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. प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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होता है । इसमें सूत्र संस्था १-१७७ से ''
आर्य संस्कृत मामंत्रणाक अव्यय है। इसका प्राकृत रूप का लोप होकर अप सिडहो जाता है।
स्वपिति सस्कृत अकर्मक क्रिया एव का रूप है । इसका प्राकृत रूप सुप्पा होता है । इसमें पूर्व संस्था २-६४ से २ में स्थित अ' के स्थान पर ' को प्राप्ति; २०७९ से '' का लोप; २.२८ से ' के स्थान पर हित्व 'प्प् की प्राप्ति; ४.२३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'इ' के स्थान पर प्राकृत में 'अ'विकरण प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२३९ से बतमान काल के एक बचन में प्रथम पुरुष में संस्कृत प्रत्यय ति' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय को प्रारित होकर सुप्पड़ रूप सिद्ध हो जाता है।
यांशुले संस्कृत संबोधनात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पंसुलि होता है। इसमें सूत्र संख्या १.८४ से वीर्घ स्वर 'मा' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' की प्राप्तिः १-२६. से 'श' के स्थान पर 'म्' की प्राप्ति; ३.१६ से को लिग वाचक स्नों में रक्त प्रस्थय 'या' वाद पर पाहत में प्रत्यप की प्राप्ति होन से 'ला' वर्ण के धान एर 'लो' की प्राप्ति; मोर ३.४२ से आमन्त्रम अर्थ -संबोधन में वीर्ष स्वर के स्थान पर हस्व घर 'इ' को प्राप्ति होकर मुलि प सिद्ध हो जाता है।
नि:सह निस्सह संस्कृत तृतीयात तिशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप कोसहेहि होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२९ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; १.१३ से विसर्ग रूप व्यञ्जन का लोप; १-१३ से बिसगं रूम ध्यत्रन का लोप होने से प्राप्त 'मि' में स्थित अन्य स्वस्वर'' के स्थान पर वीर्ष पर की प्राप्तिा ३-७ से तुर्त या विभक्ति के बहु बचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिः' के स्थान पर प्राकृत में 'हि' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय हि पूर्व में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर णीसहहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
अंगैः संस्कृत तृतीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप धहि होता है । इसमें सत्र संख्या 1-10 से अनुसार के स्थान पर आपे क पीय 'ग' वर्ण होने से क वर्गीय पंचयामर रूप 'इ' को प्राप्ति; ३-३ से तृतीय विमस्तियह वचन में संस्कृत प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में "ह' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-१५ से प्राप्त प्रत्यय 'हि' के पूर्व में स्थित अस्प 'ब' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति होकर अंकहिं रूप सिद्ध हो जाना है।
'पुणतत' प्राकृत अन्यय रूप है । सद्ध-म होने से इसकी सानिका को आवश्यकता नहीं है ॥२-१७९॥
हन्दि विषाद-विकल्प पश्चात्ताप-निश्चय-सत्ये ॥२-१८०॥ हन्दि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम् ।।
हन्दि चलणे णश्री मो श माणिनी हन्दि हुज्ज एचाहे। इन्दि न होही भगिरी सा सिज्जई हन्दि तुः कज्जे ॥ इन्दि । सत्यमित्यर्थः ।।
अर्थ:--'हन्छि' प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किया जाने वाला अम्पय हैं । जब शिवार' अर्थात् 'पाख करना हो। अयमा कोई कापमा करनीही अमवा पश्चाताप बस करना हो। मबना किसी प्रकार का विषय