का 'ल' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलणो रूप सिद्ध हो जाता है। वरुणः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वलुणो होता है । इममें सूत्र संख्या १-२५४ से 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा बिभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चलुणो रूप सिद्ध हो जाता है। __करुणः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप कलुणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ में 'र' का 'ल' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर कलुणो रूप सिद्ध हो जाता है। रंगालो रूम की सिद्धि सूत्र संख्या १-४७ में की है। सत्कारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सझालो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'तू का Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६] * प्राकृत व्याकरण - लोप; २-८८ से 'क' का द्विश्व 'क' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल'; और इ.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सकफाला रूप सिद्ध हो जाता है ! सोमालो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में की गई है। चिलाओ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ११८३ में की ग है। फलिहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३P में की गई है। फलिहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२३7 में को गई है। फालिहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-737 में की गई है। काहलो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.५१४ मैं को गई है। रुग्णः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप लुको होता है । इसमें सूत्र संख्या १.२५४ से 'र' का 'ल'; २-२ से संयुक्त 'या' के स्थान पर द्वित्व 'क' की प्रानि और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुरको रूप की सिद्धि हो जाती है। अपवारम्-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अवदालं होता है । इनमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' का 'ब'; २-७ से 'ध' का लोप; -८ से लोप हुए 'व्' में से शेष रहे हुए. 'द' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल'; ३-२५ से प्रथमा विमाक्त के एफ वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अपवाले रूप सिद्ध हो जाता है। भसलो-रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४४ में की गई है। जठरम्-संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जढलं और जदर होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६ मे 'ठ' का 'ढ'; १-२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' और द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दोनों रूप जदलं तथा जढरं क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। चठरः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप यढलो और बढ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६8 से 'ठ' का 'ढ'; -२५४ से प्रथम रूप में 'र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र'हो और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप बदलो और बढरी क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ २७७ निष्पुरः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप निट ठुलो और निट लुरो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-७७ से 'ए का लोप; २-८६ से 'ट्' को द्वित्व 'ठ' को प्राामे, २-६० से प्राप्त पूर्व' को 'ट्' को प्राप्ति; १-२५४ से र' का 'ल' तथा द्वितीय रूप में १-२ से 'र' का 'र' ही और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोनों रूप निदवली एवं निदरो क्रम से सिद्ध हो जाते हैं। चरण-करण म संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घरण करणं ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से 'म' का अनुस्वार होकर धरण-करणं रूप सिद्ध हो जाता है। भमरो रूप की सिद्भि सूत्र संख्या १-२४४ में की गई है। द्वादशाङ्ग संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत में दुवालसन रूप होता है । इसमें सूत्र संख्या १-5 से 'द्वा' को पृथक पृथक करके हलन्त 'द्' में 'उ' को प्राप्ति; १-२५४ की वृत्ति से द्वितीय 'द्' के स्थान पर 'ल की प्राप्तिः १-२६० से 'श' का 'स'; १-८४ से प्राप्त 'सा' में स्थित दीर्घस्वर या को 'श्र' की प्राप्ति; और ३.११ से सप्तमी विभक्ति के एक बनन में अकारान्त में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में दुवालसंगे रूप की सिद्धि हो जाती है। यदि 'द्वादशाङ्ग' ऐसा प्रथमान्त संस्कृत रूप बनाया जाय तो सूत्र संख्या ४-२८७ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आर्ष-प्राकृत में प्रथमान्त रूप दुवालसंगे सिद्ध हो जाता है । १-२५४ स्थूले लो रः ॥ १-२५५ ॥ स्थूले लस्य रो भवति ॥ थोरं । कथं धूलभहो । स्थूरस्य हरिद्रादि लत्वे भविष्यति ॥ अर्थ:-'स्थूल' शब्द में रहे हुए 'ल' को 'र' होता है । जैसेः स्थूलम्-थोरं ।। प्रश्नः-'थूल भदो' रूप की सिद्धि कैसे होती है ? उत्तरः - 'थूल भद्दो' में रहे हुए 'थूल' की प्राप्ति स्थूर' से हुई है; न कि 'स्थूल' से; तदनुमार सूत्र संख्या १-२५४ से 'स्थूर' में रहे हुए 'र' को 'ल' की प्राप्ति होगी; और इस प्रकार 'स्थूर' से 'थूल' को प्राप्ति हो जाने पर 'स्थूलम् धोरं' के समान स्थूर' में रहे हुए 'अ' को 'श्री' की प्राप्ति की आवश्यकना थोरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है। स्थूर भद्रः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप थूल भदो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'स' का लोपः १-२५४ से प्रथम 'र' का 'ल';२.८० से द्वितीय 'र' का लोप; २.८ से 'द्' को द्वित्व 'ए' Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] * प्राकृत व्याकरण* की प्राप्ति और ३-२ से प्रश्वमा विभक्ति के वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' त्यय की प्राप्ति होकर शूल भनी रूप की सिद्धि हो जाती है। ॥१-२५५ ।। लाहल-लांगल-लांगुले वादे णः ॥ १-२५६ ॥ एषु श्रादेर्लस्य णो वा भवति ।। णाहणो लाहलो ॥ गङ्गले लगलं । गङ्ग लं । लङ्गलं ॥ अर्थ:-लाहल, लाङ्गल और लाजल शब्दों में रहे दुप. श्रादि अक्षर 'त' का विकल्प से 'ण' होता है। जैसेः- लाहल:-णाइलो अथवा लाहलो । लाङ्गलम् गङ्गलं अथवा लङ्गलं । लाङ्ग लम-गङ्गलं अथवा लङ्ग लं ।। लाहल: संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप ण हलो और लाहली होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.०५ से श्रादि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से जाहलो और लाहलो दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है। 'लाङ्गलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप णङ्गल और लङ्गलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२५६ से आदि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्रापि, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से मङ्गलं और लङ्गलं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। लाज लम् संस्कृत रूप है। इसके प्रोकृत रूप णङ्गलं और लङ्गलं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२५६ से शादि अक्षर 'ल' का विकल्प से 'ण'; १-२४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'श्र की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्न नमक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से णङ्गलं और लङ्गलं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। १-२५६ ॥ ललाटेच ॥१-२५७ ॥ ललाटे च श्रादे लस्य णो भवति ।। चकार आदेरनुवृत्त्यर्थः ।। णिडालं । णडालं ॥ अर्थ:-ललाट शम्द में आदि में रहे हुए 'ल' का 'ण' होता है । मूल-सूत्र में 'च' अक्षर लिखने की। तात्पर्य यह है कि सूत्र-संख्या १-२५६ में 'आदि' शब्द का उल्लेख है; उस 'आदि' शब्द को यहाँ पर भी समझ लेना, तदनुसार 'ललाट' शब्द में जो दो 'लकार' है: उनमें से प्रथम 'ल' का हो 'ण' होता है न Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २७४ किदिनीय 'लकार' का; इस प्रकार 'तारपर्थ-विशेष' को समझाने के लिये ही 'च अक्षर को मूल सूत्र में स्थान प्रदान किया है । उदाहरण इस प्रकार है:- ललाटम्-णिडाल और णडालं ।। पिडालं और णडालें रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४७ में की गई है ।।१-२५७।। .. शबरे वो मः ।। १-२५८ ।। शबरे बस्य मो भवति ॥ समरो॥ अर्थः शबर शब्द में रहें हुए. 'ब' का 'म होता है । जैसे-शबर: समरो ।। शायरः संस्कृत रूप है । इसका प्रागृत रूप समगे होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-२५८ से 'ब' का 'म' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि 'प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रस्यय की प्राप्ति होकर समरो रूप की सिद्धि हो जाती है ।। १-५८ ॥ स्वप्न-नीव्यो वा ॥ १-२५६ ॥ अन्योर्वस्य मो वा भवति ।। सिमिणो सिविणो ॥ नीमी नीवी ॥ अर्थ:-स्वप्न और नीवी शब्दों में रहे हुए 'ध' का विकल्प से 'म' होता है । जैसे:-स्वप्ना: सिमिणो अथवा सिविणो । नीबी-नीमी अथवा नीयी ।। सिमिणो और सिषिणो रूपरे की सिद्धि सूत्र-संख्या १४ में की गई है। नीवी संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप नीमी और नीची होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२५६ से 'च' का विकल्प से 'म' होकर कम से नीमी और नीवी दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है । ५-२५६ ।। श-षोः सः ॥ १-२६० ॥ शकार पकारयोः सो भवति ॥ श । सहो । कुसो । निसंसो। वंसो। सामा । सुद्ध । दस । सोहर । विसइ ॥ष ।। सण्डो । निहसो । कसायो । पोसइ ॥ उभयोरपि । सेसो। बिसेसो ।। ___ अर्थ:-संस्कृत शब्दों में रहे हुए. 'शकार' का और 'षकार का प्राकृत रूपान्तर में 'सकार' हो जाता है। 'श' से संबंधित कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-शब्दः-सहो । कुश:-कुसो ॥ नृशंसः = निसंतो ॥ चंश-वसो ॥ श्यामा-सामा ।। शुखम्सुद्धं । दशब्दस ।। शोभते-मोहह ॥ विशत्ति-विसह ॥ इत्यादि । 'ष' से संबंधित कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-पण्डासण्डो । निकषः - निहसो । कषायः कसायो । पोषयति घोसइ ।। इत्यादि । यदि एक ही शब्द में आगे पीछे अथवा साथ साथ में 'शकार' एवं 'पकार' Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] * प्राकृत व्याकरण * आ जाय, तो भी उन 'शकार' और 'पकार' के स्थान पर 'सकार' की प्राप्ति हो जाती है। जैसे:शेषः-सेसो और विशेषः-विसेमी।। इत्यादि ।। शब्द: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सदो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स', २-७ से 'ब' का लोप, २-८६ से '' को दिन 'इ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सदो रूप सिद्ध हो जाता है। कुझ संस्कृत रूप है। इस जुस होता है : इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुसो रूप सिद्ध हो जाता है। निसंसो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है। वंशः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वप्तो होता है। इममें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वसेा रूप सिद्ध हो जाता है। इयामा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सामा होता है। इसमें सूत्र-संज्या १-२६० से 'श' का 'स', और २-७८ से 'य' का लोप होकर सामा रूप सिद्ध हो जाता है। सम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप सुद्ध होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स', ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रान 'म्' का अनुस्वार होकर सुख रूप सिद्ध हो जाता है। दस रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१६ में की गई है। सोहइ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९८७ में की गई हैं। विशात संस्कृत सकर्मक क्रिया पर का रूप है। इसका प्राकृत रूप विसइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या १-२६० से 'श' का 'स' और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वितह रूप सिद्ध हो जाता है। पण्डः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सण्डो होता है। इसमें सूत्र-संख्यो १-२६० से 'प' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' अत्यय की प्राप्ति होकर पण्डो रूप सिद्ध हो जाता है। निहसो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८६ में की गई है। कवायः संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप कसायी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'ध' का 'स'; १-१७७ से 'य' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कसाओ रूप सिद्ध हो जाता है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [२८१ घोषयति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप घोसा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६. से प का 'म'; ४.२३६ से संस्कृत धात्विक गण-बोधक विकरण प्रत्यय 'श्रय' के स्थान पर अ' की प्राप्ति और ३-१३६ मे वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर घोसह रूप सिद्ध हो जाता है। शेषः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सेसो होता है। इसमें सूत्र-मंख्या १-२६० से दोनों 'शकार' 'षकार के स्थान पर 'स' और 'स' को प्राप्ति तथा ३-९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सेसो रूप सिद्ध हो जाता है। विशेषः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विसेसी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से दोनों 'शकार', 'पकार' के स्थान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति तथा ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विससो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ १-२६० 4 . । स्नुषायां रहो न वा ॥ १.२६१ ।। स्नुषा शब्दे षस्य एहः गाकाराक्रान्तो हो वा भवति ॥ सुशहा । सुसा ॥ अर्थ:-संस्कृष्ट शब्द 'स्नुषा' में स्थित 'घ' वर्ण के स्थान पर हलन्त 'ण' सहित 'ह' अर्थात 'एह' को विकल्प से प्राप्ति होती है । जैसे:-तुषा-सुरहा अथवा सुसा ॥ स्नुषा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सुरक्षा और सुसा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २०४८ से 'न' का लोप; १-२६१ से प्रथम रूप में 'ष के स्थान पर विकल्प से रह की प्राप्ति और द्वितीय रूप में ६-२६० से 'ष' का 'स' होकर क्रम से सुण्हा और मसा दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। ॥ १-२६१ ।। दश-पाषाणे हः ॥ १.२६२ ।। दशन शब्दे पाषाण शब्दे च शोर्यथादर्शन हो या भवति ॥ दह-महो दस महो। दह-बलो दस वलो । दह- रहो दस रहो । दह दस । एधारह । बारह । तेरह । पाहायो पासाणो । भर्थः-देशन शब्द में और पापाश शब्द में रहे हुए 'श' अथवा 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' होता है। ये शब्द दशन और पाषाण चाहं समास रूप से रहे हुए हों अथवा स्वतंत्र रहे हुए हो; तो मी इनमें स्थित 'श' का अथवा 'ष' का विकल्प से 'ह' हो जाता हैं। ऐसा तात्पर्य वृत्ति में उल्लिखित 'पथादर्शन' शब्द से जानना । जैसे:-दश-मुख:-प्रह-मुहो अथवा दस मुहो । दश-बलदह बलो अथवा रस बलो ।। वशरथः-दहरहो अथवा पसरहो ॥ दशन्दा अथवा दसा. एकादश-एआरह ।। द्वादश-तेरह !| पाषाण पाहाणो पासायो ।। . . . . . . . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] * प्राकृत व्याकरण * दृश मखः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दह-मुहो और दसमुहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स'; १-१८७ से दोनों रूपों में 'ख' का 'ह' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुग्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की दोनों रूपों में प्राप्ति होकर क्रम से दह-मुहो और इस मुही रूपों की सिद्धि हो जाती है। __ दृश-बलः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप दह चलो और दम बलो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२६२ से प्रथम रूप में चिकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-०६० से 'श' का 'स' तथा ३-२ से दोनों रूपों में प्रथमा विभक्ति कं एक वचन में श्रकारान्त बुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से वह बलो एवं इस बलो रूपों की सिद्ध हो जाती है। दशरथः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप दहरहो और दसरहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १.२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्वितीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स'; १-५८७ से दोनों रूपों में 'थ' का 'ह' तथा ३.९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम दहरही और दसरहो रूपों की सिद्धि हो जाती है। एआरह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२१९ में की गई है। बारह रूप की सिद्धि सूत्र-मंख्या १-२१९ में की गई है। तेरह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६५ में की गई है। पाषाणः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पाहाणो और पासाणो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६२ से विकल्प से 'श' का 'ह' और द्विनीय रूप में १-२६० से 'श' का 'स' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से पाहाणो एवं पासाणी रूपों की सिद्धि हो जाती है १-२६२ ।। दिवसे सः॥ १-२६३ ॥ दिवसे सस्य हो वा भवति ॥ दिवहो । दिवसो ।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'दिवस' में रहे हुए 'स' वर्ण के स्थान पर विकरूप से 'इ' होता है । जैसे:दिवस:-दिवहो अथवा दिवसी । दिवसः संस्कृत रूप है इसके प्राकृत रूप दिवहो और दिवसो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२६३ से 'स' का विकल्प से 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ ] * प्राकृत व्याकरण * । प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से दिखहो और दिवसो रूपों की सिद्धि हो जाती है।॥ १-२६३ ।। . हो घोनुस्वारात् ॥ १-२६४ ॥ अनुस्वारात् परस्य हस्य पो वा भवति ॥ सिंघो । सीहो । संघारो । संहारो । कचिदननुस्वारादपि । दाहः । दायो ।। अर्थ:--यदि किसी शब्द में अनुस्वार के पश्चात् 'ह' रहा हुआ हो तो उप्त 'ह' का विकल्प से 'घ' होता है। जैसे:-सिंहासंघो अथवा सीहो । संहार: संघारो अथवा संहारो ॥ इत्यादि ।। किसी किसी शब्द में ऐसा भी देखा जाता है कि 'ह' वर्ण के पूर्व में अनुस्वार नहीं है तो भी उस 'ह' वर्ण का 'ध' हो जाता है। जैसे:-दाहान्दाघो ।। इत्यादि ।। सिंघो और सीहो रूपों को सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। संहारः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप संघारी और संहारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६४ से विकल्प से 'ह' का 'घ' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिरा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति दोनों रूपों में होकर क्रम से संघारो और संहारो रूपों की सिद्धि हो जाती है। दाहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दाघो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६४ को वृत्ति से 'ह' का 'घ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाघों रूप की सिद्धि हो जाती है। ॥ १.२६० ।। षट्-शमी-शाव-सुधा-सप्तपणेष्वादेश्छः ॥ १-२६५ ॥ एषु आदेर्वर्णस्य छो भवति ॥ छट्ठो । छट्ठी । छप्पो । छम्मुहो । छमी । छायो । छुहो । छत्तिवएणो ॥ अर्थ:-पद्, शमी, शाव, सुधा और सप्तपर्ण श्रादि शब्दों में रहे हुए श्रादि अक्षर का अर्थात सर्व प्रथम अक्षर का 'छ' होता है । जैसे:--षष्ठः-ट्ठो । पष्ठी-ट्ठी ।। षट्पदा-छप्पो षण्मुखः= छम्मुहो । शमी-छमी । शायः कावो । सुधा-छुहा और सप्तपर्ण छत्तिवएणो इत्यादि । षष्ठः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप छटो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२६५ से सर्व प्रथम वर्ण 'ए' का 'छ'; २-७७ से द्वितीय '' का लोप; २-८६ से शेष 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व '' को 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर छटो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २८४ संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छुट्टी होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्व प्रथम वर्ण 'ष' का 'छ' ६-७७ से द्वितीय 'व' का लोपः २-८६ से शेष 'ठ' को द्रित्व 'ठूल' की प्राप्ति और २०१० से प्राप्त पूर्व 'ठ' को 'टू' की प्राप्ति होकर छठ्ठी रूप सिद्ध हो जाता है। पद: संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप छप्पओ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६५ से सर्व प्रथम वर्ग 'ष' का 'छ' २७७ से 'द' का लोप; २६ सेप को द्रिवप्प' की प्राप्तिः १ ९७७ से 'दु' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छप्पजी रूप की सिद्धि हो जाती हैं । षण्मुखः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप म्हो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६५ से सर्व प्रथम वर्ण 'प' का '' १.२५ से 'ए' को पूर्व व्यजन पर अनुस्वार की प्राप्ति एवं ९-३० से प्राप्त अनुरवार को परवर्ती 'म' के कारण से 'म्' की प्राप्तिः १- १६७ से 'ख' का 'ह' और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुझे रूप की सिद्धि हो जाता है । शमी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमी होता है। इनमें सूत्र संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' होकर छमी रूप सिद्ध हो जाता है । शाषः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप ब्रावो होता है। इसमें सूत्र- संख्या १-२६५ से 'श' का 'छ' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छावो रूप सिद्ध हो जाता है । हा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई है। छत्तिवरूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४९ में की गई। शिरायां वा ॥ १-२६६ ॥ शिरा शब्दे श्रादेशो वा भवति ॥ छिरा सिरा || अर्थः - संस्कृत शब्द शिरा में रहे हुए यदि अक्षर 'श' का विकल्प से '' होता है। जैसे:शिश:-रा अथवा मिरा ॥ ।। १-२६५ ।। कि संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप लिरा और सिरा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६६ से 'श' का विकल्प से 'छ' और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १२६० से श' का 'न' होकर क्रम से छिरा और सिरा दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । ॥ १-२६६ ॥ N Y Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २५ -ommummyanamaintainiandidisi लुग भाजन-दनुज-राजकुले जः सस्वरस्य न वा ।। १-२६७ ॥ पु मस्चरजकारस्य लुग बा भवति ।। भाणं भायणं ॥ दणु -बहो । दणु-वहो । रा-उल्लं राय-उलं ।। अर्थ:-'भाजन, दनुज और राजकुल' में रहे टुप 'स्वर सहित अकार का' विकल्प से लोप होता है । जैसे:-भाजनम-भाणं अथथा भायणं ।। दनुज-वधः-दगु-वहो अथवा दणुअ-बहो और राजकुलम् रा-उलं अथवा राय-उलं ।। इन उदाहरणों के रूपों में से प्रथम रूप में स्वर सहित 'अ' व्यञ्जन का लोप हो गया है। भाजनम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप भाणं और भायणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र मंख्या १-२६७ से 'ज' का विकल्प से लोपः १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय का 'म्' और १.२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप भाणं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १.१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए ‘ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेप साधानका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप भायणं भी सिद्ध हो जाता है। दनुज-वधः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दणु-बहो और दगुअ-वहीं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से न का 'ण'; १.२६. से विकल्प से 'क' का लोप; १-१८७ से 'ध' का 'ह और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दगु-यही सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १-१७७ से 'ज्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप दणुअ-वहो भी सिद्ध हो जाता है। राजकुलम् मंस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रा उलं और राय-उलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६७ से विकल्प से 'ज' का लोप; १-१७७ से 'क्' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप रा- उलं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१४७ से 'ज्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप राय-उल भी सिद्ध हो जाता है ।।१-२६॥ व्याकरण-प्राकारागते कगोः ॥१-२६८।। एषु को गश्च सम्वरस्य लुग वा भवति ॥ वारणं वायरणं । पारो पायारो || आमो आगयो ।। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-'व्याकरण और 'प्राकार' में रहे हुए स्वर रहित 'क' का अर्थात् सम्पूर्ण 'क' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता है। जैसे:- व्याकरणम्-वारणं अथवा वायरणं और प्राकारः =पारो अथवा पायारो || इसी प्रकार से 'आगत' में रहे हुए स्वर सहित 'ग' का अर्थात् सम्पूर्ण 'ग' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होता हैं। जैसे:- श्रागतः श्रभो अथवा श्रागयो । व्याकरणम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वारणं और वायरणं होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २७८ से 'यू' का लोप १-२६८ से स्वर सहित 'क' का अर्थात् संपूर्ण 'क' व्यञ्जनका विकल्प से लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप वारणं सिद्ध हो जाता हैं । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'कू' का लोप; १०१८० से लोभ हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप धारणं भा सिद्ध हो जाता है । प्राकारः संस्कृत रूप हैं | इसके प्राकृत रूप पारो और पायाशे होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २७६ से प्रथम 'र्' का लोपः १-२६८ से स्वर सहित 'का' का प्रधात् संपूर्ण 'का' का विकल्प से लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पारो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'कू' का लोप; १९८० से लोप हुए 'कू' में से शेष रहे हुए '' का 'या' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप पायारो भी सिद्ध हो जाता है । आगतः संस्कृत विशेषण हैं इसके प्राकृत रूप आओ और आग होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या १--९६८ से 'ग' का विकल्प से लोपः १-१७७ से 'त' का लाभ और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आओ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप आगओ की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है ।।१-२६८ । किसलय - कालायस - हृदये यः ॥ १-२६६ ॥ एषु सस्वरयकारस्य लुग् वा भवति । किसलं किसलयं ॥ कालासं कालायसं ॥ महण्णव समासहिआ । जाला ते सहिश्रएहिं घेप्यन्ति ॥ निसमणुष्पिका हिस्सा हिश्रयं ॥ अर्थ:-'किसलय'; 'कालायस' और 'हृदय' में स्थित स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यजन का विकल्प से लोप होता हैं जैसे:- किसलयम् = किसलं अथवा किसलयं ॥ कालायसम् = कालासं star कालायसं और हृदयम् = हि अथवा श्रियं ॥ इत्यादि । ग्रंथकार ने वृत्ति में हृदय रूप को समझाने के लिये काव्यात्मक उदाहरण दिया है; जो कि संस्कृत रूपान्तर के साथ इस प्रकार है: 24 す Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २८७ (१) महार्णवसमाः सदृत्याः = महराणव-समासहिश्रा ।। (२) यदा ते सहृदयः गृह्यन्तै जाला ते महिला हिं घेप्पन्ति ।। ( ३) निशमनार्पित हृदयस्य हृदयम-निसमगुपिना-हिनारस हिअर्थ ।। किसलयम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप किसलं और किसलयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में मूत्र-संख्या १-२६६. से स्वर महित 'य' का अर्थात संपूर्ण 'ब' व्यन्जन का विकल्प से लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मं अकारांन नपुम कलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-६३ से प्राप्त म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप किसलं मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६६ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के समान ही शेष साधनिका से द्वितीय रूप किसलयं भी सिद्ध हो जाता है। कालायसम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कालासं और कालायर्स होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२६६. से स्वर सहित 'य' का अर्थात् संपूर्ण 'य' व्यञ्जन का विकल्प से लोए; ३-१५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त जसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की पारित और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर प्रथम रूप कालासं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-२६६ से वैकल्पिक पक्ष में 'य' का लोप नहीं होकर प्रथम रूप के ममान ही शेष साध. निका से वित्तीय रूप कालायसं भी सिद्ध हो जाता है। महार्णव-समाः संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप महएणव-समा होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'या' के स्थान पर हस्वर 'अ' की प्राप्ति; -GE से 'र' का लोप; २.८६ से 'ण' को द्वित्व 'रण' की प्राप्ति;३.४ ले प्रथमा विक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त होकर लुप्त हुए 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर महष्णव-समा रूप सिद्ध हो जाता है। सहृदया. संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सहिया होता है। इनमें सूत्र संख्या १-१२८ से '' का 'इ'; {-७७ से 'द्' का लोप; १-२६६ से स्वर महित 'य का विकल्प से लोष; ३-४ से पथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३- २ मे प्राप्त होकर लुरत 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हुस्व स्वर"अ', को दीर्घ स्वर "प्रा', की प्राप्ति होकर सहिमा रूप सिद्ध हो जाता है। यदा संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप जाला हाना है। इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; ३-६५ से कालवाचक संस्कृत प्रत्यय दा के स्थान पर 'आला' प्रत्यय को प्रानि होकर जाला रूप सिद्ध हो जाता है। ते संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता है । यह रूप मूल सर्वनाम 'तद्' Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * से बनता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्स्य व्यजन 'द्' का लोप; और ३-५८ मे प्रथमा विभक्ति के बहु यचन में श्रकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस' के स्थान पर 'ए' आदेश की प्राप्ति होकर ते रूप सिद्ध हो जाता है। ___सहृदयः संस्कृत तृतोयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महिअएहि होला है । इसमें सूत्र संख्या १.१२८ से 'ऋ' की 'ए'; १-१७७ स 'द' का लोपः १.१.५७ से ही 'य' का भी लोप, ६-१५ से लुम हुए 'य' में से शेष बचे हुए 'अ' को (अपने आगे तृतीया विभक्ति के बहु वचन के प्रत्यय होने से) 'ए' की प्राप्ति और ३-७ से संस्कृत भाषा के तुनाया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यत्र 'भिम्' के स्थान पर श्रादेश प्राप्त 'ऐस्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सहिअएहिं रूप मिद्ध हो जाता है। गृधन्ते कर्मणि वाच्य क्रियापा का रूप है। इसका प्रारत रूप पन्ति होता है। इसमें मूत्रसंख्या ४-२५६ से 'ग्रह' धातु के स्थान पर 'घेप्प' का आदेश; और इसी मूत्र को वृत्ति से संस्कृत भाषा में कर्मणि वाच्यार्थ बोधक 'य' प्रत्यय का लोप; ४-२३६ से 'धेष धातु में स्थित हलन्त द्वितीय 'प' को 'अ' को प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के वडववन में 'न्ति' प्रत्यय फो प्राप्ति होकर प्पन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। निशममार्पित हृदयस्य संस्कृत समासात्मक पवयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप निसमणुस्पिन हिअस्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या १९६० से 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; १-६३ से 'ना' वर्ण में संधि के कारण से स्थित अर्पित के आदि स्वर 'अ' को 'ओं की प्राप्ति एवं १-८४ से प्राप्त इस 'ओ' स्वर को अपने ह्रस्व स्वरूप 'उ' की प्राप्ति; २-४ से 'र' का लोप; २-८८ से 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' का लोप; १-१२८ से 'ऋ' को 'इ'; १-१७७ से 'दू का लोप: १-२६६ से सर सहित संपूर्ण 'य' का लोप और ३-१० से संस्कृत में पष्ठी-विभक्ति चोधक 'स्य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में स्स प्रत्यय की प्राप्ति होकर निस्सम गुपिअ-हिअस्स रूप की सिद्धि हो जाती है । हिअयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है ॥ १-२६६ ।। दुर्गादेव्युदुम्बर-पादपतन-पाद पीठन्तर्दः ।।१-२७० ।। एषु सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग वा भवति ॥ दुग्गा-बी | दुग्गाएवी । उम्बरो उउम्बरो || पा-वडणं पाय-वडणं । या-वीढं पाय-बीदं ॥ अन्तरिति किम् । दुर्गा देव्यामादौ मा भूत् ॥ अर्थ:-दुर्गा देवी, उदुम्बर, पाद पतन और पाद पीठ के अन्तर्मध्य भाग में रहे हुए स्वर सहित 'द' का अर्थात् पूर्ण न्यजन 'द' का विकल्प से लोप होला है । 'अन्तर्मय-भाग' का तात्पर्य यह है कि विकल्प से होष होने वाला 'द व्यञ्जन न तो आदि स्थान पर होना चाहिये और न अन्त स्थान पर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २८६ ही; किन्तु शब्द के आन्तरिक भाग में अथवा मध्य भाग में होना चाहिये । जैसे:-दुर्गा देवी-दुग्गा-वो अथवा दुग्गा-एबी ।। उदुम्बर:-म्बरो अथवा उउम्बगे। पाद-पदनम्=पा वडणं अथवा पाय बडणं और पान पीठम्-पा-चीढं अथवा पाय वी ढं ।। प्रश्नः-'अन्तर मध्य-भाग' में ही होना चाहिये तभी स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप होता है। ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:- क्योंकि यदि 'द' वर्ण शब्द के आदि में अथवा अन्त में स्थित होगा तो उस 'द' का लोप नहीं होगा। इसीलिये 'अन्तर्मध्य' भाग का उल्लेख किया गया है । जैसे:-दुर्गा-देवी में आदि में 'द' वर्तमान है; इसलिये हम शादि स्थान पर स्थित 'टु' का लोप नहीं होता है । जैसे:-दुर्गा-देवो दुग्गा-चो ।। इत्यादि ॥ दुर्गा-देवी संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दुग्गा-बी और दुग्गा-एवी होता है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २. में 'र' का लोप; २-८६ से 'ग' का द्वित्व 'ग्ग'; और १.२७० से अन्त-मध्यवर्ती स्वर महित 'दे' का अर्थात् सम्पूर्ण दे' व्यन्जन का विकल्प से लोप होकर प्रथम रूप दुग्गा-वी मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप होकर एवं शेप साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप दुग्गा-एवी भी सिद्ध हो जाता है। उदुम्बरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप उम्परो अथवा उउम्बरो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२७० से अन्तर्मध्य-वर्ती स्वर सहित 'दु' का अर्थात् संपूर्ण 'दु' व्यञ्जन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से दु' का लोप; तथा ३-२ से प्रथमा यिक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से उम्बरो और उउम्बरी रूपों की सिद्धि हो जाती है। पाद-पतनम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पा-वडणं और पाय-वडण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२५० से अन्तमध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का अर्थात् संपूर्ण 'द' व्यजन का विकल्प से लोप और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या ६.१७७ से 'द' का लोए एवं १-१८० से लोप हुए 'द में से शेप रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति; १.२३१ से दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'व'; १.२१६ से शेनों रूपों में स्थित 'त' का 'ड'; १-२२८ से दोनों रूपों में 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्त के एक वपन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पा-पडणं और पाय-पडणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। पाद-पीठम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पा-बीढं और पाय-वीरें होते हैं इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२७० से अन्तर्मध्यवर्ती स्वर सहित 'द' का विकल्प से लोप; द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-१४७ से 'द' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्रामि; १-२३१ से Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ] * प्राकृत व्याकरण * दोनों रूपों में द्वितीय 'प' का 'ब'; १-१६६ से दोनों रूपों में 8 का 'ढ'; ३.८५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भ' प्रत्यय की दोनों रूपों में पानि और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्बार होकर क्रम से पा-पीढं और पाय-पीढं दोनों रूपों की मिद्धि हो आती है ।।१-२७॥ यावत्तावजीविता वर्तमानावट-प्रावरक-देव कुव मेवे वः १-२७१॥ यावदादिषु सस्वर वकारस्यान्तवर्तमानस्य लुग् वा भवति ।। जा जाय । ता ताय । जीअं जीविझं । अत्तमाणो आवत्तमाणो । अडो अबढो । पारी पावार ओ । देउनं देव उलं एभव एवमेव ॥ अन्तरित्यय । एवमेवन्त्यस्य न भवति ।। अर्थः--यावत् तात्रन, जीवित, आवर्तमान. अवट. प्रापरक, देवकुल और एवमेव पत्रों के मध्य-भाग में (अन्तर-भाग में) स्थित स्वर सहित-व का अर्थात् मंपूर्ण व' घ्यजन का विकल्प से लाप होता है । जैसे:-यावत-जा अथवा जाब ।। तावन्न्ता अथवा नाव || जीवितम्-जोधे अथवा जीविरं || आदत मानः अत्तमाणो अथवा आवत्तमाणो ॥ श्रवट:-अडो अथवा श्रवडो । प्राबारका पारश्रो अथवा पावारओ ।। देवकुलम्दे-उलं अथवा देव उलं और एवमेव = एमेक अथवा पत्रमेव ।। प्रश्न-'अन्तर.-मध्य-भागी 'व' का ही लोप होता है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-यदि 'अन्तर -मध्य-भागी' नहीं होकर अन्त्य स्थान पर स्थित होगा नो 3 'व' का लोप नहीं होगा। जैसे:-एवमेव में दो वकार है; तो इनमें से मध्यवर्ती 'वकार' का ही विकल्प से लोप होगा; न कि अन्त्य 'धकार' का । ऐसा ही न्यि शठकों के सम्बंध में जान लेना ।। यावत् संस्कृत अव्यय है । इसके प्राकृत में जा और जाव रूप होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.४५ से 'य' का 'ज'; १-२४१ से अन्तर्वर्ती व' का विकल्प से लोप; और ५-११ से अन्त्य व्याजन 'तू' का लोप होकर क्रम से जा और जाय दोनों रूपों की मिद्धि हो जाती है । तावत् संस्कृन अव्यय है । इसके प्राकृत रूप ता और ताव होते हैं । इनमें सूत्र संख्या १-२७१ से अन्तर्वी 'ध' का विकल्प से लोप और ५- १ से अन्य व्यवन त्' का लोप होकर क्रम से ता और ताव दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। जीवितम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जी और जावि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२७१ से अन्तर्वी स्वर सहित 'वि' का अर्थात् संपूर्ण 'वि' मन का विकल्प से लोप; १- से दोनों रूपों में 'त् का लोपा ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से जी और जीवि दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २६१ आवर्तमानः संस्कृत वर्तमान कृदन्त का रूप है । इसके प्राकृत रूप अत्तमायो और श्रावत्तमोणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से यादि दोघ घर 'आ' को 'अ' को प्राप्ति; १-२७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का विकल्प से लोग, २-७६ से 'र' का लाप; -८ से 'न' को द्विख 'क्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण और ३-२ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अत्तमाणो सिद्ध हो जाता है। द्वितोय रूप में बैंक लेपरू पक्ष होने से राव-संख्या ५-२७१ का अभाव जानना और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान होकर द्वितीय रूप अ वत्तमाणो भी सिद्ध हो जाता है। अषटः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अडो और अपना होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२७१ से अन्तर्वी सस्वर 'व' का अर्थात संपूर्ण 'व' व्यकजन का विकल्प से लोप; १-१६५ से 'ट' का 'ड' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक व वन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को की प्राप्ति होकर क्रम से अडो और अवडो दोनों की सिद्धि हो जाता है। प्राधारकः संस्कृत विशेषण है । इसके प्राकृत रूप पारश्रो और पावार भी होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या २- से प्रथम 'र' का लोप; १-२७१ से अन्तर्वर्ती मस्वर 'का' का विकल्प से लोप; १-१५७ से दोनों रूपों में 'क' का लोप और ३-२ से प्रश्रमा विमक्ति के एक यवन में अकारान्त पुलिंजग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर कम से पारओ और पाचारओ कारों की सिद्धि हो ज ली है। देव कुलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकून रूप दे-उलं और देव-जल होते हैं । इनमें मूत्र-मच्या १-७१ से अन्तर्वर्ती सस्वर 'व' का अर्थात् सम्पूर्ण 'य' व्याजन का विकल्प से लाप, १-१5 में 'क' का दोनों रूपों में लाप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'पि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से वे-उलं और वृष-मुलं दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है। एवमेव संस्कृत अध्यय है। इसके : कृित रूप एमेव और एवमेव होते हैं। इनमें मूत्र-संख्या ५-२७१ से अन्तर्वर्ती (प्रथम) सम्बर 'व' का अर्थात् संपूर्ण 'व' व्यञ्जन का विकल्प से लोप होकर क्रम से एमर और एलभेष दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है ॥ १-२७१ ।। इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र-विरचित्तायां सिद्ध हेमचन्द्राभिधानस्थोषज्ञ शब्दानुशासन वृत्ती अष्टमस्थाध्यायस्य प्रथमः पादः ।। इस प्रकार प्राचार्य श्री हेमचन्द्र महाराज द्वारा रचित 'सिद्ध हेमचन्द्र नामावली और ख-कृत कावली शब्दानुशासन रुप व्याकरण के पारवें अध्याय रूप प्राकृत-व्याकरण का प्रथम पाद (प्रथम परम) पूर्ण हुश्रा ।। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] ++++ * प्राकृत व्याकरण * पादान्त मंगलाचरण यद् शेर्मण्डल कुण्डली कृत धनुर्दण्डेन सिद्धाधिप ! श्री वैदिकुलात् लगा कि गलत् कुन्दावदातं यशः ।। भ्रान्त्वा त्रीणि जगन्ति खेद-विवरां तन्मालवीनां व्यधादापाड तनमण्डले च धक्ले गण्डस्थले च स्थितिम् ॥ अर्थ :- हे सिद्धराज ! आपने अपने दोनों सुज इण्डों द्वारा गोलाकार बनाये हुए धनुष की सहायता से, खिले हुए मांगरे के फूल के समान सुन्दर एवं निर्मल यश को शत्रुओं से ( उनको हरा कर ) खरीदा है - (एकत्र किया है) उस यश ने तीनों जगत् में परिभ्रमण करके अन्त में थकावट के कारण से विवश होता हुआ मालब देश के राजाओं की पत्नियों के ( अंगराग नहीं लगाने के कारण से ) फीके पड़े हुए स्तन मण्डल पर एवं सफेद पड़े हुए गालों पर विश्रांति महण की है। आचार्य हेमचन्द्र ने मंगलाचरण के साथ महान् प्रतापी सिद्धराज की विजय-स्तुति भी श्रृंगारिक ढंग से प्रस्तुत कर दी हैं। यह मंगलाचरण प्रशस्ति-रूप है; इसमें यह ऐतिहासिक तत्त्व बतला दिया है कि सिद्धराज ने माल पर चढ़ाई की थी, वहाँ के नरेशों को बुरी तरह से पराजित किया था एवं इस कारण से राज-रानियों ने श्रृंगार करना और श्रंग राग लगाना छोड़ दिया था; जिससे उनका शरीर एवं उनके अंगोपांग फीकेफीके प्रतीत होते थे; तथा राज्यभ्रष्टता के कारण से दुःखी होने से उनके मुख-मण्डल भी सफेद पड़ गये थे, यह फीकापन और सफेदी महाराज सिद्धराज के उस यश को मानों प्रति छाया ही थी, जो कि विश्व के तीनों लोक में फैल गया था । काव्य में लालित्य और वक्रोक्ति एवं उक्ति-वैचित्र्य अलंकार का कितना सुन्दर सामञ्जस्य है ? ) 'मूल सूत्र और वृति' पर लिखित प्रथम पाद संबंधी 'प्रियोदय चन्द्रिका' नामक हिन्दी व्याख्या एवं शब्द-साधनका भी समाप्त ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ २६७ शुष्क-स्कन्दे वा ॥ २.५ ॥ अनयोः क स्क-योः खो वा भवति ।। सुख सुक्क | सन्दो कन्दी ।। अर्थ:--'शुरुक' और 'स्कन्द में रहे ह्याए 'क' के स्थान पर एवं 'क' के स्थान पर विकल्प से 'ख' होना है । जैसे:-शुष्कम् सुकलं अथवा सुरकं और स्कन्धः-ब-दो अथवा कन्यो ।। शुष्कम संस्कृत विशेषण रूप है । इम के प्राकृत रूप मुस्खे और सु होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सून मंख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-५ से 8क के स्थान पर विकल्प में 'ख'; २-८८ से प्राप्त 'ख का द्वित्व 'ख्ख ; २.६० से प्राप्त पूर्व 'ख' का 'क': ३-२५ से प्रथमा विभका के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर प्रथम रूप मुक्खं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स ; २-१७ से 'प्' का लोप; २-८६ से शेष 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और शेप सानिका प्रथम रूप के समान ही हो कर द्वितीय रूप मुक्कं भी सिद्ध हो जाता है। स्कन्द्रः संस्कृत रूप है इसके प्राकृत रूप खन्दी और कन्दा होने हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या -५ से 'क' के स्थान पर विकल्प से 'ख की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप खन्दी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कन्मो में सूत्र संख्या २-39 से 'स' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्तिका में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप फन्दो भी सिद्ध हो जाता है। -1 वेटकादौ ॥ २६ ॥ चपेट कादिषु संयुक्तस्य खो भवति || खेडो ॥ोटक शब्दो विष-पर्यायः । घोटकः । खोडओ ॥ स्फोटकः । खोड प्रो । स्फेटकः । खेडो ॥ स्फेटिकः । खेडियो । ___ अर्थ:-विष-अर्थ वाचक संवेटक शहर में एवं वोटक, स्फोटक, स्फेटक और स्फेटिक शब्दों में श्रादि स्थान पर रहे हुए संयुक्त अक्षरों का अर्थान् ‘व्', तथा 'र' का 'ख' होना है। जैसेः चेटकःखेडो; वोटकः-खोडो; स्फोटका खोडओ; स्फेटका खेड़ओ और फटका खेडियो ।। वेटकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सेड ओ होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से 'च' के स्थान पर 'ख' का प्राप्त; ५-१६५ से 'ट' का 'ड'; १-१७७ से 'क' का लोप और ३.२ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में लि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खेड नो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ * प्राकृत व्याकरण वोटकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खोडयो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-६ से 'च' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; १-१६५ से 'ट' का 'ड'; १-१५७ से 'क का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अत्यय का प्राप्ति होकर खोडभी रूप सिद्ध हो जाता है। स्फोटकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खोडो होता है । इसमें सूत्र संख्या २.से 'स्फ' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; १-१६५ से 'ट' का 'इ': १-१४७ से 'क' का लोप और ३.२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खोहओं रूप सिद्ध हो जाता है। स्फेटकः दांना रूप है ! हाका माहत का खेडो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६ से 'स्क् के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; १-१६५ से 'ट' का 'उ'; १.१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति की होकर खेसी रूप सिद्ध हो जाता है। स्फोटिंकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खेडियो होता है। इसमें 'स्फेटकः' के समान हो सानिका सूत्रों की प्राप्ति होकर खेडियो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२-६॥ स्थाणावहरे ॥ २-७॥ स्थाणौ संयुक्तस्य खो भवति इरश्चेद् वाच्यो न भवति ॥ खाण ॥ अहर इति किम् । थाणुणो रेहा॥ ___ अर्थ:--स्थाणु शब्द के अनेक अर्थ होते हैं:-टूठा वृन खम्भा, पर्वत और महादेव श्रादि जिस समय में स्थाणु शब्द का तात्पर्य 'महादेव' नहीं होकर अन्य अर्थ वाचक हो तो उस समय में प्राकृत रूपान्तर में प्रावि संयुक्त अक्षर 'स्य का 'ख' होता है। प्रश्न:-'महादेव-अर्थ वाचक स्थाणु शब्द हो तो उस समय में स्थाणु' शब्द में स्थित संयुक्त 'स्थ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? अर्थात मूल-सूत्र में 'प्रहर याने महादेष-वाचक नहीं हो तो:-ऐसा क्यों उल्लेख किया गया है ? उत्तर:-यदि 'स्थाणु' शब्द का अर्थ महादेव होगा; तो उस समय में स्थाणु' का प्राकृत रूपा. न्तर थाणु' ही होगा; न कि 'खाणु' । ऐसा परम्परा-सिद्ध रूप निश्चित है। इस बात को बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'श्रहर' याने 'महादेव-अर्थ में नहीं ऐसा उल्लेख करना पड़ा है। जैसेः स्थाणुः(ठूठा )-खाणू ।। स्थाणोः रेखा (महादेवजी का चिन)-थागुणो रहा । इस प्रकार 'वाणु' में और 'थाणु' में सो अन्तर है; वह ध्यान में रखा जाना चाहिये ।। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ २६६ स्थाणुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खाणू होता है। इसमें सूत्र - संख्या २७ से मंयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' का 'ख' और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ध्पन्स्य ह्रस्व स्वर 'ब' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर खागू रूप सिद्ध हो जाता है। स्थाणोः संस्कृत षष्ठयन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बागुल होता है। इसमें सूत्र - संख्या २७७ से 'स' का लोग; ३-२३ सेपछी विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुर्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'इन्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर थागुणो रूप सिद्ध हो जाता है । रेखा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रहा होता है । उसमें सूत्र संख्या १-१८० से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर बेहा रूप सिद्ध हो जाता है ।। २७ ।। स्तम्भे स्तो वा ।। २-८ ॥ स्तम्भ शब्दे स्तस्य खो वा भवति || खम्भो || थम्भो । काष्ठादिमत्रः ॥ अर्थ:-' स्तम्भ' शब्द में स्थित 'स्त' का विकल्प से 'ख' होता है । जैसे:- स्तम्भः सम्भो अथवा श्रम्भ || स्तम्भ अर्थात् लकड़ी आदि का निर्मित पदार्थ विशेष | स्तम्भः संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप खम्भों और थम्भ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-८ से 'स्त' का विकल्प से 'ख' और द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-१ से 'स्त' का 'थ' तथा ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से खम्भा और भम्भो दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती हैं । स्पन्दामा थम्भिज्ज ठम्भिज्जइ ॥ थ - ठाव स्पन्दे ॥ २६ ॥ स्वम्भे स्तस्य थठी भवतः ॥ श्रम्भो । ठम्भो ॥ स्तम्भ्पते ! अर्थ:-' स्पन्दाभाव" अर्थात् हलन चलन क्रिया से रहित बड़ी भूत अवस्था की स्थिति में "स्तम्भ" शब्द प्रयुक्त हुआ हो तो उस "स्तम्भ" शब्द में स्थित 'स्व' का 'थ' भी होता है और "ठ" भी होता है, यो स्तम्भ के प्राकृत रूपान्तर में दो रूप होते हैं। जैसे:-स्तम्भः थम्भ अथवा उम्भो । स्तम्भयते= ( उससे स्तम्भ के समान स्थिर हुआ जाता है =यम्भिज्जड अथवा ठम्भिज्ज ॥ थम्भोरूप की सिद्धि सूत्र - संख्या ९०८ में की गई हैं। स्तम्भः – संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २.६ से विकल्प से "ह" का "ठ" और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में "सि" प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर उम्भी रूप सिद्ध हो जाता है । " Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] * प्राकर सिरप स्तम्भ्यते संस्कृत कर्मणि क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप थम्भिज्जइ और ठम्भिज्जड होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-से 'स्त' का विकल्प से 'थ'; ३-१६० से संस्कृत कमणिप्रयोग में प्राप्त 'य' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हज प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक बचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप थम्भिज्जइ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में उसी सूत्र-संख्या २.६ से 'स्त' का विकल्प से 'ठ' और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप ठम्भिज्जइ भी सिद्ध हो जाता है । ।। २-६ ।। रस्ते गोवा ॥२-१०॥ रक्त शब्दे संयुक्तस्य गो का भवति ।। रग्मी रतो । अर्थः -रक्त शाला में रहे हए संयुक्त व्यजन क्त के स्थान पर विकल्प से 'ग' होता है । जैसे:रक्तः रग्गा अथवा रत्ता ॥ रक्तः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप रम्मो और रत्ती होने हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१० से 'क्त' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्रापि; २.८६ से प्राप्त 'ग' को द्वित्व 'मा को प्राति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रश्रम रूप रग्गो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २-७७ से 'क' का लोप; २-८ह से शेष 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही शेकर रत्तो रूप सिद्ध हो जाता है । ॥२-१०॥ शुलो ङगो वा ।।१-११।। शुल्क शब्दे संयुक्तस्य को वा भवति ।। सङ्ग' सुकं ॥ अथ:--'शुल्क' शहद में स्थित संयुक्त व्यञ्जन रक' के स्थान पर विकल्प से 'ङ्ग' को प्रामि होती है और इससे शुल्क के प्राकृत-रूपान्तर में दो रूप होते है। जो कि इस प्रकार है:-शुल्कम्सुङ्ग और सुक्कं || शुल्कम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सुङ्ग और मुन्न होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्रमंख्या १-०६० से 'श' का 'स'; २-११ से 'ल्क' के स्थान पर विकल्प से 'ग' की प्राप्ति; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और ६.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्बार होकर प्रथम रूप 'सुङ्ग' सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सुन में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-७६ से 'ल' का लोप; २-८ से शेष रहे हुए 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और शेष माधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सुक्कं भी सिद्ध हो जाता है | -११ ॥ कृति- चत्वरे वः ॥ २-१२ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * अनयोः संयुक्तस्य चो भवति ।। किच्ची । चच्चरं ।। अर्थ:-- कृत्ति शब्द में रहे हुए संयुक्त ध्यजन 'त' स्थान पर 'च' की प्राप्ति और 'चत्वर' शब्न में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'त्य' के स्थान पर भी 'च' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कृत्तिः किमची और च वरम्-चञ्चरं ।। कृत्तिः-संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर किकवी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'द की प्राप्ति; २-१२ से संयुक्त व्यन्जन 'श' के स्थान पर 'च' को प्राप्ति; २-4 से मात्र 'ध' को द्वित्व ब; ३.१. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हरुन स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर किवी रूप सिद्ध हो जाता है। घरपरम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चवरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१२ से संयुक्त ज्यजन 'त्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च';३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर चच्चरं रूप सिद्ध हो जाता है ॥ २-१२ ।। त्योऽचैत्ये ।। २.-१३ ॥ चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति ।। सच्चं । पञ्चश्रो ।। अचैत्य इति किम् । ना ॥ अर्थ-चैत्य शब्द को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यजन त्य' रहा हुभा हो तो उस संयुक्त व्यन्जन 'त्य' के स्थान पर 'च' होता है । जैसे:-सत्यम् समचं । प्रत्ययः-पच्ची इत्यादि ।। प्रश्न: चैत्य में स्थित 'त्य' के स्थान पर 'च' का निषेध क्यों किया गया है ? ... उत्तर:-- क्योंकि चैत्य' शब्द का प्राकृत रूपान्तर चइ उपलब्ध है-परम्परा से प्रसिद्ध है; अतः चैत्य में स्थित 'त्य के स्थान पर 'च' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-चैत्यम् चइत्तं । सत्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सच्च होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१३ से संयुक्त व्यजन 'त्य' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति २.८८ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'कच' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सच्च रूप सिद्ध हो जाता है। प्रत्यय संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूपान्तर पाची होता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-४ से 'र' का लोप; २-१३ से 'स्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति, ५--१४७ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पच्चो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] * प्राकृत व्याकरण * **** रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५१ में की गई है । २-१३ || प्रत्यूषे पश्च हो वा ॥२- १४॥ प्रत्यूषे त्यस्य च भवति, तत्संनियोगे च षम्य हो वा भवति ॥ पच्चूहों । पच्चूसी || अर्थ:- 'प्रत्यूष' शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त्य' का 'च' होता है। इस प्रकार 'व' की प्राप्ति होने पर अन्तिम 'ष' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है । जैसे:- प्रत्यूषः पच्चूहो अथवा पच्चूसो ॥ प्रत्यक्षः संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप पच्चूहो और पच्चूसो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७३ से 'र' का लोप; २- १४ से संयुक्त व्यंजन 'त्य' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति से प्राप्त 'च' को द्वि 'च्च' की प्राप्ति २ - ९४ से 'प' का प्रथम रूप में विकल्प से 'ह' और द्वितीय रूप में वैकल्पिक पक्ष होने से १-२६० 'ष' का 'स' एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थार पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से पचूहों और पहचूसो दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है ।। २-१४॥ स्व-व-द्वयां च छ ज झाः कवित् ॥२- १५॥ एषां यथासंख्यमेते क्वचित् भवन्ति ॥ भुक्त्वा भोच्छा || ज्ञात्वा । गुच्चा ॥ श्रुत्वा | सोच्चा ॥ पृथ्वी । पिच्छी || विद्वान् । विज्जो || बुद्ध्वा । बुझा || I भोच्चा सयलं पिछि विज्जं बुज्झा अणण्णय-ग्गामि । चईऊण तवं काउं सन्तो पत्तो सिवं परमं ॥ अर्थ :-- यदि किसी शब्द में 'त्व' रहा हुआ हो तो कभी-कभी इस संयुक्त व्यञ्जन 'स्व' के स्थान पर 'च' होता है, 'व' के स्थान पर 'द' होता है; 'द्व' के स्थान पर 'ज' होता है और 'य' के स्थान पर 'झ' होता है । मूल सूत्र में 'क्वचित्' लिखा हुआ है, जिसका तात्पर्य यही होता है कि 'स्व' '' '' और 'ध्व' के स्थान पर क्रम से च, छ, ज और क की प्राप्ति कभी कभी हो जाती है। जैसे:- 'त्व' के उदाहरणः- मुक्त्वा=भोच्चा || ज्ञात्वा =णच्चा । श्रुत्वा = सोच्चा || 'ध्व' का उदाहरणः पृथ्वी पिच्छी ॥'४' का उदाहरणः - विद्वान् विज्जो || 'ध्व' का उदाहरण: - बुद्ध्वा - बुल्झा || इत्यादि || गाथा का हिन्दी अर्थ इस प्रकार है: -- दूसरों को प्राप्त हुई है-ऐसी - (ऋद्धिवाले) हे शांतिनाथ ! (आपने सम्पूर्ण पृथ्वी का ( राज्य ) भोग करके ( सम्यक ज्ञान प्राप्त करके ( एवं ) तपस्या करने के लिये (राज्य को छोड़ करके अंत में परम कल्याण रूप (मोक्ष-स्थान) को प्राप्त किया है । (अर्थात् आप सिद्ध स्थान को पधार गये हैं ) | क्या कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप मोठचा होता है। इसमें सूत्र संख्या ९-११६ से 'व' -3 + Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित. . [ ३०३ के स्थान पर 'भो' की प्राप्ति; २-४७ से 'क' का लोप; २-१५ से संयुक्त व्यजन 'त्र' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च्च' की प्राप्ति होकर भोच्चा हप सिद्ध हो जाता है। ज्ञात्या संस्कृत कृन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप णचा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-८४ में प्रादि 'श्रा' को हस्त्र 'श्र' की प्राप्ति; २-४२ से 'ज्ञ' को 'ण' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्याजन 'स्व' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'कव' की प्राप्ति होकर णच्या रूप सिद्ध हो जाता है। श्रया संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सोच्चा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से र का लोप; १-६० से शेष 'श' का 'त'; १-११६ से 'इ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति; २-१५ से संयुक्त व्यन्जन 'त्व के स्थान पर 'च' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'च' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति होकर सोच्चा रूप सिद्ध हो जाता है। पिछी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८४ में की गई है। विद्वान् संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्जो होता है । इसमें सूत्र संख्या १८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' को इस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-१५ से 'द' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति, २-८१ प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; ९-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति फे एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। बुद्धषा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप है बुझा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-० से 'दु' का लोप; २.१५ से 'ध्व' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झझ' की प्राप्ति और २.६० से प्राप्त पूर्व 'म' को 'ज् होकर खुज्झा रूप सिद्ध हो जाता है। भोचा रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। सकलम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सयलं होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१७. से 'क' का लोपः १-५८० से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सयलं रूप सिद्ध हो जाता है। पृथ्वीम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पिच्छि होता है । पिच्छि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में की गई है। विशेष इस रूप में सूत्र संख्या ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर पिच्छि रूप सिद्ध हो जाता है। विधाम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विजं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-३६ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-२४ से '' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ ] प्राकृत व्याकरण * की प्राप्तिः ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत के समान ही 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर विज रूप सिद्ध हो जाता है । बुज्झा रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है. अनन्यक-गामि मंस्कृत ताद्धत संबोधन रूप है । इसका प्राकृत रूप अणएण्य-गामि होता है । इसमें सूत्र संख्या-१-२२८ से दोनों न' के स्थान पर दो 'ण' की क्रम से प्राप्ति; २.७८ से य' का लोप; - से द्वितीच 'ण' को द्वित्व 'णण' की प्राप्ति, १-१७७ से 'क' का लोपः १-१८० से शेष रहे हुए 'श्र को 'य' की प्राप्ति; २-१७ से 'ग को द्वित्व 'ग' की प्राप्ति और ३-.२ से संबोधन के एक वचन में दाघ कारान्त में हम्व इकारान्त की प्राप्ति होकर भणण्ण-ग्गामि रूप सिद्ध हो जाता है । त्यक्षा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप चइरा होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-८१ से 'त्यक संस्कृत धातु के स्थान पर 'चय' आदेश की प्राप्ति; ४-२३६ से धात्विक विकाण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; १-९७७ से 'य' का लोप; ३.९५७ से लोप हुए 'य' में से शेप बने हुए धान्धिक विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, और २-१४६ से में कृत कदन्त प्रत्यय 'बा' के स्थान पर 'पूण' प्रत्यय की प्राप्ति एव' ५-१४४ से 'त्' का लोप होकर चहउण रूप सिद्ध हो जाता है। पः संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप तर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'य'; ३-५ से द्वितीया विभ.क्त के एक वचन में अकारान्त में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नवं रूप सिद्ध हो जाता है । कर्तुम संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूर काउं होता है। मूल संस्कृत धातु 'क' है। इसमें सूत्र-संख्या १.६२६ से 'शू' का श्र'; ४-२१४ से प्राप्त 'श्र को 'श्रा' की प्राप्ति; १-१७७ से संस्कृत हेत्यर्थ कृदन्त में प्राप्त 'तुम' प्रत्यय के 'त्' का लोप और १.२३ से अन्त्य 'म् का अनुस्वार होकर काउं रूप सिद्ध हो जाता है। अथवा ४-२१४ से 'अ' को 'या' की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; और १-२३ से अन्त्य 'म्' को अनुस्वार होकर का रूप सिद्ध होता है । शान्तिः संस्कृत प्रथमान्त रूप है इसका प्राकृत रूप सन्ती होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १.८४ से 'श्री' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विक्ति के एक पचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्त्र खर 'इ' को दीर्घ स्वर ई' की प्राप्ति होकर सन्ता रूप सिद्ध हो जाता है। प्राप्तः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पत्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से २५ का लोप; १-८४ से 'श्रा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-७७ से द्वितोय 'ए' का लोप; .२-८८ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर पत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિહેન મણીલા tu * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३०५ शिवम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सिवं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; ३-५ से द्वितीया विभक्त के एक घचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सियं रूप सिद्ध हो जाता है। परमम् संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप परमं होता है इसमें सूत्र-संख्या १-२३ से अन्य 'म्' का अनुस्वार होकर परमं रूप सिद्ध हो जाता वृश्चिके श्चेञ्चुवा ॥ २--१६ ॥ वृश्चिक श्चेः सस्वरस्य स्थाने चुपदेशो वा भवति ।। छापवादः ॥ विञ्चुओ विचुनो । पक्षे । विञ्छिो ॥ अर्थः-वृश्चिक शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन सहित और उस में स्वर रहे हुए के साथ 'श्चि' के स्थान पर थर्थात् मंपूर्ण श्चि' के स्थान पर विकल्प से 'च' का आदेश होता है। सूत्र-संख्या २.२१ में ऐसा विधान है कि श्व' के स्थान पर 'छ होता है । जब कि इसमें 'श्चि' के स्थान पर 'न' का प्रादेश बतलाया गया है। अत: इम सूत्र को सूत्र-संख्या २-२१ का अपवाद समझना चाहिये । उदाहरण इस भकार है: वृश्चिकः = विश्च श्री या विंचुभो ।। वैकल्पिक पक्ष होने से विञ्छिो भी होता है ।। वृश्चिकः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप विश्च श्रो, विंचुओ और विच्छिी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप विचुओ की सिद्धि सूत्र-रख्या १-१२८ में की गई है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या १-०२८ से 'भू' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २-१६ से 'श्चि' के स्थान पर 'च' का श्रादेश; १-२५ से श्रादेश रूप से प्राप्त 'च' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'म'का अनुस्वारः १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विंचुओ रूप सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप विछि ओ में सूत्र-संख्या १-१२८ से 'र' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २.२१ से 'श्च के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; ५-२६ से अादेश रूप से प्राप्र 'छ' के पूर्व में अनुस्वार की प्राप्ति; १-३० से आगम रूप से प्राप्त अनुस्वार को परवर्ती छ' होने के कारण से छचर्स के पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ब' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर "ओ" प्रत्यय की प्राप्ति होकर विञ्छिभो रूप सिध्द हो जाता है। __ छोऽध्यादौ ॥२-१७॥ अदयादिषु संयुक्तस्य छो भवति । खस्यापवादः ।। अच्छि । उच्छू । लच्छी। कच्छो । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.६] . * प्राकृत व्याकरण * छी । छोरं । सरिच्छो । वच्छो । मच्छिमा । छे । छुहा । दच्छो । कुछ छी । वच्छं । छुएको। कच्छा । छारो । कुच्छे अयं । कुरो । उच्छा : छयं । सारिच्छं ।। अक्षि । इक्षु । लक्ष्मी । कक्ष । सुत । क्षीर । सदृक्ष । वृक्ष । मक्षिका । क्षेत्र । नुध् । दक्ष । कुक्षि । वक्षस् । क्ष एण । कक्षा । क्षार । कौशेयक । क्षर । उक्षन । क्षत । साहन्दय ।। क्वचित् स्थगित शब्दे पि । छा। आर्षे । इक्खू । खीरं । सारिक्खमित्याद्यपि दृश्यते ॥ अर्थ:---इस सूत्र में उल्लिखित अति आदि शब्दों में रहे हर संयुक्त व्यसन 'क्ष' का 'छ' होता है। सूत्र-संख्या २-३ में कहा गया है कि 'क्ष का ख' होता है। किन्तु का सूत्र में कहा जा रहा है कि संयुक्त 'क्ष' का 'छ होता है। अतः इस सुत्र को सूत्र-संख्या २-३ का अपवाद माना जाय । 'क्ष के स्थान पर प्राप्त 'छ' सम्बन्धी उदाहरण इस प्रकार है-अनिम्-अच्छि । इनुः= उच्छू । लक्ष्मी लच्छी। कज्ञः-कच्छो । चुतम् = छीध। ज्ञारम-छोरं। सरशः मरिच्छी । वृक्ष: बमछो । मक्षिका - मच्छिश्रा। क्षेत्रम् - छत्तं । शुधा= छुहा । क्श:-इच्छो । कुज्ञ:-कुच्छी। बलसम्बन्छ । क्षुण्णः-छुएणो। कता. कच्छा ! क्षारः-छारो। कौ क्षेयकम- कुच्छेधयं । तुर:-छुरो । उक्षा उच्छा। क्षतम् - छयं । साक्ष्यम् सारिन्छ । कभी कभी स्थगित' शब्न में रहे हुए संयुक्त व्य-जन 'स्थ' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-स्थगितम् = छश्यं ।। आर्ष प्राकृत में इनः का इक्खु भी पाया जाता है। क्षीरम का खीरं भी देखा जाता है और सारक्ष्यम् का सारिक्त्रम रूम भी पार्ष प्राकृत में होता है। इस प्रकार के रूपान्तर स्वरूप वाले अन्य शब्द भी पार्ष-प्राकृत में देखे जाते हैं ! अच्छि रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है। उच्छू रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-६५ में की गई है। लक्ष्मी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप लच्छी होता है। इसमें मूत्र संख्या २-१४ से संयुक्त व्य ञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति; २-७८ ले 'म्' का लोप; २.८९ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च्' की प्राप्ति; और २.५१ से अन्त्य विसर्ग रूप व्यजन का लोप होकर लच्छी रूप सिद्ध हो जाता है ।। कक्षा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कच्छी होता है । इसमें सूत्र संख्या २.१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति; २० से प्राप्त पूर्व 'क' को 'च' की प्राप्ति और ३.- से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कच्छो रूप सिद्ध हो जाता है। छीअं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६१२ में की गई है। क्षीरम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हर होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७ से ज्ञ के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्राथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [३०७ प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रापि और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर छोरं रूप सिद्ध है ज्ञाता है। सरिन्छो रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। वृक्षः संस्कृत का है । इसका प्राकृत रूप वच्छो होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१२६ से ' के स्थान पर 'श्र की प्राप्ति; २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छको प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'क' को द्वित्व 'छ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ.' को च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छो रुप सिद्ध हो जाता है। मक्षिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मच्छिा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से '' के स्थान पर 'छ.' की प्रारित २-८ प्राप्त; 'छ.' को द्वित्व छ, छ. की प्राप्ति; २-६. से प्राप्त पूर्व 'छ,' को 'घ' फी प्राप्ति और १०९७७ से 'क्' का लोप होकर मच्छिा रूप सिद्ध हो जाता है। क्षेत्रम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छेत् होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'नके स्थान पर '' को प्राप्ति; २-७६ से '' में 'स्थित' 'र' का लोप; :-८६ से 'शेफ' 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्रारत म्' का अनुस्वार होकर छत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। छुहा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७ में की गई है। बक्षः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दच्छो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्शन पर 'छ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'छ को द्वित्व 'छ, छ' की प्राप्ति; :-० से प्राप्त पूर्व छ' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विमक्ति के एक व वन में अकारान्त पुल्लिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इच्छा रूप मि हो जाता है। कुच्छी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है। पक्षावक्षर संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बच्छं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; - से प्राप्त 'छ' को द्वित्व छ, छ की प्रानि; २-६ से शप्त, पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त न्यजन 'स' का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर घर रूप सिद्ध हो जाता है। क्षुण्णः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप छुएणी होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'इ' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में : Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] * प्राकृत व्याकरण * 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छुण्णी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ कक्षा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कच्छा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से '' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति; २८८ से प्राप्त 'छ'' को द्वित्व 'छ. छ' को प्राप्ति और २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ,' को 'च' की प्राप्ति होकर कच्छा रूप सिद्ध हो जाता है। क्षारः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत छारो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और ३२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छारो रूप सिद्ध हो जाता है । कुच्छेार्य रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१६१ में की गई है। शुरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छुरो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१७ से 'च' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रो रूप सिद्ध हो जाता है। उक्षाः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उच्छा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'न' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'छ' को द्वित्य 'छ. छ' की प्राप्ति और २.६ • से प्राप्त पूर्व 'छ.' को च की प्राप्ति होकर उच्छा रूप सिद्ध हो जाता है। क्षतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; १-१७ से 'त्' का लोफः १-१८० से लोप हुए 'तू' में से शेष २६ हुए 'श्र' को 'थ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर छयं रूप सिद्ध हो जाता है। साहश्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सारिच्छं होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-६४२ से 'ह' के स्थान पर 'रि' का श्रादेश; २-१७ से 'च' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति; २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सारिच्छं रूप सिद्ध हो जाता है। स्थगितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप छइथ भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७ से की वृत्ति से संयुक्त व्य ञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'छ' का आदेश; १-१७७ से 'ग्' का और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर छानों रूप सिद्ध हो जाता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रयोदय हिन्दी व्याख्या सहित * क्षः संस्कृत रूप है। इसका पार्ष-प्राकृत में इक्खू रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से 'स्' के स्थान पर 'ख' को हारिन; से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख ख की प्राप्ति २०६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्रापि और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हुस्त्र स्त्रर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊको प्राप्ति होकर इकाबू रूप मिद्ध हो जाता है। सोरम् संस्कृत रूप है। इसका आप प्राकृत रूप खीरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खीर रूप सिद्ध हो जाता है। साहश्यम् संस्कृत रूप है। इसका आर्ष-प्राकृत रूप सारिखं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४२ से 'द के स्थान पर 'रि' आदेश की प्राति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'खख की प्राप्ति; २०६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; २-७. से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक व वन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर सारिकरखं रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१७॥ क्षमायां कौ ।। २.१८ ॥ कौं पृथिव्यां वर्तमान क्षमा शब्दे संयुक्तस्य यो भवति ।। छमा पृथिवी ।। लाक्षणिकस्यापि दमादेशस्य भवति । भा । छमा । काविति किम् । खमा धान्तिः ।। __ अर्थः-यदि 'क्षमा' शब्द का अर्थ पथिवी हो तो 'क्षमा' में रहे हुए संयुक्त व्याजन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होनी है । मूल-सूत्र में जो 'कु' लिखा हुआ है; उसका अर्थ पृथिवी' होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-क्षमा-धमा अथात् पथिवी ॥ पृथिवी में सहन-शोलना का गुण होता है । इसा सहनशीलता वाचक गुण को संस्कृत-भाषा में 'चम' भी कहते हैं: तदनुसार जैसा गुण जिसमें होता है उस गुण के अनुमार हो उसकी संज्ञा संस्थापित करना 'लाक्षणिक-तात्पर्य' कहलाता है। अतः पृथिवी में सहन-शालता का गुण होने से पृथिवी की एक संज्ञा 'आमा' भी है । जो कि लाक्षणिक आदेश रूप है । इम लाक्षणिक-आदेश रूप शब्द 'मा' में रहे हुए हलन्त संयुक्त व्यञ्जन 'र' के स्थान पर 'छ' होता है। जैसे:इमाम्मा । प्रश्न:-मूल-सूत्रकार ने सूत्र में 'को' ऐसा क्यों लिखा है ? उत्तर:- कि 'क्षमा' शन के संस्कृत भाषा में यो अर्थ होते हैं। एक तो पृथिवी अर्थ होता है और पूसरा ज्ञान्ति अर्थात् सहनशीलता । अतः जिस समय में 'क्षमा' शब्द का अर्थ 'पृथिवी' लेता है तो Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. ] * प्राकृत व्याकरण * उस समय में प्राकृत-रूपान्तर में 'क्षमा' में स्थित्त 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होगी; और जब 'क्षमा' शब्द का अर्थ सहन-शीलता यान क्षान्ति होता है; तो उस समय में 'क्षमा' शब्द में रहे. हुन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होगी । इस तात्पर्य-विशेष को बतलाने के लिए हो सूत्र-कार ने मूल-सूत्र में 'को' शब्द को जोड़ा है-अथवा लिखा है। जैसे:-क्षमा=(क्षान्तिः ) खमा अर्थात सहन-शोलता || क्षमा (पृथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होना है इसमें सूत्र-संख्या-२-१८ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है। क्षमा (पथिवी ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छमा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८ से हलन्त और संयुस्त व्यक जन 'च' के स्थान पर हलन्त छ' की प्राप्ति; २-१०१ से प्राप्त हलन्त 'क' में 'अ' स्वर की प्राप्ति होकर छमा रूप सिद्ध हो जाता है । क्षमा-(शान्ति ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खमा होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-३ से संयुक्त व्यन्जन 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति होकर खमा रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-१८ ॥ ऋक्ष वा ॥ २-१६ ॥ ऋक्ष शब्दे संयुक्तस्य लो वा भवति ॥ रिच्छं । रिक्वं । रिच्छो । रिक्खो ॥ कथं छुट क्षिप्तं । वृक्ष-शिमयो रुक्ख-छूती ( २-१२७ ) इति भविष्यति ॥ अर्थ:-ऋक्ष शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च का विकल्प से 'छ' होता है । जैसे:-प्रतम्-रिकछ अथवा रिक्खं ।। ऋक्षः रिच्छो अथवां रिक्खो । प्रश्नः- क्षिरम विशेषण में रहे हुए स्वर सहित संयुक्त व्यञ्जन क्षि के स्थान पर 'कू' कैसे हो जाता है ? एवं क्षिप्तम्' का 'हृढ' कैसे बन जाता है ? उत्तर:-सूत्र-संख्या २-१२७ में कहा गया है कि 'वृक्ष' के स्थान पर 'रुक्ख' आदेश होता है और "तित' के स्थान पर 'कृढ' आदेश होता है । ऐसा उक्त सूत्र में आगे कहा जायगा ।। ऋक्षमः-संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रिच्छे और रिनखं होते हैं । इसमें सूत्र-संख्या १-१४, से '' की 'रि' प्रथम रूप में २-१६ से 'क्ष' के स्थान पर विकल्प से 'छ'; २.८४ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छ छ' की प्राप्ति; 2 से प्राप्त पूर्व 'छ' को 'च' की प्राप्ति; ३-२५ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप रिच्छ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सुत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्य 'ख' की; २०६० से प्राप्त पूर्व 'ग्व' को 'क' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप रिक्वं सिद्ध हो जाता है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३११ रिस्टो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४० में की गई है। सक्षः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप रितखो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४० से 'भू' की __र; २.३ से 'क्ष' के स्थान पर 'रस' की प्राप्ति, २-८८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'स्व ख' की प्राप्ति; २-६० से माप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर रिक्खो रूप सिद्ध हो जाता है। - क्षिप्तम संस्कृन विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप छूटं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से संपूर्ण 'क्षिप्त' के स्थान पर 'बूद' का आदेश; ३-२५ में पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्ध रूप सिद्ध हो जाता है। वक्षः संस्कृत रूप है ! इसका प्राकृत रूप रुखो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से 'वस' के स्थान पर 'रुख' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रुकवा रूप मिद्ध हो जाता है। - - - छूढो रूप को सिद्धि इसी सूत्र से ऊपर कर दी गई है। अन्तर इतना सा है कि ऊपर नपुसकात्मक विशेषण है और यहाँ पर पुलिंबगात्मक विशेषण है । अतः सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्झिा में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छूढो रूप मिद्ध हो जाता है ॥२.१६॥ क्षण उत्सवे ॥२-२०॥ पण शब्दे उत्सवाभिधायिनि संयुक्तस्य बो भवित ! कणो ॥ उत्सव इतिकिम् । खयो । अर्थः--क्षण शब्द का अर्थ जब 'उत्सव' हो तो उस समय में क्षण में रहे हुए संयुक्त प्यान '' फा 'छ' होता है । जैसे:-क्षणः = ( उत्सव ) -छणो 11 प्रश्नः-मूल-सूत्र में 'उत्सव' ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तरः-~क्षण शब्द के संस्कृत में दो अर्थ होते हैं। उत्सव और काल-बाचक सूक्ष्म समय विशेष । अत: जब 'क्षण' शब्द का अर्थ उत्सव हो तो उस समय में 'क्ष' का 'छ' होता है एवं जब 'क्षप्प शब्द का अर्थ सूक्ष्म काल वाचक समय विशेष हो तो उस समय में 'क्षण' में रहे हुए 'न' का 'ख' ोता है। जैसे:'क्षण: (समय विशेष )-खायो || इस प्रकार की विशेषता बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में उत्सव' शम्म जोड़ा गया है। Mp4 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] * प्राकृत व्याकरण क्षणः (उत्सव) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप छणो होता है। इस में सूत्र-संख्या २-२० से संयुक्त व्यन्जन 'द' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारा. न्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छणों रूप सिद्ध हो जाता है। क्षणः (काल वाचक) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप खणो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खणो रूप सिद्ध हो जाता है । २-२० ।। ह्रस्वात् थ्य-श्व-स-प्सामनिश्चले ॥२-२१॥ हस्वात् परेषां थ्य श्च स प्सां छो भवति निश्चले तु न भवति ।। थय । पच्छ । पच्छा । मिच्छा ॥ श्च । पच्छिम । अच्छेरं । पच्छा ॥ स । उच्छाहो । मच्छलो । मच्छरो । संवच्छलो। संवच्छो । चिइच्छह || प्स | लिच्छइ । जुगुच्छह । अच्छरा । द्वस्वादिति किम् । ऊसारियो । अनिश्चल इति किम् । निश्चलो । आर्षे तथ्ये चो पि । तच्चे ॥ . . अर्धः-यदि किसी शब्द में इस्त्र स्वर के बाद में 'थ्य; श्च; स; अथवा प्स में से कोई एक श्रा जाय, तो इनके स्थान पर 'छ' को प्राप्ति होती है। किन्तु यह नियम 'निश्चल' शब्द में रहे. हुए 'श्च' कं लिये नहीं है। यह ध्यान में रहे । 'थ्य' के उदाहरघा इस प्रकार है:-पथ्यम-परछं । पथ्या-पच्छा ।। मिथ्या मिच्छा इत्यादि । 'श्च' के उदाहरण इस प्रकार हैं:-पश्चिमम् पच्छिमं। आश्चर्यम् अच्छे । पश्चात-पच्छो ।। 'स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:-उत्साहो उच्चाहो । मत्तर: अच्छतो अथवा मच्छरो। संवत्सरः-संवच्छलो अथवा संवच्छरो । चिकित्मति-चिइच्छइ ।। 'प्स' के उदाहरण इस प्रकार हैं:-लिप्सते लिच्छह ।। जुगुप्सति-जुगुच्छह ।। अप्सरा-अच्छरा । इत्यादि ।। प्रश्नः-स्व स्वर' के पश्चात हो रहे हम हों तो 'थ्य'. 'श्च' 'स' और 'रस' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति होती है। ऐसा क्यों कहा गया है ? ___ उत्तरः-यदि 'भ्य, श्च, त्स और रस दीर्घ स्वर के पश्चात रहे हुए हों तो इनके स्थान पर 'छ' की प्राप्ति नहीं होती है। अतः 'हस्व स्वर' का उल्लेख करना पड़ा। जैसे:-उत्सारित ऊसारिओ । इस उदाहरण में प्राकृत रूप में 'ऊ' दीर्घ स्वर है; अतः इसके परवर्ती स' का 'छ' नहीं हुआ है । यदि प्राकृत रूप में इस्व स्थर होता तो 'न्स' का 'छ हो जोता। प्रश्न:-'निश्चल' शब्द में हस्व स्वर 'इ' के पश्चात् हो 'श्च' रहा हुश्रा है तो फिर 'श्व के स्थान पर प्राप्तव्य'छ' का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर:-परम्परागत प्राकृत साहित्य में निश्चलः संस्कृत शब्द का प्राकृत रूप "निश्चतो' ही उप Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [३१. सेजा। 'य' के उदाहरणः-भार्या भजजा । सूत्र-संख्या :-१७ से भार्या का भरिया रूप भी होता है। फार्यम्-कज्ज । वर्षम्बज । पर्यायः-पज्जायो । पर्यामम्-पज्जत्तं और मर्यादा मज्जाया ।इत्यादि मधम संस्कृत रूप है। इसका प्रावृत रूप मज्ज होता है । इसमें सूत्र-संख्या ६.४ से संयुक्त व्यजन 'ए' के स्थान पर 'अ' की प्रामि; -1 से प्राप्त 'ज' का हिस्व 'जज'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्वार होकर मज रूप सिद्ध हो जाता है। अवद्यम संस्कृत रूप है। इसका प्रावृत रूप होता है। इसमें सूत्र-संख्या :-२४ से मंयुक्त व्यम्जन 'घ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ६-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'जज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बच्चन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अवज्ज रूप सिद्ध हो जाता है । खेको रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४८ में की गई है। युतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जुई होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४ से संयुक्त मजन 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हरव स्वर 'द' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्रारित होकर जुई रूप सिद्ध हो जाता है। .. योतः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जोश्रो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २२४ से संयुक्त व्यजन 'ए' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जोभो रूप सिद्ध हो जाता है। . . जय्य संस्कृत विशेषण रूप है । इस का प्राकृत रूप जजो होता है । इम में सूत्र-संख्या -४ से संयुक्त व्यञ्जन 'व्य के स्थान पर. 'ज' को प्राप्तिः २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति छोकर जज्जी रूप सिद्ध हो जाता है। संज्जा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५७ में की गई है। . भार्या संस्कृत रूप है । इसक प्राकृत रूप मजा होता है। इस में सूत्र-संख्या १-८४ से 'मा' में स्थित दोर्म स्वर 'श' को 'न' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त ध्य-जन के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-८६ से प्राम 'ज' को द्विन्व 'ज्ञ' की प्राप्ति होकर मजा रूप सिद्ध हो जाता है। ... ... .. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] * प्राकृत व्याकरण * - भार्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत में वैकल्पिक रूप भारिश्रा होता है। इसमें सूत्र-संख्या६-१-७ से संयुक्त व्यजन 'य' के '२' में 'इ' को Fili, और ६.१५४ से ' को हो मारिआ रूप सिद्ध हो जाता है। सज्ज और सज्जं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८७ में की गई है। पर्यायः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पज्जाश्रो होता है। इसमें मूत्र-संख्या २.२४ से संयुक्त रन्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ मे द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन मे अकारान्त पुल्लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर ‘ो ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पज्जाको रूप सिद्ध हो जाता है। · पर्याप्तम् संस्कृत रूप है। इसघा प्राकृत रूप पज्जत्त होता है। इस में सुत्र संख्या २.५४ से संयुक्त व्यन्जन 'ये' के स्थानपर 'ज' की प्राप्ति; .८ से प्राप्त 'ज' को द्वित्त्र 'जज' की प्राप्ति, १.८४ से दोघस्वर 'प्रा' के स्थानपर 'अ' की प्राप्ति; २-७७ से द्वितीय हलत 'प् का लोप; २.८६ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पज्जतम् रूप सिद्ध हो जाता है। मर्यादा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मज्जाया होता है । इस में सूत्र-संख्या -२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'X' के स्थान पर 'ज' की प्रामि २-८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज की प्राप्ति; १-१७७सेच का लोप और १-१८० से लोप हुए 'द' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति होकर मजाया रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२४॥ अभिमन्यौ ज-जो वा ।। २-२५ ॥ अभिमन्यो संयुक्तस्य जो जश्च वा भवति ।' अहिमज्जू । अहिमज । पचे अहि मन्नू ॥ अभिग्रहणादिह न भवति । मन्नू ॥ अर्थ:-'अभिमन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' और 'ख' की प्राप्ति होती है । इस प्रकार 'अभिमन्यु' संस्कृत शब्द के प्राकृत रूप तीन हो जाते है जो कि इस प्रकार हैं:-अभिमन्युः अहिमज्जू अथवा अहिमब्जू अथवा अहिमन्नू ॥ मूल-सूत्र में 'अभिमन्यु लिखा हुआ है। अत: जिस समय में केवल 'मन्यु' शब्द होगा; अर्थात् 'अभि' उपसर्ग नहीं होगा; तब 'मन्यु' शब्द में रहे हुए संयुक्त ध्यजन 'न्य' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-२५ के अनुसार क्रम से 'ज' अथवा 'ब्ज' की प्राप्ति नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि 'मन्यु' शब्द के साथ में 'अभि' उपसर्ग होने पर ही संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर 'ज' अथवा 'ज' की प्राप्ति होती है; अन्यथा नहीं । जैसे:मन्युः मन्नू॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [३१३ __ अभिमन्युः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत में तीन रूप होते हैं:- हिमज्जू, अमित और अहिमन्नू ।। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-५८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यन्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से 'ज' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'जको द्वित्व 'ज' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उफारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य द्वस्व स्वर 'उ' को दीघ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अहिमज्जू सिद्ध हो जाता है। द्वित्तीय रूप में सूत्र-संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-२५ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य के स्थान पर विकास ले अ' की सि, और प्रथमा विभागिय के एक वरन में प्रथम रूप के समान ही सानिका की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अहिमत भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप अहिमन्नू की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४३ में को गई है। मन्युः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मन्नू होता है । इसमें सूत्र संख्य २.४८ से 'य' का लोप; २-८६ से रह हुए 'न' को द्वित्व 'न्न्' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर की प्राप्ति झेकर भन्न रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२५ ॥ साध्वसन्ध्य-ह यां-भः ॥२-२६॥ साध्वसे संयुक्तस्य ध्य-हययोश्च झो भवति ।। सज्झर्स ।। ध्य। वज्झए । भाखं । उवभाओ। सज्मात्री समझ विमो हिय । सज्मो मज्म ।। गुज्झ । र ज्झइ । अर्थ:-'साध्वम' शान में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'व' के स्थान पर 'झ' को प्राप्ति होती है। जैसे:-माघसम्-सजसं । इसी प्रकार जिन शब्दों में संयुक्त ज्यजन 'भ्य' होना है अथवा 'ह्य होता है; सो इन संयुक्त व्यजन 'ध्य' के स्थान पर और 'ह्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति होती है । जैस:-'ध्य' के उदाहरण इस प्रकार है:-वभ्यते वझर । ध्यानम्-झाए । उपाध्यायः-उबझाओ ! स्वाध्यायः सम्झायो। साभ्यम् - सज्झं और विंध्या=विझो । 'ह्य' के उदाहरण इस प्रकार :- मह यः-सझो । महा = मझ। गुह्यम् गुज्झ और नाति–णझर इत्यादि ।। साखसम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मझम होना है। इसमें सूत्र-संख्या ४ से दीर्घस्वर 'या' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त म्यजन ८' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'म झ' की प्राप्ति; २० से प्राप्न पूर्व ' को 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर सासं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१०] * प्राकृत व्याकरण करते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप वझर होता है । इसमें सूत्रसंख्या २-२६ से संयुक्त ध्यञ्जन 'भ्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व क झ' की प्राप्ति; ६.६० से प्राप्त पूर्व 'क' को 'ज' की प्राप्ति और ३-५३६. से यतमान काल के प्रथम पुरुष के एक पचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में ' प्रन्यय की प्राप्ति होकर वार रूब सिद्ध हो जाता है। ध्यानम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप माणं होता है । इसमें सुत्र-संख्या २-२६ से संयुका व्यञ्जन 'भ्य' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ण ; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के। क वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर झाणं रूप सिद्ध हो जाता है। उषज्झाओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७३ में की गई है। स्वाध्यायः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सज्माश्रो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से से अथवा २.से 'व' का लोप; १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति, २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर 'झ' को प्राप्ति; ८ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'झम' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' पत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सज्झाओ रूप सिद्ध हो जाता है। • साध्यम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सम्म होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से प्रथम दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २.२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'भ्य' के स्थान पर 'झ' को प्राप्ति *म से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'झम' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; म.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्ययकी प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर सज्ज्ञ रूप सिद्ध हो जाता है। विध्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विमो होता है। इसमें मूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त यजन 'भ्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; १-३० से अनुस्वार को 'म' वर्ण अागे होने से 'अ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विमो रूप सिद्ध हो जाता है। सधः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सम्झो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से संयुक्त म्यञ्जन 'घ' के स्थान पर 'झ' प्राप्ति; २-5 से प्राप्त 'झ' को द्वित्य झाझ की प्राप्ति; २-० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; और ३- से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यम की प्राप्ति होकर सम्झो रूप सिद्ध हो जाता है। . ... Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३२१ मह्यम् संस्कृत मर्वनाम 'अस्मद् का चतुय॑न्त रूप है । इमका रूप मज्म होता है । इसमें सूत्र मंख्या २.२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्य के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व झझ' की प्राप्ति; २..० से प्राप्त पूर्व 'भा' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ।-२३ में अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर मझं रूप सिद्ध हो जाता है । - गुह्यम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप गुज्झ होता है । इसमे सूत्र-संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्चन ह्य के स्थान पर 'क' की प्राप्तिः २८ से प्राप्त 'भ' को द्वित्वं 'झ' की प्राप्ति, २.९० से प्राप्त पूर्व झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक बचन मे अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गुज्झं रूप सिद्ध हो जाता है। माति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का म.प है । इसका पाकृत रूप रणमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' का 'ग'; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति २-८ से प्राप्त 'झ' को द्वित्व ' म' की प्रामि; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; और ३-६३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणज्झाइ रूप मिद्ध हो जाता है। . वजे वा ॥२-२७॥ ध्वज शब्दे संयुक्तस्य भो या भवति ॥ झो धो ।। अर्थः- 'बज' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च' के स्थान पर विकल्प से 'झ' होता है । जैसे:-ध्वजः-झओ अथवा धाम ध्यजः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप झनो और धथी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-२७ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से 'झ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'ज' का लोप और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप झओ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप धयों में २-७६ से 'ब' का लोप और शेष तानिका प्रथम रुप के समान ही होकर द्वितीय रूप धो भी सिद्ध हो जाता है। ॥२-२७ ॥ । इन्धौ मा ॥२-२८ ।। . इन्धी धाती संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति ॥ समिज्झाइ । विल्झाइ ।। 5. अर्थः–'इन्ध' धातु में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्यू ' के स्थान पर 'झा' का आदेश होता है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] * प्राकृत व्याकरण * जैसे:-समिन्धते-समिज्माइ । विन्धरे विज्झाइ ॥ समिन्धने अकर्मक किया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप समिज्माई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध' के स्थान पर 'झी' श्रादेश की प्राप्ति; - से प्राण 'झ' को द्वित्व 'झ झ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'झ' को 'ज' की प्राप्ति और ३-१६६ के वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में ई प्रत्यय की प्राप्ति होयर समिक्षा र सिद्ध होता है। विन्धत संस्कृत अकर्मक क्रिया यद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विज्झाइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या २-२८ से संयुक्त व्यञ्जन 'ध' के स्थान पर 'भा' श्रादेश की प्राप्ति, २-- से प्राप्त 'झ' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति २-० से प्राप्त पूर्व 'झ'को 'ज्' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकन में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिज्झाइ रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२-२८ ॥ वृत्त-प्रवृत्त-मृत्तिका-पत्तन-कर्थिते टः ॥ २-२६ ॥ एषु संयुक्तस्य टो भवति ॥ वट्टो । पयट्टो । मट्टिा । पट्टणं । कयट्टियो । अर्थ:-वृत्त, प्रवृत्त, मृत्तिका, पत्तन और कर्थित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यजन त' के स्थान पर और 'ई' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:-वृत्तः-वट्ठी । प्रवृत्तः पयट्टो । मृत्तिका महिआ । पत्तनम-पट्टणं और कर्थित:-कवट्टिो ।। वृत्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वट्टो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१.६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बट्टो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रवृसः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पयट्टो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'थ' को 'य' की प्राप्ति २.२४ से संयुक्त व्यम्जन 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; २-६ से प्राप्त 'ट' को द्विस्व '' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा यिभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है। मुक्तिका संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मट्टिा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से '' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; २-२६ से संयुक्त व्यन्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८४ से Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३२३ प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट' की प्राप्ति: और १-१७७ से 'क' का लोप होकर मट्टिा रूप सिद्ध हो जाता है। पत्तनम संस्कृत रूप है। इसका प्रावत रूप पट्टणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-२६ से संयुक्त व्यञ्जन 'त्त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' कर 'ण'; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर पट्टणं रूप सिद्ध हो जाता है। कवष्टियो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 1-77४ में की गई है। ॥२६॥ तस्यातादौ ॥ २-३०॥ तस्य टो भवति धृतोदीन् वर्जयित्वा ॥ केवट्ठी । बट्टी । जट्टो। पयट्टा ॥ वट्टले । काय बट्टयं । नट्टई । संवष्टि । अधूर्तादाविति क्रिम् । धुत्तो । कित्ती । बत्ता। आवत्तणं । निवक्षणे । पयत्तस्यं । संवत्तणं । श्रावत्तमओ। निवत्तो । निव्वत्तो । पवत्त। संवत्तो । धत्तिया । चचियो । कचियो । उपकत्तियो । कारी । मुत्ती । मुनो । महतो ।। बहुलाधिकाराद् धट्टा ॥ धूर्त । कीर्ति । वार्ता । श्रावर्तन । निवर्तन । प्रचत्तंन । संवर्तन । आवर्तक । निवतक । निर्वर्तक । प्रवर्तक । संवर्तक । यतिका । वार्तिक । कार्तिक । उत्कर्तित । कर्तरि । मूर्ति । मूर्त । मुहूर्त इत्यादि । अर्थ:-धूर्त श्रादि कुछ गक शब्दों को छोड़कर यदि अन्य किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'त रहा हुआ हो तो इस संयुक्त व्लन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है। जैसे:-फेवतः केवट्टो । पतिः वट्टी । अतः जट्टो । प्रवर्तते-पयट्टइ । वर्तुलम्वट्टलं । राज-वर्तकम-राय-बट्टयं । नर्शको नट्टई : संघर्तितम्-संवट्टिया प्रश्नः-'धूर्त' श्रादि शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'त' की उश्रिति होते हुए भी इस संयुक्त व्याजन 'त के स्थान पर प्राम होने योग्य 'र' का निबंध चयों किया गया है. ? अर्थात् 'धूर्त आदि शब्दों में स्थित संयुक्त व्यन्जन 'त' के स्थान पर '' प्राप्ति का निषेध क्यों किया गया है । उत्तरः- क्यों कि धूर्त आदि अनेक शब्दों में स्थित संयुक्त व्यन्जन 'त' के स्थान पर परम्परा से अन्य विकार-श्रादेश-आगम-लोप श्रादि की उपलब्धि पाई जाती है; अतः ऐसे शब्दों की स्थिति इस सूत्र-संख्या २-३० से पृथक् ही रवायी गई है। जैसे:-धूर्त: धुतो । कीर्ति: कित्ती । वार्ता = वशा। आवर्तमम् श्रावणं । निवर्तनम - नियत्तणं । प्रवर्तनम्-पवत्तणं । संघर्तनम् संवत्तणं । आवर्तकःश्रावत्तो । निवर्सका निवत्तो । निर्वतका निम्वत्तओ । प्रवर्तकः पवत्तश्रो । संवर्तकः = संवत्तो । पर्तिका वत्तिया । वार्तिका वप्तिो । कार्तिकः = कत्तिो । उत्कर्तितः = उफ्फपिओ। कतरिः = कत्तरी (अथवा कर्तरीः= कत्तरी )। मूर्तिः=मुखी । मूर्तः = मुत्तो । और मुहूर्तः = मुटुत्तो ॥ इत्यादि अनेक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] प्राकृत व्याकरण * शब्दों में संयुक्त व्यस्खन त के होने पर भी उनमें सूत्र संख्या २-३० के विधान के अनुसार 'द' को प्राप्ति नहीं होती है । बहुलाधिकार से किसी किसी शरद में दोनों विधियाँ पाई जाती हैं । जैसे 'वार्ता का 'घट्टा' और 'वत्ता' दोनों रूप उपलब्ध हैं । यो अन्य शब्दों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिये ।। कैवर्तः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घट्टो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४८ से ऐ के स्थान पर 'र' की रित; २.६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २.