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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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'ई' प्राकृत-भाषा का अव्यय होने से रुक-रूपक एवं सह-अर्यक है। मतः सानिका की आवश्यकता नहीं है ।
गृहाण संस्कृत भाशार्थक रूप है | इसका प्राकृत रूप गह होता है। इसमें सूत्र संख्या ४.२०९ से 'मह' धातु के स्थान पर 'ग, {रूप का) आवेश; ४-२३९ से हलत ह. नविकरण प्रत्यप 'अ' को प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्ताप 'सु' का पंकलिक रूप से लोप होकर गेण्ह कम सिद्ध हो
आत्मनः संस्कृत बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप अपणो होता है। इसमें त्र-संख्या १-८४ से दोर्ष स्वर ओ' के स्थान पर हस्व स्थर 'अ' को प्राप्तिः २-५१ से संयुक्त व्यञ्जन रम' के स्थान पर की प्राप्ति २८. से प्राप्त 'प' के स्थान पर द्वित्व 'प' की प्राप्ति; और ३-५० से प्रथमा विभक्ति कंबहुवचन में संस्कृत प्रत्यय जस्' के स्थान पर प्राकृत में 'गो' प्रत्यय को प्राप्ति होकर अप्पणो रूप सिद्ध हो जाता है। . रिचा अवषय की सिदि सूत्र-संख्या १-८ में की गई है।
कथय संस्कृत आसार्थक रूप है । इसका प्राकृत रूप साहसु होता है । इसमे सूत्र-संख्या ४-२ से कप' पातु के स्थान पर प्राकृत में 'साह, आदेश ४.. ३९ से संस्कृत विकरण प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वितरण प्रत्यय 'थ' की प्राप्ति और ३-१७३ से आज्ञार्थक लकार में द्वितीय पुरुष के पचन में प्राकृत में 'सु' प्रत्यय को होकर साहन तित हो जाता है।
सभावम् संस्कृत द्वितीयान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप सम्भावं होता है। इसमें सब-संख्या २-७७ से '' का लोप; २-८९ से लोप हुए' के पश्चात् शेष रहे इए 'म' को विस्व भूभ' की प्राप्ति; २०१० से प्राप्त हुए पूर्व भ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति; ३-५, से द्वितीया विभक्ति के एक वपन में अकारान्त 'म' प्ररपय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' को अनस्वार होकर सम्भावं रूप सिद्ध हो जाता है।
निर्लज्ज ! संस्कृत संबोधनात्मक रूप है । इसका प्राकृत पनिल्ल होता है। इसमें सूत्र-संख्या २.७९ से ''का लोप; २.८९ से लोप हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ल' को द्विस्त्र हल' को प्राप्ति और ३.३८ से संबोधन के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'सि' का वैकल्पिक रूप से लोप होकर (R) निल्ला रूप लिस हो जाता है।
समपसर संस्कृत अ.जाक कर है । इसका प्राकृत रूप समोसर होता है। इसमें सूत्र-संस्पा १-१७२ से मध्यस्थ उपसर्ग 'अप' के स्थान पर प्रो' की प्राप्ति; ४-२३६ से 'समोसर' में स्थित अन्य हलन्त 'र' में विकरण प्रत्यय अ' को प्राप्ति और ३-१७५ से आज्ञार्थक सकार में द्वितीय पुरुष के एक वचन में प्राप्तध्य प्रत्यय 'सु' का धल्पिक रूप से लोप होकर समोसर रूप सिद्ध हो जाता है ।। २-१९७ ।।
हु खु निश्चय-वितर्क-संभावन-विस्मये ॥२-१९८॥ हु खु इत्येतो निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ ॥ निश्चये । पि हु अच्छिसिरी । तं सु