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________________ [ ४१६ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित || एक स्वरे श्वः - स्वे ॥२- ११४॥ एक स्त्ररे पदे-यौ श्वस् स्त्र इत्येतौ तयोरन्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उद् भवति ॥ श्वः कृतम् सुर्वे कयं || स्त्रे जनाः । सुत्रे जया || एक स्वर इति किम् । स्व-जनः । म- यणो ॥ 1 अर्थः- अब 'श्वस्' और 'स्व' शब्द एक स्वर वाले ही हों अर्थात् इन दोनों में से कोई भी समास रूप में अथवा अन्य किसी रूप में स्थित न हो; और इनकी स्थिति एक स्वर वालो ही हो तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' अथवा 'स्' में श्रागम रूप 'ड' की प्राप्ति होती है । उदाहरण इस प्रकार है:- :- श्वः कृतम् - पुर्वकथं ॥ स्वेजनाः = सुत्रे जणा || प्रश्नः - 'एक स्वर वाला' ही हो; तभी उनमें श्रागम रूप 'ज' को प्राप्ति होती है; ऐसा क्यों कहा गया है ? उत्तरः- यदि श्वः और स्व शब्द में समास आदि में रहने के कारण से एक से अधिक स्वरों को उपस्थिति होगी तो इनमें स्थित संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में रहे हुए हलन्त व्यञ्जन 'शू' अथवा 'स' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:- स्व-जनः म यणो ॥ इस उदाहरण में 'स्व' शब्द 'जन' के साथ संयुक्त होकर एक पद रूप बन गया है; और इनसे इसमें तीन स्वरों की प्राप्ति जैसी स्थिति बन गई है; अतः 'स्व' में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'स्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति का भी अभाव हो गया है । यो अन्यत्र भो जान लेना एवं एक स्वर से प्राप्त होने वाली स्थिति का भी ध्यान रख लेना चाहिये । इक्षः (=श्वत्') संस्कृत अव्यय रूप है। इसका प्राकृत रूप सुवे होता है। इसमें सूत्र संख्या २- ११४ से संयुक्त व्यञ्जन 'व' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'श' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; ९-२६० से प्राप्त 'शु' में स्थित 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्तिः १ ५७ से 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और १-१२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'स' का लोप होकर. मुखे रूप सिद्ध हो जाता है । ni रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है। स्वे संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप सुवे होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१९४ से संयुक्त व्यञ्जन 'वे' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'सू' में आगम रूप 'उ' को प्राप्ति होकर मुवे रूप सिद्ध हो जाता है । जनाः संस्कृत रूप है ! इसका प्राकृत रूप जणा होता है। इसमें सूत्र संख्या १-२२६ से न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में और अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त और लुप्त 'जस्' प्रत्यय के कारण से अन्त्य स्वर 'भ' को दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति होकर जणा रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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