८८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वथन में अकारान्त पुल्लिंग में fम' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर के पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है । वर्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घट्टी होता है। इसमें सूत्र-मंख्या :-३० से संयुक्त व्यसन 'त' के स्थान पर 'द की प्राति -८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व '४' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्त्ति के एव. वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में सिंहाय के स्थान पर अन्य हरव स्वर 'इ को दार्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर पट्टी रूप सिद्ध हो जाता है। जतः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यसन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-8 से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान मे अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जट्टो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रवर्तते संरवृत अकर्मक किया पद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पयट्टइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-६ प्रथम 'र' का लोप: १-१४४ से 'व.' का लोप; १-१८० से लोप हुए '' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्याजन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'ट्ट की प्राप्ति; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पयह रूप सिद्ध हो जाता है। पर्नुलम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप वट्टल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; - से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ह' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर पददुलं रूप सिद्ध हो जाता है। राज-धातकम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गयवट्टयं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'ज' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; १-८४ से 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; २-३० से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; १-८८ से 'ति' के स्थान पर पूर्वानुसार प्राप्त ट्टि में स्थित 'इ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' में से शेष Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३२५ रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राय-पट्टयं रूप सिद्ध हो जाता है। नर्तकी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नट्टई होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त च्यञ्जन 'तं के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ट' को द्विन्द 'दृ' को प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप होकर नई रूप सिद्ध हो जाता है। संवर्तितम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृन रूप संवट्टि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति :-८६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' को प्राप्ति; 1-१७७ से द्वितीय त्' का लोप; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के थक ववन में अकारान्त नपुमकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर संवट्टिभ रूप सिद्ध हो जा है। धुत्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७५ में की गई है। कीर्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कित्ती होता है । इममें सूत्र संख्या १-८८ से 'की' में स्थित दीघस्वर 'ई' के स्थान पर हरव स्वर 'इ' की प्राप्तिः -७६ मे 'र' का लोप २-८ मे 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त श्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर कित्ती रूप सिद्ध हो जाता है। पार्ता संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बत्ता होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६४ से 'वा' में स्थित 'या' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-७६ से 'र' का लोप और २-८८ से लोप हुए 'र' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति होकर वत्ता रूप सिद्ध हो जाता है। आवर्तनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप आवत्तणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः २-म से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ग'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से पाप्त 'म' का अनुस्वार होकर आपत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। निषर्तनम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निवत्तर्ण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'र' फा लोप -८८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्तिः १-२२८ से 'न' का 'ग'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से माप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पवत्तणं होता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-5 से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' में स्थित 'र' का-दोनों का लोप:२-६ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १.२२से Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] 'न' का 'ण'; ३-६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ऋकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पवत रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण संवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संरक्षण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७३ से ' र ' का लोए; २-८६ से 'ल' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-२२५ से 'न' का 'ण'; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर संवत्तर्ण रूप सिद्ध हो जाता है। आवर्तकः संस्कृत विशेष रूप है। इसका रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप २०८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राि होकर आवत रूप सिद्ध हो जाता है । निवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप निवत्त होता है। इसमें सूत्र- संख्या २.७६ से 'र' का लोप; २-८६ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'कू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निवृत्त रूप सिद्ध हो जाता है । निर्वतर्कः संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकृत रूप निव्वत्तश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'व' पर स्थित 'र' का तथा 'त' पर स्थित 'र' का - दोनों का लोप २-८६ से 'व' का द्वित्व तथा 'त' का भी द्वित्व; दोनों को द्वित्व की प्राप्तिः १-७७ से 'क' लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निव्यत्त रूप की सिद्धि हो जाती है । प्रवर्तकः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पत्रत होता है। इसमें सूत्र - संख्या २-७६ से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' पर स्थित 'र' का दोनों 'र' का -लोपः २८६ से 'त' का द्वित्व 'त'; १- १७७ से 'कू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर यवत्त रूप सिद्ध हो जाता है । संवर्तकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संशय होता है। इस में सूत्र संख्या २२७६ से 'र' का लोप २-८६ से 'त'को द्वित्व 'त' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'थो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संपत्त रूप सिद्ध हो जाता है। वर्तिका संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप वशिश्रा होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र' का लोप; २-८६ से 'त' को द्वित् 'त' की प्राप्ति और १-१७७ से 'कू' का लोप हो कर पत्तिया रूप सिद्ध हो जाता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित . [ ३२७ सार्तिकः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप वत्तिो होता है । इस में सूत्र-संख्या १-८५ से 'पा' में स्थित दीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर 'श्र की प्रामिः २-७६ से 'र' का लोप, २-८८ से 'स' को द्वित्व 'श' की प्राप्ति; ५-१७७ से 'छ का लोप और ३-२ में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के पान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वार्तमो रूप सिद्ध हो जाता है। कार्तिकः संस्कूल ब सका प्राकृत रूप कत्तिो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'का' . पित दीघ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-5 से 'र' का लोप; २-८६ से 'त' को द्वित्वत्त' को प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कत्तिओ रूप सिद्ध हो जाता है। उत्पर्सितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसको प्राकृत रूप उक्कत्तिो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ६-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' का लोप; २-16 से 'क' को द्वित्व 'क' की प्रालि, २-० से 'र' का लोप, - सेलोपहुए 'ब' में से शेष बचे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्तिः १-१७७ से अंतिम 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक घचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रानि होकर उपकत्तिओ रूप सिद्ध हो जाता है। कर्तरी संस्कृत रूप है। इसका प्राप्त रूप कत्तरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप और २-८८ से 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति होकर कत्तरी रूप सिद्ध हो जाता है। मतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुत्ती होता है । इममें सूत्र-संख्या १-८४ से दोष स्वर '3' के स्थान पर सस्य स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर मुत्ती रूप सिद्ध हो जाता है। मूर्तः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप मुत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'क' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७६ से र' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुतो रूप सिद्ध हो जाता है। सुहूर्तः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुहुत्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'हू' में स्थित दीर्घ स्वर '' के स्थान पर हरक स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-४ से 'र' का लोप; २.८८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति मौर ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुहुत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। . बार्ता संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बट्टा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से 'बा' में * स्थित दीर्घ स्वर 'अर' के स्थान पर हस्थ म्बर 'म की प्राप्तिः २.३० से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ * प्राकृत व्याकरण * 'ट' का श्रादेश और २-६६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्त्व '' की प्राप्ति होकर वट्टा रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-३ ॥ ... वृन्ते रदः ॥२-३१॥ .. श्रन्ते संयुक्तस्व एटो भवति ।। वेण्ट । ताल वेण्टं ॥... को . अर्थः-वृन्त शब्द में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'न्त' के स्थान पर 'ट' की प्रालि होता है । जैसे - वृन्तम्-येण्द और ताल-वृन्तम्-ताल-वेण्टं || वेण्ट रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में की गई है। - ताल-पेण्ट रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ?-६७ में की गई है। ।२३१ ॥ ठो स्थि-विसंस्थुले ॥२-३२ ॥ - अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति ।। अट्ठी । विसंठुलं ॥ अर्थः-अस्थि और विसंस्थुल शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्या-जन 'स्य' के स्थान पर '' की प्राप्ति होती है । जैसे:-अस्थिः अट्ठी और विसंस्थुलम् विसंतुलं ।। अस्थि: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अट्ठी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर ठ की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ळ' की प्रामि; २-६० से प्राप्त पूर्व '' को 'द' की प्रारित और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्र इकारान्त स्त्रो लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्ष पर 'ई' को प्राग्नि होकर अट्ठी रूप सिद्ध हो जाता है। विसंस्शुलम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विसंतुल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३२ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्थ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर विसंतुलं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-३२॥ स्त्यान-चतुर्थार्थे वा ॥२.३३॥ एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति ॥ ठीणं थी : चउट्ठी । अट्टो प्रयोजनम् । अत्थो धनम् ।। अर्थ:-'स्त्यान' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यन्जन 'स्त्य' के स्थान पर विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'चतुर्थ' एवं 'अर्थ' में रहे हुए संयुक्त व्यजन '' के स्थान पर भी विकल्प से '' की प्राप्ति होती है, जैसे:-स्त्यानं ठीण अथवा थीणं ॥ चतुर्थः-चट्ठो अथवा चउत्थी ।। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३२६ अर्थः-अ अथवा अत्थो । संस्कृत शब्द 'अर्थ' के दो अर्थ होते है । पहला अर्थ 'प्रयोजन' होता है और दूसरा अर्थ 'धन होता है। तदनुसार 'प्रयोजन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप होता है और 'धन' अर्थ में प्रयुक्त संस्कृत रूप 'अर्थ' का प्राकृत रूप 'अस्थी' होता है । यह ध्यान में रखना चाहिये । dri और थी दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में को गई है। रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७१ में को गई है। अर्थः - संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ( प्रयोजन अर्थ में ) अट्ठो होता है। इसमें सूत्र संख्या २०३३ से संयुक्त व्यञ्जन 'र्थ' के स्थान पर विकल्प से 'ठ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व ठ्ठ की प्राप्ति २६० प्राप्त पूर्व 'ठ' को 'ट' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर अठो रूप सिद्ध हो जाता है । अर्थ:-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप (घन अर्थ में ) अथ होता है। इसमें सूत्र संख्या .२-७६ से 'र' का लोप; २-८६ से 'थ' को द्वित्व 'यूथ' की प्राप्ति २६० से प्राप्त पूर्व 'थ को 'तू' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचत में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'थो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अत्थो रूप सिद्ध हो जाता है । ष्टस्यानुष्ट्र संदष्टे ॥ २-३४ ॥ उष्ट्रादिवर्जितेष्टस्य ठो भवति || लड़ी। मुट्ठी । दिट्ठी । सिट्ठी । पुट्ठो । कट्ठे | सुरट्ठा | इट्ठो | अणिट्ठ' । अनुष्ट्रष्टासंदष्ट इति किम् । उट्टी । इङ्का चुण्यं व्व । संदो ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द उम्र, इष्टा और संदष्ट के अतिरिक्त यदि किसी अन्य संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' रहा हुआ हो तो उस संयुक्त व्यञ्जन ' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है। जैसे:--लष्टि: = लट्ठी । मुष्टि:- मुट्ठी दृष्टि: -- दिट्ठी | सृष्टि-सिट्ठी । पृष्ट: पुट्ठो | कष्टम् = कटुं । मुराष्ट्रा:- सुरट्ठा | इष्टः= इट्ठो और श्रनिष्टम् = आणिट्ठे | प्रश्नः - 'उष्ट्र, इटा और संदष्ट' में संयुक्त जञ्जन 'ष्ट' होने पर भी सूत्र संख्या २-३४ के अनुसार '' के स्थान पर प्राप्तव्य 'ठ' का निषेध क्यों किया गया है ! उत्तरः——क्योंकि ‘उष्ट्र', 'इष्टा' और 'मंत्र' के प्राकृत रूप प्राकृत साहित्य में अन्य स्वरूप वाले पाये जाते हैं; एवं उनके इन स्वरूपों की सिद्धि अन्य सूत्रों से होती है; 'ठ' की प्राप्ति का इन रूपों के लिये निषेध किया गया है। जैसे:- उ aria | और संदष्टः संदही ॥ लठ्ठा रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-२४० में की गई है। अतः सूत्र संख्या २-३४ से प्राप्तव्य उट्टी । इष्टा- चूर्णम् इव इट्टा - '' Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] * प्राकृत व्याकरण र र मुष्ठिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मुट्ठी होता है। इसमें सूब-संख्या २.३४ से 'ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राति; २-८६ से प्रात 'ठ' को द्वित्व 'ठ' को प्राप्ति, २.६० से प्राप्त पूर्व 'ठ्' को 'ट् की प्राति और ३-१६ से प्रथमा विनक्ति के एक वचन में हस्व इकारान्त में 'सि'प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति हो कर मुठी रूप सिद्ध हो जाता है। दिट्टी और सिठ्ठा रूपों को मिद्धि सूत्र-संख्या १-१२८ में की गई है । ५प्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत स्वाप पुट्ठो होता है । इम में सूत्र-मखया -१३१ से '' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ट' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठठ की प्राप्ति; २-६७ में प्राप्त पूर्व 'ठको 'द' को प्रामि और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर युटठो रूप मिद्ध जाता है। कष्टम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कळं होता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-३४ से मंयुक्त न्यजन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'छ' की प्रापि, २-से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर करठं रूप मिद्ध हो जाता है। मुराष्ट्राः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप सुरवठा होते हैं। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से 'रा' में स्थित दीर्घस्वर 'श्रा' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'प्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति: ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्जिग में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त होकर लुम हुए 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घस्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर सुरठा रूप सिद्ध हो जाता है। इष्टः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप इटठो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३४ से संयुक्त व्यन्जन 'ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति, २.८६ से प्राप्त को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पर्व '' को 'ट्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक धचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इदठी रूप सिद्ध हो जाता है। ___ अनिष्टम् संस्कृत विशेषण है। इसका प्राफूत रूप अणिछे होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८. से 'न' का 'ग'; २-३४ से संयुक्त. व्यन्जन 'ष्ट' के स्थान पर '४' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त '' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति; २-१ • से प्राप्त पूर्व '' को 'द की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर आणिदलं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : : *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३३१ उष्ट्रः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उट्ठो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'प' का लोप; २-5 से 'र' का लोप; २.८६ से 'ट' को द्विस्य '' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उठो रूप सिद्ध हो जाता है। इष्टा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इट्टा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २७७ से 'ए' का लोप और २-1 से 'ट' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति होकर इट्टा रूप सिद्ध हो जाता है। चूर्ण संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चुण्णं होता है । इममें सूत्र-संख्या १-४ से दीर्घस्वर 'ऊ' के स्थान पर हात्र स्वर 'उ' की प्राप्ति; २-६ से 'र' का लोप; २८६ से 'ण' को द्वित्व 'एण' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर चुण्णं रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या ५-६ में की गई। संदृष्टः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप संदट्टो होता है । इस में सूत्र-मंख्या २-४७ से 'ए' का लोप; २-८८ से 'ट' को द्वित्व 'दृ' को प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्जिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर संदृष्टो रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-३४ ।। गर्ने डः ॥२-३५ ॥ गर्स शब्दे संयुक्तस्य डो भवति । टापवादः ॥ गड्डो । गड्डो ।। अर्थः - 'गर्त' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर '' की प्राप्ति होती है । सू* संख्या २-३८ में विधान किया गया है कि 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति होती है; किन्तु इस सूत्र में 'गत' शब्द के संबंध में यह विशेष नियम निर्धारित किया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति नहीं होकर 'ड' की प्राप्ति होती है; अतः इस नियम को सूत्र-संख्या २-३० के विधान के लिये अपवाद रूप निषम समझा जाय । उदाहरण इस प्रकार है:-गतः = गड्डो ।। गताः = गड्डा ।। गबडो और गडा रूपों की सिद्धि सुत्र संख्या ५-३५ में की गई है ।। २-३५ ।। संमद-वितर्दि-विच्छद च्छर्दि-कपर्द-मदिते-दस्य ॥ २-३६ ॥ एषु दस्य डत्वं भवति ॥ संमड्डो । विप्रड्डी । विच्छड्डो । छह । छड्डी । कबड्डो । मड्डिओ संमहिो। . अर्थ:--'समई', वित्तर्वि, बिच्छर्द, छ, कपर्द और मर्दित शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन है के स्थान पर 'द' की प्राप्ति होती है । जैसे:- संमदः = संमड्डो। वितर्दिः =विअड्डी । विच्छदः = Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] * प्राकृत व्याकरण * बिच्छदृडो । पछिट्टी । कपर्दः = कवड्डो। मर्दितः = मडिडी और समर्दितः = संमड्डियो।। संमर्दः सस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप समज हो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन ई के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; : RE से प्राप्त 'ड' को द्वित्व'ड्ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थानपर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समस्डो रूप सिद्ध हो जाता है। विदिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विअड्डी होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१४४ से "त' का लोप; २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन ई के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २.१६ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'दृ' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर. 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर विअद्धी रूप सिद्ध हो जाता है। विच्छः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप विच्छङ्को होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २.८८ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिच्छडी रूप सिद्ध हो जाता है। मुञ्चति-(छर्दते !) संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप छहद होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-६१ से 'मुच्' धातु के स्थान पर 'छड लु' का आदेश; (अथवा छर्द, में स्थित संयुक्त भ्यञ्जन 'ई' के स्थान पर २-३६ मे 'ड्र' की प्राप्ति और २-८६ से प्राप्त 'ड्र' को 'द्वित्व' 'इ' की प्राप्ति); ४-२३६ से प्राप्त एवं हलन्त 'ड्रड' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और •३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' (अथवा 'ते') के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छहडइ रूप सिद्ध हो जाता है। छादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप छड़ी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३६ से संयुक्त जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ई' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हत्व इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य इस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर छड्डी रूप सिद्ध हो जाता है। कपः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कवडो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर 'ड' की प्रामि; २-८८ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कवड्डी रूप सिद्ध हो जाता है। मर्दितः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप मडिओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३६ से संयुक्त व्यञ्जन 'द के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २८ से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३३३ से 'त्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मडिओ रूप सिद्ध हो जाता है । संमदितः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत मप समडिओ होता है । इमको सिद्धि उपरोक्त रूप 'मर्दितः = गझिो ' के समान ही जानना ॥ ३.३६ ।। गर्दभे वा ।। २.-३७ ।। गईभे दस्य डो या भवनि । गड्डहो । गद्दहो । अथ:--संस्कृत शठद गईम' में रहे हुए मयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति होती है । गर्दभः-गड्डही और गदही ।। गदभः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप गड्डहो और गदही होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-३७ से संयुगल व्यन्जन 'ई' के स्थान पर विकल्प से 'ड' की प्राप्ति; २-- से प्राप्त 'ड' को द्वित्व 'डड' की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप गडही सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-5 से 'र' का लोप; २.८८ से शेष 'द' को द्वित्व 'ह' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप गदहो भी सिद्ध हो जाता है । २-३७ ।। ___ कन्दरिका-भिन्दिपाले एडः ॥ २-३८ ।। अनयोः संयुक्तस्य एडो भवति || कएउलिया 1 भिण्डियालो । अर्थ:--'कन्दरिका' और 'भिन्दिपाल शनों में रहे हुए संयुक्त व्यन्जन 'न्द' के स्थान पर 'एड' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कन्दरिकाकण्डलिया और भिन्दिपालः= भिगिडवालो ।। कन्दारका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप फण्डलिया होता है । इसमें सुत्र-संख्या २-३८ से मयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर रख की प्राप्ति; १-२५४ से 'र' का 'ल' और १-१६७ से 'क्' का लोप होकर कपडलिआ रूप सिद्ध हो जाता है । भिन्दिपालः संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप भिशिडवालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३८ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्द' के स्थान पर 'एड' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' का 'व' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिडियालो रूप सिद्ध हो जाता है। स्तब्धे ठ-ढौ ॥२-३६॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * स्तब्धे संयुक्तो यथाक्रम टढौ भवतः ।। ठड्रो अर्थ:-'स्तब्ध' शब्द में दो संयुक्त व्यञ्जन हैं , एफ 'स्त' है और दूसरा 'ब्ध है। इनमें से प्रथम संयुक्त व्यकजन 'स्त' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति होती है और दूसरे संयुक्त व्यञ्जन 'ब्ध' के स्थान पर 'तु' की प्राप्ति; होती है जैसे?--स्तव्यः = ठट्टो ।। स्तब्धः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हो इता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३६ से प्रथम संयुक्त राजन 'रत के स्थान पर 'ठ' की मीनिः ६.३६ से द्वितीय संयुक्त व्यजन ध' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति; ६ से प्राप्त '' को द्वित्व 'द ढ' की प्राप्ति ६० से प्रान पूर्व 'ढ' को इ की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उबदी रूप सिद्ध हो जाता है।॥ २-३६ ।। दग्ध-विदग्ध-वृद्धि-वृद्ध ढः ॥२-४० एषु संयुक्तस्य ढो भवति ॥ दडो । विअड्डो । बुट्टी । उड्डा ।। क्वचिन भवति । विद्धकाइ-निरूविअं॥ अथ:- संस्कृत शब्द दग्ध और विदाध में स्थित संयुक्त ध्यान 'ग्धके स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत-शब्द्ध वृद्धि और वृद्ध में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर भी 'ढ' की प्राप्ति होती है । जैसे:--ग्धः = ददो । विदग्ध में विश्रढदो । वृद्धि:- बुड्ढी । वृद्धः= वुड्ढी ।। कमी कभी संयुक्त व्यञ्जन 'द' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्ति नहीं होती है । जैसे:-मृद्ध-कवि-निरूपितम्-विद्धका निरूयिश्यं । यहां पर 'वृद्ध' शरद का 'बुद्ध नहीं होकर 'बिद्ध हश्रा है। थों अन्य शब्दों के संबंध में भी जान लेना चाहिये !! ददी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१७ में की गई है। विदग्धः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत म्य विश्वबढो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'द' का शोषः २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्ध' के स्थान पर 'ढ' की प्रप्ति; ६-८० से प्राप्त '६' को द्वित्व 'ढ' की प्राप्ति; २६ से प्राप्त पूर्व ' को 'इ की मामि; और ३-१ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विअड्ढी रूप सिद्ध हो जाता है। युट्टी और बुढ़ी रूपों की पिद्धि सूत्र-संख्या १-१३१ में की गई है। घिद्ध रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६२८ में की गई है। भारी संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप का होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१५७ से का . Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित : लोप होकर कई रूप सिद्ध हो जाता है । यहाँ पर 'कइ' रूप ममास-ात होने से विभक्ति प्रत्यय का लोप हो गया है। निरूपितम संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप निरूथिनं होता है । इस में सूत्र-संख्या ५-२३१ से 'प' का ब'; १-१७७ से 'त' का लोक ३-२५ से प्रथमा बिनक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसक जिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि के स्थान पर प्राकन में 'म्' प्रत्यय की पापि; और १.२३ से प्रान 'म्' का अनुस्वार होकर निरूविौ रूप सिद्ध हो जाता है । १२ ४० । श्रद्धद्धि- मूर्षिन्ते वा ॥२-४१ ॥ एषु अन्ते वतमानस्य संयुक्तस्य दो का भवति ॥ सड्डा । सद्वा । इड्डी रिद्धी । मुण्डा ! मुद्धा । अड्डे अद्ध॥ अर्थः- संस्कृत शब्द श्रद्धा, श्वद्धि, मू और अध में अन्त में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'द्ध' के स्थान पर अयया च' के मान पर. विलय से 'द' को प्राति होती है । तदनुसार संस्कृन रूपांतर से प्राप्त माकृत रूपान्तर में इनके दो दो रूप हो जाते है । जोकि इन प्रकार हैं:-प्रदा पड़ा अथवा सद्धा चद्धिःइडी भश्रवा रिन्दी । मूर्धा- मुण्ढा अथवा मुद्रा और अर्धम्= पाडू अथवा श्रद्धं । श्रद्धा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मड़ा और सद्धा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-१ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स';"-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यन्जन 'द' के स्थान पर विकल्प से 'द' की प्राप्ति; २-६६ से प्राप्त 'ढ' का द्वित्व 'दृ' को प्राप्ति और २६. से प्राप्त पूर्व 'र'को 'ड' की प्राप्ति हो कर प्रथम रूप सइदा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप की सिदि सूत्र- संख्या -१२ में की गई है। कविः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप इट्टी और गिद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रमख्या १-१३१ से '' के स्थान पर 'इ' को प्रालि २-२१ से अन्त्य संयुक्त व्यन्जन 'द्ध' के स्थान पर विकाप से 'ढ' को राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'द' को द्वित्व हा की प्राप्ति २.६० से प्राप्त पूर्व 'द' को 'ह' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रयमा विभक्ति के एक वचन में हस्व हकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य हुस्वस्वर 'ई' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्रारित होकर प्रथम रूप दही सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप रिद्धी की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१८ में की गई है। अर्धा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मुण्ढा और मुडा होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-२४ से दीर्घ स्वर '3' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति; १-२६ से प्रथम स्वर 'ज' के पश्चात् मागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति, २-४१ से अन्त्य संयुक्त व्यजन '' के स्थान पर विकल्प से 'द' की प्राप्ति और १-३- से श्रागम रूप से प्राप्त अनुस्वार के अागे 'द' होने से ट धर्म के पञ्चमोतर रूप Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * '' की प्राप्ति होकर मुण्डा रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप मुद्धा में सूत्र-संख्या १-८४ से दांघ स्वर 'के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्रापि २-६ से 'र' का लोप; २.६६ से शेप 'ध' को द्वित्व 'धय' की प्रामि और २.६.० से पाभ पूर्व ध्' को 'द' की प्राप्ति होकर मन्द्रा रूप सिद्ध हो जाता है। अधम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अड्डे और अद्धं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-११ से अन्त्य संयुक्त च्यवन 'ध' के स्थान पर 'द' की प्राप्तिः २-८६ मे प्राप्त 'ढ' को द्वित्व 'द है' की प्राप्ति; ६० से पात पूर्व 'ब' को 'इ' को प्राप्रि; ३-२५ से प्रथमा विभक्त के एक वचन में यकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि प्रत्यम के स्थान पर 'म् प्रत्यम की प्राप्ति और '२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप अट्ठ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-मंख्या -७६ से 'र' का लोप; २.८ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध ध' का. प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'धू' को 'द' की प्राप्ति और शेष साधनका प्रथम रूप के समान हा होकर द्वितीय रूप अद्ध भी सिद्ध हो जाता है। -४१।। म्नज्ञो र्णः ॥ २-४ ॥ अनयो र्णः भवति ॥ म्न । निएणं । पज्जुण्णो ॥ ज्ञ । णाणं । सगणा। पराणा । विण्णा ॥ अर्थ:-जिन शब्दो में संयुक्त व्यन्जन 'म्न' अथवा 'ज्ञ होता है; उन संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'म्न' के स्थान पर अथवा 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है। जैसे:-'न' के उदाहरणः-निम्नम् =निएणं । प्रनम्न = पज्जुएणो। 'ज्ञ' के उदाहरण इस प्रकार है:- ज्ञानम्-कारणं । संज्ञासण्णा । प्रज्ञा-पएण्णा और विज्ञानम् विण्णाणं ।।। निम्नम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकत रूप निएणं होता है। इस में सूत्र-संख्या -४२ से संयुक्त व्य जन 'मन' के स्थान पर 'रण' की प्राप्ति, २८८ से प्राप्त 'ण' का द्वित्व 'गण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निण्ण रूप सिद्ध हो जाता है। प्राम्नः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पन्जुएणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से र का लोप; २-२४ से संयुक्त व्याजन 'ध' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-म से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'जज' की प्राप्ति; २-४२ से संयुक्त व्यण्जन 'मन' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'एण' की प्राप्ति; और ३-२ से पथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पजपणो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [३३७ - . : ज्ञानम् संस्कृत रूप है । इसका मकन रूप णाणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४२ से संयुक्त व्यजन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ग' का प्राप्ति; ५.८ से 'न' का ''; ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर म प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म. का अनुस्वार होकर णाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ' संज्ञा संस्कृत रूप है। इसका पान रूप मण्णा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४२ से संयुक्त व्यजन 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राति और १.३० मे अनुस्वार को आगे 'ण' का मद्भाष होने से स्वर्ग के. पंचमाक्षर रूप हलन्त 'ण' की प्राप्नि होकर सण्णा रूप सिद्ध हो जाता है। प्रज्ञा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पएमा होना है। इसमें सुत्र-मंख्या २-से 'र' का लोप; २.४२ से संयुक्त-व्यजन 'ज्ञ' के स्थान पर ' को पारित और २.८ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'एण की प्राप्ति होकर परणा रूप मित्र हो जाम है विक्षन इसका प्राकृत रूप विरणाणं होता है इस में सून- संख्या २-४२ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के स्थान पर 'प'; ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारांत नपुसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विण्णाणे रूप सिन्द हो जाता है ।। २-४ ।। पञ्चाशत-पञ्चदश-दत्ते ॥ २-४३ । एषु सयुक्तस्य णो भवति ।। परणासा | परणरह । दिएणं ।। अर्थः- पञ्चाशत् , पञ्चदश और दत्त शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'च' के स्थान अथवा 'त' फे स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होती है । जैसे:--पञ्चाशत-परणासा ।। पश्चरश-पएणरह और दत्तम्-दिएणं ।। पञ्चाशत संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पएणासा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के स्थान पर 'णु' की प्राप्ति; २.८ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'रण' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स; १.१५ से प्राप्त 'स' में 'श्रो स्वर की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर पण्णासा रूप सिध्द हो जाता है। पञ्चदश संस्कृत विशेषरण है। इसका प्राकृत रूप पगारह होता है । इममें सूत्र-संख्या २-४३ से संयुक्त व्यञ्जन 'रब' के स्थान पर 'ण' की प्राति: २.८६ से प्राप्त 'or' को द्वित्व 'गण' की प्राप्ति; १-२१६ से 'द' के स्थान 'र' की प्राप्ति और १-२५६ से श के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति हो कर पण्णरह रूप सिध्द हो जाता है। दिण्ण रूप की सिदि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है। २-४३ । मन्यो न्तो वा ।। २.४४॥ मन्यु शब्द संयुक्तस्य न्तो वा भवति ॥ मन्तू मन्नू ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] * प्राकृत व्याकरण ****** अर्थ :-- संस्कृत शब्द 'मन्यु' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'न्यु' के स्थान पर विकल्प से 'न्स्' की प्राप्ति होती है। जैसे:-मन्युः - मन्तू अथवा मन्नू ॥ 1 मन्युः संस्कृत रूप हैं । इस के प्राकृत रूप मन्नू और मन्नू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या = ४४ से संयुक्त व्यञ्जन 'न्य' के स्थान पर विकल्प से मृत का प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हृश्य स्वर उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य व स्वर 'उ' दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मन्तु सिद्ध हो जाता है । मन की सिद्धि सूत्र संख्या २०२५ में की गई है । २-४४ ।। स्तस्य यो समस्त स्तम्बे ॥ २-४५ ॥ समस्त स्तम्ब वर्जितं स्तस्य श्री भवति । हत्यो । थुई | थोच | श्री | पत्थरी पसत्थो । अस्थि । सत्थि || समस्त स्तम्ब इति किम् । समत्तो । तम्बो -- अर्थ::- समस्त और स्तम्ब शब्दों के अतिरिक्त अन्य संस्कृत शब्दों में यदि 'स्त' संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ है; तो इम संयुक्त व्यञ्जन 'स्त के स्थान पर 'थ की प्राप्ति होती है । जैसे:- हस्तः हत्थो || स्तुतिः = धुई || स्तोत्रम् - थोत | स्तोकम्योचं ॥ प्रातरः = पत्थरो ॥ प्रशस्तः = पसत्थो । अस्ति श्रथ ॥ स्वस्ति सत्थि ॥ प्रश्न:- यदि अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति हो जाती है; तो फिर 'समस्त' और 'स्तम्ब' शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति क्यों नहीं होती है ? उत्तरः- क्यों कि 'समस्त' और 'म्ब' शब्दों का रूप प्राकृत में 'समतो' और 'तम्बो' उपलब्ध; हैं; अतः ऐसी स्थिति में 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? उदाहरण इस प्रकार हैं:-- समाप्त: समन्त्ती और स्तम्बःतम्बो || इस्तः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप हत्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति २६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्य' की प्राप्तिः २०६० से प्राप्त पूर्व 'ध' को 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में श्रप्रयय की प्राप्ति हो कर इत्थो रूप सिद्ध हो जाता है । स्तुतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हुई होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्तिः १-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्री लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में ह्रस्व स्वर '' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर शुई रूप सिद्ध हो जाता है । dhe Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३३६ स्तोत्रम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थोत्त होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से संयुक्त न्यजन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-5 से 'न' में स्थित 'र' का लोप; २-८८ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के पाक बदन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-०३ में प्राः 'म्' का अनुस्वार होकर थोतं रूप सिद्ध हो जाता है। स्तोकम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसको प्राकृत रूप थोअं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४५ से मंयुक्त ध्यसन स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'क'का लोप; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त-नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पो रूप सिद्ध हो जाता है। प्रस्तरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पत्थरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७ से प्रथम 'र' का लोप; २-४५. से संयुक्त रचान 'क्त' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थथ' की प्राप्ति:२-० से प्राप्त पर्व 'थ' को 'त.' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पत्थरी रूप सिद्ध हो जाता है। प्रशस्तः संस्कृत विशेषण है। इसका प्राकृत रूप पमत्यो होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से '।' का 'R'; २.४५ से संयुक्त व्यञ्चन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'थ् ' को 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त-पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पसायी रूप सिद्ध हो जाता है। अस्ति संस्कृत क्रिया-पद रूप है। इसका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इस में सूत्र-संख्या २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ्थ' को प्राप्ति और २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'त' की माप्ति होकर आत्थि रूप सिद्ध हो जाता है। ___स्थस्तिः संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सस्थि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.८ से च का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन स्त' के स्थान पर 'थ' को माप्ति, २-८६ से प्राप्त 'व' को द्वित्व 'धूथ' को प्राप्ति; २०१० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर 'तू, की प्राप्ति और १-११ से अन्य व्यजन रूप विसर्ग का लोप होकर सरस्थ रूप सिद्ध हो जाता है। ___ समाप्तः संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप समतो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८, से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर स्व स्वर 'श्र' की प्राप्ति २.७७ से '' का लोप; २.६ से 'त' को द्वित्व "त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बयान में अकारान्त पुल्लिर में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ ] स्तम्बः संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप तम्बो होता है। इस में सूत्र संख्या २-७७ से 'स' का खोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तम्बों रूप सिद्ध हो जाता है ।। २२४५ ।। * प्राकृत व्याकरण * स्तत्रेथा ।। २--४६ । स्तव शब्दे स्तस्य श्री वा भवति ।। श्रवी तत्रो || अर्थ:- 'स्व' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति होती | जैसे:- स्तवः थवी अथवा तयो || 1 स्तवः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप थवो और तवां होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-४६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर विकल्प से 'थ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप थवा सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २७७ से हलन्त व्यञ्जन "स्' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही हो कर ती रूप सिद्ध हो जाता है | |१२-४६|| पर्यस्ते - ॥ २-४७ ॥ पर्यस्ते स्तस्य पर्यायेण थटो भवतः || पल्लत्थो पल्लो || अर्थ:-संस्कृत शब्द 'पर्यस्त' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'श्त' के स्थान पर कमी 'थ' होता है, और कभी 'ट' होता है । यों पर्यस्त के प्राकृत रूपान्तर दो प्रकार होते हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-- पर्यस्तपन्थो और पल्लट्टो || पर्यस्तः संस्कृत विशेषण है। इसके प्राकृत रूप पल्लत्थो और पल्लट्टो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-६८ से संयुक्त व्यक्जन 'ये' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति; २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर पर्याय रूप से 'थ' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति; २०६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'त' की प्राप्ति और ३-२ ले प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर प्रथम रूप पल्लत्थी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पल्लो में सूत्र संख्या २-६५ से संयुक्त व्यव्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति २-४७ से संयुक्त व्यंजन 'रस' के स्थान पर पर्याय रूप से 'ट' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ट' को 'द्वित्व 'ट्ट' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप समान ही होकर द्वितीय रूप पल्लट्टो भी सिद्ध हो जाता है ।। २-४७ ॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * बोत्साहे थो हव रः ॥२-४८ ॥ उत्साह शब्द संयुक्तमय थो वा भवति तत्सं निगोगे च इस्य रः || उत्थारी उच्छाहो ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'उत्साह' में रहे हर संयुक्त व्य जन 'स' के स्थान पर विकल्प से 'य' की प्राप्ति होती है । एवं थ' की प्रारित होने पर हा अन्तिम व्यजन ह' के स्थान पर भी 'र' की प्राप्ति हो जाती है । पक्षान्तर में संयुक्त व्यसन ल्स के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति नहीं होने की दशा में अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर भी र' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-उत्माह:-उत्थारो और पक्षान्तर में लाहो।यों कए-भिनला का स्वरूप समझ लेना चाहिये। उत्साहः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उत्यारो और उच्छाहो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-प्रख्या २-४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'थ' की प्रामि PE से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ' की प्राप्ति; २४ से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'त' की प्राप्ति, २४८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स' के स्थान पर प्राप्त 'थ' का संनियोग होने से अन्तिम व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप उत्थारो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप उच्छाहों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११४ में की गई है ।।२-४८॥ आश्लिष्टे ल-धौ ॥२--४६॥ पाश्लिष्टे संयुक्त पार्यथासंख्य ल ध इत्येतो भवतः ॥प्रालिद्धो ।। अर्थ---संस्कृत शब्द 'श्राश्लिष्ट' में रहे हुए प्रथम संयुक्त व्यवन श्ल' के स्थान पर 'ल' होता है और द्वितीय संयुक्त व्यजन 'ट' के स्थान पर 'ध' होता है। यों दोनों संयुक्त व्यजनों के स्थान पर यथा-क्रम से 'ल' की और 'ध' की प्राप्ति होती है । जैसे:-आश्लिप: प्रालिद्रो । आश्लिष्टसंस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रालिदो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४६ से प्रथम संयुक्त व्यन्जन 'श्ल' के स्थान पर ल' की प्राप्ति; २.४E से ही द्वितीय संयुक्त व्यकजन 'ष्ट' के स्थान पर 'ध' की प्राप्ति २८६ से प्राप्त 'ध' को द्वित्व 'धध' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ध्' को 'द' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्रानि होकर आलिखो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-४६।। चिन्हे न्धो वा ॥२-५०॥ चिन्हे संयुक्तस्य धो वा भवति ॥ व्हापवादः ॥ पचे सो पि ॥ चिन्धं इन्ध चिएह ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] # प्राकृत व्याकरण * ___ अर्थ--संस्कृत शब्द 'चिह्न' में रहे हुए मंयुक्त व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर विकल्प से 'ध' को प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या २-७५ में यह बतलाया गया है कि संयुक्त व्यजन के स्थान पर 'राह' को प्राप्ति होती है । तदनुसार सूत्र-संख्या २.७५ की तुलना में सूत्र-संख्या २-५० को अपवाद रूप सूत्र माना जाय ऐसा वृत्ति में उल्लेख किया गया है। बैकल्पिक पक्ष होने से तथा अपवाद रूप स्थिति की उपस्थिति होने से 'चिह्न' के प्राकृत रूप तीन प्रकार के हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार है.-चिह्नम् चिन्धं अथवा इन्धं थिए । चिन्हमः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप चिन्धं. इन्धं और चिराहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २५० से संयुक्त व्य-जन 'ह' के स्थान पर विकल्प से 'ध' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप चिन्धं सिद्ध हो जाता है। जिीन रूपम की सिद्ध सूत्र जथा- की गई है। तृतीय रूप चिप में सूत्र-संख्या २.७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ए' के स्थान पर 'राह' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप चिण्ह मी सिद्ध हो जाता है ।।२-५८३) भस्मात्मनोः पो वा ॥२-५१॥ अनयोः संयुक्तस्य पो वा भवति ।। भयो भस्सो । अप्पा अप्पाणो । पक्षे अत्ता ॥ अर्थ-संस्कृत शब्द 'भस्म में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर बिकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे:-(भस्मन् के प्रश्रमान्त रूप) भस्मा-भप्पो अथवा भन्सी ।। इसो प्रकार से संस्कृत शब्द 'आत्मा' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर भी विकल्प से 'प' की प्राप्ति होती है। जैसे-- (आत्मन् के प्रथमान्त रूप) श्रास्मा अप्पा अथवा अपाणो । वैकल्पिक पन होने से रूपान्तर में 'असा' भी होता है। भस्मन संस्कृत मूल रूप है । इसके प्राकृत रूप भापो और भस्सो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प्प की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यन्जन 'न' का लोप; १-३२ से 'भस्माद को पुल्लिगत्व की प्राप्ति होने से ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भयो सिद्ध हो जाता है। - द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-४८ से 'म्' का लोप; २-८६ से शेष 'स' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और शेष साधानेका प्रथम रूप के समान हो होकर द्वितीय रूप भस्सो भी सिध्द हो जाता है। आत्मन् संस्कृत मूल शब्द है। इसके प्राकृत रूप अप्पा, अपाणो और अता होते हैं। इनमें से Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३४३ प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व 'अ' को प्राप्तिः २.५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'हम' के स्थान पर विकल्प से 'प' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'पप' की प्राप्ति १.११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप और ३-४४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नकारान्त पुल्लिा में अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर एवं प्राप्त 'सि' प्रत्यय के स्थान पर शेष अन्तिम व्यञ्जन 'प' में वैकल्पिक रूप से श्रा' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अप्पा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप मागणी में 'ए' पर्यन्त तो माम म्प के समान हो सूत्र-साधनिका की प्राप्ति और शेष 'आणों में सूत्र-संख्या २५६ से वैकल्पिक रूप से 'पापा' श्रादेश की प्राप्ति एवं ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पाणो भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप 'अत्ता' में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-७८ से म्' का लोप; २८६ से 'त' को द्वित्व 'त्त की प्राप्ति; और ३-४६ से (नकारान्त पुल्लिग शब्दों में स्थित अन्त्य 'न' का लोप होकर) प्रथमा विभक्ति में प्राप्त प्रत्यय 'सि' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप अत्ता भी सिद्ध हो जाता है ।।२.५१।। डम--कमोः ।। २.-५२॥ मक्मी: पो भवति ।। कुड्मलम् । कुम्पलं । रुक्मिणी । रुपिणी । काचित् मोपि !! रुमी रुप्पी ! ____ अर्थ:--जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यजन 'डम' अथवा 'कम' रहा हुआ होता है; तो ऐसे शब्झें के प्राकृत रुपान्तर में इन संयुक्त व्यवन 'इम' अथवा 'म' के स्थान पर प' की प्राप्ति होती है। जैसे:-'इम' का उदाहरण-कुडमलम् कुम्पर्ल ।। 'कम' का उदाहरण-रुक्मिणी-रुप्पिणी इत्यादि । कभी कभी क्म के स्थान पर 'सम' को प्राप्ति भी हो जाती है । जैसे:-रुक्मी रुमी अथवा रुप्पो ।। कुडमलम् संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूपं कुम्पलं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-५२ से संयुक्त न्यजन 'डम के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; १-२६ से १थम श्रादि स्त्रर 'उ' पर अनुस्वार रूप प्रागम की प्राप्तिः १-३" से प्राप्त अनुस्वार को श्रागे 'प' वर्ग की स्थिति होने से पवर्ग के पञ्चमाक्षर रूप हलन्त 'म् की गप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार को प्राप्ति होकर कुम्पल रूप सिद्ध हो जाता है। रुक्मिणी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रुपिणी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'जन' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; और २-८६ से प्राप्त 'प' को हित्य 'प्प' की प्राप्ति होकर रुपिणी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४] * प्राकृत व्याकरण * रुक्मी संस्कृत विशेषण है। इसके माकृत रूप रुकमी और सप्पो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-५२ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'कम' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रुक्ष्मी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-५२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'प' को प्राप्ति और २-- से प्राप्त 'प' को द्विस्व 'प' की प्राप्ति होकर रुप्पी रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-५२॥ प-स्पयोः फः ।। २.५३ ॥ प-स्पयोः फो भवति । पुष्पम् । पुर्फ ॥ शष्पम् । सफ॥ निष्पेषः। निष्फेसो ॥ निष्पावः । निष्फावो ॥ स्पन्दनम् । फन्दणं ॥ प्रतिस्पर्धिन् । पाडिपकद्धी । बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । बुहप्पई बुहप्पई ।। क्वचिन्न भवति ।। निष्पहो । णिप्पुसणं । परोप्परम् ।। ___ अर्थ-जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन 'प' अथवा 'स्प होता है तो प्राकृत रूपान्तर में इन संयुक्त व्यजनों के स्थान पर 'फ' को प्राप्ति होती है । जैसे-पुष्पन% पुष्र्फ ॥ शष्पम्-त ।। निष्पेष:-निफेसो ।। निष्पावः =निष्फावो ।। स्पन्दनम् फन्दणं और प्रतिस्पर्धिन = पाडिफद्धी ।। 'बहुलं' सूत्र के अधिकार से किसी किसो शब्द में 'ज्य' अथवा 'स्प' के होने पर भी इन संयुक्त व्यजनों के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति विकल्प से होता है । जैसे-बृहस्पतिःम्बुहरफई अथवा बहुप्पई ।। किसी किसी शब्द में तो संयुक्त व्यञ्जन स्प' और 'आप' के स्थान पर 'फ की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे-निष्प्रभः = निप्पहो । निष्पु'सनम् णिप्पुसणं ।। परस्परम् परोप्परं । इत्यादि । पुष्फ रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३६ में की गई है। शष्पम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप साफ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २.५३ से संयुक्त व्यश्चन '५' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २८६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्र फ्फ की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पुर्व 'फ' को 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। निष्पेषः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निःफेसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.५३ से संयुक्त न्यजन 'रूप' के स्थान पर 'फ' को प्राप्ति, २.८६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्य 'फा' की प्राप्ति, २०६० से प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर निफसी रूप सिध्द हो जाता है। निष्पाक संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निष्कायो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-५३से संयुक्त ध्यञ्जन 'आप' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति;२-६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्वपफ को प्राप्ति २-६० से प्राप्त Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३४५ पूर्व 'फ' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभा केत के एक बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय का प्राप्ति होकर निष्फावी रूप सिद्ध हो जाता है। सन्तनम संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप फन्दणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५३ से संयुक्त व्यजन स्प' के स्थान पर 'फ' का प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' का 'ग'; ३.२५ से प्रथमा विभक्नि के एक बचन में अकारान्त नपुसक जिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर फन्दणं रूप सिद्ध हो जाता है। पाडिप्फची रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४४ में की गई है। बृहस्पति: संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रुप बुहरफई और बुहापई होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' की प्रादित; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्व' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २८६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ' को प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प' की प्राप्ति; १.९७७ से 'त' का लोप और ३.१६ से प्रथमा विभस्ति के एक वचन में हत्व इकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दो स्वर 'ई' का प्रारित होकर प्रथम रूप बुहप्फई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या -१३८ से 'ऋ' के स्थान पर 'उ' को प्राप्ति २-५७ से 'स' का लोप; २-4 से शेष 'प को द्विस्त्र 'पप' को प्राप्ति और शेष साधनिका का प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप बुहप्पई मो सिद्ध हो जाता है। निष्प्रभः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निप्पहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'ए' का लोप; २-७६ से 'र' का लोप, २-८६ से शेष 'प' को द्वित्व पप की प्राप्ति; १-१८७ से 'भ' का 'ह' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्जिम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निष्पहो रूप सिद्ध हो जाता है। निधूसनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप णिप्पुसणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'ए का लोप; २-८६ से १ को द्विस्य 'एप' को प्राप्ति; १.२८ से दोनों 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुन्धार होकर णितर्ण रुप सिद्ध हो जाता है। परोप्परं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-97 में की गई है ॥२-५३।। भीष्मे मः ॥२-५४ ॥ भीष्मे मस्य फो भवति ॥ भिष्फो । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] * प्राकृत व्याकरण * ___ अर्थ...संस्कृत शब्द 'भीष्म' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती है। जैसे-मोड लियो . भीष्मः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप भिष्फो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्य स्वर 'इ' की प्राभि; २-५४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फफ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'क' को 'प्' की प्राप्ति और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति सोकर भिष्फो रूप सिद्ध हो जाता है। -५४|| श्लेष्मणि वा ॥२-५५ ॥ श्लेष्म शब्दे पस्य फो वा भवति ।। सेफो सिलिम्हो ।। अर्थ:-संस्कृत शब्द श्लेष्म' में स्थित संयुक्त व्यजन 'म' के ग्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति होती है । जैसे:-- श्लेष्मा सेफो अथवा सिलिम्हो !! इलमा संस्कृत (श्लेष्मन्। का प्रथमान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप सेफो और सिलिम्हो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २.७६ से 'ल' का लोप; १-२६० से शेष 'श को 'स' की प्राप्ति; ५-५५. से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर विकल्प से 'फ' की प्राप्ति, १-१५ से मूल शब्द में स्थित अन्त्य हलन्त व्यन्जन न्' का लोप; ५-३२ से मूल शबर 'नकारान्त होने से मूल शब्द को पुल्लिगत्व की प्राप्ति और तदनुमार ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्राप्त प्रकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ प्रत्यय को प्रारित होकर प्रथम रूप से फो सिद्ध हो जाता है। द्वित्तीय रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से 'श्ले' में स्थित दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्रोप्ति होने से 'श्लि' हुआ; २-१०६ से हलन्त व्यञ्जन 'श' में 'इ' आगम रूप स्वर की प्राप्ति होने से 'शिल' रूप हुश्रा; १-२६० से 'श' का 'स' होने से 'सिलि' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'म्ह' की प्राप्ति; और शेष माधनिका प्रथम रूप के ममान ही होकर द्वितीय रूप सिलिम्बो भी सिद्ध हो जाता है ।।२-५५शा , तामामेम्बः ॥२-५६ ॥ अनयो: संयुक्तस्य मयुक्तो यो भवति ॥ तम्बं । अम्ब । अम्बिर तम्यिर इति देश्यो । अर्थ:-संस्कृत शब्द ताम्र' और 'श्राम्न' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'न' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति होती है । जैसे ताम्रम् तम्बं और श्राम्रम् अम्बं । देशज चोली में अथवा ग्रामीण बोली में साम्र का तम्बिर और आम्र का अम्बिर भी होता है। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३४७ ari और अम्बं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-९४ में की गई हैं। अम्बिर और तम्बर रूप देशज हैं; तदनुसार देशज शब्दों की साधनिका प्राकृत भाषा के नियमों के अनुसार नहीं की जा सकती है । ।। २०५६ ।। **** ह्रो भो वा ।। २-५७ ॥ ह्रस्य भो वा भवति ॥ जिम्भा जीहा ॥ अर्थ:-- यदि किसी संस्कृत शब्द में ह्र' हो तो इस संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति होती है । जैसे:-जिह्ना जिम्मा अथवा जीहा || जिल्ला संस्कृत रूप हैं | इसके प्राकृत रूप जिम्मा और जीहा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-५७ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्र' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्तिः २६ से प्राप्त 'भ' को वि 'भूभ' की प्राप्ति और २-६० से प्राप्त पूर्व' 'भू' को 'च' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिल्ला मिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या २०१२ से ह्रस्व स्वर 'ए' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और २७६ से 'घू' का लोप होकर जीहा रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-५७ ।। वाविले व वश्च ॥ २-५८ ॥ चिले स्वभवा भवति । तत्संनियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति ।। भिब्भलो विन्भलो विलो || अर्थ:- संस्कृत विज्ञल शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति विकल्प से होती है। इसी प्रकार से जिस रूप में ह्र' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति होगी; तब आदि वर्ण 'वि' में स्थित 'व' के स्थान पर विकल्प से भ' की प्राप्ति होती है। जैसे-विह्नलः = भिम्भलो अथवा विम्भल और विहलो । चिल : संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप भिध्भलो; विष्भलो और बिलों होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २०५८ से संयुक्त 'ह' के स्थान पर विकल्प से 'भ' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व 'भूभ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त, पूर्व 'भू' को 'ब' को प्राप्ति; २-५८ की वृत्ति से श्रादि में स्थित 'बि' के 'व' को आगे 'भ' की उपस्थिति होने के कारण से विकल्प से 'भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भलो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में २-५८ की वृत्ति से वैकल्पिक पक्ष होने के कारण आदि व 'षि' को 'भि' को Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३४८ ] प्राप्ति नहीं होकर 'वि' ही कायम रहकर और शेष साधनिका प्रथम रूप के सामान ही होकर द्वितीय भी सिद्ध हो जाता है । रूप * प्राकृत व्याकरण तृतीय रूप में सूत्र संख्या २७६ से द्वितीय 'ब' का तो और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' अत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विहलो रूप भां सिद्ध हो जाता है ॥२-५८ वोवें ॥२- ५६॥ ऊर्ध्व शब्दे संयुक्तस्य भो भवति ।। उन्भं उद्ध' ॥ अर्थः – संस्कृत शब्द 'ऊ' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'ध्व' के स्थान पर विकल्प से भ की प्राप्ति होती है । जैसे- ऊर्ध्वम् उभं अथवा उद्धं ।। में सूत्र संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप उभ और उदूध होते हैं। इनमें से प्रथम रूप की प्राप्ति २.५१ से संयुक्त की प्राप्ति २-६० से प्राप्त संख्या १-८४ से आदि में स्थित दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' व्यञ्जन 'व' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति २८६ से प्राप्त 'भ' को द्वित्व 'भूभ' पूर्व 'भू' को 'ब' की प्राप्ति; २-७६ से रेफ रूप 'र' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुवार होकर प्रथम रूप उब सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २०७४ से 'र' और 'य' दोनों का लोपः २८६ से शेष 'ध' को द्वित्व घ्ध' की प्राप्तिः २ -१० से प्राप्त पूर्व 'धू' को 'दृ' को प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप उ भी सिद्ध हो जाता है । कश्मीरे म्भो वा ॥ २६०॥ कश्मीर शब्दे संयुक्तस्य भो वा भवति ॥ कम्भारा कम्हारा | अर्थ :- संस्कृत शब्द 'कश्मीर' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'एम' के स्थान पर विकल्प से 'भ' को प्राप्ति होती है। जैसे- कश्मीरा -कम्मारा अथवा कम्हारा ॥ कश्मीराः - संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कम्भारा और कम्हारा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-६० से संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' के स्थान पर त्रिकल्प से 'म्भ' को प्राप्तिः १-१०० से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लोप: और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्तिम हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कम्भारा सिद्ध हो जाता है । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ............ ३४ कम्ह रा की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०० में की गई है ॥२६॥ यो !॥२-६१॥ न्मस्य मो भवति ॥ अधीलोपापवादः ।। जम्मो । बम्महो । मम्मणं ।। अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन न्म होता है; तो ऐसे संस्कृत शब्दों के प्राकृतरूपान्तर में उस संयुक्त व्यञ्जन न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति होती है। सूत्र-संख्या २-७८ में बनलाया गया है कि अधो रूप से स्थित अर्थात् वर्ण में परवर्ती रूप से संलग्न हलन्त 'न्' का लोप होता है। जैसेलग्ना लग्गी । इस उदाहरण में 'ग' वर्ण में परवर्ती रूप से संलग्न हलन्त 'न' का लोप हुआ है; जबकि इस सूत्र-संख्या २-६५ में बतलाते हैं कि यदि हलन्त 'न्' परवर्ती नहीं होकर पूर्व वर्ती होता हुआ 'म' के साथ में संलग्न हो; तो ऐसे पूर्ववर्ती हलन्त 'न्' का भी ( केवल ‘म वर्ण के साथ में होने पर ही ) लोप हो जाया करता है । तदनुसार इस सूत्र संख्या २-६१ को आगे आने वाले सूत्र संख्या २-७२ का अपवाद रूप सूत्र माना जाय । जैसा कि ग्रंथकार 'अधोलोपापादः' शब्द द्वारा कहते हैं । उदाहरण इस प्रकार हैं:-जन्मन जम्मो ।। मन्मथः = वस्नहो और मन्मनम् = मम्मणं || इत्यादि ।। जम्मो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १११ में की गई हैं। घामहो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४२ में की गई है। मन्मनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भम्मणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-६१ से संयुक्त व्य-जन 'न्म' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'म' की प्रापि; १.०२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् को अनुस्वार की प्राप्ति होकर मम्मणं रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२-६१ ।। ग्मो वा ॥२-६२॥ ग्मस्य मो वा भवति ॥ युग्मम् । जुम्म जुग्गं ।। तिग्मम् । सिम्म तिग्गं ॥ अर्थः - संस्कृत शब्द में यदि 'ग्म' रहा हुया हो तो उसके प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त श्य-जन 'ग्म" के स्थान पर विकल्प से 'म' को प्राप्ति होती है । जैसे-युग्गम-जुम्म अथवा जुम्गं और तिग्मम्तिम्म अथवा तिग्गं । इत्यादि ।। युग्मम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप जुम्म और जुग्ग होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १.२४५ से 'य' का 'ज'; २.६२ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर विकल्प से 'म' की प्राप्ति २-८० से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] * प्राकृत व्याकरण * नपुंसक लिंग में "स' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और :१-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप जुम्म सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संरत्या १-२४५ से 'य' का 'ज'; २.७८ से 'म्' का लोप; २-८६ से शेष 'ग' को द्वित्त्व 'मग' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान हा होकर द्वितीय रूप जुम्ग भी सिद्ध हो जाता है। तिग्मम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप तिम्म और तिग्गं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-६२ से संयुक्त व्यञ्जन 'ग्म' के स्थान पर विकल्प से 'म' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'म' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति, ३-२५. से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप तिम सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या २-७८ से 'म् का लोप; २-८८ से शेष 'ग' को द्वित्व 'ग' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप तिग्गं भी सिद्ध हो जाता है ।।२-६२।। ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीपें यों रः ॥२-६३॥ एषुर्यस्य रो भवति । जापचादः ॥ धम्हचेरं || चौर्य समत्वाद् बम्हचरिअं । तूरं । सुन्दरं । सोंडीरं ॥ . अर्थः–संस्कृत शब्द ब्रह्मचर्य, सूर्य, मौन्दर्य और शौण्डीर्य में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है। सूत्र संख्या २-२४ में कहा गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति होती है। जबकि इस सूत्र संख्या २-६३ में विधान किया गया है कि ब्रह्मचर्य आदि इन चार शब्द में स्थित 'य' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होती है; जैसे | ब्रह्मचर्यम्=बम्हचरं । सूर्यम् = तूरं । सौन्दर्यम् - सुन्दरं और शौण्डीर्वम्-सोण्डोरं ।। सूत्र-संख्या २-१०७ के विधान से अर्थात् 'चौर्य-सम' आदि के उल्लेख से ब्रह्मचर्यम् का वैकल्पिक रूप से 'बम्हचरिअं' भी एक प्राकृत रूपान्तर होता है। बम्हचेर रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५९ में की गई है। अम्हचर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बम्हचरिश्र होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से आदि अथवा प्रथम 'र' का लोप; २-७४ से 'झ' के स्थान पर 'मह' की प्राप्ति; २-१०७ से 'य' में स्थित 'र' में 'इ' रूप आगम की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की पाप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर म्हचरिम रूप सिद्ध हो जाता है। तूर्यम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तूर होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६३ से संयुक्त Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३५१ ध्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तरं रूप सिद्ध हो जाता है। सुन्नेरं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५७ में की गई है। शैाण्डीयम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप साण्डीर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; १-१५६ से दीर्घ स्वर 'ओं के स्थान पर द्वस्व स्वर 'श्री' की प्राप्ति; २-६३ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भू' प्रत्यय की माप्त और १-२३ से प्रारत 'म्' का अनुस्वार होकर सोण्डीर रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-६३॥ धैर्ये वा ॥ २-६४ ॥ धैर्य यस्य रो वा भवति ॥ धीरं धिज्ज ॥ सरो सुज्जो इति तु सूर-र्य-प्रकृति-भेदात् ।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'धैर्य' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर विकल्प से 'र' की प्राप्ति होती है । जैसे-धैर्यम्-धीरं अथवा विजं ।। संस्कृत शब्द 'सूर्य' के प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' और 'सुज्जो यों दोनों रूप नहीं माने जाय । किन्तु एक ही रूप 'सुजजों' ही माना जाय !! क्योंकि प्राकृत रूपान्तर 'सूरो' का संस्कृत रूप 'सूरः' होता है और 'सूर्यः' का 'सुज्जो ॥ यो शब्द-भेद से अथवा प्रकृति-भेद से सूरो और सुज्जो रूप होते हैं। यह ध्यान में रखना चाहिये ।। धैर्यम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूपान्तर धीरं और धिज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप धीर की सिद्धि सत्र-संख्या १-५५५ में की गई है। द्वितीय रूप धिज्ज में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व म्बर (अर्थात् 'ऐ' का पूर्व रूप-अ +इ)='इ' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त ध्यान 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २८६ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'जज' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप विज भी सिद्ध हो जाता है । ___सूरः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर सूरो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुरो रूप सिद्ध हो जाता है। सूर्यः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'अ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ज' को प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] * प्राकृत व्याकरण * M r . .. से प्राप्त; 'ज' को द्वित्व 'जज' की प्रानि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में प्रकारांत पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय होकर मुजो रूप सिद्ध हो जाता है ।।५-६४। एतः पर्यन्ते ॥२-६५॥ पर्यन्ते एकारात् परस्य यस्य रो भवति ।। परन्तो !एत इति किम् । पज्जन्तो ।। अर्थः-संस्कृत-शब्द पर्यन्त में सूत्र-संग्ख्या १-५८ से 'प' वर्ण में 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है । जैसे:-पर्यन्तः = पेरन्तो ॥ प्रश्नः-पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ए' को प्राप्ति होने पर ही संयुक्त व्यसन 'य' के स्थान पर की प्राप्ति होता है-ऐसा धो कहा गया है? उत्तर:-यदि पर्यन्त शब्द में स्थित 'प' वर्ण में 'ए' की प्राति नहीं होती है, तो संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'जज' की प्राप्ति होती है । अतः संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति तभी होती है, जबकि प्रथम वर्ण 'प' में 'ए' की प्राप्ति हो; अन्यथा नहीं। ऐसा स्वरूप विशेष समझाने के लिये ही 'एत:' का विधान करना पड़ा है। पक्षान्तर का उदाहरण इस प्रकार है:पर्यन्त:=पज्जन्तोः ॥ परन्तो और पजन्ती दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५८ में की गई है ॥२-६५|| आश्चर्य ॥२-६६ ॥ श्राश्चर्ये ऐतः परस्य यस्य रो भवति ॥ अच्छेरं ॥ एत इत्येव । अकछरिश्रं ॥ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य में स्थित 'श्च व्यजन में रहे हुए 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है । जैसे:-आश्चर्यम् अच्छेरं ।।। प्रश्न:-श्च व्यन्जन में स्थित 'अ' स्वर को 'ए' की प्राप्ति होने पर ही 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति होती है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि 'श्च' के 'अ' को 'ए की प्राप्ति नहीं होती है तो 'य' के स्थान पर 'र' की प्राप्ति नहीं होकर 'रिश्र" की प्राप्ति होती है। जैसे:-आश्चर्यम्-अच्छरिअं॥ अच्छेरे और अच्छरिअं दोनों रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है ॥२-६॥ ___ अतो रिपार-रिज्ज-री ॥२-६७॥ आश्चर्ये प्रकारात् परस्य यस्य रिश्र अर रिज्ज रीब इत्येते श्रादेशा भवन्ति ॥ अच्छरिमं अच्छअरं अच्छरिज अच्छरीअं ।। अत इति किम् । अच्छेरं ॥ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रिपोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३५३ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'आश्चर्य में स्थित 'श्च' के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'छ' में रहे हुए 'अ' को यथा-स्थिति प्राप्त होने पर अर्थात् 'अ' स्वर का 'अ' स्वर हो रहने पर संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर क्रम से चार आदेशों को प्राप्ति होती है। वे क्रमिक श्रादेश इस प्रकार है:-रिश्र'; 'अर' 'रिज'; और रीअ ॥ इनके क्रमिक उदाहरण इस प्रकार है:-आश्चर्यम् -- अच्छरिअं अथवा अच्छअरं अथवा अच्छरिजं और अच्छरो॥ प्रश्न--'श्व' के स्थान पर प्राप्त होने वाले च्छ' में स्थित 'अ' स्वर को यया-स्थिति प्राप्त होने पर अथात् 'अ' का 'अ' ही रहने पर 'य' के स्थान पर इन उपरोक्त चार आदेशों को प्राप्ति होतो है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर:-यदि उपरोक्त पछ' में स्थित 'अ' को 'र' को प्राप्ति हो जाती है तो संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर ऊपर वर्णित एवं क्रम से प्राप्त होने वाले चार आदेशों की प्राप्ति नहीं होगी। यो प्रमाणित होता है कि चार आदेशों की क्रमिक प्राप्ति 'अ' की यथा स्थिति बनी रहने पर ही होती है; अन्यथा नहीं। पक्षान्तर में वर्णित छ' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति हो जाती है तो संस्कृत शब्द आश्चर्यम् का एक अन्य हो प्राकृत रूपान्तर हो जाता है। जो कि इस प्रकार है:आश्चर्यम् = अच्छेरं ।। अच्छरिअं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है। __ अच्छारं, अच्छरिज, अच्छरी, और अच्छेरं रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५८ में की गई है॥२-६७।। पर्यस्त-पर्याण-सौकुमायें ल्लः ॥२-६८।। एषुर्यस्य ग्लो भवति । पर्यस्तं पल्लटं पल्लत्थं । पन्लाणं । सोअमन्लं ।। पल्लको इति च पल्यंक शब्दस्य यलोपे द्वित्वे च । पलिप्रङ्को इत्यपि । चौर्य समत्वात् ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द पर्यस्त' 'पर्याण' और 'सौकुमार्य' में रहे हर संयुक्त व्यञ्जन 'र्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्न' की प्राप्ति होती है। जैसे:-पर्यस्तम् पल्लट्ट अथवा पल्लत्थं ।। पर्याणम्-पल्लाएं ॥ सौ. मार्यम् सोश्रमल्लं ।। संस्कृत शब्द पल्याङ्क का प्राकृत रूप पल्लङ्को होता है। इसमें संयुक्त व्यञ्जन 'ल्य' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति नहीं हुई है। किन्तु सुत्र संख्या २-७८ के अनुसार 'य' का लोप और २-८८ के अनुसार शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'लज' की प्राप्ति होकर पल्लको रूप बनता है । सूत्रान्तर की साधनिका से पल्यङ्कः का द्वितीय रूप पलिअको भी होता है । 'चौर्य समत्वात्' से सूत्र संख्या २.१०७ का तात्पर्य है । जिसके विधान के अनुसार संस्कृत रूप 'पल्याई' के प्राकृत रूपान्तर में हलन्त 'ल' व्यञ्जन में मागम रूप 'इ' स्यर की प्राप्ति होती है। इस प्रकार द्वित्व 'लज' की प्राप्ति के प्रति सूत्र संख्या का ध्यान रखना चाहिये । ऐसा ग्रंथकार का आदेश है। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] * प्राकृत व्याकरण * पस्तम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूपान्तर पल्जट्ट' और पल्लत्थं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २०६८ से संयुक्त व्यञ्जन 'ये' के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्तिः २-४७ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'द' की प्राप्तिः २८६ से प्राप्त 'ट' की द्वित्य 'ट्ट' की प्राप्ति ३-२५ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप पहलğ सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पल्लत्थे को सिद्धि सूत्र संख्या २४७ में की गई है । अन्तर इतना सा है कि वहाँ पर 'पल्लत्थो' रूप पुल्लिंग में दिया गया है एवं यहाँ पर पल्लत्थं रूप नपुंसक लिंग में दिया गया है । इसका कारण यह है कि यह शब्द विशेषण है; और विशेषण-वाचक शब्द तोनों लिंगों में प्रयुक्त हुआ करते हैं । पल्लाणं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५२ में की गई हैं । सोमल्लं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०७ में की गई है। पत्येकः संस्कृत रूप हूँ । इसके प्राकृत रूप पल्लंको और पलियं को भी होते हैं । इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २७८ से '' का लोप २-८६ से शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ज' को प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर पल्लेको रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( पल्यंकः )= पलिश्रंको में सूत्र संख्या २- १०७ से हलन्त व्यञ्जन 'ल' में 'य' वर्ग श्रागे रहने से आगम रूप 'इ' स्वर की प्राप्ति १-१७७ से 'य्' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप को भी सिद्ध हो जाता है ।। २-६६ ॥ बृहस्पति-वनस्पत्योः सो वा ॥ २६६ ॥ अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति । बहस्सई चहफई ॥ भवरसई ॥ मयप्कई । वसई वई ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द बृहस्पति और वनस्पति में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति हुआ करती है। 'विकल्प' से कहने का तात्पर्य यह है कि सूत्र संख्या २-५३ मैं ऐसा विधान कर दिया गया है कि संयुक्त व्यञ्जन 'एप' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति होती हैं। किन्तु यहाँ पर पुनः उसो संयुक्त व्यञ्जन 'स्व' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति का उल्लेख करते हैं; अतः 'वदतो वचन-व्याघात' के दोष से सुरक्षित रहने के लिये मूल-सूत्र में विकल्प अर्थ वाचक 'बा' शब्द का कथन करना पड़ा है। यह ध्यान में रखना चाहिये । उदाहरण इस प्रकार हैं:- बृहस्पतिः = बहस्सई tear बहई और भयम्सई अथवा भयफई || वनस्पतिः = वणरूपई अथवा वणफई ॥ 1 + Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३५५ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित संस्कृतरूप है। इसके रूप बहमई और बहरफई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१५६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'रस' की प्रामि १-१७० से 'तू' का लोप और ३-६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ'को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहस्सई सिद्ध हो जाता है। द्वित्तीय रूप हफई की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई हैं। बृहस्पतिः संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप भयरसई और भयाफई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१३७ से प्राप्त 'यह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'स' की विकल्प से प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'रस' की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हृम्य स्वर 'इ' को दीर्घं स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप भई सिद्ध हो जाता है । ***** द्वितीय रूप (बृहस्पतिः = ) भयफई में सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २- १३७ से प्राप्त 'मह' के स्थान पर विकल्प से 'भय' की प्राप्ति २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्व' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति २६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' को प्राप्तिः ९-९० प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प' को प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-५६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भवप्फई भी सिद्ध हो जाता है । वनस्पतिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वसई और वणकई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण' २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प के स्थान पर विकल्प से 'स' की प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'एस' की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' का लोप और '३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप वणस्सई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप ( बनस्पत्ति: = ) वणफई में सूत्र - संख्या - १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २०५६ से प्राप्त 'फ' को द्रित्व 'फफ' को प्राप्ति २९० से प्राप्त पूर्व 'फू' को 'प' की प्राप्ति और शेष साधनिको प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप erteई सिद्ध हो जाता है ।। २-६६ ॥ वाष्पे हो क्षणि ॥ २७० ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] * प्राकृत व्याकरण * बाष्प शब्दे संयुक्तस्य हो भवति अश्रुण्यभिधेये ।। बाहो नेत्र-जलम् ॥ अश्रुणीति किम् ।। चपको ऊन्मा || अर्थः -यदि संस्कृत शब्द 'बाष्प' का अर्थ आंसू वाचक हो तो ऐसी स्थिन में 'बाष्प' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। जैसे:---बापः-बाहो अर्थात आंखों का पानी आंसू ॥ प्रश्न:-अश्रु वाचक स्थिति में ही 'बाष्प' शब्द में रहे हुए संयुक्त व्यजन 'आप' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं जो हों, बाइ लया है ? उत्तरः- संस्कृत शब्द 'याष्प' के दो अर्थ होते हैं; प्रथम तो आंसू और द्वितीय भाप । तदनुसार अर्थ-भिन्नता से रूप-भिन्नता भी हो जाती है। अतएव 'बाष्प' शब्न के श्रांसू अर्थ में प्राकृत रूप बाहो होता है और भाफ अर्थ में प्राकृत रूप बप्फो होता है। यों रूप-भिन्नता समझाने के लिये ही संयुक्त-व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'ह' होता है ऐसा स्पष्ट उल्लेख करना पड़ा है। यों तात्पर्य विशेष को समझ लेना चाहिये । काष्यः (आँसू ) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बाहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७० से संयुक्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बाहो रूप सिद्ध हो जाता है। बाष्पः (भाफ) संस्कृत रूप है। इसका प्रकृत रूप बष्फो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दोध स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'श्र की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति २-८८ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'कफ' की प्राप्ति २-१० से प्राप्त पूर्व 'क' को 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बप्फो रुप सिद्ध हो जाता है। ।। २-७० ।। कार्षापणे ॥२-७१ ॥ कर्षापणे संयुक्तस्य हो भवति ।। काहावणो । कथं कहावणो । हस्वः संयोगे (१-८४) इति पूर्वमेव हस्वत्वे पश्चादादेशे । कर्षापण शब्दस्य वा भविष्यति ।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'कार्षापण' में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के स्थान पर ह' की प्राप्ति होती है । जैसे:-कापापणः = काहावरणो॥ प्रश्नः-प्राकृत रूप 'कहावणों' की प्राप्ति किस शह से होती है ? उत्तरः--संस्कृत शब्द 'कापापण' में सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होने से 'कहावणों' रूप बन जाता है । इसी प्रकार से 'काहावणो' रूप माना जाय तो प्राप्त ह्रस्व स्वर 'या' के स्थान पर पुनः 'या' स्वर रूप श्रादेश की प्राप्ति हो जायगी; Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३५७ ++++ और कारण रूप द्धि हो जायगा ॥ श्रथवा मूल शब्द माना जाय तो इम का प्राकृत रूपान्तर 'कहावणो' हो जायगा; यो 'कार्य'ए' से 'काहात्रयों और कप' से 'कहाषणों' रूपों की स्वयमेव सिद्धि हो जायगी । कार्याः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप काहावयो और कहावणो होते हैं; इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २७१ से संयुक्त व्यञ्जन षं' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप काहाणी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप (कर्षाः) कहावणां में सूत्र संख्या १-८४ से 'का' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान स्वर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप कहाषणो भी सिद्ध हो जाता है ॥२-७१ ॥ पर दुःख दक्षिण- तीर्थे वा ॥२-७२॥ एषु संयुक्तस्य हो वा भवति ।। दुहं दुक्खं । पर दुकाले दुखिया विरला । दाहियो दक्खियो । तू वित्थं ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'दुःख'; 'दक्षिण' और तीर्थ में रहे हुए संयुक्त 'ख'; 'क्ष' और 'थं' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:- दुःखम् दुहं अथवा दुक्ख ॥ पर दुःखे दुःखिताः विरलाः = पर दुक्खे दुखि विरला || इम उदाहरण में संयुक्त व्यञ्जन ':' के स्थान पर वैकल्पिक स्थिति को दृष्टि से 'ह' रूप आदेश को प्राप्ति नहीं करके जिव्हा मूलीय चिन्ह फा लोप सूत्र संख्या २००७ से कर दिया गया है। शेष उदाहरण इस प्रकार है:- दक्षिणः = दाहिणो अथवा दक्षिणो ॥ तीर्थम् = तूहं अथवा तित्थं ॥ दुःखम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दुई और दुक्खं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-०२ से संयुक्त व्यञ्जन- (जिन्हा मूजीय चिन्ह सहित ) 'ख' के स्थान पर विकल्प से 'ह' की प्राप्ति ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप दुह सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप ( दुःखम् = ) दुक्ख में सूत्र - संख्या २७७ से जिल्हा मूलीय चिह्न 'कू' का लोप; २-८४ से 'ख' को द्वित्व 'खूख' की प्राप्तिः २०६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्रर्शम और शेष माधनिका प्रथम रूप के समान ही हो कर द्वितीय रूप दुख भी सिद्ध हो जाता है। पर-दुःखे संस्कृत सप्तम्यन्तरूप है । इतका प्राकृत रूप पर दुक्खे होता है । इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से जिल्हा मूलीय चिह्न 'कू' का लोपः २०२६ से 'ख' को द्वित्वं 'ख' की प्राप्ति २०१० से प्राप्त Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८] * प्राकृत व्याकरण * पूर्व 'ज्' को 'क' की प्राप्ति और ३११ से मूल रूप 'तुकरव' में सप्तमी विभक्ति के एक वचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर-दुक्खे रूप सिद्ध हो जाता है। दुःखिताः संस्कृत विशेषण रूप है । इम का प्राकृत रूप दुनिग्वा होता है । इम में सूत्र-संख्या २-७७ से जिल्हा मूलीय चिह्न 'क' का लोप; २-८६ से 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त ' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में प्राप्त ' जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से लुप्त 'त्र संघ रद्दे हु. ( ल संत होने से इस्त्र स्वर 'अ' को दीघ स्वर 'या' को प्राप्ति होकर इक्षिा रूप सिद्ध हो जाता है । विरला संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप चिरला होता है । यह मूल शरः 'विरल होते.से अकारांत है । इम में सूत्र-संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में पुल्लिंग अकारान्त में प्राप्त 'जस' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व म्बर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' को प्राप्ति हो कर विरला रूप सिद्ध हो जाता है। दाहिणो और दक्षिणो रूपों को सिद्धि सूत्र-संख्या १- ४५ में की गई है। तृह रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०४ में की गई है। तित्थं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८४ में की गई है। ॥ २--७२ ।। कूष्माण्ड्यां मो लस्तु ण्डो वा ॥२-७३॥ कूष्माण्ख्यां मा इत्येतस्य हो भवति । एड इत्यस्य तु वा लो भवति ।। कोहली कोहण्डी ॥ __ अथ:--संस्कृत शब्द कूष्माण्डी में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'मा' के स्थान पर 'ह' रूप श्रादेश की प्राप्ति होती है तथा द्वितीय संयुक्त व्यञ्जन एड' के स्थान पर विकल्प से 'ल' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कूष्माण्डी = कोहली अथवा कोहण्डी ।। वैकल्पिक पक्ष होने से प्रथम रूप में 'एड' के स्थान पर 'ल' की प्राप्ति हुई है और द्वितीय रूप में 'एड' का 'ए' हो रहा हुआ है। यो स्वरूप मेद जान लेना चाहिये । कोहली और कोहण्डी रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है। ।। २-७३ ।। पक्ष्म--श्म-म-स्म-हमां म्हः ॥ २--७४ ॥ पक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुक्तस्य श्मष्मस्मनां च मकाराकान्तो हकार आदेशो भवति ॥ पक्ष्मन । पम्हाई' । पम्हल-- लोमणा || श्म । कुश्मानः। कुम्हाणो ॥ कश्मीराः । कम्हारा || मा ग्रीष्मः । गिम्ही । ऊष्मा । उम्हा ॥ स्म । अस्मादृशः। अम्हारियो । विस्मयः । बिम्हश्रो ॥ छ । ब्रह्मा । धम्हा ॥ सुझाः। सुम्हा 11 बम्हणो। बम्हचेरं ॥ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३५६ क्वचित म्भोपि दृश्यते । यम्भणो । बम्भचेरं सिम्भो । क्वचिन भवति । रश्मिः। रस्सो । स्मरः । सरो।। __ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'पक्षम' में स्थित संयुक्त व्यञ्चन 'म' के स्थान पर हलन्त 'म्' सहित 'ह' का अर्थात् 'म्ह का आदेश होता है । जैसे:- पक्ष्माणि पम्हाई ।। इसी प्रकारसे यदि किसी संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' 'म'; 'स्म' अथवा 'हम रहा हुआ हो तो ऐसे संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत-मरूपान्तर में हलन्त व्यञ्चन 'म' महित 'ह' का अर्थात 'म्ह का श्रादेश हुमा करता है.। 'क्ष्म' का उदाहरण-पभल-लोचना-पम्हल- लोणा ।। 'श्म' के उदाहरण:-कुश्मानः कुम्हाणी ।। कश्मीराःकम्हारा | 'म' के उदाहरण: ग्रीष्म-गिम्हो ।। ऊष्मा = उम्हा ।। 'म' के उदाहरणः---अस्मादश:अम्हारिसो। विस्मयः = विम्यो । 'म' के उदाहरण:-ब्रह्माः = बम्हा ॥ मुझः = सुझाः । ब्रह्मणः= बम्हणो ।। अमनर्यम्- बम्हचेरं ।। इत्यादि ।। किसी किप्तो शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'झ' अथवा 'म' के स्थान पर 'म्ह' को प्राप्ति नहीं हो कर ‘म्म' की प्रालि होतो हुई मी देखी जाती है। जैसे:-माह्मण अम्भणो ।। ब्रमचर्यम् = बम्भचेरं ॥ मा सिम्भो ॥ किसी किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'श्म' अथवा ‘स्म' के स्थान पर न तो 'म्ह' की प्राप्ति ही होती है और न 'म्भ' को प्राप्ति ही होती है । उदाहरण इस प्रकार है:- रश्मिः रस्सी और स्मरः- मरो। यों अन्यत्र भी जान लेना चाहिये ।। पक्षमाण संस्कृत बहुवचनान्तरूप है । इसका प्राकृत रूप पम्हाइहोता है । इसमें सूत्र-संख्या२-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'दम' के स्थान पर 'मह' श्रादेश का प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में नपुंसकलिंग में संस्कृन प्रत्यय 'णि' के स्थान पर प्राकृत में 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर पम्हाई रूप सिद्ध हो जाता है । पक्षमल-लोचना संस्कृत विशेषम रूप है । इस का प्राकून रूप पम्हल-लो अणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या ५.७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्ष' के स्थान पर म्ह' आदेश को प्राप्ति; १-१७७ से 'च का लोप और १-२२८ से 'न' का 'ण' होकर पम्हल-लाभणा रूप सिद्ध हो जाता है। __ कहमानः संस्कृत रूप है । इप्स का प्राकृत रूप कुम्हाणो होता है। इस में सूत्र-संख्या ४४ से संयुक्त व्यजन 'श्म' के स्थान पर 'म्ह' का श्रादेश; १-२२८ से न का 'ण' और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंजग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कुम्हाणो रूप सिद्ध हो जाता है। कम्होरा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०० में को गई है। ग्रीष्मः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप गिम्ही होता है। इस में सूत्र संख्या-7-5 से 'र' का लोप; १-८४ से दीघ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-७४ से संयुक्त व्यन्जन 'डम' के स्थन पर 'म्ह' श्रादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिम्ही रूप सिद्ध हो जाता है । उमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उन्हा होता है। इस में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति और २-०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'म' के स्थान पर 'मह' आदेश की प्राप्ति हो कर उम्दा रूप सिद्ध हो जाता है । अम्हारिस रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई हैं। विस्मयः संस्कृत विशेषण रूप है। इस का प्राकृत रूप विन्हओ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति १-१७७ से 'य' का तोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वह रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * ब्रह्मा संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप बम्हा होता है। इस में सूत्र संख्या २००६ सेर का लोप और २ ७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'हम' के स्थान पर 'म्ह' आदेश की प्राप्ति होकर बम्हा रूप सिद्ध हो जाता है । सुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुम्हा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७४ से संयुक्त व्यञ्जन 'हा' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति ३-४ प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'ज' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' स्वर को दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति होकर सुहा रूप सिद्ध हो जाता है । म्हणो रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६७ में की गई है। बरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की गई है। ब्राहणमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप (ब्रम्हणो के अतिरिक्त) बम्भणी भी होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'र' का लोपः १-४ से दोर्घ स्वर 'था' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २ - ७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्म' के स्थान पर 'म्भ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बम्भणो रूप की सिद्धि हो जाती है। ब्रह्मचर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप (बम्हचेर के अतिरिक्त) बम्रं भी होता है । इसमें सूत्र संख्या २७१ से 'र' का लोप; २०७४ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन 'हा' के स्थान पर 'हम' आदेश की प्राप्ति; १-५६ से 'च' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर 'ए' स्वर की प्राप्ति; २७८ से 'थ' का लोपः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् 3 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T [ ३६१ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित प्रत्यय की प्राप्ति और २३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर चम्भरे रूप सिद्ध हो जाता है। श्लेष्मा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सिम्भो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से 'ल' का लीप १०६० से 'श' का 'स' १८४ से दीर्घ स्वर ( अ + इ = ए के स्थान पर हम्य स्वर 'इ' की प्राप्तिः २०७४ को वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन ष्म के स्थान पर म्भ' आदेश की प्राप्ति १-११ से संस्कृत मूल शब्द 'श्लेष्मन् ' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जत 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन कारान्त पुल्लिंग में ( प्राप्त रूप सिम्भ में ) - 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिम्भों रूप सिद्ध हो जाता है। रश्मी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है ! । स्मरः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप सरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २७ से 'म्' का लोप और २-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सरो रूप सिद्ध हो जाता है || २-७४|| सूक्ष्म-श्न-ग- स्न-हन- ह प णां रहः ॥२-७५॥ सूक्ष्म शब्द संबन्धिनः संयुकां च गकाराक्रान्तो इकार श्रादेशो भवति ॥ सूक्ष्मं | सहं ॥ श्न परहो । सिन्हो || ६ | विष्हू | जिल्हू | कहो । उहीसं ॥ स्न | जोहा | पहा | पहुश्रो ॥ ह्न । वराही । जराहू || छ | पुत्रहो | अवरो ॥ चण | सहं | तिरहं ॥ विप्रकर्षे तु कृष्ण कृत्स्न शब्दयोः कसणी | कर्मिणो || I के स्थान पर 'सु' सहित 'ह' का से जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त ऐसे संयुक्त व्यञ्जनों के स्थान पर उदाहरण:- प्रश्नः - परहो । शिश्नः = अर्थ:-संस्कृत शब्द 'सूक्ष्म में रहे हुए मंयुक्त व्यञ्जन 'दम' अर्थात् 'यह' का आदेश होता हैं । जैसे:- सूदनम् = सरहं | इस प्रकार व्यञ्जन 'श्न', 'ष्ण', 'श्न'; 'ह', 'हूण' अथवा 'दण' रहे हुए होते हैं; 'ण' सहित 'ह' का अर्थात 'यह' का आदेश होता है। जैसे—'श्न' के सिहो || 'ण' के उदाहरण: -- विष्णुः विरहू । जिष्णुः = जिहू । कृष्णः कहा। उष्णीषम् = उहीसं || 'न' के उदाहरणः – ज्योत्स्ना=जोरहा । स्नातः हाओ । प्रस्तुतः = पहुओ | 'ह' के उदाहरण: - बहि नः बरही जह्नुः=जहू ।। 'ह्ग्' के उदाहरण: - पूर्वाहः = पुव्वो । अपराह्न ए =अवरहो । '६' के उदाहरणश्लक्ष्णम् = सरहं । तीक्ष्णम् = तिर || संस्कृत भाषा में कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनमें संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ण' अथवा 'स्त' रहा हुआ हो; तो भो प्राकृत रूपान्तर में ऐसे संयुक्त व्यञ्जन 'ए' अथवा 'रन' के स्थान पर इस सूत्र संख्या २२७५ से प्राप्तव्य 'यह' आदेश की प्राप्ति नहीं होती है। इस का कारण प्राकृत रूप का उच्चारण करते समय 'विप्रकर्ष' स्थिति है । याकरण में 'विप्रकर्ष' स्थिति उसे कहते हैं; जब कि शब्दों का उच्चारण करते समय अक्षरों के मध्य में 'अ' अथवा 'इ' अथवा 'उ' स्वरों में से किसी एक स्वर कर 'आगम हो जाता Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] * प्राकृत व्याकरण * हो; एवं ऐसे पागम रुप स्वर की प्राप्ति हो जाने से बाला जाने घाला वह शठन अपेक्षाकृत कुछ अधिक लम्बा हो जाता है। इससे उस शब्द रूप के निर्माण मे ही कई एक विशेषताएं प्राप्त हो जाती हैं; नानुसार उसकी सानिका में भी अधिकृत-सूत्रों के स्थान पर अन्य ही सूत्र कार्य करने लग जाते हैं । 'विप्रकर्ष' पारिभाषिक शब्द के एकार्थक शब्द 'स्वर मोक्त' अथवा 'विश्वष भी है। इस प्रकार उच्चारण की दीर्घता से-खिचाव सेमी स्थिति उत्पन्न हो जाती है और इसीलिये संयुक्त व्यञ्जन 'ण' अथवा 'न' के स्थान पर कभी कभी 'एह की प्राप्ति नहीं होता है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-कृष्णः - फसणो और कृरन = कसिणो । ऐसी स्थिति के उदाहरण अन्यत्र भी जान लेना चाहिये ।। साह रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है। पएहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है। शिश्नः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत काप सिण्हो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२६. से प्रथम 'श' का 'स'; २-७५ से संयुक्त व्य-जन अन' के स्थान पर गह' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिण्हो रूप सिद्ध हो जाता है । विण्हू रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८५ में की गई है। जिष्णुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जिएहू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त न्यजन 'ण' के स्थान पर 'राह' श्रादेश की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एफ बचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर जिण्ड रूप सिद्ध हो जाता है। ____ कृष्णः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप काही होता है । इस में सूत्र-संख्या १-९२६ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'cण' के स्थान पर 'राह' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभषित के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर कण्हो रूप सिद्ध हो जाता है। उष्णीषम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप राहीसं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के स्थान पर 'गह का श्रादेशः १-२२० से 'प' का 'स'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसंकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर उपहासं रूप सिद्ध हो जाता है। ज्योत्स्ना संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जोरहा होता है। इस में सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप: २-७७ से 'त्' का लोप; २-७५ में संयुक्त व्यञ्जन 'स्ल' के स्थान पर 'एह' आदेश की प्राप्ति हो कर जोण्डा रूप सिद्ध हो जाता है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * स्मातः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप एहाओं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'एह आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से त का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहाओ रूप सिद्ध हो जाता है । मस्तुतः संस्कृत विशेषण रूप है। इस का प्राकृत रूप पराष्टुश्री होता है। इस में बूत्र-संख्या .. से 'एका लोप; २-४५ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्न के स्थानपर 'ए आदेश की प्राप्ति; १-१४७ से 'त का लोप और ३- से प्रथमा विभक्ति के एफ बचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पण्डओ रूप सिद्ध हो जाता है। वह्निः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप वराहो होता है । इस में सूत्र संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' के स्थान पर 'राह' श्रादेश की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति हो कर वही रूप सिद्ध हो जाता है। जहनुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जराहू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'हन' के स्थान पर 'एह' श्रादेश की प्राप्ति; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर जए : रूप सिद्ध हो जाता है। पुच्चरही रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.६७ में की गई है। अपराहणः संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप अवरणही होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' का 'व'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; .५ से संयुक्त व्यञ्जन 'हण' के स्थान पर यह आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अपरण्ही रूप की सिद्धि हो जाती है। श्लक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सरह होता है। इस में सूत्र संख्या २-७४ से 'ल' का लोप; १-२६० से 'श' का 'म'; २.७५ से संयुक्त व्य जन 'क्ष्ण के स्थान पर 'एह आदेश की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंमक लिंग में 'सि' पत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर साह रूप सिद्ध हो जाता है। तीक्ष्णम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तिरह होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीघ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'ई' की प्राप्ति; २-७५ से संयुक्त व्याजन 'दण' के स्थान पर रह श्रादेश की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निण्ह रूप सिद्ध हो जाता है। 79.51 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ * प्राकृत व्याकरण * कृष्णः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कसणी होता है । इसमें सूत्र संख्या ५-१२१ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-११० से हलन्त 'ष' में आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १.२६० से 'ष' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कसणी रूप सिद्ध हो जाता है। कृत्स्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कसिणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१.६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति, २-७ से 'त' का लाप; २-१०४ से हलन्त व्यञ्जन 'म' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२८ से कार -: यान- निभभि के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कसिणो रूप सिद्ध हो जाता है ।।२. ७५ __ हलो ल्हः ॥२-७६ ॥ हलः स्थाने लकाराकान्तो हकारो भवति || कन्हारं । पन्हाओ ।। अर्थ:-जिस संस्कृत शब्द में संयुक्त व्यञ्जन 'हू' रहा हुधा होता है; तो प्राकृत रूपान्तर में उस संयुक्त व्यञ्जन ह' के स्थान पर हलन्त 'ल' सहित 'ह' अर्थात् 'ल्ह' आदेश की प्राप्ति होती है । जैसे:कतारम् = कल्हारं और प्रह्लादः = पलहोत्री ।। कलारम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कल्हारं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से संयुक्त व्यजन 'हल' के स्थान पर 'ल्ह' श्रादेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कल्हारं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रहलादः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पल्हाप्रो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; ५-७६ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह के स्थान पर 'ल्ह' श्रादेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'द' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पल्हाओ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-७६॥ क-ग-ट-ड-त-द-प-श-प-स-क-पामूर्व लुक् ॥२-७७॥ एषां संयुक्त वर्ण संबन्धिनामू स्थिताना लुग् भवति ॥ क् । भुत्तं । सित्थं ॥ ग् । दुद्ध। मुद्ध' ॥ । षट्पदः । छप्पओ ।। कट्फलम् । कप्फलं ॥ इ । खड्गः । खग्गी ।। षड्जः । सज्जो ॥ त् । उप्पलं । उप्पानो ॥ द् । मद्गुः । मग्गू । मोग्गरी ॥ प् । सुत्तो । गुत्तो ॥ श । लण्हं । णिच्चलो । चुबह ॥ ५ । गोट्टी । छटो । निद्हरो ।स् । खलियो । नेहो !! क् । दु: खम् । दुक्खं ।। ८५ | अंत पातः । अंतष्पाओ ।। ' Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३६५ अर्थ:-किसी संस्कृत शब्द में यदि हलन्त रूप से 'क', ग, . ड. द्, प श , प स, जिह्वामूलीय ४क, और उपध्मानीय प् में से कोई भी वर्ण अन्य किमी वाण के साथ मे पहल रहा हुआ हो तो ऐसे पूर्वस्थ और हलन्त वर्ण का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है । जैसे:-'क' के लोप के उदाहरणभुक्तम्-भु और मिक्थम् = भित्थं । 'ग के लोप के उदाहरण:-दुग्धम-दुद्धं और मुग्धम-मुद्र । '' के लॉप के उदाहरसा:-पट्परः -- छप्पा और कट्फलम् = कप्फलं ।। 'ड' के लोप के उदाहरण:--खड्गःखग्गो और षड्रजः-पउने । 'न के लाप के उदाहरणः-उत्पलम् = उप्पलं और उत्पातः = उत्पाश्रो ।। 'द के लोप के उदाहरण:-मद्गु:-मग्गू और मुद्गरः मोग्गरो ।। 'प' के लोप के उदाहरण-सुप्त:-सुत्तो और गुप्तः = गुत्ती ॥ 'श' के लोप के उदाहरण:-अक्षणम-लए; निश्चलः गच्चलो और श्चुतते- चुअइ ।। 'ए' के लोप के उदाहरण:-गोष्ठी-गोट्ठी; पष्ठः : छट्ठो और निष्ठरः-निठुरो ।। 'स' के लोप के उदाहरण:- स्खलितः = खलिश्री और स्महः = न हो : 'क' के लो५ का उदाहरणः-दुखम् - दुरस्त्रं और 'एप' के लोप का उदाहरण:-अंत पात:-तप्पाओ ॥ इत्यादि अन्य उदाहरणणों में भी उपरोक्त हलन्त एवं पूर्व स्ववर्णों के लाप होने के स्वरूप को समझ लेना चाहिये । भुक्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भुर्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'क' वरण का लोप; २-८८ से शेष 'त' को द्वित्व 'त' की प्रारित; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर भुत्वं रूप सिद्ध हो जाता है। सिक्थम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सित्थं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ में पूर्वस्थ एवं हलन्त 'क' वर्ण का लोप; ८६ से शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व थथ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्न पूर्व 'थ' को 'त्' की प्राप्ति; ३--५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.५३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सित्थं रूप सिद्ध हो जाता ___ दुग्धम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दुद्धं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ और हलन्त 'ग' वर्ण का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'घ' को द्वित्व 'धध' को प्राहिः २०६० से प्राप्त पूर्व '' को 'द्' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्न नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त 'म् का अनुस्वार होकर दुद्ध रूप सिद्ध हो जाता है। मुग्धम् संस्कृत विशेषण रूप है। इस का प्राकृत रूप मुद्ध होता है । इस में मूत्र संख्या २-५७ से पूर्वस्थ और हलन्त 'ग' वर्ण का लोप; 2-4 से शेष रहे हुए 'ध' को द्वित्व 'धध' की प्रामि २.५० में प्राप्त पूर्व 'ध' को 'द्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक जिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार हा कर मुछ रूप सिद्ध हो जाता है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] * प्राकृत व्याकरण * छप्पो रूप को सिद्धि सूत्र-संग्ख्या १-०६५ में की गई है। कदफलम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप करफलं होता है । इसमें सूत्र-संख्या-२-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'द' वर्ण का लोप; २. से शेष रहे हुए फ' को द्वित्व ‘फ फ.' की प्राप्ति; २०६० से प्राप्त पूर्व 'फ्' को 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कप्फलं रूप मिद्ध हो जाता है। खग्गो रूप की सिद्धि सूत्र-सरळ्या १-३४ में की गई है। पड्ज संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मज्जो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १२६० से 'प' का 'स'; २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'ड' वर्ण का लोप; -८६ से शेष रहे हग 'ज' को द्वित्व 'जज' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभकिन के एक बचम में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सज्जी रूप सिद्ध हो जाता है। उत्पलम् संस्कृत रूप है । इम का प्राकृत रूप उप्पल होता है । इस में सूत्र-संख्या २-७७ से पूर्व स्थ एवं हलन्त त ' वर्ण का लोप; P-2 से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'पप' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर उध्पलम रूप सिद्ध हो जाता है। उत्पात: संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप उत्पाश्रो होता है। इस में सूत्र-मख्या २.७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'त' वर्ण का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'पघ' की प्राप्ति, १-१४७ से द्वितीय 'त' का लोप और ३.६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर उप्पाओ कप सिद्ध हो जाता है। मदगुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मग्गू होत है । इम में सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'द्' वर्ण का लोप; २-८८ सं शेष रहे हुए 'ग' वर्ण का द्विस्व गग' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर द्वस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर भागू रूप सिद्ध हो जाता है। मोग्गरो रूप की सिद्धि रान-संख्या १-११६ में की गई है। सप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इस कामाकृत रूप सुत्तो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्य एवं हलन्त 'प' वर्ण का लोप; २-८६ से शेष रई हुए 'त' वर्ण को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३६७ गुप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप गुत्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'पू' वर्ण का लोपः ६ से शेष रहे हुए 'त' वर्ण को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुप्त रूप सिद्ध हो जाता है । 44 लक्ष्णम् संस्कृत रूप हैं | इसका प्राकृत रूप लाई होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ पूर्व हलन्त 'श' का लोप; २७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के स्थान पर 'यह' आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ककारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की माप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर लहं रूप सिद्ध हो जाता है । निश्चलः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप णिच्चलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २ - ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'शू' वर्ण का लोप २-८६ से शेष रहें हुए 'च' वर्ण को द्वित्व 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शिच्च रूप सिद्ध हो जाता है । संस्कृतकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप चुअइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'श' वर्ष का लोप १-१७७ से प्रथम 'तू' का लोप और ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर चुअह रूप सिद्ध हो जाता है । गोष्ठी संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप गोट्टी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'धू' वर्ण का लोप; २-२६ से शेष रहे हुए 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति और २०६० से प्राप्त पूर्व 'व्' को 'टू' की प्राप्ति होकर गोटी रूप सिद्ध हो जाता है । बट्टो रूप की सिद्धिं सूत्र संख्या १-२६४ में की गई हैं। निठुरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२५४ में की गई है । स्खलितः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप खलियो होता है। इसमें सूत्र संख्या - से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'स्' वर्ण का लोपः १-१७७ से 'न का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्रत्यय की प्राप्ति होकर लिओ रूप सिद्ध हो जाता है । स्नेहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नेहो होता है। इसमें सुत्र संख्या २- ७७ से पूर्वस्थ एवं हलन्त 'स' वर्ण का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नेहो रूप सिद्ध हो जाता है । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] * प्राकृत व्याकरण * दुक्खं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २७२ में की गई है । अंत — पातः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप तप्पा होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ पूर्वस्थ एवं हलन्त उपध्मानीय वर्ग चिह्नन का लोप; २-८ह से शेष रहे हुए 'प' वर्ण को द्वित्व 'प' की प्राप्ति १०९७७ से द्वितीय 'तू' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अंतापाओ रूप की सिद्धि हो जाती है ।२२७७ अधो मनयाम् || २- ७८ ॥ I मनयां संयुक्तस्याधो वर्तमानानां लुग् भवति ॥ म । जुग्गं । रस्मी । सरो | सेरं ॥ न । नग्गो || लो | य । सामा। कुछ हो ॥ 1 अर्थः- यदि किसी संस्कृत शब्द में 'म', 'न' अथवा 'य' हलन्त व्यञ्जन वर्ण के यागे संयुक्त रूप से रहे हुए हों तो इनका लोप हो जाता है। जैसे- 'म' वर्ण के लोप के उदाहरण: - युग्मम्-जुग्गं ॥ रश्मिः = रस्सी । स्मः - सरो ओर स्मेरम्= सेरं ॥ 'न' वर्ग के लोप के उदाहरणः नग्नः = नग्गो और लग्नः=लग्गो | || 'य' वर्ण के लोप के उदाहरणः- श्यामा सामा | कुड्यम् =कुछ और व्याधबाहो || जुरां रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या २६२ में की गई है । रस्सी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३५ में की गई है । सरो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-७४ में की गई है। स्मेरम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सेरं होता है। इसमें सूत्र संख्या २७८ से 'म्' का लोप; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १०२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सरं रूप सिद्ध हो जाता है । स्थान नग्नः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप नग्गो होता है। इसमें सूत्र संख्या २- से द्वितीय 'न्' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'गुग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर नग्गो रूप सिद्ध हो जाता है । लग्नः - संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप लग्यो होता है। इसमें सूत्र संख्या से 'न' का लोप २-८६ से शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'युग की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लग्गो रूप सिद्ध हो हो जाता है । सामा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६० में की गई है। कुड्यम् संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप कुछ होता है। इसमें सूत्र संख्या २७ से 'य' का 1 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३६६ लोप २-८६ से शेष रहे हुए 'ड' को द्वित्व 'ड' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में थकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ मे प्राप्त 'म्' का अनु स्वार होकर कुरूप सिद्ध हो जाता है। व्याधः संस्कृत रूप हैं । इसका प्राकृत रूप वाही होता है। इसमें सूत्र संख्या से 'य्' का लोप १ १८७ से 'व' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वाही रूप सिद्ध हो जाता है ।। २७८ ॥ सर्वत्र ल ब - रामवन्द्रे ॥ २७६ ॥ - i I चन्द्र शब्दादन्यत्र लबरां सर्वत्र संयुक्तस्योर्ध्वमवश्व स्थितानां लुग्भवति ॥ ऊध्यं ॥ ल | उल्का | उक्का । वल्कलम् | बक्कलं ॥ ब | शब्दः सदो ॥ श्रब्दः । श्रद्द || लुब्धकः 1 लोड || अर्कः । श्रकी ॥ वर्गः कन्यो । अथः । श्लक्ष्णम् । सहं । विक्लवः । विक्कत्रो ।। पक्वम् । पक्कं पिक्कं ॥ ध्वस्तः । धत्यो | चक्रम् | चक्क || ग्रहः | गही || रात्रिः रती || अत्र द्व इत्यादि संयुक्तानामुभयप्राप्तां यथा दर्शनं लोपः ॥ कचिदूर्ध्वम् । उद्विग्नः । विगो || द्विगुणः । वि उणो । द्वितीयः । वीओ | कन्मपम् । कम्मसं || सर्वम् । सन्वं ॥ शुल्यम् । सुब्धं ॥ क्वचित्त्वधः । काव्यम् । कवं ॥ कुल्या | कुल्ला || माल्यम् । मल्लं । द्विपः । दिओ || द्विजाति: । दुआई | क्वचित्पर्यायेण । द्वारम् | बारं । दारं | उद्विग्नः । उच्चिरमी | उ || अवन्द्र इति किम् । चन्द्र । संस्कृत समोयं प्राकृत शब्दः । अत्रोत्तरेण विकल्पोषिन भवति निषेध सामर्थ्यात् ॥ I अर्थः-संस्कृत शब्द 'बन्द्र' को छोड़कर के अन्य किसी संस्कृत शब्द में 'ल', 'ब' (अथवा व् ) और र' संयुक्त रूप से हलन्त रूप से धन्यवर्ग के पूर्व में अथवा पश्चात् अथवा ऊपर, कहीं पर भी रहे हुए हो तो इन का लोप हो जाया करता हैं। वर्ण के पूर्व में स्थित हलन्त 'ल 'व्' और 'र' के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार है: - सर्व प्रथम 'ल' के उदाहरण: - उल्का उक्क्का और वल्कलम् = चक्कर || 'ब' के लोप के उदाहरण:-- शब्दः - सहो और लुब्धकः - लोओ। 'र के लोप के उदाहरण अर्कः = अक्का और वर्गः=बग्गो || वर्ण के पश्चात् स्थित संयुक्त एव ं हलन्त 'ल' 'ब' और 'र' के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार है:- सर्व प्रथम 'ल' के उदाहरणः प्रणम् = महं; विक्लवः = विवो ॥ व के लोप के उदाहरण पक्वम् = पक्क अथवा पिक || ध्वस्तः धत्यो । 'र' के लोप के उदाहरणः चक्रम् = '; ग्रहः- गहो और रात्रिः- रत्ती || जिन संस्कृत शब्दों में ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जाता हो कि उनमें रहे हुए दो हलन्त व्यञ्जनों के लोप होने का एक साथ हो संयोग पैदा हो जाता हो तो ऐसी स्थिति में 'उदाहरण में' जिसका लोप होना Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० ] # प्राकृत व्याकरण * बतलाया गया हो- दिखलाया गया हो- उम हलन्त व्यञ्जन का लोप किया जाना चाहिये । ऐमो स्थिति में कभी कभी व्यस्चन के पूर्व में रहे हुग मयुक्न हलन्त व्यञ्जन का लोप हो जाता है। कभी कभी व्यञ्जन के पश्चात् रहे हुए सयुक्त हलन्त व्यञ्जन का लोप होता है। कभी कभी उन लोप होने वाले दोनों व्यञ्जनों का लोप क्रमसे एव पर्याय से भी होता है; यों पर्याय से- क्रमसे- लोप होने के कारण से उन संस्कृतशब्दों के प्राकृत में दो दो रूप हो जाया करते हैं । उपरोक्त विवेचन के उदाहरण इस प्रकार है:- लोप होने वाले दो ध्यञ्जनों में से पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द' के लोप के उदाहरणः- उद्धिनः-उन्विग्गा द्विगुणः=वि-उरणो ॥ द्वितीयः बीओ । लोप होने वाले दो व्यञ्जनों में से पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ल.' के लोप का उदाहरण:- कल्मषम् -कम्मसं । इसी प्रकार से 'र. के लोप का उदाहरणः-मर्वम् सच्चा पुन: 'ल' का उदाहरण:-शुल्बम- सुव्य' । लोप होने वाले दो व्यसनों में से पश्चात् स्थित हलन्त व्यञ्जन के लोप होने के उदाहरण इस प्रकार है: 'य' के लोप होने के उदाहरण:-काध्यम-कव्व। कुल्या कुल्ला और माल्यम् = महलं ।। व, के लोप होने के उदाहरणः--द्विपः = दिनी और द्विजाति:: . दुबाई ।। लोप होने वाला व्यञ्जनों में से दोन व्यञ्जनों का जिन शब्दों में पर्याय से लोप होता है; ऐसे उदाहरण इस प्रकार है:-द्वारम् = बारं अथवा नारं । इस जदाहरण में लोप होने योग्य '' और 'त्र' दोनों व्यञ्जनों को पर्याय से- क्रम से- दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं इसी प्रकार से एक उदाहरण और दिया जाता है: --उद्विग्नः = उम्बिनी और उविवरणो ।। इस उदाहरण में लोप होने योग्य 'ग' और 'न.' दोनों व्यजनों को पयाय से .. क्रम से दोनों प्राकृत रूपों में लुप्त होते हुए दिखलाये गये हैं। यों अन्य उदाहरणों में भी लोप होने योग्य दोनों यजनी की लोप स्थिति समझ लना चाहिये। . प्रश्नः-'चन्द्र में स्थित संयुक्त और हलन्त 'द्' एवर के लोप होने का निषेध क्यों किया गया है? उत्तर-संस्कृत शठन 'वन्द्र' जैमा है; वैमा ही रूप प्राकृत में भी होता है; किसी भी प्रकार का वर्ण-विकार, लोप, श्रागम, आदेश अथवा द्वित्व आदि कुछ भी परिवर्तन प्राकृत-रूप में जब नहीं होता है; तो ऐसो स्थिति में जैसा-संस्कृत में वैसा प्राकृत में होने से उसमें स्थित्त 'द' अथवा 'र' के लोप का निषेध किया गया है और वृत्ति में यह स्पष्टी फरण कर दिया गया है कि- यह प्राकृत शब्द 'वन्द्र' संस्कृत शब्द 'वन्द्रम,' कं ममान ही होता है। 'चन्द्रम् शब्द के संबन्ध में यदि अन्य प्रश्न भी किया जाय तो भी, उत्तर दिया जाय; ऐसा दुसरा कोई रूप पाया नहीं जाता है; क्यों कि मूल-सूत्र में हो निषेध कर दिया गया है कि 'वन्द्रम' में स्थित हलन्त एवं संयुक्त 'दू तथा 'र' का लोप नहीं होता है इस प्रकार निषेध-आज्ञा की प्रवृत्ति कर देने से-(निषेध-सामर्थ्य के उपस्थित होने से )-किसी भी प्रकार का कोई भी वर्ण-विकार संबंधी नियम 'चन्द्रम के संबंध में लागू नहीं पढ़ता है। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३७१ उल्का: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उक्का होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७६ से 'ल' का लोप और २.८६ से शेष 'क' को द्वित्य क' को प्राप्ति होकर उक्का रूप सिद्ध हो जाता है। यल्फलम संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूप बक्कल होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७६ से प्रथम 'ल' का लोर; . से शेष क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपु'मक लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पक्कलं रूप सिद्ध हो जाता है। सही रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ६-६० में की गई है। अनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७E से 'घ' का लाप; २.८६ से शंष 'द' को वित्व '६ की प्राप्ति और ३-० से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अहो रूप सिद्ध हो जाता है। लोद्भश्रो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या - १६ में की गई है। अको रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १०९७७ में की गई है। चम्गो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। सराहं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है। विमलवः संस्कृत विशेषण रूप है । इसक प्राकृत रूप विक्कवो होता है। इस में सूत्र-संख्या २.७६ से 'ल' का लोप; :-C से शेष 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और ३-२ ले प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर विक्कको रूप सिद्ध हो जाता है। पर और पिक्क दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४७ में की गई है। ध्वस्तः साकृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृन रूप धत्थो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७ से च का लोप; २-४५ से संयुक्त व्यक-जन 'स्त' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'थ' को द्वित्व 'थ थ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ' को 'च' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर धरथा रूप सिद्ध हो जोता है। चकम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप चक होता है। इस में सूत्र संख्या २.७६ से 'र' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'फ' को द्वित्व 'क' की प्राप्तिः ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त नपुसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पक्के रूप सिद्ध हो जाता है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ } * प्राकृत व्याकरण * ग्रहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गहो होता है। इसमें सूत्र-संख्या :-9 से 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुस्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गही रूप सिद्ध हो जाता है। ___ रात्रिः संस्कृत रूप है। इप्तका प्राकृत रूप रत्ती होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.८४ मे वाघ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-७६ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप; २.८६ से शेष रहे हग 'त्' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा यिभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर रसी रूप सिद्ध हो जाता है। ___उद्विग्नः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप उब्विग्गो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'द' का लोप, २-८६ से शेष 'व' को द्वित्व 'क्व' की प्राप्ति; २-७८ से 'न' का लोप; २-८६ से शेष 'ग्' को द्वित्य 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उदिवग्गो रूप सिद्ध हो जाता है । द्विगुणः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृन रूप वि-उणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या .. से 'द्' का लोप; १-१७७ से 'ग्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वि-उपो रूप सिद्ध हो जाता है। बीओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५ में की गई है। फल्मषम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कम्मसं होता है। इसमें सुत्र-संख्या २-० से 'ल' का लोप; २-८६ से शेष 'म' को द्वित्व 'मम' की प्राप्ति; १९६० से 'प' को 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम्मसं रूप सिद्ध हो जाता है । सव्वं रूप की सिध्दि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। शुल्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुव्वं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-०६० से 'श' का 'स्'; २-७६ से 'ल' का लोप; २०१८ से शेष 'व' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति, ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुटवं रूप सिद्ध हो जाता है। काव्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कन्च होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २.७८ से 'य' का लोप; २.८ से शेष 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर कर्ष रूप सिद्ध हो जाता है। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३७३ कुल्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कुल ना होता है। इसमें पत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप और २-८६ से शेप 'ल' को दिल्ब 'ल्ल' की प्राप्ति होकर कुएला म्प सिद्ध हा जाना है। माल्यम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मल्ल होता है । इसमें सुत्र मख्या १८१ से दीर्घ स्वर 'श्रा के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'श्र की प्रानिः २. से 'य' का लाप; -८८ से शेष 'ल' को द्वित्व लल' को प्राप्ति: ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक बचन में प्रकारान्न नसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से शाम 'म' का अनुस्वार होकर मल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। दिओ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६४ में की गई है। दुआई रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ५-६४ में की गई है । बार और दारं दोनों रूपों को मिद्धि सूत्र-संख्या १-७६ में की गई है। उद्विग्न : संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृन रूप उश्विगो और उत्रिगणों होते हैं। इनमें में प्रथम रूप उप्रिमो की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है । द्वितीय रूप में सूत्र-मंच्या २-५७ से द' का लोप; २-८८ से शेप 'व' को द्रित्व 'व्य की प्राम, २-७७ से 'म् का लोप; २-८८ से शंप 'न' को द्वित्व 'नन' को प्रामि; १-२२८ से दोनों 'न' के स्थान पर '' को प्राप्ति गौर ३. प्रशमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उठिवण्णो रूप सिद्ध हो जाता है। वन्द्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १ ५३ में की गई है ।।२-७४ २ रो न वा ॥२-८०॥ द्रशब्दे रेफस्य का लुग भवति ।। चन्दो चन्द्रो । रुदो रुद्रा । भई भद्र । समुद्दो समुद्रो ।। हदशब्दस्य स्थितिपरिवृत्तौ द्रह इति रूपम् । तत्र द्रहो दही । कंचिद् रलापं नेच्छन्ति । द्रह शब्द. मपि कश्चित् संस्कृतं मन्यते ।। बोद्रहायस्तु ताणापुरुषादिवा वका नित्यं रफसंयुक्ता देश्या एव । सिक्खन्तु चोद्रहीश्रो ! बोद्रह-द्रहम्मि पडिया अर्थ:- जिन संस्कृत शब्दों में 'द्र' होता है; उनके प्राकृत-रूपान्तर में 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप होता है। जैसे:-चन्द्रः = चन्दो अथवा चन्द्रो ।। रुद्रः = रुद्दा अथवा रुद्रो ॥ भद्रम् = मह अथवा भद्र । समुद्रः = समुद्दो अथवा समुद्रो । संस्कृत शब्द 'हद' के स्थान पर वों का परस्पर में न्य-चय अर्थात् अदला बदली होकर प्राकृत रूप 'द्रह' बन जाता है । इस वर्ण व्यत्यय से उत्पन्न होने वाली अवस्था को 'स्थिति-परिवृत्ति' भी कहते हैं। इसलिये संस्कृत रूप 'हदः' के प्राकृत रूप द्रहो अथवा दही दोनों होत हैं। कोई कोई प्राकृत व्याकरण के प्राचार्य 'द्रह' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप होना नहीं मानते हैं; उनके मतानुसार संस्कृत रूप 'हृदः का प्राकृत रूप केवल 'द्रही' ही होगाः द्वितीय रूप दही' नहीं बनेगा। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] * प्राकृत व्याकरण * कोई कोई प्राचार्य 'द्रह' शब्द को प्राकृत नहीं मानते हुए संस्कृन-शदद के रूप में ही स्वीकार करते हैं। इनके मत से 'द्रहा' और 'दहो' दोनों रूप प्राकृत में होंगे। बोद्रह' दाद देशज-भाषा का है और यह 'तरुण-पुरूष' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । इम में स्थित रेफ 'रूप' 'र' का कभी भी लोप नहीं होना है । 'बोद्रह पुल्लिंग है और 'चोदही' स्त्रीलिंग बन जाता है । उदाहरण इस प्रकार है:-शिक्षन्ताम् तरुण्यासिक्खन्तु- बोद्रहीनो अर्थात नययुवती स्त्रियां शिक्षाग्रहण करे । तरूण-हद पतिता = वोद्रह द्रहम्मि पडिया अर्थात वह ( नवयुचती) तरुण पुरुष रूपी में गिर पड़ी । (तसा एक प्रेम में अपात हो गई)। यहाँ पर 'वोद्रह' शब्द का उल्लेख इस लिये करना पड़ा कि यह देशज हैं; न संस्कृत भाषा का है और न प्राकृत भाषाका है तथा इसमें स्थित रेफ रूप 'र' का लोप भी कभी नहीं होता है। अतः सूत्रसंख्या २८. के संबन्ध से अथवा विधान से यह शब्द मुक्त है; इसी तात्पर्य को समझाने के लिये इम शब्द की चर्चा सूत्र की वृत्ति में की गई है जो कि ध्यान में रखने योग्य है ।। चन्दा और चन्द्रो दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३० में की गई है। रुवः संस्कृत रूप है । इस के प्रायन रूप कही और भद्रो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र. संख्या २.८० से रेफ रूप द्वितीय 'र' का विकल्प से लोप; २-८६ से शेष 'द' को द्वित्व 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में 'अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप रुद्दो मिद्ध हो जाता है। द्वितोय रूप ( रुद्रः=) रुद्रो में सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप रद्रा भी सिद्ध हो जाता है। भद्रम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप भई और भद्र होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-८० से रेफ रूप 'र' का लोप; २-८१ से शेष 'द' को द्विस्व '६ को प्राधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्रानि और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार हो कर प्रथम रूप भई सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (भद्रम् - ) मन को सानिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र संख्या ३.२५ और १.२३ के विधानानुसार जान लेना चाहिये । समुद्रः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप समुद्दो और समुद्री होते है। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-० से रेफ रूप 'र' का लोप; २.८६ से शेष 'च' को द्वित्व 'द' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर समुही रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (समुद्रः = ) समुद्री की साधनिका सूत्र-संख्या ३-२ के विधानानुसार जान लेना । चाहिये। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ३७५ दहः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हो और वही होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-५० से रेफ रूप 'र' का विकल्प से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमसे द्रहो और दही दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । 444444 शिक्षन्ताम् संस्कृत विधिलिंगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सिक्खन्तु होता है । इस में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स' २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्रामि २-५९ से प्राप्त 'ख' की 'द्वित्व 'खख' की प्राप्तिः २०६२ से प्राप्त पूर्व 'खू को क की प्राप्ति ३०९७६ से संस्कृत विधिलिंगात्मक प्रत्यय 'न्ताम्' के स्थान पर प्रथम पुरुष के बहुवचन में प्राकृत में 'न्तु प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिक्खन्तु रूप सिद्ध हो जाता है । तरुण्यः संस्कृत रूप हैं । इसके स्थान पर देशज-भाषा परम्परा से रूढ़ शब्द 'वो' प्रयुक्त होता आया है । इसका पुल्लिंग रूप 'बोद्रह' होता है। इस में सूत्र संख्या ३-२१ से पुल्लिंग से स्त्रीलिंग रूप बनाने में प्राप्त 'ई' प्रत्यय से 'बोद्रही' रूप की प्राप्ति और २-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में ईकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त 'जम् प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर visit रूप सिद्ध हो जाता है। तरुण संस्कृत शब्द है । इसका देशज भाषा में रूद्ध रूप 'पोह' होता है। यहां पर समासात्मक वाक्य में आया हुआ है; अतः इस में स्थित विभक्ति-प्रत्यय का लोप हो गया है । रूप है | इसका प्राकृत रूप हम्नि होता है । इस में सूत्र संख्या २-१२० से '६' और द का परस्पर में यम और ३-११ से ममी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'वि' के स्थान पर प्राकृत में 'स्मि' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर ब्रह्मम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। पतिता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रुद पडिश्रा होता है। इसमें सूत्र- संख्या ४-२१६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति और १-१७७ से द्वितीय 'तू' का लोप होकर पढिजा रूप सिद्ध हो जाता है । २८० ॥ धात्र्याम ॥ २-८१ ॥ धात्री शब्दे रस्य लुग् वाभवति ॥ घती हस्वात् प्रागेव रलोपे धाई । पढे । धारी ॥ I अर्थः - संस्कृत शब्द ' धात्री' में रहे हुए 'र्' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप होता है । धात्री=धत्ती अथवा धारी ॥ आदि दीर्घ स्वर 'आ' के ह्रस्व नहीं होने की हालत में और साथ में 'र' का लोप होने पर संस्कृत रूप 'धात्री' का प्राकत में तीसरा रूप धाई भी होता है । यों संस्कृत रूप धात्री के भाकृत में सोन रूप हो जाते हैं; जो कि इस प्रकार है:- बत्ती, धाई और धारी ॥ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] धात्री संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप घत्ती, धाई और धारो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घस्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-८१ से 'र्' का (वैकल्पिक रूप से ) लोप; और २०० से शेष 'त' को वित्त' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप ती सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * द्वितीय रूप ( धात्री ) धाई में सूत्र संख्या २-८१ से ( वैकल्पिक रूप से ) र ' का लांप और = २- ७७ से 'तू' का लोप होकर द्वितीय रूप धाई भी मिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप ( धात्री = भी सिद्ध हो जाता है । २-८१ ।। धारी में सूत्र संख्या २.७७ से 'तू' का लोप होकर तृतीय रूप धारी तीक्ष्णः ।। २ - ८२ ।। तीक्ष्ण शब्दे णस्य लुग्वा भवति ॥ तिक्खं । तिहूं ॥ 1 अर्थ :-- संस्कृत शब्द तोक्षण में रहे हुए 'ए' का प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से लोप हुआ करता है । जैसे:- तीक्ष्णम् - तिक्तं अथवा तिरहं || तीक्ष्णम् संस्कृत विशेषण रूप है। इस के प्राकृत रूप तिक्खं और तिगृहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति २८२ से 'ण' का लोप २०३ से 'च' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त मू का अनुस्वर होकर प्रथम रूप तिक्ख सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तिरहं की सिद्धि सूत्र संख्या २०७५ में की गई है । २८२ ॥ झोञः ।। २-८३ ।। ज्ञ: संबन्धिनो अस्य लुग वा भवति || जाणं गाणं । सब्वज्जो सन्वष्णू । अज्जी अप्पण्णू | दवज्जो दइवष्णू । इङ्गिज्जो इङ्गिराय् । मणोज्जं । मणोष्णं । हिज्जो हिए । पज्जा पण्णा । अज्जा भया । संजा सख्या । कच्चिन्न भवति विणणं ॥ I अर्थः- जिन संस्कृत शब्दों में संयुक्त व्यजन 'ज्ञ' होता है; नब प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यक्जन 'ज्ञ' में स्थित 'न' व्यञ्जन का विकल्प से लोप हो जाता है । जैसे:- ज्ञानम् - जाणं अथवाणां । सर्वज्ञः = सब्वज्जो अथवा सव्वरणू ॥ आत्मज्ञः = श्रप्पज्जो अथवा अप्पर || दैवज्ञः दइवज्जो अथवा दtary | इङ्गितज्ञ :- इति श्रज्जो अथवा इङ्गिणू || मनोज्ञम् मणोज्जं श्रथवा मणों । श्रभिज्ञः = हिजो अथवा श्रहिए । प्रज्ञा-पज्जा अथवा परणा । श्रज्ञा श्रजा अथवा श्राणा ॥ संज्ञा= संजा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિબહેન મલાલ શાહ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ३७७ अथवा सराणा ।। किसी किमी शब्द में स्थित 'न' व्यश्चन में सम्मिलित 'ब' व्यञ्जन का लोप नहीं होता है । जैसे:-विज्ञानं विणणाणं । इस उदाहरण में स्थित संयुक्त जन 'ज्ञ' की परिणात अन्य नियमानुसार 'ण' में हो गई है। किन्तु सूत्र-मंख्या २.८२ के अनुसार लोप अवस्था नहीं प्राप्त हुई है ।। ज्ञानम् संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत-रूप जाणं और णाणं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८३ से मयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित 'ब' व्यञ्ज न का लोप; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३–२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप जाणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप णाणं की सिद्धि सूत्र संख्या २.४ में की गई है। सबज्जो और सम्बएणू दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १.५६ में की है। आत्मज्ञः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अप्पज्जो और अप्परगू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ५-६ से वीर्य । “अः के २६ र असम स्मा' की प्राप्ति; २५१ से मंयुक्त व्यञ्जन 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८८ से 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति, २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' का लोप; २.८६ से 'ज्ञ' में स्थित ब' का लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि प्रत्यय कस्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अप्पज्जी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (आत्मन्त्रः = ) श्रप्पएणू में सूत्र-संख्या १-८४ से दीघ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ५-५१ से मंयुक्त व्यञ्जन 'स्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; -४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण की प्राप्ति; २.८६ में प्राप्त' रण' को द्वित्व 'एण की प्राप्ति; ५-५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'श्र" स्वर के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर '3' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अप्पण्णू भी सिद्ध हो जाता है । दैवज्ञः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दइवन्नों और दइवएगू होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' श्रादेश की प्राप्ति; ८३ से संयुक्त व्यसन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; २-० से 'ज्ञ' में स्थित 'म्' के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दइयजो रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीयरूप- ( दैवज्ञः-) दइवणरणू में सूत्र-संख्या १-१५१ से 'ऐ' के स्थान पर 'अइ' प्रादेश की प्राप्ति २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर '' को प्रामि; २-८६ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'एण' की प्राप्रि; १ .५६ से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति; और ३-1 से प्रथमा विभक्ति के Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] * प्राकृत व्याकरण * एक वचन में चकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर इस्य घर 'उ' को दीर्घ स्वर 'उ' की प्राप्ति हाकर द्वितीय रूप दडपण्णू सिद्ध हो जाता है। इंगितज्ञः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप इंगिम जो और इङ्गिएरा होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोग; १.८१ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ब' का लोप, २-८० से 'ज्ञ' में स्थित 'न' के लोप होने के पश्चात शेष 'ज' को द्वित्र 'ज' की प्राप्ति और ३- से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप इङ्गिअजो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- ( इङ्गितज्ञः) इङ्गिएणू में सूत्र-संख्या १-१७६ से 'त' का लोप; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ण को द्वित्व 'गण' की प्राप्ति ५-५६ से प्राप्त '' में स्थित 'अ' स्वर के स्थान पर हस्व स्वर 'ज' की प्राप्ति; और ३--१६ से प्रथमा विक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य तृस्व स्वर 'उ' को दीध स्वर 'क' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इंगिअण्णा सिद्ध हो जाता है। मनाक्षम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मणोज्जं और मणोरण होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का ण'; २-८३ से संयुक्त प्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; :-CE से 'क्ष' में स्थित 'र' के लोप होने के पश्चात शेष 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३-०५ स प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२६ ने प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप मणोपज सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( मनोझम) मणोणणं में सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' का 'ण'; २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'पा' की प्राप्ति; ६-८६ से प्राप्त 'रस' को द्वित्व 'गण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप मणोण्णं मी सिद्ध हो जाता है। अहिजो और अहिराणू रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-५६ में की गई है। प्रज्ञा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पन्जा और परणा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या २-6 से 'र' का लोपः २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ए' का लोप; २-६६ से 'ज्ञ में स्थित 'रूप' के लॉप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पजा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पपणा की सिद्धि सत्र संख्या २-४२ में की गई है । आज्ञा संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अजजा और प्राणा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ६.८४ से दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्तिः २-८३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्म व्यञ्जन 'म' का लोप; २-३ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३७६ मे 'ज्ञ' में स्थित 'म के लोप होने के पश्चात् शेष 'ज' को द्वित्व 'जज' को प्राप्ति होकर प्रथम रूप अज्जा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रुप (आज्ञा =) भाणा में सत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर आणा रुप सिद्ध हो जाता है। संज्ञा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मंजा और सरणा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में मत्रसंख्या २-८३ से संयुस्त व्यञ्जन 'ज्ञ' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'काका लोप होकर प्रथम रूप सेजा मिन्द हो जाता है। द्वितीय रूप सपणा की सिध्दि सूत्र-संख्या २-४२ में की गई है। विएणणं रूप की सिद्धि सूत्रसंख्या २.४२ में की गई है । २-३ ।। मध्याहूने हः ॥२-४॥ मध्याह्न हस्य लुग् वा भवति ।। मभन्नो मज्झण्हो । अर्थः-संस्कृत शब्द मध्याह्न' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'हू' के स्थन पर प्राकृत रूपान्तर में विकल्प से 'ह' का लप होकर 'न' शेष रहता है । जैसे:--मध्याह्नः मम्झनो अथवा मन्झएहो ।। जैकल्पिक पक्ष होने से प्रथम रूप में ह' के स्थान पर न' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में 'ह' के स्थान पर 'राह' का प्रप्ति हुई है। मध्याहः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मज्झनो और माझरही हासे है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या : २६ से संयुक्त व्यञ्जन थ्य' के स्थान पर 'झ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'झ' की द्वित्व 'झम' की प्रप्ति; २०६० से प्राप्त पूर्व 'झ' को 'ज' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति २-८४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह्न में से 'ह' का विकल्प से लोप; २-८६ से शेष 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और ३-२ से प्रश्रमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर प्रथम रूप मज्झन्नो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रुप ( मध्याह्न) मज्झरहो में 'मज्झ' तककी साधनिका प्रथम रूप के समान हो; तथा आगे सूत्र-संख्या २-७५ से संयुक्त व्यञ्जन 'खके स्थान पर रह थादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रामि होकर द्वितीय रूप मज्ाण्ही भी सि ..... ४॥ दशाहे ॥ २-०५॥ प्रथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । दशाई हस्य लुम् भवति ।। दसारो ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८. ] * प्राकृत व्याकरण * Re :Au..--.-.--.-.. . -. :.422-2.......... . ____ अर्थः-संस्कृत शब्द 'दशाह' में स्थित 'दश' और 'अह शब्दों का पृथक-पृथक अर्थ नहीं करते हुए तथा इसको एक हो अर्थ-वाचक शठन मानते हुए इस का 'बहुप्रोहि- समाम में विशेष 'अर्थ स्वीकार किया जाय, तो 'दशाह' में स्थित 'ह' व्यञ्जन का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है । जैसे: - दशाई:- दसारो अर्थान् यादव-विशेष । दृशाई: संस्कृत शब्द है । इसका प्राकृत रूपान्तर सारो होता है। इस में सूत्र संख्या १.६० से 'श' का 'स'; २-८५ से 'ह' का लोप और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिय में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसारो रूप सिद्ध हो जाता है । २.८५।। श्रादेः श्मश्रु-श्मशाने । २.८६ ॥ अनयोरादेलुग भवति ।। मासू मंसू भस्सू 1 मसाणं ॥ आर्षे श्मशान-शब्दस्य सीआणं सुसाणमित्यपि भवति ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'श्मश्र' और 'श्मशान में आदि में स्थित 'श' व्यञ्जन का प्राकृत रूपान्तर में लोप हो जाता है । जैसे:-श्मश्रः = मासू अथवा मंसू अथवा मस्सू ॥ श्मशानम् मसाणं ।। आर्ष-प्राकृत में श्मशान' शब्द के दो अन्य रूप और भी पाये जाते हैं, जो कि इस प्रकार है:-श्मशानम् = सीआणं और सुसाणं ॥ हमश्रः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप मासू , मंसू और मस्सू होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २.८६ से श्रादि में स्थित 'श' व्यञ्जन का लोप; १.४३ से 'म' में स्थित हस्व स्वर 'प्र' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्रापि; २-७३ से 'र' का लोपः १.२६० से 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा घिभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मात्र सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप मसू की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है। तृतीय रूप- श्मश्रः= ) मस्सू में सूत्र-संख्या २-८६ से आदि में स्थित 'श' व्यञ्जन का लोप; २-७६ से 'र' का लोपः १-२६० से 'र' के लोप होने के पश्चात शेष रहे हुए 'श' को 'स्' की प्राप्ति; २-८४ से प्राप्त 'स' को द्वित्व 'स्स.' की प्राप्ति; और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर तृतीय रूप मस्सू भी सिद्ध हो जाता है। श्मशानम् संस्कृत रूप है। इस का प्राकृत रूप मसाण होता है। इस में सूत्र-संख्या २-८६ से श्रादि में स्थित 'श' व्यञ्जन का लोप, १-२६० से द्वितीय 'श' का 'स'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में आकारान्त नपुमक जिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर म' प्रत्यय की प्रारित और १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मसाणं रूप सिद्ध हो जाता है। आष-प्राकन में 'इमसानम के सीमाणे और मुसाणं रूप होते हैं। इनकी साधनिका प्राकृतनियमों के अनुसार नहीं होती है इसी लिये ये आर्प-रूप कहलात हैं । २-८६ ।। श्चो हरिश्चन्द्रे ॥ २-८७ ॥ हरिश्चन्द्रशब्दे श्व इत्यस्य लुग भवति ।' हरि अन्दो । अर्थ:-संस्कृत शब्द 'हरिश्चन्द्र' में स्थित संयुक्त व्यन्जन 'श्च' का प्राकृत-रूपान्तर में लोप हो जाता है। जैसे:--हरिश्चन्द्रः = हरिअन्दो। हरिश्चन्द्रः संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप हरिअन्दो होना है। इसमें सूत्र-मख्या -- मे मंयुक्त व्यञ्जन 'श्च' का लोप; २-८० से 'द्र' में स्थित रेफ रूप 'र' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरिअन्दा रूप सिद्ध हो जाता है। रात्रौ वा ।। २-८८ ॥ रात्रिशब्दे संयुक्तस्प लुग् वा भवति ॥ राई रत्ती ।। अर्थः-संस्कृत शब्द 'रात्रि' में स्थित संयुक्त व्यतन 'त्र' का विकल्प से प्राकृत रूपान्तर में लोक होता है । जैसे:--रात्रि:-राई अथवा रत्ती ॥ रात्रिः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप राई और रत्ती होने हैं। इनमें से प्रथम रूप में मुत्रसंख्या २८८ से संयुक्त व्यन्जन 'त्र' का विकल्प से लोप; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप राह सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-(रात्रि:= ) रत्ती की सिद्धि सूत्र-संख्या-२-७E में की गई है।॥२-८८ ॥ अनादौ शेषादेशयोर्डित्वम् ॥ २-८६ ॥ पदस्यानादो वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति । शेष । कप्पतरु । भुत्तं । दुद्धं । नग्गो । उक्का । अक्को । मुक्खा ॥ आदेश । डकको ! जक्खी । रग्गो। किच्ची । रुप्पी ।। क्वचिन भवति । कसिणी ॥ अनाद विति किम् । खलिअं। थेरो । खम्भो । स्योस्तु । द्वित्वमस्त्ययेऽऽति न भवति । विञ्चुगो । भिण्डिवालो ।। Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२] * प्राकृत व्याकरण अर्थ:- यदि किसी संस्कृत शब्द का कोई वर्ण नियमानुमार प्राकृत-रूपान्तर में लुप्त होता है; तदनुसार उस लुम होने वाले वर्ण के पश्चात् जो वणं शेष रहता है; अथवा लुम्न होने वाले उस वर्ण के स्थान पर नियमानुसार जो कोई दूसरा वर्ण आदेश रूप से प्राप्त होता है; एवं यह शेष वर्ण अथवा श्रादेश रूप से प्राप्र वर्ण यदि उस शब्द के प्रादि- ( प्रारंभ ) में स्थित न हो तो उस शेप वर्ण का अथवा आदेश रूप से प्राप्त वर्ण का द्वित्र वर्ण हो जाता है । लुप्त होने के पश्चात् शेष-अनादि वर्ण के द्वित्व होने हरण इस प्रकार है:-कल्पतम्र:-प्पतरू । सूक्तम्भू । दुग्धम-वृद्धं । नग्नः नग्गो। उल्का-कका । अर्कः-अको । मूर्ख:-मुक्खो ॥ आदेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण के द्विस्व होने के उदाहरण इस प्रकार है:-दष्टःदुक्को । यन:-जाखो । रक्ता-रग्गो। ऋति: किची। रुक्मी-झापी । की कभी लोप होन के पश्चात् शष रहने वाले वर्ग का द्वित्व होना नहीं पाया जाता है। जैसे:-कृतना-ऋसिणो यहां पर 'त्' के लोप होने के पश्चात शेष 'स' का द्वित्व 'रस' को प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्यत्र भी जानना। प्रश्नः-'अनादि में स्थित हो तभी उस शेष वर्ण का अथवा आदेश प्राप्त वर्ण का द्वित्व होता है ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तर-क्यों कि यदि वह शेष वर्ण अथवा श्रादेश प्राप्त वर्ण शब्द के प्रारंभ में ही स्थित होगा तो उसका द्वित्व नहीं होगा; इस विषयक उदाहरण इस प्रकार है:-स्खलितम्खलियं । स्थविर, थे। स्तम्भः = खम्भो ॥ इन उदाहरणों में शेष वर्ण अथवा आदेश प्राप्त वर्ण शब्दों के प्रारंभ में ही रहे हुए हैं; श्रतः इनमें द्वित्व की प्राप्ति नहीं हुई है । यो अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये । जिन शब्दों में शेष वर्ण अथवा प्रादेश प्राप्त वर्ण पहले से ही दो वण रूप से स्थित हैं; उनमें पुनः द्वित्व की आवश्यकता नहीं है । उदाहरण इस प्रकार है:-वृश्चिक:-विन्चुत्रो और मिन्द्रिपाल भिरिडवालो ॥ इत्यादि । इन उदाहरणों में कम से 'श्चि' के स्थान पर दो वर्ण रूप 'चु' की प्राप्ति हुई है और 'द' के स्थान पर दो वर्ण रूप 'एड' को प्राप्ति हुई है; अतः अब इनमें और द्वित्व वण करने की आवश्यकता नहीं है । यो अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिये । कल्पतरुः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कप्पतरू होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७६ से 'ल' का लोप; २-८६ से शेष 'ए' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्ति; और ३-६६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'ज' को दीर्घ स्वर 'ॐ की प्राप्ति होकर फम्पतरू रूप सिद्ध हो जाता है। भुत रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-४ में की गई है। दुद्धं रूप की सिधि सूत्र-संख्या २-७७ में कीगई है। नग्गी रूप की मिनि सूत्र-संख्या २-७८ में की गई है। पक्का रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-56 में की गई है। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३८३ skको रूप की मिद्धि सूत्र संख्या १-१४७ में की गई है। मूर्चः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मुक्तो होता है। इसमें मुत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति; २.७६ से 'र' का लोप २ = से शेष 'ख' को द्वित्व 'ख ख की प्राप्ति, २.८ से प्राप्त पूर्व ख.' को 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग मे 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुकरखो रूप सिद्ध हो जाता है। हाको रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २.२ में की गई है। यक्ष: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जक्खा होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २.० से 'क्ष' के स्थान पर रख की प्राप्ति :-८८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जक्खो रूप की सिद्धि हो जाती है। रग्गो रूप की मिद्धि सूत्र संख्या २-१० में की गई है। किच्ची रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१२ में की गई है। रुप्पी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५ में की गई है। फमिणरे रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७५ में की गई है। स्खलितम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप खलिब होता है । इम में सूत्र संख्या २-७७ से हलन्त स्' का लोप; १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खलिअं रूप सिद्ध हो जाता है। थेरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६६ में की गई है। खम्भो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २.८ में की गई है। विचुली रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२८ में गई है। भिण्डिवालो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८ में की गई है। ॥२-८८ ।। द्वितीय-तुर्ययोस्परि पूर्वः ॥२-६०॥ द्वितीयतुर्ययोत्वि प्रसङ्ग उपरि पूर्वी भवतः ।। द्वितीयस्योपरि प्रथमश्चतुर्धस्योपरि तृतीयः इत्यर्थः ।। शेष। धक्खाणं 1 चग्यो । मुच्छा । निझरो । कट्ठ । तित्थं । निद्धणो । गुष्पं । निम्मरो ।। आदेश । जक्खो । पस्यनास्ति ॥ अच्छी । मज्झ । पट्ठी । वुडो । हत्थो। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "३८४] * प्राकृत व्याकरण आलिद्धो । पुष्पं । भिन्भलो ।। तैलादौ (२-६८) द्वित्वे श्रोखलं । सेवादी (२-६६) नक्खा नहा || समासे । कइ-द्धो कर-धरो ।। द्वित्व इत्येव । खाओ। __ अर्थ:-किसी भी धर्रा के दूसरे अक्षर को अथवा चतुर्थ अक्षर को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो उनके पूर्व में द्वित्व प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर हो जायगा और द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतीय अक्षर हो जायगा । विशेष स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि-किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत में रूपान्तर करने पर नियमानुसार लोप होने वाले वर्ण के पश्चात शेष रहे हुए वर्ण को अथवा श्रादेश रूप से प्राप्त होने वाले वर्ण को द्वित्व होने का प्रसंग प्राप्त हो तो द्वित्व होने के पश्चात प्राप्त द्वित्व वर्गों में यदि वर्ग का द्वितीय अक्षर हैं; तो विल्य प्राप्त वर्ण के पूर्व में स्थित हलन्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर लसी वर्ग के प्रथम अक्षर की प्राप्ति होगी और यदि द्वित्व प्राप्त वर्ण वर्ग का चतुर्थ अक्षर है तो उस द्वित्व प्राप्त चतुर्थ अक्षर में से पूर्व में स्थित चतुर्थ अक्षर के स्थान पर उसो वर्ग के ततीय अक्षर की प्राप्ति होगी । 'शेप' से संबंधित उदाहरण इस प्रकार है:-व्याख्यानम् = वाखाणं । व्याघ्रः = बग्यो । मूछी मुच्छा । निझरः-निज्झरो । कष्टम् = कटुं । तीर्थम् = तित्थं । निर्धना=निद्धणो। गुल्फम् =गुप्फं। निर्भरः- निटभरो।। इसी प्रकार से 'आदेश' से सम्बंधित उदाहरण इस प्रकार है:-यतः= जक्खो ।। दीघ 'ध' का उदाहरण नही होता है । अक्षिः= अच्छी । मध्यं = मम स्पष्टिः = पट्ठी ।। वृद्धः= बुद्धो । हस्तः= हत्थो । प्राश्लिष्टः = प्रालिद्धी । पुष्पम् = पुष्फ और चिखलः भिटभलो ।। सूत्र संख्या २-६८ से तैल आदि शब्दों में भी द्वित्व वर्ण की प्राप्ति होती है; उनमें भी इसी मत्रविधानानुसार प्राप्त द्वितीय अक्षर के स्थान पर प्रथम अक्षर को प्राप्ति होती है और प्राप्त चतुर्थ अक्षर के स्थान पर तृतोय अक्षर की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-जदूखलम् अोखलं । इसी प्रकार सूत्र संख्या ६६ मे सेवा आदि शब्दों में भी द्वित्त वर्ण की प्राप्ति होती है; उन शब्दों में भी यही नियम लागू होता है कि प्राप्त द्वित्व द्वितीय वर्ष के स्थान पर प्रथम वर्ण की प्रापि होती हैं प्राप्त द्विव चतुर्थ वर्ण के स्थान पर तृतीय वर्ण की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-नखाः = नक्खा अथवा नहा ।। समास गत शब्द में भी द्वितीय के स्थान पर प्रधम की प्राप्ति और चतुर्थ के स्थान पर तृतीय को प्राप्ति इसी नियम के अनुसार जानना । उदाहरण इस प्रकार है: · कपि-ध्वजः = कइ-द्धी अथवा कइधो ।। उपरोक्त नियम का विधान नियमानुसार द्वित्व रूप से प्राप्त होने वाले वर्षों के संबंध में ही जानना, जिन शब्दों में लोप स्थिति की अथवा आदेश-स्थिति की उपलब्धि (तो) हो; परन्तु यदि ऐसा होने पर भी विर्भाव की स्थिति नहीं हो तो इस नियम का विधान ऐसे शब्दों के संबंध में लागू नहीं होगा । जैसे:--ल्यातः खाओ । इस उदाहरण में लोप-स्थिति है। परन्तु द्विर्भाव स्थिति नहीं है; अतः सूत्र-संख्या २०६० का विधान इस में लागू नहीं होता है। व्याख्यानम् संस्कृतरूप है। इसका प्राकृत रूप वाखाणं होता है। इस में सूत्र संख्या ५-७८ से दोनों 'यू' कारों का लोप; १-८४ से शेष 'वा' में स्थित दीर्घस्वर 'आ' के स्थान पर इस्व स्वर 'अ' की Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३८५ प्राति; ८ से 'ख' वर्ण को द्वित्व 'ख रख' की प्राप्ति; ६ से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्तिः १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा-विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म प्रत्यय की प्रारित; और ..२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर पक्रवाणं रूप सिद्ध हो जाता है। ट्याघ्रः संस्कृन रूप है । इसका प्राकृत रूप बग्यो होता है। इप्समें सूत्र-संख्या :-७८ से 'य' का लोप; १-८४ से शेष 'वा' में स्थित्त दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; -७ से 'र' का लोप २-८ से 'घ' को द्वित्व 'घुघु' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्य 'घ' को 'ग्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वग्यो रूप सिद्ध हो जाता है। मूछा-संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मुच्छा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २. से 'र' का लोप; और १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति होकर मुच्छा रूप सिद्ध हो जाता है। निन्झरो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.६८ में की गई है। भट्ठ रूप की सिद्धि सूत्रः ६.२४ों की है। तित्थं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८४ में की गई है। निर्धनः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप निद्धरणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-५६ से 'र' का लोप; २-८६ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व धू' को 'द्' की प्राप्ति १-२२८ से द्वितीय 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निदधणी रूप सिद्ध हो जाता है । गरफम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गुप्फ होना है। इसमें सूत्र-संख्या २-91 से 'ल' का लोप; २-८८ से शेष 'फ' को द्वित्व "फफ' की प्राप्ति; २-६० से प्रात पूर्व 'फ्' को 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गुप्फ रूप सिद्ध हो जाता है। निर्भरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप निमसे होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-4 से शेष 'भ' को द्वित्व भूम' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'म' को 'ब' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निम्भरी रूप सिद्ध हो जाता है। जन्खो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-८६ में की गई है। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] * प्राकृत व्याकरण * अच्छी रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-३३ में की गई हैं। मम रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या २-२६ में की गई हैं । पट्टी रूप को सिद्धि सूत्र मंख्या १-१२६ में की गई है। कुड्डो रूप की सिद्धि सुत्र संख्या १-१३६ में को गई हैं । त्यो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-४५ में की गई हैं। लिडो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-४६ में की गई हैं। युकं रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या १-२२६ में की गई है। भिमली रूप की सिद्धि सूत्र मंख्या २-५८ में की गई है। ओखलं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६-९७१ में की गई है। नखः संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत रूप नक्खा और नहा होते हैं । इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-६६ से 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को क' की प्राप्तिः ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर लोप; और ३-१२ से 'ख' में स्थिति अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दोष स्वर 'आ' की प्राप्ति हो कर प्रथम रूप नखा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (नखाः = ) नहा में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और शेष साधनिका (प्रथमा बहु वचन के रूप में ) प्रथम रूप के समान हो होकर नहा रूप सिद्ध हो जाता है। कथि-ध्वजः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कहओ और कन्धो होते हैं । इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १ १०७ से 'प' का लोपः २००६ से 'व' का लोपः २८६ से शेष 'ध' को द्वित्व 'घ्ध' की प्राप्ति; २ ६० से प्राप्त पूर्व 'घ' को 'दू' की प्राप्तिः १-१७७ से जू का लोप और ३-२ प्रथम विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप कई इओ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- ( कपि-ध्वजः = ) कइ ओ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'प' का लोप; ५-७६ से 'व' का लोप; १-१७७ से ज् का लोपः और ३-२ से प्रथम रूप समान ही 'ओ' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कड़-ध भी सिद्ध हो जाता है । ख्यातः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप खायो होता है। इसमें सूत्र संख्या २७० से 'यु' का लोप; १-१७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खाओ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-६॥ दीर्घे वा ॥२- ३१॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * _ [३८७ . . . . . . . . . . . दीर्घ शब्दे शेषस्य धस्य उपरि पूर्वो वा भवति ॥ दिग्पो दीहो ॥ अर्थ:--संस्कृत शब्द 'दीर्घ के प्राकृत-रूपान्तर में नियमानुसार रेफ रूप 'र' का लोप हान के पश्चात् शेष व्यञ्जन 'घ' के पूर्व में ('घ' क) पूव व्यम्जन 'ग' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती हैं जैसेदीर्घः दिग्धों अथवा दीहो । दीर्घः संस्कृत विशेषण रूप है । इसकं प्राकृत रूप दिग्धो और दीही होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति; 2-0 से 'र' का लोप; ६.६१ से 'ए' के पूर्व में 'ग' की प्राप्ति और ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त मुल्लिग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप दिग्धी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दोघ) दीही में सूब-संख्या २-७१ से 'र' का लाप; १-१८७ से '' के स्थान पर 'ह' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथम रूप के समान ही 'यो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप दीही भी सिद्ध हो जाता है ।।२-६१|| न दीघीनुस्वारात् ।।२-६२।। दीर्धानुस्वाराभ्यों लावणिकाभ्यामलाक्षणिकाभ्यां च परयोः शेषादेशयोत्विं न भवति । छूढो । नीसासो । फासो ।। अलाक्षणिक । पार्श्वम् । पायं ।। शीर्षम् । सोसं ॥ ईश्वरः। ईससे ।। द्वेष्यः । वेसो । लास्थम् । लास ॥ प्रास्यम् । श्रासं। प्रेष्यः । पेसो ॥ अवमान्यम् । भोमार्ल ॥ प्राज्ञा । आणा। आज्ञप्तिः ! आणती ॥ प्राज्ञपनं । आणवणं ।। अनुस्वारान् । व्यस्त्रम् । तंसं अलाक्षणिक | संझा । विभो । कंसाली ।। अर्थ:-अदि फिसो संस्कृत शब्द के प्राकृत-रूपान्तर में किसी वर्ण में दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार रहा हुश्रा हो और उम दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार की प्राप्ति चाहे ज्याकरण के नियमों से हुई हो अथवा चाह उस शब्द में हो प्रकृति रूप से ही रही हुई हो और ऐसी स्थिति में यदि इस दीर्घ स्वर अथवा अनुस्वार के आगे नियमानुमार लोप हुए वर्ण के पश्चात शेष रह जाने वाला वर्ण आया हुआ हो अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाला वणं आया हुआ हो तो उम शेष वर्ण को अथवा आदेश-प्राप्त वर्ण को द्वित्व-भाव की प्राप्ति नहीं होगी । अर्थात ऐसे वर्गों का द्वित्व नहीं होगा ! दीर्घ स्वर संबंधी उदाहरण इस प्रकार है:-क्षिप्तः = छूढो । निःश्वासः-नीसासों और पर्शः फासो में इन उदाहरणों में स्वर में दीर्घता व्याकरण के नियमों से हुई है। इसलिये ये उदाहरण लाक्षणिक कोटि के हैं। अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं, जो कि अपने प्राकृतिक रूप से ही दीर्घ स्वर वाले हैं; ये उदाहरण प्रलाक्षणिक कोटि के समझे जोय । पारर्यम्-पास ।। शीर्षम्-सीसं | ईश्वरः = ईसरो ॥ द्वेष्याम्बेसी॥ लास्यम्= लासं || श्रास्यम्-प्रासं।। भेभ्यः पेसो ॥ अवमाल्यम्-प्रोमालं ॥ प्रामाश्रोमा ।। श्राप्तिः आणत्ती ॥ श्राझपनं-भाषवर्ष ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] * प्राकृत व्याकरण * इन उदाहरणों में दीर्घ स्वर के धागे वर्ग-विशेष को लोप स्थिति से शेष वर्ण की स्थिति अथवा आदेश प्राप्त वर्ण की स्थिति होने पर भी उनमें द्विभाव की स्थिति नहीं है । __ अनुस्वार संबंधी उदाहरण निम्नोस है। प्रथम ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं, जिनमें अनुस्वार की प्राप्ति ध्याकरण के नियम-विशेष से हुई है; ऐसे उदाहरण लाक्षणिक कोटि के जानना । यत्रम्-तंसं । इस उदाहरण में लोप स्थिति है; शेषवर्ण 'स' की उपस्थिति अनुस्वार के पश्चात रही हुई है; अत: इम शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति नहीं हुई है। यों अन्य लाक्षणिक उदादरण भी समझ लेना। अब ऐसे उदाहरण दिये जा रहे हैं। जिनमें अनुस्वार की स्थिनि प्रकृति रूप में ही उपलब्ध है; ऐसे उदाहरण अनाक्षणिक कोटि के गिने जाते है । संध्या = संझा । विध्या-विझो और कांस्यालः = कंसोलो ॥ प्रथम दो उदाहरणों में अलाक्षणिक रूप से स्थित अनुस्वार के आगे श्रादेश रूप से प्राप्त वर्ण 'झ' की उपस्थिति विद्यमान है; परन्तु इस 'झ' वर्ण को पूर्व में अनुस्वार के कारण से द्वित्व झझ' की प्राप्ति नहीं हुई है। तृतीय उदाहरण में 'य' का लोप होकर अनुग्वार के आगे शेष वर्ण के रूप में 'स' की उपस्थिति मौजूद है; परन्तु पूर्व में अनुस्वार होने के कारण से इस शेष वर्ण 'स' को द्वित्व 'म स' की प्राप्ति नहीं हुई हैं। यो अन्यत्र भी जान लेना । इन्हें अलाक्षणिक कोटि के उदाहरण जानना; क्योंकि इनमें अनुस्वार की प्राप्ति व्याकरण गत नियमों से नहीं हुई है; परन्तु प्रकृति से ही स्थित है ।। क्षिमः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप छूढो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१२७ से संपूर्ण क्षिप्त' शब्द के स्थान पर ही 'छुद्ध' रूपादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छूढो रूप सिद्ध हो जाता है। नोसासो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ५-६३ में की गई है। स्पर्श संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप फासो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-९८२ से स्पर्श शव के स्थान पर हो 'फास' रूप श्रादेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फासो रूप सिद्ध हो जाता है पार्श्वस संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पास होता है । इस में सत्र-संख्या २४ से रेफ रूप 'र'का और 'व' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; २.८६ से शेष 'स' को द्वित्व 'रस' की प्राप्ति होनी चाहिये थी; परन्तु २-१२ से इस 'द्विर्भाव-स्थिति का निषेध; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपु'सक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पासं रूप सिन्द हो जाता है। शीर्षम संस्कृत रूप है । इस का प्राकृत रूप रूप सीसं होता है। इस में सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'श' 'ए' का 'स' 'स'; २-७६ से 'र,' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सीस रूप सिद्ध हो जाता है। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३८६ ईसरो रूप की सिद्धि सुन-संख्या १-८४ में की गई है। द्वेष्यः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप वेमो होता है 1 इम में सुत्र-संख्या२-७५ से 'द' का लोप २-७८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'घ' का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेसो रूप मिद्ध हो जाता है। लास्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृन रूप लासं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से १थमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म् , का अनुस्वार हो कर लास रूप सिद्ध हो जाता है। आस्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप आम होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-० से य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रामि और १-२३ से प्रातमका अनस्वार होकर आसं रूपमिद्ध हो जाता है। प्रेयः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पेसा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-६ से 'र' का लोप: २-७८ से " य् ' का लोप; १-२६० से 'प, का 'स' और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेसो रूप सिद्ध हो जाता है। ओमालं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-३८ में की गई है। थाणा रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या २-८३ में की गई हैं। आज्ञप्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप श्राणत्ती होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'झ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्तिा २-५७ से 'प' का लोप; २-46 से शेष 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त स्त्रीलिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर. अन्त्य हस्त्र स्वर 'इ' के स्थान पर दोर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर आणती रूप सिद्ध हो जाता है। ___आझपनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप आणवणं होता है। इसमें सूत्र संख्या :-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति १-२३१ से 'प' का 'व'; १-२२८ से 'न' का 'ण'; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर आणषणं रूप सिद्ध हो जाता है। तंसं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२६ में की गई है। संझा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। विझो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२५ में की गई है। . Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] * प्राकृत व्याकरण * ५ कांस्याल; संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कसालो होता है। इसमें सत्र-संख्या 1-८४ से 'को' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; -७८ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कंसालो रूप सद्ध हो जाता है।॥२-६२॥ र-होः ॥२-६३ ॥ रेफहकारयोति न भवति ।। रफा अंगी मास्ति ।। प्रादेश । सुन्दरं । बम्हचरं । परन्त ॥ शेषस्य हस्य । विहलो ।। थादेशस्य । कहावणो । अर्थः---किसी संस्कृत शब्द के प्राकृत रूपान्तर में यदि शेष रूप से अथवा श्रादश रूप से 'र' वर्ण की अथवा 'ह' वर्ण की प्राप्ति हो तो ऐसे 'र' वर्ण को एवं 'ह' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति नहीं होती है। रेफ रूप 'र' वर्ण कभी भी शेष रूप से उपलब्ध नहीं होता है; अतः शेष रूप से संबंधित 'र' वर्ण के उदाहरण नहीं पाये जाते हैं । श्रादेश रूप से 'र' वर्ण की प्राप्ति होती है; इसलिये इस विषयक उदाहरण इस प्रकार हैं :-सौन्दर्यम् = सुन्दरं ॥ ब्रह्मचर्यम् = घम्हचेर और पर्यन्तम्- पेरन्तं ॥ इन उदाहरणों में संयुक्त व्यन्जन 'र्य' के स्थान पर 'र' वर्ण की प्रादेश रूप से प्राप्ति हुई है। इस कारण से 'र' वर्ण को सूत्र संख्या २-८८ से द्विर्भाव की स्थिति होनी चाहिये थी; किन्तु सूत्र संख्या २-१३ से निषेध कर देने से द्विांव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। शेष रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-बिजल:-विहलो ॥ इसमें द्वितीय 'व' का लोप होकर शेष 'ह' की प्राप्ति हुई है। किन्तु इसमें भी २-१३ से द्विर्भाव की स्थिति नहीं हो मकतो है । आदेश रूप से प्राप्त 'ह' का उदाहरण:-कार्यापाणः = कहावणी । इस उदाहरण में संयुक्त व्यजन 'ई' के स्थान पर सूत्र-संख्या २-४१ से 'ह' रूप श्रादेश की प्राप्ति हुई है। तदनुसार सूत्र संख्या 1-से 'ह वर्ण को द्विर्भाव की स्थिति प्राप्त होनी चाहिये थी; परन्तु सूत्र संख्या २-६३ से निषेध कर देने से द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यों अन्य जदाहरणों में भी शेष रूप से अथवा आदेश रूप से प्राप्त होने वाले रेफ रूप 'र' और 'ह' के द्विर्भाव नहीं होने की स्थिति को समझ लेना चाहिये ।। सुन्दरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५७ में की गई है। बम्हचेरं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-५६ में की गई है। पर्यन्तम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पेरन्तं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-५६ से 'प' में स्थित 'अ' वर के स्थान पर. 'ए' स्वर की प्राप्ति; २-६५ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १ २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर परन्त रूप सिद्ध हो जाता है। विह्वलः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप विहलो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७४ द्वितीय 'व्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિશ્કેન મણીલાલ શાર્ક * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिहली रूप सिद्ध हो जाता है। कहावणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-७ में की गई है। ॥ २-६३ ।। धृष्टद्युम्ने णः ॥२-६४॥ धृष्टद्युम्न शब्द प्रादेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति ।। धज्जुणरे ॥ अर्थः--संस्कृत शठन धृष्टय म्नः के प्राकृत रूपान्तर धटुज्जुणों में संयुक्त व्य-जन ‘म्न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होने पर इस आदेश प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'णण' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:धृष्टद्य स्नान्धट्ठन्जुणो ॥ पृष्टयुम्नः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धटुज्जुण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यन्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८६ से भाप्त 'उ' को द्वित्व 'ठ्ठ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'लू' को 'ट्' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'च,' के स्थान पर 'ज्' की प्रापि, २.से प्राप्त होता जाति, ३. १२ से पंगुत, साजन 'म्न' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकाराप्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घट्ठाजुणो रूप की सिद्धि हो जाती है । ॥२-४|| कर्णिकारे वा ॥२-६५ ॥ कणिकार शब्दे शेषस्य णस्य द्वित्वं वा न भवति ।। कणि प्रारी करणारी ।। अर्थ:--संस्कृत शब्द कर्णिकार के प्राकृन रूपान्तर में प्रथम रेफ रूप 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति विकल्प से होती है । कभी हो जाती है और कभी नहीं होती है। जैसे:--कर्णिकारः करिणबारो अथवा करिणआरो॥ कर्णिकार संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कणिमारो और करिणश्रारो होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७६ से '' का लोप; २-५७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रानि होकर प्रथम रूप कणिआरी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कणिणधारो को सिद्धि सूत्र संख्या १-१६८ में की गई है। ।। २-६५ ॥ दृप्ते ॥ २-६६ ॥ दप्तशब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति ।। दरिय-सीहेण ।। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] * प्राकृत व्याकरण * __ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'दान' के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार '' और 'त' व्य-जन का लोप हो जाने के पश्चात् शेष वर्ण को द्विर्भाव की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:-हम-मिहेनरिअ-साहेण ।। परिश्र सोहण रूप को मिद्धि सूत्र संख्या १-१४४ में की गई है । ।। २-६.६ ॥ समासे वा ॥२-६७॥ शेषादेशयोः समासे द्वित्व या भवति ॥ नइ-ग्गामो, नइ-गामो । कुमुमपयरो कुसुमपयरो । देव-त्थुई देव-थुई । हर-क्खन्दा हर खन्दा । आणाल खम्भो आमाल-खम्भो ।। बहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि । स-पिकासो स-पिवासो । बद्ध फलो यद्ध-फलो । मलय -सिहर. क्खण्डं मलय-मिहर खण्ड । पम्मुक्त पमुक । असणं असणं । पडिकूल पडिक्कूलं । तेल्लोकं तेलोक इत्यादि। अर्थ:-संस्कृत समासगत शठदों के प्राकृत रूपान्तर में नियमानुसार वर्गों के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए अथवा आदेश रूप से प्राप्त हुए वर्गों को द्विर्भाव की प्राप्ति विकल्प से हुश्रा करती है। अर्थात् समासगत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से रहे हुए वर्गों की द्विस्व-स्थिन विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:-नदी-ग्राम-नइ-ग्गामो अथवा नइ-गामो ।। कुसुम-का-कुसुमप्पयरो अथमा कुसुम-पयरो ॥ देव-स्तुतिः-देव-त्युई अथवा देव-थुई । हर-स्कंदौ-हर-क्खन्दा अथवा हर-खन्दा ॥ श्रालान-स्तम्भ:-आणाल खम्भो अथवा श्राणाल-खम्भो ।। "बहुलम्' सूत्र के अधिकार से समासगत प्राकृत शब्दों में शेष रूप से अथवा आदेश रूप से नहीं प्राप्त हुए वर्गों को भी अर्थात शब्द में प्रकृति रूप से रहे हुए वों को भी विकल्प से द्वित्व स्थिति प्राप्त हुआ करती है। तात्पर्य यह है कि समासगत-शब्दों में शेष रूप स्थिति से रहित अथवा आदेश रूपस्थिति से रहित वर्गों को भी द्विभाव की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:-स पिपामः = सपिवासो अथवा स-पिवासो। बद्ध-फलः = बद्धप्फलो अथवा बद्ध-फलो | मलय-शिखर-खण्डम मलय-सिहर-क्खण्डं अथवा मलय-सिहर-खण्डं।। प्रमुक्तम् = पम्मुक्कं अथवा पमुक्छ । अदर्शनम् = अद्दसणं अथवा अईप्तणं ।। प्रतिकूलमपखिफूलं अथवा पडिकल और त्रैलोक्यम् = तेल्लोकं अथवा तेलोक इत्यादि ।। इन उदाहरणों में द्वि-र्भाव स्थिति विकल्प से पाई जाती है; यो अन्य उदाहरणों में भी जान लेना चाहिये । नदी-ग्रामः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नइ-ग्गामो और नइ गामो होते हैं। इन में सूत्र संख्या १.९७७ से 'दु' का लोप; २.६ से 'र' को लोप; १.८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हाव स्वर 'इ' की प्राप्ति; २-६७ से 'ग' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'मा' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से नइ-ग्गामो और नइ-गामी दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। कुसुम-प्रकरः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कुसुमापयरो और कुसुम-पयरो होते हैं। इनमें Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३६३ .................. सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २.६७ से शेष 'प' को वैकल्पिक रूप से द्वित्स्य 'पप' की प्राप्ति; ५-१७७ से द्वितीय 'क' का लोपः ५-५८० से लोप हुए 'क' में से शेष रहे, हुग. 'अ' को 'य' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की माप्ति होकर कम से कुसुम-प्पयरो और कुसुम ययरों दोनों रूपों को सिद्धि हो जाते हैं। देव-स्तुतिः संस्कृत मप है। इसके प्राकृत रूप देव स्थुई और देव-थुई होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-४५ से 'स्त्' के स्थान पर 'व' की प्रानि; २-६७ से प्राप्त 'थ् को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'थथ की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'च' को 'तू' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त्' का लोप और ३-१६ से प्रबमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई की प्राप्ति होकर क्रम से देवत्थुई और देव-शुई दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है। हर-स्कंदी द्विवचनान्त संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हर खन्दा और हर-खन्दा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-४ से संयुक्त व्यन्जन 'स्क' के स्थान पर 'न' को प्राप्ति, २०६७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ख़ख' की प्राप्ति, २-१० से प्राप्त पूर्व 'स्' को 'क' को प्राप्ति; ३-१३० म संस्कृत शब्दांत द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति होने से सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से पूर्व में प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य व्यजन 'इ' में स्थित ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्नि होकर कम से हर-कखन्दा और हर-खन्दा दोनों रूपो की सिद्धि हो जाती है। आलान-स्तम्भः संस्कृत रूप है । इसके प्राकत रूप श्राणाल खम्भो और प्राणाल-खम्भा होत हैं। इनमें सूत्र संख्या २-११७ से 'ल' और 'न' का परस्पर में व्यत्यय अर्थात् उलट-पुलट रूप से पारस्परिक स्थान परिवर्तन; १.२२८ से 'न' का 'ण'; -८ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्त' के स्थान पर 'ख' का आदेश; -६७ से प्राप्त 'ख' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'सख' की प्राप्ति, २-६० में प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्तिा और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कम से आणाल रखम्भों और आणाल-खम्भा दोनों पों की सिद्धि हो जाती है। स-पिपासः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप सरिपवासो और सपिवासी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-६७ से प्रथम 'प' वर्ण को विकल्प से द्वित्व 'प' की प्राप्ति; १-२३१ से द्वितीय प' वर्ग के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रमसे सपिवासो और सपिचासी होनों रूरों की सिद्धि हो जाती है। बद्ध-फलः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप बद्ध-फलो और बद्ध-फलो होते हैं । इन में सूत्र Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] संख्या २-६७ से 'क' वर्ण को वैकल्पिक रूप से वि फ्फ' की प्राप्तिः २०६० से प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से ब-फली और बद्ध फलों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । * प्राकृत व्याकरण * मलय-शिखर-खण्डम, संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मलय सिहर खण्डं और मलय - सिहरखण्डं होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-९६० से श' का 'स' १६७ से प्रथम 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति २-६७ से द्वितीय ख' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से द्वित्व "खूख" की प्राप्ति २-६० से प्राप्त द्वित्य में से पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से मलय- सिहर- क्खण्डं और मलय सिहर खण्डं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । प्रमुक्तम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप पम्मुकं और पसुक होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-६७ से 'मू' को बँकल्पिक रूप से द्वित्व 'म' की प्राप्ति; २०६० से प्राप्त 'क' को द्वित्व 'कूकू की प्राप्ति २-२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पक्कं और पक्कं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती हैं। अदर्शन संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रम और असणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-६७ से 'द व के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्रव 'द' की प्राप्तिः १ - २६ से प्राप्त द्वित्व 'द' अथवा 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२ = से 'न' का 'ण'; ३ -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'भू' का अनुस्वार होकर क्रम से अहंसणं और असणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । प्रतिकुलम संस्कृत विशेष रूप है। इसके प्राकृत रूप पडिक्कूल और पडिकूल होते हैं । इनमें सूत्र - संख्या २७६ सेर' को लोप; १ २०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्तिः २-६७ से 'क' वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्तिः ३-९५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर पक्कू और कूल दोनों रूपों की मिद्धि हो जाती है । त्रैलोक्य संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप तेल्लोक और तेलोक होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या-२-७६ से 'र्' का लोपः १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति २-६७ से 'ल' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' को प्राप्तिः २७ से 'यू' का लोपः ३-२५ 木 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की माप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप तेलोकं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तेली की सिद्धि सूब-संख्या १-६४८ में को गई है ॥२-६७॥ तैलादौ ॥२-६ ॥ तैलादिप अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च व्यजनस्य द्वित्वं भवति ॥ तेन्ले । मण्डक्की | वइल्लं । उज्जू । बिड्डा । वहुत्तं ॥ अनन्त्यस्य । सातं । पेम्मं । जुब्वणं ।। आर्षे । पडिसोओ। विस्सो प्रसिश्रा ।। तैल | मण्ड्रक । विचकिल । ऋजु । ब्रीडा । प्रभूत । स्रोतम् । प्रेमन् । यौवन । इत्यादि। ___ अर्थ:-संस्कृत भाषा में तैल आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके प्राकृत रूपान्तर में कभी कभी तो अन्त्य व्यजन का द्वित्व हो जाता है और कभी कभी अनन्त्य अर्थात् मध्यस्थ व्यजनों में से किसी एक व्य-जन का द्वित्व हो जाता है । अन्त्य और अनन्त्य के संबंध में कोई निश्चत नियम नहीं है। अतः जिस व्यन्जन का द्वित्व देखो, उसका विधान इस सूत्र के अनुसार होता है; ऐसा जान लेना चाहिये । इममें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यन्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है। इसीलिये दृसि में "अनादौ" पद दिया गया है। द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य ग्यजन की अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ ध्यान की ही होती है। इसके लिये वृत्ति में "अया-दर्शनम्" "अन्त्यम्य" और "अनन्त्यस्य” पद दिये गये हैं; यह ध्यान में रहना चाहिये । जिन शब्दों के अन्य व्यजन का द्वित्व होता है; उन में से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:--लम्-लेल्लं । मण्डूक:-मण्डुक्को ॥ विचकिलम् =वेहल्लं ॥ ऋजुः = उज्जू ॥ प्रीडा= विड्डा ।। प्रभूतम् = बहुत ॥ जिन शों के अनन्त्य व्यजन का द्वित्व होता है। उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-स्रोतम् -मोत्तौं । प्रेमन-पेम्म ॥ और यौवनम्: जुब्बणं ॥ इत्यादि ।। श्रा-प्राकृत में "प्रतिस्रोतः" का "पडिपोप्रो" होता है, और "विस्रोतसिका" का "विस्सोअसिया" रूप होता है । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि इन में अनन्त्य व्यन्जन का द्वित्व नहीं हुआ है; जैसा कि ऊपर के कुछ उदाहरणों में द्वित्व हुआ है । अतः यह अन्तर ध्यान में रहे। लम संस्कृति रूप है। इसका प्राकृत रूप तल्लं होता है। इसमें सून संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्य स्वर '' की प्राप्ति; २.१८ से 'ल' व्यन्जन के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर तेल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। मण्डूकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मण्डनको होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८ से अन्त्य उपञ्जन 'क' को द्वित्व 'क' की प्रारि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मण्डको रूप सिद्ध हो जाता है। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * वहल्लं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१६६ में की गई है। उज्जू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है। बीडा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विडा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'र' का लोप; १.८४ से दोघ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को प्राप्ति और २-६८ से अन्न्य व्यम्जन बु' को द्वित्व 'इ' को प्राप्ति होकर पिडा रूप सिद्ध हो जाता है । वहुत्त रूप सूत्र संख्या १-२३३ में की गई है । स्रोतः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सोत्त होला है । इसमें सूत्र संख्या ७६ से 'र' का लोप; २-85 से अनन्त्य व्यञ्जन 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्रि; १-११ से विसरा रूप अन्त्य व्यजन का लोप, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सोत्तं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रेमन संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पेम्मं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोग, २०६८ से अन्त्य व्यञ्जन 'म' को द्विस्व 'म' की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'नका लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पेम्म रूप सिद्ध हो जाता है। जुब्वणं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१५६ में की गई है। प्रतिषीतः संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप पढिसोओ होता है। इसमें सूत्र-मख्या २७६ से दोनों 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-७७ से द्वितीय 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाडसोओ रूप सिद्ध हो जाता है। विस्रोतसिका संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विस्सोअसिा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-८६ से शेष प्रथम 'स' को द्वित्व 'स्स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'न' और 'क' का लोप होकर विस्तोसिआ रूप सिद्ध हो जाता है । २.६८।। सेवादी वा ॥२-६६ ॥ सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति ॥ सेव्या सेवा ।। नेड नीडं । नक्सा नहा । निहित्तो निहिश्रो। बाहितो वाहियो। माउक' माउअं। एको एो। कोउहल्लं कोउहलं । वा उल्लो बाउलो। थुल्लो थोरो। हुरं हूझं। दइच्वं दवं । तुहिको तुहियो । मुक्कों मूओ। खएणु खाणू । थिएणं थीणं ॥ अनन्त्यस्य । अम्हक्केरं अम्हकरं। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३६७ तं च्चे तं चेअ । सो चिसो चिन ।। सेवा । नीड । नख । निहित । व्याहन । मदुक । एक । कुतुहल । व्याकुल । स्थूल । हूत । देव । तूष्णीक । मूक | स्थाणु । स्त्यान । अस्मदीय चेन । चिन । इत्यादि । __अर्थ:-संस्कृत-भाषा में सेवा आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके प्राकृत रूपान्तर में कभी कमी सो अन्त्य व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व हो जाता है और कभी कभी अनन्त्य अर्थात् मध्यस्थ व्यञ्जनों में से किसी एक व्यञ्जन का द्वित्व ही जाता है । अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन के वैकल्पिक रूप से द्वित्व होने में कोई निश्चित नियम नहीं है अतः जिम व्यञ्जन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व देखो, उसका विधान इस सूत्र के अनुमार होता है। ऐसा जान लेना चाहिये । इममें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यञ्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है । इसीलिये वृति में "अनादी' पद दिया गया है । वैकल्पिक रूप से द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य व्यञ्जन को अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ व्यतन की ही होती है । इसके लिये वृत्ति में "यथा-दर्शनम्", "अन्त्यस्य" और "अनन्त्यस्य" के साथ साथ "या" पद मा संयोजित कर दिया गया है । ऐपी यह विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये जिन शब्दों के अन्त्य व्यजन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व होता है। उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-सेवा-सेव्या अश्वा सेवा ।। नीडम्-ने अथवा नीड़ । नखाः-नक्खा अथवा नहा ।। निहितान. हित्ता अथवा निहियो । व्याहृतः = वाहितो श्रथवा वाहिनी ।। मदुकम्-माउक अथवा माउथं ।। एकः= २को अथवा एा ।। कुतूहलम् कोउहल्लं अथवा को उहल ।। व्याकुल वाउल्लो अथवा वाउली ।। स्थूलः = थुल्लो अथवा थोरों । हृतम् =हुत्त अथवा टूअं देवः = दइन्वं अथवा दइव ।। तूष्णीकः = तुहिको अथवा तुण्हिी ।। मूकः = मुको अथवा मू ।। स्थाणुः = खण्णू अथवा ग्वार और स्यानम् = थिएणं अथवा थीणं ।। इत्यादि ।। जिन शब्दों के अनन्त्य व्यजन का वैकल्पिक रूप से द्वित्व होता है; उन में से कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-'स्मदीयम् अम्हक रं अथवा अम्हकरं !। तन एव-ते चेअथवा तं च ।। म एव=सो चित्र अथवा सो चित्र। इत्यादि ।। मूत्र संख्या २-६८ और २.६ में इतना अन्तर है कि पूर्व सूत्र में शटों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व नित्य होता है, जबकि उत्तर सूत्र में शटों के अन्त्य अथवा अनन्त्य व्यञ्जन का द्वित्व वैकल्पिक रूप से ही होता है। इसीलिये 'तैलादी' सूत्र से 'सेवादी वा' सूत्र में 'वा' अव्यय अधिक जोड़ा गया है। इस प्रकार यह अन्तर और ऐसी विशेषता दामों ही ध्यान में रहना चाहिये। सेवा संस्कृत रूप हैं। इस के प्राकृत रूप सेचा और सेवा होते हैं । इन में सूत्र-मख्या २६ से अन्त्य व्यञ्जन 'व को वैकल्पिक रूप से द्वित्व को प्राप्ति होकर क्रम से सेन्या और सेवा दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। नीडम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप नेई और नोड होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या १-१०६ से 'ई' के स्थान पर 'ए' की प्राप्मि; २-६६ से 'ड' व्यवन को वैकल्पिक रूप से द्वित्व Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ } * प्राकृत व्याकरण * 'इ' की प्राप्ति;३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप नेचुम् सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप नीड की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०६ में की गई है। नक्खा और नहा दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या २०६० में को गई है। निहितः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप निहितो और निहिओ होते है। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या-२-६ से अन्य व्यञ्चन 'त' के स्थान पर द्वित्व 'त' की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप निहितो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (निहितः= ) निहिओ में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर. द्वितीय रूप निहिओ भी सिद्ध हो जाता है। व्याहृतः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप वाहितो और बाहिओ होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २--- से 'यू' का लोप; १-१२८ से 'ऋ के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति २.६६ मे अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व त्त की प्राप्नि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पाहतो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(व्याहृतः=) याहिमो को सावनिको में प्रथम रूप के समान ही सूत्रों का व्यवहार होता है । अन्तर इतना सा है कि सूत्र-संख्या २-6 के स्थान पर सूत्र संख्या १-१७७ से अन्स्य व्यवन 'त' का लोप हो जाता है। शेष क्रिया प्रथम रूप बत् ही जानना। मृदुकम् संस्कृत विशेषण रूप है । इस के प्राकृत रूप माउक और माउचं होते है। इनमें से प्रथम रुप माउथं की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२७ में की गई है। द्वितीय रूप-(मृदुकम् ) माउभं में सूत्र-संख्या १-१२७ से 'ऋ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' और 'क' दोनों व्यजनों का लोप; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की पाप्ति और १-.३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार हो कर द्वितीय रूप माउभं भी सिद्ध हो जाता है। एकः संस्कृत संख्या वाचक विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप एको और एमओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या २-६६ से अन्त्य व्यन्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में मना गंख्या १-१७७ से 'क' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३६४ के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से एक्को और एओं दोनों रूप की सिद्धि हो जाती है। कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप कोउहल्लं और कोहलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप कोतहलं की सिद्धि सूत्र-संख्या ५-११७ में की गई है। द्वितीय रूप-(कुतूहलम् = ) कोउहलं में सूत्र-संख्या -१-११७ से प्रथम दृस्व स्वर 'उ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्ति; १-१४७ से 'त्' का लोप; १-११७ से लोप हुए 'त्' में से शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'क' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति;३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप कोउहलं भी सिद्ध हो जाता है। व्याकुलः संस्कृत विशेषता है। इसमें प्राकृत का ताउलो और वाउलो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप वाउल्लो की सिद्धि सत्र-संख्या १-२२१ में की गई है। द्वितीय रूप-(व्याकुल:-) वाउलो में सूत्र संख्या २-७८ से य' का लोप; १-१४७ से 'क' का लोप और ३.से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पाउलो भी सिद्ध हो जाता है। स्थूल: संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप थुल्लो और थोरो होत हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या :-० से 'स' का लोप; १८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' को प्राप्ति, २. से अन्य व्यञ्जन 'ल' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप थुल्ली सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(स्थूलः = ) थोरो में सूत्र संख्या २.७७ से 'स' का लोप; १-१२४ से दोघ स्वर 'ऊ के स्थान पर 'श्री' की प्राप्रि; १-२५५ से 'ल' के स्थान पर 'र' रूप आदेश की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप थोरों भी सिद्ध हो जाता है। इतम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप हुत्त और हूअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दोर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति, २-1 से अन्त्य व्यञ्जन 'त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१.७७ से 'त्' का लोप एवं दोनों ही रूपों में सूत्र-संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ६-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम में हुतं और हमें दोनों हो रूप सिद्ध हो जाते है। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] * प्राकृत व्याकरण * . . . . दहब्बं और दइय रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१५३ में की गई है। तुणीकः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप तुहिक्को और तुण्हिो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-८४ से वीर्घ स्वर '' के स्थान पर हस्वर 'उ' की प्राप्ति; २-७५. से संयुक्त व्यञ्जन 'षण' के स्थान पर 'एह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को प्राप्ति २-६ से अन्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ मे 'क' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से तुणिहक्को और तुषिही दोनों ही रूप सिद्ध हो जाते हैं। मकः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप मुक्को और मूओ होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'अ' के स्थान पर हस्व स्वर '' को प्रानि; ६६ से अन्त्य व्यञ्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'कक' की प्राप्ति और द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप एवं दोनों ही रूपों में ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से मुक्को और मूओ दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। स्थाणुः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप खण्णू और खाणू होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७ से संयुक्त व्यन्जन "स्थ" के स्थान पर 'ख' रूप श्रादेश की प्राप्ति; ६-८४ से दीर्घ "श्री" के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २.६.६ से अन्स्य व्यञ्जन ण' को वैकल्पिक रूप से द्विस्व "एण" को प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकार:न्त पुल्लिग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्य स्वर 'ज' की दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप खरण मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप खाणू की सिद्धि सूत्र संख्या २.७ में को गई है। थिण्णं और धीणं रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-७४ में की गई है। अस्मदीयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकत रूप अम्हकर और अम्हकर होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-७४ ले संयुक्त व्यकजन 'स्म' के स्थान पर 'म्ह' रूप आदेश की प्राप्ति; १-१७७ से 'द्' का लोप; २.४७ से संस्कृत 'इमर्थक' प्रत्यय 'इय के स्थान पर प्राकृत में 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति; - से अनन्त्य व्यन्जन 'क' को वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्ति; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से अम्होरं और अम्हकर दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। तं च्चेभ और ते चेअ रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-५ में की गई है। • सो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। रिचा रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-में की गई है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * . एक संस्कृत अव्यय है : इसके स्थान पर चित्र होता है । इसमें मूत्र संख्या २-१८४ से 'एव' के स्थान पर आदेश रूप से चित्र को प्राप्ति होकर चिम रूप सिद्ध हो जाता है। ॥-६६ || शार्गे डातपूर्वोत् ॥ २-१०० ॥ शाङ्गेडात् पूर्वो अकारो भवति ।। सारङ्गम् ।। अर्थ:-संस्कृत शब्द 'शाह' के प्राकन-रूपान्तर में 'ड' वर्ग के पूर्व में (अर्थात् हलन्त 'र' ध्य-जन में) 'अ' रूप आगम को प्राप्ति होती हैं । जैसे:--शाङ्गम-सारङ्ग । शादर्शम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सारण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' का 'स'; २-६०० से हलन्त व्यजन 'र' में आगम रूप 'अ' को प्राति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सारंगम रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२.०० ॥ दमा-श्लाघा-रत्नेन्त्यव्यजनात् ॥ २-१०१॥ एषु संयुक्तस्य यदन्त्यव्यञ्जनं तस्मात् पूर्वोद् भवति ॥ छमा ! सलाहा । रयां । पार्षे सूक्ष्मे ऽपि : सुहमं ।। अर्थ:--संस्कृत शब्द 'क्ष्मा, श्लाघा और रत्न' के प्राकृत रूपान्तर में इन शब्दों में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य व्यजन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है । जैसे:-मान्छमा; श्लाघा सलाहा और रत्नम् = रयणं ॥ आर्प-प्राकृत में 'सूक्ष्म' शब्द के रूप में भी संयुक्त व्यक्त व्यजन 'दम' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क्ष' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है। जैसे:--सूक्ष्मम् = सुहमं ।। छमा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८ में की गई है। इलाधा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सलाहा होता है । इसमें सूत्र संख्या २.१०१ से हलन्त घ्य जन 'श' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'श' का 'स'; और १-१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' रूप आदेश की माप्ति होकर सलाहा रूप सिद्ध हो जाता है। रतम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रयणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.१०१ से हलन्त 'त' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से शेष रहे हुए एवं आगम रूप से प्राप्त हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति १-२२म से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाराम्त मसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रयणं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * मूक्ष्मम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका श्राप-प्राकृत रूप सुहम होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर 'अ' के स्थान पर हस्व स्वर '3' की प्राप्ति; २-१-१ की वृत्ति से हलन्त व्यञ्जन "च' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति और आप रूप होने से ( सूत्राभावात् ) प्राप्त 'क्ष' के स्थान पर 'इ' रूप साहरा की नील३.२५ मा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-६३ से प्राप्त 'म्' का अनुम्बार होकर 'आर्ष-प्राकृत रूप सुहम सिद्ध हो जाता है। ॥२-१०।। स्नेहाग्न्यो । २-१०२ ॥ अनयोः संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्वोकारो वा भवति ।। सणेहो । नेहो | अगणी । अम्गी ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'स्लेह' और 'अग्नि' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य (में स्थित) व्यञ्जन के पूर्व में रहे हुष हलन्त व्यञ्जन में प्राकृत-रूपान्तर में पागम रूप 'अ' की प्राप्ति विकल्प से हुआ करती है। जैसे:-स्नेहः = सणहो अथवा नेहो और अग्निः = अगणी अथवा अग्गी॥ स्नेहः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सणेहो और नेहो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या--२-१०२ से हलन्त व्यञ्जन 'स' में वैकल्पिक रूप से आगम रूप 'अ' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सणेही रूप सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप नेहो की सिद्धि सूत्र-संख्या २-७७ में की गई है। अग्निः संस्कृत रूप है । इस के प्राकृत रूप अगणी और अग्गी होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या :-१८२ से हलन्त व्यञ्जन 'ग' में वैकपिक रूप से आगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान 'ण' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारन्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अगणी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप- (अग्निः = ) अग्गी में सूत्र संख्या २-७८ से 'न' का लोप; २-२६ से शेष 'ग' को द्विस्व 'ग' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक धचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप अग्गी भी सिद्ध हो जाता है । २-१०२ ।। प्लो लात ॥२-१०३॥ प्लक्ष शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनानात् पूर्वोदू' भवति ॥ पलक्खो ।। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निगोदर हिन्दी व्याख्या सहित - अर्थ:-संस्कृत शब्द लक्ष' में सभी ग्यान संयुक्त स्थिति वाले हैं। अतः यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि प्रथम संयुक्त व्यञ्जन 'पल' में स्थित 'ल' पञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'ए' में पागम रूप 'अ' की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में होती है। जैसे-लक्षः- पलकखो । लक्षः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पलखा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१०३ से हलन्त ध्यञ्जन 'प' में श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २.