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________________ ४२० * प्राकृत व्याकरण * स्व-जनः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप स-यणो होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-5 से '' का लोप; १-१७७ से 'ज्' का लाप; १-१८० से लोप हुए 'ज्' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति; १.२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और ३-१ से प्रथमा विभक्ति के एक वर्ग में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर स-यणो रूप सिद्ध हो जाता है ।२-११४॥ ज्यायामीत् ॥२-११५॥ ज्याशब्द अन्त्य व्यजनात् पूर्व ईद् भवति ॥ जीश्रा । अर्थः संस्कृत शब्द 'ज्या' के प्राकृत रूपान्तर में संयुक्त व्यजन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज़' में सागम रूप 'ई' की प्राप्ति होती है । जैसे-ज्या जीपा ।। ज्या संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप जीया होता है । इसमें सूत्र-संख्या २.११५ से संयुक्त व्यञ्जन 'या' के पूर्व में स्थित हलन्त व्यञ्जन 'ज' में अागम रूप 'ई' की प्राप्ति और २.४ से 'य' का लोप होकर जीआ रूप सिद्ध हो जाता है ॥२-११५।। । करेणू-वाराणस्योर-पो यत्ययः ॥२-११६॥ अनयो रेफणकारयोर्व्यत्ययः स्थितिपरिसिर्भवति ।। ।। कणेरू । वाणारसी । स्त्रीलिङ्ग निर्देशात् पुसि न भवति । एसो करेणु ॥ अर्थः---संस्कृत शब्द 'करेणु' और 'वाराणसी में स्थित 'र' वर्ण और 'ण' का प्राकृत-रूपान्तर में परस्पर में व्यत्यय अर्थात् अदला-बदली हो जाती है । 'ण' के स्थान पर 'र' और 'र' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति हो जाती है । इस प्रकार की वर्णो सम्बन्धी परस्पर में होने वाली अदला-बदली को संस्कृत भाषा में व्यत्यय कहते हैं। ऐसे व्यत्यय का दूसरा नाम स्थित 'परिवृति' भी है । उदाहरण इस प्रकार हैकरेणुः = कणेरू । वाराणसी - वाणारसी। इन दोनों उदाहरणों में 'ण' और 'र' का परस्पर में व्यत्यय हुअा है। करेणु' संस्कृत शब्द के 'हाथी अथवा हधिनी' यो दोनों लिंग वाचक अर्थ होता है; तदनुसार 'र' और 'ण' वर्गों का परस्पर में व्यत्यय केवल स्त्रीलिंग वारक अर्थ में ही होता है । पुल्लिंग-वाचक अर्थ ग्रहण करने पर इन 'ण' और 'र' वर्गों का परस्पर में व्यत्यय नहीं होगा। जैसे:-एषकरेणुः एसो करेणू यह हाथी॥ करेणुः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप-(स्त्रीलिंग में ) कणेरू होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-११६ से 'र' वर्ण का और 'रण' वर्ण का परस्पर में व्यत्यय और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में उकारान्त स्त्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर अन्त्य इस्त्र स्वर 'उ' को दीर्घ स्वर 'क' की प्राप्ति होकर कणेरू रूप सिद्ध हो जाता है। पाराणसी संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप वाणारसी होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-११६ से ।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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