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________________ १० ] * प्राकृत व्याकरगा प्रश्न:- विजातीय' अथवा 'अस्व' स्वर का उल्लेख क्यों किया गया है ? उत्तर:- 'इ' वर्ग अथवा 'उ' वर्ण' के आगे विजातीय स्वर नहीं होकर यदि 'स्वजातीय' स्वर रहे हुए हों इनकी परस्पर में मंधि हो जाया करती है । इस भेद को समझाने के लिये 'अस्व' अर्थात् 'विजातीय' ऐसा लिखना पड़ा है। उदाहरण इस प्रकार है-पृथिवीशः ही इस उदाहरण में 'दुहवी सो' शब्द है + इनमें 'बी' में रही वर्ष दोघं 'इ' के साथ आगे रहो हुई दीवं 'ई' को संधि की जाकर एक ही वर्ण 'वो' का निर्माण किया गया है । इससे प्रमाणित होता है कि स्वं जातीय स्वरों की परस्पर में संधि हो सकती है। अतः मल सूत्र में 'अ' लिल कर यह स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि ब-जातीय स्वरों की संधि के लिये प्राकृत भाषा में कोई नहीं हैं। न वैरि-ये अवकाशः संस्कृत वाक्य है। इसका प्राकृत कम न वैरियमेव अवयास होता है। इसमें सूत्र संस्था - १-१४८ से 'ए' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति २-७९ से 'र्' का लोप २-८९ से शेष 'ग' को द्विश्वम्प' को प्राप्ति १-४१ से 'अभिग्यय के 'म' का लोप १-२३१ से १' का '' १-१७७ से 'कु' का लोग ११८० से लोप हुए 'कु' में से शेष रहे हुए 'अ' को 'य' को प्राप्ति १२६० से 'या' को 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभवित के एक वचन मे अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रस्थय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'न वेरि-घग्गे वि अवयासी' रूप सिद्ध हो जाता है। धन्दामि आर्य येरम् संस्कृत रूप है इसका प्राकृत रूप बन्दामि अन्न बहर होता है। इसमें क संस्था १-८४ से 'मार्च' में स्थित दीर्घ वर 'अ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति २-२४ से संयुक्त व्यञ्जन '' के स्थान पर 'न' की प्राप्ति २८९ 'ज' को विश्व 'पत्र' की प्राप्ति १५२ से '' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृत प्रत्यक्ष 'अम्' के स्थान पर 'म' की प्राप्ति और १२३ के प्राप्त 'पू' का अनुस्वार होकर 'पन्दामि भज-वह कप सिद्ध हो जाता है। . इग्य-दहिए-लिलो होता है। लोप; १ ८४ मे कोष हुए का सोप १-१८७ से '' दनुजेन्द्र- रुधिर-लिप्तः सं कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप व इसमें सूत्र - संख्या - १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति १-१७७ से 'जू' का ''शेष रहे हुए 'ए' स्वर के स्थान पर इस्वर को प्राप्ति २७९ के स्थान पर है' की प्राप्ति २७७ से ''कालो २८९ से दोष' को विश्व 'स' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दणु-इन्द्र- रुहिर- लित्तो रूप सिद्ध हो जाता है । राजते संस्कृतकिया का रूप है। इसका प्रतरूपसह होता है। इसमें सूत्र-संख्या ४-१०० 'राज' धातु के स्थान पर 'सह' का आदेश ४-२३९ से हल पातु 'सह' के अन्त्यवर्ग 'ह' में अ' की प्राप्ति और २-१३९ वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक बचन मे संस्कृत प्रथम 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सड़ कप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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