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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२७ स्वरेन्तरश्च ॥ १-१४ ॥ आन्तरी निर्दथान्त्य व्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग् न भवति ॥ अन्तरप्पा। निरन्तरं । निरवसेसं ॥ दुरुत्तरं । दुरवगाहं ॥ क्वचिद् भवत्यधि । अन्तोवरि || अर्थ-'अन्तर', 'निर्' और 'दुर्' उपसर्गों में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन र' का उस अवस्था में लोप नहीं होता है जब कि इस अस्य 'x' के आगे 'स्वर' रहा हुआ हो। जैसे-अन्तर् + आत्मा = अन्तरपा । निर् + अन्तरं निरन्तरं । निर् + अवशेषम् = निरवसेसं । 'दुर्' के उदाहरणः-दुर् + उत्तरं = बुरुत्तरं और दुर् + अवगाह - दुरवगाह कभी कभी उक्त उपसर्गों में स्थित अन्त्य हात व्यञ्जन 'र' के आगे स्वर रहने पर भी लोप हो जाया करता है। जैसे-अन्तर + उपरि = अन्तरोपरि - अन्सोपरि । अन्तर् + आत्मा अन्तरारमा संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्तरप्पा होता है। इसमें सूत्र-संपा-१-१४ से हलन्त व्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-८४ से 'आ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-५ से हलन्त 'र' के साथ प्राप्त 'अ' को संधि, २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म के स्थान पर 'च' को प्राप्ति, २-८९ से प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' को प्रशस्ति; १-११ से मूल संस्कृत शाम-आरमन के समय न्' का लोप, ३-४९ तथा ३-५६ की वृत्ति से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन' में 'न्' के लोप हो जाने के पश्चात् शेष अकारात रूप में प्रथया विभा ने एक घबन में 'सि' प्रस्प के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति होकर अन्तरप्पा कर सिद्ध हो जाता है। निरन्तरम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निरन्तर होता है। इसमें पत्र-संख्या १-१४ से 'निरमें स्थित अन्त्य 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'अ की संगि; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकाराम्त भसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति ओर १-२३से प्राप्त 'म का अनुस्वार होकर निन्तरं रूप सिद्ध हो जाता है। - मिर् । अवशेषम् = निरवशेषम् संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप निरवसेसं हता है । इसमें सुत्र संख्या १-१४ पे हलन्त म्यञ्जन 'र' का लोपाभाव; १-५ से हलन्त 'र' के साथ आगे रहे हुए 'न' को संषि १-२६० से 'श' और 'ष' के रथान पर 'स' और 'स' की प्राप्ति; ३-२५ से अथवा विभक्ति के एक वचन में अकारास्त गपुंसक लिय में 'सि' प्ररस्थ के स्थान पर 'म' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर मिरवसेसं रूप सिद्ध हो बाता है। दुर् + उत्तर - दुरुत्तरम् संस्कृत रूप है । इसका प्राहत रूप दुरुसर होता है । इसम सूत्र संख्या १-१४ से 'रका लोपा भाव; १-५ से हलन्त 'द' के साथ 'उ' की संधि और शेष सानिका ३-२५ और १-२३ से 'निरवसेस के समान ही होकर दुरुत्तरं रूप सिद्ध हो जाता है। तुर् + अवगाहम् = दुरुचगाहम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप भी दुरवगाहं होता है ।समें त्रसंख्या १-१४सका लोपा भाव; १-५ से हलन्स 'ए' के साथ 'भ' की संधि और शेष साधमिका ३-२९ तफा १-२३ से मिरवसस के समान ही होकर दुरदगाहं रूम सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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