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________________ २८ ] * प्राकृत व्याकरण * अन्तरीपरि संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्सोवरि होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१४ की वृत्ति से प्रथम 'र्' का लोप १-१० से 'त' में स्थित 'अ' के आगे 'ओ' आ जाने से लोन १-५ आगे रहे हुए 'ओ' की संधि; और १-२३१ से '' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति होकर अन्नोपरि रूप सिद्ध हो जाता है ॥ १-१४ ॥ 'हलम्त 'त्' के साथ स्त्रियामादविद्यतः ॥ १-१५ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य धात्वं भवति विद्यच्छन्दं वर्जयित्वा I लुगपवादः ॥ सरित् । सरिया || प्रतिपद् । पाडिया || संपद् । संपा || बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतर यश्रुतिरपि । सरिया । पाडिवया । संपया || अविद्युत इति किम् ॥ विज्जू ॥ I ⭑ अर्थ:-विद्युत शब्द को छोड़ करके शेष 'अन्त्य हलन्तयञ्जन बाले संस्कृत स्त्री लिंग (वाचक) शब्दों के अम्म हलन्त व्यञ्जन के स्थान पर प्राकृत रूपान्तर 'आरव आ' की प्राप्ति होती है । यों व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंग वाले संस्कृत शब्द प्राकृत में आकारान्त हो जाते हैं। यह सूत्र पूर्वोक्त (१-११ वाले) सूत्र का अपवाद रूप सूत्र है । उदाहरण इस प्रकार है: -सरित् = सरिआ; प्रतिपद् = पाश्विआ; संपद् = संपजा हरयादि । 'बहु' सूत्र के अधिकार से हलस्त वयञ्जन के स्थान पर प्राप्त होने वाले 'आ' स्वर के स्थान पर 'सामान्य स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ने वाले' ऐसे 'या' की प्राप्ति भी होती हुई पाई जाती है । जैसे:- सरित् सरिया अथवा सरिया प्रतिप-पाडिया अथवा डिमा और संपत् = संपला अथवा संपया इस्यामि । = प्रश्नः - 'विद्युत् ' शब्द का परिस्याग क्यों किया गया है ? उत्तरः- चूंकि प्राकृत-साहित्य में 'विद्युत्' का रूपान्तर 'विज्म' पाया जाता है; अतः परम्परा का उल्लंघन कैसे किया जा सकता हूँ ? साहित्य की मर्यादा का पालन करना सभी वैयाकरणों के लिये अनिवार्य है; वर 'विद्युत् = विज्जू' को इस सूत्र -विधान से पृथक, ही रक्खा गया है इसकी साधनिका अन्य सूत्रों से की जायगी । सरित् संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप सरिया और सरिया होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-१५ से प्रथम रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'आ' को प्राप्ति और द्वितीय रूप में हलन्त व्यञ्जन 'त्' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति होकर क्रम से सरिआ और सरिया रूप सिद्ध हो जाते हैं। प्रतिपद संस्कृत स्त्रीलिंग रूप है। इसके प्राकृत रूप पाडिया और पाडिवया होते २-७९ से '' का लोपः १-४४ से प्रथम 'ए' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'आ' को प्राप्तिः स्थान पर '' आवेश १-२३१ से द्वितीय पं' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति और १-१५ से 'तू' के स्थान पर कम से' दोनों रूपों में 'आ' और 'या' की प्राप्ति पाडिया सिद्ध हो जाते हैं । हैं। इनमें सूत्र- संख्या १ - २०६ से 'त' के हलन्त अन्स्य व्यञ्जन होकर क्रम से दोनों कप- पाडियआ तथा
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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