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________________ * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * [ ३६५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुसकलिंग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की माप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म्' का अनुस्वार होकर प्रथम रूप तेलोकं सिद्ध हो जाता है। द्वितीय रूप तेली की सिद्धि सूब-संख्या १-६४८ में को गई है ॥२-६७॥ तैलादौ ॥२-६ ॥ तैलादिप अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च व्यजनस्य द्वित्वं भवति ॥ तेन्ले । मण्डक्की | वइल्लं । उज्जू । बिड्डा । वहुत्तं ॥ अनन्त्यस्य । सातं । पेम्मं । जुब्वणं ।। आर्षे । पडिसोओ। विस्सो प्रसिश्रा ।। तैल | मण्ड्रक । विचकिल । ऋजु । ब्रीडा । प्रभूत । स्रोतम् । प्रेमन् । यौवन । इत्यादि। ___ अर्थ:-संस्कृत भाषा में तैल आदि अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके प्राकृत रूपान्तर में कभी कभी तो अन्त्य व्यजन का द्वित्व हो जाता है और कभी कभी अनन्त्य अर्थात् मध्यस्थ व्यजनों में से किसी एक व्य-जन का द्वित्व हो जाता है । अन्त्य और अनन्त्य के संबंध में कोई निश्चत नियम नहीं है। अतः जिस व्यन्जन का द्वित्व देखो, उसका विधान इस सूत्र के अनुसार होता है; ऐसा जान लेना चाहिये । इममें यह एक निश्चित विधान है कि आदि व्यन्जन का द्वित्व कभी भी नहीं होता है। इसीलिये दृसि में "अनादौ" पद दिया गया है। द्विर्भाव-स्थिति केवल अन्त्य ग्यजन की अथवा अनन्त्य याने मध्यस्थ ध्यान की ही होती है। इसके लिये वृत्ति में "अया-दर्शनम्" "अन्त्यम्य" और "अनन्त्यस्य” पद दिये गये हैं; यह ध्यान में रहना चाहिये । जिन शब्दों के अन्य व्यजन का द्वित्व होता है; उन में से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:--लम्-लेल्लं । मण्डूक:-मण्डुक्को ॥ विचकिलम् =वेहल्लं ॥ ऋजुः = उज्जू ॥ प्रीडा= विड्डा ।। प्रभूतम् = बहुत ॥ जिन शों के अनन्त्य व्यजन का द्वित्व होता है। उनमें से कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं:-स्रोतम् -मोत्तौं । प्रेमन-पेम्म ॥ और यौवनम्: जुब्बणं ॥ इत्यादि ।। श्रा-प्राकृत में "प्रतिस्रोतः" का "पडिपोप्रो" होता है, और "विस्रोतसिका" का "विस्सोअसिया" रूप होता है । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि इन में अनन्त्य व्यन्जन का द्वित्व नहीं हुआ है; जैसा कि ऊपर के कुछ उदाहरणों में द्वित्व हुआ है । अतः यह अन्तर ध्यान में रहे। लम संस्कृति रूप है। इसका प्राकृत रूप तल्लं होता है। इसमें सून संख्या १-८४ से दीर्घ स्वर 'ऐ' के स्थान पर हस्य स्वर '' की प्राप्ति; २.१८ से 'ल' व्यन्जन के स्थान पर द्वित्व 'ल्ल' की प्राप्ति ३-२५ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त नपुंसकलिंग में 'मि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त 'म' का अनुस्वार होकर तेल्लं रूप सिद्ध हो जाता है। मण्डूकः संस्कृत रूप है । इसका प्राकृत रूप मण्डनको होता है। इसमें सूत्र संख्या २-१८ से अन्त्य उपञ्जन 'क' को द्वित्व 'क' की प्रारि और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में अकारान्त पुल्लिग में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर मण्डको रूप सिद्ध हो जाता है।
SR No.090366
Book TitlePrakrit Vyakaranam Part 1
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorRatanlal Sanghvi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages610
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size17 MB
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