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________________ ४८४] * प्राकृत व्याकरण* बनालि. संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रुप वणोलो होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति: १-८३ से 'पंक्ति वाचक' अर्थ में रहे हए 'प्रालि' शब्द के 'जा' को 'ओ' की प्राप्ति .10 से प्राप्त 'ण' में स्थित 'अ' का, भाग 'बोली' का 'ओ' होने से लोप १५ से हलन्त 'ण' के साप 'लो' के 'ओ' की संघि, और ३-१९ प्रथमा विभक्ति के एक वचन में हस्व इकारान्त स्त्री लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्रप बष्य स्वर '' को दीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति होकर यगोली रूप सिद्ध हो जाता है । ||२-१७॥ एणवि वैपरीत्ये ॥२-१७८॥ णवीति परीत्ये प्रयोक्तव्यम् । रणयि हा रणे ।। अर्थ:-प्राकृत शब्द 'णवि' अध्यय है और इसका प्रयोग विपरीतता' अर्थ को प्रकट करने में किया जाता है। जैसे:-उपहेह सीमला गवि काल वण-उष्णा अत्र (तथापि)-(वि)-शीतला कदली-वने अर्थात उष्णता को अद्ध होने पर भी (वस्ती) करली मन में है। सी ा से Fra का इस प्रकार है:मावि हा वर्ग = गवि हा । वने अर्थात् खेद है कि (जहाँ पहुंचना चाहिये था वहाँ नहीं पहुंच कर) उल्टे अन में (पहुंच गये हैं) । यो विपरोसता' अर्थ में 'वि' का प्रयोग समतना चाहिये। 'वि' प्राकृता-साहित्य का (विपर सता रूप) अर्थ वाचक अपय है । तदनुसार 'सायनिका' को . आवश्यकता नहीं है। 'हा' प्राकृत-साहित्य का 'सेब' खोतक अव्यय रूप है। धने संस्कृत सप्तम्यन्त रूप है । इसका प्राकृत १ वणे होता है । इसमें सूत्र संस्था १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३.११ से सप्तमी विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में संस्कृत-प्रत्यष हि' के स्थान पर प्राकृत में प्रस्थय की प्राप्ति '' में ''इरसंज्ञक होने से प्राप्त 'ज' में स्थित अन्त्य 'अ' को इतसंझा और १-५ से प्राप्त हलन्त 'ए' में प्राप्त 'ए' प्रत्यय की संधि होकर वणे रूप सिद्ध हो जाता है । ॥२-१७८) पुणरत्त कृत करणे ॥२-१७६॥ पुरुस मिति कृत करणे प्रयोक्तव्यम् ।। भई सुप्पा पंसुलि पीसहेहिं अङ्ग हिं पुणरुत्तं ॥ अर्थ:-"किमे हए को ही करना' अर्थात बार बार अधया पारंबार अर्थ में 'पुणवत्तं' अध्यय का प्राकृत साहित्य में प्रयोग किपा जाता है । जैसे:-अह ! सुप्पा पंसुलि णोसहेहि अंहि पुणरसं अपिपाशुले ! (स्वम्) स्वपिति निःसह: अंग: वारंवार अर्थात् हे फुल्टे ! (तू) बार मार सहन कर सके ऐसे अंगों से (ही) सोती है। यहाँ पर 'सोमे-शयम करने की क्रिया बार बार की आ रही है इस अर्थ को बतलाने के लिये 'पुगस्त' अश्यप का प्रयोग किया गया है । दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:-पेपछ पुणवतं = (एक बारं दृष्ट्वा भूमोपि) वारंवार पश्य अर्थात् (एक बार वेल कर पुनः) बार बार देखो।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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