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________________ २७० ] * प्राकृत व्याकरण * अथवा वीओ || कृदन्त वाचक 'य' प्रत्यय का उदाहरण: - या = पेज्जा अथवा पे || उपरोक्त सभी उदाहरणों में 'य' वर्ण को द्वित्व 'उ' की विकल्प से प्राप्ति हुई है। +++ उत्तरीयम् संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप उत्तरज्जं अथवा उत्तरीयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्तिः १-२४८ से विकल्प से 'व' को द्वित्व 'ज्ज' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर प्रथम रूपं उत्तरिज्जं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप में १०१७७ से 'यू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर उसरीअं रूप जानना । करणीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप करणिज्जं अथवा करणीयं होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को हस्व स्वर 'इ' की प्राप्तिः १-४८ से विकल्प से 'य' को द्वित्व 'ज' की प्राप्तिः ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुवार होकर प्रथम रूप करणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप करणीओ में सूत्र संख्या १-१७७ से 'यू' का लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होती है । विस्मयनीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप विम्यगिज्जं अथवा विम्हायणी होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या २-७४ से 'रम' के स्थान पर 'म्ह' को प्राप्ति २-२२८ से 'न' का 'ण'; १-८४ से दीर्घ स्वर 'ई' को ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति -२४८ से द्वितीय 'य' को विकल्प से द्वित्व 'ज्ज' की प्रामि ३०२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप विम्यणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य्' का विकल्प से लोप और शेप सिद्धि प्रथम रूप के समान ही होकर विम्यणअं जानना । यापनीयम् संस्कृत कृदन्त रूप है। इसके प्राकृत रूप जवणिज्जं अथवा जवणी होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या १-२४५ से आदि 'य' को 'ज' की प्राप्तिः १-८४ से दीर्घ स्वर 'आ' को 'अ' को प्राप्ति; १-२३१ से १' का 'व'; १-२२ से 'न' का ''; १-८४ से दीर्घ 'स्वर' 'ई' को ह्रस्व 'इ' की प्राप्तिः १-२४= से वैकल्पिक रूप से द्वितीय 'य' को द्वित्व 'ज' की प्राप्ति ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारांत नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-०३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप जवणिज्जं सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप में सूत्र संख्या १-१७७ से द्वितीय 'य्' का विकल्प से लोप और शेष सिद्धि प्रथम रूप के समान होकर जवणीअं सिद्ध हो जाता है ।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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