८६ से प्राप्त 'ख' फो द्वित्व 'ख ख' की प्राप्ति; ५-६७ से प्राप्त पूर्व ख' को 'क' को गाप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक ववन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मे' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलक्खो रूप सिद्ध हो जाता है । ।। २-१०३ ।। है - श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयास्वित् ॥२-१०४ ॥ एष संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व इकारो भवति ॥ ह ।। अरिहइ । अरिहा ! गरिहा । घरिहो ॥ श्री । सिरी । हो । हिरी ॥ हीतः । हिरीयो ।। अहीकः । अहिरीयो । कृत्स्नः । कसिणो । क्रिया । किरिया ॥ आर्षे तु । हयं नाणं किपा-हीणं ॥ दिष्ट्या । दिद्विना || अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में 'ह' रहा हुश्रा है; ऐसे शब्दों में तथा 'श्री, ह्री, कृत्स्न, क्रिया, और दिष्टया 'शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यजनों के अन्त्य व्य-जन के पूर्व में स्थित हलन्त ध्यान में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। जैसे-'ह' से संबंधित शब्दों के उदाहरण:--अर्हति अरिहह ।। अहोः अरिहा ।। गर्दा गरिहा । वहः बरिहो । इत्यादि ।। श्री-सिरी ।। ह्री-हिरी ।। ह्रीत:=हिरीयो । अहीक: अहिरीयो । कृत्स्ना कमिणी ॥ क्रिया-किरिश्रा ॥ श्रार्ष-प्राकृत में क्रिया का रूप किया' भी देखा जाता है। जैसे:हतम् ज्ञानम् क्रिया-हीनम् = हयं नाणं किया-होणं ।। दिष्ट्या दिविश्रा ।। इत्यादि । अर्हति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप अरिहा होता है । इस में सूत्र. संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; और ३.१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'ई प्रत्यय की प्राप्ति हो कर अरिहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। अहः संस्कृत विशेषण रूप है । इस का प्राकृत रूप अरिहा होता हैं। इस में सूत्र-संख्या २-६०४ से संयुक्त व्यसन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के यह वचन में अकारांत पुल्जिम में प्राप्त 'जस, का लोप और ३-१२ से प्राप्त और लुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'या' की प्राप्ति हो कर अरिहा रूप सिद्ध हो जाता है। __गहीं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गरिहा होता है । इस में सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त ध्यान 'हो' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रुप 'इ' की प्राप्ति हो कर गरिहा रूप सिद्ध हो जाता है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] वह संस्कृत रूप है। इस का प्राकृत रूप चरिहो होता हैं । इप में सूत्र संख्या २ १०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ह' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर बरिही रूप सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * +++++. श्री संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिरो होता है। इस में सूत्र संख्या २ १०४ से संयुक्त व्यञ्जन श्री में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में आग रूप 'इ' की प्राप्ति और १२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श' का 'स' होकर सिरी रूप सिद्ध हो जाता 1 संस्कृत रूप है | इसका प्राकृत रूप हिरी होता है। इस में सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ही' में स्थित पूर्व' हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और २००८ से दीर्घ कारान्त स्त्रीलिंग में प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; तदनुसार वैकल्पिक पक्ष होकर प्राप्त 'आ' प्रत्यय का अभाव होकर हिरा रूप सिद्ध हो जाता है । ह्रीतः संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप हिरोओ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ही' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'ह' में श्रागम रूप 'ह' की प्राप्तिः १-२७७ से 'तू' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय 'प्राप्ति होकर हिओ रूप सिद्ध हो जाता है। अकः संस्कृत विशेषण रूप हैं । इसका प्राकृत रूप अहिरीयो होता है। इसकी साधनिका में 'हिरीयो' उपरोक्त रूप में प्रयुक्त सूत्र ही लगकर अहिरीभी रूप सिद्ध हो जाता है। कसिणों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २७५ में की गई हैं। या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप किरिया होता है । इममें सूत्र संख्या २०१०४ से संयुक्त व्यञ्जन 'कि' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'क' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति और १-१७७ से 'य' का लोप होकर किरिओ रूप सिद्ध हो जाता है। हयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १- २०६ में की गई है। ज्ञानम, संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप नाणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'श' की प्राप्ति; प्राकृत व्याकरण में व्यत्यय का नियम साधारणतः है; अतः तदनुसार प्राप्त 'ए' का और शेष 'न' का परस्पर में व्यत्ययः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर नाणं रूप सिद्ध हो जाता है । Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४०५ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . कियाहीमम् संस्कृत विशेषण रूप है। इमका पार्ष:प्राकृत रूप किया-हाणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से २ का लोप; १.... ' से 'न' का ''; 2-4 से सयमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्का अनुस्वार होकर किया-हाणं रूप सिद्ध हो जाता है। दिया संस्कृत श्रव्यय है। इसका प्राकृत रूप दिद्धिा होता है इस में सूत्र-संख्या-२-१३४ से संयुक्त म्यान'' के स्थान पर 'ठ' को प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व '83' की प्राप्ति: २०१० से प्राप्त पूर्व 'ठ' को 'ट.' की प्राप्ति २-१०४ से प्राप्त 'टु' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति, और १-१७७ से 'य' का लोप होकर विष्टि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१०४ ।। श-प तप्त- वज्र वा ॥२-१०५ ॥ शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्व इकारो वा मवाते ॥ र्श । आयरिसों श्रायसो । सुदरिसणो सुदंसयो । दरिसण देसणं ।। र्ष । वरिम वास' । वरिसा वासा । परिस-सगं वास-सय' ।। व्यवस्थित-विमाषया क्वचिनित्यम् । परामरिसो। हरिसो । अमरिसो । सप्त । तविश्री तत्तो ।। वज्रम् = वरं वजं ।। अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में 'श' और 'र्ष' हो; ऐसे शरदों में इन 'र्श' और 'ई' संयुक्त व्यञ्जनों में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में वैकल्पिक रूप से पागम रूप 'इ' को प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से 'तम' और 'वन' में स्थित संयुक्त व्यञ्जन के अन्त्य भ्यञ्जन के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'ए' अथवा 'ज' में वैकल्पिक रूप से प्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। '' के उदाहरण; जैसे:- आदर्श: आयरिसो अथवा पायंसो ॥ सुदर्शनः = सुदरिसणो अथवा सुदंसणो । दर्शनम् = दरिसणं अथवा ईसणं ।। '' के उदाहरण; जैसे-वर्षम् = वरिसं अथवा वासं || वर्षा= परिसा अथवा वासा ।। वर्ष-शतम् - वरिस-सयं श्रथवा बास-सयं ॥ इत्यादि । ट्यवथित्त-विभाषा से अर्थात नियमानुसार किसी किसी शटर में संयुक्त व्यञ्जन 'प' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप ह' की प्राप्ति नित्य रूप से भी होती है। जैसे:-परामर्षः = परामरिमो। इषः हरिसो और अमर्षः = अमरिसो।। सूत्रस्थ शप उदाहरण इस प्रकार है:-तप्तः = तविप्रो अथवा तत्तो ॥ वनम् = बहरं अथवा व ज्ञ। आदर्श: संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप अायरिसों और प्रायसो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'द्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' में शेष रहे हुए 'अ' को 'य' की प्रामि; २-१०५ से हलन्त 'र' में प्रागम रूप 'इ' की प्रामि; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्जिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आयरिसो सिद्ध हो जाता है। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * Har p ort-- - - - द्वितीय रूप-(श्रादर्शः - ) आयंसी में सूत्र-संख्या ५.२७७ से 'दू' का लोप; १-१८० से लोप हुए द' में से शेप रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति १-२६ से प्राप्त 'य' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति;२-७६ से २ का लोपः १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आयसो भो सिद्ध हो जाता है। : सुवर्शन संस्कृत विशेषण रूप है । इसमें प्राकृत रूप सरिसणो और सुदसणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन र में आगम रूप 'इ' की प्राप्तिः १-.६. से 'श' को 'म' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप मुदरिसणी मिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(सुदर्शनः =) सुदसणी में सूत्र-संख्या १-२६ से 'द' व्यञ्जन पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; :-SL से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' को 'स' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वधम में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप सुदसणो भी सिद्ध हो जाता है। दर्शनम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप दरिसणं और दसणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में पागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' को 'म' की प्राप्ति; १-२.१८ से 'न' को 'ण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर प्रथम रूप रिसणं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दर्शनम् =) देसणं में सूत्र-संख्या १-२६ से 'इ' व्यञ्जन पर प्रागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में "मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनस्वार होकर द्वितीय रूप ईसणं को भी सिद्धि हो जाती है। वर्षमसंस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वरिसं और वासं होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में प्रागम रूप 'इ' की प्रापिः १-२६० से 'घ' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पथम रूप परिसं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-[वर्षम् = ! वासं. में सूत्र संख्या २-5 से 'र' का लोप; १-४३ से 'व में स्थिन 'अ' स्वर के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति; १-२६० से १' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा auranAmerimeMORE /de. n etiamarathi Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप वासं भो सिद्ध हो जाता है। वर्षा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बरिमा और वासा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र मंख्या ५-१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूए 'इ' की प्राप्ति; और १.२६० से 'प' के स्थान पर 'ए' की प्राप्तिका मषिमा ल्प सिम हो पाता है। वासा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४३ में की गई है। वर्ष- शतम संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वरिस-सयं और वाम-सायं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त व्यञ्जन र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से 'प' फे स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-२६० से द्वितीय 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति: १-१७४ से 'न' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'तू' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रश्रम रूप परिस-सयं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(वर्ष-शतम् = ) वास-सय में सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-४३ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति; १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप, १-१८० से लोप हुए'न' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ मे प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप पास-सयं भी सिद्ध हो जाता है। परामर्ष: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप रामरिसो होता है। इस में सूत्र-संख्या २-१०५ से द्वितीय हलन्त 'र' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से ष' के स्थान पर 'म' को प्राप्तिः और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंजग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर परामरितो रूप सिद्ध हो जाता है। हर्षः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हरिसो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१०५ से हलन्त म्यञ्जन 'र' में प्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति; ५-२६० से ष के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर हरिसी रूप सिद्ध हो जाता है। अमर्षः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अमरिसो होता है। इस में सूत्र संख्या २०१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर अमरिसो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] तप्तः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप तविश्र और तत्तो होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २- १०५ से हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति १-१३१ से प्राप्त प' में स्थित 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'त' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तार्य सिद्ध हो जाता है । * प्राकृत व्याकरण * द्वितीय रूप- (तप्त:-) तत्तो में सूत्र- संख्या २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'प' का लोपः २८६ से शेष द्वितीय 'त' को दित्र 'त' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति हो कर द्वितीय रूप तत्तों भी सिद्ध हो जाता है । वज्रम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप वइरं और वज्र्ज होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रप्राप्ति; १९७७ से प्राप्त 'जि' में स्थित 'ज्' अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के अनुस्वार होकर प्रथम रूप वरं सिद्ध हो संख्या २०१०५ से हलन्त व्यञ्जन 'ज' में आगम रूप 'इ' की व्यञ्जनका लोप; ३-२४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राम 'स' का जाता हूँ । द्वितीय रूप व की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७० में को गई है । ||२-१-५|| लात् ॥ २-१०६ ॥ संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनान्लात्पूर्व इद् भवति || किलिन्नं । किलिङ्कं । सिलिट्टे । पिलुट्ठ I पिलोसो | सिलिम्हो | सिलेसो । सुविकलं । सुद्दलं । सिलो प्रो। किलेसी । श्रम्बिलं । गिलाइ | गिलाणं । मिलाइ | मिलाणं । किलम्म | किलन्तं ॥ कवचित्र भवति || कमो । पवो । faat | सुक्क पक्खो || उत्प्लावयति । उप्पावे || I वर्ण अवश्य हो तो = = अर्थः-जिन संकृत शब्दों में ऐसा संयुक्त व्यञ्जन रहा हुआ हो; जिसमें 'ल' ऐसे उस 'ल' वर्ण सहित संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति प्राकृत रूपान्तर में होती है । कुछ उदाहरण इस प्रकार है: --क्लिन्नम् = किलिन्नं ॥ क्लिष्टम् = किलिट्ट | श्लिष्टम = मिलिदु | प्लुटम् - पिलुट्ठ । प्लोषः - पिलोसो | इलेष्मा = सिलिम्हो || श्लेषः - सिलेसो ॥ शुक्लम् = सुक्किलं । शुक्तम् = सुइलं || श्लोकः = सिलियो । क्लेशः किलेस || आम्लम् = अम्बिलं || ग्लायति = गिलाइ || ग्लानम् = गिलाएं | म्लायति = मिलाइ || म्लानम् = मिलाणं || क्लाम्यति = किलम्मइ ॥ नलान्तम् = किलन्तं । किसी-किसी शब्द में संयुक्त व्यञ्जन वाले 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त श्यञ्जन में आगम रूप 'ह' की प्राप्ति नहीं भी होती है। जैसे:-कलम: कमो || प्लवः पयो || विप्लवः = विप्पयो || शुक्लपक्षः = सुक्क पक्खो || और उत्त्तावयति = उप्पावेद ॥ इत्यादि । इन उदाहरणों में 'ल' का लोप हो गया हूँ; परन्तु 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति नहीं हुई है । यो सर्व-स्थिति को ध्यान रखना चाहिये || = : 1 1. } Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रिवोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ve क्लिन्नम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप किलिन्नं होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०६ से 'ल के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में अगम रूप 'इ' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार हो कर किलिन्न रूप सिद्ध हो जाता है । क्लिष्टम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप किलिट्ठ होता है। इस में सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्तव्यञ्जन 'क' में आम रूप'' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यञ्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति २५० प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठठ' की प्राप्ति; २६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' को प्राप्ति ३ – ६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-०३ से प्राप्त 'पू' का अनुस्वार होकर किलि सिद्ध हो जाता है । रूप विलष्टम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सिलिट्ठ होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-१०३ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यंजन 'श' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'किलिट्ठ" के समान हो प्राप्त होकर fafe रूप सिद्ध हो जाता है । ष्ट संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिलुट्ट होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक 'फिलिट्टे' के समान ही प्राप्त होकर पिल्लई रूप सिद्ध हो जाता है । प्लोषः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पिलोसों होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प' में आगम रूप 'इ' की मि; १-२६० से 'प' के स्थान पर स को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में कान्त पुल्डिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर पिलोसो रूप सिद्ध हो जाता है । सिलिन्हो रूप की सिद्धि सत्र संख्या २-५५ में की गई है। चलेषः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिलेसो होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०६ से 'ख' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में आगम रूप 'इ' को प्राप्तिः १-२६० से प्राप्त 'शि' में स्थित 'शू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति १-२६२ से द्वितीय 'ष' के स्थान पर भी 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिलेसी रूप सिद्ध हो जाता है । शुक्लम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप सुविकलं और सुइलं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'सू' की प्राप्ति २१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "TRINAR ४१० ] * प्राकृत व्याकरण Mu - - - -- हलन्त व्यञ्जन 'क' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति २-६६ से प्राप्त 'कि' में स्थित 'क' को द्वित्व 'क्क' की प्राप्ति; ३-५ से प्रथमा निफि के गाल नयन में पायान्त नासक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप सुस्किलं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(शुलम् =) सुहल में सूत्र-संख्या १.२६० से 'श् के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २.१८६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; ६-१७ से प्रात 'कि' में स्थित ग्यजन 'क' का लोप और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप मुलं भी सिद्ध हो जाता है। इलोक संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सिलोयो होता है । इसमें सूत्र संख्या २.१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में प्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२६० से प्राप्त 'शि में स्थित 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-१४७ से 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिलीओ रूप सिद्ध हो जाता है। कलेशः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप किलेसो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में प्रागम रूप 'इ' की प्राग्निः १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर किलेसो रूप सिद्ध हो जाता है। आम्लम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्बित होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-५४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्त्र खर 'अ' की प्राप्ति; २-५६ (१) हलन्त 'म्' में हलन्त 'ब' रूप आगम की प्राप्ति; २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित एवं आगम रूप से प्राप्त 'ब' में आगम रूप 'ई' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अम्मिले रूप सिद्ध हो जाता है। ग्लायति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप गिला होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ग' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'य' का लोप; ६-१० से लोप हुए 'य' में शेष रहे हुए स्वर 'अ' का लोपः ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गिलाइ रूप सिद्ध हो जाता है। ग्लानम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप गिलाणं होता है। इसमें सुत्र-संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ग' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान Basium hetN ET Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४११ 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गिलाणं रूप सिद्ध हो जाता है। म्लायति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप मिलाइ होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२०६ से ' के पूर्व में स्थित हजर ध्यान श्राप रूप इ' की प्राप्ति; १.१७७ से 'य' का लोप; १-१० से लोप हुए 'यू' में से शेष रहे हुए स्वर 'अ' का लोपः ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिलाइ रूप मिद्ध हो जाता है। म्लानम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप मिलाणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्न व्यञ्जन 'म् में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'रण' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मिलाणं रूप सिद्ध हो जाता है। __ क्लाम्यति संस्कृत क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप फिलम्मइ होता है । इसमें सूत्रसंख्या २-१०६.से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त ग्यजन 'क' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; १-८४ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-५८ से 'य्' का लोप; २-८८ से शेष 'म' को द्वित्व 'म्म' की प्राप्ति; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फिलम्मइ रूप सिद्ध हो जाता है। क्लान्तम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप किलन्तं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१०६ से 'ल' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'क' में बागम रूप 'इ' की प्राप्ति; १८१ से 'ला' में स्थित दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर किलन्त रूप सिद्ध हो जाता है। क्लमः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कमो होता है। इसमें मूत्र संख्या २-७ से 'ल' का लोप; और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कमो रूप सिद्ध हो जाता है । प्लयः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पवो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-७६ से 'ल' का लोप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर यो रूप सिद्ध हो जाता है। विप्लव संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रुप विप्पयो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'ल' का लोप: २.८ से शेष 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विप्यवी रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण शुक्ल-पक्षः संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप सुक्क-पत्रखो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः ७ से 'ल' का लोप से शेष 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' का प्राप्ति २-८६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'खख' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'खू' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सुक्क पक्लो रूप सिद्ध हो जाता है । उत्पereafter मकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप उप्पावेह होता हैं। इसमें सूत्र - संख्या - २ - ७७ से 'तू' का लोप २-७६ से 'ल' का लोपः २५६ से शेष 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; ३ - १४९ से प्रेरणार्थक क्रियापद के रूप में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'वय' के स्थान पर 'वे' का सद्भाव; और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उप्यावे रूप सिद्ध हो जाता है ।। २- १०६ । स्याद् - भव्य चैत्य - चौर्य समेषु यात् ॥ २- १०७ ।। स्पादादिषु चौर्य- शब्देन समेषु च संयुक्तस्यात् पूर्वं इद् भवति । मिश्रा । सिआ बाश्री | भविश्र | चेयं ॥ चौर्यसम । चोरिअं । थेरिअं । भारिया । गम्भीरिअं । गहरिवं । श्ररिश्र । सुन्दरि । सोरिअं । वीरिअं । वरिश्रं । सुरिश्री । धीरिश्रं । बम्हचरिचं ॥ I | I अर्थ:-स्वात्, मध्य एवं चैत्य शब्दों में और चौर्य के सामान अन्य शब्दों में रहे हुए संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में श्रागम रूप 'इ' को प्राप्ति प्राकृत रूपान्तर में होती है । जैसेः स्यात् सिधा || स्याद्वादः = सिवाच ॥ भव्यः = भविश्र । चत्यम् = चेयं ॥ 'चौर्य' शब्द के सामान स्थिति वाले शब्दों के कुल उदाहरण इस प्रकार है: - चौर्यम् = चोरिश्रं । स्थैर्यम् =थेरिश्रं । भार्या = मारिया । गाम्भीर्यम् - गम्भीरिथं । गाम्भीर्यम् = गहीरिथं । श्राचार्य: = मायरियो । सौन्दर्यम् = सुन्दरिअ ं | शौर्यम्=सोरिथं । वीर्यम् = वीरिषं । वर्यम् = वरि' । 'सूर्यसूरियो । धैर्यम् धीरि और ब्रह्मचर्यम् = बम्हचरिश्र ं ॥ P स्यात् संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सिया होता हैं। इसमें सूत्र - सख्या २-१९०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स' में आगम रूप 'ह' की प्राप्ति २७८ से 'यू' का लोप और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'तू' का लोप होकर सिआ रूप सिद्ध हो जाता है । स्याद्वादः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सिधा बाओ होता है। इसमें सूत्र संख्या -२-१० ७ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४१३ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन 'स' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति२-७८ से 'य' का लोप; २-३७ से प्रथम हलन्त 'द' का लोप; १.१७७ से द्वितीय 'द्' का लोप और ३-२ से प्रथना विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में बि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिपा-बाओ रूप सिद्ध हो जाता है। भव्यः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भविश्रो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'व' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २.४८ से 'य.' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकासन्त पुल्लिग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भाधो रूप सिद्ध हो जाता है। देहरं रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या १-१५१ में की गई है। चोरिभं रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-३५ में की गई है । स्थैर्यम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप थेरिअं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त 'स.' का लोप; २-१४८ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन र.' में आगम कप 'इ' की प्राप्तिः २-७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर थरि रूप सिद्ध हो जाता है। भारिश्रा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-२४ में की गई है। गाम्भीर्यम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप गम्भीरियं और गहीरिअं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' को प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र,' में श्रागन रूप 'इ' की प्राप्ति २.७८ से 'य' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर प्राकृन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप गम्भीरिअं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(गाम्भीर्यम्) गहीरियं में सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'थ' की प्राप्ति; २-७८ से हलन्त व्यञ्जन 'म' का लोप; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य के पूर्व में स्थित इलन्त व्यञ्जन 'र में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; -४० से 'य' का लोप; ३-२५ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत्त में 'म् प्रत्यय की अप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनस्वार होकर द्वितीय रूप गहीरों भी सिद्ध हो जाता है। पायरियो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-७३ में की गई है। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] * प्राकृत व्याकरण * सुन्दरि रूप की सिद्धि सूत्र- संख्या १-१६० में की गई है । शौर्य संस्कत रूप है। इसका प्राकृत रुप सीरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१५६ से 'औ' के स्थान पर 'श्री' की प्राप्तिः २ - १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २००८ से 'य' का लोपः ३०-५ से प्रथमा त्रिभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर सोरिअं रूप सिद्ध हो जाता है । वार्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वौरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या २१०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २७प से 'यू' का लीप ३-२४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति; और १ - २३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर वीरि रूप सिद्ध हो जाता है । पर्यम् संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसका प्राकृत रूप बरि होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १०० से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति; २७८ से 'य का लोप; ३ -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर घरिअं रूप सिद्ध हो जाता है । सूर्यः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सूरिश्र होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में आगम रूप 'इ' की प्राप्तिः २०६ से 'य' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सूरिओ रूप सिद्ध हो जाता है । धैर्यम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धीरिश्रं होता है। इसमें सूत्र संख्या १- १५५ से 'ऐ' के स्थान 'ई' की प्राप्तिः २- १०७ से संयुक्त व्यञ्जन 'य' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति २८ से 'यू' का लोप; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर धीरिक रूप सिद्ध हो जाता है। बम्हचर रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६२ में की गई है ।।२-१०७॥ स्वप्ने नात् ॥२- १०८॥ स्वप्नशब्दे नकारात् पूर्व इव भवति ।। सिविणो || अर्थः - संस्कृत शब्द 'स्वप्न' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्स व्यञ्जन 'प् में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति होती हैं। जैसे:-स्वप्नः सिविणो ॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४१५ स्निग्धे वादितौ ॥२-१०।। स्निग्धे संयुक्तस्य नात् पूर्वी अदिती वा भवतः ॥ सशिद्ध सिणिद्ध । पक्षे निद्ध। अर्थः-संस्कृत शब्द 'स्निग्ध के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स' में वैकल्पिक रूप से कभी श्रागम रूप 'अ' को प्राप्ति होती है अथवा कभी पागम रूप 'इ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे:-स्निग्धम् = सणिद्ध अथवा सिणिद्ध; अथवा पक्षान्तर में निद्ध रूप भी होता है। स्निग्धम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप सणिद्ध, सिणिद्ध और निद्धं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१०६ से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यकमन 'स' में वैकल्पिक रूप से प्रोगम रूप 'अ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-० से 'ग' का लोप; २-८८ से शेष 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'धू' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्न नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप साणि सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-(स्निग्धम् =) सिणिद्धं में सूत्र संख्या २-१० से संयुक्त व्यञ्जन 'न' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स' में वैकल्पिक रूप से पागम रूप 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप सिणिचं भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप-(स्निग्धम् =) निद्ध में सूत्र-संखयो ५-७७ से हलन्त 'स' का लोप और शेष साधनि का प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप निद्ध भी सिद्ध हो जाता है।॥२.१०६।। कृष्णे वर्णे वा ॥२-११०॥ कृष्ण वर्णे वाचिनि संयुक्तास्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्वी अदिती वा भवतः ॥ कसणो कसिलो कराहो । वर्ण इति किम् ।। विष्णों कएहो ।।। ___ अर्थ:--संस्कृत शब्द 'कृष्ण' का अर्थ जब 'काला' वर्ण वाचक हो तो उस अवस्था में इसके माकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ण' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'प में वैकल्पिक रूप से श्रागम रूप 'अ' की प्राप्ति होती है अथवा कभी वैकल्पिक रूप से पागम रूप 'ई' की प्राप्ति होती है। जैसे:-कृष्ण: =(काला वर्णीय) = कसणो अथवा कसिणो ।। कभी कभी करहो भी होता है। प्रश्नः-मूल सूत्र में 'वर्ण'-(रंग वाचक)-ऐसा शब्द क्यों दिया गया है ! उत्तरः-संस्कृत साहित्य में 'कृष्ण' शब्द के दो अर्थ होते है। एक तो 'काला-रंग' वाचक अर्थ होता है और दूसरा भगवान कृष्ण-वासुदेव वाचक अर्थ होता है। इसलिये संस्कृत मूल शब्द 'कृष्ण' में Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] * प्राकृत व्याकरण ***** '' व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ष' में श्रागम रूप 'अ' की अथवा 'इ' की प्राप्ति केवल वर्णवाचक स्थिति में ही होती है; द्वितीय अर्थ वाचक स्थिाले में नहीं। ऐसा विशेष अर्थ बतलाने के लिये ही मूल-सूत्र में 'वर्ण' शब्द जोड़ा गया है। उदाहरण इस प्रकार है: - कृष्ण: = (विष्णु-वाचक) = कहो होता है । को भी नहीं होता है और कसियो भी नहीं होता है। यह अन्तर ध्यान में रखने योग्य हैं । कसयो, कमियों और करहो; इन तीनों की सिद्धि सूत्र संख्या २७५ में की गई है ।। २ ११० ॥ उच्चार्हति ।। २-१११ ।। अर्हत् शब्दे संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्वी रत् श्रदितौ च भवतः । श्ररुहो रहो अरिहो । रुहन्तो अरहन्तो अरिहन्तो ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'अर्हत' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यक्जन 'र्' में कभी श्रागम रूप 'उ' की प्राप्ति होती हैं; कभी आगम रूप 'अ' की प्राप्ति होती हैं, तो कभी श्रागम रूप 'इ' की प्राप्ति होती है। इस प्रकार 'अहत्' के प्राकृत में तीन रूप हो जाते हैं । उदाहरण इस प्रकार है:–अर्हन् = अरुहो अरहो और अरिहो || दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:- म हन्तो, अरहन्तो और अरिहन्तो ॥ = अर्हन् संस्कृत रूप है | इसके प्राकृत रूप अरुहो, अरहो और अरिहो होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-१११ से संयुक्त व्यजन है' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यब्जन 'ए' में क्रम से पक्षान्तर रूप से अगम रूप 'उ'; 'अ' और 'इ' की प्राप्ति; १-११ से अन्य व्यन्जन 'न' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से अरुहो; अरहो और आरही ये तोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । अर्हन्तः संस्कृत रूप हैं । इसके प्राकृत रूप श्रमहन्ती, अरहन्तो और अरिहन्ती होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-१११ से संयुक्त व्यञ्जन 'ई' के पूर्व 'में' स्थित हलन्त व्यंजन 'र् में क्रम से पक्षान्तर रूप से आगम रूप 'उ'; 'अ' और 'इ' की प्राप्ति; और १-३७ से अन्त्य विसर्ग के स्थान पर 'ओ' को प्राप्ति होकर कम से अरुदन्त', अरहन्ती और अरिहन्तों से तीनों रूप सिद्ध हो जाते हैं ।। २-१११।। पद्म-छम मूर्ख द्वारे वा ॥२- १२२॥ एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उद् वा भवति || परमं पोम्मं । उमं ब्रम्मं । गुरुक्खो मुक्खो । दुवारं । पते । वारं । देरें । दारं || J अर्थः- संस्कृत शब्द पद्म, छद्म, मूर्ख और द्वार में प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यब्जन 'द्म' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'दु' में, संयुक्त 'ख' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'टु' में और संयुक्त Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + प्रिमोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ४१७] | रूप मसूर व्यञ्जन 'द्वा के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन 'द्' में वैकल्पिक रूप से श्रागम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है:-पद्मन - पउर्म अथवा पोमं ।। छाम् = छ उमं अथवा छम्नं ।। मूर्खः = मुरुक्खो अथवा मुक्खा ॥ द्वारम् दुवार और पनान्तर में द्वारम् के वारं, देरं और दारं रूप भी होते हैं। पउमं और पोम्मं दोनों रूपों की सिद्धि सूत्र संख्या १-१ में की गई है। छन्नम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप छ उमं और छम्नं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-११२.से संयुक्त व्यसन म में स्थित पूर्व हलन्त व्यतन 'द' में वैकल्पिक रूप से प्रागम रूप 'उ' की प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त 'दु' में से 'द्' का लोप; ३-०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त मूका अनुम्बार होकर प्रथम रूप छउमे सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(छमम् =) छम्म में सूत्र-संख्या २-७७ से हलन्त 'द्' का लोप; २-२ में शेष 'म' को द्विस्व 'म्म' को प्राप्ति और शेष सावनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप छम्मं भी सिद्ध हो जाता है। मूर्खः संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मुरुस्खो और मुक्खो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-११२ से संयुक्त व्यन्जन ख' में स्थित पूर्व हलन्त व्यञ्जन 'र' में वैकल्पिक रूप से प्रागम रूप 'ज' की प्राप्ति; २.८९ से शेष ख' को द्वित्व 'ख ख' की प्राप्रि; २-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रुप मुसक्खो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप मुक्खो को सिद्धि सूत्र-संख्या २-८८ में की गई है। दुवारं, बारं, देरं और दारं इन चारों रूपों को सद्धि सूत्र संख्या १-४६ में की गई है ॥२-१९६।। तन्वीतुल्येषु ॥२.११३॥ उकारान्ता ङीप्रत्ययान्तास्तन्वी तुल्याः। तेषु संयुक्तस्यान्त्य व्यञ्जनात् पूर्व उकारो भवति ॥ तणुवी । लहुवी । गरुवी । बहुवी ! पुहुवी । मउवी ।। क्वचिदन्यत्रापि । धनम् । सुरुग्धं ।। आ । सूक्ष्मम् । सुहुमं ॥ ___ अर्थ:-उकारान्त और 'डी' अर्थात् 'ई' प्रत्ययान्त तन्वी =(तनु + ई = तन्वी) इत्यादि ऐसे शब्दों में रहे इस संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार है: तन्दी =(तनु + ई =) तणुवी । लध्वी (लघु + ई =) लहुवी । गुर्वी = (गुम + ई =) गरुवी । बही= (बहु + ई =) बहुची । पृथ्वी-(पृथु + ई =) पुहुवी । मृद्री = (मृदु + ई =) मउवी ॥ इत्यादि । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] * प्राकृत व्याकरण * कुछ संस्कृत शब्द ऐसे भी हैं, जिनमें 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होने पर भी उनके प्राकृत रूपान्तर में उनमें स्थित मंयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन में प्रांगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-सनम = सुरुग्धं । ऐसे उदाहरण 'तन्वी' आदि शब्दों से भिन्न-स्थिति वाले हैं । क्यों कि इनमें 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति नहीं होने पर भी आगम रूप 'उ' को प्राप्ति संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्याजन में होती हुई देखी जाती है। आर्प-प्राकृत-रूपों में भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे-सूक्ष्मम् = पार्ष-रूप) सुहुमं ।। तन्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तगुवी होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-११३ से संयुक्न व्यम्जन 'बी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन 'न' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-२०० से प्राप्त 'नु' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर तणुषी रूप सिद्ध हो जाता है। लाली संस्कृत रूप है ! इपका काकुन रूप लहुबी होता है । इसमें सूत्र-मंत्र्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'बी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'घ्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-१८७ से प्राप्त 'धु' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर लहुवी रूप सिद्ध हो जाना है । ___ गुर्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गस्त्री होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूप उ' की प्राप्ति; और १-२०० से 'गु' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर गरुवी रूप सिद्ध हो जाता है। पदवी संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप बहुवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होकर बहुवी रूप सिद्ध हो जाता है। पुहुयी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है । मृवी संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मउवा होता है । इसमें सुन्न-मरज्या १-१६ से 'मृ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वो' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द में अागम रूप 'उ' की प्राप्रि; और १-१७७ से प्राप्त 'दु' में से 'द' व्यञ्जन का लोप होकर मउसी रूप सिद्ध हो जाता है। त्रुघ्नम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुरुग्धं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन “स्त्र में स्थित हलन्त पूर्व व्यञ्जन 'स' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; २.७८ से 'न' का लोप; २-८८ से शेष 'घ को द्वित्व 'घध की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रामि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुरुग्वं रूप सिद्ध हो जाता है। सहमं रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है ॥२-११३।। Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१६ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित || एक स्वरे श्वः - स्वे ॥२- ११४॥ एक स्त्ररे पदे-यौ श्वस् स्त्र इत्येतौ तयोरन्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उद् भवति ॥ श्वः कृतम् सुर्वे कयं || स्त्रे जनाः । सुत्रे जया || एक स्वर इति किम् । स्व-जनः । म- यणो ॥ 1 अर्थः- अब 'श्वस्' और 'स्व' शब्द एक स्वर वाले ही हों अर्थात् इन दोनों में से कोई भी समास रूप में अथवा अन्य किसी रूप में स्थित न हो; और इनकी स्थिति एक स्वर वालो ही हो तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' अथवा 'स्' में श्रागम रूप 'ड' की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:- :- श्वः कृतम् - पुर्वकथं ॥ स्वेजनाः = सुत्रे जणा || प्रश्नः - 'एक स्वर वाला' ही हो; तभी उनमें श्रागम रूप 'ज' को प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि श्वः और स्व शब्द में समास आदि में रहने के कारण से एक से अधिक स्वरों को उपस्थिति होगी तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'शू' अथवा 'स' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- स्व-जनः म यणो ॥ इस उदाहरण में 'स्व' शब्द 'जन' के साथ संयुक्त होकर एक पद रूप बन गया है; और इनसे इसमें तीन स्वरों की प्राप्ति जैसी स्थिति बन गई है; अतः 'स्व' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति का भी अभाव हो गया है । यो अन्यत्र भो जान लेना एवं एक स्वर से प्राप्त होने वाली स्थिति का भी ध्यान रख लेना चाहिये । इक्षः (=श्वत्') संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सुवे होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; ९-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः १ ५७ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-१२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स' का लोप होकर. मुखे रूप सिद्ध हो जाता है । ni रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है। स्वे संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुवे होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९४ से संयुक्त व्यञ्जन 'वे' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'सू' में आगम रूप 'उ' को प्राप्ति होकर मुवे रूप सिद्ध हो जाता है । जनाः संस्कृत रूप है ! इसका प्राकृत रूप जणा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त और लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य स्वर 'भ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर जणा रूप सिद्ध हो जाता है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० * प्राकृत व्याकरण * स्व-जनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप स-यणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-5 से '' का लोप; १-१७७ से 'ज्' का लाप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति; १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१ से प्रथमा विभक्ति के एक वर्ग में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर स-यणो रूप सिद्ध हो जाता है ।२-११४॥ ज्यायामीत् ॥२-११५॥ ज्याशब्द अन्त्य व्यजनात् पूर्व ईद् भवति ॥ जीश्रा । अर्थः संस्कृत शब्द 'ज्या' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यजन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज़' में सागम रूप 'ई' की प्राप्ति होती है । जैसे-ज्या जीपा ।। ज्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जीया होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.११५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज' में अागम रूप 'ई' की प्राप्ति और २.४ से 'य' का लोप होकर जीआ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-११५।। । करेणू-वाराणस्योर-पो यत्ययः ॥२-११६॥ अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थितिपरिसिर्भवति ।। ।। कणेरू । वाणारसी । स्त्रीलिङ्ग निर्देशात् पुसि न भवति । एसो करेणु ॥ अर्थः---संस्कृत शब्द 'करेणु' और 'वाराणसी में स्थित 'र' वर्ण और 'ण' का प्राकृत-रूपान्तर में परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला-बदली हो जाती है । 'ण' के स्थान पर 'र' और 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार की वर्णो सम्बन्धी परस्पर में होने वाली अदला-बदली को संस्कृत भाषा में व्यत्यय कहते हैं। ऐसे व्यत्यय का दूसरा नाम स्थित 'परिवृति' भी है । उदाहरण इस प्रकार हैकरेणुः = कणेरू । वाराणसी - वाणारसी। इन दोनों उदाहरणों में 'ण' और 'र' का परस्पर में व्यत्यय हुअा है। करेणु' संस्कृत शब्द के 'हाथी अथवा हधिनी' यो दोनों लिंग वाचक अर्थ होता है; तदनुसार 'र' और 'ण' वर्गों का परस्पर में व्यत्यय केवल स्त्रीलिंग वारक अर्थ में ही होता है । पुल्लिंग-वाचक अर्थ ग्रहण करने पर इन 'ण' और 'र' वर्गों का परस्पर में व्यत्यय नहीं होगा। जैसे:-एषकरेणुः एसो करेणू यह हाथी॥ करेणुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(स्त्रीलिंग में ) कणेरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'रण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य इस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर कणेरू रूप सिद्ध हो जाता है। पाराणसी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वाणारसी होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-११६ से । Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४२१ 'र' वर्स का और 'ण' वर्ग का परस्पर में व्यत्यय होकर पाणारसी रूप मिद्ध हो जाता है। एषः संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत कम एप्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३ से मून संस्कृत एतद् सर्वनाम के स्थान पर एप रूप का आदेश नाति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'बी' प्रत्यय की प्रानि होकर एसो' रूप सिद्ध हो जाता है। एषः = एसो की साधनिका निम्न प्रकार से भी हो सकता है। सूत्र-संख्या १-२६० से 'प' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति और १-६७ से विमर्ग' स्थान पर 'बी' को प्राप्त कर एपो । शिस हो जाता है। करणः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप-(पुर्ति नग में )--करेणू होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त पुस्लिम में 'सि प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'ॐ' की प्राप्ति होकर करेया रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-११६॥ श्रालाने लनोः ॥२-११७॥ बालान शन्दे लनोर्व्यत्ययो भवति ।। आणालो । आणाल खम्मी ।। अर्थ:-संस्कृत शब्द श्रालान के प्राकृत-रूपान्तर में 'ल' वर्ण का और 'न घर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है । जैसे:-पालानः = आपालो ।। बालान-स्तम्भः = श्रापाल-खम्भो ॥ . भालान: संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप प्राणालो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-११७ से 'ल वर्ण को और 'न वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आणालो रूप सिद्ध हो जाता है। श्राणाल-क्खम्भी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २०६७ में की गई है ।।२-११७।। अचलपुरे व-लोः ॥२.११८॥ अचलपुर शब्दे चकार लकारयो व्यत्ययो भवति || अलचपुरं ।। अर्थः-संस्कृत शब्द अचलपुर के प्राकृन-रूपान्तर में 'च' वण का और 'ल वर्ग का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है । जैसे:-अचलपुरम् = अलचपुरं || अचलपुरम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूपान्तर अलचपुरं होता है। इसमें सूत्र संख्या ५-११८ से 'च' वर्ग का और ल' वर्ण का परस्सर में व्यत्यय; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अलचपुरं रूप सिद्ध हो जाता है ।। महाराष्ट्र हरोः ॥२-११६॥ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२] * प्राकृत व्याकरण श्री महाराष्ट्र शब्दे हरोयत्ययो भवति ।। मरहट । अर्थः-संस्कृत शटर महाराष्ट्र के प्राकृत-रूपान्तर में 'ह' वर्ग का और 'र' वण का परसर में व्यत्यय हो जाता है । जैमे:-महाराष्ट्रम् = मरहटुं ।। मरहट्ठ रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६६ में की गई है ॥२-११६।। हृदे ह-दोः ॥२.१२०॥ इद शब्दे हकार दकारयोर्व्यत्ययो भवति ॥ दहो ॥ आपे । हरए महपुण्डरिए । अर्थः-संस्कृत शब्द हद के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'द' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय हो जाता है। जैसे-हरः इहो । पार्ष-प्राकृत में हृदः का रूप हरए भी होता है। जैसे-हर महापुरदुरीका हरए महपुण्डरिए ।। दहो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या -८० में की गई है। हरए प्रार्ष-प्राकृत रूप है । अतः साधानका का अभाव है। महापुण्डरीकः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महपुण्डरिए होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-४ से 'श्रा के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१०१ से 'ई' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति, ५-१७७ से 'क' का लीप; और ४-२-७ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १.१. से लोप हुए 'क' में से शेष रहे हुए 'अ' को आगे '' प्रत्यय की प्राप्ति हो जाने से लोप होकर महपुण्डरिए रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१२॥ हरिताले र लोन वा ॥२-१२१॥ हरिताल शब्दे रकारलकारयो य॑त्ययो वा भवति । हलियारी हरिपालो ।। अर्थ-संस्कृत शब्द् हरिताल के प्राकृत रूपान्तर में 'र' वर्ण का और 'ल' वण का परस्पर में व्यत्यय वैकल्पिक रूप से होता है । जैसे:-हरितालः हलियारो अथवा हरिबालो ।। हरितालः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप हलियारो और हरिआलो होत हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१२२ से 'र' और 'ल' का परस्पर में व्यत्यय; १.१७७ से 'तु' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप हलिआर सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(हरितालः =) हरियाली में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'न्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप हरिआलो भी सिद्ध हो जाता है ॥२-१२॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સરસ્વતિબહેન મણીલાલ શાહ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * ४२१ . . . लघुके ल-होः ।। २-१२२ ॥ लघुक शब्दे घस्य हवे कृते लहोयत्ययों या भवति ॥ हलुआं। लहुवे ॥ घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वान हो न प्राप्नोतीति हकरणम् ।। अर्थ:- संस्कृत शब्द 'लघुक' में स्थित 'घ' व्यजन के स्थान पर सूत्र-संख्या १-१८ से 'ह' अादेश की प्राप्ति करने पर इस शब्द के प्राकृत रूपान्तर में प्राप्त ह' वर्ण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:-लघुकम् = हलुओं अथवा लहुअं ॥ सूत्र-संख्या ५-१८७ में ऐमा विधान है कि ख, घ, थ, ध और भ वर्ण शब्द के प्रादि में स्थित न हों तो इन वर्गों के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होती है। तदनुसार 'लथुक' में स्थित 'घ' के स्थान पर प्राप्त होने वाला 'ह' शब्द के आदि स्थान पर आगया है; एवं इस विधान के अनुसार 'घ' के स्थान पर इस श्रादि 'ह' को प्राप्ति नहीं होनो चाहिये श्री । परन्तु यहां 'ह' की प्राप्ति व्यत्यय नियम से हुई है; अतः सूत्र-संख्या १-१८७ से अबाधिन होता हुश्रा और इस अधिकृत विधान से व्यत्यय को स्थिति को प्राप्त करता हुआ 'ह' आदि में स्थित रहे तो भी नियम विरूद्ध नहीं है। लघुकम संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप हल और लहुंअं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.१८७ से 'घ' के स्थान पर 'ह' आदेश की प्राप्ति; २-१२२ से प्राप्त 'ह' षण का और 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय; १-१७७ से 'क' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से हल्दुभं और लहुअं दोनों रूपों को सिद्धि हो जाती है ॥२-१२२।। ललाटे ल-डोः ॥१-१२३॥ ललाट शब्द लकार डकारयो र्व्यत्ययो भवति वा ॥ ण्डालं । णलाडं। ललाटे च [१.२५७] इति आद लस्य रणविधानादिह द्वितीयो लः स्थानी ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'ललाट' के प्राकृत रूपान्तर में सत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर प्राप्त 'ड' वर्ण का और द्वितीय 'ल' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय होता है। जैसे:-ललाटम् 'पण्डालं' अथवा एलाडं ।। मूल संस्कृत शब्द ललाट में दो लकार है। इनमें से प्रथम 'ल' कार के स्थान पर सूत्र संख्या १-२५७ से 'ए' की प्राप्ति हो जाती है। अत: मत्र-संख्या २-१२३ में जिन 'ल वर्ण की और 'ड' वर्ण की परस्पर में व्यत्यय स्थिति में बललाई है। उनमें 'ल' कार द्वितीय के सम्बंध में विधान है-ऐसा समझना चाहिये ।। ललाटम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप णडाल और गलाई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप गडालं की सिद्धि सत्र संख्या १.४७ में की गई है। द्वितीय रुप-(ललाटम् ) पलाई में सत्र-संख्या १-२५७ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * से प्रथम 'ल' के स्थान पर ज' की प्राप्ति; १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्रामि; ३-२५ से प्रश्नमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' को अनवार होकर द्वितीय रूप णलाई भी सिद्ध हो जाता है ।।२. १२३।। ह्ये ह्योः ॥२-१२४॥ ह्यशब्दे हकारयकारयोर्व्यत्ययो वा भवति ।। गुह्यम् । गुरहं गुज्झ ।। सह्यः । सम्हो सझो अर्थ:-जिन संस्कृत शम्शे में 'ह्य' व्यजन रहे हुए हों तो ऐसे संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूपान्तर में 'ह' वर्ण का और 'य' वर्ण का परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय हो जाता है । जैसे:-गुह्यम् = गुरई, अथवा गुज्झ और सह्यः = सयदो अथवा सझो !! इत्यादि अन्य शब्दों के संबंध में भी यही स्थिति जानना ।। गुह्यम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप गुरई और गुज्म होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-११५ से 'ह' वर्ण की और 'य' वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप गुथ्हं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप गुज्झ की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२६ में की गई है। सहयः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मय्हो और सभी होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१२४ से 'ह' वर्ग की धार ‘य वर्ण की परस्पर में वैकल्पिक रूप से व्यत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सय्हो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप सज्झो की सिद्धि सूत्र-संख्या २-२६ में की गई है ॥२-१२४|| स्तोकस्य थोक्क-थोव-थेवाः ॥२-१२५॥ स्तोक शब्दस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति वा ॥ थोक्कं थोवं थेवं । पक्षे । थोअं ॥ अर्थ:--संस्कृत शटन स्तोक के प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से तीन आदेश इस प्रकार से होते हैं। स्तोकम् थोक्कं, थोवं और थेवं ।। वैकल्पिक स्थिति होने से प्राकृत-व्याकरण के सूत्रों के विधानानुसार स्तोकम् का प्राकृत रूप थोअं भी होता है। स्तोकम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप चार होते हैं । जो कि इस प्रकार हैं:-थोक्क, थोवं, थे और थोअं । इनमें से प्रथम तीन रूपों की प्राप्ति सूत्र-संख्या २-१२५ के विधानानुसार श्रादेश Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४२५ रूप से होती है; श्रादेश- राप्त रूप में साधनिका का प्रभाव होता है। ये तीनों रूप प्रथमान्त हैं; अत: इनमें सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक जिंग में मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ये प्रथम तीनों रूप थोक, थोवं और थेव सिद्ध हो जाते हैं । चतुर्थ रूपयो की सिद्धि सूत्र संख्या २-४५ में की गई है। दुहितृभगिन्योर्धू या बहिण्यौ ॥२- १२६ ॥ थानयोरेतावादेशौ वा भवतः ॥ एष दुडिया | बहिणी भइणी ॥ - अर्थ:-संस्कृत शब्द दुहितृ - ( प्रथमान्त रूप दुहिता) के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत भाषा में आदेश रूप से धूल की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत भाषा में आदेश रूप से 'बहिणी' की प्राप्ति होती है। जैसे:- दुहिता = धूश्रा अथवा दुहिया और भांगनी = बहिणी अथवा भइणी ।। दुहिता संस्कृत रूप है । इसके प्ररकृत रूप धूश्रा और दुहिश्र होते हैं । प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द दुहिता के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'धूश्रा' रूप आदेश की प्राप्ति; अतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप आ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप - ( दुहिता = ) दुहिश्रा में दुहिश्र की सिद्धि हो जाती है । सूत्र संख्या १-१७७ से 'तू का लोप होकर द्वितीय रूप भगिनी संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बहिणी और भइणो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१२६ से संपूर्ण संस्कृत शब्द भगिनी के स्थान पर वैकल्पिक रूप से वहिणी' रूप आदेश को प्राप्तिः श्रतः साधनिका का अभाव होकर प्रथम रूप बहिणी सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप- (भगिनी = ) भइणी में सूत्र संख्या १-१७७ से 'गु' का लोप और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप भइसी भी सिद्ध हो जाता है ||२-१२६॥ वृक्ष - क्षिप्तयो रुक्ख बूढो २- १२७॥ वृक्ष - क्षिप्तयोर्यथासंख्यं रुक्ख छूढ इत्यादेशौ वा भवतः । रुक्खो वच्छी । छूढं खिः । उच्छूडं | उक्खि ॥। अर्थः- संस्कृत शब्द वृक्ष के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत भाषा में आदेश रूप से 'रुख' की प्राप्ति होती हैं। जैसे:: -- वृक्षः = रुक्खो अथवा बच्चो ।। इसी प्रकार से संस्कृत शब्द क्षिप्त के स्थान Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ * प्राकृत व्याकरण * HORD पर भी वैकल्पिक रूप से प्राकृत-भाषा में श्रादेश-रूप से 'शून' की प्राप्ति होती है । जैसे:-ज्ञिप्तम् = 'छूढ़' अथवा खितं ॥ दूसरा मारा इस कार है :---परिवाना . उन्बूलं का उक्खित्त ।। वृक्षः संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप रुक्खो और वच्छो होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या -१२७ से 'वृक्ष' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'रुख' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप रुक्रवो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप पच्छो की सिद्धि सूत्र संख्या २-१७ में की गई है। क्षिप्तम संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप छूदं और खित्त होते हैं। इनमें से प्रथम रूप छूढ़ की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१६ में की गई है । द्वितीय रूप-(क्षिप्तम् ) खित्त में सूत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर ख' का प्राप्ति; -33 से 'पू' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप खित्तं भी सिद्ध हो जाता है । __ उत्क्षिप्तम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप उच्चूदं और उ.क्त होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१२७ से संस्कृत शब्दांश 'क्षिप्त' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से श्रादेश रूप से 'क्रूट' की प्राप्रि; २.८८ से प्राप्त 'ढ' में स्थित 'छ' वर्ण को द्वित्व 'छ छ' का प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'र' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति; २-६४ से हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुग्वार होकर प्रथम रूप उच्ढे सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(उरिक्षातम्=) उदिखत्ते में सूत्र-संख्या २-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' और हलन्त 'प' का लोप; :-३ से 'क्ष' फे स्थान पर 'ख' की प्राप्तिः २-८८ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख ख' की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति; पुन से लोप हुए 'प' में से शेष रहे हुग 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान हो होकर द्वितीय रूप उकिरखस भी सिद्ध हो जाता है ।।२-१२७॥ वनिताया विलया ॥२-१२८॥ वनिता शब्दस्य विलया इत्पादेशो वा भवति ॥ विलया वणिया ॥ विलयेति संस्कृते पीति केचित् ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४२७ अर्थः-संस्कृत शब्द 'वनिता' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'विलया' ऐसा श्रादेश होता है । जैसे:-वनिता = (वैकल्पिक-आदेश)-विलया और (व्याकरण-मम्मत)-वणिश्रा ! कोई कोई वैयाकरण-प्राचार्य ऐसा भी कहते हैं कि संस्कृत-भाषा में 'वनिता' अर्थ वाचक 'विलया' शब्द उपलब्ध है और उसी 'विलया' शब्द का ही प्राकृत-रूपान्तर विलया होता है। ऐसी मान्यता किन्हीं किन्हीं आचाय की जानना ।। पनिता संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप विलया और वणिआ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र-संख्या २-१२८ से आदेश रूप से विलया होता है। द्वितीय रूप-(वनिता=) वणिया में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ६-१७७ से 'त्' का लोप होकर पणिआ रूप सिद्ध हो जाता है। पिलया संस्कृत रूप (किसी २ आचार्य के मत से- है; इसका प्राकृत रूप भी विलया ही होता है। मोरोपलापूरः ॥२-१२६॥ ईपच्छब्दस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति । चिंचव्य कूर-पिका | पचे ईसि ॥ अर्थ:-- वाक्यांश में गौण रूप से रहे हुए संस्कृत अव्यय रूप 'ईषत्' शब्द के स्थान पर प्राकृतरूपान्तर में 'कूर' आदेश की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। जैसे-चिंचा इव इषन्-पक्वा-चिंचम्च फूर-पिक्का अर्थात चिंचा-(वस्तु-विशेष) के समान थोड़ीसी पकी हुई ।। इम उदाहरण में 'इयत्' के स्थान पर 'फूर' आदेश की प्राप्ति हुई है । पक्षान्तर में 'ईपन्' का प्राकृत रूप ईसि होता है । 'ईपन-पावा में दो शब्द है; प्रथम शब्द गौण रूप से रहा हुअा है और दूसरा शब्द मुख्य रूप से स्थित है। इस सूत्र में यह उल्लेख कर दिया गया है कि 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति 'ईषन्' शब्द के गौण रहने की स्थिति में होने पर ही होती है । यदि 'ईषन्' शब्द गौण नहीं होकर मुख्य रूप से स्थित होगा तो इसका रूपान्तर 'ईसि' होगा; न कि 'कूर' श्रादेश: यह पारस्परिक-विशेषता ध्यान में रहनी चाहिये । चिंचा देशज भाषा का शब्द है । इसका प्राकृत रूपान्तर चिच होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.८१ से दीर्घ स्वर 'या' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति होकर पिंच रूप सिद्ध हो जाता है। 'व' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-६ में की गई है। ईषत्-पक्या संस्कृत वाक्यांश है । इसका प्राकृत रूप कूर-पिक्का होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१२६ से 'ईषत् अव्यय के स्थान पर गौए रूप से रहने के कारण से 'कूर' रूप आदेश की प्राप्ति; १.४७ से 'प' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; २.. से 'ए' का लोप और २-८८ से शेष द्वितीय 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति होकर कूर पिकका रूप सिद्ध हो जाता है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] +++ * प्राकृत व्याकरण * स्त्रिया इत्थी ॥२- १३०॥ स्त्री शब्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति ॥ इत्थी थी । अर्थ:-संस्कृत शब्द 'खो' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'इत्थी' रूप आदेश की प्राप्ति होती हैं। जैसे :- स्त्री इत्थी अथवा थी | स्त्री संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप इत्थी और थी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप को प्राप्ति सूत्र संख्या ५- १३० से 'स्त्री' शब्द के स्थान पर आदेश रूप से होकर प्रथम रूप इत्थी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - ( स्त्री = ) 'थी' में सूत्र- संख्या २-४५ से 'स्तु' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; और २- ७१ से 'त्र' में स्थित 'र' का लोप होकर द्वितीय रूप थी सिद्ध हो जाता है | १६-१३०|| धृतेर्दिहिः ॥२- १३१॥ वृति शब्दस्य दिरित्यादेशो वा भवति ।। दिही थिई । अर्थः - संस्कृत शब्द 'धृति' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'दिहि' रूप आदेश होता है। जैसे:- धृतिः दो अथवा थिई | = दिही रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १- २०६ में की गई है। धि रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०८ में की गई हैं ।। २ - १३१ ।। मार्जारस्य मञ्जर- वञ्जरौ ॥२-१३२॥ मार्जार शब्दस्य मज्जर बजर इत्यादेशों वा भवतः ॥ भञ्जरो वझरो । पचे मज्जारो ॥ अर्थः- संस्कृत शब्द 'मार्जार' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से दो आदेश 'मञ्जरो और बरो' होते हैं। जैसे - मार्जारः = मञ्जरो अथवा वञ्जरो ॥ पक्षान्तर में व्याकरण-सूत्रसम्मत तीसरा रूप 'मज्जारी' होता है । मार्जार/ संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मञ्जरी, बजरी और मजारों होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूप सूत्र-संख्या २-१३२ से आदेश रूप से और होते हैं। तृतीय रूप-मज्जारो की सिद्धि सूत्रसंख्या १-२६ में की गई है ।।२-१३२।। वैर्यस्य वेरुलि ॥२-१३३॥ वैडूर्य शब्दस्य वेरुलित्र इत्यादेशो वा भवति || वेरुलियं ॥ वेडुज्जं ॥ अर्थ :- संस्कृत शब्द 'वैडूर्य' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'वेरुलिय' श्रादेश نشست از C Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # शियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ४२६ होता है । जैसेः- वैढूर्यम् = ( श्रादेश रूप ) वैकलिधं और पक्षान्तर में -- ( व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप) बेडुज्जं ॥ संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप वेरुलिश्रं और बेडुज्जं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप सूत्र संख्या २-१३३ से आदेश प्राप्त रूप है । द्वितीय रूप - (वैर्यम् = ) वेदुज्जं में सूत्र संख्या - १-१४८ से दीर्घ 'पे' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति तथा १-८४ ''स्वर'' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'ज' रूप आदेश की प्राप्ति २-८ से प्राप्त 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्तिः ३ - २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप बेहजं सिद्ध हो जाता है || २-२३३|| एसिंह एत्ता हे इदानीमः ॥२- १३४॥ अस्य एतावादेशौ वा भवतः ॥ एहि एत्ताहे । इं || अर्थ :- संस्कृत श्रव्यय 'इदानीम्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'एसिंह' और 'सत्ता' ऐसे दो रूपों को प्रदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- इदानीम् = (आदेश प्राप्त रूप ) - एसिंह और एताई तथा पक्षान्तर में - (व्याकरण-सूत्र सम्मत रूप) इणिं ।। एह रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १२७ में की गई है । sarait संस्कृत अव्यय रूप है। इसका आदेश प्राप्त रूप एत्ता हे सूत्र संख्या २-१३४ से होता है। आणि रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १६ में की गई है ।।२-१३४|| पूर्वस्य पुरम: ।।२-१३५॥ पूर्वस्य स्थाने पुरम इत्यादेशो वा भवति । पुरिमं पुई ॥ अर्थ:-- संस्कृत शब्द 'पूर्व' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'पुरिम' ऐसे रूप की प्रदेश प्राप्ति होती हैं। जैसे- पूर्वम् = ( आदेश प्राप्त रूप ) - पुरिमं और पक्षान्तर में - ( व्याकरणसूत्र सम्मत रूप) - पुवं ॥ पूर्वम संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पुरिमं और पुत्र होते हैं। इनमें से प्रथम रूप पुरिमं सूत्र संख्या २-०३५ से प्रदेश प्राप्त रूप हैं । द्वितीय-रूप- (पूर्वम् ) = पुष्त्रं में सूत्र संख्या १०८४ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २७६ से 'र' का लोपः २-३६ से 'र' के लोप होने के बाद 'शेष' 'व' को द्वित्व 'स्व' की Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३.] * प्राकृत व्याकरण # ilairi S ada na -.--- - -..-... - माप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप पुथ्वं सिद्ध हो जाता है। ॥२-१३५॥ त्रस्तस्य हित्य-तट्टो ॥२-१३६॥ त्रस्त शब्दस्य हित्थतहः इत्यादेशी घा भवतः ॥ हित्थं । तट्ट तत्थ ।। ___ अर्थ:- संस्कृत शब्द 'बात' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'हित्य' और 'तट्र' ऐसे दो रूपों की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:-स्तम् = आदेश प्राप्त रूप)-हित्थं और तटुं तथा पक्षान्तर में-(व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप)-तत्थं ।। अस्तम संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृन-रूप हित्थं, तट्ट और तत्थं होते हैं । इनमें प्रथम दो रूप हित्थं और नई सूत्र संख्या २-१३६ से आदेश प्राप्त रूप हैं। तृनीय रूप-(प्रस्तम् ) तत्थं में सूत्र संख्या २.७६ से 'त्र' में रहे हुए 'र' का लोप; २-४५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'य' को द्वित्व 'थ' की प्रामि; २-६० से प्राप्त पूर्व 'थ्' के स्थान पर 'त' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर तृतीय रूप तत्थं भी सिद्ध हो जाता है॥२-१३६॥ बृहस्पतो बहोभयः ॥२.१३७॥ बृहस्पति शब्दे वह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति ॥ मयस्सई भयष्फई ॥ पक्षे । बहस्सई । बहप्पई बहपई ॥ वा वृहस्पती (१-१३८) इति इकारे उकारे च चिहस्सई । बिहफई। बिहप्पई । बुहस्सई । हप्फई । हामई । अर्थः-संस्कृत शब्द 'वृहस्पत्ति' में स्थित 'बह' शब्दावयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में वैकल्पिक रूप से 'भय' ऐसे श्रादेश-रूप की प्राप्ति होती है । जैसे:-बृहस्पनिः भयस्सई, भयाफई और भयपर्छ !| पक्षान्तर में ये तीन रूप होते हैं:--बहरसई, बहफई और बहप्पई । सूत्र-संख्या १-१३८ से 'बृहस्पत्ति' शब्द में रहे हुए 'ऋ' स्वर के स्थान पर वैकल्पिक रुप से कभी 'इ' स्वर की प्राप्ति होती है तो कभी 'उ' म्वर की प्राप्ति होती है; तदनुमार बृहस्पति शब्द के बह प्राकृत रूप और हो जाते हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:-विहस्सई, बिहाफई, हिप्पई, बुहस्सई बुहाफई और घुहप्पई ॥ भयमई और भयरफई रूपों की सिद्धि सूत्र-संख्या २.६६ में की गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः प्रथम और द्वितीय रूप हैं। वृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इसका-(बारह हपों में से तीसरा) प्राकृत रूप भयापई होता है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४३१ इसमें सूत्र - संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २.१३७ से प्राप्त 'वह' शब्दावयव के स्थान पर प्रदेश रूप से 'भय' की प्राप्ति; २-७७ हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप २-८६ से शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प्प' की प्राप्तिः १ १७७ से 'तू' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर भयप्पई रूप सिद्ध हो जाता है । बृहस्पतिः संस्कृत रूप है; इसका प्राकृत रूप - (बारह रूपों में से छठा ) बहपई होता है। इसमें सूत्र संख्या १-९२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति और शेष साधनिका 'भयप्पई' के समान हो होकर पपई रूप सिद्ध हो जाता है । बसई और बहफई रूपों को सिद्धि सूत्र- संख्या २६६ में को गई है। ये दोनों रूप बारह रूपों में से क्रमशः चौथा और पाँचवा रूप है । बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप - ( बारह रूपों में से सातवां ) बिहरूपई होता है । इसमें सूत्र- संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर कल्पिक रूप से 'इ' की प्राप्ति; २-६६ से संयुक्त व्यञ्जन 'रूप' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'स' की प्राप्ति २८ से प्राप्त 'स' को द्वि 'स' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'भय' रूप के समान होकर हिस्सई रूप सिद्ध हो जाता है । बिहफई आठवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई हैं। बृहस्पतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप ( बारह रूपों में से नवत्रों ) बिहपई होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१३८ से ऋ' के स्थान पर वैकापक रूप से 'इ' की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'भई' रूप के समान होकर विपई रूप सिद्ध हो जाता है । बृहस्पतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप ( बारह रूपों में से दसवाँ ) - हम्स होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१३८ से 'ऋ' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से '' की प्राप्ति और शेष माधनिका उपरोक्त बिसई रूप के समान ही होकर ब्रहस्वई रूप सिद्ध हो जाता है। फई ग्यारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३८ में की गई है ! पई बारहवें रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-५३ में की गई है ।।२-१३ ।। मलिनोभय- शुक्ति-छुप्तारब्ध- दातेर्मइलावह-सिप्पि-विक्कादत्त पाइक। २०३८ । मलिनादीनां यथासंख्यं महलादय आदेशा वा भवन्ति ॥ मलिनम् । महलं मलिणं ॥ उभयं । अव । उवहमित्यपि केचित् । श्रहो आसं । उपयबलं । श्रार्षे । उभयो कालं ॥ शुक्तिः । सिधी सुती ॥ छुतः । छिक्को छुतो ! आरब्धः । श्राहतो यारद्धो । पदातिः । पाक्को पयाई ।। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] अर्थः - संस्कृत शब्द "मलिन, उभय, शुक्ति, छुप्त, आरब्ध और पदाति" के स्थान पर प्राकृतरूपान्तर में वैकल्पिक रूप से क्रम से इस प्रकार आदेश रूप होते हैं; 'मइल, अवह, सिप्पि, विक, आदत्त और पाक || श्रादेश प्राप्त रूप और व्याकरण-सूत्र-सम्मत रूप क्रम से इस प्रकार है: ---मलिनम् = महलं अथवा मलिणं || उभयं = अवहं अथवा उभयं ॥ कोई कोई वैयाकरणाचार्य " उभयं" का प्राकृत रूप "उवहं" भी मानते हैं । जैसे-उभयावकाशम् == श्रवहो असं पक्षान्तर में " उभय" का उदाहरण "उभयवल" भी होता है। आर्ष-प्राकृत में भी "उभय" का उदाहरण " उभयोकाल" जानना । शुक्ति= सिप्पी अथवा सुत्ती ॥ लुप्मः grat अथवा तो ॥ श्रारब्धः = श्रदत्तो अथवा आरद्धो || और पदातिः = पाइनको अथवा पयाई । = * प्राकृत व्याकरण * मलिनम्: – संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप महल और मलिणं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या २-१३८ से 'मलिन' के स्थान पर 'महल' का घादेश; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में सिं' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ 'म्' का अनुस्वार होकर महलं रूप सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप - ( मलिनम् = ) मांत्रण में सूत्र- संख्या १-२ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप 'महल' के समान ही होकर द्वितीय रूप मलिणं भी सिद्ध हो जाता है । उभयम्, संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप भयं श्रवहं और उवहं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप उभयं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - (उभयम् ) अहं में सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'श्रवह' का आदेश; और शेष सानिका प्रथम रूप वत् होकर द्वितीय रूप अवहं भी सिद्ध हो जाता है । तृतीय रूप- (अभयम्- ) उवह में सूत्र संख्या २-१३८ की वृत्ति से 'उमय' के स्थान पर 'उह' रूप की प्रदेश - प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर तृतीय रूप उवहं भी सिद्ध हो जाता है । उभयावकाशं संस्कृत रूप हैं। इसका प्राकृत रूप अवहोआसं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१३८ से 'उभय' के स्थान पर 'अवह' रूप की आदेश प्राप्ति; १-१७२ से 'अ' उपसर्ग के स्थान पर 'ओ' स्वर की प्राप्ति; १-१० से आदेश प्राप्त रूप 'वह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'श्री' स्वर को प्राप्ति होने से लोपः १-५ से हलन्त शेष 'ह' में पार्श्वस्थ 'ओ' की संधि; १-१७७ से 'कू' का लोपः १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का=अनुस्वार होकर भवडीअसं रूप सिद्ध हो जाता हैं । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित # [ ४३३ उभय-बलम्, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उभयवलं होता है। इसमें सूत्र - संख्या ३- २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उभय बले रूप सिद्ध हो जाता है। प्रत्यय की उभय कालम संस्कृत रूप है। इसका आर्ष- प्राकृत रूप उभयोकालं होता है। इसमें सूत्र संख्या २- १३८ की वृत्ति से उभय-काल के स्थान पर 'उभयो काल' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय का प्राप्ति; और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उभयो कालं रूप सिद्ध हो जाता है । शक्तिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप सिप्पो और सुती हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्रसंख्या २-१३८ से शुक्ति' के स्थान पर 'सिप्पि' रूप को आदेश प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में स्त्र इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर की प्राप्ति होकर प्रथम रूप सिप्पी सिद्ध हो जाता है । को दीर्घ स्वर 'ई' द्वितीय रूप - ( शुक्तिः = ) - सुत्ती में सूत्र संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः २-५७ से 'क्ति' में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'कू' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'तू' को द्वित्व 'तू' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हाव इकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप ती सिद्ध हो जाता है । सुप्तः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप छिको और छुत्तो होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र ' संख्या २-१३८ से 'छुप्त' के स्थान पर 'छिक्क' का आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप छिक्की सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप (म) लुत्तो में सूत्र संख्या २७७ से हलन्त व्यञ्जन प्' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप लुत्तो सिद्ध हो जाता है। आरब्धः संस्कृत विशेषण रूप हैं। इसके प्राकृत रूप श्राढतो और श्राद्धी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१३८ से 'श्रारब्ध' के स्थान पर 'दत्त' रूप को आदेश प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप आत्तो सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप - (आरब्धः = आरद्धो में सूत्र संख्या २७६ से हलन्त व्यञ्जन 'ब' का लोप; २-८६ से शेष 'ध' को द्वित्व धूध को प्राप्ति २६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'दू' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप आर सिद्ध हो जाता है । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरस.* पदातिः संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप पाइपको और पयाई होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-१३८ से पदाति' के स्थान पर 'पाइक्क' रूप की आदेश प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप पाइको सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(पदातिः=) पयाई में सूत्र संख्या १-१७% से 'द्' और 'त्' दोनों व्यसनों का लोफ १-१८० से लोप हुए '' में से शेष रहे हुए 'श्रा' को 'या' की प्राप्ति; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य ह्रस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप पयाई सिद्ध हो जाता है ॥२-१३८ ।। दंष्ट्राया दाढा ।। २-१३६ ॥ पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । दंष्ट्रा शब्दस्य दाहा इत्यादेशो भवति ।। दाढा । अयं संस्कृते पि ॥ अर्थ:-उपरोक्त सूत्रों में आदेश-प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होती है। किन्तु इस सूत्र से प्रारम्भ करके आगे के सूत्रों में वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति का अभाव है; अर्थात् इन धागे के सूत्रों में श्रादेश प्राप्ति निश्चित रूप से है। अतः उपरोक्त सत्रों से इन सूत्रों की पारस्परिक-विशेषता को अपर नाम ऐसे 'पृथक योग' को ध्यान में रखते हुए 'वा' स्थिनि की-वैकल्पिक स्थिति की-निवृत्ति जानना इसका प्रभाव जानना । संस्कृत शब्द 'दंष्ट्रा' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'दादा' ऐसो आदेश-प्रोप्ति होती है। संस्कृत साहित्य में 'दंशके स्थान पर 'दादा' शब्द का प्रयोग भी देखा जाता है। ___दंष्ट्रा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दाढा होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १३६ से 'दंष्ट्रा' के स्थान पर 'दाढा' आदेश होकर दाढा रूप सिद्ध हो जाता है । २-१३६ ।। बहिसो बाहिं-बाहिरौ ॥२-१४०॥ बहिः शब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः ।। बाहिं बाहिरै ।। अर्थ:-संस्कृत अव्यय 'बहिस्' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'बाहिं' और 'बाहिर' रूप प्रादेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:-बहिस् बाहिं और वाहिरं । बहिस् संस्कृत अव्यय रूप है । इसके प्राकृत रूप बाहिं और बाहिरं होते हैं। इन दोनों रूपों में सत्र संख्या २-१४० से 'बहिस्' के स्थान पर 'बाहि' और 'बाहिरं श्रादेश होकर दोनों रूप 'बाहिं' और 'बाहिर' सिद्ध हो जाते हैं ।। २-५४० ॥ अधसो हेढें ॥२-१४१ ॥ अधस शब्दस्य हेर्ल्ड इत्ययमादेशो भवति ।। हेहूँ । , Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [४३५ अर्थः-संस्कृत अव्यय 'अधः' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'हेटुं' रूप की श्रादेश प्राप्ति होती है। से:-अधस् - जहढें । अधम् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप हेटुं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४१ से 'अधस्' के स्थान पर 'हे?" आदेश होकर हेटु रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१४१ ।। मातृ-पितुः स्वसुः सिषा-छो॥२-१४२ ।। ___ मातृ-पितृभ्याम् परस्य स्वसृशब्दस्य सिश्रा छा इत्यादेशी भवतः ॥ माउपिया । माउ-च्छा | पिउ सिमा । पिउ रुखा ॥ अर्थः - संस्कृत शब्द 'मातृ' अथवा 'पितृ' के पश्चात् समास रूप से 'स्वस शख्द जुड़ा हुआ हो तो ऐसे शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में 'स्व' शब्द के स्थान पर 'सिया' अथवा 'छा' इन दो आदेशों की प्राप्ति होती है। जैसे:-मातृ-घसा-माउ-सिआ अथवा माउ-च्छा ॥ पितृ-वसा=पिउ-सिमा अथवा पिउ च्छा।। मातृ-घसा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप माउ-सिया और माउछा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप माउ-सिआ' की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३४ में की गई हैं। _ द्वितीय रूप ( मातृ-ब्वसा%) माउ-नली में सूत्र संख्या २-१३४ से '' के स्थान पर '' स्वर की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'तु' में से 'त्' व्यसन का जोपः २-१४२ से 'स्वसा' के स्थान पर 'छा' आदेश की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व छ,छ' की प्राप्ति और म.६० से प्राप्त पूर्व 'छ,' के स्थान पर 'च' होकर द्वित्तीय रूप-माउ-च्छा भी सिद्ध हो जाता है। पितृ-सा संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पिउ मिश्रा और पित्र-छा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप पिउ-सिआ की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२४ में की गई है। द्विनीय रूप-(पितृ-वसा=)पिउच्छा में सूत्र संख्या -१३४ से 'अ' के स्थान पर 'उ' स्वर की माप्ति; १-१६७ से प्राप्त 'तु' में से 'त' व्यञ्जन का लोप; २.१४२ से 'बमा' के स्थान पर 'छा आदेश की प्राप्ति; २-६. से प्राप्त छ' के स्थान पर द्वित्व 'छछ' को प्राप्ति; और २-६ से प्राप्त पूर्व 'छ.' के स्थान पर 'घ' को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप-पिउ-च्छा भी मिद्ध हो जाता है ।। -१४२।। तिर्यचस्तिरिच्छिः ॥२-१४३|| तिर्यच शब्दस्य तिरिच्छिरित्यादेशो भवति ।। तिरिच्छि षेच्छइ ।। आर्षे तिरिया इत्यादेशी पि ! तिरिआ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द तिर्यच ' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'तिरिच्छि' ऐसा आदेश होता Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * TitanianRJASAHEMys t icher--- है । जैसे:-तिर्यक् प्रेक्षते-तिरिच्छि पेच्छइ । श्राप प्राकृत में 'तिर्यच' के स्थान पर 'तिरित्रा' ऐसे आदेश को भी प्राप्ति होती है। जैसे:-तिर्यक्-तिरिश्रा ।। तिर्यक संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप तिरिच्छि होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४३ से 'तिर्यक् के स्थान पर 'तिरिच्छि' की आदेश-प्राप्ति होकर तिरिच्छि रूप सिद्ध हो जाता है। प्रेक्षते संस्कृत क्रियापन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पेच्छा होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७६. से 'र' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'छ' के स्थान पर द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'छ,' के स्थान पर 'च की प्राप्ति; और ३-१३६ से वर्त. मान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय ते के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेच्छद रूप सिद्ध हो जाता है । तिर्यक संस्कृत रूप है । इसका श्रार्ष-प्राकृत रूप तिरिया होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४३ से 'तिर्यक्' के स्थान पर तिरिया' आदेश की प्राप्ति होकर तिरिारूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१४३।। गृहस्य घरोपतो ।।२-१४४॥ गृहशब्दस्य घर इत्यादशो भवति पति शब्दश्चत् परो न भवति ॥ घरो। घर-सामी । राय-हरं । अत्तावितिकिम् । गह-बई ।। अर्थ:-संस्कृत शब्द 'गृह' के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में 'घर' ऐसा आदेश होता है। परन्तु इसमें यह शत रही हुई है कि 'गृह' शब्द के श्रागे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये । यदि 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश की प्राप्ति नहीं होगी । उदाहरण इस प्रकार है:-गृह-घगे। गृह-स्वामी-घर-सामी ॥ राज-गृहम् - राय-हरं ।। प्रश्नः- 'गृह' शब्द के आगे 'पति' शब्द नहीं होना चाहिये, ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि संस्कृत शब्द 'गृह' के आगे 'पति' शब्द स्थित होगा तो 'गृह' के स्थान पर 'घर' श्रादेश की प्राप्ति नहीं होकर अन्य सूत्रों के आधार से 'गह' रूप की प्राप्ति होगी । जैसे:-गृह-पतिः = गह-वई ॥ गृहः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप घरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घरो रूप सिद्ध हो जाता है। गृह-स्वामी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप घर-सामी होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' अादेश और २-७६ से 'व' का लोप होकर घर सामी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४३७ राज-गृहम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप राय-हरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज् का लोप; १-१८० से लोप हुप 'ज' में से शेष रहे हुन 'अ' के स्थान पर 'य की प्राप्ति; २-१४४ से 'गृह' के स्थान पर 'घर' आदेश; १-१८७ से प्राप्त 'घर' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' का आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राय-हरं रूप सिद्ध हो जाना है। गृह-पतिः संस्कृता पर इसका प्रायः रूप हाई होता है : सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति, १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १-१७५ से 'न' का लोप और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में ह्रस्व इकारान्त पुल्लिग में 'स' प्रत्यय के स्थान पर अन्य हस्त्र स्वर 'इ' को दीर्घ 'ई' की प्राप्ति होकर गह-बई रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१४४।। शीलाद्यर्थस्येरः ॥२-१४५॥ शीलधर्म माम्वर्थे विहितम्य प्रत्ययस्य इर इत्यादेशो भवति ॥ हसन शीलः हसिरो । - रोविरो । लज्जिरो। जम्पिरो । वैदिरो। भमिरो ऊपसीरो ।। कंचित तुन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयो न सिध्यन्ति । तनोतरादिना बाधितत्वात् ।। अर्थ:-जिन संस्कृत शब्दों में शील' अथवा 'धर्म' अथवा 'साधु' वाचक प्रत्यय रहा हुश्रा हो तो इन प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इर' आदेश की प्राप्ति होनी है। जैसे:-हमनाल: अर्थात् 'हसितृ' के संस्कृत रूप 'हसिता' का प्राकृत रूप 'हसिरी' होता है। रादित रादिता%शविरो । लजिज लज्जिता लजिरो । जल्पिन जल्पिता-पिरो । केपितृ चे पिताम्वविरी । भमित भ्रमिताभमिरो । उच्छ वसितम्छ व सता ऊस सिरो || कोई-कोई व्याकरणाचार्य प्रेमा मानते हैं कि 'शोल', 'धर्म' और साधु' वाचक वृत्ति का बतलाने वाले प्रत्ययों के स्थान पर इर' प्रत्यय को प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु केवल तृन् प्रत्यय के स्थान पर ही 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उनके सिद्धान्त से नमिर' 'गमिर' आदि रूपों की सिद्धि नहीं हो सकेंगी। क्योंकि यहाँ पर 'बन्' प्रत्यय का अभाव है. फिर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति हो गई है। इस प्रकार यहाँ पर बांधा-स्विनि' उत्पन्न हो गई है। अत: 'शील' 'धर्म' और 'साधु' बाचक प्रत्ययों के स्थान पर भी 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति प्राकृत-रूपान्तर में उसी प्रकार से होती है जिस प्रकार से कि-'नृन्' प्रत्यय के स्थान पर 'इर' प्रत्यय आता है। हसिता संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हसिरो होता है । इममें सूत्र-संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसिरो रूप सिद्ध हो जाता है । रोहिता संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप रोविरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या ४-२२६ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * से 'द्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तन् के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रोघिरी रूप सिद्ध हो जाता है। लजिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप लजिजरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय तृन' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' श्रादेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मी' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लाजिरो रूप सिद्ध हो जाता है। जल्पिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप जम्पिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन' के स्थान पर प्राप्त 'इना' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति, २.७८ से 'ल' का लोप; १-२६ से 'ज' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; १.३० से आगम रूप से प्राम अनुस्वार के स्थान पर आगे 'प' वर्ण होने से पचमान्त वर्ण 'म्' की प्राप्ति, और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्पिरी रूप सिद्ध हो जाता है। वैपिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप वेविरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२५१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पेपिरो रूप सिद्ध हो जाता है। अमिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप भमिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-६ से ' का लोप २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता की जगह पर 'इर' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भमिरो रूप सिद्ध हो जाता है । उच्च वसिता संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकात रूप ऊससिरो होता है । इसमें सूत्र संख्या ५- १४ से 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ॐ' की प्राप्ति; मूल संस्कृत शब्द उत् + श्वास का उच्छवास होता है। तदनुसार मूल शरद में स्थित 'त' का सूत्र संख्या २-७७ से लोप; २-७६ से 'व' का लोप, १-८४ से लोप हुए 'व' में से शेष रहे हुए 'श्रा' के स्थान पर '' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' का 'स'; २-१४५ से संस्कृत प्रत्यय 'तृन्' के स्थान पर प्राप्त 'इता' की जगह पर 'इर आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अससिरो रूप सिद्ध हो जाता है। गमन झीलः संस्कृत विशेषण है । इसका प्रकृत रूप गमिरो होता है । मूल संस्कृत धातु 'गम्' है; Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [४३६ इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शोल' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गमिरी रूप सिद्ध हो जाता है। नमन शीलः संस्कृत विशेष रूप है। इसका प्राकृत रूप नमिरो होता है । मूल संस्कृत-धातु 'नम्' है । इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'शोल' के स्थान पर 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर नमिरो रूप सिद्ध हो जाता है। ॥२-१४६ ।। क्त्वम्तुमत्त प-तुश्राणाः ॥२-१४६ ॥ क्त्या प्रत्ययस्थ तुम् अत् तूण तुाण इत्येते आदेशा भवन्ति ॥ तुम् । दट्ठ । मोत्तु ।। म् । माग । हनिय ॥ तूल देत्तृण । काऊण ! तुप्राण । भेत्तुप्राण । साउमाण ॥ वन्दित्तु इत्यनुस्वार लोपात् ।। वन्दित्ता इति मिद्ध-संस्कृतस्यैव बलोपेन । कट्ट इति तु पार्षे ।। अर्थः-अव्ययी रूप भूत कृदन्त के अर्थ में संस्कृत भाषा में धातुओं में 'क्त्वा' प्रस्थय का योग होना है; इसी अर्थ में अर्थात भूत कृदन्त के तात्पर्य में प्राकृत भाषा में कृत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम् अन, तूण, और तुअआण' ये चार श्रादेश होते हैं। इनमें से कोई सा भी एक प्रत्यय प्राकृत-धातु में संयोजित करने पर भूत कृदन्त का रूप बन जाता है। जैसे-'तुम्' प्रत्यय के उदाहरणः-दृष्ट वान्टु देख करके । मुक्त्वा मोतु छोड़कर के। 'अत्' प्रत्यय के उदाहरणः-भ्रमित्वाम्भमिश्र । रमित्वा-रमिश्र । 'तूण प्रत्यय के उदाहरणः-गृहोत्वा-धेत ण । कृत्या काऊण ।। 'तुप्राण' प्रत्यय के उदाहरणः-भित्वा =मेत्तु प्राण । श्रुत्वा मोउश्राण ।। प्राकृत रूप, 'वन्दित्त ' भूत कृदन्त श्रर्थक ही है। इसमें अन्त्य हलन्न व्यञ्जन 'म्' रूप अनुस्वार का लोप होकर संस्कृत रूप 'वन्दित्वा' का ही प्राकृत रूप वन्दित्त बना है। अन्य प्राकृत रूप पन्दित्ता' भी सिद्ध हुए संस्कृत रूप के समान ही 'वन्दित्वा' रूप में से 'घ' व्यञ्जन का लोप करने से प्राप्त हुआ है। संस्कृत रूप 'कृत्वा' का पार्ष-प्राकृत में 'कटु' ऐसा रूप होता है । ___ दृष्ट्या -संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप इट्टु होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१०६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; ४-२१३ से 'ट्र' के स्थान पर 'g' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम्' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१४७ से प्राप्त 'तुम' प्रत्यय में स्थित 'न' व्यञ्जन का लोप; १-१० से प्राप्त 'दृ' में स्थित' 'थ' स्वर का श्रागे 'तुम' में से शेष 'उम्' का 'उ' स्वर होने से लोप; १-५ से 'टू' में 'उम्' की संधि होने से 'ट.म्' की प्राप्ति और १.२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म' का अनुस्वार होकर इलु रूप सिद्ध हो जाता है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] * प्राकृत व्याकरण * मुकथा संस्कृत कृदन्त रूप । इसका प्रात या लत्त होता है। इसमें शूध संख्या ४२३७ से 'उ' बर को 'नो' स्वर की गुण-प्राप्ति; २-७७ से 'क' का लोप और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुम् प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति; और १-२३ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का अनुस्वार होकर मो रूप सिद्ध हो जाता है। अभिस्वा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप भमित्र होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६६ से 'र' का लोप; ३-१५७ से 'म' में रहे हुए 'यू' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अत्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप होकर भमि रूप सिद्ध हो जाता है। रमित्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप रमित्र होता है। इसमें सूत्र-मरख्या ४-२३६ से हलन्त 'रम्' धातु में म्' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त 'म' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राति; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'अन्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप होकर रमिअ रूप सिद्ध हो जाता है। गृहीत्या संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप घेत्त ग होता है । इममें सूत्र-संख्या ४-२१० से 'गृह ' धातु के स्थान पर 'धेत' आदेश और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण' की प्राप्ति होकर घेत्तूण रूप सिद्ध हो जाता है। कृत्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप काऊण होता है। इसमें सत्र संख्या ४-२१४ से 'कृ' धातु में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश; २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के तत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तूण प्रत्यय की प्राप्ति और १-१७७ से प्राप्त 'तूण' प्रत्यय में से 'त' का लोप होकर काऊण रूप सिद्ध हो जाता है। मित्या संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्रकृत रूप भेत्त आण होता है । मूल संस्कृत धातु भिद्' है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३७ से 'इ' के स्थान पर गुण रूप 'ए' की प्राप्ति; और २-१४६ से संस्कृत कृदन्त के 'क्त्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय प्राप्ति होकर भेत्तुआण रूप सिद्ध हो जाता है। श्रुत्वा संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सोउआण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४ से 'र' का लोप; १-२६० से शेष 'श' का 'स'; ४-२३७ से 'सु' में रहे हुए 'उ' के स्थान पर गुण-रूप 'श्री' की प्राप्ति और ५-१४६ से संस्कृत कृदन्त के तत्वा' प्रत्यय के स्थान पर 'तुआण' प्रत्यय की प्राप्ति तथा १-१७७ से प्राप्त 'तुश्राण' प्रत्यय में से 'त' व्यजन का लोप होकर सोउआण रूप सिद्ध हो जाता है। पन्दित्वा संस्कृत कदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वन्दित्त होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१४६ से संस्कृत कृदन्त प्रत्यय 'क्वा' के स्थान पर 'तुम्' आदेश; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप और २८ से शेष 'त' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति होकर वन्दित्तु रूप सिद्ध हो जाता है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४२ वन्दित्वा संस्कृत कृान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वन्दित्ता होता है । इसमें मूत्र संख्या २-58 से 'व' का लोप और -८ से शेष 'त' को द्वित्व त्त' की प्राप्ति होकर वन्दिना रूप मिद्ध हो जाता है। कृत्वा संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका आर्ष प्राकृत में कट्ट रूप होता है । आप रूपों में साधनिका का प्रायः अभाव होता है ।।२-१५६।। इदमर्थस्य केरः ॥२-१४७॥ इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति ॥ युष्मदीयः तुम्हारी ।। अस्मदीयः । अम्हकेरो । न च भवति । मई-पकावे ! पाणिणीश्रा ॥ अर्थः- 'इससे सम्बन्धित' के अर्थ में अर्थात 'इदम् अर्थ' के तद्धित प्रत्यय के रूप में प्राकृत में 'कर' आदेश होता है । जैसेः-युष्मदीयः = नुम्हकरो और अस्मदायः = अम्हकेरो । किसी किसी स्थान पर 'केर' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं भी होती है । जैसे:-मदीय-पक्षे = मईअ-परखे और पाणिनीया-पाणिणीमा ऐसे रूप भी होते हैं। तुम्हरो रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है। अस्मदीयः संस्कृत मर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हकेरो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से 'अस्मत' के स्थान पर 'अम्ह' आदेश; २.१५७ मे इदम्'-अर्थ वाले संस्कृत प्रत्यय 'इय' के स्थान पर 'कर' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुहिंजग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अम्हकेरी रूप मिद्ध हो जाता है। मडीय-पक्षे संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मईय-खे होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'द् गौर 'य' दोनों का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'ख' की द्वित्व 'स्वन' की प्राप्ति-६० से प्राप्त पूर्व 'ख' को 'क' की प्राप्ति और ३-११ से सतमो विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ङि के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मई-पक्खे रूप सिद्ध हो जाता है । पाणिनीयाः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पाणियात्रा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्रि; १-१७७ से य का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुन 'जम्' प्रत्यय के पूर्व में अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दार्थ स्वर 'पा' की प्राप्ति होकर पाणिणीआ रूप सिद्ध हो जाना है । ।।२-२५७।। पर-राजभ्यां क-डिको च ।। २-१४८ ॥ पर राजन् इत्येताभ्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासंख्य संयुक्तो को-डित् इक्क श्चादेशों Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] * प्राकृत व्याकरण 2 भवतः । चकारात् केरश्च ॥ परकीयम् । पारक । परक्कं । पारकरं ॥ राजकीयम् । राइक्कं । रायके । अर्थ:-संस्कृत शमन ‘पर और राजा के अन्त में प्रत्यायुमा सुश्रा हो तो प्राकृन में 'इदमर्थ' प्रत्यय के स्थान पर' में 'क्क प्रादेश और 'राजन' में 'इक्क' आदेश होता है; तथा मूल सूत्र में 'च' लिखा हुआ है; अत: चैकल्पिक रूप से 'कर' प्रत्यय की भी प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:-परकीयम्=पारकक; परक्कं अथवा पारकरं ॥ राजकीयम् राइतकं अथवा रायकेर ।। पारक रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। परकीयम् संस्कृत विशेषण है । इसका प्राकृत रूप परक्क होता है । इसमें सूत्र संख्या २-६४६ से कीय' के स्थान पर 'क' का श्रादेश; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर परक्कं रूप सिद्ध हो जाता है। पारकर रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-४४ में की गई है। राजकीयम संस्कृत रूप है । इमकं प्राकृत रूप रोइक्क और रायकर होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज्' का लोप; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय 'कीय' के स्थान पर 'इक्क' का आदेश १-१० से लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' के आगे 'इक्क' की 'इ' होने से लोप; ३-२४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप राइकं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(राजकीयम्-) रायकरं में सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ज' का लोप; १-१८० के लोप हुए 'ज' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१४८ से संस्कृत प्रत्यय कीय' के स्थान पर 'कर' का श्रादेश; और शंप मानिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय रूप रायकरं भी सिद्ध हो जाता है॥२-४ युष्मदस्मदोल-एच्चयः ॥२-१४६ ॥ आभयां परस्येदमर्थस्याज एचय इत्यादेशो भवति ॥ युष्माकमिदं यौष्माकम् । तुम्हेच्चयं । एवम् अम्हेच्चयं ॥ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम युष्मत और अस्मत में 'इदमर्थ' के वाचक प्रत्यय 'अर' के स्थान पर प्राकृत में 'एश्चय' का आदेश होता है। जैसे-'युष्माकम् इदम् न्यौष्माकम् का प्राकृत रूप 'तुम्हेश्चयं' होता है। इसी प्रकार से 'अस्मदीयम्' फा अम्हश्चयं होता है। । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ग्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४३ यौष्माकम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप तुम्हेश्वयं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-६१ से युध्मत् के स्थान पर 'तुम्ह' का आदेश; २-१४६ से 'इदमर्थ' वाचक प्रत्यय 'अब' के स्थान पर 'एचय का श्रादेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर तुम्हेच्चयं रूप सिद्ध हो जाता है। अस्मदीयम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अम्हेच्चयं होता है। इसमें सूत्र-संख्या से 'श्राद्' के स्थान मा आदेश: २.५४६ से संस्कृत 'इय' प्रत्यय के स्थान पर 'एचय' आवेश; १-१० से प्राप्त 'अम्ह' में स्थित 'ह' के 'अ' का आगे 'एश्चय' का 'ए' होने से लोप; १-५ से प्राप्त 'अम्ह' और एच्यय की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३ से प्रास 'म्' का अनुस्वार होकर अम्हेच्चर्य रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१४६॥ वतेलः ॥२-१५०॥ बतेः प्रत्ययस्य द्विरुक्तो धो भवति ॥ महुरच्च पाउलिउत्ते पासाया। अर्थः-संस्कृत 'वत् प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में द्विरुक्त अर्थात् द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति होती है । जैसे:-मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादा महररुव पाडलिजसे पासाया॥ मथुरावर संस्कृन रूप है। इसका प्राकृत रूप महरव्य होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'थ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-८४ से दीर्घ स्वर 'पा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति और २-१५० से 'वम्' प्रत्यय के स्थान पर द्विरुक्त व्व' की प्राप्नि होकर महरव रूप सिद्ध हो जाता है। पाटलिपुत्रे संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पाडलिउत्ते होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' की प्राप्रि; १-१७७ से 'प' का लोप; २-७६ से 'र' का लोप; २-४ से शेप 'न' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति और ३-५१ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाडलिउत्ते रूप सिद्ध हो जाना है। प्रासाड़ाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पासाया होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-5 से 'र' का लोप, १-१७७ से 'द्' का तोप; १-१८० से लोप हुए 'द्' में से शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में प्राप्त 'जस्' प्रत्यय का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रत्यय के कारण से अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्नि होकर पासाया रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१४०॥ सांगादीनस्येकः ॥२-१५१॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] * प्राकृत व्याकरण * सर्वाङ्गात् सर्वादेः पथ्यङ्ग [हे. ७-१] इत्यादिना विहितस्येनस्य स्थान इक इत्यादेशो भवति ॥ सर्वाङ्गीणः । सव्वाङ्गियो । अर्थ:-'सर्वादेः पश्यङ्ग' इस सूत्र से-( जो कि हेमचन्द्र संस्कृत व्याकरण के सातवें अध्याय का सूत्र है -'सर्वाङ्ग' शब्द में मार होने वाले संस्थान प्राधानगर : कृत में 'इक' ऐसा थादेश होता है। जैसे:-सर्वाङ्गीण सव्यङ्गिनी ।। ___ सर्वागीणः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सबङ्गिो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६. से 'र' का लोप; २-८६ से शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'ब' की प्राप्ति; १.८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-१५१ से संस्कृत प्रत्यय 'ईन' के स्थान पर प्राकृत में 'इक्र' श्रादेश; १-१७४ से आदेश प्राप्त 'इक' में स्थित 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय प्राप्ति होकर सत्वर्गिओ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१५१।। पथो पस्येकट् ॥२-१५२।। नित्य॑णः पन्थश्च (हे० ६-४) इति यः पथो सो विहितस्य इकट् भवति ॥ पान्थः । पहिलो ।। अर्थ:-हेमचन्द्र व्याकरण के अध्याय संख्या छह के सूत्र-संख्या चार से संस्कृत शब्द 'पथ में नित्य 'ण' की प्राप्ति होती है; उस प्राप्त 'ग' के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर में 'इक' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-पान्थः पहिओ।। पान्धः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पहिलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २.१५२ से 'न' के स्थान पर 'इफ' आदेश; १-१८७ से 'थ' के स्थान पर 'ह की प्राप्ति; १-१७७ से आदेश प्राप्त 'इक' के क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पहिओ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१५२!! ईयस्यात्मनो णयः ॥२-१५३॥ श्रात्मनः परस्य ईयस्य णय इत्यादेशो भवति ।। आत्मीयम् अप्पणयं । अर्थ:-'आत्मा' शब्द में यदि 'ईय' प्रत्यय रहा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस 'ईय' प्रत्यय के स्थान पर ‘णय' आदेश की प्राप्ति होती है। जैसे-आत्मीयम् - अप्पणयं ॥ आत्मीयम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पणयं होता है । इसमें सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-५१ से 'त्म' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'ए' की प्राप्ति २.१५३ से संस्कृत प्रत्यय 'ईय' के स्थान पर 'णय' आदेश; ३-२५ से प्रथमा Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४५ . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अप्पणचं रूप सिद्ध हो जाता है । २-१५३ ।। त्वस्य डिमा-त्तणो वा ।। २.१५४ ॥ त्व प्रत्ययस्य डिमा तण इत्यादेशी वा भवतः ।। पीणिमा । पुफिमा । पीणतणं । पुष्फत्तणं । पहे। पीणत्तं । पुष्फत्तं ॥ इम्नः पृथ्वादिपु नियतत्वात् तदन्य प्रत्ययान्तेषु अस्य विधिः ।। पीनता इत्यस्य प्राकृते पीणया इति भवति । पाणदा इति तु भापान्तरे । ते नेह तती दान क्रियते ॥ अर्थ:--संस्कृत में प्राप्त होने वाले 'त्व' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में पैकल्पिक रूप से 'इमा' और 'तण' प्रत्यय का आदेश हुआ करता है। जै-पी गोणिया मार पीणत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पीण भी होता है । पुष्पत्वम्-पुरिफमा अथवा पुःफत्तणं और वैकल्पिक पक्ष में पुष्फत् भी होता है। संस्कृत भाषा में पृथु आदि कुछ शब्द ऐसे हैं, जिनमें 'स्व' प्रत्यय के स्थान पर इसी अर्थ को बतलाने थाले 'इमन्' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है। उनका प्राकृत रूपान्तर अन्य सूत्रानुसार हुश्रा करता है। संस्कृत शब्द 'पीनता' का प्राकृत रूपान्तर 'पीणया' होता है । किसी अन्य भाषा में पीनता' का रूपान्तर 'पीणदा' भी होता है। तदनुसार 'ता' प्रत्यय के स्थान पर 'दा' आदेश नही किया जा सकता है। अतः पीणदा रूप को प्राकृत रूप नहीं समझा जाना चाहिये। पीनत्वम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप पीणिमा, पोणत्तणं और पीण होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५४ से संस्कृत प्रत्यय 'त्वम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'इमा' आदेश का प्राप्ति होकर प्रथम रूप पाणिमा को सिद्धि हो जाती है। द्वितीय रूप-(पीनत्वम्-) पोणतणं में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति २-१५४ से संस्कृत प्रत्यय 'त्व' के स्थान पर ताण थादेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्रार 'म प्रत्यय का अनुस्वार होकर पीणत्तर्ण द्वितीय रूप भी सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप-(पीनत्वम्) पीणत्तं में सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति - से 'व' का लोप: २-८६ से शेप 'त' को द्वित्व' '' की प्राप्ति और शेष साधनिको द्वितीय रूप के समान ही होकर तृतीय रूप पीणतं भी सिद्ध हो जाता है। पुष्पत्यम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पुफिमा, पुष्फत्तणं और पुरफ होते हैं। इनमें से Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६] * प्राकृत व्याकरण * प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-५३ से 'प' के स्थान पर 'फ' की प्राप्ति; २-८६ से प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फफ' की प्राप्ति; २१० से प्रान पूर्व 'क' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति २-१५४ से 'स्व' के स्थान पर 'इमा' प्रादेश १-१० से 'फ' में रहे हुए 'अ' का श्रागे 'इ' रहने से लोपः १.५ से 'फ' की श्रागे रही हुई 'इ' के साथ संधि; और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन म्' का लोप होकर प्रथम रूप पुल्फिमा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(पुष्पत्वम्) पुष्फत में 'पुष्फ' तक प्रथम रूप के समान ही सानिका; २-१५४ मे 'त्र' के स्थान पर 'तणं' आदेश; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप पुप्फत्तर्ण सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप-(घुष्पत्वम्-) पुष्फत में 'पुष्फ' तक प्रथम रूप के समान ही साधनिका;२.७६ से 'व' को लोप; २-८६ से शेष त' को द्वित्व 'त' की प्राप्नि; और शेष साधनिका द्वितीय रूप के समान ही होकर सृतीय रूप पुप्फत्तं सिद्ध हो जाता है। पीनता संस्कृत विशेपण रूप है। इसका प्राकृत रूप पीण्या होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से 'स' का लोप और १-१८० से शेष 'आ' को 'या' की प्राप्ति होकर पाणया रूप सिद्ध हो जाता है। पीणदा रूप देशज-भापा का है; अतः इसकी माधनिका की आवश्यकता नहीं है ।।२-१५४॥ अनकोठात लस्य डेल्लः ॥२-१५५।। अङ्कोट वर्जिताच्छब्दात्परस्य तेल प्रत्ययस्य डेल्ल इत्यादेशो भवति ।। सुरहि-जलेण कडुएल्लं ॥ अनङ्कोठादिति किम् । अकोल्ल तेन्लं ।। अर्थ:-'अटोट' शठन को छोड़कर अन्य किसी संस्कृत शब्द में 'तैल' प्रत्यय लगा हुआ हो तो प्राकृत रूपान्तर में इस 'तैल' प्रत्यय के स्थान पर 'डेल्ल' अर्थात् 'एल्ल' श्रादेश हुश्रा करता है । जैसे:सुरभि-जलेन कटु-तैलम्-सुरहि-जलेण कडुएल्लं । प्रश्नः-'अकोठ' शब्द के साथ में 'तैल' प्रत्यय रहने पर इस 'तैल' प्रत्यय के स्थान पर 'एल्ल' श्रादेश क्यों नहीं होता है ? उत्तर:-प्राकृत भाषा में परम्परागत रूप से 'अकोठ' शब्द के साथ 'सैल' प्रत्यय होने पर 'तैल के स्थान पर 'एल्ल' प्रादेश को प्रभाव पाया जाता है; अतः इस रूप को सूत्र-संख्या २-१५५ के विधान क्षेत्र से पृथक ही रखा गया है। उदाहरण इस प्रकार है:-अकोठ तैलम-अक्कोल्ल तेल्लं ।। मुगम-जछेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सुरहि-जलेश होता है। इसमें सूत्र Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रिपोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४७ संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्तिः ३-६ से हनीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'दा''पा' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्म 'ण' प्रत्यय के पूर्व स्थित 'ल' के 'अ' को 'ए' की प्राप्ति होकर मुरहि-जलेण रूप सिद्ध हो जाना है। कंढतैलम, संस्कृत विशेष रूप है । इसका प्राकृत रूप कडुएल्लं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २-१५५ से संस्कृत प्रत्यय तेल' के स्थान पर प्राकृत में 'एल्ल' आदेश ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कडुएल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। __अंकोठ तैलम् संस्कृत विशेपण रूप है। इसका प्राकृत रूप अकोल्ल-तेल्लं होना है। इसमें सूत्र संख्या १-२०० से 'उ' के स्थान पर द्वित्य 'ल्ल' की प्राप्ति; १.१४८ से 'ऐ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति R-6 से 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्तिा ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर अंकोल्लतेल्लं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१५५।। यत्तदेतदोतोरित्तिय एतल्लक् च ॥२-१५६॥ एभयः परस्य ढाबादेरतोः परिमाणार्थस्य इत्तिन इत्यादेशो भवति ।। एतदो लुक च ॥ यावत् । जित्तिअं ॥ तावत् । तित्तिनं ॥ एतावत् । इति ॥ अर्थ:--संस्कृत सर्वनाम 'यत', 'तत् और एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'आवत्' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्तिा ' आदेश होता है। एतत्' से निर्मित 'एतावत' के स्थान पर तो केवल 'इत्ति' रूप ही होता है अर्थात् 'पतायत' का लोप होकर केवल 'इत्ति' रूप ही आदेशवत प्राप्त होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-यावत-जित्तिअं; तावत-तित्तिअं और एतावत-इत्तिनं ।। यावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जित्तिश्र होता है । इसमें सूत्र संख्या १-०४५ से 'य' के स्थान पर 'ज्' की प्राप्ति; २-१५६ से 'श्रावत' प्रत्यय के स्थान पर 'इत्ति आदेश; १-५ से माप्त 'ज' के साथ 'इ' को संधि; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर जित्तिों रूप सिद्ध हो जाता है। तावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप तित्तिअं होता है । इसमें मूत्र-संख्या २-१५६ से 'श्रावत' प्रत्यय के स्थान पर 'इचित्र' श्रादेश; १-५ से प्रश्रम 'न' के साथ 'ई' की संधि; और शेष साधानका उपरोक्त जित्ति' रूप के समान ही होकर सित्ति रूप सिद्ध हो जाता है। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] * प्राकृत व्याकरण * EMAIN - एतापत संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप इत्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'एतावत्' का लोप और 'इत्तिन' आदेश की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त 'जिशिअं' रूप के समान ही होकर इन्तिम रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१५६|| इदकिमश्च डेत्तिब-डेत्तिल-डेदहाः ॥२-१५७॥ इदं कि म्यां यत्तदेतद्धयश्च परस्यातो डवितो डित एत्तिा एत्तिल एदह इत्यादेशा भवन्ति एतल्लुक च ।। इयत् । एत्तिअं । एतिल । एदहं ॥ कियत् । केत्तियं । केत्तिलं । केदह ॥ यावत् । जेत्तिनं । जेत्तिलं । जेहहं ॥ तावत् । तेत्तिअं । तेत्तिलं । तेहहं ॥ एतावत् । एत्तिअं| एचिलं । एदहं ॥ अर्थः-संस्कृत सर्वनाम शब्द 'इदम्', 'किम्', 'यत्त', 'तत्', और 'एतत्' में संलग्न परिमाण वाचक प्रत्यय 'अतु-अत्' अथवा 'डावतु (ड' की इत्संज्ञा होकर शेष) श्रावतु श्रायत्' के स्थान पर प्राकृत में 'एत्तित्र' अथवा 'एत्तिल' अथवा एड्ह श्रादेश होते हैं । 'एतत्' से निर्मित 'एतावत' का लोप होकर इसके स्थान पर केवल पत्ति' अथवा 'एत्तिल' अथवा एहई रूपों को आदेश रूप से प्राप्ति होती है । उपरोक्त सर्वनामों के उदाहरण इस प्रकार हैं:-नयत = मिश्रपतिलले अथवा एहं । कियत = केत्ति, केत्तिल और केदहं । यावत् =जेत्तिअं, जेतिल और जेहं । तावत् = तेतिनं, तेतिल और तेहह । एतावत - एतिश्र, एत्तिलं और पदहं । इयत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप एतिश्र, एप्तिल और एदह होते हैं । इनमें सूत्रसंख्या २-१५७ की वृत्ति से 'इय' का लोप; २-१५७ से शेष 'श्रत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिश्र, एत्तिल और एदह' प्रत्ययों की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से एत्ति, एतिलं और एइहं रूपों की सिद्धि हो जाती है। कियत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप केत्तिश्र, केत्तिल और केहहं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-१५७ की वृत्ति से 'इय्' का लोप; २-१५७ से शेष 'अत्' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'एत्तिश्र, एशिल और एदह' प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से शेष 'फ' के साथ प्राप्त प्रत्ययों की संधि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से केत्तिों , कात्तिलं और केदह रूपों की सिद्धि हो जाती है। ___ यावत् संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूपजेशि, जेत्तिल और जेदहं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'यू' के स्थान पर 'ज' की प्राप्तिः २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'पावत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप एशिष, पत्तिल और एहह प्रत्ययों की प्राप्ति; १-५ से प्राप्त 'ज' के साथ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४४६ प्राप्त प्रत्ययों की संधि और शेष सानिका उपरोक्त 'कत्ति' श्रादि रूपों के समान ही होकर कम से जैत्ति, जेतिल और जेह रूपों की सिद्धि हो जाती है। एतापन संस्कृत विशेषरण रूप है । इसके प्राकृत रूप एत्ति, एशिलं और एदहं होते है । इनमें सूत्र-संख्या :-१५७ से मूल रूप एतत' का लोप; २-१५ से संस्कृत प्रत्यय 'पावत्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एमिश्र, एत्तिल और ग्रहह' प्रत्ययों की प्राप्ति; और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिरं आदि रूपों के ममान हो होकर फम से एत्ति, एत्तिलं और एदहं रूपों की सिद्धि हो जाती है। तावत् संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप तेत्तिअं, तेत्तिल और तेदहं होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-११ से मूल रूप 'तत' के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' का लोप; २-१५७ से संस्कृत प्रत्यय 'प्राचन्' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से एत्तित्र, 'एत्तिल' और एइह प्रत्ययों की प्राप्ति और शेष साधनिका उपरोक्त केत्तिनं श्रादि रूपों के समान ही होकर क्रम से सेत्तिअं, तेत्तिल और वह रूपों की सिद्धि हो जाती है ।।२-१५७॥ कृत्वसो हुत्तं ॥२-१५८॥ वारे कृत्यस (हे ० ७.२) इति यः कृत्वस विहितस्तस्य हुत्तमिन्यादेशो मवति ॥ सयहुन् । सहस्सहु । कथं प्रियाभिमुखं पियहु । अभिमुखार्थेन हुच शब्देन भविष्यति । अर्थ:--संस्कृत-भाषा में 'वार' अर्थ म 'कृत्वः' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उसी 'कृत्वः' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'हुत्तं श्रादेश की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:--शतकृत्वःसयहुतं और सहस्रकृत्यः सहस्सहुतं इत्यादि। प्रश्नः-संस्कृत रूप 'प्रियाभिमुरलं' का प्राकृत रूपान्तर 'पियहुत्त' होना है। इसमें प्रश्न यह है कि 'अभिमुखे' के स्थान पर 'हुरी' की प्राप्ति कैसे होती है ? उत्तर:-यहाँ पर 'हुत्तं' प्रत्यय की प्राप्ति 'कृत्वः' अथ में नहीं हुई है; किन्तु 'अभिमुख' अर्थ में ही 'हुत्त' शब्द पाया हुआ है । इस प्रकार यहां पर यह विशेषता समझ लेनी चाहिये । शतकृत्वः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सयहुतं होता है। इसमें सूत्र संख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; २-१५८ से 'वार-श्रर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'कृत्व' के स्थान पर प्राकृत में 'हुशं' आदेश; और १-११ से अन्त्य व्यजन रूप विसर्ग अर्थात 'स्' का लोप होकर सयहुतं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण में सहस्त्र-कृत्य, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सहस्सह होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-९ से 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए. 'स' को द्वित्व 'स' का प्राप्ति; शेष साधनिका उपरोक्त सय हुत्ते के समान हा होकर सहस्सहुन रूप सिद्ध हो जाता है। प्रियाभिमुखम संस्कृत रूप है । इमका प्राकृत रूप पियहुरी होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर की दि.१३ प्रति अभिमुख' के स्थान पर 'हुच' आदेश की प्रामि; ३.०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पिय ने रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१५८।। आल्पिल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेर-मणामतोः ॥२-१५६।। आलु इत्यादयो नव श्रादेशा मतोः स्थाने यथाप्रयोगं भवन्ति ।। आलु । नहालू । दयाल । ईसाल । लज्जालुा ।। इल्ल । सोहिल्लो । छाइल्लो । जामइल्लो । उल्ल | विश्रारुल्लो । मंसुल्लो । दपपुल्लो ॥ पाल । सद्दाली । जडालो। फडालो । रसालो ! जारहाला ।। पन्त । घणवन्ती । भात्तिवन्तो ॥ मन्त । हगुमन्तो। सिरिमन्तो । पुराणमन्ती ॥ इत्त कबइतो । माणइत्तो ।। हर । गम्विरो । रहिरो ॥ भए । घणमणो ॥ कंचिन्मादेशमपीच्छन्ति । हणुमा । मतोरिति किम् । धणी । अस्थिओं ॥. RANDOLEnidinsecial- E - RE अर्थ:-'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मन' और 'वत्' के स्थान पर प्राकृत भाषा में नव आदेश होते हैं जो कि क्रम से इस प्रकार है:-आलु, इल्ल, उल्ल, पाल, बन्त, मन्त, इत्त, इर और मग । आलु से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-स्नेहमान = नेहालू । दयावान् = दयाल । ईावान = ईसालू। लज्जावत्या = लज्जालुवा ।। इल्ल से सम्बंधित उदाहरण:-शीमावान-मोहिल्ली । छायावान छाइल्ला । यामबान = जामइल्लो । उल्ल से सम्बंधित उदाहरणः विकारवान - विआरुल्लो । श्मश्रृंवान् -मंसुल्लो । दर्पवान = दप्मुल्लो || आल से संबंधित उदाहरण :-शब्दवान् = सद्दालो । जटावान - जडालो। फटावान् = फडाला । रसचान = रसालो। ज्योत्स्नावान् = जोरहालो । पन्त से सम्बंधित उदाहरण:-धनवान धणवन्तो। भक्तिमान् = भत्तिवन्ती । मन्त से संबंधित उदाहरणः-हनुमान् हनु. मन्तों । श्रीमान् =सिरिमन्ती । पुण्यवान = पुण्णमन्तों। इत्त से सम्बंधित उदाहरणः-काव्यवान = कम्बइत्तो । मानधान-माणइत्तो ॥ इर से संबंधित उदाहरण:-गवेवान् = गम्विरो । रेखावान् - रेहिंगे । मण से संबंधित उदाहरणः-धनवान = धणमणो इत्यादि । कोई कोई प्राचार्य मत्' और 'बन्' के स्थान पर 'मा' आदेश की प्राप्ति का भी उल्लेख करते हैं; जैसे:-हनुमान् =हणुमा ।। प्रश्नः-वाला-अर्थक' मत् और वत् का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? LEAnmolanearbar.--...--. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * उत्तरः- संस्कृत में 'बाला' अर्थ में 'मत् एवं 'वत' के अतिरिक्त अन्य प्रत्ययों को भी प्राप्ति हुश्रा करती है। जैस-धनवाला= धनी और अर्थ वाला = अर्थिक; इसलिये प्राचार्य श्री का मन्तव्य यह है कि उपरोक्त प्राकृत भाषा में वाला' अर्थ को बतलाने वाले जो नव-आदेश कहे गये हैं; वे फेवल संस्कृत प्रत्यय 'मत' अथवा 'वत्' के स्थान पर ही आदेश रूप से प्राप्त हुश्रा करते हैं; न कि अन्य 'वाला' अर्थक प्रत्ययों के स्थान पर आते हैं। इसलिये मुख्यतः 'मत' और 'वत' का उल्लेख किया गया है । प्राम 'वाला' अर्थक अन्य संस्कृत-प्रत्ययों का प्राकृत-विधान अन्य सूत्रानुसार होता है। जैसे:-धनी-धणी और अर्थिकः = अस्थिओ इत्यादि ।। स्नेहभान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप नहालू होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५७ से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय भान' के स्थान पर 'श्रालु' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'अ' के साथ 'आलु' प्रत्यय के 'श्रा' की संधेि और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में द्वस्व उकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर उ' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की हिमोकर नेपाल एप लिन हो जाता है . दयालू रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। ईयावान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'ईसालू' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप; २-४८ से 'य' का लोप; १-२६० से 'प' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २.१५ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर 'पालु' आदेश और शेष साधनिका 'नेहालू' के समान हो होकर ईसालू रूप सिद्ध हो जाता है। लज्जावत्या संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप'लज्जालुा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.१५४ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'वती' के स्थान पर 'पालु' आदेश; १-५ से उजा' में स्थित श्रा' के साथ 'बालु' प्रत्यय के 'आ' की संधि और ३-२६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एक वचन में स्त्रीलिंग में टो' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर लबालुआ रूप सिद्ध हो जाता है। शोभावान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सोहिल्ली होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स्' की प्रामि; १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'ह' की प्रामि; २-६५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश; १-१० से प्राप्त 'हा' में स्थित 'श्रा के आगे स्थित 'इल्ल' को 'इ' होने से लोप; १-५. से प्राप्त हलन्त 'ह' में धागे स्थित 'इल्ल' की 'इ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सोहिल्लो रूप सिद्ध हो जाता है । _छायापान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप छाइल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या१-१७७ से 'य' का लोप; २-१५६ से 'वाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकट में 'इल्ल' Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ * पाकृत व्याकरण * आदेश १-१० से लोप हुए 'यौं में से शेष 'आ' का आगे स्थित 'इल्ल' की 'इ' होने से लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर छाइल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। यामवान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जामहल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या१-२४५ से 'य् के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-१५६ से 'बाला-अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वान के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जामइल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। विकारवान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विश्रारुल्लो होता है । इसमें मूत्र-संस्त्या १-१७७ से 'क' का जोप; २-१५६ से 'वाला-श्रर्थक' संस्कृत-प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १-१० से 'र' में स्थित 'अ' का आग स्थित 'जल्ल' का 'उ' होने से लोप, १.५ से 'र' में 'उ' की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विआरुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। इमश्रवान् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मंसुल्लो होता है। इसमें सूत्र-संख्या२-७७ से हलन्त व्यञ्जन प्रथम 'श' का लोप; १-२६ से 'म' पर पागम रूप अनुस्वार की प्राप्ति; २-56 से 'अ' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से लोप, हुप 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'शु' के 'श' को 'स' की प्राप्ति; २-१५६ से वाला अर्थक संस्कृत-प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'चल्ल' आदेश; १-१० से 'सु' में स्थित 'उ' का आगे स्थित 'उल्ल' का 'उ' होने से लाप; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मंसुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। दर्पवान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दापुल्लो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' को लोप; २-८४ से लोप हुए. 'र' के पात्र शेष बचे हुए 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति; २-१५E से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' आदेश; १-१० से 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन द्वितीय 'प' में आगे रहे हुए 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' को संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वप्पुल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। शब्दवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सदालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २-3 से हलन्त व्यजन 'ब' का लोप २-८६ से 'द' को द्वित्व की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान् के स्थान पर प्राकृत में 'आल' आदेश; १-५ से 'ह' में स्थित 'अ' स्वर के साथ प्रति 'पाल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर को संधि और ३.२ से प्रथमा Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५३ विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सद्दालो रूप सिद्ध हो जाता है। जटाधान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जडालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'उ' की प्राप्ति; २.१५६ से 'वाला-अथक' संस्कृत प्रत्यय वान' के स्थान पर प्राकृत में 'पाल' आदेश; १-५ से प्राप्त 'डा' में स्थित 'श्रा' स्वर के साथ प्राप्त 'पाल' प्रत्यय में स्थिन श्रा' स्वर की संधि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जडाली रूप सिद्ध हो जाता है। फटाक्षान, संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप फडालो होता है। इसकी साधनिका उपरोस 'जालो' रूप के समान ही होकर जालोप सिद्ध हो जाता है। __ रसपाम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप रसालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर पाकृत माल , . से 'ग' विपत 'श्र' स्वर के साथ आगे पारत 'श्राल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'प्ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रसालो रूप सिद्ध हो जाता है। ज्योत्स्नावान् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप जोरहाला होता है । इममें सूत्र-संख्या २.८ से 'य' का लोप; २.७७ से 'ते' का लोप: २०७५ से 'स्न् के स्थान पर 'राह' आदेश; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'अाल आइश; १-५ से प्राप्त रहा' में स्थित 'या' स्वर के साथ आगे आये हुए 'पाल' प्रत्यय में स्थित 'आ' स्वर की दीर्घात्मक मंधि और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाण्हांला रूप सिद्ध हो जाता है। धनवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप धणवन्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१४६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय वान' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणयन्तो रूप सिद्ध हो जाना है। भक्तिमान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भत्तिवन्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.७७ से 'क्' को लोप; २-८८ से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ति' में स्थित 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'वन्त' आदेश और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं प्रत्यय की प्राप्ति होकर भसिवन्तो रूप सिद्ध हो जाता है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४] * प्राकृत व्याकरण * हणुमन्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१२१ में की गई है। श्रीमान संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सिरिमन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१०४ से 'श्री' में स्थित 'श' में श्रागम हप 'इ' की प्राप्ति; ५-६० से प्राप्त शि' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ 'री' में स्थित 'ई' के स्थान पर हस्व 'इ' की प्राप्ति; २-१५६ से 'बालाअर्थक संस्कृत प्रत्यय 'मान' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्मय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरिमन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। पुण्यवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पुण्णमन्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७८ से 'य' का लोप; २.८६ से लोप हुप 'य' के पनाम शेष रहे हुए 'ण' को द्वित्व 'गण' की प्रामि; २-१५६ से 'वाला-श्रर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मन्त' श्रादेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुण्णमन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। काव्यशन संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप कष्वइत्तो होता है । इसमें सूत्र-संख्य १-८४ से दीर्घ स्वर प्रथम 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'श्र को प्राप्त; २-54 से 'य' को सो; २से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'व' को द्वित्व 'व्व' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर फव्यहत्तो रूप सिद्ध हो जाता है । मानवान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप माणइत्तो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-१५६ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'बान ' के स्थान पर प्राकृत में 'इत्त' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माणदत्तो रूप सिद्ध हो जाता है। गवान् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रुप गरिरो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७ से 'र' का लोप; २.८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेप रहे हुए 'च' को द्वित्व 'ठव' की प्राप्ति; २-१५ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'चान' के स्थान पर प्राकृत में 'इर' श्रादेश; १-१० से प्राप्त 'उव' में रहे हुए 'अ' का आगे प्राप्त 'इर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ब्व' में आगे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रो प्रत्यय की प्राप्ति होकर गधिरो रूप सिद्ध हो जाता है। रेखाधान संस्कृत विशेषरण रूप है। इसका प्राकृत रूप रेहिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१८, से 'ख' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति -१५४ से 'वाला-अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'कान' के स्थान पर प्राकृत Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५५ में 'इरादेश; १-१० से प्राप्त 'ह' में रहे हुए 'श्रा' का आग प्राप्त 'घर' प्रत्यय में स्थित 'इ' होने से स्नोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ह' में प्रागे स्थित 'इर' प्रत्यय के 'इ' की संधि; और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहिरो रूप सिद्ध हो जाता है। धनपान संस्कृत विशेपण रूप है । इसका प्राकृत रूप धरणमणो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'or' की प्राप्ति २-१५६ से 'बाला अर्थक' संस्कृत प्रत्यय 'वान' के स्थान पर प्राकृत में 'माय' आदेश और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'नो राय को पारित कर दिड हो जाता है। हनुमान संस्कूल विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप हणुमा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और २-१५६ की वृत्ति सं संस्कृत 'वाला-अर्थक' प्रत्यय 'मान्' के स्थान पर प्राकृत में 'मा' आदेश की प्राप्ति होकर हमा रूप सिद्ध हो जाता है। धनी संस्कृत विशेषण झप है । इसका प्राकृत रूप घणी होना है। इसमें मत्र-संख्या १-२२८ से 'न ' का 'ण' होकर धणी रूप सिद्ध हो जाता है। आर्थिक संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप अविलो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-56 से 'र' का लोप; CE से लोप हुए 'र' के पश्चान शेष रहे हुए 'थ' को द्वित्व थ थ, की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त हुए 'प्रथम' 'थ' के स्थान पर 'तू' की प्राप्ति; १-७% से 'क्' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अस्थि भो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२.१५६।। तो दो तसो वा ॥२-१६०॥ तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौं वा भवतः । सव्वत्तो सन्बदो। एकत्तो एकदो। अनत्तो अन्नदो । कत्तो कदो । जत्तो जदो । तसो तदो । इत्तो इदो ॥ पक्षे मचओ इत्यादि । अर्थ:-संस्कृत में-'अमुक से' अर्थ में प्राप्त होने वाले 'तः प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'सो' और 'दो ऐसे ये दो आदेश वैकल्पिक रूप से प्राप्त हुश्रा करते हैं। जैसे:--सर्वतः मध्वत्तो अथवा सददी । बकल्पिक पक्ष में 'सव्वो ' भी होता है। एकतः = एकसों अथवा एकदो। अन्यतः = अन्नत्तो अथवा अन्नदो। कुतः कत्तो अथवा कदी । यतःजत्तो अथवा जदी। ततः ततो भषवा तदो। इतः -इत्तो अथवा इदो । इत्यादि। सर्वत: संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप सध्वत्तो, सध्वदो और मध्वश्री होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष बचे हुए Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६] * प्राकृत व्याकरण * । 'ब' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति और २-१६० संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तो और 'दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से सत्वत्तो और सबको यो प्रथम दो रूपों की सिद्धि हो जाती है। तृतीय रूप सवओं की सिद्धि सूत्र-संख्या १.३७ में की गई है। एकतः संस्कृत अव्यय रूप है । इसके प्राकृत रूप एकत्तो और एकदो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'त:' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो' और 'दो' श्रादेशों की प्राप्ति होकर क्रम से एफसो और एकदो यो दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। अन्यतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप अग्नत्तो और अन्नदो होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या-0-45 से 'य' का लोप: २.८६ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हए. 'न' को द्वित्व 'न' को प्रामि २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो' और 'दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से अनतो भार अन्नड़ी यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । कुतः संस्कृत अन्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप कत्तो और कदो होते हैं। इनमें सुत्र-संख्या ३-७१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; और २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'त:' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो' और 'दो' श्रादेशों की माधि होकर कम से कसो यो दोनो भलों की सिद्धि हो जाती है। यतः संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप जसो और जदो होते है। इनमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और २-१६० से संस्कत प्रत्यय तः के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तो' और दो आदेशों की प्राप्ति होकर कम से जत्ती और जनो यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । ततः संस्कृत अध्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप तत्तो और तदो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २.१६८ से संस्कृत प्रत्यय तः के स्थान पर प्राकृत में कम से 'तो' और 'दो' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम में तको और तदो यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है। इत्तः संस्कृत अव्यय रूप है । इसके प्राकृत रूप इत्तो और इदो होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-१६० से संस्कृत प्रत्यय 'तः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'तो' और 'दो' आदेशों की प्राप्ति होकर कम से इत्तो और इलो यों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । ॥२-१६०।। त्रपो हि-ह-स्थाः ॥२-१६१॥ वप् प्रत्ययस्य एते भवन्ति ॥ यत्र । जहि । जह । जत्थ । तत्र । तहि | तह । तत्थ ।। कुत्र । कहि । कह । कत्थ । अन्यत्र । अन्नहि । अन्नह । अन्नत्थ ।। अर्थ:-संस्कृत में स्थान वाचक 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्य' यों तीन आदेश कम से होते हैं। उदाहरण इस प्रकार है:-यत्र-जहि अथवा जह अथवा जत्थ ।। तत्र-तहि अथवा Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४५६ तह अथवा तत्थ ।। कुन = कहि अथवा कह अथवा काय और अन्यत्र = अन्नहि अथवा अन्नह अथवा अन्नस्थ ।। यत्र संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप जहि, जह और जत्य होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' को प्राप्ति और २-१६१ से 'त्र प्रत्यय के स्थान पर क्रम में प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'त्य' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप जहि. जह और जत्थ सिद्ध हो जाते हैं। तत्र संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप तहि, तह और नत्य होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २.१६१ से 'ब' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत 'हि', 'ह' और 'स्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर कम से तीनों रूप तह, सह और तत्थ सिद्ध हो जाते हैं। कुत्र संस्कृत अव्यय रूप है । इसके प्राकृत रूप कहि, कह और कत्थ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ३-१ से 'कु' के स्थान पर 'क' की प्रानि और २-२६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में "हि' 'ह' और 'त्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर कम से तीनों रूप कहि, कह और कत्थ सिद्ध हो जाते हैं। अन्यत्र संस्कृत अन्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप अन्नहि, अन्नह और अन्नस्थ होते हैं । इनमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'न' की प्राप्ति और २-१६१ से 'त्र' प्रत्यय के स्थान पर क्रम से प्राकृत में 'हि', 'ह' और 'स्थ' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से तीनों रूप अन्नाह, अन्नह और अन्नस्थ सिद्ध हो जाते हैं ।।२-१६१|| वैकाहः सि सि अं इबा ॥२-१६२।। एक शब्दात् परस्य दा प्रत्ययस्य सि सि इा इत्यादेशा वा भवन्ति ॥ एकदा । एक्कसि । एक्कासि । एक्कहा | पक्षे । एगया ।। अर्थ:--संस्कृत शब्द 'एक' के पश्चात् रहे हुए 'दा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में क्रम से तथा वैकल्पिक रूप से 'सि' अथवा सिधे अथवा 'इया' आदेशों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे-एकदाएक्कसि अथवा पक्कसिध अथवा एक्कइया । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में गया भी होता है । एकदा संस्कृत अध्यय रूप है । इसके प्राकृत रूप एकदा, विकसि, एकमिअं. एक कथा और एगया होते हैं। इनमें से प्रथम रूप 'एकदा' संस्कृत रू.पवत होने से इसका सानिका की आवश्यकता नहीं है । अन्य द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्र-संख्या २. से 'क' के स्थान पर द्वित्व 'क' की प्रामि और २-१६२ से संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से एवं वैकल्पिक १ से 'सि', 'सि' और 'इश्रा' आदेशों की प्राप्ति होकर क्रम से एक्कसि, एकातिरं और एकहा रूप सिद्ध हो जाते हैं। पंचम रूप-(एकदा=) एगया में सूत्र संख्या १-१७७ की वृत्ति से अथवा ४-३६६ से 'क' के स्थान Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६०] * प्राकृत व्याकरण * पर 'ग' की प्रामि, -५७७ से 'द् का लोप और १-१८० से लोप हुए 'द' के पश्चात शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर एनया रूप मिद्ध हो जाता है ।।:-६६६।। डिल्ल डुल्लो भवे ॥२.१६३॥ भवेर्थे नाम्नः परौ न उल्ल इत्येता डिनो प्रत्ययो भवतः ॥ गामिल्लिया । पुरिन्लं । हेडिल्लं । उवरिल्लं । अप्पुल्लं ।। पाल्यालायपीच्छन्त्यन्ये || अर्थः-भव अर्थ में अर्थात् 'श्रमुक में विद्यमान' इस अर्थ में प्राकृत-मचा-शब्द में इलल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की प्राप्ति हुआ करती है। जैसे:-मामे भवान्प्रामेयका-मिल्लिया पुराभवं-पुरिल्लं; अधो-भवं = अधस्तनम् = हे ट्रिग्लं; उपरि भवं = उपरितनम् = उवरिल्ल और आत्मनि-मय = श्रात्मीयम् = अप्पुल्लं । कोइ कोई व्याकरणाचार्य 'अमुक में विद्यमान' अर्थ में 'धालु' और 'पाल' प्रत्यय भी मानते हैं। ग्रामयका संस्कृत विशेषण्ण रूप है । इसका प्राकृत रूप गामिल्लिा होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'इय' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' की प्राप्ति; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिंग रूप 'गामिल्ल' में स्त्रीलिंग 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति; १.१० से 'ल्ल' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होने से लोप; १-८५ से प्राप्त दीर्घ स्वर 'ई के स्थान पर हम्ब स्वर 'इ' की प्राप्ति और १-७७ से 'क' का लोप होकर गाम्मिल्लिा रूप सिद्ध हो जाता है। पुराभवम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप पुरिल्लं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'भव' के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' की प्राप्ति; १-६० से 'रा' में स्थित श्रा' स्वर का आगे 'इल्ल प्रत्यय को 'इ होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र.' में 'इल्त के 'इ की मंधिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'अकारान्त नपुंसक लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पुरिल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। अधस्तनम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हेडिल्लं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१४५ से 'अघस' के स्थान पर 'हे?' श्रादेशः -१६३ से संस्कृत 'तत्र-भव' वाचक प्रत्यय 'तन' के स्थान पर 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से 'ट्ठ' में स्थित 'अ' स्वर का आगे 'इल्ल' प्रत्यय की 'इ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्जन '8 में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हेटिल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६१ उपरितनम संस्कृत विशंपण रूप है। इसका प्राकृत रूप उरिल्लं होता है. इममें मत्र-संख्या १-२३१ सं 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति, २-१६३ से संस्कृत तत्र-भव वाचक प्रत्यय 'तन के स्थान पर इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति-१० से 'रि' में स्थित 'इ' स्वर का आगे इल्लं' प्रत्यय की 'इ होने से लोपः १-५ से हलन्त व्यञ्जन 'र में 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३.५ से प्रथमा विभक्त के एक वचन में अकारान्न नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उपरिकली रूप सिद्ध हो जाता है। आत्मयिम् संस्कृत विशेषण म्प है। इसका प्राकृत रूप अप्पुल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या से 'सा' के न र द्वेि प्राप्ति, ६-६ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्ख स्वर "श्र को प्राप्ति; २.०६३ से मंस्कृत 'तत्र-भव वाचक प्रत्यय इय' के स्थान पर प्राकृत में 'उल्ल' प्रत्यय की प्रामिः .-१० से प्राप्त 'प' में स्थित 'अ' स्वर का आगे उल्ल' प्रत्यय का 'उ' होने से लोप; १-५ से हलन्त व्यञ्चन एप' में 'उल्ल' प्रत्यय के 'उ' की संधि; ३-२५ -से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्न नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्रान 'म्' का अनुस्वार होकर अप्युल्लं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१६३॥ स्वार्थे कश्च वा ॥२-१६४॥ स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्ली डितों प्रत्ययौ वा भवतः ॥ क । कुक म पिञ्जरयं । चन्दयो । गयणयम्मि । घरणीहर-एक्खुमन्तयं । दुहिअए राम-हिअथए । इहयं । भालेढुझं । आश्लेष्टुमित्यर्थः ।। द्विरपि भवति । बहुप्रयं ॥ ककारोच्चारणे पैशाचिक-भाषार्थम् । यथा । वतनके चवनक समप्यत्त न ॥ इन्ल | निजिजासोअ-पल्लविल्लेख पुरिन्लो । पुरो पुरा वा ॥ उल्ल । मह पिउन्लश्रो । मुहल्लं । हत्थुल्ला । पक्ष चन्दो। गयणं । इह । पालेछु बहु । बहुमं! मुहं । हत्या ।। कुत्सादि विशिष्टे तु संस्कृतवदेव का सिद्धः ॥ यावादिलचणः कः प्रतिनियत विषय एवेति वचनम् ॥ अर्थः-'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति हुआ करती है और कभी कभी वैकल्पिक रूप से स्वअर्थ' में 'इल्ल' और 'उल्ल' प्रत्ययों की भा प्राप्ति हुआ करती है । 'क' से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-कुल म पिंजरम् = कुङ्कम पिञ्जरयं; चंद्रका चन्दी ; गगने गयणयम्मि, घरणो-धर-पक्षोभातम् = धरणीहर-पक्खुठभन्तयं; दुःखित राम हृदये-दुहिअए समहिअयए, इह इहयं; आश्लेष्टुम् =आलंठटुथ इत्यादि ।। कभी कभी 'स्व-अर्थ' में दो 'क' की भी प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे:--बहुक कम् = बहुअयं । यहाँ पर'क'का उचारण पैशाचिक-भाषा की दृष्टि से है। जैसे:-वदने वदनं समर्पित्वा बतन के वतनकं समप्पेत्त न इत्यादि । 'इल्ल' प्रत्यय से सम्बन्धित उदाहरण इस प्रकार है:-निर्जिताशोक पल्लवेन निज्जिासोअ-पल्लविल्लेण, पुरो अथवा पुरा = पुरिल्लो; इत्यादि । उल्ल' प्रत्यय से संबंधित Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 प्राकृत व्याकरण * उदाहरण इस प्रकार है:-ममपितृकामह-पिउल्लओ, मुख (क) म् = मुहल्लं; हस्ताः = (हस्तका:)हत्थुल्ला इत्यादि । पक्षान्तर में चन्दो, गयणं, इह, अाले बहु, बहुअं. मुई और हत्था रूपों की प्राप्ति भी होनी है। कुन्स. अल्पज्ञान श्रादि अर्थ में प्राप्त होने वाला 'क'संस्कृत-व्याकरण केसमा पान ही होता है। ऐसे विशेष अर्थ में 'क' की सिद्धि संस्कृत के समान ही जानना । 'थावादिलक्षण' रूप से प्राप्त होने काला 'क' सूत्रानुसार ही प्राप्त होता है और उसका उद्देश्य भो उसी तात्पर्य को बतलाने वाला होता है। कुखुममिकामा विशेगम है। त रूप कुक्क म पिञ्जरय होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१६४ से 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; ६-१७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १-१८० में लोप हुग 'क' के पश्चात शेप रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और ५-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुङ्गकुमपिजरयं रूप सिद्ध होता है। गगने (= गगनके) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गयणयम्मि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से द्वितीय 'ग' का लोप; १-१८० से लोप हुए द्वितीय ग्' के पत्रात शेष रह हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २.१६४ से 'स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय की प्रापि; १-१७७ से प्राप्त 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में संस्कत प्रत्यय 'ए के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि प्रत्यय की प्राप्ति होकर गयणयम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। धरणी धर-पक्षांदभातम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप धरणो हर-पक्खुम्भन्तयं होता है । इसमें सूत्र-संख्या ५-५८७ मे द्वितीय 'ध' के स्थान पर है' की प्रामिः २-३ से 'न' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २.८६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'रनख' की प्राप्ति; २-० से प्राप्त पूर्व 'रन' के स्थान पर 'क.' की की प्राप्ति १-८४ से दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर ह्रस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति एवं १-५ से हलन्त 'ख' के साथ सम्मिलित होकर 'खु' की प्राप्ति; २-७७ से हलन्त व्यञ्जन 'द' का लोप; २-८८ से लोप हुा. 'द' के पश्चात शप रहे हुए 'भ' को द्वित्व भभु' की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १.८४ से 'भा' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-२६ से 'भ' पर पागम रूप अनु. स्वार की प्राप्ति: १-३० से प्राप्त अनुस्वार के स्थान पर आगे 'त' वर्ण होने से 'त' वर्ग के पंचमाक्षर रूप 'न' की प्राप्ति; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७४ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'भ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर धरणी हर-पकरबुडभन्तयं रूप सिद्ध हो जाता है। दुःखिते (= दुःखित्तके) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दुहिए होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश; १-१७७ से 'तू' का लोप; २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४६३ 'क' प्रत्यय की प्राप्ति १-१७७ मे प्राप्त 'क' का लोप और ३-११ सेप्त के एक वचन में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दुहिए रूप सिद्ध हो जाता है । सं रामदये (राम-हृदय के संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप राम-हिए होता है। इस १-१२८ से'' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति १-१७७ से 'द' कालो २-१६४ 'स्वयं' में 'क' प्रत्यय को प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त 'कु' का लोप और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'ए' प्राप्ति होकर राम-हिजच रूप सिद्ध हो जाता है। को इयं रूप को सिद्धि सूत्र संख्या १-१४ में की गई है। आलेद्र रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२४ में की गई है। बहु सस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अर्थ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१६४ ही वृति से मूल रूप 'बहु' में वो 'कहारों' को प्राप्तिः १-१०० से प्राप्त दोनों का सोप १-१८० ते लोप हुए द्वितीय '' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति ३२५ सेम विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुरवार होकर बहुअर्थ रूप सिद्ध हो जाता है। दने संस्कृत रूप है। इसका पेशा चित्र भाषा में बतन के रूप होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-३०७ से 'ब' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति २-१६४ से 'स्व-अर्थ' में 'क' प्रत्यय को पाप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पतन के रूप में सिद्ध हो जाता है । वदनम् संस्कृत द्वितीपाल रूप है। इसका पशाचिक भाषा में वतनक रूप होता है। 'वतनक' रूप तक की साथनिका उपरोक्त 'बहन' के 'वतन' समान ही जाना ३५ से द्वितीया विभक्ति के एक बचन में सकारात में '' प्रत्यय की प्राप्ति और १-१३ से प्राप्त 'म्' का अनुरवार होकर के रूप सिद्ध हो जाता है। समर्पित्या संस्कृत शवन्त रूप है। इसका पैदा २-७९ से ''कालो २-८९ सेप हुए के भाषा में सलून रूप होता है। इसमें सूत्र सं शेष रहे हुए 'पू' को हिपको पाप्ति ३-१४७ से मूल रूप में 'तृण' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'समय' धातु में स्थित अन्त्य 'अ' विरुरण प्रत्यय के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; ( नोटः--सूत्र-संख्या ४ २३९ से हलन्त धातु 'सम' में विकरण प्रश्यय 'अ' की प्राप्ति हुई है ); २-१४६ बाचक संस्कृत प्रत्यय 'स्व' के स्थान पर 'तू' प्रत्यय की प्राप्ति २-८९ प्राप्त 'ण' प्रत्यय में स्थित 'तू' के स्थान पर द्विस्व 'त्' को प्राप्ति और ४३०६ से प्राकृत भाषा के शब्दों में स्थित द के स्थान पर पेशादिक भाषा में 'न' की प्राप्ति होकर समर्पितून रूप सिद्ध हो जाता है। निर्जिताशोक-लुवेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप निजि आसो परलविल्लेण होता है । इसमें सूत्र संख्या २७६ सेल टू' का कोप २-८९ से लोग हुए 'ए' के पास रहे हुए 'म्' को दिय '' Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] की प्राप्ति १-१७७ से 'तू' और 'क' का लोप १-२६० से 'शु' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-१६४ से 'स्व'डिल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'हिक' प्रत्यय में इत्-संज्ञक '' होने से 'लू' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप एवं १५ से प्राप्त 'क' प्रत्यय की 'ह' की प्राप्त हन्त '' में संधि और २६ से संस्कृत तृतीया विभक्ति के एक वचन में प्राप्त 'टा' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-१४ से प्राप्त 'ण' प्रत्यय के पूर्व भ स्थित स्स' के 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर निजगासो-पल्लविल्लेण रूप सिद्ध हो जाता है। # प्राकृत व्याकरण युरी अथवा युरा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पुरिल्लो होता है। इसमें सूत्र संख्या २०१६४ से 'अर्थ' में 'डिल्ल' प्रत्यय की प्राप्तिः प्राप्त 'दिल्ल' प्रत्यय में इत्-संज्ञक ' होने से 'शे' के 'लो' को अथवा 'रश' के 'आ' की इत्संज्ञा १५ से प्राप्त 'इ' प्रश्रय की 'इ' की प्राप्त हल'' में संधि और ३-२ से प्रथम विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पुस्तिका सिद्ध हो जाता है । मतिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप महपिउन होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११३ से संस्कृत रूप 'मम' के स्थान पर 'मह' आवेश १-१७७ से 'त्' का लोपः २ ९६४ से संस्कृत- स्व-अर्थ द्योतक प्रत्यय 'क' के हथान पर प्राकृत में 'डल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त 'डल्ल' प्रत्यय में '' इत्-संज्ञक होने से 'तु' में से सोए हुए '' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर को इत्संज्ञा १-१७७ से 'कृ' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त पुडिंग में स' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मह-वि उल्हओ का सिद्ध हो जाता है । F मुखम् संस्कृत रूप है | इसके प्राकृत रूप महुल्लं और मुहं होते है । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-१८७ से 'ख' के स्थान पर 'ह' आदेश २०१६४ 'अर्थ' में 'ल' प्रत्यय को प्राप्तिः प्राप्त शुल' प्रत्यय में ''- होने से प्राप्त 'ह' में स्थित 'अ' को इत्संज्ञा १-५ से प्राप्त हलत 'ह' में प्राप्त प्रत्यय 'जल्ल' के '' की संधि ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर मृ' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रयग रूप मुदुल्लं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप शुद्ध को सिद्धि सूत्र संख्या २-२८७ में की गई है। हस्ती संस्कृत रूप हूँ | इसके प्राकृत हत्युल्सा और हत्या होते हैं। इनमें सूत्र २०४५ से 'स्त' के स्थान पर 'च' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त '' के स्थान पर विश्व 'न' की प्राप्ति २९० से प्राप्त पूर्व 'थ' के स्थान पर '' की प्राप्ति २-१६४ से 'अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'गुल्ल' प्रत्यय की प्राति प्राप्त 'ए' प्रत्यय में द' इत्-संज्ञक होने से प्राप्त 'स्व' में स्थित 'अ' को संज्ञा १५ से प्राप्त हरू '' में प्राप्त प्रत्यय 'उहल' के '' की संधि ३१३० से संस्कृत रूप में स्थित द्विषचन के स्थान पर प्राकृत में बहुवचन की प्राप्ति तदनुसार ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रस्थय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं सुप्त प्रस्थय जस्' के कारण से 'ह' में स्थित अथवा वैकल्पिक पक्ष होने से 'स्थ' में स्थित 'क्ष' स्वर के दीर्घ स्वर का की प्राप्ति होकर हम से हृत्युल्ला और हत्था दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६५ चन्दो हरकी सिदि सूत्र संख्या १०में की गई है। . गगनम् संस्कृत है। इसका प्राकृत रूप भयणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से द्वितीय 'गा लोप; १-१८० से लोप हुए 'म्' के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्रारित; १-२२८ से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३:२५ से प्रपमा विभक्ति के एक पचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में fस' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर गयणं रूप सिब हो जाता है। इह रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है। आश्लेष्टुम् संस्कृत कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप झालेट होता है। इसमें प्रव-संख्या २-७७ से '' का लोप; २-३४ से ष्ट्' के स्थान पर ' की प्राप्ति २-८९ से प्राप्त को हित्व 'इ' की प्राप्तिः २९. से प्राप्त पूर्व '' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति और १-२३ से अन्रप हलन्त 'म' का अनुवार होकर आदळू रूप सिद्ध हो जाता है। बहु (क) संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप बह और बहुअं होते हैं । प्रथम रूप 'मह' संस्कृत 'सत्' सिन ही है। द्वितीय-रूप में मत्र संख्या २-१६४ से स्व-अर्थ में 'क' प्रत्यय को प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त की प्रा ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में अकारान्त मसलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति भौर १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर द्वितीय रूप बहु भी सिद्ध हो जाता है -१६४॥ ल्लो नवैकाहा ॥ २-१६५ ॥ आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो लो वा भवति ।। नबल्लो । एकल्लो ॥ सेवा दित्वात् कस्य द्वित्वे एकल्ली । पचे । नयो । एको । एलो।। अर्थ:-संस्कृत शम्न 'नव' और 'एक' में स्व-अर्थ में प्राकृत-भाषा में वैकल्पिक रूप से विस्व 'ल' प्रत्यय को प्राप्ति होती है । जैसे:- नवः = नवल्लो अथवा नो । एकः = एकल्लो अथवा एओ। सूत्र संख्या २-९९ के अनुसार एक शम्ब सेवादि-वर्ग वाला होने से इसमें स्थित 'क' को वैकल्पिक रूप से विस्व 'क' को प्राप्ति हो जाती है। तदमुसार 'एक:' के प्राकृत रूप 'स्व-अर्ष' में एफल्लो' और 'एक्को' भी होते हैं। नकः संस्कृत विशेष रूप है । इसके प्राकृत-कप (स्वार्थ बोषक प्रत्यय के साथ) नवल्लो और नवो होते है इनमें सूत्र संख्या २-१६५ स स्व-अर्थ में बैकल्पिक रूप से संयुक्त अर्थात् हित्व 'ल्ल' को प्राप्ति और ३. से प्रथमा विभरित के एक वचन में अकारान्त पुस्लिप में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर कम से नषल्लो और नवो दोनों रूप सिद्ध जाते हैं। एक: संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप-( स्वार्य-बोधक प्रत्यय के साथ )-एकल्लो, एमकल्लो, एकको और एमओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या २-१६५ से 'स्व-अप' में कल्पिक रूप से संपुरत अर्थात् विस्व 'ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बघन में भकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप एकल्ली सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(एक) एककल्ली में सूत्र संस्पा २-१९ से 'क' के स्थान पर विस्व 'क' की प्राप्ति और शेष सानिका प्रथम रूप के समान हो होकर द्वितीय रूप एककल्लो सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप एक्को पुर्ण रुपएको सो infoया २-१ गई है ॥ २-१६५ ।। उपरेः संन्याने ॥२-१६६॥ संव्यानेर्थे वर्तमानादुपरि शब्दात् स्वार्थे ल्लो भवति ।। अबरिल्लो ॥ संध्यान इति किम् । श्रवरि ॥ अर्थ:-'ऊपर का कपड़ा' इस अर्थ में यदि 'उपरि' शब्द रहा हुआ हो तो 'स्त्र-अयं' में 'उपरि' शम्ब के साप 'लक' प्रत्यय की प्राप्ति होती है । जैसे:-उपरितनः अबरिल्लो । प्रश्न:-संध्यान-ऊपर का कपडा' ऐसा होने पर हो उररि-उपरि' के साथ में 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति होती है ऐसा प्रतिबंधात्मक उल्लेख क्यों किया गया है? उत्तर:-यदि उपरि' शब्द का अर्थ 'ऊपर का कपड़ा नहीं होकर केवल ऊपर' सूचक अर्थही होगा तो ऐसी स्थिति में स्व-अयं बोथक 'ल्ल' प्रत्यय को प्राप्ति प्राकृत साहित्य में नहीं देखी जाती है। इसीलिये प्रतिबंधात्मक उस्लेख किया गया है। जैसे:-उपरि अवरि ।। उपरितमः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप-(स्वार्थ-बोषक प्रत्यय के साथ) अवरिलो होता है इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; १-१०७ मे 'उ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति, २-१६६ से संस्कृत स्व-अर्थ बोषक प्रत्यय 'सन' के स्थान पर प्राकृत में 'एल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बधन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अपरिल्लो हप सिद्ध हो गाता है। अवारं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-75 में की गई है ॥२-१६६३॥ भ्रवो मया डमया ॥२-१६७|| भ्र शब्दात् स्वार्थे मया डमया इत्येतो प्रत्ययौ भवतः॥ मया । भमगा । अर्थ:-'भ्रू' शम्ब के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व अर्थ में कभी 'मया' प्रत्यय आता है और कभी 'मया' (अमया)-प्रत्यय आता है। 'मया' प्रत्यय के साथ में 'भ्रू' शब्द में स्थित अन्स्य उ' को इत् संज्ञा नहीं होती है। किन्तु 'उमया प्रत्यय में आदि में स्थित 'इ' इसंज्ञक है; अतः 'उमया' प्रत्यय की प्राप्ति के समय में 'भू राम में स्थित अन्य '' को संज्ञा हो जाती है। यह अन्तर ध्यान में रपना जाना चाहिये । उदाहरण इस प्रकार हैधूः= भुमया अथवा भमया ।। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [४६७ भुमया रूप को सिद्धि पत्र संख्या १-१२१ में की गई है। श्रः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप (स्व- अबोधक प्रत्यय के साथ भमया होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७९ से 'र' का लोप; २-१६७ से स्व-अ' में प्राप्त प्रत्यय 'डप्पा' में स्थित 'इ' इत्यंजक होने से प्राप्त 'भू' में स्थित अन्य स्वर 'अ' को संज्ञा होकर 'अमया' प्रत्यय को प्राप्ति, १.५ से हलन्स 'म' में 'रममा प्ररप में से मवशिष्ट 'अम्पा' के 'अ' को संघि; और १-११ से अन्य व्यजन रूप विसर्ग का लोप होकर भमया हा सिद्ध हो जाता है।॥ २-१६७।। . शनै सो डिअम् ॥ २-१६ ॥ शनैस् शब्दात् स्वार्थे डिअम् भवति ।। सणिअमवगूढो ॥ अर्थः-संस्कृत शब्द 'शन' के प्राकृत कमान्तर में 'स्व-' में 'डिअम्' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। "डिअम्' प्रत्यय में आदि '' हरसंक होने पे 'श' के 'ऐ'बर को इत्संझा होकर अम् प्रत्यय की प्राप्ति होती हूं। जैसे:-शनैः अवगूढः सगिअम् अवगूढो अथवा सपिअमवादो। झनैः (शस्) संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप समिश्रा होता है। इसमें म संख्या १-२६० से '' के स्थान पर 'सको प्राप्ति; १-२९८ से 'न' के स्थान पर 'ग्' को प्राप्ति; २-१६८ से 'स्व-अयं' में 'रिम्' प्रत्यय को प्राप्ति प्राप्त 'डिअम् प्रत्यय में 'इसंज्ञक होने से 'ए' स्वर को इस्संज्ञा अर्थात् लोप; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन विलग रूप ' का लोप; और १.५ से प्राप्त रूप 'सग्में पूर्वो इस को संषि होकर सणिजम् रूप सिस हो जाता है। अवगूढः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप भवगूढो होता है। इसमें सत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक पजन में अकारान्त पुल्लिण में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर अवगूढी सप सिद्ध हो जाता है ।। २-१६८ ।। मनाको न वा डयं च ॥ २-१६६ ॥ मनाक् शब्दात् स्वार्थे डयम् डिअम् च प्रत्ययो वा भवति ।। मगयं । मणियं । पक्षे । भण।।। अर्थ:-संस्कृत अध्यय रूप मनाक के प्राकृत रूपान्तर में स्व-अयं में वैकल्पिक रूप से कभी 'व्य प्रत्यय को प्राप्ति होती है, कभी जिम्' प्रत्यय की प्राति होती है और कभी-कभी स्व-अर्थ में किसी भी प्रकार के प्रत्यय की प्राप्ति नहीं भी होती है जैसे:-मना = ममयं अथवा मणिपं और वैकल्मिक पक्ष में मणा जानना । मनार संस्कृत अव्यय रूप है । इसके प्राकृत-रूप (स्व-अप बोधक प्रत्यय के साथ) -प्रणय, मणियं और मगा होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग्' की प्राप्ति, १-११ से अन्य हलम्स म्यञ्जनका लोप, Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६%] * प्राकृत व्याकरण - २-१५९ से वैकल्पिक रूप से एवं कम से क्ष-अप' में 'ग्यम्' और 'हिमम्' प्रश्पयों की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्ययों में 'इ' इस्मक होने से प्राप्त रूप 'मगा' में से अस्प 'या' का छोप, १-५ से शव रूप मण' के साथ प्राप्त प्रत्यय रूप 'अयम्' और 'इअम्' को ऋमिक संधि, १-१८ से द्वितीय रूप 'णिअम्' में स्थित 'ब' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और १-२३ से ट व्यापान '' माना होकर मम ये जोनों रूप मणयं और मणिय सिद्ध हो जाते है। तृतीय रूप-(भमाक् - ) मणा में सत्र संख्या १-२२८ है न' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलम्त म्यञ्जन 'क' का लोप होकर मणा रूप सिद्ध हो जाता है । २-१६९ ॥ मिश्राडडालिगः ॥२-१७०॥ मिश्र शब्दात् स्वार्थे डालियः प्रत्ययो वा भवति || मीसालिअं । पक्षे । मीसं ॥ अर्थ:-संस्कृत शव मिश्न' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से 'लिभ' प्रत्यय को प्राप्ति. होती है। हालिप्रत्यय में आदि ''संशक होने से 'मिस' में स्थित अन्त्य 'अ' की संज्ञा होकर तत्पश्चात 'मालिब' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। उदाहरण इस प्रकार :--मिश्नम् = मोलिभ और वैकल्पिक पक्ष होने से भीसं रूप भी होता है । मिश्रम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप मसालि और मीस होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सुत्र प्रक्ष्या २-७९ से 'र' का लोप, १-४३ से हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्ध स्वर 'ई' को प्राप्ति, १-२६० से शके हमान पर 'स' की प्राप्ति, -१७० से स्व-अर्थ में 'डालिम आलिअंत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय में '' इत्संशक होने से पूर्वस्थ '' में स्थित 'अ' क' हरमंझा, १-५ से प्राप्त रूप में स्' के हलन्त 'स' के साथ प्राप्त प्रत्यय 'आलिम' के 'या' की संधि, ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में भकासात भकक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्मान पर 'म' प्रायप की प्रारिस और १-२३ से प्राप्त 'नका अनुस्वार होकर प्रथम रूप मीसालि सिद्ध हो भाता है। द्वितीय रूप मीसं की सिद्धि इत्र संख्या १-४ में की गई है। २-१७०॥ रो दीर्घात् ॥२-१७१॥ दीर्घ शब्दात् परः स्वार्थे रो वा भवति ॥ दीहरं । दोहं ॥ अर्थ:-संस्कृत विशेषणात्मक क्षम्य दीर्थ' के प्राकृत रूपान्तर में 'स्व- अर्थ में वैकल्पिक रूप से '' प्रत्यय की प्राप्ति होती हूँ। मे:-- दोधम् बोहरं अथवा वीह ।। दीर्घ संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत-रूप-(स्व-अर्थ-धोषक प्रत्यय के साथ)-दोहर और दोहं होते है। हममें सूत्र संख्या २-७१ से 'र' का लोप, १-१८७ से 'ध' के स्थान पर की प्राप्ति, २-१७१ से स्व-अर्थ में वैकल्पिक रूप से प्रत्यय की प्राप्ति, ५-२५ से अपमा विभक्ति एकवचन में सकारास असक लिंग में 'सि' Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४६६ प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यप की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कम से दोनों पदीहरं और दीह सिद्ध हो जाते है ॥ २-१७१ ।। त्वादेः सः॥२-१७२॥ ___ भावे त्व-तल (हे. ७-१) इत्यादिना विहितावादेः परः स्वार्थे स एव त्वादि र्वा भवति ॥ मृदुकत्वेन । मउ अत्तयाई ॥ श्रातिशायिका त्रातिशायिक संस्कृतवदेव सिद्धः । जेदुयरो। कणिद्वयरो॥ al:--वाचार्य मन का मंत व्याकरण में (हे० ७-१-सूत्र में)-भव-अर्थ में 'स्व' और 'तस्' प्रत्ययों की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है। प्राकृत-व्याकरण में भी 'भाव अर्थ' में इन्हीं स्व' आदि प्रत्ययों की हो प्राप्ति बकहिपक रूप से तथा 'रष-अब-बोधकता' रूप से होती है। जैसे:-मनुकत्वेन-उत्तयाइ । अतिशयता' सूचक प्रत्ययों से निमित संस्कृत-शब्दों के प्राकृत-रूपान्तर में उन्हीं अतिशयता' सूचक प्रत्ययों को प्राप्ति होती है। वो कि 'अतिशयता-सूचक' अर्थ में संस्कृत में बायें हैं । जैसे:-ज्येष्ठतर जेट्टयरो। इस उराहरण में संस्कृत-रूप में प्राप्त प्रत्यय 'तर' का ही प्राकृत रूपान्तर 'यर' हुआ है । यह 'सर' अथवा 'पर' प्रत्यय आतिशायिक स्थिति का सूचक है। दूसरा उदाहरण इस प्रकार :-कनिष्ठतर कणिद्वयरो। इस उदाहरण में भी प्राप्त प्रत्यय 'सर' अथवा 'पर'तार• तम्य रूप से विशष हीनता सूचक होकर आतिशायिक-स्थिति का घोतक है। यों अन्य उदाहरणों में भी संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले आतिशामिक स्थिति के छोतक प्रत्ययों की स्थिति प्राकृत-रूपान्तर में बनी रहती है। मृहकावेन संस्कृत तृतीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप (स्व-अर्थ बोधक प्रत्यय के साथ । मलमत्तयार होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्तिः १-१७७ से 'द्' और 'क' का लोप; २-७१ से 'ब' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'व' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को हिस्व 'त की प्राप्ति; ३-३१ को पत्ति से स्त्रीलिग-वाचक अर्थ में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१८. से प्राप्त स्त्रीलिंग वाचक प्रत्यय 'आ' के स्थान पर 'म' को प्राप्ति और ३-२६ से तृतीपा विभक्ति के एक पचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत-प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मउअसथाई रूप सिक हो जाता है। ज्येष्ठतरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप जेट्टयरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'म' का लोपः २-७७ से '' का लोप; २.८९ से लोप हुए '' के पश्चात् भेष रहे हए 'ड' के स्थान पर हित्त्व 'छ' को प्राप्ति; २.९० से प्राप्त हुए पूर्व 'ड' के स्थान पर 'द' को प्राप्तिः १-९७७ से 'त' का लोप; १.१८० से लोपाए 'त के पश्चात शेष रहे हए 'म' के स्थान पर 'म' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाराम्स पुल्लिग में 'सि' प्रस्मम के स्थान पर 'यो' प्रत्यप की प्राप्ति होकर जेट्टयरो रूप सिद्ध हो जाता हैं। फनिष्ठतरः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कगिट्टयरो होता है। इसमें पत्र-संख्या १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष सम्पूर्ण सानिका उपरोक्त 'जंदुयरो' इप के समान ही होकर काणिहयरी रूप सिद्ध हो जाता है ॥ २-१५२ ।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७०] * प्राकृत व्याकरण * विद्युत्पत्र-पीतान्धाल्लः ॥२-१७३ ॥ ___ एभ्यः स्वार्थे लो वा भवति | विज्जुना। पत्तलं । पीवलं । पीअलं । अन्धलो । पक्षे । विज्जू । पत्तं । पीअं अन्धो ॥ कथं जमलं : यमलमिति संस्कृत शब्दात् भविष्यति ॥ अर्थ:-संस्कृत भाग्य विद्युत्, पत्र, पोत, और अन्य के प्राकृत-रूपान्तर में 'व-अर्थ' में वैकल्पिक रूप से '' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। जैसे:-विद्युत-विजुला अथवा विज्जू; पत्रम्-पत्तलं अथवा पतं; पोतम्-पोवलं, पीअल अथवा पीअं और अन्य अन्धलो अथवा अन्धी। प्रश्न:-प्रकृत रूप जमलं की प्राप्ति कैसे होती है? उत्तर:-प्राकृत रूप 'जमलं' में स्थित 'ल' स्वाय-बोधक प्रत्यय नहीं है। किन्तु मल संस्कृत रूप 'यमलम्' का हो यह प्राकृत रूपान्तर है, तदनुसार 'ल' मूल-स्थिति से रहा हुआ है ; न कि प्रत्यय रूप से; यह ध्यान में रहे | विद्यत् से निमित विजुला रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है और विज्जू रूप की सिद्धि सूत्र. सम्मा १-१५ में की गई है। पत्रम् संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप पत्तल और पत्तं होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १.७९ से 'र' का लोपः २-८९ से लोपए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को विस्व 'त' की प्राप्ति, २.१७३ मे 'स्व-अयं' में वैकल्पिक रूप से 'ल' प्रत्यय की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रस्यप के स्याम पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर क्रम से दोनों रूप पत्तलं भौर पत्तं सिद्ध हो जाते है। पीयल और पीअलं रूमों की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२१३ में की गई है। तृतीय रुप पीअं की सिद्धि भी सूत्रसंख्या १-१३ में की गई है। अन्धः संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप अन्धलो और अन्धो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या २-१७३ से 'स्व-अर्घ' में कल्पिक रूप से 'क' प्रत्यय को प्राप्ति और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप अन्धली और अन्धो सिद्ध हो जाते हैं। यमलम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जमले होता है। इसमें सूत्र-संक्पा १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर जमलं रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१७३ ।। गोणादयः ॥२-१७४॥ गोणादयः शम्दा अनुक्त-प्रकृति-प्रत्यय-लोपागम-वर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते ।। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७१ गौः । गोणो । गावी ।। गावः । गावीओ ।। बलीवर्दः ! वहन्लो ॥ प्रापः। श्राऊ ॥ पञ्च पन्नाशत् । पञ्चावण्णा । पणपन्ना । त्रिपञ्चाशत् । तेवण्णा ॥ त्रिचत्वारिंशत् । तेभालीसा ।। व्युत्सर्गः । विउसम्गो । व्युत्सर्जनम् । योसिरणं । बहिमैथुनं वा । रहिद्धा । कार्यम् । खामुक्कसि ॥ क्वचित् । कत्थइ ।। उद्वति । मुबहइ ।। अपस्मारः । वम्हलो ॥ उत्पलम् । कन्दुटुं विधिक । चिछि । घिद्धि ॥ धिगस्तु । धिरत्थु । प्रतिस्पर्धा । पडिसिद्धी । पाडिसिद्धी ।। स्थासकः । चच्चिकं ।। निलयः । निहेलणं । मघवान् । मघोषो । साची । सक्खिणो । जन्म । जम्मणं ॥ महान् । महन्तो | भवान् । भवन्तो ॥ श्राशी । आसीसा ।। क्वचित् इस्य हुभौ । बृहत्तरम् । वड्डयरं ॥ हिमोरः । भिमोरा ॥ल्लस्यः । क्षुल्लकः । खुडो । पोषाणामधेतनो गायनः । घायणो || बडः । बढी ॥ ककुदम् । कम्धं ।। अकाण्डम् । अस्थक्कं ।। लज्जावती। लज्जालुइणी ।। कुतूदलम् । कुडे ॥ चूनः । मायन्दी । माकन्द शब्दः संस्कृते पीत्यन्ये । विष्णु : । भट्टियो । श्मशानम् । करमी ॥ अमुराः। अगया । खेलम् । खेड्डे । पौष्यं रजः । तिङ्गिच्छि ॥ दिनम् । अन्लं ।। समर्थः । पक्कली। पण्डकः । णेलच्छो । कासः । पलही ॥ बली । उज्जल्लो ॥ ताम्बूलम् । झमुर ।। पुश्चली । छिछई ॥ शाखा । साहुली । इत्यादि । बादिकार हो आमादर्शनं महगो इत्याद्यपि भवति ।। गोला गोश्रावरी इति तु गोदागोदावरीभ्यां सिद्धम् ।। भाषा शब्दाश्च । श्राहित्य । लन्लक्क । विहिर । पच्चहिन । उप्पेहड । मडफर । पडिच्छिर । अब म । विहडफड । अज्जल्ल । हल्लमल इत्यादयो महाराष्ट्र विदभौदिदेशद्य सिद्धा लोकतोवगन्तव्याः ॥ क्रिया शब्दाश्च । अब यासई । फुस्फुल्लइ उप्कालेइ । इत्यादयः । अतएव च कट-घृष्ट-वाक्य विद्वम बाचस्पति विष्ठर श्रवस्-प्रचेतस्प्रोक्त-प्रोतादीनाम् क्विवादि पत्ययान्तानां च अग्निचित्सोमत्सुग्लसुम्लेत्यादीनां पूर्वेः कविभिर प्रयुक्तानां प्रतीतिवैषम्यपरः प्रयोगो न कर्तव्यः शब्दान्तरेव तु तदर्थाभिधेयः । यथा कृष्टः कुशलः । वाचस्पतिगुरुः विष्टरश्रवा हरिरित्यादि । घृष्ट शब्दस्य तु मोपसर्गस्य प्रयोग इष्यत एव । मन्दर-यड परिधई । तद्दिश्रम-निहट्ठाणङ्ग इत्यादि । आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरुद्धम् । यथा । घट्ठा । मट्ठा । विउमा । सुन-लक्खणागुसारण । चक्कन्तम्मु अ पुग्णी इत्यादि ।। अर्थ:-स सूत्र में कुछ एक ऐसे शब्दों का उल्लेव किश गया है। जिनमें प्राकृत-व्याकरण के अशुमार प्राप्त होने वाली प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम और वर्ण विकार आदि स्थितियों का अभाव है; और जो केवल संस्कृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले शब्दों के स्थान पर प्रायः प्रयक्त कि जाते हैं। ऐसे शब्दों की स्थिति 'वेशन शम्द-समूह' के अन्तर्गत ही मानी जा सकती है । जमे:-संस्कृत शम 'गो:' के स्थान पर गोणो अयवा गावरे का प्रयोग होता है। ऐसे ही संस्कृत-वान्दों के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले देशज शब्दों को सामान्य पूको ६म पकार है:गावा-गावीओ बलोवर्वः =वाल्लो; आप:-आऊ पञ्चपञ्चाशत-पञ्चावण्णा अपवा पण पन्ना; त्रिशत Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२] मिमोरो। कभी कभी संस्कृत शब्द कभी कभी संस्कृत शब्दों डुओ। तेवपणा; त्वरित् तेआलीसा व्युरसर्गः विगो उत्सर्जनम् = योसिरणं; बहिः अथवा मैथुनम् बद्धा; कार्य=णामुक्कसिअं; क्वचित कस्य उद्दहति मुथ्यद अपस्मारः = वम्लो उत्पलपलकम्बु धिकधिक-छिछि अथवा षिटि धिगस्तु = धिरस्य प्रतिस्पर्धा-पडिसिद्धि अथवा पाडिसिद्धी स्यासकः चच्चि; मिलय: = मिलणं; मघवान्मघोणं साक्षी समिणो जन्म अम्मण महान्महन्तो भवान् = भवन्तो; आशो: आसीसा। कुछ एक संस्कृतों में स्थित 'ह' के स्थान पर देशज शब्दों में कभी 'दु' को प्राप्ति होती हुई देखी जाती है और कभी 'भू' की प्राप्ति होती हुई पाई जात है। जैसे:- बृहत्तरम् वड्डयर और हिमोर: में रहे हुए 'ल्ल' के स्थान पर 'हूँ' का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:-शुल्लक, में स्थित 'घोष अल्प आण' प्रयत्न वाले अक्षरों के स्थान पर देशज शब्दों में 'घोष महाप्राण प्रश्न वाले अक्षरों का अस्तित्व देखा जाता है; अर्थात् वर्गीय तृतीय अक्षर के स्थान पर चतुर्थ मझर का सद्भाव पाया जाता है; जैसे:गायनः धायणो : बढ़ो और फफुवम् ककुषं इत्यादि । अन्य देशज एवं रूढ़ शब्दों के कुछ एक उदाहरण इस प्रकार हैं:--अकाण्डम् अत्यषक: ज्जावती लज्जालुइगी; कुतूहलम् = कु चुतः मायन्दो; कोई कोई ब्याकरणाचार्य देशज शब्द मायन्दी का संस्कृत रूपान्तर माकन्दः भी करते है । सर्वया रूढ नेवाज शब्द इस प्रकार है:विष्णुः भट्टियो मवशानम् करसी; असुरा: खेड; पौष्परजः तिगिच्छि; विनममलं समर्थ: एक्कलो; पण्डकः लच्छो; कर्पास: पलही; बली उज्जलो; ताम्बूलम् असुरं पुइवली = छिछिई; शाखा = साली इत्यादि । बहुलम् अर्थात् वैकल्पिक पक्ष का उल्लेख होने से 'गौ' का 'गउओ' रूप भी होता है; यह स्थिति अन्य शब्द रूपों के सम्बंध में भी जानना । संस्कृत शब्द 'गोला' से वेशज शब्द 'गोला' बनता हूं और 'गोदावरी' से 'गोआवरी' बनता है । अनेक वेशन शकर ऐसे हैं जो कि महाराष्ट्र प्राप्त और विदर्भ प्रान्त में बोले जाते हैं; प्रांतीय भाषा अमित होने से इनके "संस्कृत-पर्यायवाचक शब्द" नहीं होते हैं। कुछ एक उदाहरण इस प्रकार है-हित्य ललक, विहिर, पञ्चडिभ, उध्येश्ड, मडप्फर, पड्डिहर, अट्टम बिह्वप्फड अनल, हल्लम्फल्ल इत्यादि ऐसे कुछेक प्रान्तीय रूढ़ क्रिया शब्दों के इसी तरह से कृष्ट, घृष्ट, वाक्य एवं क्विप प्रत्ययान्त शब्दों का से अगया खेल का अर्थ प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से जाना जा सकता है। अर्थ भी प्रान्तीय जनता के बोल-चाल के व्यवहार से ही जाना जा सकता है। विद्वस, वाचस्पति, विन्टर अवस्, प्रचेतस् प्रोक्त और प्रोत इत्यादि शब्दों का कि- अग्निचित्, सोमसुत्, सुम्ल और सुम्ल इत्यादि ऐसे शब्दों का तथा पूर्ववर्ती कवियों ने जिन शब्दों का प्रयोग नहीं किया है उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इसने अर्थ क्लिष्टतर तथा प्रतीति विषमता जैसे दोषों की उत्पत्ति होती है। अतएव सरल शब्दों द्वारा अभिषेय अर्थ को प्रकट करना चाहिए । कृष् के स्थान पर 'कुशल'; वचस्पति के स्थान पर 'गुरु' और विष्टर वा के स्थान पर 'हरि' जैसे सरल शब्दों का प्रयोग किया जाना चाहिये। घुष्ट शय के साथ यदि कोई उपसर्ग जुड़ा हुआ हो तो इसका प्रयोग किया जाना वांछनीय हो । जैसे:-मंबर-तर-परिघृष्टम् मन्दश्य परिघट्ट दिवस निघुष्टाना सि-निहट्ठाण इत्यादि इन उदाहरणों में 'घुण्ड = घट्ट wear हरु प्रयुक्त किया गया है. इसका कारण यह है कि 'वह' के साथ कम से 'परि' एवं 'नि' उपसर्ग जुड़ा हुआ है; किन्तु उपसर्ग रहित अवस्था में 'घृष्ट' का प्रयोग कम ही देखा जाता हूँ। आषं प्राकृत में घुष्ट का प्रयोग देखा जाता है; = * प्राकृत व्याकरण * A Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [४७३ इसका कारण पूर्व-वर्ती परम्परा के प्रति भार-भाव ही है । जो कि अविरुव स्थिति वाला ही मामा जायमा । जैसे:पृष्ठ पछा; मष्टा == मठा विद्वांसः विउसा; भूत-लक्षमानुसारेण = सुअ-लक्क्षणानुसारेग और बास्यास्तरेषु च पुनः = वान्तरे सु अ पुणो इत्यादि आर्ष प्रयोग में अप्रचलित प्रयोगों का प्रयुक्त किया जाना मनिष स्थिति बाला ही समझा जाना चाहिये । गौः संस्कृत रूप। इसके आर्ष-प्राकृत रूप गोणो और माबी होते हैं। इनमें से प्रथम स त्रसंख्या २-१७४ से 'गो' के स्पान पर 'गोण' रूप का निपात और ३.२ से प्रपमा विभक्ति के एक बचन में सकारान्त पुल्लिग में "सि प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रवर रूप गोणो सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप-(गो:-) गावी में पत्र-संख्या २-१५४ से 'गो' के स्थान पर 'गाव' रूप का निपात; ३-३२ मे स्त्रीलिंग-अयं में प्राप्त निपात रूप 'गाव (दी ; मी मा मात्र स्वर 'डी' में 'इत् संसह होने से 'माव' में स्थित अन्त्य 'अ' का लोप; १-१ से प्राप्त रूप 'गा' के अन्स्य हलन्त '' में प्राप्त प्रत्यय ' को संधि और १-१ से अन्य पान रूप विसर्ग का लोप होकर द्वितीय रूप गाधी सिद्ध हो जाता है। गावः संस्कृत बहुवचनान्त रूप हैं। इसका पार्ष प्राकृत रूप गावीस होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से 'गों में स्थान पर 'गाव' का निपात; ३.३२ से प्राप्त निपात रूप 'गाव' में सीलिंग अर्य में 'की' प्रत्यय की प्राप्तिा प्राप्त प्रत्यय 'को' , 'इ' इस्संज्ञक होने से प्राप्त निपात कप पाव' में स्थित अस्प 'म' को संज्ञा होने से लोपः १.५ से प्राप्त का 'गा' के अन्त्य हलम्त '' में प्राप्त प्रत्यय ''को संलि और ३-२७ से प्रपमा अथवा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'अस्' अथवा 'शस्' के स्थान पर प्राक्त में 'नो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर गावीओ रूप सिद्ध हो जाता है। बलीबई। संस्कृत रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप बास्सो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण रुप 'बलीवई' के स्थान पर 'महल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में महारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मी' प्रत्यय हो शान्ति होकर बहल्लो रूप सिद्ध हो जाता है। आप: संस्कृत निस्य बहुवचनात रूप है। इसका देश प्राकृत रुप बास होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण रूप 'आप' के स्थान पर 'आउ' कप का निपात; ३-२७ से स्मोलिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जम्' का लोप और वैकल्पिक पस में ३-० से हो अन्त्य हब स्वर 'ज' को शोध स्वर ''की प्राप्ति होकर आऊ रूप सिद्ध हो जाता है। पञ्चपञ्चाशत् संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है । इसके देशज प्राकृत रूप पञ्चावला और पनपन्ना होते हैं। इनमें सूत्र-संस्था २-१७४ से संपूर्ण रूप 'पञ्चाशत्' के स्पाम पर 'पञ्जावमा' और 'पपमा' स्पों का कम से एवं धकल्पिक रूप से निपात होकर दोनों रूप पंचावण्णा पणपन्ना सिब हो जाते हैं। त्रिपञ्चाशत् संस्कृत संख्यात्मक विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप तेवाना होता है। इसमें मूत्र. संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप त्रिपञ्चाशत् के स्थान पर वेशज रात में सेवाणा स का निपात होकर सेषण्णा रूप सिद्ध हो जाता है। . Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] ● प्राकृत व्याकरण त्रिचत्वारिंशत संस्कृतात्मविधेषण रूप है। इसकृत रूप तेल सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत परिवार के स्थान पर देशज प्राकृत में खालीसा searलीला रूप सिद्ध हो आता है । १६ से संचि २७९ व्युत्सर्गः संस्कृत रूप है। इसका अर्थ-प्राकृत रूप विसग्गो होता है। इसमें सूत्रनिवेश होने से संस्कृत-संधि रूप ब्यु' के स्थान पर अभि कप से 'वि' की प्राप्ति २-७३ सेतु' का से रेप'' डोप २-८९ सेपर' के पश्चात् शेष रहे 'य' के स्थान पर द्विस्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारात पुल्किा में निप्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विउसग्गो रूप सिद्ध हो जाता है । होता है। इसमें रूप का निवास इयुत्सर्जनम् संस्कृत रूप है। इसका वेदाज प्राकृत रूप दोसिणं होता है। इसमें सूत्र- २१७ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'ब्यूसर्जन' के स्थान पर बेशन प्राकृत में 'बोर' रूप का निपात २२८ से 'न' के स्थान पर '' की प्राप्ति ३२५ से मि के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत रूप बोसरणं सिद्ध हो जाता है। बथुनं संस्कृत अध्ययरूप है। इसका देशज प्राकृत रूप बहिया होता है। इसमें संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप में के स्थान पर देशम प्राकृत में 'महिला' रूप का निपात होकर बहिछा रूप सिद्ध हो जाता है कार्यम् संस्कृत कम है। इसका बेज प्राकृत रूप णामुश्कलिमं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कार्य' के स्थान पर वेशन प्राकृत में 'यापुक्कति' रूप का निपातः २-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुंसक लिय में 'तिः प्रत्यय के स्थान पर ' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देवान प्राकृत अपणामुस्कसि सिद्ध हो जाता है। क्वचित् संस्कृत अव्यय रूप है. इसका देशज प्राकृत रूप पूर्ण संस्कृत रूप चित् के स्थान पर सेशन प्राकृत में 'कर' ता है। अपस्मारः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप संस्कृत रूप 'अपस्मार' के स्थान पर वैशन प्राकृत में 'ई' रूप का कश्यद होता है। इसमें सूत्र संख्या - १७४ से का निवास होकर कत्थइ रूप सिद्ध हो उदहति संस्कृत सकर्मक क्रिया का है। इसका बेशक प्राकृत रूप मुख्य होता है। इसमें सूत्रसं २-१७४ से आदि वर्ष'' मे गम्' का निपातः २०७० से हन्त व्यञ्जन '' का लोन २-८९ से '' रहे हुए 'व' को दिव्य को प्राप्ति और ३-१३९ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बेवाज प्राकृत रूप मुख्य सिद्ध हो जाता है। को होता है। इसमें सूत्र- २ १७४ से संपूर्ण पक्ष और से प्रथमा विभक्ति में एक Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - वचन में अकारान्त पुलिला में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वेवाज प्राकृत रूप चम्हलो सिब हो जाता है। उत्पलम् संस्कृत रूप है इसका देशज प्राकृत रूप कन्युट्ट होता है । इसमें मूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'उत्पल' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'कन्ट्र' रूप का निपत ३.५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक किम में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय को शनि और १-२५ से प्राप्त 'म्' का मनुस्वार होकर बेशन प्राकृत रूा कन्ट सिद्ध हो जाता है। धिकाधिक संस्कृत अध्यय रूप है। इसके देशज प्राकृत रूप छि छि और धिद्धि होते हैं। हम बत्र-संख्या २.१७४ से संपूर्ण संस्कृत पिक धिक' के स्थान पर वेशज प्राकत में कि छि' और 'धिद्धि' का कम से एवं वैकल्पिक रूप से निपात होकर दोनों रूप छिछि और विद्धि सिद्ध हो जाते हं । धिगस्तु संस्कृत अध्यय रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप घिरत्य होता है । इसमें पत्र-संरूपा २-१७४ से 'ग' वर्ष के स्थान पर प्राकृत में 'र' वणं का निपात: २.४५ से संयुक्त जन स्त' के स्थान पर '' आश; २-८९ से आवेश प्राप्त 'म्' का द्वित्व 'थम्' और २-९० से प्राप्त पूर्व 'यू' के स्थान पर त्' को प्राप्ति होकर देशज प्राकृत धिरत्शुरूप सिस हो जाता है। पडिसिद्धी और पाडिसिद्धी रूपों की सिदि सूत्र-संख्या १-५४ में की गई है। स्थासकम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका वेशा अथवा आर्ष प्राकृत रूप चरित्र में होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत हास्यासक' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'चश्चिक' रूप का निपात; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारात नमक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशा प्राकृत परिच रूप सिद्ध हो जाता है। निलयः संस्कृत रूप है। इसका देशम प्राकृत रूप निहलग होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रुप निलय' के स्थान पर वेशप्र प्राकृत में निहेल' रूप का निपात; ३-२५ से प्रपमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक सिर में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर देशज प्राकृत निहलणं रूप सिद्ध हो जाता है। मघवान् संस्कृत रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप मघोणो होता है । इसमें सूत्र संख्या २-१७४से संपूर्ण संस्कृत रूप मघवान्' के स्थान पर वेशन प्राकृत में 'मनोण रूप का निपात; और ३.२ से प्रणमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्पय को प्राप्ति होकर वेशम प्राकृत मघोणो रूप सिद्ध हो जाता है। साक्षिणः संस्कृत बहुवचमा विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सरिक्षणो होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; २-३ से 'क' के पान पर 'बको प्राप्ति; २.८९ से प्राप्त 'व' को नित्य 'ख' की प्राप्ति ३-९० प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर' की प्राप्ति और ३-२२ से ( संस्कृत Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] मूल शब्द साक्षिन में स्थित अन्य प्राकृत में 'गो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सक्खिणो रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण * न्' में प्राप्त ) प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में 'जन्' प्रत्यय के स्थान पर जन्म संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप जम्मणं होता है। इसमें सूत्र- पंख्या २-६१ से 'म' स्थान पर 'म' की प्राप्तिः २०८९ से प्राप्त 'भ' के स्थान पर द्वित्व म' को प्राप्तिः २ १७४ से प्राप्त रूप 'जन्म' मे अन्य स्थान पर 'ग' का आगम कर निपाल ३०२५ से प्रथमा विभक्ति एकवचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर '' प्रत्यय की प्राप्ति र १-२२' का अनुस्वार होकर जम्मर्ण रूप सिद्ध हो जाता है । महान संस्कृत विशेषण रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप महन्ती होता है। इसमें सूत्र संख्या ९-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' को २१०४ से प्राप्त रूप 'महन के अन्त में आगमप'' का निवास और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'ति' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महन्तो रूप सिद्ध हो जाता है । भवान् संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप भक्ती होता है | इसको साधनिका उपरोक्त महान महन्त रूप के समान ही होकर भवन्तो रूप सिद्ध हो जाता है । आशी संस्कृत रूप है। इसका देश प्राकृत रूप आसीसा होता है। इसमें सू-१-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति १-११ से अन्य ध्यज्जन रूप विसर्ग का लोन २-२७४ से प्राप्त रूप 'असो' के अन्त में मागम रूप 'सू' का निपात और २-३१ की वृत्ति से एवं हेम व्याकरण २-४ सेलिंग अर्थ में अन्त में 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आसीसा रूप सिद्ध हो जाता है । २-१२६ से २-१७४ मे 'ह' के स्थान पर द्विव १-१८० से हुए के एकवचनम अकात नपुंसकलिंग बृहतरम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका बेशन प्राकृत रूप बहुवरं होता है इसमें 'शु' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति १-२३७ से 'ब' के स्थान पर व' की प्राप्ति '' की प्राप्ति २-७७ से प्रथम हलन्त 'त्' का लोप १-१७७ से द्वितीय 'तुका रहे हुए' के स्थान पर 'य' को प्राप्ति ३२ विभक्ति पश्चात् में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर में प्रत्यय की प्राप्ति और १-२२ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर वड्डयरं रूप सिद्ध हो जाता है। हिमोर संस्कृत रूप है। इसका वेशअ प्राकृत रूप भिमोरी होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से 'ह' के स्थान पर 'भ' की प्राप्ति और ३-२ मे प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में सि' स्वय के स्थान पर 'ओ' प्रश्यय की प्राप्ति होकर भिमोरो रूप सिद्ध हो जाता है । क्षुल्लकः संस्कृत विशेषण रूप हूं। इसका प्राकृत रूप बुडुओ होता है । इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २-१७४ से द्विर हेल' के स्थान पर द्विस्व 'ड' की प्राप्ति १-१७७ से ''कालोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति ! H i Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित होकर सिद्ध हो जाता है घायणो सूत्र गायन: संत रूप है। इसका देश प्राकृत रूप होता है। इसमें संख्या २-१७४ सेके के स्थान पर च' की प्राप्ति २-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की और वन में अकारांत पुल्लिंग में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ३-२ प्रथमा विभक्ति के एक पण रूप सिद्ध हो जाता है। [ ४७७ षडः संस्कृत कय है। इसका देशज प्राकृत रूप बडो होता है। इसमें सूत्र संख्या २१७४ से 'ब' के स्थान पर ' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वढो रूप सिद्ध हो जाता हूँ । ककुदम संस्कृत रूप है। इसका बैशज प्राकृत रूप ककुधं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से '' के स्थान पर 'घ' की प्राप्ति २-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाल नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के धान परम् प्रत्यय की प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुरूप सिद्ध हो जाता है। प्राकृत रूप अत्थकं होता है। इसमें संख्या २-१७४ '१-२५ प्रथमा विभक्ति के अकाण्डम् संस्कृत रूप है इसका संपूर्ण संस्कृत शब्द 'अकाण्ड' के स्थान पर बेश एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ सेप्तम्' का अनुस्वार होकर अत्थकं रूप सिद्ध हो जाता है। लज्जावती संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देश २-१७४ से वाली' अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'वती' के स्थान पर लज्जालुणी रूप सिद्ध हो जाता है। प्राकृत रूप लज्जालु होता है। इसमें सूत्र संख्या प्राकृत में मुहणी प्रत्यय का निपात होकर कुतूहलम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप कुछ होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'कुतूहल' के स्थान पर वेशज प्राकृत में 'कुछ' रूप का निपातः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' प्रत्यय का अनुस्वार होकर कुछ रूप सिद्ध हो जाता है। चूतः संस्कृत रूप (मानवाचक ) है इसका देशज प्राकृत रूप मायबो होता है | इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण 'सायद' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभति के एक वचन में अकारान्त पुलिस में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' प्रथम को प्राप्ति होकर मायन्ती रूप सिद्ध हो जाता है। माकन्दः संस्कृत रूप है। इसका देशन प्राकृत रूप मामम्बी होता है। इसमें सूत्र खोप ११८० सोप हुए के पश्चात् रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'जो' प्रत्यय की प्राप्ति सिद्ध हो जाता है। संख्या १-१७७ से और ३-२ से प्रथमा होकर मायन्तो रूप Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८] * प्राकृत व्याकरण * विष्णु संस्कृत रूप है । इसका वेशज प्राकृत रूा भट्टिो होता है । इसने सत्र संख्या २.१७४ सं संपूर्ण संस्कृत शब्द 'विष्णु के स्थान पर देशज प्राकृत में 'भट्टिम रूम का निपात और ३.२ से पथमा विभक्ति के एक बचन में सकारात पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर भट्टिओ रूप सिद्ध हो जाता है। इमशानम् संस्कृत रूप है । इसका येशज प्राकृत रूप करसी होता है। इसमें सूत्र-संख्या -19४ से मंपूर्ण संस्कृत शब्द 'मशानम्' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'करसी' रूप का निपात होकर करसी रूप सिद्ध हो जाता है । असर: संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप अगया होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से सम्पूर्ण संस्कृत शम्च 'असुराः' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'गया' रूप का निपाप्त होकर गया का सिद्ध हो जाता है। खेलम् संस्कृत रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप शेड होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२५४ से 'ल' वर्ण के स्थान पर देशज प्राकृत में द्वित्व 'ई' का नित, ३-२५ से श्यमा विभक्ति के एक वचन में सकारात नपुस साला में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर खेदडं रूप सिद्ध हो जाता है। पीध्य-रजः ( पुष्प-रमः ) संस्कृत रूप है। इसका वैशन प्राकृत रुप तिपिछ होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-१७४ से सम्पूर्ण संस्कृत शव पौर्ण-रज' के स्थान पर देशम प्राकृत में सिङ्गिविक रूप का निपात होकर तिमिछि रूप सिद्ध हो जाता है। दिनम् संस्कृत रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप अल्लं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शब्द :दिन' के स्थान पर देशा प्राकृत में 'अल्ल' रुप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति में एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सिप्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' प्रल्पय का अमुस्वार होकर अल्ल रूप सिद्ध हो जाता है। समर्थः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका देशज प्राकृत रूप पालो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण 'एक्कल' रूप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पक्कली रूप सिद्ध हो जाता है। पण्डकः संस्कृत रूप है । इसका वेशज प्राकृत रूप णेलच्छो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.१७४ से संपूर्ण संस्कृत शम्ब 'पण्डक' के स्थान पर देशम प्राकृत में 'लन्छ' रूप का निपात और ३.२ से प्रथमा विभक्ति के एक वमन में सकारान्त पहिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर णेलच्छो रूप सिद्ध हो कर्यासः संस्कृत स्प है। इसका देशज प्राकृत रूप पलही होता है। इसमे सूत्र संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत शम 'कस' के स्थान पर देशज प्रस्तृत में 'पलही रूप का निपात और ३-१ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में वीर्ष ईकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर दोघं 'ई' को यया रुप दीर्घ 'ई' को स्थिति प्राप्त होकर Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४७६ पलही रूप सिद्ध हो जाता है। बली साकुन विशेषण रूप है। इसका देशम प्राकृत रूप उउजल्लो होता है। इसमें सूत्र-संहपा -१५४iसे संपूर्ण संस्कृत शब्द 'बली' के स्थान पर देशण प्राकृत में 'उरजल्ल' रुप का निपात और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पलिग ने 'सि' प्रत्यय के सान पर 'श्री' प्रत्यय को प्राप्ति होकर उजालो रूप सिद्ध हो जाता है। ताम्बूलम् संस्कृत रूप है । इसका देशन प्राकृत रूप लसुरं होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ ते संपूर्ण संस्कृत का 'ताम्बल' के स्थान पर देशज प्राकृत में 'झसुर' रूप का निपात; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर म्' प्रत्यय प्राप्ति और१-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर झसुरं रूप सिद्ध हो जाता है। पुंश्चली संस्कृत रूप है। इसका वेशज प्राकृत रूप छिई होता है। इसमें मूत्र-संख्या २-१७४ से संपूर्ण संस्कृत रूप 'पुश्चली' के स्थान पर देशज प्राकृत में छिछई' रूप का निपात और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में वीर्घ ईकारान्त स्त्रोलिा में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्य दोघं 'T' को यया रूप स्थिति को प्राप्ति होकर छिछई रूप सिद्ध हो जाता है। _शाखा संस्कृत रूप है। इसका देशन प्राकृत रूप साहलो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१७४ संपूर्ण संस्कृत रूप 'शाखा के स्थान पर वैवाज नाकत में 'साहुली' रूप का निपात और ३.१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन दीर्घ ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यष सिके स्थान पर अन्त्य दीर्घकी या रूप स्थितिको प्राप्ति होकर सहिला रूप सिद्ध हो जाता है। गउओ रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-१४ में की गई है। गोला संस्कृत रूप है । इसका देशज प्राकृत रूप भी गोला ही होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२१ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त स्त्रीलिंग में प्राप्त संसहत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय प्रत्यय रूप विसर्म बदलत रुपन्जम रूप होने से-सोप होकर गोला सिम होता है। गोदावरी संस्कृत रूप है । इसका वेशज प्राकृत रूप गोवरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'ई' का लोप; और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में वीर्ष इकारान्त स्वीलिंग में संस्कृत प्रत्यय सिरे स्थान पर अन्य वीर्घ 'ई' की यया रूप स्थिति की प्राप्ति होकर गोआवरी रूप सिद्ध हो जाता है। आहित्य, लस्लपक, विडिर, पञ्चडिम, उप्पेहर, मडम्फर, पाबुग्छिर, अट्ट मट्ट, बियफ्फर, और ह म इत्यादि शम्प सर्वपा प्रान्तीय होकर रूढ अर्थ वाले हैं। अत. इनके पर्यायवाची शारों का संस्कृत में ममार है; किन्तु इनकी अर्थ-प्रधानता को लेकर एवं इनके लिये स्थानापन शादों का निर्माण करके काम चलाऊ सायमिका निम्न प्रकार से है: Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० ] * प्राकृत व्याकरण * विलितः, कुपित: अथवा नकुलः संस्कृत विशेषण रूप है। इनके स्थान पर प्रान्तीय भाषा में 'आहियो' कप का निपाल होता है इस संख्या ३२ से श्वमावि के एक वचन में अकारान्त पुड में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर आहित्यो कह रूप सिद्ध हो जाता है । भीष्मः अथवा भयंकर संस्कृत विशेषण है। इनका प्रान्तीय भाषा रूप ल्लवको होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से भूल संस्कृत रूप भीष्म अथवा भयंकर के स्थान पर रूद्र रूप 'लव' की प्राप्ति और ३-० से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'लो' प्रत्यय को प्रप्ति होकर रूप लक्की सिद्ध हो जाता है। के एक आनकः (वाब- विशेष ) संस्कृत रूप है। इसका प्रातीय भाषा रूप बिडिरो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत रूप अनक' के स्थान पर रूह रूप 'विडिर की प्राप्ति और २ सेम वचन में अकारान्त पुलिस में 'सि' कीड हो जाता है। के क्षरितः संस्कृत विशेषण रूप है उपरोक्त 'विद्विरो' के समान ही होकर पकडिओ रूप सिद्ध हो जाता है। इसका प्रान्तीय भाषा र पडियो होता है। इसकी सानिका भी उद्भट: संस्कृत विशेषण रूप हूँ। इसका प्रान्तीय भाषा रूप उप्पेडो होता है। इसको साधणिका भी उपरोक्त 'बिडिरों' के समान ही होकर उच्चहेंडी एक रूप सिद्ध हो जाता है। गर्वः संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा रूप भडकरी होता है। इसको साधनिका भी उपरोक्त 'बिट्टिने' के समान ही होकर मडप्फरी रु रुप सिद्ध हो जाता है। सह संस्कृत रूप है। इसका प्रान्तीय भाया रूप पछि होता है। इसमें संख्या २-१७४ से मूल संस्कृत शब्द 'सह' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में 'पडिच्छिर' रूद्र रूप का निपातः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक बस में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का बनुस्वार होकर रूप पद्ध हो जाता है। आठवाल संस्कृत रूप है। इसकी प्रांतीय भाषा रूप दृष्ट होता है इसकी साधना उपरोक्त पक्रि के सामान ही होकर रूप अट्टम सिद्ध हो जाता है। व्याकुल: संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्रातीय भाषा रूप बिडकडो होता है। इसकी सानिका उपरोक्त 'बिट्टिये' के समान ही होकर रूप विहडफडो सिद्ध हो जाता है। होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त परिि औत्सुक्यम् संस्कृत प है 'डर' के सम्मान ही होकर रूढ रूप हठ रूप है। इसका प्रान्तीय भाषा कब के समान होकर कड का सिद्ध हो जता है । इसका प्रान्तीय भाषा रूप हलाल होता है। इसकी सामनिका उपरोक्त सिद्ध हो जाता है। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [ ४८१ दिलण्यति संस्कृत सपा का रूप है। इसका प्रासोर भाषा रूप जबपास होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १७४ से मूल संस्कृत रूप 'लिब्' के स्थान पर प्रा-तोष भाषा में रूद्र रूप 'अवयास' का निपात ४-२३९ से प्राप्त रूप अवयास' में संस्कृत गण वाचत 'य' विकरण प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'अ' वितरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१३९ वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्र प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ वाचक रूप जययासह सिद्ध हो जाता है। उत्पाटयति अथ कथयति संस्कृत मे किया का क है इसका प्रान्तीय भाषा रूपम्फुलाई होता है। इसमें सूत्र संख्या २ १७४ से मूल संस्कृत रूप 'उत्पाद' अथवा 'क' के स्थान पर प्रान्तीय भाषा में एक रूप 'फुम्फुल्ल का निशत ४-२३ संस्कृतगण वाचक 'जय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर वर्तमानकाल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृतप्र प्रस्कृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३१३९ 'लि' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूढ अर्थ' वाचक रूप फुम्फुल्लड़ सिद्ध हो जाता है। उत्पाटयति संस्कृत सकर्मक क्रिया पद का रूप है। प्रान्तंय भाषा उफा होता है। इसमे संत रूप 'उत्पाद के स्थान पर प्रान्तीय सूत्र संख्या २१०४ ये भाषा में रूद्र रूप उत्पाद का निवाल ४-२३९ से प्राप्त रूढ़ रूप उकाल' में संस्कृत गण-वाचक 'अय' विकरण प्रत्यय के स्थान पर देश प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्तिः ३.१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर '' की शाप्ति और ३-१३९ वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रश्यम लि' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'रूद्र-अर्थ' वाचक रूप उप्फालेह सिद्ध हो जाता है । मन्डरसट परिवृष्टम स्कुल विशेषणात्मक वाक्यांश है इसका प्राकृत रूप मन्वर-परिषद्ध होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'त्' का लोपः १-१८० से सीप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति १-१९५ से प्रथम 'ट' के स्थान पर 'ड' को प्राप्ति १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २३४ सेके स्थान पर '४' को प्राप्ति २-८९ से प्राप्त '७' को दिव्य 'ठ' को प्राप्ति २.९० से प्राप्त पूर्व 'कू' के स्थान पर 'है' की प्राप्तिः ३०५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'में' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' कर अनुस्वार होकर मन्दर पद-परिषसिद्ध हो आता है। दिवस- निष्टाः संस्कृत विशेषणात्मक वाक्यांश है इसका प्राकृत निर्णय होता इस सूत्र संख्या १-१७७ से व् का लोपः १-२२६ से' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति १-१८० से प्राप्त 'प' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति २-३४ सेके स्थान पर 'द' की प्राप्ति २-८९ से '' की द्विस्य की प्राप्ति और २.९० से प्राप्त पूर्व के स्थान पर 'टू की प्राप्ति २-२२८ द्वितीय स्थान पर ' की प्राप्ति १-१० से अनुस्वार के स्थान पर आगे थीय 'ग' होने से पंचमाक्षर रूप ' की प्राप्ति और १-२ से प्रथम मिति के एक वचनं में अकारान्त पुलिस में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तदित निहाएंगी रूप सिद्ध होता है। Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२) 2 प्राकृत व्याकरण * भृष्टाः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत .