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________________ ४१८ ] * प्राकृत व्याकरण * कुछ संस्कृत शब्द ऐसे भी हैं, जिनमें 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होने पर भी उनके प्राकृत रूपान्तर में उनमें स्थित मंयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन में प्रांगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती है। जैसे:-सनम = सुरुग्धं । ऐसे उदाहरण 'तन्वी' आदि शब्दों से भिन्न-स्थिति वाले हैं । क्यों कि इनमें 'ई' प्रत्यय को प्राप्ति नहीं होने पर भी आगम रूप 'उ' को प्राप्ति संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्याजन में होती हुई देखी जाती है। आर्प-प्राकृत-रूपों में भी संयुक्त व्यञ्जन के पूर्व में स्थित हलन्त व्यन्जन में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होती हुई देखी जाती है। जैसे-सूक्ष्मम् = पार्ष-रूप) सुहुमं ।। तन्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप तगुवी होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-११३ से संयुक्न व्यम्जन 'बी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यजन 'न' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-२०० से प्राप्त 'नु' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति होकर तणुषी रूप सिद्ध हो जाता है। लाली संस्कृत रूप है ! इपका काकुन रूप लहुबी होता है । इसमें सूत्र-मंत्र्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'बी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'घ्' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति और १-१८७ से प्राप्त 'धु' में स्थित 'घ' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति होकर लहुवी रूप सिद्ध हो जाना है । ___ गुर्वी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप गस्त्री होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'र' में श्रागम रूप उ' की प्राप्ति; और १-२०० से 'गु' में स्थित 'उ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति होकर गरुवी रूप सिद्ध हो जाता है। पदवी संस्कृत विशेषण रूप है । इसका प्राकृत रूप बहुवी होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वी' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ह' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति होकर बहुवी रूप सिद्ध हो जाता है। पुहुयी रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१३१ में की गई है । मृवी संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप मउवा होता है । इसमें सुन्न-मरज्या १-१६ से 'मृ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-११३ से संयुक्त व्यञ्जन 'वो' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'द में अागम रूप 'उ' की प्राप्रि; और १-१७७ से प्राप्त 'दु' में से 'द' व्यञ्जन का लोप होकर मउसी रूप सिद्ध हो जाता है। त्रुघ्नम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप सुरुग्धं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-११३ की वृत्ति से संयुक्त व्यञ्जन “स्त्र में स्थित हलन्त पूर्व व्यञ्जन 'स' में आगम रूप 'उ' की प्राप्ति; २.७८ से 'न' का लोप; २-८८ से शेष 'घ को द्वित्व 'घध की प्राप्ति; २.६० से प्राप्त पूर्व 'घ' के स्थान पर 'ग' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्रामि और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर मुरुग्वं रूप सिद्ध हो जाता है। सहमं रूप की मिद्धि सूत्र-संख्या १-११८ में की गई है ॥२-११३।।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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