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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२५ अर्थ:-'भद' और 'जबू' में रहे हए अन्त्य हलन्त पञ्जन 'इ' का लोप नहीं होता है। से:-म + बषितम् = सदहिम, श्रद + था-पट्टा = सद्दा; उ + गतम् = उग्गय और उद् + नतम = उन्नयं । प्रथम से उदाहरणों में श्रद' में स्थित 'द' ययावत् अवस्थित है। और अन्त के को उबाहरणों में 'उद्' में स्थित '' मारान्तर होता हुआ अपनी स्थिति को प्रदर्शित कर रहा है; यो लोपाभाव की स्थिति 'गई और उद् में व्यक्त की गई हैं। श्रदाधितम् संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप सहिझं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-७९ से 'या' '' में स्थित 'र' का लोप; १-२६० से श् के स्थान पर 'स' को प्राप्ति, १-१२ से प्रथम '' का लोपाभाष; १-१८७ से '' के स्थान पर है, की प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोप; ३-२५ से प्रपा विभक्ति के एक अचम में अकारान्त नपुसक लिंग में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर सहहि रूप सिम हो जाता है। श्रद्धा संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सद्धा होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७९ से 'ब' में स्थित 'र'का लोर; १.२६० से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे ४१ 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति और १-१२ से '' का लोपाभाव होकर सा रूप सिद्ध हो जाता है। उद् + गतम् सर्षस्कृत विशेण रूप है । इसका प्राकृत रूप जग्गय होता है इसमें सूत्र-संख्या २-७७ से '' का ( प्रच्छन्न रूप से ) लोप; २.८९ से (प्रच्छन्न रूप से) लुप्त 'ब' के पश्चात आगे रहे हुए 'ग' को हिरन 'ग' को प्राप्ति; १-१७७ से'' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'प' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसक लिग में म प्रत्यय को प्राप्ति मौर १-२३ से प्राप्त 'म'का अनुस्वार होकर उग्गयं रूप सिद्ध हो जाता है 1 उद् + नतम् सस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप उन्नवं होता है। इसमें सूत्र-संस्पा २-७७ से '' का (प्रसन्न रूप से ) लोप; २-८१ स (प्रग्छन कप से लुप्त 'द' के स्थान पर आगे रहे हए 'न' को द्वित्व '' को प्राप्ति; १-१७७ से 'त' का लोष; १-१८० से लोप लए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति, ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर उन्नयं रूप सिद्ध हो जाता है। १-१२।। निदुरोवा ॥ १-१३॥ निर् दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति ।। निस्सहं नीसह । दुस्सहो दूसहो । दुक्खिों दुहिओ ॥ अर्थ:-'निर और 'दुर इन दोनों उपसगों में स्थित अन्त्य हलन्त-व्यञ्जन 'र' का बकल्पिक रूप से लोप होता है। जैसे:-निए+ सहं ( निःसहं ) के प्राकृत रूपान्तर मिस्सह और नीसहं होते है । दुर् + सहः ( दुस्सहः ) के प्राकृत रूपान्तर पुस्सहो और दूसही होते हैं। इन उदाहरणों से शात होता ह कि "निस्तह' और 'दुस्तहो' में 'र'
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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