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________________ ३६४ ] संख्या २-६७ से 'क' वर्ण को वैकल्पिक रूप से वि फ्फ' की प्राप्तिः २०६० से प्राप्त पूर्व 'फ' को 'प्' की प्राप्ति और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से ब-फली और बद्ध फलों दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । * प्राकृत व्याकरण * मलय-शिखर-खण्डम, संस्कृत रूप है । इसके प्राकृत रूप मलय सिहर खण्डं और मलय - सिहरखण्डं होते हैं । इनमें सूत्र-संख्या १-९६० से श' का 'स' १६७ से प्रथम 'ख' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति २-६७ से द्वितीय ख' के स्थान पर बैकल्पिक रूप से द्वित्व "खूख" की प्राप्ति २-६० से प्राप्त द्वित्य में से पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३ २५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से मलय- सिहर- क्खण्डं और मलय सिहर खण्डं दोनों रूप सिद्ध हो जाते हैं । प्रमुक्तम संस्कृत विशेषण रूप है। इसके प्राकृत रूप पम्मुकं और पसुक होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या २-७६ से 'र' का लोप; २-६७ से 'मू' को बँकल्पिक रूप से द्वित्व 'म' की प्राप्ति; २०६० से प्राप्त 'क' को द्वित्व 'कूकू की प्राप्ति २-२ से संयुक्त व्यञ्जन 'क्त' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १ - २३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर क्रम से पक्कं और पक्कं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती हैं। अदर्शन संस्कृत रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रम और असणं होते हैं। इनमें सूत्र संख्या २-६७ से 'द व के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्रव 'द' की प्राप्तिः १ - २६ से प्राप्त द्वित्व 'द' अथवा 'द' पर आगम रूप अनुस्वार की प्राप्ति २-७६ से 'र' का लोप; १-२६० से 'श' का 'स'; १-२ = से 'न' का 'ण'; ३ -२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'भू' का अनुस्वार होकर क्रम से अहंसणं और असणं दोनों रूपों की सिद्धि हो जाती है । प्रतिकुलम संस्कृत विशेष रूप है। इसके प्राकृत रूप पडिक्कूल और पडिकूल होते हैं । इनमें सूत्र - संख्या २७६ सेर' को लोप; १ २०६ से 'त' के स्थान पर 'ड' की प्राप्तिः २-६७ से 'क' वर के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'क' की प्राप्तिः ३-९५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसक लिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' को अनुस्वार होकर पक्कू और कूल दोनों रूपों की मिद्धि हो जाती है । त्रैलोक्य संस्कृत रूप हैं। इसके प्राकृत रूप तेल्लोक और तेलोक होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या-२-७६ से 'र्' का लोपः १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्व स्वर 'ए' की प्राप्ति २-६७ से 'ल' वर्ण के स्थान पर वैकल्पिक रूप से द्वित्व 'ल्ल' को प्राप्तिः २७ से 'यू' का लोपः ३-२५ 木
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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