प घटठा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से '' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; २-३४ से 'ष्ट्' के स्थान पर को प्राप्ति; २.८९ मे प्राप्त 'इ' को द्विरक 'इ' को प्राप्ति; २.९० से प्राप्त पूर्व ह' के स्थान पर 'ट्' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के मह वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस' प्रस्पय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ'को दीर्घ स्वर 'आ'को प्राप्ति होकर घरठाप सिद्ध हो जाता है। मृष्टाः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मट्ठा होता है। इसकी साधानका उपरोक्त धृष्टाः = घा रूप में प्रयुक्त सूत्रों से होकर मट्ठा रूप सिद्ध हो जाता है। विद्वांसः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विउसा होता है । इसमें सूत्र संख्या २.१७४ से विद्वान अयन्त्रा "विस्' के स्थान पर 'विउस' रूप का निपात; २-४ से प्रथमा विभक्ति के अनु वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसका लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को योध स्वर आ' की प्राप्ति होकर चिंउसा रूप सिद्ध हो जाता है। श्रत-लक्षणानुसारणं संस्कृत वाक्यांश रूप है। इसका प्राकृत रुप सुअ-लश्खमाणसारेण होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'भू' में स्थित 'र' का लोप; १२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हए 'श' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति १-१७७ से 'त' का लोप; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति, २.८९ से प्राप्त Bएको विस्व '' को प्राप्ति; २०१० से प्राप्त हुए पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' को प्राप्तिः १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति ३-६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय रूप 'ण' के पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर "ए' को प्रारित होकर मुझ लक्खणाणुसारेण रूप सिद्ध हो जाता है। वाक्यान्तरेषु संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वरकन्तरेसु होता है । इसमें सूत्र संख्या १.८४ से प्रथम बोध स्वर 'आ' के स्थान पर हुस्व स्वर 'अ' को प्राप्ति, २०७८ से 'य' का लोप; २.८९ से लोप हए 'य' के पश्चात् शेष रहे हए 'क को द्वित्व 'क्क को प्राप्ति १-४ से प्राप्त 'का' में स्थित वीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर हस्व स्वर 'म' की प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति अपवा ३-१५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्सिग में प्राप्त प्रत्यय 'सुप्-सु' के पूर्व में स्थित अपत्य 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर पक्कन्तरेसु रूप सिद्ध हो जाता है । 'अ' अव्यय की सिदि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। पुनः संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप पुणो होता है। इसमें पत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्पान पर 'ज' की प्राप्ति और १-३७ से वितर्ग के स्थान पर 'श्री-बो को प्राप्ति ; प्राप्त वर्ण'ओ' में '' इरसंज्ञक होने से पूर्व में स्थित 'न' व्यऊजम के अन्त्य 'अ' की इत्संशा; एवं १.५ से प्राप्त हलन्त 'म्' में विसर्ग स्थानीय 'ओ' की संधि होकर पुणो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१७४।। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [४८३ अव्ययम् ॥२-१७५ ॥ अधिकारीयम् । इतः परं ये बक्ष्यन्ते आ पाद समाप्ते स्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः ॥ अर्थ:-यह सूत्र-अधिकार-वाचक है; प्रकारान्तर से यह सूत्र-विवेसमान विषय के लिपे शीर्षक रूप भी कहा जा सकता है। क्योकि यहां से नवीन विषय रूप से 'अध्यय-शम्मों' का विवेचन प्रारम्भ किया जाकर इस द्वितीय पाच की समाप्ति तक प्राकृत-साहित्य में उपलब्ध लगभग सभी अध्ययों का वर्णन किया जायगा। अतः पाव-समाप्तिपर्यन्त जो शम्न कहे जांयगें; उन्हें 'अव्यय संज्ञा' वाला जानना । तं क्योपन्यासे ॥२-१७६॥ तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम् । ततिअस-बन्दि-मोक्वं ॥ अर्थ:-'त' शब्ब भव्यय है और यह वाक्य के प्रारंभ में शोभारूप से अलंकार रूप से प्रयुक्त होता है। ऐसी स्थिति में यह अध्यय किसी भी प्रकार का अर्थ सूवक नही होकर कंवल अंलकारिक होता है इस केस साहित्यक परिपाटी ही समझना चाहिए। जैसे:-त्रिवश-बंकिमोक्षम् = तं तिअस-बंदि मोक्तं | इस उदाहरण में संस्कृत रूप में 'त' पाचक शब रूप का अभाव है। किन्तु प्राकृत रूपान्तर में 'त' की उपस्थिति है। यह उपस्थिति योभा स्प हो है। अलंकारिकही है कि किसी विशेष-सात्पर्य को बतलाती है। यों अन्यत्र भी 'त' को स्थिति को ध्यान में रखना चाहिय । 'तं' अव्यय है। इसकी साधनिका की आवश्यकता उपरोक्त कारण से नहीं है। त्रिदश-बन्धि-मोक्षम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तिअस-बन्धि मोक्खं होता है। इसमें तत्र-संक्या २.७९ से '' में स्थिति 'र' का लोप; १-१७७ से प्रथम 'द' का लोप; १-१६. से 'श' के स्थान पर 'स' ही प्राप्ति २-३ से '' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'व' के स्थान पर द्वित्व 'रुख' को प्राप्ति; २.९० से प्राप्त पूर्व 'ब' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-५ से द्वितीमा विभक्ति के एक वचन में अहारान्त पुल्लिग में 'म प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त म्' का अनुस्वार होकर तिस-वदिमोक्खं रूप सिद्ध हो जाता है । २-१७६ । आम श्रभ्युपगमे ॥ २-१७७ || आमेत्यभ्युपगमे प्रयोगक्तव्यम् ॥ श्राम बहला वणोली ।। - अर्थ:-स्वीकार करने अर्थ में अर्थात् 'हा' ऐसे स्वीकृति-सूचक अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'ग्राम' अध्यय का उच्चारण किया जाता है। जैसे:-आप बहला वनालिः = आम बहला कणोली । हाँ, {पह) सधन बन-पंक्ति है। 'शाम' अव्यय रूप है । रक रूप वाला होने से एवं दस-अयंक होने से सानिका को आवश्यकता नहीं रह जाती है। बहला संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्रकृत रूप भी बहला हो होता है । अतएव सामनिका को आवश्यकता Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४] * प्राकृत व्याकरण* बनालि. संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रुप वणोलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति: १-८३ से 'पंक्ति वाचक' अर्थ में रहे हए 'प्रालि' शब्द के 'जा' को 'ओ' की प्राप्ति .10 से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' का, भाग 'बोली' का 'ओ' होने से लोप १५ से हलन्त 'ण' के साप 'लो' के 'ओ' की संघि, और ३-१९ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्व इकारान्त स्त्री लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्रप बष्य स्वर '' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर यगोली रूप सिद्ध हो जाता है । ||२-१७॥ एणवि वैपरीत्ये ॥२-१७८॥ णवीति परीत्ये प्रयोक्तव्यम् । रणयि हा रणे ।। अर्थ:-प्राकृत शब्द 'णवि' अध्यय है और इसका प्रयोग विपरीतता' अर्थ को प्रकट करने में किया जाता है। जैसे:-उपहेह सीमला गवि काल वण-उष्णा अत्र (तथापि)-(वि)-शीतला कदली-वने अर्थात उष्णता को अद्ध होने पर भी (वस्ती) करली मन में है। सी ा से Fra का इस प्रकार है:मावि हा वर्ग = गवि हा । वने अर्थात् खेद है कि (जहाँ पहुंचना चाहिये था वहाँ नहीं पहुंच कर) उल्टे अन में (पहुंच गये हैं) । यो विपरोसता' अर्थ में 'वि' का प्रयोग समतना चाहिये। 'वि' प्राकृता-साहित्य का (विपर सता रूप) अर्थ वाचक अपय है । तदनुसार 'सायनिका' को . आवश्यकता नहीं है। 'हा' प्राकृत-साहित्य का 'सेब' खोतक अव्यय रूप है। धने संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत १ वणे होता है । इसमें सूत्र संस्था १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३.११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत-प्रत्यष हि' के स्थान पर प्राकृत में प्रस्थय की प्राप्ति '' में ''इरसंज्ञक होने से प्राप्त 'ज' में स्थित अन्त्य 'अ' को इतसंझा और १-५ से प्राप्त हलन्त 'ए' में प्राप्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर वणे रूप सिद्ध हो जाता है । ॥२-१७८) पुणरत्त कृत करणे ॥२-१७६॥ पुरुस मिति कृत करणे प्रयोक्तव्यम् ।। भई सुप्पा पंसुलि पीसहेहिं अङ्ग हिं पुणरुत्तं ॥ अर्थ:-"किमे हए को ही करना' अर्थात बार बार अधया पारंबार अर्थ में 'पुणवत्तं' अध्यय का प्राकृत साहित्य में प्रयोग किपा जाता है । जैसे:-अह ! सुप्पा पंसुलि णोसहेहि अंहि पुणरसं अपिपाशुले ! (स्वम्) स्वपिति निःसह: अंग: वारंवार अर्थात् हे फुल्टे ! (तू) बार मार सहन कर सके ऐसे अंगों से (ही) सोती है। यहाँ पर 'सोमे-शयम करने की क्रिया बार बार की आ रही है इस अर्थ को बतलाने के लिये 'पुगस्त' अश्यप का प्रयोग किया गया है । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-पेपछ पुणवतं = (एक बारं दृष्ट्वा भूमोपि) वारंवार पश्य अर्थात् (एक बार वेल कर पुनः) बार बार देखो। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [४८५ होता है । इसमें सूत्र संस्था १-१७७ से '' आर्य संस्कृत मामंत्रणाक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप का लोप होकर अप सिडहो जाता है। स्वपिति सस्कृत अकर्मक क्रिया एव का रूप है । इसका प्राकृत रूप सुप्पा होता है । इसमें पूर्व संस्था २-६४ से २ में स्थित अ' के स्थान पर ' को प्राप्ति; २०७९ से '' का लोप; २.२८ से ' के स्थान पर हित्व 'प्प् की प्राप्ति; ४.२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'अ'विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३९ से बतमान काल के एक बचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय ति' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय को प्रारित होकर सुप्पड़ रूप सिद्ध हो जाता है। यांशुले संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पंसुलि होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से वीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' की प्राप्तिः १-२६. से 'श' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३.१६ से को लिग वाचक स्नों में रक्त प्रस्थय 'या' वाद पर पाहत में प्रत्यप की प्राप्ति होन से 'ला' वर्ण के धान एर 'लो' की प्राप्ति; मोर ३.४२ से आमन्त्रम अर्थ -संबोधन में वीर्ष स्वर के स्थान पर हस्व घर 'इ' को प्राप्ति होकर मुलि प सिद्ध हो जाता है। नि:सह निस्सह संस्कृत तृतीयात तिशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कोसहेहि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १.१३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-१३ से बिसगं रूम ध्यत्रन का लोप होने से प्राप्त 'मि' में स्थित अन्य स्वस्वर'' के स्थान पर वीर्ष पर की प्राप्तिा ३-७ से तुर्त या विभक्ति के बहु बचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिः' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय हि पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर णीसहहिं रूप सिद्ध हो जाता है। अंगैः संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप धहि होता है । इसमें सत्र संख्या 1-10 से अनुसार के स्थान पर आपे क पीय 'ग' वर्ण होने से क वर्गीय पंचयामर रूप 'इ' को प्राप्ति; ३-३ से तृतीय विमस्तियह वचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में "ह' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि' के पूर्व में स्थित अस्प 'ब' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर अंकहिं रूप सिद्ध हो जाना है। 'पुणतत' प्राकृत अन्यय रूप है । सद्ध-म होने से इसकी सानिका को आवश्यकता नहीं है ॥२-१७९॥ हन्दि विषाद-विकल्प पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ॥२-१८०॥ हन्दि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम् ।। हन्दि चलणे णश्री मो श माणिनी हन्दि हुज्ज एचाहे। इन्दि न होही भगिरी सा सिज्जई हन्दि तुः कज्जे ॥ इन्दि । सत्यमित्यर्थः ।। अर्थ:--'हन्छि' प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अम्पय हैं । जब शिवार' अर्थात् 'पाख करना हो। अयमा कोई कापमा करनीही अमवा पश्चाताप बस करना हो। मबना किसी प्रकार का विषय Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६] प्रकट करना हो; अथवा किसी प्रकार के "सत्य" की अभिव्यक्ति करनी हो तो "हन्दि" अव्यय का प्रयोग किया जाता हे प्रयुक्त 'हरिद' को देखकर प्रसंगानुसार उपरोक्त भावनाओं में से उपयुक्त 'भावना' सूचक अर्थ को समझ लेना चाहिये। उदाहरण इस प्रकार है: * प्राकृत व्याकरण * संस्कृत:- हन्दि (विना-अर्थ) पर नतः स न मानितः वि (विकल्प अर्थ ) भविष्यति इदीनाम् हन्दि (पाप) - न भविष्यति मानवीसा साविति हवि (वय अ-सपाचवा) तकायें | प्राकृत-हृदि चणेन सोमाणिओ कि एला । हन्दि न हो हो भणिरी साजिद हन्दि तुह हिन्दी अर्थ - कि उस (नायक) ने उस (नायिका) के पैरों में नमस्कार किया गया तो भी उस (नायिका) ने उसका सम्मान नहीं किया अर्थात् यह (नायिका) नरम नहीं हुई। ज्यों को स्पों रूठी हुई ही रही। इस समय में अब यर होगा ? यह पश्चाताप की बात है कि वह (गायिका) बातचित्त भी नहीं करेगो एवं निलय हो तुम्हारे कार्य में वह नहीं पसीजंगा । 'हृन्दि' अध्यय का अर्थ 'यह सत्य ही है' ऐसा भी होता है । 'हदि' प्राकृत साहित्य का रुद्र अर्थ है। अतः सावनिक की बयकता नहीं है। चरणे संस्कृत सप्तम्यन्तरूप है। इसका प्राकृत कर चल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२५४ सेके स्थान पर ''३-११से विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय' के स्थान पर प्रकृत में 'क' प्रत्यय की प्राप्ति'' में एक होने से में स्थित अन्य स्वर 'अ' की इशा होकर इसका कोष और १-५ से प्राप्त हलन्त जन '' में प्राप्त प्रश्यय 'ए' को संधि होकर चलणे रूप सिद्ध हो जाता है I नतः संस्कृत शिवरूप है। इसका प्राकृत रूप पर 'ग' की प्राप्ति १-१७७ से '' का लीपः १-३० से होने में पूर्व में स्थित 'अ' की इस्सा होकर होता है। इसमें संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान विसर्ग के स्थान पर 'को' आदेश प्राप्त 'डो' में 'ए' ओ रूप सिद्ध हो जाता है। 'सो' सर्वनामरूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९७ में की गई है। न संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप ण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर '' आवेश की प्राप्त होकर 'पण' प सिद्ध हो जाता है। मानतः संस्कृत विशवण रूप है। इसका प्राकृत 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १-१७७ से तू का लोप रूप पावित्री होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से १-२७ से विसर्ग के स्थान पर 'डो' आदेश एवं प्राप्त 'डो' में 'कृ' इक होने से पूर्व में स्थित 'अ' की इरा होने से लोप होकर माणिक रूप सिद्ध हो जाता है। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८७ भविष्यात संस्कृत कियापद का रूप है। इसका प्राकृत हुग्न होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-६१ से भवि के स्थान पर 'ई' आवेश; और ३-१७७ से भविष्यत्-काल-वाचक प्रत्यय 'ष्यति' के स्थान पर प्राकृत में ' धावेश को प्राप्ति होकर हुज रूप सिद्ध हो जाता है। गना रूप की मिमित्र मोहा २.१% में की गई है। न संस्कृत अध्यय है। इसका प्राकृत रूप भी 'न' ही होता है। इसमें सूत्र-संरूपा १-२२९ से 'न' का 'ग' वैकल्पिक रूप से होने से 'स्व' का अभाव होकर न रूप सिद्ध हो जाता है। भविष्यति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप होही' होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.६० से भूभव के स्थान पर 'हो' आदेश ३-१७२ से संस्कृत में प्राप्त होने वाले विध्यत-काल वाचक विकरण प्रत्यय 'रण्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' आदेश; ३-१३९ से संस्कृत प्राप्त यत्यय 'ति के स्थान पर 'इ' प्रत्यय का गवेश; और १-५ की वृत्ति से एक ही एक में रहे हए 'हि' में स्थित इस्व स्वर 'ह' के साथ प्रांगें प्राप्त प्रत्यय रूप ' की संधि होने से धोनों के स्थान पर दोध स्वर 'ई' को प्राप्ति होकर होही रूप सिद्ध हो जाता है। भणनशीला संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप भणिगे होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.१४५ से 'शीतधर्म-साधु अर्थक संस्कृत प्रत्यय 'मशील' के स्थान पर 'इर' आदेश १-१०सेज' में स्थित ब हका मागे प्राप्त प्रत्यय 'हर' को होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'ण' में प्राप्त प्रत्यय 'र'को '' को संवि ३-२९ से प्राप्त पुल्लिा रूप को स्त्रीलिंग बाधक रूप बनाने के लिये 'हो' प्रत्यय की प्राप्ति, प्राप्त प्रस्पय हो' में 'ई'इसंज्ञक होने से 'इर' के अन्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर 'अ'कालोप; १-५ से प्राप्त हलन्तर में उपरोक्त स्वोलिग वाचक वीर्घ स्वर ' को संषि और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्पान पर वीर्घ इकारान्स रूप हो ययावत् स्थित रहकर भणिरी रूप सिर हो जाता है। सा सर्व मम रूप को सिसि सब-संस्था में की गई है। स्विचाति संस्कृत अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप सिम्जह होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'व्' को लोप; २-०८ से 'य' मा लोप; ४.२२४ से 'द्' के स्यान पर द्विस्थ 'उज' को प्राप्ति; और ३-१३९ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर सिज्जड़ रूप सिद्ध हो जाता है। तुह सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है। काय संस्कृत रूप है । इसका रूप कज्जे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से वीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर इस्य 'म' की प्राप्तिः २-२४ से संयुक्त पयजन के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ज' को द्विस्व 'जज' की प्राप्ति ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय बिधान पर प्राकृत में प्रत्यय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय में इस्संझक होने से पूर्व में स्थित 'ज' अन्त्य स्वर नकी इस्संहा होकर गा Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ ] लोप और १-५ से प्राप्त हुलम्त 'ज्ज्' में नाग स्थित प्रत्यय 'ए' की संधि होकर कज्जे रूप सिद्ध हो जाता है । ।। २-१८० ।। * प्राकृत व्याकरण * हन्द च गृहाणार्थे ।।२-१८१ ॥ हन्द हन्दि च गृहणार्थे प्रयोक्तव्यम् || हन्द पलोएस इमं । हन्दि । गृहाणेत्यर्थः ॥ अर्थ:- 'जो' इस अर्थ को व्यक्त करने के लिये प्राकृत-साहित्य में 'हत्व' और 'हरिव' का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-हन्द (= गृहाण) प्रलोकय इवम् त्व! लो इमं अर्थात् लैनो इमको देखो। हच्चि गृहाण अर्थात् भो । 'हन्द' प्राकृत रूख अर्धक अव्यय है अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है । = प्रलोकय संस्कृत आशार्थक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पोएस होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७९ से 'इ' का लोपः १- १७७ से '' का लोप: २ १५८ से लोप हुए 'कू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'क' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१७३ से द्वितीय पुरुष के एक वचन में आज्ञार्थ में अथवा विध्यर्थ में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पलीएस रूप सिद्ध हो आता है । इदम् संस्कृत द्वितीया सर्वनाम हूँ । इसका प्राकृत रूप इमं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७२ से इम् के स्थान पर 'इस' आवेश; ३५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्स 'म्' का अनुस्वार होकर हमें रूप सिद्ध हो जाता है । 'हन्दि ' प्राकृत में रूद्र-अयंक अव्यय होने से साधनिका को आवश्यकता नहीं है ।।२-१८१।। na fra fas or a वि इवार्थे वा ॥२- १८२ ॥ एते इवार्थे अव्यय संज्ञकाः प्राकृते वा प्रयुज्यन्ते ॥ कुमु मित्र | चन्दणं पिव | हंसो विव । सायरो व्व । खीरो सेसम्म च निम्मोओ | कमलं बिका | पक्षे । नीलुप्पल-माला इव ॥ I 1 अर्थः- 'के समान' अथवा 'की तरह' अर्थ में संस्कृत भाषा में 'इव' अव्यय प्रयुक्त किया जाता है । प्राकृत भाप में भी 'इस' अभ्यय इसी अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। किन्तु istore रूप से 'हव' अव्यय के स्थान पर प्राकृत में छह अध्यय और प्रयुक्त किये जाते हैं; जो कि इस प्रकार है:- १ व २ व ३ विव, ४५ व और ६ वि । इन छहों में से किसी भी एक का प्रयोग करने पर प्राकृत-साहित्य में 'के समान' अथवा 'की तरह' का अर्थ अभिव्यक्त होता है। कम से उदाहरण इस प्रकार है:- कुमुदम् = मिव चन्द्र से विकसित होन वाले कमल के समान चन्यनम् इव चन्द पिवचन्दन के समान हंसः इव हंसो साभरोव सागर के समान; क्षीरोदः इव खीरोमो = क्षीरसमुद्र के समान शेषस्य निर्मोकः इव से सत्य निम्मोओ व शेषनाग को कंचुली के समानः कमलम् = कमलं बिअकमल के समान और पक्षान्तर में 'नीलोत्पल-माला नीलुप्पल-मालाइ अर्थात् नीलोत्पल-कमलों की माला के समान उदाहरण में संस्कृत के समान ही 'इव' अस्पत का प्रयोग उपलब्ध हूँ । विवहंस के समान सागरः इव Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४८९ AM मुदम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत कप कुमुवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'ई' का लोप ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बबन में अकारान्त नपुसक लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कुमुरूप सिद्ध हो जाता है। इस सस्कृत सहशता वाचक अल्पय रूप है । इसका प्राकृत रूप मिव होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१८२ से 'इव' के स्थान पर 'मिष' आदेश वैकल्पिक रूप से होकर मिव रूप सिब हो जाता है। चन्दनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप बनणं होता है । इसमें सब-संख्या ३.२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर ण' की प्राप्ति और शेष सानिका उपरोक्त कुमुझं के समान ही होकर चन्द्रर्ण स्प सिद्ध हो जाता है। सं० इवः पिब' भव्यय की साधनिका उपरोक्त 'मित्र' अभ्यय के समान ही होकर विष अभ्यय सिद्ध हो जाता है। हंसः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप हंसो होता है । इसमें पत्र संख्या ३.२ से प्रश्चमा विभक्ति के एक पखन में अकारसम्ल पुलिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हंसो रुप सिद्ध हो जाता है। सं० इष'विव' अव्यय की सानिका उपरोक्त 'मित्र' भव्यप के समान ही होकर विव भव्यय सिद्ध हो जाता है। सागर: संस्कृत रूप। इसका प्राकृत रूप सारो होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१७७ से 'म' का लोए और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सारो रूप सि हो जाता है। सं० इव'ख' अध्यय की सावनिका उपरोक्त भिष' सव्यय के समान ही होकर व अव्यय सिद्ध हो जाता है । क्षीरोदः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप चोरोओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से 'भ' के स्थान पर ''को प्राप्ति: १-१७७ से ''कालोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खीरीजी रूप सिद्ध हो जाता है। शेषस्य संस्कृत पाठचन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सेसस्य होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १.२६० से रोगों प्रकार के "' और ' के स्थान पर कम से 'स्' की प्राप्ति; ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वरन में अकारान्स पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यप 'कस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में विश्व स्स' की प्राप्ति होकर सेसस्य रूप सिद्ध हो जाता है। इय संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत एक रुप 'व' भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१८२ से 'इ' के स्थान पर '' का आदेश होकर वरूप सिद्ध हो जाता है। निर्मोक संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप निम्मोओ होता है । इसमें सूत्र संख्या २.७९ ' का लोप; ५-८९ से लोप हए के पश्चात् शेष रहे हए 'म'को विस्व 'म्म्' को प्राप्ति; १-१७७ से ' का लोप; और ३-२से प्रपमा विभक्ति एकचन में अकारान्त पहिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ! निम्मोओं रूप सिद्ध हो जाता है। । Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० * प्राकृत व्याकरण कमलम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कमलं होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यप को प्राप्ति और १२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कमलं रूप सिद्ध हो जाता है। इष संस्कृत अव्यय रूप है | इसका प्राकृत रूप 'विम' भी होता है । इसमें सूब-संख्या २-१८२ हे 'इव' के स्थान पर विअ आदेश होकर विअ रूप सिद्ध हो जाता है । नलोत्पल माला संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नीलप्पल-माला होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-८४ से चौर्घ स्वर रूप 'ओ' के स्थान पर हस्व स्वर रूप 'ट' को प्राप्ति; २-७७ से 'त्' का लोप और २-८९ से लोप हुए न के पश्चात् शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'एप' की प्राप्ति होकर नीलुप्पल-माला रूप सिद्ध हो आता है। इव संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'इव' होता है। इसमें सत्र-संख्या ५-१८२ से वैकल्पिक पक्ष होने से 'ब' का 'इव' ही यथा रूप रहकर इस रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१८२ जेण तेण लक्षणे ॥२-१८३॥ जेण तेण हत्येतो लक्षणे प्रयोकव्यौ । भमर- लेग कमल-वणं । भमर रुग्रं तेण कमल-वर्ण । अर्थ:-किसी एक वस्तु को देखकर अयया जानकर उससे संबंधित अन्य वस्तु को कल्पना करना अर्थात् 'जात' द्वारा 'ज्ञेय' को कल्पना करने के अर्थ में प्राकृत साहित्य में 'जेण' और 'ग' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। असे:-भ्रमर-रुतं येन ( लक्ष्यीकृत्य ) कमल वन और भ्रमर-रुतं तेन ( लक्ष्य कृत्य ) कमल-बनम्, अर्थात् अमरों का गुजारव (है) तो (निश्चय ही यहां पर) कमल-वन (है)। भ्रमर-रुतं संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भमर-रूम होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७९ से प्रथम 'र' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर भमर-अं रूप सिद्ध हो जाता है । येन (लक्ष्यीकृष्य इति अर्थे) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जेण होता है। इसमें मूत्र-संख्या १-२४५ से '' के स्थान पर 'ज' को प्राप्ति और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति होकर जेण रूप सिद्ध हो कमल वनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कमस-वणं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में "fe' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और 4-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर कमलषणं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * .............. [४६१ तेन (लक्ष्यो कृत्य इति अ\) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तेण होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति होकर तेण रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-१८३॥ गइ चे चित्र च्व अवधारणे ॥२.१८४॥ एतेऽवधारणे प्रयोक्तव्याः ।। गए राइ । जं चेत्र मउलणं लोअणाणं । अणुबद्ध तं चित्र कामिणाणं । सेवादित्वात् द्वित्वमपि । ते चित्र धन्ना । ते च्चे सुपुरिसा ।। च्च ॥ स यच्च सवेण | सच्च सीलेण ।। अर्थ:-जब निश्चयार्थ-(ऐसा ही है)-प्रकट करना होता है। तब प्राकृत साहित्य में 'पई' 'चेन' 'चित्र' 'च' अभ्यय का प्रयोग किया जाता है । उपरोक्त चार अम्पयों में से किसी भी एक अध्यय का प्रयोग करने से 'अव. भारण-अर्थ' अर्थात् निश्चयात्मक अर्ष प्रकट होता है । इन अप्रपों से ऐसा ही है ऐसा अर्थ प्रति-फलित होता है। उदाहरण इस प्रकार है:-त्या एष गईए ण अयार गति से ही; यत् एव मुकुलनं लोचन नाम् = अंचे पडसर्भ लोअगाणं अर्थात् अखिों को जो अर्ध-लिलावट हो; अनुबद्धं तत एव कामिनीभ्यः अणुबह त चित्र कापिणोणं अर्शत स्त्रियों के लिये ही यह अनुबद्ध है इस्यादि । सूत्र-संख्या ३-९९ वाले सेवादित्वात्' सूत्र से 'अ' और 'चिन' अम्पयों में स्थित 'घ' को विश्व 'च्च' की प्राप्ति भी हो जाया करता है । उमे:-ते एवं पाया ते चित्र पन्ना अर्यात वे धन्य ही हैं। ते एम पुरुषाः .. ते स्वेज सुपुरिसा अर्थात् वे सत्पुरुष ही हैं । 'ब' निश्चय वाचक अम्पप के सबाहरण इस प्रकार है:-स एव च रूपेण = स च य रुवेष अति रूप से हो मह (आवरणोय आदि है); और स एव शरेलेन सब सोलेण अर्थात् शील (धर्म) से ही वह (पूज्य आदि) है; इत्यादि । __ गत्या संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप गईए होता है । इसमं सत्र-संख्या १-१७७ से (मूल रूप में स्थित-पत्ति + 1) '' का लोप और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थानीय रूप 'आ' के स्थान पर 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति एवं ३-२९ से ही प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित हस्व स्वर के स्थान पर शोध स्वर की प्राप्ति होकर गईएसप सिद्ध हो जाता है। एव संस्कृत अवधारणार्थक भव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप '' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८४ से 'एल' के स्थान पर 'गद' को प्राप्ति होकर पाई रूप सिद्ध हो जाता है। जं सर्वनाम रूप की सिद्धि सत्र संख्या १.४ में की गई है। अ अव्यय रूप को सिद्धि सूत्र-संख्या १-७ में की गई है। मुकुलनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप प्रउलग होता है । इसमें सत्र संस्पा १-१०७ से प्रथम 'उ' के स्थान पर 'अ'की प्राप्ति: १-१७७ से 'क' का लोपः १-२२८ से 'न' के स्थान पर '' की प्राप्तिः ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिग में से प्रत्यय के स्थान पर'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से 'म्' का अनुस्वार होकर मजलयं रूप सिद्ध हो जाता है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२1 * प्राकृत व्याकरण * लोचनानाम् संस्कृत षष्ठपन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप लोअणाणं होता है । इसमें पत्र-संख्यार-१७७ से 'च' का लोप; १-२.८ से प्रथम 'न' के स्थान पर 'ग' को प्राप्ति ३.६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्रकारात में संस्कृत प्रत्यय 'आम' के स्थानीय माम्' प्रत्यय के स्थान पर ३-१२ से प्राकृत में ' प्रत्यय को प्राप्ति; 'ण', पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'आ' की प्रानि; १-२७ प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर आमम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर लोभणार्ण रूप सिबी जाता है। अनुवचम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अणब होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२२८ सेन के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रश्मा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिग में "सि' प्रत्यय म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त का अनुस्वार होकर अणुबर्च रूप सिद्ध हो जाता है । ते सर्वमान हर को सिदि सूत्र-संस्था १-७ में की गई है। चिा अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-९९ में की गई है। कामिनीभ्यः संस्कृत चतुर्दान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप कामिणोणं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२२८ से 'म' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर बछी विभक्ति का विधान ३-६ से षष्ठो विभक्ति के मह वचन में शीर्ष ईकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'माम्' के स्थान पर 'ण' प्रस्यप की प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर अरगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति होकर कामिणीणं रूप सिद्ध हो जाता है। ते संस्कृस सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप भो 'ते' हो होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से मूल कर 'तत्' के द्वितीय 'त' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के वह पचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर के आवेश; '' में 'इ' इत्संजक होने से पूर्वस्थ 'त' में रहे हर 'अ' की इसना होने से लोप; भौर १-५ से शेष हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यन 'ए' की संधि होकर ते जप सिद्ध हो जाता है। चिया अस्यय करकी सिद्धि सत्र-संख्या १-८की गई। धन्याः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत हप बना होता है। इसमें सुध-संख्या २-७८ से ''का लोप; ८९ से लोप हुए '' के पश्चात् पोष रहे इए'म' को द्वित्व 'न की प्राप्ति से प्रथमा विभक्ति के मह वचन में अकाराल में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लपत 'जस' प्रस्थय के पूर्व स्थित 'न' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'आ'को प्राप्ति होकर धन्ना र सिद्ध हो जाता है। 'ते' सर्वनाम रूप को सिदि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'धेश' प्रत्यय की सिद्धि सूत्र संस्था १-७ में की गई है। सुपुरुषाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुपुरिसा होता है। इसमें सूत्र संख्या १.१११ से 'श' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति: १-२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा मिक्ति मह बचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'ज' का लोप और ३०१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्पतिमान ! * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित में स्थित 'स' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर होई स्वर 'मां' की प्राप्ति होकर सुपुरिता म सिद्ध हो जाता है। एष संस्कृत अव्यय है। इसका प्राकृत रूप च होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८४ से 'एवरे स्थान पर 'पच' आदेश की प्राप्ति होकर'च्च' रुप सिबो जाता है। 'स': संस्कृत सर्वमाम रूप है। इसका प्राकृत रूप से होता है इस पत्र संख्या ३-८६ से मूब सर्वनाम 'तत्' के स्थान पर 'सो' आवेश और २-३ से 'पकल्पिक है। . 'ओ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर 'ससिद्ध हो जाता है। 'च' संस्कृत संबंध-वाचक अग्यप रूप हं । इसका प्राकृत रुप होता है। इसमे पूत्र संख्या १-२७५ से '' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'म्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ब' को प्राप्ति होकर 'यप सिद्ध हो जाता है। रूपेण संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप स्वेण होता है । इसमें सूत्र संख्या १२५ से 'प' के स्थान पर 'a' की प्राप्ति: ३.६ से तृतीया विभक्ति के एक बचन में प्रकारात मसक लिंग में अपवा पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'णा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'प' के पूर्व में स्थित 'य' में रहे हुए '' के स्थान पर 'ए' की प्रापि होकर स्वेण म्प सिद्ध हो जाता है। 'स' और 'पंच' रूपों की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर कर रो गई है। शीलेण संस्कृत तृतीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सोलेग होता है । इसमें पूत्र संख्या:-२६.से '' स्थान पर पर 'स' की प्राप्ति; ३-६ से तृतीया विक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिग में अपना पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'या' के स्थान पर प्राकृत 'मा' प्रत्यय को प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ल' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर सौलेण रूप सिद्ध हो जाता है। ॥ २-१४ ।। बले निर्धारण-निश्चययोः ॥२.१८५॥ पले इति निधरणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम् ।। निर्धारणे । बले पुरिसोधणंजो खत्तिश्राणं ।। निश्चये । बले सीहो । सिंह एवायम् ॥ अर्थः-दृवृत्तपूर्वक कथन करने में और निश्चय-अयं बतलाने में प्राकृत साहित्य में 'बले' अव्यय नगर किया जाता है। जैसे:-'अन्ने' पुरुषः समंजयः मश्रिया - इले पुरिसोधण-मओ अतिप्राण अर्थात् मात्रियों में वास्तविक पुरुष मंजय ही है । सिंह एवायम् = बले सोहो अर्थात् यह सिंह ही है। कोई कोई 'निर्धारक काम का अर्थ ऐसा मी करते है कि समूह में से एक भाग को पृथक रूप से प्रदर्शित करना। 'बले' अध्यय रुतु-अर्थक होने से एवं -रुपक होने से सावनिका की बागायकता नहीं है। परिसीप सिद्धि त्रसंख्या १-२में की है। Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * धगंजओ रूप को सिसि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। क्षत्रियाणाम् (अपवा त्रिवेषु) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप खसिआणे होता है। इसमें सूत्र संख्या २-३ से 'स' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति २.७९ से'' में स्थित ' का लोप; २-८९ से लोप हए 'र' के पावात घोष बचे हुए 'त्' के स्थान पर द्विस्व 'र' की प्राप्ति १-१७७ से '4' का लोप; ३-१३४ से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति की प्राप्ति; ३-६ से पाठी विभक्ति के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यप 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति २.१२ से बाठो विभक्ति के बाद बचन में प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ'बी प्राप्ति और १-२७ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' पर मागम रूप मनस्वार की प्राप्ति होकर खत्तिाणं रुप सिद्ध हो जाता है। 'बले' प्राकृत-साहित्यका रू-अर्थक एवं -सप अव्यय है। अतः साधनिका की अनावश्यकता है। सीहा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में को गई है । ॥ २-१८५ ॥ किरेर हिर किलार्थे वा ॥२-१८६॥ किर इर हिर इत्येते किलार्थे वा प्रयोक्तव्याः ॥ कल्ल किर खर हिमश्रो । तस्स इर | पिन-वयं सो हिर ॥ पक्षे । एवं किल तेण सिविणए भणिश्रा ॥ अर्थ:-संस्कृत में प्रयुज्यमान सम्भावना मात्रक अव्यय किल' के स्थान पर प्राकृत साहित्य में वैकल्पिक रूम से किर' 'र' 'हिर' अध्ययों का प्रयोग किया जाता है । तवन सार प्राकृत साहित्य में संस्कृतीय किल' अव्यय भी प्रयुक्त होता है और कभी कभी 'किर, पर, और 'हिर' अव्ययों में से किसी भी एक का प्रयोग 'किस' के स्थान पर किया जाता है उवाहरण इस प्रकार है:-कल्ये किल खर-हवयः कल्लं फिर सर हिमओ अर्थात् संभावना है कि प्रात:काल में (वह) कठोर हृदय वाला था; तस्य किल-तस्स इर अर्यात संभावना है कि) उसका है); प्रिय वयस्पः किल=पिन-वयंसो हिर-संभावना है कि वह) प्रिय मित्र (है)। पक्षान्तार रूप से 'किल' के स्थान पर 'किल' के प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार है:-एवं किल तेन स्वप्नो भणिता:-एवं किल तेण सिविणर भणिमा अर्थात् सम्भावना (है कि इस प्रकार (की बातें) उस द्वारा स्वाम-अवस्था में कही गई है । यो सम्भावना वाचक भव्यय के स्थान पर प्राकृत-साहित्य में चार बाद प्रयुक्त होते हैं, जो कि इस प्रकार हैं:-१ किर, २ इर, ३ हिर मौर किल। कल्ये संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कल्लं होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २-८९से लोपए के पश्चात् शेव रहे नए 'ल' को विश्व हल' की प्राप्ति; ३-१३. से सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विक्ति की प्राप्ति : ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति भौर १-२३ से प्राप्त म्' का मनुस्वार होकर कल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। फिल संस्कृत सम्भावना-अर्थक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप फिर होता है इसमें सुत्र संख्या २-१८६ में Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित फिल के स्थान पर फिर आदेश को प्राप्ति होकर किर का सिद्ध हो जाता है । खर-हृदयः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप खरओ होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२८ से '' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति १-१७७ से 'द' और 'प' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुगि 'सि' प्रत्ययान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर खर-हिजओ कप सिद्ध हो जाता है। [Y&# से तस्य संस्कृत षष्ठयन्त सर्वनामरूप है। इसका प्राकृत को तस्वत है। इसमें सूत्र-संख्या २-०० रूप 'तत्' के द्वितीय 'तू' का लोव और ३-१० से चष्ठी विभक्ति के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'इस' के स्थानीय रूप 'स्व' के स्थान पर प्राकृत में 'स' की प्राप्ति होकर तप रूप सिद्ध हो जाता है। किल संस्कृत संभावना-अर्थक अध्यय रूप है। से किल के स्थान पर 'हर' आवेश की प्राप्ति होकर इस रूप सिद्ध हो जाता है। कहते है इसमें२-१८६ प्रिय यस्यः संस्कृत रूप है। इसका प्रस्कृत पवि-वयंसो होता है। इसमें २-३९३५ का सोप १-१७७ से प्रथम '' का लोप १-२६ से द्वितीय 'य' में स्थित '' स्वर पर यम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २-७८तीय ''३-२ में 'सि' एकदमें प्रध्यम के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिन्वर्यसो रूप सिद्ध हो जाता है। किल संस्कृत संभावना अर्थक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप हिर होता है। इसमें पूर्व-२-१८६ से 'किस' के स्थान पर 'हिए' आवेश की प्राप्ति होकर हिर कर सिद्ध हो जाता है। 'एवं रूप की सिद्धि १०९ में की गई है। सूत्र किल संस्कृत व्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी कल ही होता है इस संख्या २-२८६ से '' ही प्रथावत् रहकर कि कप सिद्ध हो है। तेन संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूपं तेन होता है। रूप 'तस्' के द्वितीय '' का कोप से तृतीया विभक्ति के एक वचन में संत '' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रस्पद व के पूर्व में स्थित 'व' में रहे प्राप्ति होकर तेज रूस हो जाता है । इस सूत्र संख्या २०७७ से मूल प्रश्षय 'ट' के स्थान पर प्राकृत 'अ' के स्थान पर 'ए' को स्वप्नके संस्कृत सम्बन्तरूप है इसका प्राकृत रूप मिचिए होता है। इसमें सूत्र संख्या १-४६ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर है की प्राप्ति २०७९ से प्राप्त रूप 'स्थि' में स्थित '' का सोच -९३९ से 'पू' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति २-१०८ से 'न' के पूर्व में ' की प्राप्ति होकर हलन्त 'व' से 'दि' का सद्भाव १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'न' की प्राप्ति २-१६४ से 'स्व' रूप में संस्कृत के स्थान पर प्राकृत में भी 'क' प्रत्यय की प्राप्ति १-१७७ से प्राप्त 'क' में में हसत 'कृ' का लोप; सौर २-११ से सप्तमी विभक्ति के एक बच Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६] * प्राकृत व्याकरणा* में संस्कृत प्रस्मय 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'उ' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय '' में ' संज्ञक होने से प्रत्यय के पूर्व में स्थित लुफा 'क' के शेवांश 'अ' को संज्ञा के कारण अ' का लोप होकर सिविणए रूप सिद्ध हो जाता है। भाणिता: संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप भणिआ होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से त' का लोप, ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'मह' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'ब' के स्थान पर वीर्घ 'आ'को प्राप्ति होकर भणिमा रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१.८६॥ एवर केवले ॥२-१-१८७॥ केवलाथें णवर इति प्रयोक्तव्यम् ॥ णवर पिआई चित्र णिव्वडन्ति ॥ अर्थ:-संस्कृत अध्यय 'केवल' के स्थान पर प्राकृत में 'णवर' अथवा 'जवर" अध्यय का प्रयोग किया जाता । जैसे गाना रिमादि म अगिरगार) पिभाई चिअ णिस्वस्ति अर्थात् केवल प्रिय (वस्तुएँ। ही (सार्थक) होती है। केवलम् संस्कृत निर्गीत संपूर्ण रूप-एकार्यक' अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गयर' अपवा 'वर' होता है । इसमें सत्र-संख्या २-१८७ से 'केवलम्' के स्थान पर 'पवर' अथवा 'गवर' पादेश की प्राप्ति होकर णवर अषमा णवर कम सिद्ध हो जाता है। प्रियाण संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिआई होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'र' का लोप; १-१७७ से '' का लोप; ३-२३ से प्रथमा विभक्ति के बहु बबन में अकारान्त नपुसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप 'मामि' के स्थान पर प्राकृत में प्रत्यय की प्राप्ति और ३.२६ से 'ही' प्रापा प्रत्यय ' के पूर्व में स्थित लुप्त 'म्' के शेषांश हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'श्रा' को प्राप्ति होकर पिआई रूप सिद्ध हो जाता है। चिअपव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या २-९९ में की गई है। भवन्ति संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप णिन्दन्ति (भी) होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-६२ से 'भव' धातु के स्थान पर 'णिस्व' रुप का आवेश; ४-२३९ से झुलात वजन 'इ' में विकरण प्रत्यय '' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में "न्ति' प्रत्यय की प्रारित होकर णिष. डन्ति प सिद्ध हो जाता है। अानन्तर्ये गवरि ॥२-१८८॥ आनन्तर्ये गवरीति प्रयोक्तव्यम् || णवरि अ से रहु-वरणा ॥ केचित्तु केवलानन्तर्यार्थयो वर-णवरि इत्येकमेव सूत्र कुर्वते तन्मते उभावणुभयाऔं ।। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४६७ # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित अर्थ:-- संस्कृत साहित्म में 'जहर' 'अनन्तरं' अध्यय का प्रयोग होता है। वहां प्राकृत-साहित्य में इसी वर्ष मं 'वर' अव्यय का प्रयोग किया जाता है। इसके बाद ऐसे अर्थ में 'नवरि' अम्मय प्रयुक्त किया जाता हूँ । जैसे:- अनन्तरम् च तस्य रघुपतिनावरि अ से रहु-वइण । अर्थात् 'और पश्चात् रघुपति से उसका' ( हिल संभावन किया गया ) । कोई कोई व्याकरणाचार्य संस्कृत अम्पम 'केवलम् और अनन्तरम्' के लिये प्रकृत में 'नवर और वरि' दोनों का प्रयोग करना स्वीकार करते है।' 'नवर' अर्थात् "केवलम् और अनन्तरम् ; " इसी प्रकार से 'नर्वार' अर्थात् 'केवलम् और अनन्तरम्' यो अर्थ किया करते हैं। इसी तात्पर्य को लेकर 'केवलानन्तर्यायं योणंवरणवरि' ऐसा एक ही सूत्र बनाया करते हैं; सबसार उनके मत से दोनों प्राकृत अध्यय दोनों प्रकार के संस्कृत अभ्यय के तात्पर्य को बतलाते हैं । अनन्तरम् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'नवरि' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-९८८ से 'अनन्तरम्' के स्थान पर 'नवरि' आदेश की प्राप्ति होकर णपरि रूप सिद्ध हो जाता है । ... 'अ' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७७ में की गई है। तस्य संस्कृत षष्ठपंत सर्वनाम रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'से' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८१ से संस्कृत मूल शब्द 'तत्' के साथ संस्कृत की षष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'ङस्' प्रत्यय की प्राप्ति होने पर प्राकृत में 'तत् + स् के स्थान पर 'से' का आवेश होकर से रूप सिद्ध हो जाता है । रघुपतिना संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बना होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से '' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व्' की प्राप्ति: १-१७७ से 'तु' का लोप और३-२४ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में इहारात पुल्लिंग में संस्कृत प्रस्थय 'का' के स्थान पर प्राकृत में 'चा' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रह वइणा रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१८८ ।। लाहि निवारणे ॥२- १८६॥ अलाहीति निवारणे प्रयोक्तव्यम् || मलाहि किं वाइएस लेख || अर्थः-- 'मना करने' अर्थ में अर्थात् 'निवारण अथवा निषेध' करने अर्थ में प्राकृत में 'अलाहि' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे--मा, किम् वाचितेन लेवेन : अलाहि; कि वाइएण सेहेन अर्थात् मत ( पड़ी ), - पले हुए लेख से क्या होने वाला है) ? 'अलाहि' प्राकृत साहित्य का अध्यय है; रूक और स्व-रूप होने से सानिका की आवश्यकता नहीं है। रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। वाचन संस्कृत तृतीयात विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप बाइएन होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' और स' का लोप ३-६ से तुतीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'ट' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रश्यप 'न' के पूर्व में स्थित एवं लुप्त हुए 'तू' में से क्षेत्र रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर बाइएण रूप सिद्ध हो जाता 1 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ ] -लेविन संस्कृत स्थान पर 'ह' की प्राप्ति सीयाल रूप है। इसका प्राकृत रूप लेहेण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'ल' के ३०६ से सुखीया विमfer के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की शक्ति और १-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'था' के पूर्व में स्थित 'ह' में रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर ले रूप विस हो जाता है ।। १- १८९ ।। * प्राकृत व्याकरण * अप पाई नञर्थे ॥ २-१६० ॥ धलाई इस्मेती नजीर्थे प्रयोक्तव्यौ ॥ श्रथ चिन्तिश्रममुखन्ती । गाई करेमि रो || अर्थ - 'महीं' अर्थ में प्राकृत-साहित्य में 'अन' और 'जाई' अव्ययों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार 'अ' और 'ई' अव्यय निषेधार्थक है अथवा नास्तिक अर्थ है :- अविन्तितम् अजानन्तो अणचित अणुमती अर्थात् नहीं सोची बिचारी हुई (बाल) को नहीं जानती हुई। दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-न करोनि रोमम्णाई करेमि शे । इत्यादि । अचिन्तितम् संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अणचिन्ति होता है। सूत्र संख्या २-१९० से भयंकर' के स्थान पर प्राकृत में 'मन' अध्यय की प्राप्तिः १-१७७ से 'तू' का लीप; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में अथवा पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यम की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त '' का अनुस्वार होकर अग चिन्ति रूप सिद्ध हो जाता है । अजामन्ती संत विशेषण रूप है इसका प्राकृत रूप अनुजसो होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'जान' के स्थान पर 'मुन' आदेश; ४-२३९ से हलन्त ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति ३-१८१ से संस्कृत प्रस्पय 'शत्रू' के स्थानीय रूप 'न्त' के स्थान पर प्राकृत में मो 'त' प्रश्य को प्राप्ति ३-३२ से प्राप्त पुलिस रूप 'अमुमन्त' को स्त्रीलिंग रूप में परितार्थ 'को' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'की' में 'ह' इत्संजक होने से 'त' में स्थित अन्त्य 'भ' की इश्ता होकर इस 'अ' का लोप और १-५ से प्राप्त हलन्त 'लू' में उक्त 'ई' प्रत्यय की संधि होकर अमुणन्ती रूप सिद्ध हो जाता है । 'न' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गाई' होता है। इसमें पत्र संख्या २-१९० से 'न' के स्थान पर 'बाई' धावेश की प्राप्ति होकर णाई रूप सिद्ध हो जाता है। sita संस्कृत air क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप करेमि होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२३१ से मूल संस्कृत रूप 'क' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्तिः ३-१४२ सेवाकाल के एक वचन में तृतीय पुरुष मे संस्कृत प्रत्यय 'मि' के स्थान पर प्राकृत में भी मि' प्रत्यय को प्राप्ति और ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्ररपण 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर करो रूप सिद्ध हो जाता है । रोषम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप स्थान पर 'स' की प्राप्ति ३-५ द्वितीयाक्ति के एक से होता है। इसमें सूत्र संख्या १०९६० से 'व' के में प्रकारात में 'न' प्रत्यय की प्राप्ति र १-२३ د. ... Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर रोस रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१९० ॥ माई मार्थे २ - १६१ ॥ माई इति मार्थे प्रयोक्तव्यम् || माई काही सं । माऽकार्षीद् रोषम् ॥ अर्थ :- 'मा' अर्थात् मत' याने नकारार्थ मे वा निषय-अर्थ में प्राकृत किया जाता है। जैसे:-माई काही रोसं मा कार्षीद् शेषम् अर्थात् उसमे ***** [ ४६६ भाषा में 'बाई' अभ्यप का प्रयोग नहीं किया । इत्यानि । मा संस्कृत अन्य रूप है। इसका प्राकृत रूप 'भाई' होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९१ से 'मा' के स्थान पर 'माई' आदेश की प्राप्ति होकर माई का सिद्ध हो जाता है। rera संत कर्मक क्रियापद का रूप है । इसका माकूल रूप 'काहीअ' होता है। इसमें पुत्र संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत धातु रूप कृ' अन्त्य 'ऋ' के स्थान पर 'आ' आदेश की प्राप्ति और ३-१६२ से मूतकाल बोधक प्रत्यय 'होय' की प्राप्ति होकर काहीअ रूप सिद्ध हो जाता है । रोर्स कप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९० में की गई है ।। २०१९१ ।। हद्धी निर्वेदे ॥२- १६२ ॥ ही इत्यव्ययमत एव निर्देशात् हा धिक् शब्दादेशो वा निर्वेदे प्रयोक्तव्यम् ॥ हद्धी हृद्धी | हा धार धार || अर्थ:- 'ही' यह प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अव्यय है। इसका प्रयोग 'निवेद' त् प्रकट करने में अथवा 'पश्चाताप पूर्ण व प्रकट करने में किया जाता है। संस्कृत अभ्यय 'हा- बिक' के स्थान पर भी बैंकक रूप से इसका व्यवहार किया जाता है। जैसे:-हा-बिक ! हा ही ही 11 पक्षान्तर में हा बाह] हा बाह 1! भी होता है। मानसिक विनता को प्रकट करने के लिये इसका उच्चारण ही बार होता है । 1 ון हा ! धिक् संस्कृत अध्यय है। इसके प्राकृत रूप 'हसी' अथवा 'हा पाह' होते हैं। इसमें सूत्र संख्या २-१९२ से 'हा । चिक' के स्थान पर 'ही' अथवा हा! घाह ! की महेश प्राप्ति होकर हवी और हा धाह रूपों को सिद्धि हो जाती है ॥२- १९२७ वे ॥१२- १६३॥ प्रयोक्तव्यम् ॥ भय वारण- विषादे भय वारण विषादेषु बेच्ने इति वेवेति भये वेष्वेत्ति कारणे जूर अ वेव्वे चि ॥ उल्ला विरोद धि तुहं वेत्रे चि मयच्छि किं अं १ ॥ किं जन्जावन्तीए उम्र जुरन्तीए किं तु भीआए । उम्बाडिरी वेवेति सीएँ भणिअं न विम्हरिमो ॥ २ ॥ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-'' यह अव्यय प्राकृत-साहित्य का है। इसका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार तीन प्रकार की वृत्तियों में से किसी एक वत्ति का ज्ञान होता है । सबनसार विश्वे ऐसा करने पर प्रसंगानुसार कभी "भय वृति का कभी निवारण करने लप वृत्ति का अथवा कभी 'जूरना-लेक प्रकट करना रू' वृत्ति का भान होता है। जवाहरण इस प्रकार है: मूल:-ये ति भये देल्वे ति बारणे जूरणे व देव ति। उल्लामिरी विपुहं श्वे ति मपविछ कि पे ॥१॥ संस्कृतः-वैव्ये इति भये वेध्ये इति निवारणे (खेचे विषाद व वेल्वे इति ।। उल्लपनशीलया अपि तष वेसवे इति मुगाक्षि ! किम् जयं ।।१।। अर्थ:-हे हिरण के समान सुन्दर नेत्रों वाली सुन्वरि ! तुम्हारे द्वारा जी देवे शब्द बोला गया है। वह (शम्ब) या भय अर्थ में बोला गया है ? अथवा 'निवारण अर्य' में बोला गया है ? अमवा सिन्नता' अर्थ में बोला गया है ? तवनुसार 'देवे' इसका क्या तात्पर्य समझना चाहिये ? अर्थात् क्या तुम भय-पस्त हो ? अथवा क्या तुम किसो मात विशेष को मनाई कर रही हो? अयवा क्या सुन खिन्नता प्रकट कर रही हो ? मैं तुम्हारे द्वारा सञ्चारित 'वेष्वे' का पया तात्पर्य समा? दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:मूल:-कि उल्लावेन्तीए उस पुरतोएं कि तु भीआए ॥ उग्वाहिरीएं बेवेत्ति तीऍ भणि न बिम्हरिभो ॥२॥ संस्कृत-कि उल्लापमस्या उत्त विध-त्या कि पुनः भीतया । उवातशीलया बेचे प्रति तया भणितं न विस्मरामः ॥२॥ अर्थ:-जस (स्त्री) द्वारा (गो) वेजे ऐसा कहा गया है। तो क्या 'उल्लाप-विलाप करती हुई द्वारा मायया क्या खिन्नता प्रकट करती हुई द्वारा अपवा पया भयभीत होतो द्वारा अथवा क्या वायु-विकार से उद्विग्न होती हई द्वारा ऐसा (बेध्ये) कहा गया ? (यह) हमें स्मरण नहीं होता है । अर्थात् हमें यह याद में नहीं आ रहा है कि-वह स्त्री क्या भय-मीत अवस्था में थी अथवा क्या खिन्नता प्रकट कर रही थी अपवा क्या विलाप कर रही थी अपवा पा रह वायु विकारसे उद्विग्न थी, कि जिससे वह 'वेव्वे' 'वेव्वे' ऐसा बोल रही थी। उपरोक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'येथे' मव्यय का प्रयोग भप निवारण और द अर्थ में होता है। घटय प्राकृति-भाषा का अध्यय है। रू-अर्थक और कहोने से सावनिका किमावश्यकता नहीं। तिरूप की सिद्धि सूत्र-संक्ष्या १-४ की गई । खेडे संस्कृत सप्तम्यंत रूप है। इसका प्राकृत रूप जूरणे होता है । इसमें पूत्र-संख्या ४-१३२ से 'विद्' के स्थान पर 'जर आदेश४-४४८ से संस्कृतवत् किया से संज्ञा- मिओग-अप' 'अन' प्रत्ययकी प्राप्ति १-५ सेहलात Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५०१ के साप प्राप्त प्रस्थय 'अन' के 'अ' की संधिः १-२२८ से प्राप्त मस्यय 'मन''को 'ण' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमो विभक्ति से एक बबन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय ''ि के स्थान पर प्राकृत म ' प्रत्यय ना मादेश, में '' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्य 'ण' के 'अ' को हरसंशा होने से ' का लोप और १-५ से इसम्त 'न' में प्राप्त प्रत्यय 'ए' को संधि होकर जूरणे रूप सिद्ध हो जाता है। 'अ' व्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७७ में की गई है। उल्लपनशीलया संस्कृत सतोयान्त विशेषग रूप है। इसका प्राकृत रूप उल्लाविरोह होता है। इसमें माल रूप 'उल्लपनस्य-मावं इति उल्लाप होता है । तदनुसार सूत्र-संख्या १.११ से एवं समास-स्पिति होने से अन्स्प ग्यश्मन 'म्' का लोप; १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' को प्राप्ति; २-१४५ से "शोल-मर्थक र प्रस्पय को प्राप्सि; १-१० से पूर्वस्त्र 'व' में स्थित ' स्वर का अम्गे 'र' प्रत्यय की '' होने से लोप; १५ से प्राप्त हलन्त '' में आगे प्राप्त 'दर' के ।' की संधि; ३-३२ से प्राप्त पुल्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ को' प्रत्यय को प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'डी' च 'ए' इरसंशक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' को इरसंता होने से इस '' का लोप; १-५ से हलन्त 'र' में झागे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'डो = प्रत्यय को संषि३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक बबन में बी, ईकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उल्लादिरीक रूप सिद्ध हो जाता है। व अव्यय पकी सिसि सूत्र-संख्या १.६ में की गई है। सव संस्कृत पाठ्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप तुहं होता है । इसमें सूब-संरूपा ३-९९ से पष्ठी विभक्ति के एक वचन में 'युस्मत' सर्वनामीय षष्ठ्यंत एक वचन रूप 'लव' के स्थान पर 'तुह' आदेश की प्राप्ति होकर तह रूप सिद्ध हो जाता है। है। ममाक्षि संस्कृत संखोषनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप मयपिछ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ मे 'यू' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति: १-१७७ से 'ग्' का लोप: १-१८० से लोप हुए ग्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'या' को प्राप्ति; १-८४ से वीर्घ स्वर 'बा' के स्थान पर 'म' को प्राप्तिा २-३ से 'क' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति २.८९ से प्राप्त 'ए' को द्विस्व 'ए' को प्राप्सि; २-९० से प्राप्त 'पूर्व' 'ए' के स्थान पर हो प्राप्ति और ३-४२ से संबोधन के एक वचन में वीर्घ स्वर के स्थान पर इस स्वर 'इ' को प्राप्ति होदर मयाछि हप सिद्ध हो जाता है। किं रूप को सिद्धि पूत्र संख्या १.२९ में की गई है। ज्ञेयस् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप मेअं होता है। इसमें सूझ-संख्या २.४२ से 'श' के स्थान पर 'म' की प्राप्सि; १.१४७ से 'य' का लोप; ३२५ से प्रपमा विभक्ति के एक वचन में बकारात नपुसकलिंग में अपय स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और 1-२३से प्राप्त 'म'का अस्वार होकर ण प सिद्ध हो जाता है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * उरूलापषम्त्या संस्कृत तृतीयस्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जल्लावेसीए होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२३१ 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति ४-२३९ से संस्कृत में 'उल्लाप' धातु को चुरादिगण वालो मानने सेवाका विकरण प्रलाय 'अप' के स्थान पर प्राकृत में केवल 'म' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति ३-९५८ से विकरण प्रस्थय के आगे वर्तमान कृदस्त का प्रत्यय 'मत' होने से उक्त विकरण प्रत्यय 'अ'के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति १.५ से प्राप्त 'उल्लाय' के हलन्त व्' में आगे प्राप्त विकरण प्राय के स्थानीय रुप 'ए' को संषि; ३-१८१ से वर्तमान कुवात पावक 'शातु' प्रत्यय के स्थानीय संस्कृत प्रत्यय 'स्त' के स्थान पर प्राकृत में भी 'स' प्रत्यय की प्राप्ति; ३.३२ से प्राप्त पुल्लिग रूप से सीलिंग का निर्माणार्य हो' पम्पय को प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'क' में ''इसंज्ञक होमे से पूर्वस्य 'न्त' में स्थित 'अ' को इत्संज्ञा होने से इस 'अ' का लोपः १-५ से प्राप्त हलन्त न्तु' में आगे प्राप्त स्त्रीसिंग अर्षक 'डोई प्रत्यय की संधि और ३.२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में दीर्घ ईकाराम्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'हा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उल्लावन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है। उअ अध्यय रुप को सिद्धि मूम-संख्या १-१७ में की गई है। खिद्यन्त्या संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप जूरतीए होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४.१३२ से संस्कृत पातु सिद्' के स्थान पर प्राकृत में 'वर'मावेश; ४-२३९ से संस्कृत में 'लिब' धातु में स्थित विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्त रूप 'जूर' में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' को प्राप्ति; ३-१८१ से वर्तमान कुदन्त वाचक शत् प्रत्यय पस्त' के स्थान पर प्राकृत में भी '' प्रत्यय को प्राप्ति,३-३९ से प्राप्त पुल्सिय रूप से स्त्रोलिंग रूप-निर्माणार्म 'को' प्रत्पय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'अ' में 'इ' संशक होने से पूर्वस्य 'न्त' में स्थित 'अ' को इरसंशा होने से इस 'अ' का लोप; १-५ से प्राप्त हलात 'न्त' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थक 'खोई' प्रत्यय की संधि और ३-२९ से सतीया विभक्ति के एक वचन में वीर्घ ईकारात स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जूरन्तीए रूप सिद्ध हो जाता है। तु. संस्कृत निश्चय वाचक अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'तु ही होता है। भीतया संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत सप भीआए होता है। इसमें मूत्र-संख्या १.१७७ से '' बाहोप; ३-३१ से प्राप्त पुस्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'भाषा ' प्रत्यय की प्राप्ति; १-५ से लोप हुए 'के परवात शेष रहे हए 'ब' के साथ बा प्राप्त प्रयय रूप 'बा' की संधि होने से 'मा' रूप की प्राप्ति और ३-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'हा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर भीाए रूप सिद्ध हो जाता है। उवातशीलया संस्कृत विशेषण सप है । इसका प्राकृत रूप दव्यानिरीए होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से '' का लोप; २-८२ से लोप हुए 'ब' से पश्चात् शव रहे हए' को द्वित्व म' को प्राप्ति; १.२०६ से 'स' के थाल पर की प्राप्तिा २-१४५ से रिल-अयंक 'इर' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१. से पूर्वस्म में स्मित 'अ' वा का आगे 'पर' प्रत्यय की होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलात में आगे प्राप्त 'र 'को संषि -३२ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * . . . . . . . . . से प्राप्त पुस्लिग रूप से स्त्रीलिंग-रूप-निर्माणार्थ 'सो' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'हो' में ''संसक होने से पूर्वस्थ 'र' में स्थित 'अ' को इत्सला होने से इस 'अ' का लोग, १.५ से प्राप्त हलन्त 'र' में आगे प्राप्त स्त्रीलिमअर्थक 'जी' प्रत्यय की सषि और ५-२९ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में कीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'या' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उबाडिरीए रूप सिब हो जाता है। तया संस्कृत तृतीयान्स सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप सोए होता है। इसमें सूत्र-सल्या १-११ से मल संस्कृत शब्द 'तत्' में स्थित अन्य हलन्त 'त्' का लोप; ३-३३ से शेष 'त' में प्राप्त पुल्लित रूप से स्त्रीलिग-कपनिर्माणार्थ 'हो' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय हो' में 'इ' इत्संज्ञक होने से पूर्वस्य 'त' में स्थित 'म' की इसंहा होमे से इस '' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्स 'त' में आगे प्राप्त स्त्रीलिंग-अर्थ-को प्रत्यय को संषि और ३.२९ हतीया विभक्ति के एक वचन में दीर्घकारान्त बोलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सीए रूप सिद्ध हो जाता है। भणितम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप भनि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रघमा विभक्ति के एक बयान में भकास समलि प्रत्यप के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर भणि रूप सिद्ध हो जाता है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। विस्मरामः संस्कृत सकर्मक क्रियापर का रूप है। इसका प्राकृत रूप विहरिमो होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७४ से 'स्म' के स्थान पर 'ह' आदेश; ४-२३९ से संस्कृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थानीय रूप के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय रूप 'अ' की प्राप्ति और ३.१५५ से प्राकृत में प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; ३.१४४ से वर्तमानकाल के बहु वचन में तृतीया पुरुष में अर्थात उत्तम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'मः' के स्थान पर प्राकृत 'भो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विम्हारमो रूप सिद्ध हो जाता है ॥२.१९३॥ वेध च आमन्त्रणे ॥२-१६४॥ वेध वेब्वे च मामन्त्रणे प्रयोक्तव्ये । येन्च गोले । वेव्धे मुरन्दले वहसि पाणिनं ।। अर्थ:--सामानगे 'अर्थ में अथवा संबोधन-अर्थ में देव और श्वे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैस:हे गोले = वेश्य गोले - हे सहि ! हे मुरवले वहसि पानोयम् = हे मरम्बले ! बहसि पाणिनं = हे मुरबल ! तू पोने योग्य बस्तु विशेष लिय जा रहा है। वेष प्राकृत साहित्य का बड़ रूपक और रुत-अर्थक अवषय है। अतः सापनिका की आवश्यकता नहीं है । गोले देशम शम्म रूप होने से संस्कृत रूप का अभावहै । इसमें सबसल्या ३.४१ से संबोधन के एक पचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर गोले रूप तिय हो जाता है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४] * प्राकृत व्याकरण * वेख्य प्राकृत साहित्य का सदुरूपक और रुद्र अर्थक संघोषनात्मक अध्यय है; अतः साधनिका को अावश्यकता मुरन्दले संबोधनात्मक व्यक्ति वाचक संज्ञा रूप है। इसमें सत्र-संस्था ३-४१ से समोघन के एक वचन में अन्त्य 'आ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर मूरन्न ले रूप सिद्ध हो जाता है। पहास संस्कृत सकर्मक क्रियापक का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी बहक्षि होता है। इसमें पत्र संख्या ४-२३६ से हलन्त रूप 'वह' में विकरण प्रत्यय रूप अ' को प्राप्ति और ५-६४० से वर्तमानकाल के एक वचन में विसीय पुरुष में "म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर वहसि रूप सिद्ध हो जाता है। पाणिभं रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१०१ में की गई है ।।२-१९४।। मामि हला हले सख्या वा ॥२-१६५॥ एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः ।। मामि सरिसक्खराण वि ॥ पणवह माणस्य हला ॥ हले ध्यासस्स | पक्षे । सहि एरिसि पिच गई। अर्थ:--'सलि' को आमन्त्रण बेने में अथवा संबोधित करने में मामि' अथवा 'हला' अथवा 'हले' अध्ययों में से किसी भी एक अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। अर्थात् जम अव्यय विशेष का प्रयोग करना हो तो उक्स सोनों में से किसी भी एक अव्यय का प्रयोग किया जा सकता है। अन्यथा बिना अव्यय के भो "हे सरिल = सहि ! ऐसा प्रयोग भी किया जा सकता है। बाहरण इस प्रकार है:-हे (सखि) ! सहशाक्षराणाम मपिटमामि ! सरिसराणषि | प्रममत मानाय है (सलि) ! पणवह माणस्स हा । हे (सनि) ! हताशस्य = हले हयासस्स ।। पक्षान्तर में उबाहरण इस प्रकार है:-हे सखि ! ईटशी एवं गति: = सहि | एरिसि चिज गई ।। इत्यादि । 'मान' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अव्यय होने से कूट-अर्थक और रुख रूपक है; अतः सापनिका को आवश्यकता नहीं है। सहशाक्षराणाम् संस्कृत पष्ठयरत रूप है। इसका प्राकृत-रूप सरिसक्लराण होता है। इसमें प्रत्र-संख्या १-१४२ से 'च' के स्थान पर 'रि' मादेश २-७७ से '' में स्थित 'द' का लोप; १.२६० से 'ज्ञ के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; १-८४ से प्राप्त 'सा' में रहे हुए बोर्ष स्वर 'आ' के स्थान पर 'ब' को प्राप्ति; २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'स' को हिरवा 'रुख' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'ब' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बह वचन में अकारान्त पुल्लिाप अथवा नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकृत में '' आवेश; और ३-१२ से प्राप्त प्रत्यय 'ग' के पूर्व में स्थित 'र' में रहे हए 'अ' के स्थान पर धीर्घ क्य 'या' की प्रान्ति होकर सरिसक्खराण रूप की सिद्धि हो जाती है। "वि' अध्यय की सिदि सूत्र-संख्या १-१ में की गई है। Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित प्रणमत संस्कृत मानायक सकर्मक क्रिया का रूप है। इसका प्राकृत रूप 'पणवह होता है। इसमें सूत्रसंख्या २-७९ से 'र'का लोप; ४.२२६ से 'म' के स्थान पर 'क' श्रापेश कौर ३-१७६ से पाहायक लकार में द्वितीय पुरुष के वचन में संस्कृत प्रत्यय 'त' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पणवह रूप सिद्ध हो जाता है। मामाय संस्कृत स्तुत विशेष रूप सका MR समापन होता है । इसमें सूत्र-संपा-१२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; ३-१३१ से संस्कृतीय चतुर्थी के स्थान पर प्राकृत में षष्ठी-विभक्ति की प्राप्ति ३-१० से षष्ठी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में (अथवा नपुसकालम में)-संस्कृत 'क' के स्थानीय प'आय' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर माणस्य रूप सिख ले जाता है। 'हला' प्राकृत भाषा का संबोधनात्मक अध्यय होने से हर-रूपक है। अत: सानिका को मावश्यकता नहीं है 'हलें प्राकृत-माषा का संबोश्रमात्मक सम्यम होने से रूक-अपंक और रूप-रूपक है। अतः सानिका की आवश्यकता नहीं है। हताशस्य संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप हमासल्स होता है। इसमें पूत्र संख्या १-७७ से 'तु' का लोप: १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात घोष रहे हए 'य' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की शक्ति और ३-१० से षष्ठी विपिल के एक पचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रस्थप 'छस्' के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स्स' को प्राप्ति होकर हयासस्स सिट हो जाता है। . . (हे) सखि ! संस्कृत संवोधनात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप (हे) सहि होता है। इसमें सब संस्पा १.१८७ हो 'स' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३.४२ से संबोधन के एक वचन में वीर्य इकारान्त स्त्रीलिंग में अन्य दीर्घ स्वर के स्थान पर ह्रस्व स्वर'' की प्राप्ति होकर (ह) सारूप सिद्ध हो जाता है। ईशी संस्कृत विशेषणात्मक रूप है।सका प्राकृत रूप एरिसि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१०५ से प्रथम के रुपान पर 'ए' की प्राप्ति २-०७ से १ का लोप १-१४२ से'' के स्थान पर 'रि' को प्राप्ति; १-२६० से '' के स्थान पर 'ए' को प्रारिस और १-८४ से दीर्घ स्वर द्वितीय स्थान पर हत्व स्पर'को प्राप्ति होकर एरिसि रूप सिद्ध हो जाता है। चिस' मध्यय को सिवित्र संस्था १-८ में की गई है। गतिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत कर गई होता है इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से '' का लोप और ३.१९ से प्रथमा विभक्ति के एक वजन में हस्त इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रस्थय 'सि' के स्थान पर प्राइस में अगम हुस्ष स्वर 'इ'को दीर्घ स्वर' की प्राप्ति होकर गई रूप सिब हो जाता है। दे संमुखीकरणे च ॥ २.१६६ ॥ संमुखीकरणे सख्या-आमन्त्रणे च दे इति प्रयोक्तव्यम् ॥ दे पसिन ताव सुन्दरि ॥दे मा पसिन निश्रत्तसु ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ] * प्राकृत व्याकरण * अर्थ:-' सम्मुख करने' के अर्थ में और 'सली' को आमंत्रित करने के अर्थ में प्राकृत भाषा में 'हे' अध्यय का प्रयोग किया जाता है। 'मेरी ओर देखो' अथवा 'हे सखि !' इन तात्पर्य पूर्ण शब्दों के अर्थ में 'वे' अव्यय का प्रयोग किया जाना चाहिये। जैसे:-वे ! प्रसीद तावत् (हे) सुन्दरि 1 दे पसिथ साथ (हे) सुन्वरि अर्थात् मेरी और देखो; अब है सुन्दरि ! प्रसन्न हो जाओ। वे (हे सखि ! ) या प्रसीद निवर्त्तस्व दे! मा पसिम निभतसु अर्थात् हे सखि म प्रसन्न हो जाओ और निबूत हो यो । ) 'वे' प्राकृत-साहित्य का संमुखीकरणार्थ अध्याय है; तदनुसार रूद्र-अयंक और कठ-रूपक होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं है । पति रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है। ताथ अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। हे ( सुन्दरि ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत कर भी 'सुन्दर' ही होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३२६ मेरे संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में चीन के अस्य दीर्घ स्वर 'ई' को हृस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर (है) सन्दरि रूप सिद्ध हो जाता है 'अ' संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप भी 'आ' हो होता है। यतः सावनिका की आवश्यकता नहीं है। पति रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१०१ में की गई है। निवर्त्तस्थ संस्कृत आशार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप निजत होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द' का लोप २०३९ से '' का लोप और ३-१७३ से संस्कृत आज्ञार्थक प्रत्यय 'स्व' के स्थान पर शकृत में सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मिजस रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-१९६।। हुं दान-पृच्छा-निवारणे ॥२- १६७॥ हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते || दाने । हुँ यह अपणो च्चिन || पृच्छायाम् । हुँ साहसु सम्भावं । निधारणे । हुँ निल्लज्ज समोसर || अर्थः- 'वस्तु विशेष' को देने के समय में ध्यान आक्ति करने के लिये अथवा साधा बरसने के लिये प्राकृत साहित्य में '' अवश्य का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार से किसी भी तरह की बात पूछने के समय में भी '' अव्यय का प्रयोग किया जाता है एवं 'निबंध करने के अर्थ में अपना 'मनाई' करने के अर्थ में भी 'हूँ' अध्यय का प्रयोग किया जाता है। क्रम से उदाहरण इस प्रकार है:- [हं गृहाण आत्मनः एव गेव्ह अप्पणो विषय अर्थात् आप ही ग्रहण करो । 'पूछने के' अर्थ में 'हूं' अव्यय के प्रयोग का उदाहरण इस प्रकार है:- हुं कथय सद्भाव सासु सभा | 'निवारण' के अर्थ में 'हूँ' अव्यय के प्रयोग का उदाहरण यों है:- हूं निर्लज्ज | समपसर-निल समोसर अर्थात् हुं ! निर्लज्ज | निकल जा । ए Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [५०७ 'ई' प्राकृत-भाषा का अव्यय होने से रुक-रूपक एवं सह-अर्यक है। मतः सानिका की आवश्यकता नहीं है । गृहाण संस्कृत भाशार्थक रूप है | इसका प्राकृत रूप गह होता है। इसमें सूत्र संख्या ४.२०९ से 'मह' धातु के स्थान पर 'ग, {रूप का) आवेश; ४-२३९ से हलत ह. नविकरण प्रत्यप 'अ' को प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्ताप 'सु' का पंकलिक रूप से लोप होकर गेण्ह कम सिद्ध हो आत्मनः संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप अपणो होता है। इसमें त्र-संख्या १-८४ से दोर्ष स्वर ओ' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' को प्राप्तिः २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन रम' के स्थान पर की प्राप्ति २८. से प्राप्त 'प' के स्थान पर द्वित्व 'प' की प्राप्ति; और ३-५० से प्रथमा विभक्ति कंबहुवचन में संस्कृत प्रत्यय जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है। . रिचा अवषय की सिदि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है। कथय संस्कृत आसार्थक रूप है । इसका प्राकृत रूप साहसु होता है । इसमे सूत्र-संख्या ४-२ से कप' पातु के स्थान पर प्राकृत में 'साह, आदेश ४.. ३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वितरण प्रत्यय 'थ' की प्राप्ति और ३-१७३ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के पचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय को होकर साहन तित हो जाता है। सभावम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सम्भावं होता है। इसमें सब-संख्या २-७७ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए' के पश्चात् शेष रहे इए 'म' को विस्व भूभ' की प्राप्ति; २०१० से प्राप्त हुए पूर्व भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; ३-५, से द्वितीया विभक्ति के एक वपन में अकारान्त 'म' प्ररपय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' को अनस्वार होकर सम्भावं रूप सिद्ध हो जाता है। निर्लज्ज ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राकृत पनिल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७९ से ''का लोप; २.८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्विस्त्र हल' को प्राप्ति और ३.३८ से संबोधन के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर (R) निल्ला रूप लिस हो जाता है। समपसर संस्कृत अ.जाक कर है । इसका प्राकृत रूप समोसर होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १-१७२ से मध्यस्थ उपसर्ग 'अप' के स्थान पर प्रो' की प्राप्ति; ४-२३६ से 'समोसर' में स्थित अन्य हलन्त 'र' में विकरण प्रत्यय अ' को प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक सकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्तध्य प्रत्यय 'सु' का धल्पिक रूप से लोप होकर समोसर रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१९७ ।। हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ॥२-१९८॥ हु खु इत्येतो निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ ॥ निश्चये । पि हु अच्छिसिरी । तं सु Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८] * प्राकृत व्याकरण * सिरीएँ रहस्सं ॥ वितर्कः ऊहः संशयो वा । ऊहे । न हुणवरं संगहिआ । एनं खु हसइ । संशये । जलहरो खु धूमवडलो खु। संभावने । तरी उंग हुणवर इमं । ए खु हसाई || विस्मये । को खु एसो सहस्स-सिरो ।। बहुलाधिकारादनुस्वारात् परो हुने प्रयोक्तव्यः । अर्थः-'हु' और 'खु' प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किये जाने वाले अव्यय हैं। इनका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार 'निश्चय' अर्थ; 'तात्मक' अर्थ; संशयात्मक' अर्थ, 'संभावना' अर्थ और विस्मय-आर्य अर्थ प्रकट होता है । 'निश्चय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:--स्वर्माप हु (एव) अछिन्न श्रीः= तं पिटु अचिन्नसिरी अर्थात् निश्चय ही तू परिपूर्ण शोभावाली है। त्वम् खु ( : खलु ) श्रियः रहस्यम् = तं खु सिरी रहस्सं अर्थात निश्चय ही तू संपत्ति का रहस्य (मूल कारण ) है । वितर्क अर्थक, 'साध्य-साधन' से संबंधित 'कल्पना' अर्थक और 'संशय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:-(१) न हु केवलं संगृहोनान हु णवरं संगहिया अर्थात उस द्वारा केवल संग्रह किया हुआ है कि नहीं है ? एतं खु हमति = गुआं खु इस अर्थात क्या इस पुरुष के प्रति यह हंसती ! कि नहो हंसतो है ? संशय का उदाहरणः - जलधरः खु धूम पटलः खु = जलइरो खु धूम वडली खु अर्थात यह रावल है अथवा यह धुप का पटल है ? संभावना को उदाहरणः-तरितुन हु केवलम् इमाम = तरी ण हुणवर इमं अर्थात इस { मनी) को केवल सैरना (= तैरते हुए पार उतर जाना ) संभव नहीं है । एतं खु हमति = एअंखु हसह अर्थात (यस) इसके प्रति हंसती है. ऐसा संभव है । “विस्मय' का उदाहरणः- खलु एषः सहस्र शिराः = को खु एसो महस्स-मिगे अर्थात् आश्चर्य है कि हजार सिर वाला यह कौन है ? प्राकृत-साहित्य में 'बहुल' की अर्थात् एकाधिक रूपों की उपलब्धि है; अतः अनुस्वार के पश्चात् 'हु का प्रयोग नहीं कियाजाना चाहिये । ऐसे स्थल पर 'बु' का प्रयोग होता है। त्वम संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'त' होता है। इसमें मूत्र-संख्या ३-६० से 'युष्मद्' स्थानीय रूप 'स्वम्' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'तं' श्रादेश की प्राप्ति होकर 'तं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। हु' प्राकृत माहित्य का रुद-रूपक एवं रूद-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की प्राघश्यकता नहीं है । कोई कोई खलु' के स्थान पर 'हु आदेश की प्राप्ति मानते हैं। अछिन्न श्रीः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अछिम्नसिरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ६-८४ से प्राप्त 'स्' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में दीर्घ ईकारान्त खोलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई को यथास्थिति की प्राप्ति होकर एवं १-५१ मे अन्त्य व्यंजन रूप विसर का लोप होकर अछिन्नसीरी रूप सिद्ध हो जाता है। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५०१ 'खलु' संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप 'खु' होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५ से 'खलु' के स्थान पर 'खु' आदेश की प्राप्ति होकर 'रघु रूप सिद्ध हो जाता है। श्रियः संस्कृत षष्ठयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप सिरीए होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राग्नि; २.१०४ से प्राप्त 'स' में आगम रूप 'इ' की प्राप्ति, और ३-२६ से पछी विभक्ति के एफ वचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'उस्’ के स्थानीय रूप 'यः' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सिरीए रूप सिद्ध हो जाता है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। णवरं (-बकल्पिक रूप-णवर) की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१८७ में की गई है। संग्रहीता संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप संगहिना होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१२६ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्रि; १.१७७ से 'स्' का लोप; और !-१०१ से 'हो' में चित्त दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर संगहिआ रूप सिद्ध हो जाता है। एतम् संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप एवं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १:१७४ से १-१७७ से 'तू' का लोप; ३-५ से द्वितीया विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और .१-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर ए रूप सिद्ध हो जाता है। हसति संस्कृन सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हसइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हसइ रूप सिद्ध हो जाता है। जलधरः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जलहरो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१५७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जलहरो रूप सिद्ध हो जाता है। धूमपटल: संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप धूमवडलो होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व', ५-१६५ से 'ट' के स्थान पर 'ड' और ३-२ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धूमपडलो रूप सिद्ध हो जाता है। सरितुम संस्कृत हेत्वर्थ कृदन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप तरी होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-३६ से मूल धातु 'तर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति. ३-५५७ से प्रात विकरण प्रत्यय 'अ' को .'इ' की प्राप्ति, १-४ से प्राप्त हस्व 'इ' के स्थान पर दोघं 'ई' की प्राप्ति, १-१५७ से द्वितीय 'त' का लोप और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर तरी रूप सिद्ध हो जाता है। 'ण' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८० में की गई है। Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरणा* 'णवर' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८७ में की गई है। 'बम' सर्वनाम की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८१ में की गई है। 'एमे सर्वनाम की सिद्धि इसी सूत्र में अपर की गई है। का संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप को होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर को रूप सिद्ध हो जाता है। 'एसो' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-११% में की गई है। सहस्रारीराः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सहस्ससिरो होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से प्रथम 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स' को द्वित्व 'रस' की प्राप्ति; १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति; १-४ से दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; और ३-२ से प्रधमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सहस्स-सिरो रूप सिद्ध हो जाता है ।।२ १६८ ऊगहाँप-विस्मय-सूचने ॥२.१६६।। ऊ इति गर्दादिषु प्रयोक्तव्यम् । गर्यो । ऊ णिल्लज्ज । प्रक्रान्तस्य वाक्यस्य विपर्यासाशङ्काया विनिवर्तन लवण आक्षेपः ॥ ऊ किं मए भणिअं । विस्मये । ऊ कह मुणिमा अहयं सूचने । ऊ कण न विषणार्य ॥ अर्थ:-'क' प्राकृत साहित्य का अव्यय है; जो कि 'गह अर्थ में थाने निन्दा अर्थ में; बाक्षेप अर्थ में अथवा तिरस्कार अर्थ में; विस्मय याने आश्चर्य अर्थ में और सूचना याने विदित होने अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । 'गहीं अथवा निंदा का' उदाहरणः - अरे (धिक) निर्लज !=ऊ ! णिल्लज्ज अर्थात अरे निलज्ज ! तुझे धिक्कार है । 'आक्षेप का यहां विशेष अर्थ किया गया है, जो कि इस प्रकार है:-वार्तालाप के समय में कहे गये वाक्य का कहीं विपरीत अर्थ नहीं समझ लिया जाय, तदनुसार उत्पन्न हो जाने वाली विपरीत प्राशंका को दूर करना ही 'आक्षेप' है। इस अर्थक 'श्राक्षेप का सदाहरण इस प्रकार है:-3, किं मया भणित= ऊ किं मए मणि अर्थात क्या मैंने तुमको कहा था ? ( तात्पर्य यह है कि–'तुम्हारी धारणा ऐसी है कि मैंने तुम्हें कहा था, किन्तु तुम्हारी ऐमी धारणा ठीक नहीं है, मैंने तुमको ऐसा कब कहा था)। ___विस्मय-आश्चर्य' अर्थक उदाहरण यों है:-3, कथं (झाता) = मुनिता अहं = ऊ, कह मुणिमा अयं अर्थात प्राध्य है कि मैं किस प्रकार अथवा किस कारण से जान ली गई हूं, पहिचान ली गई हूँ। 'सूचना अथवा विदित होना' अर्थक दृष्टान्त इस प्रकार है:-ऊ, केन न विज्ञातम-ऊ, केण न विरुणायं Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियांदप हिन्दी व्याख्या सहित - [५११ भर्थात अरे ! किसने नहीं जाना है ? याने इस बात को तो समो कोई जानता है । यह किसी से छिपो हुई बात नहीं है । इस प्रकार 'क' अव्यय के प्रयोगार्थ को जानना चाहिए । प्राकृत साहित्य का 'मिन्दादि' रूढ अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है, अतः सावनिका की आवश्यकता नहीं है। (हे) निर्लज्ज ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप जिल्लज्ज होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२०१ मे 'न' को करारा 'ए' मालि; -से ' का लोप, ६-८८ से 'र' के लोप होने के पश्चात शंप रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'क्ल की प्राप्ति और ३-३८ से सम्बोधन के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि के स्थानीय रूप (डो=) 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर जिल्लख रूप सिद्ध हो जाता है। - - - - - - - - - 'किं' की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। मया संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप मए होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-१०६ से संस्कृत मर्वनाम 'अस्मद्' के साथ में तृतीया विभक्ति के प्रत्यय 'टा' का योग प्राप्त होने पर प्राप्त रूप 'मया' के स्थान पर प्राकृत में 'मए' आदेश को प्राप्ति होकर मए रूप सिद्ध हो जाता है। 'भणिों रूप की सिद्धि सूत्र संख्या -१९३ में की गई है। 'कह की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई। ज्ञाता (-मुनिता) संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणिमा होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से 'ज्ञा' के स्थान पर 'मुण' श्रादेश, ४-२३६ से हलन्त धातु 'मुण' में बिकरण प्रत्यय 'म' की प्रामि; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति; और १-१७७ से न' का लोप होकर मणिआ रूप सिद्ध हो जाता है। अहम् संस्कृत सर्वनाम रूप है इसका प्राकृत रूप अहयं होता है। इसमें सन्न संख्या ३-०५ से संस्कृत सर्वनाम 'अस्मद्' के प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के योग से प्रारूप 'अहम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अहय' आदेश की प्राप्ति होकर श्रयं रूप सिद्ध हो जाता है । केन संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप केण होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल रूप 'किम्' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३.६ से तृतीया विभक्ति के एक वचन में अकारांत पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'टा' के म्यान पा प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४ से प्राप्त प्रत्यय 'ण' के पूर्व में स्थित 'क' के अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति होकर केण रूप सिद्ध हो जाता है। 'न' की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२] *प्राकृत व्याकरण * विज्ञातम, संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप पिण्णार्य होता है । इसमें सूत्र संख्या २-४२ से 'ज्ञ' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २.८ से प्राप्त 'ण' को द्वित्व ' ण ण' की प्राप्ति; १-२७७ से 'तु' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर विण्णायं रूप सिद्ध हो जाता है॥२-१ ॥ थू कुत्सायाम् ॥२-२००॥ धू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् ॥ धू निल्लज्जो लोनो॥ अर्थः-'कुरसा' अर्थात् निन्दा अर्थ में घमा अर्थ में 'थू' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । जैसे:-थू ( निन्दनीयः ) निर्लज्जः लोकः = थू निल्लज्जो लागी अर्थात निलज व्यक्ति निन्दा का पात्र है। (घृणा का पात्र है) 'शू' प्राकृत भाषा का रुद रूपक और रूढ अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। गिर्लजः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप निल्लजो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६. से 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग मे संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर निल्लज्जो रूप सिद्ध हो जाता है। लोभी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१५७ में की गई है ।।२-२००॥ रे अरे संभाषण-रतिकलहे ॥२-२०१॥ अनयोरर्थयार्यथासंख्यामती प्रयोक्तव्यौ ॥ र संभाषणे । रे हिश्रय मडह-सरिया ॥ अरे रति-कल है । अरे मए समं मा करंसु उवहासं ।। __ अर्थ:-प्राकृत साहित्य में रे' अव्यय 'संभाषण' अर्थ में-'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में प्रयुक्त होता है और 'अरे' अव्यय 'प्रीतिपूर्वक कलह' अर्थ में रति-क्रिया संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे:-'' का उदाहरहा:-रे हृदय ! मतक-सरितारे हिअय! महह-सरिया"अर्थात् अरे हृदय ! अल्पजल पालो नदी (वाक्य अपूर्व है)। 'अरे' का उदाहरण इस प्रकार है:-अरे ! मया समं मा कुरु उपहास - अरे ! मए समं मा करेसु उचहासं अर्थात अरे ! तू मेरे साथ उपहास (रति कलह) मत कर । 'रे' प्राकृत साहित्य का रूढ-श्रर्थक और रूढ रूपक अव्यय है; अतः इसकी साधनिका की आवश्यकता नहीं है। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रिोदक हिन्दी व्याख्या सहित - हत्य संस्कृत संशोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप हिश्रय होना है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १.१७७ से 'द' का लोप और ३-३७ से संबोधन के एक वचन में प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप 'म्' प्रत्यय का अभाव होकर हिअय रूर मिद्ध हो जाता है। मृतक सरिता संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप मडह मरित्रा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति; १-२०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्ति; १.१७७ से 'क' का लोप; ४-४४७ से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ह' की व्यत्यय रूप प्राप्तिः (क्योंकि ' और 'इ' का समान उच्चारण स्थान केठ है); और १-१५ से (मूल रूप 'सरित' के अन्त्य इलन्त व्यञ्जन रूप) न्' के स्थान पर 'बा' की प्राप्ति होकर माह-सरिमा रूप सिद्ध हो जाता है। ''अरे' प्राकृत माहित्य का रूढ-रूपक और रूड-अर्थक अव्यय है; अत: साधनिका की आवश्यकता नहीं है। ... 'मए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ?-१९९ में की गई है। 'समें संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप भी समं हो है। अतः साधनिका की आवश्य. कता नहीं है। ! 'मा' संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'मा' ही है ! अतः आधनिका की आवश्यकता नहीं है। __"कुरु' संस्कृत प्राशार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप करेसु होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-२३६ से मूल धातु' 'कर ' के हलन्त व्यञ्जन 'र' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति; और ३-१७३ से आसार्थक लकार के द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर करेनु रूप सिद्ध हो जाता है। उपहासम, संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप उवहासं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उपहासं रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२०१॥ हरे ठोपे च ॥ २-२०२॥ क्षेये संभाषण रतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् ॥ क्षेपे । हरे णिल्लज्ज ।। संभाषणे । हरे पुरिसा ॥ रति-कलहे । हरे बड्डु-वल्लह ॥ अर्थः-प्राकृत साहित्य में 'हरे' अव्यय 'निरस्कार'-अर्थ में; 'संभाषण'-अथ में अथवा 'उद्गार प्रकट करने' अर्थ में; और 'प्रीतिपूर्वक कलह' अर्थ में याने 'रति-किया-संबंधित कलह' अर्थ में प्रयुक्त Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत व्याकरण 2 किया जाता है। 'तिरस्कार' अर्थक उदाहरण:- हरे निर्लज्ज ! हरे जिल्लज्ज अर्थात् अरे ! निर्लज्ज ! (धिकार है)। 'संभाषण' अर्थक उदाहरणः-हरे पुरुषहरे पुरिसा अथात् अरे ओ मनुष्यों : रति कलह' अर्थक पदाहरणः-हरे बहु वल्लभ ! = हरे बहु-वल्लह अर्थात् अरे ! अनेक से प्रेम करने वाला अथवा अनेक स्त्रियों के पति। 'हरे' प्राकृत-साहित्य का रूढ-अर्थक और रूद-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका को प्रावश्यकता नहीं है। मिल संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राक्त रूप णिल्लज्ज होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से 'म्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; २-७६ से '' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात शेष रहे हुए 'ल' को द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'ओ' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर 'जिल्लज्ज' रूप सिद्ध हो जाता है। पुरुषाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप पुरिसा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१११ से 'उ' के स्थान 'इ' की प्राप्तिः १-२६० से 'धू' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-४ से संबोधन के बहु वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस' की प्राप्ति होकर प्राकृत में लोप; और ३-१२ से प्राप्त एवं सुप्त 'जस' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'स' के अन्स्य स्वर 'अ' को वीर्घ स्वर 'मा' की प्राप्ति होकर संबोधन बहु वचन में युरिसा रूप सिद्ध हो जाता है। . बहु-वल्लभ संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप बहु-बल्लह होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय 'श्री' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर बहु-बल्लह रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-२०२।। अो सूचना-पश्चात्तापे ॥२-२०३ ॥ ओ इति सूचना पश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम् ।। सूचनायाम् । श्री अविणय-तसिन्ले ॥ पश्चात्तापे । श्री न मए छाया इति श्राए ।। विकल्पे तु उतादेशे चौकारेण सिद्धम् ॥ श्री विरएमि नहयले ॥ अर्थः-प्राकृत-साहित्य में 'यो' अव्यय 'सूचना' अर्थ में और 'पश्चात्ताप' अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'सूचना' विषयक उदाहरण इस प्रकार है:-श्रो अविनय-तृप्तिपरे !=ी अविणय-तत्तिल्ले अर्थात अरे ! ( मैं तुम्हें सूचित करता हूँ कि ) (तू) अविनय-शील ( है ) । 'पश्चात्ताप' विषयक उदाहरण:भो! (सेव-अर्थे ) न ममा छाया एसावत्या = मो न भए छाया इतिश्राए-अति श्ररे! इतना (समय) Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित • [५१५ हो जाने पर (भी) ( उसकी ) छाया ( तक ) मुझे नहीं ( दिखाई दी)। 'वैकल्पिक' अर्थ में जहाँ 'ओ' प्राता है तो वह प्राप्त 'श्री' संस्कृत अव्यय विकल्पार्थक 'उत अव्यय के स्थान पर प्रादेश रूप होता है। जैसा कि सूत्र संख्या १-१७२ में वर्णित है । उदाहरण इस प्रकार है:-उत विरचयामि नमस्तले यो घिरएमि नहयले । इस उदाहरण में प्राप्त 'श्रो' विकल्पार्थक है न कि 'सूचना एवं पश्चात्ताप' अर्थक; यो अन्यत्र भी तात्पर्य-भेद समझ लेना चाहिये । 'ओं अव्यय प्राकृत-साहित्य में रूढ रूपक और रूढ-अर्थक है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। अधिनय-तृप्तिपरे संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप अविणय-सत्तिल्ले होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२६८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्रामिः १.१२६ से 'भू' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति २-७७ से 'प' का लोप; २.८१ से लोप हुए 'पू' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व त' की प्राप्ति; २-१५६ से 'मत' अर्थक 'पर' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'इल्ल' प्रत्यय की प्राप्ति; .१. से प्राप्त प्रत्यय 'इल्ल' के पूर्व में स्थित 'त्ति' के 'इ' का लोप; ५-५ से प्राप्त हलन्त 'तमें प्रत्यय 'इल्ल' के 'इ' की संधि; ३-३१ से प्राप्त पुल्लिग रूप 'त्तिल्ल' में स्त्रीलिंग-रूप निर्माणार्थ 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३.४१ से संबोधन के एक वचन में प्राप्त रूप 'तत्तिल्ला' के अन्त्य स्वर 'श्रा' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर अविणयतत्तिल्ले रूप सिद्ध हो जाता है। 'न' अध्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-4 में की गई है। 'छाया' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४९ में की गई है। 'भए' की सिद्धि सूत्र-संख्या २-१९९ में की गई है। एतावत्या संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप इतिश्राए होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-१५६ से 'एतावत्' के स्थान पर 'इत्ति' आदेश; ३-३१ से स्त्रलिंग अर्थ में 'इच्चिन' के अन्त में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२६ से सप्तमी विभक्ति के एक पचन में अकारान्त स्रोलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'कि' के स्था. नीय रूप 'या' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर इसिमाए रूप सिद्ध हो जाता है । 'जात' 'श्री' को सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७२ में की गई है। विरचयानि संस्कृत क्रिया पद का रूप है। इसका प्राकृत रूप विरएमि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'च' का लोप; ४-२३६ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'अ' विकरण प्रत्यय की प्राप्ति; ३-१५८ से विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एक वचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विरामि रूप सिद्ध हो जाता है। नमस्तले संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नहयों होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से 'भ' Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६] के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; २-५७ से 'स्' का लोप; १-१७७ से 'तू' का लोप; १-१९८० से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति और ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय के 'हि' के स्थान पर प्राकृत में 'डेन्स्' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'दे' में 'ड' इत्संज्ञक होने से 'नहयल' के अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होने से लोप; एवं १-५ से अन्त्य हलन्त रूप 'नहयल' में पूर्वोक्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर महयले रूप सिद्ध हो जाता है ॥२- २०३ || * प्राकृत व्याकरण * अन्वो सूचना दुःख - संभाषणापराध- विस्मयानन्दादर-भय-खेद-विषाद पश्चात्तापे । २ - २०४ ॥ 1 श्रव्य इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम् || सूचनायाम् । अवो दुक्करयारय ॥ दुःखे | थब्वो दलन्ति हियं || संभाषणे । अन्वो किमियं किमियं || अपराध विस्मययोः । हरन्ति हि तह विन बेसा हवन्ति जुवईण | किं विरहस्पन्ति धुत्ता जगन्महिश्रा ॥१॥ आनन्दादर भयेषु | सुहाय मिणं अच्वो अज्जम्छ सफलं जीनं । वो श्रमितुमे नवरं जड़ सा न जूरिहिइ २॥ खेदे | ऋव्यो न जामि छे । विषादे | भव्त्रो नासेन्ति दिहिं पुलयं बन्ति देन्ति रणरणयं । एसिंह तस्से का गुणा ते च्चिय अव्वो कह णु एवं । ३ । पश्चात्तायें | अव्वो तह तेश कया श्रयं जह कस्स साहेमि ॥ अर्थः- प्राकृत साहित्य का 'अब्बो' अन्यत्र ग्यारह अर्थों में प्रयुक्त होता है । उक्त म्यारह अर्थ क्रम से इस प्रकार - र· हैं: - ( ( ) सूचना, (२) दु:ख, (३) संभाषण, (४) अपराध (५) विस्मय, (६) आनन्द, (७) आदर, (८) भय (1) स्वेद (१०) विषाद और (११) पश्चाताप तदनुसार प्रसंग को देखकर 'अ' sa का अर्थ किया जाना चाहिये। इनके उदाहरण नीचे दिये जा रहे हैं। सूचना-विषयक उदाहरणःश्रब्वी दुष्कर-कारक = अबो दुक्कर याश्य अर्थात (मैं) सूचना (करती हूं कि ) ( ये ) अत्यन्त कठिनाई से किये जाने वाले हैं। दुःख-विषयक उदाहरण:- श्रवो दलति हृदय = अन्यो दलन्ति हिययं अर्थात् दुःख है, कि वे हृदय को चीरते हैं- पीड़ा पहुंचाते हैं। संभाषण विषयक उदाहरण:- अन्वो किमिदं किमिदं अर्थात् अरे! यह क्या है ! यह क्या है ? अपराध और आश्चर्य विषयक उदाहरण: Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [४१५ संस्कृत:-अब्बो हरंति हृदयं तथापि न द्वेष्याः भवति युवतीनाम् ।। अब्बो किमपि रहस्य जान ति धूर्नाः जनाभ्यधिकाः ॥ १ ॥ प्राकृतः-अध्वी हरन्ति हिश्चयं तहविना वेसा इवन्ति जुपमा । अब्दो किं पि रहरसं मुणन्ति धुत्ता जप्णकमहिना ॥२ ।। अर्थात् (कामी पुरुष) युवती-स्त्रियों के हृदय को हरण कर लेते हैं। तो मी (ऐसा अपराध करवे पर भी ) (वे स्त्रियां ) द्वेष भाव करने वाली-(हदय को चुराने वाले चोरों के प्रति ) (दुष्टता के भाव रखने वाली) नहीं होता है। इसमें 'अव्यों का प्रयोग उपरोक्त रोति से अपराध-सूचक है। जन-साधारण से बुद्धि की) अधिकता रखने वाले ये ( कामी) धूर्त पुरुष आश्चर्य है कि कुछ न कुछ रहस्य जानवे हैं । 'रहस्य का जानना' पाश्चर्य सूचक है-विस्मयोत्पादक है, इसी को 'अन्यो' भव्यय से व्यक्त किया गया है। आनन्द विषयक उदाहरण:-अब्वो सुप्रभातम् इदम् = अन्यो सुपहार्य इणं अानन्द की बात है कि (आज) यह सु प्रभात (हुश्रा) । श्रादर-विषयक उदाहरणः-भव्यो अद्य अस्माकम् सफलम् जीवितम् अव्वो अजम्ह सरफलं जी = (आप द्वारा प्रदत इस) श्रादर से आज हमारा जीवन सफल हो गया है। भय-विषय उदाहरणः-अव्वो अतीते त्वया केवलम् यदि सा न खेद्ध्यति = श्रन्यो भइनम्मि तुमे नवरं जद सा न जूगि देह (मुझे भय (है कि) यदि तुम चले. जानोगे तो तुम्हारे चले जाने पर क्या पह खिन्नता अनुभव नहीं करेगी; अर्थात अवश्य ही खिन्नता अनुभव करेगी । यहाँ पर 'अयो' भव्यय भय सूचक है। खेद-विषयक उदाहरणः- अब्बी न यामि क्षेत्रम् - अश्वो न जामि छेत्तं खेद है कि मैं खेत पर नहीं जाती हूं। अर्थात खेत पर जाने से मुझे केवल खिन्नता हो अनुभव होगी-रंज ही पैदा होगा। इस प्रकार यहाँ पर 'अन्यो' अध्यय का अर्थ 'खिनता अथवा रंज' ही है। विषाद-विषयक उदाहरणःसं०-अश्वो नाशयति धृतिम् पुलके वर्धयन्ति ददंते रणरण के !! इदानीम् तस्यः इति गुणा ते एव. अषो कथम् तु एतान् । प्रा०- अन्यो नासेन्ति विहिं पुलयं बडढेन्ति देन्ति रणरणयं ॥ एरिहं तस्से गुणा ते च्चिन अव्वो कह णु एवं ॥ अर्थः खेद है कि धैर्य का नाश करते हैं; रोमाञ्चितता बढ़ाते हैं; काम-वासना के प्रति उत्सुकता प्रदान करते हैं; ये सब वृत्तियों इस समय में उसी धन-वैमव के ही दुगुण हैं अथवा अन्य किसी कारण से है ? खेद है कि इस संबंध में कुछ भी स्पष्ट रूप से विदित नहीं हो रहा है । इस प्रकार अव्यो अध्यय यहाँ पर विषाद-सूचक है। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] - प्राकृत व्याकरण * पश्चाचाप-विषयक उदाहरण इस प्रकार है:संस्कृतः-अश्वो क्या तेन कृता अहम् यथा कस्मै कथयामि । प्राकृतः अन्बो तह सेण कया अयं जह फम्स साइमि । अर्थ:--पायाचाप की बात है कि जैसा उसने किया; वैसा मैं किससे कहूं ? इस प्रकार यहां पर अन्यो अध्यय पश्चात्ताप सूचक है। अशो-प्राकृत-साहित्य का स्वरूपक और सन-अर्थक अध्यय है; अतः साधनिका की भावश्यकता नहीं है। दुष्कर-कारक संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप दुक्कर-यारय होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७७ से '' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'ष' के पश्चात् शेष रहे हुए प्रथम 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से द्वितीय 'क' और तृतीय 'क' का लोप; १-१८० से दोनों 'क' वर्गों के लोप होने के पश्चात शेष रहे हुए 'श्रा' और 'श्र' के स्थान पर ऋमिक यथा रूप से 'या' और 'य' की प्राप्ति होकर दुक्कर-यारय रूप की सिद्धि हो जाती है। __दलन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप भी दलन्ति ही होता है। इसमें सूत्रसंख्या ४-२३६ से हलन्त धातु 'दल' में विकरण प्रत्यय '' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दलन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। हृदयम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप हिययं होता है। इसमें सूत्र संख्या -१२८ से 'ऋ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'दु' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'द' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्रि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर हिययं रूप सिद्ध हो जाता है। किम अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १.२९ में की गई है। 'इदम् संस्कृत सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप इणं होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-४ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में नपुसक लिंग में 'इदम्' के स्थान पर 'इणं आदेश की प्राप्ति होकर गणं रूप सिद्ध हो जाता है। हरन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप हरन्ति होता है । इसमें सूत्र संख्या ५-२३६ से प्राकृच इलन्त धातु 'हर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३.