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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [३२५ रहे हुए 'अ' को 'य' की प्राप्ति; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सिं प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय को प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर राय-पट्टयं रूप सिद्ध हो जाता है। नर्तकी संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप नट्टई होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३० से संयुक्त च्यञ्जन 'तं के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति; २-८८ से प्राप्त 'ट' को द्विन्द 'दृ' को प्राप्ति; १-१७७ से 'क' का लोप होकर नई रूप सिद्ध हो जाता है। संवर्तितम संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृन रूप संवट्टि होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-३ से संयुक्त व्यञ्जन 'त' के स्थान पर 'द' की प्राप्ति :-८६ से प्राप्त 'ट' को द्वित्व 'दृ' को प्राप्ति; 1-१७७ से द्वितीय त्' का लोप; ३-५ से प्रथमा विभक्ति के थक ववन में अकारान्त नपुमकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म् प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर संवट्टिभ रूप सिद्ध हो जा है। धुत्तो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-१७५ में की गई है। कीर्तिः संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप कित्ती होता है । इममें सूत्र संख्या १-८८ से 'की' में स्थित दीघस्वर 'ई' के स्थान पर हरव स्वर 'इ' की प्राप्तिः -७६ मे 'र' का लोप २-८ मे 'त' को द्वित्व 'स' की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में इकारान्त श्रीलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' को दीर्घस्वर 'ई' की प्राप्ति होकर कित्ती रूप सिद्ध हो जाता है। पार्ता संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप बत्ता होता है । इसमें सूत्र संख्या १-६४ से 'वा' में स्थित 'या' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-७६ से 'र' का लोप और २-८८ से लोप हुए 'र' में से शेष रहे हुए 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्ति होकर वत्ता रूप सिद्ध हो जाता है। आवर्तनम् संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप आवत्तणं होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः २-म से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' का 'ग'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक बचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से पाप्त 'म' का अनुस्वार होकर आपत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। निषर्तनम संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप निवत्तर्ण होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७ से 'र' फा लोप -८८ से 'त' को द्वित्व 'त' की प्राप्तिः १-२२८ से 'न' का 'ग'; ३.२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से माप्त 'म्' का अनुस्वार होकर निवत्तणं रूप सिद्ध हो जाता है। प्रवर्तनम् संस्कृत रूप है। इसका प्राकृत रूप पवत्तणं होता है। इसमें सूत्र-मंख्या २-5 से 'प' में स्थित 'र' का और 'त' में स्थित 'र' का-दोनों का लोप:२-६ से 'त' को द्वित्व 'त्त' की प्राप्ति; १.२२से
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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