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________________ २४ ] * प्राकृत व्याकरण * तमस् ( = तमः ) संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूम नमो होता है इसमें सूत्र संख्या १-११ से अन्य हलन्त व्यंजन 'स्' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'तम' को पुल्लिास्व की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त (मान) पलिग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओं' प्रस्तष की प्राप्ति ह कर तमी रूप सिद्ध हो जाता है। जन्मन् = (जन्म) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत कम जम्मो होता है। इ: सूत्र-संकरा २-७८ से प्रथम हलन्त 'न्' का लोप; २-८९ से लोग हुए न्' के पश्चात् शेष रहे हए. 'म' को द्वित्व '' की प्राप्ति; १-११ से मरय हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जन्म' को पुल्लिनत्व की प्राप्ति और ३-२ सं प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त (में प्राप्त पुल्लिग में 'सि प्रत्या के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जम्मो रूप सिद्ध हो जाता है । सदभिक्षुः संस्कृत रूप है। इसका पाकृत रूम सभिशय होता है। इसमें सूर-संख्या १-११ से 'ब' का लोप: २-३ से '' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति; २-८९ से प्राप्त 'ख्' को द्वित्व 'ख' को प्राप्ति; २-९० से प्राप्त पूर्व 'त्र' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति और ३-१९ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में उफारान्त पुलि प्रस्मय के स्थान पर मात्य हस्व स्वर 'उ' को दोत्रं स्वर 'क' की प्राप्ति होकर सभिक रूप सिद्ध हो जाता है। सज्जनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सन्जयो होना है। इस में सूत्र संख्या १-११ को वृत्ति से प्रथम हलन्त 'ज्' को अनन्त्यत्व को संज्ञा प्राप्त होने से इस प्रथम हलन्त 'ज' को लोपाभाष को प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिा में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सज्जणोध्या सिद्ध हो जाता है ! एतद्गुणाः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप एअ-- गुणा होता है। इसमें सूत्र-संख्या-१-१७७ थे 'त्' का लोप; १-११ से हलन्त 'ब' को अन्त्य-व्यञ्जन को मांज्ञा प्राप्त होने से 'द' का लोय; ३-४ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'एअ-गुण' में प्रथमा-विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीव-पत्यय 'जन् की प्राप्ति होकर लोप और ३-१२ में प्राप्त तथा लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण ते अन्त्य हव स्वर 'अ' को दीर्घ स्वर 'आ' को प्राप्ति होकर एअ-गुणा रूप सिद्ध हो जाता है। सदगुणा: संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत-रूप तागुणा होता है । इसमें सूत्र संख्या १-११ : नहीं किन्तु २-७७ से 'द्' का लोप; २-८९ से लोप हुए 'द' के पश्चात् शेष रहे छुए 'ग' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति शेष सानिका उपरोक्त 'एअ-गुणा' समान ही ३-४ तया ३-१२ से होकर नग्गुणाः रूप सिद्ध हो जाता है ॥१-११॥ न श्रदुदोः ॥ १-१२॥ श्रद् उद्' इत्येतयोरन्त्य व्यञ्जनस्य लुग् न भवति ।। सदहिअं । सद्धा । उग्गयं । उन्नयं ॥
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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