१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष रूप में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हरन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। "हिअयं रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-७ में की गई है। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५१६ 'सह' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६७ में की गई है। "वि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १.६ में की गई है। द्वेष्याः संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से 'द्' का लोप; १.२६० से '' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति, २-७८ से 'य' का लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'स' के साथ लुप्त 'य' में से शेष रहे हुए 'श्रा' की संधि और ३-४ से प्रथमा विभकि के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप एवं ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त 'जस्' प्रत्यय के पूर्व में स्थित 'श्रा' को यथामिश्रति 'पा' को ही प्राप्ति होकर बेसा रूप सिद्ध हो जाता है। भवन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप हवन्ति होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-६० से संस्कृत धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृव में 'हव' श्रादेश; ४-२३६ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'हव' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हन्ति रूप सिद्ध हो जाता है । युपतीनाम् संस्कृत षष्ठयन्त रूप है । इसका प्राकृत रूप जुबईण होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त्' का लोप और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृत प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जुईण रूप सिद्ध हो जाता है। 'कि' अध्यय को सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'पि' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। 'रहस्स' की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९८ में की गई है। जानन्ति संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप मुणन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृत धातु 'शा' के स्थानीय रूप 'जान' के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' श्रादेशः ४-२३६ से प्राप्त एवं हलन्त धातु 'मुण' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मुणन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। धूर्ताः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धुत्ता होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८५ से दीर्घ स्वर 'ऊ' के स्थान पर हस्व स्वर 'उ' की प्राप्ति २-८६ से 'र' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जम्' के पूर्व में स्थित 'च' के अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्य स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर धुत्ता रूप सिद्ध हो जाता है। जनाभ्यधिका: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जणन्महिना होता है। इसमें सूत्र संख्या १-८४ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण * से दीर्घ स्वर 'श्रा' के स्थान पर हस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति: १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' को प्राप्ति; २. से 'य' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'म' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह,' की प्राप्ति; १-१५१ से 'क' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' के पूर्व में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर जणभहिआ रूप सिद्ध हो आता है। सुप्रभातम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुपहायं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-9 से 'र' का लोप; १-१८७ से 'म्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति; १.१७७ से 'न्' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'तु के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर सुयहार्य रूप सिद्ध हो जाता है। 'दणं रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है। 'अज' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-3 में की गई है। अस्माकम् संस्कृत षष्ट्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप (अ) म्ह होता है। इसमें सूत्रसंख्या ३-११४ से संस्कृत 'अस्मद्' के षष्टी बहुवचन में 'श्राम् प्रत्यय का योग होने पर प्राप्त रूप 'अस्माकम्' के स्थान पर प्राकृत में 'अम्ह' श्रादेश की प्रामि और १-0 से मूल गाथा में 'अज्जम्ह' इति रूप होने से 'अ' के पश्चात 'अ' का सद्भाव होने से 'अम्ह' के आदि 'अ' का लोप होकर 'म्ह' रूप सिद्ध हो जाता है। सफलम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप सप्फलं होता है। इसमें सूत्र संख्या -६७ से 'फ' के स्थान पर द्वित्व 'फफ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'फ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' पत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर सफल रूप सिद्ध हो जाता है । जी रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७१ में की गई है। अतीते संस्कृत रूप है। इसका प्रोकत रूप अहम्मि होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से दोनों 'स' वर्णो का लोप; १-१०१ से प्रश्रम 'तू' के लोप होने के पश्चात शेष रहे हुए दीर्घ स्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुस्तिग में संस्कृत प्रत्यय 'वि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अइअम्मि रूप सिद्ध हो जाता है। . त्वया संस्कृत तृतीयान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप तुमे होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-६४ से 'युष्मद्' संस्कृत सर्वनाम के तृतीया विभक्ति के एक वचन में 'टा' प्रत्यय का योग होने पर Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - [५२१ माप्त रूप त्वचा के स्थान पर प्राकृत में उभे भादेश को प्राप्ति होकर तुम रूप सिद्ध हो जाता है। केवलम् संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप नवरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-१८७ से 'केवलम्" के स्थान पर 'णवरं' श्रादेश की प्राप्ति; १-२२६ से 'ण' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'न' की प्राप्ति और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर नवरं रूप सिद्ध हो जाता है। 'जा' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-४० में की गई है। 'सा' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-३ में की गई है। 'न' अव्यय रूप की मिद्धि सुत्र संख्या १-8 में की गई है। खेळ्यति संस्कृत क्रियापद को रूप है। इसका प्राकृत रूप जूरिहिइ होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-१३२ से 'खिद्-खेद्' के स्थान पर प्राकृत में 'जूर' श्रादेशः ४-२३३ से प्राप्त हलन्त धातु 'जूर' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१६६ से संस्कृत में भविष्यतू-काल वाचक प्रत्यय 'घ्य' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' की प्राप्ति; ३-१५७ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति और ३.१३६ से प्रथम पुरुष के एक वचन में प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जूरिहं रूप सिद्ध हो जाग है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। 'यामि' संस्कृत क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप जामि होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति और ३-५४१ से वर्तमानकाल के एक वचन में तृतीय पुरुष में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जाम रूप सिद्ध हो जाता है। क्षेत्रम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है । इसका प्राकृत रूप छत्तं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-३ से 'क्ष' के स्थान पर 'छ,' की प्राप्ति; २-७E से 'र' का लोप; २-से लोप; हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर छत रूप सिद्ध हो जाता है।। नाशयन्ति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप नासेन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२६० से 'श्' के स्थान पर 'स्' की प्राप्ति; ३-१४६ से प्रेरणार्थक में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहु वचन में प्रथम पुरूष में 'न्ति' प्रत्यय को प्राप्ति होकर नासेन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। धृतिम् संस्कृत द्वितीयांत रूप है। इसका प्राकृत रूप दिहिं होता है । इसमें सूत्र-संख्श २-१३१ से 'धृत्ति' के स्थान पर 'दिहि' आदेश; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर विहिं रूप सिद्ध हो जाता है। पुलकम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप पुलयं होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२1 . * प्राकृत व्याकरण * से'क' का लोप; १-९८० से लोप हुए 'क' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर पुलयं रूप सिद्ध हो जाता है। पर्धयन्ति संस्कृत प्रेरणार्थक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप बड्ढेन्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-४० से संयुक्त व्यञ्जन 'ध' के स्थान पर '' आदेश; २-८८ से प्राप्त 'द' को द्वित्व 'ढङ' की प्राप्ति; २-१० से प्राप्त पूर्व 'ब' के स्थान पर 'ड्' की प्राप्ति, ३.१४८ से प्रेरणार्थक में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकाल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बदन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। दते संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप देन्ति होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४७ से द्वितीय 'द्' का लोप; ३-१५८ से लोप हुए 'द्' के पश्चात शेष रहे हुए विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति, ५-१० से प्राप्त 'ए' के पूर्व में स्थित 'व' के 'अ' का लोप, १.५ से प्राप्त हलन्त 'द्' में आगे रहे हुए 'ए' की संधि; और ३-१४२ से वर्तमान काल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'न्ते' के स्थान पर प्राकृत में 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर ट्रेन्ति रूप सिद्ध हो जाता है । प्रेरणार्थफ में 'देन्ति' की साधनिका इस प्रकार भी होती है:-संस्कृत मूल धातु 'वा' में स्थित दीर्घ स्वर 'श्री' के स्थान पर १.८४ से ह्रस्व स्वर 'अ' की प्राप्ति; ३-१४६ से प्रेरणा अर्थ में प्राकृत में 'ए' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१० से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के पूर्व में स्थित 'द' के 'अ' का लोप; १-५ से हलन्त 'द्' में 'ए' की संधि और. ३-१४२ से 'न्ति' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दोन्ति प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाता है। रणरणकम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रणरणयं होता है । इसमें सत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर रणरणयं रूप सिद्ध हो जाता है। 'एम्हि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १७ में की गई है। तस्य संस्कृत षष्ठ्यन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप तस्स होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त ग्यजन 'स' का लोप; और ३-१० से षष्ठी विभक्ति कोएक वचन में संस्कृत प्रत्यय 'डस् के स्थानीय रूप 'स्य' के स्थान पर प्राकृत में 'स' प्रत्यय की प्राप्ति होकर तस्स रूप सिद्ध हो जाता है। ति संस्कृत अव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप 'इअ' होता है । इसमें सूत्र संख्या १.१७७ से 'तु' का लोप और १.६१ से लोप हुएं 'तू' के पश्चात शेष रही हुई द्वितीय 'ई' के स्थान पर 'अ' को प्राप्ति होकर 'हम रूप सिद्ध हो जाता है। Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५२३ 'शुपा रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-११ में की गई है। 'ते' संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप भी 'ते' ही होता है। इसमें सूत्र संख्या १-११ से मूल संस्कृत शब्द 'तत्' के अन्त्य हलन्त म्यान 'त्' का लोप; ३-५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त संस्कृत प्रत्यय 'जम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हे' प्रत्यर को प्राप्ति, प्राप्त प्रत्यय 'डे' में '' इत्संक्षक होने से पूर्वस्थ 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्तज्ञा होकर इस 'अ' का लोप और १.५ से हलन्त 'त्' में प्राप्त प्रत्यय 'प' की संधि होकर 'ते' रूप सिद्ध हो जाता है। 'यिन' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १.८ में की गई है। 'मह' अव्यय को सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है। 'नु' संस्कृत श्रन्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप 'गु' होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर 'पु" रूप सिद्ध हो जाता है। 'एअं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२०९ में की गई है। 'तह' अध्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.६७ में की गई है। "तेण' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१८६ में की गई है। कृता संस्कृत क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप कया होता है। इसमें सत्र संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप और १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात शेष रहे. हुए 'श्र के स्थान पर 'य' की प्राप्ति होकर कया रूप सिद्ध हो जाता है। 'अहयं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २.१९९ में की गई है। 'जह' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १७ में की गई है। कस्मै संस्कृत चतुर्धन्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप कस्त होता है । इसमें सूत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर प्राकृत में विभक्ति-वाचक प्रत्ययों को प्राप्ति होने पर 'क' रूप का सभाष, ३.१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर प्राकृत में पष्टी-विभजित को प्राति; तदनुसार ३.१० से षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृत में संस्कृत प्रत्यय 'इस्' के स्थान पर 'स्स' प्रत्यय को प्राप्ति होकर कस्स रूप सिद्ध हो जाता है। __ कथयामि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप साइमि होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२ से संस्कृत धातु 'कथ्' के स्थान पर साह,' आदेशः ४-२३६ से हलन्त धातु 'साह' में 'क' धातु में प्रयुक्त विकरण प्रत्यय 'अंय' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५८ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'श्र' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४] * प्राकृत व्याकरण * पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर साहमि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२०॥ अई संभावने ॥२-२०५॥ संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम् ।। अइ ॥ दिअर कि न पेच्छसि ॥ अर्थः-प्राकृत-साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला 'अई' अव्यय 'संभावना' अर्थ को प्रकट करता है। 'संभावना है। इस अर्थ को 'अह' अव्यय व्यक्त करता है। जैसे:-प्राइ, देवर ! किम न पश्यसि-श्राइ; दिश्रर ! किं न पेच्छसि अर्थात (मुझे ऐसी) संभावना (प्रतीत हो रही) है (कि) हे देवर ! क्या तुम नहीं देखते हो। प्राकृत साहित्य को रूढ अर्थक और रूढ-रूपक अव्यय है; अतः साधनिका की आवश्यकता नहीं है। देवर संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप दिअर होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१४६ से 'ए' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'व' का लोप और ३-३८ से संबोधन के एक वचन में प्राप्तव्य प्रत्यय (सि-) श्रो' का अभाव होकर विअर रूप सिद्ध हो जाता है । 'कि' अध्यय को सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। 'म' अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-5 में की गई है। पक्ष्यारी संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसको प्राकृत रूप पेच्छमि होता है । इममें सूत्रसंख्या ४-१८१ से संस्कृत मूल-धातु 'इश' के स्थानीय रूप 'पश' के स्थान पर प्राकृत में 'पेच्छ' आदेश; ४-२३६ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; और ३-१४० से वर्तमान काल के एक बचब में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर येच्छसि रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२०शा वणे निश्चय-विकल्पानुकम्प्ये च ॥२-२०६॥ वणे इति निश्चयादी संभावने च प्रयोक्तव्यम् । वणे देमि । निश्चयं ददामि ॥ विकल्पे । होइ वणे न होइ । भवति वा न भवति ।। अनुकम्प्ये । दासो वणे न मुच्चद। दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्यते ॥ संभावने । नस्थि वणे जं न देह विहि परिणामो । संभाव्यते एतद् इत्यर्थः ।। अर्थ:--'वणे' प्राकृत-साहित्य का अव्यय है; जो कि निम्नोत चार प्रकार के अर्थों में प्रयुक्त हुआ करता है:-(१) निश्चय-अथ में; (२) विकल्प-अर्थ में; (३) अनुकंप्य-अर्थ में-दिया-प्रदर्शन-अथ में) Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५२५ और (४) संभावना - श्रर्थ में क्रमिक उदाहरण इस प्रकार है: -- (१) निश्चय विषयक दृष्टान्तः- निश्चयं ददामि=ब देमि अर्थात् निश्चय हो मैं देता हूं । (२) विकल्प - अर्थक दृष्टांतः सवति वा न भवति = होइ षणे न होइ अर्थात (ऐसा हो (भी) सकता है अथवा नहीं (भी) हो सकता है । (३) अनुकम्प्य अर्थात् 'दयायोग्य स्थिति' प्रदर्शक दृष्टान्तः- दासोऽनुकम्प्यो न त्यज्यते दासो वणेन मुरुद अर्थात (कितनी ) दयाजनक स्थिति है ( कि बेचारा ) दास ( दासता से) मुक्त नहीं किया जा रहा है। संभावना दर्शक दृष्टान्तःनास्ति वयन ददाति विधि परिणामः नत्थि बणे जं न देइ विहि परिणामो अर्थात ऐसी कोई वस्तु नहीं है; जिसको कि भाग्य - परिणाम प्रदान नहीं करता हो; तात्पर्य यह है कि प्रत्येक वस्तु की प्राप्ति का योग केवलं भाग्य - परिणाम से ही संभव हो सकता है । सम्भावना यही है कि भाग्यानुसार हो फल प्राप्ति हुआ करती है । यों 'वर' अव्यय का अर्थ प्रसंगानुसार व्यक्त होता है । # प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *******+ 'वणें' प्राकृत - साहित्य का रूढ अर्थक और रूढ रूपक अव्यय है; तदनुसार साधनिका की की आवश्यकता नहीं है । दद्दाभि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप देमि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय दू' का लोपः ३-१५८ से लोप हुए 'दू' के पश्चात शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति १०९० से प्रथम 'द' में स्थित 'अ' के आगे 'ए' की प्राप्ति होने से लोप; १-५ से प्राप्त हलन्त 'दु' में आगे प्राप्त 'ए' की संधि और ३-१४१ से वर्तमान काल के एकवचन में तृतीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दो रूप सिद्ध हो जाता है । 'होई' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-९ में की गई है । 'म' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६ में की गई है। दासः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप दासो होता है । इसमें सूत्र संख्या ३०२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय मि' के स्थान पर प्राकृत में 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दासी रूप सिद्ध हो जाता है । त्यज्यते (=मुच्यते) संस्कृत कर्मणि प्रधान क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुच होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२४६ से कर्मणि प्रयोग में अन्त्य हलन्त व्यञ्जन '' को द्वित्व 'ब' की प्राप्ति; और ४-२४६ से ही 'च्' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति होने पर संस्कृत रूप में रहे हुए कर्मणि रूप वाचक प्रत्यय 'य' का लोप; ४-२३६ से प्राप्त हलन्त 'च्चू' में 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मुचइ रूप सिद्ध हो जाता है। नास्ति संस्कृत अव्यय-योगात्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप नत्थि होता है । इस (न+अस्ति ) में सूत्र संख्या ३-१४८ से 'अस्ति' के स्थान पर 'अस्थि' आदेश; १-१० से 'न' के अन्त्य Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ ] 'अ' के आगे 'अत्थि' का 'अ' होने से लोप और १.५ से हलन्त 'न' में 'अति' के 'अ' की संधि होकर 'नरिथ' रूप सिद्ध हो जाता है। * प्राकृत व्याकरण कूत होता है!सूत्र 'जं' रूप की सिद्धि सूत्र - संख्या १-१४ में की गई है। 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र - संख्या १-६ में की गई है। दात संस्कृत सकर्मक क्रिया पत्र का है। इस संख्या १०१०७ से द्वितीय 'दू' का लोपः ३-१५८ से लोप हुए 'दू' पश्चात् शेष रहे हुए 'आ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति १-१० से प्रथम 'द' में रहे हुए 'अ' के आगे 'ए' प्राप्त होने से लोपः १-५ से प्राप्त हलन्त 'दू' में आगे रहे हुए स्वर 'ए' को संधि और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर के रूप सिध्द हो जाता है । के विधि-परिणामः संस्कृत रुप है । इसका प्राकृत रूप विहि-परिणामो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१८७ से ‘घ्' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थानीय रूप विसर्ग के स्थान पर प्राकृत में 'मो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर fare परिणामी रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-२०६ ।। मणे विमर्श ॥२- २०७॥ भणे इति विमर्शे प्रयोक्तव्यम् || मणे सूरी । किं स्वित्सूर्यः || अन्ये मन्ये इत्यर्थमपीच्छन्ति ॥ अर्थ:-'मरणे' प्राकृत साहित्य का अव्यय हैं जो कि 'तर्क युक्त प्रश्न पूछने' के अर्थ में अथवा 'तर्क- युक्त विचार करने' के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । 'विमर्श' शब्द का अर्थ 'तर्क- पूर्ण विचार' होता है । जैसे:- किंचित् सूर्यः =मणे सूरो, अर्थात् क्या यह सूर्य है। तात्पर्य यह है कि- 'क्या तुम सूर्य के गुण-दोषों का विचार कर रहे हो। 'सूर्य के संबंध में अनुसन्धान कर रहे हो ।' कोई कोई विद्वान 'मन्ये' र्थात् 'मैं मानता हूं'; 'मेरी धारणा है कि इस अर्थ में भी 'म' श्रव्यय का प्रयोग करते हैं । 'किं स्पिन संस्कृत अध्यय रूप है । इसका आदेश प्राप्त प्राकृत रूप मणे होता है। इसमें सूत्रसंख्या २०२०' से 'किंचित्' के स्थान पर 'मणे' आदेश की प्राप्ति होकर मये रूप सिद्ध हो जाता है । भूरो रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६४ में की गई है। मन्ये संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मणे होता है। इसमें सूत्र संख्या २७८ से 'य' का लोप और १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण्' की प्राप्ति होकर 'भणे' रूप सिद्ध हो जाता है ।। २- २०७३। अम्मो आश्चर्ये ॥२-२०८ ।। अम्मी इत्याशर्ये प्रयोक्तव्यम् | अम्भो कह पारिज्जइ ॥ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित [५२७ अर्थ:-'मम्मी' प्राकृत-साहित्य का आश्चर्य वाचक अध्यय है । जहाँ श्राश्चर्य व्यक्त करना हो; वहाँ 'अम्मो' अन्यय का प्रयोग किया जाता है। जैसे:-(आश्चर्यमेतत=) अम्मो कथम् पायते-सम्मो कह पारिक्जद अर्थात् श्राश्चर्य है कि यह कैसे पार उतारा जा सकता है ? तात्पर्य यह है कि इसका पार पा जाना अथवा पार उतर जाना निश्चय ही आश्वयंजनक है। 'अम्मो' प्राकृत साहित्य का स्टारूपक और रूढ-अर्थक अन्यय है; साधनिका की आवश्यकता नहीं है। 'कह अव्यय की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२९ में की गई है। पार्यत संस्कृत कर्मणि-प्रधान क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप पारिजह होता है । इसमें सूत्र-संख्या ३-१६० से मूल धातु पार ' में संस्कृत कर्मणि वाचक प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की प्राप्रि१-५ से 'पार' धातु के हलन्त 'र' में 'इज्ज' प्रत्यय के 'इ' की संधि और ३-१३६ से वर्तमान काल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत-प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पारिका रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२०८ ।। स्वयमोथै अप्पणो नवा ॥२--२०६।। स्वयमित्यस्यार्थ अप्पणो वा प्रयोक्तव्यम् || विसयं विश्वसन्ति अप्पणो कमल-सरा । पचे । सयं चेन मुणसि करणिज्जं ।।। __ अर्थ:--'स्वयम्' इस प्रकार के अर्थ में वैकल्पिक रूप से प्राक़त में 'अप्पणो' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । 'स्वयम्-अपने प्राप' ऐसा अर्थ जहां व्यक्त करना हो; वहाँ पर वैकल्पिक रूप से "अप्परणो' अध्ययात्मक शब्द लिखा जाता है। जैसे:-विशद विकमन्ति स्वयं कमल-सरांमि-विसर्य विसन्ति अपणो कमल-सरा अर्थात् कमल युक्त तालाव स्वयं (हो) उज्बल रूप से विकासमान होते हैं । यहाँ पर 'अप्पणो' अव्यय स्वयं का योतक है । वैकल्पिक पक्ष होने से जहाँ 'अप्पणो' अध्यय प्रयुक्त नहीं होगा; वहाँ पर 'स्वयं' के स्थान पर प्राकृत में 'सर्य' रूप प्रयुक्त किया जायगा जैसे:-स्वयं चेव जानासि करणीयं = सयं चेत्र मुणसि करणिज अर्थात् तुम खुद ही-(वयमेव)-कर्त्तव्य को जानते हो इस उदाहरण में स्वयं के स्थान पर 'अपणो' अव्यय प्रयुक्त नहीं किया जाकर 'सर्थ' रूप प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार वैकल्पिक स्थिति समझ लेना चाहिये । विशदम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप विसर्य होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-७७ से 'द्' का लोप, २-१८० से लोप हुए 'द्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विमक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर विसर्य रूप सिद्ध हो जाता है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८] * प्राकृत व्याकरण* विकसन्ति संस्कृत अकर्मक क्रियापन का रूप है। इसका प्राकृत रूप विसन्ति होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप; ४-२३६ से हलन्त धातु 'विश्रम' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१४२ से वर्तमानकोल के बहुवचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर विसन्ति रूप सिद्ध हो जाता है। : 'स्वयं संस्कृत अध्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप अपणो होता है । इसमें सूत्र संख्या -२०६ से 'स्वयं' के स्थान पर "gram' पायोस को पारित होकर 'अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है। कमल सरांसि संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कमल-सरा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-३२ से मूल संस्कृत शब्द 'कमल-भरस्' को संस्कृतीय नपुंसकत्र से प्राकृत में पुल्लिगत्व की प्राप्ति; १-११ से अन्त्य व्यञ्जन 'स' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस्' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस के पूर्वस्थ 'र' ध्यान में स्थित हरष स्वर 'अ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'श्रा' की प्राप्ति होकर कमल-सरा रूप सिद्ध हो जाता है। स्वयम् संस्कृत अव्ययात्मक रूप है । इसका प्राकृत रूप सयं होता है। इसमें सूत्र संख्या २.७६ से '' का लोप; और १-२३ से अन्त्य हलन्त 'म' का अनुस्वार होकर सर्य रूप सिद्ध हो जाता है। 'च' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-१८४ में की गई है। जानासि संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप मुणसि होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-७ से संस्कृतीय मूल धातु 'झा' के स्थानीय रूप 'जान् के स्थान पर प्राकृत में 'मुण' श्रादेश; ४-२३६ से प्राप्त हलन्त धातु 'मुण' में बिकरण प्रत्यय अ' की प्राप्ति और ३-१५० से वर्तमानकाल के एकवचन में द्वितीय पुरुष में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'सि' प्रत्यय को प्राप्ति होकर मुणसि रूप सिद्ध हो जाता है। 'करणिय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १.२४८ में को गई है ।। २-२०६ ।। प्रत्येकमः पाडिक्क पाडिएक्कं ॥२-२१० ॥ प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिक्कं पाडिएक्के इति च प्रयोक्तव्यं वा । पाडिक्कं । पाडिएक्कं । पक्षे । पत्ते ।। अर्थ:--संस्कृत 'प्रत्येकम्' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से प्राकृत में 'पाडिक्क' और 'पाडिएक्क' रूपों का प्रयोग किया जाता है। पक्षान्दर में 'पत्तेअं' रूप का भी प्रयोग होता है । जैसे:--प्रत्येकम् - पडिक्क अथवा पाखिएकक अथवा पत्ते। प्रत्येकम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रुप पाडिस; पाठिएक और पत्त होता हैं। इनमें Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५२६ से प्रथम दो रूपों में मत्र संख्या २-२१० से 'प्रत्येकम्' के स्थान पर 'पाक्षिक और पाडिएक' रूपों की ऋमिक आदेश प्राप्ति होकर क्रमसे दोनों रूप पाडिक' और 'पाडिएवं सिद्ध हो जाता है। तृतीय रूप (प्रत्येकम् ) पोश्र में मत्र-संख्या ६-७E से 'र' का लोप; २-से 'य' का लोप; २.८६ मे लोप हुए 'य' के पश्चात् शेष रहे हुए 'स्' को द्वित्व 'श' की प्राप्ति; :-1 से क' का लोप; और ५-२३ से अन्त्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर पत्ते रूप सिद्ध हो जाता है । ॥२-२१॥ उअ पश्य ॥२-२११ ॥ उथ इति पश्येत्यस्यार्थे प्रयोक्तव्यं वा ॥ उप निच्चल-निष्फंदा भिसिणी-पत्तमि रेहइ बलाश्रा। निम्मल-मरगय-मायण-परिद्विश्रा सङ्ख-सुत्ति व्य ।। पाने गुरुगादयः। अर्थ:--'देखो' इस मुहाविरे के अर्थ में प्राकृत में 'अ' अव्यय का वैकल्पिक रूप से प्रयोग किया जाता है। जैसे:- पश्य-उन अर्थात् देखो। 'ध्यान आर्णित करने के लिये' अथवा 'सावधानी बरलने के लिये 'अथवा' पेतावनी देने के लिये हिन्दी में 'देखो' शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी सात्पर्य को प्राकृत में व्यक्त करने के लिये 'उग्र' अध्यय को प्रयुक्त करने की परिपाटी है । भाव-स्पष्ट करने के लिये नीचे एक गाथा उद्धृत की जा रही है:संस्कृता-पश्य निश्चल-निष्पन्दा बिसिनी-पत्र राजते बलाका ॥ निर्मल-मरकन-भाजन प्रतिष्ठिता शंख-शुक्तिरिव ॥२॥ प्राकृता-उम निश्चल-निफा मिसिणी-पत्चमि रेइ बलामा ।। निम्मल मरगय-भायण परिट्टिा सज-सुशिब ॥१॥ भर्थ:--'देखो'-शान्त और अचंचज्ञ बगुली (तालाब का सफेड-वर्णीय मापो पक्षी विशेष) कमलिनी के पत्ते पर इस प्रकार सुशोभित हो रही है कि मानों निर्मल मरकत-मणियों से बाचित रतन में शंख अथवा सीप प्रतिष्ठित कर दी गई हो अथवा रख दी गई हो । उपरोक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि 'बलाकाम्बगुली' की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये व्यक्ति विशेष अपने साथी को कह रहा है कि 'देखो (प्रा उत्र) कितना सुन्दर दृश्य है !' इस प्रकार 'उ' अध्यय की उपयोगिता एवं प्रयोगशीखता जान लेना चाहिये । पक्षान्तर में 'उन' अध्यय के स्थान पर प्राक्त में 'पुलम' श्रादि पन्द्रह प्रकार के भादेश रूप भी प्रयुक्त किये जाते हैं, जो कि सूत्र संख्या ४-१८१ में प्रागे कडे गये हैं । तदनुसार 'पुलम' श्रादि रूपों का तात्पर्य भी 'बम' भन्म के समान ही जानना चाहिये। पश्य संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप 'उ' शेता है। इसमें सूत्र संख्या २-१११ से परम के Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्राकृत व्याकरण स्थान पर प्राकृत में 'उच्च' आदेश की प्राप्ति होकर 'अ' अव्यय रूप सिद्ध हो जाता है। निश्चल-निष्यन्दा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निच्चल-निफदा होता है । इसमें सूत्र संख्या २-७७ से प्रथम 'श' का लोप; २-८८ से लोप हुए 'श् के पश्चात शेष रहे हुए 'च' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति; २-५३ से संयुक्त व्यञ्जन 'ए' के स्थान पर 'फ की प्राप्ति; २.८८. से आदेश प्राप्त 'फ' को द्वित्व 'फ्फ' की प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व "फ्' के स्थान पर प्' को प्राप्ति; और १-२५ से हलन्त न' के स्थान पर पूर्वस्थ , वर्ण पर अटादार की प्राप्ति होगर निचल-निष्पंदा रूप सिद्ध हो जाता है। पिसिनी-पत्रे संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप भिसिणी-पत्रांमि होता है। इस शब्द-समूह में से 'मिसिणी' रूप की मिद्धि सत्र संख्या १-२३८ में की गई है। शेष 'पसमि' में सूत्र संख्या २-७८ से 'र' का लोप; -८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'त' के स्थान पर द्वित्व 'श' की प्राप्ति; ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'जि' के स्थानीय रूप 'ए' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ को वृत्ति से हलन्त प्रत्ययस्थ 'म्' का अनुस्वार होकर मिसिणी-पत्तमि रूप सिद्ध हो जाता है। राजते संस्कृत अकर्मक क्रिया पद का रूप है । इसका प्राकृत रूप रेहद होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१०० से संस्कृत धातु 'राज' के स्थान पर प्राकृत में 'रेह' आदेश; ४-२३४ से प्राप्त हलन्त धातु 'रेह' में विकारण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमानकोल के एक वचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रेहड़ रूप सिद्ध हो जाता है। बलाका संस्कृत भप है। इसका प्राकृत रूप बलात्रा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से 'क' का लोप और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में आकारान्त स्त्रीलिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'मि' के स्थानीय रूप रूप विसर्ग व्यञ्जन का लोप होकर बलाआ रूप सिद्ध हो जाता है। "निर्मल-मरकत-भाजन प्रतिष्ठित संस्कृत समासात्मक विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप 'निम्मल-मरगय-भायण-परिट्रिया' होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से रेफ रूप प्रथम 'र' का लोप; २-८६ से लोप हुए रेफ रूप 'र' के पश्चात शेष रहे हुए (प्रथम) 'म' को द्वित्य 'मम' की प्राप्ति; ४-४४० से और १-१७७ की वृत्ति से 'क' के स्थान पर व्यत्यय रूप 'ग' की प्राप्ति; १-१७७ से प्रथम 'त' का लोप; १-१८० से लोप हुए (प्रथम) 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-१७७ से 'ज' का लोप; १-१०० से लोप हुए 'ज' के पश्चात शेष रहे हुए 'श्र' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; १-२२८ से द्वितीय 'न' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ५.३८ से 'प्रति' के स्थान पर परि' श्रादेश; २-७७ से '' का लोप; २-८१. से लोप हुए 'ष' के पश्चात शेष रहे हुए '' को द्वित्व '४' की प्राप्ति, २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; और १.१७७ से अन्त्य 'ता' में स्थित 'त' का लोप होकर संपूर्ण समासात्मक रूप 'निम्मल-मरगय भायण परिवा' सिद्ध हो जाता है। Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *सियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * शंख-शुक्तिः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत कम मज-सुत्ति होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२६० से दोनों 'श' व्यञ्जमों के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १.३० से अनुस्वार के स्थान पर आगे 'ख' व्यञ्जन होने से कवर्गीय पश्चम-अक्षर की प्राप्ति; ५-७७ से 'क्ति' में स्थित हलन्त 'क' ध्यान का लोप; २-८६ से लोप हुए 'क' के पश्चात शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन रूप विसर्ग का लोप होकर सला-भुत्ति रूप सिद्ध हो जाता है। 'च' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-5 में की गई है। ... पश्य सस्कृत क्रियापद रूप है। इसका प्राकृत रूप पुल अ भी होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१८१ से संस्कृत मून धातु दृश' के स्थानीय रुप पश्य' के स्थान पर पूल' आदेश की प्रामि और ३.१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्रम्य प्रत्यय का लोप होकर पुरुष रूप सिद्ध हो जाता है ।।२-२११ ॥ इहरा इतरथा ॥२-२१२॥ इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा ॥ इहरा नीसामनेहिं । पथे । इसरहा ॥ अर्थ:-संस्कृत शब्द 'इतरथा' के अर्थ में प्राकृत-साहित्य में वैकल्पिक रूप से 'इहरा' अध्यय का प्रयोग होता है । जैसे:-इत्तरथा निः सामान्य इहरा नोसामोहिं धर्मात् अन्यथा असाधारण द्वारा(वाक्य अपूर्ण है)। कल्पिक पक्ष होने से जहाँ 'इहरा' रूप का प्रयोग नहीं होगा वहाँ पर 'इभरहा' प्रयुक्त होगा। इस प्रकार 'इनरथा' के स्थान पर 'इहरा' और 'इअरहा' में से कोई भी एक रूप प्रयुक्त किया जा सकता है। इतरथा संस्कृत अव्यय रूप है। इसके प्राकृत रूप इहरा और इअरहा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २.२१२ से 'इतरथा' के स्थान पर 'इहरो' रूप की आदेश प्राप्ति होकर प्रथम रूप बहरा सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(इतरथा%3D) इअरहा में सूत्र संख्या १-१७७ से 'त' का लोप और ११८७ से यू' के स्थान पर 'ह' प्रादेश की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप इभरहा भी सिद्ध हो जाता है। नि सामान्य संस्कृत विशेषणरूप है। इसका प्राकृत रूप नीसामहि होता है। इसमें सूत्रसंख्या २.७७ से विमर्ग रूप 'स' का लोप; १-४३ से विसर्ग रूप 'स' का लोप होने से 'नि' व्यन्जन में स्थित रघ स्वर 'इ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति; १-८४ से 'मा' में स्थित दोघं स्वर 'श्रा' के स्थान पर हम्ब स्वर 'अ' की प्राप्ति: २-७८ ले 'य' को लोप; E से लोप हुए 'य' के पश्चात शे; रहे हुए 'न' को द्वित्व 'म' की प्राप्ति; ३-७ से तृतीया त्रिभक्ति के बहुवचन में अकारान्त में संस्कृत प्रत्यय 'मिस्' के स्थानीय रूप 'एस' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *प्राकृत व्याकरण तृतीया विभक्ति के बहु वचन में प्रत्यय 'हिं' के पूर्वस्व 'क' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर निसामन्नेहि रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २-२१६ ॥ - एक्कसरि झगिति संप्रति ॥ २-२१३ ॥ एकसरिअं झगित्यर्थे संप्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम् ॥ एक्कसरि । झगिति सांप्रत यो । अर्थ:-शीघ्रता' अर्थ में और संप्रति अाजकल' अथ में याने प्रसंगानुसार दोनों अर्थ में प्राकृत-साहित्य में केवल एक ही अव्यय 'एकसरिअ' प्रयुक्त किया जाता है । इस प्रकार 'एक्कसरित्र" अव्यय का अर्थ शीघ्रता-तुरन्त' अथवा 'झटिति' ऐसा भी किया जाता है और 'आजकल-संपति' ऐसा भी अर्थ होता है। तदनुसार विषय प्रसंग देखकर दोनों अर्थों में से कोई भी एक अथ 'एकसरिश्र' अव्यय का किया जा सकता है। झटिति संस्कृत अव्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप एककसरि होता है। इसमें सूत्र संख्या २.२१३ से 'झटिति' के स्थान पर प्राकृत में 'एक्कसरिश्र' रूप की श्रादेश-प्राप्ति होकर एक्कसरिमें रूप सिद्ध हो जाता है। संप्रति संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप एक्कसरिअं होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.२१३ से 'संप्रति के स्थान पर प्राकृत में 'एक्करिअं' रूप को श्रादेश-प्राप्ति होकर एक्कसरि रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-२१३॥ मोरउल्ला मुधा ॥२-२१४॥ मोरउल्ला इति सुधार्थे प्रयोक्तव्यम् ।। मोरउन्ला । मुधेत्यर्थ : ॥ अर्थः-संस्कृत अव्यय 'मुघा='व्यर्थ' अर्थ में प्राकृत-भाषा में 'मोरजल्ला' अव्यय का प्रयोग होता है । जब 'व्यर्थ' ऐसा भाव प्रकट करना हो तो 'मोरउल्ला' ऐसा शब्द ओला जाता है। जैसे:मुधा-मोरउल्ला अर्थात् व्यर्थ (है)। मुधा संस्कृत अध्यय रूप है । इसका प्राकृत रूप मोरडल्ला होता है । इसमें सूत्र संख्या २-२१४ से 'भुधा' के स्थान पर प्राकृत में मोरउल्ला' आदेश की प्राप्ति होकर मीरउल्ला रूप सिद्ध हो जाता है। ।।२-२१४॥ दराधील्पे ॥ २-२१५ ॥ दर स्त्यव्ययमर्धार्थे ईपदर्थे च प्रयोक्तव्यम् ।। दर-विमसि । अर्धेनेपदा विकसित्तमित्यर्थः ॥ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ____ अर्थ:-'अर्ध' = खंड रूप अथवा प्राधा समभाग' इस अर्थ में और 'ईषम् अल्प अर्थात् थोडासा' इस अर्थ में भी प्राकृत में 'दर' अव्यय का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार जहाँ 'दर' अव्यय हो; वहाँ पर विषय-प्रसंग को देखकर के दोनों प्रथों में से कोई सा भी एक उचित अर्थ प्रकट करना चाहिये । जैस:-अध विकसितम् अथवा ईषत् विकसितम्-दर-विप्रसिध अर्थात् (अमुक पुष्प विशेष) आधा ही खिला है अथवा थोड़ा सा ही खिला है। अर्ध-विकसितम् अथवा ईषत्-विकसितम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप दर विश्रास होता है। इसमें सूत्र संख्या-२-२१५ से 'अर्ध' अथवा 'ईषस' के स्थान पर प्राकृत में 'दर' श्रादेशः १-१७७ से 'क्' और 'त्' का लोप; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में प्रकारान्त नपुंसकलिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर दर-विमसि रूप सिद्ध हो जाता है। ।। २.२१५ ॥ किणो प्रश्ने ॥ २-२१६ ।। किणो इति प्रश्ने प्रयोक्तव्यम् ।। किणो धुवसि ।। अर्थ:-'झ्या, क्यों अथवा किसलिये' इत्यादि प्रश्न वाचक अर्थ में प्राकृत भाषा में 'किणो' अव्यय प्रयुक्त होता है । जहाँ 'किणो' अव्यय प्रयुक्त हो; वहाँ इसका अर्थ 'प्रश्नवाचक' जानना चाहिये। जैसे:-किम् धूनीषिकिणो धुवसि अर्थात क्यों तू हिलाता है ? 'किणो' प्राकृत साहित्य का रुढ अर्थक और रूढ रूपक अव्यय किणी सिद्ध है। ___ धूनीषि संस्कृन सफर्मक क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप धुवसि होता है इसमें सूत्र संख्या-v-५६ से संस्कृत धातु 'धून' के स्थान पर प्राकृत में 'धु' श्रादेश; ४-३६ से हलन्त प्राकृत धातु 'धुव' में विकरण प्रत्यय 'श्र' की प्राप्ति और ३-१४० से वर्तमान काल के एक वचन में द्वितीय पुरुष में 'सि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धुपति रूप सिद्ध हो जाता है ।।। २-२१६ ।। इ-जे-राः पादपूरणे ॥ २-२१७ ॥ इ, जे, र इत्येते पाद-पूरणे प्रयोक्तव्याः ।। न उसा इ अच्छीई । अणुकूलं वोजे । गेण्हइ र कलम-गोषी ।। अहो । हहो । हेहो। हा । नाम । अहह । होसि । अयि । महाह । अरि रि हो इत्यादयस्तु संस्कृत समत्वेन सिद्धाः ।। - अर्थ:-'छंद आदि रचनाओं में पाद-पूर्ति के लिये अथवा कथनोप-कथन में एवं संवाद-वार्ता में किसी प्रयोजन के केवल परम्परागत शैली विशेष के अनुसार 'इ, जे, र' वर्ण रूप अध्यय प्राकृत रचना में प्रयुक्त किये जाते हैं। इन एकाक्षरी रूप अव्ययों का कोई अर्थ नहीं होता है। केवल ध्वनि Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ ] = रूप से अथवा उच्चारण में सहायता रूप से ही इनका प्रयोग किया जाता है; तदनुसार से अर्थ होन होते हैं एवं तात्पर्य से रहित ही होते हैं। पाद-पूर्ति तक ही इनकी उपयोगिता जाननी चाहिये। उदाहरण इस प्रकार हैं::- न पुनर अक्षीणि न उणा इ अच्छी अर्थात पुनः आँखें नहीं - ( वाक्य अपूर्ण है) । इस उदाहरण में एकाक्षरी रूप 'इ' श्रव्यय अर्थ हीन होता हुआ भी केवल पाद-पूर्ति के लिये ही श्राया हुआ है। 'जे' का उदाहरण:- अनुकूलं वक्तु ं श्रणुकूलं बोत जे अर्थात् अनुकूल बोलने के लिये । इस प्रकार यहाँ पर 'जे' अर्थ हीन रूप से प्राप्त है । 'र' का उदाहरणः - गृहणाति कलम गोपी = एहइ र कलम- गोबी अर्थात् कलम- गोपी (धान्यादि की रक्षा करने वाली स्त्री विशेष ) ग्रहण करती है। इस उदाहरण में 'र' भो अर्थ हीन होता हुआ पाद-पूर्ति के लिये ही प्राप्त है । यो अन्यत्र भी जान लेना चाहिये । 7 * प्राकृत व्याकरण * प्राकृत-साहित्य में अन्य अव्यय भी देखे जाते हैं; जो कि संस्कृत के समान ही होते हैं; कुछ एक इस प्रकार है: - (१) अहो, (२) हंहो, (३) देहो, (४) हा, (५) नाम, (६) श्रहह, (७) ही सि, ( 5 ) अयि, (६) श्रहह, (१०) अरि, (११) रि और (१२) हो । ये अव्यय-वाचक शब्द संस्कृत के समान ही अर्थयुक्त होते हैं और इसकी अक्षरीय रचना भी संस्कृत के समान ही होकर तद्वत् सिद्ध होते हैं । अतएव इसके लिए अधिक वर्णन की आवश्यकता नहीं रह जाती हैं । 'न' अव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १०६ में की गई है । 'उ' श्रव्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-६५ में की गई है। 'ई' अव्यय पाद- पूर्ति अर्थक मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। 'अच्छी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १३३ में की गई है। अनुकूल संस्कृत द्वितीयान्त विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अनुकूल होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'नू' के स्थान पर 'णू' की प्राप्ति; ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'मू' का अनुस्वार होकर अणुकूल रूप सिद्ध हो जाता है । वक्तुम्, संस्कृत कृदन्त रूप है। इसका प्राकृत रूप बोत्त' होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-२११ से मूल संस्कृत धातु 'वच्' के स्थान पर कृदन्त रूप में 'बोत्' आदेश और ४-४६८ से संस्कृत के समान ही आकृत में भी त्वर्थ कृदन्त अर्थ में 'तुम' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से अन्य हलन्त 'म्' का अनुस्वार होकर घोत्तुं रूप सिद्ध हो जाता है। 'जे' अव्यय पाद पूर्ति अर्थ मात्र होने से साधनिका की आवश्यकता नहीं रह जाती है। गृणाति संस्कृत सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप यह होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२०६ से मूल संस्कृत धातु 'मह' के स्थान पर प्राकृत में 'यह' आदेश और ३-१३१ से वर्तमान काल के एकवचन में प्रथम पुरुष में प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गेण्डर रूप सिद्ध हो जाता है । + Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [५३५ 'र' अव्यय पाद-पूर्ति अर्थक मात्र होने से साधनिका की श्रावश्यकता नहीं रह जाती है। कलम-गोपी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप कलम-गोवी होता है । इसमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में दीर्घ इकारान्त स्त्रीलिग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई' को 'यथा-स्थिति' अर्थात दीर्घता ही प्राप्त होकर कलम-गोवी रूप सिद्ध हो जाता है। 'वृत्ति' में वर्णित अन्य अध्ययों की माधनिका की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि उक्त अव्यय संस्कृत अध्ययों के समान ही रचना वाले और अर्थ वाले होने से स्वयमेव सिद्ध रूप वाले ही हैं। ।। २-२१७ ॥ प्यादयः ॥२-२१८॥ प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्याः॥ पि वि अप्यर्थ ।। अर्थः-प्राकृत भाषा में प्रयुक्त किये जाने वाले 'पि' और 'वि' इत्यादि अव्ययों का वही अर्थ होता है; जो कि संम्कत भांपा में निश्चित है; अत: निश्चित अर्थ वाल होने से इन्हें 'वृत्ति' में 'नियत अर्थयत्तिः विशेषण से सुशोभित किया है। तदनुसार 'पि' अथवा चि' अश्यय का अर्थ संस्कृतीय 'अपि' अव्यय के समान ही जानना चाहिये । 'पि' छाव्यय की मिद्धि सूत्र संख्या १.४१ में की गई है। 'वि' अव्यय की मिद्धि सूत्र संख्या १.६ में को गई है। ॥ २-२ ८ ॥ इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि विरचितायां सिद्ध हेमचन्द्राभियानस्त्रीपन शब्दानुशासन वृत्तौ अष्टमस्थाध्यायस्य द्वितीयः पादः ।। अर्थ:-इस प्रकार प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरि द्वारा रचित 'सिद्ध-हेमचन्द्र-शब्दानुशासन' नामक संस्कृत-प्राकृत-व्याकरण की स्वाय 'प्रकाशिका' नामक संस्कृतीय टोकान्तर्गत पाठवें अध्याय का अर्थात् प्राकृत व्याकरण का द्वितीय चरण समाप्त हुआ। 1G Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्राकृत व्याकरण * -: पादान्त मंगलाचरण :--- द्विपत् पुर चोद-विनोद हेतो र्भवादवामस्य भवद्भुजस्य । अयं विशेषो भुवनैकवीर ! परं न यत्-काममपाकरोति ॥ १ ॥ अर्थ:--हे विश्व में एक ही-अद्वितीय वोर सिद्धराज ! शत्रुओं के नगरों को विनष्ट करने में ही मानन्द का हेतु बनने वाली ऐमी तुम्हारी दाहिनी भुजा में और जव हार्यात भगवान शिव-शकर में (परस्पर में) इतना ही विशेष अन्तर है कि जहाँ भगवान् शिव-शङ्कर काम-(मदन-देवत्ता) को दूर करता है। यहाँ तुम्हारी यह दाहिनी भुजा काम (शत्रुओं के नगरों को नित्य ही नष्ट करने की इच्छा विशेष ) को दूर नहीं करतो है । तुम्हारे में और शिव-शक्कर में परस्पर में इसके अतिरिक्त सभी प्रकार से समानता ही है । इति शुभम् | इति अष्टम अध्याय के द्वितीय पाद की 'प्रियोदयाख्या' हिन्दी-व्याख्या समाप्त । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sirkaamealu aasIRetronru Iartunitiure ISIS I Dாட்டிமாரா ANIRAINDHI IN RITISHURAIPOலையோ பயனோடு ल परिशिष्ट-भाग - - अनुक्रमणिका : १-संकेत बोध २-कोष-रूप-सूची ३-शुद्धि-पत्र பாgumunam யாயோலாய வேUைIRITUNISIRIGARIA மாயை SURICHAIKARImaாயோ மாவோயம்கானாட Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेत-बोध की अध्ययन अकर्मक-धातु । अप-भ्रंश भाषा उपसर्ग सकर्मक तथा अकर्मक पातु । अथवा से सिंगाला। कर्मणि-याच्य। कर्मणि-वर्तमान-कुवन्स । कृल्य-प्रत्ययात। मियापन । क्रिया-विशेषग चुस्तिका पराची भाषा। त्रिलिग। नपुंसकॉग पुलिंग। पुलिंग तथा नपुंसकलिंग। पुलिंग तया स्त्रीलिंग। पंजाबी भाषा प्रेरणार्थक-गिवन्त। स्त्री. * कु. मषि. भविष्यत् कृदन्त । भविष्यल-काल भूतकाल। भूत-वृवन्त । मागधी भाषा। वर्तमान-कृदन्त । विशेषण । शौरसेनी माषा। सर्वनाम। संबाधक कृत। सकर्मक-पातु । स्त्रीलिंग। स्त्रीलिंग तया पुसकलिंग। हेवर्ष-कृवन्त। सर्व सक. स्त्रो . स्त्री .न. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "श्रो॥ प्राकृत-व्याकरण में प्रथम-द्वितीय पाद में - सिद्ध किये गये शब्दों की कोष-रूप-सूची [पद्धति-परिचय:-प्रपम शव प्राकृत-भाषा का है; द्वितीय अक्षरात्मक लघु-संकेत HEER SAT को व्याकरणगत विशेषता का सूचक है। तृतीय कोष्ठान्तर्गत शम्न मूल प्राकृत शम्ब के संस्कृत रूपान्तर का अबोवा है और चतुर्थ स्थानीय शव हिन्दी-तात्पर्य बाधक है। इसी प्रकार प्रथम मंक प्राकृत-व्याकरण का पारश्रम बोधक है और अन्य अंक इसी पाव के सूत्रों की कम संख्या की प्रदशित करते।योध्याकरण-गत शब्दों का यह शब-सोष ज्ञातव्य हैं। अ. () और, पुन; फिर, अवधारण, निश्चय | अगायो पु. (अग्रतः) सामने, नागे; १.३७ । इत्यादि १-१-४, २-१४४, 1८८; १९३।। | अग्गी पु (अग्नि) आग; १०२ अइब (अति) मतिशय, अतिरेक, उत्कर्ष, महत्व, अग्धह मंक. (राबते) वह सुशोमित होता है, कमकता पूजा, प्रशंसा आदि अर्षों में प्रयुक्त किया जाता है। है। 1-१८७। १-१६९, २-१७९, २०५७ अकोल्लो पु, मोठः वृक्ष विशेष; १-२००, २-१५५ । अहम्मि थि. (अतीते) म्पतीत अर्थ में; २-२०४।। अंगे (अंग) अंग पर; १७ अंगाई (अंगानि) अत्रमुत्तयं पु (अतिमुक्तकम् ) अयवन्ता कुमार को; शरीर के अवयवों में (अपवा को); १-९३ । १.२६, १८, २०८। अंगहि , अंगः)शरीर के अवयवों द्वारा प्राइमुसयं पु. ( मतिमुक्तकम् ) अपबन्ता कुमार को; १-२६, १७८। अङ्गणं अंगणं न. (अंगगम्) आंगन; १.३०। अइसरिश्र न. (ऐश्वर्यम् । वैभव, संपत्ति, गौरव १-१५१ | अङ्गारों पु. ( अगार:) जलता हुमा कोयला; चन अंसु न. (मश्र आंसु नेत्र-जल १-२६ । साधुओं के लिये मिक्षा का एक दोष; |१-४७ श्रको पु० (अक: ) सूर्य आक का पेठ, स्वर्ण-सोना; अंगु न. (इंगुदम्। इंगुष वृक्ष का फल; 1-८१ । १-१७७, २-७१, ८१। श्रच्चो कि. (मध्यः) पूज्य, पूजनीय; १.१७७ अक्खाइ सफ. आख्याति) वह कहता है; 1-1८७। अच्छअर न. (आश्चर्यम् ) विस्मय चमत्कार; १५८ अनवराण ( अक्षराणाम् ) अक्षरों के, वर्णो के; २-६७। २-१५॥ अच्छपसा स्त्री (अप्सराः) इन्द्र की एक पटरानी; देवी अगणी पु. (अग्निः) भाग; २-१०२। रूपवती स्त्री; १-२०॥ गया पु० देशज =( असुराः । दैत्य, दानव ; २-१७४ अच्छरा स्त्री (असा ) इन्द्र की एक पटरानी; देवी; अगलं पु.न. (अगरूः) सुगंधित काष्ठ विशेष:१-१०७ १-२००२-२२। अगह मि. (अगः) जो बड़ा नहीं ऐसा लघु,छोटा; ] अच्छरिश्रम. ( आश्कर्षम ) विस्मय, चमत्कार; १५८ २-६७। Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरिज न. ( आश्चर्यम् ) विस्मय, चमत्कार; १५८ अणिटै थि, (अनिष्टम्) अप्रीतिकर; नेष्य; २-३४ । २-६७। अणुकूलं वि (अनुकूलम्) अप्रतिकूल; अनुकूल, २-२१७ अच्छरोध न. ( आश्चर्यम् ) विस्मय, चमत्कार १-५८ | अणुसारिणी श्री. वि. (अनुसारिणी) अनुसरण करने २०६७। वाली; पीछे पीछे चलने वाली; १.६।। श्रच्छिन्न वि. ( अच्छिन्न ) नहीं सोड़ा हुआ; अन्तर- | अणुसारेण पु' (अनुसारेण) अनुसरण द्वारा अनुवर्तन से; रहित; २.१९८॥ २-१७४। अच्छी पु. स्त्री (अक्षि.) आंख; १.३३, ३५। अचमाणो बकृ. (आवर्तमान:) चक्राकार घूमता हुआ; अण्डी (अक्षिणो) आंखों को १.३३, २०१७ परिभ्रमण करता हआ; १.२७१। अच्छेरं न. (आश्चर्यम्) विस्मय, चमत्कार; १-५८ । अत्ता पु. (आत्मा) आत्मा, जीव, चेतन, निन, स्व; २-१.६६,६७। अजि पु. (अजितम्) द्वितीय तीर्थकर अजितनाथजी अत्थ न. पु. (अर्थ) पदाचं; तात्पर्य; धम; 1-७; १-३३ को; १-२४ । अस्थक न. (देशाज) (अकाण्डम्) अकाण्ड, अकस्मात् अज्ज अ. (अध) आज; १-३३, २-२०४, ___असमय; २-२७४। अजज पु. (आर्य) श्रेष्ठ पुरुष मुनि १-६ । अस्थिनो वि. अर्षिक:) धनी, धनवान् २-१५९ । अब्जा स्त्री. आशा आदेश, हम ; २-८३ श्रथिरी वि. (अस्थिरः) चंचल, चपल, अनित्य, विनश्वर; अज्जा स्त्री. (आर्या) सावा; आर्म नामक छन्द | पूज्या; १-७७॥ अदसणं न. (अदर्शनम्) नहीं देखना; परोक्ष; २-१७ । अज्जू स्त्री, (श्वश्रूः) सासू -७७ । अहं वि. (माईम्) गीला; भीजा हुआ; १-८२ । अञ्जली पु स्त्री. (अजलि:) कर-संपुट; नमस्कार रूप | अहसणं न, (अदर्शनम्) नहीं देखना; परोक्ष; २-९७ ॥ विनय१-३५. अहो पु. (अन्दः) मेष, वर्षा; वर्ष, संवत्सर, २.७९ । अलिअं अंजिअं वि. (अजितम्) आजा हुआ;१-३० । श्रद्धं वि, (अधम्) आषा; २-४१ । अदइ सक, (अटतिः) बहमण करता है। १-१९५ | अनलो पु. (अनल:) अग्नि आग; १-२२८ । अट्टमट्टपू. (देशज) क्यारी; २-१७४। अनिलो पु. (अनिलः) वाय, पवन, १-२२८ । अट्ठी स्त्रो. (अस्पिः ) हड्डी; २-३२ अन्तमायं वि. (अन्तर्गतम) अदर रहा था; १-६०॥ अट्ठो पु. ( अधः ) वस्तु, पदार्थ, विषय, वाच्यार्य, अन्तप्पामओ पु. (अन्तः पातः) अन्तर्भाव. समावेश; २-७७ ।' ___ मतलब, प्रयोजन; ३.३३ । अन्तरप्पा पु. (अन्तरात्मा) अन्तरात्मा; १-१४ ।। अली पु. (अवटः कप के पास में पशुओं के पानी अन्तरं, अंतरं न, अन्तरम्) मध्य, भीतर, भेद, विशेष कर्क पीने के लिये जो गड्ढा आदि किया जाता है वह, १-२७१ अन्तरेसु (अन्तरेषु) भेदों में;२-१७१ अड़त वि. (अर्थम्) आधा; २-४१ । | अन्तावेई स्त्री. (अन्तर्वेदिः) मध्य की वेविका; अथवा अण म. (ऋणम्) ऋण, कर्ज, १-१४ । पु. में गंगा और यमुना के बीच का देश:) श्रण अ. (नअर्थ) 'नहीं' अर्थ में प्रयुक्त होता है। (कुमारपाल काव्य); १.४। अन्तेयारी पु. बि. (अन्तमचारी बीच में जाने वाला; १-६. अणन पु( अनंग:) काम; विषयाभिलाषा; कामदेवः | अन्तेउरं न. (अन्त: पुरम्) राज-स्त्रियों का निवास गृह २-१७४। अणरणय वि. (अनन्यक) अभिन्न, अपयम्भूत; २-१५। । अन्तो अ.(अन्तर मध्य में;1-10| अणिवेतयं पु. (अति मुक्तकम्) अयबस्ता कुमार को; १-२६, अन्तोरि . (अन्तोपरि) आन्तरिक माग के ऊपर, १-१४ १७८,२०८। | अन्तो वीसंभ निवेसिवाणं वि. ( अन्तविधम्भ-निवेसि Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 'तानाम् ) जिनके हृदय में] अम्हेवयं वि. (अस्मदीयम्) हमारा; २१४९। 'विश्वास है, ऐसे निवासियों | अम्हेत्य सर्व ब. (ग्यमत्र) हम यहां पर;१-४. का; १-६.। अयं पर्व. (अयम्) महा १-७३। अन्धलो वि. (अन्धः) अन्या; २-१७७। अयि ब. (अपि) अरे । हे !; २-२१७ । अन्धो वि. (अध:) अन्धा; २-१७३ । अपि वि. ( अपितम् ) अपंग किया हखा; जॉट किया अन्नत्तो अ. (अन्यतः) अग्य रूप से; २-१६० ॥ हमा; १-६॥ 'अन्नत्य .अ. (अन्यत्र) अन्य स्थान पर; २-१५४। उपिपम नि. (अस्ति) मर्पण किया गया; १-२६९ भन्नदो अ. (सम्वतः) दूसरे से दुसरी सफं२-१६० । मोप्पेह सक. (अपंयति ) वह अर्पण करता है। अन्नम्नं वि. (अन्योन्यम) परस्पर में आपस में १-१५६ अग्रह ब. (अन्यत्र) दूसरे स्थान पर १-२६१ ।। ओपि वि. ( अर्पितम् ) मग किया हुआ; अन्नहि म. (अन्यत्र) दूसरे स्थान पर; २-१६१। अन्नारिसो वि. (अन्याशः) दूसरे के सा; १-१४१।। समपेतून क ( समषित्वा ) अर्पण करके 'अन्नभं चि. (अन्योम्यम्) परस्पर में आपस में; १-१५६/ २-१६४ । अप्पज्जो वि. ( आत्मज्ञः ) आत्म तत्व को जानने वाला | अरगणं न० (अरण्यम्) जंगल; १.६६ । अपने आपको जानने वाला; २-८३ । (आईन् ) जिन देव जैन-धर्म-उपदेशक अप्पणसं वि.(आत्मीयम् ) स्वकीयःको; निजीय को, २.१११ अरहो पु. ( अईन ) जिनदेव; जिनसे कुछ भी बजेय अप्पर वि. (आत्मशः) अमत्म सस्य को जानने वाला; नहीं है ऐसे देव, २-११। आत्म-ज्ञानी २-८३ । अरि पु. (अरि) दुश्मन, रिपुः ५-११७ । अप्पमस्तो वि. (अप्रमत्तः) अप्रमादी, सावधान उपयोग | अरिहन्तो पु. (बहनजिनेन भगवान, २-११। घाला, १.२३१। अरिहा वि. (वहीं) योग्य; सायक; २-१०४। "अप्पा अप्पणो म. (स्वयम बाप, खुद, मिज २-१९७ | अरिहो पु. (बहन) जिनदेव; २-१११ । अहरो वि (अरुण: लाल; रक्तवर्षीया १.६1 अप्पाणो पु. (धारमा) आत्मा, जीध; २-५१ । । अरुहन्तो पु. (अर्डन) बिनदेव; २.१६ । अपुल्लं वि. (आत्मीय) आत्मा में उत्तपत्रः २-१६३ ।। | अरुहो पु. (अहंन्) जिनदेव २-११९ अमरिसो पु. (अमर्षः) असहिष्णुता २-१०५ । अरे अ. (अरे) अरे; सम्बोधक अव्यय शम्बर-२०१ अमुगो सर्व श्रमकः) वह कोई-अमक-दमक १-१७७ | अरिह सक. (अर्हति) मा के योग्य अमुणन्ती बकृ. (अजानन्ती) नहीं जानती हुई: २-१९० अलचपुर न. (अचलपुरम्) एक थोष का नाम; ३.११८ अम्ब न. (आम्रप) आम्र-फल; १८४२-५६ । अलसी स्त्रो. (जतमी) तेल बाला तिश्न विशेष ; अम्बिर । देशज) न. (आम्र-फलम्) आम्रफल: २-५६ । अम्बिल वि. (आम्लम्) सट्टा; २-१०६ । अलाउं न, (अनाम्) तुम्डीफल; १-६६ । श्रम्मो अ. (आश्चर्षे) आश्चयं अर्थ में प्रयुक्त किया । अलाऊ स्त्री. अलावूः) तुम्बी सता; १-६६ । आता है; २२०८. अलावू स्त्री. (अलाबूः) तुम्मी-छता (-२३७ । अम्ह अम्ह (अस्माका) हमारा;१-३३, २४६, २-२०४अलाह अ. ( निवारण-अ) निवारण-मनाई' करने अम्हरो सर्व. (अस्मदीयः) हमारा; २-१४७ अर्थ में; २-१८९॥ श्रम्हकेरं सर्व. (अस्मदीयम्) हमागा; २.९९। अलिश्र, अली न. (अलोकम् । मषावाद (वि.) अम्हे वं. घयम्) हम; ..४०; मिथ्या खोटा; १-१.. अम्हारिसो वि. (अस्माहशः) हमारे जैसा; (-१४२; २-७४ | अल्लं कि. (आर्द्रम् ) गीता, भाषा हु। १-८२ | Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्लं न. (दिनम्) (देवज) दिन, दिवस; १-१७४ । असोय . (अशोक) अशोक वृक्ष; २.११४ । अयऊढो पि. (अवगूठ:) ढका हुका; बालिंगित; १-१।। अस्सं म. (आस्पम् ) मुख, मुंह, १-८४ । अवक्खन्दो पु. (अपस्कन्दः) शिविर, छावनी, सेना का अहक्खाय न, (यथास्यातम्) निर्दोष 'पारिक परिपूर्ण पड़ाय, रिपु-सेना द्वार। नगर का घेरा जाना; २-४ यमः १-२४५ । अवगूढो वि. (उपगूढः) आलिगित, २.१६८। अहं सर्व. (अहम्); मैं; १-४०%; अवजसो पु. (अपयशः) अपकीति; १-२४५। । अयं सर्व, (अहं) मै; २-१९९, २०४।। अवज्जं म. (अयचम्) पाप; वि. निन्दनीय; २-१४।। अहरु पुन. (अपरोष्ठम्) नीचे का होठा १-८४ । अबडो पु. (अबटः) कूप, सुआ; १-२७१ । अहव अ. (अश्वा) अषवा, ६१७ । अवहाल. (अपद्वारम्) छोटी खिड़की; गुप्त द्वार, अहवा (अ.) (अथवा) अथवा: १-६७, १-२५४ अहह म. (अहह) आमन्त्रण, वेद, बारचर्य, दुःन, अवयवो पु. (अवयवः) गात्र, अंश, विभाग, अनुमान आधिक्य, प्रकर्ष बादि अषों में प्रयुक्त होता है। श्योग का वाक्यांश; १-२४५ । २-२१७॥ अवयासइ सक.( श्लिष्यति) बह आलिंगन करता है | अहाजायं वि. (यथाजातम्) नग्न, प्रावरण रहित; २-१७४। अषयासो पु. ( ) मोमाजीमाYa, अनार (महअह) आमन्त्रण, छेप आदि में प्रयक्त आलिंगन, १-६, १७२ । होता है। २.२१७॥ अवरही पु. (अपराकः) दिन का अन्तिम पहर; २-४५ अहिशाह अक. (अभियाति) सामने आता है: १-४ | अवारि अ.(उपरि) ऊपर, २-१६६ । अहिएरा पु. (अभिशः) बच्छी तरह से जानने अवर अ. (उपरि) ऊपर १२६, १०८। बाला; १-५६, २८३ । अवरिल्लो वि. (उपरितनः) उत्तरीय वस्त्र, 'पद्दर, २-१६६ अहिमज्जू, अहिमञ्जू पु. (अभिमन्युः) अर्जुन का पुत्र अवसहो पु. (अपशब:) खराब वचन; १-१७२। अभिमन्यु २-२५ । अवार्ड वि. अपहृतम्) छीना आ १-२०६।। | अहिमन्नू पु. (अभिमन्यः) अजुन का पुत्र अभिमन्यू; अवहं सर्व. (उमयस्) दोनों युगल'; २-१३८ । १.२४३, २-२५ । अवहोबासं अ. (उभय बलं; आर्षे उभयो कालं ) दोनों अहिरीओ वि. (महीकः) निलंज्ञ, बेशरम; १.१०४ । समय; २-१३८ । अहिवन्नू पु. (अभिमन्युः) अर्जुन का पुत्र अभिमन्युः अवि अ. (अपि) भी; १.४१ १-२४३ । अविणय न. (अविनय) अविनय, १-२०३ । अहो अ. (अहो) अरे; विस्मय, आश्चर्य, खेद, शोक. अव्वो अ. (सूचनादि-अ) "सूचना, दुःख, संभाषण, | आमन्त्रण, संबोधन, वितके, प्रशंसा, असूया, वेष आदि अथों में प्रयुक्त किया जाने वाला अपराध, विस्मय, आनन्द, आदर, मय, खेव । विषाद और पश्चाताप" अयं में; २-१०४ । अध्यय; १-७२-२१७ । अस् अस्थि (अस्ति) यह है; २-४५ । श्रा नत्यि नास्ति) वह नहीं है। २-२०६ । श्राइरिश्रो पु. (आचार्यः) गण का नायक; आचार्य; १-७॥ सिधा (स्यात्) हो२-१०७। । आउजं पु. न. (आतोद्यम्) वाद्य, बाजा; १-१५६ । सन्तो (सन्तः) अस्ति स्वरूप वाले; १-३७ । अाउण्टणं न. (आकुञ्चनम्। संकोच करना; ६-१७७ । असहेज्ज वि. (असहाय) सहायता रहित; १-७९ ।। भाऊ स्त्री. (दे०) (आपः) पानी, जल; २-१७४ । असुगो पु. (असुक:) प्राण; (न.) चित्त, ताप; पाश्री वि. (आगतः) आया हुआ; १-२३८ । १-१७७ ॥ आकिई स्त्री. (आकृतिः) स्वरूप. आकार; १-२०१ असुरी वि. (असुरी) दस्य-दानव-संबंधी; १-७९ । । आगो वि. (मागस:) आया हा; १-२०९; २६८ । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमय, पु. वि. (बागमनः) शास्त्रों को बानने वाला; | पालिखो वि. पु. (माश्लिष्टः) मालिनित २-४५, १० ॥ । बाली स्त्री, (सखी) सखी, क्यस्या; (आकी) पंक्ति आगमियो पु. वि. (भागमिकः) शास्त्र-संबंधी, शास्त्र- | श्रेणी; १-८३।। प्रतिपादित; शमत्रोक्त वस्तु को ही मानने पालेदावे हे. कु. (आश्लेष्टुम्) आलिबन करने के लिये वाला; १-७७. १.२४; २-१६४। आगरिसो पु. (म कर्षः) ग्रहण, उपादान खींचाय;१-१७७ आलेदलु हे. कृ. (आश्लेष्टुम्) आपिन करने के लिये, आगारी पु. (बाकारः) अपवाद इंगित; चेष्टा विष | २-१६४ । ___ RIN; r; .-२७७। आलोअण म. (आलोचन) देखना; 1-७ । आदत्तो वि. (बारब्धः) शम किया हुआ; प्रारब्ध २-११८ श्रावज न. मातोद्यम्) बाजा; याय १-१५६ । आदिश्री वि. (आहतः) सत्कृत; सम्मानित: १-१४३। श्रावत्तो वि. बावर्तकः) वक्राकार भ्रमण करने वाला; श्राणत्ती स्त्री, आज्ञप्तिः) आज्ञा हुक्म: २-१२ -100 ओणवणं न. (आज्ञापनं) आजा, आदेश, फरमाइशः २-१२/ आवत्तर्ण न. (आवर्तनम्) चक्राकार भ्रमण ३-३०। प्राणा स्त्री (आज्ञा) आशा, हुक्म; २-८३, १२। श्रावत्तमाणो दक (आवर्तमानः) चक्राकार घूमता हुला; आरणालजखम्भो पु. (बालानस्तम्भः) जहां हाथी बांधा १.२७१। जाता है ह स्तम्भ; २९७, ०७।। प्रावलि स्त्री. (मावलिः) पंक्ति, समूह १-4। बाणालो पु. आलान:। बंधन; हाथी शोधने की रज्जु, श्रावसहो पु. (आवसथ:) घर, बाश्रय, स्वान मठ; १-१८७ होरी २-१७। श्रावासयं न. (आवासकम्) (आवश्यक), नित्यकर्तव्य; आफंसो पु (पास्प:) अल्प स्पर्श; १.४४ । श्राम अ. (अभ्युपगमा स्वीकार करने अर्थम: आवेडा पु. ( आपीड़) फूलों की माझा; सिरोभूषण; २०७७। १-२०२। आमेलो पु. (आपीडः) फूलों की माला, शिरोभूषण; श्रासं न. (आस्यम्) मुख, मुहै। २-१२। १-१०५, २००, २३४ । आसारो पु (आसारः) वेग से पानी बरसना; १-७६ श्रायंसो पु. (भावी पण लामिक भासीसा स्त्री, (आशीः) आशीर्वाद; २-१७४ । विशेष; २-१०५ । आसो पु. (अश्वः) घोड़ाः १-३॥ पायाममओ वि. पु. (आगमिष: शापीत । आहडे वि. (आहृतम्) छीनर हुमा, चोरी किया हथा; प्रतिपादित; १-१७७ । १-२०६। आयरिश्रो पु. (आचार्यः) गण का मायक, आचार्य, १-० श्राहिआई स्त्रो. : अभिजाति:) कुलीनता, खानदानी; १-४४ २-१०७। | आहित्थ वि. (? दे) चलित, मत, कुषित, व्याकुल, श्रायरिसो पु. (आदर्श:) दर्पण; बैल आदि के गले का भूषण २-१७४। विशेष; २-१०५ । प्रायास पु. न. (आकाश) आकाश, अन्तराल १-८४ । पारण वि. (मारण्य) जंगली; १-६६ । इ अ. (पाद पूरणे प्रयोगार्थम्) पाद-पूत्ति करने आरमाल न. (भारमालम् ) कांजी, साबुदाना देशज) में प्रयुक्त होता हे २-२१७ ॥ __ कमान १-२२८ ॥ इअ अ. (इति) ऐसा; १-४२, ९१ । प्रारम्भो पु. (मारम्म:) प्रारम्भ; जीव-हिंसा; पाप-कर्म इअर वि. (इतर) अन्य; १-७ । इभरहा अ. (इतरथा) अन्यथा, नहीं तो, अन्य प्रकार से: बालरिखमो सक. (आलक्षयामः) हम जानते हैं; हम पह २.२१२। चानते हैं १-७ । | इआणि अ. (इदानीम् । इस समय १-२९ । Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्राणिं अ. (हधानीम्) इस समय; १.२९, २-१३४ । । इक सर्व. (एक) एक; १-८४ । इकाबू पु. (इक्षः) ईस, ऊस; २-१७ । ईसरो पु. (ईपवरः) ईश्वर, परमात्मा १-८४; २.९२ मजालो पु. (भंगारः) जलता हुआ कोयला; जैन साधुओं | ईसाल वि. (ईर्ष्याः ) ईष्याला वेषी; २-१५९।। की भिक्षा का एक दोष; १-४७, २५४ । ईसि . (ईषत्) मल्प; थोड़ा सा; १-४६; २-१२१ इनिजो , इजिपण्णू यि. (इंगितज्ञः ) इशारे से समझने वाला; २-८३ । (उ) इंगुचं न. (इंगुदम् ) इंगद वृक्ष का फल; १-८९ । उन अ. (उत्त) विकल्प, वितर्क, विमर्श, प्रश्न सम्इट्टा स्त्री. (इष्टा) ईट; २-३४ ।' चय आदि अर्थ में; १-१७२, २-१९३, २११ इट्ठो वि. (पष्ट.) अभिलषित, प्रिय; २-३४।। उन सक. (पश्य) देल्लो, २.२११। इड्डी स्त्री. (ऋद्धिः ) वैभव, ऐश्वर्य, संपत्ति; १-११८ उइंदो पु. (उपेन्द्रः) इन्द्र का छोटा भाई; १-६। और २-४१ । खबरो पु. (उदुम्बरः) गूलर का पेड-२७० । इणं सर्व (इसम) महः २-२०४। उऊ बिलिंग, ( ऋतु: ] ऋत; दो मास का काल इति वि. (एतावस्); इतना; २-१५.६ । ___ विशेष; १-१३१, १४१, २०९ । इत्तो भ. (इसः) इससे इस कारण इस तरफ; २-१६० उहलो पु (जदुखलः) उलुखल; गूगल; १.६७१ ।। इत्थी स्त्री. (स्त्री:) महिला; २.१३० । उकाठा, अछठा स्त्री. ( उत्कंठा) उत्कण्ठा, उत्सुकता; इदो अ. (इतः) इससे; इस कारण; इस तरफ; १-२५ ३०। २-१६०। उत्तिा वि. (उत्कतित:)कटा हुआ; छिश २-३० । इध सक. (इग्धा )-(वि उपसर्ग सहित) विज्झाइ करो पु. (उत्करः) राशि; लेर; १-५८ । (विध्यति) वह छैद करता है; २-२८ । का स्त्री. ( उल्का ) से जा एक प्रकार का बंगार (सम् उपसर्ग सहित)-समिझाइ (समिष्यति) ___ सा गिरता है। २-७९,८९ ।। वह चारों ओर से चमकता है; २-२८ । उक्किट्ठ वि. (उत्कृष्टम्) उत्कृष्ट, उत्तम; १-१२८ । इंदहणू पु. न. (इन्द्रधनुः) सूर्य की किरणों से मेघों पर उमेरो पु. (उत्कर:) राशि, समूह १-५८। पड़ने वाला सप्तरंगी इश्य विशेष; १-१८७। उक्त्रयं वि. (उत्सातम्) उखाड़ा हुआ; १.६७ । इंधं न. (चिह्नम् ) निशानी; घिन; १-१७०; २-५० ! उखलं न. (उदूसलम) गूगल; २-९०। इमं सर्व (इदम्) यहा २-१८१, १९८॥ उक्खायं घि. (उतपातम्) उखाड़ा हुआ; १-६.७ । मा सर्व. स्त्री (इयम् ) यहा १-४ । अविस्व चि. ( क्षिप्तम् का हुआ; ऊंचा उडापा इर अ. (फिल) संभावना, निश्चय, हेतु, पादपूर्णा | हुआ; २-१२७ 1 संदेह आदि अर्थ में २-२८६ । उग्गमा वि. (उद्गता) निकली हुई, उत्पन्न हुई; १.१७१ इव म. (4) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा इन उग्गय वि. (उद्गतम्) ऊंचा गया हुआ; उत्पन्न हुआ अर्थो में; २-१८२। १-१२। इसी पु.(ऋषिः) मुनि, साधु, जानी, महात्मा, उसमर्थ वि. (उच्चस्) ऊंचा; उत्सम उस्कृष्टः १-१५४ - भविष्यत्-दर्शी; १-१२८, १४।। उच्छश्रो पु. (उत्सवः) उत्सव; २-२२। इह अ. (वह) यहां पर; इस जगह; १-९, २.१६४ | उच्छएणो वि. (उत्सन्नः) छिन, सण्डित; नष्टः १-११४ हं अ. (इह) यहाँ पर, इस जगह, १-२४ । । उच्छा पु. (उक्षा) बैल; सांड; :-१७ । इहयं अ. (दह) यहां पर; इस जगह; १.२४,२-१६४ | उच्छाहो पु. ( उत्साहः) उत्साह, दृढ़ उद्यम, सामध्य; इहरा अ. (इतरथा) अन्यथा, नहीं तो; अन्य प्रकार १-११४, २-२१, ४८ । से; २.११२। उच्छु पु. (इक्षु.) ईख; गन्ना; ५-२४७ । Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एच्छू पु. (इषः) ईख, गन्ना; १-९५, २.१७। । उटभंतयं वि. (उद्धान्तकम्) भ्रान्ति पैदा करने वाला; पहुयी वि. (उत्सुकः) उत्कण्डिस२-२२।। भौचक्का बनाने वाला; २.१६४। उच्छ, वि. (उत्क्षिप्तम्) फेंका हुआ; ऊंचा उड़ाया उभं न. (ऊर्वम्) ऊपर; ऊंचा; २-५९। मा २.१२७ ।। उभयवलं न. (उभय बलम्) दोनों प्रकार का बल; ज्जलो वि. (उज्ज्वल निर्मल, स्वच्छ, दीप्त, चम २-१३८/ कीला; २-१७४ । उभयोकालं न. (उमय कालम्) दोनों काल; २-१३८ । उज्ज्ल्ल वि. (वेशज) पसीना वाला; मलिन ; बलवान उंबरो (उदुम्बरः) गूलर का पेस १.२७० । २-१७४। डम्मचिए स्त्री. (उन्मत्तिके) हे मदोन्मत्त ! (स्त्री.)२-१६१ उज्जू बि. (ऋजः) सरल, निष्कपट, सीथा; १-१३१ उम्हा स्त्री. (ऊष्मा) माप; गरमी; २-७४ | १४१, २-९८ । ___ उरो पु. न. (जरः) वृक्षः स्थल; छाती; १-३२ । उज्जोगरा वि. ( उद्योतकराः ) प्रकाश करने वाले। उलूहलं न. (उदूखलम्) खलखला गूगल १-१७१। १.१७७। उल्लं वि. (आवम्) गोला ओंजा हुआ। १-८२॥ उदो पु. (उष्ट्रः) कंट; २-३४। उल्लविरीह वि. (उल्लपनशीलया) बकवादी स्त्री द्वारा उडू पु.न. (उ) नक्षत्र, सारा; १.२०२।। २-१९३। पण ब. (पुनः) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीय वार, | उल्लानिए वि. (उल्लापयन्त्या) कयादी स्त्री द्वारा; पक्षान्तर यादि अर्थ में २-६५; १७७ । २-१९३। उणा अ. (पुनः) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीयवार, | उल्लिहणे वि. (उल्लेखने) घर्षण किये हुए पर; १-७ । १-६५, २-२१७। उल्लेइ सक. (आर्दीकरोति) वह गीला करता है; १-८२ उणाइ अ. (पुनः ) भेद, निश्चय, प्रस्ताव, द्वितीयवार, उवज्झायो पु. (उपाध्यायः) उपाध्याय; पाठक अध्यापक १-१७३ २-२६ । उरहोस पु. न. (उष्णीषम् ) पगड़ो, मुकुट, २-७५ ।। उवणिशं वि. (उपनीतम् ) पास में लाया हुवा; १-१०१ उत्तरिजं, उत्तरीअं न. (उसरीयम्) चद्दर. दुपट्टा १-२४८ लवणीयो पु. वि. (उपनीतः) समीप में लाया हुआ; उस्तिमो वि. (उत्तमः) श्रेष्ठ; १-४६ ५ अर्पित: १.१०१। उवमा स्त्री. (उपमा) साहश्यात्मक दृष्टान्त; १.२३१ उत्थारो पु० ( उत्साहः ) उत्साही हड़ उद्यम; स्थिर प्रयत्न २-४८। उवमासु स्त्री. (उपमासु) उपायों में ; १-७ । उदू त्रि. (ऋतुः) ऋतु, दो मास का काल विशेष; | उवयारेसु पु. (उपचारेषु) उपचारों में सेवा-पूजाओं में; १-२०१। भक्ति में; १-१४५ । उद्दामो वि.( उद्दामः) स्वछन्द; अव्यवस्थित प्रचण्ड; उपरि अ. (उपरिम् ) कपर, ऊध्वं; १-१०८ । प्रखर १-२७७। उपरिल्लं कि. ( उपरितनम् ) कपर का; ऊर्ध्व-स्थित; उद्धं न. (ऊर्ध्वम्) ऊपर, ऊंचा; २-४९ । उप्पलं न. (उत्पलम्) कमल पध; २-७७ । उबवासो पु. (उपवास:) दिन रात का अनाहारक व्रत उपाओ पु (उत्पातः) उत्पतन, ऊध्वंगमन; २.७७ । विशेष १-१७३। उपावेइ सक. {उत्पलावयति) यह गोता खिलाला है। ! उवसमो पु. (उपसर्गः) उपद्रव, बाधा; उपसर्ग-विशेष; कूदाता है। २-१०६ ५-२३१ । - उप्पेहड ( देशज ) वि.(?) उमट, आडम्बर वाला; | उवह वि. (उभयं) दोनों; २.१३८ । उचहसिधे वि. (उपहसितम्) हंसी किया हुवा हंसाया प'फालइ सक. ( उत्पाटयति ) वह उठाता है; उखेड़ता हुआ; १-१७३। है; २-१७४। | वहासं पु. (उपहासम्) हंसी, टटु', -२०१॥ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - (१०) उषाजिरीए स्त्री. (द्विानया ) पवनाई हुई स्त्री द्वारा; | एकत्तो भ. (एकला:) एक से; अकेले से; २.१५.। एकदा . (एका) कोई एक समय में एक बार में; उम्बिग्गो, उब्धिमो बि. (उद्विग्भः) खिन्न; घबराया हवा; २-१६२। एकदो अ. (एकतः) एक से; अकेले मे; २-१६० । सम्वीढं उठवू वि. (उत्यूढम्) धारण किया हुंभा; पहना एकल्लो दि. (एकाकी) अकेला; २-१६५ । हुमा: १-२२० । एक्काए स्त्री. वि. (एकायाः) एककी; (एकया) एक उसमं पु. (ऋषमम् ) प्रथम जिनदेष को १-२४ । द्वारा;१-३६। उसको पु. (ऋषभः) प्रथम जिमदेव (वृषभः) बैल; एको बि. (एकः)एका २-१९.१६५ ! सब; it; १९३% १४३। , ऐकाए सर्व. वि. , एकया) एक द्वारा; १-३६ । एकदया अ.(एकदा) एक वार; कोई दफे २-१६२ । एकसरि अ. देशज (?) श्रीन आजकल २-२१३ । कअ. देशण (1) निन्दा, आक्षेप, विस्मय, सूचना एकसि, मकसि अ, (एकदा) किसी एक समय में २-१९२ मादि बर्थों में; २-१९९ । एकारो पु' (अयस्कारः) लोहार, १-१६६ । ऊनासो पु. (उपवास:) दिन रात का अनाहारक प्रत एग वि. (एकत्वम्) एकत्व; एकपना १-१७७ । विशेष; उपवास, १-१७३।। एगया अ. (एकदा) एक समय में कोई वख्त में; ऊझाओ पु. (उपाध्याय) पाठक, अभ्यापक; १-१७३ । २-१६२। एगो वि. (एक:) एक १-१७७ । करजुश्र न. (अरु-गम्) दोनों जंघाऐं १-७। ऊसवो पु. (जत्सवः) उत्सव; स्यौहार; १-८४, ११४ एम्हि अ. (इदानीम्) इस समय में; १-७, २-१३४ । एत्ताहे अ. (इदानीम्) इस समय में; अघुना; २-१३४, ऊससइ सक. (उपयूसति) यह अंचा सांस लेता है; १८० एत्ति वि. (इयत् एतावत्) इतना, २-१५७ । अससिरो वि. (उच्छ्वसनशीलः) ऊंचा सांस लेने यासा; एत्तिनम-एतिअमेत वि. (इयन्माणम्) इतमा ही; १-८१ २-१४५। एत्तिलं वि. (इयत् } इतनाः २-५७ । ऊसारियो पि. (उत्सारितः) दूर किया हुआ; २-२१ । एत्थ अ. (अत्र) यहाँ पर; १-४०,५७ । उसारी पु. (उत्सार:) परित्याग; (आसारः) वेग वाली | पहं वि. (इयत्) इतना २-१५७ | वृष्टि; 1-७६ । एमेव अ. (एवमेव) इसी तरह; इसी प्रकार; १-२७१ असित्तो वि. उत्सिक्सः मर्विस, उद्धत; १.११४| | एरावया पु. (ऐरावत:) इन्द्र का हाथी; १-२०८१ ऊसुओ वि. (उच्छुक:) जहां से तोता उड़ गया हो यहा एरावणो पु. (ऐरावतः) इन्द्र का हायीं; १-१४८, २०८ १-११४, २-२२। परिसी दि. (ईदृशी) इस तरह की मा-ऐसी; २-१९५ ऊसरं न. देशण (?) (साम्जूलम्) पान; २-१७४ । परिसो चि. (ईदशः) ऐसा इस तरह का: १-१.५.१४२ ऊसो पु (उत्रः) किरण; १-४३ । एक अ. (एव) ही; १.२९ । एवं अ. (एवम्) ऐसा हो; 4-२९,२-१८६ । एवमेव अ. (एवमेव) इसी तरह का ही; १-२७१ । एअ गुणा पुं. न. (एतद्गुणाः) ये गुण; १.११। एस सर्व. (एष.) मह १-३१, ३५ । एवं सर्व, (एतद) यह; १-२०९; २-१९८, एसो सर्व. (एषः) यहः (पु.) २-११६, १९८। एसा सर्व. (स्त्री.) (एषा} यह; १.३६, ३५, १५८। एथारह वि. (एकादश) ग्यारह १-२१९, २६२ । एवारिसो वि. (एतादृशः) ऐसा; इसके बसा; १-१४२ । एश्री वि. सर्व.(एक:) एक; प्रथम अकेला; २-१९ ऐअ (अथि) संभावना, बामन्त्रण, संबोधन, प्रश आदि अयों में; १-१६९। Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १ ) जो (अव, अप, चक्ष, नोचे र भय में अथवा आणि अर्थों में १-१७२, २-२०३ । wwास पु. ( waster) मौका प्रसंग :१-१७२, १७३ चोखलं न. ( उदूखलम् ) उलूखल; गूगल; १-१७१ । चोञ्ग्रे पु. ( निय) शरमा पर्वत से निकलने वाला जल प्रवाह १-९८ । का पु. ( उपाध्यायः) पाठक उपाध्याय; अध्यापक १-१७३ । after faafa) अर्पण किया हुआ; १०६३ SE (BANK) Tania, Vifaa 10; १-३८ २०९२ । ओमालयं . ( अमाल्यम्) निर्माता देवष्टि द्रव्य १-३८ । गोली स्त्री. (आली.) पंक्ति श्रेणी, १-८३ ओल्लं वि. (आर्द्रम्) गीला मीजा हुआ। १-८२ । ओस न. ( औषधम् ) दवा इलाज; भैषज १-२२७ १ सहं म. ( औषधम् ) :वा; भैषज १-२२७ | सितं वद ( अवसीदंतम् ) पीड़ा पाते हुए को १-१०१ । ओहलो पु. ( खलः) उदूखध; गुगल; १-१७१ । ( क ) कइ पु. ( कवि ) कविता करने वाला विद्वान पुरुष कबि २-४० ॥ अर्थ वि. कतिपयम्) कतिपय कई एक १-२५० कावं न. ( कैवम् ) कपट; दम्भ १-१५१ । कइद्धयोपु. ( कपिध्वजः) वानर-द्वीप के एक राजा का नाम: अर्जुन : २ ९० । को पू (कपिध्वजः ) अर्जुन; १-९० । कन्दाणं पु' (कवीन्द्राणम्) कोन्द्रों का १-७ । कमो वि. ( कतमः ) बहुत में से कौनसा ; १-४८ कइरवं न. ( फेरवम्) कपल कुमुदः १५२ । कइलासो पु· (कैलासः) पर्वत विशेष का नाम: १-५२ कहवाई वि. ( कतिपयं) कतिपय कई एक; १-२५ ० । । कई पु. ( कविः) कविता करने वाला विद्वान् कई पु. ( कपिः ) बन्दर; १-२३१ ३ ग. (कोकम) पेट पर हुई १-१६२ । कर पु. ( कौरवः) कुछन्देश में उत्पन्न हुआ; राजा कौरव ३-१६२ । फडल पु. ( कौरव) कुरु देश में उत्पन्न हुआ; १-८ कला पु. ( कौला) जाति विशेष के पुरुष १-१६२ । कमल न. ( कौशलम् ) कुशलता; दक्षता १-६२ । उहा स्त्री. ( ककुभ् ) दिशा; १-२१ । कहं न. (पु.) (कुदम् ) बैल के कंधे का प; सफेद छत्र आदि; १-२२५ कंसं न. ( कोस्यम्) कसि - ( घातु विशेष) का पात्र १-३९,७०१ कंसाली पु. ( कांस्यालः) बाद्य विशेष: २ ९२ | कंसि पु. ( कास्यिकः ) कंसेरा कठेरा विशेष १-७० कुधं न. पु. ( ककुदम् ) पर्वत का अग्र भाग घोटी; छत्र विशेष; २-१७४ । ककोडो पु. ( ककौटः ) सांप की एक जाति विशेष; १-२६ । संचय-कोटि कच्छा स्त्री. ( कक्षा ) विभाग, अंश, प्रकोष्ठ २-१७ | कच्छी पु. ( कक्षः) कवि जलप्राय देश इत्यादि कडपले २-१७१ कर्ज न. ( कार्यम् ) कार्य प्रयोजन १-१७७ २-२४ कज्जे न. ( कार्य ) काम में प्रयोजन में २-१८० कञ्चुपु (कञ्चुकः ) वृक्ष विशेष कपड़ा १-२५, ३० कञ्चुधं न. ( कम्ः ) कविली; १-७ । कट्टक ( कृत्वा) करके २- १४६ । कटुं न. ( काष्ठम् ) काठ; लकड़ी २-३४; ९० । कड न. ( कदनम् ) मार डालना; हिंसा मर्दन, पाप; आकुलता : १-२१७ । कडुएल्लं वि. ( कटु तैलम् ) तीखे स्वाद वाला, २- १५५ । कणयं न. ( कनकम् ) स्वर्ण; सोना; धतूरा; १-२२८ । करणवीरो पु. ( करवीर) वृक्ष-विशेष कनेर १-२५३ ॥ कणिश्ररो पु. ( कणिकार: ) वृक्ष विशेष कनेर का गाछ; गोशाला का एक मक्तः २ ९५ । करिट्ठयरो वि. (कनिष्ठ तरः) छोटे से छोटा २-१७२ । कणेरू स्त्री. (करेणुः) हस्तिनी, हथिनी २०११६ । कओ-कंटओ पु. ( कण्टकः) कोटा १-३०। Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-२२९। करा,कस न. (कापहम् ) विभाग; हिस्सा; 1-३०। । कयग्गहो पु. (कचग्रहः) मेघ-महण; बाल-ग्रहण; १-१६७ कराडलिना ली. (कन्दरिका) गुफा; कन्दरा; २-३८ । १८०। कथणं न. (कदनम्).मार डालना हिसा; पाप; मईन कण्डुअइ सक. (कण्ठूयति) षह खुजलाता है१-१२१ आकुलता; १-२१७॥ कारणारी पु. (कणिकारः) वृक्ष विशेष ; गोशाला का एक कथएणू पुं. वि. (कृतशा) उपकार को मानने वाला; भक्त; १-१६८२-९५ । करणेरो पु. (कणिकारः) वृक्ष-विशेष; गोशाला का कयन्यो दु. (कयाधः) रुंड; मस्तक हीन शरीर; पहा एक भक्त; १-१९८। कहो वि. (कृष्णः) काला; क्याम; नाम-विशेष; कथम्बो पु. (कदम्बः) वृक्ष-विशेष; कदम का गांछ; २-७५, ११०। १.२२२ फत्तरी स्त्री. (कतरी) कतरनी; कैंची. २-३० । कयरो वि. (कतरः) दो में से कौन? १-२०१। कत्तिनो पु. कार्तिकः) कार्तिक महीना; कार्तिक सेठ कयलं भ. (कदलम) कदली-फल केला; १-१६७। आदि; -10 कयली स्त्री. कदली) केला का गाछ; १-१६७,२२० । कथइ सक, (कथयति) वह कहता है; १-८७ । कर क्रिया. (R) करना; कहइ सक. ( ,) , करेमि सक. (करोमि) में करता हूँ। १-२९, २-१९० कृत्य अ० (कुत्र) कहाँ पर२-१६१। करेसु सक. (करोषि) तू करता है; ३-२०१। कस्थइ अ. (क्वचित) कहीं; किसी जगहः २-९७४ । काहिइ सक. (करिष्यति) वह करेगा; १-५ । कन्था स्त्री. (कम्पा) पुराने वस्त्रों से बनी हुई गुदड़ी; काही सक. (करिष्यसि ) वह करेगा; १५ । १-१८७१ किज्जह सक. (क्रियते) किया जाता है; १-९७ । कन्दु न० (देशज) (?) नील कमल; २.१७४ । करिन संबं (कुस्खा) करके; १-२७ । कन्दो पु. (स्कन्दः) कार्तिकेय; षडानन; -। काऊण संबं (B) , १-२७. २-२४६ । कप्पतरू (कल्पतरूः) कल्प-वृक्ष; ३-८९ । काउपाणं काउयाण सं. (कृत्वा) करके; -२७ । काफलं न. (कट् फलम्) कायफल २-७७ । कया अ. (कदा) कब किस समय में; २-२.४ | कमदो पु० (कमठः) सापस विशेष; १-१९९६ करणिज्ज वि. (करणीयम) करनी चाहिमे; करने योग्य; कमन्धो पुं० (कबन्ध) बंड; मस्तक होन शरीर; १-२३९४ १ -२४२-२०९। कमलं न. (कमलम्) कमल पम; अरविन्द; २-१८३ ] करणीअं वि. (करणीयम्) करने योग्य; १-२४८ ॥ कमला स्त्री. (फमला) लक्ष्मी; १-३३। पढिकरइ सक. (प्रति करोति) वह प्रतिकूल कमलाई न. (कममानि) माना कमल; १-३३ । करता है। १.२०६। कमलषणं न. (कमल-वनम्) कमलों का वन; २-१८३ । । करसह-फरकही पु म. (कररुहम्) नख; १-३४ । कमल-सरा पु० न. (कमलसरांसि) कमलों के तालाब | करली स्त्री. (कदलो) पताका; हरिण की एक जाति फमो पु. (क्रमः) पाद; पांव; अनुक्रम; परिपाटी; हाथी का एक आभरण; १-२२० । मादा; नियम, २-१०६ । करसी स्त्री. (देशज) (?) श्मशान; मसाण; २-१७४ कंपइ-कम्पइ अक. (कम्पते) वह कांपता है; १-३०, २-३१ फरिसो पु. (करीषः) जलाने के लिये सुखाया हुआ कम्भारा पु. (कश्मीरा:) काश्मीर के लोक; २-६० । गोबर कंडा१-१०१ । कम्मसं न. (कल्मषम्) पाप; वि. (मलीन) २७९ । करीसो पु. (करीषः) पलाने के लिये सुखाया हुआ कम्हारा पु. (कश्मीराः) काश्मीर के लोक; १-१००, ____ गोवर; कंडा; १.२०१। २-६०,७४ करेणू स्त्री. (करेण:) हस्तिनी; हथिनी २-११६ । कयं कृद. वि. (कृतम्) किया हृया; १-६२६, २०९ | कल श्री पु. (कालकः ) कालकाचार्य; १-६७ । २-११४ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( गोवी (शाल गोपी चौक की रक्षा करने बाली २-२१७ । तम्बोपु. ( क ) वृक्ष-विशेष कदम का गा १-३०, २२२ । कलायो g. ( hai: ) समूह अस्था १-२६१ ॥ कलु वि. (wer:) दीन, स्था- जनक; करुणा का पात्र १-२५४१ कल्लं न. ( कलम् ) कल गप्त हुआ अथवा बागामी दिन २-१८६ ।। कल्हारम् न. ( कल्हारम् ) सफेद कमक; २-७६ ॥ कट्टियो वि (कणित) पीड़ित हैरान किया हुआ; १-२२४१ २.०९ । १३. ) कायमणी पु. ( काचमणिः) कांच रन विशेष १-१८० । कालओ पुं. ( कालकः ) कालकाचार्य ; १-६७ । कालायसं, कालासं न. (कालासम् ) लोहे को एक जाति १-२६९ । कालो पुं. ( कालः) समय वस्त; १-१७७२ कासइ अ. (कस्यचित्) कोई १-४३ । कासओ पु. ( his ) किसाल; १-४३ । कासं. न. ( कांस्यम्) चातु-विशेष; कांसी; वाद-विशेषः कासव. पु. ( कश्यपः) दारु पीने वाला. १-४३ कासा स्त्री. वि. (कृशा) दुर्बल स्त्री; १-१२७ । काहलो वि: पु. ( कातरः) कायर ! डरपोक १-२१४, काहावरणों पुं. (कायपिणः) सिक्का विशेष: २ ७१ । १- २९,८६३ काही सक. (का) करो; २-१९१ । काहि सक. ( करिष्यति ) वह करेगा; १-५ । किंसुधं न. (किशुकम् ) काक; वृक्ष-विशेष किचा स्त्री. (क्रिया) चारित्र; २- १०४ ॥ किई स्त्री. (कृतिः) कृति क्रिया विधान; १-१२८ १ किच्चा स्त्री. ( कृत्या) क्रिया, काम, कर्म महामारी का रोग विशेष १-१२८ । । कड़ो पु० (क्रपयः) बड़ी फोड़ी क्राटिका २-३६ कवाले न. ( कपालम् ) खोपड़ी -कर्म; हड्डो का भिक्षान्पस्थ १-२३१ | कविलं न. वि. ( कपिलम् ) पीला रंग जैसे वर्ण वाला; १-२३१ । कटव फव्वं न. ( काव्यम्) कविता, कवित्व काव्य २-७९ कत्तो पु० (कावयवान् ) काव्य वाला २-२५९ ॥ कस विश्वसन्ति अ. ( विकसन्ति) खिकते है। २-२०९ । विसि वि. ( मसितम् ) फिका हुआ; १-१९, २-२५ कसरा, कसणो पु० वि. (कृष्ण) काला १-२३६-७५ ११० । कसाओ दि ( कषायः) कर्बला स्वाद वाला; कषाय रंग वाला; खुशबूदार; १-२५० । कणि वि. (कृस्नः), सकल, सब, सम्पूर्ण, (कृष्ण: = काला } २ ७५ १०४ । कसिणो वि. (कृष्णः अथवा कृत्स्नः) काला अथवा पूर्ण; २-८९, १०४, ११० । कह अ. ( कथम् ) कैसे ? किस तरह ? १-२९ २-१६१ | १९९; २०४ २०८ । कहं अ. (कम् ) कैसे ? किस तरह ? १-२९, ४१ कर्माच अ. ( कथमपि किसी भी प्रकार १-४१ । कहावण पुं. (कारण) सिक्का विशेष; २-७१,९३ । कहि अ. ( कुत्र) कहाँ पर ? २-१६४ । काउँध पुं. ( कामुकः) महादेव शिवः १-१७८ ॥ कामिणीण स्त्री. (कामिनीनाम् ) सुन्दर स्त्रियों के २-१८४ | किवी स्त्री. (कृत्तिः ) कृतिका नक्षत्र मृग आदि का चमड़ा, भोज-पत्र २-१२-८९ । किच्छं न. ( कृच्छ्रम् ) . कष्ट -२२८ । किज्जड़ किया. क्रियते) किया जाता है १ ९७ । किडी पु. ( faft:) सूकर- सूअर । १-२४.४ ॥ किणा स ( केन) किस से ? किस के द्वारा; ३-६९ किसी अ. ( प्रश्न वाचक अर्थ में गया क्यों २२१६ किती स्त्री. (कीर्तिः) यश-कीर्ति २-३० । फिर अ. (किल ) संभावना, निश्चय हेतु संक्षय पाद-पूर्ण आदि अर्को में १०८८, २-१८६ । किरायं न. पुं. ( किरासम् ) अनार्य देश विशेष अथवा भील को १-४८३ । किरिया स्त्री. (क्रिया) क्रिया, काम, व्यापार, चारित्र आदि: २ १०४ । किल अ. ( किल) संभावना, निश्चय हेतु संचय, पाद पूर्ण आदि अर्थों में २-१८६ । किलन्तं वि. (क्लाम्तम्) खिन्नः शान्तः २-१०६ ॥ किलम्म अ. (क्लाम्यति ) वह क्लान्त होता है; वह खिल होता है; २-१०६ .। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) किलिट्ठ वि. (free) क्लेश-जनक; कठिन, विषम; २-१०६ । किलित वि. ( क्लुप्त ) कल्पित रचित १-१४५ । किलिन वि. (free) आहे; गीला १-१४५ farai fr. ( fort ) आहे; गीला २-१०५, १०६ ॥ किलेसो पु. ( क्लेशः ) खेव, चकावट, दुःख, बाधा; २-१०६ किवा स्त्री (कृपा) दया, मेहरबानी; १-१२८० किवाणं न. ( कृपणम् ) सद्ग, तलवारः १-१३८ । किविणो पु० वि. (कृपणः कृपण; कंजूस १-४६, १२८ कियो पु० (कृप) कृपाचार्य, माम विशेष १-१२८ : किसर न. ( केसरम् ) पुष्प-रेणुः स्वर्ण; छंद-विशेष १-१४६ किसरा स्त्री. (कुरा) खिचड़ी; ११२८ ॥ किमलं, किसलयं न. ( किसलयम् ) कोमल पत्ती, नूतन अंकुर) १-२६९ । किसा स्त्री ( कृशा ) दुर्बल स्त्री; १-१२७ । किसा पु. ( कृशानुः) आग; वृक्ष-विशेष शीन की संख्या; १- १२८ । किसि वि. (कृषितः) खींचा हुआ; रेखा किया हुआ; जोता हुआ : १-१२८ । किंन. (कम) डाक वृक्ष-विशेष १-२९, ८६ feat fr. (कृशः ) पतला, दुर्बल १-१३८ । कील अ. कि. (क्रीडति ) वह खेलता है; १ २०२ । sei न. ( कुतुहलम् ) कौतुक, परिहास अपूर्व वस्तु देखने की लालसा १-१९७ । क्रुक्क म न. ( कुडूम) सुगन्धी द्रव्य विशेष; २-१६४ । कुच्छी स्त्री. (कुक्षिः) कोंख; १-३५, २-१७ कुच्छेयं न. 1 कौलेयकम् ) पेट पर बंधो तलवार; १-१६११२-५७ ॥ कुज्जय पु. ( कुब्जक) कूबड़ा, कामन; १-१८१ । कु'जरो पु. ( कुञ्जरः) हाषी; १-६६ १ कुडु न. ( कुड्यम्) मित्ति; भींत ; २-७८ । कुडु देशज न ( ? ) आश्चर्य, कौतुक, कुतूहल, २-१७४ । कुदारो पु० (कुठारः) कुल्हाड़ा; फरसा; १-१९९ 1 ति सक. ( कुर्वन्ति) वे करते हैं; १-८ । us fr. (कुणम्) दुर्गन्धी; मूल शरीर; मुर्दा १-२३१ । कुशे . ( शीर) (कुतः) कहाँ से ? १-३७ | कुप्पासो, कुप्पिस पु. ( कुपसः) कबुक, काचली जना कुरली; १-७२ । कुमरो कुमारी पु. ( कुमार: ) प्रथम वय का बालक अविवाहित: १-६७ । कुमु न. ( कुमुदम् ) चन्द्र विकासी कमल कुम्पलं पु. न. ( कुड्मलम' कलि, कलिका; ३-५५ । २-१८२ । १-२६ 1 कुम्भश्रा पु. ( कुम्भकार: ) कुम्भकार; १-८ । कुम्भ चारो कुम्मारो पु० (कुम्भकारः) कुम्भकार; १-८ १ कुम्हारण पु. ( कुश्मानः ) देश- विशेष २-७४ । फुलं न. ( कुलम् ) कुल, वंदा, जाति, परिवार; १-१३ कुलो पु. ( ) कुल, वंश' जाति, परिवार, १-१३ कुल्ला स्त्री. (कुल्या) छोटी नदी बनावटी नदी २-७९ कुसुम न. ( कुसुम) पुष्प - फूल; १-९१, १४५ कुसुमपयरो - कुसुमप्पयरो पु. ( कुसुम-प्रकरः) पुष्प-समूह २-९७ । कुसो पु० ( कुशः ) सृण-विशेष; राम के एक पुत्र का नाम; १ - २६० । कर अ. ( ईषत् ) थोड़ा सा २०१२९ । दवा पु० (कंटम ) देव्य-विशेष १-१४८, १९६ २४० केत्ति, केन्तिलं, केदहं वि. ( कियत् ) कितना ; २- १५७ ॥ केरवं न. ( कैरवम्) कमल कुमुदः १-१५२ ॥ केरिसी वि. ( को ) फैसा किस तरह का १०५ १४२ । केरल न. ( कदलम् ) कली फल केला. १-१६७ । लामो पु० ( कैलास ) मे पर्यंत हिमालय की चोटी विशेष : १-४८. १५२१ केली स्त्री. ( कदली केला का गाछ १-१६७, २२० केवट्टो पु० ( कैवर्सः) घोर मची मार; २-३० । केसर न. ( केसरम् ) पुष्प-रेणु; स्वर्ण; छन्द - विशेष; १-१४६ । केसु न. ( शुकम् ) दाक: वृक्ष विशेष १-२९, ८६ को सर्व . ( : ) कौन २- १९८ । कि सर्व (किम् ) क्या । १- २९ । किं सर्व. (,, ) १–१९, ४१, ४२३ २-८६, १९३, १९, २.४, २०५ । कंण सर्व. ( केन) किसके द्वारा; २ - १९९ । केणात्रि सर्व पु. ( केनापि ) किसी के भी द्वारा; १-४१ । Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्स स. (कस्य अपवा कस्म) किसका अथवा किसके खो पु. (मयः) सय, प्रलय, विनाया; २-३ । लिये ; ३-२०४। खग्गं न. (खगः) तलवार; १-३४। कत्तो म. (कृतः) कहां से किस तरफ से; २-१६. खग्गो . (,) ॥ १-३४, २०२; २-७७ ॥ करतो, कदो अ. (,), " " खट्टा स्त्री. (खट्वा) खाट, पलंग, पारपाई १-२९५ । कोउहल्लं न. (कृतहलम्) कौतुक; परिहास; १-११७, खणो पुं, {क्षण:) काल का भाग विशेष; बहुत पोड़ा सपब २-२०॥ कोहलं म. (कुतूहलम्) कौतुक; अपूर्व वस्तु देखने की खण्ड म. (खण्डम्) टकरा माग: २-१७ । -:: लालसा; १-११७ । खण्डिो वि.पु. (सण्डितः) टूटा हुआ. १-५३ । कोच्छे अयं न. (कौक्षेयकम् } पेट पर बंधी हुई तलवार, खरगूप. (स्थाणः) छूट; शिवजी का नाम: २.९९ । खसिवाणं. (अत्रियाणाम् ) क्षत्रियों का; २-१८५ । कोचो पु. (क्रौञ्चः) पक्षि-विशेष; इस नाम का | खन्दो - (स्कन्दः) कातिकेयपहानन; २-५ । अनार्य वेश; १-१५९ ।। सन्धावारी '. (स्कापाषा:) छावनी; सेमा का पड़ाव फोट्टिम न. (कृष्टिमम् ) अगिण विशेष; झोपड़ा विशेष : | शिविर ३-४ । रनों की खान; १.११६ । खन्धो पु. (स्कन्धः) पिण्ड पुद्गलों का समूह कन्या - कोण्डं न. (कृयहम् ) कडा; जलाशय-विशेष; १.२०२। पेड़ का घर, २-४ । कोण्तो वि. (कुण्ठः) मंदा मूर्ख १-११६ । खप्परं पु. न. (कपरम्) खोपड़ी; घट का टुकड़ा; भिक्षाकोत्थुहो ० (कौस्तुभः) मणि-विशेष; १-१५९ । पात्र; १-१८1। कोन्तो पु. (फन्तः) भाला; हथियार-विशेष; १-११६ __खमा स्त्री. (क्षमा) क्रोष का अभाव; समा; २कोप्परं न. पु. परम्) कोहनी नदी का किनारा; | खम्भो पु. (स्तम्भः) खम्मा; पम्मा १-१८७, २८,८९ तट१-१२४ । खर वि. (खर) निष्कर, खा; कठोर; २-१८६ । कोमुई स्त्री. (कौमुदी) घरद ऋतु की पूर्णिमा, चांदनी; खलित्र वि. (वाशित) खिसका हा; २-०७। | स्खलि वि. (स्खलितम्) ,, २.८९ । कोसम्बी स्त्री. (कौशाम्बी) नगरी विशेषः १-१५९। खल्लीडो पु. शि. (खल्लवाट:) जिसके सिर पर पास न कोसिओ पु. (कोशिकः ) कौशिक नामक तापस; १-१५९ हों; गजा; चंदला; १-७४। कोहएडी स्त्री. (फूष्माण्डी) कौहले का गाछ; १-२२४; खसिधे न. (कसितम्) रोम-विशेष; सांसी, १-१८१। खसिओ बि. (खचितः) व्याप्त; जटित; मष्ठित कोहलं न. (कुतूहलम्) कोतुक, परिहास; १-१७१ । विभूषित; १-१९१॥ कोहलिए स्त्री. (हे कलिके ! । हे कौतुक करने वाली खायो वि. (यात:) प्रसिद्ध (विख्यात्) २.१.. स्त्री; १-१७१। खाइरं पि. (खादिरम्) खेर के वृक्ष से सम्बंधित १-६७ कोहली स्त्री. (कूष्माण्डो) कोहले का गाछ; -१२४, खाणू पु. (स्थाण) 8 रूम वृल; शिवजी का नाम: कौरवा पु. कौरवाः कुरु देश के रहने वाले; १-१। खासिधे न. (कासितम्) बासी रोग विशेष, ६-२८३ । खएवं न, (खण्ड) खण्ड, टुकड़ाः २-६७ । खित न. (क्षेत्रम्) सत उपजाऊ जमीन; २-१२७ । खीणं वि. (क्षोणम्) आय-प्राप्त नष्ट, विभिन्न दुर्वन (ख) खइनो वि. (खचितः) व्याप्त जटिल, मण्डित: विभूषितः खीरं न. (क्षीरम्) दूध, पानी; २-१७। स्त्रीरोश्रो पु. क्षीरोदः सम-विशेष शीर-सामर; २-२८२ खइरं वि. (खादिरम्) खेर के वृक्ष से सम्बंधित; १-६७. खीलो पु. (कोलक:) लीला, द; लूटी; १.१८॥ Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * a. (c) mera, faard, aše, vaida, अश्चयं आदि अर्थों में; २-१९८ । खुज्जो वि. ( कुब्ज: कूबड़ा, वामन; १-१८१ । खुडिओ वि.पु. ( खण्डितः ) त्रुटित, वंचित, वि;ि १-५३ । as fr. ( क्षुल्लकः ) लघु, छोटा, नीच, अधम, दुष्ट; खेन, (ख) आकाश में गगन में; १-१८७ । खेड पुं० (क्ष्वेकः) विष, जहरः २-६ ॥ स्वेडो वि. (स्फेटिक) नाशक, नाश-कर्ता; २६ खेडिओ पु. वि. (स्फेटिक) मासवाला नम्वर २०६ । खेड न. ( सम् ) क्रीड़ा, बेल, समाया, मजाक २-१७४। खोड पु. (स्फोटकः ) फोड़ा, कुनसी: २०६ पु. ( वोटकः) नक्ष से चर्म का निष्पीडन २-६ (ग) गई स्त्री. ( गतिः) गतिः गमन, चाल; २-१९५ । गईए स्त्री. (गल्याः ) गति से गति का २-१८४ । गश्रा स्त्री. ( गवया) मादा रोश; रोकड़ी; पशु-विशेष: ) गन्धी पु. ( गम्बः) गन्ध, नाक से ग्रहण करने योग्य; १-१७७ । गणो वि. (गर्भितः) गर्भ-युक्त १ - २०८ । गम् सक. (गच्छ) जाना; समझना ; जानना; गच्छद्र सक. ( गच्छति) वह जाता है। १-१८७ । ओ वि. ( गतः ) गया हुआ; समझा हुआ; १-१०९ गर्य वि. (गतम्) गया हुआ; समझा हुआ; १०९७ अवरायं वि. ( अपगतम्) सरका हुआ हटा गो पु. ( गर्दभः) गदहा गया; २०३७ । गन्धउडिं स्त्री. (गम्म पुटम् ) गन्ध को फैलावट १०८ हुआ; बीता हुआ; १-१७२ आओ षि. ( आगतः ) छाया हुआ १-२६८ । आगओ वि. ( आगतः ) छाया१-२०९: ५६८ । उग्गयं वि. (उद्गतम् उन्नति को प्राप्त हुआ १-१२ । गमिर वि. (गमन शील) जाने वाला; जाने के स्वभाव वाला २-१४५ । गम्भीर न. ( गाम्भीर्यम्) गम्भीरता; गम्भीरपना; २-१०७ । गय वि. (गतः) गया हुआ; बीता हुआ, १ ९७ ॥ गयां म. ( गगनम् ) गगन; आकाश; २- १६४ । गयो न. ( गगनें) आकाश में १-८ । १-५४, १५८ । गच्च पु. ( गवयः) रोश: पशु- विशेष १-५४, १५८: गयणयस्मि न. ( गगनके) आकाश में २-१६४ । २-१७४ । गया स्त्री. (गदा) लोहे का मुद्गर या लाठो; अस्त्रविशेष १-१७७, १८० । गड पु. ( गौड़ ) गौड़ देश का निवासी; बंगाल का पूर्वी भाग; १-१६२, १०२ । गरिमा पु. (गरिमा) एक प्रकार की लब्धि विशेष; गुरुता; गौरव; १-३५ ॥ गरिहा स्त्री. ( ग ) निम्दा, घुणा जुगुप्सा २ - १०४ गउरवं न. ( गौरवम्) अभिमान, गौरव, प्रभाग १.१६३ गरि स्त्री. (गोरि ) स्त्री शिवजी की पत्नी १-१३३ गयो पु. ( गजः ) हाथी गज-सुकमाल मुनि १-१७७ सारं वि. ( गद्गदम् ) जानन्द अथवा दुःख से अव्यक्त कथन; १-२१९ । गजन्ति अक. (गर्जन्ति) वे गर्जना करते हैं; १-१८७ १ गो पु. ( गर्दभः) गदहा गषा २-३७ । रुई स्त्री. (गुर्वी) बड़ी ज्येष्ठा; महली १-१०७३ श्री वि. (गुरुकः) गुच बड़ा; महान १-१०९ । गरुलो पु. (गरुड़) गरुड पक्षी विशेषः १ २०२ । गरुत्री स्त्री. ( गुर्वी) बड़ी; ज्येष्ठा महती; २-११३ । गलोई स्त्री. (गहूची :) लता विशेष गिलोय १-१०७ १२४ । गड्डा स्त्री. (ग) गड्डा १-३५, २-३५ गड्डो पु. ( गते) गहुडा (गलगंड) रोग-विशेष ; १-३५, २-३५ । गवई ० ( गृहपतिः) घर का स्वामी; ग्रहपति. चन्द्रमा; २-६४४ । गएठी स्त्री. (बि) गांठ; जोड़; बाँस आदि की गिरह; गव्विरो वि. (गर्ववान् ) अहंकारी; घर्मठी २०१५९ । पर्वः १-३५ । हो पु. ( ब्रहः ) नक्षत्र - विशेष २-७९ । गहि वि. (गृहीतम्) ग्रहण किया हुआ; स्वीकृत १-१०१ । Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ----------- ------... .. .. गहिरं लि. गभीमबहस गम्भीर; १-१०१। । गुम्फइ सक. (गुम्फत्ति) वह गूथता है। रह मांठता है; गहीरियं म. (गामीयम्) गहराई; गम्भीरपना; २.१०७ गाई स्त्री. (गौः गायः १.२५८ । गुव्ह वि. (दुह्यम्) गोपनीय; छिपाने योग्य२०१२४ गात्री पु. स्त्री. (गो.) गाय और बैल; १-१५८। । गुरू पु. (गुवः) गुरु पूज्य; बड़ा; १-१.९। गामिल्लिया वि. (ग्रामेयकाः) गांव के निवासी; २-१६३ गुरुल्लाचा पु. (गुरुल्लापाः) गह-को उक्तिया; १-८४।। मारवं (पौरथम्) अभिमान, गौरव, प्रभाव;-१६३।। गुलो पु. (मुह) गुम लाल शक्कर; १.२० । गाची, गावीमो स्त्री. (गाव:) गम्य, २-१७४। । गुहह सक (गोहति) मह छिपाता है; वह ढांकता है। गिट्ठी स्त्री. (गृष्टिः) एक बार भ्याई हुई गाय श्रादि । १-२३६। गुहा स्त्री. (गृहा) गुफा; कन्दरा: १.४२ । गिएठी स्त्री, (गृष्टिः) एकवार ब्याई सई परय आदि; गूढोबर न. (गूढोदरम्) पेट के आन्तरिक भाग में रहा 1-२६.१२८। गिट्टी स्त्री. (दिः) भासविस, कपटता; ११२८.। ।। गेज्म वि. (गाय) ग्रहण करने के योग्य; 1-७८ ॥ गिम्हो (चीमा) गइसी का समय, प्रीजमरतुः अपहार स. ( ति गह हा वसा है; २-२१७ गेन्दु न. (कन्दुकम्) में; १-५७, १८२। गिरा स्त्री. (गो:) वाणी, १-१६। गोत्राबरी श्री. (गोदावरी) एक नदी का नाम; २.१७४ गिलाइ सफ. (पछाप्तिः) वह म्लान. होता है। यह गोही स्त्री. (गोष्ठी:) मण्डली; समरन बय वालों को । जम्हाई लेता है; २-१०६। सधाः २.७७॥ गिलाणं न. वि. (वज्ञानम्) उदासीन बीमार; यका | गोणो स्त्री. (गो.) गाय; २-१०४ । एका २-१६। | गोरिहरं, गोरीहरं न. (गौरी-गृहम) सुन्दर स्त्री का घर गुज्म वि. (गुह्यम्) गोपनीय; छिपान योग्य; २-२६; | पीवर; १४ १२४ गोला स्त्री, (गोदा) नाम विक, २-११४। गुल्छ न. (गुच्छम् } गुच्छा; १-२६ । गोले स्त्री. (हे गोदे ! ) नाम विशेषः (देवज); गुडो पु (गुष्ठः) गुह, लाल.कर; १-२०२। गुणा पु.न. (गुणा:) गुण, पर्याय, स्वभाव, धर्म; मामि वि. (मामो) खाने वाला; २-१५। १-११, ३४। गेपहाइ सक. (यह णाति) वह बहण करता है; २-२१७ मुणाई पुन. ( मुका: ) मुण, पाय, स्वभाव, मः ! गेरह सक. (गृहाण) अण करो; लेयो; २-१९७ । घे सम्ब. कद, (गहित्या) प्रहण करके गुत्तो दि. (गुप्तः) गुप्त; प्रत्र; छिपा हुआ; २-७७ २-१४६ । गुप् अक. , . प्रकाशित होना चमकना ।। गहिनं वि. भूत कुक (गृहीतम्) ग्रहण किया हया; गोवइ समय. (गोपयति) यह प्रकाशित होता है । बह चमकता है। १-३१ ॥ गेझ वि. प्राह्मम्) पहण करने के योग्य; १-७८ गुच्चो वि. (गुप्तः) गुप्त, प्रच्छन्न; छिपा हुआ; २-७७ संगहिया वि. (संगृहीताः) संग्रह किये हुए, जुगुमाइ सक. (जमप्यते) वह बचाता है, वह इकट्ठ किये हुएः २.१९८ । छिपाता है। वह निन्दा करता है। २-२१. घट्ठा बि. (पृष्टाः) पिसे हुए; २-१७४ । गुप्फ म. (मूल्फम् } पैर को गांठ; फीली, २-१० । घट्ठी वि. (घृष्टः घिसा हुआ। १.१२६ । गुभह सक. (गुफति) वह गूंधता है; बह गांठता है; घडइ सक. (घटति) वह करता है। वह बनाता है। १-१९५ । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 5) घडो पु० घट:ो घड़ा. कुम्भ; कलश; १-१९५ चन्दो, चंदो , (चन्द्रः) चन्द्रमा, चांद; 2-10, 20, घणो पुं० (धनः) मेघ, बादल १.१७२, १८७ ।। घण्टा स्त्री. (घण्टा) घाटा कास्य-निमित बाय-विशेष ! चन्द्रो पु. (चन्द्र ) चन्द्रमा, पदि; २-८० । चमरो पु. (चामरः) चंबर; १.६७। घयं न. (घृतम्) घी, घृत, १-१२६ । चम्म न. (चर्म) चमड़ा-३२ । घरो पु. (गृह) घर; मकान; २-१४४ ! चरण म. (चरण) संयम पारित्र, प्रत-नियम, १.२५४ घर-सामी पु. (गृह स्वामी) घर का मालिक; २-१४४ चलणो पु (चरण:) पांव, पैर; १-२५४ । घायणो पु० दे. (गायन:) गायक, गवैया; २-१७४ । चलणे पु. (चरणे) पर में; २-१८० । घिणा स्त्री. (पणा) घृणा; नफरत; १-१२८ । चविडा पी. (चपेटा) तमाषा, यप्पड़१-१४६; १९८ घुसिणं न. (घुसृणम्) कुङ कुम, केशर; १.१२८। । चविला , " ॥ १-१९८ घेत णं संव. कृद. (गृहीत्वा) प्रहण करके; २-१४६ । चेवड़ो १-१४६ । घोसइ सक, (घोषयति) वह घोषणा करता है। बह चाउँण्डा स्त्री, (पामुण्डा) चामुण्डा देवी; १-१७८ । षोखता है। १-२६०। चारन्त वि. न. (चतुरन्तम्) चार सीमाओं वाला; १-४ चाडू पु.न. (चाटः) खुशामद; प्रिय वाक्य; १-६७ चामरो पु. (चामरः) चंबर, १-६७ । चम० (च) बोर;-२४ । चित्र अ. (एव) ही; निश्चय वाचक अध्यय; २-९९ धइस न. (चैत्यम्) चिता पर बना हुआ स्मारक; १८४, १८७। चिच्छाइ सक, (चिकित्सति) वह पाका करता है। २-२१ चइत्तो पु० (त्रः) चैत्र-मास: १-१५२ । चिश्च सक. (मण्डम्) विभूषित करना; अलंकृत करना; चउ वि. (चतुर) चार; संख्या-विपोष; १-१७१ । . २-१२९ । चपगुणो वि. (चतुर्गुणः) पार-गुण; 8-१७१ । चिएहं न. (चिदम्) निशानी लायन; चि:२-५०। चउट्ठो वि. (चतुर्थः) पौधा; २-३३ । चिन्ति वि. चितितम) जिसकी चिन्ता की गई हो वह चहत्थो वि. , , १.१७१, २.३३ । चउत्थी वि. (चतुर्थी) चौथी; १-१७१ । चिन्ता स्त्री. (चिन्ता) विचार, शोक, २.८५ । घउदसी वि. (चतुर्दशी) चोदश तिथि; -१७१।। चिन्छ म. (चिन्हम् ) निशानी, लाञ्छन, चिन्ह ३.५० चउदह वि. (चतुर्दश) पौवह। १-१७१; २१९ ॥ चिलायो पु. (किरातः) भील एक जंगली जाति चस्वारी दि. (चतुर्वाः) बार बार, १-१७१। १-१८३०५४॥ चर्क न. (चक्रम्) गाड़ी का पहिया; २-७९ । चिहुरो पुचिकरः) केश, बाल; १.९८६ । चहाथो पु. (चक्रवाक:) एकवा; पक्षी विशेष १८|ची-वन्दणं न. (त्म-वन्दनम) स्मारक विशेष की घ-दना; चक्खू पु. न. (चक्षः) मास १-३३ । घाखूई पुन, चिषि) आंखें; १-३३ । चुनाइ अक. (श्नोतते) बह धरता है, वह टपकता है। चरचर न. (चत्वरम् ) चौहटा चौरास्ता, चौक, २-१२ २-७७ । चधिक वेशम वि. मंडित १-७४ । चुच्छ वि. (तुच्छम्) अल्प, रोका, हलका, हीन, जघन्य चडू पुं० (चतुः) खुशामद, प्रिय वचन; १-६७ । मगण्य; १-२०४ । चन्दश्रो पु. (चन्द्रः) चन्द्रमा; २-१६४ । धुणं न. (पूर्णम्) पीसा हुआ बारीफ पदार्थ; पूर्ण चन्दणं न. (चन्दनम्) धन्वन का पेड़, चन्दन की लकड़ी २-१८२। चुण्णी पुं.म. (चूर्गः) पीसा हुमा बारीक पदार्थ पन्दिमा स्त्री. (चन्द्रिका) चन्द्र की प्रभा, ज्योत्स्नाः | पूर्ण १-८४ । १-१८५। धे . (एव) ही, १७, २.९९, १८४,२०९। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चे न: (संस्थम्) चिता पर बनाया था. स्मारक छरफ्नो पु. (पश्मनः) अमरारा; १-२६-७७ - विशेष: १-१५३ : २-8.01 छमा जी. (भा) मा पृथिवी; २१८, १७१। घेत्तो पुं० (चैत्रः) मंत्र-मास; १९:५२ छमी स्त्री. (शमी) वृक्ष-विशेष; एer वृक्ष जिसके पोरगुणे वि.(चतुर्गण, चार-गुणा पाला; १-१७१।। मान्तरिक भाग में आग हो; १-२६९ । पोस्थो वि. (चतुर्व:) पौषा; १-१७१ । छम्म न. (छपम्) छल; बहाना, कपट; २-२१२ । चोत्थी वि० स्त्रो० (चतुर्थी) चोची, सिथि-विशेष; छमुद्दो पु. (षण्मुख) स्कन्द; कातिकेय; १-२५ । छम्मुहो , " १-२६५ । . घोसी स्त्री. (चतुर्दशी) चौमहवीं; तिथि-विशेष छयं न (सतम्) व्रण, पाप, (वि०) पीडित, प्रणित; . चोदा मिः (चतुर्वश) पौवह संख्या-विशेषः १.१७१ शाल्लो वि. (छायावान्) छाया वाला, शान्ति-युक्त; चोरिश्र न.चौर्यम) चौरकर्म बहनमा १-३०% २-१५९ । २-१०७। छाया स्त्री, (छाया) छाया; कान्ति, प्रतिबिम्ब, परचोरियाली (पारिका) बोरी भवहाण, १-२ । छाई १-२४९, २-२०३। धोरो पु चोरः) तस्कर; दूसरे का धन आदि छारो पुः (धार.) लारा, सज्जीबार, पुड़: भाम, चुराने वाला चोर;-१७७ । मात्सर्य; २-५७। चोव्यारो पु.वि. (चतुरः) चार दरवाजा वाला; छाली स्त्री. (छागी) जकरी; १-१९१ । कालो पुं० (छाम) करा; १-१९१ । च्च अ. (एव) ही; २-८४ छावी पु. (शाव:) पालक, विशुः १-२६५। विष . (एम) हो। १-८२-४ १८४, १९५ छाही स्त्री. (छाया) कान्ति, प्रतिविम्ब, परसमई १-२४९। अ अ. (एव) ही निश्चय काचक अध्यय; २.९९ . १८४ः । छिको दे. (छुप्तः) स्पृष्टः छूमा एमा; २-१३८ । छिछि दे अ. (पिक-धिक) छी छो; षिक्-पिता _धिकार)२-१७४।। छश्नं वि० (स्थगितम्) आयत, आच्छादित, तिरोहित; छिन्छई दे. स्त्री. (पुंश्चली) असती स्त्री कुलटा, छिनाल २-१७। २-१७४ । छउमं न. (छाम) छल, बहाना, कपट, पता, माया; छिर्त्त वि. (शिसम्) का हुमा २-२०४ । अच्छिन वि. (अन्छिन) नहीं कटा हुदा छट्टी स्पी. (षष्ठी) छट्ठी; संबंध-सूचक विमक्ति, २-१९८| छिरा स्त्री. (चित) नस, नाही, स; १-११६ । छट्टो . वि. (षष्ठः) छठा ; १-२६५, २-७७ । छिहा स्त्री. (स्पृहा ) स्पहा, अभिलाषा: १-१२८ छाइ सक. (मञ्चति) वह छोड़ता है। वह वमन करता है; २-३१ छीनं न. पी. (कृतम्) छींक १-११२, २-१७। छणो पु० (मण) उत्सव, २-२०॥ छीर्ण वि. (वीणम् ) आय-प्राप्त थ, दुर्बल २-३ छत्तवरणो पु. (सप्तपणः) वृक्ष विशेष; १-४९। छोरं न (कोरम्) दूध, जल; २-१७ । छत्तिवरणो . , , १.४९; २६५ । छुच्छं वि. (तुच्छम्) अरूप, योगा, हीम, अधम्प, बद्दी के. स्त्री. (छथिः) भय्या; बिछौना, २-३६। नगण्य; १-२०४। छन्दं न. (छन्दस्) कविता; पञ्च १-३३ ।। छुएणो बि. (अण्णः) पूरपूर किया हमा, विनाशित; छन्दो पु. . . " अभ्यस्त २-१७॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० तो दे. वि. (प्तः) पुष्ट छूआ हुआ; २-१३८ छुरो पुं० (भूरः) छुरा, नाई का अस्तूरा, पशु का नस, बाण २-१७ | स्त्री. (शुभ) भूख (तु) = १०१७, २६४ २-१७। छूढो वि. (क्षिप्तः) क्षिप्त; फेंका हुआ; प्रेरित; २-१२, १२७ । छू वि. (क्षिप्तम् ) फेंका हुआ प्रेरित २-१९ क्षेत्र पु० (छेद) नाश; १-७ 1 न. (क्षेत्रम्) आकाश, सेंट, वेश, माथि २-१७ J ( ज ) जड़ अ. (दि) यदि, अगर; १ ४०, २०२०४ । जइमा अ. सवं. ( यदि इमा) जिस समय में यह; १-४० अहं अ. सर्व (यदि अहम् ) जिस समय में में; यदि में; १०४० । जई पु. ( यतिः ) यति, साधू, जितेन्द्रिय, संयमी; :-१७७ । जऊँणा स्त्री. (यमुना नवी - विशेष यमुना १-१७८ । नणाय ज ऊँणयई न. ( यमुना-तदम् ) यमुना का किनारा; १-४ । जो अ, ( यतः ) क्योंकि, कारण कि; १ २०९ अक्खा पुं ( यक्षाः ) व्यन्तर देवों को एक जाति; २-८९, ९० । जज्जो वि. ( जम्पः) श्रो जोता जा सके यह जिस पर विजय प्राप्त की जा सके २-२४ । जट्टो पु' (जर्तः) वेश-विदेष; उस देश का निवासी; २-१०। जडालो वि. (जटिलो जटा युक्तः) जटा युक्त अम्ब कम्बे केश पारी; २-१५९ । जडिलो वि. ( जटिल : ) अटावाला जटाधारी; १- १९४ । जढरं, जढलं न. ( जठरम्) पेट उदर १-२५४ ॥ जणा पु. ( जमा: ) अनेक मनुष्य २-११४ । जगृम्भहिश्रा वि. (जनाभ्यधिकाः ) मनुष्य से भी अधिक २-२०४ । । जयहू पु. (अह,नुः) भरतवंशीय एक राजा; २-७५ जो म. (मतः ) क्योंकि, कारण कि; जिससे, जां से २- १६० । ) जन्म अ. ( यत्र ) जहां पर, जिसमें २-१६१ । जो अ. यतः ) क्यों कि, कारण कि जिससे, जहाँ से; २-१६० । सर्व (यत्) जो १-२४, ४२ २-१८४ २०६ जम (जमो ) पुं० . ( यमः ) यमराज; लोक-पाल देव-विशेष १-२४५ जमलं न. ( यमलम् ) जोड़ा; युगल; २-१७३ । जम्प - भरवसा न. ( अल्पितावसाने ) कह चुकने पर कपन समाप्ति पर; १-६ । अपिरो वि. (अस्पन-शील) बोलने वाला, भाषक, वाचाल २०१४५ । जम्मां न. ( जन्म) जन्म उत्पत्ति, उत्पात २-१७४ जम्मो न. ( अन्म) जन्म १-११, ३२, २०६१ ॥ जर स्त्री. (जरा) बुढ़ापा १-१०३ । जलं म. (जल) पानी; १-१३ जलेण न. ( जसेन) पानी से । २-१५५ । जलचरो, जलयशे पु. ( जल-चरा) जल निवासी जन्तु; १-१७७ । जलहरो पु० ( जल-परः ) मेष, बादल २-१९८१ जवणिज्जं जवणीष्टं वि. (यापनीयम्) गमन करवाने योग्य; व्यवस्था करवाने योग्य; १-२४८ जसो पुं० ( यशस्) यश, कीर्ति १-११, ३२, २४५ अह म. ( यथा) जैसे, १-६७ २-२०४ । जह अ. ( यत्र जहां पर, जिसमें २-१६१। जहणं न. ( जघनम् ) जंघा कमर से नीचे का माम; जहां अ. ( यथा) जैसे; १-६७ । जहि अ. (यंत्र) जहां पर २ - १६१ । जडिट्ठिलो पु. ( युधिष्ठिर:) एाष्ट्र राजा का ज्येष्ठ पुत्रः युधिष्ठिर; १९६, १०७ । जह्नुट्ठिलो पु. ( युधिष्ठिरः) युबिष्ठिर; १-९६, १०७, २५४ । जा म. ( यावत्) जब तक; १-२७१ । जाड़ क्रिया. (याति) वह जाता है; १-२४५ । जाएं. (शा) ज्ञान: २-८३ । जाम इल्लो पुं० ( यामवान्) पहरेदार सिपाही विशेष २-१५९ । जामात्र पुं० (जामातुकः) जामाता लड़की का पति १-१३१ । जारिसो वि. (पाहशः ) बेसा, जिस तरह का १-१४२ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) जारो पु. (जारः व्यभिचारी; उपपति; १.१७७ । जे अ. (पाद-पूरणार्थम्) छंद को पूत्ति अर्थ में प्रयोग जाला अ. (यदा) जिस समय में; १-२६९ । किया या अन्य ३.२३७ जाव अ. (यावत) जब तक; १-११,२७१ । वि. (ज्येष्ठतर) अपेक्षाकृत अधिक बया; निज वि (निजित) जीत लिया है; २-१६४ २-१७२। जिअइ-जिअज किया (जीवति) वह जीवित होता है; जेण सर्व. पुं० (येन) जिससे, जिसके द्वारा; १-३१ (जीवन) वह जीवित है। 1-1011 २-१८३ । जिअन्तरस वि. (जीवन्तस्य) जीवित होते हुए का ३-१८० जेत्ति, जेतिलं. जेदहं वि. (यावत् ] जितना; २.१५७ जिण-धम्मो पु. (जिन-धर्म:) तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित धर्म; जा सई. स्त्री. (या) जो (स्वी); १-२७१ । जं सर्व. न. (यत्) जो; १-२४, ४२, २-१८४, जिगणे वि. (जीणे) पचा हुआ होने पर; पुगना होने २०६। पर; 1-0२ । जं सर्व. पु. (यम्) जिस को; ३-३३ ॥ जिगहू पु० (जिष्णुः) जीतने वाला; विजयी; विष्ण. जं. (यत्) क्योंकि कारण कि; सम्बंध-सूचक सूर्य, चन्द्र ; २-७५ । अव्यय; १-२४ । जित्ति वि. (यावत् जितना, २-१५६ । जोषी पु० (योत:) प्रकाशशील; २-२४ । जिल्भा स्त्री, (जिह्वा) जीभ. रसना; २-५७ । जोरहा स्त्री. (ज्योत्स्नावान्) चन्द्र प्रकाश २-७५। जी न. (जीवितम् ) जिन्दगी; जीवन; १.२७. | जोरहालो वि. (ज्योत्स्नावान्) चांदनी के प्रकाश सहित; २-२०४। जीश्रा स्त्री. ( ज्या ) अनुष की डोर, पृथिवी, माता, . जोवणं न. (यौवनम्) जवानी; तारुण्य; १-१५९; २-९८ णच्चा द. (माया) जान करके, २-१५ । जीव-जिबाइ अक. (जं वति) वह जीता है। t-१०१ विण्णायं वि. (विशात) भली प्रकार से जाना जिअइ-जिचाउ अफ. (जीवति), (जीवतु) हुआ; २-१९९। वह जीता है। वह जीता रहे: १-१०। जीवि न. (जीवितम्) जिन्दगी, जीवन, १-२७१ ! मो पुल (ध्वजः) वजा; पताका २.२७ । जीहा स्त्री. (जिहा) जीभ, रसना; १-१२, २-५७ । । मडिलो नि. (जटिल:) जटा वाला; तापस; १-१६४ जुई स्त्री. (युतिः) कान्ति, तेज, प्रकाश, धमक;२-२४ भत्ति ब. (अदिति) घट से ऐसा १-४२ । जुगुच्छइ सक, (जुगुप्सति) वह घृणा करता है, यह निन्दा | झसुरं दे. न. (ताम्बलम्) पान; २-१७४ । करता है; २-२१ । माणं म.पु. ( ध्यानम) ध्यान, चिन्ता, विचार, जुग्गं न. (युग्मम्) युगल, बन्द, उभय; २-६२, ७८ । उत्कण्ठा-पूर्वक स्मरण; २-२६। जुण्ण वि, । जीण) जना, पुराना; १-१०२ मिज्जइ क्रिया. (क्षीयते) वह क्षीण होता है। वह कृश जुम्म न. (युग्मम्) युगल, दोनों, उभय, २-६२ । होता है। २-३ । जुम्ह सवं. (युष्मद्) तू अथवा तुम षाचक सर्व नाम; | झीण वि. (क्षीणम्) क्षय-प्राप्त; विनष्ट, विच्छिन्न, १-२४६ । कृश; २-३ । जुरइ-अणो पु. (युवति-जन:) अचान स्त्री-पुरुषः १-४ झुणी स्त्री. (ध्वनिः) ध्वनि, आवाज; १-५२ । जूरिहिह अक. (मेष्यति) यह खेद करेगी; -२०४ जूरन्तीप, कृव. (लेदस्याः ) खेद करती हुई का; (१) २-१९३। टको पु. (टक्कः) देश-विशेष; १-१९५ । जूरणे न. (जूरणे-खेदे) दूरना करने पर लेप प्रकट । गरो पुं. (सगरः) वृक्ष-विशेष; नगर का पृक्ष; करने पर, २-१९३ । १-२०५। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) उस पु. ( सरः) टसर एक प्रकार कर सूत; १-२०५१ टूबरी . (वर) जिसके पाड़ी-मूंछ न उगी हो, ऐसा चपरासी १२०५ (ठ) aat fa. (ac.) हक्का बक्का कुण्ठित जह २०३९ ठभिजन क्रि. (स्तम्भ्यते) उससे इक्का बक्का हूला जाता है। २-९ । उम्मो पु. ( स्तम्भ ) खम्भा थम्भा; स्तम्भ २-९ । ठविओो ठाषियों वि. (स्थापितः ) स्थापना किया हुआ १:७ ठीणं न (स्त्यानं) आलस्य; प्रतिध्वनि १-७४; २-३३ । (ङ) डको वि. (दष्टः ) डसा हुआ; दति से काटा हुआ; २-२,८९ । डण्डो पु० ( दण्डः ) जीव- हिंसा; लाठी सजा -२१७ डट्टो वि. (ष्टः ) जिसको यांत से काटा गया हो वहः १-२१७ । ast fr. (ध) जलाया हुआ; १-२१७ । इष्मी पु० (दर्भः) तृण- विशेष; कुश; १-२१७ / डम्भी पुं० ( दम्भः) माया, कफ्ट १-२१७ डरो पु० (दर) भय र १-२१७१ उसइ सक. (वंशति) वह काटता है १-२१८ । बसणं न ( दशनम्) वंश काटना १-२१७ । क. (ति) वह जलाता है। १-२१८ । डाहो पु० ( दाहः ) ताप, जलन, गरमी, रोग-विशेष : १-२१७ । बिम्भो पुं० (टिम्भ:) बालक, बच्चा, शिशुः २ २०२ . होला स्त्री (दोला) भूला हिंडोला १ २.७ ॥ बोलो पु० (दोहृदः) गर्भिणी स्त्रों की अभिलाषा विशेष; १-२१७ । (ग) अ. न. नहीं; मत २-१८०, १९८ । इ अ. (भय-धारण वर्थे ) निश्चय वाचकायं में २-१८४ गई स्व. नदी) नदी, जल-धारा १-२९९ + ओ वि. ( नतः) नमा हुआ; प्रणतः शुका हुआ २. १८० । पङ्गलं न. ( लांगलम् ) हल कृषि औजार १-२५६ । गङ्गले न. ( गुलम् ) पूछ १-२५६ । या कृद (त्या) जान कर २०२५ । न. (डम्) तृण-विशेषः भीतर से पोला, बाण के आकार का घास १ २०२ । डालं न. ( ललाटम् ) ललाट; भाल, कपाल १-४७, २५७ ५-१०३ । ये पुं० ( नरः) मनुष्य पुरुष १-१२९ । लं न. (नम्) तुण- विशेष - २०२ । पलाई न. (लाम्) भाल कपाल २-१२३ । पाथर म. (केवलम् ) केवळ फक्त एरं (न) व ए २-११८, २०४ । (आनन्तर्य अर्थे अनन्तर बाद में २-१८८ ( वैपरीरय- अर्थे विपरीतता सूचक, निषेक२-१७८ । २-१८७, १९८१ वरि अ वि अ गाई अ. (नत्र ) नहीं अर्थक अध्यय: २ १९० । जाडो स्त्री. (नाही) नाड़ा, नस, सिरा; १०००२ । गाण न. ज्ञानम् ) ज्ञान, बोध, चैतन्य, बुद्धि २.