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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [२३ अन्त्यव्यञ्जनस्य ॥ १-११ ॥ शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्व लुग भवति ॥ जाव । ताव । जसो । तमो । जम्मो ॥ समासे तु वाक्य विभक्त्यपक्षायाम् अन्त्यत्व अनन्स्यत्वं च । तनोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः । सभिक्खू । सज्जनः । सज्जणी ॥ एतद् गुणाः । एम-गुणा ॥ तद्गुणाः । तग्गुणा ।। अर्थ:-संस्कृत-दावों में स्थित अन्त्य हलन्त यजन का प्राकृत-रूपान्तर में लोच हो जाता है। जैसेयावत् = जाव; तावत् = साव; यशस् = यशः = जसो तमस्-तमः = तमो; और जन्मन् = जन्म = गम्भो; इत्यादि । समास-गत शब्दों में मध्यस्थ शब्दों के विभक्ति-योधक प्रत्ययों का लोपही आता है एवं मध्यस्थ स गौण हो जाते है तथा अन्य शम्ब मुख्य हो जाता है। तब मुख्य शम्न में ही विभक्ति-बोषक प्रत्यय संयोजित किये जाते हैं। तदनुसार मध्यस्थ शब्दों में स्थित अन्तिम हलन्त ध्यजन को कभी कभी तो 'अन्त्य व्यञ्जन' की संज्ञा प्राप्त होती है और कभी कभी 'अन्स्य व्यान' को ससा नहीं भी प्राप्त होती है। एसी व्यवस्था के कारण से समास एत मध्यस्थ साम्दों के अन्तिम हलन्त ध्यञ्जन 'अन्य' और 'अनन्त्य दोनों प्रकार से कहे जा सकते हैं। सबनुसार सूत्रसंख्या १.११ के अनुसार जब समास-गत मध्यस्थ शब्दों में थित अन्तिम हलन्त व्यञ्जन को 'अन्त्य-यजन' को संशा प्राप्त हो तो उस 'अन्त्य-व्यञ्जन' का लोप हो जाता है और यदि उस व्यञ्जन को 'अन्त्य व्यञ्जन' नहीं मानकर 'अनन्तम व्यजन' माना जायगा तो उस हलन्त व्यञ्जन का लोप नहीं होगा । जैसे-सद-भिक्षः समिक्स इस उदाहरण में 'सत्' शब्द में स्थित 'द' को 'अन्त्य हलन्त-यजन' मानकर के इसका लोप कर दिया गया है। सत् + जनः = सज्जन: = सजणो; इसमें 'सत्' के 'त्' को 'अनन्त्य' मान करके 'ज' को द्वित्व 'ज्ज' के रूप में परिणत किया है। अन्य उदाहरण इस प्रकार है-एतद्गुणा:-ए-गुणा और तद-गुणाः - तरंगणा; इन उदाहरणो में कम रो अन्त्यत्व और अनन्स्यत्व माना गया है। तदनुसार क्रम से लोप-विधान और द्वित्व-विधान किया गया है । यो समास-गत मध्यस्थ शब्दों के अन्तिम हलन्त जन की 'अरश्य-स्थिति' तथा 'अनन्य-स्थिति समझ लेनी चाहिये। यापन संस्कृत अध्यष है । इसका प्राकृत रूप जाध होता है इसमें सूत्र-संख्या १-२४५ से 'य' के स्थान पर 'म्' को प्राप्ति और १-११ से अन्त्य हसन्त यजन 'त' का लोप होकर जा रूम सिद्ध हो जाता है। ताधार संस्कृत अव्यय है । इसका प्राकृत रूप ताव होता है । इसमें सूत्र-संख्या १-११ से अन्य हलन्त ___ पञ्जन 'त्' का लोप होकर 'त.वं रूप सिद्ध हो जाता है। यशस् । = यशः) संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप जसो होता है । इसमें सूत्र-संस्था १-२४५ से '' के स्थान पर '' की प्राप्ति 1-२६० से 'श' के स्थान पर 'स' को प्राप्ति; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'म्' का लोप १-३२ से प्राकृत में प्राप्त रूप 'जस' को पुल्लिगस्य की प्राप्ति और.३-२ से प्रपमा विभक्ति के एक बहन में सकारात (में प्राप्त) पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जसो रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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