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________________ ५०८] * प्राकृत व्याकरण * सिरीएँ रहस्सं ॥ वितर्कः ऊहः संशयो वा । ऊहे । न हुणवरं संगहिआ । एनं खु हसइ । संशये । जलहरो खु धूमवडलो खु। संभावने । तरी उंग हुणवर इमं । ए खु हसाई || विस्मये । को खु एसो सहस्स-सिरो ।। बहुलाधिकारादनुस्वारात् परो हुने प्रयोक्तव्यः । अर्थः-'हु' और 'खु' प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त किये जाने वाले अव्यय हैं। इनका प्रयोग करने पर प्रसंगानुसार 'निश्चय' अर्थ; 'तात्मक' अर्थ; संशयात्मक' अर्थ, 'संभावना' अर्थ और विस्मय-आर्य अर्थ प्रकट होता है । 'निश्चय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:--स्वर्माप हु (एव) अछिन्न श्रीः= तं पिटु अचिन्नसिरी अर्थात् निश्चय ही तू परिपूर्ण शोभावाली है। त्वम् खु ( : खलु ) श्रियः रहस्यम् = तं खु सिरी रहस्सं अर्थात निश्चय ही तू संपत्ति का रहस्य (मूल कारण ) है । वितर्क अर्थक, 'साध्य-साधन' से संबंधित 'कल्पना' अर्थक और 'संशय' अर्थक उदाहरण इस प्रकार है:-(१) न हु केवलं संगृहोनान हु णवरं संगहिया अर्थात उस द्वारा केवल संग्रह किया हुआ है कि नहीं है ? एतं खु हमति = गुआं खु इस अर्थात क्या इस पुरुष के प्रति यह हंसती ! कि नहो हंसतो है ? संशय का उदाहरणः - जलधरः खु धूम पटलः खु = जलइरो खु धूम वडली खु अर्थात यह रावल है अथवा यह धुप का पटल है ? संभावना को उदाहरणः-तरितुन हु केवलम् इमाम = तरी ण हुणवर इमं अर्थात इस { मनी) को केवल सैरना (= तैरते हुए पार उतर जाना ) संभव नहीं है । एतं खु हमति = एअंखु हसह अर्थात (यस) इसके प्रति हंसती है. ऐसा संभव है । “विस्मय' का उदाहरणः- खलु एषः सहस्र शिराः = को खु एसो महस्स-मिगे अर्थात् आश्चर्य है कि हजार सिर वाला यह कौन है ? प्राकृत-साहित्य में 'बहुल' की अर्थात् एकाधिक रूपों की उपलब्धि है; अतः अनुस्वार के पश्चात् 'हु का प्रयोग नहीं कियाजाना चाहिये । ऐसे स्थल पर 'बु' का प्रयोग होता है। त्वम संस्कृत सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'त' होता है। इसमें मूत्र-संख्या ३-६० से 'युष्मद्' स्थानीय रूप 'स्वम्' के स्थान पर प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय का योग होने पर 'तं' श्रादेश की प्राप्ति होकर 'तं रूप सिद्ध हो जाता है। 'पि' अध्यय की सिद्धि सूत्र संख्या १-४१ में की गई है। हु' प्राकृत माहित्य का रुद-रूपक एवं रूद-अर्थक अव्यय है; अतः साधनिका की प्राघश्यकता नहीं है । कोई कोई खलु' के स्थान पर 'हु आदेश की प्राप्ति मानते हैं। अछिन्न श्रीः संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप अछिम्नसिरी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.२६० से 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ६-८४ से प्राप्त 'स्' में आगम रूप 'इ' को प्राप्ति; और ३.१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में दीर्घ ईकारान्त खोलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य दीर्घ स्वर 'ई को यथास्थिति की प्राप्ति होकर एवं १-५१ मे अन्त्य व्यंजन रूप विसर का लोप होकर अछिन्नसीरी रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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