४२, ८३ । मुक्कसि दे. (कार्यम् ) कार्य, काम, काज; २-१७४ ॥ णारी स्त्री. (नाये) नारियां १-८ । पाली स्त्री. (नाही) न.डी, नस. विरारा: १ २०२ । जाहलो पु. : इलः ) पुरुषों की एक जाति विशेष १-२५६ । मित्र पु. ( नितम्ब) कमर के नीचे का पार्श्ववर्ती भाग; १-४ । विलो वि. (निश्चलः) स्थिर, छड़, अचल, २७७ १ खिडा न ( ललाटम् ) ललाटः १-४७ २५७ । पिल्लज्ज वि. (निर्लज्ज ) लज्जा रहित; २ २०२ णिव्वडन्ति अफ. ( भवन्ति) होते है; २-१८७ । णीसहिं वि. (निः सः) मन्त्रों से मशक्लों से २-१७९ मज्जइ अ. (निमज्जति) वह डूबता है। १-९४ । सुमरणो वि. ( निमग्नः ) बूबा हुआ; १ ९४, ९७४ श्रं कृ. (ज्ञेयम्) जानने योग्य; २-१९३ । डुन. (नीम् ) घोंसला २-९९ । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एहावित्री पु. (नापितः) भाई, हजाम; १-२२० । तसो कि. (तप्तः) तपा एमा; गरम इवाः २-१०५। तं अ.(त) वाक्य के प्रारंभक अर्थ में प्रयोग किया जाने वाला अध्यय; २-१७६ । तं . तत) वाक्य-आरंमक अव्यय विशेष; -२४, तमो पु' (तमः) अन्धकार; १-१५; ३२ । ___४१; २-१६, १७६, २८४, १९८। तम्बं न. (ताम्रम्) हावा, पातु-विशेषः, १-८४; ते पु. सर्व. (तम्) उसको; १-७। तं न. सर्व. (तत्) वह, उसको; १-२ तम्बिर दे. वि. (ताम्र) ताम्र-वर्ण वाला; २.५६ । -९९, ७६, १८४, १९८ । तं स्त्री. सर्व, (साम) उसको; २-१९८ ॥ सम्बो पुताम्र वर्ण-विष; २-४५ । तम्बोल न. (ताम्बूलम्) पान १-१२४ । सेण सर्व. (तेन) उससे १.३३:२-१८३,१८६,१०४ | तीए सई. स्त्री. (तस्यै) उसके लिये ; २-१९३। तयाणिं अ. (तदानीय ) उस समय में १-१.१। तर, अक. (शक) समर्थ होना । सक.(तरतरला ते सर्व. (ते) वे; १-२६१, २-१८४ ।। तरि हे.कु. (तरितुम) तैरने के लिये तश्चं वि. (तृतीयम्) तीसरा; १-१०१। २-१९८। तो अ. (ततः) म. इसके बादः १-२०६ । अवयरइ सक. (अवतरति) नीचे उतरता है। संसं . . (स) , सीता दला; १-१७२। १-२६, २-१२। तरणी पु. (तरणिः) सूर्य; 1-३१ तकरो पु. (तस्करः) चोर; २-४ | तरल वि. (तरल) चञ्चल; १-७ तगुणा पु. (तद्गुणाः) वे गुणः ।-११। तरु पु. (तरुः) वृक्ष; -१७७ तचं न. (तथ्यम्) सस्य, सच्चाई २-२१ । तरू' (तकः) वृक्ष; १-१७७ । तळं वि. (प्रस्तम्) डरा हुआ; २-१३६। . तलबेण्टं-तलवोण्टं न. (तास पन्तम्) ताड़ का पंचा; १.६७ तही स्त्री. (तटी) किनारा; १-२०२। तलायं न. (तडागम्) तालाब, सरोवर; १-२०३ । तणं म. (तुणम् ) तिनका, पास;-१२६ । तविधो वि. (तप्तः) गरम किया हुआ; २-१०५ । तणुवी स्त्री. (तन्वी) ईषत् प्राग-भारा नामक पृथ्वी ___तबो पुं० (स्तवः) स्तुति, स्तवन, गुण-कीर्तन, २-४६ २-११३। तह अ. (सथा) येसे, उसी प्रकार से: १-६७, १७१ तत्तिल्ले दे. वि. (तत्परे) तत्पर; -२०३।। तहा अ. . १.१६७. ततो अ. (ततः) उससे, उस कारण से बाद में; सहि न. (तर) वहीं, उसमें २-१६१ । २-१६. । ताब. (तदा) तब तक; -७१ । तो वि. (तात:) गरम किया हुया २-१०५ । तालो पु. (तात:) पिता तात; २-२०११ तत्थ अ. (तत्र) वहाँ, उसमें २-१६ । तामरस पं. (नाम रस ) कमल, पप, ताम्र, स्वर्ण, तत्थं वि. (वस्तम्) इरादुना २-१३६ । षतुर के पोषा: १-६ । तदो ब. ( तत्तः) उससे, उस कारण से, बाद में; तारिसो वि. (नाना) वैधा उस तरह का; 4-१४२ -१६० । तालवेण्टं न. (ताल वृन्तम्) तार का पंक्षा १-६७, २-३१ सहिअस दे. न. (तदिवस) प्रतिदिन, हर रोष, २-१७४ तालवीएट न. ॥ १.६७, । तन्तु पु (तन्तु) सूत, धागा; १-२३८ । ताव अ. (तावत्) तब तक, १.११, २७१ १९६ तप-तव अ. (सप्) गरम होना; ति अ. (इति) इस प्रकार; १.४२ । तयइ अक. (पति) वह गरम होता है। | तिस पु० (त्रिदश) देवता; २-१७६ । तिचसीसो पु० (त्रिदशेष) देवेन्द्र १-१० । तविमओ वि. (सप्तः) तपा हुआ; २-१०५। . तिखं न. वि. (तोरणम् ) तेज तीखा, पारवार; २-८१ ....... Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिनिच्छि दे. स्त्री. (?) कमल की रजा THI । शालीमा नि निसारिकार) तिरियाली २-२०४! तिम न. (तिग्मम्) तीक्ष्ण, तेज २-६२ । तेश्रो पु. तेजः) तेज, कान्ति, प्रकाश; १-३२ । तिएहं न. बि. (तीक्ष्णम् ) तीखा, तेज-७५, ८२। तेण (तेन) उससे; १-३३, २-१८३, १८६,२०४ (नक्षत्र विशेष अर्थ भी है) तेत्ति वि. (तावत् ) उतना; २-१५७ । तित्तिथ वि. (ताबस्) उतना; २-१५६ । तेत्तिलं वि. (प्तायत) उतन); २-१५७ । तित्तिरी (तित्तिर:) तीतर, पक्षी विदांष : १.९.। ततीसा संख्या वाचक विशे. (प्रयरिंशत्) तेतास: १-१६५ तित्थगरो पु० (तीर्थकरः) तीर्थंकर जिन; ६-१७७ ।। तदहं वि. (तावत्) उतना; २-१५७ । तित्थंग. (तीर्थम) तीर्थ; साधु-साध्व'-श्रावक-यावि- तरह संख्या वाचक कि. (त्रयोदश) तेरह; १-१६५, __कायों का समूह १-८४, १०४, २०७२ ९० तित्थयरो पुं० (तीर्थकरः) नोर्मकार, जिन१-१७७ तेलोक न. (लोक्यम् ) तीन जगत, स्वर्ग, मत्य और पाताल लोक १-१४८, २०१७ ॥ सिपं चि. (तृप्तम्) संतुष्ट; १-१२८ । तेल्ल न. तेल) तेल; १-२००। तिम्म न. (तिम्मा) तीक्ष्ण, तेज २-६२ ।। ,, तेल्लं न, (तैलम्) सेल; २-९८, १५५ । सिरिमा (आर्ष) पु. (तिर्यक्} पशु-पक्षी आदि तियंच ते लोक न. (लोक्यम्) तीन जगत; २-९७ । प्राणी; २-१४३ । तेवराणा वि. (त्रिपञ्चायत) बेपन, २-१७४। तिरिच्छि पु. (तिर्यक) पशु-पर्शः आवि तिच प्राणी, तवीसा थि. (प्रयोविशतिः) तेबीस; १ १६ । तोणं न (तूणम्) इषि, भाथा, तरकस; १-१२५॥ तीसा संख्या वाचक वि. (विशत) तीस; संख्या तोणारं न. (तूणीरम् ) श्रधि, भाषा, तरकस, १.२४ विशेष;१-८, ९२ तोएडन (तुण्डम्) मुख, महा १-११६ । वे सर्व. (स्थया, तुभ्यम्, तब.) तुझ से, तेरे लिये, तेरा; त्ति अ, (इति) समाप्ति, एवम इस प्रकार; १-४२ ९१२-१९३। तुह सर्व. (स्वम्, स्वाम्) (त्वत्, तब, स्वयि) तू, तुझ __को, सृन से, तेरा, २-१८७ । तुई सर्व. (सव, तुम्यम्) तुम्हारा, तेरे लिये; २-११३/ थण . (स्तन) थन, कुष, पयोधर: १-८४ । तमे सर्व (स्वाम, त्वया, तब, तुभ्यम्, स्वयि) तुमको, थाहरो पू. (स्तम-मः) स्तन का बोस १-१८७ । तुझसे, तेरा तेरे लिये; २-२०४। थम्भिज्जइ अक. (स्तम्भ्यते) उससे स्तम्भ समान हुआ तुच्छ वि. (तुच्छम्) अल्प, हलका, हीन, अघन्य, । जाता है; २-९ । . नगण्य ; १२.४। थम्मो पु० (स्तम्भः) खम्मा, यम्मा; २-८,१। सुरिहयो f. (सूष्णोक:) मौन रहा हुआ। २-१९। थत्रो पुरी (स्तव:) स्तुति, स्तवन, गण-कीर्तन; २-४६ तुहिनो,तुहिक वि. (तूष्णीक:) मौन रहा हुआ; २-१९ थाणुणो पु (स्थागो:) महादेव का, शिव का; २-७ । तुप्पं न. (घृतम्) घो, घृत; १-२००५ थिएणं वि. (स्त्यानम् ) कठिन, जमा हुआ; १-७४ तुम्हारिसी वि. (युष्मादृशः) आपके जैसा, तुम्हारे जैसा १-१४३, २४६ । थी स्त्री. (स्त्री) स्त्री, महिला, नारी २-१३० । तुम्हेवयं वि. (योमाकम् ) आपका, तुम्हारा: २-१४९ थीणं वि. (स्त्यानम् ) कठिन, जमा हुआ; १-७४, तूर (तुणम्) तीर रखने का पदार्थ विशेष, माथा, २-३३, ९९। तरकस; १.१२५ । थुई थी, (स्तुतिः) स्तवन, गुण-कीतन; २-४५ ॥ तूर न. (तूर्यम्) वाय, पाजा; २-६३ । थुल्लो वि. (स्थूल:) मोटा; २-९९ । सूई म, (सीयम्) पवित्र स्थान; १-१०४, २-७२ | थुवाओ कि (स्ताव:) स्तुति करने वाला१.७५ । (थ) Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुधाई म. (दुःखानि) अनेक प्रकार के संकट; ] दूसासमो. शासनः) कौरवों का-पाई.१-४३ । १.३३ । दूहवो वि. (दुभंगः) प्रभागा; प्रिय, अविष्टः १.११॥ दुनियामा वि. (दुःखितः) पोति, पुहिता १.१३ । । दुक्खिा वि. (दुखिता) दुखयुक्त; २-७२। दूहिओ वि. (युःखितः) दुखयुक्त; १.१३ । दुगुल्लं बर्ष (दुकूलम्) परुन, महिन कपड़ा, १-११९ दे ब. (संमुखी करणे निपातः) सम्मल करने के दुपाएवी स्त्री. (दुर्गा देवी) पार्वती, देवी विशेष : १.२७० धर्म में मथता सखी के थामन्त्रण गर्ष में दुग्गावी श्रीः (दुर्गा देवी) गौरी, पार्वती; देवी विशेषः । प्रयोक्तम्प अम्यय; २-१३। देवरो पु. (देवरः) देवर, पति का छोटा भाई-१८. दुखं न. (दुग्धम्) अष, खीर, २५७,८९। देउलं म. (देव कुलम्) देव कुरु। १.२७१। तुमचो वि. (द्विमात्रः) दो मात्रा वाला स्वर-वर्ण; १-९४ देन्ति सक. (ददाम्ते) वे वेते हैं; १-२०४ । दरवगा. म. दुरवगाहम) स्नान करने में.फठिनाई वाला | देरं न. (द्वारम्) दरवाजा, १-४९; २-११२ स्थान; १.१४ व पु० (देव) ऐन, परमेश्वर, स्वाधिदेव; Pur दुरुत्तरं न. (दुरुत्तरम्) अनिष्ट उत्तर; उतरने में असक्यः । वेवउलं न. (देव कलम्) येव कुल १-१७१। 1 देवत्थुई, देवथुई स्त्रो. (देव-स्तुतिः) वेबका गुलाबाद दुरहो (द्विरेफः) भ्रमर, भवरा; १-९४ ।। दुवयणं न, विवचनम्) दो का बोधक व्याकरण प्रसिद्ध देवदत्तो पु. (देवदत्तः) वेदत्त; १-४६ प्रत्ययः १-१४। देवं पु० (देव) १-२६ । दुवारं न. (द्वारम) दरवाजा; २-११२ । देवाई न. (देवाः) देव-वर्ग; १-३४। दुवारिश्रो पु. (दौवारिकाः) द्वारपाल; १-१६० । देवा पु. " " " दुवालसंगे (भाष न.) (द्वादशांगे) मारह जैन मागम ग्रन्यों | देवाणि म. . . " मैं; १-२५४ । देवनाग-सुषण्ण म. दिव-नाग मुरणं) वस्तु-विशेष का दुदिहो वि. (द्विविधः) दो प्रकार का: १-९४ । नाम: १-२६। दुसहो वि. (दुस्सहा) जो फठिनाई से सहन किया जा देवरो पु० (देवरः) पति का छोटा भाई; १-१४६ । देवासुरी वि. (देवासुरी) देवता मोर राक्षस सम्बंषी दुस्सहो वि. (दुस्सहः) जो दुःख पूर्वक सहन किया जा १-७६ । देवो पु. (देव-) देवता -१७७ । दुहवो दुहनो बि. (दुभंग:) खोटे भाग्य वाला, अभागा, देव्वं न, (देवम् ) भाग्य, भारव्य, देव, पूर्व कृत कम; अप्रिय, अनिष्ट, १-११५, १९२ । १-५३) दुहं न. (दुःखम) दुःख, कष्ट, पीड़ा; २७२। देसित्ता स. कृ. (दयित्वा) कह कर उपदेश देकर; दुहा अ. (द्विधा) दो प्रकार का; १-१७ ॥ १-८८ । दुहाइ वि. (द्विषाकृतम्) दो प्रकार से किया हुआ; दोला स्त्री. (वाला) झूला, हिंगोला; १-२१७ । १.९७, १२६ । दोवयणं न. ( द्विवचनम् ) दो का बोधक व्याकरण दुहिए वि. ( दुःखितके ) पीड़ित में, दुःखयुक्त में; प्रसिद्ध प्रत्यय ६-१४ । २-१६४। दोहलो पु. ( दोहदः } गर्भिणी स्त्री का मनोरप; दुहिया स्त्री. (दुहिता) लड़की की पुषी; २-१२६ । १-२१७, २२१ । ब. (दुःखितः) पंडित, दुःखी; १-१३ । दोहा अ. (द्विधा) दो प्रकार (वाला) १.९७ । दूसहो पुदि (दुस्सहः) जो दुःख से सहन किया जाय;/ दोहाइडं वि. (द्विधा कृत.) जिसका दो खण्ड किया गया १-१३, ११५ । हो वह; १९५। Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रहो पु० (Aer) बड़ा जलाशय, झील, सरोवर, द्रहः । पिसि देण. अ. (विक् चिक) धिर विक, छी छो; २-८० । २-१७४। वहम्मि पु. (दहे) बड़े पलाशय में, शील व २-४० पिप्पा मक. (दीप्यते) समकता है, पलता है। १-२२३ । घिरत्थु . (घिगस्तु) विकार हो; २-१७४। धनो पु० (ध्वनः) वमा, पताका; २-२७ । घोरं न, (पर्यम्) धीरज, को; १-१५५, २-६४ । घट्ट गो पु- (धृष्टद्युम्नः) राजा द्रुपद का एक पुत्र; धीरिध न. (पर्यम्) धीरज, धीरता; २-१०७ । घठो वि. (वृष्टः) रोठ, प्रगल्म, निलंग्ज, १३० धुत्तिमा पु. स्त्री. (पूर्वस्वम्) पूर्तता, ठगाई; १.३५ 1 घणंजओ पु. (धनंजयः) धनंजय, अर्जुन, १-१७७६ धुतो पु. (धूतः) ग, वश्चक, जूमा खेलने वाला; १.१७७, २-३.1 २-१८५ । प्रत्ता पु. (पूर्ता:) ठग-गण२-२.४ । अपभणी, धनवन्तो वि. (धनवान्) पनी, धनवान, २-१५९/ धुरा स्त्रीः (पुर) गाड़ी मावि का वा भाग पुरी; धरणी वि. (धनी) धनिक, पमवान् । २-१५९ । धाई न. (धनुः) धनुषः १-२२। ध्वसि अक. (नासि) तू कम्पता है। २-२१६। धरान. (धनुः) धनुषः १-२२। धूआ स्त्री. (दुहिता) लड़की को पुत्री; २-१२६ । . धत्ती स्त्री. (पानी) घाय-माता, उपमाता; २-८१ ।। | धूम पडलो पु. पूम पटलः) धूम-समूह; २-१९८ । धत्थो वि. (ध्वस्तः) ध्वंस को प्राप्त; नष्ट; २-७९ । | धोरणि स्त्री. (घोरणि) पंक्ति, कतार; १.७। धमा स्त्री. (पन्या) एक स्त्री का नाम, धन्य-स्त्री; २-१८४1 धम्मिल्ल, धम्मेल्लं न. (पम्मिालम्) संमत केश बंषा आ केश१-८५ न अ. (न) मही; १.१, ४२, २-१८, १९३, धरणीहर पु.. (परणी घर) पर्वत, पहाड, २-१६४ । १९८, १९९,२०३, २०४,.२०५, २०६,२९७ धरित्रो वि. (घतः) धारण किया हुआ; १.३६। नह स्त्री. (नदी); हे न(हे नदि) हे नदी। धा अक.(पाद) दौड़ना सक.(पा) धारण करना; नई स्त्री. (नदी) नदी; १-२२९ । "नि" उपसर्ग के साथ में नहगामो पृ. (नदी-नामः), नइग्गामो (नदी पाम:) नदी निहित्तो वि. (निहितः) धारण किया हुआ; के किनारे पर स्थित प्राम; २.९७ ॥ नई सोत्तं न. (नदीस्रोतः) नदी का झरना; १-४ । निहिमो वि. (निहितः) धारण किया हुआ; २-९९ नई-सोत्तं (नदी स्रोत:)१-४।। 'बद्" के साथ में न उणा न. जण, न उणाइ, नउणो अ. नपुन: ) फिर से सइंहिक वि, (अद्धितम्) जिस पर अदा की गई नहीं; १-६५। हो वह ३-१२। नो - (नगः) पहाड़, वृक्ष; १-१७७ । धाई स्त्री, (पात्री) धाई, उपमाता; २०८१। नमंचरो ३० । नक्तं चर:) राक्षस पोर, बिडाल; १-१७४ धाग स्त्री. (पारा) धार, नोक, अणी; १-७.१४५। नक्खा पु. (नस्यानि) नख, नाखून; २-९०, ९९। धारी स्त्री. (धात्री) पाई, उपमाता; २-८१ । नगो वि. (नग्न:) नंगा, वस्त्र रहित; २.७८, ८९ । धाह देशज, स्त्री. (?) एक प्रकार की पुकार, नच्चइ अक. (नृत्यति) वह नाचता है; चिल्लाहट; २-१९२ नच्चाविश्राई वि. नितितानि) नचाई हुई को; t-३३ धिई स्त्री. सिः) धैर्य, धीरज १-६२८२-१३१ । नज्मा सक, २-२६ जाना जाता है। धिज्ज न. (पम्) धैर्य, धीरज; २-६४ । नई अक. (नृत्यते) (नवते) उससे नाचा जाता है; चिट्ठो वि. (पृष्टः पीठ, प्रगल्भ, निलम्ज; १.१३० ।। नहो ' (नटा) नट; १-१९५ । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- ---- नाशिमो. (मप्का) पौष पुरा क्यवा पुनी का नई न. (मभः) बाबा .३२,१८७। पुनः १.१३७। नयले न. (मस्तमे) नाकाम तक में २२०३, नसो पुं० (नप्तकः) पी; पुत्र का करवा पुत्री का | मानो - (न्यायः) बाब नीसि; 4.२२९ । नाम (नाम) साग १-२६ । मर्म न. (नमस् साकाम गबन १-१८७॥ मारणं न. (ज्ञानम् । ज्ञान, बोध, पैतन्य, वृद्धि; २.१०४ नम् अक. (नम्) भार के कारण मुकना; सक. नाम ब. (नाम) मावना आमन्त्रण संबोधन-श्याति (मम्) कार सरवा वाक्यालंकार-पाव-भूति अर्ष में प्रयोक्तव्य नमिमो सक. (नमामः) हम नमस्कार करते हैं मध्यप, २.११७। १.१८३। नारइओ पि. (मारकिक:) नरक का बीय; १-७९ . नयो वि. (नतः)ममा हुआ, झुका हुआ नारायो पु. (नाराषः) शरीर को रचना का एक प्रकार; १-१८०। १-६७ । " " के साथ में भाषा स्त्री. (न) नौका बहाव १-१६ उन्नयं वि. (उन्नत) उन्नत, कंका; .१२॥ ! नावित्रो पु. (नापित: माई हन्यामा ६२.। चाहो (नामा) स्वामी, मालिका -१८५; २-७८ पणवह सक. (प्रनमयतुमः नमस्कार करते हो; निश्रचसु अक (निवृत्त) पोस हट ना, रुक मा २१९ नित्तं वि. ( निवृतम् ) निवख, प्रवृत्त विमुख इटा नमिर पि. ( नमन शील) नमने के स्वभाव अला; निअम्ब न. (नितम्ब) कमर के नीचे का भाग-पुळे नमोकारो पु. (नमस्कारः) नमस्कार, १-६२, २-४ । निउ वि.(निवृतम) परिवेष्टित-पराया हुबा; १-११ नम्मो पु. (मम) हंसी, मजाक; १-१२ । निजरं न. (नपुरम) स्त्री के पांव का एक नामुषण, नयणं पु. न. (नयन) मांस, मेष, १-१७७, १८०, २२८। निको पु. (निष्क्रयः) वेतन, मजदूरो; २-४ । नयणा. पं. न. (नयनानि) आंखें: १.३३ । निकम्पन; (निष्कम्पम) कम्पन-रहित, स्पिर -४ मयणाई न. " निक्खं पु. न. (निकम्) सोना-मोहर, मदा, कृपया २.४ नयरं न'. (नगर) नगर, शहर, पुर; १-१७७, १८० निचलो दि. (निश्चल) स्थिर, . अचक: २.२१. नप. पु..न, (नरः) मनुष्य, पुरुषः, १:२२९ । । निच्चल वि. (निपचलः) स्थिर, दृढ़, मचल; नराश्री पु. (नारा) परीर की रचना का एक प्रकार; २-२१ । १-६७। निज्झरो पं. (निरर) झरना, पहाड़ से गिरते हुए पानी नरिन्दो पु. मरेन्द्रः राजा; १८४। का प्रवाहा १-९८, २-९. । नपर म. (केवलम्) वेवल, विशेष, सिर्फ; २.२०४ | निठठरो वि. (निष्ठ) निष्ठुर पुरुष, कठोर आवपी नवल्लो वि. (नवः) नया, नूतन, नवीन; २-१६५।। १-२५, २-७७। नवो वि. " " " " निठलो वि. (निष्ठः) निष्ठुर पुरुष, कठोर नश आदमी; १-२५४ । "" उपसा के साथ में-- निएणश्रो पु. निगंय:) निश्चय, अवधारण, फैसला; १.९५ पण? वि. (प्रनष्ट) विशेष रूप से नष्ट आ; निएणं वि. (निम्नम्) नोचे, अपस्। २.४२ । १-१८७ । निद्धरणो बि. (निर्धनः) पन रहित, अकिंचन २.९० । नह .न. (नस) नश, नाखून; १-३,..। निद्धःन, (स्निग्धम् ) स्नेह, रस-विशेष; स्नेह युक्त, नहा न. (नसानि) नल, नान २.९०, ९ । चिकना १९. Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निनो पुः (निना) १-१८.। निसंसो वि. (मृशंसः) क्रूर, निर्दय; १-१२८, २५०। निप्पहो वि. निष्प्रभः) निस्तेज, फीका; २-५३ । । निसतो पु', (निषषः) निषक देश का राणा, स्वर-विशेष, निपिहो वि. (निस्स्पृहः) स्पृहा रहित, निर्मम; २०५३ ।। देश-विशेष; १-२२६ । निप्पु स निस्पुतमम्) पोछना, अभिमन, मान; | निसमा न. (निशमन) श्रवण, बाकर्णन; १-२६९ । | निसाभरो पु. (निशाकरः) पदमा; १८1 (निशाचर) निष्फन्दा बि. (निष्पन्दा) चलन रहित, स्थिर; ३-११।। राक्षस आदि। निष्फावो पु. (निष्पावः) धाम्य-विशेष; २-५३। निसायरो पु. (निशाचरः) रात्रि में पलने वाला राक्षस निफेसो पु. (निष्पेषः) पेषण, पीसना, संघर्ष; २-५३ । आदि १-७२ । मिभरो वि. (निभरः, पूर्ण, भरपूर, पापक, फैलने | निसिबरो पु० (निशिचर) राषि में चलने वाले राक्षस पाला; २-९-। मादि: १-८,७२. निबिडं चि. (निबिडम्) सान्द्र, धना, गाउ; १-२० । निसीदो पुं० (निशीथः) मध्य रात्रि; १.२१६ । निम्बो : (निम्बः) नीम का पेड़; १-२३०। निसीहो पु. (निशोथः) मध्यरात्रि, प्रकाश का अभाव निम्मल वि. (निर्मल) मल रहित, विशुद्ध; २-२११॥ निम्मरूल न. (निर्माख्यम्) निर्मलत्व; १-३८। । निस्सह वि. न. (नि:सहम) असहनीय, अशक्त; १-१३॥ निम्मोश्रो पु' (निाँकः) कञ्चक, सर्प की त्वचा. २-१८२ निस्साहाई वि. न. (निःसहानि) अशक्त १.९७ निरन्तरं अ. (निरन्तरम) सया, लगातार; ११४। __ निहश्रो वि. (निहतः) मारा हुआ, १-१८. निरवसंतं न. वि. (निरवशेषम्) सम्पूर्ण; ५-१४। निहठं मि. (निषष्ट) घिसा हवा; २-१७४ | निरूवि वि. (निरूपितम्) देखा एका प्रतिपादित, कहा, निहसो पु. (निकपः) कसौटी का पत्थर; १-२८६.१६. हुआ; २.४०। निहि-निही स्वी. (निधिः) खजाना १-३५ । निलयाए स्त्री. (निलयायाः) स्थान वाली का; १.४२1 | निल्लज्ज वि. (निलंज्ज) लज्जा रहित; २ १९७। निहिओ-निहिची वि. (निहितः) स्थापित; रखा हुआ। ! निल्लज्जो चि. (निर्लज्जः) लज्जा रहित; २-२२० निहुअं वि. (निमतम्) उपशाम्स, गुप्त, प्रच्छन्न, १-१३१ निल्लजिमा पु. स्त्री. (निलज्जत्वम्) निर्लज्जपन बेशर्मी; निदेलणं देशज न. (निलयः ) गृह, घर, मकान, २.१७४ १-३५ । नीनिवडई अक. (निपतति) वह गिरता है; १.९४ । "आ" उपसर्ग के साथ मेंनिवत्ती वि. (निवर्तकः) वापिस माने वाला, लौटने आणि वि. (आनीतम्) लाया हुआ; १-१.१ वाला, वापिस करने वाला; २-३० । "उप" उपप्स के साथ मेंनिवत्तणं न. (निवर्तनम्) निवृत्ति; जहां रास्ता बंद होता जणि वि. (उपनीतम्) ले पाया हला हो वह स्थान; २-३०। १-१०१ । निविडं वि. (निविद्यम्) सान्द्र पना. गाढ़; १-२०२। निवु वि. (निवृत्तम्) निवृत्त, इदा हुआ, प्रवृति-विमुख; उणिओ वि. ( उपमीत: ) ले जाया हुमा; १.१० । निवो पु. (नृपः) राजा, नरेका १-१०८। नीच म. (नीयः) नीचा, अघो-स्थित १-१५४ । नित्यत्तश्रो वि. निवर्तकः) निष्पन्न करने वाला, पनाने । नीळ (नोडम्) घोंसला; १-१०६, २०२, २-१९ । वाला: ३.३० । नीमी स्त्री. (नीवी) मूल-धन, पूजी, नाड़ा, इजार नितुध वि. नितम्) निति-प्राप्त; १-१३१ । । नीमो पु. (नीपः) कदम्ब का पेड़ १-२३४। निखुई स्त्रो (निवृतिः) निर्वाण, मोक्ष, मुक्ति; १-१३॥ | नीलुप्पाल न. (नीलोत्पल) नील रंग का कमन; २.१८२ निम्वुओ वि. (निवः) निवृति-प्राप्त; १-२०१४ । नीलप्पल नीलोत्पलम् } " " " १४। Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीवो स्त्री. ( नीयो ) मूम-धन, पूजी, नाड़ा, इनार | पई पु. {पतिः) स्वामी, १-५ । बन्द १-२५९। पन लि.(पीएम) प्रतिकला १-२०६१ नीवो (नीः ) कदम्ब का पेड़, १-२३४ । पईवो पु. (प्रदीपः) दीपक, दिया; १.२३१ । नीसरह मक. (निसंरसि) निकलता है। १-१३ ॥ पईहरं न. (पतिगृहम) पति का घर 1.४ । नीसहो वि. पु. (निसहः) अशस्त; १.४३ । पउट्ठो पुं. वि. (प्रवृष्टः) बरसा हुआ; १-१३१ । नोसह न, (निर-सहम्) असहनीय; १-१३ । । पउटो पु.(प्रकोष्ठः) कोहमी के नीचे के भाग का नीसामनहिं वि. (निस्सामान्यैः असाधारणों से; २-२१२ । नाम: १-१५६। नीसासूसासा .(निश्वासोच्छ्वासो) श्वासोश्वास; १-१० । पउणो वि. (प्र गुणः) पद, निर्दोष, नेशर १-१८० । नीसासो वि. (निश्वासः) नि:श्वास लेने वाला; १-१३; | पजत्ती स्त्री. (प्रवृत्तिः) प्रवर्तन, समाचार, कार्य; 1-१३१ पउन न. (पम् ) कमल; १.६१, २-११२१ नीसित्तो वि, (निषिक्तः) प्रत्यन्त सिक्त पीला१.४३/ परजण पु. (पौर-जन) नगर-निवासी, नागरिक १-१६२ नीसो पु. (नि: स्व:) १.४३ ॥ पउरं पि. (प्रचुरम्) प्रभूत, बढ़तः १-२८० । नु अ. (न) निश्चय अर्षक अव्यय; २-२०४॥ परिसं न. (पौरुषम्) पुरुषत्व, पुरुषार्थ ५-६१५, १६२ नूउरं न. (नपुरम्) स्त्री के पांय का माभूषण; १.१२ पटरी पु. (पौरः) नगर में रहने वाला; १-१६१ । नूण-नूणं अ (नूनम् । निश्चय अर्थक, हेतु भर्यक अव्यय पओ पु. (पयः) दूध और नला १-३२ । पोश्रो पु. (प्रयोगः) काम में लाना; शब्द योजना नेजरं न. (नूपुरम) स्त्री के पांव का आभूषण; १-१२३| १-२४५. नेड-नेई न. (नीडम्) घोंसला; २-९९ । पंको पु० (पंकः) कोच!; १.२० । नेत्ता पुं. न. (नेत्राणि) अखि १-३३ । पंसरणो वि. ( पांसनः ) कलंकित करने वाला; दूषण नेताई न. (नेत्राणि) आंखें १-३३ । लगाने वाला; १-७० । मेरहश्री वि. (मरपिकः) नरक में उत्पन्न हुआ जीय; १-७९/ पंसुलि स्त्री. (पासुली) फुल्टा, व्यभिचारिमी स्त्री; नेहालू वि. (स्नहाल:) प्रेम करने वाला; २-१५९। नेहो पू. (स्नेहः) तेल आदि चिकना रस, प्रेम, २.७७. पंसू पु. (पासु) (पशि) धूली, रज, रेणु, १-२९, ७० । नोमालिया स्त्री. (नवमालिका) सुगन्धित फूल वाला वृक्ष पंसू पुं० (पशु) कुठार, कुल्हाड़ा; १.२६ । विशेष; १-१७.। पकं वि. (पक्वम्) पका हमा; १-४७, २-७१। नोहलिया स्त्री. (नव फलिका) ताजी फली.मबोतल फली, पका वि. (पकवा) पकी हुई; २.१२९। नूसन फल वालो। १.१७० । पालो देशज वि. (समर्षः) समर्ष, शस, २-१७४ | पक्ख पु. (पक्ष) तरफ और २.१६४ । पक्स्से पु० (पक्ष) पक्ष में, तरफदार में, बत्पा में; पइट्ठा स्त्री. (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा, इज्जत, सम्मान | ६-३८, २०६। पक्खो पु० (पक्षः) आधा महोना; २-१०६ । पइट्टाणं न. (प्रतिष्ठानम्) स्थिति, अवस्थान, आधार, | पको-को पु. (पङ्कः) कीचहा १-३० आधय; १-२०६। पंगुरणं न. (प्रावरणम्) वस्त्र, कपड़ा; १-१७५ . पइट्टियं वि. (प्रतिष्ठितम्) रहा हुआ; १.३८ । पचओ पु. (प्रत्यय:) व्याकरण में शम के साथ जाने पडण्णा स्त्री. (प्रतिज्ञा) प्रतिज्ञा, प्रण, शपथ; १-२०६।। वाला शब्द विशेष; २-१३ । पइसमयं नः {प्रतिसमयम् } प्रतिक्षण, हर समय; २-२०६ पच्चरित्र देशास वि. (?) (रित ) झरा हमा; टपका पदहरं न. पतिगृहम् ) पति का घर; १.४। हमा;-१७४) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चूसो पच्चूहो पु. (प्रत्यूषः) प्रात:काल २-१४। पहिषया स्त्री. (प्रतिपत्) पक्ष की प्रथम तिथि 1-२०६ पच्छं वि. (पण्यम्) हितकारी, २०२१। | पहिसारो पृ. (प्रतिसार:) सजावट, अपसरण, विनाश; पच्छा वि. (१eपा) हितकारिणी २.२१ । पच्छा अ. (पपचात) पीछे; २-२१ । पडिसिद्धी स्त्री, (प्रतिसिद्धिः) अनुरुप सिद्धि अथवा पच्छिम चि.न. (पश्चिम) पश्चिम दिशा का, पाश्चा प्रतिकूल सिद्धि १.४४, ६-१७४ । त्या पश्चिम दिक्षा २.२९। पडिसोश्रो आर्ष. पु. (प्रतिस्रोतः) प्रतिकुल प्रवाह; उल्टा पच्छेकम्म न. (पश्चात-कर्म) पीछे किया जाने वाला कार्य: प्रवाहः २-९८ । पडिहारी पु (प्रतिहारः) द्वारपाल; -२०६ । पजज बि. (पर्याप्तम् ) पर्याप्त काफी २.२४ सो पूं. (प्रतिभास:) प्रतिमास, माभास, पाडूम पज्जन्तो पु' (पर्यन्त;) अन्त सीमा तक; त भाग; होना; १-२०६ । १.५८२.६५ । पइिच्छिर देशज वि. (?) सहश, समान; २-१७४ । पज्जा स्त्री. (प्रज्ञा) वृद्धि, मति, २-८३ । पढइ सक. (पठति) बह पड़ता है; १-१९९, २३१ । पज्जायो पुल (पर्याय.) समान अर्थ का वाचक शब्द पढमो बि. (प्रथमः) पहला आय; १-२१५ । उत्पन्न होने वाली नतन अवस्था; २-२४ । पदम वि. न. (प्रथमम्) पहला; १-५५ । पज्जुण्णो पु. (प्रद्युम्नः) श्री कृष्ण का पुत्र प्रम्नः २.४२५ पदुम वि. न. (प्रपमम् ) पहला १-५५ । पञ्चावरण स्त्री. न. देशज (पञ्च पञ्चाशत्) एचपन: पणटठ वि. ( प्रनष्ट अधिक मात्रा में नाश प्राप्त; संख्या विशेष; ३-१७४ । १-३८७ । पट्टणं न. (पत्तनम्) नगर. शहर; २-२९। पणवण्णा देशज स्त्री. न. (पञ्च पञ्चाशत्) पचपन: पट्ठी वि. (पृष्ठी) पीछे वाली; १-१२९, २.९० ।। संख्या विशेष, २-१७४ । पढ़ सक. (प) पढ़ना। पणवह सफ. (प्रणमत) नमस्कार करें २-१९५ । पद सक. (पठति) वह पढ़ता है; १-१९९, २३१ पण्डवो पु.० (पाण्डवः) राजा पाण्डका पुत्र; १-७. पडसुखा स्त्री. (प्रतिश्रुत्) प्रतिध्वनि, प्रतिज्ञा, १-२६, । पएणरह चि. (पञ्चदश) पन्द्रहः २-४३ । पराणा स्त्री. (प्रज्ञा) बुद्धि, मति; २-४२, ८३ । पसाया स्त्री. (पताका) ध्वजा; १-२०६ । पएणासा देशज स्त्री. (पञ्चाशत्) पचास ३-४३ । पडायाणं न. (पर्याणम्) घोड़े आदि का साज समान; परणो पु• (प्राज्ञः) बुद्धिमान्, १-५६ । पणहा स्त्री. प्रश्न:) प्रश्न; १.३५ । पडकरइ सक, (प्रति करोति) वह प्रतिकार करता है | परहुओ पि. (प्रस्नतः) झरा हा; जिसने झरनं को प्रारम्भ शिया हो; २-७५ । पाडकूलं त्रि. (प्रतिकूलम् ) विपरीत, अनिष्ट; २-५७ । परहो पु. (प्रश्नः) प्रश्न; १-३५, २.७५ । पविक्फलं वि. " " " , पत पडिनिशं वि (प्रति निवृत्तम) पीछे लौटा हुआ; १-२०६ पडिया वि. (पतिता) गिरी हुई; गिरे हुए। पशिफद्धी पु. वि. (प्रतिस्पर्षी) प्रति स्पर्षा करने वाला; २-८० । १-४४ • नि' उपसर्ग के साथ मेंपडिभिन्नो वि. (प्रतिभिन्न) उस जैसा; १.६ । निवडइ अक, (निपतति) वह नीचे गिरता है। पडिमा स्त्री. (प्रतिमा) प्रतिमा. अन-शास्त्रोक्त नियमविशेष; १-२०६। प. पाल न. (पत्रम् ) जिस पर लिया जाता है वह पवित्रा स्त्री. (प्रतिपत्) पक्ष की प्रथम तिथि १.४४ कामज पसा, २ १७३ । पलिव जि. (प्रतिपन्नम्) प्राप्त स्वीकृत. बाधित: | पत्ते वि. न. (पत्यकम्)हर एक, २-२१०। पत्तो वि. (प्राप्तः) मिला हुआ पाया हुआ; २-१५ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्थरी पुं० (प्रस्तरः) पत्यर.४५ परी '. परभृतः) कोष पत्थवी, पत्यायोपु. (प्रस्तावः) अक्सर, असम, अकरण, परामरिसो पु. (परामर्षः) विचार, युक्ति, स्पर्श, म्याय. १-१८। . शास्त्रोक्त व्याप्तिा २-१५ । पन्ति स्त्री. (पंक्ति) कतार, श्रेणी; १-६६ परामुछो चि. (परामृष्टः) विधारित, सर किया हुआ; पन्ती स्त्री. (पंक्तिः ) कसार श्रेणी; १-२५ । १.१३१। पन्थो पु० (पाभ्यः) पथिक, मुसाफिर; १.३० । परिषद' वि. (परिपृष्टम) जिसका वर्षग किया गया हो पन्थं पु. (पन्यं) भार्ग को; १-८८ । माह 1-101 पमुक वि. (प्रमुक्तम्) परित्यक्त; २.९७ । परिदृषिनी वि. (प्रतिस्थापितः) विरोधी रूप से स्थापित पम्मुकं वि. " " " पम्हल वि. (पक्ष्मल) सुन्दर केश और सुन्दर आँखों मी. (प्रतिष्ठा) प्रतिष्ठा; 1-101 वाला: ३-७४। परिद्वाविश्रो वि. (प्रतिस्थापित: विरोपीयप से स्थापित पम्हाइं पुन. (पक्ष्माणि) आंखों के बाल भौंहः२-७४ पया अक. (अवर्तते) वह प्रवृत्ति करता है: २-१। परिट्रिश्र वि. (प्रतिष्ठितम् ) रहा हुमा: १-१८॥ पयट्टो पि. (प्रयसः) जिसने प्रवृत्ति की हो वह:२-२१ । परिणामा पु० (परिणामः) फल, २-२०११ पयर्ड वि. (प्रकटम्) प्रकट, व्यक्त, खुला; १.४४ ) परोप्परं वि. (परस्परम्) बापत में; १-५२, २.५३ । पययं वि. (प्राकृतम्) स्वाभाविक १-६७। परोप्पर वि. (परस्पर) आपस में; १-८ । पयरणं न. (प्रकरणम् । प्रस्ताव, प्रसंग, एकार्थ प्रति- ___ परोहो पुं० (प्ररोहः) उत्पत्ति, अंकुर; ms पादक ग्रन्थ १-२४६ । पलाखो पु. (मा.)बड़ का पेड़, २.१०३ । पयरी पु. (प्रकारा) भेद, किस्म, एंग, रीति, सरह पलय पु० (प्रलय) यगान्त, विनाश, १-१८७ । पलही देशब पु. (कासः) कपास; २-१७४। पयरो पु' (प्रचार:) प्रचार, फैलाब; १.१८॥ | पलिबों पुं० पर्य) पलंग, खाट; २-६८। पयाई पु० (पदातिः) पैदल सैनिक; २-१३८।। पलियं म. (पलिसम्) र अवस्था के कारण बालों पयागजलं म. (प्रयाग-जलम) गंगा और यमुना के जल का पकना, बदन को यूरिया; १-२१२। का संगम; १९७७। पलित्तं वि. (पदीपाम्) ज्वलितः १-२२१ । ‘पयारो पुं० (प्रकार: अथवा प्रचारः) भेद, उंग अथवा पलिलं न. (पलितम्) वृद्ध अवस्था के कारण से बालों प्रचार; १-६८। का श्वेत हो जामा; १-२१२ । पयावई पु. (प्रजापतिः) ब्रह्मा अथवा कुम्भकार; ११७७ पलिवि_ वि. (प्रदीपितम्) जमाया हुमा १.१.१॥ १८०/ पलीवाइ, पलीधेइ सक. (प्रवीपयति) वह बलाता है, पारिजइ २-२०८ सुलगाता है। 1-१२१ । क. (प्रलोकय) देशो; २-१८१ । पर वि. (पर) अम्म, तत्पर, श्रेष्ठ, प्रकर्ष, दूरवर्ती, पल्ला (पर्यडको) पलंग, खाट; २-१८ । अनास्मीय; २-७२, ८७। पल्लट्टो वि. (पर्यस्तः) शिस्त. विक्षिप्त, इत, पतित परउट्ठी पु. (परपुष्टः) अम्प से पालित, कोयल पक्षी पर वि. (परकोयम्) दूसरे का; दुसरे से पल्लट्ट वि. (पर्यस्तम् ) क्षिप्त, हत, विक्षिप्त परित संबंधित; २.१४८ । पल्लन्थो। वि. (पर्यस्तः) क्षिप्त, हम, विक्षिप्त, पतित; परमं बि. (परम) श्रेष्ठ, २-१५ । २-४७। परम्मुहो पु. वि. (पराडमुख:) विमुख, फिरा ' | पल्लत्थं वि. (पर्यस्तम्) क्षिप्त, इत, विक्षिप्त, पतित; हुआ; १-२५। २.६८। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पल्लविल्लेण पु. (पल्लवेन) पल्लव से, मूतन पसे से; पाओ पु: (पादः) पाव; १५ ॥ पाडलिउसे म. (पाटलि पुत्र) पाटलिपुत्र नगर में; २-१५० पल्लाणं न, (पर्याणम्) धोरे आदि का साज सामान; | पाहिएक', पाडि न. (प्रत्येकम्) हर एक २.२१०॥ १.२५२ २-६८॥ पल्हाओ पं. (प्रायः) हिरण्यकशिपु नामक वैस्य का पुत्र; .... 'पोखिएफद्धी पु० कि. (प्रतिस्पी) प्रतिस्पर्धा करने वाला; १.४४, २०६; २०५३ । पहिरना, पाभिमानी. तिपदा, एकम पट्ठो वि. (प्रवृष्टः) बरसा हुआ; १.१५६ । तिथि, १-१५, ४४ । पवासओ वि. (प्रवर्तकः) प्रवर्तक, प्रवृति करने वाला; पाखिसिद्धी स्त्री. (प्रतिसिद्धिः ) अनुरूप सिद्धि, प्रतिकूल २.३० । सिद्धि १-४४, २-२७४ । पवत्तर्ण न. (प्रवर्तनम्) प्रवृत्ति; २.३० । पाणि न. (पानीयम्) पानी, जल; १-१०१,२-१९४ पवहो पु. (प्रवाहः) प्रवृत्ति, बहाव; १-६८ । पाणिणोथा वि.(पाणिनीयाः) पाणिनि ऋषि से संबंषित; पवहेण पु. (प्रवाहेन) बहाव द्वारा १-८२ । २-१४७ । पवासू वि. (प्रवासिन) मुसाफिरी करने वाला यात्री; पाणीथं न. (पानीयम्) पानी, जल; १०१। पायर्ड न. (प्रकटस्) प्रकट; १-४४। पवाहो पु. (प्रवाहः) प्रवृत्ति, बहाव; १.६८। पाययं वि. (प्राकृतम्) स्वाभाविक १-६७ । पवाहेण पु. (प्रवाहेन) बहाव द्वारा १-८२ । पायषडणं म. (पाद पतनम् ) पर में गिरना, प्रणाम विशेष: पवो पु. (प्लवः) पूर, उछल-कूद; २-१०६ । पसदिलं चि. (अपिपिलम्) विशेष ढोला; -८९ । १-२७० । पायवीदं न. (पादपीठम्) पर रखने का आसन; १-२७० पसत्यो कि. (प्रशस्तः) प्रशंसनीय, श्लाघनीय, श्रेष्ठ, पायोरी पु. (प्राकार) किला, दुर्य; 1-५६८ । पसिन अक. (प्रसीव) प्रसन्न हो; १-१०१२-१९१ । पायालं न. (पासालम) पाताल, रसा-तल, अषो मुवन; पसिदिलं वि. (प्रणिथिलम) विशेष बीका; १-८९ । पसिद्धी स्त्री. (प्रसियिः) प्रसिदि।.४४ । पारश्री वि (प्राचारक:) आच्छादक, डॉकने वाला; पसुत्तो वि. (प्रसुप्तः) सोया हुआ; १.४४। पारफेर चि. न. (परकीयम्) दूसरे से सम्बन्धित; t.४ पसूण न. (असून) फूल, पुष्प, १-१६६, १८१।। २.१४८ । पहरो पु. (प्रहारः) मार, प्रहार, १-६८ । पहिलो पु. (पाय:) मार्ग में चलने वाला, यात्री, पारक वि. (पारकीयम्) दूसरे से सम्बन्धित; १.४४, २.१४८ मुसाफिर, २-१५२ । पहुडि अ. (प्रभृति) प्रारम्भ कर, वहाँ से शुरू कर, । पारद्धी स्त्री (पापरिः) शिकार, मृगया; 4-२३५ । पारावो , पारेषत्रो पु. (पारापतः) पक्षि-विशेष, कबूतर लेकर; १-१३१, २०६॥ पहो पु. (पन्थाः) मार्ग; १-८८ । ___१-८० । पारो पुं० (प्राकार:) किला, दुर्ग: १-२६८ । .. पा (धातु) पीने अर्थ में। पियइ सक. (पिबति) पीता है: १.१८.। । पारोहो पु. (प्ररोहः) उत्पत्ति, अंकुर; १.४४ ॥ पावडणं म. (पाद-पतनम) १रों में गिरना, प्रणाम. पाइको पु. (पदाति:) पाव से पलने वाला पैदल विशेष; १-२७० । संनिक; २-१३८ । पावं न. (पापम् ) गाप, अशुभ कर्म पुदगल; १.१७७ पासो वि. (प्राकृत:) आच्छावित, टका हुआ; १-१३१ । ३१ । पाउरणं न, (प्रावरणम्) वस्त्र, कपड़ा; १-१७५ । पावयणं ने. (प्रवचनम्) प्रवचन-४४) पाउसो' पु. (पाइट) वर्षा-ऋतु; १-११, ३१, ५३१ । । पावरणं न. (प्रावरणम्) वस्त्र, कपा; १-२७५ । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावारश्री वि. (प्रावारकः) आच्छादक; ठोकने वाला; | पिबरो पु. (पिटर) मायान-बस, मनिया, १-२०११। १-२७१। पेण्डं न. (पिण्डम्) समूह, संघात; १-८५ । पावासुमो दि. पु. (प्रवासिन) प्रवास करने वाला; १.९५ पिचं अ. ( क) अलग; १.१८८ । पावासू वि पु. (प्रदासिन) प्रवास करने वाला; १४४ | _ पियइ सक. (पिबति) वह पीता है; १-१८.। पावीद न.(पार-पीठम्) पर रखने का आसन १-०७० पिलुटुं वि (प्लष्टम् ) दम्प; जला हमा; २-१०६ । पासइ सक, (पश्यति) वह देखता है; १-४३ । पिलोसी पुं. (प्लोषः) दाह, जलन ५-१०६ । पासं न. (पाप) गन्दे के बाप का भाग : पादर बि : (इव ) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा; २-१२ । २.१८२ । पासारणी पु. (पाषाणः) पत्थर, १-२६२ । पिसल्लो पु. : पिशाचः) पिशाच, व्यन्तर देवों की एक पासाथा पु. (प्रासादाः) महल; २.१५० . जाति; t-१९३। पासिद्धि स्त्री. (सिद्धिः) प्रसिद्धि; १-४४ । पिसाश्री पु. (पिशाच:) पिशाच व्यन्तर देवों की एक पासुत्तो वि. (प्रसुप्तः) सोया हुआ; १.४४ । जाति; १-१९३ ।। पासू पु. (पोसुः) धूलि, रज, रेणुः १.२९, ७.। पिसाजी वि. (पिशाचो) भूताविष्ट; भूत आदि से घिराया पाहाणो पु. (पाषाण:) पस्थर, १-२६२ । हुआ; १.१७७। पाहुढं न. (प्रामृतम्) उपहार, भेंट; -१३१, २०६ पिहलो पु. (पिठरर) मन्यान-दंड, मपनिया; १-२०। ___पि अ. (अपि) भीः १-४१:२-१९८, २०४, २१८।। पिहं अ. (पृथक) अलग, उदा: १.२४, १३७, १८८ पित्र वि. (प्रिय) प्यारा: २.१५८। पीअं पांअलं वि. (पोतम्) पीत वर्ण वाला, पोला: १.२१३ पिनो वि. (भियः) प्यारा; १.४२; ११ । २.१७३ । पिनाई वि. (प्रिमाणि) प्रिय; २.१८७ । पीडिझं वि. (पीडितम) पीड़ा से अभिभूत, दुःखित, पित्र वयंसो पु. (प्रिय अयस्यः) प्यासा मित्र, त्रिय सखा; | दबाया हुआ; १.२.३ । २.१८६१ पीदं न . (पीठम् ) आसन, पीढ़ा; १-१०६ । पिउो पु. (पितृक:) पिता से सम्बन्धित; १.१३१ । पोणतं, पोणसं वि. {पीनत्वम्) मोटापन, मोटाई; २-१५४ पिउच्छा स्त्री. (पितृष्वसा) पिता की बहन; २.१४२। पीणदा पीण्या वि. दे. (पीनता) । पिउल्लयोपु. (पितक:) पिता से सम्बन्धित; २-१६४ पोणिमा वि. (पीनरबम्) पिउवई पु. (पितृ पतिः) पम, यमराज; १-१३४ । पीवलं दि. (पीतम् ) पीत वर्ण काला, पौला; १.२१३; पिवणं न. (पितृ बनम्) पिता का वन; २-१३४ । पिउसिधा स्त्री. (पितृष्वसा) पिता की बहन; १-१३४ | पुन्छ न. (पुच्छ) पूछ; १.२६ । २-१४२ | पुला पु. (पुरुनाः) बंग, राशि, केर; १९६६ । पिउहरं न. (पितु गृहम् ) पिता का वर; १.१३४ । । पुठो वि. (पृष्टः पूछा हुआ, २.३४ । पिक्कं वि.न. (पक्वम्) पक्का हुआ; १-४७: २-७१ । पुटठो दि, (स्पष्टः। छुया हुआ; १-१३१ । पिच्छि स्त्री. (चीम्) पच्चो को -१५। पुढमं बि. (प्रथमम्) पहला; १५५ । पिच्छी स्त्री. (पृथ्वी) पुथ्वी; १.२८, २-१५ । । पुढवी स्त्री. (थिवी) पृथ्वी, धरतो, भूमि; १-८८, पिजरयं वि. (पिञ्जरकम्) पीले रंग वाला; २.१६४।। पिटुं न. (पृष्ठम्) पीठ; १-३५, वि. न. (पष्टं) पुदुमं वि. {प्रथमम्) पहला; (-१५ । पीसा हु१-८५ । पुणरत्तं वि. (पुनरुक्तम् ) फिर से कहा हुआ; २-१५९ पिट्ठि स्त्री. (पृष्ठम्) पीठ; १-१२९ । पुणाइ अ. (पुनः) फिर से; १-६५ । पिट्टी स्त्री. (पृष्ठम्) पीठ, दारीर के पीछे का | पुण्णमन्तो वि. (पुण्यवान्) पुण्यवाला, भाग्यवाला; २-२५९ भाग १-३५, १२९ । पुणो अ. (पुनः) फिर से; २-१७४ । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुथं अ. (पृथक) अलग, जुषा १-१८८। पेच्छपुनामाई न. (पन्नामानि) पुनाग के फूल-(फूलों को); | पेच्छसि सफ. (प्रेक्षसे) तू देखता है; २.१०५ पेच्छ सक. (प्रेक्षस्व) देख; देखो; १-२३ पुष्फत्तणं न. (पुष्पत्वम् ) पुष्पपना; फूल पना; २-१५४ पेच्छाइ सक. (प्रेक्षते) वह देखता है; २-१४३ पुप्फत्तणं पुष्फत्तं न. ( पुष्पत्वम् ) पुष्पपना, फूल पना; पेज्जा स्त्री. (पैया) पीने योग्य वस्तु विशेष; मवायू २.२८ पुष्फ न. (पुष्पम्) फूल, कुसुम; १-२३६, २-५३, । पेट्रंन. (पेन्टम्) पीसा हुआ बाटा, घूर्ण आदि; १-८५ पेढेन. (पीढम्) आसन, पीड़ा; १.१०६ । पुरिफमा स्त्री. (पुष्पत्वम्) पुष्पपना, फूलपना; २-१५४ पराष्टुं न. (पिण्डम् ) पिण्ड, समूह, संघात; ६.८५ । पुरो अ. (पुरतः) भागे से, पहले से; १.३७ । पेम्म न (प्रेम) प्रेम, स्नेहा २.९८ । पुरंदरो पु. (पुरन्दरः) इन्द्र, देवराज, गम्भ द्रव्य विशेष; परन्तो पुं० (पर्यन्तः) अन्त सीमा, प्रान्त भाग १-५८ १.१७७ । २.६५ । पुरा स्त्री. (पुर) मगरी; शहर १.१६। । पेरन्तं न. (पर्यन्तम् ) अन्त सीमा, प्रान्त-भाग; २-१३ पुरिमं न. (पूर्वम्) पहिले, काल-मान विशेष २०१३५ | पेलघाणं वि. (पेलवानाम् ) कोमल का; मदु का; १-२३८ पुरिल्लं वि. (पूर्वभव) पहिले होने वाला; पूर्ववर्ती; पेसो वि. (प्रेष्यः} भेजने योग्य; २.९२६ २-१६३। पोक्खरं न. (पुष्करम्) पय, कमल; १.१ २.४ । परिल्लो वि.पुरो) पहिले, २-१६४ । | पोक्खरिणी स्त्री. (पुष्करिणी) जलाश्चय विशेष, चौकोर पुरिसो पृ' (पुरुषः) पुरुष, व्यक्ति १.४२, ११, १११; | बावड़ी, कमलिनी; २.४ । २-१८५। पोग्गलं न, (पुद्गलम्प आदि मुक्त मुर्त-द्रव्य विशेष परिसा पु. (पुरुषाः) पुरुष, व्यक्ति; २-२०२। पुरेकम्म न. (पराकर्म) पहिले के म; १-५७ । पोत्थश्रो पु. (पुस्तकः) लोपर्ने पोतने का काम करने पुलन सक. (पम) देखो; २-२११॥ ___बाला; १.११६ पुलयं पु.(पुलक) रोमाञ्च को २-२०४। पोप्फलं म.पूगफलम्) सुपारी; १-१७० । पुलोमी स्त्री. (पौलोमी) इन्द्राणी; ५-१६० । पोष्फली स्त्री (पूगफली) सुपारी का पेडा १-१७०। पुठवण्हो पु. (पूर्वाह नः) दिन का पूर्व भाग; १-६७ | पोम्म म. (पप्रम् ) कमल; १-६१, २-११२ । पोरी पुं० (पूतरः) जल में होने वाला शुद्र जन्तु पुष्वं न. (पूर्वम्) पहिले; काल मान-विशेष; २-१३५ पुवारहो पुं. (पूर्वाह नः) दिन का पूर्व माग; १.६७। पुहई थी. (पृथिवी) पृथ्वी, धरती, भूमि; १-८८, फडालो वि. (फटावान्) फन वाला, माप, २.१५ । पुहं म. (पृथक्) बलग, जुदा; १-१३७, १८८। । फणसो पु. (पनसः) कटहर का पेक १-२३२ । पुहवी स्त्री. (पृथियो) पृथ्वी, परती, भूमि; १-२१६ ।। फणी पु. (फणी) सांप; फण वाला; १-२३६ । पुहवीसो पु. (पृथ्वीशः) राजा, पृथ्वी पति; १-६।। फन्दणं न (स्पन्दनम् ) थोडा हिलना-फिरना;२.५३ । पुहुवी स्त्री. (पृथिवी) पृथ्वी, परती; १३१२.११३ फरसो वि. (परुषः) कर्कश, कठिन; १-२३२ । पूसो पु. (पृष्मः) पुष्य-मक्षत्र; १.४३। फलं न. (फलम् ) फल; १२३ । पेत्रा स्त्री. (पेया) पीने योग्य बस्तु-विशेष: यवागू फलिहा स्त्री. (परिखा) खाई; किले या नगर के चारों ओर की नहर; १-२३२, २५४ । पेऊसं न, (पीयूषम्) अमत, सुधा; १-१.५। । फलिहो ० (स्फटिकः) स्फटिक मणि, १-१८६, १९५ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (4) फलिहो पु. (परिधः) अर्मला, आगल ; ज्योतिष्-शास्त्र | बली पु. स्त्री. (गतिः) बाल वालो अथवा बल दाला; प्रसिद्ध एक योग; १-२३२, २५४।। फाडेइ सक. (पाटयति) वह फालता है। १-१९८, २३२ बले अ. (निधारणे निश्चय च निपातः) निष्षय फालिहदो पु. (पारिमनः) फरहत का पेड़ देवदाय अथवा ! निर्णय-अर्थक अव्यय; २-१८५ । निम्ब का पेड़; १-२३२, २५४ । बहप्पई पु. (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेष; देव गुरु; फालेइ सक. (पाटयति) वह फाड़ता है; १-२९८, २३० फासो वि. स्पर्शः) स्पर्श, छूना; २-१२। बहरफई पु. (बृहस्पतिः) ज्योतिषक देव-विशेष: देवफुरफुल्लइ (देशण) सक. (7) २-१७४ । गुर; १-५३८ २०६९, १३७ । बहला वि. (वहला) निति, निरंतर, गाय, २-१७७ बहस्सई पु. (बृहस्पति:) ज्योतिष्क देव-विशेष; देव-गुष २-६, १३७ । बइल्लो (देशन) . (बसीचर्दः) बैल, वृषभः ३.१७४।। बहिद्धा (देवाज) अ. (?)बाहर अथवा मैथुन, स्त्रीबढरा, बढलो वि.प. (48र:) मूर्ख छात्रः १-२५४ । संभोग; २-१७४। बद्धकलो प. (बफल) करज का पेक; २.१७ । बहिणी स्त्री. (भगिनी) बहिन; २-१२६ । बन्दि स्त्री. (बन्दि) हठ-हृत-स्त्री, बौदी; २-१७६ । बाहिरी वि. (बधिरः) बहरा, ओ सुन नहीं सकता हो बग्दीण स्त्री. (बस्दिनाम बाबी वासियों का यह१-१८७ । ३-१४ । बहु वि. (बह) बहुत प्रचर, प्रभूत; २-१६४ । बहु वि. (बहुक) प्रचुर, प्रभूत, बहुत; २.१६४ । बन्पइ सक. (बध्नाति) वह बांधता है; १-१८७ | अन्धे हे कू. (वरियतुम्) बांधने के लिये | लिया | बहुहरो वि (बहुतरः) बहुत में से बहुत; १-१७७ । 1-१८१ | बहु वल्लह वि. (बहुवल्लम) प्रभूत बालम २.२०२ । अणुवर्ट बि. (अनुबद्धम्) अनुकूल रूप से बंधा बहुप्पई. बहुप्फई पु. बृहस्पति देवताओं का गुरु; २-५३ । हुआ; २.१८४। बहुवी क्रि. वि (बह ची) अत्यन्त, अतिशय; २-११३ आबस्यसीए वकृ. 'आबनत्या) बापती हुई के; ' (बिमीतक:) बहेना; फल-विशेष; १-८८, बन्ध बन्धो पु. (अन्धः) अंघम, जीय कर्म-संयोग; १.१८७ । बन्धवो, बंधवो (बान्धवः) कदम्ब संबंधित पुरष; १३० बष्फो पु. (पापः) भाप, उष्मा; २.७० । बम्भचेरं न. (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत, क्षीन प्रत; २-७४ बम्भणी पु. (ब्राह्मण:) ब्राह्मण; २-७४ । बम्हचरिश्र न. (ब्रह्मचर्यम् ) ब्रह्मचर्य व्रत, शील प्रत; बाम्हण पु. (ब्राह्मणः) ब्राह्मणः १.६७ । बारं न. (द्वारम्) दरवाजा; १.७९.७९, ११२ चारह संख्या बि, द्वादश) बारह १२१९, २६२ । बाह (बारूप:) अथ, आंसुः १-८२ । बाहो . २.७० । बाहइ सक. (ब षते, विरोध करता है, पौड़ा पहचाता बम्हचेरं न. (ब्रह्मपर्यम्) ब्रह्मचर्य व्रत १-५९.२ ६३, । बाहाए स्त्री. (बाहुना) मुना रो; १३६ । ७४, २३ । बाहिबाहिरं अ. [बहिः) बाहर, २-१४०। बम्हणो पु. (बाह्मणः) ग्राह्मण; १.६५, २०७४ । । बाहू पु. (बाहुः) भुजा १३६ । बन्हा पु. (ब्रह्मा) ब्रह्मा, विधाता; २-७४ । बिमावि, (द्वितीयः) दूसरा; -५, ९४ । बरिहो पु. (जहं.) मयूर, मोर; १-१०४।। बिज्जा वि. १२९८ । बलया, बलाया स्त्रो. भलाका) बगुले की एक जाति; | बिउण) यि. (द्विगुणः) दो गुणा; दूणा, १.९४, र ५९ | बिहिओ वि. (इंहितः पुष्ट; उचित, १-१ ८। Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिन्दूई, बिन्दुणो (बिन्दवः) अनेक बिन्दु अपवा बिन्दुओं। मह न. (भद्रम्) मंगल, कल्पाण; २-८० ॥ बिल्लं न. (बिल्लम्) बिस्व का फल, २.८५ । भापो पु. (मम्मः) राख, ग्रह विशेष; २.५१ । बिस न. (बिस) कमल; १७, २३८ । ममया स्त्री. (1) नेत्र के ऊपर की केशभक्ति बिसी स्त्री. (कृषी) ऋषि का आसन १-२२८। २-१६७। बिहपाई पु. (बृहस्पतिः) देवताओं का गुरु, २-१३७ । भमर पु. (भ्रमर) भंवरा, अलि, मधुकर; १-६ बिहारफई पु. " " " १-१३८ २-१८३। २-१३७ । भमरो पु. (भमरः) भंवरा, अलि, मधुकर; बिहस्सई पु. (बहपतिः । देवताओं का पुरु; २ ६९; १-२४४, २५४ । ममिश्र सं. कृ. (भान्या) घूम करके; २.१४६ बीश्रो सं. वि. (द्वितीयः) दूसरा; १५, २४८; २-७९ ममिरो वि. (भ्रमण-शीलः) घूमने के स्वभाव वाला; घोडेमि मक. (बि.मि) मैं उरखा है; १-१६९ | बुझा सं. कृ. (बुद्धवा) योष प्राप्त करके २-१५ । | भयप्पह, भयस्तई पु. (बृहस्पतिः) ज्योतिष्क देव-विशेष, बुहप्पई पु. (हस्पतिः) देवताओं का गुरु; २-५३, देव-गुरु, ५-६९, १३७। १३७। भरहो पु. (भरन:) ऋषभदेव स्वामी के बड़े लड़के, . बुहष्फई पु. (वहस्पतिः) देवताओं का गुरुः १.१३८ प्रथम चक्रवर्ती; १-२१४ | २.५३,१३७ । भवनो म. (भवतः) आपसे; १-३७॥ बुहस्सई पु. (बृहस्पतिः) देवताओं का गमः २-१३७ भवन्ती सर्व. (भवन्तः) आप श्रीमान्, तुमः २-१७४ । बुध न. (बुध्नम्) मूल-मात्र, २.२६ । भवन्तो सर्व. (मवन्तः) आप, तुम; १-३७ । घेल्लं न. (बिस्वम्) बिल्व पेड़ का फल: १.८५ भवारिसो वि. (भवादृशः) तुम्हारे जैसा, आपके तुल्य बोरं न. (बदरम्) बेर का फल; १-१७० । १-१४३१ बोरी स्त्री. (बदरी) बेर का गाछ; १-१७० । भविश्रो वि. (भव्यः) सुग्घर, श्रेष्ठ, मुक्ति-पोग्य; २-१०७ भसलो पुः (भ्रमरः) मंथरा, अलि, मधुकर; १-२४४; भइणी स्त्री (भगिनी) बहिन : स्वसा; २-१२६ । भरतो पु. (भस्मा) राख, ग्रह-विशेष: २-५१ । भइरवो पुं. (भैरवः) भैरवसग भयानक रस, नवविशेषः । भाउभी पु. भातकः) भाई, बन्ध; १-२३१ । भाणं न. (भाजनम् ) पात्र, आधार-योग्य, बरतन भश्रो पुं. (भय:) डर, त्रास; १-१८७ । १२६७। भजा स्त्री. (मार्यो) पत्नी, स्त्री; २-२४ । भामिणी स्त्री. (भामिनी) महिला, स्त्री; १-१९० । भट्टियो पु. (दे.) (विष्णु) विष्ण, श्री कृष्ण; २१७४ भायणं न. (भाजनं) पात्रं, आधार-योग्य, बरतन भडो पु. (भट.) योद्धा, शूर, धीर; १-१९५। १.२६७; २-२१११ भणिय वि. (भणितम्) कहा हुआ, बोला हुआ१-१९३ भायणा, भायणाई न. (भाजनानि) पात्र, बरतन, १.३३ भारिश्रा स्त्री. (भा) पत्नी, स्त्री, २ २४,१४७ मणिमा वि. (भणिता) बोलने वाली, कहने पालो; भासा स्त्री. (भाषा) बोली, भाषा; १.२२१।। भिउडी स्त्री. ( कुटी) भौह का विकार, भ्रकटी; २-१८६ । भणिरी वि. (भणन-चीला) बोछने के स्वभाव वाली; २.१८०। मिङ पु. (भगः) मृग नामक एक ऋषि; १.१२८ ॥ भत्तिवन्तो वि. (मरितमान्) भक्ति वाला, भक्त, २-१५९ | भिङ्गारो पू. (भङ गारः) भ्रमर, मंदरा; ५-१२८ । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) भिङ्गो पु. (गः) वर्ग मय जल-पात्र १-१२८ । भिडिवालो पु' (भिन्दिपाल: शस्त्र विशेष २-३८, ८९ भिप्फो बि (मोष्म: ) भय जनक, भयंकर, २-५४ । भिमल वि. (विव कुलः) व्याकुक, जबड़ाया हुआ; २-५८, ९० । भिमोरो (देक्षण) पु. (हिमोरः) हिम का मध्य भाग (?); २-६७४। fres . (free) वैद्य, चिकित्सक - ८० भिसिसी स्त्री. (बिसिनी) कमलिनी, पद‌मिनी -१-२३८. २-२११ । भीआए स्त्री. (भीतया ) डरी हुई से २-६९३ ० भुषणयन्तं मुआयतं . ( भुज-यम्यम्) बाहु-मन्त्र, भूजायन्त्र १-४ । सुई स्त्री. (मृतिः) मरण, पोषण, वेतन, मूल्य; १-१३१ । भुज् सक. खाना, भक्षण करना, भोगना । भोच्या सक. संबं . ( भुवस्वर) भोग करके २-१५ । भुत्तं वि. (मुक्तम्) भोगा हुआ; २-७७, ८९ भुमया स्त्री. (मा) मोह वाली आंख के कार की रोम-राजि वाली; ११२१ २ १६७ / भू अक होना। होइ अ. (अति) वह होता है; १~१६ २- २०६ । हुअ विधि. (भग, भवतात्) तू हो; २-१८० । होही भूतकाल (अभवत् ) वह हुआ; H बहु वि. (प्रभूतम्) बहुत १-२३३ २९८ । भेडो वि. (देशज ) ( भेर:) भीरु कातर डरपोक; १२५१ । १४६ । १-१-२ भेत संघ . ( भित्वा ) भेवन करके भोश्रण मत्तेन. ( भोजन-माथे ) भोजन मात्र में; मोमेन्स न. ( भोजन - मात्र) भोजन मात्र १-८२ । मोचा संबंध . ( भुक्त्वा ) या करके पालन करके, भोग करके, अनुभव करके २-१५ । भ्रम् अक घूमना, भ्रमण करना, चक्कर खाना; ममिश्र संबंध कृ. (अभिस्वा ) घूम करके (म ) मए सवं. (गया) मुझ से २ १९९, २०१, २०३ मत्रको पु. ( मृगाङ्कः ) चन्द्रमाः १-१३८ । महलं वि. ( म किनम् ) गंजाम-युक्त, अस्वच्छ ; २-१३८ । भई वि. ( मदीय) मेरा, अपना; २-१४७ ॥ | मउ-अत्तय ६ वि. ( मदुकत्वेन) कोमलपन से, सुकुमारतासे; २-१७२ । मन्र ( मुदुकम् ) कोमलता; १-१२७ । मउर्ड न. ( कुटम् ) मुकुट, सिरपैच; १-१०७ भड न. ( मौनम् ) मीन; १-१६२ । मउत्तणं न. ( मुदुस्वम्) कोमलता १-१२७ । मन (स) मौर (आम मरी); बकुल का पेड़, श्रीक्षा १-१०७ । " " " उलं. (मनम् ) थोड़ी विकसित कली २-१८४ मडलं न. ( मुकुलम् ) १-१०७ मछली स्त्री. पु. मौलि मुकुट क िहुए बाळ; १-१६२ मडली स्त्री. पु. ( मुकुरुम् ) पोड़ी विकसित कली; १-१०७ । मउवी वि. (मुद्री) कोमलता वाली; २- ११३ । मऊ पु. ( मयूरः) पक्षि-विशेष मोर १-१७१ । मऊहो पै. (ख) किरण, रश्मि, कान्ति ते १-१७१ पु. (मुगः) हरि१-१२६ । मंजारी पु. ( मार्जार) बिलाव, बिल्ला, १-२६ मंसं न. ( भसिम् ) मांस, गोश्व १-२९, ७० ॥ मंसले वि. (मांतलम् ) पुष्ट, पोत्र उपचित १-२९ सुल्लो वि. ( श्मश्रुमान) दाढ़ी-मूंछ वाला; २-१५९ । संसू . न. ( श्मश्रुः) दाढ़ी मूंछ १-२६६ २-८६ । मग अ. (मार्गतः) मार्ग से १-३७ । मान्ति क्रिया ( मुध्यन्ते) ढूंढे जाते हैं. अनुसन्धान किये जाते हैं; १-३४ । म पु. ( मधुगुः ) रक्षि-विशेष जन काकः १-७७ मघोणां देवन पु. ( मघवान्) इन्द्र, २०१७४ | मध्चू पु. (मृत्यू:) मोत, मृत्यु, मरण, यमराज, १-१३० मच्छरो, मच्छलो वि. (मस्त) कृपण नं. २१ । मच्छिमा स्त्री. ( मक्षिका) : मक्खी जन्तु विशेष, २-१७ मज्ज - गुमज्जइ अ. क्रिया. (निमज्जति) सूखा है, रफीन होता है; १-९४ । Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णुमण्णो बि. (निमग्नः) दवा हमा, तल्लीन । मणियं अ. (मनाक) अल्प, पोड़ा; २-२६६ । हमा ६.९४, १७४। | मणुअत्तं न. (मनुषत्वम्) मनुष्यता; १-८ । म न (मएम) मदिरा: २-२४। . । मणूमो पुं० (मनुष्यः) मनुष्य, 1-४३। मनाया स्त्रीः (मर्यादा) मीमा, हर, अवधि, कूल, मणे अ. (विभ-अर्थक) विचार-कल्पना के अर्थ में किनारा; २-२४॥ प्रमोग किया जाने वाला अध्यम-विशेष; २.२०७॥ मज्जारो पु. (मात्रार:) विल्ला, बिलाव; १२५ मणोपण वि. (मनोनम) सुन्दर, मनोहर, २-८३ २-१३२ मणोसिलो स्त्रो. (मन:शिला) कालवण की एक उपधातुः मज्यहो, मज्झन्न पु. (मध्याः ) दिन का मध्य भाग; दोपहर, २८४॥ मनोहरं वि. (मनोहरम) रमणीय, सुन्दर; १-२९६ । मझ न. (मध्यम्) संख्या विशेष, अन्त्य और परार्य | मण्डलग्गं न. (मण्डलायम) मण्डम का भर माग तलवार के बीच की संख्या २-२६,९.1 मझिमो पु. (मध्यमः । मध्यम, १-४८ । मण्डलग्गो . (मण्डलायः) सलवार, खग; मन्जरो पु. (माओर) मंगार; बिलाव, बिल्ला; २-१३२ मञ्जारो पु. " " गिल्ला, बिलाव १२६ | मण्डुको पु. (मला) मॅठक, पादुर; २-६८। मट्टिया स्त्री. (मृत्तिका) मिट्टी; २.२९। । ते नम : । म वि. म. (मृष्टम्) माजित, शुद्ध, चिकना १-१२८ मन् म मट्ठा वि. (मष्टाः) पिसे हुए; चिकने किये हुए मन्ने सक. (मन्य) में मानता हूँ; १-१७१। २-१७४ । माणिो वि.(मानितः) माना हुआ, सम्मान मडप्फर (देशज) पु. (? गर्व:) अभिमान, अहंकार; २-२७४ ।, किया हुआ, २१८.। मलयं न. (मृतकम्) मा, शव, लाश; १-२०६। मन्तू पुं० (मन्युः। क्रोष, अहंकार, अफसोस; २.४४ मह सरिमा वि. (हे मुतक-सद्दश ! ) हे मुर्दे के समान; मन्दरयव पु० मिन्दर वट) मेह पर्वत का तट किनारा २.१७४। २.२०१६ मड़ियो वि. (मषित: जिसका मदन किया गया हो । मन्नू ० (मन्यु:) क्रोध, अहंकार अफसोस; २-२५ वहः २-३६। मन्ने सक. (मन्ये) में मानता हूं; १-१७१। मदो पु. (मठः) सम्यासिओं का बाश्रम, प्रतियों का मम्मणं न. (मन्मनम्) अव्यक्त वचन; २-६१ ॥ निवास स्थान; १.१९९। मम्मी पु. (ममं) रहस्यपूर्ण गुप्त बात; जीवन स्थान, मणयं अ (मनाक्) अल्प, पोड़ा, २.१६९ । मणसिला स्त्री. (मनशिला) लाल वर्ण की एक उप पातुः सन्धि; १-३२ । १-२६ । मयगलो दि. (मदकल:) मन के उत्कट, नशे में चूर; मणहर वि. (मनोहरम्) रमणीय, सुन्दर; १-१५६ । 1९८२। . मणंसिला स्त्री. (मनाषिला) लालवर्ण की एक उपचातु, ..मयको पु. (मुगा) चन्द्रमा १-१३०, १७७, १८० मैंनधी १-२६ । मयच्छि स्त्री. ( मगाशी ) हरिण के नेत्रों जैसी सुन्दर मणंसी, मणमिणी पु. स्त्री. (मनस्वी, मनस्विनी। प्रशस्त . . नेत्रों वाली स्त्री. २-१९३1 मन वाला अपवा प्रशस्त मन वाली मयणो पु. (महना) कन्दर्प, कामदेव; १.१७७, १८० 1-२६, ४४। २२८। मणा अ (मनाम) अल्पसा, थोडासा २.१६९ । मयर-द्धय पु. (मकर ध्वज) कग्य, कामदेव; १-७॥ मणासिलो स्त्री. (मन.क्षिला) लालवणे की एक उपधातु, मरगय . (मरकत) नीलवर्ण वाला रत्न-वियोष : मनशील १.२६,४३ । पन्ना; २-१९१। Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरगाय म. (मरकतम्) भीम वाला ररन- | माइहर न. (मार महम) माता का घर -२ विशेष; १-२८२ । माईण स्त्री. (मालाम्) मानों का, की, के मरगा वि. (मरपा) मृत्य गर्म वाले; १.१० । मरहट्ठी पु. (महाराष्ट्रः) प्रान्त विशेष ; मराठा काला; माउ बि. (मका) कोमल, मुगुमा २-१९ मारमा स्त्री. (मामा) माता बंधी; स्वर बर मूल मरहाई - महाराराम ना सिर: याका बाया; वर्ण; -१३१ 148२-११५। माउश्री वि. (मातृक:) माता संस्बीर स्वर बादि मम मलय पु. (मत्रम) पर्वत विशेष, मलमाचा २.९७ वर्ग; -१३५ मलिअ वि. (मक्षित) मसला तृमा; +-७ मोउ म. (मृदुत्वम्) कोमलता; १-१२५, २-२, ९९ मलिक, मलिन वि. (मलिनम् ) मैला, ममता; २-१३८ ! माया स्त्री. (वृक्सा) माता की बहिन, मौसी मल्लं न० (माल्यम् ) मस्तक स्थित पुष्पमाला; २-३९ | २-१४२। . मसणं वि. ( मसृणम् ) स्निग्ध, कोमल, सुकुसाल, माउत्तरगं नमकुवम्) कोमला चिकना; १.२३.। माध्यडलं न. (मात-मयम्) माताओं का समूह १.१५४ मसाण न. (एमशानम् ) मसाण, मरघट; २-८५ । मातुज मालपन) को बोरे का फछ, १-२१४ । मसिणं वि. (मसुणम्) स्निगप, चिकना, कोमल, | माउमिया स्त्री. (मातव्यला) माता की बहिन, मौसो; सुकु-माल; १-१३०। १.१३४, २१४२ । मस्सू पु.न.पमाः) दाढ़ी-मूंछ: २-८६॥ मावान (सातमहम्) माता का पर; १-२१४,१३५ महद, महए सक. (कांक्षति) यह इच्छा करता है; १-५।। माणइ सक. (मानयति) मह सम्मान करता है, अनुमय महएणय पु. (महार्णव) महासमुद्र; १-२६९ । ___ करता है। २-२२८। महन्तो वि. (महान्) अत्यन्त बड़ा; २-१७४ | माणहत्तोपानसान इनामा २-41 महपिउल्लयो वि. (महापितृक:) पितामह से संबंधित; । मायली पु. (मनस्वी बच्छ मन बाला, 1-01 मामंसिसी स्त्री (मनस्विनी) अच्छे पनवासी; महपुण्डरिए पु. (महापुण्डरीक:) प्रह विशेष; २-२२० । महमहिन वि. (महमहित) फैला हवा -४६॥ माणस्स पुं... (मानाय) मान के लिये; २-१५ । माणिश्रो वि. (मानितः) सन्मान किया एका; महा-पसु पुं. मिहापश) बड़े पशु; १-८॥ महिमा पु स्त्री. (महिमा) महत्व, महानता; १-३५ महिला स्त्री. (महिला) स्मी, गारी; १.१४६ । मामि अ, (सस्त्री-झामन्त्रण-अधक) सहेली को दलाने महिवठं न. (मही-पृष्ठम्) पृथ्वी का सल, १.१९ । के अर्थ में प्रमुखता किया जाने वाला अन्मय. महिवालो पु (मही-पालः) राजा; १-२३१ । विष; २-१९४ । . महुर्ष म. (मधूकम्) महुआ का फल; १-१२२ । मायन्दो देशज, पु. (माकन्दः) मात्र, बाप का पेड़ २.१७४। महुरव अ. (मथुराबत्) मधुरा नगरी के समान; माला स्त्री. (माला) माला; २.१८२। २-१५० । मानस्स वि. (मालस्य) माला वाले का, १४ महुलट्ठी स्त्रीः (मधु यष्टि:) धौषधि-विशेष इन, ईस; मासं न. (मासम्) मांस, गास्त: १-२१७ । 1-२४७। मासलं वि. न (मांसकम्) पीन, पुष्ट, उपचित -१ महूअं न. (मभूकम्) महुआ का फल; १-१२२ । मासू पु• न (मथः) दाढ़ी-मूछ; २-८६ । महेला स्त्री. (महिला), स्त्री नारी; १-१४६ । माइपो पु. (माहात्म्यम्) बापन१.३३ । मा . (मा) मत, नहीं; २-२०१। मोहप्पं (माहात्म्यम्) परमः १.३३ माई अ० (मा) मत, नहीं; २-१९१ । |माहुलिश न. (मातुलिंगम्) बीजारे का फल; १-२१४ । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) माहो ५०० ( माघः ) कवि विशेष; एक महीने का नाम; १-१८७ । मिश्रको पुं० (मृगाङ्कः ) चन्द्रमा १-१३० ॥ मिङ्गो पु० (मदंग :) सूदंग वाजा विशेष १-१३७ । मिच्चू ५० ( मृत्युः) मृत्यु, मरण, यमराज १-१३० मिच्छा म. ( मिथ्या) असत्य, झूठ २-२२ । मिट्ठे fr. ( मुष्ठ) मीठा, मधुरः १-९२८ । मिरियं न पु० (मश्चिम् ) मरिच का गांछ; मिरच १- १४६ 1 मिलाइ अ. ( म्लायति ) वह मकान होता है, निस्तेज होता है। २-१०६ ॥ मिलाएं वि. ( म्लानम् ) म्लान, निस्तेजः २.१०६ ॥ मिलिच्छ पु. ( सेन्छः ) म्लेच्छ, अनायै पुरुषः १-८४ मित्र अ. ( इव) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा के संयोग में काम आने वाला अव्यय विशेषः २-१८२ । मिड न. ( मिथुनम् ) स्त्री-पुरुष का जोड़ा: बम्पति; ज्योतिष-प्रसिद्ध एक राशि १-१८८ । मीसं न. ( मिश्रम् ) मिलावट वाला; १.४३; २-१७० मीसालिअं बि. (मिश्रितम् ) संयुक्त, मिला हवा; २-५७० मुइलो पु. ( मृगः ) भूदगः १-४६, १३७१ मुको वि. (मुक्तः) छोड़ा हुआ, व्यक्त; मोक्ष प्राप्तः २-२ । मुको कि. (मूक) मूंगा, वाक् शक्ति से रहित २-९९ । मुखो वि. ( मूर्ख) मूर्ख, अज्ञानी; २-८९, ११२ । मुच् मुच्च सक. ( मुञ्चति) वह छोड़ता है; २-२०६ मोतु सं. कृ. (मुक्त्या) छोड़ करके, २-१४६ | मुतो वि. (मुक्त) छूटा हुआ; २-२ । मुक्की, पम्मुक्क, पक्के वि. (प्रमुक्तम् ) छुटा हुवा २-९७ ॥ मुच्छा स्त्री (मुच्छी) मोह, बेहोशी, आसक्ति २-९० मुलायणो पु. ( मौज्जायनः ) ऋषि विशेष १-१६० । मुट्ठी पुं० [स्त्री. (मुष्टिः) मुट्टी, मूडी, मुक्का २-३४| मुणसि सक. ( जानासि ) तू मानता है; २ २०९ सुगन्ति सक. (जानन्ति ) वे जानते हैं; २-१०४ अमुणन्ती वि.क. (अजामन्ती ) नहीं जानती हुई २-१०९ । मुणिया वि. ( ज्ञाता ) जानी हुई; जान लो गई; २-१९९ १ मुणालं न. ( मृणालम् ) पद्म, कमल : १-१३१ । मुणिन्दोपु. ( सुमन्द्रः ) मुनियों के आचार्य; १-८४ । मुरदा पु. (मुद्रा) मस्तक, सिर: १-२६, २-४१ मुत्ताहलं न. ( मुक्ताफलम् ) मोती १-२३६ । मुत्ती स्त्री. ( मूर्तिः) रूप, आकार, काठिन्य २-३० मुत्तो वि (मूर्त:) आकृति वाला, कठिन, मूढ़, मूच्छ युक्त २.३० । मुतो वि. (मुक्त) छुटा हुआ; स्वक्त; मुक्ति प्राप्त; २-२ । सुद्ध वि. (मुग्ध) मोह-युक्त, सुन्दर, मनोहर, मूढ़: १-१६. मुद्धाइ, मुद्धा स्त्री. ( मुग्षया) मोहित हुई स्त्री से १-५ ॥ मुद्धं वि. (मुग्धम् ) मूढ़, सुन्दर, मोहयुक्त २७७ मुद्धा पुं० ( मूर्धा) मूर्बी, मस्तक, सिर; २-४१ । मुरन्दले पु. ( मुरन्दले !) हे मुरम्बल २-१९४ | मुरुवख वि. ( मूर्ख) मूर्ख, अज्ञानी; २-११२ । मुम्बइ सक. ( उद्वहति) वह धारण करता है; वह उठाता है; २-१७४ | मुसलं न. ( मुसलम् ) मूसल; १-११३ । मुसा म. (मृषा ) मिथ्या अनुस, झूठ १-१३६ ० मुसावाच पु. ( मृषावादः) मिथ्या वचन, सूठे बोल १-१३६ । सुह न. (मुख) मह, बदन, मुल १-२४९ । मुहं न. ( मुखम् ) मुंह, वदन, मुख; १-१८७ २- २६४१ मुली वि. ( मुखर: ) वाचाल, बकवादी, बहुत बोलने वाला; १-२५४ । मुहुदो पु. ( महत्तः) दो घड़ी का काल; अड़ चालीस मिनिट का समय; २-३० 1 मुल्लं न. ( मुलकम् ) मुंह, मुंह, मुख, २-१६४ ॥ मूवि (मुक) वाक् शक्ति से रहित, गूंगा; २ ९९ मूस पु. ( मूषक ) चूहा ; १०८८ | मूसलं न. ( मुसलम् ) मूसल: १-११३ । मूसा अ. ( मुषा) मिथ्या, अनृत, झूठ १-१३६ । मूसावाओ पु. ( मूबाबादः ) मिथ्या वषम, झूठे बोल १-१३६१ , Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - १४.) मेटी पु. (मेषि:) मलिहाय में पशुः को गांधने का | रच-- काष्ठ-विशेष; १२१५ विरएमि अक (विरमादि) में श्रीग करता मेर म. (माणम्) मान, सोमान्त; १-८१ । मेरा स्को, देशज.(?) (मिरा) मर्यादा, २.८७ । । रणरण्यं (देशज वि.) (रणरणकम् ) मिरवरस, जोग, मेहला स्त्री. (मेला) कापी, करधनी, कटि में उत्कण्ठा; २-२०४। पहिनने का आभूषण; १९८७ । रणं म. (भरण्यम्) बंगल; १-६६ । मेहा पु.(मेघाः) बादल १-१८७ । रत्ती स्त्री. (रात्रिः) रात, निना २-७९.८८ । मेहो पु. (मेघः) बादल, १-१८७ । रत्तो वि.पु (रक्तः) लाल वर्ण वाला; २-१०। मोजवं म. (मोक्षम्) छुटकारा, मुक्ति; २-१७६ । रममोगारो पुं. (मगर) मोगरा का गाछ, पेर विशेष, आदतो, पारद्धो वि. (आररूप:) शुरु किया मुदगर, १-११५, २-७७ । हुआ; २-१३८ मोएडं न. (मुण्डम्) मुण्ड, मस्तक, निर; १-११६, २०२ रस्मोन संबंष कु. (मुस्वा) छोड़ करके; २-१४१ रमइ अक. मात्मने पदी (रमते) बइ क्रीड़ा मोस्था हलो. (वृत्ता) मोथा, नागर भोपा नामक औषधि करता है। १-२०२१ विशेष, १-१२। रमित्र संबंध कृ. (मित्वा) रमण करके; मोरपल्ला स. , फिजूतः २४ २-१४६ । मोरो . (मयूरः) पशि-विपोष; मोर; १.१७१। रयणं न. (रलम्) रल, माणिक्य, मणि २.१.4 मोल्लं न. (मूल्यम्) कीमत १-१२४ । रयणी अरो पु. (रजनीवरः) रात्रि में चलने मोसा अ. (मृषा) झुट, मिथ्या, अदृत१९३६। वाला राक्षाश, १-८। मोसावाश्री पु. (मृषावावा) मिथ्या वचन, झूठे बोल; रयदं न. (रजतम्) चादी नामक पातु: १-२०१ रययन. " " " " -१७७: मोहो पु. (मयूषः) किरण, रश्मि, तेज, कान्ति, शोभा, १८०, १०१। रवी पु. (रवि:) सूर्य; १.१७२। रस पु.न. (रस) मधुर आदि रस, २.१६४ । रसायलं न. (रसातलं पाताल लोक, पुच्चो केनोपका य अव. (च) हेतु-सूचक, संबंध-सूचक अव्यय; और | अंतिम भाग; १.१७७, १८.1 २-१८४१.५७। यई न. (सटम्) किनारा; १-४॥ रसालो पु. रसाल:) आम्र वृक्ष, आम का गाछ; २-१५९ । जामि अक. (यामि) में जाता हूं; २-२०४ । रस्सी स्त्री. (रक्ष्मिः) किरण, रस्सी; १-३५, २-७४, ७८ । रहस्सं वि. रहस्यम् गा, गोपनीय, एकान्त का; र प. (पाच पूरणे) लोक चरण की पूर्ति के अर्थ २-१६८,२०४॥ में प्रयुक्त किया जाने वाला अध्यय विशेष रहुबइणा पु. (रभुपतिना) रघुपति से;२.१८८ राहक न. (राजकीयम्) राज-संबंधी; २-१४८ । रणी अरो पु. (रचनीचर) रात्रि में चलने वाले राक्षस ! राई स्त्री. (रात्रिः) रात. निया; २-८८ । आदि; १-८ । राईवं न (राजीवम्) कपल, पद्म; १-१८० । रह स्त्री. (रति) नाम-विशेष; कामदेव की स्त्री | राउलं न. (राजकुलम) राम-सम्हा राजा का बंध; रग्गो पु. (रक्तः) लाल वर्ग, ३.१०, ८९ । १-२६७। - Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) राची पु. ( गगः ) रंगना; रज्जन १ ६८ । राम पु. (राम) श्री रामचन्द्रजी २-१६४ । रायडलं न ( राजकुलम् ) राजसमूहः राजा का वंश १- १६७ । रायकरं न. ( राजकीयम् ) राज संबंधी २-१४८ रायड न. ( राज वार्तिकम्) राज-संबंधी वा समूह; २-३० । रायहरं न. ( राजगृहम् ) राजा का महल २-१४४ । रि अ. (रे) संभाषण अथवा संबोधन अर्थक अव्यय २.२१७ ॥ रिक पु. (ऋतुः) ऋतु दो मास का काल विशेष; १-१४१, २०९ । रिऊ पु. ( रिपुः) शत्र, दुश्मन; १-१७७, २३१ । रिक्खो पु. (ऋक्षः) छ, भालू: २-१९३ रिक्खं पु. ( ऋक्षम् ) रोख को; भालू को ; २-१९ । रिच्छी पु. (ऋक्षः) छ, मालू १-१४०, २- १९ । रिच्छं पु. (ऋक्षम् ) रों को मालू को २-१९ रिज्जू वि. (ऋजुः) सरल, निष्कपट, सीधा १-१४१ रिणं न. (ऋणम्) ऋण, कर्ज, १-१४१ ॥ रिद्धी स्त्री. ( ऋद्धिः ) संपत्ति, समृद्धि, वैभव : १-१२८, १४० : २-४१ । रिसहो पु. ( ऋषभ :) प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभ प्रभुः; १- १४१ । रिसी पु (ऋषि) ऋषि मुनि, साधु, ज्ञानी महात्मा; १- १४१ ० او रुन (रुतम् ) शब्द आवाज १-१८३१ रुक्ख पु. न. (वृक्ष) पेड़, गाच्छ, पादप २ १९ । रुक्खो पु. ( वृक्षः पेड़, गाच्छ, पादप, २- १२७ रुक्खाइ' न. ( वृक्षाः ) पेज, गाच्छ, पादप, १ ३४ रुक्खा पु. ( वृक्षाः ) कणं वि (वदितम् ) शेया हुआ; न किया हुआ; १-२०९ । , 21 29 H 11 को पु० (:) महादेव, नाम- विशेषः २-८० रुद्रो स्त्री. रुपिणी स्त्री. ( रुक्मिणी) नाम विशेष; वासुदेव की " पत्नी २-५२ । रुपी बि. (मी) सोना वाला, चांदी वाला; २-५२, ८९ । हरि पुं० ( चधिर) रक्त खून; १-६ । रूवो पु. ( रूपः ) आकृति १.१४२ । रूवेण पु. ( रूपेण) आकृति से; आकार से ; २-१८४ । रे म. (रे) परिहास, अधिक्षेप, आक्षेप, तिरस्कार आदि अर्थक अपय; २- २०१ । रेभो पु. ( रेफः) 'र' अक्षर रकार; दुष्ट, निर्दय, गरीब; १-२३६ । tes अ. (राज) शोभित होती है। २-२११ रेहा स्त्री. (रेखा) चिन्ह विशेष, लकीर २७ । रेहिरो पु. ( रेखावान्) रेखा वाला; २- १५९ । रोविरो वि. (रोबिता) रोने वाला; २-१४५ रोस पु. रोषम् ) क्रोध को १ १९०, १९१ । ( ल ) लक्खण पु. नं. (लक्षण) अन्य से मंद-सूचक चिन्ह वस्तु-स्वरूप २ १७४ । लनख न. ( लक्षण ) लक्षण, चिन्ह, २-३ | लग्गो पु० (लग्न) स्तुतिपाठक २-७८ | लङ्गलं न. ( लांगलम् ) हल: १-२५६ । ल लं न ( लांगूलम् ) पुच्छ पूछ १-२४६ ॥ लक्षणं न (लंघनम् ) भोजन नहीं करना; १-३० । लच्छो स्त्री. (लक्ष्मी) संपत्ति, वैभव कान्तिः २- १७ लक्ष्णं न ( लाखनम् ) चिन्ह, अंकन; १-२५, ३० लंबणं न १-३० । लज्जालु स्त्री. (लज्जावतो) लज्जावाली; २-१५९ लज्जालुइणी" २-१७४ लज्जि वि. (लज्ज बानू) लज्जा शील; ९ १४५ H लट्ठो स्त्री. (यष्टि) लाठी, छड़ी; १-१४७ २-३४ लहं न. ( इलक्ष्णम्) लोहा, धातु- विशेषः २-७७ वि. (चिकना, अथवा अल्प ) लभ् ور लम्भइ सक. ( लगते) यह प्राप्त करता है; १-१८७ । लिच्छइ सक (लिप्सते) वह लालसा करता है. प्राप्त करना चाहता हैः २.२१ । लल्लक व देशज, (?) भीम, भयंकर २-२७४ । लवण न. ( लवण ) नमक; १-१७१ । > Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . लहुषं न. (क) कृष्णानर, सुगन्धित धूप दम्य वाली म. (वैतालीयम् ) छाद-विष १.१५१ । विशेष : १२२। वइएसो वि. (वैदेश:) विदेशी, परदेशी; १.१५१ । लहुवी स्त्री. वि. (कवी) ममोहर, सुम्बर; छोटो; एहो वि (दहः) मिथिला देश का निवासी विशेष १-१५१। लालं. लाऊ न. (असाबुम्) तुम्बड़ी, फल-विशेष; १-६। वहजपणो वि. (वयनः) गोव-विशेष में उत्पन्न; १.१५१ नायएणं न. (कावण्यम् ) शरीर सौन्दर्भ, कान्ति;१-१७७, बइदम्भो पु. वैदर्भ) विदर्भ देश का राषा आदि । १८॥ वरं न. (वयम्) ल-मेष, हीरा, ज्योतिष लासं न. (लास्यम्) वाघ, नए और गीतमय नाटक प्रसिद्ध एक योग; १-६; २१०५। विपोष, २-१२। बरं, रिमा बसता, यमनी की भावना लाहा सक. (कलापले) वह प्रशंसा करता है। १-१८७ १-१५२। लाहलो पु. (लाहल:) म्ले भन्छ-जाति-विशेष; १-२५६ । | वहसम्पायणी पु. (सम्पायमः) म्यात ऋषि का शिष्य; लिहइ सक, (लिचति) बह मिला है; ५-१८७ लित्तो वि. (लिप्त लोपा खुमा, सगा हुआ, १६ : वइसवणो पु. (श्रवणः) कुबेर; १-१५२ । लिम्यो (वि:) मीम का पेक, १-२३०१ वइसालो कि.(शा) विशाला में सत्पन्न १-१५१ । लुछये कि. (कप:) योमार, रोगी, मग्न; १-२५४; २-२| वइसाहो पु. (वैशाख:) शाल नामक मात्र विशेष ; लुग्गो वि. (ग्ण:) बीमार, रगी, कम्न २.२। लेण वि. (लेखेण) लेख से लिखे हए से; २-१८९ । बइसिश्र न. (वशिकमनंतर शास्त्र विशेष : काम दोश्रो पु. (लोकः) लोक, पपत्, संसार; १-१४७ | शास्त्र; १-१५२। .१-२००। वहस्ताण पु. (वैश्वानरः) वह चिक्क पक्ष, सामवेद लोस्स पु. (कस्म) लोक का प्राणी वर्ग | ' का मक्यव विशेष; १.१५१।। का; १.१८०। मियो नि. (वाशिक:) बाप्त बास जाने वाला १-७० लोणा पु. न. (लोधनानि) से अथा बाचों को वसो पु. (वंशः) संतान-संतति, माल-बन, बांस; १-३३२-७४। १.२६०। लोअणाई पु. नः (लोचनानि) आखें अथवा | . वा न (वाक्य) पद समुदाय; शब्द-समूह; २-१७४ आंखों को; १-३३ । यकवं न. (वल्ककम्) वृक्ष की छाम २-७१ । मोबाणामं पु. न. (लोचनानाम्) आंखों का, को वाखाणं न. (प्पास्मानम) कवन, विवरण, विशद रूप के २-१८४। से अर्थ-परूपण, २९.1 लोगन्स पु. (लोकस्य) लोक का, संसार का, प्राणो वर्ग वमा पु. (वर्गः) जातीय समूहः प्रक-परिच्छन-सर्ग, अध्ययन, १.१७% -७१। लोणं न. (लवणम) ममका १-१.१ । वग्गे पु. (बर्ग। वर्ग में, समूह में; १.६ । लोड श्री पु. (जुब्धकः) लोभी, शिकारी, 1-९१६;२७९ वको : (च्या) काष, रक्त एरमका पेड़, करज वृक्ष, २९.। वर्क वि. म. (कम्) बांका, टेंडा कुटिल; १-२६ ॥ व अ. (वा) अथवा, १-६७ । स्व, व अ. (इव) उपमा, सादृश्य, तुलना, उपेक्षाधक वोतं. हे. कृ. (वक्तुम् ) बोलने के लिय; २-२१७ । भव्यय विशेष: २-३% १८२१ वाइएण वि. (वाचितेन) पड़े हुए से, बचे हुए से; दामालिश्रो वि. (वैतालिकः) मंगल-स्तुति आदि से । २-१८९ । जगाने वाला मागष आदि; १.१५२॥ बच्छंग, (वक्षस् छाती, सीना; २-१७। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्छो पु. (वृक्षः) पेड़, दुम, २-१७, १२७॥ षणोली स्त्री. (बनावसी) अरण्य-भूमि, २.१७७ वच्छं पु. (वृक्षम्) वृक्ष को १-२३ । वण्णा पुं. (वर्ण:) प्रशंसा, इलाघा, कुंकुम, १-१४२ । वच्छस्स पुं० (वृक्षस्य) वृक्ष का; १-२४९ । । गीत कम, चित्र, १-१७७ । वच्छाश्री पुं० (वृक्षात्) पृक्ष से 1-५ वरही पु. (वलिः) अग्नि, चित्रक वृक्ष, भिलाका का वच्छेण, वच्छण पू. (वृक्षन) वृक्ष द्वारा, पेड़, २-७५ । । क्ष से; १.२७। वतनकं (प.) न. (वदनम्) मह. मुख; उक्ति, कथन; वच्छेसु, यच्छसुपु. (वृक्षेष) वृक्षों में; २.१६४. वृक्षों के ऊपर; १-२७। वतनके (प.) न. (वदने) मुख में, मह पर, वज न. (वयम्) रल विशेष, होरा. एक प्रकार का उक्ति में २-१६४ । लोहा; ११७७, २-१०५॥ व म. (पात्रम्) भाषन, बरतन, १-१४५ । वजन. (वयंम्) श्रेष्ठ, २.२४ पापी बारी पात, अथा । यज्झए कर्मणि . (बध्यते) मारा जाता है; २-२६ । वत्तिश्रा स्वी- (यतिका) बसी, सलाई, कलम २.३. घरो पु. (माजीरः) मंजार, विल्ला, बिलाव; २-१३५चियो बि. (वार्तिक:) कथाकार; २-३० । घट्ट न. (वृत्तम्) गोलाकार; १-८४ । वन्दणं न. (पन्धनम) प्रणाम, स्तवन, स्तुतिः १-१५१ वट्टा स्त्री. (वार्ता । मात, कथा; २-३० । बन्दामि सक. (व.) में वंचना करता हूँ। १-६ वट्टी स्त्री (वतिः) बत्ती, अखि में सुरमा गाने की सलाई २-३० । बटुलं वि. म. (वलम्) गोष, वृत्ताकार, एक प्रकार पन्दित्त वन्दित्ता सं. कु. (वन्दित्वा) वंदना का कंद मूल २.३०। ___ करके २.६ बट्टो पु. (वृत्तः) गोस, पथ, एलोक, कछुआ, २०२९ वन्दारया वि. (वृन्दारकाः) मनोहर, मुख्य, प्रधान : १-१३२ बळं म' (पृष्टम्) पीछे का तल; १.८५, १६ । । वन्द्र न. (वन्द्रम्) समूह. यथ: १५३ १.७१। बडिसं न. ( वशिम् ) मछली पकड़ने का कोटा: धम्कह सक. (कांक्षति) वह इछा करता है। १३. १२०२१ वंफइ सक. (कांक्षति) वह इच्छा करता है। वाइयर दे.वि. (बुतरम्) विषेष बड़ा, २-१७४। बढो देश. पु. (ब४३) दरवाजे का एक भाग; १.१७४ वमहो पु. (मन्मथ:) कामदेव, कंदर्प; १-२४२॥ ५-६१ बदरी, पदलो पु. (बठर:) मूर्ख, मात्र, शठ, धूर्त, मग्व, । वम्मिश्री पु. (वल्मीक:) कीट विशेष द्वारा कुल मिट्टी आलसी, 1-२५४ । का स्तूप; १-१०१। यणप्फई पु. (वनस्पतिः) फूल के बिना ही जिसमें फल | बम्हलो दै. पु. (? अपस्मारः) केशर, २-१७४। लगते हों वह वृक्षः २-६९ । वयंसो पु. (वयस्यः) समान काय वाला मित्र; १.२६ वर्णन. (बनम्) अरण्य, जंगल; १-१७२। २-१८६। वणम्मि, वर्णमि न. (वने) जंगल में, अरण्य वयरएं न. (वचन) उक्ति, कथन, वचन; १-२२८ । में;1-२३॥ वयणा, अयणाईन (वचनानि) उक्तिया, विविध कपन, घणे न. (वन) बंगळ में; २.१७८ । वणस्सद पुं० (वनस्पतिः) फूल के बिना ही जिसमें फल वयं न. (वयस्) आयु, उन्ना १-३२ । लगते हों वह वृक्ष; २-६९। घरवणिया स्त्री. (वनिता) स्त्री, महिला, नारी; २-१९८ पाउओ वि. (प्रावृतः) ईका हुआ; १-१३१ । वणे अ. (निश्चयादि अपंक निपातम्) निश्चय, निउर्थ वि. (निवृतम्) परिवेष्टित, घराया विकल्प, अमकम्पनीय अर्थक अव्यय; २-२०॥ हुबा १-१३१॥ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निध्वनाविः निर्वृतम्) निर्वृति प्राप्त; १-१३१] चतुको पु. (वरुणः) शयर द्वीप का एक अधिष्ठाता निव्वुनी वि. (निर्वृतः) " " १.२०१ देव; १.२५४ । विउ वि. (विवृतम्) विस्तृत, व्याख्यात; वल्ली स्त्री. (यस्ली) लाता, वेल; १-५८ । वसई स्त्री. (वसतिः) स्थान, आश्रय, वास, निवास, संयुधे वि. (मंवृतम्) संकड़ा, अविस्तृत; १-२१४ । वसन्ते पु. (वसन्ते) ऋतु विशेष में; चैत्र-वैशाख मास वरिनं वि. (वृतम्) स्वीकृति. जिसकी सगाई की गई। के समय में; १-१९०। हो वहा २-१०७। वसही स्त्री. (वसतिः) स्थान, आयय, बास, निवास वरिसं न. (वर्षभ) मेघ, भारत आदि क्षेत्र :-१.५ १-२१४। वरिसा स्त्री. (वर्षा) वृष्टि, पानी का बरसना; पु (वृषम) बल; १-१२६ १३३ । परिससयं न. (वर्ष-शतम्) सौ वर्ष; ५-१०५ वह् (धातु) धारण करने आदि अर्थ में वत -(धातु) व्यवहार आदि अर्थ वहसि सक (वहसि) तू पहुँचाता है. तू धारण - वित्तं न. (वृत्तम्) वृति, वर्तन, व्यवहार; करता है; २-१९४ । १५८ वहई सक (वहति) वह पारण करता है; १.३८ षट्टो पु. (वृत्त:) कूर्म, कछुआ; २-२९।। षड स्त्री. (वषः) बहू १.६। नियत्तसु आज्ञा. अक. (निषत्तंम्ब) निवृत्त हो। वहुभाइ स्त्री. (अध्वाः, वधूकायाः) बहू के १-७ बहुतं नि, (प्रभूतम्) बहुत प्रचुर; १-२३३, २९८ । निवु वि. (निवृत्तम् ) निवृत्त, हटा हा. वहुमुह, बहूमुह न. (वधू-मुखम्) बहू का मुख: १-४ । प्रवृत्ति-विमुख -१३३ । वा अ. (वा) अथत्रा; -६७। निअ यि (निवृत्तम् ) निवृत्त, हटा हुआ, वाहएण न. (वाचितेन) पढ़े हए से; बाँचे हुए से; प्रवृत्ति-विमुखः १-१३३ । २-१८९। पडिनिय वि. (प्रतिनिवृत्तम) पीछे लोटा __ बाउला वि. (वातूल:) वात-रोगी, उन्मतः १-१२१; हुआ; १-२०६। पयट्टइ भक, (प्रयतते) वह प्रवृत्ति करता है | वाचल्लो वि. (बातूलः) वात-रोगी, उन्मत्त: २-९९ । बाणारमा स्त्री. (बाणारसी) बनारस, २-११६ पयट्टो वि. (प्रवृत्तः) जिसने प्रवृति को हो बहा वामेश्वरी वि. पू' (वामतः) दाहिना १.३६ २-२९ । चायरणं न.(व्याकरणम्) व्याकरण कथा, प्रतिपादन संवट्टिने वि. (संवर्तितम् ) संवर्त-युक्त; २.३० | १.२६८। वर्ष-(धातु) बढ़ने अर्थ में बारं न. (भारम्) दरवाजा; १-७९ । विज वि. (वृतः) बुता; १-१२८२०४० । वारण न. (व्याकरण) व्याकरण, कथन, प्रतिपादन, हो, " " १-१३१,२४०, ९० उपदेश २-२६८। वर्ष-(धातु) बरसने अर्थ में | वारिमई, वारीमई, स्त्री. (वारिमतिः) पानी वाली; {-४ विट्ठो, बुट्ठो वि. (वृष्टः) बरसा हुआं, ११३७ | वारिहरी (वारिषरः) बादल; पट्ठो पु. वि. (प्रवृष्ट:) " " ११३१ वावडो कि यातः) किसी कार्य में लगा हुआ; 1-२०६ वलयाणलो पु. (वडवानलः) बउवाग्नि, वश्वानलः । वासइसा, वाससी, पु (व्यासपिः) पास-ऋषि १५ । वलयामुहं न. (वडवामुखम्) " .१.१०२। बाससयं, न (वर्षशतम्) सो वर्ष) २.१.५। वलिस न. (बडिशम्) मच्छल पकाने का काटा | वासो, पु. (वर्षः) एक वर्ष; १.४३ । १-२०२। वासं, नः (वर्षम् ) वर्ष, २०१०५ । -- . -. - - Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) वासा, पु (वर्षा;) अनेक वर्ष; १.४३, २-१०५/ विज्ज पु. (विद्वान) पण्डित, जानकार; २-१५ । पाहिओ, वाहित्तो, वि. (व्याहृतः) उफ्त, कथित; २.९९ | विज्जू स्त्री. (विद्युत) विषली; १-१५, २-१७३ वाहित्त, वि. (व्याहृतम्) कहा आः १.१२८ | विज्जुणा विज्जूए स्त्री. (विद्युता) बिजली से;१-३३ । वाहो पु (व्यायः) सुब्धक, शिकारी, बलिया: विजुला स्त्री. (विद्युत्) बिजली; t-5२-१७३। १.१८७1 विजमाइ मक. (विष्माति) वृक्षता है, ठण्डा होता है, वाहो वि. (बाह्यः) बाहिर का; २-७८ । गल होता है; २-२८ । वि, म. (अपि) भी; १-६,३३,४१,९७, २-१९३, | विचुलो पु. (वृश्चिक:) बिच्छूः १-१२८; २-१६, ८९ १९५, २१८ । वि छ थो पु. , , १-२३ । विभ, अय. (इब) उपमा, सादृश्य, तुलना, उत्प्रेक्षा | विछिओ पु. (वृश्चिक) विच्छू १-२६ । सर्थक अव्यय; २-१८१। विझ पु. (विन्ध्यः) विन्ध्याचल पर्वत, १-४२ । विश्रइल्ल पु. न. (विचकिल) पुष्पविष, वृक्ष विशेष विझी पु. (विन्ध्यः) विन्ध्याचल पर्वत; व्याध; १.२५ २-२१, १२। विश्रद्ध वि. (विकट) प्रकट, खूला, प्रचण्ड, १-१४६। विट्ठी स्त्री. (वृष्टिः) वर्षा, बारिस; १.१३७ । विबड़ी स्त्री. (वितदिः) वेदिका, हवन-स्थान; २-३६ विट्ठो वि. (वृष्टिः) बरसा हुआ; १-१३७ । विअड्डो वि. (विवन्धः) निपुण, कुपाम, पंडित: २-४० । विडा स्त्री. (बीसा) लज्जा, शरम; २-९८ । . विअणं पुन. (व्यजनम्) पंखा १-४६। विहिर वि. (प्रोडावाला) लज्जा वाला; २-१७४ । चित्रणा स्पी, (वेदना) ज्ञान, सुख-दुःख बादि या विणो पु. (विनयः) नम्रता; १-२४५। अनुभव, पीड़ा; ३-१४६ । विणोप पु. (विनोद) खेल, कीड़ा , कौतुक, कुतूहल; विप्रसिब कुसुम-सरो वि. (विकसित कुसुमारः) बिले हुए फूल रूप बाण वाला; १.११। विराट न. (युन्तम्) फल-पत्र आदि का बन्धन, 1-३९ विधाणं न. (वितानम) विस्तार; यश, अवसर, आच्छादन विराणाणं न. (विज्ञानम) सदोष, विशिष्ट ज्ञान: विशेष; १-१७७। २-४२,८३1 विप्रारुल्लो वि. (विकारवान्) विकार वाला, विकार- - विराणायं न. (विज्ञासम्) जाना हुआ, विदित; २-२९९ । युक्त: २-१५९। विगह पु. (विष्णुः) व्यक्ति-विशेष का नाम: १.८५, विइण्हो बि. (वितृष्णः) तृष्णा रहित, निस्पृह १-१२८ विउअं वि. (विवृतम्) विस्तृत, व्याख्यात, खुला हुआ वित्ती स्त्री. (वृत्तिः) जीविका, निर्वाह साधन; १-१२८ १.३१। वितं न. (वतम) वृत्ति, दर्शन, १-१२८1 विउसम्गो पु. (व्युत्लग:) परित्याग, तप-विशेष; २.१७४ | विदुरी वि. (विदुरः) विचक्षण, पीर, नागरिक विउसा बि. (वितांसः) विज्ञ, पण्डित, २-१७४ ।। १.२७७ । विठहो वि. पु (विबुधः) पण्डित, विद्वान्, वैव, सुर; | विदराबा विदोश्रो वि. (विद्रुतः) विनष्ट, पलायित; ५-१०७ । १-५७७ । घिद्ध वि (वृद्ध.) वृद्धि-प्राप्त, निपुण; १-१२८, २-४० वियोश्रो पु. (वियोगः) जुदाई, विछोह, बिरहा १-१७ विप्पयो पृ. (विप्लव:) देश का उपद्रव; विविध गो; विकासरो पु. (विकस्वरः) खिलने वाला; १-४३ ॥ २-१०६ । विश्वो वि. (विक्लवः) व्याकुल, बेचैन; २-७१। विप्पो पु. (विप्रः) ब्राह्मण, विज; १-१७७ । विचुलो पु. (वृश्चिकः) बिच्छू २-१६ । विष्भलो वि, विह पालः) व्याकुल, पराया हुमा; २-५८ विच्छहो पु, (विच्छवः) अधि, अभव, संपत्ति विस्तार; | विम्ही वि. {विस्मयः) आश्चर्य, चमत्कृत; २-७४ । त्रिम्हणिज्जं वि. (विस्मयनीयम्) आश्चर्य के योग्य; विजणं म. (व्यजनम्) पंखा, १-१७७ । १-२४८ । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । : विम्यणी वि. विस्मैपनीयम्) आश्चर्य के | विहत्यी स्त्री. (वितरित:) परिमाग-विशेष बारह अमल योग्य१-२४८ । का परिमाण १.३१४। विम्हरह सक, (विस्मरंप) तुम भूसते हो विहलो पि. (विहवल) व्याकुल, सल्लीन; २-५८, २७ चिरला वि. (दिरा) अस्प, थोड़े; २.७२ । । विहवेहिं पु. (विभः) भारा, विधि सामग्री विरसं वि.म. (विरसम) रसहीन, १७ द्वारा: १.१३४॥ विरहो पु. (विरहः) वियोग, विच्छोह, जुगाई; १-११५ विहि पु. (विधि:) प्रोग्य२-२०६ । विरहग्गी स्त्री. (विरहाग्निः) वियोग रूपी अग्नि १-८४ विही स्त्री..(विधि:) प्रकार में रीतिः विलया स्त्री. (अमिता) स्त्री, महिला, नारी; २-१२८ विलिश्र न. (व्यलोकम् मिथ्या: १-४६ । बिहीणो वि. (विहीनः) रहित; १-१.३ । विलियं यि. (सोडितम् : लग्जित; १-१०१। विहूणो बि. (विहीमः) सहित १.१०३ । विष अब. (1) उपमा, सादृषय, तुलना, उत्प्रेक्षा । वोइ स्त्री. (वीचि) लहर; १-४। अर्थक अव्यय विशेष; २-२८२ । वोरि न. (वीर्यम् ) शरीर स्थित एक पातु-शुक्र, विश् तेग, दीप्ति; २-१.७॥ विसइ अक. (विति) प्रवेश करता है। बीसम्मो पु. (विसम्मः) विश्वास, श्रद्धा, १.४३ । बीसमइ अक. (विधाम्पति) बह विधाम निवेसिप्राण"वि(निशितानाम्) रहे हों करता है; १-४३1 वोसा स्त्री. (विभति:) संख्या-विशेष, बीस; १-२८, विसही पि. (विषमः) समान स्थिति वाला नहीं; ऊवा-नीचा; १-२४१। धीसाणो पुः (विष्वाणः) आहार, भोषन । घिसएठुलं वि. (विसंस्कुलम्) मिह वल, न्याफुल, अव्यव- बोसामी पुं. (विधामः) विमाम लेना १४३ । स्थित ३-३२। षोसासो पु. (विश्वासः) विश्वास, १.४३ । विसंतवो पुं. वि. ( विषन्तपः ) शत्रु को तपाने वाला, 'ब. (विध सब और से, चारों ओर से। दुश्मन को हैरान करने वाला; १-१७७ . विसमो वि. विषमः) ऊंचा-नीचा १-२४१ । बुट्टी स्त्री. (वृष्टिः) दा; १-१७॥ विसम आयवो (विषमातप:) कठोर धूप; १-५ । घडो स्त्री. वद्धिः बढना. बहाव व्याकरण में प्रसिद्ध घिसमहनी, विसभश्री वि.पु. (विषमयः) विष का एक संज्ञा १-१३१, २.४०। बना हुआ, १.५०। बुट्टो बि. (वुद्धः) बुड्ढा; पंडित, जानकार; १९३१; विसमायवो.पु. (विषमातपः) कठोर धूप; १-५ | २-४० । विसयं न. (विषयम् ) गृह, घर, संभव, संभावना वुत्तत्तो पु. (वृत्तान्तः) पर; समाचार, हकीकत बात २-२०९ । विससिज्जन्त व.कु. (विश्वस्यमान:) हिसा बुन्दं न. (वृन्दम्) समूह, यूप: १.१५९। किये जाते हुए; १.८1 खुन्दास्यो वि. (वृन्दारका.) ममोहर, मुख्य, प्रधान, विसामो पु. (विषाद:) खेद, शोक, अफसोस; १-१५५ विसी स्त्री. (सी) ऋषि का आसन १-१२८ वुन्दावणो पु. (वृन्दावन) मदरा के पास का स्थान विशेष विसेसो पू.नि. (विशेष भिन्नताओं वाला १२६० विस्सोअसिथा स्त्री. (विस्रोतसिका) विमार्ग-गमन, दुष्ट- चुन्द्र न. (वृन्दम) समूह यूमा १-५३ । चितन; २-९८। वेषणा स्त्री. ( वेदना) मान, सुख-पुःख आदि का विहाफट देशज (?) २-१७४ । अनुभव; पीला, संसाप१.१४६ । Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेभसो यु (वैतसः) बैंस का पेड़, १-२०७।। षोद्रहोमो स्त्री, (तरुण्यः) तरुण महिलाएं वेपालियो नि.पु. (तालिकः) मंगल-स्तुति आदि से २-८०1 ___ जगाने वाला मागप आदि; १-१५२ । बोसिरणं मः (मुत्सर्जनम्) परित्याग; २१७४ । इल्लं न. (विचकिलम्) पुष्य-विशेष, १-१६५, २-९८ व्व धव. {इव) समात, उस जैसा; १.६,७,६१ वेकुण्ठो पु. (वैकुण्ठः) विष्णु का घाम; १-१९९ । २-३४, १२९, १५०, १८२, २११ । वेज्जो पु. (वैधः) वैद्य, चिकित्सक, हकीम: १.१४८; २-२४। वेउिसो पु. (देतसः) बेत को लकी १-४६. २०७। शक सिक्खन्तु आज्ञार्थक (शिक्षध्वम्) शिक्षाशील हों; २-८० खुल्न न. (वेडूर्यम्) रहन की एक जाति २-१३३ शुभ् (धातु) शोभने अर्थ में । वेणुलट्ठी स्त्री. (वेणुयष्टिः) बांस की लाठी, छड़ी; सोइइ अकर्मक आस्मने (शोभते) वह सुशोभित होता है। १.१८७,२६. । १-२४७ । बेणू पु. (बेण:) वाय-विशेष, बंसी : १-२०३ । श्रम् (धातु) विनाम अर्थ में वेण्टं म. (वृन्तम) फल-पत्र आदि का बंधन विसमइ मक. (विश्राम्यति) विश्राम करता है; १-१३९; २-३ । वेण्हू पु. (विष्णु) व्यक्ति विशेष का नाम: १-८५ क्षु (धातु) सुनने अर्थ में वेरं न. (वैरम्) दुश्मनाई, शत्रुता; 1-९५१ सोउआण सं. कृ. (श्रुत्वा) सुम करके; २.१४६ खेरि पु.विरि) शत्रु: १.६। सोशा सं.क. (श्रुत्वा) सुन करके २-२५ । सुश्रो कि.(श्रुतः) सुना हुआ। १-२०१। वेरुलिनं न. (वैडूर्यम्) रन की एक जाति, २.१३३। घेलुवणं, वेलूवणं म. (वेणुवनम् ) बांसों का धन; १.४ । श्लिष (धातु} आलिंगन अर्थ में वेलू पु. (वेणु) बांस, १-२०३ । सिलिटुं वि. (क्लिष्टम्) आलिंगन किया हुआ; वेल्लन्तो व. कृ. (रममाणः) क्रीडा करता हुआ; १-६६ बेल्ली स्त्री. (वल्ली) लता, वेल; १-५८१ बालंदठुअं हे. कृ. आश्लेष्टम्) आलिंगन विरी वि.(पेपनधीलः) कांपने वाला; २-१४।। करने के लिये; १-२४, २-१६४ । वेव्व अ. (आमन्त्रण अर्यक) आमंत्रण अर्षक २-१९४ आले? हे. कृ. (आइलेप्टम) आलिंगन करने वेश्ये अ (भयादि-अर्थक) मय, वारण, विषाद, के लियः २-१६ ___ आमन्त्रण-अयंक २-१९३, १९४ । ओलिद्धो वि. पु. (आश्लिष्ट:) शालिंगित; घेसम्पायणो पु'. (वैशम्पायमः) व्यास ऋषि का शिष्य; श्वस (धातु) इवास लेना। वेसकणो पु. (वश्रवणः) कुबेर; १-१५२ । ऊससा, सक. (उछ्वसति) बह ऊंचा सांस लेता वेसिनं न. (वैशिकम) बनेसर शास्त्र विशेष, कामशास्त्र; १-१५२ । वीससइ सक, (विश्वसिति) वह विश्वास करता वेसो वि.(देष्यः) देष करने योग्य, अप्रीति कर २९५ वेहरुवं न. (वैधव्यम्) विषवापन, रांडपन; १-१४८ । | (स) वोकन्त वि. (व्यरक्रान्तम् ) विपरीत क्रम से स्पित; स सर्व (सः) पहः २-१८४ । सइ स. (सकृत्) एक समय, एक वार; 2.01 बोटं न (वस्तम्) फल-पत्र आदि का बंधनः १-३९ सद अ. (सदा) हमेशा, निरन्तर; १.७२। वोतं, हे. कु. (वक्तुम्) बोलने के लिये २-२१७ । साइन न. (सैन्यम् ) सेना, लश्कर; १-१५१ । बोद्रह दे.वि. (तरुण) तरुण, युवा; २-८. सहरं म. (स्वरम् ) स्वच्छन्दता; १-१५१ । । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सई स्त्री. (गची) इमाणी; १-१७७। । सथावं न. (सभापम्) धनुष्य सहित १.१७७ । सञ्णो . (शकुनिः) चील-पक्षी, शुभाषाम सूत्रक बातु- सच न, (सस्यम्) पपा भाषणसस्य-पग, सिद्धांत; स्पग्बम मावि वाकुम १-१८० । • सउरा पु. (सौराः) सह-विशेष; सूर्य-संबंधी; १-१६२।सच्छायं वि. (सच्छायम् ) छाया सहित; काम्ति-युक्त; सउई न. (सौधम्) राज-मासाद; चाँदी; १-१६२ । १-२४९ । संवच्छरो संवच्छलो पु. (संवत्सरः) वर्ष, साल, २०२१ । सच्छाह वि. (सम्झायम्) या सहित; तुल्य, मदृश; संघष्टिभ वि. (संवतितम्) पिडीभूत, एकत्रित; संवर्त ३-२४९। यक्त; २-३०॥ सज्जणो पु. (सच्चनः) अच्छा पुरुषः ।-१११। संवत्तो पु. (संवर्तकः) बलदेव, वडवानल; २.३.। सज्जो पु. किडन) स्वर-विशेष: २-७७ । संवत्तणं न. (संथन) जहां पर अनेक मार्ग मिलते हो, सम्म न. (माध्यम्) सि करने योग्य, मात्र विशेष __वह स्थान; २-३०। संवरो पु. (संवरः) कर्म-निरोध, मत्सय की एक शाति; सझसं न. (साध्यसम) मय, ४१२.२६ । दैत्य विशेष; १-१७७॥ सज्झायो पु. (स्वाध्यायः) शास्त्र का पठन, मावर्तन संयुडो पु. (संवृतः) भावत, संगोपित १७७ आदि; २.२६ । संसश्रो पु. (संशयः) संदेह, शंकाशंशय, ५-३० । समो वि. (सपः) सहन करने योग्य; २.२६,१३४ संसिद्धिी वि. (सोसिक्षिकः) स्वभाव सिद्ध, १.७। संजस्तिो वि. (सायनिक:) बहाव से यात्रा करने वाला संहारी पु. (संहारः) बह-जंतु-शय; प्रलय; १-२६४ । मुसाफिर, १-७॥ सकाय किं. (संस्कृतम्) संस्कार युक्त; १-२८, २४ । | संजमो पु: संयम:) पारिप बत, नियन्त्रण, कार सकारो . (सत्कार:) सन्मान, आदर, पूजा, १.२८२-४ १.२४५ । सकालो पु. (सत्कारः) संस्कार, सन्मान, भादर, पूजाः संजा स्त्री. (संज्ञा) आख्या, नाम, सूर्य की पली, गायत्री २.८३ । सको नि. (शक्तः) समर्थ, शक्ति युक्त; २-३ । । संजोगी पु. (संयोगः ) संबन्ध, मेल-मिलाप, मिश्रण; सासं मव. (साक्षात) प्रत्यक्ष , आँखों के सामने, प्रकट; | १-२४५. १-२४ । संझा स्त्री. (सच्या) सांझ संध्या; १-६, २५, ३० सक्खिणो वि. (साक्षिणः) गवाह, साक्षी; २.१७४। २.९२ । संकरो पु (चङ्करः) शिव महादेव; १-६७७ । सब्मा स्त्री. (सन्ध्या) सौम, संध्या; १-३० संकल ना शृंखलम्) सकिल, बेड़ी, बाभूषण-विशेषः | संठविओ. संठावित्रो वि. (संस्थापितः) अच्छी तरह से १-१८५। स्पापित १.१७। संस्खोयं वि. (संस्त्यानम्) बाबाज करने वाला, प्रति सट्टा स्त्री. (श्रद्धा) विश्वास; २.४१ । ध्वनि; १.७४। सढा स्त्री. (सटा) सिंह आदि की बटा; ती का संखो पु. (शंख:) शंख, छल-अन्तु-विशेष; १-३०,१८७ केश-समूह; शिखा, १-१९६ । सङ्गो पू (शंसः) बस, जल-जन्तु विशेष, १-१० सदिलं वि. (मिथिलम्) ढोला १-८९ । संगं न. (शृंगम) सींग; १.१३.। सदो वि. (मठः) पूर्त, मायावी, कपटी; १-१९९। संगमो पु. (संगमः) मेल, मिलाप; १.१७७॥ सणियं अ. (शनैः) भोरे; २.१६८। संगहिया वि. (संगृहिता) जिसका संचय किया गया हो | सणिच्छरो पु. (पश्चरः) शनिग्रह, १-१४४ 1 वहः २.५९८ । सणिद्धं न. (स्निग्धम्) चांवक का मांड, पिकना; संघारो पु. (संहार:) बहु जन्तु-क्षय ; प्रसय १२६४ ।। संघो पु. (संघः) साधु साध्वी, श्रावक-श्राविका का | सणेहो पु. (स्नेहः) प्रेम, प्रीति, स्निग्षरस; चिकनाई समुदाय: प्राणो समूह १-१८७ । २-१.२ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्डो पु. (प) लोग, क्षम, बस, १-२६०। समं अ. (समम्) साथ; २.२०१ ।. संबो, सरदो पु. (षण्वः) म सक; (-३०। समा वि. (समा) समानतावालो, तुल्यतावाली १-२६९ सरणा स्त्री. (संज्ञा) सूर्य की पत्नी, गायत्री, आख्या; समरो पु. (शबः) भील जाति-विशेष; १-२५८ । नामः २-४२, ८३ । | समवाओ पु (समवायः) संबन्ध विशेष; गुण-गुणी आदि सरह न. (श्लक्ष्णम्) लोहाः २-७५, ७९ । का संबंध १-१७७। सहं दि, (सूक्ष्मम्) छोटा, बारीक, १-१९८२-७५ समिझाइ अक. (समिद्ध) वह चमकता है: २-२८॥ सत्तरी वि. (सप्ततिः) सित्तर; पाठ और दश; १-२१० समिद्धी स्वी. (समृद्धि) समृद्धि, धन-संपत्ति; १.४, सत्तावीसा वि. (सप्तविंशतिः) सत्ताईस; १.४ । १२८। सत्तो वि. (शक्तः) समर्थ, पाक्तिवान्। २-२॥ | समुद्दो, समुद्रो पु. (समद्र) सागर, समुद्र २-८० 1 सस्थि अव, (स्वस्ति) माशीवाय क्षेम, कल्याण, समुहं अ. (सम्म लम्) सामने ; १-२९ । मंगल; २-१। समोसर अक. (समपसर)दूर सरक; २-१९७ । सत्यो पु. (सार्थः) समूह; १-९७ । संपया स्त्री. (संपत्) संपदा, धन-वैभव -१५; सद् संपइ अ. (संप्रति ) इस समय में, वाग्न में, मधुना, अब १-२०६। सिवन्त ब. क. (वसीदंतम्) पीड़ा पाते । संपया श्री. (प) सपा, धन-वैभव, १.१५॥ हए को; १-१०१। संपयं वि. (सांप्रतम्) वर्तमान विद्यमान १-२०१ नुमएणो वि. (निषण्णः) बैठा हुला, स्वित: संफासो पु. (संस्पर्शः) स्पर्ण; १-४३ । पसिन अक. (प्रचीव) प्रसन्न हो; १-१.१६ संभम पु. (संभ्रम) घबराहट, १-८। २-१९५। संमडिभी वि. (संमदितः) संघृष्ट; अच्छी तरह से घिसा सदहियो वि. (भद्धितम्) विश्वासपूर्वक हुआ; २-३६॥ पारण किया हुआ; १-१२ 1 संमडो पु (संमदः) युस लगाई, परस्पर संघर्ष; २.२६ सहाली वि. (शब्दवान) शब्द वाला; २-१५९।। सम्म अ. (सम्यक् ) अच्छी तरह से; १-२४ । सदो पु. (पावः) ध्वनि, आवाज; १-२६०२.७१ । सम्म न. (शर्मा) सुख; १-३२। प्रथमा एक सद्धा स्त्री. (श्रद्धा) विश्वास; १.१२ २१। वचन रूप-शर्म) सन्तो वि. (सन्तः) अस्तिस्वरूप वाले। १.३७ । संमुहं अ. (सम्मुखम) सामने, १.१९ । संदट्टो वि. (संदष्टः) को काटा गया हो वहा २.३४॥ समहत्तं ब. (शतकस्वः) सौ बार, २-१५८ । सपा म. (सपापम् ) पाप सहित १.१७७1 मयं न. (शसम्) सौः २.१.५। सपिवासो, सप्पिवासो वि. (सपिपास:) तृषातुर, सतरण: सपढ़ो पु. (एकटः) गाड़ी; १-१९६। २.९७॥ सयदंब. (कटम्) गाड़ी, नगर-विशेष सरफ न. (शष्पम् ) बालतण, नया घास; २.७३। १.१७७.१८०। सप्फलं न. (सफलम्) सार्थक, फल सहित २-२०४३ सयण पु. (स्वजन:) अपना बावमी; २११४॥ सम्भावं न. (सद्भावम) समाव, सुन्दर भाव; २-१९० सयं च (स्वयम्) खुद ब खुद २२०९। सभरी स्त्री. (शफरी) मछली; १-२३६ । सयलं वि. (सफलं) सम्पूर्ण, सब, २-१५ । समलं वि. {सफलम्) फल सहित, सार्थक; १-२३६ सया अ.स) हमेशा निरन्तरः।-७२ . सभिक्खू पु. [सद-भिक्षुः) ऑष्ठ साधु, १-११ । सय्हो वि. पु. (सह्यः) सहन करने योग्य ; २-१२४ समए (एं) पु. (समय) समय में; ३-१३७ । सर (धातु) सरकने अर्थ में समत्तो वि. (समाप्तः) पूर्ण, पूरा, जो सिद्ध हो चुका श्रोसरह, अवसरइ, अक. (अपसरति) बह हो वहः २.४५ । पीछे हटता है, नीचे समप्पेतून सं. क (समर्पित्वा) समर्पण करके; २-१६४ । सरकता है; १-१७१३ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - ओसारिश्र, अवसारिश्र, वि. (अपसारित) सध्वजजो-सज्वएपु. (सर्वशः} जो सब कुछ काला हो पीछे हटाया हुआ, वहा १- ५ २.८३ । नीने सरकाया हुआ सक्तो अ. (सर्वसा) सब प्रकार से; २-१६.| सव्वदो म. (सर्वतः) सब प्रकार से; २-१६. । समोमर, अक. भाज्ञा. (समपसर) दूर सरक; संवु वि. (संवृतम्) उंका हुमा, सकड़ा. ___ अविवृत; १-१३१ । असरह अफ. (उत्सरति) यह ऊपर सरकता सह-सहा अक. (राजते) वह सुशोभित होता है; १-६ सहकारी सहयारो पु. (सहकारः) आम का पेड़, मदन, हारियो नि. उत्समिट:) कार परकाया सहायता: १-१७७ । हुआ; अलग किया हुआ; २०११ । सहरी स्त्री. (पाफरी) मछली; १-२३६ । नीसरह अफ. (निर्सरति) वह बाहिर निकलता सहलं वि. (सफलम्) फम-मुक्त सार्यक; १-२३६ । सहस्त पु. न. (सहल) हजार; दस सौ; २-१५८ ॥ करो पु.शिरस) सश...। सहसरसिरो वि.पु. (सहस्र शिर) प्रमत मस्तक वाला, सरश्रो पु. शरद) ऋतु-विशेष आर्थिगन कार्तिक मास | विग; २.१६८। सहा स्त्री (समा । सभा, समिति, परिषद; १.१८७ सररुई न. (सरामहम्) कमल; १-२५६ । सहावी पु. (स्वभावः) भाव; प्रकृति, निसर्गः १-१८७ सरि घि, (सहक) सहा, सरीमा, तुल्य; १-१४२ ! सहि स्त्री. (सलि) सहेली संगिनी; २-१९५ । सरित्रास्त्री . (सरिस्) मदी; १.१५।। महिना बि. (सहृदयाः) सुन्दर चित काले, परिषद सरिच्छो वि. (गदशः) सदृश, समान, तुल्य; १.१४४, बुद्धि वाले: १-२६९। १४२२१७। सहिअपहिं वि. (सहदयः) सुमार विचार शील पुरुषों द्वारा सरिया स्त्री. (सरिद) मदी; २०१५ । मरिस बि. (सरश) समाम, सरीमा, तुरुम; २-१९५ मा स्त्री. सर्व. (सा) वह (लो); १-३३; २-१८ सरिसा वि. (सदृशः) समान, तुल्य; १-१४२ सरिसव खला पु. (सर्षप-खलः) सरसों के खलिहान को सा पू. स्त्री. (श्वान) कुत्ता, अगवा कुत्तिया १-५२ ___ साफ करने वाला; १-१८७ । माउउअयं-साऊअयं न. ।स्वारकम् ) स्वादिष्ट करू:१५ सरो पु (समर) कामदेवः २-७४,७८ । | साणो पु. (श्चान) कूता; १-१२। सरोहहं न. (सरोवहन) मल१-१५६ । सम्मश्री पु. (श्यामाक:) धाम्य विशेष; १-७१ । साहा स्त्री. (साषा) प्रशंसा, तारीफ ३-१०१। सामग्छ-सामस्थं न. (सामध्यम्) समता पाक्ति: २.२२ मलिल पु.न. (सलिल) पानी, जल; १.८२ । । सामा स्त्री. (ज्यामा) श्याम वणं वाली स्त्री; १-९६० सबइ मक. (शपति) वह शाप देती है। १-३३ । सवलो वि. (शबल:) रंग-बिरंगा, चित्र-विचित्र;१-२३७ सामिद्धि स्त्री, (समृद्धिः) समृषि, पन-क१.४४ । सबहो पु. (शपथः) सोगंध, आक्रोश वचन, गाली | सायरो पु. (सागरः) समुद्र २०१८२ । १-१७९, २२१ । सारण न. (शाई गम्) विष्णु का मनुष; प्रधान दल, सम्वं वि. पु. (सर्वम् । सब को; तमाम को; १-१७ श्रेष्ठ अवयव; २-२००। २-७९ । । सारिकवं वि. (सादृश्यम् ) समान, तुल्य ; २-१७ । सवयी ब. (सर्वतः) सब प्रकार से: १-३७, २-१६० | सारिच्छो वि (सशः) सदृश. समान, सभ्यः १.४४ । सम्वलिश्रो वि. (सर्वांगीण:) जो सभी अंगों में व्याप्त हो सारिच्छ वि.नं. (सारश्य तुल्यता, समानता, ऐसा; २.१५१ । २-१७। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) सालवाहणो पु. ( शातवाहनः ) शाल वाहन नामक एक व्यक्ति १-२११ । सालाहणी पु. ( शातवाहनः) शाल वाहन नामक एक व्यक्ति ३.८१ २११ । सालाही स्त्री. ( शातवाहनी ) घाल बाहन; से संबंध रखने वाली; १-२११ सावगी पु. ( श्रावक: ) जैन- उपासक गृहस्थ ; श्रावक; १-१७७ 1 साधो पु. ( शापः ) शाप, आक्रोश, घपच, सोगन; १-१७९, १३१ । सास न. ( सम्यम्) खेत में उगा हुआ हरा घान; १४ साह साहसू आज्ञा. सक. ( कम ) कहो; २-१९७ सामि वर्त. सक. (कथयामि) में कहता हूं: २- २०४ । साहा स्त्री. (शाखा) डाली एक हो बाचार्य की शिष्य परम्परा १-१८७ । साहुली दे. स्वी. (शाखा) डाली; २-१७४ | साहू पु. ( साधुः) साधु, यति, महाव्रती १-१८७ सामि सक. (कथयामि ) में कहता हूँ; २-२०४ । सि अ. (असि ) तू है; २-२१७ । ¦ सिम अ. (स्यात्) प्रशंसा, अस्तित्व, सत्ता, संदाय, प्रश्नः निश्चय, विवाद आदि सूचक अव्यय २-१०७ सिश्रालो पु. ( श्रृगालः) सियार, गीदड़ पशु-विशेष १-१२८ सिश्राषाधोपु. (स्याद्वादः) अनेकान्त दर्शन जैन दर्शन का सिद्धान्त विशेष २- १०७ । सिंहदत्त पु. ( सिंहदरा ) व्यक्ति वाचक नामः सिंहराओ पु. ( सिंहराज : ) केशरीसिंह; १-९२ । सिङ्ग न. ( युगम् ) सींग, विषाणः १-१३० । सिङ्गारो पु. ( श्रृंगारः ) काव्य में प्रसिद्ध रस-विशेष; १-१२८ । सिंधो पु. सिंहः) सिंह १- २९, २६४ । सिच १-९२ असित्तो वि ( उत्सिक्तः ) गर्वित, उद्धतः १- ११४ । नीसित्तो थि. (निष्यक्सः ) अत्यन्त सिक्त, पीला १-४३ । सिज्ज अ. ( स्वेद्यति ) वह पसीना वाली । होती है; २-१८० । सिटुं वि. (सुष्टम् ) रचित, निर्मित १-१३८ । सिट्टी स्त्री. (सृष्टि) विश्व निर्माण, बनाई हुई; १-१२८, २३४ । सिढिलो वि. पु (शिथिलः) ढीला, जो मजबूत न हो यह मंद; १-२१५ । सिढिलं वि. न. (शिथिलम् ) ढीला, मंद, १.८९ सिढिलो वि. पु. ( शिथिर: ) ढीला; मंद; १-२१५, २५४ सिद्धिं वि. (स्निग्मम्) चिकना, तेल वाला; २- १०९ सिंहो पु. ( सिंहः ) मुग- राज, केशरी २-७५ ॥ सित्थं न. ( सिक्यम् ) पाय कण, औषधि-विशेष २-७७ ॥ सिद्ध पु. ( सिद्धः ) सिन्दूर बार नामक वृक्ष-विशेष; १-१८७ । सिन्दूरं न ( सिन्दूरम् ) सिन्दूर, रक्त-वर्षीय चूर्णविशेष १-८५ । सिन्धवं न. ( संव) सेंधा नमक, लवण विशेष १-१४९ । सि न. ( सैन्यम्) सेना, लवकर १-१५० । सिप्पी स्त्री. ( शुक्ति:) सोप, जल में पाया जाने वाला पदार्थ विशेष २०१३८ । सिभा स्त्री. (शिक्षा) वृक्ष का जटाकार मूल; १.२३६ सिमिणो पु ( स्वप्नः ) स्वप्न, सपना; १४५ २५९ सिम्मी पु (एलेक्ष्मा) लेष्मा, फफ १०७४ | सिरं न ( शिर) मस्तक, सिर; १-३२ । सिरविणा स्त्री. (शिरोवेदना ) सिर की पीड़ा; १-१५६ सिरा स्त्री. (शिरा) नस, नाड़ी, श्गः १-२६६ सिरी स्त्री. (बी) लक्ष्मी, संपत्ति शोमा २-१०४ सिरि स्त्री (श्री) लक्ष्मी, शोमा २-१९८८ | सिरीए स्त्री. (त्रियाः ) लक्ष्मी का शोभा का; २ १९८ । सिरिमन्तो वि. (श्रीमान्) शोभा वाला; शोमा युक्त; २-१५९ ॥ सिरिमो पु. ( शिरीषः) सिरसा का वृक्ष; १-१०१ । सिरोषिणा स्त्री. ( शिरोवेदना ) सिर की वेदना; १-१५६ सिल स्त्री (शिला) चट्टानविशेष १-४ । सिलिट्टे वि. (दिलष्टम् ) मनोश, सुन्दर, आलिंमित; २.१०६ । 4 > Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिलिम्हो पु. (पले मा) एलेगा, कफ,'२-५५, १०६।। सुशिलं वि. (शुक्लम्) सफेद वर्ष वाया श्वेत; २-101 सिखेसो पु. (पलेषः) वष केप आदि संधान संसमें; सुरखं बि. (शुष्कम् ) सूखा हुबा;-41 २.१०६। सुगओ वि. (सुगतः) मच्छी गति वाला; 101 सिलोमो पु. (लोका) लोक, काव्य -१०६॥ सुगन्धत्तम् न. (सौगवलय) असा यसपना, १.१. सिवम न. (शिवम) मंगल, कल्याण, सूख २-१५। । सुगं न. (शुल्कम) चूगी, मुस्म धादि सिविणो पु. (स्वप्तः) स्वप्न, सपना; १.४५ २५९ । सुज्जो पू. (सर्यः) सूरज, रवि, पाक का पैक, देस्य२-२५८ । विशेष; २.६४। सिविणए पु. (स्वप्नफे) स्वप्न में, सपने में; सुणो पु. (कुनकः) कुत्ता; १-१९॥ सुण्डो पु. (लोहा)माबराब पीने वाला; १.११. सिहर न, (शिमारः) पर्वत के ऊपर का भाग, पोटी, सुबह वि. (सूक्ष्मम) बति छोटा, १-१९८॥ भ .. । सुरक्षा स्त्री. (साला) को काल-कम्ममा गाय का सीअरो पु. (शीकर:) पवन से क्षिप्त जल, फहार, जल चमड़ा विशेष; १.७५ । सुयहा स्त्री (स्नुषा) पूत्र-बर १-२६।। सीभरो पु. (श्रीकरः) पवन से फंका हुआ जल, महार, ! सुतारं वि. (सुतारम) अत्यन्त निर्मल अत्युन्न भावान जल कग; १-८४। वाला१-२७४। सीमा न. (मामा) मशान, मसाग, मरघः; २-८६/ सुत्तो स्त्री. (शूक्तिः) सीप, धोका; २-१३८, २११ सीलेश न. (शोलेम) पारिन से, सदाचार से, २-१८४ | सुत्तो वि. (सुप्तः) खोया हुमा २-७७ ॥ सीसं न. (वीर्षम्) मस्तक, माथा; २-१२। सुदसणो वि. (सुदर्शनः) बिचका दर्शन सुन्दर हो बहा सीसो पु. (शियः) शिष्य, बेना; (-४३ । २-१०५। सीहो पु. (सिंह) सिंह, केशरी मृगराष; १-२९ । सुदरिसणो कि. (सुदर्धनः) विसका दर्शन सुन्दर हो रहा १२, २१४, २-२८५ । २-१०५ । सीईए पु. (सिंहेन) सिंह से, मगराज द्वारा; सुद्धं वि. (गुवम्) पवित्र, निर्दोष; १.२६.। सुद्धोधणी पु. (शोद्धोदभिः) इद देव, गौतम, १-१६०। सीहरो पू. (शीकर:) पवन से फेंका ट्रमा जल कण __सुन्दरि स्त्री. (सुन्दरि) उत्तम स्पी: २-१९६ । पहार; १-१८४। सुन्दरि न. (सौन्दर्यम्) सुन्दरता; ३.१६०,२-१-७ सुश्र वि. (स) सुना हुक्षा शास्त्र; २-१७४ ।। सुन्दर न. " " १-५७ १६०,२-६३ सुइल वि. (शुक्लम्) सफेद पर्ग पाला; श्वेत; सुपहायं म. (सुप्रभातम्) बन्छ। प्रातःकाल २-२०४ । सुखरितो पु. (सुपुरुषः) मया पुरुष, सनम; १-८१७७ सुपुरिसा पु. (सूपुरुषाः) अच्छे पठष, सज्जन; २०१८४ सुमो वि. (श्रुतः) सुना हमा, माणित; 1-२०९। सुप्पद अक. (स्वपिति) वह सोतो है: २०१७ सुकळ न. (सुकृतम्) पुण्य, उपकार; मच्छी तरह से सुब्बं न. (शल्बम् ) ताबा नामक धातु विशेष, रस्त्री; निर्मित: १.२०६। सुमणं न. (सुमनस्) मच्चा मन, १-३५ । सुकुमालो नि. (सुकुमारः) अति कोमल, सुन्दर, कुमार सुमिणो आर्ष, पु. (स्वप्नः) स्वप्न, सपना'; १.४१ । अवस्था वाला; १-१७१। सुम्हा पु. (सुधाः) देश-विशेष २-७४ । सुकुसुमं म. (मुकुसुभम्) मुन्दर फूल; १-१७७। सुरट्ठा पु. (सुराष्ट्राः) मच्छ देशः २.३४ । सुक बि. (शुक्ल) शुक्ल पक्ष -१०६ । सुरवहू स्त्री. (सुरवषः) देवता को छुः १.९७ । सुन. (शुल्कम्) चुगी, मूल्य आदि; २.११ | सुरहि पु. स. (सुरभि तुपन्ध, २.१५५ । सुकं वि. (शुष्कम्) सूखा हुआ; २.५ । । सुरा स्त्री, (सुरा) मदिरा, सराब दा १.१०२। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरुग्धं न. ( सुकनम् ) २- १११ । सुवइ अ. ( स्वपिति) वह सोता है। १-६४ ॥ सुवरण g. (सुपर्ण) गरुड़-पक्षी १-२६ । सुवयि वि. ( सोणिक: ) स्वर्णमय, सोने का बना हुआ १-१६० सुवे वि. ( स्वे) सम गोत्री; अपने स्व जाति के २-११४ । सुबे अ. (:) आने वाला कलः २ ११४ । सुसा स्त्री. ( स्नुषा ) पुत्र वधू; १-२६१ । सुसाएं न. ( श्मशानम् ) मसाण, मरघट २-८६ । गृहश्र वि. पु. ( सुमगः) अच्छे भाग्य वाला; १-११३, १९२ । सुह वि. (सुखद: ) सुख को देने वाला; १-१७७ । ( ५६ ) करो वि. ( सुखकर: ) सुख को करने वाला १-१७७ सुहदो वि. ( सुखदः) सुख को देने वाला; १-१७७ । सुण न. ( सुखेन) सुख से; १.२३१ । सुहमं वि. ( सुक्ष्मन्) छोटा २०१०१ । सुहयरो वि. ( सुखकरः) सुख को करने वाला; १-२७० सुमं आर्ष वि. (सूक्ष्मम् ) अभ्यन्त छोटा, यारीक; १-११८: २-११३० सुहेण न. ( सुखेन ) सुख से ; १-२३१ । सू- पसूर न. ( प्रसून) फूल, पुष्प; १-१६६ पसूरणं न ( प्रसूनम् ) फूल, पुष्प ९-१८१ सूरो पु. (सूरः ) सूर्य, रवि, २-६४ ॥ (सूर्य) सूर्य, रवि; २-६४, २०७ । सूरिश्रवु (सूर्य) सूरज, रवि; २ १०७ ॥ सूरिसो पु. ( सुपुरुषः) अच्छा पुरुष, सज्जन; १-८ सूसासो वि. ( सोच्छ्वास ) ऊबंदवास वाला १-१५७ सुहवो वि. ( सुभगः ) अच्छे भाग्य वाळा; १-११३,१६२ से ( तस्य ) उसका २-१८८ । सेब्जा स्त्री. ( शय्यर) बिछोना; १-५७ २-२४ सेन्दूरं न. ( सिन्दूरम् ) सिन्दूर, रक्त वर्ण का चूर्ण विशेष १-८५ । सेनं न. ( सैन्यम् ) सेमा, लश्कर, फौज १-१५० / सेको पु. ( श्लेष्मा) कफ, श्लेष्म २-५४ । सेभालिम स्त्री. (सेफालिका) लता-विशेष १-२३६ । सेर्य न. ( अँपस्) कल्याणकारी: १-३१ | सेर वि. (स्मेरम्) लिकने के स्वभाव वाला, विक स्वर; २-७८ । सेला पु. ( शैलाः) पर्वतों का समूह १-४८ ॥ सेवा सेध्या स्त्री. (सेवा) सेवा, आराधना, चाकरी; २-९९ सेसो मि. ( शेषः) बाकी, अवशिष्ट शेष १-२६० । सेसस्स वि. (शेषस्य ) बाकी रहे हुए का; २-१८२ । सेहालिया स्त्री. (पॅफालिका) लता-विशेष १-२३६ ॥ सो स. (सः) वह १-१७, १७७, २-९९, १८०। सोश्रमल्लं न. ( सौकुमार्यम् ) सुकमारता, अति कोमलता; १. १०७ २-६८ । सोडाण सं. कृ. ( भुत्वा ) सुन करके २-१४६ । 23 Ir २-१५ । सोचा " सोण्डीरं न. ( शौण्डीम् ) पराक्रम, शूरता, गर्व: २-६३ सोत्तं न. (खोस्) प्रवाह, करना; छिद्र २०९८१ सोमालो वि. (सुकुमार: ) अति कोमल, सुन्दर, कुमार अवस्था वाला; १-१७१, २५४ । सांरिश्रं न (म्) शूरता, पराक्रम २.१०७ सोइ अ. ( स्वपिति) वह स्रोता है; १-६४ । सोइ मक. (शमिते) वह शौमा पाता है; १-१८७ सोहिल्लो पु. वि. (शोभावान् ) शोभायुक्त २०१५९ सौश्ररिश्रं न ( सौन्दर्यम् । सुन्दरता १-१ । स्खल-धातु ) ( खिसकने अर्थ में - खलि वि. (स्खलित) जिसने त्रुटि की हो वह नीचे खिसका हुआ; १-४ खलिओ वि. (स्खलितः) जिसने त्रुटि की हो यहः २-७७ । खलि वि. (स्खलितम् ) खिसका हुआ : २८९ स्तम्भू (धातु) चकित होना, स्तम्भ समान होना । भिज्जर, भिज्जइ, भावे प्रयोग अक ( स्तम्भ्यते) उससे हक्काका हुआ जाता है; २९ भिज्जह, ठभिज्जर, भावे प्रयोग अक ( स्तम्भ्यते) उससे स्तम्भ समान हुआ जाता है; २-९ । स्त्या ا संखायं सं. वि. ( संपानम् ) सान्द्र, निविड़ प्रतिध्वनि, आलस्य; १-७४ a Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था-(धातु) ठहरने अर्थ में चिइ अक. (तिष्ठति) वह ठहरता है; १-१९ ठाइ अफ (तिष्ठति) वह टहरता है; १-१९९ ठविश्रो ठावित्री. वि. (स्थापित: जिसकी स्थापना की गई हो वही १-६७ । पट्टि परिट्रिअं वि. (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठा प्राप्त को; १-३८। परिद्वयित्रो परिठ्ठावित्रो वि. ( प्रतिस्थापितः ) जिसके स्थान पर अथथा जिसके विरुद्ध में स्थापना की गई हो वह १.१७॥ परिट्रविर्ष वि. (परिस्यापितम्) विशेष रूप में जिसकी ___ स्थापना की गई हो पह, अथवा उसको ५-१२९ संठवित्रो संठावित्री वि. (संस्थापितः) व्यवस्थित रूप में | जिली सपा की गई हो बह; १-१६७। स्मर् (धातु) विम्हरिमो सक. (विस्मरामः) हम भूलते हैं। २-१९३ । स्वप् सोवइ, सुबइ, अक, (स्वपिति) वह सोता है, सोती है१-६४ सुप्पड़, अक. (स्वपित्ति) सोती है; २.२७९ । सुत्तो वि. (सुप्तः) सोया हुआ; २-७७ । पसुत्तो, पासुत्तो वि. (प्रसुप्तः) (विशेष ढंग से ) सोया हुमा १४४। हत्थो पु. (हस्तः) हाप; २०४५, ९० । ___ हत्था पु. (हस्तो) दो हाथ; २-१६४ । हसो अ. (हा ! धिक) खेद अनुताप, पिस्कार अर्थक अव्यय: ३.१९२ । हा-(धातु) हनन अर्थ मेंइयं वि. (हतम्) मारा हुआ, नष्ट हुवा १-२०१२-०४1 निहाश्री वि. (निहतः) विशेष रुप से मारा हुआ; १-१८.1 हन्द अ. (गृहणा) 'ग्रहण करो "अर्थ में प्रयुक्त होने वाला मध्यय; २.१८।। इन्दि अ. (विवादादिषु) विषाद, वेद, विकल्प, पश्चाताप, निश्चय, सत्य, पहाण-(लेडो) मादि अर्थक अव्यय, २.१८०, १८१। हं सर्व. (बहम्) में;.-४०। हयासो वि. (हताशः) जिसकी बाशा नष्ट हो गई हो वह, निराश, १.२०१। त्यासस्स वि. (हताशस्य) हताश को, निराफा की; २-१९५। हरइ सक. (हरति) यह हरण करता है; नष्ट करता ह (हा) अ. (पाच-पूसि-अर्थ) पाद पूर्ति के अर्थ में, संबोधन अर्थ में काम आने वाला अध्यय; ५.१७ (हसः) पक्षी-विदोष हंस; २-१८२ । हहो भ. (ह. भोः, इंहो ! ) संबोधन, तिरस्कार; गर्व, प्रश्न आदि अर्थक अध्यय; २-२१७ । ह्णुमन्ता पु. (हनुमान) अञ्जना सुन्दरी का पुत्र, हनुमान १.१२१, २-१५९। इणुमा पु. (हनुमान) हनुमान, अञ्जना सुन्दरो का ! पुत्र; २.२५९ ॥ हत्थुल्ला पु. (हस्तौ )दो हाथ २-१६४ । हरन्ति सक. (हरन्ति) वे हरण करते हैं; आकर्षित करते हैं। २-२.४ । हिनं वि. (हतम) हरण किया हुआ; चुराया हुआ; १-१२८। श्रोहाइ सक. (अवहति) वह अपहरण करता है; १७२. अवहद वि. (अपहृतम्) दुराश हुआ; अपहरण किया हुया -२०६१ पारडं वि. (माहूतम्) अपहरण करके, चुरा करके साया हुआ; १-२.६। वाहितं वि. (ध्याहृतम्) कहा हुआ। १-१३८ चाहियो, वाहितो वि. (व्याहृतः) उक्त, कषित; २.९९ संहरइ सक. (संहति) वह हरण करता है, चुराता है: १.३.। हर ' (हर) महादेव, शंकर; १-१८३ । । हरस्स पु. (हर-य) हर की, महादेव की, शंकर की; १-१५८। Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरए प. (हृदे) बहे जहापाप में; २-१२०। हूणो वि. (होन:) न्यून रहित, हल्की श्रेणी का; १.१०३ हरक्खन्दा, हरखन्या प. (हरस्कनी) महादेव और पहीए वि. (पहीण) नष्ट हमा; १.१.३। कातिमेष, २-९७ । विहीणो, विहूणो, वि. (विहीमः) रहित; १-१०३ । हरडई स्त्री. (हीसकी) हरण नामक औषधि विशेष; | हालिश्रो पु. (हालिकः) हल जोतने बाळा: १-६७ । हाहा . (हाहा) विलाप हाहाकार, शोकस्यनि अर्षक हरं न. (गृहम् ) घर, मकान; १-१३४, १३५ । अव्यय: २-२१७। हरिअन्दो पु. (हरिश्चन्द्रः) हरिएपन्द्र मामक राजा;२-८७ | __ हिश्रषं म. (हृदयम) अन्तः करण, हृदय, मन, १-१२८ इरिबालो पु. (हरितालः) हरताल, वस्तु विशेष; २-१२१ हिश्रयं न. (हृदयम् ) अन्तःकरण, हृदय, मन; . हरिसो पु. (हर्षः) सुख, आनन्द, प्रमोब, खुशी २-१०५ १.२६१ २.२०४। हरे अ. (अरे ! ) सिरस्कार, निन्दा, संभाषण, रति हिअयन, (हृदय) हृदय, २-२०१। कलह अर्थक अव्यय; २-२०२। हिआयए न. (हृदयके) हृदय में २-१६४ । हरो पु. (हरः) महादेव, संकर, शिव; १-५१ । हिए न. (हृदय) हृदम में, अन्तःकरण में, हलहा हलही स्त्री. (हरिया) हल्दी, औषधि-विशेष; १-८८ मन में; :-१९९। हला अ. (हला)सी को थामन्त्रण करने के अर्थ में (खर) हिमश्रो वि. (सर-हृदयः) कठोर हृदय प्रयुक्त होने वाला अव्यय; ३-१५५। याला, निर्दय; २-१८६। हलियारो पु. (हरिताम:); वस्तु विशेष; २-१२१ । हिस्स वि. (हृदयस्स) हृदय पाले का; १.२६९ हलिनो पु. (हालिकः) हक जीतने वाला; १-६७ । हि वि. (हृतम्) हरण किया हुमा, चुराया हमा; हलिदो पु. (हारिद्रः) वृक्ष-वियोष; १-२५४। १-१९८१ हलिहा स्त्री. (हरिद्रा) औषधि-विशेष, हल्यो; १८८ | हिअयं न. (हृदयम्) हृदय; १.१२८, २-२०४। हलिही स्त्री. (हरिद्रा) औषधि-विशेष, हस्दी;१-८८,२५४ हित्थं वि. ( स्तम् ) प्रस्त, मय-मील हरा हमा; हलुखं वि. (लघुकम्) छोटा, हल्का; २-११२।। हले अ. (सखी-सामन्त्रणे) हे सखि | सखी के हिर अ. (किल ) संभावना निदषय, पाद-पूत्ति अर्थक सम्बोधनार्थक अव्यय; २-१९५ । अव्यय; २-१८३। हत्तफल देशज (?) २-१७४। हिरियो वि. (हीतः) लज्जित; २-१.४ । हस् (धातु) हँसना। हिरो स्वो. (होः) कज्जा; शरम; २-१०४॥ ___ हसइ अक. (हसति) वह हंसता है; २-१९८।। ही अ. (बाश्चर्याची निपात:) आश्चर्य आदि अर्थक ऊहसि, श्रोहसिध, पवहसि वि. म. (उपहसितम) ! __ अव्यय; २-२१७॥ हंसी किया हुआ, हँसाया हीरो पु. हरः) महादेव, शंकर; १५१ । हुआ। १-१७३। हु अ. (खल ) निश्चय, तर्क, वितक, संशय, हसिरी वि. (हसनशील:) हास्य कती, हंसने की आदत संभावना, विस्मय आदि अर्थक अध्यय: २-१२८ वाला; २-१४५ । हुन्ज विधि. अक. (भय, भवतात् । तू हो । २-१८० । हा अ. (हा) विवाद-वेद अर्षक अध्यय: १.६७ः हु वि. (इसम) होमा हुबा, हवन किया हुआ; २.९९ २-१७८,१९२,२१७ । हुसं. प्रत्यय. (कृत्वस् अर्थक) (अमुक) गर, दफा हा (धातु) हीनता अर्षक अर्थक प्रत्यय; -१५८। हीणी वि. (हीन:) प्यून रहित, हल्की श्रेणी हु अ (दान-पुस्या निवारणे निपातः) दान, पूछना, निवारण करना अर्थक अध्ययः-१९७१ हीणं वि. ( हीनम् ) न्यून, रहित, हल्की श्रेणी का हु वि. (हृतम्) होमा हुआ, हवन किया हुआ; २-१९ हूणो वि. (सोना) न्यून, अपूर्ण; १-१०३ । Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे अ. ( निपात विशेषः) संबोधन आह्वान, ईर्ष्या आदि अर्थक अव्ययः २-२१७ । हे अ. (अस) नीचे; २-१४१ । टिल्लं वि. (अधस्तलम् ) नीचे का; २-१६३ । पृष्ठ संख्या २ १० ११ ६९ ६५ ७१ ७८ 44 ( ५९ } शुद्धि पत्र [ ज्ञातव्यः -- ( १ ) प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रुफ संशोधन में काफी ध्यान रखने पर भी दृष्टि-दो-यशात् एवं भ्रम-मशात् यदि कोई अशुद्धि प्रतीत हो तो कृपालु पाठकगण उसे सुधार कर पढने की कृपा करें। शब्दों को सिद्धि और साधनिका में प्रत्येक स्थान पर अनेकानेक सूत्रों का संख्या-कम प्रदान करने की आवश्यकता पड़ी है अतः हजारों शब्दों की सिद्धि में हजारों बार सूत्र- कम संख्या का निर्देशन करना पड़ा है। ऐसी स्थिति में सूत्र- कम संख्या में कहीं कहीं पर जिपरीता तथा असंबद्धता प्रतीत होतो विश पाठक उसे सुधार कर पढ़ने का परम अनुग्रह करें। (२) अनेक स्थानों पर छापते समय में दबाव के कारण से मात्राएँ टूट पई है। बेठ गई है अतः उन्हें यथाहोति से समझ पूर्वक पढ़ने की कृपा करें। (३) विभिन्न वाक्यों में" के स्थान पर "हूँ" ही छप गया है; इसलिये इसका भी ध्यान रखें। (४) "रेफ्" रूप "" भी कहीं कहीं पर टूट गया है, बैठ गया है; अतः इसका संबंध भी यथोचित रोति से संयोजित कर ले। यही बात "अनुस्वार" के लिये भी जानना । (५) अनेक शब्दों में टाइप को घिसावट के कारण से भी अक्षर अपने आप में पूरी तरह से व्यक्त नहीं हो सके है; ऐसी स्थिति में विचार-शील पाठक उनके संबंध का अनुशीलन करके उनको पूर्ण रूप में संशोधित करने की महती कृपा करें। कहीं कहीं पर "ब" के स्थान पर "व" और "व" के स्थान पर "ब" छप गया है। (६) दृष्टि में आई हुई कुछ अशुद्धियों का स्थूल संशोधन यहाँ पर प्रदान किया जा रहा है। तदनुसार सुधार कर अध्ययन करने की कृपा करें; यही मुख्यतः विनंति है । (७) अनेक स्थानों पर " हलन्त अक्षरों के स्थान पर पूर्ण रूप से अकारान्त अक्षर मुद्रित हो गये हैं; अतः संबंधानुसार उन्हें "कन्स बर" हो समझे । ( 4 ) मी शुद्धि-पत्र में "पंक्ति संस्था" से तात्पर्य पाठ्य-वतियों से गणना करके तथनुसार "उचित" संख्या का निर्धारण करें। बॉर्डर से ऊपर की बाह्य पंक्ति को संख्या रूप से नहीं गिनं । इति निवेदक-संपादक। ] पंक्ति संख्या ७१४२०१३ २५ १४ १३ ८, १०, ४ १५ हो अ. (हो) विस्मय, आश्चर्य, संबोधन, आमन्त्रण अर्थक अव्यय २-२१७ । होइ अ. (भवति) वह होता है; १ ९ २ २०६ । होही अ. ( भविष्यति ) होगी; २-१८० । अशुद्धांश समानान्तर इन्द-रुहिर लितो रिवरः ૩૪ तः विश्वम्मः ईवष् २-१२ शुद्धश समानानन्तर द- इन्द- रुहिर- लितो नव वारिवर: ३५ मः विषम्भः ईषत् २- ११२ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठसंख्या पंक्ति-संख्या शुखांश श्रद्धांश द्विब्य मम्पि आवसणे द्वित्व बम्पिमावसादे ११२ १८८ १९२ (छूट गया) किलित्त भवित हसिध सस्वस संयुक्तम्पा पण्णो व्यस्या बमा भावति प्रहीन सरिबष्णो किलिन भवति अंहासिब सस्वर संयुक्तस्पा वण्णो व्यत्ययहक पंबिमा भवति १९३ २२३ २२३ पशी रूपान्त २३९ २१९ रूपान्तर प्राकृत प्रमाणित पति प्रगणित २५३ २५५ २५८ २६६ मारमान् नाममा स्वर-साहित फलिहा अवयवा यष्ठिः भारवालम् बायो स्वर-रहित ककिहो अवरको पष्टिः देणु २६९ २७३ मरः २९१ प्राकृत नामवाली टीकावाली २९१ मामावली टोकावती रूप शृांगारिक-दंग राज्य-भ्रष्टता पोक्चरिणा दूसरों को २९२ श्रृंगार-युक्त-डंग राज्य-भ्रष्ट हो जाने पोषखरिणी दूसरों को नहीं २९५ ३०२ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ-संख्या पंक्ति-संख्या অহঙ্কায় मषित भरिमा संयुक्तस्व शुद्धाय भवति पारिवा संयुक्तस्म ३२८ २-४३ सम्पर्क सप्प ३५० ३५२ कार्षापर्व रूपिणे था" fca" सजो २६९ Bultorkinekilnihe सम्जो पूर्वस्व सुख हदे संस्कृत ३८७ ३९३ स्थित मण्डको निश्चत व्यवषित संयुक्तस्यात् स्थित स्थिति मगको निश्चित व्यवस्थित संयुक्तस्य या स्पिति ४०५ ४१२ ४२० ४२१ ४२३ ४२७ ४३१ - १-१२१ २-१२५ चिचा पारको पाइको वैसे, हे? साउमाण सोग्बाण संबंध भूत पन्त ४५७ पृष्टांक के क्रम में मूल है, विश्व नहीं झूटा है। पुष्ट कमांक मूल बंत तक है। इस्पेता हितो इत्येतो दिती प्राति प्राप्ति घोष-अल्प-ग्राष घोष-बल्प-प्राप - - ४६७ ४७२ ४८३ l. Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ-संख्या पंक्ति-संख्या अशुद्धाश बगे कृतः शुक्षांश बणे पवि प्राकृत 484 484 स्वम् दायम भूमो मि 484 486 पायन भूयोऽपि फिर मायिका मह चेत्र चित्र 485 नापिका चिक्ष 491 सच्च सच 5.. 512 अपूर्व अपूर्व क्रिया विषयक AntiEarnaana किपा विषय प्रपत बाकर्षित इनकी इसकी मा