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________________ २६ ] * प्राकृत व्याकरण * का (प्रज्छन्न रूप से ) सद्भाव है; जबकि 'नीसह' और 'ट्रमहो' में 'र' का लोप हो गया है । दुःखितः = वुक्निो और वृहिओ । इन उदाहरणों में से प्रथम में विसर्ग' के पूर्व कप 'र' का प्रच्छन्न रूप से 'क' रूप में सद्भाव है और द्वितीय उदाहरण में उक्त '' का लोप हो गया है। यों व कशिक रूप मे 'बुर्' और 'निर्' में स्थित 'र' का लोप हुआ करता है। निःसहं ( = निर् + सह ) संस्कृत विशेषण रूप है । इसके प्राकृत रूप निस्सहं और नीसह होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सुब-संख्या १-१३ से 'र' के स्थान पर लोगभाव होने से 'विसर्ग' की प्राप्ति; ४-४४८ से प्राप्त 'विसर्ग' के स्थान पर मागे 'स' होने से 'स्' को प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्स नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रस्मय को प्राप्ति और १-२३ से पास 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप निस्सह सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(निर् + सह = ) नीसह में सूत्र-संख्या १-१३ मे 'र' का लोप; १-९३ से 'नि' में स्थित हस्व स्वर 'इ' के स्थान पर वीर्घ स्वर 'ई' की प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम के समान ही होकर द्वितीय रूप नीसह भी सिद्ध हो जाता है। सहः सहः ) संस्कृति बिक है। इसके प्राकृत रूप दुस्सहों और दूसही होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या १-१३ से 'र' का लोपाभाव; ४-४४८ से अलएन 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग' के स्थान पर आगे 'स' वर्ण होने से 'स' को प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृत-प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दुस्सही सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-(दुर् + सहः-) दूस सो में सूब-संख्या १-१३ से '' का लोप १-११५ से हुस्व स्वर 'उ' के स्थान पर बोध स्वर 'ॐ को प्राप्ति और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान ही होकर द्वितीय-रूप दूसही भी सिद्ध हो जाता है। दुःखितः ( - दुर् + खितः ) संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत म बुक्तिओ और दुहिओ होते हैं। इनमें से. प्रथम रूप में सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग का सोपा भाव; ४-४४८ से प्राप्त 'विप्तर्ग' के स्थान पर जिह, वामूलीय रूप हलन्स 'क' की प्राप्ति; १-१७७ से 'त् का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में "सि' प्रत्यय के स्थान पर प्राकृत में 'ओ प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप दिखओं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप-( दुःखितः = ) दुहिओ में सूत्र-संख्या १-१३ से 'र' के स्थानीय रूप विसर्ग' का लोप, १-१८७ से 'ख' के स्थान पर हैं' की प्राप्ति २-१७३ से 'त्' का लोप और-२ सेप्रममा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुहिलग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बितीय रूम बुद्धिी सि हो जाता है। १-१३॥
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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