SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 407
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ સરસ્વતિશ્કેન મણીલાલ શાર્ક * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * स्थान पर 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिहली रूप सिद्ध हो जाता है। कहावणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २-७ में की गई है। ॥ २-६३ ।। धृष्टद्युम्ने णः ॥२-६४॥ धृष्टद्युम्न शब्द प्रादेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति ।। धज्जुणरे ॥ अर्थः--संस्कृत शठन धृष्टय म्नः के प्राकृत रूपान्तर धटुज्जुणों में संयुक्त व्य-जन ‘म्न' के स्थान पर 'ण' आदेश की प्राप्ति होने पर इस आदेश प्राप्त 'ण' को द्वित्व 'णण' की प्राप्ति नहीं होती है। जैसे:धृष्टद्य स्नान्धट्ठन्जुणो ॥ पृष्टयुम्नः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप धटुज्जुण होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१२६ से ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से संयुक्त व्यन्जन 'ष्ट' के स्थान पर 'ठ' की प्राप्ति; २-८६ से भाप्त 'उ' को द्वित्व 'ठ्ठ की प्राप्ति; २-६० से प्राप्त पूर्व 'लू' को 'ट्' की प्राप्ति; २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन 'च,' के स्थान पर 'ज्' की प्रापि, २.से प्राप्त होता जाति, ३. १२ से पंगुत, साजन 'म्न' के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकाराप्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर घट्ठाजुणो रूप की सिद्धि हो जाती है । ॥२-४|| कर्णिकारे वा ॥२-६५ ॥ कणिकार शब्दे शेषस्य णस्य द्वित्वं वा न भवति ।। कणि प्रारी करणारी ।। अर्थ:--संस्कृत शब्द कर्णिकार के प्राकृन रूपान्तर में प्रथम रेफ रूप 'र' के लोप होने के पश्चात् शेष रहे हुए 'ण' वर्ण को द्वित्व की प्राप्ति विकल्प से होती है । कभी हो जाती है और कभी नहीं होती है। जैसे:--कर्णिकारः करिणबारो अथवा करिणआरो॥ कर्णिकार संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप कणिमारो और करिणश्रारो होते हैं। इन में से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७६ से '' का लोप; २-५७७ से द्वितीय 'क' का लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्रानि होकर प्रथम रूप कणिआरी सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप कणिणधारो को सिद्धि सूत्र संख्या १-१६८ में की गई है। ।। २-६५ ॥ दृप्ते ॥ २-६६ ॥ दप्तशब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति ।। दरिय-सीहेण ।।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy